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________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ २५. (i) पंचास्तिकाय, गाथा ९०-९१. (ii) आलापपद्धति, पृ. २१०. २६. (i) लघुजैनसिद्धान्त-प्रवेश-रत्नमाला, प्रश्न ७१, पृ. १४. (ii) आलापपद्धति, पृ. २१०. २७. अध्यात्मकमलमार्तण्ड, पृ. २१७. . द्वारा- जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, क्षु.जिनेन्द्रवर्णी, भाग- २, पृ. २४०, नई दिल्ली; १९९७. . २८. द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा १२. २९. आलापपद्धति, पृ. २२०. ३०. (6) पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) गाथा ११७. (ii) तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ४२. ३१. (i) पंचास्तिकाय, गाथा ७. (ii) समयसार, गाथा १०३. ३२. (i) पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) गाथा ५१-५२. (ii) वही ( उत्तरार्द्ध) गाथा १०१२-१०१३. ३३. पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) गाथा ८९ व ११७. ३४. समयसार (आत्मख्याति टीका): आ. अमृतचन्द्र, जयपुर; १९८३. ३५. समयसार कलश, आ. अमृतचन्द्र, इंदौर; १९९४ निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध- जब उपादान स्वयं कार्य रूप परिणमित न हो, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने पर जिस पर कारणपने का आरोप आता है उसे निमित्त कारण कहा जाता है। जब उपादान स्वयं कार्य रूप परिणमित होता है तब भाव या अभाव रूप किस उचित निमित्तकारण का उसके साथ सम्बन्ध है, उसका ज्ञान कराने के लिए उस कार्य को नैमित्तिक कहा जाता है। जैसे - मिट्टी से घट निर्माण में कुम्भकार निमित्तकारण है और घट रूप कार्य नैमित्तिक है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध में भी निमित्त-नैमित्तिक रूप कार्य का कर्ता नहीं होता, क्योंकि व्याप्य-व्यापक भाव के बिना कर्ता-कर्म सम्बन्ध घटित नहीं होता। ३६. समयसार, गाथा ८१-८१-८२. ३७. व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध: जो वस्तु कार्य रूप परिणमित होती है वह व्यापक है, उपादान है तथा जो कार्य होता है वह व्याप्य है, उपादेय है। जैस- मिट्टी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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