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________________ ९० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ अति अल्प समय में वट वृक्ष का रूप लेने लगे। माता-पिता अपने पूर्व संकल्पानुसार अपने ८ वर्ष के बालक को उपा० राजसागर जी को समर्पित कर दिया १० वर्ष की आयु में वि० सं०१७५६ में उपा० राजसागर जी ने बालक देवचन्द्र को श्रमण दीक्षा देकर राजविमल नाम प्रदान किया। शीघ्र ही गच्छनायक आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने राजविमल को बड़ी दीक्षा प्रदान की। विशेष - (देवचन्द्र जी के जीवन से सम्बन्धित प्राप्त साहित्यों से ज्ञात होता है कि देवचन्द्र जी की छोटी दीक्षा उपा० राजसागर जी के कर-कमलों से संपन्न हुई, बड़ी दीक्षा गच्छ नायक जिनचन्द्र सूरि जी के द्वारा प्रदान की गई। पर गुरु के रूप में कहीं-कहीं पर पाठक दीपचन्द्र जी का व कहीं-कहीं पर उपा० राजसागर जी का उल्लेख मिलता है। अत: द्वादशांगी का तृतीय अंग-स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थानतृतीय उद्देश सूत्र नं ४२४ एवं देवचन्द्र जी द्वारा स्वीकृत किए गुरुत्व को दूरदर्शिता, निष्पक्षता से परिशीलन करने पर ज्ञात होता है कि साधक, आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से किसी भी साधक आत्मा को गुरु के रूप में स्वीकार करने हेतु स्वतंत्र है।) श्रमण बनने के पश्चात् मुनि राजविमल म० ने संयम जीवन के तीन प्रमुख लक्ष्य बनाए - १. उत्कृष्ट संयम साधना, २. आत्मज्ञानाराधाना, ३. समर्पण भाव से गुरु-सेवा। सभी धर्म दर्शनों में यह माना है कि गुरु के बिना ज्ञान असम्भव है, इसलिए कहा गया है कि "अज्ञान तिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया नेत्रमुन्वीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः। तित्थयरा समो सूरी" अत: बाल्यावस्था में स्मरण शक्ति विशेष तेज होती है। तीक्ष्ण बुद्धि, विद्या-अध्ययन के प्रति अगाध प्रेम देखकर दीक्षादाता राजसागर जी म० ने अपने स्वयं के द्वारा पूर्व सिद्ध शारदा मंत्र मुनि राजविमल जी म० को प्रदान किया। गुरुगम से प्राप्त मंत्र की साधना बेनातट (बिलाड़ा-राज) ग्राम में एकान्त भूमि में सिद्ध किया। मां भगवती ने अपनी अनन्त असीम कृपा का सागर उड़ेल कर प्रज्ञा-प्रतिमा को पूर्ण प्रौढ़ व निर्मल बना दिया। उसी कारण से जिस विषय का अध्ययन किया उसमें उनकी पारंगतता अप्रतिम सिद्ध हुई। त्रिवेणी गुरु (वाचक राजसागर जी, पाठक ज्ञान धर्म एवं दीपचंद जी म०) के ज्ञान गंगा में स्वयं को निमज्जित किया। अलौकिक ज्ञान रश्मियों से मात्र उन्नीस वर्ष की किशोरावस्था में ध्यान जैसे आध्यात्मिक, काव्यात्मक एवं वैदुष्यपूर्ण ग्रन्थ की अनुपम रचना कर डाली। अगाध अपरिमित ज्ञान गाम्भीर्य से प्रवाहित होकर धर्म संघ ने नमस्कार महामंत्र के चतुर्थ पद (उपाध्याय) से आपका बहुमान किया। आपश्री के जीवन में सबसे बड़ा सद्गुण विद्यादान था उसमें गच्छ/पंथ/ संप्रदाय की संकुचितता, संकीर्णता का अभाव था। साम्प्रदायिक औदार्य एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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