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गाहा :
।। १०२।।
चिंतित्ता सुविण - फलं विगप्प- संकप्प- खित्त निय-चित्ता । जा चिट्ठामो अम्हे खणंतरं तत्थ ठाणम्मि ताव य वर-नेवत्थो महम्घ- आभरण- भूसिय- सरीरो सव्वोवि नयर - लोओ गंतु कत्थवि पयट्टोत्ति
।। १०३।।
छाया :
चिंतयित्वा स्वप्न फलं विकल्प-संकल्प - क्षिप्त- निज-चित्तौ ।
यावत्तिष्ठावः आवाम् क्षणान्तरं तत्र स्थाने
||१०२।।
||१०३।।
तावच्च वर- नेपथ्यो महार्घ्याभरणभूषित-शरीरः । सर्वोऽपि नगर- र-लोको गंतुं कुत्राऽपि प्रवृत्तः इति अर्थ :- स्वप्नना फलने विचारीने विकल्प अने संकल्पथी विक्षिप्त चित्तवाळा अमे ज्यांसुधी रह्या नेटलीवारमां एक क्षण पछी त्यां स्थानमां श्रेष्ठ वस्त्रो किमती - आभरणथी शोभता शरीरवाळा सर्वे पण नगर लोको क्यांय पण जवा माटे प्रवृत थया ।
हिन्दी अनुवाद :- स्वप्न के फल को सोचकर विकल्प और संकल्प से विक्षिप्त चित्तवाला मैं बैठा था, इतने में देखा कि श्रेष्ठ वस्त्र और कीमती आभरण से अलंकृत देहवाले सभी नगरवासी कहीं जाने के लिए प्रवृत्त थे।
गाहा :
तं दट्ठे मए भणियं सबाल - वुड्डो इमो जणो कत्थ ।
कय - उवसोहो वच्चइ साहसु भो भाणुवेगम्ह ? ।। १०४ । ।
छाया :
तं दृष्टवा मया भणितं स बाल-वृद्धो अयं जनः कुत्र ।
कृतोपभिः व्रजति कथय भो भानुवेग ! अस्मान् ? ।। १०४ । ।
अर्थ :- ते जोईने मारा वड़े पूछायु ? “ आबाल-वृद्धे करेली विभूषावाळो आ लोक क्यां जाय छे ? हे भानुवेग ! ते अमने कहे । हिन्दी अनुवाद :- यह देखकर मैंने पूछा? “ अलंकृत देहवाले बालक - वृद्ध सभी लोग कहाँ जा रहे हैं ? हे भानुवेग ! तू मुझे बता । "
गाहा :
भणियं च तेण निसुणसु अज्जं जं मयण- तेरसी भद्द ! | तेण जत्ताए मयणस्स ।। १०५।। वच्चइ पमोया । कुसुमसर- जत्तं ।। १०६ ।।
मयरंदुज्जाण-ठियस्स एसो नर-नारि- गणो पूयत्थं तस्स अम्हेवि हु गच्छामो
पेच्छामो
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