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________________ जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम : १५ मानव के सामने सबसे जटिल समस्या है - निसर्ग की देन में अपने न्यायोचित अंश का निर्धारण | क्योंकि मानव अन्य जीवों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण कर चुका है; अब पीछे हटने के अलावा कोई उपाय नहीं है । निसर्ग सम्पदा सीमित है। अतः उसी सीमा में अपनी जरूरतें समाये रखनी चाहिए। प्राचीन काल में दार्शनिकों ने जो नैतिक आचार निर्धारित किया था वह तत्त्वतः सही होने के बावजूद अब बदली हुई परिस्थितियों में कालबाह्य हो गया है। जीव विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान आदि ज्ञान - शाखाओं में परिणत लोगों के साथ यदि दार्शनिक समालोचन करें तो इस दिशा में बढ़ना सम्भव होगा। सब लोग एक ही गति से आदर्श की ओर नहीं बढ़ सकते। इसी को देखते हुए जैन दार्शनिकों ने दो प्रकार के आचार निरूपित किये थेसंसार के सभी बंधन तोड़कर मोक्ष को एकमात्र साध्य माननेवाले मुमुक्षु लोगों के लिए ( श्रमणों के लिए) श्रमणाचार तथा गृहस्थाश्रमी लोगों के लिए श्रावकाचार । अब बदली हुई सामाजिक परिस्थिति में कई प्रकार के पेशे और उद्योग विकसित हुए हैं। विधि द्वारा निर्दिष्ट नियम सबके लिए समान हैं तथा पूरी निष्ठा से उनका पालन करना होगा । न्यूनाधिक प्रमाण में सभी श्रावकों के नित्य - नैमित्तिक कामों में किसी न किसी प्रकार की हिंसा होती है । उसे न्यूनतम मात्रा में रखते हुए कई प्रकार के व्यक्तिगत आचार नियम निर्धारित करने होंगे। इस प्रकार न्यूनतम सामान्य आचार से भी अधिक कठोर अहिंसा के नियम अपना कर जीवन की सार्थकता बढ़ाने की गुंजाइश है। सन्दर्भ : १. ३. भगवद्गीता में आत्मतत्त्व को अच्छेद्य (जो काटा नहीं जा सकता), अदाह्य (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य (जिसे भिगोया नहीं जा सकता), अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता), तथा नित्य कहा गया है। जैसे जीर्ण कपड़े छोड़कर मनुष्य द्वारा नये कपड़े धारण किये जाते हैं उसी प्रकार पुनर्जन्मचक्र में देह बदलते हैं; देही अविक्रिय है। श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक, १८- २८. निःसन्देह यह परिवर्तन जैन-बौद्ध धर्मियों के प्रभाव के कारण हुआ। पशुबलि चढ़ाने वाला याजक अगले जन्मों में किस प्रकार अपने कर्मों का फल भोगता है। इसका रोचक एवं बोधप्रद वर्णन जैन पुराणों मिलता है। पशुप्रतीक के रूप में आटे का पशु बनाकर उसकी बलि चढ़ाना भी पाप माना गया है क्योंकि यज्ञ करनेवाला मन में पशु को ही मारता है। इस प्रकार की हिंसा को जैन दर्शन में संकल्पी हिंसा कहते हैं। जैन दर्शन में प्रस्तुत जीवों के वर्गीकरण के साथ इसकी तुलना करना उद्बोधक होगा। संवेदी चैतन्य त्रस जीवों का लक्षण है। इसी प्रकार विवेकी चैतन्य संज्ञी जीवों का लक्षण है। फिर भी संवर्धी, संवेदी तथा विवेकी चैतन्य को जीवद्रव्य से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व मानना युक्तिसंगत नहीं लगता क्योंकि ये लक्षण देह के हैं, देही के नहीं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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