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मुहम्मद तुगलक और जैन धर्म : ७९ का प्रमाण है कि जैनियों के प्रति असीम सहिष्णुता दिखाकर भी सुल्तान ने अवश्य ही उनसे ज़ज़िया लिया होगा, क्योंकि वह इस्लाम धर्म के सिद्धान्त का कट्टर पक्षपाती था। मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद जैन सम्बन्धों के इस गौरवपूर्ण अध्याय की समाप्ति हो गई। सन्दर्भ : १. रहला II, इब्नबतूता, (अनु० आगा मेंहदी हुसैन), बड़ौदा, १९५३, पृ० १६४.
फुतूहस सलातीन, इसामी, सम्पादन-एम० उषा, मद्रास, १९४८, पृ० ५१५. ३. आर्कियालाजी एण्ड मानुमेन्टल रिमेन्स ऑफ देहली, कार स्टेफेन, इलाहाबाद,
१९६७, पृ० ४१, ४२, ४५, पाद् टिप्पणी - १. ४. लिट्रेरी सर्कल आफ महामात्य वस्तुपाल एण्ड इट्स कन्ट्रीब्यूशन टू संस्कृत
लिट्रेचर, भारतीय विद्याभवन, जैन सिंघी सिरीज, नं० ३३, पृ० ३१, प्रबन्धचिन्तामणि, मेरुतुंग, अनु० टावनी, कलकत्ता, १९०१, पृ० १६४-१६५. जैनिज्म इन गुजरात, सी०बी० सेठ, १९५३, पृ १७९, पी० एल० गुप्ता, इण्डियन क्वायन्स (थीसिस), पृ० ११८. कुतुबदीन सुरतान राउ रजिउसमणोहक जगि पचडऊ जिनचन्द्र सूरि सुरहि सिंह सहेरु (श्री निजकुशलय सूरि पट्टाभिषेक रास) ढिल्लीपुरे दान गुशौ वदीन्य श्री गयास साहि क्षितिपाल मान्य: सहि भिद्दोड भूद भूवि टंकशाली गागोय पन्ति मर्ल शील शाली (जर्नल आफ मध्य प्रदेश परिषद्, जि० ४, पृ० ८७) प्रोसीडिंग्स आफ इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस, १९४१, पृ० ३०१-३०२. तुगलक डायनेस्टी, आगा मेंहदी हुसैन, कलकत्ता, १९६५, पृ० ३१५-३१७.
प्रो० इ०हि०कां०, १९४१, पृ० ३०१-३०२. ११. वही, १९४१, पृ० २९६-२९७. १२. वही, १९४१, पृ० २९६-२९९. १३. तेर पंचा सियई पोस सदि आटमिसणिहि वारो/मेटिऊ असपते महमदों सुगुरिढोलिय
नयरे श्री मुखि सलहिरू पातसाहि विविध वरि सुसि सोहीं। देई फरमारतु अनु
कारवईनववसति राय सुजारतु। (उद्धृ प्रो० इ०हि० कां० १९४१, पृ० २९६) १४. विविध तीर्थकल्प, जिनप्रभ सूरि, शान्तिनिकेतन, १९३४, पृ० ४५-४६.
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