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________________ हिन्दी अनुवाद :- असदृश-दु:सह संताप से तप्त, टूटता हुआ भी मेरा मन उसके दर्शन की आशा से टूटा नहीं है, ऐसा मैं मानता हूँ। गाहा : सीयल-कर-नियरेणवि संतावं फेडिउं मह असत्तो। अह लज्जिउव्व चंदो अत्थ-गिरिं पाविओ तत्तो।। २४४।। छाया : शीतल-कर-निकरेणापि सन्तापं स्फेटयितुं ममाशक्तः । अथ लज्जितेव चन्द्रोऽस्तगिरि प्राप्तः तस्मात् ||२४४।। अर्थ :- शीतल किरणोना समूहवड़े पण मारा सन्तापने दूर करवा माटे असमर्थ थयेलो चन्द्र लज्जा पामेलानी जेम अस्तगिरि पर पहोंच्यो ।। हिन्दी अनुवाद :- शीतल किरणों के समूह भी मेरे सन्ताप को दूर करने के लिए समर्थ नहीं हैं, संताप को दूर न करने से लज्जित हुआ चन्द्र भी अस्तगिरि पर चला गया। गाहा : पच्चूस-गयवरुम्मूलियाए उड्डीण-ससि-विहंगाए । रयणि-लयाए गलतिव कुसुमाइं तारय-निहेण ।। २४५।। छाया : प्रत्यूष-गजवरोन्मूलितया उड्डीन-शर्शी-विहंगाः | रजनी-लतया गलन्तीव कुसुमानि तारक-निभेन ।।२४५।। (छलेन) अर्थ :- प्रभातमां सूर्यरूपी हाथी द्वारा नक्षत्र अने चन्द्र रूपी पलिओ उडाडवामा आव्या त्यारे रात्री रूपी लतामाथी फूलो जाणे के गळता न होय तेम ताराओ पडी गया ! हिन्दी अनुवाद :- सुबह में सूर्य रूपी हाथी ने नक्षत्र और चन्द्र रूपी पक्षिओं को उड़ा दिया उस समय रात्रि लता में से फूल की तरह तारे बिखर गये। गाहा : अह इंद-दिसा सहसा केसुय-सुय-तुंड-सच्छहा जाया । आसन्न-सूर-मंडल-वज्जरणत्थंव लोयस्स ।। २४६।। छाया : अथ इन्द्र-दिक् सहसा किंशुक-शुक-तुंड-सदृशा जाता। आसन्न-सूर्यमण्डल-व्यागरणार्थ-मिव लोकस्य ।।२४६।। अर्थ :- हवे पूर्व दिशा केसुडा ना फूल जेवी तथा पोपटना चांच जेवी एकदम ज थई गई। ते सूर्यमण्डल पासे छे एम लोकने कहेती ना होय तेवी लागती हती। 132 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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