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संस्कृत- माइतज्ञ-भियव्याख्यानि-जैनागमनिष्णात-पण्डित-मुनिश्री कन्हैयालालजीमहाराजविरचितया कल्पमञ्जरीत्याख्यया व्याख्यया समलङ्कतं
हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहितं पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराणविरचितं ॥ कल्पसूत्रम् ॥
(द्वितीयो भागः)
KALPASOOTRAM बम्बई-घाटकोपरनिवासि-श्रेष्ठि-श्री-माणेकलाल-अमूलखराय-महेताप्रदत्तद्रव्यसाहाय्येन अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल मङ्गलदासभाई-महोदयः
स मु० राजकोट पथमा आत्तिः
दीर संवत् विक्रम संवत्
ईस्वी सन् मति २०००
२४८५ २०१६
१९५९ Price: Rs. 20/
काशका
मूल्यम रु०२०)
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संस्कृतप्राकृतज्ञ-प्रियव्याख्यानि-जैनागमनिष्णात-पण्डित-मुनिश्री-कन्हैयालालजीमहाराजविरचितया कल्पमञ्जरी त्याख्यया-व्याख्यया समलङ्कतं
हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहितं पूज्यश्रीघासीलालजीमहाराजविरचितं
॥ कल्पसूत्रम् ॥
(द्वितीयो भागः) KALPASOOTRAM
प्रकाशकःबम्बई-घाटकोपरनिवासी श्रेष्टि-श्री-माणेकलाल-अमूलखराय-मेहताप्रदत्तद्रव्यसाहाय्येन अ.-भा.-श्वे.-स्था.-जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्तिः
वीर-संवत्
विक्रम संवत् प्रति १००० २४८५
२०१६ Price Rs. 20/ मूल्यम्-रू० २०J
ईस्वी-सन्
१९५९
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મા કામ
મામ
: Publishers : Shree A. B. S. Sthanakwasi Jain Shastroddbar Samiti
Near Green Lodge Rajkot (Saurashtra)
: પ્રાપ્તિસ્થાન : શ્રી અ. ભા. . સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ
ગ્રીન લોજ પાસે રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર)
FIRST Edition Copies 1000 Vir Samwat : 2485 Vikram Samwat: 2015 A. D.
: 1959
પહેલી આવૃત્તિ પ્રત ૧૦૦૦ વીર સંવત : ૨૪૮૫ વિક્રમ સંવત : ૨૦૧૬ ઇસ્વીસન : ૧૯૫૯
મુદ્રક અને મુદ્રણ સ્થાન: જાદવજી મોહનલાલ શાહ
નીલકમલ પ્રીન્ટરી ઘીકાંટા નગરશેઠ વંડા રેડ
અમદાવાદ,
: Printer : Jadavji Mohanlal Shah
at Nilkamal Printery Ghee kanta, Nagarseth Vanda Road
Abmedabad.
રામામ
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મેં ખોવ
આ અપૂર્વ કલ્પસૂત્ર આપ શ્રી સ ંઘાના કરકમળમાં મૂકાય છે. તેના પ્રથમ ભાગ અગાઉ અહાર પડેલ છે. અને આ બીજો ભાગ પૂર્ણ થાય છે. જેને અનેક સૂત્ર અને થાના આધારે પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ તૈયાર કરી સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કર્યાં છે. તેથી આપણા સમાજ તેઓશ્રીના સદા ઋણી છે. તે ઋણથી આપણે કદી મુક્ત થઇ ન શકીએ.
પ્રથમ ભાગ ઘાટકોપરના રહીશ સમાજ ભૂષણ મહાન સેવાભાવી, ધનિષ્ટ, પરમ ઉદાર, સંઘ આગેવાન શેઠ શ્રી માણેકલાલભાઈ અમુલખરાય મહેતા તરફથી-રૂા. ૩૦ ૧ મળતાં તેઓશ્રીના વતી બહાર પડેલ છે. તેવી રીતે આ બીજો ભાગ પણ શેઠ શ્રી માણેકલાલભાઇએ સમિતિને મેટી રકમ આપી પેાતાના જ વતી કલ્પસૂત્રના બીજો ભાગ પ્રકાશિત કરાવવામાં જે સહગ આપેલ છે તે બદલ સમિતિ તેએશ્રીને ધન્યવાદ સાથે આભાર માને છે. જેમ શેઠ માણેકલાલભાઇએ ઉદારતા મતાવી, તેજ પ્રમાણે જો આપણા સમાજના દરેક ભાઇ-બહેનેા આ સમાજોસ્થાનના પવિત્ર આગમ કાર્યને વેગ પવા જરા ઉદાર ભાવે ગુણાનુરાગી બની હાથ લંબાવે તે આ મહાન ભગીસ્થ કાર્યાં વહેલામાં વહેલી તકે પાર કરી શકાય. આ પરમ પવિત્ર અપૂર્વ કલ્પસૂત્રનું વાંચન કરી સમાજના દરેક આત્માએ આત્માત્થાન કરે તેવી આશા છે.
એજલિઃ મંત્રી
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變
कल्पसूत्र की विषयानुक्रमणिका विषयांक:
विषयांक:
१ भगवान के जन्मकाल का वर्णन
२ मेघङ्करादि दिक्कुमारियों का आगमन ३ शक्रेद्र के आसन का कंपित होना और भगवान के दर्शनार्थ उसका आना
४ भगवान् के दर्शनार्थ आते हुए देवों का वर्णन
पृष्ठाङ्कः
१-१४
१५-२०
२१-२५
२६-३१
५ भगवान् के जन्ममहोत्सव के लिये भगवान को लेकर शक्रेन्द्र का मेरु पर जाना ३२-४० ६ भगवान् को उत्संग में लेकर अभिषेक सिंहासन पर शक्रेन्द्र का बैठना ७ भगवान का जन्ममहोत्सव करने की इच्छावाले देवों के मनोभाव का वर्णन ८ देवों के आनन्द, आठ प्रकार के कलश, शक्रेन्द्र को चिंता और मेरुकंपन का वर्णन ४५-५० ९ मेरु के कंपन से भुवनत्रय में रहे हुवे जीवों को भय होना, शक्रेन्द्र की चिन्ता, कम्पन के कारण को जानना, प्रभु से
४१
४२-४४
पृष्ठाङ्कः ५७-६३
रखकर अपने अपने स्थान पर जाना ११ सिद्धार्थने मनाया हुवा भगवान् के जन्ममहोत्सव का वर्णन
६४-७२
१२ त्रिशला द्वारा की गई पुत्र की प्रशंसा का वर्णन ७३-८३ १३ भगवान् के नामकरण का वर्णन
८४-९०
९१-९६
१४ भगवान् की बाल्यावस्था का वर्णन १५ भगवान् के कलाचार्य के समीप प्रस्थानका वर्णन और कलाचार्य का भगवान के आगमनकी प्रतीक्षा करना
१६ भगवान् का कलाचार्य के समीप अध्ययन करने की अनुचितता का प्रतिपादन करना
१०२ १७ भगवान् का कलाचार्य के पास जानाजानकर शक्रेन्द्र का आसन कम्पायमान होना, शक्रेन्द्र का ब्राह्मण रूप से आकर प्रश्न करके भगवान के सर्वशास्त्रज्ञ होने
का प्रकाशन करना
क्षमायाचना
१० अच्युतेन्द्रादिकों से किये हुये अभिषेक का वर्णन, सर्व देवों का साथ त्रिशला महारानी के पास भगवान को Private & Perfonal Use Only
'५१-५६ भगवान् के शन्द्र के
९२-१०१
१०१-१०४
१८ भगवान् को सर्वशास्त्राभिज्ञ जानकर कला
चार्यादिकों का परम आनन्दित होना १०५ - १०६ १९ इन्द्र द्वारा किये गये प्रश्नों का उत्तर
सुनकर लोगों का और कलाचार्य का आनन्दित होना
१०७-१०८
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पृष्ठाका विषयाँका र २० इन्द्र द्वारा भगवान् को चरमतीर्थकर ३३ भगवान की शिविका (पालखी)का वर्णन १३२-१३३ होम रूप से प्रकाशित करना
३४ भगवान की शिविका को वहन करने का २१ भगवान का अपने प्रासाद में आना और
प्रकार का वर्णन ___मातापिता का आनन्दित होना ११० ३५ सुरेन्दादि देवोंका पूर्वादि दिशाओंका २२ भगवान् के विवाह का वर्णन
। क्रम से वहन करने का वर्णन १३५ २३ भगवान् के स्वप्नो का वर्णन ११२-११५ ३६ देवेन्द्रादि द्वारा शिविका में भगवान को
२४ भगवान् के मातापिता विगेरहका वर्णन ११६ ____ ज्ञातखण्डोद्यान में लाना १३६ 5 २५ दीक्षित होने के लिये भगवान् का नन्दि- | ३७ शिविका द्वारा भगवान् का ज्ञात___वर्धन के साथ का संवाद का वर्णन ११७-१२१ | खण्डोद्यान में आगमन २६ निश्चय ज्ञानवान् भगवान् का दो वर्ष ३८ भगवान का सर्व अलङ्कार का त्याग
गृहस्थावास में स्थित होना १२२ करना और सामायिक चारित्र का २७ भगवान् को दीक्षा के लिये लोकान्तिक
एवं मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति का वर्णन १३८-१४० देवों की प्रार्थना
१२३ ३९ भगवान् का शक्रादि देवेन्द्रकृत अभि२८ भगवान् का वार्षिक दान, अभिनिष्क्र
नन्दन और भगवान् का अभिग्रह मण और शक्रादि देवों का आगमन १२४ धारण करने का वर्णन २९ दीक्षा के लिये लोकान्तिक देवों की
४० भगवान् का पञ्चमुष्टिक लुंचन करना भगवान से प्रार्थना
१२५-१२६ और सामायिक चारित्र अंगीकार करने का ३० भगवान् ने वर्षीदान में दान दी हुइ
का वर्णन
१४२ ___सुवर्णमुद्राको संख्या का वर्णन १२७ ।। ४१ भगवान् को मनापर्यवज्ञानप्राप्ति का वर्णन १४३ ३१ भगवान् के अभिनिष्क्रमण में आये
४२ शक्रादि देव और मित्र स्वजन ज्ञात्यादि हुवे इन्द्रादि देवों का वर्णन १२८ जाने के पीछे भगवान का अभिग्रह है ३२ भगवान का दीक्षामहोत्सव का वर्णन १२९-१३१ | ग्रहण करना
१४४-१४५
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沒有減貿通海殖箱
विषयांक:
४३ भगवान् के त्रिरह से नन्दिवर्धन आदि के विलाप का वर्णन
४४ गोप द्वारा किये हुए भगवान् के उपसर्ग का वर्णन
४५ गोपकृत उपसर्ग के निवारण के लिये
इन्द्र का आगमन
४६ सहायता के लिये इन्द्रकृत प्रार्थना का अस्वीकार करना
४७ इन्द्रदत्त देवदृष्य से भी भगवान् ने कभी शरीर आच्छादित नहीं किया ४८ भगवान् के उपसर्ग का वर्णन
पृष्ठाकः विषयांक:
५५ भगवान् से यक्षकी क्षमाप्रार्थना १४६ - १६० ५६ श्वेताम्बिका नगरी प्रति भगवान् के विहार का वर्णन
१६१ - १६३ ५७ विकट मार्ग में चंडकौशिकसर्प के बांबी के पास भगवान के कायोसर्ग करने का वर्णन
४९ इन्द्र द्वारा गोपका तिरस्कार करना
५० गोप को मारने के लिये उद्यत इन्द्र को भगवत्कृतनिषेध
५१ सहायता के लिये इन्द्र की प्रार्थना का अस्वीकार
५२ वेले के पारणें में भगवान् का बहुल नामक ब्राह्मण के घर में पधारना
१६४
१६५
१६६
१६७-१६९
१७०
१७१
१७२
५३ भगवान् को भिक्षा देने से बहुल ब्राह्मण के घर में देवकृत पांच दिव्यों का प्रगट होना
१७५
५४ भगवान के यक्षकृत उपसर्ग का वर्णन १७६-१८१
पृष्ठाङ्कः १८२
१७३ - १७४ | ६३ उत्तरवाचाल गाम में नागसेन के घर पर
१८३-१८७
५८ श्वेतांविका नगरी के मार्गस्थित चंडकौशिक aft ५९ विकट जंगल के मार्ग से जाते हुए भगवान् को गोपद्वारा निषेध करना १९१ ६० चण्डकौशिक के विषय में भगवान् के विचार का वर्णन
१८८
Personal
१८९ - १९०
६१ चंडकौशिक सर्पकी बांबी के पास भगवान् का कायोत्सर्ग में स्थित होना १९६ ६२ चंडकौशिकस का भगवान् के उपर पिप्रयोग और भगवान के चंडकौशिक को प्रतिबोध करने का वर्णन
१९२-१९५
१९७-२०३
भगवान् के भिक्षा ग्रहण का वर्णन २०४ - २०६ ६४ भगवान् के प्रतिलाभित होने से
नागसेन के घर में पांच दिव्यों के
प्रगट होने का वर्णन
२०७
T淇淇淇
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२७४
विषयांकःपृष्ठाङ्कः विषयाकः
पृष्ठान र ६५ गंगा नदी में सुदंष्ट्रदेवकृत भग- ७८ भगवान् के विहारस्थान का वर्णन २४०
वान् के उपसर्ग का वर्णन २०८-२१५ ७९ भगवान् के उपसर्गों का वर्णन २४१-२५३ हम ६६ उपकारक और अपकारक के प्रति
८० भगवान की आचारपरिपालन विधिका भगवान् के समभाव का वर्णन २१६
वर्णन
२५४-२६१ ६७ भगवान् के संगमदेवकृत उपसर्ग
८१ भगवान् के अभिग्रह का वर्णन २६२-२६७ ॥ का वर्णन
२१७-२१९
| ८२ अभिग्रह की पूर्ति के लिये फिरते हुवे ६८ भगवान् के चातुर्मास का और
भगवान् के विषय में लोगों के तर्क तप का वर्णन
२२०-२२१ वितर्क का वर्णन
२६८-२७३ ६९ भगवान् को संगमदेवकृत उपसर्ग का
८३ अभिग्रह की पूर्ति के लिये फिरते हुवे ___और भगवान् के चातुर्मास का वर्णन २२२-२२६
भगवान् के चन्दनबाला के समीप
पहुंचने का वर्णन ७० भगवान् के अनार्य देश में प्राप्त परीपह एवं उपसर्ग का वर्णन २२७-२२८
८४ भगवान को आहार ग्रहण के लिये
चन्दनबालाकी मार्थना २७५ ७१ घोर परीषह एवं उपसर्ग प्राप्त होने
८५ भगवान को भिक्षा ग्रहण किये विना पर भी भगवान् के मन के अविकृत
ही पीछे फिरते देखकर चन्दनवाला के स्थिति का वर्णन
अश्रुपात का वर्णन
२७६ ७२ भगवान की आचारविधि का वर्णन २३० ।।
८६ धनावह शेठ के घर में पांच दिव्य ७३ भगवान् के समभाव का वर्णन २३१-२३५ । प्रगट होने का वर्णन
२७७ ७४ भगवान् की आचारविधि का वर्णन २३६ ८७ चन्दनबाला के चरित्र का वर्णन २७८-२९२ ७५ भगवान के अनार्यदेश में उपस्थित ८८ अन्तिम उपसर्ग का वर्णन २९३-३००
परीपह एवं उपसर्ग का वर्णन २३७ ८९ भगवान् के विहार का वर्णन ३०१-३०३ ७६ भगवान् के विहारस्थानों का वर्णन २३८ ९० भगवान के दश प्रकार के महा७७ भगवान् के समभाव का वर्णन २३९ . स्वमदर्शन का वर्णन
३०४-३०५
२२९
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Stional
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विषयांक:
पृष्ठाङ्क: विषयांक:
पृष्ठाङ्कः ईर्यादि पांच समिति के लक्षण का वर्णन ३०६ १०८ इन्द्रभूति का दीक्षाग्रहण और उनका ९२ मनोगुप्ति का वर्णन
३०७ संयमाराधन का वर्णन
३७७ ९३ वचोगुप्ति का वर्णन
१०९ अग्निभूति ब्राह्मण का कर्म के वि९४ कायगुप्ति का वर्णन
३०९-३१० षय का संशय निवारण और उन की ९५ भगवान् की अवस्था का वर्णन ३११-३१४
दीक्षाग्रहण का वर्णन ___३७८-३८९ मत ९६ भगवान् का विहार वर्णन ३१५
११० वायुभूति ब्राह्मण का 'तज्जीवतच्छ९७ दश महास्वप्न दर्शन का वर्णन ३१६-३१८
रीर' के विषय में संशय का निवारण ९८ दश महास्वप्न फल का वर्णन ३१९-३२४
और उनकी दीक्षाग्रहणवर्णन ३९०-३९५ 5 ९९ भगवान् को केवलज्ञानदर्शन प्राप्ति का
१११ व्यक्त नामक ब्राह्मण का पंचभूत के वर्णन
३२५-३२८
अस्तित्व विषयक संशय का निवारण १०० केवलोत्पत्ति का वर्णन
३२९-३३० और उनकी दीक्षाग्रहण का वर्णन ३९६-४०० १०१ चतुर्थआश्चर्य (अच्छेरा ४ का वर्णन ३३१-३३४ | ११२ सुधर्मा नामक ब्राह्मण का 'समानभव' १०२ आश्चर्यदशक (अच्छेरा १०)का वर्णन ३३४
विषयक संशय का निवारण और १०३ पावापुरी और वहां का राजा का वर्णन ३३५-३३६ |
उनकी दीक्षाग्रहण का वर्णन ४०१-४०७ १०४ पावापुरी मे सोमिल ब्राह्मण का
११३ 'मण्डिक' नामक पंडित का 'बन्धमोक्ष' यज्ञ का वर्णन
___३३७-३३९ के विषयक संशय का निवारण और १०५ भगवान् का समवसरण और उनकी
उनकी दीक्षाग्रहण का वर्णन ४०८-४१० शोभा का वर्णन
३४०-३४८ ४ मौर्यपुत्र पंडित का देवों के अस्तित्व ०६ यज्ञ के वाडे में उपस्थित ब्राह्मणों
विषयक संशय का निवारण और उनकी का वर्णन ३४९-३६३ दीक्षाग्रहण का वर्णन
४१०-४११ १०७ इन्द्रभूति ब्राह्मण का आत्मविषयक
११५ मण्डिक पंडित का 'बन्धमोक्ष' के विसंशय का निवारण और उनकी
षय में संशय का निवारण और उनकी anal दीक्षाग्रहण का वर्णन ३६४-३७६ /rsonal us दीक्षाग्रहण का वर्णन
४१२-४१
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म विषयांक:पृष्ठाङ्कः | विषयांकः
पृष्ठाङ्क: ११६ मौर्यपुत्रका देवों के अस्तित्व के
१२४ गणधरों के शिष्यसंख्या का वर्णन ४३० विषय में संशय का निवारण और
१२५ मेतार्य पंडित का परलोकविषयक उनके दीक्षाग्रहण का वर्णन ४१५-४१६ संशय का निवारण और उनके मा ११६ अचलभ्राता नामक पंडितका पुण्य
दीक्षाग्रहण का वर्णन
४३१-४३२ पाप के विषय में संशय का निवा
१२६ प्रभास नामक पंडितका निर्वाण रण और उनके दीक्षाग्रहणका वर्णन ४१७-४२० विषयक संशय का निवारण और १७ अकम्पित नामक पंडित का 'परभव
उनके दीक्षाग्रहण का वर्णन ४३२-४३३ में नारक नहीं है' इस विषयके
१२७ गणधरों के संदेह का संग्रह . ४३५ संशयका निवारण और उनके दीक्षा
१२८ गणधरों के शिष्यसंख्या का वर्णन ४३६ ग्रहणका वर्णन
१२९ चतुर्विधसंघ की स्थापना ओर ११८ अचल भ्रातानामक पंडित का पाप
चातुर्माससंख्या कथन
४३७ पुण्यविषयक संशय का निवारण
१३० गणधरों को त्रिपदीपदान का वर्णन ४३८ और उनकी दीक्षाग्रहणका वर्णन ४२२-४२४ | १३१ नवप्रकार के गणों के भेदका वर्णन मेतार्य पंडितका परलोकविषयक सं.
और भगवानकी धर्म देशना का वर्णन ४३९ शयका निवारण और उनके दीक्षा
१३२ भगवान के चातुर्मास संख्या का कथन ४४० ग्रहण का वर्णन
४२४ १३३ चन्दनवाला के दीक्षाग्रहण का वर्णन ४४१ १२० प्रभास पंडितका निर्वाणविषयक सं
१३४ चतुर्विधसंघ की स्थापना और गणशय का निवारण
४२५
धरौको त्रिपदीपदान का वर्णन ४४२ १२१ मेतार्य का परलोक विषयक संशय
१३५ नवप्रकार के गणों का भेदप्रदर्शन ४४३ का निवारण और उनके दीक्षा
१३६ भगवान् की धर्म देशना का वर्णन ४४४-४४५ ग्रहण का वर्णन
४२६-४२७ | १३७ गौतमस्वामीको देवशम ब्राह्मण को र १२२ प्रभास पंडित के दीक्षाग्रहण का वर्णन ४२८
प्रतिबोधित करने के लिये नजदीक १२३ गणधरों के संदेह का संग्रह ४२९.net........के गांवमें भेजने का वर्णन ४४६-४४७
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愛獎演演间演度
विषयांक:
१३८ भगवान् के निर्माण का वर्णन
४४८-४५३
१३९ गौतमस्वामी के विलाप का वर्णन ४५४-४५५ १४० गौतस्वामी के अवधिज्ञानप्रयोग करने का वर्णन
४४१ गौतमस्वामी के केवलज्ञानप्राप्ति का वर्णन
४४२ दीपावली आदि की प्रसिद्धि के कारण का वर्णन
४४३
४४४ गौतमस्वामी के अवधिज्ञानयोग का
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४५८
विलाप का वर्णन ४५९
१४५ गौतमस्वामी के केवलज्ञानमाप्ति का वर्णन
४५६
४५७
पृष्ठाङ्कः | विषयांक:
४६०
४६१
१४६ गौतमस्वामी के केवलज्ञानप्राप्ति से देवों के उसका महोत्सव मनाने का वर्णन १४७ दीपावल्यादिकी प्रसिद्धि के कारण का वर्णन १४८ भगवान के परिवार का वर्णन १४९ अन्तकृतभूमिका वर्णन १५० भगवान् के पाट का वर्णन ५५१ सुधर्मस्वामी के परिचय का वर्णन १५२ जंबुस्वामी के परिचय का वर्णन १५३ के परिचय का वर्णन
१५४ उपसंहार और ग्रन्थसमाप्ति १५५ श्री महावीरस्वामीकृत तप का कोष्ठक
卐
पृष्ठाङ्कः
४६२
४६३
४६४-४६९
४७०-४७१
४७२
४७३ - ४७४ ४७५-४८१
४८२ - ४८५ ४८६-४९०
४९१
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श्रीकल्पसूत्रे ॥१॥
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जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराज विरचितस्य श्रीकल्पसूत्रस्य संस्कृत-प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनिश्रीकन्हैयालालजी - महाराज - विरचितायां कल्पमञ्जरी - व्याख्यायां
ational
पञ्चमवाचनादि - नवमवाचनान्तो द्वितीयो भागः ।
मूलम् - जं समयं च णं तिसला खत्तियाणी दारयं पया तं समयं च णं दिव्बुज्जोएणं तेलुकं पयासियं, आगासे देवदुदुहीओ आहयाओ, अंतोमुहुत्तं णारयजीवाणपि दसविह- खित्त-वेयणा परिक्खीणा, अन्नोभवेरं च तेर्सि उवसमियं अघणा सचंदणा कलिय- ललिय-कमल-सिट्टी बुडी जाया। फारा बसुहारा बुट्टा, पण सुहफासणा मंजुला अणुकूला मलयज - उप्पल - सीयला मंदमंदा सोरब्भाणंदा तं दारगं फासिउं विव पत्राया । देवेहिं दसद्धवण्णाई कुसुमाई निवाइयाई, चेलुक्खेवे कए, अंतरा य आगासे 'अहो जम्मं अहो जम्मं' ति घुद्धं । उज्जाणाणि य अकालम्मि चैव सव्वोउय - कुसुम - निहाणाणि संजायाणि । वावी - कूपतडागाइ - जलासएसु जलानि विमलानि जायाणि । जणवए य जणमणा हरिस - पगरिस-वसेण पवनवेगेण सरसि घणरसाविव विसप्पमाणा संजाया । वणवासिणो तुणो जम्मजायाणि वेराणि विहुणिय सहाहारिणो सहविहारिणो य जाया। अंबरमंडलं धाराहरा - डंबर - विदुरं श्रमलं चक्कचिक्कचंचियं जायं । कोइलाइपक्खिणो साल - रसाल - तमालपमुह - साहिसाहासिहावलंबिणो सहयार - सरस - मंजरी रसस्साय - मायो- दंचियपंचमस्सरा मुहरा अनंतगुण-गाम-धाम-पहुललाम- जस-गायग-सूय-मागह- चारण- विडंबिणो महुरं परं कूइउमारभित्था ।। ०५५ ।।
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवज्जन्मकालवर्णनम्
11211
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छाया-यस्मिन् समये च खलु त्रिशला क्षत्रियाणी दारकं पासूत, तस्मिन् समये च खलु दिव्योयोतेन त्रैलोक्यं प्रकाशितम् , आकाशे देवदुन्दुभयो वादिताः, अन्तर्मुहूर्त नारकजीवानामपि दशविध-क्षेत्रवेदनाः परिक्षीणाः, अन्योऽन्यवरं च तेषाम् उपशमितम् । अधना सचन्दना कलित-ललित-कमल-मृष्टिष्टिर्जाता। स्फारा वसुधारा दृष्टा। पवनाश्च मुखस्पर्शना मञ्जुला अनुकूला मलयजो-त्पल-शीतला मन्दमन्दाः सौर
पञ्चमवाचना से नवमवाचनापर्यन्त
द्वितीय भाग मूल का अर्थ-ज समय' इत्यादि। जिस समय त्रिशला क्षत्रियाणी ने पुत्र को जन्म दिया. उस समय दिव्य उद्दयोत से तीनों लोक प्रकाशित हो गये। आकाश में देवदंदमिया बजने लगीं। अन्त
1 के लिए नरक के जीवों की भी दस प्रकार की क्षेत्र वेदनाएँ शान्त हो गई। उन्होंने आपस का वैर त्याग दिया। मेघों के अभाव में भी, चन्दन की गन्ध से युक्त, सुन्दर कमलों से युक्त वर्षा हुई। भगवजन्मसोने की प्रचुर वर्षा हुई। सुखद स्पर्श वाला, मनोहर, अनुकूल, मलयज चन्दन और कमल के समान हम कालवर्णनम् शीतल, मुगंध से आनन्द देने वाला मन्द-मन्द पवन चलने लगा, मानो बाल्य अवस्था में स्थित भगवान
પંચમવાચનાથી નવમવાચના પર્યા
બીજો ભાગ भूगन। अय- 'जं समपं' त्याहि ने सभये निया राणीने पुत्रने भाष्यो ते अभये, ये લેકમાં પ્રકાશ થશે. આકાશમાં દેવદુંદુભી વાગવા લાગ્યાં. અંતમુહૂર્ત સુધી. નારકીના છની દશ પ્રકારની ક્ષેત્રવેદના શાંત થઈ ગઈ. નારકીએ અંદર અંદરને વેર ભાવ ભૂલી ગયાં.
વરસાદની ગેરહાજરીમાં પશુ, ચંદનની સુગંધવાળા સુંદર કમલને વરસાદ વરસ્ય. સેના મેહરાની પણ વૃષ્ટિ થઈ.
સુખદ સ્પર્શ કરવાવાળે, મનેહ૨, અનુકુળ, મલયાગિરિના ચંદન જેવી શીતલતા આપવાવાળે, કમળ જે કડો, અને સુગંધિત તેમજ આનંદકારી પવન મંદ મંદ રીતે વહેવા લાગ્યા. જાણે આ પવન તે બાલકને સ્પર્શ nal
કીએ અંદર અંદરનો રસ અંતમુહૂત" સુધી. નારીના અને તે સમયે, ત્રણે
॥२॥
તે
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श्रीकल्पसूत्रे
• ॥३॥
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भ्यानन्दारत स्पष्टुमित्र प्रवाताः । देवः दशावणोनि कुसुमानि निपातितानि, चलाक्षपः कृतः। अन्तरा आकाशे “अहो जन्म अहो जन्म" इति घुषितम् । उद्यानानि च अकाले एव सर्वर्तुक - कुसुम - निधानानि संजातानि । वापी - कूप - तडागादि - जलानि च विमलानि जातानि । जनपदे च जनमनांसि हर्ष - प्रकर्षवशेन पवनवे सरसि घनरसा इव विसर्पन्ति संजातानि । वनवासिनो जन्तवो जन्मजातानि वैराणि विधूय सहाss रिणः सहविहारिण जाताः । अम्बरमण्डलं धाराधरा - SS - डम्बर-विधुरम् अमलं चाकचक्यचश्चितं जातम् । कोकिलादिपक्षिणः साल - रसाल - तमालप्रमुख - शाखि - शाखा - शिखा - वलम्बिनः सहकार - सरस - मञ्जरीरसा -ss
का स्पर्श करने के लिए चला हो ! देवों ने पाँच वर्णों के पुष्पों की वर्षा की, वस्त्रों की वर्षा की। 'अहो जन्म, . अहो जन्म' का आकाश में घोष हुआ। उद्यान असमय में ही सब ऋतुओं के फूलों के भंडार बन गये । चावड़ी, कूप, तालाब आदि जलाशयों का जल विमल हो गया। जैसे वायु के वेग से तालाब का जल चंचल हो उठता है, उसी प्रकार जनपद की जनता के मन हर्ष के प्रकर्ष से चंचल हो उठे। जंगली जानवर जन्मजात वैर को त्याग कर एक साथ आहार और विहार करने लगे । नभ-मण्डल मेघों की घटाओं से विहीन, विमल और विमानों की चमक से चमकने लगा। साल, रसाल (आम्र) तथा तमाल आदि वृक्षों की चोटियों पर चढ़े हुए कोकिल आदि पक्षी आम की रसीली मंजरियों के रसास्वादन से
કરવા આવતા ન હોય ! દેવેએ પાંચવા પુષ્પાના વરસાદ વરસાત્મ્યા, તેમજ વસ્ત્રોની પણ વર્ષા કરી.
‘અહે જન્મ! અહા જન્મ! એમ આકાશવાણી થઇ. ઉદ્યાનમાં અસમયે પણુ, સર્વ ઋતુઓના ફૂલેના ભંડાર ઉભરાઈ ગયા. વાવડી, કુવાતલાવ વિગેરે જલાશયાના પાણી, નિ`લ થઈ ગયાં. જેવી રીતે વાયુના સ ંચારથી, તલાવનુ પાણ, હલી ઉઠે છે, તેમ જનપદના હૃદયા, ભગવાનના જન્મના કારણે, હેલહલી ઉઠયાં, ને હર્ષોંના આવેશથી સમસ્ત રાષ્ટ્રમાં ચચળતાં વ્યાપી રહી.
જંગલી જનાવરા પણ, અન્યાન્યના વૈર ભાવાના ત્યાગ કરી. એકી સાથે ચરવા લાગ્યાં. તેમજ એકજ સ્થાને રહેવા લાગ્યાં. નભમ`ડળ પણુ, મેધ-ઘટાએથી રહિત થયું. વિમલ અને પ્રકાશિત વિમાના વર્ડ, આખુ આકાશ ચમકવા લાગ્યું.
સાર, રસાલ (આંબા) તથા તમાલ વિગેરેના, વૃક્ષાની ડાળી
પર બેઠેલી કાયલે, મીઠા ટહુકાર કરવા
कल्पमञ्जरी
टीका
भगवज्जन्म
कालवर्णनम्
॥३॥
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વા-મહોત્ર-પુત્ર
અનન્ત–ાળા–ધીમ--૨ામ-સોજાવ-ભૂત-માપ–વારविडम्बिनो मधुरं परं कृजितुमारेभिरे ।सू०५५॥
टीका-'जं समयं च णं इत्यादि। यस्मिन् समये च खलु त्रिशला क्षत्रियाणी दारक-पुत्रं पामतअजनयत् , तस्मिन् समये च खलु दिव्योद्योतेन=देवप्रकाशेन अद्भुतप्रकाशेन वा त्रैलोक्यं लोकत्रयं प्रकाशितमभूत् ।
मञ्जरी
टीका
जनित आनन्द से पंचम स्वर में बोलने लगे और अनन्त गुणगण के धाम भगवान् के ललाम यश का गान करने वाले मूत, मागध और चारणों को भी मात करते हुए कूजने लगे ॥सू०५५॥ ___टीका का अर्थ-'जं समय' इत्यादि । जिस समय में त्रिशला क्षत्रियाणी ने पुत्र को जन्म दिया, उस समय दिव्य-अन्ठे प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित हो गये। आकाश में देवदुदुभिया बजने लगी। अन्तर्मुहूर्त के लिए नरक
ગી.
લાગી. તે વખતે, તેઓ આમની મંજરિયને રસાસ્વાદ લેતી હોવાથી, વધારે આનંદિત જણાતી હતી. આ પ્રાર્થના કેલે પંચમ સ્વરમાં અવાજ કરવા લાગી.
અનંત ગુના ધામ એવા ભગવાનના ગુણગ્રામ અને યશ ગાવાવાળા બંદિજને, ચારણ અને બારેટને * પણ ગુણ ગાવામાં ટપી જતાં ન હોય! તેમ જણાતું હતું. અનેક વિવિધ પક્ષિઓને કુંજારવ ચારણ ભાટની ગાયન કળાને પણ વટાવી જાય તેવો હોત (સૂ૦૫૫) ટીકાને અર્થ સમજ ઈત્યાદિ. ભગવાન મહાવીરને જન્મ થતાંજ, વર્ગ, મૃત્યુ અને પાતાલ એટલેઉવ્વલક-અલક અને તિરછાલકમાં પ્રકાશ છવાઈ રહ્યો. દેવેએ, પિતાના દિવ્ય વારો વડે, હર્ષનાદ કર્યો. ત્રણે લોકમાં ઉજજવલતા વ્યાપી રહી. સર્વત્ર આનંદ મંગલ ગાવાઈ રહ્યાં. દેવદુભીના નાદો શરું થયાં. દેવે પિતાને હર્ષ વ્યક્ત કરવા, “અહો જન્મ! અહે જન્મ!” નો દિવ્ય વનિ કરવા લાગ્યાં. સમકિતિ દેને તે જાણે ગોળના ગાડાં અનાયાસે મલી ગયાં તેવા હર્ષવંત તેઓ બની ગયાં. મિથ્યાત્વી દે પણ, સમકિતી દેવના આનંદમાં, કુતૂહલ દષ્ટિએ, ભાગ
//૪ લેવા લાગ્યાં. દેવાંગનાઓ પણ ભગવાનને જન્મોત્સવ મનાવવા લાગ્યાં. જેને જે ફાવે તેવો ઉત્સવ માણવા લાગ્યાં. પિતાની ગૂઢ શકિતઓને બહાર કાઢી, તેના ઘક્રિયપણા કરી, પિતાને હૃદયગત હર્ષ વ્યકત કરવા લાગ્યાં.
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મીલ્પમૂકે
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आकाशे-देवपथे देवदुन्दुभयः आहताः = ताडिताः - वादिताः । नारकजीवानामपि अन्तर्मुहूर्त दशविषक्षेत्रवेद વિષાઃ-ગીતો-૨-જીયારૂ–પિપાસાઃ-દૂધ-પતન્ત્રતા૬-મય૭-શો૪૮-બાo-ષિo૦-૬ા प्रकाराः यासां तास्तथाभूता याः क्षेत्रवेदना: = स्वाभाविक्योऽनन्ता नरकक्षेत्रवेदनास्ताः परिक्षीणाः = विनष्टाः । तथा - तेषां नारकजीवानाम् अन्योऽन्यवैरं = परस्परशत्रुभाश्च उपशान्तम् । तथा - अघना = मेघ वर्जिता - मेघं विना,
વંશ વિષ =
જે નીયો ી મૌ (૨) શીત, (૨) ૩૧, (૩) પૂલ, (૪) વ્યાસ, (૧) વુંનહી, (૬) પરાધીનતા, (૭) મય, (૮) શો, ( ९ ) जरा, (१०) व्याधि यह दश प्रकार की नरक क्षेत्र में स्वभावतः होने वाली अन्तरहित वेदनाएँ मिट गई। नारकी जीवों का पारस्परिक वैरभाव भी शान्त हो गया ।
નારકીના જીવાને અન્યાન્યની વેદના હૈય છે. અને પરમાધી તરફથી પણ તીવ્ર ત્રાસ આપવામાં આવે છે. આવું તે દુ:ખ અનંતુ છે. તે ઉપરાંત સ્થાનાધીન દુઃખા કાયમી રહેલાં છે, જેનુ વર્ણન વચન દ્વારા થઈ શકે તેમ નથી. તેમજ સાંસારિક દુઃખાની સાથે તેની સરખામણી થઇ શકે તેમ નથી.
નારકીના જીવાને ઠંડી-ગરમી પુષ્કળ લાગે છે. ત્યાંના નારકીના જીવને, આપણા હિમાલયના ઠરેલાં ખરફ ઉપર કદાચ સુવાડવામાં આવે તે, તેને ઘસઘસાટ ઊંધ આવી જાય! આથી કલ્પી લ્યા કે ત્યાંની સ્થાનિક ઠંડી કેટલી હશે! આવી રીતે ગરમીના પ્રમાણુનું પણ સમજી લેવું.
શીત ૧, અને ગરમી ૨, ઉપરાંત, નારીના જીવાને, ક્ષુધા ૩, તરસ ૪, પરાધીનતા પ, દાહ ૬, ખુજલી ૭, ભય ૮, શાક ૯, જરા ૧૦, આ પ્રકારની ક્ષેત્ર વેદના હોય જ છે, આ દશ વેદનાઓનુ નિવારણ, જેમ મૃત્યુ લેાકમાં થઈ શકે છે ને રાહત મળે છે, તેમ નરકમાં બનતું નથી, કારણ કે, ત્યાં એકલા પાપનું પરિણામ ભાગવવાનુ હોય છે, અહિં પાપ અને પુણ્ય બન્નેના પરિણામે ભાગવાય છે.
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નારકીમાં, ક્ષુધા–તરસનું નિવારણ કરવાના કાઈ સાધન પ્રત્યક્ષ નથી. શારીરિક રોગ ફાટી નીકળેલા હોય છે પશુ કાઇ તેની શાંતિ માટે જોનાર પણ નથી. પરાધીન પણાને તે કોઈ આરે। તારી નથી! ક્ષણ એક પણુ, પરમાધી એ, નારકીના જીવાને છૂટાં મૂકતાં નથી, તેમજ માર-પીટથી, નિરંતર ભયયુક્ત રાખે છે. કૈાઇ દયા ખાનાર હેતુ નથી. જીવે, જે નારકીના પાપાના બધા ખાંધ્યા હોય તે સર્વે, ભોગવીનેજ છૂટા થવાનુ હોય છે. તેમાં રજ જેટલા પણ ફરક પડતા નથી, આ છે ત્યાંની સ્થાનિક–નિર'તર વતી ક્ષેત્ર વેદના! ચાવી વેદનાએથી તરફડતાં નારકીના જીવાને, ભગવાન મહાવીરનેા જન્મ થતાં, અંતર્મુહૂત્ત સુધી સવ
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मञ्जरी
टीका
भगवज्जन्म
कालवर्णन
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श्रीकल्पसूत्रे
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पञ्चवर्णानि कुसुमानि = पुष्पाणि निपातितानि = आकाशाद् वर्षितानि, पुनर्दवे चेलोत्क्षेपः कृतः = वस्त्रदृष्टिः कृता । अन्तरा च आकाशे=आकाशमध्ये देवैः 'अहो ! जन्म अहो जन्म' इति घुषितम् = उच्चैरुच्चारितम्, उद्यानानि च श्रकाले एव = स्वपुष्पण समयाभावेऽपि सार्वर्तुक - कुसुम - निधानानि= सार्वर्तुककुसुमानां = सकलऋतुसम्भविपुष्पाणां निधानानि संजातानि । तथा-वापी - कूप - तडागादि - जलाशयेषु वापी दीर्घिका, कूपः = प्रतीतः, तडागः = सरः, तदादिषु = तत्म
तथा - देवों ने पाँचों वर्णों के पुष्पों की आकाश से वर्षा की और वस्त्रों की भी वर्षा की । आकाश के बीच 'अहो जन्म, अहो जन्म' का उद्घोष किया। अर्थात् अहो आश्चर्यकारी तीनों लोकों को अपूर्व आनन्द देने वाला भगवान का जन्म हुआ ।
तथा - उद्यान, असमय में फूलने का समय न होने पर भी, सभी ऋतुओं के फूलों से समृद्ध बन गये । वापी, कूप, सरोवर आदि जलाशय निर्मल पानी से भर गये। देश भर में जन-जन के मन हर्ष की अधिकता से ऐसे चंचल हो उठे, जैसे वायु के वेग से सरोवर का वारि चंचल हो उठता है ।
દેવેએ, ઉપરાકત ઉત્સવ ઉપરાંત સેાના-માહી અને દિવ્ય વસ્ત્રો પણ વર્ષાવ્યા. છએ ઋતુઓના દૈવી પાઁચર'ગી ફૂલે પણ વર્ષાવ્યા.
બાગ-બગીચાઓ, જે ગ્રીષ્મ ઋતુમાં સુકાઇ ગયાં હતાં, તે પણ નવપલ્લવિત થયાં. તેઆમાં ચેતન અને જીવંત આવ્યું. રજ–પરાગરજ, રંગ અને સુગંધથી, સ` પ્રકારના ફૂલે ખીલી ઉઠયાં. સ પ્રકારની વનસ્પતિ ફૂટી નીકલી, અનેકના અંકુરો ફૂટવા લાગ્યાં, ને અનેક ગાઉમાં આવેલા ઉદ્યાનો, મનેહર અને આંખને ઠંડક આપે તેવા ઉભરાવા લાગ્યાં. કરમાઇ ગયેલ કળીએ, જાણે હસતી હસતી બહાર આવતી હોય તેમ જણાવા લાગી. ફૂલેની દુનિયાને પણ, આ એક અનોખા અને અનેરા ઉત્સવ ઉજવવાના હોય, તેમ જણાવા લાગ્યું. આ ફૂલાએ પેતાની સૌરભ, સશકિત દ્વારા, ખિલવવા માંડી, ને જગત ને પોતાના પરિચય આપવા તૈયાર થયાં હોય તેમ તેઓ દેખાવા લાગ્યું.
પાણીના સુકકા અને ખાલી જલાશયે પણ વગર વરસાદે ઉભરાવા લાગ્યાં. પૃથ્વીએ પેાતાનામાં સંચય કરી રાખેલું અને સંઘરી રાખેલુ પાણી, ઝરણા અને ધેધ દ્વારા, વહેતું મુકવા માંડયુ. જેના પરિણામે, ઠેર ઠેર કૂવા, નદી, વાવડી વિગેરે પાણીથી ભરાઇ ગયાં ને ગ્રીષ્મ ઋતુને વર્ષા ઋતુ તેમજ વસત ઋતુ જેવી બનાવી દીધી.
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कल्प
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टीका
भगवज्जन्मकालवर्णनम्
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श्रीकल्पसूत्रे
सचन्दना-चन्दनपङ्कसहिता कलित-ललित-कमल-मृष्टिः-कलिता धृता ललितानां मुन्दराणां कमलानां सृष्टिः= सर्गः-उत्पत्तियेया तथाविधा वृष्टिः जाता। स्फारा-पचुरा वसुधारा वृष्टा । पवनाच-सुखस्पशेनाः सुखस्पशेवन्ता मञ्जुला अनेकपुष्पसुगन्धवहत्वेन सुन्दराः अनुकूला:-सकलजनानन्दजनकाः, मलयजो-स्पल-शीतला:-मलयज-चन्दनम् , उत्पलं कमलं, तदुभयवत् शीतलाशीतस्पर्शाः, पुनः मन्दमन्दाः=अतिमन्दाः, सौरभ्याऽऽनन्दाः सुगन्धेनाऽऽमोदकाः, तं-पूर्वोक्तं दारकं बालकं स्पष्टुमिव प्रवाताः प्रचलिताः। तथा देवैः दशार्द्रवर्णानि=
શરૂमञ्जरी टीका
तथा-मेघों के विना ही, चन्दनमिश्रित, सुन्दर-कमल-युक्त जलसृष्टि होने लगी। प्रचुर सम्पत्ति (स्वर्ण) की वर्षा हुई। मुखदायी स्पर्श वाला, अनेक पुष्पों के सौरभ को वहन करने के कारण सुन्दर, सभी प्राणियों को आनन्द देने वाला, चन्दन एवं कमल के समान शीतल, अतिशय मन्द, सुगंध से आमोद प्रदान करने वाला पवन चलने लगा।
મવિજ્ઞમकालवर्णनम्
ક્ષેત્રવેદનાએ શાંત પડી ગઈ. તેમજ, ન રકીઓ ક્ષ ભર પરેપરને વેરભાવ પણ ભૂલી ગયાં, ને શાંતચિત્તે ઉભાં રહ્યાં. જન્મ સાથે જ કેટલી અદ્દભુત ઘટનાઓનું સર્જન થયું !
તિરછા લેક (મધ્યલોકમૃત્યુલોક)માં, ભગવાન જન્મતાંની સાથે, એવા મેની વૃષ્ટિ થઈ કે, મેહ આવતા જ, પૃથ્વી ઉપર સુંદર કમલની સૃષ્ટિ ઉભી થઈ ગઈ. જ્યાં જ્યાં જુઓ ત્યાં ધગધગતી ગ્રીષ્મ ઋતુમાં ' લીલુછમ દેખાવા લાગ્યું ! ને પૃથવીએ જાણે લીલી સાડીનું આચ્છાદન કર્યું ન હોય! તેમ જોવામાં આવ્યું.
સેના–મહોરની વૃદ્ધિ શરું થઈ. ધનની તે કાંઈ જાણે કિંમત જ ન હોય તેમ તેને ઘેધમાર પ્રવાહ, સુવર્ણ રૂપે, ઉપરથી પડ્યા લાગ્યા. આ સુવર્ણ પ્રવાહ જાણે પૃથ્વીને પિતામય ન બનાવતે હોય! તેમ તેની ધારાઓ અતૂટપણે પડવા લાગી.
મલયગિરિમાં છૂપાઈ રહેલ પવન પણ શીતલ મંદ સુગધરૂપે વાવા લાગે. જાણે ભગવાનના દર્શન કરવા માટે ઉભે ન રહેતા હોય તેમ લાગતું હતું. આ પવનને સુગંધ ઘણુ ગાઉ સુધી પ્રસારિત થઈ, અનેક જીને સ્પર્શ કરી, તેમને મુગ્ધ બનાવતે આ પવન પણ, એટલો મીઠે અને મધુર માલુમ પડતું હતું કે, ભૂખ અને તરસ છિપાઈ જાય અને મેરેમ તૃપ્તિ આવી જતી, સાડા ત્રણ કરોડ મરાયથો ભરેલી કાયા, સવગે તાજી અને પ્રફુલ્લિત થઈ જતી.
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श्रीकल्पसूत्रे
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मञ्जरी
न भृतिषु जलाशयेषु जलानि पानीयानि च विमलानि-स्वच्छानि जातानि, जनपदे-देशे च जनमनांसि हर्ष-प्रकर्ष
वशन प्रमोदाधिक्यहेतना पवनवेगेन वायवेगेन सरसिकत्रिमपद्माकरे घनरसा:-जलानि इव विसपान्त-विशेषण चलन्ति संजातानि। तथा-वनवासिनो जन्तवः पाणिनः जन्मजातानि-जन्मना सहोत्पन्नानि-सहजानि वैराणि3 शत्रुभावान् विधय-विमुच्य च सहाऽऽहारिणः सहभोजिनः, सहविहारिणः सहगामिनश्च जाता। तथा-अम्बरमण्डलम् अाकाशप्रदेशः धाराधराऽऽ-डम्बरविधरं मेघघटारहितम्, अमल-स्वच्छ चाकचक्यचश्चितं-विमानादिप्रकाशयुक्तं जातम्। तथा-कोकिलादिपक्षिणः साल-रसाल-तमालप्रमुख-शाखि
_ तथा जंगली जन्तु सहज-जन्म से ही उत्पन्न होने वाले-वैर को त्याग कर साथ-साथ चरने लगे और साथ-साथ चलने लगे और साथ साथ रहने लगे।
तथा-आकाश-मंडल मेघ-घटाओं से विहीन, स्वच्छ तथा देवों के विमानों आदि से चमचमाने लगा।
टीका
म भगवज्जन्म
कालवर्णना
આ પાણી પણ સ્વચ્છ, નિર્મળ અને સ્વાદિષ્ટ હતાં. પાણી પણ, ખેરાકની ગરજ સારે તેવાં હતાં. ને તૃષાતુરને શીતલતા આપે તેવા મીઠા અને ગુણયુક્ત હતાં.
જેમ પવનના કુંકાવાથી, પાણી હિલે ચઢે ને મોજાઓનું તાંડવનૃત્ય શરું થાય, તેમ દેશ અને રાષ્ટ્ર ભરના લોકોના ઉત્સાહને જુવાલ, ક્રમે ક્રમે વધવા માંડ્યો.
જંગલના પ્રાણીઓએ પિતાના વૈર યુક્ત સ્વભાવનું વિસ્મરણ કરવા માંડયું. એક બીજાને પ્રેમથી ચાહવા લાગ્યાં, ને આહાર-વિહાર આદિમાં, જરાપણુ ક્ષેભ અનુભવ્યા વિના, એકજ પ્રદેશે, ચરવા તેમજ હરફર કરવા લાગ્યાં. જાણે પ્રેમાળુ કુટુંબ હોય.
જંગલો સર્વ પ્રાણીઓ માટે ઉત્પન્ન થયેલાં છે, એમ, જંગલી પ્રાણીઓના મનમાં ભાવ પ્રગટ થયો. દરેકને સુખરૂપ અને સહાયક બનવું તેમ, તેમની મનોવૃત્તિ થવા લાગી. જાતિવેરની ભાવના અદશ્ય થવા લાગી. પિતપોતાની ભાષાઓ દ્વારા, પ્રેમસૂચક ચિન્હો બતાવવા લાગ્યાં. પિત પિતાની રીતે આનંદ વ્યક્ત કરતાં જણાવા લાગ્યાં. કદાપિ આ આનંદ, જીવનમાં નહિ આવ્યો હોય! તેમજ નહિં માર્યો હોય ! તેમ તેઓને જણાવા લાગ્યું. ને આવા ઉદ્ભવેલા આનંદને ભગવટો કરી લે, એમ માની, તેમાં ગરકાવ થયાં હોય તેમ તેઓ જણાવા લાગ્યાં,
આકાશ માર્ગો પણ, ચકચકિત વિમાનથી ભરચક ભરેલાં હતાં તેમ જણાતું હતું. વિમાનની હારમાળાઓ શ્યમાન થતી હતી. દેવવિમાનેથી, આકાશ માગ રુપાંઈ ગયું હોય તેમ જણાતું. વિમાનના અંદર થતાં નાહ્યા.
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कल्पमञ्जरी टीका
हमा
शाखा-शिखा-वलम्बिनः-तत्र-साला वृक्षविशेषाः, रसाला आम्राः, तमाला:=वृक्षविशेषाः, तत्प्रमुखा:-तत्मभृतयो ये शाखिनोवृक्षास्तेषां याः शाखाः तासां याः शिखा शिरःप्रदेशाः तदवलम्बिनः तदाश्रयिणः-तदघिष्ठायिनः सन्तः सहकार-सरस-मञ्जरो-रसाऽऽ-स्वादमादो-दश्चित-पञ्चमस्वराः-सहकाराणाम् आम्राणां याः सरसा:रसयुक्ता मञ्जयः, तासां यो रसास्वादस्तेन यो मादा-हर्षस्तेन उदश्चित: उदगतः पञ्चमस्वरः स्वरविशेषो येषां तथाभूताः, अत एव-मुखरा-शब्दं कुर्वन्तः, अनन्त-गुण-ग्राम-धाम-प्रभु-ललाम-यशो-गायकमूत-मागध-चारण-विडम्बिनः-अनन्ताअन्तरहिता ये गुणा:ज्ञानादयः तेषां यो ग्राम समूहः, तद्धाम यः प्रभु:चीरः तस्य यल्ललाम-शोभन यशः तद्गायका-तद्गानकर्तारो ये सूताबन्दिनः-स्तुतिपाठकाः, मागधा वंशपरम्परावर्णकाः, चारणाचन्दिविशेषाश्च, तद्विडम्विना तत्सादृश्यं भजन्तः सन्तो मधुरं-मिष्टं परं प्रकृष्टं कूजितुमारेभिरे-अव्यक्तं शब्दं कर्तुमारब्धवन्तः॥म्०५५॥
तथा-साल, रसाल, तमाल आदि वृक्षों की चोटियों पर चढ़े हुए कोकिल आदि पक्षी आम्रों की सरस मंजरियों के रसास्वादन के आनन्द से निकले हुए पंचम स्वर में मुखरित हो उठे-शब्द करने लगे तथा अनन्त गुणों के आधार प्रभु के सुन्दर यश के गायक सूतों-बन्दी जनों मागधों-वंशपरम्परा का बखान करने वालों, तथा चारणों को भी मात करते हुए मधुर और उत्तम रूप से कुजने लगे ।।सू०५५॥ રંભાને દિવ્યધ્વનિ, પૃથ્વી ઉપરના લેકે સાંભળી શકે તે તીવ્ર અને ઉચ્ચ શ્રેણીને હતે. કિન્નરો-ગંધ પિતાની ગાયનકળા અને નૃત્ય ઉચ્ચશ્રેણીના દેને બતાવી રહ્યાં હતાં. વિધાધરે, પિતાના પહાડો પરની રાજધાનીને, શણગારી તેજોમય બનાવી રહ્યાં હતાં ને પિતાની પુત્રીઓને, તે સમારંભના ઉત્સવ માણવા, પ્રેરણા કરી રહ્યાં હતાં. | કોયલ-કે કિલા-પોપટ વિગેરે જાનવરો પણ કદી નહિ જોગવેલ એ આમ્રરસ પાઈ રહ્યાં હતાં. પ્રકૃતિ (કુદરત) પણ તૃષાયમાન થઈ રહી હોય તેમ જણાતું હતું. કારણ કે, ઝાડપાન પરના ફળો લચી રહ્યાં હતાં ને મિઠાશથી ભરચક બની રહ્યાં હતાં. જંગલના અને વનવગડાંના પક્ષીઓને, ભગવાનના જન્મ સમયે, મિષ્ટ ભોજને આપવાના ઈરાદાથી, પ્રકૃતિએ કુદરતે પણ ફળ-ફળની આડે વગડે, રેલમછેલ કરી મૂકી હતી. અને આ ફળમાં બારેબાર સાકર ભરી દીધી હોય તેમ જણાતું.
આશ્રમંજરીના રસની મિઠાશથી, ધરાઈ ગયેલ કેય, પંચમ સ્વરથી, ગીતે ગાઈ રહી હતી. ને જીવનની अनुपम भाष, स पक्षी भाली Rai ai. (२०५५)-ersonal use only
भगवज्जन्मकालवर्णनम्
॥९
॥
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Conal
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मञ्जरी
टीका
मूलम्-जं रयणि च णं तिसला खत्तियाणी दारगं पसूया, तं रयणि च णं भवणवइ-चाणमंतरजोइसिय-विमाणवासि-देवेहि य देवीहि य उवयंतेहि य उप्पयंतेहि य एग महं दिव्वे देवुज्जोए देवसष्णिवाए
देवकहकहे उप्पिजलगभूए यावि होत्था । श्रीकल्पअह य देवा य देवीओ य एगं महं अमयवासं च गंधवासं च चुण्णवासं च पुप्फवासं च हिरण्ण
कल्पवासं च रयणवास च वासिंसु ॥मू०५६॥ ||१०||
छाया-यस्यां रजन्यां च खलु त्रिशला क्षत्रियाणी दारकं प्रामृत, तस्यां रजन्यां च खलु भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिषिक-विमानवासि-देवेषु च देवीषु च उपयत्सु उत्पतत्सु च एको महान् दिव्यो देवोदद्योतो देवसंनिपातः देवकलकल उत्पिञ्जलकभूतश्चापि बभूव ।
. अथ च देवा देव्यश्च एका महतीम् अमृतवर्षा च गन्धवां च चूर्णवर्षा च पुष्पवर्षा च हिरण्यहोनीर वर्षा च रनवर्षा च अवर्षन् ॥०५६॥ टीका-'जं रयणि च णं इत्यादि। यस्यां रजन्यां-रात्रौ च खलु त्रिशला क्षत्रियाणी दारकं-पुत्रं
भगवजन्मप्रामृत-अजनयत्, तस्यां रजन्यां च खलु भवनपति-व्यन्तर ज्योतिषिक-विमानवासि-देवेषु देवीषु च उपयत्सु काळवर्णनम्
मूल का अर्थ-'जं रयणि' इत्यादि। जिस रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी ने पुत्र को जन्म दिया, उस रात्रि में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों के भगवान् के समीप आते
और ऊपर जाते समय एक महान् दिव्य देव-प्रकाश हुआ, देवों का आपस में मिलन हुआ, देवों का 'कल-कल' शब्द हुआ-अस्फुट सामूहिक शोर हुआ, तथा देवों की अत्यन्त भीड़ हुई।
इस के पश्चात् देवों और देवियों ने एक बहुत बड़ी अमृतकीवर्षा की, सुगंधजलकीवर्षा की, पुष्पोकीवर्षा की, सोने-चांदी की वर्षा की और रत्नों की वर्षा को ।।०५६।।
टोका का अर्थ- 'जं रयणि' इत्यादि। जिस रात में त्रिशला क्षत्रियाणी ने पुत्र को जन्म दिया. उसी रात में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और विमानवासी देव और देवियों का आना-जाना हुआ। उनके
॥१०॥ भूगमन An - रयणि' त्याहि.२ समये लावानना भयो त समय, मने ते त्रिो, ભવનપતિ-વ્યંતર-જ્યોતિષ્ક અને વૈમાનિક દેવ અને દેવિઓ, ભગવાન સમીપ આવતાં, અને ઉપર જતાં તેથી એક પણ મહાન અદ્ભત પ્રકાશ ફેલાઈ ગયો. અને તે પ્રકાશ દિવ્ય હેઈ, તેની મહાન તેજોમય ઉજજવલતા પૃથ્વી પર દેખવામાં આવતી. કંt,
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श्रीकल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥११॥
टीका
समीपमागच्छत्सु, उत्पतत्सु-उपरि गच्छत्सु च सत्सु, सति सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् तृतीया, एको महान् दिव्यः= अद्भुतः देवोदद्योतः देवप्रकाशः, देवसंनिपातः= देवसम्मिलनं, देवकलकला-देवानामागतानां सामूहिकशब्दः, उत्पिञ्जलकभूतः=देवानामत्यन्तसंबाधश्चापि बभूव । _ अथ अनन्तरं देवा देव्यश्च एका महतीममृतवर्षा =सुधादृष्टिं, गन्धवर्षा गन्धद्रव्यदृष्टिं, चूर्णवर्षा =मुगन्धिचुगदृष्टिं, पुष्प वर्षा च हिरण्यवर्षा-स्वर्णदृष्टिं रजतवृष्टिं वा रत्नवर्षा रत्नवृष्टिं च अवर्पन्=कृतवन्तः ।।०५६।।
मूलम्-तए णं आसणेमु कंपमाणेसु छप्पन्नं दिसाकुमारीओ ओहिनाणोवओगेण भगवओ सिरिमहावीरस्स संसारतारहारं जम्मं जाणिय सोकरिसहरिसा सिग्यं सिग्यं पमूइघरं समागया, तं जहा
भोगंकरा १, भोगवई २, सुभोगा ३, भोगमालिणी ४, सुवच्छा ५ वच्छमित्ता ६ वारिसेणा ७ बलाहगा ८; एयाभो अढदिसाकुमारीओ अहोलोगाओ आगया तित्थयरं तित्थयरमायरं च कमणिज्जभावभरियचेयसा अभिवंदिऊण पसूइघरं संवगवाएण विसोहित्ता सुगंधवरगंधियं गंधवटिभूयं किच्चा भगवओ तित्थयरस्स तित्ययरमाऊए य अदरसामंते आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिढिसु ॥मू०५७॥
भगवजन्म- कालवर्णनम्
आने-जाने से लोगों में एक महान् अद्भुत प्रकाश फैल गया। देवों का सम्मिलन हुआ। आये हुए देवों का कल-कल शब्द हुआ। तथा देवों की खूब भीड़ हुई, अर्थात् इतने बहुत देवों और देवियों का आगमन हुआ कि राजभवन विशाल होने पर भी उसमें समाना कठिन हो गया।
इसके पश्चात् देवों और देवियों ने एक बड़ी सुधा की वर्षा की, सुगंधित द्रव्यों की वर्षा की, सुगंधित चूर्ण की वर्षा की, पुष्पों की वर्षा की, सोने-चांदी की वर्षा की और रत्नों की वर्षा की ॥०५६॥
દે અંદર અંદર મળતા ઝુલતાં હતાં, તેથી “કલ-કલ’ શબ્દનો શેર બકેર પણ થતું હતું. આ શોર અરફુટ રહે. અને દેવ-દેવીઓની ખૂબ ભીડ જામી હતી.
ત્યારપછી દે અને દેવીઓએ એક ઘણી મોટી અમૃતવર્ષા કરી, સુગંધવર્ષા કરી, ચણવષ કરી, भर्ना ७२, सोनाथांदी भने २त्नानी ५५ | 3री. (सू०५६)
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सत्र
टीका
छाया-ततः खलु आसनेषु कम्पमानेषु षट्पश्चाशद् दिक्कुमार्यः अवधिज्ञानोपयोगेन भगवतः श्री-भर महावीरस्य संसारतापहारं जन्म ज्ञात्वा सोत्कर्षहर्षाः शीघ्रं शीघ्रं प्रसूतिगृहं समागताः। तद्यथा
भोगङ्करा १, भोगवती २, सुभोगा ३, भोगमालिनी ४, सुवत्सा ५, वत्समित्रा ६ वारिसेना ७ भीकल्पबलाहका ८। एता अष्टदिक्कुमार्योऽधोलोकादागताः, तीर्थकर तीर्थकरमातरं च कमनीयभावभृतचेतसाभि
कल्प
मञ्जरी ॥१२॥
वन्ध प्रसूतिगृहं संवर्तकवातेन विशोध्य सुगन्धवरगन्धितं गन्धवर्तिभूतं कृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च अदरसामन्ते आगायन्त्यः परिगायन्त्योऽतिष्ठन् ॥०५७॥
मूल का अर्थ-'तए ण' इत्यादि । तत्पश्चात आसनों के कॉपने पर छप्पन दिशाकुमारी देवियाँ. अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर भगवान् श्रीमहावीर का संसार के ताप को हरने वाला जन्म जान कर, अत्यधिक हर्षित होकर जल्दी-जल्दी प्रसूतिगृह में आयीं। वे इस प्रकार थी
(१) भोगंकरा (२) भोगवती (३) सुभोगा (४) भोगमालिनी (५) सुबत्सा (६) वत्समित्रा (७) वारिसेना (८) बलाहका; यह आठ दिक्कुमारियाँ अधोलोक से आयीं। ये तीर्थंकर को और तीर्थकर की माता भगवजन्म को, प्रशस्त भावों से भरे हुए चित्त से नमस्कार करके, प्रसतिगृह को संवर्तक वायु से शुद्ध करके, श्रेष्ठ सुगंधों से सुगंधित करके, गंध की बत्ती जैसा बना कर, भगवान् तीर्थकर और तीर्थकर की माता से न अधिक दूर न अधिक समीप अर्थात् थोड़ी दूरी पर खड़ी २ आगान और परिगान करने लगीं ॥१०५७॥
भूजन अर्थ-'तप 'त्यादि. भासन पायमान थdi, छपन शिभाशयाये, भवधिज्ञानना કરે ઉપયોગ મૂકી જોયું કે, તેમને જાણવામાં આવ્યું કે, સંસારના તાપ હરવાવાળા ભગવાન મહાવીર દેવને જન્મ ડો થયો છે. આથી, તેઓ ઘણી હર્ષિત થઈને, ઉતાવળી-ઉતાવળી પ્રસૂતિગૃહમાં આવી પહોંચી.
આ દિશાકુમારી કેટલી અને કયા કયા પ્રકારની હતી તે નીચે મુજબ વર્ણવવામાં આવે છે, ને તેઓનું શું શું કાર્ય હોય છે. તેની રૂપરેખા પણ બતાવવામાં આવે છે.
शिमारियाना २-(1) ४२(२) नागपती (3) सुना(४) सामालिनी (५) सुबत्सा (8) वत्सभित्रा (७) वारिसना (८) MAIT 241 माहाभारिमा पालेभाथी मावी.
॥१२॥ આ કુમારીકાએ પિતાની ફરજ અનુસાર, તીર્થકર અને તેમની માતાને, ભાવ ભર્યું વંદન કરે છે. ત્યારબાદ, પ્રસૂતિ ગૃહને સંવત્તક વાયુ દ્વારા, સાફસુફ કરી શુદ્ધ કરે છે. શ્રેષ્ઠ સુગંધિ પદાર્થો દ્વારા તેને સુગંધિત नावे . ती ४२ भने तमना भाताची थोउ २ की २९ ताथ"२ने asi आय छे. (२०५६)
कालवणन
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श्रीकल्पमूत्रे
।।१३।।
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टीका- 'तरणं आसणे' इत्यादि । ततः खलु स्वस्वासनेषु कम्पमानेषु सत्सु षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः = पूर्वादिषु दिक्षु स्थिताः कुमारिकाः अवधिज्ञानोपयोगेन भगवतः श्रीमहावीरस्य संसारतापहारं =भवसन्तापहारकं जन्म ज्ञाear सोत्कर्षहर्षा:- सोत्कर्ष : = उत्कर्षसहितो हर्षः = प्रमोदो यासां तथाभूताः सत्यः शीघ्रं शीघ्रम् = अतिशीघ्रं प्रसूतिगृहं = प्रसवभवनं समागताः । तद्यथा
भोगङ्करा १, भोगवती २, सुभोगा ३ भोगमालिनी ४, सुवत्सा ५ वत्समित्रा ६, वारिसेना ७ बलाहका ८; एता अष्टदिक्कुमार्योऽघोलोकाद्=अधोलोके गजदन्तगिरिचतुष्टयस्य अधस्तात् स्थितेभ्यः स्वस्व
टोका का अर्थ- 'तए णं' इत्यादि । अपने-अपने आसनों के कम्पायमान होने पर छप्पन दिशाकुमारियाँ अर्थात् पूर्व आदि दिशाओं में स्थित कुमारियाँ, अवधिज्ञान के उपयोग (व्यापार) से भगवान् श्रीमहावीर का, भवजनित संताप को हरण करने वाला जन्म जान कर, अत्यधिक हर्षयुक्त होकर अत्यन्त शीघ्र ही प्रसूतिगृह में आ पहुँचीं । वे इस प्रकार थीं—
(१) भोगंकरा (२) भोगवती (३) सुभोगा (४) भोगमालिनी (५) सुवत्सा (६) वत्समित्रा (७) वारिसेना और (८) बलाहका ये आठ दिशाकुमारियाँ अधोलोक से अर्थात् अधोलोक के चार गजदन्त
ટીકાના અથ’–‘તત્ત્વ ન ઇત્યાદિ. પરમ વીતરાગી પુરુષના જન્મ થતાં, કુદરતી કાનૂન અનુસાર, છપ્પન શાકુમારિએના આસન હચમચી ઉઠે છે અને અસ્થિર માલુમ પડે છે. આવા આસના કદાપિ પણુ ચલાયમાન થતાં નથી. છતાં તેમનુ ચલિતપણું જોઇ, ઘડી એક ભર વિચારમગ્ન બની જાય છે. વિચારમગ્ન થતાં, કાંઇ સમજણુ નહિ પડવાથી, પેાતાના અવધિજ્ઞાનને ઉપયોગ કરે છે. આ જ્ઞાનદ્વારા, ઘણે દૂર દૂર અનતાં બનવા જોઈ, કાઈક નિય પર આવી જાય છે. તદનુસાર, ઉપયાગ દ્વારા, જોતાં જણાયું કે, ભરતક્ષેત્રમાં આ ચોવીશીના અતિમ તીથ"કરને જન્મ, ત્રિશળા રાણીની કૂખથી થયેા છે.
આ જાણ થતાની સાથેજ, તમામ કામ પડતાં મૂકી, ઉતાવલી-ઉતાવલી દોડતી આવી, પ્રસૂતિ ગૃહમાં હાજર થઇ ગઇ. ભગવાનને જોતાં, તેમના દેહ-મન અને વાણી પ્રફુલ્લિત થયાં.
આ આઠે કુમારિઓ, નીચે અધેલેાકમાં વાસ કરીને રહે છે. તેના વાસ, હાથીના દંતૂશળના આકારે રહેલાં પુ તેની નીચે અનેલાં ભવનેામાં હોય છે.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवज्जन्म
कालवर्णनम्
॥१३॥
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श्री कल्पसूत्रे
॥१४॥
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भवनेभ्य आगताः सत्यः तीर्थकरं =भावितीथङ्करत्वं बुद्धिविषयीकृत्य प्रयोगात् सम्प्रत्यपि तीर्थकर, च = पुनः तीर्थकर मातरं कमनीयभावभृतचेतसा=प्रशंसनीयभावपूर्णमनसा अभिवन्द्य प्रणम्य प्रसूतिगृहं प्रसवगृहं संवर्तकवातेन= संवर्तक नामक वायुना विशोध्य संमाये मुगन्धवरगन्धितम् = उत्तमगन्धमुगन्धितं तथा-गन्धवर्तिभूतम्=अनेकविधगन्धगुटिकायां यथा सौरभ्यं तादृशसौरभ्यवत्वेन तत्सदृशं - नानागन्धान्वितं कृत्वा भगवतः तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च अदूरसामन्ते= नातिदूरे नाविसमीपे आगायन्त्यः = गीतप्रारम्भकाले मन्द्रस्वरेण गायन्त्यः परिगायन्त्य: गीत प्रारम्भानन्तरं तारस्वरेण गायन्त्यः श्रतिष्ठन् स्थितवत्यः ॥ मु० ५७॥
पर्वतों के नीचे रहे हुए अपने - अपने भवनों से आयीं । उन्होंने तीर्थंकर को (भावी तीर्थंकरत्व का आश्रयण कर वर्तमान में भी 'तीर्थंकर' शब्द का प्रयोग किया गया है) तथा तीर्थंकर की माता को, प्रशंसनीय भावों से परिपूर्ण मन से बन्दन किया । वन्दन करके प्रसूतिगृह को संवत नामक वायु से स्वच्छ किया । उत्तम गंध से सुगंधित किया । अनेक वाली बत्ती में जैसा सौरभ होता है, वैसे ही सौरभ से युक्त होने के कारण गंधवती के समान किया अर्थात् नाना प्रकार की सुगंधों से युक्त किया। फिर तीर्थंकर और तीर्थंकर की माता से न ज्यादा दूर न ज्यादा समीप में वे आगान तथा परिगान करने लगीं । अर्थात् गीत प्रारंभ करते समय मन्द्र (धीमे ) स्वर से तथा प्रारंभ करने के बाद तार (ऊँचे) स्वर से गाती हुई खड़ी रहीं ||०५७॥
તેઓ પિરપૂણ ભાવેથી, આવા વીતરાગી પુરુષને તથા તેમની માતાને, વંદન-નમસ્કાર કરે છે. ને પોતાની ફરજ ઉપર મૂડી જાય છે. આ કુમારિકાઓની ફરજ પ્રથમ વખતે પ્રસૂતિગૃહનુ' મેલ' ઉપાડી, ફેંકી દઇ, તેને સાસુ કરવાનુ હોય છે. આ માલાએ, ઝપાટામાં, નિમેષમાત્રમાં, સાફ કરી નાખે તેવા ચક્કર ચક્કર ફરતા સંવત્તક નામના વાયુના ઉપયાગ કરે છે. ત્યારબાદ, સુગ ંધિ પદાર્થોના છંટકાવ કરી, પ્રસૂતિ ગૃહને, મઘ-મધાયમાન બનાવી મૂકે છે, ને માતા તેમજ બાળકને જાતે સાફ કરી, બાળકને પારણામાં સુવાડી પહેલું હાલરડું ગાય છે, અને જરા દૂર ઉભી રહે છે. (સૂ૦૫૭)
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवज्जन्म
कालवर्णनम्
॥ १४ ॥
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कल्पमञ्जरी टीका
॥१५॥
मूलम्-मेहंकरा १, मेहबई २, मुमेहा ३, मेघमालिनी ४, तोयधरा ५, विचित्ता ६, पुप्फमाला ७ अणिदिया ८; एयाओ अट्ठ उड्ढलोगायो आगया, पंचवण्णपुप्फवुदि किच्चा भगवश्री महावीरस्स तम्माऊए य अदरसामंते आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिलुिस ।१६। .
नंदोत्तरा १, नंदा २, आणंदा ३, नंदिवद्धणा ४, विजया ५, वेजयंती ६, जयंती ७, अपराजिता ८; एयाआ अट्ट पुरत्थिमाओ रुयगपञ्चयाओ आगया आयंसहत्थगयाओ भगवओ तिसलाए य पुरथिमेणं चिटिंसु । २४।
समाहारा १, सुप्पइण्णा २, सुप्पबुद्धा ३, जसोहरा ४, लच्छीवई ५, सेसवई ६, चित्तगुत्ता ७, वसुंधरा ८ एयायो दाहिणाओ रुयगपव्ययाओ आगया भिंगारहत्थगयाओ भगवओ तिसलाए य दाहिणणं आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिर्टिसु ।३२।।
___ इलादेवी १, सुरादेवी २, पुढवी ३, पउमावई ४, एगणासा ५, णवमिया ६, सीया ७, भदा ८; एयाओ अट्ठ पचत्थिमाओ रुरागपव्ययाओ आगया तालियंटहत्थगयाओ भगवओ तिसलाए य आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटिंसु । ४०।
अलंबुसा १, मियकेसी २, पुंडरीगिणी ३, वारुणी ४, हासा ५, सव्वगा ६, सिरी ७, हिरी ८ एयाओ अट्ठ उत्तरिल्लाओ रुयगपञ्चयाओ आगया चामरहत्थगयाओ भगवओ तिसलाए य उत्तरेण आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिदिसु । ४८।
चित्ता १, चित्तकणगा २, सएरा ३, सोयामिणी ४; एयायो चउरो विदिसिरुयगाो आगया दीवियाहत्थगयाओ भगवओ तिसलाए य चउसु विदिसामु आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटिंसु ॥५२॥
ख्वा १, रूवंसा २, सुरूवा ३, स्वबई ४, एयाओ चउरो रुयगमज्झायो आगया भगवो तित्थयरस्स चउरंगुलावसिटं नाभिनालं कप्पित्ता भूमोए निहणिंसु ।५६॥
तए णं छप्पन्नं दिसाकुमारीओ तित्थयरं 'भवउ भगवं पब्वयाउए'-त्ति वइत्ता आगायमाणीओ परिगायJain Education internat माणीओ चिढिसु ॥१०५८॥
मेघङ्करादिः दिक्कुमा
रीणाम् का आगमनम्
॥१५॥
Se
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श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥१६॥
टीका
छाया-मेघङ्करा १, मेघवती २, सुमेघा ३, मेघमालिनी ४, तोयधरा ५, विचित्रा ६, पुष्पमाला, ७, अनिन्दिता ८; एता अष्ट ऊर्ध्वलोकात् आगताः पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं कृत्वा भगवतो महावीरस्य तन्मातुश्च अदरसामन्ते आगायन्त्यः परिगायन्स्यः अतिष्ठन् ।१६।
नन्दोत्तरा १, नन्दा २, आनन्दा ३, नन्दिवर्द्धना ४, विजया ५, वैजयन्ती ६, जयन्ती ७, अपराजिता ८; एता अष्ट पौरस्त्यात् रुचकपर्वतात् आगता आदर्शहस्तगता भगवतस्त्रिशलायाश्च पौरस्त्येन आगायन्त्यः परिगायन्त्योऽतिष्ठन् । २४। ____ समाहारा १, सुप्रतिज्ञा २, सुप्रबुद्धा ३, यशोधरा ४, लक्ष्मीवती ५, शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७,
मूल का अर्थ- 'मेहंकरा' इत्यादि । (१) मेघंकरा (२) मेघवती (३) सुमेघा (४) मेघमालिनी (५) तोयधरा (६) विचित्रा (७) पुष्पमाला और (८) अनिदिन्ता; ये आठ दिशाकुमारिया ऊर्बलोक से आयीं। वे पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा करके भगवान महावीर और उनकी माता से कुछ दूर, आगान-परिगान करती हुई खड़ी रहीं (१६)
(१) नन्दोत्तरा (२) नन्दा (३) आनन्दा (४) नन्दिवर्द्धना (५) विजया (६) वैजयन्ती (७) जयन्ती प और (८) अपराजिता; ये आठ पूर्व दिशाके दिशाकुमारिया रुचक पर्वत से आयीं और आयना हाथ में लिये भगवान् तथा त्रिशला के पूर्व दिशा में आगान तथा परिगान करती हुई खड़ी रहीं। (२४)
(१) समाहारा (२) सुप्रतिज्ञा (३) सुप्रबुद्धा (४) यशोधरा (५) लक्ष्मीवती (७) चित्रगुप्ता और
भूगना स–'मेहकरा' त्याहि. (१) भेव ४२० (२) भेषवती (3) सुभेधा (४) भेवमालिनी (५) ताया (6) वियित्रा (७) पुथ्यमाणा (८) अनिहिता, २. माहिशामा४िाम भांधी तरी मावी. आ माताએએ પંચરંગી ફુલેની વૃષ્ટિ કરી, ભગવાન અને તેની માતાને હાલરડાં સંભલાવતી, જરા દૂર ઉભી રહી. (૧૬)
(१) नहात्त। (२) । (3) मानहा (४) नविन (५) विन्या (6) पश्यन्ती (७) जयन्ती (૮) અપરાજીતા, એ આઠ, પૂર્વ દિશામાં રહેલી દિશાકુમારિકાઓ, રુચક પર્વત ઉપરથી ઉતરી આવી તેઓના હાથમાં પણ હતાં. ભગવાન અને તેમની માતાને વિધિયુક્ત વંદન કરી, જરા દૂર ઉભી રહી, હાલરડાં ગાવા લાગી ने सापानने रियाणा avil. (२४)
(१) समाजा२८ (२) सुप्रतिज्ञा (3) सुप्रथुद्धा (४) यशोधरा (५) समीपती (६) शेषता (७) [यस्ता
मेघडरादिदिक्कुमारीणाम् आगमनम्
5
ર
॥१६॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥१७॥
वसुन्धरा ८ एता अष्ट दक्षिणस्मात् रुचकपर्वतात् आगता भृङ्गारहस्तगता भगवतः त्रिशलायाश्च दक्षिणेन आगायन्त्यः परिगायन्स्यः अतिष्ठन् ।३२।
इलादेवी १, मुरादेवी २, पृथ्वी ३, पद्मावती ४, एकनासा ५, नवमिका ६, सीता ७, भद्रा ८% एता अष्ट पाश्चात्त्यात् रुचकपर्वतात् आगतास्तालगन्तहस्तगता भगवतः त्रिशलायाश्च पाश्चात्येन आगायन्त्यः परिगायन्त्यः अतिष्ठन् ।४।
अलम्बुषा १, मितकेशी २, पुण्डरीकिणी ३, वारुणी ४, हासा ५, सर्वगा ६, श्रीः ७, हीः ८; एता अष्ट उत्तरीयाद् रुचकपर्वतात् आगताः चामरहस्तगताः भगवतस्त्रिशलायाश्च उत्तरेण आगायन्त्यः परिगायन्त्यः अतिष्ठन् । ४८।
कल्पमञ्जरी
टीका
मेघङ्करादि
कुमा रीणाम्
वसुन्धरा; ये आठ दिशाकुमारिया दक्षिण दिशा के रुचक पर्वत से आई। इनके हाथों में श्रृंगार (झारी) था। ये भगवान् और त्रिशला के दक्षिण भाग में आगान-परिगान करती हुई खड़ी रहीं (३२)।
(१) इलादेवी (२) मुरादेवी (३) पृथ्वी (४) पद्मावती (५) एकनासा (६) नवमिका (७) सीता और (८) भद्रा; ये आठ दिशाकुमारिया पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत से आई। इनके हाथ में पंखे थे। ये भगवान् और त्रिशला के पश्चिम भाग में आगान-परिगान करती हुई खड़ी रहीं। (४०)
(१) अलंम्बुषा (२) मितकेशी (३) पुण्डरीकिणी (४) वारुणी (५) हासा (६) सर्वगा (७) श्री और ही; (८) ये आठ दिशाकुमारिया उत्तर के रुचक पर्वतसे आई। इनके हाथमें चमर थे। ये भगवान और त्रिशला के उत्तर भाग में आगान-परिगान करती हुई खडी रहीं (४८)
आगमनम्
(૮) વસુન્ધરા; એ આઠ દિવાળાએ દક્ષિણ દિશાના સૂચક પર્વત ઉપરથી આવી પહોંચી. આ આઠેની હાથમાં ઝારી ती. ५२ प्रमाणे विधि तापी, भाव 4 al. (३२)
(१) March (२) सुराहेवी (3) पृथिवी (४) पावती (५) नासा (6) नाम (७) सीता (८) भद्रा; આ બાળાએ પશ્ચિમ દિશાના રુચક પર્વત ઉપરથી આવે છે. તેઓના હાથમાં પંખા હોય છે. ભગવાન અને
भाताने न ४३री, भात आती २२ भी २. 2. (४०) Sani (१) मभुषा (२) भिती (3) Non (४) पाणी (५) MAI (६) स॥ (७) श्री (८) 41; मा
॥१७॥
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श्रीकल्पसूत्रे
||१८||
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चित्रा १, चित्रकनका २, शतेरा ३, सौदामिनी ४; एताश्रतस्रः विदिचकात् आगताः दीपिकाहस्तगताः भगवतस्त्रिशलायाश्च चतसृषु दिक्षु आगायन्त्यः परिगायन्त्यः अतिष्ठन् । ५२ ।
रूपा १, रूपांशा २, सुरूपा ३, रूपावती ४; एताश्चतस्रः रुचकमध्यात् आगता भगवतस्तीर्थकरस्य चतुरङ्गुलावशिष्टं नाभिनालं कल्पित्वा भूम्यां न्यखनन् ॥५६॥
ततः खलु षट्पञ्चाशद् दिशाकुमार्यः तीर्थकरं 'भवतु भगवान् पर्वतायुष्कः' इति उदित्वा श्रागायन्त्यः परिगायन्त्योऽतिष्ठन् ||०५८||
(१) चित्रा (२) चित्रकनका (३) शतेरा (४) सौदामिनी; ये चार दिशाकुमारियाँ विदिशाओं (दिक्कोणों) से आई । इनके हाथ में छोटे-छोटे दीपक थे। ये भगवान और त्रिशला के चारों विदिशाओं में आगान - परिगान करती हुईं खडी रहीं । (५२)
(१) रूपा (२) रूपांशा (३) मुरूपा और (४) रूपवती; ये चार दिशाकुमारियाँ रुचक पर्वत के मध्यभाग से आई। इन्होंने भगवान् तीर्थंकर के चार अंगुल शेष नाल को काट कर भूमि में गाड़ दिया । (५६) ये छप्पन दिशाकुमारियाँ 'भगवान् पर्वत के समान चिरायु हों' इस प्रकार के आशीर्वाद वचन बोल करके आगान - परिगान करती हुईं खडी रहीं ।। ०५७ || આઠ દિકુમારીએ, ઉત્તરના રુચકપ્રદેશ પરથો આવી. તેના હાથમાં ‘ચમર' હતાં. उली रही. (४८)
તેઓ ગાયન કરતી, નજીકમાં
(१) चित्रा (२) चित्राना ( 3 ) शतेश (४) सौदामिनी; आ यार कुमारि ઉતરી આવી. તેએના હાથમાં નાના નાના ‘દીપકા' હતાં. આ ચારે જણીએ गाध रही. (पर)
विद्विशाओ। (आशा) भांथी ખૂણાઓમાં ઉભી રહી. હાલરડાં
(१) ३५ा (२) ३यांशा (3) सु३पा (४) ३पवती में यार मारियो स् આવી રહી. આ કુમારિકાઓએ, ભગવાનના ચાર અંગુળ પ્રમાણ નાળને કાપી, ભૂમિમાં આ છપ્પન દિશાકુમારી ‘ભગવાન પર્વતની સમાન ચિરાયુ થા' આ माउली रही. (सू०५८)
पर्वतना मध्य भागभांथी દાટી દીધા. (૫૬) પ્રકારે કહી ગાણાં ગાતી
कल्प
मञ्जरी
टीका
मेघङ्करादिदिक्कुमा
रीणाम् आगमनम्
॥१८॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥१९॥
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टीका- 'मेहकरा' इत्यादि । स्पष्टम्, ऊर्ध्वलोकात् भद्रशालवनस्य समभूतलात् पञ्चशतयोजनोच्च नन्दनवनगतपञ्चशतयोजनममाणाऽष्टकूटरूपस्थानात् । अदुरसामन्ते= नातिदूरे नातिसमीपे । १६ ।
'नंदोत्तरा' इत्यादि । स्पष्टम्, नवरम् - आदर्शहस्तगताः - हस्तगतः = हस्तस्थः आदर्शो = दर्पणो यासां ताः= हस्तगृहीतदर्पणा इत्यर्थः । 'हस्तगत' शब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । २४ । 'समाहारा' इत्यादि । स्पष्टम् भृङ्गारहस्तगताः - भृङ्गारः = ' झारी' इति भाषामसिद्ध:, यासां ताः ॥ ३२ ॥ 'इलादेवी' इत्यादि । स्पष्टम्, नवरम् - तालवृन्तहस्तगताः - तालवृन्तानि व्यजनानि हस्तगतानि यासां ताः - तालव्यजनधारिण्य इत्यर्थः । ४० ।
स हस्तगतो
टीका का अर्थ 'मेहंकरा' इत्यादि । 'मेहंकरा' इत्यादिका अर्थ स्पष्ट है । केवल विशेष इतना ही है। किये ऊर्ध्व लोक से आई अर्थात् भद्रशाल वन के सम भूभाग से पाँच सौ योजन ऊँचा नन्दन वन है, उसमें पाँच सौ पाँच सौ योजन प्रमाणवाले आठ कूटों से आई । 'अदुरसामंते' का अर्थ है-न अधिक दूर, न अधिक समीप । इन्होंने पांच वर्ण के फूलों की वर्षा की।
'नंदोत्तरा' आदिका अर्थ स्पष्ट है। केवल 'आदर्शहस्तगताः' का अर्थ है - उनके हाथों में दर्पण थे |२४| समाहारा इत्यादि स्पष्ट है । 'भृङ्गार हस्तगताः' अर्थात् इनके हाथों में झारी थी |३२| इलादेवी आदि स्पष्ट है। केवल इनके हाथों में ताड़-पंखे थे, इतना समझना चाहिए |४०|
टीना अर्थ - 'मेघकरा' इत्यादि सूत्रनो अर्थ स्पष्ट छे. ३४ ले आयोऽथी भावी એટલે ભદ્રશાળ વનની સમભૂમિથી પાંચશે જોજન ઊ'ચુ' નદનવન છે. ત્યાં પાંચસે પાંચસે યાજન પ્રમાણુવાળા आठ छूटी आसां छते टोथी यावी. अदूरसामंते नो अर्थ - नहि हर नहि नल, तेथे थाय छे. (१६)
'नंदोत्तरा' विगेरेन। अर्थ स्पष्ट छ ठेवण - आदर्शहस्तगताः नो अर्थ मेवा थाय छे तेयोना हाथमां हर्षशु डतां. (२४) समाहारा इत्याहि स्पष्ट छे. भृङ्गारहस्तगताः नो अर्थ सेवा थाय छेडाथमा 'जारी' Sona (ती. (३२) इलादेवी विगेरेन। अर्थ स्पष्ट छे. ३४ तेखाना डाथमां ताडना या हतां, तेवा अर्थ अद्धि राय छे. (४०)
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कल्प
मञ्जरी टीका
मेघङ्करादिदिक्कुमा
रीणाम्
आगमनम्
॥१९॥
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श्रीकल्प
'अलंबुसा' इत्यादि। स्पष्टम् , नवरम्-चामरहस्तगता:चामरधारिण्यः । ४८। 'चित्ता' इत्यादि। स्पष्टम् , नवरम्-दिपिकाहस्तगताः दीपधारिण्यश्चतस्रः । ५२ । 'रूवा' इत्यादि। स्पष्टम् , नवरम्-रूपादयश्चतस्रो नाभिनालच्छेदिन्यः । ५६। रुचकपर्वतो हि जम्बूद्वीपस्थमेरुपर्वतस्य प्राकाररूपेण वर्तत इति बोध्यम् ॥
'तए णं इत्यादि । ततः खलु ताः पूर्वोक्ताः षट्पञ्चाशदपि दिक्कुमार्यः 'हे भगवन् ! भवान् पर्वतायुष्कापर्वतवत् चिरायुष्को भवतु' इति इत्थम् आशीर्वचनं तीर्थकरम्-उदित्वा-उक्त्वा आगायन्त्यः परिगायन्त्योऽतिष्ठन् ॥सु० ५८॥
कल्पमञ्जरी टीका
॥२०॥
अलंबुषा आदि स्पष्ट है। सिर्फ यह विशेषता है कि ये चामरधारिणी थीं ।४८॥ चित्रा आदि स्पष्ट है। सिर्फ-यह विशेषता है कि ये चार दीपक लिये थीं ॥५२॥ रूपा आदि स्पष्ट है। सिर्फ यह विशेषता है कि ये चार नाल छेदन करने वाली थीं ।५६। रुचक पर्वत जम्बूद्वीप के प्राकार (परकोटे) के रूप में अवस्थित है, ऐसा समझना चाहिए।
यह सब छप्पन दिशाकुमारिया 'हे भगवन् ! आप पर्वत के समान चिरायु हो' इस प्रकार तीर्थकर को आशीष के वचन कह कर आगान और परिगान करती हुई स्थित हुई ।मु०५८॥
मेघङ्करादिदिक्कुमारीणाम् आगमनम्
अलम्बुषा माहिना अर्थ पण स्पष्ट छ. विशेषता ही है साहामारियाना डायमां, 'याभर' २ai Gai. (४८)
चित्रा माहि स्पष्ट छ. विशेषमा ते न्यारेना डायमा हवा तi. (५२)
रूपा मा स्पष्ट छ. विशेषता - यार शामारीमा नाम छे ४२वावाणी ती. (५६) स्या પહાડ, જંબૂ દ્વીપના પ્રકાર સમાન લેખાય છે.
