SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ अनुबद्धतावाद में एक तार्किक दोष है जो इतना गंभीर है कि वह इस वाद की प्रच्छन्न अनैतिकता को दर्शाता है। प्रत्येक अनुबन्ध में दो पक्ष होते हैं जो अपनी अपनी लागत/लाभ अनुपात (cost/benefit ratio) निर्धारित करते हैं। दोनों पक्ष स्वेच्छा से अनुबन्ध के लिए राजी होते हैं। परिस्थिति के अनुसार मजबूरी से थोड़ी सी हानि या असुविधा को स्वीकारना पड़ता है। फिर भी यदि एक पक्ष को पूरा लाभ ओर दूसरे पक्ष को पूरी लागत (अर्थात हानि) हो तो स्वेच्छा से कोई अनुबन्ध नहीं हो सकता। पालतू जानवरों का मानव के साथ स्वेच्छा से किया गया कोई अनुबन्ध नहीं है। गाय-भैंस पालनेवाला अपने लाभ का बड़ी सूक्ष्मता से निर्धारण करता है। जानवरों को मिलनेवाला सुरक्षित आश्रय, दाना-पानी आदि उनका लाभ बताया जाता है। वास्तव में यह भी मानव के लिए लागत के रूप में निर्धारित किया जाता है। अतः यह इकतरफा अनुबन्ध है तथा इसमें नैतिक मूल्य दिखाना तर्कसंगत नहीं है। यह सच है कि पालतू जानवर अब फिर से जंगल में नहीं रह सकते। इस लिए यदि उनके हित का उदारता से एवं पूरी सहानुभूति के साथ ध्यान रखा जाए तो मानव को अपराध भावना का अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है। क्या तोते को पिंजरे में मनोरंजन के लिए रखना भी अनुबद्धता के अनुसार समर्थनीय है? क्या सर्कस में बाघ, सिंह, भालू आदि जानवरों के खेल से मनबहलाव करना न्यायोचित है? जंगलों में रहनेवाले जानवर स्वतंत्रता को सर्वतोपरि मानते हैं। पिंजरा खोलते ही ऐसे जानवर भाग जाते हैं। इसके विपरीत गाय, भैस आदि शाम ढलते ही स्वेच्छा से घर लौट आते हैं। अत: जंगली जानवरों को बंधन में रखना अनुबद्धतावाद के अनुसार भी समर्थनीय नहीं है। वैज्ञानिक अनुसंधान में खरगोश, चूहे आदि जानवरों की हिंसा अनिवार्य है। परन्तु अनुबद्धतावाद के अनुसार इसका समर्थन नहीं हो सकता। ३.मानवश्रेठतावाद-समग्र मानव जाति का हित सर्वतोपरि है क्योंकि हम ... सब एक ही सृष्टिकर्ता की सन्तान हैं, ऐसी उदात्त भावना सभी सभ्यताओं में गृहीत है। मानवश्रेष्ठतावाद इसी भावना पर आधारित है। मानवहित के लिए की गयी जीवहिंसा इस वाद के अनुसार पाप नहीं है। तथापि जीवों को अनावश्यक पीड़ा पहुंचाना ठीक नहीं है। मांस के लिए हो या वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए हो कम से कम पीड़ा पहुंचाकर जानवरों का प्रयोग सर्वथा उचित है। यदि कोई जीव गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो या अशमनीय व्याधि से पीड़ित हो तो उसे कम से कम दर्द पहुंचाते हुए 'छुटकारा' दिलाना इस वाद के अनुसार यथायोग्य है। पश्चिमी देशों में इस वाद को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है क्योंकि वह उनकी परम्परागत संस्कृति तथा धार्मिक भावनाओं से विसंगत नहीं है। फिर भी इसका नैतिक दृष्टि से समर्थन करना कठिन है। विविध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy