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रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान : २३
रूपातीत में बाह्य मन्त्रादि का आलम्बन नहीं लिया जाता है इसलिए इसे निरालम्बन तथा इसमें आत्मा का आधार लिया जाता है, इसलिए सालम्बन ध्यान कहने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है ।
३. रूपातीत ध्यान की प्रक्रिया रूपस्थ ध्यान में स्थिर चित्त तथा क्षीण विभ्रम वाला ध्यानी अमूर्त, अजन्मा और इन्द्रियों से अगोचर परमात्मा के ध्यान का आरम्भ करता है। यही रूपातीत ध्यान होता है। इस ध्यान में ध्यानी पहले अपने गुणों का विचार कर सिद्धों के गुणों का विचार करता है । तदनन्तर अपनी आत्मा, दूसरी आत्माएं तथा मुक्तात्माओं के बीच में गुणकृत भेद को दूर करता है। इसके पश्चात् परमात्मा के स्वभाव के साथ एक रूप से भावित अपनी आत्मा को परमात्मा के गुणों से पूर्ण करके परमात्मा में मिला देता है। जो ध्यानी प्रमाण और नयों के द्वारा अपने आत्मतत्त्व को जानता है, वह योगी बिना किसी सन्देह के परमात्मतत्त्व को जानता है। आकाश के आकार किन्तु पौगलिक आकार से रहित, पूर्ण, शान्त, अपने स्वरूप से कभी च्युत न होने वाला, अपने घनीभूत प्रदेशों से स्थिर, लोकाय भाग में विराजमान, कल्याणरूप, रोगरहित और पुरुषाकार होकर भी अमूर्त एवं सिद्ध परमेष्ठी का चिन्तन करें। समस्त अवयवों से पूर्ण समस्त लक्षणों से लक्षित तथा निर्मल दर्पण में पड़ते हुए प्रतिबिम्ब के समान प्रभाव वाले परमात्मा का चिन्तन करें। इस प्रकार निरन्तर अभ्यास वाला दृढ़मति साधक स्वप्नादि में भी उसी परमात्मा को प्रत्यक्ष करता है। जब अभ्यास से परमात्मा का प्रत्यक्ष होने लगे तो इस प्रकार चिन्तन करेंवह परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सिद्ध हूँ, साध्य हूँ और संसार से रहित हूँ । ऐसा चिन्तन करने से ध्याता और ध्यान के भेद से रहित चिन्मात्र स्फुरायमान होता है। उस समय ध्यानी मुनि पृथकपने को दूर करके परमात्मा के ऐसे ऐक्य को प्राप्त होता है, जिससे कि उसे भेद का भान नहीं रहता है। इस प्रकार का चिन्तन उसके मन में आ जाता है
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निष्कल - परमात्माहं लोकालोकावभासकः । विश्वव्यापी स्वभावस्थो विकारपरिवर्जितः । । "
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अर्थात् मैं लोक और अलोक को जानने वाला, देखने वाला, विश्वव्यापी, स्वभाव में स्थिर और विकारों से रहित परमात्मा हूँ।
४. उपलब्धि - रूपातीत ध्यान का प्रारम्भ परमात्मा के चिन्तन से होता है । रूपस्थ की अवस्था में ध्याता - ध्येय का भेद बना रहता है लेकिन रूपातीत ध्यान के सधते ही सारे विकल्प समाप्त हो जाते हैं और निरञ्जनत्व की प्राप्ति हो जाती है । आप्तवचन प्रमाण है -
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