આ સર્વ છપ્પન દિશાકુમારિકાઓ, ભગવાનને, હે ભગવન! ‘તમે પર્વતની સમાન ચિરાયુ થાઓ” એવા ___साशिवयना मोबी, मातi audi cell २४ी. (२०५८) & Personal use only
॥२०॥
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मञ्जरी
टोका
- मूलम्--तए णं आसणंसि कंपमापंसि सक्के देविंदे देवराया ओहिणाणेण चरमतित्थयरस्स जम्मणं जाणिऊण सिद्धाणं तित्थयरस्स य 'नमोत्थु ण' दलइ, दलित्वा हरिणेगमेसिणं देवं पायत्ताणीयाहिवई जोयण
परिमंडलं सुघोसं घंटं घोसिउं आगवेइ । तए णं हरिणेगमेसिणा देवेणं सुघोसाए घंटाए घोसियाए समाणीए श्रीकल्प
सोहम्मे कप्पे अग्णेमु बत्तोसविमाणसयसहस्सेसु अण्णाई एग्रगाई बत्तीसघंटासयसहस्साई जमगसमगं कणकणमूत्र ॥२१॥ रावं काउं पवत्ताई। तर णं अकम्हा आसाइयाए संपयाए दीणा विव तम्मि समयम्मि सव्वे देवा य देवीओ य
दिव्यं आणंदं अणुहविंसु।
तए णं हरिणेगमेसिदेवेणं घोसियं सकिंदस्स आणं सोचा सव्वे देवा हट्टतुटा हरिसवस-विसप्पमाणहियया सयसयविमागमारुहिय चलिया। तत्थ केवइया इंदस्स आणाए, केवइया मित्तपेरिया, केवइया देवीपेरिया, केवइया कोउगालोयणुकंठिया, केवइया अब्भुयं दहें, केवइया तित्थयरजम्ममहोच्छवं दद्र, केवइया भगवंतं दव, केवइया इमो भयवं मुत्तिमग्गस्स दरिसगो भविस्सइ-त्ति कटु, केवइया इमाए ओसप्पिणीए अस्सि भारहवासे इमो चरिमो तित्थयरो-त्ति कडु, केवइया अप्पणिजभावेण, केवइया भत्तिभावेण चलिमु ॥मू० ५९॥
छाया-ततः खलु आसने कम्पमाने शक्रो देवेन्द्रो देवराजः अवधिज्ञानेन चरमतीर्थकरस्य जन्म हजार ज्ञात्वा सिद्धेभ्यः तीर्थकराय च नमोत्थु णं-(नमोऽस्तु खलु) ददाति, दत्त्वा हरिणैगमेपिणं देवं पदात्यनीकाधिपति
लका अर्थ-'तर ' इत्यादि । तत्पश्चात् आमन कापने पर शक देवेन्द्र देवराज ने अवधिज्ञान से
र्थिकर का जन्म जान कर सिद्धों को तथा तीर्थकर को 'नमोत्थु णं' दिया, देकर पदात्यनीकाधिपति (पैदल सेना के सेनापति) हरिणैगमेषी देव को एक योजन घेरा वाली सुघोषा नाम की घंटा बजाने की आज्ञा दी। हरिणैगमेपी देव ने जब सुघोषा घंटा बजाई तो सौधर्म देवलोक के एक कम बत्तीस लाख
भूगना -'तप ज' त्या6ि. शहेन्द्रनु ५५ मिडासन यति यतi त यार ४२१। साया. भवधिજ્ઞાનના ઉપગ વડે દૃષ્ટિ ફેંકતા, તેને તીર્થંકરને જન્મ થયો જણાય. સિદ્ધ ભગવાન અને તીર્થકરને નમોજુ જે
ના પાઠ બેલી નમસ્કાર કર્યા. છે ત્યાર બાદ પાયદળ સેનાના અધિપતિ હરિશૈગમેથી દેવને, “સુષા’ નામને ઘંટ બજાવવા હુકમ કર્યો. આ
नना घेरावावाणा अनवा 6dl. For Private & Personal use only
सनकम्पः, शक्राज्ञया देवानां भगवदर्श
नार्थ र
चलनम्
कर
॥२१॥
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श्रीकल्प
कल्प
योजनपरिमण्डलां सुघोषां घण्टां घोषयितुम् आज्ञापयति । ततः खलु हरिणैगमेषिणा देवेन सुघोषायां घण्टायां योषितायां सत्यां सौधर्मे कल्पे अन्येषु एकोनद्वात्रिंशद्विमानशतसहस्रेषु अन्यानि एकोनानि द्वात्रिंशद्यण्टाशतसहस्राणि युगपत् कनकनरावं कर्तुं प्रवृत्तानि । ततः खलु अकस्मादासादितया सम्पदा दीना इव तस्मिन समये सर्वे देवाश्च देव्यश्च दिव्यमानन्दमन्वभूवन ।।
ततः खलु हरिणैगमेषिणा देवेन घोषितां शक्रेन्द्रस्य आज्ञां श्रुत्वा सर्वे देवा हृष्टतुष्टा हर्षवश-विसर्पद-धृदयाः स्वस्वविमानमारुह्य चलिताः। तत्र कियन्त इन्द्रस्य आज्ञया, कियन्तो मित्रप्रेरिताः, कियन्तो देवीप्रेरिताः, कियन्तः कौतुका-लोकनो-स्कण्ठिताः, कियन्तोऽद्भुतं द्रष्टुं, कियन्तः तीर्थकरजन्ममहोत्सवं द्रष्टुं,
मञ्जरी
॥२२॥
टीका
विमानों में अन्यान्य एक कम बत्तीस लाख घंटायें खनखनाने लगीं। उस समय जैसे दीनोंको अचानक ही सम्पत्ति मिल गई हो, इस प्रकार समस्त देवों और देवियों को दिव्य आनन्दका अनुभव हुआ।
तत्पश्चात् हरिणैगमेची देव द्वारा घोषित की हुई शकेन्द्रकी आज्ञा को सुनकर सब देव हृष्ट-तुष्ट हुए। सबके हृदय हर्ष से खिल गये। सब अपने-अपने विमानों पर सवार होकर चल पडे। उनमें से कोई कोई इन्द्र की आज्ञा से, कोई-कोई मित्रों की प्रेरणा से, कोई-कोई अपनी देवी के अनुरोध से, कोई-कोई कौतुक देखने की उत्कंठा से, कोई कोई अद्भुत दृश्य देखने को, कोई-कोई तीर्थकर का जन्म
शक्रस्यासनकम्पः , शक्राज्ञया देवानां भगवद्दशनार्थ
चलनम्
થાપિત થયેલી છે. એસી, ચાલતાં
ઘંટ વાગતાની સાથે, સૌધર્મ દેવકના એક ઓછું બત્તીસ લાખ વિમાનના એક એg બત્તીસ લાખ ઘંટાઓને ખસુખગ્રાટ થવા લાગ્યા. જેમ ગરીબ માણસ ને, આકસિમક સંપત્તિ મળી જાય ને, જે આનંદ व्यापी २७, तेवो मे गनुभयो ।
હરિદ્વૈગમેલી દેવ દ્વારા, ઘેષિત થયેલી શક્રેન્દ્રની આજ્ઞાને સાંભળી સર્વ દેવે, ખુશ-ખુશાળ થયાં. બધા દે હર્ષોન્મત્ત થયાં. દરેક જણુ, પિતતાના વિમાન પર બેસી, ચાલતાં થયાં.
કઈ દે, ઈન્દ્રની આજ્ઞા થવાથી રવાના થયાં, કેઈદે મિત્રની પ્રેરણાથી પ્રેરાયાં, કેઈ પિતાની દેવીના આગ્રહને લીધે ખેંચાયા, કેઈ કૌતુક દેખવાની ઉત્કંઠાથી આકર્ષાયા, કેઈ આશ્ચર્યકારક ઘટનાથી દોરાયા, કે તીર્થકરને જન્મ મહોત્સવ જેવાની ભાવનાથી દેવ્યા, કેઈ ભગવાનના દર્શન કરવાના અભિલાષી થઈ ઉપડયા,
ચાથી પ્રેરાયાં, કેઇ
||२२॥
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भीकल्प
सूत्रे ॥२३॥
कल्पमञ्जरी टीका
KC
कियन्तो भगवन्तं द्रष्टुं, कियन्तः 'अयं भगवान् मुक्तिमार्गस्य दर्शको भविष्यति' इति कृत्वा, कियन्तः-'अस्यामवसर्पिण्याम अस्मिन् भारतवर्षे अयं चरमस्तीर्थकरः' इति कृत्वा, कियन्त आत्मीयभावेन, कियन्तो भक्तिभावेनाचलन् |सू०५९।।
टीका-'तए णं' इत्यादि । ततः खलु आसने कम्पमाने सति शक्रः-तदाख्यो देवेन्द्रः सुरपतिः, देवराजः देवनायक: अवधिज्ञानेन अवधिज्ञानोपयोगेन चरमतीर्थकरस्य अन्तिमचतुर्विशतितमतीर्थकरस्य जन्म ज्ञात्वा सिद्धेभ्यः तीर्थकराय च 'नमोत्थु णं' ददाति, दत्त्वा पदात्यनीकाधिपति पदचारिसैन्यनायकं हरिगैगमेषिणं देवं योजनपरिमण्डलां मुघोषां-मुन्दरघोषवतीत्यन्वर्थसंज्ञां घण्टां घोषयितुंवादयितुम् , आज्ञापयति आज्ञां ददाति । महोत्सव देखने को, कोई भगवान् का दर्शन करने के लिए, कोई यह समझ कर कि यह भगवान् मोक्षमार्ग के दर्शक होंगे, कोई यह जानकर कि इस अवसर्पिणी काल में, इस भरत क्षेत्र में यही अंतिम तीर्थकर हैं, कोई आत्मीयभाव से और कोई भक्तिभाव से रवाना हुए ।।सू०५९॥
टीका का अर्थ-'तए णं' इत्यादि। तदनन्तर आसन कॉपने पर शक्र नामक देवाधिपति देवनायक ने अवधिज्ञान द्वारा अन्तिम चौबीसवें तीर्थकर का जन्म जान कर सिद्ध भगवान् को तथा तीर्थकर को 'नमोत्थु णं' दिया, अर्थात् 'नमोत्थु णं' का पाठ पढ़ कर नमस्कार किया। फिर पैदल सेना के नायक हरिणैगमेपी देव को एक योजन के घेरे वाली सुघोषा-मनोहरध्वनिवाली इस यथानाम तथागुण वाली घंटा को बजाने की आज्ञा दी। કેઈ આ ભગવાન મોક્ષમાર્ગના દર્શક થશે એમ જાણીને રવાના થયાં. આ અવસર્પિણી કાળમાં, અહિં ભરતક્ષેત્રે, ભગવાન અંતિમ તીર્થંકર છે. એમ સમજી કે દેવે, પ્રયાણું કર્યું, કેઈ ભક્તિભાવથી ખેંચાઇ ચાલી નીકળ્યાં. એમ વિવિધ દૃષ્ટિકોણ રાખીને સૌધર્મ દેવલોકના દેએ, ભરતખંડમાં આવવા રવાનગી લીધી. (સૂ૦૫૯)
सानोम–तर 'त्याहित्यारा भासन मतानामना वाधिपति वनायो मधिशानामन्तिम योपासमा ती"नाम ययानुस मसानने तथा तीय°४२ने “नमोत्थु " धु, मे, "नमोत्थु " ને પાઠ ભણીને નમસ્કાર કર્યો. પછી પાયદળ સેનાના નાયક હરિર્ઝેગમેલી દેવને એક યોજનાના ઘેરાવાવાળા સુઘેલા-મનહર અવાજ વાળે, યથાનામ તથા ગુણવાળે ઘંટ વગાડવાની આજ્ઞા આપી. ત્યાર બાદ તે
शक्रस्यासनकम्पः , शक्राज्ञया
देवानां भगवद्दशनाथे चलनम्
॥२३॥
S
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥२४॥
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ततः तदनन्तरं खलु हरिणैगमेषिणा देवेन सुघोषायां घण्टायां घोषितायां =वादितायां सत्यां सौधर्मे कल्पे अन्येषु एकोनद्वात्रिंशद्विमानशतसहस्रेषु श्रन्यानि एकोनानि = एकन्यूनानि द्वात्रिंशद्घण्टाशतसहस्राणि - घण्टानां द्वात्रिशल्लक्षाणि युगपत् = एककालावच्छेदेन 'जमगसमगं' इति युगपदर्थे देशीयशब्दः, कनकनरावं - कनकनेतिशब्दं कर्तुं प्रवृत्तानि - उद्यतानि । ततः = तदनन्तरं खलु अकस्मात् = सहसा श्रासादितया = प्राप्तया सम्पदा दीनाः = रङ्का व सर्वे देवा देव्य दिव्यम् = अद्भुतम् आनन्दम् = प्रभु जन्मश्रवणजनितं प्रमोदम् अन्वभवन = अनुभूतवन्तः । ततः खलु हरिणैगमेषिदेवेन घोषितां सूचितां शक्रेन्द्रस्य आज्ञाम् = आज्ञावचनं श्रुत्वा सर्वे देवा हृष्टतुष्टाः=अतिप्रसन्ना टर्षवश–विसर्पद्धृदयाः = हर्षोत्फुल्लमानसाः स्वस्वविमानम् आरुह्य = आश्रित्य चलिताः=प्रस्थिताः । तत्र = चलितेषु देवेषु मध्ये कियन्तो देवा इन्द्रस्य आज्ञया अचलनिति परेणान्वयः । एवमग्रेऽपि । कियन्तश्च
तत्पश्चात् हरिणैगमेषी देव के सुघोषा घंटा बजाने पर सौधर्म कल्प में एक कम बत्तीस लाख विमानों में, एक कम बत्तीस लाख घंटायें एक ही साथ बजने लगों ।
उस समय समस्त देवों और देवियों को प्रभु के जन्म का समाचार सुनकर ऐसे अद्भुत आनन्द का अनुभव हुआ, जैसे दरिद्र को अचानक ही सम्पदा की प्राप्ति से होता है ।
तत्पश्चात् हरिणैगमेषी देव द्वारा सूचित शक्रेन्द्र की आज्ञा सुनकर सभी देव हृष्ट और तुष्ट अर्थात् अत्यन्त प्रसन्न हुए । हर्ष से उनका हृदय फूल उठा । सब अपने२ विमानों पर चढ़ कर चले । उन देवों में कितनेक इन्द्र की आज्ञा से चले, कितनेक मित्रों की प्रेरणा से चले, कितनेक अपनी
હરિણૈગમેષી દેવે સુઘાષા નામના ઘંટ બજાવતા જ સૌધમ કલ્પમાં બત્રીસ લાખમાં એક એછાવિમાનામાં,ખત્રીસ લાખમાં એક એછા ઘંટ એક સાથે જ વાગવા લાગ્યા. તે વખતે સમસ્ત દેવા અને દેવીઓને પ્રભુના જન્મના સમાચાર સાંભળીને એટલા અદ્દભુત આનંદને અનુભવ થયા કે જેટલેા દિદ્રને અચાનક સંપત્તિ પ્રાપ્ત થવાથી થાય છે.
ત્યારબાદ રિગમેષી દેવ દ્વારા સૂચિત શક્રેન્દ્રની આજ્ઞા સાંભળીને બધા દેવા હુષ' અને સાષ પામ્યા એટલે કે અત્યન્ત પ્રસન્ન થયા. હર્ષોંથી એમનુ હૃદય ખિલી ઉઠયું. બધા પોત પોતાના વિમાનમાં બેસીને ચાલી નીકળ્યાં. તે દેવામાં કેટલાક ઇન્દ્રની આજ્ઞાથી ઉપડયાં, કેટલાક મિત્રોની પ્રેરણાથી ઉપડયાં, કેટલાક પેાતાની દેવીના
回间實實寳寳餐
漫漫漫賞
कल्प
मञ्जरी
टीका
शक्रस्या
सनकम्पः,
शक्राज्ञया
देवानां भगवद्दर्श
नार्थ चलनम्.
॥२४॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥२५॥
टीका
किमतच कौतुकाऽऽ-लोकनो-स्कण्ठिताः-कौतुक कुतूइल तस्याऽऽलोकन-निरीक्षणं तत्रोत्कण्ठिता उत्सुकाः, कियन्तश्च अद्भुतम् आश्चर्य द्रष्टुम् , कियन्तश्च देवाः। तीर्थकरजन्ममहोत्सवं द्रष्टुम् , कियन्तश्च भगवन्तं द्रष्टुम् , कियन्तश्च 'अयं भगवान् मुक्तिमार्गस्य मोक्षमार्गस्य दर्शको भविष्यति' इति कृत्वा इति बुद्ध्वा, कियन्तश्च 'अस्यामवसर्पिण्याम् अस्मिन् भारते वर्षे अयं चरमः अन्तिमः तीर्थकरः' इति कृत्वा, कियन्तश्च आत्मीयभावेन, कियन्तश्च देवा भक्तिभावेन अचलन् ॥मू०५९॥
मूलम्-जं समयं च णं देवा चलिया तं समयं च णं तस्य परमाणेहिं नाणाविह-दिव्व-तुडियसह-संनिनाएहि घंटाणिणाएहिं तप्पडिज्झुणीहिं देवदेवीकलकले हिं च अखंड भागासमंडलं गुंजियं आसि । तंसि समयंसि कोडिसो देवविमाणेहिं विमालमवि आगासं संकिण्णं जायं।
तत्थ सीहागिइविमाणवामिणो देवा गयागिइविमागारूढे देवे कहिंसु-भो भो अग्गे सरंतो देवा ! सये सये हस्थिणो एगो करेमाणा चलंतु, अन्नहा दुद्धरो मम केसरी तुम्हाणं हथिणो हणिस्सइ । एवं महिसागिइविमाणारूढा आसागिइविमाणारूढे गरुलागिइविमाणारूढा अयंगागिइविमाणारूढे, चित्तगागिइविमाणारूढा मेसागिइविमाणारूढे देवे य कहिंसु ।
शक्रस्या
सन कम्प,
शक्राज्ञया
देवानां
भगवदर्श--
नाथ चलनम.
देवी के आग्रह से चले, कितनेक कुतूहल देखने की उत्कंठा से चले, कितनेक आश्चर्य देखने के लिए चले, कितनेक तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव देखने के लिये चले और कितनेक भगवान का दर्शन करने के लिए रवाना हुए। कोई-कोई यह समझ कर गये कि यह भगवान् मोक्षमार्ग के दर्शक होंगे, और कोई-कोई यह सोच कर कि इस अवसर्पिणी काल में, इस भरतक्षेत्र में यही अन्तिम तीर्थकर हैं। कुछ देव आत्मीयभाव से चले तो कुछ भक्तिभाव से प्रेरित होकर चले ॥सू०५९।।
न
॥२५॥
આગ્રહથી ઉપડયાં, કેટલાક કુતૂહલ જોવાની ઉત્કંઠાથી ઉપડયાં, કેટલાક આશ્ચર્ય જોવાને માટે ઉપડયાં, કેટલાક તીર્થકરને જન્મ મહોત્સવ જેવાને માટે ઉપડયાં, અને કેટલાક ભગવાનના દર્શન કરવાને માટે રવાના થયાં. કઈ કોઈ એમ સમજી ગયા કે આ ભગવાન મોક્ષમાર્ગના દર્શન થશે, અને કઈ કઈ એમ ધારીને ગયા કે આ
અવસર્પિણી કાળમાં, આ ભરતક્ષેત્રમાં આ જ અન્તિમ તીર્થંકર છે. કેટલાક ર આત્મીયભાવકી ગયા તે કેટલાક dain Education dionalsaमाथी प्रेराने गया. (सू०५८)
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श्रीकल्प
॥२६॥
केवइया देवा उस्सुयत्तणेण मित्ते मोत्तूण अग्गे चलिंमु। केवइया कहिंमु-भो भायरा ! चिटुंतु चिटंतु अम्हेवि आगच्छामो। केवइया अग्गे अग्गे चलिउं विवायं कुणमाणे कहिंसु-जं अज्ज पव्वदिणं वह, अयो तुही चेव आगच्छंतु ।
एवं गगणमंडले गमणेण देवाणं सिरसि अइसंनिहीए चंदकिरणपडणेण निजरा अवि देवा जरामंतोमिव सोभिमु। देवमुद्धेम ठिया तारा घडागारा लक्विजिसु, गलेसु य ता रयणगेवेज्जगाई पिव दीसिस, देवसरीरेसु य ता सेयबिंदुणोव्य भासिंसु ॥सू०६०॥
___ छाया-यस्मिन् समये च खलु देवाश्चलितास्तस्मिन् समये च खलु तत्र प्रवर्तमानैः नानाविधदिव्य-टित-शब्द-संनिनादैः घण्टानिनादैः तत्पतिध्वनिभिर्देवदेवीकलकलैश्च अखण्डमाकाशमण्डलं गुञ्जितमासीत् । तस्मिन् समये कोटिशो देवविमानैर्विशालमप्याकाशं सकीर्ण जातम्।
* तत्र खलु सिंहाऽऽकृतिविमानवासिनो देवा गजाऽऽकृतिविमानारूढान् देवान् अकथयन्–“भो भो
भगवद्दर्श
नार्थ चलितानां देवानां वर्णनम् .
मूल का अर्थ--'जं समयं च णं' इत्यादि । जिस समय देव रवाना हुए, उस समय वहा होने वाले विविध दिव्य वाद्यों के शब्दों की ध्वनि से. घंटाओं की ध्वनि से, और उस ध्वनि की प्रतिध्वनि तथा देवों और देवियों के कलकल-नाद से सम्पूर्ण आकाशमंडल गूंज उठा। उस समय कोटि-कोटि देवविमानों से विशाल आकाश भी सँकड़ा जान पड़ने लगा।
वहाँ सिंहाकार (सिंह के समान आकृति वाले) विमानके वासी देव गजाकर-विमानों पर आरूढ़ देवों से कहने लगे-'अजी आगे-आगे चलने वाले देवो! अपने-अपने हाथियों को जरा एक किनारे
॥२६॥
भूबने। म-समयं च ' त्यादि.२ समये । २वाना यान समये, भा , विविध हिव्य વાઘોને ધ્વનિ થઈ રહ્યો. ઘંટાઓની વનિવડે, વનિઓના પ્રતિધ્વનિઓ વડે, દેવ-દેવીઓના કલરવના નાદવડે, સંપૂર્ણ આકાશમંડળ ગાજી ઉઠયું. તે સમયે, કરડે દેવ-વિમાનથી આકાશ સંકડાઈ ગયું હોય ! તેમ જણાવા લાગ્યું.
સિંહાકાર વાલા વિમાનમાં બેઠેલાં દેવ, ગાકાર વિમાનના દેવેને કહેવા લાગ્યા કે “હે દે! તમે તેમ
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कल्पमञ्जरी
टीका
I अग्रेसरन्तो देवाः ! स्वकान् स्वकान् हस्तिन एकतः कुर्वन्तश्चलन्तु, अन्यथा दुईरो मम केसरी युष्माकं हस्तिनो
हनिष्यति। एवं महिषाऽऽकृतिविमानारूढा अश्वाकृतिविमानारूढान्, गरुडाकृतिविमानारूढा भुजङ्गाकृतिश्रीकल्प- विमानारूहान् , चित्रकाकृतिविमानारूढा मेषाकृतिविमानारूढान देवांश्च अकथयन।
कियन्तो देवा उत्सुकत्वेन मित्राणि मुक्त्वाऽग्रऽचलन्। कियन्तोऽकथयन्-भो भो भ्रातरः! तिष्ठन्तु तिष्ठन्तु, ॥२७॥ वयमपि आगच्छामः। कियन्तोऽग्रेऽग्रे चलितुं विवादं कुर्वाणान् अकथयन्-यद अद्य पर्वदिनं वर्तते, अतस्तूष्णीमेव
आगच्छन्तु ।
एवं गगनमण्डले गमनेन देवानां शिरसि अतिसन्निधेः चन्द्रकिरणपतनेन निर्जरा अपि देवा जरावन्त करके चलिए, नहीं तो हमारा पराक्रमी सिंह आपके हाथी की हत्या कर देगा!' इसी प्रकार महिषाकार-विमान-वालों ने अश्वाकार-विमानके वासियों से, गरुडाकार विमान वालों ने भुजंगाकार विमानके वासी देवों से कहा।
कितने ही देव उत्कंठा के कारण अपने मित्रों को छोड़ कर आगे चल दिये। कोई-कोई कहने से लगे-“भाइयो, ठहरो ठहरो, हम भी आ रहे हैं।' कोई-कोई आगे चलने के लिए विवाद करने वाली म से बोले-'श्राज उत्सव का दिन है, अतः चुपचाप चले आओ।
इस प्रकार आकाश-मंडल में चलने से देवों के मस्तक पर अत्यन्त निकटता से चन्द्रमा की આગળ આગળ ચાલ્યા જાઓ છો પણ તમારા હાથિયોને એક તરફ તારવી અમને આગળ જવાદે, નહિતર અમારા પરાક્રમી સિંહે તમારા હાથીઓની હત્યા કરી બેસશે!” આ પ્રકારે ભેંસના આકારવાલા દેવે તેમની આગળ નીકળી ચુકેલાં અ%ાકાર વિમાનના દેવેને પડકારતાં, ગરુડાકાર વિમાનીએ, સર્પાકાર વિમાનિયને ચેલેંજ ફેંકતાં, ચિત્તાના આકારવાળા વિમાનિયે, ઘેટાના આકારવાળા વિમાનિયે ને ધમકાવતાં.
કેટલાક દે ઉત્કંઠાથી અને હેશના કારણે પિતાના મિત્રોને પણ છોડી આગળ-આગળ નીકળી જતાં. કેઈ કે તે એક બીજાને કહી પણ દેતા કે “ભાઈએ! જરા થંભી જાવ, અમે પણ તમારી સાથે આવીએ છીએ” કઈ કે તે, આગળ માર્ગ કાઢવા વાડિયા અને દલીલબાજ દેવને સાફ શબ્દોમાં સંભળાવી પણ દેતાં હતાં કે “આજ ઉત્સવને દિવસ છે માટે ચૂપચાપ રહી, વખતસર પહોંચી જાવ, નહિતર રહી જશો!
આકાશમંડળમાં ચંદ્રનું સ્થાન ત્યાં આવી રહેલું છે તે સ્થાનની નજીક દેવે પ્રયાણ કરી રહ્યાં હતાં.
भगवद्देश
नाथ चलितानां
देवानां
चार वर्णनम्.
॥२७॥
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म श्रीकल्प
मूत्र ॥२८॥
इवाऽशोभन्त । देवमूर्द्धसु स्थितास्तारा घटाकारा अलक्ष्यन्त, गलेषु च ताः रत्नओवेयकानि इव अदृश्यन्त, देवशरीरेषु च ताः स्वेदबिन्दव इव अभासन्त ॥०६०।।
टीका-'जं समयं चे'-त्यादि। यस्मिन् समये च खलु, प्राकृतत्वादत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया; देवाश्चलिताः, तस्मिन् समये च खलु तत्र देवमार्गे प्रवर्तमानैः जायमानः नानाविधदिव्यत्रुटितशब्दसंनिनादैः-नानाविधानि=अनेकपकाराणि यानि दिव्यानि त्रुटितानिधादित्राणि तेषां शब्दसंनिनादैः-शब्दैः सामान्यशब्दैः संनि- नादैः सम्यक् व्याप्तः शब्दैः, तथा-घण्टानिनादैः, तत्प्रतिध्वनिभिः दिव्यवाद्यघण्टापतिशब्दैः देवदेवीकलकलैः= देवानां देवीनां कलकलशब्दैश्च अखण्डं-समस्तम् आकाशमण्डलं गुञ्जितं-मधुराव्यक्तशब्दव्याप्तम् आसीत् ।
टीका
। भगवर्श
ફી
किरणें पड़ रही थीं। इस कारण वे देव निर्जर (जरा-बुढ़ापे से रहित) होकर भी जरावान-(वृद्ध) जैसे दिखायी दिये। देवों के सिर पर स्थित तारे घट जैसे दिखाई देते थे। गले में वे रत्नमय आभूषण सरीखे नजर आते थे और देवों के शरीर पर पसीने की बूंदो की तरह चमक रहे थे ॥मू०६०॥ टीका का अर्थ-जं समयं च णं' इत्यादि। जिस समय देव रवाना हुए, उस समय देवों के मार्गमें
नार्थ होने वाले नाना प्रकार के दिव्य बाजों के सामान्य शब्दों से तथा सम्यक् प्रकार से व्याप्त हो जाने चलितानां वाले शब्दोंके-निनादों से, घंटाओं की ध्वनि से, दिव्य वाद्यों एवं घंटाओं की प्रतिध्वनि से, देवों तथा देवाना
वर्णनम्. ચંદ્રમાનાં શ્વેત કિરણે, દેના માથા પર પડવાથી તે દેવે નિર્જર–એટલેજર-ગઢપણ–વગરના હોવા છતાં જરાવાળી એટલે વૃદ્ધ જેવા દેખાવા લાગ્યાં.
દેના માથા પર આવેલા તારાઓ ઘડા જેવા દીસતાં હતાં ને ગળા માં આવેલા તારાઓ ઝગમગ ઝગમગ થતાં હોવાને કારણે દેવોના રત્નમય આભૂષણે સમાન દષ્ટિગોચર થતાં હતાં. આ ઉપરાંત, દેવોના શરીર પર આવેલા તારાઓ પસેવાના ટીપાં જાણે બજ્યાં ન હોય! તેમ જણાતાં, કારણ કે દેવો આ તારામંડળની વચમાં થઈને જ
|॥२८॥ ५सार थता तi (सू० १०)
टानाम-जं समयं च णत्याहि समये हेवरवानाथयां, स्यारेना भाभा यता विविध नाहियपाल ત્રોના સામાન્ય અવાજથી તથા સારી રીતે પ્રસરી જતા અવાજેથી ઘટના અવાજથી, દિવ્ય વાદ્યો અને ઘટના પ્રતિધ્વનિથી તેણે
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श्रीकल्प
मूत्र ॥२९॥
तस्मिन् समये कोटिशो देवविमानः विशालमपि आकाशं संकीर्ण-देवगणभृतत्वात् सूच्या अपि प्रवेशशून्यं जातम्।
तत्र-विमानचारिषु देवेषु खलु सिंहाऽऽकृतिविमानवासिनः सिंहाऽऽकारविमानस्था देवा गजाऽऽकृतिविमानारूढान-हस्त्याकारविमानासीनान् देवान् अकथयन् उक्तवन्तः, किम् ? इत्याह-भो भो अग्रे सरन्तः= चलन्तो देवाः ! स्वकान् स्वकान्=निजान निजान हस्तिन एकतः एकपाचें कुर्वन्तःचलन्तु गच्छन्तु, अन्यथा एकतः कग्णाभावे दुर्द्धरम्बली मम केसरी=सिंहः युष्माकं हस्तिनो हनिष्यति । एवम् अनेन प्रकारेण महिषाऽऽकृतिविमानाऽऽरूढा महिषाऽऽकारविमानाऽसीना देवा अश्वाकृतिविमानाऽऽरूढान् देवान् , गरुडाऽऽकृतिविमानाऽऽरूढाः गरुडाकारविमानाऽऽसीना देवा भुजङ्गाऽऽकृतिविमानाऽऽरूढान् देवान् , चित्रकाऽऽकृतिविमानाऽऽरूढाः-चित्रको
टीका
भगवद्दश
देवियों के कलकल नाद से, समस्त आकाश गूंजने लगा-मधुर एवं अस्फुट शब्दों से व्याप्त हो गया। उस समय करोडो विमानों से विस्तीर्ण आकाश भी, देवसमूह से भर जाने के कारण संकीर्ण हो गया-मई भी न समा सके, इस प्रकार का हो गया।
उन विमानचारी देवों में जो सिंह की आकृति वाले विमानों में आरूढ़ थे, उन्होंने हाथी के आकार के विमानों पर चढ़े देवों से कहा-'अरे आगे २ चलने वाले देवो! अपने-अपने हाथियों को एक बगल में करके चलो, अन्यथा-एक बगल में न करने पर हमारा बली सिंह तुम्हारे हाथियों का हनन कर देगा। इसी प्रकार महिषाकार (भैंसे के आकार वाले) विमान में बैठे देवोंने अश्वाकृतिवाले विमान के वासियों से कहा। गरुडाकार विमान पर आरूढ देवों ने भुजंगाकृति के विमान वालों से कहा।
नाथ
चलितानां
देवानां समार वर्णनम्.
દેવે તથા દેવીએના કલકલનાદથી આખું આકાશ ગુંજી ઉઠયું, મધુર અને અફ્ટ શબ્દોથી છવાઈ ગયું. તે સમયે કરોડે વિમાનેથી વિસ્તીર્ણ આકાશ પણ દેવ-સમૂહથી ભરાઈ જવાને કારણે સાંકડું થઈ ગયું-એક સેય પણ સમાઈ ન શકે એવું થઈ ગયું. તે વિમાનચારી દેવામાં જેઓ સિંહની આકૃતિવાળાં વિમાનમાં બેઠેલા હતા તેમણે હાથીના હતા આકાર વિમાનમાં બેઠેલા દેને કહ્યું-“અરે આગળ ચાલનારા દે! પિત–પિતાના હાથીઓને એક બાજુ
॥२९॥ કરીને ચાલે, નહિ તે એક બાજુ ન કરવાથી અમારા બળવાન સિહ તમારા હાથીઓની હત્યા કરી નાખશે. તેમાં એજ પ્રમાણે મહિષાકાર (ભેંસના આકારવાળાં) વિમાનમાં બેઠેલા એ અધાકૃતિવાળાં વિમાનમાં રહેલાઓને કહ્યું. an Education ગરુડાકાર વિમાનમાં બેઠેલા દેએ ભુજંગાકૃતિના વિમાનવાળાઓને કહ્યું. ચિત્તાના આકારના વિમાનમાં જેઓ વૈર
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श्रीकल्प
कल्प
सुत्रे
वन्यपशुजातिः, तदाकृति यद् विमानं तदारूढा देवाः मेषाऽऽकृतिविमानाऽऽरूढान् देवांश्च अकथयन् कथितवन्तः।
कियन्तो देवाः उत्सुकत्वेन=सोत्कण्ठतया मित्राणि मुत्त्वा-त्यक्त्वा अग्रे अचलन्, कियन्तो दवा अकथयन्-'भो भ्रातरः! तिष्ठन्तु तिष्ठन्तु, वयमपि आगाच्छामः युष्माभिः सह गन्तुं वः सहचरतया वयमपि त्रिशलानन्दनजन्मोत्सवदिदृक्षया आयामः, कियन्तो देवा अहमहमिकया अग्रेऽग्रे चलितुं गन्तुं विवादं कुर्वाणान् अकथयन् कथितवन्तो, यत् अद्य पर्वदिनं वर्तते, अतो भवन्तः तूष्णीं समौनम् आगच्छन्तु । अथ देवानामागमनसमयस्वरूपमाह
एवं पूर्वोक्तप्रकारेण गगनमण्डले आकाशप्रदेशे गमनेन देवानां शिरसिमस्तके अतिसन्निधितःअत्यन्तसमीपात चन्द्रकिरणपतनेन-चन्द्रकिरणागमेन निर्जरा-वृद्धत्वरहिता अपि श्वेतवर्णकरपातजनितचाकचक्य
मञ्जरी
॥३०॥
टीका
चीताके आकार के विमान पर जो आरूढ थे, उन्होंने मेष (मेढ़े) के आकार के विमान वालों से कहा।
कितने ही देव उत्सुकता के कारण मित्रों को छोड़ कर आगे२ चल दिये। कितने ही कहने लगे-हे भाइयो! ठहरो ठहरो, हम भी आते हैं। हम भी त्रिशलानन्दन का जन्मोत्सव देखने की इच्छा से तुम्हारे साथी बन कर साथ २ चलते हैं। कितने ही देवों ने, 'मैं आगे चलूँ, मैं आगे चलूँ' इस प्रकार कह कर विवाद करने वाले देवों से कहा-पाज उत्सव का दिन है, अतः आप लोग चुपचाप आइए।
अब देवों के आगमन के समय का स्वरूप कहते हैंपूर्वोक्त प्रकार से आकाश में गमन करने से देवों के मस्तक पर अत्यन्त समीप से चन्द्रमा की
भगवद्दश
नार्थ चलितानां
देवानां इस वर्णनम् .
બેઠેલા હતા તેમણે મેષ (ઘેટા)ના આકારના વિમાનવાળાઓને કહ્યું, કેટલાય દે ઉત્સુકતાને કારણે મિત્રોને મૂકીને આગળ ચાલી નીકળ્યા. કેટલાય કહેવા લાગ્યા–“હે ભાઈઓ ! જરા થે. થે, અમે પણ આવીએ છીએ. અમે પણ ત્રિશલાનન્દનને જન્મોત્સવ જેવાની ઈચ્છાથી તમારા સાથીદાર બનીને સાથે આવીયે છીએ. કેટલાય દેએ, હું આગળ ચાલું, હું આગળ ચાલુ’ આમ કહીને વિવાદ કરનારા દેને કહ્યું “આજ ઉત્સવનો દિવસ છે, માટે તમે
॥३०॥ લોકો શાન્તિપૂર્વક આવે” ' હવે દેવોના આગમનના સમયના સ્વરૂપને કહે છે–પૂર્વોક્ત પ્રકારે જ્યારે દેવો આકાશમાં ગમન કરી રહ્યાં હતાં ત્યારે તેમનાં મસ્તકે ચન્દ્રમાની ઘણી નજીક હોવાથી, ચન્દ્રમાના પ્રકાશિત કિરણે, તેમના કહે
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છે
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श्रीकल्प
॥३१॥
धवलिम्ना पलितायमानतया जरावन्तः वृद्धा इव अशोभन्त-शोभितवन्तः, तथा-अतिसन्निधितः देवमधेसु-देवशिरस्सु स्थिताः तारा घटाऽऽकारा अलक्ष्यन्त । गलेषु-देवानां कण्ठेषु च ताताराः रत्नत्रैवेयकानिरत्नविरचितकण्ठभूषणानि इव अदीप्यन्त-शोभितवत्यः। तथा-ता देवशरीरेषु च स्वेदविन्दवः मार्गचलनजन्यश्रमजलकणा इव अभासन्त-शोभितवत्यः ॥ मू०६०॥
मलम-तए णं सक्के देविंदे देवराया पालगजाणविमाणमारुहिय दिव्वाए देविडडीए दिव्याए देवजई दिव्वेणं देवाणुभावेणं सयसयविमाणारूढेहिं सयलपरिवारेहि य परिवुडो नंदीसरदीवे दाहिणपुरत्यिमे रइगरपधए तं दिव्यं देविहि दिव्यं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं सयसयविमाणारूढे सयलपरिवारे य पडिसाहरिय जेणेव भगवनो तित्थयरस्स जम्मणनगरे जेणेव जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तित्थयरजम्मणभवणं तेण दिव्वेण जाणविमाणेण तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले तं दिव्वं जाणविमाण ठवेइ, ठवित्ता जेणे भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता
भगवदर्श
नार्थ चलाना देवाना
श्वेत किरणें गिरने से निर्जर (जरा-रहित) भी देव जरावान्-बूढ़े के समान शोभायमान हुए, क्यों कि श्वेतवर्ण की चन्द्रमा की किरणों के गिरने से उनका मस्तक चमकने लगा था, जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि उनके बाल धौले हो गये हैं। बहुत पास में देवों के सिर पर स्थित तारे मस्तक पर घट की तरह प्रतीत होते थे। वही तारे देवों के कंठ में रत्नमय आभूषण सरीखे शोभित होते थे और वही तारे देवों के शरीर पर मार्ग चलने के परिश्रम से उत्पन्न पसीने की बूंदों के समान प्रतीत होते थे ।।०६०॥
॥३१॥
પર ચકચકિત પણે પ્રકાશિત થતા હોવાને કારણે તેમના મસ્તકેનાં વાળ, અત્યંત વેત અને તેજોમય લાગતાં હતાં, તેથી જોનારને એમ લાગતું કે યુવાન દેવે પણ વૃદ્ધ બની ગયાં છે! ચકચકિત તારાઓનાં જૂમખાએ પણ તેમનાં માથાં પર આવી રહેલાં હોઇ, માથા ઉપર મૂકેલા ઘડાઓ જેવા લાગતા હતા, ગળાપર આવેલા તારાઓ ખેતીનાં હારની ગરજ સારતા હતાં. પરસેવા પર સૂર્યને પ્રકાશ પડવાથી જેમ પરસેવાનાં બિંદુએ ચળકાટ મારે છે તેમ નાના તારાઓ ટેનાં શરીર પર બિંદુએ ચળકાટ મારતાં હતાં. (સૂ૦ ૬૦),
તે
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श्रीकल्प
सत्रे
॥३२॥
आलोए चेव पणामं करेइ, करित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी-नमोत्थु णं ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईवदीविए! सबजगमंगलस सब-जीव-चक्खुभूयस्स मुत्तस्स सब-जगजीव-वच्छ. लस्स हियकारगमग्ग-देसिय-चागिड्ढि-विभु-प्पभुस्स जिणस्स णाणिस्स नायगस्स बुद्धस्स बोहगस्स सबलोगनाहस्स निम्ममस्स पवर-कुल-समुब्भवस्स जाईए खत्तियरस जं सि लोगुत्तमस्स जणणी, धण्णाऽसि तं, कयत्यासि ।
मञ्जरी अहणं देवाणुप्पिए! भगवओ तित्थयरस्य जम्मणमहिमं करिस्सामि, तणं तुम्भेहिं णो भीइयव्वं-त्ति कटु टीका ओसावगिं निदं दलइ, दलित्ता पंच सकरूवे विउन्बइ, तत्थ एगे सके भयचं तित्थयरं कोमलेणं करयलसंपुडेणं गिण्हइ १, एगे सके पिटुओ धवलिमा-जिय-मरालबत्तं आयवत्तं धरेइ २, दुवे सका उभओ पासिं सियचामरुक्खे करेंति ४, एगे सके वज्जपाणी पुरंदरे भगवो तित्थयरस्स रकब8 पुरओ पवट्टए ॥मू०६१॥
छाया-ततः खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराजः पालकयानविमानमारुह्य दिव्यया देवऋद्धया दिव्यया देवद्युत्या दिव्येन देवानुभावेन स्वस्वविमानारूढः सफलपरिवारैश्च परिवृतो नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणपूर्वे रतिकरपर्वते
भगवज्ज
न्मोत्सव तां दिव्यां देवद्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं स्वस्वपिमानारूढान् सकलपरिवारांश्च प्रतिसंहृत्य यौवन
को कर्तुकामस्व भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तोर्थकरजन्मभवनं तेन दिव्येन
शक्रस्य
तमादाय मूल का अर्थ--'तरणं' इत्यादि। तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र, पालकयान विमान पर आरूढ
गमनम्. होकर दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव के साथ अपने-अपने विमानों पर आरूड सकल परिवार से घिरे हुए, नन्दीश्वर द्वीप में, आग्नेय कोण में, रतिकर पर्वत पर उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्यति. दिव्य देवमभाव तथा अपने-अपने विमान पर आरूढ सकल परिवार को स्थापित करके, जहाँ भगवान् तीर्थकर का जन्मनगर था और जहाँ जन्म-भवन था, वहीं आये। आकर तीर्थकर के जन्म
SNA
॥३२॥
भूसना मर्थ'तप णत्याहि. त्या२मा हेवेन्द्र देवरा श, पायान विमान ५२ मा३० 25, हिव्य કે દેવઋદ્ધિ, દિવ્ય દેવધતિ અને દિવ્ય દેવપ્રભાવ વડે સજજ થઈ, સર્વ પરિવારને પિતતાના વિમાન પર બેસાડી
નંદીશ્વર દ્વીપ મળે આવ્યા. આ દ્વીપના અગ્નિકોણમાં, રતિકર પર્વત પર, સર્વ દિવ્ય અદ્ધિ, દેવઘતિ, દેવપ્રભાવ તથા
સવંકુટુંબ પરિવારને વિમાનો સહિત ત્યાં મૂક્યાં. Sational त्यांथी याना थ, यो तीथ ४२ सयाननुभु तु , uni ममत, त्यो मापी पहच्या .
आधार
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श्रीकल्प
मूत्रे ॥३३॥
यानविमानेन त्रिकृत्व आदक्षिणपदक्षिण करीति, कृत्या भगवतस्ताथकरस्य जन्मभवनस्य उत्तरपूर्व दिग्भागे चतुरङ्गलमसम्माप्ते धरणितले तत् दिव्यं यानविमानं स्थापयति, स्थापयित्वा यत्रैव भगवास्तीर्थकरः तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा आलोके एव प्रणामं करोति, कृत्वा करतलपरिगृहीतं शिरस्याऽऽवत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत-नमोऽस्तु खलु ते रत्नकुक्षिधारिके ! जगत्प्रदीपदीपिके ! सर्वजगन्मङ्गलस्य सर्वजीवचक्षुर्भूतस्य सर्व-जगजीव-वत्सलस्य हितकारक-मार्ग-देशिक-विभुवागृद्धि-प्रभोजिनस्य ज्ञानिनो नायकस्य बुद्धस्य बोधकस्य सर्वलोकनाथस्य निमेमस्य प्रवर-कुल-समुद्भवस्य जात्या क्षत्रियस्य
कल्पमञ्जरी
टीका
भवन की उस दिव्य यानविमान से तीनवार दक्षिण से आरंभ करके प्रदक्षिणा की, और भगवान् तीर्थकर के जन्मभवन के उत्तरपूर्व-ईशान कोण में पृथ्वीसे चार अंगुल की ऊँचाई पर अपने यान-विमान को ठहरा दिया। ठहरा कर जहां भगवान् तीर्थकर थे और तीर्थकर की माता थी, वहां आये। आकर तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिण किया और दृष्टि पड़ते ही प्रणाम किया। प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर आवर्त एवं अंजलि करके इस प्रकार बोले-हे उदर में रत्न को धारण करने वाली! हे जगत् के प्रदीप की जननी ! तुम्हें नमस्कार हो। क्यों कि तुम समस्त जगत् के हितकारी, प्राणीमात्र के लिए नेत्र के समान, अखिल संसारी जीवों के वत्सल, मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाले, विशाल वचन-ऋद्धि के स्वामी, जिन, ज्ञानी, नायक, बुद्ध, बोधक, सर्वलोक के नाथ, अनासक्त, श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, जाति से क्षत्रिय और लोक
भगवज्जन्मोत्सव कत्तुकामस्य शक्रस्य तमादाय गमनम्
પિતાના દિવ્યયાન-વિમાનથી તીર્થકરના જન્મભવનના ઈશાનકેણમાં પૃથ્વીથી ચાર આંગળની ઉંચાઈએ પિતાનું વિમાન સ્થાપિત કર્યું
આ કાર્ય પતાવીને, જ્યાં તીર્થકર ભગવાન અને તેની માતા હતાં ત્યાં આવી ત્રણ વાર પ્રદક્ષિા કરી, ને તેમની દૃષ્ટિ પડે તેમ, ત્રણ વખત પ્રણામ કર્યા. પ્રણામ બાદ મસ્તકપર અંજલી કરી બેલ્યા “હે ઉદરમાં રત્ન ધારણ કરવાવાળી, હે જગતના દીપકને પ્રગટ કરવાવાળી, તમને નમસ્કાર કરૂં છું; કેમકે સમસ્ત જગતના હિત કરવાવાળા, પ્રાણીમાત્રના નેત્ર સમાન, અખિલ સંસારના જીવોને વત્સલ સ્વરૂપ, મોક્ષમાર્ગના પ્રકાશક, વિશાલपयन३पी ऋद्धिना २१॥भी, O, ज्ञानी, नाय, मुद्ध, माघ, ससाना नाथ, मनासत, sawi sत्पन्न, शातिथी, न
॥३३॥
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श्रीकल्प
यदसि लोकोत्तमस्य जननी धन्याऽसि तत् , कृतार्थाऽसि । अहं खलु देवानुपिये ! भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं करिष्यामि, तत् खलु युष्माभिनों भेतव्यमिति कृत्वा अवस्वापनी निद्रां ददाति, दत्त्वा पञ्च शक्ररूपाणि विकरोति । तत्र एकः शक्रो भगवन्तं कोमलेन करतलसम्पुटेन गृह्णाति १, एकः शक्रः पृष्ठतः धवलिम-जित मराल-पत्रमातपत्रं धरति, द्वौ शकौ उभयोः पार्श्वयोः चामरोतक्षेपं कुरुतः ४, एकः शक्रो बज्रपाणिः पुरन्दरः भगवतस्तीर्थकरस्य रक्षार्थ पुरतः प्रवर्तते ॥मू०६१।।
कल्पमञ्जरी
॥३४॥
टीका
मार
में उत्तम भगवान् की जननी हो, धन्य हो, कृतार्थ हो। हे देवानुप्रिये ! मैं भगवान तीर्थंकर के जन्म की महिमा करूँगा, सो आप भयभीत नहीं होना ।'
इस प्रकार कह कर इन्द्र माता को गाढ़ी नींद में मुला देते हैं और फिर वैक्रिय शक्ति से पाँच शक्र-रूप बनाते हैं। एक शक्र भगवान् तीर्थकर को कोमल कर-तलों में लेते हैं, एक शक्र पीछे की तरफ अपनी धवलता से हंस के पत्र (पाँख) को जीतने वाला आतपत्र-छत्र धारण करते हैं, दो शक्र दोनों बगलों में चामर थींजते हैं, एक इन्द्र वज्र हाथ में लेकर भगवान् तीर्थकर की रक्षा के लिए आगे चलते हैं ।।सू०६१।।
भगवजन्मोत्सव कर्तुकामस्य शक्रस्य तमादाय गमनम्.
ક્ષત્રિય, અને સર્વશ્રેષ્ઠ ભગવાનની જન્મદાત્રી છે. તેથી તમો ધન્યવાદના પાત્ર છે. તમારું જીવન કૃતાર્થ છે ! હે દેવાનુપ્રિયે! હું ભગવાન તીર્થકરને જન્મ મહોત્સવ ઉજવીશ, તે તમે દિવ્ય પ્રમાથી જરાપણ ભયભીત थ। नडि"
આમ કહીને, ઈન્દ્ર માતાને ગાઢનિદ્રામાં સુવાડી દીધાં અને સ્વશક્તિના બળે કે જે શકિતને “વૈક્રિય” શકિત કહે છે તે વડે, પિતાના જેવા, પાંચ ઇન્દ્રો (શકેન્દ્રો) બનાવી દીધા.
આ વિકિયરૂપ ધારણ કરવાવાલા પાંચ શકેન્દ્રોમાંથી, એકે તીર્થકર ભગવાનને પિતાના કમલ કરની હથેળીમાં ઉંચકી લીધાં. બીજા ઈન્દ્ર ભગવાનની પીઠ પછવાડે ઉભા રહી ભગવાન ઉપર છત્ર ધારણ કર્યું. આ છત્ર હંસની પાંખ કરતાં પણ, અધિક ધવલ હતું. બીજા બે ઈદ્રો બેઉ બાજુ ચામર વીજતા હતાં. હવે પાંચમાં शहेन्द्र डायमा १० लगवाननी २क्षा ४२५भाटे या याला भांडयु. (सू०११)
॥३४॥
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PRE
त्या
श्रीकल्प
टीका-'तए *"सके "देविदे' इत्यादि। ततः सामान्यदेवप्रचलनानन्तरं खलु शक्रः शक्राख्यः देवेन्द्र:=देवपतिः, देवराजः देवस्वामी पालकयानविमानम् आरुह्य दिव्यया देवऋद्धया दिव्यया देव दिव्येन देवप्रभावेण, स्वस्वविमानारूढः सकलपरिवारैश्च परिवृतो नन्दीश्वरद्वीपे-नन्दीश्वराख्यद्वीपे दक्षिण दक्षिणपूर्वदिशोरन्तराले आग्नेये कोणे रतिकरपर्वते तां दिव्याम् अद्भुतां देवद्धि देवसम्पत्ति दिव्यां दे देवकान्ति दिव्यं देवप्रभावं स्वस्वविमानारूढान् सकलपरिवारांश्च प्रतिसंहृत्य-दिव्यां देवर्द्धि स्वस्वविमानारूढांश्च प्रतिसंहृत्य-संस्थाप्य दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवप्रभावं च प्रतिसंहृत्य-संक्षिप्य, यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थाने भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रा जन्मभवनं-जन्मगृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य, तीर्थकरजन्मभवनं तेन दिव्येन-दिवि भवेन अद्भुतेन वा यानविमानेन त्रिकृत्वाधारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं-दक्षिणपार्थे स्थिति
कल्पमञ्जरी
॥३५॥
टीका
भगवज्ज
न्मोत्सव मा कत्तेकामस्य
शक्रस्य तमादाय गमनम्.
टीका का अर्थ-'तए णं इत्यादि। सामान्य देवों के रवाना होजाने के पश्चात् , शक्र नामक देवेन्द्र देवराज पालकयानविमान पर आरूढ होकर दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देव-युति, दिव्य देवप्रभाव के साथ तथा अपनेअपने विमानों पर आरूढ सकल परिवार के साथ, नन्दीश्वर नामक द्वीप में, दक्षिण-पूर्व दिशा के अन्तरालमें-आग्नेय कोण में, रतिकर पर्वत पर, उस दिव्य-अद्भुत देवऋद्धि को तथा अपने-अपने विमान पर आरूढ सकल परिवार को रखकर, तथा दिव्य देवधुति और दिव्य देवप्रभाव को संक्षिप्त कर जिस स्थान पर भगवान् तीर्थंकर का जन्म-नगर था, जहाँ जन्मगृह था, वहीं आये। आकर तीर्थंकर के जन्मगृह को उस अद्भुत यान-विमान से तीन बार दक्षिण की ओर से आरंभ करके प्रदक्षिणा की, अर्थात्
नाम-'तएणत्याहि सामान्य वारवाना थया पछी, शनामना देवेन्द्र देवरा पास नामना विमानमा બેસીને દિવ્ય દેવદ્ધિ, દિવ્ય દેવઘતિ, દિવ્ય દેવપ્રભાવ સાથે તથા પિતપતાના વિમાનમાં બેઠેલ સઘળા પરિવારની સાથે, નન્દીશ્વર નામના દ્વીપમાં, દક્ષિણ-પૂર્વ દિશાની વચ્ચે-અગ્નિ કેણમાં, રતિકર પર્વત પર, તે દિવ્ય અદ્દભુત દેવઋદ્ધિને તથા પિતપોતાનાં વિમાનમાં બેઠેલ સઘળા પરિવારને મૂકીને, તથા દિવ્ય દેવઘતિ અને દિવ્ય દેવપ્રભાવને સંકેલીને, જે સ્થાને ભગવાન તીર્થંકરનું જન્મનગર હતું, જ્યાં જન્મગૃહ હતું, ત્યાં આવ્યાં. આવીને તે અદ્ભુત વિમાનથી તીર્થકરના જન્મગૃહની ત્રણ વાર દક્ષિણની તરફથી આરંભીને પ્રદક્ષિણા કરી એટલે દક્ષિણ તરફથી પ્રદક્ષિણ શરૂ કરીને દક્ષિણ તરફ જઈને જ તે અટકયું. આ રીતે પ્રદક્ષિણા કરી ભગવાન તીર્થંકરનાં
॥३५॥
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कल्प
श्रीकल्प
मूत्रे ॥३६॥
मञ्जरी
टीका
करोति, कृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य उत्तरपौरस्त्ये = उत्तरपूर्वान्तराले दिग्भागे ईशानकोणे चतुरङ्गुलम् अङ्गुलिचतुष्टयम् असम्प्राप्ते-अस्पृष्टे धरणितले भूतले, तद् दिव्यं यानविमानं स्थापयित्वा यत्रैव भगवास्तीर्थकरस्तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य विकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा आलोके एव-दर्शनमात्रे सति प्रणामचन्दनं करोति, कृत्वा करतलपरिगृहीतं= हस्ततलपरिधृतं शिरस्याऽऽवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा चैवमवादी-हे रत्नकुक्षिधारिके !-रत्नं भगवद्रूपं कुक्षौ धरतीति तत्संबुद्धौ, तथा-हे जगत्मदीपदीपिके-जगत्मदीप: जगत्प्रकाशको भगवान्-तस्य दीपिके जन्मदत्वेन प्रकाशिके ! ते-तुभ्यं नमो-नमस्कारः अस्तु भवतु, त्वं यत्-यस्माद् हेतोः सर्वजगन्मङ्गलस्य-सर्वेषां जगतां त्रयाणां लोकानां मङ्गलस्य मङ्गलस्वरूपस्य, पुनः सर्वजीवचक्षुभूतस्य सकलजीवनेत्रस्वरूपस्य-चक्षुषो दक्षिणपाच से घूमना आरंभ करके दक्षिणपार्च में ही जाकर ठहरे। इस प्रकार प्रदक्षिणा करके भगवान् तीर्थकर के जन्मभवन के ईशानकोण में भूमितल से चार अंगुल ऊपर उस यानविमान को ठहराया। ठहरा कर जहाँ भगवान् तीर्थकर और तीर्थकर की माता थीं, वहाँ आये। आकर तीन बार प्रदक्षिणा की
और दर्शन होते. ही प्रणाम किया। प्रणाम करके दोनों हाथों को जोड़ कर सिर पर आवर्त और अंजलि करके इस प्रकार कहा
'हे रत्नकुक्षिधारिके! अर्थात् कुंव में भगवान्-रूपी रत्न को धारण करने वाली! हे जगत्प्रदीपदीपिके! अर्थात् जगत् के प्रकाशक भगवान् को जन्म देकर प्रकाश में लाने वाली! तुम्हें नमस्कार हो, क्यों कि तुम तीनों लोकों के लिए मंगलस्वरूप, सब जीवों के नेत्र के समान, अर्थात्-जैसे नेत्र घटपट आदि
भगवज्जन्मोत्सवं कत्तुकामस्य शक्रस्य तमादाया गमनम्
જન્મભવનના ઈશાન કેણમાં ભૂમિતળથી ચાર આંગળ ઊંચે તે વિમાનને ઉભું રાખ્યું. પછી જ્યાં ભગવાન તીર્થંકર અને તેમના માતા હતાં ત્યાં તે આવ્યા. આવીને ત્રણ વાર પ્રદક્ષિણા કરી અને દર્શન થતાં જ પ્રણામ કર્યા, - પ્રણામ કરીને બન્ને હાથ જોડીને મસ્તક પર આવતું અને અંજલિ કરીને આ પ્રમાણે કહ્યું –
હે રત્ન કુક્ષિધારિકે ! એટલે કે કૂખમાં ભગવાન રૂપી રત્નને ધારણ કરનારી ! હે જગપ્રદીપદીપિકે ! એટલે કે જગતનાં પ્રકાશક ભગવાનને જન્મ આપીને પ્રકાશમાં લાવનારી! તમને નમસ્કાર છે, કારણ કે તમે ત્રણે પર લેકને માટે મંગળસ્વરૂપ, સઘળા જીનાં નેત્ર સમાન, જેમ નેત્ર ઘટ-પટ આદિના પ્રકાશક છે એજ રીતે જિનદેવ છે
॥३६॥
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श्रीकल्प
॥३७॥
णमनात्
यथा घटपटादिप्रकाशकत्वं तथा जिनस्य सदसद्वस्तुप्रकाशकत्वाद् नेत्ररूपत्वम्, तथा सर्वजगज्जीववत्सलस्य= सकलभुवनवर्तिप्राणिनां पुत्रवत् परिपालकस्य, तथा - हितकारक मार्ग- देशिक- विभु-वागृद्धिमभोः - हितकारको मार्गो = मोक्षमार्गः - सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः, तस्य देशिका = उपदेशिका, तथा विभ्वी = सर्वभाषास्वरूपेण परिसर्वव्यापिनी —-सकलश्रोतृजनहृदयसंक्रान्ततात्पर्यार्था, एवंविधा या बागृद्धिः = वाक्संपत्, तस्याः प्रभुः = स्वामी स्य, सातिशयवचनलब्धिकस्येत्यर्थः ; 'वि' शब्दस्य मूले परनिपातः प्राकृतत्वात् ; तथा जिनस्य = रागद्वेषजयिनः ज्ञानिनः = सातिशयज्ञानवतः, नायकस्य = धर्मवरचक्रवर्त्तिनः, बुद्धस्य = ज्ञाततत्वस्य, बोधकस्य=भविजनबोधदायकस्य, तथा- सर्वलोकनाथस्य= सर्वलोकस्वामिनः - बोधिवीजाऽऽधान-संरक्षणाभ्यां योगक्षेमकारित्वात्, तथा - निर्ममस्य = ममतारहितस्य, तथा प्रवरकुलसमुद्भवस्य-प्रवरं श्रेष्ठं यत् कुलं-सिद्धार्थक्षत्रिय वंशः, तत्र समुद्भवस्य = उत्पन्नस्य, जात्या क्षत्रियस्य = क्षत्रियवर्णस्य पुनः लोकोत्तमस्य लोकेषु = सर्वजनेषु मध्ये उत्तमस्य= श्रेष्ठस्य जनन्यसि, तत् = तस्माद्धेतोः धन्याऽसि तथा कृतार्थाऽसि = कृतकृत्याऽसि, इत्येवं भगवन्मातरं त्रिशलां का प्रकाशक है, उसी प्रकार जिनदेव सत्-असत् वस्तु के प्रकाशक हैं, अतएव चक्षु के सदृश, समस्त - संसारवर्त्ती जीवों का पुत्र के समान पालन करने वाले, सम्यग्ज्ञान- दर्शन - चारित्र रूप हितकारक मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाली तथा समस्त भाषाओं के रूप में परिणत होनेवाली होने से सर्वव्यापिनी वचन - लब्धि के स्वामी, अर्थात् अतिशय-युक्त वचन - ऋद्धि के धारक, राग-द्वेष के विजेता, सातिशय ज्ञान के धारक, धर्मवरचक्रवर्ती, तच्चों के ज्ञाता, भव्य जनों को बोध देने वाले, बोधिवीज (सम्यत्तव) को देने और रक्षण करने वाले, अतः योगक्षेमकर होने से समस्त लोक के नाथ, ममत्र से रहित, सिद्धार्थ क्षत्रिय के श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होने वाले, जाति (वर्ण) से क्षत्रिय और समस्त जनों में उत्तम (भगवान्) की माता हो ! इस कारण तुम धन्य हो, कृतार्थ हो !"
સત્–મસત્ વસ્તુના પ્રકાશક છે, તેથી ચક્ષુનાં જેવાં, સમસ્ત સ'સારવતી જીવાનુ' પુત્રની જેમ પાલન કરનારાં, સમ્યગ્ જ્ઞાન-દર્શન-ચારિત્ર રૂપ હિતકારી મેાક્ષમાના પ્રકાશ કરનારી તથા સમસ્ત ભાષાઓનાં રૂપે પરિણત થનારી હોવાથી સČવ્યાપી વચનલબ્ધિના સ્વામી, એટલે કે અતિશય યુકત વચન–લધિના ધારક, રાગદ્વેષના વિજેતા, અતિશય જ્ઞાનના ધારક, ધર્મવરચક્રવતી, તરવાના જાણકાર, ભન્ય જનાને એધ દેનાર, એધિબીજ (સમ્યકત્વ) નાં દેનાર અને રક્ષક, ક્ષેમકર હાવાથી સમસ્ત લેાકના નાથ, મમત્વથી રહિત, સિદ્ધા ક્ષત્રિયના શ્રેષ્ઠ કુળમાં ઉત્પન્ન Jain Educataनार, लति (बलु) थी क्षत्रिय, भने समस्त पुरुषोभ उत्तम (भगवान) नी भाता छो तेथी धन्य छो, तार्थ छो. "
SALECHOTE
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवज्ज
न्मोत्सवं
कर्तुकामस्य
शक्रस्य
तमादाय
गमनम्
॥३७॥
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वन्दित्वा स्तुत्वा च स्वाभिप्रायमिन्द्रः प्रकटयति-"अहणं" इत्यादिना, अहं खलु देवानुप्रिये ! भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं-जन्मोत्सवं करिष्यामि, तत्तस्मात् हेतोः युष्माभिः नो भेतव्यम् भयं न कर्तव्यम्, इति कृत्वा इति उक्त्वा अवस्वापनी स्वपनकरणी निद्रां ददाति, दत्त्वा पञ्चपञ्चसंख्यकानि शक्ररूपाणि विकरोति= वैक्रियशक्त्योत्पादयति, तत्र तेषु पञ्चसु शक्ररूपेषु मध्ये एकः शक्रः इन्द्रो भगवन्तं तीर्थकरं कोमलेनन्मृदुना करतलसम्पुटेन=हस्ततलरूपसम्पुटेन गृह्णाति-धारयति १, तथा एक अन्यो द्वितीयः शक्रः पृष्ठतः पृष्ठपदेशे धवलिमजितमरालपत्रं-धवलिम्ना श्वेतत्वेन जितं मरालपत्रं इंसपक्षो येन तादृशम् आतपत्र छत्रं धरति २, द्वौ शक्रौ उभयो भगवतो द्वयोमदक्षिणयोः पार्श्वयोः चामरोत्क्षेपंचामरोद्वीजनं कुरुतः ४, एकापञ्चमः पुरन्दरः शक्रः वज्रपाणिः वज्रहस्तः सन् भगवतस्तीर्थकरस्य रक्षार्थ पुरतः भगवतोऽग्रे प्रवर्तते प्रचलति ।मु०६१॥
___ इस प्रकार भगवान की माता त्रिशला को बन्दना करके तथा स्तुति करके इन्द्र अपने अन्तिम अभिप्राय को प्रकट करते हैं-'हे देवानुपिये! मैं भगवान् तीर्थकर का जन्ममहोत्सव करूँगा, अतः आप भय न करें।
इस प्रकार कह कर इन्द्रने उन्हें अवस्वापनी निद्रा में सुला दिया। फिर पाँच शक्र के रूपों की विक्रिया की, अर्थात् वैक्रिय शक्ति से अपने पाँच रूप बनाये। उन पांच इन्द्रो में से एक ने भगवान् तीर्थकर को अपने मृदुल करसम्पुट में ग्रहण किया, एकने अपनी श्वेतता से हंस के पंव को भी जीतने वाला छत्र धारण किया। दो इन्द्र भगवान् के दोनों पसवाडों में चामर बींजने लगे। एक पुरन्दर इन्द्र हाथ में वज्र लेकर भगवान् तीर्थंकर की रक्षा के लिए आगे-आगे चले ।।०६१॥
भगवज्जमोस कर्तुकामस्य शक्रस्य तमादाय गमनम्
આ પ્રમાણે ભગવાનની માતા ત્રિશલાને વન્દના તથા સ્તુતિ કરીને ઈન્દ્ર પિતાનો અંતિમ આશય કહે છે – " वानुप्रिये! हुमपान तीथ ४२नो जन्म-भत्स शश, तो मा५ । भा."
આ પ્રમાણે કહીને ઈન્દ્ર તેમને અવસ્થાપની નિદ્રામાં પિઢાડી દીધાં. પછી વૈયિશકિતથી પિતાનાં પાંચ રૂપ બનાવ્યાં. તે પાંચ ઇન્દ્રોમાંથી એકે ભગવાન તીર્થકરને પિતાનાં કમળ કરસમ્પટમાં ઉપાડી લીધાં, એકે શ્વેતતામાં કિઈ હંસની પાંખને પણ મહાત કરનાર છત્ર ધારણ કર્યું, બે ઈન્દ્ર ભગવાનને બને પડખે ચામર ઢાળવાં લાગ્યાં. એક
પુરન્દર ઈન્દ્ર હાથમાં વજ લઈને ભગવાન તીર્થંકરનાં રક્ષણને માટે આગળ-આગળ ચાલવા લાગ્યો (સૂ૦૬૧)
॥३८॥
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मूलम्--तए णं से सके देविंदे देवराया नंदीसरदीवे पुवमागएहि सयसयरइगरपन्चए साहरियसय-सय-इड्ढि-जाण-विमाणेहिं सबसयपरिवारपरिवुडेहिं तिसटिइंदेहि सद्धिं संपरिखुडे जेणेव मेरुपव्वए वलयागारेण ठियस्स चउण्णवइअहियचउस्सयजोयणपरिमियविक्खंभस्स चउत्थपंडगवणस्स चउसु दिसासु सेयमुवष्णमया अद्धचंदागारा पुन्व-दक्षिण-पच्छिमु-त्तर-कमेण ठिया पंडुकंबल-अइपंडुकंबल-रत्तकबल-अइरत्तकंबला-भिहाणाओ चउरो अभिसेयसिलामो बट्टति, तासु जेणेव अइपंडुकंबलसिला जेणेव य अभिसेयसीहासणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि सीहासणंसि सबलोगसहायगं तिहुयणनायगं सयंसि अंकपल्लंगसि अहियासिय पुरत्थाभिमुहे संनिसण्णे ॥मू०६२॥
छाया-ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वमागतैः स्वक-स्वक-रतिकरपर्वते संहृत-स्वक-स्वक-ऋद्धि-यानविमानैः स्वक-स्वक-परिचारपरिवृतैः त्रिषष्टीन्द्रैः सार्द्ध संपरिवृतः यत्रैव मेरुपर्वते वलयाकारेण स्थितस्थ चतुर्नवत्यधिकचतुःशतयोजनपरिमितविष्कम्भस्य चतुर्थपण्डकवनस्य चतसृषु भगवज्ज: दिक्षु श्वेतसुवर्णमय्यः अर्द्धचन्द्राकाराः पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरक्रमेण स्थिताः पाण्डुकम्बला-तिपाण्डुकम्बल-रक्त
न्मोत्सवं
बीमा कर्तुकामस्य मूल का अर्थ-'तए थे' इत्यादि। तत्पश्चात् नन्दीश्वर द्वीप में पहले से आये हुए, अपने अपने शक्रस्य रतिकर पर्वत पर अपनी-अपनी ऋद्धि एवं यान-विमानों को छोड़ देने वाले, तथा अपने-अपने परिवार
तमादाय से युक्त तिरसठ इन्द्रों के साथ, बह शक्र देवेन्द्र देवराज जहाँ अभिषेक-सिंहासन था, वहाँ आये। मेरु पर्वत
गमनम् पर वलयाकार (चूड़ी की तरह गोलाकार) स्थित तथा चार सौ चौरानवे योजन विस्तार वाला जो चौथा पण्डकवन है उसके चारों तरफ, श्वेतसुवर्णमयी अर्धचन्द्र के आकार की, क्रम से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में स्थित जो पाण्डुकम्बला, अतिपाण्डुकम्बला, रक्तकम्बला और अतिरक्तकम्बला नामक चार अभिषेक-शिलाएँ
भूजन। मयं-'तप णं' त्याहि. त्या२पछी नहीश्वरापमा पडेथी माता पातपाताना ति४२ ५'त પર પિતાની અદ્ધિ અને યાનવિમાનેને મૂકવાવાળા, અને પિતાના પરિવારથી યુકત એવા ત્રેસઠ ઇન્દ્રોને સાથ મિલાવી, તે શક દેવેંદ્ર દેવરાજ જ્યાં અભિષેક-સિંહાસન હતું ત્યાં આવ્યા.
॥३९॥ મેરુ પર્વત ઉપર ચાર ચેરાણું (૪૯૪) જોજનના વિસ્તારવાલું ચુડીના આકારે રહેલું થુ પંડકવન છે. આ વનની ચારે બાજુ, શ્વેતસુવર્ણમય, અર્ધચંદ્રાકારવાળી, પૂર્વ-દક્ષિણ-પશ્ચિમ અને ઉત્તર દિશામાં અનુક્રમે આવેલી પાંડુકંબલા, અતિ પાંડુકંબલા, રકતકંબલા અને અતિરક્તકંબલા નામવાલી ચાર શિલાઓ છે. આ
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श्रीकल्प
॥४०॥
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कम्बला-तिरक्तकम्बलाभिधानाः चतस्रोऽभिषेकशिला वर्तन्ते, तासु यत्रैत्र अतिपाण्डुकम्बलशिला यत्रैव च अभिषेक सिंहासनं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तस्मिन् सिंहासने सर्वलोकसहायकं त्रिभुवननायकं स्वके अङ्कपर्यङ्के अध्यास्य पूर्वाभिमुखः संनिषण्णः ॥०६२ ॥
वृतः=सम्यक्
टीका--'तए णं से सके' इत्यादि । ततः खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराजो नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वम् = माक् आगतैः स्वकस्वकरतिकरपर्वते निज निजरतिकरगिरौ संहृतस्त्रकस्व कर्द्धियान विमानैः = स्थापितनिजनिजऋद्धियानविमानैः स्वकस्वकपरिवारपरिवृतैः= निजनिजपरिजनपरिवेष्टितैः त्रिषष्टीन्द्रैः सार्द्ध = सह संपरिपरिवेष्टितः सन् मेरुपर्वते यत्रव=यस्मिन्नेव स्थाने वलयाकारेण= वर्तुलाकारेण स्थितस्य = विद्यमानस्य चतुर्नवत्यधिकचतुःशतयोजनपरिमितविष्कम्भस्य = चतुर्नवत्यधिकचतुःशतसंख्ययोजन परिमितविस्तारवतः चतुर्थपण्डकवनस्य चतसृषु दिक्षु श्वेतसुवर्णमय्यः अर्द्धचन्द्राकाराः पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरक्रमेण हैं। इन चारों में से जहाँ अतिपाण्डुकम्बलशिला थी और जहाँ अभिषेक - सिंहासन था, वहाँ ( शक्र ) आये । आकर वह उस सिंहासन पर समस्त लोक के सहायक और त्रिभुवन के नायक तीर्थकर भगवान् को अपनी गोदरूपी पलंग में बिठला कर, पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठे ||०६२||
टीका का अर्थ — 'तए णं' इत्यादि । तदनन्तर शक्र देवेन्द्र देवराज नन्दीश्वर द्वीप में पहले से आये हुए, अपनेअपने रविकर गिरिपर जिन्होंने अपनी-अपनी ऋद्धि और अपना-अपना परिवार छोड़ दिया था और जो अपने - अपने परिवार से वेष्टित थे ऐसे तिरसठ इन्द्रों के साथ, उनसे घिरे हुए, मेरु पर्वत के ऊपर जिस स्थान पर गोलाकार स्थित तथा चार सौ चौरानवे योजन विस्तार वाला पण्डक नामक चौथा वन है, उस वन की चारों दिशाओं में श्वेत सोने की बनी हुई, अर्द्धचन्द्राकार, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में શિલાઓ અભિષેક શિલાઓ કહેવાય છે. જે સ્થાને અતિપાંડુક બળશિલા છે, અને જ્યાં અભિષેક સિંહાસન છે, ત્યાં દેવેન્દ્ર આવ્યાં, ત્યાં આવી પલેાંઠીવાળી બેઠા પછી, ભગવાનને ખેાળામાં લીધાં, ને પૂર્વ દિશા તરફ માં કરી પે।તે સ્થિર આસન યુ" (સૂ૦૬૨)
टीना अर्थ- 'तपणं' इत्यादि. त्यार पछी अड हेवेन्द्र देवराज नन्दीश्वर द्वीपमां पडेोथी आवेस, पोतपोताना रतिर પર્વત પર જેએ પેાતપોતાની ઋદ્ધિ અને પોતાના પરિવારને મૂકી ગયા હતા અને જે હતાં, એવાં ત્રેસઠું ઇન્દ્રોની સાથે, તેમનાથી વીંટળાયેલા, મેરુ પર્વતની ઉપર જે સ્થાન ચારસા ચારણુ ચેાજનના વિસ્તારવાળુ પંડક નામનુ ચેાથું વન છે, તે વનની ચારે
પાતપેાતાના પરિવારની સાથે પર વર્તુળાકારે ઉભેલું તથા દિશાઓમાં શ્વેત સુવણૅની
कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवज्ज न्मोत्सव कर्तुकामस्य
शक्रस्य
तमादाय
गमनम्
118011
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४१॥
स्थिताः वर्तमानाः पाण्डुकम्बला - तिपाण्डुकम्बला-रक्तकम्बला-तिरक्तकम्बलाभिधानाः - पूर्वदिशि पाण्डुकम्बला, दक्षिणदिशि अतिपाण्डुकम्बला, पश्चिमदिशि रक्तकम्बला, उत्तरदिशि अतिरक्तकम्बला चेति चतस्रोऽभिषेकशिला वर्तन्ते, तासु=तासां मध्ये यत्रैत्र = दक्षिणदिशि अतिपाण्डुकम्बलशिला, तथा यत्रैव च अभिषेकसिंहासनं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तस्मिन् अभिषेकके सिंहासने सर्वलोकसहायक - सकललोकोपकारकं त्रिभुवननायकं = त्रिलोकीनाथं स्वके=निजे अङ्कपर्यङ्के = क्रोडरूपे पल्यङ्के अभ्यास्य = उपवेश्य पूर्वाभिमुखः संनिषण्णः = उपविष्टः ॥मू० ६२॥
मूलम् -- तए णं तेसट्टीवि इंदा नियनिय - परिवार - परिवुडा तत्थ सयस्यासणे ठिया । तरणं सव्वे देवाय देवीओ य एगओ मिलित्ता सबसयकज्जपवत्ता सव्बिडूढीए सब्वज्जुईए सव्ववलेण सव्वसमुदपणं सव्वसंभ्रमेणं सव्वारोदेहिं सव्त्र- पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकार - विभूसाए सव्य-दिव्य - तुडिय-निनादेणं महयाए इड्ढी ए महया हिययोल्लासेणं महया रवेणं एवं महं तित्थयरजम्माभिसेयं काउं इंदस्स आणं अभिकखेति ।
जं समयं च णं भगवत्र तित्थयरस्स जम्माभिसेओ भविस्सइ-ति णायं तं समयं च णं देवगणो तिसिओ जलं पाउमित्र, जम्मदीणो इहसिद्धिं लधुमित्र, रोगी आरोग्गं पत्तुमित्र, निराधारी आधारमवतुमिव, भसरण सरणं पत्तुमिव विमलं पहुमुहकमलं लोयणगोयरीकाउं नितंतुकंठियसंतो आसि ॥०६३॥
क्रम से विद्यमान चार अभिषेक शिलाएँ हैं-अर्थात् १-पूर्व में पाण्डुकम्बला, २- दक्षिण में अतिपाण्डुकम्बला, ३ - पश्चिम में रक्तकम्बला, और ४- उत्तर में अतिरक्तकम्बला शिला है। इन चारों में से जहाँ अभिषेक-सिंहासन है वहाँ पहुँचे, पहुँच कर उस अभिषेक - सिंहासन पर सकल लोक के उपकारक और त्रिलोकी are तीर्थंकर को अपनी गोवरूप पलंग में विठला कर स्वयं पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गये || सू०६२||
અનેલી, 'ચન્દ્રાકારની પૂર્વ, દક્ષિણ, પશ્ચિમ અને ઉત્તરમાં અનુક્રમે વિદ્યમાન ચાર અભિષેકશિલાઓ છે, એટલે કે (1) पूर्व पांडुम्सा, (२) क्षिषुभां अतियांडुम्म्मला, (3) पश्चिममा तम्म्णा भने (४) उत्तरमां આંતિરકતક ખલા શિલા છે. એ ચારેમાંથી જ્યાં દક્ષિણ દિશાની સ્મૃતિપાંડુકમ્મલા શિલા છે અને જયાં અભિષેક-સિંહાસન છે, ત્યાં પહોંચ્યાં. ત્યાં પહોંચીને તે અભિષેક-સિ'હાસન પર સકળ લેાકના ઉપકારક, અને ત્રિલેાકના નાથ તીર્થંકરને Jain Educate पोताना मोजा इयी यागमां साडीने पोते पूर्व-हिशानी तर भुरीने बेसी जय. (सू०१२)
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कल्प
मञ्जरी टीका
भगवन्तं क्रोडे कृत्वा
शक्रस्या
भिषेक
सिंहासने
समुपवे
शनम्
॥४१॥
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श्रीकल्प
॥४२॥
टीका
छाया-ततः खलु त्रिषष्टिरपीन्द्राः निजनिजपरिवारपरिवृताः तत्र स्वस्वासने स्थिताः। ततः खलु सर्वे र देवाश्च देव्यश्च एकतो मिलित्वा स्वकस्वककार्यमवृत्ताः सर्वद्धर्या सर्वधुत्या सर्वबलेन सर्वसमुदयेन सर्वादरेण सर्वविभूत्या सर्वसम्भ्रमेण सर्वाऽऽरोहैः सर्व-पुष्प-गन्ध-माल्या-लङ्कार-विभूषया सर्व-दिव्य-त्रुटित निनादेन
कल्पमहत्या ऋदया महता हृदयोल्लासेन महता रवेण महान्तं तीर्थकरजन्माभिषेकं कर्तुम् इन्द्रस्य आज्ञामभि
मञ्जरी काङ्क्षन्ति ।
यस्मिन् समये च खलु 'भगवतस्तीर्थकरस्य जन्माभिषेको भविष्यती'-ति ज्ञातं, तस्मिन् समये च खलु देवगणः तृषितो जलं पातुमिव, जन्मदीन इष्टसिद्धिं लब्धुमिव, रोगी आरोग्यं प्राप्तुमित्र, निराधार आधार
___ मूल का अर्थ- 'तए थे' इत्यादि। तत्पश्चात् तिरसठ इन्द्र भी अपने-अपने परिवार के साथ, अपने-अपने आसन पर स्थित हुए। उस समय सभी देव और सभी देविया, एक साथ मिल कर अपने-अपने काम में जुट गये और सम्पूर्ण ऋदिसे, सम्पूर्ण युति से, सम्पूर्ण बल से, सम्पूर्ण समुदय से, सम्पूर्ण आदर से, सम्पूर्ण
भगवज्जविभूति से, सम्पूर्ण संभ्रम से, सम्पूर्ण समारोह से, पुष्प, गंध, माला, अलंकार एवं विभूषा के साथ, न्मोत्सव समस्त दिव्य वाद्यों की धनि के साथ, बड़े ठाठ से, बड़े हृदयोल्लास से और महान् शन्दोंसे एक महान् कर्तुकामा: तीर्थकर का जन्माभिषेक करने के लिए इन्द्र की आज्ञा की अभिलाषा-प्रतीक्षा करने लगे।
नां देवानां
मनोभावजिस समय देवगण ने जाना कि भगवान् तीर्थकर का जन्माभिषेक होगा, उस समय जैसे प्यासा
वर्णनम्. जल पीने को, जन्म का दरिद्र इष्टसिद्धि पाने को, रोगी आरोग्य प्राप्त करने को, निराधार आधार पाने
भूजन। मय-'तपण' त्यारित्यारपछी थानाद्रिो पातपाताना मसाथै पातपाताना मासन पर બેસી ગયાં. તે સમયે, સર્વ દેવ-દેવીએ એકીસાથે મળીને પિતા-પિતાના કામમાં પરોવાઈ ગયાં. સંપૂર્ણ રિદ્ધિ, આ યુતિ, બળ, સમુદય, આદર, વિભૂતિ, ઐશ્વર્ય, સક્ષમ અને સમાહથી અને પુષ્પ, ગંધ, માળા, અલંકાર અને હદયના ઉ૯લાસથી અને મહાન શબ્દોથી એક મહાન તીર્થકરના જન્માભિષેક કરવા માટે તૈયાર રહીને, ઈદ્રની
॥४२॥ આજ્ઞાની રાહ જોતાં ઉભા હતાં.
- ઉપરોકત તૈયારી પૂરી થતાં સર્વ દેવો, ભગવાનનું મુખારવિંદ જેવા તલપાપડ થઈ રહ્યાં હતાં. જેમ - તરસ્યા પાણીની પ્રતીક્ષા કરતા ઉભા હોય છે, જેમ દરિદ્રી ઈષ્ટવસ્તુ મેળવવાની લાલચે વાટ જોઈ રહ્યો હોય છે, w.jainelibrary.org
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥४३॥
# मवाप्तुमित्र, अशरणः शरणं प्राप्तुमित्र, विमलं प्रभुमुखकमळं लोचनगोचरीकर्तु नितान्तो- त्कण्ठित-स्वान्त आसीत् ॥०६३ ||
टीका- 'तए णं सकिंदवज्जा' इत्यादि । ततः खलु त्रिषष्टिसंख्या अपि इन्द्राः = ईशानादयो निजनिजपरिवारपरिवृताःस्वस्वपरिजनपरिवेष्टिताः सन्तः, तत्र = अतिपाण्डुकम्बलशिलासमीपे स्वस्वासने स्थिताः । ततः खलु सर्वे देवा देव्यश्च एकतः = एकत्र मिलित्वा स्वकस्वककार्यप्रवृत्ताः सन्तः सर्वऋदया = सकलसम्पच्या, सर्वद्युत्या=सर्वप्रकाशेन, सर्ववलेन = सर्वपराक्रमेण सर्वसैन्येन वा, सर्वसमुदयेन – सर्वेषां = स्वपरिवाराणां समुदयेन समूहेन सर्वेण सम्यगुदयेन वा, सर्वाऽऽदरेण = सर्वप्रकारेण आदरेण, सर्वविभूत्या= सर्वैश्वर्येण, सर्वसंभ्रमेण= सर्वप्रकारया त्वरया, सर्वाऽऽरोहैः- सर्वसंनद्धीकरणैः, सर्व - पुष्प - गन्ध - माल्या - लङ्कार - विभूषया, तत्र सर्वेत्यस्य पुष्पाको, शरणहीन शरण प्राप्त करने को उत्कंठित होता है, उसी प्रकार देवगण भी भगवान् का निर्मल मुखकमल देखने के लिए उत्कंठितचित्त हो गये ||०६३ ||
टीका का अर्थ- 'ari' इत्यादि । तत्पश्चात् ईशान आदि तिरसठ इन्द्र भी अपने - अपने परिवार से वेष्टित होकर भतिपाण्डुकम्बलशिला के समीप अपने-अपने आसन पर बैठ गये। तब सब देव और देवियाँ एक साथ मिल कर अपने-अपने कार्य में लग गये। समस्त सम्पत्ति से, समस्त प्रकाश से, समस्त पराक्रम से या समस्त सेना से, अपने-अपने समस्त परिवार से या सम्यक् उदय से, सब प्रकार के आदर से, समस्त ऐश्वर्य से, समस्त त्वरा से, समस्त समारोह - तैयारी से, पुष्पों से, समस्त गंधों, समस्त मालाओं, समस्त अलंकारों જેમ રાગી રાગના નિવારણની રાહ જોઈ રહ્યો હાય છે, જેમ નિરાધાર આધારને વળગવાનું વિચારી રહ્યો હાય છે, જેમ શરણહીન ચરણ પ્રાપ્ત કરવાને ઝંખી રહ્યો હેાય છે, તેમ સવાઁ દેવ-દેવાંગનાએ, ભગવાનનું નિ`ળ અને સૌમ્ય મુખ જેવાની તાલાવેલી સેવી રહ્યાં હતાં. (સૂ॰ ૬૩)
टीने अर्थ- 'तरण' त्यिाहि त्यार माह ईशान याहि त्रेसठ इन्द्र यशु पोतपोताना परिवारथी वटणाधने અતિપાંડુકમ્મલશિલાની પાસે પોતપોતાનાં આસન પર બેસી ગયાં. ત્યારે સઘળા દેવ અને દેવીએ એક સાથે મળીને પોતપોતાના કામે વળગી ગયાં. સમસ્ત સપત્તિથી, સમસ્ત પ્રકાશથી, સમસ્ત પરાક્રમથી, સમસ્ત સેનાથી, તાતાના સમસ્ત પરિવારથી અથવા સમ્યક્ ઉદયથી, બધી જાતના આદરથી, સમસ્ત અશ્વયથી, पूरी त्वराथी, पू समारोह - तैयारीथी, पुग्यो थी, समस्त गंधो, समस्त भाषाओं, समस्त माभूषथे, अने
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवज्जन्मोत्सवं कर्तुकामा
नां देवानां मनोभाव
वर्णनम्
॥४३॥
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्र
CA
॥४४॥
दिभिः प्रत्येकं सम्बन्धः, तेन सर्वपुष्पेण, सर्वगन्धेन, सर्वमाल्येन, सर्वालङ्कारेण, सर्वविभूषया सर्वशोभया सर्वविशिष्टाऽऽभूषणेन वा, तथा सर्व-दिव्य-त्रुटित-निनादेन-सषां दिव्यानां दिवि भवानाम् अद्भुतानां वा, त्रुटितानां वाद्यानां निनादेन-शब्देन, महत्या-विशालया ऋद्धया-सम्पत्या महता-अधिकेन हृदयोल्लासेन= चित्तानन्देन, महता रवेण=शब्देन एकम् अद्वितीयं महान्तं विशालं तीर्थकरजन्माभिषेकम् तीर्थकरजन्माभिषेकरूपम् हजार उत्सवं कर्तुम् इन्द्रस्य शक्रेन्द्रस्य आज्ञाम् अभिकाङ्क्षन्ति अभिलपन्ति । यस्मिन् समये च खलु भगवतस्तीर्थकरस्य जन्माभिषेको भविष्यतीति देवगणेन ज्ञातं, तस्मिन् समये च खलु देवगणः, तृषितः पानीयं पातुमिच, जन्मदीनः जन्मदरिद्र इष्टसिद्धिम् अभिलषितवस्तुसिद्धिं लब्धुमित्र, रोगी आरोग्य-नैरुज्यं प्राप्तुमिव, निराधारः= निरवलम्बो जनः आधारम् अवलम्बनम् अवाप्तुम् इव, अशरणः शरणरहितः शरणं प्राप्तुमिव, विमलं स्वच्छं प्रभुमुखकमलं लोचनगोचरीक द्रष्टुं नितान्तोत्कण्ठितस्वान्तः अत्यन्तोत्सुकमना आसीत्। इहैकदेवगणस्योपमेयस्य तृषितादिबहुपमानसत्त्वाद् मालोपमाऽलङ्कारः ॥म०६३॥
भगवज्ज
न्मोत्सव और समस्त शोभाओं के साथ या समस्त विशिष्ट आभूषणों से, तथा सव दिव्य वाजों की ध्वनि से, विशाल
कर्तुकामाऋदि से, महान् चित्त के उल्लास (आनन्द) से, महान् शब्दों से तीर्थकर का जन्माभिषेक रूप एक-अद्वि
नां देवानां तीय उत्सव मनाने के लिए इन्द्र की आज्ञा की अभिलाषा करने लगे।
मनोभावजब देवगण को ज्ञात हुआ कि भगवान तीर्थकर का जन्माभिषेक होने वाला है तो वह भगवान्
वर्णनम् का निर्मल मुख-कमल देखने के लिए अत्यन्त ही उत्कंठितचित्त हो गये, जैसे प्यासा पानी पीने के लिए, जन्म का दरिद्र मन चाही वस्तु की प्राप्ति के लिए, रोगी आरोग्य पाने के लिए, निराधार जन आधार पाने के लिए और अशरण शरण पाने के लिए उत्कंठित होता है। સમસ્ત શોભાની સાથે એટલે કે વિશિષ્ટ આભૂષણોથી, તથા સઘળાં દિવ્ય વાજિંત્રોના ધ્વનિથી, વિશાળ અદ્ધિથી, ચિત્તના અત્યંત ઉલ્લાસ (આનંદ)થી, મહાન શબ્દોથી, તીર્થંકરની જન્માભિષેકને એક અનુપમ ઉત્સવ ઉજવવાને માટે ઈન્દ્રની આજ્ઞાની અભિલાષા કરવા લાગ્યાં. જ્યારે દેવગણને જાણ થઈ કે ભગવાન તીર્થંકરને જન્માભિષેક કરી
॥४४॥ થવાનો છે ત્યારે તેઓ ભગવાનના નિર્મળ વદન-કમળના દર્શન માટે એટલા બધા આતુર થઈ ગયાં જેટલા છે તરસ્યા પાણીને માટે, જન્મદરિદ્ર ઈચ્છિત વસ્તુની પ્રાપ્તિ માટે, રેગી આરોગ્ય મેળવવા માટે, નિરાધાર હતા आधारा
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥४५॥
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं देवपमोओ अव अलोइओ जाओ । " तयायणं देवगणप्पमोयं, वागीसरी नत्थि अलं पवत्तं । अच्तसंताय हविसु देवा, सहायई जत्थ पडंतसूई ॥ १ ॥”
तणं ते देवाय देवीओ य हरिमुकरिसेण तहा एकताणमाणसा जाया जहा तंसि समयंसि गिरिवर पडणेणात्र तेसिं दिडीओ लेसमित्तमात्र चलिया न भविज्जा । तए णं सुवण्णमया १, रययमया २, रयणमया ३, सुवण्णरययमया ४, सुवण्णरयणमया ५० श्ययरयणमया ६, सुवण्णरययरयणमया ७, महियामया ८ जे कलसा, तेसिं कलसाणं इक्किक्काए जाईए अनुत्तरसहस्सं अनुत्तरसहस्सं ईकिकस्स इदस्स आसी । एवं चरसहीए इंदाणं छष्ण वइ - अहिय - सोलससहस्स– संजुयाई पंचलक्खाई कलसाणं दहूण सकस्स देविंदस्स देवtat shered अज्झथिए पत्थिए चिंतिए कप्पिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - "जं इमा वालो सिरीसकुसुम - सुउमालो पहू एवइयाणं जलसंभियाणं महाकलसाणं महइमहालयं जलधारं कहं सहिस्स" - ति । एवंविहं सकस्स अज्झत्थियं ५ ओहिणा आभोइय तस्संसयनिवारण अउलबलपरकमो भयवं सयपादंगुग्गेणं सीहासणस एगदेसं फुसइ । तए मं भगवओ तित्थयरस्स अंगुहग्गफासमेचेणं मेरू 'महापुरिसाणं चरणफा सेण अहं पावणो जाओम्हि'- त्ति कट्टु हरिसिओ विव कंपि मारो ||०६४ ||
छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये देवप्रमोदोऽतीवालौकिको जातः ।
यहाँ एक देवगण उपमेय है और प्यासे आदि बहुत-से उपमान हैं। इस कारण मालोपमा अलंकार है ।। ०६३||
मूल का अर्थ- 'तेणं काळेणं' इत्यादि । उस काल और उस समय में देवों को अतीव अलौकिक અહી એક દેવગણુ ઉપમેય છે અને તરસ્યા આદિ ખીજાં મધા भाबोपभा अक्षर छे. (सू०१३)
ઉપમાન
છે. તે કારણે
भूजना अर्थ - " सेणं कालेणं ” इत्यादि. ते अणे मने ते सभये हेवोने अतिशय मौ िष थये।.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
देवप्रमोदाष्टविध
कलशशक्रेन्द्र
चिन्ता
मेरुकम्पनवर्णनम्
॥४५॥
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" तदातनं देवगणप्रमोदं, वागीश्वरी नास्ति अलं प्रवक्तुम्।
अत्यन्तशान्ताश्च बभूवुर्देवाः, शब्दायते यत्र पतत्सूची ॥१॥" श्रीकल्प
ततः खलु ते देवाश्च देव्यश्च हर्षोत्कषण तथा एकतानमानसा जाताः, यथा तस्मिन् समये गिरिवरपतने- कल्पनापि तेषां दृष्टयो लेशमात्रमपि चलिता न भवेयुः। ततः खलु सुवर्णमयाः १, रजतमयाः २, रत्नमयाः३,
मञ्जरी H४६॥
टोका सुवर्णरजतमयाः ४, सुवर्णरत्नमयाः ५, रजतरत्नमयाः ३, सुवर्णरजतरत्नमयाः ७, मृत्तिकामयाः ८ ये कलशाः, तेषां कलशानाम् एकैकस्य जात्या अष्टोत्तरसहस्रम् अष्टोत्तरसहस्रम् एकैकस्य इन्द्रस्य आसीत्। एवं चतुष्षष्टेरिन्द्राणां मा हर्ष हुआ।
उस समय के देव-गण के आनन्द को सरस्वती भी कहने में समर्थ नहीं हैं। उस समय देव एकदम इतने शांत हो गये कि गिरती हुई मुई का भी शब्द सुनाई दे ॥१॥
ई देवपमोदातब देवों और देवियों का मन हर्ष के उत्कर्ष से एकाग्र हो गया। उनकी दृष्टि ऐसी निश्चल
| राष्ट एसा निश्चल विधहो गई कि बड़े पर्वत के गिरने से भी लेशमात्र चलायमान न हो।
कलशतत्पश्चात् (१) स्वणे के, (२) चांदी के, (३) रत्नों के, (४) सोने-चांदी के, (५) सोने-रत्नों के (६) चांदी-रत्नों के, (७) सोने-चांदी-रत्नों के तथा (८) मृत्तिका के, इन आठ प्रकार के कलशों में
मेरुकम्पनसे एक-एक जाति के, प्रत्येक इन्द्र के पास एक हजार आठ कलश थे। इस तरह चौंसठ इन्द्रों के कुल
वर्णनम् पांच लाख, सोलह हजार, छयानवे कलश हुए। इतने कलशों को देख कर देवेन्द्र देवराज शक्र को ऐसा “તે સમયની દેવગણના આનંદનું વર્ણન કરવાને સરસ્વતી પણ શકિતમાન નથી. એ વખતે દેવો એટલા બધા શાન્ત થઈ ગયાં કે નીચે પડતી સેયનો અવાજ પણ સાંભળી શકાય. ૧
ત્યારે દેવો અને દેવીઓનાં મન હર્ષના અતિરેકથી એકાગ્ર થઈ ગયાં. તેમની પલકે એટલી બધી નિશ્ચલ થઈ ગઈ કે માટે પર્વત પડે તે પણ જરાયે ચલાયમાન ન થાય !. ત્યાર બાદ (૧) સુવર્ણનાં (૨) ચાંદીનાં
॥४६॥ (3) रत्नाना (४) सोना-यांनi (५) सोना-२त्नान (E) यही-२त्नानां (७) सोना-यां मन नानां तथा
(૮) માટીને; એ આઠ પ્રકારના કળશોમાંથી એક એક પ્રકારના, પ્રત્યેક ઈન્દ્રની પાસે એક હજાર આઠ કળશ હતાં. RC આ પ્રમાણે ચૌસઠ ઈન્દ્રોના કુલ પાંચ લાખ, સેળ હજાર, છનું (૫૧૬૦૯૬) કળશ થયાં. આટલા બધા કળશને પણ
शक्रेन्द्रचिन्ता
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श्रीकल्प
षण्णवत्य-धिक-पोडशसहस्र-संयुतानि पञ्च लक्षाणि कलशानां दृष्ट्वा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतद्रूप: आध्यात्मिकः १, प्रार्थितः २, चिन्तितः ३, कल्पितः ४, मनोगतः ५ संकल्पः समुदपद्यत-"यदयं बालशिरीषकुसुमसुकुमारः प्रभुः एतावतां जलसंभृतानां महाकलशानां महामहती जलधारां कथं सहिष्यते" इति। एवंविधं शक्रस्य आध्यात्मिकम् ५ अवधिना आभुज्य तत्संशयनिवारणार्थम् अतुलबलपराक्रमो भगवान् तीर्थकरः सकपादाङ्गुष्ठाग्रेण सिंहासनस्यैकदेशं स्पृशति। ततः खलु भगवतस्तीर्थकरस्य अङ्गुष्ठाग्रस्पर्शमात्रेण मेरु: 'महापुरुषाणां चरणस्पर्शन अहं पावनो जातोऽस्मि" इति कृत्वा हर्पित इव कम्पितुमारब्धः ॥मू०६४॥
टीका-'सेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये देवप्रमोद: देवानां हर्षः अतीव
कल्प. मञ्जरी
सूत्रे ॥४७॥
टीका
देवप्रमोदाविध
कलश
आध्यात्मिक, प्रार्थित, चिन्तित, कल्पित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि शिरीष के कुसुम के समान सुकुमार यह शिशु भगवान् इतने जलपूर्ण महाकलशों की अत्यन्त विशाल जलधारा को किस प्रकार सहेंगे?
शक्र के इस प्रकार पांचों प्रकार के विचार अवधिज्ञान से जान कर, उनकी शंकाको दर करने के लिए, अतुल बल और पराक्रम वाले तीर्थकर भगवान्ने अपने पैर के अंगूठे के अग्रभाग से सिंहासन के एक भाग का स्पर्श किया, तब भगवान् तीर्थकरके अंगूठे के स्पर्शमात्र से मेरु पर्वत काँपने लगा, मानो 'महापुरुषों के चरणस्पर्स से मैं पावन हो गया ऐसा सोचकर हर्ष से हिलने लगा हो ॥०६४॥
टीका का अर्थ--'तए णं' इत्यादि। उस काल और उस समय में देवो को अतीव लोकोत्तर आनन्द
शक्रेन्द्रचिन्ता
मेरुकम्पनवर्णनम्
જોઈને દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક્રને એવો આધ્યાત્મિક, પ્રાર્થિત, ચિતિત, કપિત, મનોગત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે શિરીષના કૂલ જેવો સુકુમાર આ બાળક (ભગવાન) આટલાં બધાં, જળથી ભરેલાં મહાકળની અત્યંત વિશાળ જળધારાને કેવી રીતે સહન કરી શકશે? ચક્રના આ પ્રકારના પાંચ વિચારોને અવધિજ્ઞાનથી જાણીને તેની શંકાનું નિવારણ કરવા માટે, અપાર બળ અને પરાક્રમવાળાં તીર્થકર ભગવાને પિતાના પગના અંગુઠાના અગ્રભાગથી સિંહાસનના એક ભાગને સ્પર્શ કર્યો. ત્યારે ભગવાન તીર્થંકરના અંગુઠાના સ્પર્શ માત્રથી જ મેરુ પર્વત કંપવા લાગે. જશે “મહાપુરુષોનાં ચરણ સ્પર્શથી હું પાવન થઈ ગયો” -એમ ધારીને હર્ષથી ડોલવા લાગ્યો (સૂ૦૬૪). .. मथ-तण कालेणं' त्यालित आणे भने त समये वोन भत्योत्तर भान थयो. तारे
॥४७॥
E
d
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥४८॥
टीका
अतिशयितः अलौकिया लोकोत्तरो जातः। तस्मिन् समये नितरां शान्तिरासीदिति दर्शयितुमाह-'तयायणं' इत्यादि।
___तदातनं तदा तस्मिन् काले भवं जातं, देवगणप्रमोदम्-देवानां गणस्य समूहस्य प्रमोद-हर्षम् , वागीश्वरी-सरस्वती अपि वक्तुं वर्णयितुम् अलं-समर्था नास्ति न विद्यते। देवास्तत्र अत्यन्तशान्ताः अतिशयितनिश्चलमनसो बभूवुः। यत्र-यस्मिन् देवगणशान्तिस्थले पतत्सूची-पतन्ती सूची शब्दायते शब्दं करोतिशब्दं कुर्यादित्यर्थः। ततः खलु ते शान्तचित्ता देवाश्च देव्यश्च हर्षोत्कर्षेण आनन्दाधिक्येन तथा तेन प्रकारेण एकतानमानसाः= एकाग्रमनसो जाताः, यथा येन प्रकारेण तस्मिन् समये तेषां शान्तचित्तानां देवानां दृष्टयः= नेत्राणि गिरिवरपतनेनापि-महापर्वतनिपतनेनापि लेशमात्रमपि-किश्चिदपि चलिताः चञ्चला न भवेयुः। हुआ। उस अवसर पर एकदम शांति थी, यह बतलाने के लिए कहते हैं
देवप्रमोदा
विधा “तयायणं देवगणप्पमोयं, वागीसरी नत्थि अलं पवत्तुं।
कलशअच्चंतसंता य हविंसु देवा, सदायई जत्थ पडतसूई ॥१॥"इति। अर्थात उस समय देवों के समूह को जो प्रमोद हुआ, उसका वर्णन करने में सरस्वती भी मेरुकम्पनसमर्थ नहीं है। वहाँ देव अत्यन्त ही शांत एकाग्रचित्त हो गये, इतने शान्त हो गये कि गिरती हुई मुई की
वर्णनम् भी आवाज आये विना न रहे। અવસરે તદ્દન શાન્તિ હતી, તે દર્શાવવા માટે કહે છે–
“तयायणं देवगणप्पमोयं, वागीसरी नत्थि अलं पवत्तुं । अचंतसंता य हविंसु देवा, सदायई जत्थ पडंतसूई ॥१॥ इति।
॥४८॥ એટલે કે તે સમયે દેવોના સમૂહને જે હર્ષ થયે તેનું વર્ણન કરવાને સરસ્વતી પણ સમર્થ નથી. ત્યાં તો દેવો એટલાં બધાં શાન્ત અને એકાગ્રચિત્ત થઈ ગયાં કે નીચે સોય પડે તો તેને અવાજ પણ સંભળાયા વિના રહે નહીં. તે
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चिन्ता
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४९॥
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ततः खलु सुवर्णमयाः १, रजतमयाः २, रत्नमयाः ३ सुवर्णरजतमयाः ४, सुवर्णरत्नमयाः ५, रजतरत्नमयाः ६, सुवर्णरजतरत्नमयाः ७, मृत्तिकामयाः ८ ये कलशा भवन्ति तेषां कलशानाम् एकैकया जात्या अष्टोत्तरसहस्रम् – अष्टोत्तरसहस्रम् एकैकस्य इन्द्रस्य आसीत् । एवम् एकैकजातीय
इन्द्रस्य अष्टोत्तरसहस्रसत्त्वेन चतुष्षष्टे : = चतुष्षष्टिसंख्यानाम् इन्द्राणाम् = इन्द्रसम्बन्धिनां कलशानाम् पष्णवत्यधिकषोडशसहस्रसंयुतानि पण्णवत्यधि क षोडशसहस्राधिकानि पञ्च लक्षाणि ५१६०९६ दृष्ट्वा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतदूपो=त्रक्ष्यमाणप्रकार आध्यात्मिकः प्रार्थितः चिन्तितः कल्पितः मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत = जातः
उसके बाद शांतचित्त वे देव और देवियाँ आनन्द की अधिकता से इतने एकाग्रचित्त हो गये कि बड़ा भारी पर्वत गिर पडे तो भी उन देव - देवियों की दृष्टि लेशमात्र भी चलायमान न हो ।
उसके बाद (१) सोने के, (२) चादी के, (३) रत्नों के, (४) मिले हुए सोने-चांदी के (५) सोने - रत्नों के, (६) चांदी - रत्नों के, (७) सोने-चांदी-रत्नों के और (८) मिट्टी के ये आठ प्रकार के कलश थे। इन में एक एक प्रकार के कलश प्रत्येक इन्द्र के पास एक हजार आठ-एक हजार आठ थे, सभी प्रकार के कलश एक २ इन्द्र के पास आठ हजार चौसठ-आठ हजार चौसठ थे, अतः चौसठ इन्द्रों के सब मिल कर पाँच लाख, सोलह हजार, छयानवे कलश हुए। कलशों की इतनी बड़ी संख्या देखकर शक्र देवेन्द्र देवराज के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, प्रार्थित, चिन्तित, कल्पित, मनोगत संकल्प अर्थात् विचार उत्पन्न
ત્યાર બાદ શાંતચિત્ત તે દેવ-દેવીએ આનંદના અતિરેકથી એટલાં બધાં એકાગ્રચિત્ત થઇ ગયાં કે ઘણું ભારે પવ ત પડે તે પણ તે દેવ-દેવીઓની સૃષ્ટિ સ્હેજ પણ અલાયમાન થાય નહીં.
त्यार माह (१) सोनानां, (२) यांहीनां (3) रत्नानां, (४) मिश्रित सोना-थांहीना, (५) सोना-रत्नानां (९) यांदी-रत्नानां, (७) सोना-यांही - रत्नानां, भने (८) भाटीनां खेभ प्रानां शतां तेमां प्रत्येक इन्द्रनी પાસે દરેક પ્રકારના એક હજાર આઠ કળશ હતાં. બધા પ્રકારના કળશે મળીને પ્રત્યેક ઈન્દ્રની પાસે આઠ હજાર ચૌસઠ કળશેા હતાં. તેથી ચાસઢ ઇન્દ્રોના મમાં મળીને 'એકદર પાંચ લાખ, સેળ હજાર, છન્નુ કળશ હતાં. કળશે।ની આટલી બધી મોટી સખ્યા જોઇને શક્ર દેવેન્દ્ર દેવરાજના મનમાં આ પ્રકારનેા આધ્યાત્મિક, પ્રાર્થિત, ચિન્તિત, કલ્પિત,
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मञ्जरी
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देवप्रमोदाष्टविध
कलश
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मेरुकम्पनवर्णनम्
॥ ४९ ॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
टीका
मा देवप्रमोदा
यदयं प्रभुः बालः, पुनः शिरीषकुसुमसुकुमारः शिरीषाख्यपुष्पवत् अतिकोमलाङ्गोऽस्ति, कथमयम् एतावतां (५१६०९६) जलभृतानां जलपूर्णानां महाकलशानां महामहतीम् अतिविशालां जलधारां सहिष्यति ?' इति । एवंविधम् एतत्पकारक शक्रस्य-इन्द्रस्य आध्यात्मिकं पार्थितं चिन्तितं कल्पितं मनोगतं सङ्कल्पम् अतुलबलपराक्रम:अनुपमबलपराक्रमो भगवांस्तीर्थकरः अवधिना अवधिज्ञानोपयोगेन आभुज्य=ज्ञात्वा, तत्संशयनिवारणार्थम् इन्द्रसंदेहदूरीकरणार्थ स्वकपादाङ्गुष्ठाग्रेण=निजचरणाङ्गुष्ठाग्रभागेन सिंहासनस्य-सिंहासनाकारपरिणतमेरुपर्वतावयवस्य एकदेशम् एकभागं स्पृशति। ततः स्पर्शनानतरं खलु भगवंतस्तीर्थकरस्य अङ्गुष्ठाग्रस्पर्शमात्रेण 'महापुरुषाणां3 श्रेष्ठपुरुषाणां चरणस्पर्शन अहं पावन = पवित्रः संजातोऽस्मि'-इति कृत्वा इति ज्ञात्वा मेरुः हर्षित इव कम्पितुम् आरब्धः। अत्र कलशसंख्यायां धातकीखण्डादिज्यौतिषेन्द्रादिदेवकलशाविवक्षा बोध्येति ।।०६४॥ हुआ कि प्रभु बालक हैं, शिरीष पुष्प के समान अतिशय कोमल हैं। यह पांच लाख सोलह हजार छयानवे (५१६०९६) जल-भरे महाकलशो की अत्यन्त विशाल जलधारा को कैसे सह सकेंगे।
इस प्रकारके शक के आध्यात्मिक, प्रार्थित, चिन्तित, कल्पित, मनोगत संकल्प को. अतुल बल और अनुपम पराक्रम से सम्पन्न भगवान् तीर्थकर ने अवधिज्ञान से जान करके, उनके संशय को दूर करने के लिए, अपने पेर के अंगूठे के अग्रभाग से अपने आधारभूत (जिस पर वह विराजमान थे) मेरुपर्वत के अवयवरूप सिंहासन के एक भाग का स्पर्श किया। भगवान् तीर्थंकर के अंगूठे के अग्रभाग से स्पर्श करते ही 'महापुरुषों के चरण-स्पर्श से मैं पावन हो गया ऐसा जान कर मानों हर्ष के कारण मेरुपर्वत कापने लगा। यहां धातकीखण्ड आदिके ज्योतिषी देवेन्द्र आदि देवोंके कलशोकी विवक्षा नहीं की गयी है ॥सू०६४॥ મને ગત સંકલ્પ (વિચાર) ઉત્પન્ન થયે કે પ્રભુ બાળક છે, શિરીષ-પુષ્પના જેવાં અતિશય કેમળ છે. તેઓ આ પાંચ લાખ સેળ હજાર કનું (૫૧૬૦૯૬) જળપૂર્ણ મહાકળશેની અત્યંત વિશાળ જાધારને કેવી રીતે સહન કરી શકશે?
પ્રકારના શકના આધ્યાત્મિક, પ્રાર્થિત, ચિન્તિત, કલિપત, મને ગત સંક૯૫ને, અનુપમ બળ અને અનુપમ પરાક્રમવાળા ભગવાન તીર્થકરે અવધિજ્ઞાનથી જાણીને તેની શંકાને દૂર કરવા માટે, પિતાના પગના અંગુઠાના અગ્રભાગથી પિતાના આધારભૂત (જેના પર તેઓ વિરાજમાન હતાં) મેરુપર્વતના અવયવરૂપ સિંહાસનના એક ભાગને સ્પર્શ કર્યો. ભગવાન તીર્થંકરના અંગુઠાના અગ્રભાગને સ્પર્શ થતાં જ “મહાપુરુષોનાં ચરણ-સ્પર્શથી હું પાવન થઈ ગયે" એમ માનીને જાણે હર્ષને લીધે મેરુ પર્વત કંપવા લાગ્યા. અહિં ધાતકીખંડ આદિના यतिषी देवेन्द्र मा वाना शानी विक्षा ४२० नथी. (२०१४)
ष्टविध.
कलशर
चिन्तामेरुकम्पन
शक्रेन्द्र
वर्णनम्
॥५०॥
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श्रीकल्प
सत्रे
मञ्जरी
॥५१॥
मूलम्-जं समयं च णं मेरू कपिउमारद्धो, तं समयं च णं पुढची कंपिया, समुद्दो खुदो, सिहराणि पडिउमारद्धाणि। तेर्सि सयल-जगजीवजाय-हियय-विदारगो भयभेरवो महासदो समुभूओ । तिहुयणसि महं। कोलाहलो जाओ। लोगा भयभीया जाया। सव्वजंतुणो भयाउला सयसयट्ठाणाओ निस्सरिय 'को अम्हाणं
कल्पतायगो' भविस्सइ-त्ति कट्ट सरणमन्नेसिउं विव जत्थ तत्थ पलाइउमारद्धा। सम्वे देवा देवीओ यावि भउन्विग्गमाणसा जाया।
टीका तए णं से सके देविदे देवराया एवं चिंतेइ-'जण्णं अयं विसालो मेरू इमस्स कमलामोवि कोमलस्स बालगस्स पहुणो उवरि पडिस्सइ, तो अस्स बालगस्स का दसा भविस्सइ?, इमस्स बालगस्स अम्मापिऊणं समीवे कहं गमिस्सामि? किं कहिस्सामि ?-त्ति कट्ट सकिंदो अट्टज्झाणोजगओ झियायइ। तो 'केण मेरुकम्प एवं कर्ड'-त्ति कटु सके देविंदे देवराया आसुरुत्ते मिसिमिसंते कोवग्गिणा संजलिए ओहिं पउंजइ। तए णं नेन त्रिभुओहिणा नियदोसं विष्णाय भगवनो तित्थयरस्स पायमले करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु
वनस्थित
जीवानां एवं वयासी-णायमेयं अरहा! विण्णायमेयं अरहा! परिणायमेयं अरहा! सुयमेयं अरहा! अणुहूयमेयं अरहा!
भयं, शकेजे अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वेऽवि अगंतबलिया अणंतवीरिया अणंत-मन्द्रस्य चि. पुरिसक्कारपरकमा हवंति-त्ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नियअवराहं खमावेइ ।।०६५॥
कम्पकारणछाया-यस्मिन् समये च खलु मेरुः कम्पितुमारब्धः, तस्मिन् समये च खलु पृथ्वी कम्पिता,
व परिज्ञानं, समुद्रः क्षुब्धः, शिखराणि पतितुमारब्धानि। तेषां सकलजगज्जीवजातहृदयविदारको भयभैरवो महान् शब्दः क्षामणं च ।
मूल का अर्थ--'जं समयं च णं' इत्यादि। जिस समय मेरु पर्वत काँपने लगा, उस समय निश्चय ही सारी पृथ्वी काप उठी, समुद्र क्षुब्ध हो गया, शिखर गिरने लगे, समस्त संसार के जीवों के हृदय को विदारण करने वाला महान् भयंकर नाद हुआ। तीनों लोक में बड़ा कोलाहल हो
॥५१॥ भूजन। म 'जं समयं च णं' याह.२ समये सुभे ५ ४पन शरु यु त समये मामी પૃથ્વી કંપવા લાગી. સમુદ્રો ખળભળી ઉઠડ્યાં. શિખરો ઉપરા-ઉપરી પડવા મંડયાં. સમસ્ત સંસારી જીના હૃદયને ભેદી નાખે તે દારુણ અવાજ થયે. ત્રણે લોકમાં કે લાહલ મચી ગયે. લકે ડરના માર્યા ભયભીત થવા લાગ્યાં.
सन्ता, क्रोध,
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥५२॥
瑜
समुद्भूतः । त्रिभुवने महान् कोलाहलो जातः । लोका भयभीता जाता: । सर्वजन्तवो भयाऽऽकुलाः स्वक— स्वकस्थानात् निःसृत्य 'कोऽस्माकं त्रायको भविष्यति' - इति कृत्वा शरणमन्वेषयितुमित्र यत्र तत्र पलायितुमारब्धाः । सर्वे देवा देव्यश्च भयोद्विग्नमानसा जाताः ।
ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराज एवं चिन्तयति-यत् खलु अयं विशालो मेरुरस्य कमलादपि कोमलस्य बालकस्य प्रभोरुपरि पतिष्यति, ततोऽस्य वालकस्य का दशा भविष्यति, अस्य बालकस्य अम्बापित्रोः समीपे कथं गमिष्यामि ? किं कथयिष्यामि ? इति कृत्वा शक्रेन्द्रः आर्त्तध्यानोपगतो ध्यायति । ततः 'केन एवं कृत ' -मिति कृत्वा शक्रो देवेन्द्रो देवरान आशुरुतो मिसमिसायमानः कोपाग्निना संज्वलितः अवधिं प्रयुङ्क्ते । ततः खलु अवधिना
गया। लोग डर गये । सब प्राणी भयसे व्याकुल होकर, अपने-अपने स्थान से निकल कर 'कौन हमारा त्राण करेगा' ऐसा सोच कर शरण खोजने के लिए इधर-उधर भागने लगे, और सभी देवी-देवताओं का चित्त भी भय से काँपने लगा।
तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने इस प्रकार विचार किया- 'अगर यह विशाल मेरु पर्वत, कमल से भी कोमल, बालवय-वाले इन प्रभु के ऊपर गिर जायगा तो इनकी क्या दशा होगी ? कैसे मैं इनके मातापिता के पास जाऊँगा ? क्या कहूँगा ?" । इस तरह विचार करके शक्रेन्द्र आर्त्तध्यान से युक्त होकर चिन्ता करने लगे ।
फिर 'किसने ऐसा किया है ?" - यह सोच कर शक्र देवेन्द्र देवराज को क्रोध आगया । क्रोध की પ્રાણીઓ આામ તેમ દોડધામ કરવા લાગ્યાં. સર્વાં જીવજંતુ ભયથી આકુલ-વ્યાકુલ થઇ રહ્યાં. ત્રાહિ ત્રાહિ’ના પેાકારા થવા લાગ્યા. શરણુ શેાધવા આમ તેમ મથામણ કરી રહ્યાં. સવ દેવ-દેવીઓનાં મન પણ ભયથી ધ્રુજી ઉઠયાં. આ વખતે શક્રેન્દ્રને આ પ્રમણે મનેાગત ભાવેા ઉઠી આવ્યાં કે, કદાચ આવો મહાન-વિશાલ અને ઊંચા મેરુ પર્યંત, આ કામલ શરીરવાળા ખાળ પ્રભુ ઉપર ગબડી પડશે તા, તેમની શું દશા થશે ?, હુ તેમની માતા પાસે શું માડુ' લઈને જઈશ ?, તેમને કઈ હકીકતથી વાકેફ કરીશ ?, આવા પ્રકારના વિચારાની પરપરાને લીધે તેનુ મન ઉગ્રતાને પામ્યું', ને તે આત`ધ્યાન કરવા લાગ્યેા.
આવા ભાવો મનમાં આવતાં, તેમનામાં તીવ્ર ક્રોધાગ્નિ સળગી ઉઠયેા. ક્રોધની જવાળાઓને લીધે, આખુ
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कल्प
मञ्जरी
टीका
मेरुकम्प
नेन त्रिभु
वनस्थित
जीवानां
भयं, शक्रे
न्द्रस्य
चिन्ता,
क्रोधः,
कम्पकारपरिज्ञानं
क्षामणं च ।
॥५२॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥५३॥
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निजदोषं विज्ञाय भगवतस्तीर्थकरस्य पादमूले करतलपरिगृहीतं शिरस्याऽवर्त मस्तकें अञ्जलिं कृत्वा एवमेवादीव्-ज्ञातमेतत् अर्हन् ! विज्ञातमेतत् अर्हन् ! परिज्ञातमेतत् अर्हन् ! श्रुतमेतत् अर्हन् । अनुभूतमेतत् अर्हन् ! ये अतीताः, ये च प्रत्युत्पन्नाः, ये च आगमिष्यन्तोऽर्हन्तो भगवन्तस्ते सर्वेऽपि अनन्तबलिका अनन्तवीर्या अनन्तपुरुषकारपराक्रमा भवन्ति' इति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा निजापराधं क्षमयति । ० ६५ ॥ टीका - ' जं समयं च णं ' इत्यादि । यस्मिन् समये च खलु मेरुः कम्पितुम् आरब्धः, तस्मिन् समये अग्नि से वह प्रज्वलित हो गये । उनने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। तब अवधिज्ञान से अपना ही दोष जान कर भगवान् तीर्थकर के चरण-मूल में दोनों हाथ जोड़ कर और मस्तक पर आवर्स एवं अंजलि करके वह इस प्रकार बोले- 'हे भगवन् ! मैंने जाना है, हे भगवन् ! मैंने अच्छी तरह जाना है, हे भगवन् ! मैंने खूब अच्छी तरह जाना है, हे भगवन्! मैंने सुना है, हे भगवन्! मैंने अनुभव भी कर लिया है, कि जो अन्त भगवन् aata काल में हो चुके हैं, जो अर्हन्त भगवान् वर्त्तमान में हैं, और जो अर्हन्त भगवान् भविष्य में होंगे, वे सभी अनन्तबली, अनन्तवीर्यवान्, अनन्त पुरुषकार - पराक्रम के धनी होते हैं।' इस प्रकार बोल कर उनने वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना - नमस्कार करके अपने अपराध को खमाया ।। ०६५ ।। टीका का अर्थ - 'जं समयं च णं' इत्यादि । जिस समय सुमेरु पर्वत कम्पायमान हुआ, उस समय सारी की सारी पृथ्वी काँप उठी। समुद्र क्षुब्ध हो गया। पर्वतों के शिखर गिरने लगे । कापती पृथ्वी,
શરીર બળવા લાગ્યું. બળતરા થતાં તેણે અવિધજ્ઞાનના ઉપયાગ મૂક્યા, તેમાં તેમને સ` હકીકત વિદિત થઈ, ને પોતાના દોષ જણાતાં, બે હાથ જોડી, માથે અંજલી ધરી, ભગવાન પાસે ગળગળા-હૃદયે ખેલવા લાગ્યા કે “ કે ભગવન્ત! હું સ* જાણી ચુકયા, સારી રીતે મને સવ' સમજાયું, મેં સાંભળ્યુ' છે અને અત્યારે અનુભવ પણ કરી લીધા છે કે અતીત, વર્તમાન અને ભાવી કાળના અહંન્ત ભગવાનો, અનંત વીર્યવાન, અનત પુરુષાકારના ધણી, અને અત'તપરાક્રમી હેાય છે. આવા પ્રકારનું કથન નમ્રભાવે પ્રગટ કરી, શક્રેન્દ્રે ભગવાનને વંદન-નમસ્કાર કરી, થયેલ અપરાધની માફી માગી. (સૂ૦ ૬૫)
अर्थ-जं समयं च णं' इत्याहि भेरु पर्वत
बेोउने भवरी दे तेवी होवाथी, ते स भार्ड, पडोजा भने याधमां સપૂર્ણ રીતે વિસ્તૃત છે, આથી તેના કપનના સ્પશ ત્રણે લેકમાં અનુભવાયા. ''પનના લીધે, ધરતી પણ ધણુ
SELECT
कल्पे
मञ्जरी
टीका
मेरुकम्प - नेन त्रिभु
वनस्थित
जीवानां
भयं,
शक्रेन्द्रस्य
चिन्ता,
क्रोधः,
कम्पकारणपरिज्ञानं
क्षामणं च ।
॥५३॥
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Sat च खलु पृथिवी कम्पिताऽभूत् , समुद्रः क्षुब्योऽभूत्, शिखराणि-गिरिशृङ्गाणि पतितुम् आरब्धानि । तेषां कम्पो
मुखपृथिवी-क्षोभोन्मुखसमुद्र-पतनोन्मुखशिखराणां सकलजगज्जीवनातहृदयविदारकः सर्वभुवनस्थमाणिगणहृदयश्रीकल्प- भेदनकारकः भयभैरवः भयङ्करः महान् दिग्व्यापकः शब्दः समुद्भूतः समुत्मनः। त्रिभुवने महान उच्चैः कोला
। हल: कलकलो जातः । लोकाः भयभीताः भययुक्ता जाताः। सर्वजन्तवः सकलपाणिनः भयाकुलाः भयोद्विग्नाः ॥५४॥ सन्तः स्वकस्वकस्थानात-निजनिजस्थानात निःमृत्य-निर्गत्य "काको जनः अस्माकंत्रायका रक्षको भविष्यति?"
इति कृत्वा इति हेतोः शरणंरक्षकम् अन्वेषयितुम् इव यत्र तत्र-इतस्ततः पलायितुम् आरब्धाः सर्वे देवा देव्यथापि भयोद्विग्नमानसाः भयत्रस्तचित्ता जाता।
। ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराज एवं-अक्ष्यमाणप्रकारं चिन्तयति-विचारयति । शक्रचिन्तनीयमाह
कल्पमञ्जरी टोका
मा मेरुकम्पने
न त्रिभुवनस्थित जीवानां भयं,
क्षुब्ध समुद्र और पतनोन्मु व गिरि-शिखरों का, तीन लोक के समस्त प्राणियों के हृदय को भेदने वाला, भयंकर और सब दिशाओं में व्यापी शब्द हुआ। तीनों लोकों में तीन कोलाहल फैल गया। लोग भयभीत हो उठे। समस्त जीव भय से व्याकुल होते हुए अपने-अपने स्थान से बाहर निकल कर 'कौन हमारा रक्षक होगा ऐसा सोचकर शरण खोजने के लिए इधर-उधर भागने लगे। तथा सभी देवी-देवताओं का चित्त भी भय से व्याकुल हो गया।
तव शक्र देवेन्द्र देवराजने इस प्रकार सोचा-'जो यह महान् मेरुपर्वत कमल से भी कोमल इन
चिन्ता,
क्रोधः, कम्पकारणपरिज्ञानं, क्षामणंच।
ધણી ઉઠી, ધરતી પધણાતાં, સમુદ્રનું પાઠ્ઠી ઉછળી આવ્યું, ને આ ઉછાળાને લીધે, ચારે બાજુ જળ જળાકાર થઈ રહ્યું.
ઉકાપાતથી, ધરતીના આધારે કહેલા નાના-મોટા શિખરે પણ સ્વસ્થાનેથી યુત થતાં જણાવા લાગ્યા, ને ઘરબાર–મેડી–મહેલાત-હવેલીએ સવે પડીને પાદર થયાં. માનવ, પશુ, પ્રાણી દુઃખના લીધે અથાગ શોક-સંતાપને પામે છે, શરણ અને આશ્રય વિનાના થઈ જવાથી, કોલાહલ કરી મૂકે છે. માનવેને આશ્રય સ્થાનો તે, ચત અને અસ્થિર છે, તે તે કંપ લાગતાં પડી જાય છે. પણ દેના આશ્રય સ્થાને-દેવાલય,
વિમાને, ક્રીડાંગણે સર્વે અચલ અને સ્થિર છે, છતાં તેમને પણ કંપને સ્પર્શ થતાં, પડવાને ભય ઉપસ્થિત થયે
म ने - Ri. Jain Educationsansational भाषी स्थिति सामा व्यापारी ती. त्यान्द्रमा मनमा ५ त्रि-विचित्र त 841 साया.
||५४||
Se
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भीकल्पसूत्रे
मञ्जरी
WHERERANASE
“यत् खलु अयम् विशालो-महान् मेरुः अस्य=पुरोवर्तिनः कमलादपि कमलपुष्पापेक्षयाऽपि कोमलस्य मुकुमारस्य । बालकस्य बालवयोवर्तिनः प्रभोरुपरि पतिष्यति, ततः अस्य वालकस्य का दशा परिस्थितिभविष्यति ?, अहं च अस्य बालकस्य अम्बापित्रोः समीपे कथं केन प्रकारेण गमिष्यामि ? तथा किं कथयिष्यामि ? इति कृत्वा इति
कल्पचिन्तयित्वा शक्रन्द्र आर्तध्यानोपगतः आर्तध्यानावस्थितः सन् ध्यायति-चिन्तयति। ततः ‘केन एवं कृतम् ईदश उत्पातः कृतः' इति कृत्वा-इति मनसि चिन्तयित्वा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः आशुरुतः अतिकुपितः मिसमिसायमानः
जाज्वल्यमानः कोपाग्निना-क्रोधरूपवहिना संज्वलितः मातः सन् अवधिम् अवधिज्ञानं प्रयुङ्क्ते । ततः अवधिज्ञानोपयोगानन्तरं खलु अवधिना अवधिज्ञानद्वारा निजदोषं विज्ञाय भगवतः तीर्थकरस्य पादमूले-चरणतले करतलपरिगृहीतं हस्ततलभृतं शिरस्यावत्त-शिरसि आवर्तः पदक्षिणतया भ्रामपं यस्य तं तथाविधम् अञ्जलि इस्त- ई मेरुकम्पनेद्वयसम्पुटं मस्तकेशी हत्वा-संस्थाप्य एवं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादी-उक्तवान् , तद्वक्तव्यमाह-'णायमेयं' न त्रिभुवन
स्थितजीबालवयवाले प्रभु के ऊपर गिरे तो इनकी क्या दशा होगी ?, मैं इनके माता-पिता के समीप किस प्रकार जाऊँगा वानां भयं, और क्या कहूँगा ?। इस प्रकार विचार करके शक्रन्द्र आर्तध्यान-युक्त होकर चिन्ता में पड़ गये । तदनन्तर 'किसने
शक्रेन्द्रस्य ऐसा किया है-इस प्रकार का उत्पात मचाने वाला कौन है ?' यह सोचकर शक्र देवेन्द्र देवराज अतिकुपित हुए,
चिन्ता,
Ey क्रोधः, क्रोध की आग से प्रज्वलित हो गये । यह उत्पात करने वाला कौन है-यह जानने के लिये उन्होंने अवधिज्ञान
का कम्पकारणमें उपयोग लगाया, और अवधिज्ञान से अपना ही दोष जानकर भगवान् तीर्थकर के चरणों में शिर झुका कर, दोनों परिज्ञान, हाथ जोड़ कर मस्तक पर आवत्तयुक्त अंजलि करके, आगे कहे अनुसार कहा-हे भगवान् ! सुमेरु के क्षामणं च । કદાચ મેરુ પર્વતના શિખરને તે હું આડો હાથ દઇ ભગવાનના કમળ-બાળશરીર પર પડતાં, અટકાવી હતી
UA, ५ मे पति 10 ५sti हु, मानने वीत. भयावी Asla?, ने तमनी भाताने विमय शुसवाण भापीस?................. ....
આવા વિચારોથી તેમનું મન ઘેરાઈ ગયું, બુદ્ધિ અને વિચારશક્તિ કુંઠિત થઈ ગઈ, ને મૂઢ જેવા થઇ ગયા. અચાનક પિતાની દિવ્યશક્તિ “અવધિજ્ઞાનને વિચાર સુરી આવ્યો, ને તે શિકિતનો ક્ષણ એકમાં ઉપયોગ
કરતાં જણાવ્યું કે, આ સર્વના દુઃખને કર્તા હું છું. કારણ કે, અરિહર્તની અનંત શકિતમાં મારે વિશ્વાસ ડગમગી - ઉર્યો, તેથી જે ભગવાનની સહનશકિતમાં મને અપૂર્ણતા ભાસી. મને વિશ્વાસ પૂર્ણ કરવા સારું ભગવાને સ્વયં પ્રેરિત
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श्रीकल्पसूत्रे
॥५६॥
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इत्यादिना । हे अन् ! = हे जिन ! एतत् = मेरुकम्पनादिनिमित्तं ज्ञातं मया, हे अर्हन् ! एतद् विज्ञातं विशेषेण ज्ञातम्, हे अर्हन् ! एतत् परिज्ञातम् - परितः = सर्वथा ज्ञातम्, हे अर्हन् ! एतत् श्रुतम् = आकर्णितम्, हे अर्हन् ! एतत् अनुभूतं संप्रत्येव अनुभवविषयीकृतं यद् ये अर्हन्तः अतीताः = भूतकालीनाः, ये च अन्तः प्रत्युत्पन्नाः = वर्तमानाः, ये च अर्हन्तः आगमिष्यन्तः = भविष्यन्तस्ते अर्हन्तो भगवन्तः सर्वेऽपि अनन्तत्र लिकाः = अनन्तबलसम्पन्नाः अनन्तवीर्याः = अनन्तशक्तिसम्पन्ना अनन्तात्मबला वा, तथा - अनन्त पुरुषकारपराक्रमा भवन्ति - इति कृत्वा=इत्युत्वा अर्हन्तं भगवन्तं चरमतीर्थंकरं शक्रो वन्दते नमस्यति च वन्दित्वा नमस्यित्वा च निजापराधं= स्वापराधं क्षमयति ॥०६५ ||
मूलम् - तरणं सव्वे इंदा हरिस - बस - विसप्पमाण - हियया सन्विड्ढीए जाव महया रवेणं अच्चुदाईकमेण भगव तित्थयरं तित्थयराभिसेएणं अभिसिंर्विसु ।
तर पं सर्किदेण अणुत्रममहावीरया चंचियत्तणेण कंपियमेरुत्तणेण 'भीमभयभेरवं उरालं अवेलयाइयं कापने आदि का कारण मैं जान गया, हे भगवान् ! अच्छी तरह जान गया, और हे भगवान् ! पूरी तरह जान गया । हे भगवान् ! मैंने सुना है, हे भगवान ! मैंने अनुभव भी किया है कि जो अर्हन्त भगवन्त भूतकाल में हो चुके हैं, जो अर्हन्त भगवन्त वर्त्तमान कालमें हैं, और जो अर्हन्त भगवन्त भविष्य में होंगे, वे सभी अर्हन्त भगवान् शरीरसम्बन्धी अनन्त बल से सम्पन्न होते हैं, आत्मसम्बन्धी अनन्त शक्ति से युक्त होते हैं, तथा अनन्त पुरुषकारपराक्रम से युक्त होते हैं। ऐसा कह कर शक्र अन्त भगवान् को वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं, वन्दना और नमस्कार करके अपना अपराध खमाते हैं || ६५॥
થઈને આ ઘડીભરના તાંડવનૃત્યમાં પેાતાની વીરતા દાખવી.
પોતાના જ દોષતુ આરાણુ કરી, ગળગળે હૈયે ભગવાન સામુ જોઈ, થયેલ અપરાધની માફી માગી, રષમુક્ત થયા. આમાં શક્રેન્દ્રના વિચારદેષ નથી, તેમજ તેની શ્રદ્ધામાં અપૂણુતા હતી તેમ પણ ન હતું; પરંતુ ભક્તા, આવાજ કોમળ હૈયાનાં ઘડાયેલાં હોય છે, તેથી પાતાની અપેક્ષાએ, ભગવાનના દુ:ખની ગણત્રી કરે છે, અને તે દુઃખના કપ જાતે અનુભવે છે, તે અનુભવતાં પ્રતિકાર કરવાના રસ્તા પણ ભાળી કાઢે છે. આ છે ભગવાનના વાત્સલ્યભાવવાળા ભક્તના શદ્ધ હ્રદયે ! (સ૦ ૯૫)
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कल्प
मञ्जरी टीका
मेरुकम्पने
न त्रिभुवनस्थित जी
वानां भयं, शक्रेन्द्रस्य
चिन्ता,
क्रोधः,
कम्पकारणपरिज्ञानं,
क्षामणंच ।
॥५६॥
Phot.
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श्रीकल्पसूत्रे ॥५७॥
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मणिगणसमवं अत्यधामं सिरिमहावीरेति नामं कयं । तर णं सके देविंदे देवराया पंच सकरूवे विउच्व । तस्थ एगे सके भयवं तिस्थयरं करयलसंपुडेणं गिड, एगे सके पिओ आयवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेंति, एगे सके वज्जपाणी पुरंदरे पुरओ पहा ।
तर णं से सके देविंदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहिं भवणवा - वाणमंतरजोइसिय- वेमाणिएहि देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्विदीए जात्र महया रवेणं ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरे जेणेत्र जम्मणभवणे जेणेत्र य तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता भगवं तिस्थयरं माऊए पासे ठवेइ, ठवित्ता तिस्थयरमाऊए श्रसावर्णि निदं पडिसादरइ । एवं भगवओ तित्थरस्स जम्मणमहोच्छवं करिय सब्वे इंदा सव्वे देवा य देवीओ य जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया |०६६ ||
छाया—ततः खलु सर्वे इन्द्राः हर्षवशविसर्पद्याः सर्वदर्घा यावत् महता रवेण अच्युतेन्द्रादिक्रमेण भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थंकराभिषेकेण अभ्यषिश्चन् ।
ततः खलु शक्रेन्द्रेण अनुपममहावीरताचञ्चितत्वेन कम्पितमेरुत्वेन 'भीमभयभैरवम् उदारम् अचेल -
मूल का अर्थ - 'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् हर्ष से विकसित चित्तवाले होकर सब इन्द्रोंने पूरे ठाठ के साथ यावत् महान् घोष करते हुए, अच्युतेन्द्र आदि के क्रमसे भगवान् तीर्थंकर का अभिषेक किया ।
तत्पश्चात् शक्रेन्द्रने, अनुपम महावीरता से युक्त होने के कारण, मेरु पर्वत को कम्पित कर देने
भूजनार्थ- 'तपणं' त्याहि दुषथी विकसित यहने तमाम इन्द्रो, पूरा हाउभाउ सहित, महान घोषा पुरी, ने ભગવાનને અભિષેક કર્યો. આ અભિષેકની ક્રિયા અચ્યુતેન્દ્ર શરુ કરી, અને ક્રમપ્રમાણે ઉત્તરની શ્રેણીના ઇન્દ્રો વડે, પૂરી કરવામાં આવી.
ભગવાનનું અનુપમ બળ જોઈને, ભવિષ્યમાં પણ દારુણ દુ:ખાના તે સહનશીલતાપૂર્વક સામના કરશે, તેમજ ઉપસર્ગોની અવગણના કરીને પણ, પેાતાનુ' ધ્યેય હાંસલ કરશે, એવી નીડરતા અને મક્કમતા બાળપણુથી જ
波賞賞賞員狂猛海
鮮餐
कल्प
मञ्जरो टीका
अच्युतेन्द्रादिकृत भग
वदभिषेकः,
द्र भगवन्नाम
करणं, सर्वदेवानुगत
शक्रेन्द्रस्य
त्रिशला -
पार्श्व
भगव
स्स्थापनं, सर्वदेवानां स्वस्वस्था
न गमनम् ।
॥५७॥
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श्रीकल्प
र तादिकं परिषहं सहिष्यते' इति कृत्वा च भगवतो गीर्वाणगगसमक्षम् अर्थधाम श्रीमहावीरेति नाम कृतम् ।।
ततः खलु शक्रो देवेन्द्रो देवराजः पश्च शक्ररूपाणि विकरोति । तत्र एकः शक्रः तीर्थकरं करतलसम्पुटेन गृह्णाति, एकः शक्रः पृष्ठतः आतपत्रं धरति, द्वौ शक्रौ उभयपार्ने चामरोत्क्षेपं कुरुतः, एकः शक्रो वज्रपाणिः पुरन्दरः पुरतः प्रवर्तते । ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः चतुरशीत्या सामानिकसाहस्रीभिः यावत् अन्यैः भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिपिक-वमानिकैः दे वैश्च देवीभिश्च सार्द्ध संपरितः सर्वद्धर्या यावत् महता रवेण तया उत्कृष्टया यावत् यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव जन्मभवनं यत्रैव च तीर्थकरमाता
कल्पमञ्जरी टीका
!!५८।
के कारण, तथा 'यह भगवान, भविष्यत्-काल में घोर भय से भयानक अचेलता आदि बडे-बडे परीषहों को सहन करेंगे यह सोचकर, देवों के समूह के सामने भगवान् का गुणनिष्पन्न 'श्रीमहावीर' ऐसा नाम रक्खा।
तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराजने पाँच शक के रूपों की विकुर्वणा की। एक शक्रने भगवान तीर्थकर को दोनों हाथों में लिया, एक शक्रने पीछे से छत्र किया, दो शक दोनों तरफ से चामर बीजने लगे, और एक पुरन्दर शक हाथ में वज्र लेकर आगे-आगे चलने लगे। तब वह शक्र देवेन्द्र देवराज चौराशी हजार सामानिक देवों के साथ, यावत् अन्य भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों और देवियों के साथ, उन सब से घिरे हुए, सब प्रकारकी ऋद्धि सहित, यावत् महान् घोष के साथ, उत्कृष्ट
अच्युतेन्द्रादिकृतभगया वद्भिषेक, बा शक्रेन्द्रस्य हे भगवन्नामकरणं, सर्व देवानुगतशक्रेन्द्रस्य त्रिशला
पार्वे
भगवस्थापन, सर्वदेवानां स्वस्वस्थानगमनम् .
પારખી લઈને, શકુન્દ્ર, તેમનું નામ દેના અગણિત સમૂહની વચ્ચે, ગુણનિષ્પન્ન “મહાવીર' એવું રાખ્યું.
ઉત્સવની ક્રિયા સંપૂર્ણ થયા બાદ, શક્રેન્દ્ર, પિતાના દેવશરીરની વિક્વણુ કરીને પાંચ કેન્દ્રો સર્યો. એક શકે, ભગવાનને પેતાની હથેળીમાં ઉપાડયા. બીજાએ ભગવાનના મસ્તક ઉપર છત્ર ધારણ કર્યું. ત્રીજાએ અને ચેથાએ બન્ને ખભા ઉપર ચામર વીંજવા માંડયા. પાંચમાં કેન્દ્ર હાથમાં વજ લઈ, ભગવાનની આગળ ચાલવા લાગ્યા.
આ પ્રમાણેના સરઘસ સાથે, શક્રેન્દ્રની સેવામાં, ચૌરાસી હજાર સામાનિક દે હતા. તથા ભવનપતિ,
વ્યન્તર, તિષિક, અને વૈમાનિક દે પિતાની સર્વોત્તમ રિદ્ધિ સાથે હાજર હતા. તે સર્વે આ સમારોહમાં JainEducatSER साथ यासतात.
॥५८॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थकरं मातुः पार्श्वे स्थापयति, स्थापयित्वा तीर्थकरमातुः अवस्वापनी निद्रां प्रतिसंहरति । एवं भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहोत्सवं कृत्वा सर्वे इन्द्राः सर्वे देवाश्च देव्यश्च यस्यामेव दिशि प्रादुर्भूताः तामेव दिशं प्रतिगताः ॥मू० ६६||
कल्पटीका-'तए णं सव्वे इंदा' इत्यादि। ततः शक्रेन्द्रस्य निजापराधक्षमणानन्तरं खलु, सर्वे इन्द्राः हर्षवशविसर्पद्धृदयाः आनन्दोत्फुल्लमनसः सन्तः सर्वद्धर्या. यावत्पदेन 'सवद्युत्या सर्वबलेन सर्वसमुदयेन सर्वादरेण टीका सर्वविभूत्या सर्वसंभ्रमेण सर्वाऽऽरोहैः सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूषया सर्वदिव्यत्रुटितनिनादेन महत्या ऋद्धया ।
अच्युतेन्द्रादिव्य गति से यावत् जहाँ भगवान् तीर्थकर का जन्म नगर था, जहाँ जन्म-भवन था, और जहाँ तीर्थकर मादिकृतभगकी माता थीं, वहीं आये। आकर भगवान् तीर्थकर को माता के पास स्थापित कर दिया। स्थापित करके सोए वदभिषेकः, तीर्थकर की माता की अवस्वापनी निद्रा को दूर कर दिया।
शक्रेन्द्रस्य .. इस प्रकार भगवान् तीर्थकर का जन्ममहोत्सव करके सभी इन्द्र, सभी देव, और सभी देविया
भगवन्नामजिस दिशा से आये थे उसी दिशा में चले गये ।।०६६।।
करणं, सर्व
देवानुगतटीका का अर्थ-'तए णं' इत्यादि। इन्द्र के अपना अपराध खमा लेने के बाद, सभी इन्द्रोंने, हर्षवश-विकसित-चित्त- शकेन्द्रस्य वाले होकर, सब ऋद्धि से, सब धुति से, सब बल से, सब समुदय से, सब आदर से, सर्व विभूति से, त्रिशलासंभ्रम (त्वरा) से, समस्त अद्भुत-दिव्य वाद्यों के घोष से, अच्युतेन्द्र आदि के क्रम से भगवान् तीर्थकर पावें का अभिषेक किया।
भगव
स्थापन, ઘોષણા અને દિવ્યનાદ કરતા કરતા, જ્યાં જન્મનગર હતું, જ્યાં જન્મભવન હતું, જ્યાં માતા નિદ્રાધીન કે
सर्वदेवानां
स्वस्वस्थाથયેલાં હતાં તે સ્થાને તેઓ બધા આવી પહોંચ્યા, ને ભગવાનને માતાની ગોદમાં મૂક્યા. ત્યારબાદ માતાને આવ
नगमनम् . રણ કરી રહેલા અવસ્થાપની નિદ્રાને દૂર કરી સર્વ દેવ-દેવીઓ જે સ્થાનેથી આવ્યા હતા, તે સ્થાને જવા રવાના च्या. (२०६६)
॥५९॥ न म -'तपणं त्या न्यारे शहेन्द्र, मासमय घटनामाथी विभुत थया, नये माशातनानी भाटे પ્રભુની માફી માગી, ત્યારે જેમ દેણદાર અણુમાંથી મુક્ત થાય ત્યારે છેલ્લો શાંતિને શ્વાસ ખેંચે છે, તેમ તેનું હૃદય ज स थ भयु, ने अपनी भा५४ प्रतित-पहने GAL RA...
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श्रीकल्पसूत्रे
॥६०॥
महता हृदयोल्लासेन ” - इत्येषां सङ्ग्रहः, तथा - महता रवेण 'सर्वद्धर्चा' इत्यारभ्य 'रवेणे' - त्यन्तानां व्याख्या पूर्व गता । इत्थम् अच्युतेन्द्रादिक्रमेण भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थकराभिषेकेण अभ्यषिश्वन्स्नपितवन्तः । ततः = तीर्थकराभिषेकानन्तरं शक्रेन्द्रेण अनुपममहावीरताचश्चितत्वेन, सर्वातिशायिपराक्रमयुक्तत्वेन, कम्पितमेरुत्वेन=स्वाङ्गुष्ठस्पर्शेन मेरुपर्वतस्य कम्पनया च, तथा - भीमभय भैरवं घोरभयेन भयङ्करम्, उदारम् = विशालम्, अचेलतादिकं परिषदं सहिष्यते - इति कृत्वा = इति ज्ञात्वा भगवतस्तीर्थकरस्य गीर्वाणगण समक्षं - देव
तीर्थंकराभिषेक के पश्चात् शक्रेन्द्र ने, भगवान् को असाधारण महावीरता से युक्त जान कर, सर्वोकुष्ट पराक्रम से युक्त होने के कारण तथा अपने अंगूठे के स्पर्शमात्र से मेरु पर्वत को कँपा देने के कारण और भविष्य में यह घोर भय से भयंकर, विशाल अचेलता आदि परीपहों को सहन करेंगे, ऐसा जान
આ બધું ક્ષણવારમાં બની ગયું, ને ક ંપ વગેરે અશ્ય થયા, ત્યારે દેવ દેવીઓએ પણ ખુશીના દમ ખેચેા અને અંગે અંગ તેને શાતા વળી. ઘડી ભર પહેલાં તા સર્વેના જીવ તાળવે ચાંટી ગયા હતા, ને શું બન્યું ને શું ખનશે' તેની કાગારાળ કરી રહ્યા હતા, ને જન્મ-મરણની વચ્ચે જોલાં ખાઈ રહ્યા હતા, દરેકને ‘હુમાં ગયાં કે જશું' એવાજ ભય વ્યાપી રહ્યો હતા, ત્યાં તે સપાટામાં, કાળનું અવળદોમ ચક્કર ફરી ગયું. સર્વ વેદનાએ નાશ પામી. આક્રંદને ઠેકાણે સતષ અને આનંદ છવાઇ ગયાં. ભયનું ભૂંગળ સલામતીના રૂપમાં ફેરવાયુ, ને લેાકના વિષે જીવ-જંતુએએ નિરાંત અનુભવી.
ભય દૂર થતાં દેવ-દેવીઓએ આનંદના ઉભરા ઠાલવ્યેા. દરેક પ્રકારની જે જે સામગ્રીઓ, જુદે જુદે સ્થ ળાએથી, ભેગી કરી હતી, તે સના ઉપયાગ, ભગવાનના અભિષેકમાં કર્યો.
प्रेम गार्गेय मुनिमे, संयति रामने "अभओ पत्थिवा तुज्झं" हे शब्न् ! तु लयभुक्त छे. - साम ને રાજા ભયથી મુકત થાતાં અભયદાનનું મહાત્મ્ય સમજ્યે, તેમ દેવાને પણ, ‘અભયદાન' ની મહત્તાને પૂરેપૂરા ખ્યાલ આવ્યા ને આ ભગવાનની વીરતા અતૂટ છે તેવું તેમને ભાન થયું. આવું બળ, વી અને પરાક્રમ પણ માનવ દેહામાં હોય છે. તેમ ખ્યાલ આવતાં તેઓના ગવ ગળવા માંડયેા, ને પૂર્ણ ભકિત પ્રદર્શિત કરીને, ભગવાનના અભિષેક કર્યો.
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ભય કેવી રીતે ઉત્પન્ન થયા તેનુ ખ્યાન જ્યારે શક્રેન્દ્રે આપ્યું, ત્યારે દેવદેવીએ આશ્ચય'માં ગરકાવ થઈ
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कल्प
मञ्जरी टीका
अच्युतेन्द्रादिकृतभगवदभिषेकः,
शक्रेन्द्रस्य
भगवन्नाम
करणं, सर्व
देवानुगतशक्रेन्द्रस्य
त्रिशला -
पार्श्व
भगव
स्थापनं,
सर्वदेवानां
स्वस्वस्था
नगमनम् .
॥६०॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥६ ॥
वृन्दसमक्षे अर्थधाम सार्थकं श्रीमहावीरेति नाम कृतम् ।
ततःचरमतीर्थकरस्य श्रीमहावीरेतिनामकरणानन्तरं, शक्रो देवेन्द्रो देवराजः पश्च शक्ररूपाणि विकरोति चक्रियशत्तयोत्पादयति, तत्र-पश्चानां शक्ररूपाणाम्मध्ये एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थकर-चरमतीर्थकरं श्रीमहावीरं करतलसम्पुटेन गृहाति, एकः शक्रः पृष्ठत आतपत्र-छत्रं धरति, द्वौ अक्रो उभयपाचवामदक्षिणपार्षद्वये चामरोत्क्षेप-चामरवीजनं कुरुतः। एकः अपरः-पञ्चमः शक्रो वज्रपाणिः वज्रहस्तः पुरन्दर इन्द्रः पुरतः अग्रे प्रवर्तते प्रचलति ।
ततः शक्रो देवेन्द्रो देवराजः चतुरशीत्या चतुरशीतिसंख्याभिः सामानिकसाहस्रीभिः सामानिकानां
कल्पमञ्जरी टीका
कर भगवान् का देवगणों के सामने 'श्रीमहावीर' ऐसा सार्थक नाम रक्खा।।
___ चरम तीर्थकर का 'श्रीमहावीर' ऐसा नाम रखने के पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराजने शक्र के पाँच रूपों की विकुर्वणा की पाँच रूप बनाये। उन पाँच शक्र के रूपों में से एक शक्रने भगवान् को अपने करसंपुट में लिया, दूसरे शक्रने पीछे से छत्र धारण किया, दो शो ने दाहिनी और बाई ओर चामर पीजना आरंभ किया। एक-पाचवा पुरन्दर इन्द्र हाथ में वज्र लेकर आगे-आगे चले।
तब देवेन्द्र देवराज शक्र चौरासी हजार सामानिक देवों के साथ, तेंतीस त्रायस्त्रिंश देवों के
र अच्युतेन्द्रा
दिकृतभगलिए वदभिषेकः, मई शक्रेन्द्रस्य
भावना करणं, सर्वदेवानुगतत्रिशला
शक्रेन्द्रस्य
पाचे भगव
स्थापन, सर्वदेवानां स्वस्वस्थानगमनम् .
ગયાં. અભિષેકની ક્રિયા પૂરી થતાં, મોટા સમુદાયની વચ્ચે “ભગવાનનું નામ “મહાવીર' રાખવામાં આવે છે.”એવી દિવ્ય ઘોષણા કરી શકેન્દ્ર સવને જાણ કરી, અને આ જાણ કરતાંની સાથે, ભગવાનના અતુલબળનું વિવરણ કરતા ગયા, અને “કંપ’ થવાના કારણે ખુલ્લા કરી, દરેકને સમજણ આપતા ગયા. - “બાળપણમાં જ પિતાના પરાક્રમને, આપણને પર બતાવ્યું, ને આ જ ભવમાં, પિતાના પૂર્વે કરેલ શુભાશુભ કર્મોને, વીરતાપૂર્વક સામનો કરી, ખુડદે કરી નાખશે, ને તે કર્મ ચકચૂર કરવામાં અનંત સહનશકિત ધારણ કરી, અને પ્રગટ કરી, સામે આવેલા ઉપસર્ગો અને પરીષહેને, આનંદથી વધાવી લેશે, માટે જ આ પ્રભનું નામ વાસ્તવિકરીતે ગુસંપન્ન “મહાવીર' હોવું જોઈએ”—એમ દઢતાપૂર્વક જાહેરાત થતાં તે “નામ” ને સર્વ દવેએ वधानी सीधु.
શકેન્દ્રની પાસે કેટલો દેવસમુદાય હતે તેનું વર્ણન કરતાં ટીકાકાર કહે છે કે ચારસી હજાર સામાન્ય
॥६॥
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national
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥६२॥
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देवानां सहस्रैः, 'यावत्' – पदेन " त्रयस्त्रिंशता त्रयस्त्रिंशकैः, चतुर्भिर्लोकपालैः, अष्टाभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः, तिसृभिः परिषद्भिः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, चतसृभिः चतुरशीत्याऽऽत्मरक्षदेवसाहस्रीभिः ( षट्त्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयेण)-इत्येषां सङ्ग्रहः, अन्यैः = तदितरैः भवनपतिव्यन्तरज्योतिषिकवैमानिकैः देवैः देवीभिश्व सार्द्धं=सह संपरिवृतः=युक्तः, सर्वद्वर्या 'यावत्' पदेन - 'सर्वद्युत्ये' -त्यादि 'महता हृदयोल्लासेने' -त्यन्तानां सङ्ग्रहः, स चात्रैव सूत्रे पूर्वकृतोऽवसेयः । महता - उच्चै रवेण = भेर्यादिशब्देन, तया=पूर्वोक्तया प्रसिद्धया वा उत्कृष्टया = उत्तमया, 'यावत्' - पदेन त्वरितया = उत्कण्ठावशाच्छीघ्रया, आन्तराभिप्रायतोऽप्येषा भवतीत्याह - चपलया = कायतोऽपि चञ्चलया, चण्डया = उग्रयाऽत्युत्कर्षयोगेन, सिंहया - सिंहसदृश्या तदाढर्यस्थैर्येण, उद्धतया = दर्पातिशयेन
साथ, चार लोकपालों के साथ, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों ( पटरानियों) के साथ, तीनों परिषदों के साथ, सात अनीकों के साथ, सात अनीकाधिपतियों के साथ, चार चौरासी हजार श्रात्मरक्षक देवों के साथ (अर्थात् तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देवों के साथ), और इनके अतिरिक्त भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों तथा देवियों के साथ, सर्वऋद्धिसहित, सर्वेद्युतिसहित. सर्वबलसहित, सर्वसमुदयसहित, सर्वादरसहित, सर्वविभूतिसहित, सर्वसंभ्रमसहित, सर्वसमारोहसहित, पुष्पसहित, सभी प्रकारके गंध, माल्य और अलङ्कार की शोभा से युक्त होकर, तथा दिव्य वाद्यों की ध्वनि से, महती ऋद्धि से, महान् मानसिक उल्लास से और भेरी आदि बाजों के महाध्वनि से युक्त होकर, उत्कृष्ट, स्वरित - उत्कंठा के कारण शीघ्रतावाली, आन्तरिक अभिप्राय से भी यह होती है इस कारण कहा है-चपला, अर्थात् काय से भी કક્ષાના દેવા હતા, તેત્રીશ ત્રાયસ્પ્રિંશ દેવા હતા, ચાર લેાકપાલ દેવા હતા, આઠ ગ્રમહિષીએ તેમના પરિવાર સાથે હતી, ત્રણ પરિષદે હતી, સાત અનીકાધિપતિએ (સેનાપતિએ) અને ચાાસી હજાર આત્મરક્ષક દેવા હતાં”, આ અંગત પરિવાર ઉપરાંત, મૂળ અર્થાંમાં દર્શાવ્યા મુજબ, ચાર જાતના દેવે, દેવીએ, ભવનપતિ વિગેરે પણ હાજર હતાં. આ જબરજસ્ત સમારોહ પૂણ રીતે દિવ્ય વાજીંત્રા આદિની સાથે સજ્જ થઈ, પૂણ્ રીતે શાભાયમાન થઇ, માનસિક ઉલ્લાસ અને ઉત્કંઠા ધારણ કરી, દૃઢતા-પૂર્ણાંક ભગવાનને લઇને પાછા આવવા લાગ્યા!
उपरेति समारोहमां हेव-देवीयोनी हारी हुती. ( १ ) अपा, (२) अंडा, (3) उथा, मने (४) न्या, આ ચાર ગતિએ દેવાને વરેલી જ હોય છે, ચપલા એટલે કાયથી ચંચળ, ચ'ડા એટલે ઉત્કષતાવાળી, ઉગ્રા એટલે
कल्प
मञ्जरी
टीका
अच्युतेन्द्रादिकृतभगवदभिषेकः,
भगवन्नाम्
करणं, सर्व
देवानुगतशक्रेन्द्रस्य
त्रिशला
पार्श्व
भगवरस्थापनं, सर्वदेवानां स्वस्वस्था
नगमनम् .
॥६२॥
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श्रीकल्प
॥६३॥
वेगवत्या, जयिन्या-जयशीलया, छेकया-निपुणया दिव्यया अदभुतया, देवगत्या'-इत्येषां सङ्ग्रहः। यत्रैव यस्निन्नेव प्रदेशे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं, तत्र यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थले जन्मभवनं जन्मगृहम् , तत्र यत्रैवयस्मिन्नेव स्थाने तीर्थकरमाता-श्रीवीरजननी त्रिशलाऽऽसीत् , तत्रैव-तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थकरं मातुः त्रिशलाख्यजनन्याः पार्श्व स्थापयति, स्थापयित्वा पूर्वदत्तां तीर्थंकरमातुः-श्रीवीरजमन्याः, अवस्वापनी-शयनकारणभूतां निद्रां प्रतिसंहरति अपनयति, एवं पूर्वप्रकारेण भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहोत्सवं कृत्वा सर्वे इन्द्राः सर्वे देवा देव्यश्च यस्यामेव दिशि प्रादुर्भूताः प्रकटिताः, तामेव दिशं प्रतिगताः प्रतिनिवृत्ताः ॥मू०६६।।
मूलम्-तए णं उदंचंतउत्सवो सिद्धत्थभूवो पच्चूसकालसमयंसि पमोय-कयंव-मोयग-पहुजम्मणसूयग-जायग- निउरंवं देणसेण्णपराभवमुण्णं करी। नागरियसमायवणमवि रायराय-कमला-विलास-हासवसु-सलिलाऽऽसारेहिं फारहिं दुक्ख-दावानल-समुज्जलंत-कीलकवल-पबल-मयानो विमोइऊण उभिदंताऽमंदा-नंदकंद-कुर-पूरं करी। कारागार-निगडिय-जणवारं च निगडायो मोई। उत्तरोत्तरोल्लसंतप्पवाहेण उस्साहेण तं खत्तियकुंडग्गाम नयरं सभितरबाहिरियं आसित्त-संमज्जिओ-वलितं संघाडग-तिग-चउक-चच्चर-चउम्मुह-महाचंचल, चण्डा-उत्कर्ष के योग से चंड, उग्रा-सिंह के समान दृढ़ता एवं स्थिरतावाली, दर्प की अधिकता के कारण उद्धत, जयिनी-जयशीका, निपुण तथा अद्भुत देवगति से जहाँ भगवान् तीर्थकर का जन्म-नगर था, और जिस जगह जन्मगृह था, तथा जहाँ तीर्थकर महावीर की माता थीं, उसी स्थान पर (शक) आये।
आकर भगवान् तीर्थकर को त्रिशला माता की बगल में स्थापित कर दिया। स्थापित करके पहले दी हुई माता त्रिशला की अवस्वापनी निद्रा को दूर कर दिया।
इस प्रकार भगवान् तीर्थकर का जन्ममहोत्सव करके सभी इन्द्र, सभी देव और सभी देवियाँ जिस दिशा से आये थे-प्रकट हुए थे, उसी दिशा में चले गये ॥सू०६६॥
अच्युतेन्द्राना दिकृत भगविभिषेकः,
शक्रेन्द्रस्य भगवन्नामभकरणं, सर्व
देवानुगतत्रिशला
शक्रन्द्रस्य
पाचे
भगवस्थापन, सर्वदेवानां स्वस्वस्थानगमनम्।
BHARA
॥६३॥
TAD
સિંહની સમાન દઢતા અને સ્થિરતાવાળી તથા દર્પવાળી, જયા એટલે જયશીલા, આ અદ્ભુત-દેવગતિએથી ગમન કરીને, દેવે જન્મભવનમાં પહોંચ્યા, ભગવાનને માતાની ગોદમાં સ્થાપિત કરી, પિતાની ફરજ યથાયોગ્ય બજાવાઈ ગઈ તેને આનંદ અને ઉત્સાહ લઈ, દેવો પિતપતાના સ્થાને જવા વિદાય થયા. (સૂ૦૬૬)
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे ॥६४॥
मञ्जरी
टीका
पह-पहेस सित्त-मुइ-संमट्ट-रत्यंतरा-वण-वीडियं मंचाइमंचकलियं नाणाविह-राग-भूसिय-ज्झयपडाग-मंडियं लाउल्लोइयजुत्तं गोसीस-सरस-रत्तचंदण-दर-दिन-पंचंगुलितलं उबचियचंदणकलसं चंदण-घड-मुकयतोरण-पडिदुवार-देसभागं आसत्तो-वसत्त-विउल-बट्ट-वग्धारिय-मल्लदाम-कलावं पंचवन-सरस-सुरहि-मुक्कपुप्फपुंजो-वयार-कलियं कालागुरु-पवर-कुंदरुक्क-तुरुक्क-धृव-डझंत-मघमघंत-गंधुद्ध्या -भिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूयं नड-नट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्टिय-वेलंबग-पग-कहग-पाढग-लासग-आरक्खग-लंख-तूणइल्लतुंचवीणिय-प्रणेगतालायरा-णुचरियं कारावेइ। जूअसहस्सं मुसलसहस्सं च आणाइत्ता एगओ ठवावेइ, जणं अस्सि महोच्छवंसि कोवि सगडे वा हले वा णो वाहउ, नो वा मुसलेहि किंचिवि खंडउति ।।मू०६७॥
छाया-ततः खलु उदश्चदुत्सवः सिद्धार्थभूपः प्रत्यूषकालसमये प्रमोद-कदम्ब-मोचक-प्रभुजन्मसूचक-याचक-निकुरम्बं दैन्य-सन्य-पराभव-शून्यमकरोत् । नागरिकसमाजवनमपि राजराज-कमला-विलास-हास-वमुसलिला-ऽऽसारैः स्फारैः दुःख-दावानल-समुज्ज्वलत्कीलकवल-प्रबल-भयात् विमोच्य उद्भिन्दद-मन्दा-नन्द
सिद्धायकृत
भगवज्जमन्मोत्सवः।
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि। तत्पश्चात् राजा सिद्धार्थने उत्सव मनाना आरंभ किया। प्रातःकाल होने पर उन्होंने आनन्द के समुदाय को देनेवाले प्रभु-जन्म के सूचक अन्तःपुरके भृत्यों के तथा याचकों के समूह को दैन्यसैन्य के पराभव से शून्य कर दिया-भगवान् के जन्मके हर्ष के उपलक्ष्य में प्रभुजन्म मूचक अन्तःपुरके दासदासियों को और दरिद्रों को इतना दान दिया कि उनकी दरिद्रता दूर हो गई। नागरिक समाज रूपी वन को भी, कुबेर की सम्पदा का उपहास कनेरवाले धनरूपी पानी की विशाल धाराओं से वर्षा करके, दुःखरूपी दावानल की जाज्वल्यमान शिखाओंका ग्रास बनने
॥६४॥
भूजन। -"तपणे" त्याls. AM सिद्धार्थ स भनावानु ८३ ४यु. प्रात:ste Adi, प्रभुना જન્મોત્સવ નિમિત્ત, અંતઃપુરના કરવાંનું દારિદ્ર ફીટાડી દીધું-દાસ-દાસી નોકર-ચાકર વિગેરેને અઢળક દ્રવ્ય આપ્યું, ને તેઓની હંમેશની કંગાલીયત મટા દીધી.
- દેશના નાગરિકેની દરિદ્રતા દૂર કરવા, કુબેરના ભંડારને પણ ચડી જાય તેવે તેમને ભંડાર હતો. આ ભંડાર માંહેનું ધન, વરસાદની ધારાઓની માફક વહેતું મુકવામાં આવ્યું. આ ધન દ્વારા, દુઃખેના દાવાનળ એલવવામાં આવ્યા,
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कन्दाङ्कर-पूरमकरोत्, कारागार-निगडित-जनवारं च निगडादमोचयत् । उत्तरोत्तरलसत्पवाहेणोत्साहेन तव क्षत्रियकुण्डग्राम नगरं साभ्यन्तरवाह्यम् आसिक्त-संमार्जितो-पलिप्तं शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुखमहापथ-पथेषु सिक्त-शुचि-संमृष्ट-रथ्यान्तरा-ऽऽपण-वीथिक मञ्चातिमश्चकलितं नानाविध-राग-भूषित-ध्वजपताका-मण्डितं लेपोल्लेपयुक्तं गोशीर्ष-सरसरक्तचन्दन-प्रचुर-दत्त-पञ्चाङ्गुलि-तलम् उपचित-चन्दन-कलशं चन्दन-घट-सुकृत-तोरण-प्रतिद्वार-देशभागम् आसक्तोसक्त-विपुल-बट्ट-प्रलम्बित-माल्यदाम-कलापं पञ्चवर्ण
कल्पमञ्जरी
दीका
के प्रबल भय से मुक्त करके उत्पन्न होने वाले असीम आनन्द-कन्द के अंकुरों के समूह से युक्त कर
दिया। कैदखाने में रहे हए कैदियों की बेडिया खुलवा दीं। उत्तरोत्तर बढते प्रवाहवाले उत्साह के साथ से क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगरी को भीतर और बाहर खूब सींचा, झाड़ा और लींपा हुआ करवाया, अर्थात्
सजवाया। शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ और पथों में, रथ्याओं के मध्यभागों तथा बाजारकी गलियों में सिंचन करवाया, इनकी सफाई करवाई, मचानों और मचानों पर मचानों से युक्त करीम दिया। तरह-तरह के रंगों से शोभित ध्वजाओं एवं पताकाओं से मण्डित करवाया। गोबर आदि से वा सिटाकर लिपवाया, खड़ी आदि से पुतवाया। गोशीर्षचन्दन तथा लालचन्दन के बहुत से हाथे लगवाये। चन्दन भगवज्ज
न्मोत्सवः। ને ગરીબ વર્ગને આર્થિક ભયમાંથી, હંમેશને માટે મુકત કર્યો, ને આ વર્ગમાં આનંદના અંકુર ફૂટવા લાગ્યા.
જેલના કેદીઓને બંધનમુકત કર્યા, ઉત્તરોત્તર ઉત્સાહ વધારીને, જેટલા અંશે ગરીબ-ગરબાંને ધન દ્વારા સંતેષાય, તેટલા અંશે સંતળ્યાં.
ક્ષત્રિયકુંડગ્રામ નગરને બહારથી અને અંદરથી, સાફસૂફ કરી, તમામ પ્રકારે સુશોભિત બનાવ્યું. શહેરની ફરતી દિવાલે રંગાવી-ધોળાવીને આકર્ષક રીતે ચીતરી. અંદરના રસ્તાઓ જેવા કે શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક, ચત્વર, ચતુર્મુખ, મહાપથ, પથ, રચ્યા વિગેરેને સાફ કરી, તેના પરના કચરાને દૂર કરી પાણી છંટાવ્યું.
- શહેરને મધ્યભાગ, બજાર અને ગલી-ખુશીઓમાંથી ગંદવાડ વિગેરે દૂર કરાવી, તેની પર પાણીનું સિંચન કર્યું, ને ઉડતી ધૂળ અને તેની રજેને બેસાડી દીધી. ધ્વજાઓ અને પતાકાઓ વડે, શહેરની શોભામાં વૃદ્ધિ કરી,
॥६५॥ ઉત્તમ પ્રકારના રંગરોગાન વડે દિવાલો અને કમાડો ધોવડાવ્યાં અને રંગાવ્યા. ગાશીષચંદન અને લાલચંદનના
થાપા દરેક બારી બારણા ઉપર લગાવ્યાં, ને ચંદનથી સુગંધિત બનાવેલા કળશે, દરેક પેઢી, દુકાનો અને કાર્યાJain Educationparatonan-४येशभामा भू या .
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टीका
सरस-सुरभिमुक्त-पुष्पपुञ्जो-पचार-कलितं कालागुरु-प्रवरकुन्दरुक्क-तुरुष्क-धूप-दह्यमान-सरद्-गन्धोधूता
भिरामं सुगन्धवरगन्धितं गन्धवर्तिभूतं नट-नर्तक-जल्ल-मल्ल-मौष्टिक-विलम्बक-प्लावक-कथक-पाठक-लासकाश्रीकल्पऽऽरक्षक-लख-तूणावत्तुम्बवीणिका-नेकतालचरा-नुचरितं कारयति। यूपसहस्रं मुशलसहस्रं च आनाय्य एकतः
कल्पसूत्रे स्थापयति, यत् खलु अस्मिन् महोत्सवे कोऽपि शकटानि वा हलानि वा नो वाहयतु, नो वा मुशलैः किश्चित्
मञ्जरी खण्डयतु-इति ॥मू०६७॥ से लिप्त कलश स्थापित करवाये। द्वार द्वार पर चन्दनलिप्त घटों से रमणीय तोरण बनवाये। नीचे से ऊपर तक के भाग को स्पर्श करने वाली विस्तीर्ण गोल और लम्बी फूलमालाओं के समूह से सुशोभित करवाया। जलने वाले उत्तम काले अगर, कुन्दुरुक्क (चीड़ा), तुरुष्क (लोबान) तथा धूप की फैलती हुई गंध के प्रसार से रमणीय कराया। उत्तम चूर्णों की गंध से सुगंधित करवाया। गंध की वट्टी के समान बनवाया। नौ, नर्तकों, जल्लो, मल्लों, मौष्टिको. दिलम्बको, प्लावको, कथकों, पाठको, लासको, आरक्षकों, लंखों, तूणावंतों, तुम्बवीणिकों तथा अनेक तालचरों से युक्त कराया। हजारों जूये तथा हजारों मूसला
सिद्धार्थकर मँगवाकर एक जगह रखवा दिये कि इस महोत्सव के अवसर पर कोई गाड़ी या हल न जोते, और न
भगवज्जा मृसलों से कुछ कूटे ॥मू०६७॥
मन्मोत्सव દરેક ઘરના દરવાજે દરવાજે, ચંદનથી લેપાએલા ઘડાઓના તારણે બંધાવ્યાં. તેરણ પર, નીચે ઉપર લટકતી લાંબી અને પહોળી કૂલમાળાઓ લટકાવવામાં આવી. પચરંગી ફૂલની શોભાવડે આ તરણેને વિશેષ શોભિત કર્યા. આ ફૂલેને રંગ અને સુગંધ ઘણા ઉગ્ર હતાં.
ઘેર ઘેર ઉત્તમ અગરબત્તી, કુન્દુરુકક (ચીડા), તુરુષ્ક (લેબાન) ની ઉંચી બનાવટવાળા ધૂપ સળગાવવામાં આવ્યા, આ ધૂપમાં પણ અતિ સુગંધ છૂટે તેવાં ચૂર્ણો ભભરાવવામાં આવ્યા. સર્વત્ર જાણે સુગંધનું જ સામ્રાજ્ય હેય! તેવી સુવાસ ફેલાવવામાં આવી.
शेशसशसने गली-12, नट-ग-re -भीx-विमx-are--48-मास આચક્ષક-લંખ-તૃણાવંત-તુઓ વીણિક તથા અનેક તાલચ રોકવામાં આવ્યા.
॥६६॥ હજારે જેતરાં અને હજારે સાંબેલાં, આખા ગામમાંથી ઉઘરાવી લીધાં, અને એક ઠેકાણે સઘળાં ભેગાં ક્ય. મતલબ એ હતું કે, જેથી ભગવાનના જન્મમહોત્સવના શુભ અવસર ઉપર, કઈ પણ બળદને, હળ કે ગાડા हार... साथ, ही यनल, तमाम समसा 43 His शाय नहिं मने प्राण भारने भणे. (सू० १७)
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श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥६७।
टीका
टीका-तए णं उदंचंत-' इत्यादि । ततः खलु उदश्चदुत्सवा उद्यदुत्सवः सिद्धार्थभूपः प्रत्यूषकालसमयेप्रातःकालावसरे, प्रमोद-कदम्ब-मोचक-प्रभुजन्म-सूचक-याचक-निकुरम्ब, तत्र-प्रमोदकदम्बमोचकम्-आनन्दवृन्ददायकं यत् प्रभुजन्म तस्य ये सूचका:ज्ञापका याचकाः भिक्षुकाश्च तेषां निकुरम्बसमूह, देन्यसेन्य-पराभवशून्य दारिद्रय-रूप-सैनिक-पराजय-रहित-दारिद्रयमुक्तम्, अकरोत्। तथा-स नागरिकसमाजवनमपि नगरवासिजनसमूहरूपवनमपि, राजराज-कमला-विलास-हास-वसु-सलिला-ऽऽसारेः-राजराजः कुबेरः, तस्य या कमला लक्ष्मीः -सम्पत्तिः, तस्या यो विलासः विलसनं, तं हसतीति तादृशं यद्वसुन्धनं तद्रूपं यत्सलिलं जलं तस्याऽऽसारैः धारासम्पातैः, तैः कीदृशैः ? इत्याह-स्फारैः-विशालैः, दुःख-दावानल-समुज्ज्वलत्कील-कवल-प्रबलभयात्-दुःखमेव यो दावानलोचन्यवहिः तस्य यः समुज्ज्वलन्-प्रज्वलन् कील-शिखा-ज्वाला तस्य यत् कवलं प्रसनं तस्मात् यत् प्रबलं-पकृष्टं भयं तस्मात्, विमोच्य-पृथकृत्य, उद्भिन्दद-मन्दा-ऽऽनन्दा-कर-पूरम्उद्भिन्दन परोहन्-उत्पद्यमानः अमन्दाऽऽनन्दाङ्करपूर अतिशयितप्रमोदरूपाङ्करसमूहो यस्य यस्मिन् वा ताह
टीका का अर्थ--'तए णं' इत्यादि । तब राजा सिद्धार्थ उत्सव मनाने के लिए उद्यत हुए। प्रातः- काल के अवसर पर उन्होंने आनन्द के समूह को देने वाले भगवान् के जन्म को सूचित करने वाले अन्तःपुर के दासदासियों को तथा भिखारियों को दीनतारूपी सेना के पराजय से रहित कर दिया, अर्थात् सदा के लिए उन्हें दरिद्रता से मुक्त कर दिया। तथा नगर-निवासी जनसमूहरूपी वन को भी कुबेर की लक्ष्मी के विलास का उपहास करने वाले, अर्थात् अत्यधिक, धनरूपी जल की विशाल धाराएँ बरसा कर, दुःखरूपी दावानल की जलती हुई ज्वालाओं का ग्रास होने के प्रबल भय से मुक्त करके. उत्पन्न होने वाले अतिशय प्रमोदरूपी अंकुर-समूह से सम्पन्न कर दिया। अभिप्राय यह है कि सिद्धार्थ राजाने कुवेर के धन से भी अधिक धन देकर नागरिक जनों को दरिद्रता के दुःख से रहित
सिद्धार्थकृत
भगवज्जन्मोत्सवः ।
॥६७॥
सन मथ-'तपणे त्याह. भामापने पोताना पुत्र बभ-उत्सव Granाम मानहायल, પણ આવા લેકનાથ થવાવાળા પુત્રને જન્મઉત્સવ ઉજવવામાં તે આખુયે રાષ્ટ્ર તૈયાર થઈ ગયું. રાજાએ, પિતાનેખજાને ખુલ્લો મૂકી દીધે, ને ગરીબવર્ગના દુઃખ મટાડવામાં કાંઇપણુ મણ રાખી નહિં. પિતાના આશ્રયે પડેલા નેકરીયાત વર્ગને તે, રાજાએ ન્યાલ કરી દીધો, ને તવંગરની કક્ષામાં તે સર્વને મુકી દીધા.
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥६८॥
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शम् अकरोत् । सिद्धार्थो राजा वैश्रवणधनातिशायिधनप्रदानेन नागरिकजनान् दारिद्र्यदुःखरहितान् कृत्वाऽमन्दानन्दयुक्तान् अकरोदिति भावः । स सिद्धार्थराजः पुनः कारागार - निगडित - जन - वारं कारागारे निगडिता:= नियन्त्रिता ये जनाः = अपराधिनो लोकाः तेषां वारं = समूहं च निगडात् = शृङ्खलातः अमोचयत् = मुक्तमकारयत् । पुनः स उत्तरोत्तरोल्लसत्मवाहेण - उत्तरोत्तरम् - क्रमशः उल्लसन्= प्रवर्धमानः प्रवाहो धारा यस्य तादृशेन, उत्साहेन = अध्यवसायेन, तत् = प्रसिद्धं क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं साभ्यन्तरबाह्यम् = अभ्यन्तरे बहिश्च आसिक्त-संमार्जितो- पलितंपूर्वमासिक्तं जलेन धूलिशमनाय ततः सम्मार्जितं = संशोधितं मार्जन्या, ततः उपलितं-गोमयमृत्तिकाभ्यां यत् तादृशम्, तथा - शृङ्गाटक- त्रिक-चतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख - महापथ- पथेषु, तत्र - शृङ्गाटकं = त्रिकोणस्थानम्, त्रिकं = मार्गत्रयमिलनस्थानम्, चतुष्कं=मार्गचतुष्टयमिलनस्थानम् चत्वरं = बहुमार्गमिलनस्थानम्, चतुर्मुखं चतुर्द्वारस्थानं, महापथः = राजमार्गः, बना दिया, और तीव्र आनन्द से युक्त कर दिया। इसके अतिरिक्त सिद्धार्थ राजाने कारागार में कैद किये हुए जो अपराधी जनों के समूह थे, उनको बेड़ियों से मुक्त करवा दिया।
राजा सिद्धार्थ के उत्साह की धारा उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी। उन्होंने क्षत्रियकुडग्राम को भीतर से भी और बाहर से भी खूब सजवाया। पहले धूल को शांत करने के लिए जल से सिंचचाया, फिर बुहारी से झड़वाया और फिर गोबर तथा मृत्तिका से लिपवाया। शृंगाटक ( तिकोने स्थान), त्रिक (तीन रास्तों का संगमस्थल), चतुष्क ( चार मार्गों के मिलने का स्थान - चौराहा), चत्वर ( बहुत रास्तोंका संगम स्थल), चतुर्मुख (चार द्वारों वाला स्थान ), महापथ ( राजमार्ग) और पथ (सामान्य रास्ता ) में
જન્મપન્ત સુધીની થયેલ શિક્ષા પણ માફ઼ કરવામાં આવી, અને દરેક કેદીને, ફરીથી કેાઇ ગુન્હાસર જેલમાં જવાના અવસર ઉભા ન થાય તે અર્થે આર્થિક મદદ અને ધંધા રાજગાર વિગેરેની વિપુલ પ્રમાણમાં સગવડતાઓ આપી. આથી જેલ-૫ખીએ પણુ, આનંદથી નાચી ઉઠયાં, અને પેાતાનું માકીનુ જીવન સુંદર રીતે વિતાવવા તત્પર થયાં.
આ ઉપરાંત અનેક ખાનદાન કુટુ એની ગરીબ વ્યકિતઓને, જોઇએ તેટલા પ્રમાણમાં, ગુપ્ત રીતે અખૂટ ધન આપી સ ંપત્તિવાન બનાવ્યા, જેને પરિણામે, તેમની 'મેશની ભૂખ ભાંગી.
नगरना रान महेब, हवेलीमा, रंगभड्यो, उद्यानशालाओ, सभागृहेो, मडेभानगृहो, अतः पुरना मंगलाओ,
कल्प
मञ्जरी टीका
सिद्धार्थकृत
भगवज्ज
नोत्सवः
॥६८॥
BG .
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श्रीकल्प
मूत्रे ॥६९||
पन्था सामान्यो मार्गश्चैतेषु-एतदवच्छेदेन, सिक्त-शुचि-संमृष्ट-रथ्यान्तराऽऽ-पण-वीथिक, तत्र-सिक्तानि-आर्दीकृतानि शुचीनि पवित्राणि संमृष्टानि शोषितानि च रथ्यान्तराणि मार्गमध्यानि आपणवीथिकाः हट्टमार्गाश्च यस्य तत्तादशं, तथा-मश्चातिमश्चकलितं-मश्चा: महोत्सवविलोकनार्थ जनानामुपवेशननिमित्ता मालकाः, अतिमश्चा:मचानामुपरिस्थिता मालकाश्च तैः कलितं युक्तम् , तथा-नानाविध-राग-भूषित-ध्वजपताका-मण्डितं-नानाविधाः अनेकप्रकारा ये रागाः रञ्जनद्रव्याणि तैर्भूषिताः रञ्जितत्वेन शोभिता या ध्वजपताका:-ध्वजाः सिंहादिरूपचित्रिता बृहत्प्रमाणा वैजयन्त्यः, पताकाः लघुप्रमाणा वैजयन्त्यश्च तामिमण्डितं शोभितम् , तथा 'लाउल्लोइयजुत्त' लेपोल्लेपयुक्तम्-लेपः गोमयादिना भूमौ लेपनम् , उल्लेपः-सुधाचूर्णादिना भित्त्यादीनां धवलीकरणं, ताभ्यां युक्तम् , तथा-गोशीर्ष-सरस-रक्तचन्दन-प्रचुर-दत्त-पञ्चाङ्गुलि-तलं, तत्र-गोशीर्ष-हरिचन्दनं, सरसं
कल्पमञ्जरी
टीका
जो भी मार्ग के मध्यभाग थे, तथा बाजार की गलिया थीं, उन सबको सिंचवाया, साफ करवाया और शोधित करवाया। महोत्सव को देखने के लिए लोगों को बैठने के वास्ते मंच (मचान) बनवा दिये, और उन मचानों पर भी मचान बनवा दिये। नाना प्रकारके रंगों से विभूषित और ध्वजा-पताकाओं से मण्डित करवा दिया। जिन पर सिंह आदि के चिह्न बने रहते हैं और जो बड़े आकार की होती हैं वे ध्वजा या वैजयन्ती कहलाती हैं। छोटी-छोटी ध्वजाएँ पताकाएँ कही जाती हैं। इन रंगों, ध्वजाओं और पताकाओं से नगर को सुशोभित करवाया। भूमितल गोबर से लिंपवा दिया गया, और दीवारों पर चूना आदि से सफेदी करवा दी गई। गोशीर्ष-हरिचन्दन तथा सरस लालचन्दन के बहुत से दीवाल आदि
सिद्धार्थकृत
भगवज्जन्मोत्सवः।
રાજકચેરીઓ, જાહેર મકાન વિગેરેને સંપૂર્ણ રીતે સુધારી, રોનકમાં લાવવામાં આવ્યાં.
બજારો-જાહેર રસ્તાઓ તેમજ ખાનગી ગ્રહની શેરીઓના પણ, વાળીળી સુઘડ બનાવી, સુગંધિ દ્રવ્યો છે કે વડે સિંચિત કરી શહેરને ધજા-પતાકા વડે શણગારવામાં આવ્યું. જાહેર રસ્તાના ચૌટામાં મંચે અને માંચડાઓ ઉપર, જાહેર જનતા બેસી, નાટયારંભે–નાટક-એ-તમાસાએ સુખપૂર્વક જોઈ શકે તેવી વ્યવસ્થાઓ ઉભી કરી.
ધ્વજા અને પતાકા ઉપર ચિત્ર વિચિત્ર ચિત્રામણે દેરવામાં આવ્યાં હતાં. મોટી વાઓને, લોકે વૈજયન્તી’ કહેતા અને નાની ધ્વજાઓને “પતાકા” ના નામથી ઓળખતા.
અનેક પ્રકારે શહેરના આંતર તેમજ બાહ્ય ભાગોને એવી સુંદર રીતે શણગાય અને ભભકાબંધ બનાવ્યા છે
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
मुत्र
रक्तचन्दनं च, ताभ्यां 'दद्दर'-पचुरा-बहवो दत्ताः पञ्चाङ्गुलितला हस्तकाः कुडयादिषु यत्र तार्श, 'दहर' इति प्रचुरार्थे देशी शब्दः, पुनः-उपचितचन्दनकलशम्-उपचिता: गृहान्तर्भागचतुष्केषु स्थापिताः चन्दनकलशाः चन्दनलिप्तकलशा यत्र तादृशम् , पुन:-चन्दनघटसुकृततोरणपतिद्वारदेशभागम्-चन्दनघटैः सुकृतानि रमणीयानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागद्वारस्य द्वारस्य देशभागे यत्र तादृशम् , तथा-आसक्तो-सक्त-विपुलवर्त-प्रलम्बित-माल्यदाम-कलापं, तत्र-आसक्तो भूमिलग्नः, उत्सक्तश्च उपरि लग्नो विपुलो-विस्तीर्णों वः = चतुल: 'वग्यारिय-प्रलम्बितो माल्यदामकलापः पुष्पमालासमूहो यस्मिन् तादृशम् , तथा-मुक्त-पञ्चवर्णसरस-सुरभिपुष्पपुञ्जोपचारकलितं-मुक्ताः-अवकीर्णा ये पश्चवर्णानां कृष्णनीलपीतरक्तशुक्लस्वरूपवर्णपश्चकवतां सरसानां नूतनानां शोभनानां वा सुरभीणां सुगन्धयुक्तानां पुष्पाणां पुञ्जाः सम्हास्तैर्य उपचारः शोभा तेन कलितं युक्तम् , 'मुत्त' शब्दस्य मूले प्राकृतत्वात् परनिपातः; तथा-कालागुरु-पवर-कुन्दुरुक्क-तुरुष्क-धूप-दह्यमान
टीका
स्थान-स्थान पर हाथे लगवा दिये। घरों के भीतर, चौकों में चन्दन के लेप से युक्त कलश रखवा दिये। नगर के द्वार-द्वार पर चन्दन-लिप्त घटों के रमणीय तोरण बनवा दिये। तथा उन द्वारों को, नीचे जमीन से लगी हुई और ऊपर तक छई हुई बहुत-सी गोलाकार और लम्बाकार मालाओं के समह से मण्डित करवा दिये, जहाँ-तहाँ बिखेरे हुए काले, नीले, पीले, लाल और शुक्ल-इन पाँच वर्णों के सुन्दर और सुरभिसम्पन्न पुष्पों के समूह की शोभा से युक्त करवा दिये।
सिद्धार्थकृतसे भगवज्जन्मोत्सवः।
હતાં કે, ઘડીભર આપણે મેહિત થઈ જઈએ, અને ભ્રમમાં પડીએ કે શું આ પ્રત્યક્ષ સ્વર્ગ હશે કે કેમ?, તે તો ઓળખવા પણ મુંઝાવું પડે!
જેમ જેમ શહેર ભાયુક્ત થતું ગયું તેમ તેમ તેની મડનક્રિયા પણ વધવા લાગી. નવીનતા અને ભપકે વધવા લાગ્યો. તેરણદ્વાર પર સ્વગય અને મનરમ દેખાવો થવા લાગ્યા. તેરણાની શોભામાં ઠાઠ-માઠ પૂરવા ખૂબ કાળજી લેવામાં આવી. કારણ આ તેરમાં પચરંગી ફેલે ઉપરાંત પંચરંગી માળાઓ પણ લટકતી રાખીને, તેની અંદર હાંડી–તકતા ગોઠવવામાં આવ્યા હતા. આ હાંડી–તકતા જુદા જુદારંગના હેઈ, અંદર મૂકેલા દીપકે, જુદાજ રંગેને આભાસ અને તેજ આપતા હતા. આ તેજ ઉપર પુછે અને માળાઓનું પ્રતિબિંબ પડતાં જાણે ફૂલોએ જાતેજ પચરંગી નાટારંભ શરુ કર્યો હોય તેમ લાગ્યા વિના રહેતું નહિં.
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श्रीकल्पसूत्रे ॥७१॥
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प्रसर- द्गन्धो- द्यूता - भिरामं, तत्र कालागुरु कृष्णागुरु, प्रवरकुन्दुरुक्कं चीडाभिधानं गन्धद्रव्यं, तुरुष्कं = सिहकं 'लोहबान' इति प्रसिद्धम्, धूपः = दशाङ्गादिरनेकसुगन्धिद्रव्यसंयोगजनितविलक्षणगन्धः, एतेषां दद्यमानानां यः प्रसरन् गन्धः, तस्य यद् उद्घृतं = त्रायुना प्रेरितं सत्मसरणं तेन अभिरामं शोभनम्, तथा - सुगन्धवरगन्धितंसुगन्धवराणां=श्रेष्ठस्रुगन्धद्रव्यचूर्णानां यो गन्धः, स जातो यस्य तादृशं प्रकृष्टगन्धयुक्तम्, अतएव - गन्धवर्तिभूर्त = गन्धगुटिकासदृशं, तथा - नट-नर्तक - जल-मल - मौष्टिक - विलम्बक - प्लावक- कथक - पाठक - लास का - SSरक्षक-लखतूणावत्-तुम्बवीणिका - ऽनेकतालचरा - नुचरितं, तत्र - नटाः = नाटयितारः, नर्तकाः = स्वयं नृत्यकर्तारः, जल्लाः=वरत्रा
तथा - कृष्णागुरु, श्रेष्ठ कुन्दुरुक्क (चीडा - नामक गंधद्रव्य), तुरुष्क - ( लोबान ), तथा धूप - दशांग आदि, जो अनेक सुगंधि द्रव्यों की मिलावट से बनती है, और जिसकी गंध विलक्षण होती है, इन सब के जलाने से उत्पन्न हुई गंध, हवा से चारों ओर फैल रही थी, और इस प्रकार सारे नगर को मनोहर बनवाया । बढ़िया सुगंधित चूणों की गंध से भी सुगंधित कराया, अर्थात् नगर को उत्कृष्ट गंध से व्याप्त करवा दिया। इस कारण वह ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे गंध-द्रव्य की बट्टी हो ।
तथा - नट, नर्त्तक ( स्वयं नाचने वाले), जल्ल (वरत्रा पर - रस्सी पर खेल करने वाले), मल्ल, मौष्टिक
સુધિ ફેલાવવા માટે, કશી પણ કચાશ રાખી ન હતી. સુગ ંધિ-જળના છંટકાવ ઉપરાંત, સુગંધિત પો અને ઉંચી બનાવટની અગરબત્તી, ચૂર્ણ તેમજ સુગધી દ્રબ્યાને તે કઈ હિસાબ રાખ્યા જ ન હતા. આખું શહેર મહેક-મહેક બની રહ્યું હતુ, ને ખુશબેાની સુવાસ ચેમેર પથરાઇ રહી હતી. મઘમઘાયમાન થયેલું સમસ્ત પાટનગર, સુગંધને લીધે, મ્હેકી ઉઠયું હતું.
લેાકેાને જમવા માટે, રાજ્યના રસાડાં ખુલ્લાં મૂકી દીધાં હતાં. જ્યાં સુધી ઉત્સવ ચાલે ત્યાં સુધી, કોઈએ પણ પાતાના ઘેર, રસાઇ કરવાની હતીજ નહિં, જમ્યા પછી, આનંદ પ્રમેાદ માણવા, ઠેર ઠેર ચાકમાં મચા ગઢવી દીધા હતા તે મચ ઉપર બેસી, લેાકેા પોતાને ચાગ્ય લાગે તે જાતની કલાઓ જોઈ શકતા.
આ કલાનુ પ્રદશન દિવસ-રાત ચાલુ રહેતું હતું. કલાઓના પ્રકારે ઘણા હતા ને તે કલાઓના નિષ્ણાતા ટાકામાં જુદા જુદા નામથી ઓળખાતા હતા.
વેષ પરિધાન કરી, કાઈ પૂર્વે થઈ ગયેલ વ્યક્તિના ચિતાર રજુ કરનારને લાકા નટ' તરીકે ઓળખતા.
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कल्पमञ्जरी
टीका
सिद्धार्थकृत
भगवज्जन्मोत्सवः ।
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श्रीकल्पसूत्रे ॥७२॥
ऽऽखेलकाः (रज्जुपरि खेलकाः), मल्लाः = प्रसिद्धाः, मौष्टिकाः = मुष्टिप्रहारका मल्लजातीयाः, विलम्बकाः=विदूषकाःमुखविकारादिना जनानां हास्यकारिणः, प्लावकाः = गर्ता धुल्लङ्घयितारः, कथकाः = सरसकथा वक्तारः पाठका:= सूक्तादीनां पठितारः, लासकाः = रासगानकारिणः, आरक्षकाः = रक्षकाः - 'सिपाही' - ति भाषाप्रसिद्धाः, लङ्घाः वंशाग्रखेलकाः, तुम्बवीणिकाः=वीणावादकाः, अनेकतालचराः - अने के बहवो ये तालचराः - तालैश्चरन्ति ये ते तथातालदानेन प्रेक्षाकारिणः, यद्वा-तालान् कुट्टयन्तो ये कथां कथयन्ति ते तालचराः, तैरनुचरितं = संयुक्तं
(से-बाजी करने वाले एक प्रकार के मल्ल), विलम्बक (विदूषक - मुखविकार आदि करके जनता को हंसाने वाले), प्लावक ( छलांग मार कर गड़हे आदि को लांघने वाले), कथक ( मजेदार कहानी कहने वाले), पाठक (सूक्तियाँ सुनाने वाले), लासक (रास - गान करने वाले), आरक्षक (शुभाशुभ शकुन कहने वाले नैमित्तिक) लेख (बाँस के ऊपर खेल करने वाले), तूणावन्त ( तूणा नामक बाजा बजाकर कथा करने वाले) - इन सब से नगर को युक्त करवाया।
સ્વયં નાચ કરવા વાળાને ‘નૃત્યકાર’ કહેતા. આ નૃત્યની કલા, શ્રી તેમજ પુરુષ બન્ને ભજવી શકતાં, તેથી પુરુષ કલાધરને ‘નૃત્યકાર' કહેતા અને સ્ત્રીને ‘નૃત્તિકા' કહેતા. ‘રસી' પર કૂદવા વાળા ‘જલ' કહેવાતા. બાહુબળ બતાવવા વાળા ‘ મલુ ' તરીકે એળખાતા. ઢોંસા મારવામાં કુશળ હોય તેને ‘મૌષ્ટિક તરીકે ઓળખતા. મેાઢાથી વિકૃત ભાવ પ્રગટ કરવા વાળાને, ‘વિલ`ખક’ અથવા ‘વિષક’ કહેતા. છલાંગ મારીને કુદી જનાર ‘પ્લાવક' તરીકે भोजभातो. म्यार लाटने 'थ' 'डेता. शास्त्रोना खो संभावनारने 'चा उडेता शसगान गानार 'सास' તરીકે ઓળખાતા. શુભાશુભ શકુનના કહેનારા નૈમિત્તિકેને લેાકેા ‘આચક્ષક' કહીને સંબધતા. વાંસ ઉપર ખેલ કરનારને ‘લ’ખ’ કહેતા. સારગી ગાવાવાળા વર્ગ' ‘તુણાવત' ના નામથી સંઐાધાતા. વીણા વગાડનાર ‘તુમ્બવીણિક’ કહેવાતા. હાથતાળી ખજાવવામાં કુશળ કલાધરને લાકા ‘તાલચર’ કહીને ખેલાવતા.
ભગવાનના જન્મ પ્રસંગના મહાત્સવ વખતે, નાનાપ્રાણીઓને પણ દુઃખ ન થવુ જોઈએ એ ઇરાદાથી, અળદ–પાડા–હાથી વિગેરેને છુટા મૂકી સ ંપૂર્ણ ઘાસ ચારા આપી, આનંદ કરતા બનાવી મૂકયા હતા. તે દિવસે દરમ્યાન, ખાનગી રીતે પણ કોઇ મળદ આદિને ખેતરમાં જીતે નહિ માટે ‘ોતરા' પણ રાજ્યમાં મૂકાવી દીધાં, ને Jain Education in Anal भार मेंयतां सर्व प्राणीओने बंधन मुक्त या Private & Personal Use Only
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सिद्धार्थकृत भगवज्जन्मोत्सवः
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श्रीकल्पसूत्रे ॥ ७३ ॥
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कारयति, तथा-यूपसहस्रं युगसहस्रं, मुशलसहस्रं = मुशलानि प्रसिद्धानि तेषां सहस्रं च आनाय्य, एकतः = एकपार्श्वे स्थापयति । अत्र हेतुमाह - यत् - यस्मात् खलु अस्मिन् महोत्सवे = श्रीमहावीरमभुजन्मनिमित्तमहोत्सवे कोऽपि जनः शकटानि वा हलानि वा नो वाहयतु = पभाश्वादिना न चालयतु, मुशलैर्वा किञ्चिदपि धान्यादिकं न खण्डयतु = विदलयतु इति ।। सू० ६७ ॥
मूलम् - तणं सा ललिय-सीला-लंकिय- महिला - गिइ-कुसला तिसला कमणिज्जगुणजालं विसाल भालं बालं त्रिलोगिय समुच्छलंता-मंदाणंद - तरलतर - तरंग - महासिणेह - वरुणगिह- णिमामजमाण - माणसा इत्थी - पुरिस - लक्ख- गाण - विक्खणा पईयपुत्तलक्खणा तं थविउमुवकमित्था - किं गुणगणवज्जिएहिं बहूहिं तणएहिं ?, वरमेगोवि अतंदो कुलकेरवचंदो भवारिसो असरिसुज्जलगुणो सुमो, जो पुराकयमुकयकलावेण पाविज्जइ, जेण य गंधवाहेण परिमलराजीव माउपिइपसिद्धी दिसोदिसि वितभिज्जइ, सोम्भ- भरिया - मिलाण - कुसुम - भार -भासुर - मुरतरुणा नंदज्जाणमित्र य तेल्लोकं गुणगणेण वासिज्जइ, अतेलपूरेण मणिदीवेणेव य पगासिज्जइ, अपासिज्जइ य हिययदरीचरी चिरंतणाणानतिमिरराई । सच्चं वृत्तं -
पत्तं न हं न
तावयइ नेव मलं संहरइ नेव गुणे
पसूए, खिणेइ ।
तथा - हजारों जूए और हजारों मूशल मँगवाकर एक किनारे रखवा दिये, जिससे कि इस महोत्सव में, अर्थात् श्रीमहावीर प्रभु के जन्म के उपलक्ष्य में मनाये जाने वाले उत्सव के समय, कोई भी मनुष्य गाड़ी और हल न जोते, तथा किसी भी धान्य आदि वस्तु को न कूटे, अर्थात् सभी लोग उत्सव में सम्मिलित होकर आनन्दका उपभोग करें ।। सू० ६७॥
ખાંડણીયામાં અનાજ વિગેરે ખાંડવાથી આરંભ થાય, તે આરભને રોકવા માટે સાંખેલા વિગેરે રાજમહેલમાં મૂકાવ્યાં.
કાઇપણ જાતના કામમાંથી મુકત હોય તેા, મનુષ્ય જન્મ મહાત્સવ માણી શકે એ ઇરાદાથી, સ જાતના Jain Education व्यापार संघ उशववा, उत्सवमा लाग सेवा राज्य तर३थी देश महार पाउयानु सूयन भ्यु (सू०६७)
कल्प
मञ्जरी
टीका
सिद्धार्थकृत
भगवज्जन्मोत्सवः ।
त्रिशला -
कृत - पुत्रप्रशंसा ।
॥७३॥
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श्रीकल्प॥७४॥
Jain Education
POEM OF URERYONE
दव्वावसाणसमए चलयं न धाइ, तो इमो कुल किल को वि दीवो ॥ १ ॥ एसो लोगुत्तरगुणगणजुओ ओ पभूयप्पमोयं जणयइ । अवि य
सीयलं चंदणं वुत्तं, तओ चंदो सुसीयलो । चंदचंदणओ सीओ, महं णंदणसंगमो ॥ २ ॥ सिया उ महुरा नूणं, सुहाऽइमहुरा तओ । तेहिं वि अस्स बालस्स, संगमो महुरो महं ॥३॥ कणगं सुहयं लोए, रयणं च महासुहं ।
तेहिं वि य महासोक्खो, अस्स बालस्स संगमो ॥४॥ सू० ६८ ॥
छाया - ततः खलु सा ललित - शीला - लङ्कृत - महिला - कृति - कुशला त्रिशला कमनीयगुणजालं विशालभालं बालं विलोक्य समुच्छलद - मन्दा-नन्द - तरलतर- तरङ्ग - महास्नेह - वरुणगृह-निमामज्यमान- मानसा स्त्री-पुरुषलक्षणज्ञान - प्रविचक्षणाप्रतीतपुत्रलक्षणा तं स्तोतुमुपचक्रमे - किं गुणगणवर्जितैरनल्पैरपि तनयैः, वरमेकोऽप्यतन्द्रः मूलार्थ - 'अह ललियसीलालंकिय' - इत्यादि । फिर उत्सव की समाप्ति के बाद वह शील से सुन्दर, महिलाओं के कर्त्तव्य में कुशल, उछलती हुई अत्यंत - चंचल आनन्द-रूपी तरंगों से युक्त महास्नेहरूपी समुद्र में तैरती हुई, खिले हुए कमल के समान मुखवाली, स्त्री-पुरुषों के शुभाशुभलक्षण जानने वाली, तथा बालक के लक्षण को पहचानने वाली त्रिशला रानी, सुन्दर गुणों से अलंकृत, विशाल भालवाले बालक की स्तुति करने लगी-
भूसाथ' - 'अह ललियसीलालंकिय' इत्याहि शीसाथी सुंदर, श्रीगोना उर्तव्यमा दुशण, मने छता એવા અત્યંત ચંચળ આનંદરૂપી તર ંગાથી યુક્ત મહાસ્નેહરૂપી સમુદ્રમાં હિલેાળા ખાતી, ખીલેલાં કમળે!ના જેવા મુખવાળી, સ્ત્રી-પુરુષાના સારાં--નરસાં લક્ષણાને જાણવાવાળી, તેમજ બાળકના લક્ષણાને ઓળખવાવાળી ત્રિશલારાણી, સુંદર ગુણૈાથી સુÀાલિત વિશાલભાલવાળા પેાતાના બાળકની સ્તુતિ કરવા લાગી.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
त्रिशला
कृत - पुत्रप्रशसा.
॥७४॥
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कुलकरवचन्द्रो भवादृशोऽसदृशोज्ज्वलगुणः सुतो, यः पुरातसुकृतकलापेन प्राप्यते, येन च गन्धवाहेन परिमलराजिरिव मातापितृप्रसिद्धिर्दिशि दिशि वितन्यते, सौरभ्य-मरिता-म्लान-कुसुम-भार-भासुर-सुरतरुणा नन्दनोधानमिव च त्रलोक्यं गुणगणेन वास्यते, अतैलपूरेण मणिदीपेनेच च प्रकाश्यतेऽपास्यते च हृदयदरीचरी चिरन्तनाज्ञानतिमिरराजी। सत्यमुक्तम्
श्रीकल्प
मूत्र
॥७५॥
___ गुणविहीन बहुत पुत्रों से भी क्या ?, किन्तु अप्रमादी, कुलरूपी कैरव-रात्रिविकासी कमल-को विकसित करने में चन्द्र-रूप, तेरे जैसा अनुपम उज्ज्वल गुणवाला एक ही पुत्र अच्छा है, जो पुत्र पूर्वजन्मोपार्जित प्रचुर पुण्यों से प्राप्त होता है। जैसे-गन्धवाह-पवन पुष्पों की सुगन्धि को दिशा-विदिशाओं में प्रसारित करता है, उसी प्रकार जो पुत्र अपने मातापिता के नाम को सर्वत्र प्रसिद्ध करता है। जैसे सुगन्धियुक्त अम्लान (खिले हुए) पुष्पों के भार से सुशोभित कल्पवृक्ष, नन्दननवन को सुवासित करता है। उसी प्रकार जो पुत्र अपने गुणगण से तीनों लोक को सुवासित करता है। तथा-जैसे तैलरहित मणिदीप गृहादिक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार तेरे जैसा पुत्र तीनों लोक को प्रकाशित करता है,
और जो त्रैलोक्यवर्ती जीवों के हृदयरूपी गुफा में संचरण करने वाले चिरकालिक अज्ञानरूप अन्धकारसमूह को दूर करता है। कहा भी है--
त्रिशला
कृत-पुत्रप्रशंसा.
ને દિશ-વિદિશાઓમાં
ગુણ વગરના ઘણા પુત્રથી પણ શું? પરંતુ અપ્રમાદી કુળરૂપી કૈરવ-રાત્રિ-વિકાસી કમળને ખીલવવામાં આવી ચંદ્ર સરખે તારા સરખા અનુપમ ઉજજવલ ગુણવાળે એકજ પુત્ર ઉત્તમ છે, જે પુત્ર પૂર્વ જન્મોપાર્જિત અનેક પુણ્યના યેગે પ્રાપ્ત થાય છે. જેવી રીતે ગબ્ધને લઈ જનાર પવન પુષ્પોની સુગંધિને દિશા-વિદિશાઓમાં ફેલાવે છે, તેવી જ રીતે ઉત્તમ પુત્ર પિતાના માતપિતાના નામને સર્વત્ર પ્રસિદ્ધ કરે છે. જેવી રીતે સુગન્ધયુક્ત નિર્મલ ખીલેલાં પુષ્પના ભારથી સુશોભિત કલ્પવૃક્ષ નંદનવનને સુવાસિત કરે છે, તેવી જ રીતે સુપુત્ર પિતાના ગુણસમૂહથી ત્રણે લેકને સુવાસિત કરે છે. તથા તેલ-વગરને મણિદીપ જેવી રીતે ગૃહાદિકને પ્રકાશિત કરે છે, તેવી જ રીતે તારા જે પુત્ર ત્રણે લોકને પ્રકાશમાન કરે છે, અને ત્રણે લોકમાં રહેલા જીના હૃદયરૂપી ગુફામાં સંચરણ મ કરવાવાળા ઘણા લાંબા કાળથી રહેલા અજ્ઞાનરૂપ અન્ધકારસમૂહને દૂર કરે છે. કહ્યું પણ છે
અતાના નામને સર્વત્ર
ના ભારથી સુશોભિત
||७५॥
Jain Education Ledational
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कल्प
मञ्जरी
टीका
पात्रं न तापयति नैव मलं प्रसूते, स्नेहं न संहरति नैव गुणान् क्षिणोति। द्रव्यावसानसमये चलतां न धत्ते,
पुत्रोऽयं कुलगृहे किल कोऽपि दीपः ॥१॥ एष लोकोत्तरगुणगणयुतः सुतः प्रभूतप्रमोदं जनयति । अपि च
शीतलं चन्दनं प्रोक्तं ततश्चन्द्रः सुशीतलः।
चन्द्र-चन्दनतः शीतो महान् नन्दनसङ्गमः ॥२॥ "जो पात्र को संतप्त नहीं करता, मल को उत्पन्न नहीं करता, स्नेह का संहार नहीं करता, गुणों का नाश नहीं करता और द्रव्य के विनाश काल में अस्थिरता को प्राप्त नहीं होता है, ऐसा यह पुत्ररूप दीपक, कुलरूपी गृह में कोई विलक्षण ही दीपक है" ॥१॥ इति ।
___ यह लोकोत्तर गुणगणों से युक्त पुत्र बहुत आनन्ददायी होता है। और भी कहा है--
___ चन्दन शीतल कहा गया है, उससे भी शीतल चन्द्र है, और चन्द्र-चन्दन से भी महान् शीतल पुत्र का स्पर्श है ॥१॥
मिसरी मीठी होती है, उससे भी मीठा अमृत होता है, और उससे भी मीठा पुत्र का स्पर्श होता है ॥२॥
જે પાત્રને સંતપ્ત કરતું નથી, મલને ઉત્પન્ન કરતો નથી. સ્નેહનો નાશ નથી કરતે, ગુણોને વિનાશ નથી કરતા, તેમજ દ્રવ્યના વિનાશ કાળમાં અસ્થિરતાને પામતા નથી, તે આ પુત્રરૂપ દી કુળરૂપી ઘરમાં કે ઈ. विक्षी छ. ॥१॥ इति।।
આ લકત્તર ગુગોથી યુક્ત પુત્ર ઘણાજ આનન્દને આપવાવાળો હોય છે. વળી પણ કહ્યું છે
ચંદન શીતળ કહેવામાં આવ્યું છે, તેમજ તેનાથી પણ શીતળ ચંદ્ર છે, અને ચંદ્ર તથા ચંદનથી પણ મહાન SourtainmManyा पशछ. ॥ २॥
त्रिशलाकृत-पुत्रप्रशंसा.
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॥७६॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥७७॥
सिता तु मधुरा नूनं सुधाऽतिमधुरा ततः।
ताभ्यामप्यस्य बालस्य सङ्गमो मधुरो महान् ॥३॥ कनकं सुखदं लोके रत्नं च महासुखम् ।
ताभ्यामपि च महासौख्यः अस्य बालस्य सङ्गमः ॥४॥ सू०६८॥ सम्पति देवासुरनरनिकरनमस्कृतचरणचक्रवालस्य स्वबालस्य मुखकमलं विलोक्य त्रिशलाया हृदये यो भावः समजनि तमाह-'तए णं सा ललियसीलालंकिय '-इत्यादि।
ततः उत्सवानन्तरं खलु सा ललित-शीला-लङ्कत-महिला-कृति-कुशला-ललित-शोभनं-निर्दोषं यत् शील स्वभावः सद्वृत्तं वा, 'शीलं स्वभावे सत्ते'-इत्यमरः, तेन अलङ्कृताः शोभिताः-युक्ता या महिला:स्त्रियः, तासां या कृतिः कर्तव्यं, तत्र कुशला-निपुणा त्रिशला देवी, कमनीयगुणजालं-कमनीयं-मनोहरं
सोना इस लोक में मुखदायी है, उसकी अपेक्षा रत्न अधिक सुखदायी है, इन दोनों से भी बढ़कर इस अनुपम पुत्र का स्पर्श महासुखदायक है ॥३॥
टीकार्थ-देवों, असुरों और मनुष्यों के समूह से जिसका चरण-चक्रवाल वन्दित है, ऐसे अपने बाळक का मुखकमल देखकर, त्रिशला देवी के हृदय में जो भाव उत्पन्न हुआ, उसको सूत्रकार 'अह ललियसीलालंकिय -इत्यादि सूत्र-द्वारा प्रदर्शित करते हैं
इस के बाद, सुन्दर-निर्दोष शील-स्वभाव अथवा सद्वृत्त से युक्त महिलाओं के कर्तव्य में निपुण, सा४२ भी डाय छ, तनाथी भए भी अमृत छ, अने तेथी ५ भी। पुत्र २५ छ. ॥ ३॥
સોનું આ લોકમાં સુખદાયક છે, તેથી પણ રન અધિક સુખદાયક છે. એ બન્નેથી પણ અધિક સુખ मापना२ मा अनुपम पुत्र५ मा सुमहाय: छ. ॥४॥ (स. १८)
ટીકાઈ–હવે દે, અસુર, અને મનુષ્યોના સમૂહથી જેનું ચરણુકમળ વન્દિત છે એવા પિતાના पानुभुमभजनधन त्रिशमाहेवानामा G4 थयो तेन सूत्रा२ 'अह ललियसीलालंकिय' त्यात સૂત્ર દ્વારા પ્રદશિત કરે છે.
ત્યારપછી સુંદર-નિર્દોષ શીલ-સ્વભાવ અથવા સારા વર્તનથી યુક્ત, સ્ત્રીઓના કતવ્યમાં નિપુણ,
त्रिशला
प्रशसा.
॥७७॥
For P
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गुणजालं गुणसमूहो यस्य स तथा तं तादृशं पुनः विशालभालं - विशाल:- विस्तृतः - शुभलक्षणसम्पन्नः भाल:= ललाटं यस्य स तथा तं तादृशं वालं महावीरं विलोक्य, समुच्छलद-मन्दा-नन्द- तरलतर - तरङ्ग - महास्नेहवरुणगृहनिमामज्यमान- मानसा - समुच्छलन्तः = सम्यगुत्पतन्तः अमन्दानन्दरूपाः तरलतराः = अतिचञ्चलाः तरङ्गा यस्मिन्नेतादृशं यद् महास्नेहवरुणगृहम् = अत्यधिकस्नेहरूपः समुद्रः, तत्र निमामज्यमानम् = अतिशयेन मज्जत् मानसं= मनो यस्याः सा तथा, परमानन्दसन्दोहसमन्वितस्वान्तेत्यर्थः पुनः कीदृशीत्याह - स्त्रीपुरुषलक्षणज्ञानमविचक्षणा - खीपुरुषलक्षणपरिज्ञाने कुशला, पुनः प्रतीतवीतरागलक्षणा - प्रवीतं ज्ञातं वीतरागलक्षणं- वीतरागस्य तीर्थकरस्य लक्षणं पुत्रसम्बन्धिलक्षणं यया सा तथाभूता पूर्वोक्ता त्रिशला देवी तं पूर्वोक्तगुणगणसमलङ्कृतं स्वसुतं स्तोतुं = मशंसितुम् उपचक्रमे = भारेभे । सा केन प्रकारेण स्तोतुमुपचक्रमे ? इत्याह- ' किं गुणगणवज्जि एहिं ' इत्यादि । गुणगणवर्जितैः-गुणाः-धैर्यौदार्यादिसद्गुणाः, तेषां यो गणः = समूहस्तेन वर्जितैः =रहितैः-निर्गुणैः, अनल्पः =बहुभिः तनयैः=पुत्रः किम् = किं प्रयोजनम् ?, नास्ति गुणरहितपुत्राणां किमपि प्रयोजनमित्यर्थः । एतदपेक्षया हे पुत्र ! भवादृश:= भवत्सदृशः असोज्ज्वल गुणः - असदृशाः = अद्वितीयाः उज्ज्वलाः = विशुद्धा गुणा यस्य स तादृशः, अतन्द्रः = निस्तस्त्री-पुरुष के लक्षण - परिज्ञान में कुशल तथा जिसने अपने पुत्र के लक्षण जान लिये हैं, ऐसी उस त्रिशला देवीने, मनोहरगुणगणत्राले, शुभलक्षणयुक्त ललाट वाले अपने पुत्र महावीर को देख कर, उछलते हुए अतिशय चञ्चल आनन्दरूप तरङ्ग वाले महास्नेहरूपी समुद्र में तैरती हुई, पूर्वोक्त गुणगण से सुशोभित अपने उस अनुपम पुत्र की प्रशंसा करना प्रारंभ किया। वह इस प्रकार -
धैर्य, औदार्य आदि सद्गुणों से रहित बहुत पुत्रों से क्या ?, अर्थात् - ऐसे निर्गुण पुत्रों का कुछ भी प्रयोजन नहीं है । इस की अपेक्षा तो हे पुत्र ! तुम्हारे - सहरा अद्वितीय विशुद्ध गुणयुक्त, तन्द्र- उत्साही, સ્ત્રી-પુરુષના લક્ષણુ–પરિજ્ઞાનમાં કુશળ અને પાતાના પુત્રના વીતરાગ લક્ષણને જાણનારી તે ત્રિશલાદેવી, મનેાહર ગુણસમૂહવાળ, શુભ લક્ષણોથી યુક્ત લલાટવાળા પેાતાના પુત્ર મહાવીરને જોઇને ઉછળતા એવા અતિશય ચ'ચળ આનન્દરૂપી તરગવાળા મહાસ્નેહરૂપી સમુદ્રમાં ઝુલતી અર્થાત્ પરમ આનંદના સમૂહથી યુક્ત હૃદયવાળી, પૂર્વોક્ત ગુણસમૂહથી સુÀાભિત પેાતાના તે અનુપમ પુત્રની પ્રશંસા કરવા લાગી. તે આવી રીતેથૈ ઔદાર્ય આદિ સદ્ગુણાથી રહિત ઘણા પુત્રથી શું? અર્થાત્ એવા નિર્ગુ ણુ પુત્રાનું કઇજ પ્રયાજન નથી. Jain Education Sonaतेनाश्ता तो हे पुत्र ! तमारा सेवा अद्वितीय विशुद्धगुथी युक्त मतंद्र भेटले उत्साही, मुज३यी श्वश्वेत
PRESE
श्रीकल्प
सूत्रे
119611
कल्प
मञ्जरी
टीका
त्रिशला
कृत- पुत्र
प्रशंसा.
119711
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श्रीकल्प
मञ्जरी
॥७९॥
टीका
त्रिशला
न्द्रः निरलसः कुलकैरवचन्द्रः-कुलमेच कैरवं श्वेतकमलं, तत्मबोधने चन्द्रः-कुलपकाशक एकोऽपि सुतः पुत्रः वरं, यो हि सुतः पुराकृतसुकृतकलापेन-पूर्वजन्मोपार्जितपुण्यसमूहेन प्राप्यते लभ्यते । पुनः प्रशंसति-येन च भवादृशेन सत्पुत्रेण मातापितृपसिद्धिा मातापित्रोः ख्यातिः दिशि दिशि वितन्यते-विस्तीर्यते । केन किमिव
कल्पवितन्यते ? इत्याह-'गन्धवाहेन परिमलराजिरिवे'-ति। यथा गन्धवाहेन-वायुना परिमलराजिः=सुगन्धसमूहः दिशि दिशि प्रसार्यते, एवमेव भवद्विधेन सत्पुत्रेण मातापित्रोर्यशः कीर्तिश्च सर्वत्र प्रसार्यते इति भावः। तथा भवादृशेन सत्पुत्रेण इदं प्रैलोक्यं लोकत्रयं गुणगणेन गुणसमूहेन वास्यते भाव्यते, इदं त्रैलोक्यं गुणयुक्तं क्रियते इत्यर्थः । केन किमिव ? इत्याह-सौरभ्यभरितेत्यादि। सौरभ्य-भरिताम्लानकुसुम-भार-भासुर-सुरतरुणा-सौरभ्येण-मुगन्धिना भरितानि-युक्तानि यानि अम्लानानि-लानतामनुपगतानि कुसुमानि=पुष्पाणि तेषां यो भारः समृहस्तेन भासुरः प्रकाशमानो यः सुरतरुः कल्पवृक्षस्तेन
नन्दनोद्यानमिवनन्दनवनमिवेति । अयं भावः-यथा कल्पवृक्षेण स्वपुष्पसौरभ्येण सकलमपि नन्दनवनं ई कुलरूपी कैरव-श्वेत कमल के प्रबोधन करने में चन्द्ररूप एक ही पुत्र श्रेष्ठ है, जो पुत्र पूर्वजन्मोपानित मह पुण्य से प्राप्त होता है । हे पुत्र ! तुम्हारे जैसे सत्पुत्र के द्वारा माता-पिता की ख्याति दिशा-विदिशाओं
कृत-पुत्रमें सर्वत्र फैल जाती है, जैसे-वायुद्वारा दिशा-विदिशाओं में पुष्पों की सुगन्धि । अर्थात्-जिस प्रकार वायु- प्रशंसा. द्वारा पुष्पों की सुगन्धि दिशा-विदिशाओं में सर्वत्र प्रसारित होती है उसी प्रकार तुम्हारे-जैसे सत्पुत्र से मातापिता की ख्याति दिशा-विदिशाओं में सर्वत्र फैलती है। तथा हे पुत्र! तुम्हारे-जैसे सत्पुत्र से यह तीनों लोक गुणगण से सुवासित होते हैं, जैसे-मुगन्धियुक्त खिले हुए पुष्पों के गुच्छों से शोभित कल्पवृक्ष से नन्दनवन । अर्थात्-जैसे कल्पवृक्ष अपने पुष्पों की मुगन्धि से समस्त नन्दनवन को सुगन्धित કમળને ખીલવવામાં ચંદ્રરૂપ એકજ પુત્ર શ્રેષ્ઠ છે, કે જે પુત્ર પૂર્વજન્મના પુણ્યાગથી પ્રાપ્ત થાય છે. હે પુત્ર! તારા જેવા સપુત્ર દ્વારા માતા-પિતાની ખ્યાતિ દિશા-વિદિશાઓમાં સર્વત્ર ફેલાઈ જાય છે, જેમ વાયુદ્વારા દિશા-વિદિશાઓમાં પુષ્પોની સુગન્ધિ. અર્થાત્ જેવી રીતે વાયુદ્વારા પુષ્પોની સુગન્ધિ દિશા-વિદિશાઓમાં સર્વત્ર
॥७९॥ પ્રસારિત થાય છે તેવી જ રીતે તમારા જેવા સપુત્રથી માતા-પિતાની ખ્યાતિ દિશા-વિદિશાઓમાં સર્વત્ર ફેલાઈ છે જાય છે. તથા હે પુત્ર! તારા જેવા સપુત્રથી આ ત્રણે લોક ગુણગથી સુવાસિત થાય છે, જેમ સુગન્ધવાળા ખીલેલાં પુના ગુચ્છાથી શેતિ કલ્પવૃક્ષથી નંદનવન. અર્થાત જેવી રીતે કહ૫વૃક્ષ પિતાના પુષ્પોની સુગન્ધિથી
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Conal
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श्रीकल्पसूत्रे
॥८०॥
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सुरभीक्रियते तथैव भवादृशेन सत्पुत्रण स्वगुणसमूहैः समस्तमपीदं त्रैलोक्यं गुणयुक्तं क्रियते इति । तथा भवादृशेन सुतेन इदं त्रलोक्यं प्रकाश्यते = प्रकाशितं क्रियते, केनेव ? अतलपूरेण मणिदीपेनेवेति । अयं भावः यथा तेलपूरवर्जितो मणिदीपः सततं समानरूपेण गृहादिकं प्रकाशयति तथव भवादृशः सत्पुत्रः समस्तमपीदं त्रैलोक्यं सततं समानरूपेण प्रकाशयतीति । तथा भवादृशेन सत्पुत्रेण त्रलोक्यवर्त्तिजीवानां हृदयदरीचरी हृदयरूपकन्दराऽभ्यन्तरचारिणी चिरन्तनाज्ञानतिमिरराजी - चिरन्तनानि=अनादिकालिकानि यानि अज्ञानतिमिराणि=अज्ञानान्धकारास्तेषां राजी=पङ्क्तिः-अनादिकालीनाज्ञानपरम्परेत्यर्थः, अपास्यते - दूरीक्रियते इति । पुनः सत्पुत्रमुद्दिश्य इदं = वक्ष्यमाणं पद्यं सत्यं = वास्तविकम् उक्तं = कथितम्, किमुक्तम् ? इत्याह-- ' पात्रं न तापयति' इत्यादि ।
जैसे तेल- विना के सर्वदा समानरूप से
करता है, उसी प्रकार तुम्हारे - जैसा सत्पुत्र अपने गुणों से इस समस्त लोक को शोभित बनाता है । तथा - हे पुत्र ! तुम्हारे - जैसे पुत्र से यह तीनों लोक प्रकाशित किये जाते हैं, मणिदीप से यह घर आदि । अर्थात् जिस प्रकार तेलरहित मणिदीप गृह आदि को प्रकाशित करता है उसी प्रकार तुम्हारे जैसे सत्पुत्र तीनों लोकों को सतत समानरूप से प्रकाशित करता है । तथा तेरे जैसा सत्पुत्र तीनों लोक के जीवों के हृदयरूपी कन्दरा के अभ्यन्तर में संचरण करने वाले चिरकालिक - अनादिकालीन अज्ञानरूप अन्धकार की परम्परा को दूर करता है । फिर कहती है- ' पात्रं न तापयति' इत्यादि ।
સમગ્ર નંદનવનને સુગધવાળું કરે છે, તેવીજ રીતે તારા જેવા સત્પુત્ર પોતાના ગુણેથી આ સમસ્ત લેાકને સુશોભિત અનાવે છે. તથા હે પુત્ર! તારા જેવા પુત્રથી મા ત્રણે લોક પ્રકાશિત કરાય છે, જેમ તેલ વગરના મણિદીપથી આ ઘર આદિ. અર્થાત્ જેવી રીતે તેલરહિત મણિદીપ સČદા સમાન રૂપથી ગૃહ આદિને પ્રકાશિત કરે છે, તેવીજ રીતે તમારા જેવા સપુત્ર ત્રણ લેાકને સતત સમાનરૂપથી પ્રકાશમાન કરે છે. તથા તારા જેવા સપુત્ર ત્રણ લેાકમાં રહેલા જીવાના હૃદયરૂપી ગુફાની અંદર સંચરણ કરવાવાળા ચિરકાલિક અર્થાત્ અનાદિકાલીન અજ્ઞાનરૂપી અંધકારની પરંપરાને દૂર કરે છે.
वजी हे छे - पात्रं न तापयति इत्यादि..
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कल्प
मञ्जरी
टीका
त्रिशला
कृत - पुत्रमशसा.
॥८०॥
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SARA
का
श्रीकल्प
कुलगृहे वंशरूपे गृहे अयं पुत्रः सत्पुत्रः कोऽपि अनिर्वचनीयो दीपः किल=निश्चयेन वर्तते, यो हि पात्रं-पात्रीभूतं सत्पुरुषं लोकं न तापयति-स्वाचरणेन न सन्तापयति, अथवा-पात्रम्-स्वाधारभूतं मातापित्रादिकं न तापयति-स्वाचरणेन संतप्त न करोतीत्यर्थः। तथा-मलं-पापं नैव प्रसूते-पापाचरणकारी न भवतीत्यर्थः। तथा-स्नेहं = प्रेम-दयामित्यर्थः, न संहरति=न दूरीकरोति, कस्मिन्नपि जने स्नेहंदयां न परिस्यजतीत्यर्थः। तथा-गुणान् सदगुणान् दयादाक्षिण्यादीन् नव क्षिणोति-नव नाशयतीत्यर्थः। तथा-द्रव्यावसानसमये धनाभावसमये चलताम् अस्थर्य न धत्त-न धारयति । अयं भावः-दीपो हि पात्रं स्वाधारपात्रं
कल्प
मञ्जरो
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त्रिशला
इस का अर्थ यह है-कुलरूप-वंशरूप घर में यह सत्पुत्ररूप अलौकिक दीपक निश्रय ही कोई अपूर्व विलक्षण दीपक है, जो सत्पुत्ररूप दीपक पात्र को अर्थात् सज्जन पुरुषों को सन्ताप नहीं पहुंचाता है, अथवा अपने आधाररूप मातापिता आदि को अपने आचरण से कभी भी संतप्त-दुखित नहीं करता है, कभी भी पापाचरण नहीं करता है, स्नेह को-प्रेम को अर्थात् दया को कभी भी नहीं छोड़ता है, इस का अभिमाय यह है कि वह किसी के ऊपर दया-रहित नहीं होता है, दया-दाक्षिण्य-आदि सद्गुणों का नाश वह कभी भी नहीं करता है, तथा द्रव्य के अवसान काल में, अर्थात् धन के क्षीण हो जाने पर चंचलता-अस्थिरता को धारण नहीं करता है, अर्थात् किसी भी परिस्थिति में वह नीतिमार्ग का परित्याग नहीं करता है। इस श्लोक का अभिप्राय यह है-दीपक अपने आधारपात्र को संतप्त करता है, मल अर्थात्
कृत-पुत्रप्रशंसा.
એનો અર્થ એ છે કે કુળરૂપ-વંશરૂપ ઘરમાં આ સત્પન્નરૂપી અલૌકિક દી નિશ્ચય કેઈ અપૂર્વ વિલક્ષણ | દીવે છે. જે સપુત્રરૂપ દી પાત્રને અર્થાત સન્દુરુષને સંતાપ પહોંચાડતું નથી, અથવા પિતાના આધારરૂપ
માતાપિતા આદિને પિતાના આચરણથી કોઈપણ વખતે સંતપ્ત–દુઃખિત કરતા નથી, કેઈપણ વખતે પાપનું આચરણ કરતું નથી. નેહને-મને અર્થાત્ દયાને કઈ વખતે છોડતું નથી. એને અભિપ્રાય એ છે કે તે કેઈની પણ ઉપર દયારહિત થતો નથી. દયાદાક્ષિણ્ય–આદિ સદ્ગુણોનો નાશ તે કેઈપણ સમયે કરતા નથી. તે દ્રવ્યના અવસાન કાળમાં અર્થાત્ ધનને નાશ થાય ત્યારે ચંચળતા-અસ્થિરતાને ધારણ કરતું નથી, અર્થાત્ કેઈપણ પરિસ્થિતિમાં તે નીતિમાને ત્યાગ કરતા નથી. આ કને અભિપ્રાય એ છે કે–દીપક પિતાના આધારપાત્રને સંતપ્ત કરે છે,
॥८
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श्रीकल्प
सूत्र
तप्तं करोति, मलं = कज्जलं प्रमते, स्नेहं = तैलं संहरति, गुणान् वत्तिका नाशयति, तैलरूपद्रव्याभावसमये च अस्थैर्य धत्ते, परन्तु कुलपुत्ररूपो दीपस्तथा न भवति, प्रत्युत सर्वथा एतद्विलक्षणो भवतीति।
अहो ! एष लोकोत्तरगुणगणयुतः अलौकिकगुणसमूहसमन्वितः सुतः पुत्रः प्रभूतप्रमोद-प्रकृष्टमानन्द नयति-उत्पादयति।
अपि च=पुनश्च त्रिशला सत्कुलोद्भवं पुत्रं प्रशंसति-'शीतलं चन्दनं प्रोक्तम्' इत्यादिना । चन्दनं शीतलं= शीतस्पर्शयुक्तं मोक्तं कथितम् , ततः चन्दनात्-चन्दनापेक्षयेत्यर्थः, चन्द्रः सुशीतलः समधिकशीतस्पर्शवान् कथितः, तथा-चन्द्रचन्दनतः पूर्वोक्तचन्द्रचन्दनापेक्षयाऽपि नन्दनसंगमः-पुत्रस्पर्शः महान् अत्यधिक: शीतः= शीतलो भवति ॥२॥
1॥८२॥
त्रिशलाकृत-पुत्रप्रशंसा.
कजल उत्पन्न करता है, स्नेह-तेल का शोपण करता है, गुण का-बत्ती का नाश करता है, और तेलरूप द्रव्य के अभाव-समय में अस्थिरता को प्राप्त करता है, अर्थात् बुझने लगता है। परन्तु सत्पुत्ररूप दीपक तो ऐसा नहीं होता है, वह तो सर्मथा इससे विलक्षण होता है।
अहा ! यह लोकोत्तर गुणों से विभूषित सत्पुत्र अतिशय आनन्ददायी होता है।
त्रिशला रानी फिर कहती है-इस लोक में पन्दन शीतल है, उसकी अपेक्षा चन्द्रमा अधिक शीतल है, परन्तु चन्द्र और चन्दन की अपेक्षा पुत्र के अङ्ग का स्पर्श अत्यन्त शीतल होता है ॥२॥
મલ અર્થાત્ કાજલ (કાજલ મશ) ને ઉત્પન્ન કરે છે, સ્નેહ-તેલનું શેષણ કરે છે, ગુણનો–બત્તી (દીવેટ) ને નાશ કરે છે, અને તેલરૂપ દ્રવ્યના અભાવમાં અસ્થિના પામે છે, અર્થાત્ ઓલવાઈ જાય છે. પરંતુ સપુત્રરૂપ ही५४ नो मेवो तो नथी, ते तो हमेशा सेनाथी शिक्षण डाय छे. ॥१॥
અહે ! લોકોત્તમ ગુણોથી વિભૂષિત પુત્ર અતિશય આનંદ આપનાર હોય છે. ત્રિશલારાણી ફરીથી કહે છે–
આ લેકમાં ચંદન શીતલ હોય છે અને તેથી પણ અધિક શીતલ ચંદ્રમા છે. પરંતુ ચંદન અને ચંદ્રની पेक्षा पुत्रनाममा २५० अत्यत शी18 ईय छे... ॥२॥....
||८२॥
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श्रीकल्प
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___तथा-सिता-शर्करा तु नूनं निश्चितं मधुरा मधुररसवती भवति, ततः तस्याः सिताया अपिशर्कराऽपेक्षयाऽपीत्यर्थः, सुधा अतिमधुरा-प्रकृष्टमधुररसयुक्ता भवति, पुनः ताभ्यामपि=सितासुधाभ्यामपि अस्य बालस्य संगमो महान् मधुरो भवति ।३।।
तथा-लोके कनकं सुवर्ण मुखदं वप्रदं भवति, च-पुनः रत्नं महासुख-महासुखदायकत्वाद महासुखं भवति, च-पुनः ताभ्यामपि कनकरत्नाभ्यामपि अस्य बालस्य संगमो महासौख्यः प्रकृष्टसुखविशिष्टो भवतीति ॥४|म०६८॥
मलम्-तए णं समणस्स भगवश्री महावीरस्स अम्मापियरो, एकारसमे दिवसे विकते, निव्वत्ते सूयगे, संपत्ते वारसाहे, विउलं असणपाण वाइमसाइम उपक्खडार्षिति. उवक्खडावित्ता मित्त-णाइ-सयणसंबंधि-परियणे उवनिमतेति, उवनिमंतित्ता बहूणं समण-माहण-किवण-वणीमग-भिच्छुड-गारंतीण विच्छ डेति, दायाएमु णं दायं पज्जाभाएंति, पजामाइत्ता मित्त-गाइ-सयण-संबंधि-परियणे भुंजावेंति, भुंजावित्ता मित्त-णाइ-सयण-संबंधि-परियग-समक्वं इम रयारूपं कहेंति-जप्पभिई च णं अम्हं इमे दारए गम्भं वइक्कते, तप्पभिई चणं इमं कुलं विउलेणं हिरण्णेणं सुवण्णेगं धणेणं घण्णेणं पिहवेगं ईसरिएणं रिद्धीएणं सिद्धीएणं समिद्धीए णं सकारेणं सम्माणेणं पुरस्कारेणं रजेणं रटेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं
त्रिशला
प्रशंसा.
मिसरी मीठी होती है, और मिसरी से अमृत अधिक मीठा होता है, परन्तु मिसरी और अमृत इन दोनों से भी बालक का स्पर्श अत्यन्त मीठा है ॥३॥
तथा-इस लोक में कनक-सोना मुख देने वाला है, रत्न सोने से भी अधिक सुखदायी होता है, परन्तु पुत्र का स्पर्श तो इन दोनों से भी महान सुखदायी है ॥४॥ सू० ६८॥
।।८३॥
સાકર મીઠી હોય છે, અને સાકરથી અમૃત વધારે મીઠું હોય છે. પરંતુ સાકર અને અમૃત આ બન્નેથી yey अधि: भीड पुत्रना भगना २५ . ॥3॥
આ લોકમાં કનક-સેનું સુખ આપવાવાળું છે, પણ રત્ન એનાથી અધિક સુખ આપવાવાળું હોય છે. પરંતુ पुत्रन २५ ते मे भन्नेथी पर भडान सुमहाया डाय छे. ॥४॥ (सू० ६८)
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श्री कल्प
सूत्रे
॥८४॥
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जगवणं जाणवणं जसवाणं कित्तिवारणं वण्णवाएणं सदवाएणं सिलोगनाएणं थुइवाएणं विउल-घण - कणगरयण-मणि - मोतिय-संख - सिलप्पवाल - रत्तरयण-माइएणं संत सावइज्जेणं पीई-सकार - समुदएणं श्रईव - अईव परिवढियं तं होउ णं इमस्स दारगस्स गोष्णं गुणनिष्फष्णं नामधिज्जं 'वद्धमाणे 'ति कट्टु भगवओ महावीरस्स ' वद्धमाणे ' - ति नामधिज्जं करेंति । समणे भगवं महावीरे गुत्तेणं कासवे । तस्स णं इमे तिष्णि नामधिज्जा एवमाहिज्जेति श्रम्मापि संतिए 'वज्रमाणे' चि, सहसमुझ्याए 'समणे' चि, इंदसंतिए 'महावीरे 'ति ॥०६९ ।। छाया - ततः खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अम्बान्तिरौ, एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते, निवृत्ते मृतके, सम्माप्ते द्वादशाहे विपुलमशनपान वादिम स्वादिमम् उपस्कारयतः, उपस्कार्य मित्र - ज्ञाति - स्वजन - सम्बन्धिपरिजनान् उपनिमन्त्रयतः, उपनिमन्त्रय बहुभ्यः श्रमण-ब्राह्मण - कृ ण-वनीपक - भिक्षोण्डका - गारस्थेभ्यो विच्छयतः, दायादेषु खलु दायं पर्याभाजयतः, पर्याभाज्य मित्र - ज्ञानि - स्वजन - सम्बन्धि - परिजनान् भोजयतः,
मूलार्थ - ' तर णं समजस्स' इत्यादि । इसके बाद श्रमण भगवान महावीरके माता - पिताने, ग्यारहवाँ दिन बीतने पर, सूतक जन्माशौचके निवृत्त होने पर, वारहवें दिन बहुत-सा अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन बनवाया। भोजन वनवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों, संबंधीजनों और परिजनों को आमंत्रित किया । आमंत्रित करके बहुत से श्रमणों, ब्राह्मणों, दीनों, याचकों, भिखारियों भोजन-वस्त्र आदि दिया। भागीदारों को उनका भाग वाटा । बाँट कर मित्रों.
तथा गृहस्थों को ज्ञातिजनों, स्वजनों,
भूवने अर्थ – 'तपणं समणस्स इत्यादि भगवानना जन्मने अगियार हिवसे व्यतीत थयां, भारभो દિવસ આવી ઉભે। રહ્યો. તે દિવસે જન્મ-પ્રસૂતિનું સૂતક રહેતું નથી. આ દિવસે ભગવાનના માત –પિતાએ અનેક પ્રકારનાં સ્વાદિષ્ટ અન મિષ્ટ ભેજના તૈયાર કરાવ્યાં.
આ ભેજનામાં ભાગ લેવા, મિત્રે-જ્ઞાતિના-સંધિ, સગ વ્હાલાંને આમંત્રિત કર્યો. સાથે સાથે શ્રમણ-બ્રાહ્મણ-દીન-યાચક્ર-ભિખારી તથા તદ્દન સામાન્ય કોટિના ગૃહસ્થને પણ ભેજન વસ્ત્ર વિગેરેનું દાન કર્યું. पशु हीन-दु:जी-मनाथ अपंग-ला- गडां अन्न-वस्त्र विना जाडी रही न लय, तेनी भास तम्हारी शमी, સને ભેાજનાદિ પહાંચતા કર્યા.
જ્યારે જ્ઞાતિજને, મિત્રવર્ગ, સગાસ ખંધીએ જમીને પરવાર્યા અને આરામ ગૃહમાં લવંગ-સોપારી વિગેરે
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कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतो नामकर
णम् .
॥८४॥
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श्रीकल्प
भोजयित्वा मित्र-ज्ञाति-सन्न-सम्बन्धि-परिजन-समक्षम् इदमेतद्रूपं वचनं वदतः-यत् प्रभृति च खलु अस्माकमयं दारको गर्भ व्युत्क्रान्तः, तत्प्रभृति च खलु इदं कुलं विपुलेन हिरण्येन सुवर्णेन धनेन धान्येन विभवेन ऐश्वर्येण ऋद्धया खलु सिद्धया खलु समृदया खलु सत्कारेण सम्मान पुरस्कारेण राज्येन राष्ट्रेग बलेन वाहनेन कोषेग कोष्ठागारेण पुरेण अन्तःपुरेण जनपदेन जानपदेन यशोवादेन कीर्तिवादेन वर्णवादेन शब्दवादेन श्लोकवादेन स्तुतिवादेन विषुल-धन-कनक-रत्न-मणि-मौक्तिक-शङ्क-शिलाप्रवाल-रक्तरत्नादिकेन सत्स्वापतेयेन प्रीतिसत्कारसमुदयेन अतीवातीच परिवं, तद् भवतु खलु अस्य दारकस्य गुण्यं गुण निष्पन्न नामधेयं 'वर्धमान' इति कृत्वा भगवतो महावीरस्य विधमान' इति नामधेयं कुरुतः। श्रमणो भगवान् महावीरो गोत्रेग काश्यपः । तस्य खलु इमानि
11८५॥
सम्बन्धीजनों और परिजनों को भोजन कराया। फिर मित्रों, ज्ञातिजनों. स्वजनों, सम्बन्धीजना और __ परिजनों के समक्ष इस प्रकार का यह वचन कहा-जब से हमारा यह बालक गर्भ में आया,
तभी से यह कुल विपुल हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, विभव, ऐश्वर्य, ऋद्धि, सिद्धि, समृद्धि, सन्मान, पुरस्कार, राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोप, कोष्ठागार (कोठार), पुर, अन्तःपुर, जनपद, जानपद, यशोवाद, कीर्ति वाद, वर्णवाद, शब्दवाद, श्लोकवाद, स्तुतिवाद से तथा विपुल, धन, स्वर्ण, रत्न, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्न आदि वास्तविक सम्पत्ति से और प्रीति तथा सत्कार की प्राप्ति से खब-खूब वृद्धि को प्राप्त हुआ है। अत एव इस बालक का गुणमय गुणनिष्पन्न 'बर्द्धमान' नाम हो। इस प्रकार कह कर भगवान महावीर का 'वर्द्धमान' नाम रक्खा।
भगवतो नामकरणम्.
મુખવાસ લેવા એકત્રિત થયાં, ત્યારે સવની સમક્ષ, રાજા સિદ્ધાર્થે જાહેર કયુ” કે જ્યારથી આ બાળક ગર્ભમાં माव्यो छे त्याथी बि२९५-सु -धन-धान्य-वैभव-मेश्व-द्धि-सिद्धि-समृद्धि-स.२-सन्मान-५२२६॥२राय-राष्ट्र-मण-बान-प-310810२ (8181२)-१२-मत:पुर-१-५४- ५६-यशवाह-श्रीतिवा-१६१४-०४पाह- वा-स्तुतिवामा तम yिa-धन-सुवा-२ल-भाती- -परवाणi-AARI-aaReल माहि वास्तविक સંપત્તિમાં, ઉત્તરોત્તર વધારે થતજ ગમે છે. દિન-પ્રતિદિન આનંદની વૃદ્ધિ થતાં, અમે તેનું નામ ગુણમય गुनियन भान' रामीको छोणे.
॥८५॥
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श्रीकल्प
त्रीणि नामधेयानि एवमाख्यायन्ते-अम्बापितृसत्कं 'वर्धमान' इति, सहसमुदितया 'श्रमण' इति, इन्द्रसत्कं 'महावीर' इति ॥ मू०६९।।
टीका-'तए णं समणस्से'-त्यादि। ततः खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अम्बापितरौ एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते व्यतीते, निवृत्ते समाप्ते सूतके जन्माशौचे, सम्प्राप्ते द्वादशाहे-द्वादशे दिवसे विषुलं बहु अशनपानखादिमस्वादिमम् उपस्कारयता निष्पादयतः, उपस्कार्य-निष्पाद्य मित्र-ज्ञाति-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनान् , तत्र-मित्राणि प्रसिद्धानि, ज्ञातयः समानजातिकाः, स्वजनाः निजलोकाः, सम्बन्धिनः-पुत्राणां पुत्रीणां श्वशुरादयः, परिजनाः दासीदासप्रभृतयश्च तान् उपनिमन्त्रयता=भोक्तुमाह्वयतः, उपनिमन्त्र्य बहुभ्यः
॥८६॥
श्रमण भगवान् महावीर काश्यपगोत्रीय थे। उनके तीन नाम इस प्रकार कहे जाते हैं-माता-पिता द्वारा रक्खा हुआ नाम वर्द्धमान, तपश्चरणशक्ति के कारण श्रमण, और इन्द्र का रक्खा नाम-'महावीर' ।।०६९॥
टीका का अर्थ-'तए णं समणस्स' इत्यादि । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के माता-पिताने ग्यारह दिन बीत जाने पर और सूतक-जन्म संबंधी अशौच-दूर हो जाने पर, बारहवें दिन बहुत सा अशन, पान, खाद्य,
यार करवाया और मित्रों को, ज्ञातियो-स्वजातीय जनों को, स्वजनों-आत्मीय जनों को, संबन्धियों-पुत्र और पुत्रियों के श्वशुर आदि संवन्धियों को, तथा परिजनों-दासीदास आदि परिजनों को भोजन के लिए
भगवतो नामकरणम्.
છે
આ પ્રમાણે એક બાજુ દેએ ભગવાનનું નામ “મહાવીર” રાખ્યું, ત્યારે બીજી બાજુ માતા-પિતાએ ‘વધ માન” २७. मगवान ३५ पत्र' मा वाथी ते ४।२५५३त्री' ५५ ४२वाय छ. (सू०१८)
टीने अथ-'तए णं समणस्स' पाहि. बीड ०५१६२मा, प्रसूति ययामा, भीमार हिस सुधा માતાને તથા બાળકને માટે “અશૌચ ” ગણાય છે.
સૂતક સમય વીત્યા બાદ, વ્યાવહારિક દષ્ટિએ, બારમા દિવસે, ખુશાલી બતાવવા, સગાવ્હાલાં-મિત્ર-જ્ઞાતિસંબંધી-વર્ગને જમાડવામાં આવે છે.
આ પ્રમાણે ભગવાનનો જન્મ થતાં તેની ખુશાલીમાં સિદ્ધાર્થ રાજાએ, વિપુલ ભજનની સામગ્રી તૈયાર કરાવી, ખૂબ પ્રેમ અને વાત્સલ્ય ભાવથી તેમને જમાડયાં, તેઓ પણ ખૂબ-ખૂબ આનંદિત થઈ “વર્ધમાન' નામ કા પાડવામાં હાર્દિક અનુમોદન આપ્યું.
॥८६॥
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श्रीकल्पमुत्र
कल्प मञ्जरी
श्रमण-ब्राह्मण-कृपण-ननीपक-भिक्षोण्डका-ऽगारस्थेभ्यः, तत्र-श्रमणा: शाक्यादयः, ब्राह्मगाः प्रसिद्वाः, कृपणाःदीनाः, वनीपकाम्याचकाः, भिक्षोण्डका भिनाजीविनः, अगारस्थाःगृहस्थाचेति तेभ्यः, विच्छईयतःभोजनवसनादि दत्तः, दायादेषु पैतृकसम्पत्तिभागिषु दायं-सम्पत्ति पर्याभाजयतः परितो वण्टयतः, पर्याभाज्य% दायादेषु सम्पत्ति परिवण्ट्रय, मित्र ज्ञाति-वजन-सम्बन्धि-परिजनान् भोजयतः, भोजयित्वा मित्र-ज्ञातिस्वजन-सम्बन्धि-परिजनसमक्षम् इदमेतद्रूपंक्ष्यमागलक्षणं वचनं वदनः-यत्प्रभृति यस्मात् कालादारभ्य च खलु अस्माकम् अयं दारकःबालकः गर्भ व्युत्क्रान्ता गर्ने समागतः, तत्प्रभृति तस्मात् कालादारभ्य च खलु इदम् अस्माकमेतत् कुलं विपुलेन हिरण्येन रजतेन, सुवर्णन, धनेन-गवाचगजादिना, धान्येन= व्रीहिशालियवगोधूमादिरूपेण, विभवेन=निया-आनन्देनेत्यर्थः, 'विभवो धननिवृत्त्योः' इति हैमः, तथा-ऐश्वयेण धनाधिपतित्वेन जनाधिपतित्वेन वा, ऋद्वयासम्पत्या, सिद्धद्या-अभिलपितवस्तुपाप्स्या, समृद्धया-प्रव
टीका
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भगवती
नामकर
बुलाया-निमंत्रित किया। उन्हें निमंत्रित करके बहुत-से शाक्य आदि श्रमणों, ब्राह्मणों, कृपणों-दीनों, वनीपकों-याचकों, भिक्षोण्डो-भिखारियों और गृहस्थों को भोजन-वसन आदि का दान दिया। जो लोग पैत्रिक सम्पत्ति में भागीदार थे, उन्हें सम्पत्ति का बँटवारा किया। बँटवारा करके मित्रों, ज्ञातिजनो, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों को भोजन कराया। भोजन कराकर मित्र, ज्ञाति, स्वजन, संबंधी और परिजनों के सामने आगे कहे जानेवाले वचन कहे-'जब से हमारा यह बालक गर्भ में आया है, तब से लेकर हमारा यह कुल विपुल हिरण्य से-चांदी से, सुवर्ण से-सोने से, धन से, गाय घोड़ा आदि से, धान्य से-त्रीहि, शालि, जौ, गेहूँ आदि से, विभव से-आनन्द से, ऐश्वर्यसे-धन या जन के अधिपतित्व से, ऋद्धि सेसम्पत्ति से, सिद्धि से-इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति से, समृद्धि से-बढती हुई सम्पत्ति से, सत्कार से-जनता
I૮૭ી
ભગવાનના જન્મ-નિમિત્તે વેરભાવ ઉપશાંત થતાં, સર્વત્ર આનંદ-મંગળ વ્યાપી રહ્યો, અને તે આનંદને પ્રદર્શિત કરવા ગરીબ-ગુરબા વિગેરેને પણ વિપુલ પ્રમાણમાં મિષ્ટભોજન કરાવી તેમને દરેક રીતે સંતેષવામાં આવ્યાં.
२९५ हेता यही, सुपए ता सोनु, धन डेता गाय-धारा-मेंस माना घर, अशा गोष, છેધાન્ય કહેતાં વ્રીહિ-શાલિ-જવ-ઘઉં વિગેરે, વિભવ એટલે આનંદ, ઐશ્વર્ય એટલે ધન અને માનવ સમુદાયનું શિવ અધિપતિપણું, અદ્ધિ એટલે સંપત્તિ, સિદ્ધિ એટલે ઈષ્ટ વસ્તુ એની પ્રાપ્તિ, સત્કાર એટલે જનતા દ્વારા પ્રાપ્ત થયેલ
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श्रीकल्प
द्धमानसम्पच्या, सत्कारेण=जनकृताभ्युत्थानादिना, सम्मानेन-पासनादिदानादिना, पुरस्कारेण सर्वकार्येषु अग्रतः स्थापनेन, राज्येन=स्वाम्यमात्यसुहृत्कोपराष्ट्र दुगवलरूपेण सप्ताङ्गेन, राष्ट्रेण=देशेन, बलेन सैन्येन वाहनेन=स्थादिना, कोषेण रत्नादिभाण्डागारेण, कोष्ठागारेण धान्यस्थापनगृहेण, पुरेण नगरेण, अन्तःपुरेण=अन्तःपुरस्थपरिवारेण, जनपदेन-देशप्राप्तिरूपेण, जानपदेन प्रजाभिः, यशोगदेन 'अहो ! कीदृशोऽयं पुण्यभा'-इत्येकदेशव्यापिसाधुवादेन, कीर्तिवादेन=सर्वदिग्व्यापिसाधुवादेन, वर्णवादेन-प्रशंसावादेन, शब्दवादेन-अर्द्धदिग्व्यापिसाधुवादेन, श्लोक
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मञ्जरी
।।८८॥
टीका
द्वारा किये जानेवाले उत्थान आदि सत्कार से, सम्मान से-आसन देने आदि रूप सम्मान से, पुरस्कार से-सब कामों में वापन से, राज्य से-स्वामी, अमात्य, मित्र, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना इन सात अंगोंगाले राज्य से, राष्ट्र से-देश से, बलसे-सेना से, वाहन से-रथ आदि वाहनों से, कोप से-रत्नों आदि के भंडार से, कोष्ठागार से-धान्यभंडार से, पुर से-नगर से, अन्तःपुर से-रनवास के परिवार से, जनपद से-देशप्राप्ति से, जानपद से-प्रजा से, यशोवाद से-'अहा ! यह कैसा पुण्यभागी है। इस प्रकार एकदेशव्यापी साधुवाद से, कीर्तिवाद से-सर्वदिशाव्यापी साधुवाद से, वर्णवाद से-प्रशंसावाद से, शब्दवाद से अर्द्धदिशा
भगवतो नामकर
णम्. સ્થાન, સન્માન એટલે કે ગ્ય આસન આદિ અર્પણ કરી બતાવાતો પૂજ્યભાવ, પુરસ્કાર એટલે સામાન્યપણે બતાपात अधम, २०य मेटले १ स्वामी, २ समात्य, ७ भित्र, ४ ३५, । राष्ट्र, ग, मने ७ सेना, मा सात અંગે જેમાં હોય છે. રાષ્ટ્ર એટલે સમસ્ત દેશ, બલ એટલે હયદળ-ગજ દળ-રથદળ અને પાયદળની સેના, વાહન એટલે જમીન-૫ણી અને હવામાં ચાલતા મુસાફરીના સાધને, કેષ એટલે રે કડા સિક્કાથી માંડી રત્નો આદિનો ભંડા, કે ઠગાર એટલે ધા રાખવાના કે ઠારે, પુર એટલે નગ૨, અંત:પુર એટલે રાણીવાસ, જનપદ એટલે પ્રાંત, જાનપદ એટલે પ્રજા, યશવાદ એટલે કીર્તિની સામાન્ય કક્ષા અથવા શ્રેણી, કીર્તિવાદ એટલે વ્યાપકપણે ફેલાએ યશ-જેમાં જે જે કાર્યો પ્રજાના હિતાર્થે તેમજ પરોપકારી કાર્યો થયા હોય તે સર્વને સમાવેશ થાય છે. જ્યારે યશ” માં છૂટા-છુટા કાર્યોની સામાન્ય ગણત્રી કરતા હોય છે, ને જે કામ જેની દ્વારા
11८८॥ પરિપક્વ થયું હોય, તેને ભાગે તે “જશ’ જાય છે. “યશ” એક-પ્રાતવ્યા હોય છે, જ્યારે કીર્તિ સમસ્ત
પ્રદેશોમાં વ્યાપી રહેલ હ ય છે, આટલો “યશ” અને “કીર્તિ” માં ફરક છે. સ ધુવાદ એટલે સુગુણોની વૃદ્ધિ અથવા Jain Education Song પુરુષ તરફની રુચિ, લણવાદ એટલે પ્રસંશા, શબ્દવાદ એટલે અર્ધ દિશામાં વ્યાપ્ત થયેલ સુગુણે-વખાણે કે શબ્દ તેર
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सूत्रे !!८९ ॥
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वादेन = सर्वत्र गुणवर्णेनेन, स्तुतित्रादेन=न्दिजनकृतगुणकीर्त्तनेन, तथा विपुल - धन- कनक- रत्न- मणि-मौक्तिकशङ्ख - शिला- प्रवाल- रक्तरत्नादिकेन, विपुलेत्यस्य धनादिषु प्रत्येकं सम्बन्धः, तेन विपुलेन धनेन, विपुलेन कनकेन= सुवर्णेन, त्रिपुलेन रत्नेन= कर्केतनादिना, त्रिपुलेन मणिना = चन्द्रकान्तादिना, विपुलेन मौक्तिकेन, विपुलेन शङ्केन= दक्षिणावर्तेन, विपुलया शिलया = राजपट्टशिलया, त्रिपुलेन प्रवालेन = विद्रुमेण, त्रिपुलेन रक्तरत्नेन = लोहितरत्नेन - पद्मरागादिना, आदिना चीनांशुकादिवत्र कम्बलादोनि ग्राह्माणि, तथा सत्स्वापते येन = विद्यमानप्रधानद्रव्येण, प्रीतिसत्कारसमुदयेन मीतिः मानसी तुष्टिः, सत्कारः = त्रस्त्रादिभिः स्वजनकृतः शुश्रूपालक्षणः, तत्समुदयेन तत्सम्प्राप्त्या अतीवातीव=अधिकाधिकं परिवृद्धम् = अभ्युदयं प्राप्तम्, तत् तस्माद अस्य = अस्मदीयस्य दारकस्य = पुत्रस्य गुण्यं = गुणेभ्य आगतम् अतएव - गुणनिष्पन्नम् = अन्वर्थ नामधेयं = नाम 'वर्द्धमानो' भवतु इति कृत्वा इति उक्त्वा भगवतो महावीरस्य 'वर्धमानः' इति नामधेयं = नाम कुरुतः। श्रमणो भगवान महावीरो गोत्रेण काश्यपः = काश्यपगोत्र आसीत् । तस्य खलु इमानि = त्रक्ष्यमाणानि त्रीणि नामधेयानि नामानि एवम् अनेन प्रकारेण आख्यायन्ते=
व्यापी साधुवाद से, श्लोकवाद से सर्वत्र गुणों के बखान से, स्तुतिवाद से बन्दीजनों द्वारा किये जाने वाले गुणकीर्त्तन से, तथा - विपुल धन से, विपुल स्वर्ण से, विपुल कर्केतन आदि रत्नों से, विपुल चन्द्रकान्त आदि मणियों से, त्रिपुल मोतियों से, विपुल दक्षिणावर्त्तादि शेखों से, विपुल राजपट्टरूप -शिला से, विपुल मूंगों से, विपुल लालों से, तथा आदि शब्द से विपुल चीनी वस्त्र, कंवल आदि से, तथा विद्यमान प्रधान द्रव्यों से, प्रीति से - मानसिक तुष्टि से, सत्कार से - स्वजनों द्वारा वस्त्रादि से किये हुए सत्कार से अधिकाधिक वृद्धि को प्राप्त हुआ है। इस कारण हमारे इस बालक का गुणों से प्राप्त, गुणनिष्पन्न नाम 'वर्द्धमान हो । '
દ્વારા માનવસમૂહથી જે ઉચ્ચારાય તે, Àાકવાદ એટલે ભાટ-ચારણા વડે છંદ-ચાપઇ અને હા દ્વારા વખાણુ થાય તે. સ્તુતિવાદ એટલે દિજના ગુણુકીતન કરે તે. ઉપરની સવ` બાબતેના ધારા થતા ગયા. તે ઉપરાંત વિપુલ ધન, વિપુલ સ્વણું, કક્કે તન આદિ સવ-શ્રેષ્ઠ રત્ના, ચંદ્રકાંત આદિ સર્વોત્તમ મણિયા, દક્ષિણાવત્તાં િશખા અને રાજપદ્ગુ વિગેરે ઉત્તમ શિક્ષાએથી, વિપુલ પ્રવાલ, વિપુલ લાલ એટલે લાલરત્ન-વિશેષથી અને ઘણા પ્રકારના ઉત્તમ વઓથી મારે રાજ્યભડાર ભરાવા લાગ્યા. તેથી મા બાળકનું નામ ગુણનિષ્પન્ન‘ વધ'માન' રાખવામાં આવે છે.
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतो
नामकरणम्.
॥८९॥
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श्री कल्पसूत्रे
॥९०॥
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उच्यन्ते तानि यथा - अम्बापितृसत्कम् - अम्बातिरौ सन्तौ विद्यमानौ कर्तृत्वेन यस्य तत्, मातापितृकृतमिति भावः ; 'वर्धमानः' इति प्रथमं नाम १ । तथा सहसमुदितया = सहभाविन्या तपःकरणादिशच्या 'श्रमण:' इति द्वितीयं नाम २ । तथा इन्द्रसस्कम् = इन्द्रकृतं 'महावीर' इति तृतीयं नाम ३ ।। ०६९ ।।
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॥ इति पञ्चमी वाचना ॥
मूलम् -- तए णं भगवं महावीरे कमेण धवल-दल- विलसंत - वितिया - चंदोव्य सोम्मकरेहिं संतगुणनियरेहिं गिरिकंदरमल्लीणे चंपगपायवेत्र वरण संवइ । एवं से भगवं महावीरे मऊरपक्खकागपक्खसोहीहिं सवएहिं समूहिं सद्धि वालओऽणुरूवं गोवियसरूवं कीलेइ ।
गया देवलए देवगणालंकियाए सुहम्माए सहाए समासीणो सुणासीरो सोहम्मदो अणुत्रमगुणेहिं वृद्धमाणस्स वद्धमाणस्स पहुगो परकम वण्णिउं उत्रक्कम । तं सोचा निसम्म सव्वे देवा देवीओ य हरिसवसविसप्पमाहिया संजाया । तत्थ कोऽविमिच्छादिट्ठी देवो तं पहुपरकममहिमं असद्दहंतो इस्सालुओं अंगीकयदुब्भावणो मस्लोगं हव्यमागम्म वालेहिं कीलमाणं भयवं नियपिट्ठमि समारोहिय सयवेडव्वियसत्तीए सरीरं सत्तट्टतालतरूपरिमियं लंबमाणं विउत्रिय पहुं जिघंन उवरि आगासतलाओ अहो पाडिउमारभीअ । तं दण तक्खणमेव पगिइभीरुणो सिणो सिग्धं सग्धं पलाइउमारद्धा । चाउरीचंचू पहू ओहिणा देवकयं उवदवं मुणिय एवं चिंतेइ - जं एए
इस प्रकार कह कर भगवान् महावीर का नाम 'वर्द्धमान' रक्खा । श्रमण भगवान् महावीर काश्यपगोत्रीय थे। उनके यह तीन नाम इस प्रकार कहे जाते हैं-माता-पिता का रक्खा हुआ नाम 'वर्द्धमान' । सहभाविनी (जन्म - जात) तपश्चर्या आदि की शक्ति कारण दूसरा नाम - 'श्रमण ' । इन्द्र द्वारा रक्खा हुआ तृतीय नाम - ' महावीर ' ॥०६९ ।।
॥ इति पंचम वाचना ॥
ભગવાનના ત્રણ નામે। આ પ્રમાણે છે-માતા-પિતાએ રાખેલું ‘ વર્ધમાન ” નામ, તપશ્ચર્યા આદિના સામર્થ્યને सीधे 'श्रम' न्द्रे राजेषु' 'महावीर' (सू०६८)
( ઇતિ પંચમ વાંચના )
2203
कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतो
नामकर णम्.
118011
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥९
॥
बाला ममं पेमालुणो अम्मापिउणो कहिस्संति, ते णं मं उबद्दवसंकुलं विष्णाय मा खेयखिन्ना हवंतु-त्ति सिग्य तं दुरासयं दिविसय नमइउं तप्पिट्ठमज्झासीणो एव पहू मूढगदासयण्ण तप्पिटवरि नियसरीरस्स अप्फारं भारं आरोवी। तेणं सो दुरासो देवो तारेण सरेण चिकरिय पुढवीतले निवडिओ। तए णं देवाणं जयज्झुणी सुरज्युणि समजणि । तए णं णयग्गीवो सो देवो खामियदेवाहिदेवो पत्तसम्मत्तो सयधामं पत्तो ॥मू०७०||
छाया-ततः खलु भगवान् महावीरः क्रमेण धवल-दल-विलस-द्वितीया-चन्द्र इव सौम्यकरैः सद्गुणनिकरैः गिरिकन्दरा-ऽऽलीनश्चम्पकपादप इव वयसा संवर्द्धते । एवं स भगवान् महावीरो मयरपक्षकाकपक्षशोभिभिः सक्योभिः शिशुभिः सार्द्ध बालवयोऽनुरूपं गोपितस्वरूपं क्रीडति ।
एकदा देवलोके देवगणालङ्कृतायां सुधर्मायां सभायां समासीनः शुनासीरः सौधर्मेन्द्रः अनुपमगुणैर्वर्धमानस्य वर्धमानस्य प्रभोः पराक्रमं वर्णयितुमुपक्रमते, तं श्रुत्वा निशम्य सर्वे देवा देव्यश्व हर्षवशविसर्पहृदयाः संजाताः।
भगवतो बाल्या वस्थावर्ण
नम्.
मूल का अर्थ-'तए णं इत्यादि । तब क्रम से, शुक्ल पक्ष की द्वितीया का चन्द्र जैसे अपनी सौम्य किरणों से बढ़ता है उसी प्रकार भगवान् महावीर सद्गुणों के समूह से, तथा जैसे पर्वत की गुफा में स्थित चम्पक-वृक्ष क्रम से बढ़ता है उसी प्रकार क्य से, बढ़ने लगे। इस प्रकार भगवान् महावीर मयरपक्ष से सुशोभित चोटी से शोभायमान समवयस्क शिशुओं के साथ, अपने असली स्वरूप को गोपन करके, बाल्यावस्था के अनुरूप क्रीड़ा करने लगे।
एक बार देवलोक में देव-समूह से अलंकृत सुधर्मा सभा में बैठे हुए इन्द्र सौधर्मेन्द्रने अनुपम गुणों से बढ़ते हुए वर्धमान प्रभु के पराक्रम का वर्णन करना आरंभ किया। उसे सुनकर और समझकर सभी देवों और देवियों का हृदय, हर्ष के वशीभूत होकर खिल गया। किन्तु उनमें से प्रभु के पराक्रम की
છે
भूसना मयं-'तए 'त्याहि.भ शुस पक्षन। यद्रमा, हिन-प्रतिहिन सामेमा त य छ તેમ ભગવાન મહાવીર પણ, સદૂગુણમાં વૃદ્ધિ પામવા લાગ્યાં. જેમ પર્વતની ગુફામાં ઉગેલ ચંપક વૃક્ષ, ક્રમે ક્રમે હોં વિકાસ પામે છે, તેમ ભગવાન પણ વયથી વૃદ્ધિ પામવા લાગ્યાં.
મેરની પાંખથી સુશોભિત ચોટલીવાલ સમાન વયના સુંદર મિત્રો સાથે, ભગવાન પિતાનું પરાક્રમ ગેપવી રાખીને, વાયાવરથાને અનુરૂપ કીડાઓ અને રમત કરવા લાગ્યાં.
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श्री कल्प
कल्प
मञ्चरो
टीका
र तत्र कोऽपि मिध्यादृष्टिदेवस्तं प्रभुपराक्रममहिमानम् अश्रद्दधान ईर्ष्यालुकोऽङ्गीकृतदुर्भावनो मनुष्यलोकं शीघ्रमागम्य
बालैः क्रोडन्तं भगान्तं निजपृष्ठे समारोप्य सक्रियशक्या शरीरं सप्ताष्टतालतरुपरिमितं लम्बमानं विकृत्य प्रभुं जिघांमुर्मुष्टया निर्भरं प्रहरन् उपर्या काशतलादधः पातयितुमारब्ध, तद् दृष्ट्वा तत्क्षणमेव प्रकृतिभीरवः शिशवः शीघ्रं शीघ्र पलायितुमारब्धाः, चातुरीचुच्चुः प्रभुरवधिना देवकृतमुपद्रवं ज्ञात्वा एवं चिन्तयति--यदेते बाला मम प्रेमवन्तौ अम्बापितरौ कथयिष्यन्ति, तौ खलु माम् उपद्रवसङ्कलं विज्ञाय मा खेदखिन्नौ भवताम्-इति शीघ्र महिमा पर विश्वास न करता हुआ, ईर्षालु तथा दुर्भावना को अंगीकार करनेवाला एक मिथ्यादृष्टि देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आया। उसने बालकों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान् को अपनी पीठ पर बिठा कर, अपनी वैक्रिय शक्ति से अपने शरीर को सात-आठ ताड़के वृक्षों जितना लम्बा (ऊँचा) कर लिया। वह भगवान् का हनन करना चाहता था। अतः उन्हें ऊँचे आकाशतल से नीचे गिराना आरंभ
किया। यह दृश्य देवकर स्वभाव से डरपोक बालक उसी क्षण जल्दी-जल्दी भागने लगे। अपनी चतुराई NRN के लिए प्रसिद्ध प्रभुने अवधिज्ञान से इस उपद्रव को देवकृत जानकर इस प्रकार विचार किया-'यह बालक मेरे स्नेहशील माता-पिता से कहेंगे। वे मुझे उपद्रव में फँसा हुआ समझकर खेदखिन्न न हों, इस प्रकार
કેઈ એક વખતે, દેવલોકમાં, દેના સમૂહ વચ્ચે બેઠેલા પહેલા દેવકના ઈન્દ્ર સૌધર્મેન્દ્ર ભગવાનના અનુપમ ગુણેનું વર્ણન કરવાનું શરુ કર્યું. આ સાંભવી, સર્વ દેવ-દેવીઓના હદ હર્ષથી પુલકિત થયાં.
આ દેવા મળે કેઈ એક દેવને, પ્રભુના પરાક્રમના મહિમા ઉપર વિશ્વાસ બેઠો નહિ, તેથી શીuપણે મૃત્યુલોકમાં આવ્યું. આ દેવ, તે વખતે મિથ્યાષ્ટિ ગણા, તેમજ તેના સ્વભાવ ઈષ્યવાળા અને દુભવવાળા હતા.
આ દેવ, મૃત્યુલોકમાં આવીને, જ્યાં ભગવાન પોતાના સમાન વયસ્ક બાળક સાથે રમત રમતાં હતાં, ત્યાં પહોંચી ગયું, પહોંચ્યા બાદ, તુરતજ ભગવાનને પિતાની પીઠ પર બેસાડી દીધાં, ને પિતાની વૈક્રિય શક્તિના પ્રતાપે, પિતાનું શરીર સાત-આઠ તાડ-વૃક્ષે જેટલું, ઉંચુ બનાવી દીધું. કારણ કે આમ કરીને, તે ભગવાનનું હનન કરવા માંગતા હતા. આમ ઉચકીને, આકાશમાંથી નીચે પૃથ્વી પર પછાડવાનું શરું કર્યું.
આવું દશ્ય જોઈ, સ્વભાવથી ડરપોક એવા બાળકે, નાસભાગ કરવા લાગ્યાં. પ્રભુ તે ચતુર અને વિચક્ષણ હતાં. તેમણે અવધિજ્ઞાન-દ્વારા જાણી લીધું કે, આ ઉપદ્રવ દેવકૃત છે. આ બાળકે મારા માતા-પિતા પાસે જઈ, a भारी थानु (११२५ ४ ता, मिन्न यथे.
भगवतो बाल्यावस्थावणे
नम् .
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॥९२॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
॥ ९३॥
टीका
तं दुराशयं दिविषदं नमयितुं तत्पृष्ठमध्यासीन एवं प्रभुमंढगूढाशयज्ञस्तत्पृष्ठोपरि निजशरीरस्यास्फारं भारमारोपयत्। तेन स दुराशयो देवस्तारेण स्वरेण चीस्कृत्य पृथिवीतले निपतितः। ततः खलु देवानां जयध्वनिः मुराध्वनि समजनि । ततः खलु नतग्रीवः स देवः क्षामितदेवाधिदेवः पाप्तसम्यक्त्वः स्वकधाम माप्तः ॥०७०॥ ' टीका-'तए णं भगनं मागवीरे' इत्यादि। ततः नामकरणानन्तरं खलु सद्गुणनिकरैः सद्गुणस भगवान् महावीरः सौम्यकरैः आहादककिरणः धवलदलविलसद्वितीयाचन्द्र इव-धवलदले शुक्लपक्षे विलसन्-विराजमानो यो द्वितीयाचन्द्रः बालचन्द्रमाः स इ . तथा-गिरिकन्दराऽऽलीन:-पर्वतगुहास्थितः चम्पकवृक्ष इव वयसा क्रमेण संवर्धते । एवम् अनेन प्रकारेण स भगवान् महावीरो मयूरपक्षकाकपक्षशोभिभिः-मयूरपक्षसुशोभितेन सोचकर दुष्ट-आशय-वाले उस देव को नमाने के लिए, उसकी पीठ पर चढ़े-चढ़े ही, उस मूढ़ के गूढ़ आशय को जाननेवाले प्रभुने अपने शरीर को थोडा सा भारी कर दिया। इस कारण दुष्टाशय देव उच्च स्वर से चीत्कार करके भूतल पर गिर पड़ा। तब आकाश में देवों ने जय-जयकार की ध्वनि की। तत्पश्चात् नतग्रीव-भगवान् के चरणों पर गिरा हुआ वह देव भगवान् से अपना अपराध खमाया और सम्यक्त्व लाभ करके अपने स्थान पहुंचा । मू०७॥
टीका का अर्थ-'तए' इत्यादि । नामकरण के बाद भगवान महावीर क्रमशः अपने सदगुणों के समूह से उसी प्रकार बढ़ने लगे, जैसे शुक्लपक्ष में विराजमान द्वितीया का चन्द्रमा बढ़ता है, तथा वय से ऐसे बढ़ने लगे जसे पति की गुफा में स्थित चम्पक वृक्ष बढ़ता है। इस प्रकार वह भगवान् मयूर के पांखों
भगवतो बाल्यावस्थावर्ण
नम्.
આવું વિચારી, ભગવાને, આ દેવના સાન ઠેકાણે લાવવા માટે, તેની પીઠ પર બેઠા બેઠા, પિતાનું શરીરનું વજન વધારી દીધું, અસહ્ય ભારને લીધે, આ દેવ વાંકા વળી ગયો, ને રાડ નાખી, પૃથ્વી પર પટકાઈ ગયે.
सातभा , माशना देवाय ' या' शण्होनी घोषणा श. ही ५ मा देव, सग. વાનના ચરણમાં આવી નમી પડયો. ને થયેલ અપરાધની માફી માંગી. પિતાને મિથ્યાત્વભાવ તજી, સાચી સમજણું RSS स्वस्थान निहाय थयो. (सू०७०) हमार हान अर्थ -'तपणं' त्याlt. नाम४२५ पछी भगवान महावीर मश: पोताना सहशुशोना सभूक्षयी
એવી રીતે વધવા લાગ્યા કે જેમ અજવાળિયામાં બીજને ચન્દ્ર વધે છે. વળી પર્વતની ગુફામાં રહેલ ચમ્પક વૃક્ષ . જેમ વધે છે તેમ વયમાં વધવા લાગ્યાં આ રીતે તે ભગવાન મહાવીર પિતાના મહાન શક્તિમય સ્વરૂપને
॥१३॥
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ational
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श्रीकल्प
मुत्रे
कल्पमञ्जरी टीका
॥९४॥
काकपक्षण-शिखण्ड केन शोभनशीलैः सवयोभिः समानायस्कैः शिशुभिः बालेः सार्द्ध-सह बालवयोऽनुरूपंबाल्यावस्थानुसारं गोपितस्वरूपं प्रच्छादितमहाशक्तिरूपस्वरूपं यथा स्यात्तथा क्रीडति ।
एकदा एकस्मिन् समये देवलोके देवगणालङ्कृतायां-मुरसमूहशोभितायां सुधर्मायां सभायां समासीन:उपविष्टः सौधर्मेन्द्रः सौधर्मकल्पस्वामी शुनासीरः इन्द्रः अनुपम गुणैः वर्धमानस्य वृद्धिं गच्छतो वर्धमानस्य प्रभोः पराक्रम-बलं वर्णयितुमुपक्रमते-पारभते । तं-पराक्रमं वर्ण्यमानं श्रुत्वा सामान्यतः कर्णगोचरं कृत्वा निशम्य= हृधवधार्य सर्वे देवा देव्यश्च हर्षवंशविसर्पहृदयाः अतिहर्षोत्फुल्लमानसाः संजाताः। तत्र देवदेवीगगमध्ये कोऽपि= कश्चिद् मिथ्यादृष्टिः विपरीतरुचिर्दैवः तं प्रभुपराक्रममहिमान महावीरस्वामिसामर्थ्यमहत्वम् अश्रद्दधानः= श्रद्धाविषयमकुर्वन् ईर्ष्यालुकाईयावान , अत एव अङ्गीकृतदुर्भावनः स्वीकृतदुष्टभावः सन् मनुष्यलोकं मर्त्यलोकं से युक्त चोटियों से सोहनेवाले, समान वयवाले बालकों के साथ, बाल्यावस्था के योग्य, अपने महान् शक्तिमय स्वरूप को छिपा कर, क्रीड़ा करने लगे।
एक समय देवलोक में देवगणों से सुशोभित मुधर्मा नाम की सभा में सौधर्म देवलोक के स्वामी इन्द्र बठे हुए थे। उन्होंने अपने अनुपम गुणों से वर्धमान (बढ़ते हुए) वर्धमान प्रभु के बल-पराक्रम का वर्णन आरंभ किया। उस वर्णन किये जानेवाले पराक्रम को कानों से सुनकर और हृदय में धारण करके सब देवों और देवियों का मानस हर्ष से विकसित हो गया। उन देव-देवियों में से किसी एक मिथ्यादृष्टि देव को भगवान महावीर के पराक्रम की महिमा पर विश्वास नहीं हुआ। वह ईर्ष्यालु था, अतः उसके मनमें दुर्भावना उत्पन्न हो गई। वह तत्काल ही मनुष्यलोक में आया और बालकों के साथ क्रीड़ा છુપાવીને મોર પીંછાવાળી શિખાઓથી શોભતાં સમવયસ્ક બાળકની સાથે ક્રિીડા કરવા લાગ્યાં.
એક વખત દેવલોકમાં દેવગણેથી સુશોભિત સુધમાં નામની સભામાં સૌધર્મ દેવકના સ્વામી ઈન્દ્ર બેઠેલ હતાં. તેમણે પિતાના અનુપમ ગુણેથી વર્ધમાન (વધતાં) વર્ધમાન પ્રભુનાં બળ-પરાક્રમનું વર્ણન કરવા માંડયું. તે પરાક્રમનું વર્ણન કાનથી સાંભળીને તથા હૃદયમાં ધારણ કરીને સઘળાં દેવ-દેવીઓનાં મન હર્ષથી વિકસિત થયાં.
તે દેવ-દેવીઓમાંથી કઈ એક મિયાદૃષ્ટિ દેવને ભગવાન મહાવીરના પરાક્રમના મહિમા પર વિશ્વાસ આવ્યો નહીં. છે તે ઈર્ષાળુ હતું તેથી તેના મનમાં દુર્ભાવના ઉત્પન્ન થઈ. તે તરત જ મનુષ્ય લેકમાં આવ્યો અને બાળકોની સાથે
भगवतो बाल्या वस्थावर्ण
नम्.
॥१४॥
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श्रीकल्प
कल्प
शानम् आगम्य बाला सह क्राडन्त रममाण भगवन्त वधमानस्वामन निजपृष्ठ स्वपृष्ठापार समाराधसंस्थाप्य स्वकवैक्रियशक्त्या-निजवक्रियसामर्थ्येन शरोरंन्देई. समाष्टतालतरुपमितं सप्ताष्टसंख्यतालवृक्षप्रमाणं, लम्बमानंदी विकृत्य-निर्माय प्रभु-महावीरस्वामिनं जिघांसुः इन्तुमिच्छुः उपरि-ऊर्ध्वात् आकाशतलात्गनमण्डलात् अधः-नीचः पातयितुम् आरब्ध । तत् दृष्ट्वा तत्क्षणमेत्र प्रकृतिभीरवः स्वभावकातराः शिशवो बालाः, शीघं शीघ्रम् अतिशीघ्रं पलायितुमारभन्त । चातुरीचुच: स्वचातुर्येण प्रसिद्धः, प्रमुा-महावीरस्वामी अवधिना अवधिज्ञानोपयोगेन देवकृतम् उपद्रवम् उपसर्ग ज्ञात्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारं चिन्तयति, यत् एते बालाः मम प्रमवन्तो-स्नेहयुक्तो अस्वापितरो कथयिष्यन्ति-देवकृतोपद्रवं निवेदयिष्यन्ति, तच्छ्रत्वा तो खलु माम् उपद्रवसङ्कुलम् उपसर्गयुक्तं विज्ञाय खेदखिन्नौ-दुःखभाजौ मा भवताम् इति चिन्तयित्वा शीघ्रं तं दुराशयं=
मञ्जरी
||९५||
टीका
भगवतो बाल्यावस्थावणे
नम्.
करते हुए भगवान् वर्द्धमान स्वामी को अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। उसने अपना वक्रियशक्ति से अपने शरीर को सात-आठ ताड़ वृक्षों-जितना लम्बा-ऊँचा बना कर महावीर स्वामी का इनन करने की इच्छा की। उसने प्रभुको ऊँचे आकाशतल से नीचे गिराना आरंभ किया।
यह दृश्य देख कर स्वभाव से भीरु बालक उसी समय भागने लगे। अपनी चतुराई से प्रसिद्ध महावीर स्वामीने, अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर जान लिया कि यह उपसर्ग देव का किया हुआ है। तब उन्हों ने इस प्रकार सोचा-ये बालक मेरे स्नेहशील माता-पिता से कहेंगे-अर्थात् देवकृत इस संकट की बात उन्हें बतायेंगे। उसे सुनकर माता-पिता मुझे संकट-ग्रस्त जानकर चिन्तायुक्त न बनें, इस प्रकार કીડા કરતાં ભગવાન વિદ્ધમાન સ્વામીને પિતાની પીઠ પર બેસાડી દીધાં. તેણે પિતાની વૈકિય શક્તિથી પિતાનાં શરીરને સાત-આઠ તાડ જેટલું ઊંચું બનાવીને મહાવીર સ્વામીની હત્યા કરવાની ઈચ્છા કરી. તેણે મહાવીર પ્રભુને ઊંચા આકાશતલમાંથી નીચે ફેંકવાનું શરૂ કર્યું.
આ દશ્ય જોઈને ડરપોક સ્વભાવનાં બાળકે તે તરત જ તાસવાં લાગ્યાં. પિતાની ચતુરાઈથી પ્રસિદ્ધ મહાવીર સ્વામીએ, અવધિજ્ઞાનને ઉપયોગ કરીને જાણ્યું કે આ ઉપસર્ગ દેવ વડે કરાયેલ છે. ત્યારે તેમણે આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો-તે બાળકે મારાં ને હાલ માતા-પિતાને આ આફતની-દેવથી કરાયેલ આ ઉપસર્ગની વાત કરશે. તે સાંભળીને માતા-પિતા મને સંકટમાં મૂકાયેલ જાણીને ચિંતા ન કરે, એવો વિચાર કરીને તરત જ તે
॥९५॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥९६॥
टीका
दुष्टभावं दिविषदं देवं नमयितुं नम्रीकतुं तत्पृष्ठम् अध्यासीनः उपविष्ट एव प्रभुः वीरस्वामी मूढगूढाशयज्ञःमूढस्य तस्य देवस्य यो गृहाशयः प्रच्छन्नभावः तज्ज्ञः तज्ज्ञाता तत्पृष्ठोपरि निजशरीरस्य अस्फारं स्वल्पं भारम् आरोपयत् स्थापितवान् । तेन-प्रभुकृतशरीरस्वल्पभारस्थापनेन तं स्वल्पभारमप्यसहमानः स दुराशयःदुरात्मा देवः तारेण अत्युच्चैः स्वरेण चीत्कृत्य-चीत्कारं कृत्वा पृथिवीतले निपतितः। ततः तत्पतनानन्तरं खलु देवानां जयध्वनिः जयशब्दः सुराध्वनि आकाशे समजनि=अभूत् । ततः खलु नतग्रीवः-नता ग्रीवा यस्य स तथा, प्रभुचरणार्पितशिरा इत्यर्थः, स देवः क्षामितदेवाधिदेवः-क्षामितः क्षमांकारितः देवाधिदेवः सर्वदेवनाथः स्वापराधपरिमार्जनाय येन स तथाभूतः सन् प्राप्तसम्यक्त्वा लब्धसम्यक्त्वः स्वकधाम-निजस्थान प्राप्तो गतवान् ॥सू०७०॥
मूलम् -तए णं अण्पया कयाइं पहुस्स अम्मापिउणो सयलकलाकलियंपि ललियवच्छल्लेणं कलाकलावं सिक्खेउं महामहेणं महोवहारेणं अणवज्जेसु बजेसु वज़माणेसु पउरपरिवारपरियरियं तं कलायरियसविहे णिति । भयवं उ अोहिण्णू अवि अभिष्णुमुदाए अम्मापिऊणमणुरोहेण कलायरियपासे पहिओ। पहुस्स सोहणमागमणं अवगमिय कलायरिओ पसन्नो उच्चासणमज्झासीणो अहीणपमोयपीणो अहुणेव तरलतरहारो अणुगयपरिवारो रायकुमारो भासमाणो बद्धमाणो ममंतिए आगमिस्सइ-त्ति कटु तप्पडिच्छं करोष। किंतु खंडिय-कला-मंडिओ
भगवतो बाल्यावस्थावर्ण
विचार करके शीघ्र ही उस दुष्ट अभिप्राय वाले देव को नमाने के लिए, देव की पीठ पर चढ़े-चढ़े ही अपने शरीर को थोड़ा-सा भारी कर दिया। प्रभु के शरीर का स्वल्प भार पड़ने पर वह देव उसे भी सहन न कर सका। दुरात्मा देव बहुत उच्च-स्वर से चीत्कार करके पृथ्वीतल पर आ गिरा। उसके गिरने पर आकाश में देवी की जयध्वनि हुई। तत्पश्चात् भगवान् के चरणों पर शिर रख कर वह उपद्रव करने वाला देव भगवान् से अपना अपराध खमाया और सम्यक्त्व प्राप्त कर अपने स्थान पर चला गया ।मु०७०॥
॥१६॥
દુષ્ટ આશયવાળા દેવને નમાવવા માટે દેવની પીઠ પર રહેલાં એવાં તેમણે પોતાનાં શરીરને થોડું ભારે કર્યું. પ્રભુનાં શરીરના ડો ભાર વધતાં જ તે દેવ તેને પણ સહન કરી શકાય નહીં. દુષ્ટ દેવ ઘણું ઊંચા સ્વરે ચીસ પાડીને ભૂતલ પર આવીને પડ્યો. તેને પડતાં જ આકાશમાં દેએ જયનાદ કર્યો. ત્યાર બાદ ભગવાનનાં ચરણો પર પિતાનું મસ્તક મૂકીને તે ઉપદ્રવ કરનાર દેવ ભગવાન પાસે પિતાના અપરાધની ક્ષમા માગીને તથા સમ્યકત્વ iभी पोतानां स्थाने य.च्यो गयो. (सू०७०)
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥९७||
टीका
पंडिओ कि अखंडकलामंडियं तं पुरिमुत्तमं सयलाणवज-विजाहिहाइ-देवया-विहेय-वंदणं भयवं पाढिउं सक्किज्जा ?, परिसुद्ध कंचणं किं सोहिज्जा?, अंबतरू तोरणेहिं कि अलंकरिज्जा!, अमयं महुरदम्वेहि किं वासिज्जा?, सरस्सई पाठविहिं कि सिक्खिज्जा?, चंदम्मि धवलत्तं किं आरोविज्जा?, सुवणं सुवण्णजलेण किं परिकरिज्जा?, जो भयवं णाणतिगमहालओ महाविण्णाणजलही महासामत्थणिही महाबुद्धी महाधीरो महागंभीरो य अत्थि सो अप्पणाणिणो अंतिए पढिउं गच्छिज्जत्ति महं असमंजसं। एयाए पवित्तीए देवलोए सुहम्माए सहाए सकस्स देविंदस्स देवरण्यो पासणं चलियं । तए णं आसणे चलिए समाणे ओहिणा आभोगिय सकिंदो सिग्धं तओ पट्टिो माहणरूवेण पहुसमीवे आगमिय पहुं उच्चासणे उवणि वेसिय जार पहाई कलायरियहियए संसयरूवेण ठियाइं ताई चेव पहाई पुच्छेइ, तत्थ इंदेण वागरणविसयं पण्डं कयं, भगवया तं वागरिय संखेवेण सव्वं वागरणं कहियं । तओ पच्छा इंदेण णयप्पमाणसरूवं पुच्छियं तं भगवया संखेवेण आघविय सव्वं णायमम्मं पयासियं । तो पच्छा तेण धम्मविसए पुच्छियं । भगवया धम्मसरूवं आघवमाणेणं उबसमो
आपविओ, उवसमं आघवमाणेणं विवेगो आपवित्रओ, विवेगं श्रापत्रमाणेणं विरमणं आववियं, विरमणं आघवमाणेणं पावाणं कम्माणं अगरणं आपवियं, तं आघवमाणेणं णिज्जराबंधमोक्खसरूवं आपवियं ।। सू०७१ ॥
छाया-ततः खलु कदाचित् प्रभोः अम्बापितरौ सकलकलाकलितमपि ललितवात्सल्येन कलाकलापं शिक्षयितुं महामहेन महोपहारेण अनवधेषु वाधेषु वाद्यमानेषु प्रचुरपरिवारपरिकरितं प्रभुं कलाचार्यसविधे नयतः। भगवांस्तु अवधिज्ञोऽपि अनभिज्ञमुद्रया अम्बापित्रोरनुरोधेन कलाचार्यपार्श्व प्रस्थितः। प्रभोः शोभनमागमनम्
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात किसी समय प्रभु के माता-पिता ने सकल कलाओं के ज्ञान से युक्त प्रभु को अतिशय वात्सल्य के कारण कला-कलाप सीखने के लिए बड़े उत्सव __ और बहुत उपहारों के साथ तथा विपुल परिवार के साथ कलाचार्य के समीप भेजा। उस समय मनोहर बाजे बज रहे थे। भगवान् अवधिज्ञानी होने पर भी अनभिज्ञ-सरीखी आकृति बनाये, माता-पिता के
भूजन। मथ-"तए णं" त्याहि त्या२ मा ४ समये भगवानना भातापितामे सण जामाना જ્ઞાનથી યુક્ત ભગવાનને અતિશય વાત્સાયને કારણે કળાએ શીખવાને માટે મોટા ઉત્સવ તથા ઘણી જ ભેટ-સોગાદો સાથે તથા વિપુલ પરિવારની સાથે કરાચાર્યની પાસે મોકલ્યાં, તે સમયે વાજાં વાગતાં હતાં. ભગવાન અવધિજ્ઞાની હેવા છતાં પણ અજાણ્યા જેવી મુખાકૃતિ રાખીને, માતા-પિતાના અનુરોધથી કલાચાર્યની પાસે જવા રવાના થયાં.
भगवतः कलाचार्य
समीपे प्रस्थाना
दिवर्णनम्.
year
॥९७॥
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श्रीकल्प
मुत्र ॥९८॥
___ अवगम्य कलाऽऽचार्यः प्रसन्न उच्चासनमध्यासीनः अहीनप्रमोदपीनः अधुनैव तरलतरहारोऽनुगतपरिवारो राजकुमारो
भासमानो वर्धमानो ममान्तिके आगमिष्यतीति कृमा तत्पतीक्षामकरोत् । किन्तु खण्डितकलामण्डितः पण्डितः किमखण्डकलामण्डितं तं पुरुषोत्तमं सकला-नवद्य-विद्या-धिष्ठात देवता-विधेय-चन्दनं त्रिशलानन्दनं भगवन्त पाठयितुं शक्नुयात ?, परिशुद्धं काञ्चनं किं शोध्येत?, आम्रतरुः तोरथैः किमलक्रियेत?, अमृतं मधुरद्रव्यः किं वास्येत ?, सरस्वती पाठविधि कि शिक्ष्येत ?, चन्द्रे धवलयं किम् आरोप्येत?, सुवर्ण सुवर्णजलेन किं परिष्क्रियेत?, यो भगवान् ज्ञानत्रिकमहालयो महाविज्ञानजलधिः महासामर्थ्यनिधिः महाबुद्धिः महाधीरो महा
अनुरोध से कलाचार्य के निकट जाने को रवाना हुए। भगवान् का शुभागमन जान कर कलाचार्य प्रसन्न हुआ। ऊँचे आसन पर बैठ गया। अतिशय प्रमोद से फूल गया। अनुपम हार का धारक परिवारसमेत राजकुमार अभी मेरे पास आने वाला है, ऐसा सोच कर उसकी प्रतीक्षा करने लगा। किन्तु थोड़ी-सी कला को जानने वाला पण्डित, सकल कलाओं से सुशोभित, समस्त समीचीन विद्याओं के अधिष्ठायक देवता द्वारा बन्दना करने योग्य त्रिशला-तनय पुरुषोत्तम भगवान् को क्या पढा सकता था! पूर्णरूपसे शुद्ध सुवर्णको क्या शोधा जाय! आम्र वृक्ष को तोरणों से क्या सिंगारा जाय ! अमृत को मधुर द्रव्यों से क्या वासित किया जाय ! सरस्वती को पढ़ना क्या सिखाया जाय ! चन्द्रमा पर ऊपर से क्या सफेदी पोती जाय ! सोने पर सोने का पानी चढ़ा कर क्या चमकाया जाय ! जो भगवान् तीन ज्ञान के महान् स्थान थे, विपुल विज्ञान के वारिधि थे, महान् सामर्थ्य के भण्डार थे, महाबुद्धिशाली, महाधीर और
भगवतः कलाचार्य___ समीपे
प्रस्थानाएक दिवर्णनम्.
ભગવાનનું શુભ આગમન જાણીને કળાચાર્ય પ્રસન્ન થયાં, ઊંચા આસને બેસી ગયાં, અતિશય આનંદથી ખિલી ઉઠયાં. અનુપમ હારને ધારણ કરનાર રાજકુમાર વર્ધમાન પરિવાર સાથે હમણાં જ મારી પાસે આવવાના છે એમ વિચારીને તેમની રાહ જોવા લાગ્યા, પણ થોડી એવી કળાને જાણનાર તે પંડિત, સઘળા કળાઓથી સુશોભિત, સમસ્ત સમીચીત વિદ્યાઓના અધિષ્ઠાયક દેવતા દ્વારા વંદના કરવાને પાત્ર ત્રિશલાના પુત્ર પુરુષોત્તમ ભગવાનને શું ભણાવી શકવાને હતે? પૂર્ણ રીતે શુદ્ધ સુવણને તાવવાથી શું વળે? આંબાને તરણેથી શું શણગારી શકાય! અમૃતને મધુર દ્રવ્યથી શું સ્વાદિષ્ટ કરી શકાય! સરસ્વતીને શું ભણાવી શકાય! ચન્દ્રમાં પર ઉપરથી શું સફેદી લગાડી શકાય! સોના પર સેનાનું પાણી ચડાવીને શું તેને વધારે ચળકતું બનાવી શકાય! જે ભગવાન ત્રણ જ્ઞાનનું મહાન સ્થાન
॥९८॥
છે
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श्रीकल्प
मए गम्भीरश्च अस्ति, सोऽल्पज्ञानिनोऽन्तिके पठितुं गच्छेदिति महदसमञ्जसम् । एतया प्रवृत्त्या देवलोके सुधोयां
सभाया शक्रस्य देवन्द्रस्य देवराजस्य आसनं चलिनम् । ततः खलु आसने चलिते सति अधिना आभुज्य शक्रेन्द्रः शीघ्रं ततः प्रस्थितो ब्राह्मणरूपेग प्रभुसमीपे आगत्य प्रभुमुच्चासने उपनिवेश्य ये प्रश्नाः कलाऽऽचायेहृदये संशयरूपेण स्थिताः तान् एव प्रश्नान् पृच्छति। तत्र इन्द्रेण व्याकरणविषयः प्रश्नः कृतः, भगवता तं व्याकृत्य सङ्क्षेपेग सब व्याकरणं कथितम् । ततः पश्चात् इन्द्रेण नयनाणसरूपं पृष्टम् , तद् भगरता सङ्क्षेपेण
मा
कल्पमञ्जरी टीका
महागंभीर थे, वे अल्पज्ञानी के पास पढ़ने जाएँ, यह बड़ी हो अट-पटी बात थी!
इस पत्ति से देवलोक में. सधर्मा सभा में, शक्र देवेन्द्र देवराज का आसन चलायमान हुआ। तब आसन चलित होने पर अधिज्ञान से जान कर शकेन्द्र शीघ्र ही वहाँ से आये। ब्राह्मण का रूप
धारण करके, प्रभु के पास आकर और प्रभु को ऊँवे आसन पर आसीन करके. जो प्रश्न कलाचार्य के हम हृदय में संदिग्ध-रूप में स्थित थे, वही प्रश्न पूछे। इन्द्र ने पहले व्याकरण के विषय में प्रश्न किया। मा भगवान् ने उसका उत्तर देकर संक्षेप में सारा व्याकरण कह दिया। तत्पश्चात् इन्द्र ने नय और
प्रमाण का स्वरूप पूछा। तब भगवान् ने संक्षेप में समाधान करके न्याय का समस्त रहस्य प्रकाशित कर दिया। तत्पश्चात् उसने धर्म के विषय में प्रश्न किया। धर्म का स्वरूप बतलाते हुए भगवान् ने उपशम
भगवतः कलाचार्यसमीपे
दिवणेनम्.
હતાં, વિપુલ વિજ્ઞાનનાં સાગર હતાં, મહાન સામર્થ્યનાં ભંડાર હતાં, મહાબુદ્ધિશાળી, મહાધર, અને મહાગંભીર વિષ્ણુ હતાં, તે અલ્પજ્ઞાનીની પાસે ભણવા જાય તે ઘણી જ અટપટી વાત હતી.
આ પ્રવૃત્તિથી દેવલોકમાં, સુધમાં સભામાં, શક દેવેન્દ્ર દેવરાજનું આસન ચલાયમાન થયું. ત્યારે આસન ચલિત થવાનું કારણ તરત જ અવધિજ્ઞાનથી જાણી શકે તરત જ ત્યાંથી બ્રાહ્મણનું રૂપ લઈને, પ્રભુની પાસે
॥९९ આવીને અને પ્રભુને ઊંચે આસને બેસાડીને, જે પ્રશ્નો કલાચાર્યનાં હદયમાં સંદિગ્ધરૂપે રહેલા હતા, એજ પ્રશ્નો ભગવાનને પૂછયાં. ઈન્કે પહેલાં વ્યાકરણના વિષયમાં પ્રશ્ન પૂછયે. ભગવાને તેને જવાબ આપીને સંક્ષિપ્તમાં આખું
વ્યાકરણ કહી દીધું. ત્યારબાદ ઈન્દ્ર “નય’ અને ‘પ્રમાણુ” નું સ્વરૂપ પૂછ્યું. ત્યારે ભગવાને સંક્ષિપ્તમાં સમાધાન ન કરીને ન્યાયનું સમસ્ત રહસ્ય પ્રકાશિત કરી દીધું. ત્યારબાદ્ધ તેણે ધર્મના વિષયમાં પ્રશ્ન પૂછ. ધમનું સ્વરૂપ હાઈ
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श्रीकल्पसूत्रे
॥१००॥
आख्याय सर्व न्यायमर्म प्रकाशितम् । ततः पश्चात्तेन धर्मविषये पृष्टम् । भगवता धर्मस्वरूपम् आचक्षाणेन उपशम आख्यातः, उपशममाचक्षाणेन विवेक आख्यातः, विवेकम् आचक्षाणेन विरमणम् आख्यातम्, विरमणम् आचक्षाणेन पापानां कर्मणाम् अकरणम् श्राख्यातम्, तत् आचक्षाणेन निर्जराबन्धमोक्षस्वरूपमाख्यातम् ||०७१।। टीका- 'तए णं अण्णा' इत्यादि । ततः खलु अन्यदा कदाचित् प्रभोः = महावीरस्वामिनः, अम्बापितरौ = मातापितरौ, सकलकलाकलितमपि = सर्वकलावन्तमपि ललितवात्सल्येन = अतिशयप्रेम्णा कलाकलापं = कलासमूहं - कलाशिक्षां शिक्षयितुं = ग्राहयितुं महामहेन = महोत्सवेन महोपहारेण = पुष्कलोपायनेन अनवद्येषु = शोभनेषु वाद्येषु = वादित्रेषु वाद्यमानेषु प्रचुरपरिवार परिकरितं = बहुपरिजनपरिवेष्टितम्, प्रभुं = श्रीमहावीरस्वामिनं कलाचार्यसविधे = कलाशिक्षकपार्श्वे नयतः = प्रापयतः, भगवान् = श्रीवर्धमानस्तु अवधिजोऽपि = अवधिज्ञानसम्पन्नोऽपि अनभिज्ञमुद्रया=अजानानस्येव चेष्टया अम्बापित्रोरनुरोधेन = आग्रहेण कलाचार्यपार्श्वे = कलाशिक्षकनिकटे प्रस्थितः = प्रययौ | कहा, उपशम कहते हुए विवेक कहा, विवेक कहते हुए विरमण कहा, विरमण कहते हुए पाप कर्मों का अकरण ( न करना) कहा, पाप कर्मों का अकरण कहते हुए निर्जरा, बंध और मोक्ष का स्वरूप कहा ||०७१।। टीका का अर्थ - तए णं' इत्यादि । तदनन्तर किसी समय भगवान् महावीर स्वामी के माता-पिता ने समस्त कलाओं के ज्ञाता प्रभु को भी प्रगाढ प्रेम के कारण, कलाओं का ज्ञान प्राप्त कराने के लिए महोत्सव के साथ, भारी भेंट के साथ, मनोहर गाज-बाजों के साथ और बहुत बड़े परिवार के साथ, कलाशिक्षक के समीप पहुँचाया। भगवान् वर्धमान अवधिज्ञान से विभूषित होकर भी अनजान की सी चेष्टा करके, माता-पिता के आग्रह से कलाचार्य के समीप पधारे। कलाचार्य, श्रीवर्धमान स्वामी का शोभन
બતાવતા ભગવાને ઉપરામ કહ્યો, ઉપશમની સાથે વિવેક કહ્યો, વિવેકની સાથે વિક્રમણ કહ્યુ', વિક્રમણની સાથે પાપभनु म (न ४२ ते ४, पाप-नां रानी साथै निरा, अंध भने भोक्षनु स्व३५ ४. (सू०७१) अर्थ समये भगवान महावीर स्वामीनां माता-पिता समस्त કળાએનું જ્ઞાન અપાવવા માટે મહેસવની સાથે તથા ભારે ભેટ
टीना अर्थ - 'तपणं' हत्याहि त्यारमा કળાઓને જાણનાર પ્રભુને પશુ પ્રગાઢ પ્રેમને કારણે, સાથે, મને હર વાજાની સાથે, તથા ઘણા મેાટા પરિવારની સાથે કલાશિક્ષકની પાસે મેકલ્યા. ભગવાન વમાન અવધિજ્ઞાની હોવા છતાં પણ જાણે અજાણ્યા હાય એવી ચેષ્ટા કરીને, માતા-પિતાના અનુરોધથી કલાચાયની પાસે પધાર્યા. કદાચા, શ્રી વમાન સ્વામીનાં શુભ આગમનને જાણીને પ્રસન્ન થયાં, અને ઊંચાં આાસન પર બેઠેલ તે
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कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतः कलाचार्य
समीपे प्रस्थाना
दिवर्णनम्.
॥१००॥
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कल्प
श्रीकल्प
मृत्रे ॥१०१॥
मञ्जरी
कलाचायः प्रभोः श्रीवधमानस्वामिनः शोभनम् प्रशस्तम् आगमनम् अवगम्य बुद्ध्वा प्रसन्ना सन्तुष्टः उच्चासनम् अध्यासीनः आश्रितः अहीनप्रमोदपीन: अमन्दानन्दपुष्टः अधुनैव-इदानीमेव तरलतरहार: अनुपमहारधारक: अनुगतपरिवारम्परिजनमहितः, राजकुमार सिद्धार्थनृपपुत्रः भासमानः गाम्भीर्यादिगुणैः शोभमानः वर्द्धमानः तदाख्यः कुमारो मम अन्तिके-पाचे आगमिष्यति-इति कृत्वा इति बुवा, तत्पतीच्छां श्रीमहावीरागमनवाटनिरीक्षणम् अकरोत्=कृतपान । किन्तु खण्डितकलामण्डितः अल्पकलाभिज्ञः पण्डितः किम् अखण्डकलामण्डितं= सकलकलाभिज्ञं तं श्रीवर्धमानस्वामिनं पुरुषोत्तम पुरुषश्रेष्ठं सकला-नवद्य-विद्या-ऽधिष्ठात-देवता-विधेय-चन्दन सर्वसमीचीनविद्याऽधिपतिदेवताकर्तव्यवन्दनं-सरस्वत्याऽपि वन्दनीयं त्रिशलानन्दनं त्रिशलापुत्रं भगवन्तं पाठयितुं शिक्षयितुं शक्नुयात ? अपि तु न शक्नुयात् , तस्य स्वतः संबुद्धत्वात, अमुमेवार्थ प्रकारान्तरेणाहपरिशुदं काञ्चनं स्वर्ण किं शोध्येत १ अपि तु न शोध्येत, स्वतः परिशुद्धत्वात्, आम्रतरुः आम्रवृक्षः तोरणैः
टीका
कलाचार्य
स्य भगवदागमनप्रतीक्षा.
आगमन जानकर प्रसन्न हुआ और ऊँचे आसन पर बैठा हुआ वह हर्ष की तीव्रता से फूल उठा-पुष्ट हो गया। अद्वितीय हार के धारणहार, गंभीरता आदि गुणों से सुशोभित, सिद्धार्थ महाराज के पुत्र राजकुमार वर्धमान अभी-अभी परिवार सहित मेरे समीप आएँगे, इस प्रकार विचार कर कलाचार्य उनके आने की बाट जोहने लगा।
किन्तु थोड़ी-सी कलाओं का ज्ञाता पंडित, समस्त कलाओं में निपुण, पुरुषों में उत्तम, सब श्रेष्ठ विद्याओं के अधिपति देवता के द्वारा भी वन्दनीय, अर्थात् सरस्वती के द्वारा भी स्तवनीय त्रिशलानन्दन भगवान् को क्या पढ़ाने में समर्थ हो सकता था ?, अर्थात्-नहीं हो सकता था, क्यों कि वे तो स्वयंसंबुद्ध थे। इसी अर्थ को दूसरे प्रकार से कहते हैं-पूर्ण रूप से शुद्ध स्वर्ण को क्या शोधा जाता है ? नहीं
॥१०॥
હર્ષની તીવ્રતાથી કૂલી ગયાં. અનુપમ હારને ધારણ કરનાર, ગંભીરતા આદિ ગુણોથી સુશોભિત, સિદ્ધાર્થ મહાઆ રાજાના પુત્ર, રાજકુમાર વર્ધમાન હમણાં જ પરિવાર સાથે મારી પાસે આવશે એ વિચાર કરીને કલાચાર્ય તેમના
આગમનની રાહ જોવા લાગ્યાં. પણ થોડી એવી કળાઓ જાણનાર પંડિત, સમસ્ત કળાઓમાં નિપુણ, પુરુષોમાં ઉત્તમ, બધી શ્રેષ્ઠ ઘાઓના અધિપતિ દેવતા વડે પણ વન્દનીય, એટલે કે સરસ્વતી દ્વારા પણ સ્તવનીય ત્રિશલાનન્દન ભગવનાને ભણાવવાને શું શક્તિમાન થઈ શકતા હતા. આજ અર્થ બીજી રીતે દર્શાવે છે. શું શુદ્ધ તદન સેનાને
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श्रीकल्प
किम् अलङ्क्रियेत=भूष्येत ? अपि तु न, स्वतः पल्लवित्वात् , अमृतं मथुरद्रव्यैः किं वास्येत?, अपि तु न वास्येत, स्वतो मधुरत्वात् , सरस्वती-शारदा देवी पाठविधि पठनक्रमम् किं शिक्ष्येत बोध्येत, अपि तु न शिक्ष्येत, स्वतः शिक्षितत्वात् , चन्द्रे धवलत्वं-शुक्लत्वं किम् आरोप्येत स्थाप्येत, अपि तु नाऽऽरोप्येत, स्वतो धवलत्वात् , सुवर्ण सुवर्णजलेन किं परिष्क्रियेत-संस्क्रियेत १, अपि तु न, स्वतः परिष्कृतत्वात् , यो भगवान् ज्ञानत्रिकमहालय मति-श्रुत्य-वधिज्ञानत्रयभाण्डागारः महाविज्ञानजलधिः सकलकलासमुद्रः, महाधीर-धीराग्रगण्यः महागम्भीरःसातिशयगाम्भीर्यगुणोपेतच अस्ति। स एवंविधी वर्धमानस्वामी अल्पज्ञानिनः कलाचार्यस्य अन्तिके-पाव
सूत्रे
कल्पमञ्जरी
॥१०२॥
टीका
शोधा जाता; क्यों कि वह तो स्वतः शुद्ध है। आम के वृक्ष को तोरणों से क्या सिंगारा जाय?, नहीं, वह तो स्वयं ही पत्तों से युक्त है। अमृत को मधुर द्रव्यों से क्या वासित किया जाय?, नहीं, क्यों कि वह तो स्वभाव से ही मधुर होता है। शारदा देवी को क्या पाठविधि सिखाने की आवश्यकता होती है, नहीं, क्यों कि वह तो स्वयं सीखी हुई है। चन्द्रमा में धवलता का आरोपण क्या किया जाय !, आरोप करने की आवश्यकता नहीं, क्यों कि उसमें निसर्ग से ही धवलता है। सोने का सोने के पानी से संस्कार करने की आवश्यकता है ?, नहीं है, वह तो स्वयं ही परिष्कृत है।
जो भगवान् तीन ज्ञान-मति श्रुत अधि-के भण्डार, समस्त कलाओं के सागर, विशाल शक्ति के निधान, महान् मतिमान् , महाधीर-धीरों में अग्रगण्य और अत्यधिक गंभीरता आदि गुणों से संपन्न
कलाचार्यसमीपे भगवतीअध्ययनस्यानौचित्यप्रतिपादनम्.
તાવવામાં આવે છે?, તાવવામાં આવતું નથી, કારણ કે તે પિતે જ શુદ્ધ હોય છે. આંબાને તેરણાથી શું શણગારી શકાય છે?, ના, તે તે પોતે જ પાનવાળે છે. અમૃતને શું મધુર દ્રવ્યોથી સ્વાદિષ્ટ કરી શકાય છે?, ના, કારણ કે તે તે કુદરતી રીતે જ મીઠું હોય છે. સરસ્વતી દેવીને શું પાઠ-વિધિ શિખવવાની આવશ્યકતા રહે છે કે, ના, તે તે પિતે જ એ શીખેલ હોય છે. ચન્દ્રમામાં ધવલતાનું આપણું શું કરી શકાય છે?, ના, તેની આવશ્યકતા જ નથી, કારણ કે તેમાં કુદરતી રીતે જ ધવલતા રહેલી હોય છે. શું તેના પર સેનાનું પાણી ચડાવવાની જરૂર પડે છે?
१ ना, ते तो ते परिशुद्ध छे..
જે ભગવાન ત્રણ જ્ઞાન-મતિ, કૃત, અવધિના ભંડાર, સમસ્ત કળાઓના સાગર, વિશાળ શક્તિના નિધાન, પોલી on મહાન મહિમાન, મહાધીર–ધીરેમાં અગ્રગણ્ય અને અતિશય ગંજીરતા આદિ ગુણોવાળાં હતાં, તે વર્ધમાન સ્વામી, તે
॥१०२॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥१०३॥
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पठितुं गच्छेदिति महत्= अत्यन्तम् असमञ्जसम् = अयुक्तम् । एतया = अनया प्रवृत्त्या= भगवतः कलाचार्यसमीपे शिक्षाग्रहणार्थगमनरूपया देवलोके सुधर्मायां सभायां शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य आसनं चलितम् । ततः खलु आसने चलिते सति अवधिना = अवधिज्ञानोपयोगेन आभुज्य = आसन कम्पनकारणं ज्ञात्वा शक्रेन्द्रः शीघ्रं ततः = तस्मात् देवलोकान् प्रस्थितः = प्रचलितो ब्राह्मणरूपेण प्रभुसमीपे आगम्य प्रभुम् उच्चासने उपनिवेश्य संस्थाप्य ये प्रश्नाः कलाचार्यहृदये संशयरूपेण स्थिताः तान् = सन्दिग्धानेव प्रश्नान् पृच्छति, तत्र=प्रश्नेषु प्रथमम् इन्द्रेण व्याकरणविषयः प्रश्नः कृतः, भगवता = श्री वर्धमानस्वामिना तं=प्रश्नं व्याकृत्य = समुचितरूपेण व्याख्याय संक्षेपेण = स्वल्पाक्षरेण सर्व= समस्तं व्याकरणं = शब्दशाखं कथितम् = उक्तम् । तत्प्रभृति जैनेन्द्रव्याकरणं प्रसिद्धम् । ततः थे, वे वर्धमान स्वामी, अल्पज्ञानी कलाचार्य के पास पढ़ने जाएँ, यह अत्यन्त अयुक्त बात थी । भगवान् के कलाचार्य के समीप शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाने की प्रवृत्ति से देवलोक में सुधर्मा सभा में, शक्र देवेन्द्र देवराज का आसन चलायमान हुआ ।
आसन कम्पायमान होने पर अवधिज्ञान का उपयोग लगाने से आसन के कापने का कारण ज्ञात हो गया। तब शक्रेन्द्र शीघ्र ही देवलोक से चला और ब्राह्मण का रूप बना कर प्रभु के पास आया । प्रभु को उच्च आसन पर प्रतिष्ठित करके, जो प्रश्न कलाचार्य के हृदय में संशय रूप से स्थित थे, वे ही प्रश्न पूछे। उन प्रश्नों में सर्वप्रथम इन्द्र ने व्याकरणसंबंधी प्रश्न पूछा । भगवान् वर्धमान स्वामी ने उस प्रश्न की उचित रूप से व्याख्या करके, थोड़े ही अक्षरों में समस्त व्याकरणशास्त्र कह दिया। तभी से 'जैनेन्द्र व्याकरण' की प्रसिद्धि हुई ।
અલ્પજ્ઞાની કલાચાયની પાસે ભણવા જાય, એ વાત અત્યન્ત અયેાગ્ય હતી. કલાચાર્ય'ની પાસે વિદ્યા પ્રાપ્ત કરવા જવાની ભગવાનની પ્રવૃત્તિથી દેવલેાકની, સુધર્મા સભામાં, શક્ર દેવેન્દ્ર દેવરાજનુ' આસન ડોલવા લાગ્યું. આસન ધ્રુજતા અવધિજ્ઞાનના ઉપયોગથી શકેન્દ્ર આસન ધ્રુજવાનું કારણ જાણ્યું. ત્યારે તરત જ શકેન્દ્ર દેવલેાકમાંથી ઉપડયા અને બ્રાહ્મણનું રૂપ લઇને ભગવાનની પાસે આવ્યા. પ્રભુને ઉચ્ચ આસન પર વિરાજમાન કરીને, જે પ્રશ્નો કલાચા નાં હૃદયમાં સંશયરૂપથી રહેલાં હતાં એ જ પ્રશ્નો તેણે ભગવાનને પૂછયાં.
તે પ્રશ્નોમાં સૌથી પહેલાં ઇન્દ્રે વ્યાકરણ વિષે પ્રશ્ન પૂછયો. ભગવાન વર્ધીમાન સ્વામીએ તે પ્રશ્નની ચેાગ્ય રીતે વ્યાખ્યા કરીને, ઘેાડાં જ અક્ષરામાં આખુ' વ્યાકરણશાસ્ત્ર કહી દીધું'. ત્યારથી “જનેન્દ્ર વ્યાકરણ”ની પ્રસિદ્ધિ થઈ.
कल्प
मञ्जरी
टीका
शक्रस्यास
नकम्पः,
शक्रेण ब्राह्मणरूपेणागम्य
प्रश्नं कृत्वा
भगवतः
सर्वशास्त्रा
भिज्ञत्व
प्रकाशनम्.
॥१०३॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥ १०४॥
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पश्चात् = तदनन्तरम् इन्द्रेण नयप्रमाणस्वरूपं - नयानाम् = नैगमादीनां प्रमाणयोः = प्रत्यक्षपरोक्षयोश्च स्वरूपं पृष्ठम्, तत् भगवता संक्षेपेण आख्याय सर्व न्यायमर्म = न्यायशास्त्रसारः प्रकाशितं प्रकटीकृतम् । ततः पश्चात् = तदनन्तरम्, तेन इन्द्रेण धर्मविषये पृष्टम्, भगवता श्रीवर्धमानेन धर्मस्वरूपम् आचक्षाणेन निरूपयता सता उपशमः = अन्तरिन्द्रियनिग्रह आख्यातः = प्ररूपितः, उपशममाचक्षाणेन विवेकः = कर्त्तव्याकर्त्तव्यपदार्थविवेचनम् ख्यातः, विवेकम् आचक्षाणेन विरमणं = सावद्यव्यापारान्निवर्त्तनम् आख्यातम्, विरमणम् आचक्षाणेन पापानां = प्राणातिपातादीनां कर्मणाम् अकरणम् आख्यातम् । तत् आचक्षाणेन निर्जराबन्धमोक्षस्वरूपमाख्यातम् ॥ सू०७१ ॥ मूलम् - एएसि णं पव्हाणं चित्तचमकारपवत्तेण वागरणेण तत्थट्टिया सव्वे जणा विम्हिया जाया । कलारिओ विपन्नचित्तो संजाओ । तो पच्छा तेण चिंतियं-अच्छेरयमिणं जं एएण दुद्धमुहेण सुउमालेण बाले एयारिसी विजा कओ सिक्खिया ?, जो मम मणंसि चिरकालाओ संदेहो आसी, जो य न केणवि अज्जपज्जतं निवारिओ, सो सव्त्रो अज्ज अणेण निवारिओ । सचमेयं, जं महापुरिसम्मि एयारिसा गुणा हवंति व्याकरण - विषयक प्रश्न के पश्चात् इन्द्र ने नैगमादिनयों का तथा प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रमाणों का स्वरूप पूछा। भगवान् ने संक्षेप में उसका उत्तर देकर सम्पूर्ण न्यायशास्त्र का सार प्रकाशित कर दिया । तत्पश्चात् इन्द्र ने धर्म के विषय में प्रश्न किया । भगवान् श्री वर्धमान ने धर्म का स्वरूप बतलाते हुए उपशम- मनोनिग्रह कहा । उपशम कहते हुए विरमण ( सावध व्यापारों का कहते हुए प्राणातिपात - आदि पापों का न करना कहा। पापों का न करना कह मोक्ष का स्वरूप कहा ||०७१ ||
त्याग ) कहा । विरमण कर निर्जरा, बंध और
વ્યાકરણુસંબંધી પ્રશ્ન પૂછ્યા પછી ઇન્દ્રે નૈગમક્રિ નાનું તથા પ્રત્યક્ષ, પરોક્ષ પ્રમાણેનું સ્વરૂપ પૂછ્યું. ભગવાને ટૂંકાણમાં તને જવાબ આપીને સંપૂર્ણ ન્યાયશાસ્ત્રને સાર પ્રકાશિત કરી દીધા. ત્યાર બાદ ઇન્દ્રે ધના વિષયમાં પ્રશ્ન કર્યાં ભગવાન શ્રી વધમાને ધર્મોનું સ્વરૂપ બતાવતાં ઉપશમ-મનૈનિગ્રહ કહ્યો. ઉપશમની સાથે વિવેક (કતવ્ય-અકર્તવ્ય પર્ધાતુ વિવેચન) કહ્યો. વિવેકની સાથે વિરમણ (સાવદ્ય વ્યાપારાના ત્યાગ) કહ્યું. વિરમણુની સાથે પ્રાણાતિપાત આદિ. ન કરવા વિષે કહ્યું, પાપો ન કરવાનું કહીને નિર્દેરા, બંધ અને મે ક્ષનુ २२३५ (सू०७१)
然
कल्प
मञ्जरी
टीका
शक्रेण ब्राह्मणरूपेणा
गम्य प्रश्नं
कृत्वा भगवतः सर्वशास्त्रा
भिज्ञत्वप्रकाशनम्
॥१०४॥
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म
श्रीकल्प
॥१०५॥
चेव । केरिसं अस्स गांभीरियं जं एयारिसगुणगणसंपण्णोऽवि एसो एत्थ पोढउ समागओ। सच्च अद्धभरिओ घडोर सदं करेइ न पुष्णो, दुबलो चिक्करेइ न मूरो, कंसं गुंजेइ न कणयं, महापुरिसा णियमहिमं न पयासेंति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया णियं इंदरूवं पगडिय सयल-गुण-णिहिणो महावीरपहुणो अउल-बल-वीरिय
कल्पबुद्धि-पहत्तं तत्थहिए जणे परिचाइंसु-जं इमो सयलगुणआलवालो सुउमालो बालो न साहारणो, किंतु
मञ्जरी सनसत्यपारीणो सत्यजगजीवजोणीरक्षण परायणो सिरिवद्धमाणो चरमतित्थयरो अस्थि-त्ति।
टीका तए णं से सके देविदे देवराया समणं भगवं महावीरं बंदर नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए।
पहू य सुसज्जीकयं गयमारुहिय तेण जणसमुदाएण अवलोइज्जमाणे अवलोइज्जमाणे सप्पासायं सप्पासायं अभिगमी। एयारिसपवित्तपहपवित्तिओ माउपियाईणं चेयसि भुजो भुज्जो अमंदा-णंद-सिंध-च्छलंततरल-तरंगो न संमाओ ||म्०७२।।
भगवतः छाया-एतेषां खलु प्रश्नानां चित्तचमत्कारप्रवृत्तेन व्याकरणेन तत्र स्थिताः सर्ने जना विस्मिता सर्वशास्रा
FDMभिज्ञत्वेन जाताः। कलाऽऽचार्योऽपि प्रसन्नचित्तः संजातः । ततः पश्चात् तेन चिन्तितम्-आश्चर्यमिदं यत्-एतेन दुग्धमुखेन
कलाचार्यासुकुमारेण बालेन एतादृशी विद्या कुतः शिक्षिता ? यो मम मनसि चिरकाळात् संदेह आसीत् , यश्च न केनापि दीनां परअद्यपर्यन्तं निवारितः, स सोऽद्यानेन निवारितः। सत्यमेतत्-यन्महापुरुषे एतादृशा गुणा भवन्त्येव, कीदृशमस्य मानन्दः।
SHREATES
मूल का अर्थ--'एस गं' इत्यादि। इन प्रश्नों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करने वाले उत्तर वहाँ स्थित सभी जन चकित रह गये। कलाचार्य भी प्रसन्नचित्त हुआ। तत्पश्चात् कलाचार्य ने सोचा यह आश्चर्य है कि इस दुधमुंहे सुकुमार बालक ने ऐसी विद्या किससे सीखी? मेरे मन में चिरकाल से जो संदेह था और जिसे आजतक किसी ने दूर नहीं किया था, वह सब आज इसने दूर कर दिया।
भूबने। -(एसि णं' या. यानी २०n , ब्राझना ३५मा शन्द्र पूछे। प्रश्नोता पामे સર્વની શંકાને વિદારી નાખે તેવા આવવાથી, સર્વ સમુદાય ચકિત થઈ ગયે. કલાચાર્ય પણ વિશેષ પ્રસન્ન થયાં.
