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________________ ७८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ प्रसिद्ध जैन आचार्य जिनदेव का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने अपनी योग्यता से दरबार में ऊंचा पद प्राप्त किया था।२४ उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें एक सराय दान में दिया गया, जो कि बाद में 'सुरभाणसराय' कही जाने लगी। सुल्तान ने इन्हें शाही फरमान देकर पुन: जैन चैत्यों की सुरक्षा का आश्वासन दिया।२५ सादादी में प्राप्त अभिलेख से विदित होता है कि सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने एक जैन साधु को राजस्थान और कुछ अन्य स्थानों में तीर्थयात्रा करने के लिए एक फरमान दिया था।२६ भावनगर अभिलेख में सुल्तान मुहम्मद की प्रशंसा करते हुए, उसे जैन समुदाय के प्रति अनेक उदार कार्य करने तथा संकट-काल में दानघर निर्माण कराने का श्रेय दिया गया है। इसी अभिलेख में सुल्तान द्वारा गुणराज नामक व्यक्ति को शाही फरमान देने का विवरण मिलता है।२७ __ . यह कहना कठिन है कि किस प्रकार सुल्तान जैन-संघ की ओर आकर्षित हुआ। सम्भवतः जिनप्रभ सूरि के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उसने जैन धर्म और जैन समुदाय को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की। यह निर्विवाद सत्य है कि सुल्तान मुहम्मद तुगलक संस्कृत, प्राकृत भाषाओं को अच्छी तरह जानता था एवं ज्ञानी आचार्य भी फारसी भाषा समझते थे, तभी तो शाही दरबार में दोनों के बीच धार्मिक वाद-विवाद हो सकता था। मुहम्मद तुगलक को धार्मिक शास्त्रार्थ में रुचि थी। इसी रुचि के कारण वह अनेक विद्वानों को शाही प्रश्रय देता रहा होगा। इससे संस्कृत और प्राकृत भाषा के विकास में सहायता मिली होगी। जैनियों के प्रति अपनाई गयी उदार और सहिष्णुता की यह नीति मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक अनूठी घटना है, जिसपर अविश्वास नहीं किया जा सकता। जैन आचार्य और सुल्तान के सम्बन्ध, शाही जुलूसों के भव्यता के साथ निकलने में अमीरों का हिस्सा लेना, मन्दिरों का निर्माण, जैन-तीर्थों की सुरक्षा के लिए फरमानों और.आश्वासनों का मिलना, इस बात का प्रतीक है कि मुहम्मद तुगलक न केवल उदार, विद्वान, धर्मसहिष्णु-शासक था, अपितु वह पूर्णत: धर्म-निरपेक्ष शासन की स्थापना करना चाहता था, जहाँ योग्यता और समानता को महत्त्व मिल सके। समकालीन मुस्लिम-समाज तथा रूढ़िवादी उलेमा वर्ग ने उसके इन कार्यों को धर्मविरोधी समझा और सम्भवत: इसी कारण वे उसके विरोधी हो गये होंगे। सुल्तान के उदारता की पराकाष्ठा तो तब दिखलाई पड़ती है जब वह शत्रुजय, पालिताना आदि में मन्दिरों में मूर्तिपूजा के विधि-विधान को सम्पन्न कर रहा था। साथ ही यह भी आश्चर्यजनक लगता है कि जैनियों के इतने निकट होने पर भी सुल्तान की नीति पर अहिंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह भी स्पष्ट नहीं है कि जैनियों को जजिया या तीर्थ-यात्रा-कर देना पड़ता था। चीनी सम्राट से ज़ज़िया की माँग करना, इस बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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