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________________ २४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ m ण य चिंतइ देहत्थं देहं च ण चिंतए किं पि। ण सगयपरगयरूवं तं गयरूवं णिरालंबं।। जत्थ ण झाणं झेयं झायारो णेय चिंतणं किं पि। ण य धारणावियप्पो तं झाणं सुटु भणिज्ज।।१८ अर्थात् जिसमें न साधक शरीरस्थ आत्मा का विचार करे न शरीर का विचार करे और न स्वगत या परगत रूप का विचार करे उसे रूपातीत ध्यान कहते हैं। जिसमें ध्यान, ध्याता, ध्येय आदि का कुछ भी विकल्प नहीं रहता, वही ध्यान श्रेष्ठ है। तात्पर्य है कि रूपातीत ध्यान में साधक परमात्मा रूप में स्थिति प्राप्त कर लेता है। सभी विकल्पों से उपरत होकर निरञ्जनत्व को प्राप्त कर लेता है। सन्दर्भ : १. · योगशास्त्र, ७/८, योगसार ९८, ज्ञानार्णव ३४/१. २. भक्तामर स्तोत्र २९. वसुदेवनन्दिश्रावकाचार ४७२-७५. ४. ज्ञानार्णव ३९.१४. द्रव्यसंग्रह, गाथा ४८ पर संस्कृत टीका। कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृष्ठ ३७७. तत्रैव टीका, पृष्ठ ३७७. मनोनुशासनम् ४.३३. कार्तिकेयानुप्रक्षा टीका, पृष्ठ ३७७. १०. द्रव्यसंग्रह, गाथा संख्या ५०. ११. ज्ञानार्णव ३१.१७. १२. वसुदेवनन्दिश्रावकाचार ४७६. १३. द्रव्यसंग्रह, गाथा-५६. १४. ज्ञानार्णव ४०.१६-१७ १५. योगशास्त्र १०.१ मनोनुशासन ४.२५ १७. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृष्ठ ३७८. १८. तत्रैव, पृष्ठ ३७८-७९ 3 5 १६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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