કલાચાર્યને આશ્ચર્ય પ્રગટ થયું કે આવા નાના બાળકને આખું જ્ઞાન કેણે આપ્યું. ચિરકાળથી ઘર કરી રહેલ મારા મનની શંકાઓનું નિવારણ આ બાળકના પ્રત્યુત્તરથી સહેજે આવી ગયું:
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ला
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गाम्भीर्यम् ? यद् एतादृशगुणगणसम्पन्नोऽपि एषोऽत्र पठितुं समागतः, सत्यम्, अर्दभृतो घटः शब्दं करोति न पूर्णः, दुर्बलचीत्करोति न शूरः, कांस्यं गुञ्जति न कनकम् , महापुरुषा निजमहिमानं न प्रकाशयन्ति ? ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो निजमिन्द्ररूपं प्रकटय्य सकलगुणनीरनिधेर्महावीरप्रभोरतुलबलवीर्यबुद्धिमभुत्वं तत्र स्थिताञ्जनान् पर्यचाययत्-यद् अयं सकलगुणालवालः सुकुमारो बालो न साधारणः, किन्तु सर्वशास्त्रपारीणः सर्वजगजीश्योनिरक्षणपरायणः श्रीवर्धमानश्चरमतीर्थकरोऽस्तीति ।
श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥१०६॥
सच है-महापुरुष में ऐसे गुण होते ही हैं। कैसी गंभीरता है इसमें, जो ऐसे गुण-गण से सम्पन्न होकर भी यह यहाँ पढ़ने आया! सच है, आधा भरा हुआ घड़ा ही आवाज करता है पूरा भरा नहीं, दुर्बल ही चीत्कार करता है शूर नहीं; कांसा आवाज करता है, सोना नहीं। महापुरुष अपनी महिमा का आप प्रकाश नहीं करते।
तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज ने अपना इन्द्र का रूप प्रकट करके सकल गुणों के सागर वीर प्रभु के अतुल बल, वीर्य, बुद्धि और प्रभाव का परिचय दिया कि-यह समस्त गुणों का आलवाल (क्यारी) सुकुमार चालक साधारण नहीं है, किन्तु समस्त शास्त्रों में पारंगत जगत के सर्व प्राणियों की रक्षा में तत्पर श्री वधमान चरम तीर्थकर है।
भगवतः सर्वशास्त्रा भिज्ञत्वेन कलाचार्यादीनां परमानन्दः
ગંભીરતા ગુણ અને જ્ઞાનસંપત્તિ હોવા છતાં, વધારે જ્ઞાન મેળવવાની ઈચ્છા એ આ બાળક અહિં આવ્યું. તે વિચારથી પણ કલાચાર્ય ઘણા પ્રસન્ન થયાં.
કલાચાર્ય, આ બાળકની સરલતા અને નિરભિમાનપણું જોઈ, વિચારવા લાગ્યાં કે, અધુરાં ઘડાએ જ છલકાય છે, પૂરા નહિ !. ન ભલા મનના માયુસેજ કિકિયારી પાડે છે, શુરા નહિ !. કાંસુજ અવાજ અને ખણખણાટ કરી મૂકે છે, સેનું નહિ !. ટુકમાં, મહાપુરુષ, કદાપિ પણુ, પિતાની શકિત અને ગુણેને આવિર્ભાવ કરતાં જ નથી.
પ્રશ્નવિધિ અને કળ ચાયના મનનું મંથન પૂરું થયા પછી, બ્રાહ્મણરૂપે આવેલાં શક્રેન્દ્ર, પિતાનું અસલ સ્વરૂપે પ્રગટ કર્યું, ને ત્યાં આ વેલાં સર્વ જનેને પ્રભુના અતુલ, બલ, વીર્ય, બુદ્ધિ અને પ્રભાવને પરિચય કરાવ્યો, 'ને કહ્યું કે “ સકલ ગુણે ને ભંડાર, સુકુ માર આ બાળક કઈ સામાન્ય બાળક નથી, પણ સમસ્ત શાસ્ત્રોમાં પારંગત na અને સર્વ પ્રાણીઓનું રક્ષણ કરવામાં રસ દા તત્પર એવા ચરમ તીર્થંકરની પદવી ધારક છે.”
॥१०६॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥१०७॥
टीका
ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्या एवं दिशः प्रादुर्भुस्तामेव दिशं प्रतिगतः।
प्रभुश्च सुसज्जीकृत गजमारुह्य तेन जनसमुदायेन अवलोक्यमामोऽवलोक्यमानः सप्रसादं स्वपासादमभ्यगच्छत् । एताट पनिगमपत्तितो माता-पित्रादीनां चेतसि भूयो भूयोऽमन्दानन्दसिन्धुच्छलत्तरलतरतरङ्गो न सम्मितः ।।मु०७२।।
टीका-- एरति णं पाहाणं' इत्यादि। एतेषां व्याकरणनयप्रमाणधर्मस्वरूपविषयाणां खलु प्रश्नानाम् चित्तचमत्कारपत्तेन मनस्सन्नोपकारकेण व्याकरणेन-उत्तरेण तत्र स्थिताः सर्वे जना विस्मिताः आश्चर्ययुक्ता जाताः, कलाचार्योऽपि प्रसन्नचित्तः सन्तुष्टमनाः संजातः, ततः पश्चात् तेन कलाचार्येण चिन्तितं विचारितम् ;
तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराजने श्रमण भगवान महावीर को बन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से प्रकट हुए थे, उसी दिशा में चले गये।
भगवान् सिंगारे हुए हाथी पर आरूढ़ होकर, बार-बार उस जनसमुदाय द्वारा अपलोकन किये जाते हुए, प्रसन्नता के साथ अपने प्रासाद की ओर चले। प्रभु की इस पवित्र प्रवृत्ति से माता-पिता के चित्त में पुनः पुनः उत्पन्न होने वाली तीव्र आनन्द-सागर की उछलती हुई चपल लहरें समाई नहीं ।।मू०७२॥
टीका का अर्थ-'एएसिणं' इत्यादि । इन व्याकरण, नय, प्रमाण एवं धर्मसंबंधी प्रश्नों के चित्त में सन्तोप उत्पन्न करनेवाले उत्तर से वहाँ स्थित सभी लोग आश्चर्ययुक्त हो गये। कलाचार्य का अन्तःकरण भी सन्तुष्ट हुआ। तत्पश्चात् कलाचार्य ने विचार किया। क्या विचार किया सो कहते हैं-'अहा, आश्चर्यजनक
ત્યારબાદ, શક્કે, ભગવાનને વંદના-નમરકાર કર્યો, ને જે દિશામાંથી આવ્યા હતાં, તે દિશામાં ચાલ્યા ગયા.
ભગવાન પણ, હાથી ઉપર આરુઢ થઈ, પ્રસન્નચિત્ત, મહેલ તરફ વળ્યાં. રસ્તામાં લોકો ભગવાનને જોઈ જોઈને પણ ધરાતાં ન હતાં. તેઓને તેમના માં અથાગ પ્રેમ હતો. માબાપ પણ પ્રભુનું આટલું બધુ અતુલ જ્ઞાન જોઈ, વિસ્મય પામ્યાં, ને આનંદની લહેરીઓમાં સમાઈ ગયાં. (સૂ૦૭૨)
जानी अर्थ - 'एएसिणं'त्यादि. ०२४२५, नय, प्रभा भने यसमधी प्रश्नानायित्तभासतोषपन्न કરનાર ઉત્તરથી ત્યાં રહેલ બધા લોકે આશ્ચર્યચકિત થઈ ગયાં. કલાચાર્યનાં અંતઃકરણમાં પણ સંતોષ થયો. ત્યાર બાદ કલાચાર્યે વિચાર કર્યો, જે વિચાર કર્યો તે કહે છે-“અહા, આ દૂધમુખ કમળ બાળકે ચિત્તમાં ચમત્કાર કરનારી
भगत्कृतशक्रप्रश्नोतरकरणेन सर्वजनानामाश्चर्यम्
माई
॥१०७॥
છે
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tional
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कल्पमञ्जरी टीका
किम् ? इत्याह-आश्चर्यम्=विस्मयकरम् इदम् , यत् एतेन=अनन दुग्यमुखेन सुकुमारेण तोगलेन बालेन एतादृशी=
चेतश्चमत्कारिणी विद्या कुतः कस्मात्-जनात शिक्षितान्बुद्धिविषयीकृता, मम मनसि यः संदेहः संशयः चिरश्रीकल्प
कालात् आसीत् , यश्च संदेहो न केनापि जनेन अद्यपर्यन्तम् अद्यावधि निवारितः दूरीकृतः, स सर्वःसंदेहः अध
अस्मिन् दिवसे अनेन श्रीवर्धमानेन चालेन निवारितः, एतत् वक्ष्यमाणं सत्यम् यथार्थम् , यत् महापुरुषे विशि॥१०८॥ ष्टपुरुषे एतादृशाः चित्तचमत्कारका गुणा भवन्त्येव-जायन्त एव, अस्य बालस्य कीदृशं गाम्भीर्यम् गम्भीरता,
यत् एतादृशगुणगणसम्पन्नोऽपि-चित्तचमत्कारकगुणसमूहवानपि एषः श्रीवर्धमानो बालः अत्र-मन्निकटे पठितुं शिक्षा ग्रहीतुं समागतः। सत्यम् यथार्थ यत्-अर्धभृतः अर्द्धदेशावच्छेदेन जलसहितो घटः, शब्दं करोति, न तु पूर्ण: मुखपर्यन्तं जलभृतः, दुर्बल: बलरहित एवं जनः चीत्करोति-चीत्कारं करोति न तु पूर्णः। कांस्य-कांस्यपात्रं गुञ्जति शब्दं करोति, किन्नु कनक-सुवर्ण न गुञ्जति, एवमेव महापुरुषाः उत्तमपुरुषाः निजमहिमानं है कि इस दुधमुंहे कोमल बालक ने ऐसी चित्त में चमत्कार करने वाली विद्या किस मनुष्य से सीखी है ?. मेरे मन में जो शंका बहुत समय से बनी हुई थी और आजतक जिस शंका का किसी ने भी समाधान नहीं किया था, वह सब शंका आज बालक वर्धमान ने दूर कर दी। यथार्थ ही है महापुरुषों के गुण चिन में चमत्कार उत्पन्न करने वाले होते ही हैं। इस बालक की गंभीरता कैसी है कि चमत्कारिक
गुणों के समूह से सम्पन्न होने पर भी यह मेरे पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए चला आया। यह म ठीक ही कहा जाता है कि, आधा भरा हुआ घड़ा ही आवाज करता है पूरा भरा नहीं; दुर्बल जन ही
चिल्लाते हैं शूर नहीं; कांसा बजता है, किन्तु स्वर्ण नहीं वजता। इसी प्रकार महापुरुष अपनी महिमा को प्रकाशित नहीं करते! આવી વિદ્યા કયા મનુષ્ય પાસેથી શીખી છે? મારા મનમાં આજ સુધી જે શંકા રહેલ હતી અને આજ સુધી જે શંકાનું કેઈએ પણ સમાધાન કર્યું ન હતું, તે બધી શંકાઓનું જ બાળક વર્ધમાને નિવારણ કરી નાખ્યું. યથાર્થ જ છે કે મહાપુરુષમાં આવા ચિત્તમાં ચમત્કાર ઉત્પન્ન કરનારા ગુણ હોય છે જ, આ બાળકની ગંભીરતા કેટલી બધી
છે કે ચમત્કારિક ગુણોના સમૂહવાળે હોવા છતાં પણ તે મારી પાસે વિદ્યા પ્રાપ્ત કરવા માટે ચાલ્યો આવે છે. ડી એ બરાબર જ કહેલ છે કે અધુરે ઘડેજ અવાજ કરે છે પૂર ભરેલો અવાજ કરતું નથી, દુર્બળ માણસ જ છે વધારે ગજે છે શૂર નહીં, કાંસુ વાગે છે સુવર્ણ નહીં, એજ પ્રમાણે મહાપુરુષ પિતાની મહત્તાને જાહેર કરતાં નથી.
भगवत्कृतशक्रपश्नोतरकरणेन कलाचार्यस्य मनोविचारः।
॥१०८॥
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श्रोकल्पसूत्रे ॥१०९॥
स्वमहत्त्वं न प्रकाशयन्ति=न प्रकटयन्ति । ततः तदनन्तरम् स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो निजं= स्वकीयम् इन्द्ररूपम् प्रकटय्य = प्रकाश्य, सकल गुगनीर निवेः = सर्वगुणसमुद्रस्य महावीरप्रभोः = महावीरस्वामिनः, अतुलबलवीर्यबुद्धिप्रभुत्वं= तुलनार हितवलपराक्रमबुद्धिनैपुण्यम्, तत्र स्थितान् जनान् पर्यचाययत् = ज्ञापितवान् यत् श्रयं पुरस्थितः सकलगुणालवालः- सकलानां सर्वेषां गुगानां = दयादाक्षिण्यादीनाम् श्रालवालः सुकुमारो वालः साधारणो नास्ति, किन्तु - सर्वशास्त्रपारीणः = सर्वशास्त्रपारङ्गतः, तथा - सर्वजगज्जीत्रयोनिरक्षणपरायणः - सर्वेषु जगत्सु या जीवानां=प्राणिनां योनयो=मनुष्यादियोन यस्तासां रक्षणे रक्षायां परायणः तत्परः, श्रीवर्धमानः = तदाख्यः चरमतीर्थकरः = अन्तिमचतुविंशतितमतीर्थकरः अस्ति = विद्यत इति ।
ततः=श्रीवीरपरिचयख्यापनानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः भ्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्याः दिशः =यां दिशमाश्रित्य प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः = परानृत्य गतः । तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज ने अपने इन्द्र-रूप को प्रकट करके समस्त गुणों के समुद्र भगवान् महावीर के अतुल बल, वी द्धि और प्रभुता का वहाँ स्थित जनों को परिचय कराया कि - यह दयादाक्षिण्य आदि सब गुणों के आलवाल (क्यारी) सुकुमार बाल सामान्य नहीं हैं, किन्तु समस्त शास्त्रों के पारगामी तथा सारे संसार में जीत्रों की जो मनुष्यादि योनियाँ हैं, उनकी रक्षा करने में तत्पर श्रीवर्धमान - नामक अन्तिम - वौबीसवें तीर्थंकर हैं । श्रीवर भगवान् का परिचय देने के पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किय वन्दना - नमस्कार करके जिस दिशा से प्रकट हुए थे, उसी दिशा में चले गये । ત્યાર બાદ શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે પોતાના ઈન્દ્રનાં રૂપને પ્રગટ કરીને, સમસ્ત ગુણેાના સાગર, ભગવાન મહાવીરના અતુલ બળ, વી, બુદ્ધિ અને પ્રભુતાને ત્યાં આવેલ માણસોને પરિચય કરાવ્યેા કે या हया, દાક્ષિણ્ય-આદિ સઘળા ગુણેાનેા આલબાલ (ક્યારી) સુકુમાર બાળક સામાન્ય નથી, પણ સમસ્ત શાસ્ત્રોના પાર પામનાર તથા આખા સસારમાં જીવાની જે મનુષ્યાદિ ચાનીઓ છે, તેમની રક્ષા કરવાને સમથ શ્રી વર્ધમાન નામના અન્તિમ-ચાવીસમા તીર્થંકર છે,
શ્રીવીર ભગવાનને પરિચય આપ્યા પછી શક્ર દેવેન્દ્ર દેવરાજે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદન કર્યાં, નમસ્કાર કર્યો, ખંદન-નમસ્કાર કરીને જે દિશામાં પ્રગટ થયાં હતાં એજ દિશામાં ચાલ્યા ગયાં.
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कल्प
मञ्जरी टीका
शक्रण
भगवतश्वरमतीथ. करत्व
प्रकाशनम्.
॥१०९॥
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श्रीक्ला
सूत्रे
प्रभुश्च श्रीवर्धमानस्वामी च सुसज्जीकृतं सम्यक् सज्जितं, गज हस्तिनम् आरुह्यगजोपरि समुपविश्य तेन सहाऽऽगतेन शिक्षास्थानस्थेन च जनसमुदायेन परिजनसमूहेन दर्शकजनसमूहेन च अवलोक्यमानोऽवलोक्यमानः पुनः पुनरनिमेपग्भिदृश्यमानः सप्रसाद-प्रसन्नतापूर्वकं यथा स्यात्तथा स्वप्रासाद स्वकीयराजभवनम् अभ्यगात गतवान् , एतादृशपवित्रप्रभुप्रवृत्तितः इन्द्रकृतप्रश्नसमाधान-कलाचार्यसन्तोषण-सकलजनप्रसादनरूप-निमल श्रीवीरस्वामिसमाचारात, मातापित्रादीनां मातापित्रोः, आदिना भ्रातृप्रभृतीनामपि चेतसि मनसि भूयो भूयः= वारं वारम् अमन्दाऽऽनन्दसिन्धुच्छलत्तरलतरङ्गः अतिहर्षसमुद्रोद्गच्छच्चपलोमि:-हर्षातिशयरूपसामुद्रिकतटस्पर्शिचलतरङ्गो न संमितः= न ममे। अश्रुमिषेण आनन्दो बहिर्गत इति भावः ॥मू०७२।।
कल्पमञ्जरी टीका
॥११॥
श्रीवर्धमान स्वामी बढ़िया सजाये हुए गजराज पर सवार होकर साथ आये हुए, एवं शिक्षास्थान में एकत्र हुए जनसमूह द्वारा तथा परिजनसमूह के द्वारा पुनः पुनः निर्निमेष दृष्टि द्वारा देखे जाते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने राजमहल में चले गये।
इन्द्र द्वारा किये गये प्रश्नों के समाधान, कलाचार्य को संतुष्ट करना एवं सकल जनों को प्रसन्न करना-इस प्रकारकी श्रीवीरस्वामी की प्रवृत्ति से माता-पिता के तथा आदि शब्द से भाई वगैरेह के मन में प्रबल हर्प-रूपी सागर की बार-बार उछलती एवं चंचल तरंगें समा न सकीं। आशय यह है कि वह हर्ष भीतर न समाया तो आंसुओं के बहाने बाहर निकल पड़ा ।।सू०७२।।
भगवतः स्वमासादा
गमनम्, मातापित्रा
दीनामा
नन्दश्च।
શ્રીવર્ધમાનસ્વામી સારી રીતે શણગારેલા ગજરાજ પર સવાર થઈને સાથે આવેલ તથા શિક્ષાસ્થાનમાં એકત્ર થયેલ જનસમૂહ દ્વારા તથા પરિજનસમૂહદ્વારા ફરી-ફરીથી અનિમેષ નજરે જોવાતાં પ્રસન્નતાપૂર્વક પિતાના રાજમહેલમાં ચાલ્યા ગયાં.
ઈન્દ્ર દ્વારા પૂછાયેલા પ્રશ્નોનું સમાધાન, કલાચાર્યને સંતુષ્ટ કરવું અને સધળા લેકેને પ્રસન્ન કરવું, આ પ્રકારની શ્રીવીરસ્વામીની પ્રવૃત્તિથી માતા-પિતાનાં તથા આદિ શબ્દથી ભાઈ વગેરેનાં મનમાં પ્રબળ હર્ષ રૂપી સાગરની વારંવાર ઉછળતી અને ચંચળ લહેરો સમાઈ શકી નહીં. આશય એ છે કે તે હર્ષ અંદર સમાયે
नही त श्र३२ १७२ नि ५.यो. (२०७२) sation
॥१०॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥ १११ ॥
मूलम् - तर णं तं समयं भगवं महावीरं उम्मुकबालभावं विष्णायपरिणयमेत्तं णवंगमुत्तपडिबोहियं जाणिय अम्मापियरो सागेयपुराहिवस्स समरवीरस्स रन्नो धूयाए धारिणीए देवीए अंगजायाए जसोयाए राजवरकन्नाए पार्णि गिण्हाविंसु ।
तणं समस्स भगवओ महावीरस्स पियदंसणेति नामं धूया जाया । सा च जोव्वणगमणुप्पत्ता सयस्स भाइणिज्जस्स जमालिस दिन्ना । तीसे पियमणाए धूया सेसवईति नामं जाया ।
समणस्स भगाओ महावीरस्स पिउगो कासवगोत्तस्स सिद्धत्थेति वा, सेजंसेति वा, जसंसेत्ति वा तओ नामज्जा |
माउण वासिगुत्ता सिलेति वा, विदेहदिण्णेति वा, पियकारिणीति वा तओ नामवेज्जा ।
भगवओ पित्तियए पासे कासवगोते, जेट्ठे भाया मंदिवडणे कासवगोत्ते । जेट्ठा भइणी सुदंसणा कामत्रगोत्ता । भज्जा जसोया कोडिण्गगोत्ता । धूयाए कासवगुत्ताए अणोज्जाइ वा पियदसणाइ वा दो नामधिज्जा । तुई कोसियगोत्ता सवईति वा जसवईति वा दो नामधिज्जा होत्था ।
समणस्स भगओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था । ते णं बहू समणोवासगपरियागं पाउणित्ता अपच्छिमार संलेहणाए झोसणाए झोसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा वारसमे अचुए कप्पे देवत्ताए उत्रवण्णा, तओ णं महाविदेहे सिज्झिस्संति ||०७३ ||
छाया - ततः खलु तं श्रमणं भगवन्तं महावीरम् उन्मुक्तबालभावं विज्ञातपरिणतमात्रं नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधितं अम्बापितरौ साकेतपुराधिपस्य समरवीरस्य राज्ञो दुहितुः, धारिण्या देव्या अङ्गजताया यशोदाया
मूल का अर्थ - ' तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् को बाल्यावस्था से मुक्त परिपक्व ज्ञान वाला तथा नौ अंग जिनके जाग गये हैं-अर्थात् युवावस्था के कारण नौ अंग जिनके विकसित हो गये हैंऐसा जान कर मातापिताने साकेतपुर के अधिपति समरवीर राजा की कन्या, धारिणी देवी की अङ्गजात
भूनामर्थ – 'तपणं' हत्याहि माण वर्षमान, माझ्यावस्थाथी मुक्त थयां, युवान वयने आप्त थयां, તેના નવ અંગે પિરપૂર્ણ, યુવાનીને લીધે જાગ્યાં એટલે વિકસિત થયાં, તેનું જ્ઞાન પણુ પરિપકવ થયું. આ બધું જણાતાં, માતા–પિતાએ, સાકેતપુર (અધેાધ્યાનગરી ) ના અધિપતિ સમરવીર રાજાની પુત્રી અને ધારિણી રાણીની
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतो विवाहः ।
॥१११॥
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श्रीकल्पमुत्रे ॥१९२॥
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管管寳寳寳營管
राजवरकन्यायाः पाणिम् अग्राहयताम् ।
ततः खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'प्रियदर्शना'
दुहिता जाता । सा च यौवनकमनुप्राप्ता स्वस्मै भागिनेयाय जमालये दत्ता । तस्याः प्रियदर्शनाया दुहिता 'शेषवती' - इति नाम जाता । श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पितुः काश्यपगोत्रस्य सिद्धार्थ इति वा, श्रेयांस इति वा, यशस्वी इति वा, त्रीणि नामधेयानि ।
मातुशिष्ठ गोत्रायाः 'त्रिशला' इति वा 'विदेहदत्ता' इति वा 'प्रियकारिणी' इति वा त्रीणि नामधेयानि । भगवतः पितृव्यः स्रुप : काश्यपगोत्रः, ज्येष्ठो भ्राता नन्दिवर्धनः काश्यपगोत्रः । ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना काश्यपगोत्रा । भार्या यशोदा कौडिन्यगोत्रा । दुहितुः काश्यपगोत्रायाः 'अनवद्या' इति वा 'प्रियदर्शना' 'यशोदा' नामक श्रेष्ठ राजकन्या के साथ पाणिग्रहण (विवाह) कराया ।
पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर की 'प्रियदर्शना' नामक कन्या का जन्म हुआ। जब वह यौवन को प्राप्त हुई तो भगवान के भागिनेय (बहिन के लड़के) जमालि के साथ उसका विवाह हुआ । प्रियदर्शना की पुत्री 'शेषवती' हुई |
श्रमण भगवान् महावीर के काश्यपगोत्रीय पिता के तीन नाम थे-सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी । वाशिष्ठ गोत्रीया माता के तीन नाम थे- त्रिशला, विदेहदत्ता और प्रियकारिणी ।
भगवान् के काका सुपार्श्व थे, जो काश्यपगोत्रीय थे। बड़े भाई नन्दिवर्धन थे, वे भी काश्यपगोत्र के थे। बड़ी बहिन सुदर्शना काश्यपगोत्र की थी। उनकी पत्नी यशोदा कौडिन्यगोत्र की थी ।
म गलत यशोदा नामनी उन्या साथै 'वर्धमान' तु' पाग्रिड (लग्न) पुराव्यु:
સમય વીતતાં, વન્દ્વમાન' ને ત્યાં પ્રિયદર્શના નામની પ્રિય કન્યાના જન્મ થયે. આ કન્યાને પ્રાપ્તવયે ” ના ભાણેજ જમલિ સાથે, પરણાવી દેવામાં આવી. આ પ્રિયદર્શનાને, શેષવતી નામની એક પુત્રી પણુ
'वर्द्धमान'
ઉત્પન્ન થઈ.
भगवान महावीरना अश्यपगोत्री पिताना, त्रयु नाम इतां - (१) सिद्धार्थ, (२) श्रेयांस, (3) यशस्वी. तां - (१) त्रिशसा, (२) विहेत्ता, (3) प्रियहारिणी. અને માટી બહેન સુદ'ના આ સર્વ કાશ્યપગેાત્રી હતાં.
तेमनी वाशिष्ठगोत्री भाताना पशु, प्रभु नाम ભગવાનના કાકા સુપાર્શ્વ, વડિલ બધું નદિવĆન,
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतः स्वजनवर्णनम् .
॥ ११२ ॥
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श्री कल्पमूत्रे ॥११३॥
KERRAKECHA
राशन
इति वा द्वे नामधेये । नव्याः कौशिकगोत्रायाः 'शेषवती' इति वा, 'यशस्वती' इति वा द्व नामधेये अभूताम् । श्रमणस्य खलु भगवतो महावीरस्य अम्वापितरौ पार्श्वपत्यीयौ श्रमणोपासकौ चापि अभूताम् । तौ खलु बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयित्वा अपश्चिमया मारणान्तिक्या संलेखनया जोषणया जोषितशरीरौ कालमासे कालं कृत्वा द्वादशे अच्युते कल्पे देवतया उपपन्नौ ततः खलु महाविदेहे सेत्स्यतः || सू०७३।। टीका -' तए णं समणं' इत्यादि । ततः = तदनन्तरं खलु तं श्रमणं भगवन्तं महावीरम् उन्मुक्तबालभावं=त्यक्तवाल्यावस्थं, विज्ञातपरिणतमात्रं = परिपक्वविज्ञानं, नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधितं श्रोत्रद्वयं चक्षुर्द्वयं घ्राणद्वयं
उनकी काsuunia की लड़की के दो नाम थे - अनवद्या और प्रियदर्शना। उनकी दौहित्री (नातिन) कौशिक - गोत्र की थी। उसके दो नाम थे— शेषवती और यशस्त्रती ।
श्रमण भगवान् महावीर के माता-पिता पार्श्वापत्यीय (पाश्वनाथ के अनुयायी) श्रमणोपासक थे । वे दोनों बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय को पालकर अर्थात् श्रावक - अवस्था में रहकर अन्तिम समय में होने वाली मारणान्तिक-संलेखना - जोषणा से शरीर को जोषित करके, मृत्यु के अवसर पर काल करके बारहवें अच्युत नामक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यव कर वे महाविदेह में सिद्ध होंगे ||०७३ || टीका का अर्थ - ' तरणं' इत्यादि । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर को बाल्य-वय को पार किया हुआ,
તેમના પત્ની યશોદાનુ' ગાત્ર “કૌડિન્ય” હતું. ભગવાનની કાશ્યપગોત્રી દીકરીના એ નામ (२) प्रियदर्शना भने प्रियदर्शनानी पुत्री शिगोत्री हुती. या होडीत्रीना में नाम (२) यशस्त्रती..
હતા (૧) અનવદ્યા, तां – (१) शेषवती,
ભગવાનના માતા-પિતા પાર્સ્થાપીય (પાર્શ્વનાથ ભગવાનના અનુયાયી) શ્રમણેાપાસક હતાં. આ બન્ને જણાએ, વર્ષો સુધી, શ્રાવકપર્યાયનુ યથાર્થ પાલન કરી, અંતિમ-સમયે મારણાન્તિક સ ́લેખણાનુ સેવન કર્યું', કાલ આવ્યે કાલ કરી, વારમા અચ્યુત નામના દેવલોકમાં દેવપણે તે ઉત્પન્ન થયાં. ત્યાંથી ચવી, મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં આવી, त्यां ते क्षेत्र, सिद्ध थशे. (सू०७३)
टीने अर्थ – 'तपणं' इत्यादि. त्यार माह श्रमषु भगवान महावीरने, मास्यावस्था पसार ऊर्जा पछी में अन
凍
कल्पमञ्जरी टीका
भगवतः स्वजनवर्णनम् .
॥११३॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
११४॥
रसना त्वग् मनश्चेति नव अङ्गानि पूर्व सुप्तानि पश्चात् यौवनेन प्रतिबोधितानि यस्य तम्-नवयौवनोल्लसितं ज्ञात्वा अम्बापितरौ साकेतपुराधिपस्य-अयोध्यानगराधिपतेः समरवीरस्य-तदाख्यस्य राज्ञः दुहितु:-पुत्र्याः, धारिण्यातदाख्याया देव्याःया अङ्गजातायाः पुच्याः यशोदायाःतदाख्यायाः राजवरकन्यायाः राजश्रेष्ठपुत्र्याः पाणि= करम् अग्राहयताम्-विवाहं कारितवन्तौ ।
ततः पाणिग्रहणानन्तरं खलु कालक्रमेण श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'मियदर्शना' इति नाम-तन्नाम्ना प्रसिद्धा दुहिता कन्या जाता-उत्पन्ना, सा-प्रियदर्शना च यौवनकं यौवनावस्थाम् अनुमाप्ता-क्रमेण प्राप्ता सती भगवता स्वकस्मै भागिनेयाय=निजभगिनीपुत्राय जमालये दत्ता। तस्याः प्रियदर्शनाया दुहिता-कन्या 'शेषवती' इति नाम जाता।
श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पितुः काश्यपगोत्रस्य-काश्यपगोत्रोत्पन्नस्य त्रीणि नामधेयानि सन्ति,
टीका
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परिपक्व-विज्ञान-वाला, दो कान, दो आख, दो नाक, रसना, त्वचा और मन-यह नौ अंग जो सुप्त थे, उन्हें म, यौवन के कारण जागृत हुआ देखकर, माता-पिता ने अयोध्या के राजा समरवीर की पुत्री और धारिणी नामक देवी की अंगजात यशोदा-नामक श्रेष्ठ राजकन्या के साथ उनका विवाह कराया।
विवाह के बाद कालक्रम से श्रमण भगवान महावीर को 'प्रियदर्शना' नामक एक कन्या की प्राप्ति हुई। प्रियदर्शना धीरे-धीरे यौवन अवस्था में पहुँची तो भगवान् ने उसे अपने भागिनेय जमालि को दीजमालि के साथ उसका विवाह कर दिया। प्रियदर्शना की भी कन्या शेषवती नामक हुई।
श्रमण भगवान् महावीर के पिता के, जो काश्यपगोत्र में उत्पन्न हुए थे, तीन नाम थे-सिद्धार्थ,
भगवतो विवाहवर्णनं स्वजनवर्णनं च।
॥११४॥
આંખ, બે નાક, જીભ, ત્વચા અને મન એ નવ અંગે જે સુપ્તાવસ્થામાં હતાં તે યૌવનને કારણે જાગૃત થતાં પરિપકવવિજ્ઞાનવાળાં થયેલ જોઈને માતા-પિતાએ અયોધ્યાના રાજા સમરવીરની પુત્રી અને ધારિણી દેવીની અંગજાત યશોદા
નામની શ્રેષ્ઠ રાજકન્યાની સાથે તેમને વિવાહ કર્યો. વિવાહ પછી કાળક્રમે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને યશોદાની ખે રોગ “પ્રિયદર્શના” નામની કન્યા થઈ. પ્રિયદર્શના ધીરે ધીરે યૌવનાવસ્થાએ પહોંચી ત્યારે ભગવાને પિતાના ભાણેજ પS જમાલિ સાથે તેને વિવાહ કર્યો પ્રિયદર્શનાને પણ શેષવતી નામે પુત્રી થઈ
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श्रीकल्प
मूत्रे ॥११५॥
कल्पमञ्जरी
टीका
यथा-'सिद्धार्थः' इति वा, 'श्रेयांस' इति वा, यशस्वी' इति वा।
वाशिष्ठगोत्रायाः वाशिष्ठगोत्रोत्पन्नायाः मातुर्नामधेयानि त्रीणि सन्ति, यथा-'त्रिशला' इति वा, 'विदेहदत्ता' इति वा, 'प्रियकारिणी' इति वा।।
भगवतः पितृव्यः सुपाचः काश्यपगोत्र:-काश्यपगोत्रोत्पन्नः आसीत् , ज्येष्ठः अग्रजो भ्राता नन्दिवर्धन:तदाख्यः काश्यपगोत्र: काश्यपगोत्रोत्पन्न आसीत् । ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना काश्यपगोत्रा आसीत् । भार्या यशोदानाम्नी कौडिन्यगोत्रा आसीत्। दुहितुः कन्यायाः काश्यपगोत्राया द्वे नामधेये स्तः, यथा'अनवद्या' इति वा, 'प्रियदर्शना' इति वा।
कौशिकगोत्रायाः नच्या दौहित्र्याः द्वे नामधेये स्तः, यथा-'शेषवती' इति वा 'यशस्वती' इति वा। श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्यापितरौ-मातापितरौ पार्थापत्यीयौ पार्श्वनाथस्य शिष्यपरम्परासम्बन्धिनौ श्रेयांस और यशस्वी।
वाशिष्ठगोत्र में उत्पन्न माता के तीन नाम थे-त्रिशला, विदेहदत्ता और मियकारिणी।
भगवान् के काका काश्यपगोत्रोत्पन्न 'सुपाच' थे। बड़े भ्राता काश्यपगोत्रोत्पन्न नन्दिवर्धन बड़ी बहिन काश्यपगोत्रीया सुदर्शना थी। पत्नी का नाम यशोदा था, वह कौडिन्य-गोत्र में उत्पन्न हुई। थी। उनकी कन्या काश्यपगोत्रीया के दो नाम थे-मियदर्शना और अनाया। कौशिकगोत्र में उत्पन्न नातिन के दो नाम थे-शेषवती और यशस्वती।
भगवान् के माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ को शिष्यपरम्परा से संबंध रखने वाले श्रावक थे।
શ્રમણ ભગવાન મહાવીરનાં પિતા કાશ્યપગોત્રમાં જન્મ્યાં હતાં. તેમનાં ત્રણ નામ હતાં-સિદ્ધાર્થ, શ્રેયાંસ અને યશસ્વી.
વાશિષ્ઠગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ તેમનાં માતાનાં પણ ત્રણ નામ હતા-ત્રિશલા, વિદેહદત્તા અને પ્રિયકારિણી.
ભગવાનના કાકા “સુપાર્શ્વ” કાશ્યપગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ હતા. મોટા ભાઈ કાશ્યપગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ નન્દિવર્ધન હતા. કાશ્યપગોત્રીયા સુદર્શન તેમની મોટી બેન હતાં. પત્નીનું નામ યશોદા હતું, તે કૌડિન્યત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ હતી. તેમની કાશ્યપગેત્રીયા કન્યાનાં બે નામ હતાં–પ્રિયદર્શન અને અનવદ્યા. કૌશિકગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ નાતિન (દીકરીની દીકરી) નાં બે નામ હતાં–શેષવતી, યશસ્વતી.
ભગવાનના માતા-પિતા ભગવાન પાર્શ્વનાથની શિષ્ય પરંપરા સાથે સંબંધ રાખનાર શ્રાવક હતાં. તેઓ ઘણાં
भगवतः स्वजन वर्णनम्.
॥११५॥
છે
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥११६||
मञ्जरी
टीका
भगवतो मातापित्रोः
श्रमगोपासको प्राकको चापि अभूताम् आस्ताम् । तौ-महावीरस्य मातापितरौ बहनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं श्रावकत्वं पालयित्वा अपश्चिमया सर्वान्तिमया मारणान्तिक्यान्मरणान्तिमसमयभवया संलेखनया जोषणया जोषितशरीरी सन्तौ कालमासे कालं कृत्वा द्वादशे-अच्युते कल्पे देवतया देवत्वेन उपपन्नौ। ततः खलु
कल्पमहाविदेहक्षेत्रे उत्पद्य सेत्स्यतः सिद्धि प्राप्स्यतः ॥९०७३।।
मूलम्-तेणं कालेणं तेग समएणं समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगए अम्मापिऊहिं देवलोयं गर समाणेहिं समत्तपइण्णे भट्ठावीसं वासाई अगारमज्झे वसित्ता अभिणिक्खमणाभिप्पाए यावि होत्था। तं जाणिय भगवश्री जे माया गंदिवद्धगो राया भयवं एवं वयासो-'हे भायर ! अम्मापिऊणं वियोगदुक्खं अजावे नो विसरियं, नो णं अम्हाणं सयणपरियणो सोगविमुको संजाओ, एयम्मि अवसरम्मि तुब्भे अभिगिक्खमणाभिप्पाया हविय मा मम हिययम्मि खए खारं णिक्खेवेह । पाणप्पियाणं तुम्हाणं विरहो अम्हाणं असज्झो अत्थि । भगवया कहियं-अम्मापिउभइणीभाइसंबंधो अस्स जीवस्स अणंतवारं जाओ, एत्थ नो पडिबंधो काययो-त्ति । णंदिवद्धणेण वुत्तं-भायर ! जंभे कहियं तं सव्वं सच्चं, मम अग्गहेगवि तुम्हेहिं दो वरिसाइं
पावाजाव गिद्दवासे अस्सं वसियव्वं-ति।
SEE पत्यीयतए णं णिच्छयणाणी भयवं नियभाउगो नंदिवद्धणस्स एयमढे सोचा निसम्म एवं वयासी-जइ एवं
श्रावकत्वभवं कहेइ तो दो वरिसाई जाव गिहवासे वसामि, अज्जप्पभिई च णं गिम्मि मज्झ निमित्तं आरंभो समारंभोसस्य मोक्ष्यवा नो करणिजो। साहुवित्तीए अहं चिहिस्सामि । नंदिवद्धगो राया तं पडिच्छइ ।
- माणत्वस्य वे बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय पालकर सबसे अन्तमें, मरणके समय में होने वाली संलेखनाजोवणा से शरीर को जोपित करके (समाधि-मरण का सेवन करके) कालमास में काल कर के बारहवें अच्युत-नामक कल्प में देव-पर्याय से उत्पन्न हुए । वहाँ से च्यवकर महानिदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे और मुक्ति प्राप्त करेंगे । ।। ७३ ॥
॥११६॥ વર્ષો સુધી શ્રમણે પાસકપર્યાય પાળીને, છેવટે મરણ ન મયે થનારી લેખના-જેષણથી શરીરને જેષિત કરીને (સમાધિમરણનું સેવન કરીને) કાળમાસમાં કાળ કરીને અશ્રુત-નામના બારમાં કલ્પમાં દેવરૂપે ઉત્પન્ન થયાં. ત્યાંથી આવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે અને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરશે. (સૂ૦૭૩)
च वर्णनम्.
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श्रीकल्प
कल्प
तए णे समणे भगवं महावीरे सत्य निवासे यसमाले निकाउस्सी करेमाणेबमवर पालेमाणे सिगाणं सरोरसोहं च वज्जेमाणे एसणिजेणं असणाइणा सरीरजतं निम्बाहेमाणे विमुद्धज्माणं झियायमाणे भावमुणिवित्तीए जहातहा एगं वरिसं अगारवासे वसीअ ॥०७४॥
छाया--तस्मिन् काले सस्मिन् समये श्रनगो भगवान महावीरः त्रिज्ञानोपगतः अम्बापित्रोः देवलोकं गतयोः सतोः समाप्त रतिज्ञः अष्टाविंशति वर्षाणि अगारमध्ये उषित्वा अभिनिष्क्रमणाभिप्रायश्चापि बभूव । तज्ज्ञात्वा भगवतो ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धनो राजा भगान्तमेवमवादीत-हे भ्रातः ! अम्बापित्रोवियोगदुःखमद्यापि नो विस्मृतम् , नो खलु अस्माकं स्वजनपरिजनः शोकविमुक्तः संजातः, एतस्मिन् अवसरे यूयमभिनिष्क्रमणाभिप्राया भूत्वा मा मम हृदयेक्षते क्षार निक्षिपत। प्रागप्रियाणां युष्माक विरहोऽस्माकमसह्योऽस्ति ।
मञ्जरी
॥११॥
टीका
बागस्ता
को
मूल का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल और उस समय में तीन ज्ञान से श्रमण भगवान महावीर की, माता-पिता के देवलोक-गमन करने पर, प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। अट्ठाईस वर्ष तक गृहवास में रहकर उन्होंने दीक्षा अंगीकार करने का विचार किया । यह जान कर भगवान् के ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन राजाने भगवान् से कहा-हे बन्धु ! माता-पिता के वियोग का दुःख अभी तक भूला नहीं है, हमारे स्वजन और परिजन शोक से मुक्त नहीं हुए हैं । इस अवसर पर दीक्षा अंगीकार करने का विचार मत करो, मेरे हृदय के घाव पर नमक (क्षार) मत छिड़को । तुम मुझे प्राणों के समान प्रिय हो । तुम्हारा विरह हमें असह्य है ।
अभिनिष्क्र। मणार्थ
भगवतो नन्दिवर्धनेन सह संवाद:
भूणना --'सेणं कालेणं' त्याहि. ते ४ाणे ते समये, त्र ज्ञानयुत श्रम वान महावीरना भाताપિતા દેવલોકમાં પધારવાના કારણે તેમની પ્રતિજ્ઞા પૂર્ણ થઈ ગઈ. અઠ્ઠાવીસ વર્ષ ગૃહસ (સંસાર)માં રહ્યા પછી તેમણે દીક્ષા અંગીકાર કરવા નિશ્ચય કર્યો.
પ્રભુને આ નિર્ણય જાણી ભગવાનના મોટાભાઈ નંદિવર્ધન રાજાએ ભગવાનને કહ્યું કે “હે ભાઈમાતાપિતાના વિયોગનું દુઃખ હજી હું વીસરી શકી નથી. આપણા સ્વજન-પરિજને પણ શોકથી હજી મુક્ત થયાં નથી.
એવા સંજોગોમાં તમે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાની વાત ન કરો, મારા હૈયામાં પડેલા ધા હજી રૂઝાયા નથી ત્યાં મીઠું Sજ ભભરાવવાનું સાહસ ન ખેડે. તમે મારા પ્રાણુથી પણ અધિક વહાલા છે. તમારે વિયેગ મારાથી સહન થશે નહિ. JainEducation eSationa l
॥११७॥
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श्रीकल्प
मूत्रे
॥११८॥
भगवता कथितम्-अम्बापितृभगिनीभ्रातृसम्बन्धोऽस्य जीवस्य अनन्तवारं जातः, अतोऽत्र नो प्रतिबन्धः कर्तव्य इति नन्दिवर्धनेनोक्तं-भ्रातः! यद् युष्माभिः कथितं तत् सर्व सत्यं, ममाऽऽग्रहेणापि युष्माभिव वर्षे यावद् गृहवासेऽवश्य वस्तव्यमिति ।
ततः खलु निश्चयज्ञानी भगवान् निजभ्रातुर्नन्दिवर्धनस्य एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य एवमवादीत्-यद्येवं भवान् कथयति तदा द्वे वर्षे यावद् गृहवासे सामि। अधप्रभृति च खलु गृहे मनिमित्त आरम्भः समारम्भो वा नो करणीयः, साधुटत्या स्थास्यामि । नन्दिवर्धनो राजा तत प्रतीच्छति।
ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः तत्र गृहवासे वसन् नित्यं कायोत्सर्ग कुर्वन् ब्रह्मचर्य पालयन्
भगवान् ने कहा-माता, पिता, बहिन, भाई का संबंध इस जीव का अनन्त बार हो चुका है, अतः इस विषय में रुकावट न डालिए ।
नन्दिवर्धन बोले-भाई ! तुमने जो कहा सो सब सच है; मगर मेरा आग्रह मान कर भी तुम्हें दो वर्ष तक गृहवास में आश्य रहना चाहिए ।
तब निश्चयज्ञानी भगवान ने अपने भाई नन्दिवर्धन के इस अर्थ को मनकर और हृदय में धारण कर के इस प्रकार कहा-यदि आप ऐमा कहते हैं तो दो वर्ष तक गृहवास में रहता हूँ; मगर आज से मेरे निमित्त घरमें प्रारंभ-समारंभ न होना चाहिए। मैं साधु-गृत्ति से रहूँगा । नन्दिवर्धन राजाने यह वात स्वीकार कर ली।
तब से श्रमण भगवान महावीर गृहवास में रहते हुए, नित्य कायोत्सर्ग करते हुए, ब्रह्मचर्य का
ભગવાને જવાબ આપ્યો-“હે ભાઈ માતા-પિતા અને બહેન-ભાઈને સંબંધ તે આ જીવે અનંતીવાર કર્યો છે. માટે આ વિષયમાં હવે અંતરાય ન નાખે તે સારૂં! ”
નંદિવર્ધને આગળ ચાલી કહ્યું કે હે ભાઈ ! તમે જે કહ્યું તે સત્ય છે. પરંતુ મારો આગ્રહ માની જઈ તમે હજુ બે વર્ષ ગૃહવાસમાં વિતાવો તે સારું ! | મેટાભાઈને આ પ્રત્યુત્તર સાંભળી નિશ્ચયજ્ઞાની પ્રભુ મહાવીરે પોતાના ભાઈ નંદિવર્ધનની આવી ઈચ્છા જાણી, હદયમાં ઉતારી અને કીધું કે જે આપની ઈચ્છા એમ જ હોય તો હું હજુ બે વર્ષ ગૃહવાસમાં રહી, પણ શરત એ કે મારા નિમિત્ત, ઘરમાં કઈ પણ પ્રકારનો આરંભ–સમાન થવો ન જોઈએ. હું સાધુ-વૃત્તિવાળે થઈને જ રહીશ.’ નંદિવર્ધને પ્રભુની આ વાતને સ્વીકાર કર્યો.
મોટાભાઈ સાથે આ વાત થયા પછી, શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ગૃહવાસમાં રહી દિવસો વીતાવવા લાગ્યા,
अभिनिष्क्र
मणार्थ भगवतो नन्दिवर्धनेन सह
संवाद
॥११८॥
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श्रीकल्प
स्नानं शरीरशोभां च वर्जयन् एषणीयेनाशनादिना शरीरयात्रां निर्वहन् विशुद्धध्यानं ध्यायन् भावमुनिवृत्त्या यथा तथा एक वर्षमगारवासेऽवसत् ।।मू०७४||
टीका--'तेणं कालेणं तेणं सम एणं' इत्यादि। तस्मिन् काले तस्मिन् समये मातापितृदेवलोकगमनकालावसरे श्रमणो भगवान् महावीरस्त्रिज्ञानोपगतः मतिश्रुत्यवधिरूपज्ञानत्रयवान् अम्बापित्रोः मातापित्रोः देवलोकं स्वर्गलोकं गतयोः सतोः समाप्तप्रतिज्ञः पूर्णप्रतिज्ञः सन् अष्टाविंशतिम् अष्टाविंशतिसंख्यानि वर्षाणि अगारमध्ये गृहमध्य उपित्वापासं कृत्वा अभिनिष्क्रमणाभिप्रायः संयमग्रहणाभिलाषुकः अभूत, तत् ज्ञात्वा भगवतः श्रीवीरस्य ज्येष्ठभ्राता नन्दिवर्धनो राजा भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनमेवमवादीत-हे भ्रातः! अम्बापित्रोः= मातापित्रोः वियोगदुःख-विरहजनितदुःखम् अद्यापि अद्यपर्यन्तमपि नो विस्मृतम्, तथा-अस्माकं स्वजनपरिजनः
कल्पमञ्जरी
॥१९॥
टीका
पालन करते हुए, स्नान एवं शरीरशोभा न करते हुए, एषणीय अशन आदि से शरीरयात्रा का निर्वाह करते हुए, विशुद्ध ध्यान ध्याते हुए, भावमुनि की वृत्ति से जैसे-तैसे एक वर्ष तक आगारवास में रहे । ॥सू०७४॥
टीका का अर्थ- 'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल और उस समय में अर्थात् माता-पिता के देवलोक-गमन के समय में मति श्रुत और अवधिज्ञान के धनी श्रमण भगवान महावीर पूर्णपतिज्ञ हो गये, अर्थात उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। तब अट्ठाईस वर्ष गृहवास कर के वे संजम ग्रहण करने के अभिलाषी हुए । यह जानकर श्री महावीर के ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन राजा भगवान् वीर स्वामीसे इस
अभिनिष्क्रमणार्थ भगवतो नन्दिवर्धनेन सह संवाद:
તે દરમ્યાન આ પ્રમાણે નિયમોનું પાલન કરવા લાગ્યા. (૧) દરરોજ કાયોત્સર્ગ કરતા. (૨) બ્રહાચર્યનું પાલન કરતા. (૩) શરીરની શોભા વધારવાના ઉપાયોથી દૂર રહેતા. (૪) શરીરના પિષણ પૂરતો જ આહાર લેતા. એ પ્રકાર વિશુદ્ધ ધ્યાન ધરતાં ધરતાં ભાવમુનિ જેવી વૃત્તિને આચરતાં જેમ તેમ એક વર્ષ સુધી અગારવાસમાં (સંસારી५९मi) ह्या. (सू०७४)
सानो भय'तेणं कालेणं' त्याहि. ते जाणे मन त समये , प्रभु महावीरना भाता-पिता દેવલોક પામતાં, મતિ, કૃત અને અવધિજ્ઞાનધારી એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પ્રતિજ્ઞા હવે પૂર્ણ થઈ. આ વીસ
વર્ષ સંસારમાં રહ્યા બાદ તેમને સંયમ લેવાની એટલે કે દીક્ષા લેવાની ભાવના જાગૃત થઈ. જ્યારે પ્રભુ મહાવીરના પર મોટાભાઈ રાજા નન્દિવને આ જાણ્યું ત્યારે તેમણે ભગવાન મહાવીરને ભારે હૈયે કહ્યું –“ભાઈ, વર્ધમાન ! માતા-પિતાના
॥११९॥
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श्रीकल्प
मूत्र ॥१२॥
कल्पमञ्जरी टीका
शोकविमुक्तः अस्मदीयमातापितृवियोगननितशोकरहितो नो संजातः, एतस्मिन् अवसरे शोकवति प्रसङ्गे यूयमभिनिष्क्रमणाभिप्राया भूत्वा मम क्षते-मातापित्मरणजनितदुःखरूपत्रणयुक्त हृदये मनसि क्षारं-स्ववियोगजनितदुःश्वरूपं लवणं मा निक्षिपतन्न पातयत। प्राणप्रियाणां प्राणेभ्योऽप्यधिकानां युष्माकं विरहो-वियोगः अस्माकम् असद्यः सोडमशक्योऽस्ति। ततो भगवता श्रीवर्धमानस्वामिना कथितम्-यत् अम्बापितृभगिनीभ्रातृसम्बन्धः अस्य जीवस्य अनन्तवारं जातः, अत: अस्माद्धेतोः अत्र-परिव्रज्यायां प्रतिबन्धः= अन्तरायः नो कर्त्तव्य इति । तच्छुत्वा नन्दिवर्धनेन उक्तम्-हे भ्रातः ! यत् युष्माभिः कथितम् तत् सवम् प्रकार वोले-भाई ! माता और पिता का विरह-जनित दुःख अभी तक भी मुझे दुःखी कर रहा है तथा स्वजन और परिजन भी इस शोक से मुक्त नहीं हो पाये हैं । इस शोक के प्रसंग पर संयम ग्रहण करने के अभिलाषी हो कर तुम माता-पिता की मृत्यु के दुःखरूपी घाव से युक्त मेरे हृदय पर अपने वियोगजनित दुःखका नमक मत छिड़को, अर्थात् दुःखी को अधिक दुःख मत दो। तुम प्राणों से भी अधिक प्रिय हो । तुम्हारे वियोग का दुःव हमारे लिये सद्य नहीं हो सकता।
तव वर्धमान स्वामीने कहा माता, पिता, बहन और भाई का संबंध इस जीव के साथ अनन्तवार हुआ है । अत एव पत्रज्या ग्रहण करने में विघ्न न कीजिए ।
यह सुनकर चन्दिवर्धन बोले-तुमने जो कहा है सो अक्षरशः सत्य है । मगर मेरे अनुरोधવિરહનું દુઃખ તે હજી મારા હૈયાને કાતરી રહ્યું છે. હૈયું દુઃખથી શકાતુર છે. સ્વજને અને પરિજને પણ હજી આ શોકની લાગણીમાંથી મુક્ત થયા નથી. એક બાજુ શેકનાં વાદળો તુટી પડયાં છે, તેમાં વળી તમે સંયમ લેવાની અભિલાષા દર્શાવીને માતાપિતાના મૃત્યુને કારણે આઘાત પામેલા મારા હૈયાં ઉપર તમારા વિયોગનાં દુઃખ રૂપી મીઠું ભભરાવશે. રાજપાટ મળવા છતાં હું દુઃખી છું. મને વધારે દુઃખી ન કરશો. તમે મારા પ્રાણથી પણ વધારે મને પ્રિય છો તમારા વિયાગનું દુઃખ અમારે માટે અસહ્ય થઈ પડશે.”
ત્યારે વર્ધમાન પ્રભુએ કહ્યું “જયેષ્ઠ બંધુ! માતા-પિતા, ભાઈ અને બહેનને સંબંધ આ જીવને અનંતી વાર થયો છે. આ સંબંધ કાંઈ નસવો નથી, માટે પ્રવજા (દીક્ષા) લેવાના મારા શુભ કાર્યમાં અંતરાય ના are tindi अनुमोहन मापी."
આ સાંભળીને નન્ટિવર્ધને કહ્યું – “બંધુ ! તમે જે કહો છો તે અક્ષરશઃ સત્ય છે–સનાતન સત્ય છે,
म अभिनिष्क्र
मणार्थ भगवतो नन्दिवर्धनेन सह संवादः
॥१२०॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥१२१॥
ALLA
अक्षरशः सत्यं =यथार्थम्, परन्तु मम आग्रहेण = अनुरोधेनापि युष्माभिः द्वे वर्षे = वर्षद्वयं यावत् गृहवासे अवश्यं वस्तव्यम् = वासः कर्त्तव्य इति ।
ततः खलु निश्चयज्ञानी= 'वर्षद्वयावधि मम संसारवासोऽवशिष्टोऽस्ति' इति अवधिज्ञानेन निश्चयज्ञानवान् भगवान श्रीवीरः निजभ्रातुः नन्दिवर्धनस्य एवम् = इमं पूर्वोक्तम् अर्थ=विषयं श्रुत्वा = सामान्यतः श्रवणगोचरीकृस्य निशम्य = हृदि विशेषतोऽवधार्य एवम् = अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत्-यदि एवम् भवान् कथयति तदा द्वे वर्षे यावत् = वर्षद्वयपर्यन्तं गृहवासे वसामि किन्तु - अद्यप्रभृति = अथाऽऽरभ्य गृहे मन्निमित्तो = मदर्थः आरम्भः =ओदनादिपचनक्रिया समारम्भः = तद्विशिष्टपचनक्रिया वा नो करणीयः, अहं साधुवृत्या - मुनिजनवदाचरणेन स्थास्यामि=निवत्स्यामि । ततो नन्दिवर्धनो राजा तत् = श्रीवीरवचनं प्रतीच्छति = स्वीकरोति ।
।
आग्रह से भी आप को दो वर्ष तक गृहवास में अवश्य रहना चाहिए ।
तब निश्चयज्ञानी अर्थात् ' दो वर्ष तक मेरा संसार वास शेष है' ऐसा अवधिज्ञान से जानने वाले भगवान् श्रीवीरने अपने भाई नन्दिवर्धन की इस बात को सुनकर तथा हृदय में विशेषरूप से धारण कर के इस प्रकार कहा - अगर आप ऐसा कहते हैं तो दो वर्ष तक गृहवास में रहता हूँ, किन्तु आज से घर में मेरे निमित्त आहारादि का पचन - पाचन - रूप आरंभ-समारंभ नहीं होना चाहिए । मुनियों जैसी
चर्या से निवास करूँगा । तब नन्दिवर्धन राजाने वीर भगवान् के वचनों को स्वीकार किया ।
だ
પણ મારા અનુધ ગ્રહથી મારા દુઃખને હળવુ કરવા પણ તમારે એ વર્ષે સંસારમાં અવશ્ય ખે‘ચી
अढवले. "
નિશ્ચયજ્ઞાની પ્રભુએ જ્ઞાનના પ્રભાવે જોયુ કે હજી એ વષઁ સુધી મારે સંસારમાં રહેવાનુ ખાકી છે, ત્યારે પેાતાના ભાઈ નન્દિવધ નની આ વાતને પાછી ન ઠેલતાં હૃદયમાં વિશેષરૂપે ધારીને કહ્યું —“ વિડિલ બધું ! આપની જે એમ ઇચ્છા છે તે બે વર્ષ સુધી હુ' ગૃહવાસમાં તે રહીશ, પણ આજથી ઘરમાં મારા નિમિત્તે આહાર વિગેરેના પચન-પાચન રૂપ આરંભ-સમારંભ થવા જોઇએ નહિ. હું મુનિઓ જેવી ચર્ચાથી નિવાસ કરીશ, કાળાં વાદળામાં દૃશ્યમાન થતી તેજરેખા જેવી પ્રભુની વાણી સાંભળી રાજા નન્તિવનને ટાઢક વળી અને એટલેથી સતાષ માની પ્રભુનાં આ વચનાના સ્વીકાર કર્યાં.
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WHY BIRKE
कल्प
मञ्जरी टीका
अभिनिष्क्र मणार्थ भगवतो नन्दिवर्ध
नेन सह
संवादः
।।१२१॥
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श्रीकल्प
मृत्रे ॥१२२||
कल्पमञ्जरी
टीका
ततः नन्दिवर्धनस्य श्रीवीरोक्तस्वीकरणानन्तरं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः तत्र-तस्मिन्-गृहवासे वसन् नित्यं प्रतिदिनम् कायोत्सर्ग कुर्वन् ब्रह्मचर्य पालयन् स्नानं शरीरशोभां च वर्जयम्=त्यजन् प्रामुकैपणीयेन-निर्दोषेण अशनादिना शरीरयात्रां-शरीरस्थितिं निर्वहन् सम्पादयन् विशुद्धध्यानं धर्मध्यानं ध्यायन् कुर्वन् भावमनिवृत्या भावमनिवदाचरणेन-यथा-तथा येन-तेन प्रकारेण एक वर्षम् अगारवासे-गृहवासेऽवसत अतिष्ठत् ॥मू०७४॥
मूलम्--तेणं कालेणं सेणं समएणं लोगंतियदेवाणं सपरिवाराणं आसणाई चलंति। तए णं ते देवा भगरओ निक्वमणाभिप्पायं श्रोहिणा आभोगिय भगवओ अंतिए आगमिय आगासे ठिच्चा भयवं वंदमाणा नमसमाणा एवं वयासी-जय जय भगवं! बुज्झाहि लोगनाह ! सबजगजीवरक्खणदयट्टयाए पवत्तेहि धम्मतित्थं, जं सबलोए सबपाणभूयजीवसत्ताणं खेमंकरं आगमेसिभदं च भविस्सइ-त्ति । जं संयंबुद्धस्सवि भगवओ अभिणिक्खमणत्थं देवाणं कहणं तं तेसिं देवाणं जीयकप्पं ।
तया णं समणे भगवं महावीरे संवच्छरदाणं दलइ, तं जहा पुवं मूराम्रो जाव जामं अट्ठसयसहस्साहियं एग कोडि एगदिवसेणं दलइ । एवं एगम्मि संवच्छरे तिन्नि कोडीसयाई अढासीई कोडीओ असीई सयसहस्साई (३८८८००००००) सुवण्णमुद्दाणं भगवया दिष्णाई । तए णं से नंदिवद्धणे राया भगवओ अभिणिक्खमणमहोच्छवं करे।
महावीरस्य
निश्चय म ज्ञातित्वेन
वर्षद्वयं गृहस्थावासेऽवस्थानम्।
श्रीवीर भगवान् का कथन नन्दिवर्धन द्वारा स्वीकार कर लेने पर श्रमण भगवान् महावीर गृहवास में बसते हुए प्रतिदिन कायोत्सर्ग करते हुए, ब्रह्मचर्य पालते हुए, स्नान एवं शरीरशोभा का त्याग करते हुए, निर्दोष अशन-पान आदि से शरीरयात्रा का निर्वाह करते हुए भावमुनि के समान आचरण कर के जैसे-तैसे एक वर्ष तक गृहवास में रहे । ॥ मू०७४ ॥
॥१२२॥
મોટાભાઈ નન્દિવર્ધને પ્રભુના કથનને સવીકારતાં, શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સંસારમાં રહેવા છતાં સાધુચય કરવા લાગ્યા દરરોજ કાત્સગ કરતાં, બ્રહ્મચર્યનું પાલન કર મi, શરીરશેભા વધારનારાં સાધનો અને સ્નાનને ત્યાગ કર્યો, નિર્દોષ આહાર-પાણી વિગેરેથી શરીરને નીમાવતા. આ પ્રમાણે ધમ ધ્યાન કરતાં ભાવમુનિના (મુનિની ભાવનાવાળા) જેવું આચરણ કરતાં ભગવાનનું એક વર્ષ તે સંસારમાં પસાર થયું. (સૂ૦૭૪ )
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥१२३॥
कल्पमञ्जरी
टीका
तो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमणनिच्छर्य जाणेत्ता सक्कप्पमुहा चउसट्टी वि इंदा भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहिं सएहि परिवारहिं परिघुडा सईयाहिं २ इड्ढीहि समागया। तं समयं जहा कुसुमियं वणसंडं, सरयकाले जहा पउमसरो, पउमभरेणं जहा वा सिद्धत्यवणं, कणियारवणं, चंपयवणं कुसुमभरेणं सोहइ तहा गगणतलं सुरगणेहि सोहइ |मू०७५॥
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये लोकान्तिकदेवानां सपरिवाराणामासनानि चलन्ति । ततः खलु ते देवा भगवतो निष्क्रमणाभिप्रायमवधिनाऽऽभोगयित्वा भगवतोऽनिके आगत्याऽऽकाशे स्थित्वा भगवन्तं वन्दमाना नमस्यन्तः एवमवादिषुः-जय जय भगवन् !, बुध्यस्व लोकनाथ !, सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थतायै प्रवर्तय धर्मतीर्थ-यत् सर्वलोके सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वानां क्षेमङ्करम् आगमिष्यद्भद्रं च भविष्यतीति । यत् स्वयंबुद्धस्यापि भगवतः अभिनिष्क्रमणार्थ देशनां कथनं तत् तेषां देवानां जीतकल्पः । ततः खलु श्रमणो
मूल का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल और उस समय में परिवार-समेत लोकान्तिक देवों के आसन चलित हुए । तब वे देव भगवान् के दीक्षा अंगीकार करने के अभिप्राय को अवधिज्ञान से जानकर भगवान के समीप आये । आकाश में स्थित हो कर भगवान् को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले-'जय हो, जय हो भगवान् !, बोध प्राप्त करिये, हे तीन लोक के नाथ ! समस्त जगत् के जीवों की रक्षा और दया के लिए धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कीजिए, जो सर्वलोक में सर्व प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों के लिए क्षेमंकर होगा, और भविष्य में कल्याणकर होगा। स्वयंबुद्ध भगवान् को भी प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिये देवोंका जो कथन है, वह उनका जीतकल्प है-परम्परागत आचार है ।
भूसनो मय- तेणं कालेणं' याह. तणे मन त सभये परिवारसहित स alsili: स्वाना આસને ચલાયમાન થયાં. અવધિજ્ઞાન મુકીને દોએ જોયું તે પ્રભુ મહાવીરની દીક્ષાભાવના દેખવામાં આવી.
આ જાણતાંની સાથે તે દે ભગવાનની સમીપ આવ્યા. આકાશમાં સ્થિર રહી ભગવાનને ત્યાં રો રો વંદના નમસ્કાર કર્યા. ત્યારબાદ દે કહેવા લાગ્યા કે “ભગવાનની જય હો ! ભગવાનની વિજય હે !. હે નાથ ! આપ જ્ઞાનના સ્વામી બનો! સમસ્ત જગતવાસી છાનું રક્ષણ અર્થે ધર્મતીથની સ્થાપના કરે! જેથી કરીને સવેલકમાં સર્વપ્રાણી-ભૂત-જીવન્સવને માટે જે કાંઈ સુખકર અને કલ્યાણકારી હોય તે પ્રવર્તાવ!” ભગવાન પોતે તે જ્ઞાની છે, પણ દે આવીને પ્રવજ્યા ગ્રહણું કરવાનું ભગવાનને સમજાવે છે. તે તેમને છતવ્યવહાર એટલે પરંપરાગત આચાર છે.
भगवते दीक्षार्थ लोकान्तिक
देवानां प्रार्थनम्।
॥१२॥
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सूत्रे ॥१२४॥
भगवतो वार्षिक
भगवान् महावीरः संवत्सरदानं ददाति, तद् यथा-पूर्व सात यावद् याममष्टशतसहस्राधिकामेकां कोटिम मेकदिवसेन ददाति । एवमेकस्मिन् संवत्सरे त्रीणि कोटिशतानि, अष्टाशीतिः कोटयः, अशीतिः शतसहस्राणि र सुवर्णमुद्राणां भगवता दत्तानि । ततः खलु स नन्दिवर्धनो राजा भगवतोऽभिनिष्क्रमणोत्सवं करोति ।
ततः खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याभिनिष्क्रमणनिश्चयं ज्ञात्वा शक्रममुखाश्चतुष्पष्टिरपीन्द्राः भवनपतिव्यन्तरज्यौतिपिकविमानवासिनो देवाश्च देव्यश्च स्त्रकैः स्वकै परिवारैः परिवृताः स्वकीयाभिः २ ऋद्धिभिः समागताः । तस्मिन् समये-यथा कुसुमितं वनषण्डम् , शरत्काले यथा पद्मसरः पद्मभरेणं, यथा वा सिद्धार्थवनं वम्पकवनं कुसुमभरेण शोभते तथा गगनतलं सुरगणैः शोभते ।।०७५।।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर वर्षी-दान देने लगे । वह इस प्रकार-सूर्योदय से पहले एक प्रहर दिन तक एक करोड़ आठ ला व सौनया एक दिन में दान देते थे। इस प्रकार एक वर्ष में, तीन सौ अठासी करोड़, अस्सी लाख स्वर्णमुद्राओं का भगवान् ने दान दिया। तत्पश्चात् राजा नन्दिवर्धन ने भगवान् का अभिनिष्क्रमण-महोत्सव किया ।
तब श्रमण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण का निश्चय जानकर शक्र आदि चौसठ इन्द्र, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, विमानवासी देव, देविया, अपने-आने परिवारों सहित और अपनी-अपनी ऋद्धि के साथ आये । उस समय आकाश सुरगणों से ऐसा सुशोभित हुआ, जैसे शरदऋतु में पद्म-सरोवर कमलों से शोभायमान होता है, अथवा जैसे सिद्धार्थवन, कर्णिकारवन एवं चम्पकवन कुसुमों के भार से शोभायमान होता है । मू०७५॥
ત્યારબાત ભગવાન વષીદાન દેવામાં તત્પર થયા. તેઓ સૂર્યોદય પહેલાં એક પહોરમાં એક કરોડ આઠ. લાખ સેનયાનું એક દિવસમાં દાન કરવા લાગ્યા. આ પ્રમાણે કરતાં કરતાં બીજા એક વર્ષ દરમ્યાન પ્રભુએ ત્રણ સે અઠ્ઠ સી કોડ એંસી લાખ સેના મહેરોનું વર્ષદાન દીધું.
ત્યારબાદ નંદીવર્ધન રાજાએ ભારે ઉત્સાહ પૂર્વક ભગવાનને અભિનિષ્ક્રમણ મહત્સવ કર્યો.
ભગવાનને અભિનિષ્કમાણુ સમય જાણીને શક્ર વિગેરે ચોસઠ ઈન્દ્રો, ભવનપતિ, વ્યંતર, જતિષ્ક, અને વિમાન-વાસી દેવ દેવીઓ, પિતા પોતાના પરિવાર અને રિદ્ધિ સાથે આવી પહોંચ્યાં.
જેવી રીતે શરદત્રડતુમાં, પદ્મ સરવર શેભે છે. તેમજ સિદ્ધાર્થવન, કર્ણિકારવન અને ચંપકવન કુસુમેના ભાર ५ शाले छ. तेवी शते सुशवायी ७वामे मा शुशोभित भने २भ्य Enा भांडयु. (सू०७५)
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दानम्, अभिनिक्रमणम्, शक्रादिदेवागमन च
॥१२४॥
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कल्प
श्रीकल्प
मुत्रे ॥१२५॥
मञ्जरी टीका
टीका-'तेणं कालेणं तेणं समए गं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये प्रथमवर्षे व्यतीत द्वितीयवर्षे प्रारब्धे लोकान्तिकदेवानां सपरिवाराणाम् अासनानि चलन्ति । ततः आसनचलनानन्तरं खलु ते लोकान्तिका देवाः, भगवता श्रीवीरप्रभोः निष्क्रमणाभिप्राय पत्रज्येच्छाम् अवधिना-अवधिज्ञानोपयोगेन भोगयित्वा-ज्ञात्वा भगवतः श्रीवीरप्रभोः, अन्तिके निकटे आगम्य आकाशे स्थित्वा भगवन्तं श्रीचीरस्वामिनं वन्दमानाः नमस्यन्त एवं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादिषुः उक्तवन्तः-हे भगवन् ! त्वं जय जय-सर्वोत्कर्षण वारं वारं वर्तस्त्र, लोकनाथ! हे त्रिलोकीपते! बुध्यस्वबोधं प्राप्नुहि, तथा-सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थतायैसर्वेषां जगद्वर्तिनां जीवानाम् एकेन्द्रियादीनां म्रियमाणानां रक्षणार्थ दयार्थ च धर्मतीर्थ प्रवर्त्तय । म्रिय
टीका का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल और उस समय में अर्थात् प्रथम वर्ष बीत जाने पर और दूसरा वर्ष प्रारंभ होने पर सपरिवार लोकान्तिक देवों के आसन चलायमान हुए । आसनों के चलायमान होने के अनन्तर लोकान्तिक देव भगवान् की प्रव्रज्या की इच्छा को अवधिज्ञान से जानकर भगवान के समीप उपस्थित हुए। आकाश में स्थित होकर भगवान् वीर प्रभु को वन्दना-नमस्कार करते हुए वे इस प्रकार बोले-प्रभो ! आप की जय हो, जय हो, ( आप पुनः पुनः सर्वोत्कृष्ट होकर वर्ते)। हे त्रिलोकीनाथ ! आप बोध प्राप्त कीजिये, तथा जगत् के एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों की रक्षा के लिए और दया के लिये धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कीजिए। अर्थात मरने वाले एकेन्द्रिय आदि पाणियों की रक्षाके लिए
न म तेण कालेण त्याही. ज्या ज्येष्टमधुनविननी माज्ञा अनुसार भगवान स्वावना Jહાવાસ દરમ્યાન એક વર્ષ તે વીતી ચુકયું અને બીજા વર્ષને પ્રારંભ થતાં જ પરિવાર સહિતના લોકાંતિક દેવનાં આસને ચલાયમાન થવાં લાગ્યાં આ દે દેવ૫ણામાં હોવા છતાં પણ વૈરાગ્યવાન અને ઉદાસીન વૃત્તિવાલા હોય છે. તેઓના સ્થાનો પણ નિરાલા અને એકાંત જેવા હોય છે. આ દેવ મેક્ષ પંથના નિકટ ગામી હોય છે. તેઓનું દિવ્યજીવન પણ ભેગની દષ્ટિએ અનાસક્ત જેવું હોય છે. કઈ પણ માનવી સંસારમાંથી મહા અભિનિષ્ક્રમણ કરે અગર વાંચછના કરે છે. જ્યારે તેઓના ખ્યાલમાં તરત આવી જાય છે. અને તરત જ તેની પાસે જઈ બેધદાયક વચન સંભળાવી, સંસારદશામાંથી તે મહાપુરુષને જાગૃત કરે છે.
આવી મહાન વ્યક્તિનું સામર્થ્ય જોઈ, ધર્મ પ્રવૃત્તિ ચલાવવા તેમને વિનંતિ પણ કરે છે. કારણ કે જગતના આધિ વ્યાધિ અને ઉપાધિથી સળગી રહ્યા છે, તેમના આ દુઃખો મટાડવાની તીવ્ર ભાવના આ દેમાં હોય છે. આ લેાક બળીજળી રહ્યો છે, તેથી એકેન્દ્રિયથી માંડી પંચેન્દ્રિય સુધીનાં છાની રક્ષા માટે “(મા-હણે
दीक्षार्थ लोकान्तिकदेवानां भगवते प्रार्थनम्।
॥१२५॥
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श्रीकल्प
RUT
माणानां जीवानां रक्षणार्थ 'मा हन मा इन' इति 'दयस्व दयस्व' इति च उपदेशं कुरु, इति भावः । यद् धर्मतीर्थ सर्वलोके सर्वप्राणभूतजीवसत्वानां-सर्वे ये पाणाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, भूताः-तरवः-वनस्पतयः, जीवाः पश्चेन्द्रियाः सत्त्वाः-पृथिव्यप्तेजोवायवस्तेषाम् क्षेमङ्करं कल्याणकरम् आगमिष्यद भविष्यत्काले कल्याणकरं च भविष्यतीति । इत्यं यत् सयंबुदस्य-स्पतो बोधवतोऽपि भगवतः अभिनिष्क्रमणार्थप्रव्रज्याग्रहणार्थ लोकान्तिकानां देवानां भगवन्तं प्रति कथनम् , तत् कथनं तेषां लोकान्तिकानां देवानां जीतकल्पः जीताख्यः कल्पः । १ प्राणा द्वि-वि-चतुः पोक्ता; भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पश्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सचा उदीरीताः॥१॥
।।१२६॥
'मा हन, मा हन' अर्थात् 'मत मारो, मत मारो' ऐसा, तथा 'दया करो, करुणा करो' ऐसा उपदेश कीजिए । यह धमतीर्थ समस्त लोक में द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप प्राणियों को, भूतों (वनस्पतियों) को, जीवों (पंचेन्द्रियों ) को तथा सचों (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय) को कल्याणकारी है और भविष्य में भी कल्याणकारी होगा।'
___इस प्रकार स्वयंबोध को प्राप्त भगवान् को दीक्षा ग्रहण करने के लिए लोकान्तिक देवों का जो कहना है, सो उनका जीतकल्प (परंपरागत प्राचारमात्र ) ही है ।
दीक्षार्थ लोकान्तिकदेवानां भगवते प्राथनम् ।
મ.-હણે) હણે નહિ-હણે નહિ-દયા કરા-દયા કરે” એવા કરૂણ વચને વડે આ લોકાંતિક દેવ, મહાપુરૂષના આત્માને જાગૃત કરે છે. આ એક તેમને કુલ પરંપરાને વ્યહવાન માગે છે. અને તે માગને અનુસરી, આવા પ્રકારનું કાર્ય કરે છે. આ એક ફક્ત તેઓને રુઢિ પરંપરાને આચાર છે.
જાગૃતિને પિકાર સાંભળતાં જ આ જગતના અનિત્ય ધનને, લોકોપયોગી કામમાં વાપરવા, ભાવી તિર્થંકરે ઉદ્યત થાય છે, તેમજ “હાન’ એ ધર્મને મુખ્ય સિદ્ધાંત છે. અને મુખ્ય પાયે ૫ણુ છે, તેવું જગતને ઠસાવવા તેનું પ્રતિપાદક કરાવે છે. અને તેથી જ વરસીદાનની અખંડધરા તેઓની મારફત વહેવા માંડે છે. દરરોજ એક કરોડ
આઠ લાખ ના મહેરના દાનનો હિસાબ કરતાં વરસે દહાડે તે રકમ, ત્રણ અબજ અડ્ડાસી કોડ એંસી લાખ Jan Educationsoonसुधा पडांचे छ.
॥१२॥
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श्रीकल्प
ततः खलु श्रमगो भगवान् महावीरः संवत्सरदानं बार्षिकदानं ददाति-करोति, तद्यथा-सूर्योदयात् पूर्वमारभ्य यामम् एकं प्रहरं यावत् एकाहरपर्यन्तं सुवर्णमुद्राणाम् अष्टशतसहस्राधिकाम् अष्टशतसहस्रोत्तराम् अष्टलक्षाधिकाम् एकां कोटिम् (१०८०००००) एकदिवसेएकस्मिन् दिने ददाति। एवम् प्रति दिवसमष्टलक्षाधिकेककोटिपरिमितसुवर्णमुदादानेन भगवता एकस्मिन् संवत्सरे सर्वसंकलनया सुवर्णमुद्राणां दीनाराणां त्रीणि कोटिशतानि अष्टाशीतिः कोटयः अशीतिः शतसहस्राणि च (३८८८०,००,०००) दत्तानि ।
ततः खलु स नन्दिवर्धनो राजा भगवतः अभिनिष्क्रमणमहोत्सव-दीक्षामहोत्सवं करोति ।
ततः खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अभिनिष्क्रमणनिश्चयं-दीक्षानिश्चयं ज्ञात्वा शक्रममुखाः= शक्रादयः चतुष्पष्टिः इन्द्राः भवनपति-ध्यन्नर-ज्योतिविक-मानवासिनो देवाश्च देव्यश्च स्वकैः स्वकैः
॥१२७॥
मा भगवतो
वार्षिकदाने सुवर्णमुद्रासंख्या
कथन,
तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षीदान देना आरंभ किया। वह इस प्रकारसूर्योदय के पहले से आरंभ करके एक प्रहर-पर्यन्त एक करोड़ आठ लाख सुवर्णमुद्राएँ प्रतिदिन देते थे । इस प्रकार सबका जोड़ करने से एक वर्ष में तीन अरब, अठासी करोड़, अस्सी लाख स्वर्णमुद्राएँ दीं।
तत्पश्चात् नन्दिवर्धन राजाने भगवान महावीर का दीक्षा-महोत्सव का प्रारम्भ किया ।
तब श्रमण भगवान् महावीर के दीक्षा अंगीकार करने के निश्चय को जानकर शक्र आदि चौसठ 4 इन्द्र, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिपिक, विमानवासी देव तथा देविया अपने-अपने परिवारों से युक्त तथा अपनी
. . . જેમ કે વિવાહ પ્રસંગે અઢળક ધન ખર્ચે છે. તેમ દીક્ષાના હિમાયતીઓ, તેના મહોત્સવને ખૂબ ઠાઠમાઠથી ઉજવે છે. આ પ્રશંસનીય પગલું છે. જગતને લાત મારીને જે નીકળે છે. તેનું બહુમાન કરવું જ જોઈએ. અને તે મહાન પુણ્ય છે, અને મુક્તિ માર્ગોમાં આ એક મુખ્ય માર્ગ છે. આને અતિરેક કર્યા વિના, દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવ પ્રમાણે, તેનું આચરણ કરવું જોઈએ. આ અપૂર્વ પ્રસંગ કઈ પરમ ભાગ્યશાળીને જ લાધે છે; તેથી નંદીવર્ધને, ભગવાનને દીક્ષા મહેસૂવ ધામધુમથી ઉજવ્યો.
