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भमराना समूहथी शोभता वनवाळो, वहेती नदीओनां पाणीने अवाज दशे दिशामां संभळाता खलखल शब्दवाळो, स्थाने स्थाने विद्याधरोनी विशाल नगरनी पंक्तिनी शोभावाळो, विद्याने साधवामां उद्यत एवा विद्याधो वड़े रोकायेल एकांत स्थळवाळो, श्रेष्ठसिद्धायतनोथी शोभताचूलिकाना शिखरवाळो, सिद्धायतन पर प्रतिष्ठित जिन-बिम्बोनी पूजाने निमित्त विविधप्रकारना देवोनी श्रेणीओ वड़े शोभता गगनना विस्तारवाळो, केळघरमा रहेला विद्याधटो वड़े दरेक वनमा घणीवार प्रतिमध्याह्न पत्नीनी साधे करता सङ्गीतवाळो, स्थाने-स्थाने चारणमुनिओ वड़े अतिमधुर वाणी वड़े प्रारंभ करली देशना वड़े बोध-पमाडाता प्राणीओना समूहवाळो, पूर्वथी पश्चिम सागरने प्राप्त थवा वड़े जाणे चाड़ी खातो होय तेम सागरना मध्यदेश थी थईने भरतवर्षना बे विभाग करतो, सुविशाल दक्षिण अने उत्तर थी विभाजित पामेल बे श्रेणि वड़े शोभतो, आश्रित सर्वऋद्धिवाळो वैताढ्य नामनो पर्वत छे। हिन्दी अनुवाद : - इस भरतक्षेत्र में खेचरों की श्रेणी में मनोहर, दशो दिशाओं में विस्तृत कान्तिवाला, उच्च रूप्य के समूहवाला, झर-झर बहते हुए झरनों की आवाज से बाधित बनी हई दिशावाला, पुष्परस का पान करने में लंपट भ्रमरों से सुशोभित वनवाला, बहती नदियों के पानी की आवाज दशों दिशाओं में व्याप्त, स्थान-स्थान पर विद्याधरों की विशाल नगरपंक्ति से सुशोभित, विद्या को सिद्ध करने के लिए सदा उद्यमवन्त विद्याधरों द्वारा अवरुद्ध एकांत स्थानवाला, श्रेष्ठ सिद्धायतनों से सुन्दर चूलिका के शिखरवाला, सिद्धायतन पर प्रतिष्ठित जिन-विम्बों के पजानिमित्त विविधप्रकार के देवों की श्रेणिओं से मनोहर गगन विस्तारवाला, कदलीगृह में विद्याधरों द्वारा प्रति वन में प्रति मध्याह्न, बहुतबार पत्नी के साथ क्रीड़ा करते हुए, प्रतिस्थान पर चारणमुनि द्वारा अतिमधुर वाणी से देशना द्वारा प्राणिओं को बोधिबीज की प्राप्ति करानेवाला, पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त सागर के मध्यदेश से होकर भरतवर्ष का दो विभाग करता हुआ सुविशाल दक्षिण और उत्तर से विभाजित दो श्रेणि युक्त सुन्दर, सर्वऋद्धि समृद्धि से युक्त वैताढ्य नाम का पर्वत है। गाहा :- रत्नसंचयनगर
तत्थथि दक्खिणाए सेढीए खयर-लोय-पडिपुन्नं । भमिर-खयरंगणा-गण-नेउर-झंकार- रव-मुहलं ।।१८।। उत्तुंग-मगर-तोरण-असमाण-दुवार-देस-सोहेहिं । निच्चं विरायमाणं विज्जाहर-भवण-वंदेहिं ।।१९।। सयल-तइ-लोक्क-लच्छी-निय-निलयं रयणसंचयं नाम । नगरं नयर-गुणड्ढं पमुदिय-नर-नारि-संघायं ।।२०।।
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