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________________ ४८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता (षड् भाषा - चन्द्रिकाकार), प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनि (प्राकृत- संजीवनीकार) और प्रकृतेः संस्कृतादागतं प्रकृतम् (वाग्भटालङ्कार- टीकाकार) आदि- ये सभी कथन संस्कृत को गंदला / विकृत करके बनी प्राकृत को ही अभिव्यक्त करते हैं। उपर्युक्त सभी संस्कृतज्ञ प्राकृत- वैयाकरणों ने सर्वसम्मति से प्रकृति का अर्थ संस्कृत किया है, जो सर्वथा अनुचित है। क्योंकि उपलब्ध संस्कृत कोशों में मुझे 'प्रकृति' शब्द का अर्थ संस्कृत देखने को नहीं मिला है। वास्तविकता यह है कि जनबोली प्राकृत में प्रचलित शब्दों को व्यवस्थित / संस्कारित करके जो भाषा तैयार हुई वह संस्कृत कहलाई । अपने इस कथन की पुष्टि के लिये मैं अपनी ओर से कुछ न कहते हुये केवल महाकवि रूद्रटकृत काव्यालङ्कार के एक पद्य की श्वेताम्बर जैन विद्वान् नमिसाधुकृत टीका (वि० सं० १९२५) को उद्धृत करना चाहूंगा। वे लिखते हैं कि - प्राकृतेति। सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनादित-संस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः । तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । ... प्राक् पर्व कृतं प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कार करणाच्च समासादित विशेषं सत्संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते । - काव्यालंकार, रूद्रट २/२, पृष्ट १३ अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों का व्याकरणादि संस्कार से रहित सहज वचन-व्याकरण प्रकृति है और उससे होने वाली अथवा वही प्राकृत है। 'प्राकृत' शब्द दो पदों से बना है- प्राक् + कृत । जिसका अर्थ है- पहले किया गया। बालकों और महिलाओं के लिये यह सहज है तथा समस्त भाषाओं का मूल (कारणभूत) है। यह प्राकृत मेघनिर्मित जल की भांति पहले एक रूप है, पुन: वही प्राकृत देश अथवा क्षेत्र विशेष और संस्कार विशेष के कारण भेद को प्राप्त करती हुई संस्कृत आदि उत्तर भेदों को प्राप्त होती है । इसीलिये शास्त्रकार रूद्रट ने पहले प्राकृत का निर्देश किया है और तत्पश्चात् संस्कृत आदि का । पाणिनी आदि व्याकरणों के नियमानुसार संस्कार किये जाने के कारण वही प्राकृत संस्कृत कहलाती है। तृतीय स्तरीय भाषा वह है जो प्रादेशिक भाषाओं से गृहीत शब्दों से निष्पन्न है। ये शब्द व्याकरण से अनिष्पन्न हैं और वस्तुतः ऐसे देशी शब्द जिनका सीधा सम्बन्ध विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं से जुड़ा हुआ हो, वे ही प्राकृत भाषा के जीवनाधायक तत्त्व हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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