ભગવાનનું મહાભિનિષ્ક્રમણ એ કઈ મામુલી નથી. રગે રગમાં અને હાડે હાડમાં જેને વૈરાગ્યને રંગ લાગે છે, જેને આ “ભવ’ સિવાય અન્ય કઈ ભવનથી, તેવી મહાન વ્યક્તિનાં અભિનિષ્ક્રમણની વાત, અવધિજ્ઞાન દ્વારા પ્રાપ્ત થતાં ચોસઠ ઈન્દો, તેમની સર્વ સિદ્ધિ સંપત્તિ સાથે આવવા લાગ્યાં, જોત જોતામાં આખુએ આકાશ
છે
॥१२७॥
છે 8
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवती
र परिवारैः परिजनैः परिवृताः-संवेष्टिताः सन्तः सईयाहिं सईयाहि स्वकीयाभिः स्वकीयाभिः ऋद्धिभिः= विमानादि को सम्पत्तिभिः सह समागताः । तस्मिन् समये यथान्येन प्रकारेण कुसुमितं पुष्पितं वनषण्डं, तथा-शरकाले=
शरहतुसमये यथा पद्मसर: पद्मसरोवरः पद्मभरण-पद्मसमृहेनः यथा वा-सिद्धार्थवनसर्षपवनं, कर्णिकारवनश्रीकल्पसूत्रे
टुमोत्पलवनं ' कठचम्पा' इति ख्यातस्य वनं, चम्पकवनं वा कुसुमसमूहेन-पुष्पसमूहेन शोभते तथा तेन प्रकारेण ॥१२८॥ गगनतलम् आकाशमण्डलं सुरगणैः देवसमूहैः शोभते ।।०७५॥
मूलम्-तए णं ते चउसट्ठी वि इंदा देवा य देवीओ य वरपडहभेरिझल्लरिसंखेहि सयसहस्सेहिं तूरेहि तयवितयघणझुसिरेहि चउबिहेहि आउज्जेहि य वजमाणेहिं आणगसएहिं पट्टिजमाणेहिं सवदिव्वतुडियसद्दनिनाएणं महग रवेणं महईए विभूईए महया य डिययोल्लासेणं महं तित्थयरनिक्खमणमहं करिउमारभिंसु, तजहा
सके देविंदे देवराया करितुरगाइनाणाविहचित्तचित्तियं हारदहाराइभूसणभूसियं मुत्ताहलपयरजालविवद्ध माणसोह, आल्हायगिज पल्हायणिज पउमकयभत्तिचित्तं नाणाविहरयणमणिमऊखसिहाविचित्तं णाणावण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरं मज्झट्रियसपायपीढसीहासणं एग महं पुरिससहस्सवाहिणि चंदप्पहं सिबियं विउव्वइ, विउवित्ता जेणेव समणे भय महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता परिहियबहुमुल्लाभरणखोमयवत्थं भगवं तित्थयरं सिबियाए निसियावेइ ।
तए णं सकीसाणा दोवि इंदा दोहिं पासेहिं मणिरयणवइयदंडाहिँ चामराहिं भगवं वीयंति ।
तए णं तं सिवियं पुच्वं पुलइयरोमकूवा हरिसवसविसप्पमाणहियया मणुस्सा उन्नति, पच्छा असुरिंदा सुरिंदा णागिंदा सुवष्णिदा य उव्वहति । तत्य तं सिबियं पुन्वदिसाए मुरिंदा, दाहिणाए दिसाए नागिंदा, पच्छिमदिसाए असुरकुमारिंदा उत्तरदिसाए सुवष्णकुमारिंदा उन्बहंति । मू०७६।। । अपनी विमान आदि विभूति के साथ आये । उस समय जैसे पुष्पित वनपंड तथा शरदऋतु में कमलयुक्त सरोवर अथवा सरसों का वन, कनेर का वन एवं चम्पा का वन पुष्पों के समूह से शोभित होता है उसी प्रकार आकाशमंडल सुरसमूहों से शोभायमान हुआ । मू०७५ ॥
ભરપૂર અને વ્યાપ્ત થતાં, તલભાર પણ જગ્યા બાકી રહી ન હતી. આ કારણે તે વખતે આકાશને દેખાવ ૫ણું कार म४६५नीय भने अपनीय sal. (सू०७५)
भनिष्क्रमणे समागतेन्द्रादि
देवानां भर देधीनां च
वर्णनम् ।
॥१२८॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥१२९॥
【獎
【德興德興
छाया - ततः खलु ते चतुष्षष्टिरपीन्द्राः देवाय देव्यथ वरपटभलषु शतसहस्रषु यषु ततविततधनशुषिरेषु चतुर्विधेष्वातोद्येषु च वाद्यमानेषु आनर्तकशतेषु नर्त्यमानेषु सर्वदिव्य त्रुटितशब्दनिनादेषु महता रवेण महत्या ऋद्धया महत्या विभूत्या महता च हृदयोल्लासेन महान्तं तीर्थकर निष्क्रमणमहं कर्तुमारप्सत, तथा - शक्रो देवेन्द्रो देवराजः करितुरगादिनानाविधचित्रचित्रितां हारार्द्धहारादिभूषणभूषितां मुक्ताफलमकरजालत्रिवर्द्धमानशोभाम् आहादनीयां महादनीयां पद्मकृतभक्तिचित्रां नानाविधरत्नमणिमयूखशिखाविचित्रां नानावर्ण
मूल का अर्थ - ' तर णं ' इत्यादि । उस समय विशाल पटह ( ढोल ), भेरी, झालर और शंख ( आदि) बाजे बजने लगे । तत, त्रितत, घन और शुषिर - इस प्रकार चार तरह के वाद्य बजने लगे । सैकड़ों श्रेष्ठ नचैया नाचने लगे । समस्त दिव्य बाजों की ध्वनि होने लगी । चौसठ इन्द्रोंने, देवने और देवियोंने महती ऋद्धि, महती विभूति और महान् हृदयोल्लास के साथ भगवान का महान् aharastrea मनाना आरंभ किया । वह इस प्रकार -
शक्र देवेन्द्र देवराज ने चन्द्रप्रभा नामक एक बड़ी शिविका (पालकी) की विकुर्वणा की । वह पालकी हाथी, घोडा आदि अनेक प्रकार के चित्रों से चित्रित थी। हार और अर्धहार आदि आभूषणों से आभूषित थी मोतियों के समूह के गवाक्ष उसकी शोभा बढा रहे थे। वह आहलाद और विशिष्ट आह्लाद उत्पन्न करने वाली थी । कमलों द्वारा की हुई रचना से अद्भुत थी । अनेक प्रकार के
भूजना अर्थ:- 'तपण", इत्याहि ते सभये, विशाण दोष, बेरी, जासर, भने शम याहि वाल बागवा લાગ્યાં. તત વિતત ધન અને શૃષિર આદિ ચાર પ્રકારનાં લાખા વાધય-વાજા વાગવા લાગ્યાં. 'કડા શ્રેષ્ઠ ના નાચવા લાગ્યાં. સમસ્ત દિવ્ય લેાકનાં વાજીંત્રો વાગવા લાગ્યાં. ચાસઠ ઇન્દ્રો-દેવા અને દેવીઓએ મહાદ્ધિ મહાન્ વિભૂતિ, અને મહાન હૃદયાલ્લાસ સાથે, તી કરના દીક્ષા મહાત્સવ ઉજવવાના આરંભ કર્યાં. આ પ્રસ`ગ કેવી રીતે ઉજવાયા તેનુ વણુન આ રહ્યું.
શક્રેન્દ્રે ચંદ્રપ્રભા નામની એક મોટી શિબિકા (પાલખી) તૈયાર કરી આ પાલખી વૈક્રિય શક્તિદ્વારા બનાવવામાં આવી હતી. તેમાં હાથી—ઘેાડા-વિગેરેના અનેક પ્રકારના ચિત્રો વડે ચિતરવામાં આવી હતી. તેને હારતારાથી અધ ચંદ્રહાર વિગેરે આભૂષાદ્વારા સુથેભિત કરવામાં આવી હતી. મોતીયાના ગાખલાઓ તેની શાભામાં વૃદ્ધિ કરી રહ્યાં હતાં. આ પાલખી ઉત્તમ પ્રકારના આનંદ ઉત્પન્ન કરવાવાળી હતી. કમળાવર્ડ કરવામાં આવેલી રચનાથી તે અદ્ભુત લાગતી હતી. અનેક પ્રકારનાં મણિ અને રત્નાના કિરણાથી તે ચિત્ર વિચિત્ર ભાસતી હતી. તેની ઉપરનું
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतो
दीक्षाम
होत्सव
वर्णनम् ।
॥०७६ ॥
॥१२९॥
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कल्प
श्रीकल्प
मूत्र ॥१३०॥
मञ्जरी
डीका
घण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखरां मध्यस्थितसपादपीठसिंहासनाम् एका महती पुरुषसहस्रवाहिनी चन्द्रप्रभा शिविकां विकरोति, विकृत्य यत्रैच श्रमणो भगवान् महावीरः, तत्रव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीर त्रिकृत्वा आदक्षिण-प्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा परिहितबहुमूल्याभरणक्षौमकवस्त्रं भगवन्तं तीर्थकरं शिविकायां निषादयति ।
ततः खलु शक्रेशानौ द्वावपीन्द्रौ द्वयोः पार्थयोर्मणिरत्नखचितदण्डैश्चामरैः भगवन्तं बीजयतः।
ततः खलु तां शिविकां पूर्व पुलकितरोमकूपाः हर्षवंशविसर्पद्धदया मनुष्या उद्वहन्ति, पश्चात् सुरेन्द्रौ रत्नों और मणियों की किरणों से चित्रविचित्र थी । उसका ऊपरी शिखर नाना रंगों के घंटाओं और पताकाओंसे मंडित था । उसके मध्य में पादपीठ सहित सिंहासन रक्खा था। एक हजार पुरुषों से वहन करने (उठाई जाने) योग्य थी।
इस पालकी की विकुर्वणा करके जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहीं (शक्र) आये । आकर तीन बार आदक्षिण-पदक्षिणपूर्वक श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार कीया। वन्दना-नमस्कार करके, बहूमूल्य आभरण और क्षौम वस्त्र धारण किये हुए भगवान् तीर्थकर को शिविका में बिठलाये।
तब सौधर्म और ईशान-दोनों इन्द्र दोनों बगलों में (खड़े होकर) मणियों और स्त्रों से जड़े हुए दंड वाले चामर भगवान् पर बीजने लगे।
___ उस शिविका को पहलेतो पुलकित रोमकूप वाले और हर्ष से विकसित हृदय वाले मनुष्यों ने શિખર વિવિધ રંગના ઘંટ અને પતાકાઓ વડે શણગારવામાં આવ્યું હતું. તેની મધ્યમાં પાઇપીઠ સહિતનું એક સિંહાસન મૂકવામાં આવ્યું હતું. આ પાલખીને ઉપાડવા માટે એક હજાર પુરુષોની જરૂર પડે તેવી ભારે વજનદાર હતી.
આ પાલખીને તૈયાર કરીને, જ્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર બીરાજતા હતા. ત્યાં શબ્દ પધાર્યા, અને આદક્ષિણ-પ્રદક્ષિણ પૂર્વક શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ત્રણવાર વંદના-નમસ્કાર કરી ઘણુ મૂલ્યવાન અને અ૮૫ વજનવાળા આભરણે અને વઓથી સજજ થયેલા તિથકર ભગવાનને તેમાં બેસાડયાં.
સૌધર્મ અને ઈશાન દેવલોકના સૌધર્મેન્દ્ર અને ઈશાનેન્દ્ર દેએ પડખે ઉભા રહી મણિ અને રત્નથી જડાએલ દંડવાલા ચામર ભગવાન ઉપર વી ઝવા લાગ્યા.
આ પાલખીને સૌ પ્રથમ રોમરોમ જેનાં પ્રકુટિલત થયાં છે, જેનું હિયું હર્ષથી વિકસિત થયું છે. તેવા
भगवतः शिबिकावर्णनम्।
०७६॥
॥१३०॥
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श्रीकल्प
असुरेन्द्रौ नागेन्द्रौ सुपर्णेन्द्रौ च उदवहन्ति । तत्र तां शिविकां पूर्वदिशि सुरेन्द्राः, दक्षिणस्यां दिशि नागेन्द्रो, पश्चिमदिशि अमुरकुमारेन्द्रौ, उत्तरदिशि सुवर्णकुमारेन्द्रौ उद्वहन्ति ॥सू०७६॥
टीका-'तए णं ते चउसट्ठीवि' इत्यादि--ततः आगमनानन्तरं खलु ते समागताः चतुष्पष्टिरपि इन्द्राः देवाश्च देव्यश्च वरपटहभेरीशल्लरीशङ्कषु, तत्र-वरपटहाः-वराः=विशालाः पटहाः=ढोल' इति भाषापसिद्धाः भेयः दुन्दुभयः-मल्लयः शहाच प्रसिद्धास्तेषु तथा-शतसहस्रेषु लक्षसंख्येषु तूर्येषु मृदङ्गादिषु, ततविततधनशुषिरेषुततंवीणादिकं, विततंम्पटहादिकं घनं कांस्यतालादिकं, शुषिरं-छिद्रान्वितवंशादिकम् । उक्तंच
कल्प
मञ्जरी टीका
॥१३॥
वहन किया। बाद में सुरेन्द्र, असुरेन्द्र नागेन्द्र और सुपर्णेन्द्रों ने वहन किया। उनमें से उस शिविका में पूर्वदिशा में सुरेन्द्र लगे, दक्षिणदिशा में नागेन्द्र लगे, पश्चिमदिशा में असुरकुमारेन्द्र और उत्तर दिशा में सुपर्ण कुमारेन्द्र लगे ।। सू०७६॥
टीका का अर्थ-आने के पश्चात् उन चौंसठ इन्द्रों ने, देवों ने और देवियों ने भगवान् महावीर का दीक्षा-महोत्सव मनाना आरंभ किया। बड़े-बड़े ढोल बजने लगे, भेरिया बजने लगीं 'झालरो और शंखों की ध्वनि होने लगी। लाखों मृदंग आदि वाद्य बजने लगे। वीणा आदि तत, पटह आदि वितत, कांसे के ताल आदि घन और बांसरी मादि शुषिरः इस प्रकार चार प्रकार के वाद्य बज उठे। कहा भी हैं
भगवता दीक्षामहोत्सव वर्णनम् । ॥सू०७६॥
મનુષ્યોએ ઉપાડી. ત્યારબાદ તેને વહન કરવામાં સુરેન્દ્ર અસુરેન્દ્ર. નાગેન્દ્ર અને સુપણેન્દ્ર તેમની સાથે જોડાયા. આ પાલખીના ચાર હાથા ચાર દિશાએ હતાં. પૂર્વ દિશાને હાથે સુરેન્દ્ર પક હતે, દક્ષિણદિશાને નાગેન્દ્રોએ ઉઠાવ્યો હતો, પશ્ચિમદિશાને હાથે અસુરકુમારેન્દ્રના હાથમાં હતું જ્યારે ઉત્તરદિશાને હાથે સુવર્ણકુમારેન્દ્રના यभi t. (सू० ७६)
કાને અર્થ –આવ્યા પછી તે ચેસઠ ઇન્દ્રોએ દેએ અને દેવીઓએ ભગવાન મહાવીરને દીક્ષામહોત્સવ ઉજવવાનો આરંભ કર્યો. મોટાં મોટાં ઢોલ વાગવાં લાગ્યાં, લેરિયેના નાદ થવા લાગે, ઝાલરો અને શંખને નાદ થવા લાગે. મૃદંગ આદિ લાખો વાગે વાગવાં લાગ્યાં. વીણા આદિ તત (તંતુ વાદ્ય), પટ વિગેરે વિતત, કાંસાના તાલ આદિ ઘન અને બંસરી વિગેરે કૃષિર–એ પ્રમાણેનાં ચાર પ્રકારનાં વાદ્ય વાગવાં લાગ્યાં. धुं .
॥१३॥
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श्रोकल्प
कल्पमञ्जरी
सत्र
॥१३२॥
टीका
" ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् ।
घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥१॥ इति । मा इत्येतेषु चतुर्विधेषु चतुःप्रकारेषु आतोधेषु वाघेषु च वाद्यमानेषु तथा-आनर्तकशतेषु-समीचीननर्तकशतेषु नर्त्यमानेषु-नाटयमानेषु, सर्वत्रुटितशब्दनिनादेनन्सकलवाधशब्दनिनादेन, महतान्दीभ्रुण रवेण-शब्देन महत्या
या सम्पच्या महत्या विभूत्या वैभवेन महता हृदयोल्लासेन-चित्तोत्साहेन, महान्तंम्बृहन्तं तीर्थकरनिष्क्रमणमई तीर्थङ्करदीक्षामहोत्सवं कर्तुम् आरप्सत-पारम्भं कृतवन्तः, तद्यथा-शको देवेन्द्रो देवराजः शिबिकां 'पालकी' इति पसिद्धां, विकरोतीत्युत्तरेण सम्बन्धः। तत्र कीदृशीं शिविकाम् ? इत्याह--करितुर
"ततं वीणादीकं झेयं, विततं पटहादिकम् ।
घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि श्रुषिरं मतम् ॥१॥ इति । वीणा आदि को तत, पटह (ढोल) आदि को वितत, कांसे के ताल आदि को धन और बांसुरी आदि को शुषिर माना गया है ॥१॥
उत्तम-उत्तम सैकड़ों नर्तक नाट्य करने लगे। समस्त बाजों के शब्दों की ध्वनि से, महान् शब्दों से, महती सम्पत्ति से, महती विभूति से तथा महान् हार्दिक उल्लास से सभीने तीर्थकर का महान् दीक्षामहोत्सव करना आरंभ किया। वह इस प्रकार-- शक्र देवेन्द्र देवराज ने शिविका (पालकी) की विकर्वणा की. अर्थात वैक्रियशक्ति से पालकी का
"ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् ।
घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥ १॥ इति વીણા આદિને તત, પટહ (ઢાલ) આદિને વિતત, કાંસાના તાલ આદિને
ઘન અને બંસરી આદિને શુષિર માનવામાં આવ્યાં છે. ૧ સેંકડોની સંખ્યામાં ઉત્તમોત્તમ નર્તકે નાટય કરવા લાગ્યો. સમસ્ત વાજીત્રાનાં શબ્દોનાં નાદથી, મહાન શબ્દથી, વિપુલ સંપત્તિથી, વિપુલ વિભૂતિથી તથા અતિશય હાર્દિક ઉલ્લાસથી બધાંએ તીર્થકર મહાન દીક્ષામહત્સવ ઉજવવાને આરંભ કર્યો. તે આ રીતે
શક દેવેન્દ્ર દેવરાજે શિબિકા (પાલખી)ની વિકવણા કરી એટલે કે વૈક્રિય શક્તિથી પાલખી બનાવી. તે
भगवतः शिविकावर्णनम्। ॥मू०७६॥
સેકડોની સંખ્યામાં હાજરી આદિને રિમા
॥१३२॥
છે શુ
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Hamarewangarogamaranews
श्रोफत्य
कल्पमञ्जरी टीका
॥१३३॥
गादिनानाविधचित्रचित्रितांहस्स्यश्वादिबहुपकारकचित्रसहितां, हाराहारादिभूषणभूषिताम्, तत्रहारबाट दशसरिकः, अहार: नवसरिकस्तदादिभिभूषणः भूषितांशोभिवाम् , मुक्ताफल-प्रकर-जालविवर्धमानशोभां मुक्ताफलानि-मौकिकानि, तेषां प्रकरा:-समूहाः, तेषां यानि जालानिगवाक्षास्तैः विवर्धमाना वृद्धि प्रामवती शोभा यस्यास्ताम् , तथा-भाडदनीयाम्-चिताहादिनीम् प्रहादनीयाम्भकर्षेण मनामसादिनीम्, इहोभयत्र बाहुलकात् कर्तरि अनोयत्ययः, तथा-मकृतभक्तिचित्राम्-गौः कमलैः कृता-विरचिता या भक्ति:-रचना तया चित्राम् अदभुतां, तथा-नानाविधरत्नमणिमयूखशिखाविचित्राम-नानाविधा: अनेकप्रकाराः ये रत्नमणयःरत्नानि तनादीनि, मगयो-बैडूर्यादयः, तेषां ये मयूखाः-किरणाः, तेषां या शिखा-दीप्तिः, तया विचित्राम्= विचित्रवर्गाम्, तथा-जानावर्गवण्टापताकाररिमण्डिताग्रशिखराम्-नानावर्णाः अनेकवर्णा या घण्टा: पताकाच, ताभिः परिमण्डित-भुशोभितम् अशिखरं-शिखरामभागो यस्यास्ताम् , मध्यस्थितसपादपीठसिंहासनां-मध्येस्थितं सपादपीठं पादपीठसहित सिंहासनं यस्यास्ताम्-ताशीम् एका महतों पुरुषसहस्रवाहिनींसहस्रसंख्यपुरुषवहनीयाम, इह बाहुलका कर्मणि णिनिपत्ययः, चन्द्रप्रभां-तन्नाम्नी शिविकां विकरोति वैक्रियशक्त्योत्पादयति, विकृत्यनिर्माण किया। वह पालकी कैसी थी, सो कहते हैं-हाथी घोड़े आदि के बहुत प्रकार के चित्रों से युक्त थी। हार (अठारह लड़ों का), अशार (नौ लड़ों का) आदि भूषणों से भूषित थी। मोतियों के समूहों के जालो (गवासों) से उसकी शोभा बढ़ रही थी। चित्त में आनन्द उत्पन्न करने वाली और अतिशय मानसिक आहाद उत्पन्न करने वाली थी। कमलों द्वारा की गई से अनुपम थी। अनेक प्रकार के कर्केतन आदि रनों तथा वड़र्य आदि मणियों की किरणों की दीप्ति से जगमगा रही थी। विविध रंगों के घंटाओं और पताकाओं से उसके शिखर का अग्रभाग सुशोभित था। उसके बीच में पादपीठ सहित सिंहासन रखा था। इस प्रकार की एक बड़ी हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य चन्द्रप्रभा नाम की પાલખી કેવી હતી તે કહે છે-તે હાથી, ઘડા આદિ ઘણાં પ્રકારનાં પ્રતીકેવાળી હતી. અઢારસો હાર અદ્ધાર નવસરો હાર આદિ આભૂષણથી શોભાયમાન હતી. મતીઓના સમૂહથી તેના ગેખની શોભા ખૂબ વૃદ્ધિ પામતી હતી. ચિત્તમાં આનંદ ઉત્પન્ન કરનારી અને અતિશય માનસિક આહૂલાદ ઉત્પન્ન કરનારી હતી. કમળો વડે કરવામાં આવેલ રચના વડે તે અનુપમ લાગતી હતી. અનેક પ્રકારનાં કકેતન, આદિ રને તથા વહૂર્ય આદિ મણીઓનાં
કિરણનાં તેજથી ઝગમગી રહી હતી. વિવિધ રંગનાં ઘંટ અને પતાકાઓથી તેના શિખરને અગ્રભાગ શુભિત હતે. =ા તેની વચ્ચે પાપીઠ સાથેનું સિંહાસન ગોવેલું હતું. આવી એક હજાર પુરુષો વડે ઉચકી શકાય તેવી ચન્દ્રપ્રભા
भगवतः शिविका वर्णनम्। ॥सू०७६॥
॥१३३॥
CN
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श्रीकल्प
मूत्रे ॥१३४॥
म वैक्रियशक्योत्पाद्य यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थाने श्रमणो भगवान् महावीरः, तत्रैव तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति,
उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्तवारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा श्रीवीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा परिहितबहुमूल्याभरणक्षौमकवस्त्रधारितमहर्घाभरणकौशेयवसनं, भगवन्तं तीर्थकर शिविकायां निवादयति उपवेशयति ।
ततः खलु शक्रेशानौ-शक ईशानश्चेमौ द्वावपि उभानपि इन्द्रौ भगवतो द्वयोः उभयोः दक्षिणवामपायोःदक्षिणावामभागयोः मणिरत्नखचितदण्ड: संलग्नमणिरत्नयष्टिकैः, चामरैः भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनं बीजयतः।
___ ततः खलु तां श्रीवीराधिष्ठितां शिविकां सर्वतः पूर्व मनुष्याः पुलकितरोमाश्चिताः, तथा हर्षवशकिसर्पदयाः आनन्दोल्लसितहृदयाः सन्तः उद्वहन्ति, पश्चाद-सुरेन्द्राः वैमानिकेन्द्रा सौधर्मोदयः, असुरकुमारेन्द्रौ, चमरशिविका वैक्रियशक्ति से उत्पन्न की।
शिविका की विकुर्वगा करके शकेन्द्र जिस जगह श्रमण भगवान् महावीर थे, उसी जगह आये। आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण पूर्वक बन्दना की, नमस्कार किया। वन्दनानमस्कार करके महामूल्यवान् क्षौम बखौ को धारण किये हुए भगवान् तीर्थंकर को शिविका में बिठलाये।
तत्पश्चात शक्र और ईशान-यह दोनों इन्द्र भगवान् के दाहिनेबांये पाच-भाग में (खड़े होकर) मणियों और रत्नों के डंडों वाले चामर भगवान् श्रीवीर स्वामी पर बोंजने लगे।
तदनन्तर श्रीवीर भगवान् जिसमें विराजमान थे, उस पालकी को पहले रोमांचित और हर्ष वश उल्लसित हृदय वाले मनुष्यों ने उठाया। बाद में वैमानिकों के इन्द्र, सौधर्म, चमर और बलि नामक असुरेन्द्र, નામની મોટી શિબિકા વક્રિય શક્તિથી કેન્દ્ર બનાવી.
શિબિકા તૈયાર કરીને કેન્દ્ર જ્યાં ભગવાન મહાવીર બીરાજમાન હતાં ત્યાં પધાર્યા આવીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ત્રણવાર દક્ષિણથી આરંભીને પ્રદક્ષિણા કરીને વન્દના કરી, નમસ્કાર કર્યો, વન્દના-નમસ્કાર કરીને જેમણે મહામૂલ્યવાન સૌમ વસ્ત્રોને ધારણ કર્યા છે એવાં ભગવાન તીર્થકરને પાલખીમાં બેસાડયાં.
ત્યાર બાદ શાક અને ઈશાન એ બને ઇન્દ્રો ભગવાનને જમણે-ડાબે પડખે ઉભા રહીને મણીઓ તથા રત્ન જડીત ચામર પ્રભુ મહાવીર ઉપર ઢાળવા લાગ્યાં.
- ત્યાર બાદ વીર ભગવાન જેમાં વિરાજમાન હતાં તે પાલખીને સૌ પ્રથમ રોમાંચિત અને હર્ષને કારણે ઉલ્લસિત હદયવાળા મનુષ્યએ ઉપાડી. ત્યારબાદ વિમાનિકોના ઈ, ચમર અને બલિ નામના અસુરેન્દ્ર, ધરણું
भगवतः शिबिकाया उद्वहनप्रकार: ॥सू०७६॥
॥१३४॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥१३५॥
बलीन्द्रौ, नागकुमारेन्द्रौ-धरणभूतानन्देन्द्रौ, सुपर्णकुमारेन्द्रौ वेणुदेववेणुदालिनामानौ च, एते षद् भवनपतीन्द्राः, तेऽमी क्रमेण उदवहन्ति। तत्र-शिविकामुहित्सु सुरेन्द्रा-मुरकुमारेन्द्र-नागकुमारेन्द्र-सुपर्णकुमारेन्द्रेषु मध्ये सुराः तांश्रीवीराधिष्ठितां शिविकांपूर्वदिशि-पूर्वदिग्भागावच्छेदेनोद्वहन्तीत्युत्तरेण सम्बन्धः, नागकुमारेन्द्रौ-धरणभूतानन्देन्द्रौ, दक्षिणस्यां दिशि-दक्षिणदिग्भागावच्छेदेन तां शिविकामुद्वहतः, असुरकुमारेन्द्रौ-चमरवलीन्द्रौ अपरदिशि= पश्चिमदिग्भागावच्छेदेन तामुहितः, सुपर्णकुमारेन्द्रौ-वेणुदेव-वेणुदालिनामानौ उत्तरदिशि उत्तरदिग्भागावच्छेदेनोद्वहतः ।। मू०७६॥
मूलम् -तए णं ते मणुया सुरिंदा असुरकुमारिंदा णागकुमारिंदा सुवण्णकुमारिंदा य तं सिवियं उन्त्रहमाणा उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स मझमझेण निम्गच्छत्ति निग्गच्छिता जेणेव गायसंडे उज्जाणे तेणेव उवा गच्छंति, उवागच्छिता ईसिरयणिप्पमाणं अच्छोप्पेणं भूमिभागेणं सणियं सणियं पुरिससहस्सवाहिणि चंदप्पहं सिवियं ठति । तए णं समणे भगवं महावीरे ताओ सिवियाओ सणियं२ पच्चोयरइ, पच्चोयरिचा सीहासणवरे पुब्वाभिमुहे संनिसण्णे। तो पच्छा उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए उवागच्छइ, उआगच्छित्ता हारद्धहाराइयं सवालंकार ओमुयइ ।
तए णं वेसमणेदेवे जंतुवायपडिए समणस्स भगवत्री महावीरस्स हंसलक्खणे सेयवस्थे आभरणालंकाराई पडिच्छइ ॥ सू०७७॥ धरण और भूतानन्द नामक नागकुमारेन्द्र, वेणुदेव और वेणुदालि नामक सुपर्णकुमारेन्द्र-ये छह भवनपतियों के इन्द्र क्रमशः वहन करने लगे। शिविका को वहन करने वाले सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों, नागकुमारेन्द्रों तथा सुपर्णकुमारेन्द्रों में से सुरेन्द्र सौधर्मादि उस वीराधिष्ठित शिविका को पूर्व दिशा की तरफ से वहन किये, भूतानन्द नामक नागकुमारेन्द्रो पश्चिम दिशा की तरफ से, धरण और असुरेन्द्र चमर बलि दक्षिण की तरफ से वहन किये भौर वेणुदेव तथा वेणुदालि नामक दोनों सुपर्णकुमारेन्द्र उत्तर की ओर से ।। सू०७६॥ અને જૂતાનંદ નામના નાગકુમારે, વેણુદેવ અને વેઢાલિ નામના સુપર્ણકુમારેન્દ્રએ છ ભવનપતિએનાં ઈન્દ્ર ક્રમશઃ વહન કરવા લાગ્યાં. પાલખીને ઉપાડનાર સુરેન્દ્રો, અસુરેન્દ્રોનાગકુમારેન્દ્રો, તથા સુપર્ણકુમારેન્દ્રોમાંથી સુરેન્દ્ર પ્રભુની તે પાલખીને પૂર્વ દિશા તરફથી ઉપાડી નાગકુમારેલ્વે પશ્ચિમ દિશાની તરફથી, ધરણુ અને તાનંદ નામના
અસુરકુમારેન્દ્ર દક્ષિણ તરફથી અને વેણદેવ તથા વેદાપિ નામના અને સુપર્ણકમારેન્દ્ર ઉત્તરની તરફથી પ્રભુની ___पानी 6sी. ॥७॥
व सुरेन्द्रादी
नां पूर्वादिदिक्क्रमेणशिविकावहनम्। सू०७६॥
॥१३५॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥१३६॥
आया-ततः खलु ते मनुजाः सुरेन्द्राः असुरकुमारेन्द्रौ नागकुमारेन्द्रौ सुपर्णकुमारेन्द्रौ च तां शिविकामुद्वहन्तः उत्तरक्षत्रियकुण्डपुरसंनिवेशस्य मध्यमध्येन निर्गच्छति निर्गत्य यत्रैव ज्ञातषण्डमुद्यानं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य ईषद्रनिप्रमाणम् अस्पृष्टे भूमिभागे शनैः शनैः पुरुषसहस्रवाहिनीं चन्द्रप्रभां शिविकां स्थापयन्ति । ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः तस्याः शिविकायाः शनैः शनैः प्रत्यवतरति, प्रत्यवतीय सिंहासनवरे पूर्वाभिमुखः संनिषण्णः। ततः पश्चात् भगवान् उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे उपागच्छति, उपागम्य हारार्द्धहारादिकं सालङ्कारमवमुञ्चति ।
ततः खलु वश्रवणो देवो जन्नुपातं पतितः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य हंसलक्षणे श्वेतवस्त्रे आभरणालङ्कारान् प्रतीच्छति ॥ ०७७॥
कल्प.. मञ्जरी
टीका
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि-तत्पश्चात् वे मनुष्य, सुरेन्द्र, दोनों असुरेन्द्र, दोनों नागकुमारेन्द्र और दोनों सुपर्णकुमारेन्द्र उस शिविका को वहन करते हुए उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर संनिवेश के बीचोबीच से निकले। निकलकर जहाँ ज्ञात वण्ड उद्यान था वहाँ पहुँच कर उन्होंने एक हाथ से कुछ कम धरती के ऊपर धीरे-धीरे पुरुषसहस्रवाहिनी चन्द्रप्रभा शिविका को स्थापित किया। तब श्रमग भगवान् महावीर उस शिविका से धीरे-धीरे नीचे उतरे। उतर कर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बिराजे।।
. तत्पश्चात् भगवान् उतरपूर्व दिशा ईशान कोण में पधारे और पधार कर हार, अर्धहार आदि सब अलंकारों को उतारने लगे। तब वैश्रवणदेव, जैसे कोई जन्नु उड़ता हुआ आपड़ा हो-सहसा आ पहुँचते हैं
देवेन्द्रादिभिः शिविका द्वारा भगवतः ज्ञातखण्डोऽघाणे समानय
नम्। मू०७७॥
भून मथ-तपण' त्यात. त्यार माह मनुष्य-न्द्रोधी वन शती प्रभुनीया भी, उत्तर क्षत्रियકુડપુર સંનિવેશની મધ્યમાંથી નીકળી જયાં “જ્ઞાતખંડ' ઉદ્યાન હતું ત્યાં તે પાલખી પહેચી. પહોંચ્યા પછી ધરતીથી એક હાથ લગભગ ઊંચે, આ પાલખીને સ્થાપિત કરવામાં આવી. આ પાલખીનું નામ “ચંદ્રપ્રભા” હતું.
પાલખી થેલ્યા પછી પ્રભુ ધીરે ધીરે પાલખીમાંથી નીચે ઉતર્યા. ઉતરીને શ્રેષ્ઠ સિહાસન ઉપર પૂર્વ તરફ મુખ રાખીને બિરાજ્યા.
ત્યાંથી ઉઠી, ભગવાન ઈશાન ખૂણામાં પધાર્યા, અઢાર સેરા, નવસેરા હાર આદિ સવ અલંકારે અને આભૂષાને ઉતારવા લાગ્યાં. તે વખતે વૈશ્રવણુદેવે, ઉડતાં જંતુની માફક આવી પહોંચી ભગવાનનાં સર્વ અલંકાર અને
॥१३६||
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श्रोकल्प सूत्रे ॥१३७॥
UNCATEG
टीका--' तए णं ते मणुया' इत्यादि - ततः खलु ते= पूर्वोक्ताः मनुजाः सुरेन्द्राः असुरकुमारेन्द्रों नागकुमारेन्द्रौ सुपर्णकुमारेन्द्रौ च तां श्रीवीराधिष्ठितां शिविकाम् उद्वहन्तः स्कन्धोपरि धारयन्तः - स्थापयन्तः उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर नगरस्य मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति = निःसरन्ति, निर्गत्य = निःसृत्य यत्रैव तस्मिन्नेव स्थाने ज्ञातषण्डम्—तदाख्यम् उद्यानम् - अस्ति तत्रैव तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छन्ति, उपागम्य - ईषद्रत्रिप्रमाणम् - हस्तप्रमाणात् किंच्चिन्यूनं यथास्यात्तथा तथा शिविकया ' अच्छोपषेण'-अस्पृष्टे = असंलग्ने भूमिभागे = पृथ्वीभागे सति शनैः शनैः मन्दं मन्दं पुरुषसहस्रवाहिनीं तां चन्द्रप्रभां शिविकां स्थापयन्ति, ततः = शिबिकास्थापनानन्तरं खलु श्रमणो भगवान महावीरः तस्याः शिविकाया - शिविकामध्यात् शनैः शनैः प्रत्यवतरति मत्यवतीर्य सिंहासनवरे - श्रेष्ठसिंहासने पूर्वाभिमुखः सन् सन्निषण्णः उपपिष्टः । तत् पश्चात् भगवान् = श्रीवीरप्रभु उत्तर
और भगवान के आभरणों तथा अलंकारों को हंस के समान उजले वस्त्र में ले लिये ॥ ०७७ ॥ टीका का अर्थ - तत्पश्चात् वे मनुष्य, सुरेन्द्र, दोनों असुरकुमारेन्द्र, दोनों नागकुमारेन्द्र, एवं दोनों सुपर्णकुमारेन्द्र श्रीवीर भगवान् द्वारा आश्रित पालकी को वहन करते - कंधों पर धारण करते हुए उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर नगर के बीचोंबीच होकर निकले । निकल कर जहाँ ज्ञातखण्ड नामक उद्यान था, वहीं आये। आकरके एक हाथ से कुछ कम ऊपर-अधर में, धीरे-धीरे, उस पुरुषसहस्रवाहिनी (हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य) चन्द्रप्रभा पालकी को ठहराया। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर उस शिविका में से धीरे-धीरे उतरे। उतर कर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा में मुख करके विराजमान हुए ।
આષણાને હુંસની પાંખ સમાન સફેદ ખાસ્તા જેવા ઉજળા વસ્ત્રમાં ઝીલી લીધાં. (૦૭૭)
ટીકાના અ—પ્રભુની પાલખીને ઉપાડવી એ પણ એક અહેાભાગ્ય છે; એમ માની દેવ-મનુષ્યેા હર્ષોન્મત્ત ખની તેને પેાતાના ખભે ઉચકતા હતા તે ભારે વજનવાળી પાલખીને, પોતાની કાંધ ઉપર લઇને, શહેરના મધ્ય ભાગમાંથી સરઘસ રૂપે લઈ જતા હતા તે વખતનું દૃશ્ય અનુપમ અને અલૌકિક હતું. પાલખીને ત્યાંના ‘જ્ઞાતખંડ' નામના ઉદ્યાનમાં લઈ જવામાં આવી.
ભગવાન તા સ્વયં બુદ્ધ હતાં; તેથી તેમને કઇ ગુરુની સમીપે દીક્ષા લેવાની જરૂર ન હતી, તેથી પોતે જાતે પાલખીમાંથી નીચે ઉતરી પૂર્વ દિશાના મુખે રહેલાં સિંહાસન ઉપર બેઠાં.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवत शिबिका
द्वारा ज्ञात
खण्डोधाने
गर्मनम् ।
॥सू०७७॥
॥१३७॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥१३८॥
कल्प-: मञ्जरी
टीका
- पौरस्त्ये उत्तरपूर्वयोरन्तराले दिग्भागे-ईशानकोणे उपागच्छति, उपागम्य हारार्द्धहारादिकम् सर्वालङ्कारम् अवमुश्चतिअवतारयति।
ततः खलु वैश्रवणो देवः जन्तुपात पतितः-जन्तुरिव पतितः सहसाऽऽगतः सन् हंसलक्षणे हंसवदुज्ज्वले श्वेतवस्त्रे श्वेतवस्त्रमध्ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य श्राभरणालङ्कारान् प्रतीच्छति गृह्णाति ।। सू०७७॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं जेसे हेमताणं पढमेमासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीए तिहीए सुब्बएण दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, हत्युत्तराहि नक्खत्तेणं चंदेणं जोगमुवगएणं पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए छठेणं भत्तेणं अपाणएणं भगवं महावीरे दाहिणणं हत्थेणं दाहिणं, वामेणं हत्थेणं वाम पंचमुट्ठियं लोयं करिय सिद्धाणं नमोकार करेइ, करिता “ सव्वं मे अकरणिज पावकम्म" ति कडु सीहवित्तीए सामाइयं चरित्तं पडिबज्जइ । तं समयं च णं देवासुरपरिसा मणुयपरिसा य आलेक्खचित्तभूयाविव चिट्टइ। तएणं से सक्के देविदे देवराया जंतुवायपडिए समणस्स भगवो महावीरस्स केसाई वयरामरणं थालेणं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता खीरोयसायरं साहरइ । जं समयं च णं भयवं सामाइयं चरित्तं पडिवजह तं समयं च णं भगवओ बद्धमाणस्स चउत्थे मणपजवनाणे समुप्पण्णे। तत्पश्चात् भगवान् वीर प्रभु उत्तर-पूर्व दिशाके अन्तराल में-ईशान कोण में-पधारे। पधार कर हार, अर्ध- हार आदि समस्त अलंकारों को उतारने लगे। तब वैश्रवण देव उड़ते जन्तु की तरह अचानक 'अ और उन्होंने हंस के समान उजले श्वेत वस्त्र में उन अलंकारों को लेलिये। ॥मू०७७॥ .
છેવટને શણગાર પિતાને ન હતું, પણ પુદ્ગલને હતું તેથી તેમણે કેની સમક્ષ સર્વ અલંકારે ઉતારી નાખ્યાં. છેવટે તમામ શણગારે હીરામોતી-મણિ વિગેરેના સુગટ પણ છેડીને જવાનું હોય છે, તે પહેલેથી જ શા માટે પિતાની નજર સમક્ષ તેને ત્યાગ ન કરે? એ આદર્શ બતાવવા માટે જ ભગવાને ધારણ કરેલ આભરણ વસ્ત્રો વિગેરે લેકસમુદાયની સમક્ષ ઉતાર્યા.
- આ અલંકારે માનવીકૃત ન હતાં. કારણ કે માનવીની સર્વશ્રેષ્ઠ સર્જન શક્તિની બહારની આ વાત હતી. આ આભૂષણે તે દૈવી હતાં. જેવાં પ્રભુએ આભૂષણે ઉતારવા માંડયાં કે જાણે ઉડતાં જંતુ કે પક્ષીની માફક અચાનક વૈશ્રવણુદેવ આવી પહોંચ્યા અને હંસની પાંખ સમાન ઉજજવળ વેત વસ્ત્રમાં પ્રભુનાં અલંકારને ઝીલી alui. (९०७७)
भगवतः मुर्वालङ्कार
त्याग; सामायिक चारित्रमतिपत्तिश्च । ॥सू०७७॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥१३९॥
तए णं सकप्पमुद्दा चउसट्ठीवि इंदा सव्वे देवा य देवीओ य भगवं "जयउ भयवं! पालउ समणधम्म, नासउ मुक्कझाणण अढविहकम्मसत्त, पराजयउ रागद्दोसमल्लं, आरोहउ मोक्खसोहं" इच्चाइरूवेण अभिगंदमाणार अभिथुणमागार आगासे जयज्झुणि कुणमाणारजामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया।
तएणं समणे भयव महावीरे मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणं पडिविसज्जेइ, सयं च इमं एयाख्वं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-"जमहं वारसवासाइं वोसहकाए चत्तदेहे जे केइ दिव्या वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा उपसग्गा समुप्पजिस्सति ते सम्म सहिस्सामि खमिस्सामि तितिक्विस्सामि अहियाइस्सामि नो णं कस्सवि साइज इच्छिस्सामि" ति। ॥०७८॥
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये यः स हैमन्तानां प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः मार्गशीर्षबहुल:, तस्य खलु मार्गशीर्षबहुलस्य दशम्यां तिथौ सुत्रते दिवसे विजये मुहूर्ते हस्तोत्तराभिः नक्षत्रेण चन्द्रे योगमुपगते प्राचीनगामिन्यां छायायां व्यक्तायां पौरुष्यां षष्ठेन भक्तेन अपान केन भगवान् महावीरः दक्षिणेन दक्षिणं वामेन वामं पञ्चमुष्टिकं लोचं कृत्वा सिद्धानां नमस्कारं करोति, कृत्वा 'सा मे अकरणीयं पापकर्म' इति कृत्वा सिंह
मूल का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि-उस काल और उस समय में, जो हेमन्त का प्रथम मास था, प्रथम पखवाड़ा था अर्थात् मार्गशीर्ष का कृष्णपक्ष था, उस मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि में, सुव्रत दिन में, विजय मुहूर्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, छाया जब पूर्व की ओर जा रही थी, और जब दिन का एक पहर शेष रह गया था, ऐसे समय में, निर्जल षष्ठभक्त (चोवीहारबेला) के साथ भगवान महावीर ने, दाहिने हाथ से दाहिनी तरफ का और बांये हाथ से बायी तरफ का पंचमुष्टिक लोव करके सिद्धों को नमस्कार किया। नमस्कार करके 'मेरे लिए समस्त पापकर्म अकरणीय है।
भनी अर्थ - 'तेणं कालेणं' Ut. a sna मने ते समय भन्त ऋतु (शिया)ना प्रथम भासन પ્રથમ અઠવાડિયું ચાલી રહ્યું હતું. એ માગશર (ગુજરાતી કારતક) માસ હતો અને વદીનું પખવાડિયું હતું. આ માગશર (ગુ. કારતક મહિનાની વદી દશમના સુત્રતા દિવસે, વિજય મુહૂ, ઉત્તરા ફાલગુની નક્ષત્રનો ચંદ્રમાને વેગ થતાં છાયા જ્યારે પૂર્વ દિશા તરફ ઢળી રહી તે વખતે (સાંજના પહોર) જ્યારે દિવસને એક પહોર બાકી રહ્યો હતો તે સમયે છડને ઉપવાસ કરીને જમણા હાથે જમણી તરફના અને ડાબા હાથે ડાબી તરફના વાળનું પંચમુષ્ઠિ લેચ કરીને સિદ્ધ ભગવાનને શ્રી મહાવીર દેવે નમસકાર કર્યો. નમસ્કાર કરી કહ્યું કે “હવેથી કોઈ પણ પ્રકારનાં
शक्रादिदेवेन्द्रकृतं
भगवतोमा भिनन्दनम् र भगवतोडभियाग्रहंच। सू०७८॥
॥१३९॥
તે
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श्रीकल्प
सामायिकं चारित्रं प्रतिपद्यते । तस्मिन् समये च खलु देवासुरपरिषत् मनुजपरिषत् च आलेख्यचित्रभूतेव तिष्ठति। ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो जन्तुपातं पतितः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य केशान् वचमये स्थाले प्रतीच्छति, मतीष्य क्षीरोदसागरं संहरति । यस्मिन् समये च खलु भगवान् सामायिकं चारित्रं प्रतिपद्यते, तस्मिन् समये च खलु भगवतो वर्धमानस्य चतुर्थ मनःपर्ययज्ञानं समुत्पन्नम् ।
ततः खलु शक्रप्रमुखाश्चतुष्पष्टिरपीन्द्राः सर्वे देवाश्च देव्यश्च भगवन्तं "जयतु भगवन् ! पालयतु श्रमणधर्म, नाशयतु शुक्लध्यायेन अष्टविधकर्मशत्रून् , पराजयतां रागद्वेषमल्लम् , आरोहतु मोक्षसौधम्" इत्यादिरूपेण अभिनन्दयन्तः २ अभिष्टुवन्तः २ आकाशे जयध्वनि कुर्वन्तः, यस्या एव दिशः प्रादुर्भूताः तामेव दिशं प्रतिगताः।
॥१४० ।
इस प्रकार कह कर सिंह-वृत्ति से सामायिक चारित्र अंगीकार किया।
उस समय निश्चय ही सुरों की परिषद्, असुरों की परिषद् और मनुष्यों की परिषद् चित्रलिखित के समान रह गई। तब वह शक्र देवेन्द्र देवराज अचानक आकर श्रमण भगवान् महावीर के केशों को वज्रमय थाल में लिये और क्षीर सागर में उन्हें पक्षिप्त कर दिये। जिस समय भगवान् ने सामायिक चारित्र अंगीकार किया, उसी समय भगवान् वर्धमान स्वामी को चौथा मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया।
तत्पश्चात् शक्र वगैरह चौसठ इन्द्र, सब देव और देविया भगवान् का अभिनन्दन करने लगे'भगवन् ! जयवंता हो, श्रमण धर्म का पालन करें, शुक्लध्यान से आठ प्रकार के कर्मशत्रुओं का विनाश
भगवतः सामायिक न चारित्रकी प्रतिपत्तिः,
मन घये
माप्तिश्च । सू०७८॥
પાપ કરવાં મારા માટે (અકરણીય) યોગ્ય નથી” આમ કહી તેમણે સિંહવૃત્તિથી સામાયિક ચારિત્ર અંગિકાર કર્યું.
આ સમયે, સુ-અસુર અને મનુષ્યની મેદનીઓની એટલી બધી જમાવટ થઈ હતી કે, જેનું કથન અવનીય છે ને શાંતિ પણ અપૂર્વ જણાતી હતી, ભિંતમાં આલેખિત ચિત્રોની માફક, સ્તબ્ધ થઈ ચટાઈ ગયેલ જેવી માનવ અને દેવેની મેદની જણાતી હતી. કેન્દ્ર આવીને ભગવાનનાં કેશને વજમય થાળમાં ઝીલી લીધા, અને તે
કેશને ક્ષીરસમુદ્રમાં પધરાવ્યાં. જે સમયે ભગવાને સામાયિક ચારિત્ર અંગિકાર કર્યું તે વખતે, તેમને ચોથું મનઃ૫ર્થયજ્ઞાન SER 6त्पन्न यु.
ત્યારપછી જ્ઞાનમાં ઉ૯લસિત અને સાધુવતમાં ઉપસ્થિત થતાં ભગવાનને દેવદેવિઓએ અભિનંદનના વરસાદ 8ી વરસાવવા માંડયાં અને ખૂબ જોરારથી પ્રભુની “જય બાલાવતાં કહેવા લાગ્યા કે “હે ભગવાન! તમે જ્યવંત છે!
॥१४॥
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JECT
ततः खलु श्रमगो भगवान महावीरो मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनं प्रतिविसृजति, स्वयं च इममेतदूपमभिग्रहम् अभिगृह्णाति-" यदहं द्वादश वर्षाणि व्युत्सृष्टकायः त्यक्तदेहः ये केऽपि दिव्या वा मानुष्या वा तैरश्चाः वा उपसर्गाः समुत्पत्स्यन्ते तान् सम्यक् सहिष्ये, शंस्ये, तितिक्षिष्ये, अध्यासिष्ये, नो खलु कस्यापि साहाय्यमेषिष्यामि ।। सु०७८॥
टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि--तस्मिन् काले तस्मिन् समये य: स-मसिद्धः
श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥१४॥
टीका
भगवतः शक्रादि
देवेन्द्रकृतमभिनन्दनम्,
करें, राग-द्वेष रूपी मल्लों को जीतें और मोक्षमहल में आरुढ हो। इस प्रकार बार-बार अभिनन्दन एवं स्तवन करते हुए और वार-चार जय-जय नाद करते हुए जिस दिशा से प्रकट हुए थे, उसी दिशा में चले गये।
तब श्रमण भगवान् महावीरने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, संबंधीजनों और परिजनों का विसर्जन किया और स्वयंने इस प्रकार का यह अभिग्रह ग्रहण किया
'मैं बारह वर्ष पर्यन्त कायोत्सर्ग करके, देहममत्व का परित्याग करके, जो भी कोड देव-संबंधी. मनुष्य-संबंधी और तियंच-संबंधी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करूँगा, क्षमा करूँगा, तितिक्षा करूँगा, निश्चल रहूंगा। मैं किसी की सहायताकी अपेक्षा नहीं करूँगा ।मू०७८॥
__टीका का अर्थ- 'तेणं कालेणं' उस काल उस समय में जो प्रसिद्ध हेमन्तऋतु के चार मासों में શ્રમણ ધર્મનું યથાર્થ પાલન કરે! શુકલ ધ્યાન વડે આઠે પ્રકારના કર્મને નાશ કરે ! રાગ-દ્વેષ રૂપી મલ્લને જીતે, અને મોક્ષમાલ ઉપર આરૂઢ થાઓ (બીરાજે)!” આ પ્રકારે વારંવાર જયનાદ પિકારતાં પિકારતાં જે દિશામાંથી તેઓ આવ્યાં હતાં તે દિશામાં પાછા ચાલ્યાં ગયાં.
| શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે મિત્રો-જ્ઞાતિજ-નેહિસંબંધીઓ, આત્મીયજને, સ્વજને અને પરિજનથી છુટા પડી આ પ્રમાણે અભિગ્રહ ધારણ કર્યો. | ‘બાર વર્ષ પર્યન્ત કાયોત્સર્ગ કરી દેહાધ્યાસ છોડવામાં પ્રયત્નશીલ રહીશ. મારા અભિગ્રહ દરમ્યાન જે કઈ દેવ, મનુષ્ય અને તિર્યંચ સંબંધી મને ઉપસર્ગ ઉત્પન્ન થશે તે હું તેને સમ્યક પ્રકાર (શાંતભાવે) સહન કરીશ. ઉપસર્ગ આપનારાઓને હું ક્ષમા કરીશ. મારે આત્મિક રેગ મટાડવા, ઉપસર્ગની તિતિક્ષા કરીશ. મારા આ નિશ્ચયમાં દઢ રહીશ. હું કોઈ પણ પ્રકારની સહાયતાની કેઈની પાસેથી પણ આશા રાખીશ નહિં. (સૂ૦૭૮)
ટીકાને અર્થ–તે કાળે અને તે સમયે જ્યારે હેમંત ઋતુને (શિયાળાને પહેલે માસ માગશર
अभिग्रहधारणं च। ॥सू०७८॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥१४॥
र हैम तानाम् हेमन्तऋतुसम्बन्धिनां चतुणी मासानां मध्ये प्रथमः-प्राधः, मास:-मार्गशीर्षाख्यो मासः, प्रथमः पक्षः
मार्गशीर्षवहुल:-मार्गशीर्षकृष्णपक्षः, तस्य खलु मार्गशीर्षबहुलस्य दशम्यां तिथौ, सुव्रते-तदाख्ये दिवसे–दिने विजये-विजयनाम्नि मुहूर्ते कालविशेषे, हस्तोत्तराभिः नक्षत्रेण-हस्तोपलक्षितोत्तगनक्षत्रेण-उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण सहयोगमुपगते सम्बन्धं प्राप्ते चन्द्रे सति प्राचीनगामिन्यांपूर्वदिग्भागगामिन्यां छायायाम-अपराह्नकाले व्यक्तायां: स्पष्टायाम्-अशिष्टायां चतुर्थमहरलक्षणायां पौरुष्यां अपानकेन जलपानरहितेन षष्ठेन भक्तेन-उपवासद्वयरूपेण भगवान् महावीरः दक्षिणेन हस्तेन दक्षिण-दक्षिणभागस्थं वामेन-वामहस्तेन वाम-वामभागस्थं पञ्चमुष्टिकं,पञ्चमुष्टयो यस्मिस्तं लोच-लुश्चनं कृत्वा सिद्धानां नमस्कारं करोति । कृत्वा-"सर्व सकलं मे-मम पापकर्म प्राणातिपातादि लक्षणंसावद्यकर्म अकरणीयम् अकर्तव्यम्" इति कृत्वा इति ज्ञ-परिजया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान-परिज्ञयाप्रत्याख्याय सिंहवृत्त्या सामायिकं चारित्रं प्रतिपद्यते स्वीकरोति-गृह्णाति । तस्मिन् समये च खलु देवासुरपरि
प्रथम मास मार्गशीर्ष था, प्रथम पक्ष-मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष था, उस मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की दशमी तिथि में, सुव्रत नामक दिन में, विजयनामक मुहूर्त में, हस्तनक्षत्र से उपलक्षित उत्तरा नक्षत्र अर्थात् उसराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, छाया जब पूर्व दिशाकी ओर जा रही थी, अर्थात् अपराह्न के समय में, एक प्रहर जब शेष था, अर्थात् दिनके चौथे प्रहर में, जलपान-रहित (चौवीहार) षष्ठभक्त के साथ, भगवान् महावीरने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर का ओर बायें हाथ से बायीं और का पंचमुष्टिक लोच कर के सिद्धोंको नमस्कार किया। नमस्कार करके 'मेरे लिये समस्त प्राणातिपात आदि पाप-सावद्यकर्म अकर्तव्य हैं' इस प्रकार
भगबुतः पञ्चमौष्टिकलोचः, सामायिकचारित्रप्रतिबार पत्तिश्च ।
॥०७८॥
(शुरातli Ras) या तो, प्रथम पक्ष मे-भागश२-(२४) भासन पक्षनी (ही) इसम ती, सुनत નામના એ શુભ દિવસના વિશે વિજય નામના મુહૂર્તમાં હસ્ત નક્ષત્રથી ઉપલક્ષિત ઉત્તરા નક્ષત્રમાં-એટલે કે ઉત્તરાફાગુની નક્ષત્રની સાથે ચન્દ્રનો વેગ થતાં પડછાયે જ્યારે પૂર્દિશામાં પડતું હતું ત્યારે એટલે કે સાંજના સમયે,
જ્યારે દિવસને એક પહેાર બાકી હતા ત્યારે એટલે કે દિવસનાં ચોથા પહેરે, નિર્જળ ષષ્ઠભક્તની (છઠની) સાથે (બે ઉપવાસમાં પાણીને પણ ન્યાય કરીને) ભગવાને જમણા હાથે જમણી બાજુના અને ડાબા હાથે ડાબી બાજુના પંચમુષ્ટિક લેચ કરીને (માથાના સધળા વાળ પાંચ મુઠીથી ઉખેડીને) સિદ્ધ પરમાત્માને નમસ્કાર કર્યા. નમસ્કાર કરીને મારે થઇ માટે સમસ્ત પ્રાણાતિપાત આદિ અઢારે પ્રકારનાં પાપ-સાંવધ કર્મ અકર્તવ્ય છે.” આ પ્રમાણે પરિણાથી જાણીને અને તેની
॥१४२॥
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श्रोकल्प
पद-देवासुरसभा, मनुजपरिषत् मनुष्यसभा च आलेख्यांचत्रभूता इव आताचत्रवत् तिष्ठात। ततः श्रीवारप्रभोधारित्रग्रहणानन्तरं, खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराज: जन्तुपातं पतितः जन्तुरिव पतितः-सहसा समागत: श्रमणस्य भगवतो महानोरस्य केशान् वज्रमये-बज्रमणिनिर्मिते स्थाले प्रतीच्छतिगृह्णाति प्रतीष्य-गृहीत्वा तान् केशान् क्षीरोदसागरं संहरति-नयति । यस्मिन् समये च खलु भगवान श्रीवीरः सामायिकं चारित्रं प्रतिपद्यते= गृह्णाति, तस्मिन् समये च खलु भगवतो बर्द्धमानस्य चतुर्थम्मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलरूपेषु पञ्चसु ज्ञानेषु चतुर्थ मनःपर्ययज्ञानं समुत्पन्नम्।
ततः खलु शक्रप्रमुखाश्चतुष्पष्टिरपि इन्द्राः सर्वे देवाश्च देव्यश्च भगवन्तं श्रीवीरममुं "हे भगवन् !
मञ्जरी
॥१४३॥
श-परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान-परिज्ञा से त्याग कर सिंहवृत्ति से सामायिक चारित्र अंगीकार किया। उस
भगवतो समय देवों और असुरों का समूह तथा मनुष्यों का समूह चित्रलिखित के समान स्तब्ध रह गया।
मनःपर्यश्रीवीर प्रभु के चारित्र-ग्रहण के पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज अचानक ही आ पहुंचे और उन्होंने
यज्ञानोश्रमण भगवान् महावीर के केशों को हीरे के थाल में लेकर क्षीरसागर में रख दिये।
स्पत्तिः। जिस समय भगवान् ने सामायिक चारित्र को अंगीकार किया, उसी समय भगवान् वर्धमान को मामू०७८॥ चौथा, अर्थात मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल रूप पाँच ज्ञानों में से चौथा मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होगया।
तब शक्र आदि चौंसठ इन्द्र सभी देव और देविया श्रीवीर प्रभु का इस प्रकार अभिनन्दन करने लगे
પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી ત્યાગ કરીને સિંહ વૃત્તિથી સામાયિચારિત્ર અંગિકાર કર્યું. તે વખતે દે, અસુર તથા મનુભ્યોને સમૂહ ચિત્રવત્ સ્તબ્ધ બની ગયે.
પ્રભુએ ચાસ્ત્રિગ્રહણ કરતાં જ શક્ર દેવેન્દ્ર દેવરાજ આગળ આવ્યાં અને તેમણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરનાં કેશને રત્નના થાળમાં ઝીલી લીધા અને વિનયપૂર્વક ક્ષીર સાગરમાં પધરાવ્યાં.
જે સમયે ભગવાને સમ્યફ ચારિત્રને અંગીકાર કર્યું. તે વેળાએ ભગવાન વર્ધમાનને ચેાથું એટલે કે મતિ, થત, અવધિ, મનઃ પર્યાય અને કેવળ એ પાંચ જ્ઞાનોમાંથી એણું મન:પર્યયજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. શક આદિ ચેસઠ ઈન્દ્ર સઘળાં દેવ અને દેવીઓએ શ્રીવીર પ્રભુને આ રીતે અભિનન્દન કરવા લાગ્યા. “ભગવાન ! આપનો જય હે. શ્રમણ
॥१४३॥
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सूत्र
मञ्जरी
ME भवान् जयतु सर्वोत्कर्षेण वर्तताम्, श्रमणधर्म-साधुधर्म पालयतु, अष्टविधकर्मशत्रून् अष्टमकारककर्मरूपशत्रून्
शुक्लध्यानेन नाशयतु-दूरीकरोतु, रागद्वेषमल्लं-रागद्वेषरूपमल्लं पराजयताम् , तथा मोक्षसौध मुक्तिरूपमासादम् श्रीकल्पआरोहतु-आरूढो भवतु" इत्यादिरूपेण चित्तोत्साहजनकवचनेन अभिनन्दयन्तः२=पुनः पुनरभिनन्दयन्तः, तथा
कल्पअभिष्ट्रवन्तः२-पुनः पुनः सर्वतो वर्णयन्तः आकाशे जयध्वनि-जयशब्दं कुर्वन्तः यस्या एवं दिशः यामेव दिश॥१४४॥ माश्रित्य प्रादुर्भूता:=प्रकटीभूताः तामेव दिशं प्रतिगताः प्रतिनिवृत्ताः।
टीका ततः शक्रादिप्रतिगमनानन्तरं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परि- . जनं, तत्र-मित्राणि-सुहृदादयः, ज्ञातयः सजातयः, निजका स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजनाः पितृव्यादयः, सम्बधिनः-पुत्रपुत्रीणां श्वशुरादयः, परिजना दासीदासादयः, इत्येषां समाहारस्तत् प्रतिविसृजति, निवेदयति स्वयं च इममेतपम्=अनुपदं वक्ष्यमाणम् अभिग्रहम् नियमम् अभिगृह्णाति सर्वतोभावेन स्वीकरोति " यत्-अहं द्वादश
शक्रादीनां 'भगवान् सर्वोत्कृष् हो कर वर्ते। साधुधर्म का पालन कीजिए, आठ प्रकार के कमरिपुओं को शुक्लध्यान से मित्रज्ञादूर कीजिये, राग-द्वेषरूपी मल्लों का मान-मर्दन कीजिए, मुक्ति-महल पर आरोहण कीजिए।' इत्यादि रूप म त्यादीनां से चित्तोत्साहजनक वननों से पुनः पुनः अभिनन्दन तथा स्तवन करते हुए, आकाश में जय-जयकार करते
Phal च गमना
हमारे नन्तरं भगहुए, जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा में चले गये।
वतोऽभिशक्र आदि के चले जाने के पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरने मित्रजनों, सजातियों, निजजनों (पुत्रा
ग्रहग्रहणम् दिकों), स्वजनों (काका आदिकों), संबंधीजनों, (पुत्र-पुत्री आदि के श्वशुर आदि नातेदारों) तथा परिजनों ॥०७८॥ (दासीदास-वगैरह) को विसर्जन किया और स्वयंने इस प्रकार का अभिग्रह-नियम ग्रहण किया-'मैं बारह
ધર્મનું યથાર્થ પાલન કરો, આઠ પ્રકારના કર્મરિપુઓને શુકલધ્યાન વડે દૂર કરજો, રાગદ્વેષ રૂપી મલેનાં માનનું મન કરજે, મુક્તિમહેલ પર આરોહણ કરજો” ઈત્યાદિ પ્રકારે ચિત્તમાં ઉત્સાહ ઉત્પન્ન કરનાર વચનોથી ફરી ફરીથી અભિનંદન અને ગગનભેદી જયનાદ પિકારતા જે, દિશામાંથી પ્રગટ થયાં હતાં તેજ દિશામાં પાછા ચાલ્યા ગયા.
ઈન્દ્રરાજા વગેરે ચાલ્યાં ગયાં પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે મિત્રજને, સજાતીઓ, નિજજને (પુત્રાદિકે) સ્વજને (કાકા આદિકે) સંબંધીજને (પુત્ર-પુત્રીના સસરા આદિ સગાં) તથા પરિજન (દાસ-દાસી વગેરે)થી છુટા છે. પડયા અને પોતે આ પ્રકારને અભિગ્રહ-નિયમ કર્યો કે “હું બાર વર્ષ સુધી કાર્યોત્સર્ગ કરીને, દેહાભિમાનનો છે
॥१४४॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥१४५॥
टीका
भगवतोऽभिग्रहग्रह
वर्षाणि व्युत्सृष्टकाया कृतकायोत्सर्गः त्यक्तदेहः परित्यक्तशरीराभिमानः सन् ये केचित् दिव्याः यौः स्वर्गः, तद्वासिसुरगणोऽपि उपचाराद् धोः, तद्भवाः-देवसम्बन्धिनः, वा-अथवा, मानुष्या मनुष्यसमुद्भवाचा तैरश्चा:तिर्यग्योनिसमुद्भवाः उपसर्गाः समुत्पत्स्यन्ते, तान् उत्पन्नान् उपसर्गान् सम्यक् मनोदाढर्चेन सहिष्ये भयाभावेन, संस्थे-क्रोधाभावेन, तितिक्षिष्ये दैन्याऽकरणेन, अध्यासिष्य-निश्चलतया, तथा-तदुपसर्गसहनादिषु कस्यापि देवस्याऽमुरस्य मनुष्यस्य वा साहाय्यं प्रतीकारकरणे सहायतां नो खलु एपिष्यामि अभिलषिष्यामि । इति ।मु०७८||
मूलम्-तएणं समणे भगवं महागीरे इमेयावं अभिग्गई अभिगिण्हिता वोसटकाए चत्तदेहे मुहत्तसेसे दिवसे कुम्मारग्गामं पहिए।
तएणं सिरिबद्धमाणसामी जाव नयणपहगामी आसी ताव गंदिवद्धणपमुहा उम्मुहा जणा णियणियलोयणपुडे हिं पहुदरिसणामयं पिवमाणा पहरिसमाणा आसी। अह य पहू जहा तहा दिहिसरणिओ विपकिट्ठो जाओ तहा तहा दारिदाणं विव सम्वेसि सोकरिसहरिसो पणहमारभीअ, गिम्हकालम्मि सरोवराणं जलमिव हरिसोल्लासो सोसिउमुवाकमीअ, वारिविरहेण पफुलं कमलकुलं विव सम्वेसि हिययदुस्सहेण पहुविरहेण मलिणं जायं, तमुज्जीविउं परत्तो सोंडीरो सीयलमंदसुगंधिसमीरोवि भुयंगमसासायइ, पुत्वं जाओ तदिक्खमहोच्छवनंदणवणे तदरिसणकप्पतरुतले इट्ठसिद्धीए आनंदलहरीश्री जायाओ ताओ सव्वाओ पहुविरहवडवानलम्मि पणट्ठाओ। पहुस्स दुस्सहो विरहो चंदविरहो चगोरमिव, हिययनिखायं सल्लमिव अखिले जणे वहिए करी। परिओ वित्थरिएण फारेण पहुविरहंधयारेण पाययलोयणेसु समाणेसु वि तत्थट्ठिया जणा अनयणा जाया, पाईणा समीईणा पपगासणवीणा तत्थच्चा सोहा निव्यागदीवसिहगिहसोहेव नासी। पहम्मि विरहिए समाणे पयंसि गलिए नईपुलिणमिव, रसे गलिए दलमित्र जणमणो मलिणो संजाओ, जणनयणाओ फारा वारिधारा पाउसम्मि वुट्ठिवर्षों तक कायोत्सर्ग किये, देहममत्व का त्याग किये, देवों संबंधी, मनुष्यों संबंधी अथवा तिर्यचों संबंधी जो भी उपसर्ग उत्पत्र होंगे, उन उत्पन्न हुए उपमर्गों को मानसिक दृढ़ता के साथ निर्भय भाव से सहन करूँगा, विना क्रोध के क्षमा करूँगा, अदीन भाव से सहन करूँगा, और निश्चल रह कर सहन करूँगा। उन उपसगों के सहन करने आदि में किसी देव या मनुष्य की सहायता की अभिलाषा भी नहीं करूँगा ।।सू०७८॥ ત્યાગ કરીને દેવા, મનુષ્ય અથવા તિય સંબંધી જે ઉપસર્ગ (ત્રાસ) ઉત્પન્ન થશે તે ઉપસર્ગોને માનસિક દઢતા સાથે નિર્ભય ભાવથી સહન કરીશ, કોધ કર્યા વિના ક્ષમા કરીશ, અદીન ભાવે સહન કરીશ અને નિશ્ચલ રહીને સહન to see કરીશ તે ઉપસર્ગો સહન કરવા આદિમાં કોઈ પણ દેવ કે મનુષ્યની સહાયતાની ઈચ્છા પણ નહિ કરું.” (સૂ૦૭૮)
मू०७८॥
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श्रीकल्प
॥१४६॥
प्रभुविरहे
धारा विव वहिउमारभीअ, पहुचरग्गजो अरिमर्पणो नंदिवद्धणो नरिंदो पक्खलंताऽऽभरणो पडतपसूणसमूहो छिण्णाजोगहो विव विगयचेयणो अवणियले सव्वंगेण धसत्तिपडिओ, त दट्टणं सव्वे सामंतप्पभियोऽवि समंतओ अवणियले कल्पनिवडिया। तएणं विलोणचेयणो नंदिवद्धणो भूवो कहंपि चेयणायारेण सीयलोवयारेण चेयणं णीोऽवि अईव मञ्जरी वहिओ भवीअ, निरंतरई सिउसिणसलिलोच्छलियधारामोयणाई लोयणाई पमज्जिय पज्जदुक्खभायणं सयमप्पा
टीका ५ णमेव निंदीअ-धी! धी! अम्हाणं पावविवाग, अमू बंधुविरहो पागसासणी असणीविव अम्हे णिहणइ । एवं दुस्सहपहुविरहदुक्खेण विष्णो पयाभिणंदणो णदिवद्धणो राया मुत्तकंठमाकंदी। अस्सा हथिण्णेऽवि अस्मई पमुंचमाणा अत्थोगसोगमाइणो भवी। तयाणि नवमरेहि मऊरेहिवि नचं विसरियं, विडविणो कुसुमाइं चईअ, काणणविहरणपरायणहरिणा उपात्ताई तणाई, कणभक्खिणो पक्खिणो य आहारं परिहरी। एवं सम्वेसु पाणिसु पहुधिरहविहुरेसु सो णरवरो पहुं चेयसा चिंतमाणो तो एवं वयासी-जत्थ तत्थ य सधस्थ तुम चेवावलोय ए विउत्तोसित्ति तुं वीर! दुक्खाएवाणुमिज्जइ" ॥१॥ एवं भासमाको नन्दिवद्धनो राया सणितं पटिओ ।मु०७९॥ छाया--ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः इममेतद्रपमभिग्रहमभिगृह्य व्युत्सुष्टकायः त्यक्तदेहः
नन्दिवर्षमुहर्तशेष दिवसे 'कुर्मार' ग्रामं प्रस्थितः।
नादीनां ततः खलु यावत् श्रीवर्धमानस्वामी नयनपथगामी आसीत् तावन्नन्दिवर्धनप्रमुखाः उन्मुखा जनाः निज- विलापनिजलोचनपुटैः प्रभुदर्शनामृतं पिबन्तः प्रहृष्यन्त आसन्। अथ च प्रभुर्यथा यथा दृष्टिसरणितो विभकृष्टो जातः,
वर्णनम् ।
मू०७९॥ मूल का अर्थ 'तएणं' इत्यादि । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार के इस अभिग्रह को ग्रहण करके शरीर की शुश्रूपा और ममता का त्याग किये हुए एक मुहूर्त दिन शेष रहने पर 'कुर्मार' ग्राम की ओर विहार किये।
तत्पश्चात् जब तक श्री वर्धमान स्वामी नयनपथगामी थे-दिखाई देते रहे, तब तक नन्दिवर्धन आदि ___ सबजन अपने-अपने नयनपुटों से प्रभु-दर्शन का अमृत-पान करते हुए हर्षित रहे; किन्तु प्रभु ज्यों ज्यों
भूलन। मथ-.'तएणं' इत्यादि. भाव। माना मान धारण ४री शरीरनी शुश्रा भभताना ત્યાગ કર્યો. તે જ દિવસે છેલ્લાં મુહૂર્તમાં ભગવાન કુર્માર” ગામ તરફ ચાલી નીકળ્યા.
होना ॥१४६॥ જ્યાં સુધી ભગનાન દષ્ટિગોચર થયાં ત્યાં સુધી નંદિવર્ધન વગેરે સ્વજનોએ અનિમેષ દૃષ્ટિએ ટગર ટગર જ જોયા કર્યું તે પ્રભુના દશનામૃતનું પાન કરતાં હર્ષિત રહ્યાં. પરંતુ જ્યારે પ્રભુ દષ્ટિ-મર્યાદાથી દેખાવા બંધ થતા હોય
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कल्प
श्रीकल्प
मूत्रे ॥१४७॥
मञ्जरी
टीका
तथा तथा दारद्राणामव सवा सात्कपहषः प्रणष्टुमारमत, ग्रीष्मकाल सरावराणा जलमिव हर्षोल्लासः शोष्टुमुपाक्रमत, वारिविरहेण प्रफुल्ल कमलमिव सर्वेषां हृदयं दुःसहेन प्रभुविरहेण मलिनं जातम् , तदुज्जीवयितुं प्रवृत्तः शौण्डीरः शीतलमन्दसुगन्धिसमीरोऽपि भुजङ्गमश्वासायते, पूर्व याः तद्दीक्षामहोत्सवनन्दनवने तदर्शनकल्पतरुतले इष्टसिद्धया आनन्दलहयों जाताः, ताः सर्वाः प्रभुविरहवडवानले प्रणष्टाः, प्रभोर्दुःसहो विरहः चन्द्रविरहश्वकोरमिव, हृदयनिखातं शल्यमिवाखिलान् जनान् व्यथितानकरोत्, परितोः विस्तृतेन स्फारेण प्रभुविरहान्धकारेण आयतलोचनेषु सत्स्वपि तत्र स्थिता जना अनयना जाताः, प्राचीना समीचीना प्रभुप्रकाशनवीना तत्रत्या शोभा नजरों से दूर होते गये, त्यो त्यो दरिद्रों के समान सबका उत्कर्षपूर्ण हर्ष समाप्त होना आरंभ होने लगा। जैसे ग्रीष्म के समय में सरोवरों का सलिल सूखने लगता है, उसी प्रकार उनका हर्ष मूखने लगा। जैसे पानी के विना फूला कमल मुरझा जाता है उसी प्रकार सब का हृदय दुस्सह प्रभु-विरह से मुरझाने लगा। उसे ताजा करने के लिए प्रवृत्त हुआ, पटु पवन शीतल मन्द और सुगंधित होने पर भी सांप के श्वास के समान जहरीला प्रतीत होने लगा। भगवान् की दीक्षा के महोत्सवरूपी नन्दन कानन में, प्रभु के दर्शन रूपी कल्पवृक्ष के मूल में इष्ट प्राप्ति से जो आनन्द की लहरें उत्पन्न हुई थीं, वे सभी वीरविरहरूप बडवानल में भस्म हो गई। चकोर को जैसे चन्द्रमा का वियोग दुस्सह होता है, उसी प्रकार प्रभुका विरह, हृदय में चुमे हुए काँटे के समान सभी जनों को व्यथा उत्पन्न करने लगा। चारों ओर फैले हुए प्रभुविरह रूप सघन अंधकार के कारण वहाँ खडे सभी जन बडे बडे लोचनों के विद्यमान रहते भी नयनहीनગયા તેમ તેમ દરિદ્રોની સમાન સ્વજનના હર્ષો ઓછા થવાં લાગ્યાં. જેમ ઉનાળાના પ્રખર તાપમાં સરોવરનું પાણી સુકાઈ જાય છે તેમ સનેહીજનેને હર્ષ સુકાવા લાગે. પાણી વિના જેમ કમળ કરમાઈ જાય છે તેમ પ્રભુદશન વિના સર્વના મન કરમાવાં લાગ્યાં. તેને વિકસિત કરનારા વહેતા મંદમંદ શીતલ અને સુગંધિત પવને પણ તેઓને સર્ષના શ્વાસસમ વિષમય લાગતા હતા.
દીક્ષા મહોત્સવ રૂપી નંદનવનમાં પ્રભુદર્શનરૂપી કલ્પવૃક્ષના મૂલમાં ઈષ્ટપ્રાપ્તિથી જે આનંદની હેરીએ ઉઠતી હતી તે બધી હેરી વીરભગવાનના વિરહ રૂપી વડવાનલ-અગ્નિમાં બળીને ખાખ થઈ ગઈ. ચકેર પક્ષીને જેમ ચ દ્રો વિગ સાલે છે તેમ પ્રભુને વિગ સર્વજનેને સાલવા લાગ્યો. અને આ વિરહ શલ્યની માફક ખૂંચવા લાગે. પ્રભુવિયોગને લીધે રોમેર પ્રસરાએલ પ્રભુવિરહ રૂપ સઘન અંધકારને લીધે ત્યાં ઉભેલા બધા માણસે મોટી મોટી
प्रभुविरहे नन्दिवर्षनादीनां विलापवर्णनम् । सू०७९॥
॥१४॥
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सूत्रे ॥१४॥
निर्वाणदीपशिखगृहशोभेवाऽनश्यत् । प्रभौ विरहिते सति पयसि गलिते नदीपुलिनमिव, रसे गलिते दलमिव जनमनो मलिनं संजातं, जननयनतः स्फारा वारिधारा प्रादृषि वृष्टिधारेव वोढुमारभत । प्रभुवराग्रजोऽरिमर्दनोनन्दिवर्धनो नरेन्द्रः प्रस्खलदाभरणः पतत्पमूनसमूहश्छिन्नानोकह इव विगतचेतनोऽवनितले सर्वाङ्गेण धसेतिपतितः,
कल्पतं दृष्ट्वा सर्वे सामन्तप्रभृतयोऽपि समन्ततोऽवनितले निपतिताः। ततः खलु विलीनचेतनो नन्दिवर्धनो भूपः
मञ्जरी कथमपि चेतनाजनकेण शीतलोपचारेण चेतनां नीतोऽपि अतीव व्यथितोऽभवत् । निरन्तरेषदुष्णसलिलोच्छलित- टीका धारामोचने लोचने प्रमृज्य पाज्यदुःखभाजनं स्वकमात्मानमेवानिन्दत-धिर धिगस्माकं पापविपाकम् , असौ से हो गये। पहेले की वहाँ की प्रभु के प्रकाश से नूतन और सलौनी शोभा उसी प्रकार नष्ट हो गई, जैसे कई दीप-शिखा के बुझ जाने पर घर की शोभा नष्ट हो जाती है। जैसे पानी के बह कर निकल जाने पर नदी का तट शोभाहीन हो जाता है, और जैसे रसभाग सूखजाने पर पत्ता मलिन-फीका-निष्मभ हो जाता है, उसी प्रकार जनता का मन मलिन हो गया। वर्षा ऋतु में पानी की धारा की तरह लोगों के नयनों से प्रभुविरहे आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। भगवान् के ज्येष्ठ भ्राता, रिपुओं का मर्दन करने वाले नन्दिवर्धन नन्दिवर्धराजा बेसुध हो कर धड़ामसे सर्वाग से कटे वृक्ष की तरह-धरती पर गिर पड़े,उनके सभी आभूषण ऐसे
नादीनां
विलापगिर पड़े, मानो वृक्ष के फूल झड़ गये हों। उन्हें गिरा देख कर सभी सामन्त वगैरह भी इधर-उधर भूतला
वर्णनम्। पर जा गिरे। तत्पश्चात् संज्ञाहीन नन्दीवर्धन राजा किसी प्रकार चेतना उत्पन्न करने वाले शीतलोपचार से
सू०७९॥ होश में आये भी तो अतीव व्यथा का अनुभव करने लगे। अनवरत हल्के से उष्ण जल की उछलती धारा बहाने वाले नेत्रों को पौंछकर वह अतीव दुःख के पात्र अपनी आत्मा की इस प्रकार निन्दा करने આંખ હોવા છતાં આંધળા ભીંત જેવા થઈ ગયા. જેવી રીતે દી ઓલવાતાં ઘરની શોભા નષ્ટ થઈ જાય છે તેવી જ રીતે ત્યાંની પ્રભુના પ્રકાશથી થતી નથી અને સુંદર શેભા નષ્ટ થઈ ગઈ. જેમ નદીકાંઠે દેવાઈ જતાં નદી બેડોળ લાગે છે, જેમ રસ ચુસાઈ જતાં ફળફૂલ પત્ર ફીક્કો લાગે છે તેમ પ્રભુના ગયા બાદ સમસ્ત જનતાનાં મન રસહીન ફીક્કાં દેખાવા લાગ્યાં. શ્રાવણ ભાદરવાની વર્ષોની ધારાની માફક લોકેની આંખેથી આંસુઓની ધારા વહેવા
॥१४८॥ લાગી દુશ્મનને રાડ પડાવી દે તેવા તેમના મોટા ભાઈ નંદિવર્ધન મૂછિત થઈને કાપેલા વૃક્ષની ડાળી માફક ધરતી પર પડી ગયા. જેમ વૃક્ષનાં ફૂલે નીચે ગબડવા માંડે તેમ તેમનાં આભૂષણે પણ એક પછી એક નીચે ગબડવા માંડયાં નિસ્તેજ થયેલ નંદવર્ધનને બેશુદ્ધ પડેલા જોઈ સર્વસામતો વગેરે પણ બેશુદ્ધ થઈ ભય પર પડવા લાગ્યા.
