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जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम
पश्चिम देशों में समर्थित तथा स्वीकृत मानवश्रेष्ठतावाद के अनुसार ऐसी हिंसा में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसमें मानव का हित है। भारतीय जनमानस इसे सम्मति नहीं दे सकता क्योंकि यहां की सांस्कृतिक विचारधारा अहिंसा तत्त्व पर आधारित है। फिर जिज्ञासापूर्ति तथा आयुर्विज्ञान की प्रगति के लिए जानवरों पर प्रयोग करना आवश्यक है। ऐसे प्रयोग जिनमें हिंसा अनिवार्य है, क्या उनपर प्रतिबन्ध लगना चाहिये ? जैवतंत्रज्ञान से विकसित विधि द्वारा समान आनुवंशिक गुणों के कई जीवों का ('क्लोन' का) निर्माण सम्भव है। क्या इस पर कानूनी प्रतिबन्ध लगना चाहिये ? धार्मिक पंथों के आचार्य इस बारे में मार्गदर्शन करने में असमर्थ हैं क्योंकि अधिकांश धार्मिक चिन्तक आधुनिक विज्ञान से अपरिचित हैं तथा आधुनिक तंत्रज्ञान और उसके अन्धाधुन्ध प्रयोग को समझ नहीं पाते।
३. समग्रता से जीवदया पर विचार
जैन श्रावकाचार में जीवदया पर जो बल दिया गया है वही वास्तव में वैज्ञानिक व्यवहारवाद को निरूपित करता है । निसर्ग की देन में अपना न्यायोचित अंश लेते हुए अन्य जीवों पर दयाभाव रखना ही वैज्ञानिक व्यवहारवाद का प्रमुख तत्त्व है। अतः यह वाद अन्य जीव-जन्तुओं के हित से विसंगत नहीं है। इस संदर्भ में मानव के न्यायोचित अंश का निर्धारण ही सबसे जटिल समस्या है। स्वार्थपरवशता के कारण मानव अपनी जरूरतें बढ़ा-चढ़ाकर निरूपित करते हुए अन्य जीवों के हक पर अतिक्रमण कर रहा है। आधुनिक विज्ञान एवं तंत्रज्ञान की क्षमताओं के परिप्रेक्ष्य में प्रमाद होने का भय निरन्तर बढ़ रहा है। अब तक निसर्ग को अपने अनुकूल ढालना तथा मानव समाज के लिए भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाना ही तंत्रज्ञान का एकमात्र लक्ष्य समझा जाता था। परन्तु अब ऐसी धारणा गलत साबित हुई है। मानव निसर्ग का ही एक अंग है। अतः निसर्ग को हानि पहुंचाकर सुख पाना सम्भव नहीं है। निसर्ग को वश में लाना जैसी उद्घटता स्वघातक है। अन्य जीवों के हित की रक्षा में ही मानव का सुख समाविष्ट है। इस वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए अब प्रबुद्ध एवं सुसंस्कृत मानव अपने हिस्से की सही मर्यादाएं स्वयं निर्धारित कर सकता है। इस संदर्भ में व्यक्तिगत आचार नियमों के साथ-साथ अपनी सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों पर भी पुनर्विचार करना होगा। अब तक आर्थिक विकास के नाम पर किये गये औद्योगीकरण के कई दुष्परिणाम सामने आये हैं जिनके कारण न केवल वर्तमान समाज अपितु भावी पीढ़ियां भी प्रभावित होंगी । १०
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हिंसा के कई प्रकार हैं जिनका वैज्ञानिक व्यवहारवाद के अनुसार विवेचन संक्षेप में देने का यहां प्रयास किया गया है। इसके परिशीलन से यह स्पष्ट होगा कि वैज्ञानिक व्यवहारवाद एवं श्रावकाचार में कोई बड़ा अन्तर नहीं है।
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