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श्रीकल्पसूत्रे ॥१४९॥
बन्धुविरहः पाकशासनिरशनिरिव अस्मान निहन्ति । एवं दुस्सहमभुविरहदुःखेन खिन्नः प्रजाऽभिनन्दना नन्दिवर्धना राजा मुक्तकण्ठमाक्रन्दत् । अश्वा हस्तिनोऽपि अश्रणि प्रमुञ्चन्तः अस्तोकशोकभागिनोऽभवन् । तदानीं नृत्यशुरैर्मयूरैरपि नृत्यं विस्मृतम्, विटपिनः कुसुमान्यत्यजन, काननविहरणपरायणा हरिणा उपात्तानि तृणानि, कणभक्षिणः पक्षिणश्चाऽऽहारं पर्यहरन् । एवं सर्वेषु प्राणिगणेषु प्रभुविरहविधुरेषु स नरवरः प्रभुं चेतसा चिन्तयन्नाह - " यत्र तत्र च सर्वत्र त्वामेवाऽऽलोकयाम्यहम् । वियुक्तोऽसीति वीर ! त्वं दुःखादेवानुमीयते " ॥ १॥
एवं मनसि चिन्तयन्नन्दिवर्धनो राजा स्वनिशान्तं प्रस्थितः ।। ०७९ ।
लगे - 'धिकार है, धिकार है हमारे पाप के परिणाम को ! यह बन्धु-वियोग इन्द्रके वज्र की तरह हमें चोट पहुंचा रहा है।' इस प्रकार प्रभु के दुस्सह विरह के दुःख से खिन्न और प्रजा को आनन्द देने वाले नन्दिवर्धन राजा मुक्त कंठ से आक्रंदन - रुदन करने लगे । घोड़े और हाथी आंसू बहाते हुए मचल शोक करने लगे। उस समय नृत्य करने में शूर मयूर भी नाचना भूल गये। वृक्षों ने कुमुमों का परित्याग कर दिया । वन में विचरण करने में परायण हरिणों ने मुख में ग्रहण किये तृणों को भी त्याग दिया और कण-कण का भक्षण करने वाले पक्षियों ने चुगना बंद कर दिया। इस प्रकार सभी प्राणिगण प्रभु के विरह से व्यथित हो गए । तत्पश्चात् राजा नन्दिवर्धन मन ही मन भगवान् का चिन्तन करते हुए अपने भवन की ओर रवाना हुए ।। सू०७९ ॥
શીત ઉપચાર વડે નદિવન જ્યારે હશમાં આવ્યા ત્યારે તેમની વ્યથાના પાર ન હતેા. જાણે દુઃખના વાદળે તુટી પડયા. ગળામાં ડુમા ભરાયો હતા. આંસુથી છલકતી આંખાને સાફ કરી આત્મનિંદા કરવા લાગ્યા. · ધિક્કાર છે મારા પાપાના પરિણામેાને ! આ મંધુવિરહ ઇન્દ્રના વાના માર સમાન દુઃખ આપી રહ્યો છે!, આમ કહી તે હૈયાફાટ રાવા લાગ્યાં ને ચાધાર આંસુ પાડી વિલાપ કરવા લાગ્યાં. ઘેાડા, હાથી વગેરે પ્રાણીઓ પણ આંસુ વહાવતાં પ્રખલ શેક અનુભવવા લાગ્યાં. આ સમયે નાચ કરનાર મયૂરી પણ નાચ કરવાનું ભૂલી ગયાં. વૃક્ષેા શાકના ચિન્હ તરીકે પુષ્પાને ત્યાગ કરવા લાગ્યા. હરણાએ મેઢામાં લીધેલું ઘાસ છેાડવા લાગ્યાં; પક્ષીઓએ ચણવાનું છેડી દીધું. આ પ્રમાણે સર્વ પ્રાણીએ પણ વિલાપ કરવા લાગ્યાં. ઝાડપાન પન્નુ શાકના માર્યા સુરવા લાગ્યાં. શાકથી દુઃખિત થયેલ નંદિવર્ધન ભગવાનનું ચિંતન કરતાં કરતાં ખીન્ન ભાવે પેાતાના મહેલે પહોંચ્યાં. (સ્૦૭૯)
कल्पमञ्जरी टीका
प्रभुविरहे नन्दिवर्ध नादीनां विलाप -
वर्णनम् ।
॥सू०७९ ॥
॥१४९॥
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श्रीकल्प
मुत्रे
टीका-'तएणं समये भगव' इत्यादि-ततः दीक्षाग्रहणानन्तरं खलु श्रमणो भगवान महावीरः इममेतद्रूपम्= पूर्वोक्तं स्वप्रतिज्ञातम् अभिग्रहम् अभिगृह्य स्वीकृत्य व्युत्सृष्टकायान्त्यक्तशरीरशुश्रूषः, त्यक्तदेहः परिहतशरीरमोहः, मुहूर्तशेषे घटिकाद्वयावशिष्टे दिवसे–दिने, 'कुर्मार'-ग्राम-कुर्माराख्य-ग्रामं, प्रस्थितः विहारं कृतवान् ।
ततः खलु थावत्-यावत्कालपर्यन्तम् , श्रीवर्धमानस्वामी नयनपथगामी-दृश्यमान आसीत् , तावत्= तावत्कालपर्यन्तं नन्दिवर्धनप्रमुखाः नन्दिवर्धनादयः, जनाः उन्मुखाः-श्रीवर्धमानावलोकार्थ तदभिमुखाः सन्तः, निजनिजलोचनपुटैः स्व-स्व-क्षेत्रपुटैः, प्रभुदर्शनामृत-श्रीवर्धमानस्वामिदर्शनरूपामृतं पिबन्तः सन्तः प्रहृष्यन्तः-प्रमोदमाना आसन् अथ-तदनन्तरम् च प्रभु श्रीवर्धमानस्वामी यथा यथान्येन. येन प्रकारेण दृष्टिसरणित:नेत्रपथतः, विप्रकृष्टः दरो जानः तथा तथा तेन तेन प्रकारेण दरिद्राणां दीनानाम् इव सर्वेषां तत्र स्थितानां
कल्पमञ्जरी टीका
T
FATHER
प्रभुविरहे
... टीका. का अर्थ:--'तए थे' इत्यादि । दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर श्रमण भगवान् महावीर पूर्वोक्त अभिग्रह को अंगीकार करके शरीर की शुश्रूपा, के त्यागी हुए और देह संबंधी मोह से रहित हुए, जब अनुमान दो घड़ी दिन शेष था, तब 'कुर्मार' ग्राम की ओर विहार किये।
___. उस समय, जितने समय तक श्रीवर्धमान स्वामी दिखाई देते रहे, उतने समय तक नन्दिवर्धन आदि जन भगवान् श्रीवर्धमान प्रभु को देखने के लिए. उनकी ओर मुँह उठाए हुए नेत्र-पुटों से उनके दर्शनरूपी अमृत का पान करते रहे, और प्रसन्न होते रहे; किन्तु बाद में श्रीवर्धमान स्वामी जैसे-जैसे दृष्टिपथ से दर होते चले गये, वैसे-वैसे दीनों के समान वहाँ खड़े हुए सभी लोगों का वंह उत्कृष्ट
नन्दिवर्धनादीनां विलापवर्णनम् । ॥मू०७९॥
सानो मथ:-'तपण त्याही. ही बीधा पछी श्रम नावान महावीर मा मता०या प्रमाणेना અભિગ્રહને અંગીકાર કરીને શરીરની સુશ્રષાને ત્યાગી શરીર ઉપર મેડ છે. જ્યારે બે ઘડી દિવસ मी २ह्यो त्यारे "भार" गामनी त• 4६२. यो.......
જ્યાં સુધી નજર પહેંચતી રહી-જયાં સુધી શ્રી વર્ધમાન સ્વામી દષ્ટિગેચર ' રહ્યા ત્યાં સુધી નંદિવર્ધન વગેરે જેને ભગવાન શ્રી વર્ધમાન પ્રભુને જોવાને માટે તેમની તરફ મુખ ઊંચું કરીને નેત્ર-પુટથી મીટ માંડી તેમના દર્શન રૂપી અમૃતનું પાન કરતા રહ્યા અને પ્રસન્ન થતાં રહ્યાં, પણ જેમ જેમ શ્રી વર્ધમાન સ્વામી દષ્ટિપથથી દૂર દૂર થતાં ગયાં તેમ તેમ દોન માણસની જેમ ત્યાં એકઠા થએલા બધા લે:કેને તે ઉત્કૃષ્ટ આનંદ વિલ ન
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श्रीकल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥१५१॥
टीका
जनानां सोत्कर्पहर्पः: उत्कृष्टानन्दः प्रणष्टुंदरीभत्रितुम् आरभत-उपाक्रमत, किंच-ग्रीष्मकाले ग्रीष्मऋतौ सरोवराणां जलमिव सर्वेषां जनानां हर्षोल्लासः शोष्टुमुपाक्रमत, वारिविरहेण जलाभावेन प्रफुलं विकसित, कमलकुलं= -कमलवनमिष सर्वेषां तत्रस्थितानां जनानां, हृदयं मनः, दुःसहेन-कष्टसहनीयेन प्रभुविरहेण श्रीवर्धमानस्वामि
कल्पवियोगेन, मलिनं हतप्रभं जातम् । तत्सर्वजनहृदयम् , उज्जीवयितुम्-उल्लासयितुं. प्रवृत्तः 'शौण्डीर:-निपुणः शीतलमन्दसुगन्धिसमीरोऽपि भुजङ्गमश्वासायते भुजङ्गमश्वास इवाचरति-तद्वदाहजनको जात इत्यर्थः । पूर्व तदीक्षामहोत्सव-नन्दनवने श्रीवर्धमानस्वामिचारित्रग्रहणो देश्यक-बृहदुत्संवरूप-नन्दनवने तदर्शनकल्पतरुतले श्रीवर्धमानस्वामिदर्शनरूपकल्पवृक्षम्रले इष्टसिद्धथा अभिलपितसम्पन्नतया या आनन्दलहर्यः हर्षपरम्पराः जाताः, ताः सर्वाः प्रभुविरहवडवानले श्रीवर्धमानस्वामिवियोगरूपसामुद्रिकाग्नौ प्रणष्टाः । प्रभोः श्रीवर्धमानस्वामिनः दुःसहःकष्टसह्यः विरहः चन्द्रविरहः चन्द्रवियोगः चकोरम् इव-यथा व्यथितं करोति, हृदयनिखातं हृदयप्रदेशान्त:
आनन्द दूर होने लगा। जसे ग्रीष्म ऋतु में सरोवरों का जल मूखने लगता है, उसी प्रकार उनका हो। लास सूखने लगा। जैसे जल के अभाव से विकसित कमलों का समूह शोभाविहीन हो जाता हैं, उसी प्रभुविरहे प्रकार यहाँ स्थित जनों के हृदय दुस्सह प्रभु-विरह से-श्रीवर्धमान स्वामी के वियोग से मुरझा गया। सब के
नन्दिवर्धहृदय को प्रफुल्लित करने के लिए प्रवृस हुआ सुन्दर, शीतल, मन्द और सुगंधित समीर (पवन) भी साप
नादीनां
विलाप- के श्वास के समान संतापवर्धक हो उठा। पहले भगवान वर्धमान स्वामी के दीक्षा ग्रहण के निमित्त हुए वर्णनम।
उत्सवरूपी नन्दनवन में, श्रीवर्धमान स्वामी के दर्शनरूप कल्पवृक्ष के मूल में इष्टसिद्धिः से आनन्द की जो सू०७९॥ लहरें उत्पन्न हुई थीं, वह सब प्रभु के विरहरूप वडवानल में भस्म हो गई। जैसे चन्द्रमा का वियोग चकोर को व्यथित करता है, उसी प्रकार भगवान् का वियोग लोगों को व्यथित करने लगा। अथवा થવા લાગ્યા. જેમાં શ્રી મ કતુમાં રેવરાનું પાણી સૂકાવા લાગે છે તેમ તેમને હર્ષોલ્લાસ સૂકાવા લાગે. જેમ "જળના અભાવે વિકસિત કમળાને સમૂહ ચીમળાઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે ત્યાં ઉપસ્થિત થએલા માણસેનાં હૃદય અસહા પ્રભુવિરહથી-શ્રી વર્ધમાનસ્વામીના વિયેગથી ઝરવા લાગ્યાં. સવનાં હૃદયને પ્રફુલ્લિત કરી રહેલ સંદર, શીતંળ, 'મંદ અને સુગંધિત પવન પણ સાપના ઝેરી ધાસની માફક સંતાપી રહ્યો હતો. ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીના દીક્ષા
॥१५॥ , ગ્રહણ નિમિત્તે પ્રકટેલા ઉત્સવ રૂપી નંદનવનમાં શ્રી વર્ધમાન સ્વામીનાં દર્શન રૂપી કલ્પવૃક્ષના મૂળમાં ઈષ્ટ સિદ્ધિથી
આનંદના જે લહેરે ઉત્પન્ન થઈ હતી તે બધી પ્રભુના વિરહ રૂપી દાવાનળમાં ભસ્મ થઈ ગઈ. જેમ ચન્દ્રમાને વિયેગ ચકોર પક્ષીને સતાપે છે એજ પ્રમાણે ભગવાનને વાયેગ લોકેના હૈયામાં અપાર વ્યથા કરવા લાગ્યો અને
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श्रीकल्पमृत्रे ॥१५२॥
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संचनं शल्यं च इ = यथा जनान् व्यथितान् करोति, तथैव अखिलान् जनान् व्यथितान् = पीडितान् अकरोत् । परितः सर्वतः विस्तृतेन = प्रसृतेन स्फारण - विशालेन प्रभुविरहान्धकारेण आयतलोचनेषु दीर्घनेत्रेषु सत्स्वपि तत्रस्थिताः - श्री वर्धमानप्रभुदीक्षास्थानवर्तिनो जनाः अनयनाः= अन्धा इव जाताः प्राचीना = पूर्वकालीना, समीचीना= शोभना प्रभुप्रकाशनवीना = श्री वर्धमानस्वामिविराज नाभिनवा तत्रत्या = श्रीवर्धमानस्वामिसमलङ्कृतस्थानोद्भवा शोभा = रमणीयता, निर्वाणदीपशिख - गृहशोभेत्र = विध्यातदीपस्य भवनस्य रमणीयतेव श्रनश्यत् = नष्टाऽभवत् प्रभौ=श्रीवी रजिने विरहिते= वियुक्ते सति पयसि =जले गलिते = निःसृते, नदीपुलिनम् = नदीसम्बन्धितोयोस्थिततटम् इव यथा मलिनं भवति तथा-रसे= जलभागे, गलिते =शुष्के सति दलं पत्रम् इव = यथा मलिनं भवति तथैव - जनमनः = लोक हृदयं मलिनं हतोत्साहं संजातम्, जननयनतः = लोकानां नेत्रतः स्फारा = महती वारिधारा=अश्रु परम्परा, प्राकृषि वर्षाकाले दृष्टिधारा = वर्षाधारा इव= यथा वोढुं =स्यन्दितुम् आरभत = उपाक्रमत । तथा प्रभुवरजः =श्रीवर्धमानस्वामिज्येष्ठ भ्राता, जैसे हृदय - प्रदेश में चुभा हुआ शल्य व्यथा पहुँचाता है, वैसे ही वह वियोग सब को व्यथा देने लगा । सब ओर फैले हुए विशाल प्रभु - विरह के अन्धकार के कारण दीर्घनयन होने पर भी दीक्षास्थान पर विद्यमान जन नेत्रहीन जैसे हो गये। प्रभु के विराजने से नवीन वहाँ की पहले वाली शोभा, अर्थात् भगवान् वर्धमान के विराजने के स्थान की वह रमणीयता उसी प्रकार नष्ट हो गई, जैसे दीपक के बुझ जाने पर भवन की शोभा नष्ट हो जाती है । जैसे पानी का बहाव समाप्त हो जाने पर नदी के तटकी शोभा मलिन हो जाती है, अथवा रस-भाग के सूख जाने पर पत्ते निष्प्रभ हो जाते हैं, उसी प्रकार लोगों के हृदय मलिन - उत्साहहीन हो गये। लोगों के लोचनों से महती अश्रुधारा ऐसी प्रवाहित होने लगी, जैसे वर्षाकाल में वर्षा की धारा बह रही हो । भगवान् के ज्येष्ठ भ्राता, शत्रुओं के विजेता नन्दिवर्धन राजा, અથવા જેમ કામળ હૈયામાં ખુંચી ગએલા બાણુની અણી મહાવ્યથા કરે છે એજ પ્રમાણે તે વિયેાગ સૌને સંતાપવા લાગ્યા. પ્રભુવિરહના ગાઢ અંધકાર ચેતક ફેલાવાને કારણે મેાટી અને સ્વચ્છ મખાવાળા હોવા છતાં પણ દીક્ષાસ્થાન પર ઉપસ્થિત લેાકેા જાણે નેત્રહીન થઇ ગયાં. ભગવાનની હાજરીને કારણે ત્યાંની શેાભામાં જે નવીનતા અને રમણીયતા આવી હતી તે જાણે કે દીપક બુઝાઇ જતાં ભવનની શાભા જેમ નાશ પામે તેમ નાશ પામી. જેમ પાણીનું વહેણ અંધ થતાં નદીના તટની ઘેાભા મલીન થઈ જાય છે, અથવા રસ સૂકાઈ જતાં જેમ પાંદડાં સુકાં અને નિસ્તેજ થઇ જાય છે એજ પ્રમાણે લેાકેાનાં હૈયાં ઉત્સાહ વિનાનાં નિરસ થઈ ગયાં, જેમ વર્ષાઋતુમાં વરસાદની ધારા પડે છે તેમ લેાકેાની આંખેામાંથી શ્રાવણ ભાદરવા વરસવા માંડયા.
कल्प
मञ्जरी टीका
प्रभुविरहे
नन्दिवर्ष
नादीनां
बिलाप -
वर्णनम् ।
॥सू०७९ ।।
॥१५२॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥१५३॥
अरिमर्दनः = शत्रुपराजयी नन्दिवर्धनः = तदाख्यः, नरेन्द्रो = राजा प्रस्खलदाभरणः प्रपतदलङ्कारः सन् पतत्मनूनसमूह := प्रस्खलत्पुष्पसमुदायः छिन्नानो कह : = छिन्नवृक्षः इव = यथा विगतचेतनः = निश्रेष्टः सन् अवनितले=पृथ्वीतले, सर्वाङ्गेण= सकलावयवेन धसिति - 'धस्' इत्याकारकशब्दपुरस्सरं पतितः - अपतत् । तं नन्दिवर्धनं पतितं दृष्ट्वा सर्वे सकलाः सामन्तप्रभृतयोऽपि पुरुषाः समन्ततः = सर्वतः अवनितले= भूतले निपतिताः न्यपतन् । ततः = भूतलनिपतनानन्तरम् विलीनचेतनः = निश्रेष्टः, नन्दिवर्धनो भूपो - राजा कथमपि केनापि प्रकरेण चेतनाकारेण = चेष्टाजनकेन, शीतलोपचारेण व्यजनादिना शीतीकरणसाधनेन चेतनां चेष्टां नीतोऽपि = प्रापितोऽपि, अतीव = अत्यन्तं यथा स्यात्तथा व्यथितः=दुःखितोऽभवत् । स च निरन्तरेषदुष्ण-सलिलोच्छलित - धारामोचने = निरन्तरम्=अविरतं या ईषदुष्णसलिलस्य= किञ्चिदुष्णजलस्य उच्छलन्ती या धारा=मत्राहस्तस्या मोच के लोचने-नेत्रे प्रमृज्य = प्रोञ्छय प्राज्यदुःखभाजनं= बहुदुःखपात्रं स्वर्क=निजम् आत्मानमेव अनिन्दत्=अगर्हयत्, तथा हि- धिग् धिक् अस्माकं पापविपाकं = पापपरिणामम्, असौ=एषःप्रभु त्रिरहः=श्रीवर्धमानमभुवियोगः पाकशासनिः = इन्द्रसम्बन्धी अशनिः = वज्रम् इव अस्मान् निहन्ति = नितरां जिनके आभूषण नीचे गिर रहे थे, इस प्रकार सब अवयवों से धरती पर धड़ाम से गिर गये, जैसे झड़ते हुए पुष्पों वाला वृक्ष कट कर गिर गया हो । धरती पर गिरने के बाद वह मूर्छित हो गये। फिर - मूर्छा दूर करने वाले शीतल उपचार से पंखा आदि के द्वारा हवा करने आदि से होश में आये भी तो अत्यन्त ही दुखी हुए। वह लगातार किंचित उष्ण जल की धारा के समान अश्रुधारा बहाने वाले नेत्रों को पोंछ कर अत्यन्त दुःखित अपने आत्मा की हो निन्दा करने लगे- हमारे पाप के परिणाम को धिक्कार है ! यह बन्धुत्रियोग हमको इन्द्र के वज्र के समान व्यथा पहुँचा रहा है। इस प्रकार असा प्रभुवियोग
જેમ ખરતાં પુષ્પવાળું વૃક્ષ કપાઈને ધરણી પર તૂટી પડે છે તેમ જેનાં આભૂષણા નીચે પડી રહ્યાં છે એવા ભગવનના જ્યેષ્ઠ ભાઈ અને શત્રુએના વિજેતા રાજા નદિનીવધન વિરહવેદનાથી શરીર ઉપરના કાણુ ગુમાવતાં ધડીમ કરતાક ધરણી પર ઢળી પડયાં, અને બેહેાશ થઈ ગયા. આજુબાજુ એકઠા થએલા પ્રજાજનાએ તેમની મૂર્છા ટાળવા શીતળ ઉપચાર કરીને તેમ જ પંખા વડે વન વગેરે નાખતાં રાજા નદિવન ભાનમાં આવ્યાં. ભાનમાં આવતાં તે અત્યંત દુઃખી જણાતા હતા. આંખામાંથી ચેાધાર આંસુ વહી રહ્યાં હતાં. આંખા લુછવા છતાં પુરની માફક આંસુ ઉભરાતાં હતાં, દુઃખની કાઈ સીમા ન હતી. દુઃખ માટે તે પેાતાના આત્માને ધિક્કારવા લાગ્યા. “ ધિક્કાર હો અમારાં પાપનાં પરિણામને. આ કયા ભવનાં પાપ ઉદય આવ્યાં હશે કે મારી આંખા સામે મારા
कल्प
मञ्जरी
टीका
प्रभु विरहे नन्दिवर्ध
नादीनां
विलाप
वर्णनम् ।
||म्०७९ ।।
॥१५३॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥१५४॥
हिनस्ति-व्यथयतीति भावः। एवम्-अनेन प्रकारेण दुःसहप्रभुविरहदुःखेन कष्टसहनीय-श्रीवर्धमानस्वामिवियोगजनितखेदेन खिन्नः दुःखितः प्रजाऽभिनन्दनः स्वकीयप्रजाऽमन्दानन्दकारको नन्दिवर्धनो राजा मुक्तकण्ठम् सशब्दं यथा स्यात् तथा-आक्रन्दत् उच्चैररोदीत , तस्मिन् समये अश्वाः हस्तिनोऽपि, अश्रूणि नेत्रजलानि प्रमुञ्चतः पातयन्तः सन्तः अस्तोकशोकभागिनः बहुतरशोकवन्तोऽभवन् । तदानीं श्रीवर्धमानस्वामिवियोगसमये नृत्यशूरैः-नर्तननिपुणैः मयरैरपि नृत्यं विस्मृतम् , तथा-विटपिन:क्षाः, कुसुमानि-पुष्पाणि, अत्यजन् अमुश्चन्-वृक्षाः प्रभुविरहेण पुष्पशोभारहिता अभवन्निति भावः। तथा-काननविहरणपरायणा: वनविचरण तत्पराः हरिणा = मृगाः, उपात्तानि गृहीतानि-तृणानिधासान् , पर्यहरन् परित्यक्तवन्तः, च-पुनः कणभक्षिणः पक्षिणः आहारं कणभक्षणं पर्यहरन् , एवम् अनेन प्रकारेण सर्वेषु पाणिगणेषु प्रभुविरहविधुरेषु-श्रीवर्धमानस्वामिवियोगजनितदुःखाकुलेषु सत्सु सः
मञ्जरी टीका
मगर प्रभुविरहे
श्रीवर्धमान स्वामी के विरह-जनित खेद से दुःखित होकर अपनी प्रजा की आनन्दित करने वाले नन्दिवर्धन राजा चिल्ला-चिल्ला कर रुदन करने लगे। उस समय में अश्व और इस्ती भी आसू बहाते हुए अत्यन्त शोक के भागी हुए। श्रीवर्धमान स्वामी के वियोग के समय नाचने में निपुण मयूर भी नृत्य करना भूल गये । वृक्षों ने फूलों का परित्याग कर दिया, अर्थात् वे भी प्रभु के विरह से फूलों की शोभा से रहित हो गए। तथा वन में विहार करने वाले मृगों ने मुख में लिया हुआ घास भी त्याग दिया। कण का भक्षण करने वाले पक्षियों ने कणभक्षण करना भी छोड दिया। इस प्रकार समस्त पाणीगण भगवान् के त्रियोग से व्यथित हुए। तत्पश्चात्
नन्दिवर्धनादीनां
विलापसे वर्णनम् ।
सू०७९॥
ભાઈનો વિગ થયે. આ બધુ વિગ તે ઇન્દ્રના વજી જે કારી ઘા મારી રહ્યો છે.” પિતાની પ્રજાને આનંદિત કરનાર રાજા નંદિવર્ધન પ્રભુનો વિયોગ થતાં પત્થરને પણ પીગળાવે તેવા કરૂણુસ્વરે વલોપાત કરવા લાગે. વિરહની કરૂણતા ચારે તરફ વ્યાપી રહી હતી. પક્ષિઓએ ચણવાનું મુકી દીધું. હાથી અને ઘોડાઓ જે સમારંભને શોભાવતા હતા તે પણ આ વાતાવરણથી મુક્ત ન રહ્યા. તેમની આંખે અશ્રપૂર્ણ હતી. નર્તન કરી રહેલા મયૂરેએ તેમનું નર્તન છેડી દીધું. વૃક્ષે પણ વંચિત ન રહ્યા. નયનોમાંથી જેમ આંસુડા ખરે તેમ વૃક્ષો ઉપરથી પુષ્પ આંસુડાની માફક ખરખર ખરવા લાગ્યા. વનમાં નિર્દોષ રીતે ફરતાં ભેળાં મૃગલાંઓએ મહેમાં લીધેલું કડપ પણ
છોડી દીધું. હા, પ્રભુ ! તારો વિયોગ! કોને વ્યથા નથી ઉપજાવતે ? પશુ શું ? ને પક્ષી શું? માનવી શું કે દેવ કરે શું? વાત્સલ્યના અવતાર એવા પ્રભુના વિરહથી સારી વનરાજી, પશુ, પક્ષી, માનવી અને દેવગણ, કોઈ દુઃખથી
॥१५४॥
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श्रीकल्प.
मुत्रे
कल्पमञ्जरी टीका
प्रभुवियोगविधुरो नरवरो राजा-नन्दिवर्धनः प्रभु श्रीवर्धमानस्वामिनं चेतसा-हृदयेन चिन्तयन् स्मरन् कथयति
“यत्र च सर्वत्र वामेवाऽऽलोकयाम्बहम् ।
वियुक्तोऽसोति वीर त्वं, दुःखादेवानुमीयते" ॥१॥ इति ।
एवं विलपन् नन्दिवर्धनो राजा ततः ज्ञातपण्डवनात् स्वनिशान्तं-निजगृहं प्रस्थितःप्रयातः॥मू०७९॥ ॥१५५॥
मूलम्-तत्थ णंदिवद्धणेण वुत्तं-हे वीर! अम्हे तं विणा सुण्ण वर्ण विव पिउकाणणं विव भयजणणं भवणं कहं गमिस्सामो १ । हवंति य एत्थ सिलोगा
। तए विणा वीर ! कहं वयामो, गिहेऽहुणा सुण्णवणोवमाणे।
गोट्ठीसुहं केण सहायरामो, भोक्खामहे केण सहाऽह बंधू ! ॥१॥ सव्वेसु कजेसु य वीर-वीरे-चामंतणाईसणो तवज्ज!।
पेमप्पकिडीइ भजीअ मोयं, गिराऽऽसया कं अह आसयामो ॥२॥ भगवान् के विरह से दुःखी नन्दिवर्धन राजा श्रीवर्धमान स्वामी को हृदय से स्मरण करते हुए कहते हैं
.. “यत्र तत्र च सर्वत्र, त्वामेवाऽऽलोकयाम्यहम् ।
वियुक्तोऽसीति वीर ! त्वं, दुःखादेवानुमीयते "॥१" ___अर्थात्-हे भ्राता! में जहां तहां सब जगह तेरेको ही देखता हूँ, अतः कौन कहता है कि तेरा वियोग हुआ है, मुझे तो चारों ओर तूं ही तूं दिखाई दे रहा है परंतु हे वीर ! जब अंतर में दुःख होता है तब और अनुमान करता हूँ कि तेरा वियोग हो गया है। इस प्रकार मनहीमन बोलते हुए नन्दिवर्धन राजा ज्ञातखण्ड
उद्यान से अपने भवन की ओर रवाना हुए सू०७९।। મુક્ત ન હતું. પ્રભુ તે ગયા. હવે રડે શો ફાયદો ? એમ વિચારી ભારે હૈયે નંદિવર્ધન રાજા એમ કહેવા લાગ્યા કે
“यत्र तत्र च सर्वत्र, त्वामेवाऽऽलोकयाम्यहम् । ।
वियुक्तोऽसीति वीर ! त्वं, दुःखादेवानुमीयतें" ॥१॥ અર્થાતુન્હે ભાઈ હું જ્યાં ત્યાં બધી જગાએ તને જ જોઉં છું. તો પછી કોણ કહે કે તારે વિગ થયે છે, મને તો ચારે તરફ તૂ જ તૂ દેખાઈ રહ્યો છે, પણ હે વીર ! જ્યારે અંતરમાં દુઃખ થાય છે ત્યારે અનુમાન કર્યું IS છું કે તારો વિયોગ થઈ ગયો છે. આ પ્રમાણે મનમાં ને મનમાં બોલતા નદિવર્ધન રાજાએ જ્ઞાતખંડ ઉદ્યાનમાંથી
पाताना भवननी त२५ खi मर्या. (सू०७८)
प्रभुविरहे नन्दिवर्धनादीनां
विलापवर्णनम् । सू०७९॥
॥१५५॥
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श्री कल्पसूत्रे ॥१५६॥
海鮮劑
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漫漫
अइप्पियं बंधन ! दंसणं ते, सुहंजणं भावि कयऽम्ह अक्खिणं । नीरागचित्तोऽवि कयाह अम्हे, सरिस्समी सव्वगुणाभिराम ! ||३||
rai भुजो भुजो विलपताणं तेर्सि सन्वेसिं अच्छओ मोतियमालव्य फारा अनुहारा निस्संदिउ - मुवाकमीअ । तह य अच्छिमुत्तियाओ अस्मुर्विदुमुत्ताहलागि परियो विकिरिउमारभीअ । एवं सोगमयं समयं निरिक्खिय दिनमणीत्र मंदघिणी जाओ । एगो अवरस्स दुक्खं परोप्परं ददुं दूयइति विभाविय विव सहस्स किरणो अत्थमिओ | सूरे अत्थमिए धरा य अंधयाराऽऽच्छायणं धरीअ, जणा य सोगाउरा विच्छायवयणा सयं सयं सिंहं पडिगया || सू०८०||
छाया— तत्र नन्दिवर्धनेनोक्तं - " हे वीर ! वयं त्वां बिना शून्यवनमिव पितृकाननमिव भयजननं भवनं कथं गमिष्यामः १ ।
भवन्ति चात्र श्लोकाः – “त्वया विना वीर ! कथं व्रजामो, गृहेऽधुना शून्यवनोपमाने । गोष्ठीमुखं केन सहाऽऽचरामो, भोक्ष्यामहे केन सहाथ बन्धो ! ॥१॥
मूल का अर्थ - ' तस्थ' इत्यादि उनमें से नन्दिवर्धन ने कहा- हे वीर ! मैं तुम्हारे बिना शून्य वन समान और श्मशान के समान भय-जनक राजभवन में कैसे जाऊँगा? इस विषय में श्लोक भी हैतर विणा वीर ! कहं वयामो, गिहेऽहुणा मुण्णवणोवमाणे ।
गोट्टीमुहं केण सहायरामो, भोक्खामहे केण सहाऽह बंधू ! ॥ १ ॥
हे वीर ! तेरे बिना हम कैसे जाएँ ? इस समय राजभवन तो सुनसान वन के समान जान पड़ता है । हे वीर ! हम किसके साथ गोष्ठी ( वार्तालाप के सुख का अनुभव करेंगे ? हे बन्धो ! हम किस के साथ बैठ कर भोजन करेंगे ॥ १ ॥
भूजना अर्थ - ' तत्थ' इत्यादि विद्याप उरतां नहिवर्धन મશાન જેવા થઇ પડેલાં ભયજનક ભવનમાં કેવી રીતે જાઉં?” આ વિષયમાં ત્રણ “ तर विणा बोर ! कहं वयामो, गिहेऽहुणा सुष्णत्रणोत्रमाणे । गोही केण सहाऽयरामो, भोक्खामहे केण सहाऽहबंधू ! ।। १ ।। “ હું વીર ! તારા વિના હવે આ ભવનમાં કેવી રીતે જાઉ ? તારા વિના તા જેવું લાગે છે. હું વીર! તારા જતાં હું કેાની સાથે ગેષ્ઠી કરીશ ? વિનેાદ કરીશ કાની સાથે બેસીને ભાજન કરીશ ?(૧)
छे हैं, ' हे वीर ! हुँ' तारा बिना शून्य मने શ્લોકો છે તે આ પ્રમાણે છે—
ખા ભવન સુનસાન વગડા કે મ' ! તારા જતાં હું
कल्प
मञ्जरी
टीका
प्रभुविर नन्दिवर्ध
नादीनां विलाप
वर्णनम् ।
।।मू०८०॥
॥१५६॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥१५७॥
otion भवतस्त
म.प्र. शा
सर्वेषु कार्येषु च वीर-वीर - त्यामन्त्रणादर्शनतस्तवाऽऽयें ! | प्रेमप्रकृष्टया अभनाम मोदं निराश्रयाः कम् अथ आश्रयामः ||२|| अतिप्रियं बान्धव । दर्शनं ते, सुखाञ्जनं भावि कदाऽस्माकमक्ष्णाम् ।
नीरागचित्तोपि कदाथ श्रस्मान्, स्मरिष्यसि सर्वगुणाभिराम ! ||३|| " इत्येवं भूयोभूयो विलपतां तेषां सर्वेषामक्षितो मौक्तिकमालेव स्फाराऽश्रुधारा निस्यन्दितुमुपाक्रमत । तथा सव्वेसु कज्जेसु य वीर-वीरे, चामंतणादंसणओ तवज्ज ! | पेपट्टी भजीअ मोयं, णिरासणा कं अह आसयामो ॥ २ ॥ अइष्वियं बंधव ! दंसणं ते, सुहंजणं भावि कयऽम्ह अक्खिणं । नीरागचित्तोऽवि कथाह अम्हे, सरिस्ससी सव्वगुणाभिरामा ॥ ३ ॥ इति । आर्य! सभी कार्यों मे 'हे वीर, हे वीर' इस प्रकार तुम्हें संबोधित करके, तुम्हारे दर्शन करके तुम्हारे प्रेम की प्रकृष्टता से आनन्द भोगते थे। मगर आज हम निराधार हो गये। अब किसका आश्रय लेंगे || २ ||
हे बन्धु ! मेरे नेत्रों के लिए सुखद अंजन के समान तथा अत्यन्त मिय तुम्हारा दर्शन अब कब होगा ? सर्वगुणाभिराम ! तुम विरक्तचित्त होकर भी कब हमें स्मरण करोगे ? ॥३॥ सन्वेसु कज्जेमु य वीर-वीरे-श्रामंतणादंसणओ तवऽज्ज ! । पेमपट्टी भजी मोयं, णिरासया कं अह आसयामो ॥ २ ॥
इप्पियं बंधव ! दंसणं ते, सुहं जणं भावि कयऽम्ह अक्खिणं ।
नीराग चित्तोऽवि कयाह अम्हे सरिस्ससी सव्वगुणाभिरामा " ॥ ३ ॥ इति.
હું આ ! દરેક કામમાં “હે વીર! હું વીર ! ” કરીને તમને પાકારતા અને તમારાં દર્શન કરીને તમારા પ્રેમની પ્રકૃષ્ટતાથી અમે આનંદના અનુભવ કરતા હતા, પણ આજે અમેા નિરાધાર થતાં હવે કાના આશ્રય લઇએ ? (૨) *‘ હું બન્ધુ ! મારા નેત્રોના સુખકારી અંજન સમાન, તથા ઘણા પ્રિય એવા તારા દર્શન હવે મને કયારે થશે ? હે સર્વાંગુણાભિરામ! તમે તા હવે વિરક્ત ચિત્તવાળા થયા છે, છતાં કાઇક દહાડો તો અમાને યાદ તા अशाने ? उमारे ४२श ? (3)
STATE NAATE
कल्प
मञ्जरी टीका
प्रभुविरहे नन्दिवर्ध
नादीनां विलापवर्णनम् ।
॥सू०७९॥
॥१५७॥
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥१५॥
टीका
चाक्षिशुक्तिकातोऽश्रुबिन्दुमुक्ताफलानि परितो विकिरितुमारभत । एवं शोकमयं समयं निरीक्ष्य दिनमणिरपि मन्दघृणिर्जातः। एकोऽपरस्य दुःखं परस्परं दृष्ट्वा यत इति विभाव्येव सहस्रकिरणोऽस्तमितः। सुरेऽस्तमिते धरा चान्धकाराऽऽच्छादनमधरत , जनाश्च शोकातुरा विच्छायवदनाः स्वकं स्वकं गृहं प्रतिगताः ॥मू०८०॥
टीका-'तत्थ णदिवद्धणेण' इत्यादि-तत्र शोकाकुलेषु मध्ये नन्दिवर्धनेन उक्तं विलापवचनमुच्चारितम् हे वीर ! वयं त्वां विना शून्यवनमिव तथा-पितृकाननमिव-श्मशानमिव भयजननं भयङ्करं भवनं प्रासादं कथंकेन प्रकारेण गमिष्यामः ।
अत्र विषये श्लोकाश्च भवन्ति यथा-'तए विणा वीर' इत्यादि-हे वीर ! त्वया विना वयमधुना
नन्दिवर्धन तथा दूसरे लोग बार-बार इस प्रकार का विलाप कर रहे थे। उन सब के नेत्रों से मोतियों की माला के समान महती अश्रुधारा निकल रही थी अत एव-नेत्र रूपी सीपों से अश्रुबिन्दु रूपी मोती इधर-उधर विखरने लगे। इस प्रकार शोकमय समय देखकर सूर्य भी मन्दकिरणों वाला हो गया। एक दूसरे के दुःख को देख कर परस्पर खेद करते है, ऐसा सोच कर ही मानो सूर्य अस्त हो गया। सूर्य के अस्त हो जाने पर पृथ्वी ने अंधकार रूप काला वस्त्र धारण कर लिया । शोक से आतुर एवं मुरझाये चेहरे से अपने-अपने स्थान पर गये ॥ मू०८०॥
टीका का अर्थ-शोकाकुल लोगों में से नन्दिवर्धन ने इस प्रकार विलाप के वचनों का उच्चारण किया 'हे वीर ! तुम्हारे विना सुनसान वन के समान और श्मशान के समान भयंकर भवन-राजभवन में हम किस प्रकार जाएँगे? इस विषय में श्लोक भी हैं-'तए विणा' इत्यादि । हे वीर! तुम्हारे विना अब
નંદિવર્ધન અને અન્યજન, આ પ્રકારના વિવિધ વિલાપ કરી રહ્યાં હતાં. તેમનાં નેત્રમાંથી તુટેલી મેતીની માળાસમાન અશુપ્રવાહ વહી રહ્યો હતે. નેત્ર રૂપી છીપમાંથી, અશ્ર રૂપી મોતીડાંઓ નીકળી જ્યાં ત્યાં વેર-વિખેર થઈ રહ્યાં હતાં. રાજા, પ્રજા અને સમસ્ત પ્રાણીઓનાં હૈયામાં ભડભડતો શેકામિ જોઈને સૂર્ય પણ થંભી ગયે. શાકને ભાગીદાર થયો. દુઃખનો ભાર વધુ ન જીરવાતાં પશ્ચિમ દિશામાં પિઢી ગયા. સૂર્યાસ્ત થતાં પૃથ્વી ઉપર અંધારપટ છવાઈ ગયો. શોકાતુર મુખે લકે પણ પોતપોતાના સ્થાને જવા ભારે હૈયે ચાલી નીકળ્યાં. (૮૦)
ટીકાને અર્થ_શકોકુલ લોકોમાંથી નન્દિવને આ પ્રમાણે વિલાપનાં વચનનું ઉચ્ચારણ કર્યું, “હે વીર, તમારા વિના સૂન-સાન વનનાં જેવાં અને શ્મશાન સમાન ભયંકર રાજભવનમાં કેવી રીતે રહી શકાશે?” આ વિષે
प्रभुविरहे नन्दिवर्धनादीनां विलापवर्णनम् । ॥सू०८०॥
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श्रीकल्पसूत्रे
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sarat शून्यवनसदृशे भवने कथं केन प्रकारेण व्रजामः गच्छामः १ हे बन्धो ! अथ - इदानीम् वयं गोष्ठीसुखं गोष्ठी - मित्रमण्डली, तत्र सुखम् = तत्त्वविमर्शजनितमानन्दं केन सह आचरामः = अनुभवामः, तथा केन सह वयं भोक्ष्यामहे ॥ १ ॥
हे आर्य ! सर्वेषु कार्येषु हे वीर ! हे वीर ! इति तत्र आमन्त्रणात् तत्र दर्शनात्, तब प्रेमप्रकृष्ट्या स्नेहप्राचुर्येण च एतावद्दिनं मोदम् = आनन्दम् अभजाम = प्राप्तवन्तः अथ = तव विरहसमयेऽधुना निराश्रयाः सन्तो वयं कं जनम् आश्रयामः ? || २ ||
बान्धव ! अस्माकम् अक्ष्णाम् = नेत्राणाम् सुखाञ्जनं = सुखजनकाअनं अतिप्रियं ते तव दर्शनं पुनः कदा = कस्मिन् काले भावि भविष्यति ? | हे सर्वगुणाभिराम = हे सर्वगुणसुन्दर ! नीरागचित्तोपि = रागरहितमना अपि स्वं कदा=कस्मिन् काले अस्मान् स्मरिष्यसि ? || ३ ||
शून्य वन के सदृश भवन में हम किस प्रकार जाएँ ? हे बन्धु ! इस समय हम वह गोष्ठी का सुख-तत्व विचारणा से होने वाला आनन्द -किस के साथ अनुभव करेंगे और किस के साथ भोजन करेंगे ? ॥ १ ॥ हे आर्य ! सभी कामों में 'हे बीर, हे वीर,' इस प्रकार तुम्हें संबोधित करके और तुम्हारे दर्शन करके तथा तुम्हारे प्रेम की प्रचुरता से हम आनन्द-लाभ किया करते थे। अब तुम्हारे वियोग में निराधार हो गये हैं। हाय, किसका आधार लें ? ॥ २ ॥
हे बन्धु ! हमारे नेत्रों के लिए सुखजनक अंजन के समान, तथा अत्यन्त प्रिय तुम्हारा दर्शन फिर कब होगा ? हे समस्त गुणों से सुन्दर ! राग-रहित चित्त वाले होकर भी तुम हमें कब स्मरण करोगे ? ॥ ३ ॥
હું વીર ! તમારા વિના હવે શૂન્ય વનનાં જેવાં ભવનમાં અમે કેવી રીતે જએ ? હું બધુ ! આ સમયે અમે તે ગોષ્ઠીનુ' સુખ અને તત્ત્વવિચારણાથી થનાર આનના કાની સાથે અનુભવ કરશું' અને ક્રેાની સાથે ભેાજન કરશુ?ul હું આ ! બધાં કામેામાં “હે વીર, હે વીર” આ રીતે તમને સાધીને અને તમારાં દ”ન કરીને તથા તમારા પ્રેમની વિપુલતાથી અમે આનદ પ્રાપ્ત કરતાં હતાં. હવે તમારા વિચેગથી નિરાધાર થઇ ગયાં છીએ. હાય, હવે કાના આધાર લેવા ? તારા
હે ભાઈ! અમારી આંખાને માટે સુખજનક આંજણનાં જેવાં તથા અત્યંત પ્રિય તમારાં દન ફ્રી કયારે થશે ? કે સમસ્ત ગુણાથી સુંદર ભાઈ! રાગરહિત ચિત્તવાળા થઈને પણ તમે કયારે અમારૂ સ્મરણ કરશે? nik
कल्प
मञ्जरी
टीका
प्रभुविरहे नन्दिवर्ष
नादीनां
विलाप -
वर्णनम् ।
॥सू० ८०||
॥१५९॥
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कल्प
मञ्जरी
डीका
।
___ इत्येवम् अनेकप्रकारमीदृशं भूयोभूयः पुनः पुनः विलपतां खेद वचनमुच्चरतां तेषां नन्दिवर्धनादीनां
सर्वेषां जनानाम् अक्षितः नेत्रेभ्यो मौक्तिकमालेव-मुक्ताफलमालावत् स्फाराममहती अश्रुधारा नेत्रजलपरम्परा श्रीकल्प
निस्यन्दितुं-निपतितुम् उपाक्रमत आरभत । तथा च-अक्षिशुक्तिकातः नेत्ररूपशुक्तिभ्यः अश्रुबिन्दुमुक्ताफलानि%
नेत्रजलकणरूपमौक्तिकानि विकिरितुम्=प्रसर्तुम् आरभत, एवम् एतादृशं शोकसमय-शोकावसरं निरीक्ष्य% ॥१६०॥ दृष्ट्वा दिनमणिरपि-यूर्योऽपि मन्दघृणिः मन्दकिरणः-अस्तोन्मुखो जातः। एको जनः अपरस्य दुःखं
प्रभुविरहजनितखेदं परस्परम् अन्योन्यं दृष्ट्वा दूयते-खिद्यति इति एतत् विभाव्येव-विचार्येव सहस्रकिरणः=सूर्यः अस्तमितः अस्ताचलं गतवान् । सुरे-मूर्य अस्तमिते अस्ताचलं गतेसति धरा-पृथिवी अन्धकाराऽऽच्छादनम् अन्धकाररूपवस्वम् अधरत्-धारितवती-भूरन्धकाराटताऽभवदिति भावः । जना लोकाश्च शोकातुराः शोकाकुलाः अतएव-विच्छायवदना=निष्पभमुखाः स्वकं स्व-निजं निजं धाम स्थानं प्रतिगता निवृत्यगतवन्तः ॥सू०८०॥
इस तरह बार-बार दुःखमय वचन उच्चारण करने वाले नन्दिवर्धन आदि सभी जनों के नेत्रों से मोतियों की माला के समान महती आँसुओं की धारा निकलने लगी, अत एव आँखों रूपी सीपों से म अश्रु रूपी मोती इधर-उधर विखरने लगे। इस प्रकार का शोक अवसर जान कर मानो सूर्य भी मन्दकिरण- __ अस्तोन्मुख हो गया। एक दूसरे के दुःख को देख कर, परस्पर दुखी होता है, मानो यही सोच कर सूर्य
अस्ताचल की ओर चला गया। सूर्य के अस्त हो जाने पर पृथ्वी ने अंधकार रूपी काले वस्त्र को धारण कर लिया, अंधकार अर्थात् ढंक गई। सभी लोग शोक से आकुल थे, अतएव सब के चेहरे फीके पड़ गये थे। वे अपने-अपने स्थान पर चले गये ।। मू०८०॥
આ રીતે વારંવાર દુઃખમય વચનનું ઉચ્ચારણ કરનાર નન્દિવર્ધન આદિ સેવે લોકનાં નેત્રોમાંથી મોતીએની માળા સમાન મેટી આંસુઓની ધારા વહેવા લાગી, તેથી આખો રૂપી છીપમાંથી અશ્રુ રૂપી મતી આમ તેમ વેરાવા લાગ્યા.
આ પ્રકારને શોકનો અવસર જાણીને સૂર્ય પણ મંદ કિરણ-અસ્તા—ખ થઈ ગયે. એકબીજાનાં દુઃખ જોઈને પરસ્પર દુઃખી થાય છે. જાણે એવું વિચારીને જ સૂર્ય અસ્ત અસ્તાચળની તરફ ચાલ્યો ગયો. સૂર્ય અસ્ત પામતાં
પૃથ્વીએ અંધકાર રૂપી વસ્ત્ર ધારણ કરી દીધું એટલે કે પૃથ્વી અંધકારથી ઢંકાઈ ગઈ. સઘળા કે શેકથી વ્યાકુળ વરી હતાં, તેથી બધાના ચહેરા ફીક્કાં પડી ગયાં હતાં. તેઓ પિતાપિતાને સ્થાને ચાલ્યાં ગયાં. સૂ૦૮૦
प्रभुविरहे म नन्दिवर्ध
नादीनां विलाप
वर्णनम् । ।
सू०८०॥
॥१६॥
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श्रीकल्प
मूत्रे ॥१६॥
मञ्जरी
टीका
गणवारिया।
मुलम्-जया णं समणे भगवं महावीरे खत्तियकुंडग्गामाओ निग्गच्छित्ता कुम्मारगामस्स समी समणुपत्ते, तया णं मरो अथमित्रो, सूरे अत्थमिए साहूणं विहरणं अकप्पणिज्जति कटु भयवं गामासन्नतरुयले बारसपोरिमिए काउसग्गे ठिए । भगवं य जाव जीवं परीसह सहणसीले आसि, अओ इंददिण्णेण देवदूसेण वि वत्थेण भगवया हेमंते वि सरीरं नो पिहियं । इंददिष्ण देवदूसं वत्थं जं भगवया धरियं तं 'सव्वतित्थयराणं इमो कप्पो' त्ति कटु धरियं ।
अभिणिक्खमणसमए जं भगवओ सरीरं मुगंधिदव्वेण चंदणेण य चचियं आसि, तग्गंधलुद्धा मुद्धा सुगंधप्पिया भमरपिवीलियाइजंतुणो साहियं चाउम्मासं जाव पहुसरीरं ओलग्गिय ओलग्गिय मंसं रुहिरंच चोसीअ, परं भगवया णो ते णिवारिया।
तओ पच्छा बीए दिवसे कोऽवि गोवो बलिबद्दे पहुसमीवे ठविय पहुं कहीअ-'हे भिक्खू ! इमे मे बलिदा रक्वणिजा, न कहिपि गच्छिज' त्ति-कहिय सो गोवो भोयणपाणई णियगिहे गओ । भुत्तपीओ सो पहुपासे आगमिय बलिवद्दे अदणं तेसि गवेसणाए अहोरतं वर्ण वणं भमी। एवं गवेसणाए जया नो लद्धा बलिवदा तया सो पहुसमीवे आगच्छइ। तत्थ चरियतणे तित्ते ठिए बलिवहे पासइ । तए णं से गोवे आसुरत्ते मिसमिसेमाणे पहुमेवं कही
“रे भिक्खू ! किं मम बलिबद्दे संगोविय मए सह हासं करेसि ? मुंजाहि एयस्स फलं" ति कहिय जाव भय तज्जेउं तालेउं च समुज्जयइ ताव दिवि सक्कस्स आसणं चलइ। तए णं से सके देविंदे देवराया ओहिणा भगवओ उवसग्गं आभोगिय मणुस्सलोए हव्वमागमिय तं गोवं एवं वयासी-"हं भो! गोवा ! अपत्थियपत्थया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्ण ! चाउद्दसिया! सिरिहिरिधिइकित्तिपरिवज्जिया! अधम्मकामया! अपुण्णकामया! नरयनिगोयकामया! अधम्मकंखिया! अधम्मपिवासिया! अपुण्णकंखिया! अपुण्णपिवासिया! नरयनिगोयकंखिया! नरयनिगोयपिवासिया! किमट एरिसं पावकम्म करिसि ? जं तिलोयनाहं तिलोयवंदियं तिलोयमुहयरं तिलोयहियकर भगवं उवसग्गे सि'-त्ति कटुतं तजिउ तालिउंहणि उं उवाकमी। तं दहें करुणावरुणालए भगवं सकं देविंदं देवरायं पडिसेही। तए णं से सके देविदे देवराया पहुं एवं वयासी-"पहू ! देवाणुप्पियाणं आगेवि बहवे दुस्सहा परीसहोवसग्गा आवडिस्संति, अओऽहं ते निवारिउं तुम्हाणं अंतिए चिट्ठामि । सकिंदस्स तं वयणं सोचा भगवया कहियं-" सका! जे य अईया, जे य अणागया, जे य पडुप्पण्णा तित्थयरा ते सव्वेवि सएण उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसकार-परक्कमेणं कम्माई खवेंति असहेजा चेव विहरंति, नो णं देवा
भगवतो गोपकृतो.
पसर्ग वर्णनम् । सू०८॥
॥१६॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥१६२॥
सुर-णाग-जवख-रक क्स-किनर-किंपुरिस-गरुल-गंधव-महोरगाईणं साहिज्जं इच्छंति"-त्ति नो णं सक्का! मम कस्सवि साहेजपोयणं । एवं सोचा सक्क देविंदे देवराया नियमवराहं खमाविय वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिनि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए ।मू०८१।।
छाया--यदा खलु श्रमणो भगवान् महावीरः क्षत्रियकुण्डग्रामात निर्गत्य 'कुर्मार'-ग्रामस्य समीपं समनुप्राप्तः तदा खलु मुरोऽस्तमितः। मुरेऽस्तमिते साधूनां विहरणमकल्पनीयमिति कृत्वा भगवान् ग्रामाऽऽसन्नतरुतले द्वादशौरुपिके कायोत्सर्गे स्थितः। भगवांश्च यावज्जीवं परीषहसहनशील आसीत् अत इन्द्रदत्तेण देवदृष्येणापि भगवता हेमन्तेऽपि शरीरं नो पिहितम् । इन्द्रदत्तं देवदृष्यं वस्त्रं यद् भगवता धृतं, तत्-'सर्वतीर्थकराणामयं कल्पः' इति कृत्वा धृतम् ।
कल्पमञ्जरी
टीका
भगवतो
।
देवदृष्ये
मूल का अर्थ-'जया णं' इत्यादि। जब श्रमण भगवान् महावीर क्षत्रियकुण्डग्राम से विहार कर 'कुर्मार' ग्राम के समीप पहुँचे, तब मूर्य अस्त हो गया। सूर्य के अस्त हो जाने पर साधुओं को विहार करना कल्पता नहीं, यह सोच कर भगवान् ग्राम के समीप में एक वृक्ष के नीचे बारह पौरुषी का कायोत्सर्ग करके स्थित हो गए।
___ भगवान् यावजीवन परीवह-सहनशील थे। अत एव-उन्होंने इन्द्र के द्वारा दिये हुए देवदृष्य वस्त्र से भी, हेमन्त ऋतु में भी शरीर नहीं हुँका। इन्द्र का दिया देवदष्य वस्त्र जो भगवान् ने धारण किया सो 'समस्त तीर्थंकरों का यह कल्प है' ऐसा समझ कर धारण किया।
णापि शरीरानाच्छदनम्। म०८१॥
भूसन। -'जयाण' त्याlt. ॥ श्रम नावान महावीर क्षत्रिय आमनाथी विहार ४॥ “કુર” ગ્રામની પાસે પહોંચ્યા તે સમયે સૂર્યાસ્ત થયો. સૂર્યાસ્ત થતાં સાધુઓને વિહાર કરે ક૫તે નથી એમ વિચારી ભગવાન ગામની નજીકમાં એક વૃક્ષ નીચે બાર પહોરને કાત્સગ કરી સ્થિર ઉભા રહ્યા. ભગવાને જાવજીવ સુધી પરીષહોને સહન કરવાનું વ્રત લીધું હતું તે અનુસાર ઈન્દ્ર વહેરાવેલા દેવદૂષ્ય વસ્ત્રથી પણ તેમણે દેશ હેમન્ત ત્રતુને સમય હોવા છતાં પિતાનું શરીર ઢાંકયું નહિ.
ઈન્દ્ર વહેરાવેલ દેવદૂષ્ય વસ્ત્રને આ વ્યવહાર સર્વ તીર્થકર આચરે છે એમ સમજીને પ્રભુએ તેને સ્વીકાર કર્યો હતે. દીક્ષા સમયે ભગવાનના શરીર ઉપર સુગંધી દ્રવ્ય તથા ચંદનને લેપ કરવામાં આવ્યો હતે.
॥१६२॥
દો
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥१६३॥
हरीका
- अभिनिष्क्रमणसमये यद् भगवतः शरोरं सुगन्धिद्रव्येण चन्दनेन च चर्चितमासीत् तद्गन्धलुब्धा मुग्धाः सुगन्धप्रिया भ्रमरपिपीलिकादिजन्तवः-साधिकं चतुर्मासं यावत् प्रभुशरीरेऽवलग्यावलग्य मांसं रुधिरं च अचूषन् , परं भगवता नो ते निवारताः।
ततः पश्चात् द्वितीये दिवसे कोऽपि गोपो बलीवान् प्रभुसमीपे स्थापयित्वा प्रभुमकथयत-" हे भिक्षो! इमे मे बलीवर्दा रक्षणीयाः, न कचिदपि गच्छेयुरि" ति कथयित्वा स गोपो भोजनपानार्थ निजगृहे गतः। भुक्तपीतः स प्रभुपाचे आमत्य चलीवनदृष्ट्वा तेषां गवेषणायाम् अहोरात्रं वनं वनम् अभ्रमत् , एवं गवेषणया यदा न लब्धा बलीवर्दाः, तदा स प्रभुसमीपे आगच्छति, तत्र चरिततृणांस्तृप्तान स्थितान् बलीवर्दान् पश्यति, ततः खलु स गोप आशुरक्तः मिसमिसायमानः प्रभुमेवमकथयत्
दीक्षा के समय भगवान् का शरीर सुगंधी द्रव्यों से तथा चन्दन से चर्चित था, अतः उस सुगंध के लोभी मुग्ध एवं सुगंधप्रिय भ्रमर आदि जन्तुओं ने चार मास से भी कुछ अधिक समय तक प्रभु के शरीर में चिपट-चिपट कर उनका मांस और रुधिर चूसा, परन्तु भगवान् ने उनका निवारण नहीं किया।
तत्पश्चात् दूसरे दिन एक गुवाल अपने बैलों को प्रभु के समीप खड़ा करके प्रभु से बोला-'हे भिक्षी ! मेरे इन बैलों की रखवाली करना; ये कहीं चले न जाएँ।' इस प्रकार कह कर वह गुवाल भोजन पानी के निमित्त अपने घर चला गया। खा-पीकर वह प्रभु के पास आया। बैल दिखाई न दिये। तब वह दिन भर और रात भर सारे वन में बैलों के अन्वेषण में भटकता रहा। इस प्रकार अन्वेषण करने से जब बैल न मिले तो वह भगवान् के पास आया। उसने देखा-बैल वहीं घास खाकर तृप्त हुए बैठे हैं। तब वह गुवाल बहुत क्रुद्ध हुआ और मिसमिसाता हुआ प्रभु से इस प्रकार बोलाઆથી તે સુગધના લેભી એવા ભ્રમર-કીડિઓ આદિ જંતુઓએ ચાર માસથી પણ વધારે વખત સુધી પ્રભુના શરીરે વળગી રહી તેમનું માંસ અને રૂધિર ચૂસ્યું, તે છતાં ભગવાને તેમને અટકાવ્યા નહિ.
એક દિવસ એક ગોવાળ પિતાના બળદને લઈને આવ્યો અને પ્રભુની પાસે ઉભા રાખી બે કે “હે. ભિક્ષુ ! તું આ મારા બળદનું રક્ષણ કરજે અને તે કયાંય ચાલ્યા જાય નહિ તે જેતે રહેજે.' આ પ્રમાણે કહી ખાવા માટે ગોવાળ પિતાના ઘેર ચાલ્યા ગયા. ખાઈપીને તે પ્રભુની પાસે આવ્યા ત્યારે બળદ તેના લેવામાં આવ્યા
નહિ તેથી તેણે આ દિવસ ને રાત આખા વનમાં તેની શોધમાં વિતાવી. છતાં પણ બળ નહિ મળવાથી તે ભગવાન ( પાસે આવી પહોંચે. અહીં આવીને જોયું તે તેણે બળદને બેઠેલાં જોયાં અને તેઓ ઘાસ-ચારો વાગોળી ૨હ્યા હતા
भगवतो गोपकतो. पसर्ग
वर्णनम् ।
०८१॥
॥१६३॥
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श्री कल्प
सूत्रे ॥१६४॥
漫漫長
"रे भिक्षो ! किं मम बलीवर्दान् संगोप्य मया सह हास्यं करोषि ? भुङ्क्ष्व एतस्य फलम् " इति कथयित्वा यावद् भगवन्तं तर्जयितुं ताडयितुं च समुद्यतते तावद् दिवि शक्रस्याऽऽसनं चलति । ततः स शो देवेन्द्रो देवराजोऽवधिना भगवत उपसर्गमाभुज्य मनुष्यलोके हव्यमागत्य तं गोपमेवमवादीत् – “हे भोः ! गोप ! अपार्थित पार्थक ! दुरन्तप्रान्तलक्षण ! हीनपुण्यचातुर्दशिक ! श्री ही धृतिकोर्तिपरिवर्जित ! अधर्मकामक ! अपुण्यकामक ! नरकनिगोदकामक ! अधर्मकाङ्क्षित ! अधर्मपिपासित ! अपुण्यकाङ्क्षित ! अपुण्यपिपासित ! नरकनिगोदकाङ्क्षित ! नरकनिगोदपिपासित ! किमर्थमीदृशं पापकर्म करोषि ? यत् त्रिलोकनाथं त्रिलोकवन्दितं त्रिलोकसुखकरं त्रिलोकहितकरं भगवन्तमुपसर्जयसि" इति कृत्वा तं तर्जयितुं ताडयितुं हन्तुमुपाक्रमत । तद् दृष्ट्वा करुणा
'अरे भिक्षु ! मेरे बैलों को छिपा कर क्या मेरे साथ उपहास करता है? अच्छा ले, इस का फल चख ले।' इस प्रकार कह कर वह ज्यों ही भगवान की तर्जना और ताड़ना करने को तैयार होता है, उसी समय स्वर्ग में शक्र का आसन चलायमान हुआ । तव शक्र देवन्द्र देवराज अवधिज्ञान से भगवान् पर उपसर्ग आया जान कर तत्काल मनुष्यलोक में आये, और गुवाल से बोले - 'अरे गोप, अमार्थित के प्रार्थी, कुलक्षणी, हौन-पुण्य, कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने वाले, श्री ही धृति और कीर्ति से कोरे, अधर्म की कामना करने वाले, अपुण्य की कामना करने वाले, नरक - निगोद की कामना करने वाले, अधर्म के इच्छुक, अधर्म के प्यासे, अपुण्य के कामी, अपुण्य के प्यासे, नरक - निगोद की इच्छा करने वाले, नरक - निगोद के प्यासे, किस लिये यह पाप कर्म कर रहा है ? तीन लोकके नाथ, तीन लोकके वन्दित, तीन लोक सुखकारी और तीन लोकके हितकारी भगवान् को उपसर्ग करता है ?" इस प्रकार कह कर આથી ગાવાળ ઘણા ગુસ્સે થયા અને ક્રોધથી ધમધમતા પ્રભુને કહેવા લાગ્યુંા— અરે ભિક્ષુ! શું તું મારા બળદેને છૂપાવી રાખી મારી મશ્કરી કરવા માગતા હતેા? તે હવે તું આવી ક્રૂર મશ્કરીનુ ફળ ચાખ ! ' આમ ખેલી ભગવાનને મારવા તૈયાર થયા. આ સમયે સ્વર્ગોમાં શક્રેન્દ્રનુ આસન ચલાયમાન થયું. આસન ચલિત થતાંની સાથે તેણે અવિધજ્ઞાનના ઉપયોગ મૂકયા. આ જ્ઞાન દ્વારા તેના જાણવામાં આવ્યું કે ભગવાન ઉપર ઉપસ આવ્યા છે તેથી તત્કાલ તે મનુષ્યલેાકમાં ઉતરી આવ્યા અને ગેાવાળને કહેવા લાગ્યા હૈ અપ્રાર્થિત પ્રાર્થી એટલે મૃત્યુના ચાહનાર, કુલક્ષણી, હીપુણ્ય, કૃષ્ણ ચૌદશના જાયા, લક્ષ્મી, લજ્જા, ધૈય અને કીતિથી વત, અધમ ઇચ્છુક અધમના પ્યાસા, પાપના કામી, પાપના પ્યાસા, નરક–નિંગાદના ઇચ્છુક શા માટે આ પાપ કરી રહ્યો છે ? તું આ ત્રિàાકીનાથ, ત્રિયેક વર્ષીદત, ત્રણે લેાકના હિતકારી અને સુખકારી એવા ભગવાનને દુઃખ
कल्पमञ्जरी टीका
गोपकृतोपसर्गनिवा
रणार्थमिन्द्रा
गमनम् ।
॥ मू०८१ ॥
॥१६४॥
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सूत्रे
वरुणालयो भगवान् शकं देवेन्द्र देवराज प्रत्यषेधत् । ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः प्रभुमेवमवादात्-"प्रभो!
देवानुप्रियाणामग्ग्रेऽपि बहवो दुःसहाः परीषहोपसर्गा आपतिष्यन्ति, अतोऽहं तान् निवारयितुं युष्माकमन्तिके श्रीकल्प
तिष्ठामि । शक्रेन्द्रस्य तद् वचनं श्रुत्वा भगवता कथितं-शक्र ! ये चाऽतीताः, ये चाऽनागताः, ये च प्रत्यु
त्पन्नास्तीर्थकराः, ते सर्वेऽपि स्वकेन उत्थानकर्मबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण कर्माणि क्षययन्ति असहाया एव ॥१६५॥ विहरन्ति, नो खलु देवाऽसुरनागयक्षराक्षसकिन्नरकिंपुरुषगरुडगन्धर्वमहोरगादीनां साहाय्यमिच्छन्ति' इति नो
खलु शक्र ! मम कस्यापि साहाय्यप्रयोजनम् । एवं श्रुत्वा शक्रो देवेन्द्रो देवराजो निजमपराध क्षमयित्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्या एवं दिशः प्रादुर्भतः तामेव दिशं प्रतिगतः ॥मू०८१॥ शक्र उसे ताड़ने, तर्जने और हनने के लिये उद्यत हुए । यह देखकर करुणासागर प्रभुने शक्र देवेन्द्र देवराजको मना कर दिया। तब शक्र देवेन्द्र देवराजने प्रभु से इस प्रकार कहा-'प्रभो! देवानुपिय को आगे भी बहुतसे दुस्सह परीपह और उपसर्ग आएँगे, अतः उनका निवारण करने के लिये मैं आपके पास रहता हूँ।'
शक्रेन्द्र का कथन सुनकर भगवान् बोले-'हे शक्र ! जो तीर्थकर अतीत में हुए हैं, भविष्यत् में होंगे और वर्तमान में हैं, वे सभी अपने ही उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से कर्मों का क्षय करते हैं, असहाय ही विचरते हैं। देवों, असुरो, नागों, यक्षों, राक्षसों, किन्नरों, कि पुरुषो, गरुडो, गन्धों , और महोरगों आदि देवोंकी सहायता की इच्छा नहीं करते । हे शक्र ! मुझे किसोकी सहायताका प्रयोजन नहीं है।'
इस प्रकार सुनकर शक्र देवेन्द्र देवराजने अपना अपराध खमाकर वन्दना और नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर के जिस दिशा से वह प्रकट हुए थे, उसी दिशा में चले गये ॥ ८१॥ આપી રહ્યો છે?' આમ કહી શક્રેન્દ્ર તેને માર મારવા તૈયાર થયા. આ દશ્ય જોઈ પ્રભુએ શક્રેન્દ્રને તેમ કરતા અટકાવ્યા. તે વખતે શક્રેન્દ્ર પ્રભુને પ્રાર્થના કરી કે “હે ભગવન્ત! આપની ઉપર આગળ ઘણા પરીષહે અને દુખે આવી પડશે, માટે તેના નિવારણ અર્થે હું આપની સાથે રહું?'
શકેન્દ્રનું કથન સાંભળી ભગવાન બોલ્યા, “હે શક! જે જે તીર્થકરો ભૂતકાળમાં થયા છે, વર્તમાનમાં થાય છે અને આગામી કાળે થશે તે બધા પિતાના ઉત્થાન કમ–બલ-વીર્ય-પુરૂષકાર અને પરાક્રમ વડે કમરને ક્ષય
કરે છે અને અસહાય પણે વિચારે છે. તેઓ કદાપિ પણ દેવ-અસુર–નાગ-યક્ષ-રાક્ષસ-કિન્નર-જિંપુરૂષ-ગરૂડ ગંધર્વ છે અને મહારગ આદિની સહાયતા વિના જ વિચારે છે અને તેઓની મદદની લેશ પણ ઈચ્છા રાખતા નથી તેથી તે it. શક! મારે કોઈની પણ સહાયતાની જરૂર નથી. આ પ્રમાણે સાંભળીને દેવરાજે પિતાની વિનંતિ મેકુફ રાખી અને
सहायामिन्द्रमा
र्थनायां भगवत्कृती निषेधः।
॥१६५॥
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सूत्र
टीका-'जयाणं' इत्यादि। यदा-यस्मिन् समये खलु श्रमणो भगवान् महवीरः क्षत्रियकुण्डग्रामात्
निर्गत्य=निःसृत्य कुर्मारग्रामस्य समीपं समनुप्राप्तो-गतवान् तदा तस्मिन् काले सूरः मूर्यः अस्तमितः अस्तं श्रीकल्पगतः। मुरे अस्तमिते=सूर्यास्तमनानन्तरं साधूनां विहरण-विहारः अकल्पनीयम् इति नियमोऽस्तीति कृत्वा इति
कल्प बुवा भगवान् श्रीवीरप्रभु ग्रामाऽसन्नतरुतले-कुर्माराख्यग्रामनिकटवर्तिक्षमूले द्वादशपौरुषोके-द्वादशपौरुष्यः महरा
मञ्जरी __ यस्य स तथा तस्मिन्-द्वादशमहरावधि के कायोत्सर्ग स्थितः।
टीका . भगवांश्च यावज्जीव-जीवनपर्यन्तम् , परीषहसहनशीलः शीतोष्णादिसहनकारी आसीत् । इन्द्रदत्तेन देवदूप्येग देववस्खेगाऽपि भगवता हेमन्तेऽपिम्हेमन्तऋतावपि शरीरं नो पिहितम्-नो आच्छादितम् । अन्येषु ऋतुषु तु
टीका का अर्थ-जिस समय श्रमण भगवान् महावीर क्षत्रिय कुण्डग्राम से विहार कर कुर्मार ग्राम के समीप गये, उस समय सूर्य अस्त हो गया। सूर्य अस्त होजाने पर साधुओं को विहार करना नहीं कल्पता है, ऐसा नियम है, ऐसा जानकर भगवान् महावीर स्वामी, कुर्मार ग्राम के समीप के वृक्ष के नीचे बारह प्रहर
देवष्येतक कया जाने वाला कायोत्सर्ग करके स्थित हो गये।
Sणापि भगभगवान् जीवनपर्यन्त शीत, उष्ण, आदि परीपहों को सहन करने वाले थे। उन्होंने इन्द्र के द्वारा
उन्हान इन्द्र के द्वारा भवतःशरीरमार दिये हुए देवदृष्य वख से भी, हेमन्त ऋतु में भी, शरीर को आच्छादित नहीं किया। इस से यह स्वतः माच्छाભગવાનને વંદના-નમસ્કાર કર્યા. વંદના-નમસ્કાર કરીને જે દિશામાંથી આવ્યા હતા તે દિશામાં ચાલ્યા ગયા. (સૂ૦૮૧)
।मु०८॥ ' વિશેષાર્થ-દ્રવ્ય અને ભાવે સાધુપણું અપનાવ્યા બાદ કેવળ શુષ્કતા આદરી બેસી રહેવું ભગવાનને પાલવે તેમ ન હતું. કારણ કે પૂર્વે અસંખ્યાત ભવમાં ભ્રમણ કર્યું હતું. તે જમણ દરયમન બાંધેલ શુભાશુભ કર્મો દ્વારા આત્મપ્રદેશ પર જે મેહ રૂપી જાળા બંધાઈ ગયા હતા તેનું છેદન-ભેદન કરવા માટે નિરવ શાંતિની જરૂર હતી. આ નિરવ શાંતિ કેઈ ઉજજડ અને વેરાન પ્રદેશમાં જઈ કેવળ આત્મ ઉત્થાન અર્થે ભોગવવામાં આવે તે જ લેખે લાગી કહેવાય. એ ઇરાદાથી કુમાર નામના ગામની સમીપે જઈ બાર પહેરને કાઉસગ્ગ કરી શુદ્ધ ચિંતવનમાં ભગવાન ઉભા રહ્યા. કાઉસગ આદરતાં મન એ ચિંતનમાં ઓતપ્રેત થવા લાગ્યું. કાયા હલન-ચલન વિનાની સ્થિર થઈ. વચન તે સ્થિર કરવાનું હતું જ નહિ કારણ કે તે તો પહેલેથી જ મૌનપણામાં પરાવૃત પામી ગયું હતું. આ
॥१६६॥ મન વચન-કાયાના રૂંધનને જૈન પારિભાષિક શબ્દમાં ‘કાયેત્સર્ગ” કહે છે.
ભગવાન દ્રવ્ય અને ભાવે નગ્ન હતા, પરંતુ વ્યાવહારિક રીતે જ્યારે તીર્થક દ્રવ્ય સાધુપણુ અંગિકાર ડો કરે છે ત્યારે તેમને દેવદૂષ્ય નામનું વસ્ત્ર શરીર ઢાંકવા માટે વહોરાવવામાં આવે છે. પણ આ વસ્ત્રનું અપ કરવું છે
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श्रीकल्पसूत्रे ॥१६७॥ !
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सुतरामेव शरीरं नो पिहितमिव बोध्यम् । इन्द्रदत्तं देवदुष्यं यद् भगवता धृतम्, तत् सर्वतीर्थकराणाम् = सर्वेपाम् जिनानाम् अयं - शक्रार्पितवस्त्रग्रहणरूपः कल्पः = आचारोऽस्ति - इतिकृत्वा = इति ज्ञात्वा धृतम् =धारितम् । : अभिनिष्क्रमणसमये = दीक्षाप्रसङ्गे यद् भगवतः शरीरं सुगन्धिद्रव्येण = कस्तूरीकुङ्कुमादिना चन्दनेन = श्रीखण्डचन्दनेन च चर्चितं=लिप्तम् आसीत् तत्सुगन्धलुब्धाः = तेषां=मुगन्धिद्रव्यचन्दनानां सुगन्धे लुब्धाः = आसक्ताः अतएव मुग्धाः=मोहं गताः सुगन्धप्रियाः = सुगन्धानुरागिणः भ्रमरपिपीलिकादि जन्तवः = भ्रमरकीटिकाप्रभृतिप्राणिनः । साधिकम् - सातिरेकम् चतुर्मासं चतुरो मासान् यावत् प्रभु शरीरे अवलग्यावलग्य = पुनः पुनः संवध्य मांसं रुधिरं = समझा जा सकता है कि अन्य ऋतुओं में भी भगवान ने अपने शरीर को वस्त्र से आच्छादित नहीं किया । इन्द्र द्वारा दिया गया देवदूष्य वस्त्र जो भगवान् ने ग्रहण किया सो सभी तीर्थकारो का, इन्द्र के द्वारा अर्पित किये गये वस्त्र को ग्रहण करना आचार है, ऐसा जानकर ग्रहण किया ।
दीक्षा के अवसर पर भगवान के शरीर का सुगंधित द्रव्यों से कस्तूरी-कुंकुम आदि से, तथा श्रीखण्डचन्दन से लेपन किया गया था, उनकी सुगंध में आसक्त, अत एव मोह को प्राप्त एवं सुगंध के अनुरागी आदि जन्तु, चार मास से भी कुछ अधिक समय तक प्रभु के शरीर में बार बार चिपट कर उनके मांस
भ्रमर
અને લેવું તે એક જીનવ્યવહાર એટલેકે કલ્પવ્યવહાર-આચાર થઇ ગયા છે. ભગવાન કોઈ પણ ઋતુમાં વસ્ત્રને ગ્રહણ કરતા ન હતા તેમ જ ઇચ્છતા પણ ન હતા. તેમણે શરીરને પુદ્ગલના પિંડ પહેલેથી જ માન્યા હતા અને આત્મદ્રવ્ય એ શુદ્ધ-નિરંજન-નિરાકાર પર દ્રવ્યથી તદ્દન નિરાળું અને સર્વથા ભિન્ન છે એમ અનુભવતા આવ્યા છે એટલે જ્ઞાન-દર્શનની શુદ્ધતા અને નિર્માંળતાને મૂળથી જ શ્રદ્ધાપણે અપનાવી છે એટલે પુદૂગલ ઉપરની રુચિ અને ભાવ સ્વનિ યની અપેક્ષાએ છૂટી ગયા છે. માત્ર તેના પરના બાહ્ય સંચાગ જ છેડવાના રહે છે તેથી હેમંત અને અન્યઋતુમાં વસ્ત્ર આદિનુ માનસિક ગ્રહણ પણ તેમને રહેતું નથી. કેવળ આત્મા તરફની રૂચિને સ્થિર કરવા ચારિત્ર ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. ભગવાનના શરીર પર દીક્ષા પ્રસ ંગે ચંદન આદિના શ્રેષ્ઠ લેપ કરવામાં આવ્યા હતા. જેની સુગધ મહેક મહેક થતી હતી. માનવ પણ આ સુગધથી તેમની તરફ ખેંચાતા હતા તેા જીવજંતુની વાત જ શી ? કારણુ કે જીવજંતુઓને માનવ કરતાં ઘ્રાણેન્દ્રિય શક્તિ તીવ્ર હેાય છે, તેથી સાધારણુ પશુ તંધ આવતાં તે તે તરફ આકર્ષાય છે. જ્યારે ભગવાનના શરીર ઉપરની સુગ ધ મનેાગમ્ય હોવાને કારણે ભમરાઓ અને કીડિએ વગેરે જ તુ ખેંચાયાં. સુગ ંધિનું પાન કરતાં કરતાં તેઓને રસ પડયા ને તેઓ તેમના શરીરમાં કાણા પાડી, ઘરની માફક તેમાં
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवत
उपसर्ग वर्णनम् ।
|| सू०८१||
॥१६७॥
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श्रीकल्प
હાमञ्जरी
॥१६८॥
शोणितं च अचूषन् , परं-किन्तु-भगवता ते मांसरुधिरं पिबन्तो भ्रमरादयो जन्तवो न निवारिता:-न दूरीकृताः।
ततः पश्चात्-दीक्षाग्रहणदिवसानन्तरं द्वीतीये दिवसे कोऽपि गोपो-गोपालो बलीवनवृषभान् प्रभुसमीपे स्थापयित्वा प्रभुम् अकथयत्-हे भिक्षो ! इमे एते मे=मम बलीपर्दाः-त्वया रक्षणीयाः-येन कचिदपि न गच्छेयुः इति कथयित्वा स गोपः भोजनपानार्थम् निजगृहे गतः, तत्र भुक्तपीत:-कृतभोजनपान: सन् स ततः स्वगृहात् प्रभुपाश्च आगम्य बलीवर्दान् अदृष्ट्वा तेषां बलीव नाम गवेषणायाम् अन्वेषणायाम् अहोरात्रं और रुधिर को चूमते थे, मगर भगवान् ने मांस और रुधिर को चूसने वाले उन जन्तुओं को हटाया तक नहीं।
तत्पश्चात् दूसरे दिन कोई गुवाल बैलों को प्रभुके पास खड़ा कर के प्रमु से बोला-'हे भिक्षु ! मेरे इन बैलों की देखरेख रखना, जिस से यह कहीं चले न जा। इस प्रकार कह कर वह गुवाल भोजनपानी के लिए अपने घर चला गया। खाने-पीने के पश्चात् वह अपने घर से भागवान् के निकट आया तो
टीका
भगवतो गोपकृतो
पसर्ग
वर्णनम् । IIકૂ૦૮થા
રહી ચાર મહિનાથી પણ વધારે ભગવાનના રૂધિરનું અને માંસનું ભક્ષણ કરતાં અચકાયા નહિ. કારણ કે તેઓને આ ઉત્તમ પુરૂષનું લેહી-માંસ સાકર જેવાં મીઠાં લાગ્યાં તેથી તેઓએ તૃપ્ત થતાં સુધી ભગવાનનું રૂધિર પીધા કર્યું.
આત્મા સ્વ-પર પ્રકાશ કહેવાય છે. આત્માનું ઓજસ અને પ્રભાવ શરીરના સૂફમ રોમ-રાય દ્વારા પ્રગટ થાય છે. જેમ ગુણો દ્વારા આત્મા શુદ્ધ થતો જાય છે તેમ શરીરના ૨જકણો પણ મલીનતામાંથી શુદ્ધપણામાં કરાવૃત્ત થાય છે. આથી શરીરની અંદર રહેલા હાડ-માંસ-ચરબી-લેહી શ્વાસોશ્વાસ પણ સુગંધીવાળા અને મિઠાશવાળા થવા માંડે છે. લેહી અને માંસનું આવું ચૂસણુ થતાં ભગવાનને અનંત વેદના થવા લાગી, તે પણ ભગવાને તેમને તેમ કરતાં રોકયાં નહિ. સ્વશરીરને તેઓશ્રીએ પિતાનું માન્યું જ ન હતું તેથી તે શરીર પર પિતાને હક્કપણુ માન્ય ન હતા, કારણ કે આત્મભાન થતાં તેઓને દેહ અને આત્મા જુદા જ ભાસ્યા હતા.
બીજે પરીષહ માનવકૃત અહીં વર્ણવવામાં આવે છે- આ ગ્રામ્ય પ્રદેશમાં વસતા ગ્રામ્યજને કેવા બુધ્ધ અને મૂખ હોય છે તેનું દૃષ્ટાંત “ગોવાલ' ના દૃષ્ટાંત પ.થી મળી આવે છે. તેઓ શુદ્ધ આત્મિક અને નિર્લેપદશાવાળા સાધુ પુરૂને તેઓના બાહ્ય આચાર–વિચારથી પણ ઓળખી શકતાં નથી એટલે સુધી તેઓ મૂખ હોય છે. જેયાજાણ્યા વિના તે ગોવાઈ, ભગવાનને દુઃખ આપવા તૈયાર થયે તે એક જડપણું છે; એમ આ ઉપરથી સ્પષ્ટ તરી આવે છે. આવા જડબુદ્ધિવાળા ગ્રામ્ય પ્રદેશમાં કેવળ દુઃખ સ્વયં ઉપાર્જન કરવા માટે જ ભગવાને વિહાર શરૂ કર્યો. ,
॥१६८॥
તે હૈ
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कल्पमञ्जरी
टीका
यावत् वनं वनम् तनिकटवर्ति प्रत्येकं वनम् अभ्रमत । एवम् अनेन प्रकारेण गवेषणया यदा बलीव वृषभाः
न लब्धाः-तदा-स गोपः प्रभुसमीपे आगच्छति, आगतमात्र:-स तत्र श्रीवीरसमीपे चरिततृणान् भक्षितघासान् श्रीकल्प
अतएव तृप्तान स्थितान बलीवन् पश्यति । मूत्रे
ततःबलीवईदर्शनानन्तरं खलु स गोपः आशु रक्त:-शीघ्रक्रोधारुणो मिसमिसायमानः क्रोधेन प्रज्वलन्= ॥१६९|| उच्चै नीचेः पादौ संचालयन् प्रभु श्रीवीरस्वामिनम् एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अकथयत्-'रे भिक्षो! मम
बलीवन संगोप्य मया सह हास्यं करोषि ? भुक्ष्व अनुभव एतस्य-हास्यस्य फलम्' इति कथयित्वा यावत् भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनं तर्जयितुं-तर्जन्यङ्गलीमदर्शनपूर्वकं भर्त्सयितुं, ताडयितुम्=चपेटादिनाभिहन्तुं समुद्यतते= उद्युक्तो भवति तावद दिवि देवलोके शक्रस्याऽऽसनं चलति कम्पते। ततः आसनचलनानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो उसे वहां बैल न दीखे। तब वह बैलों की खोज में दिनभर और रातभर उस वन के निकटवर्ती प्रत्येक वन में भटका। इस प्रकार खोज करने पर भी बैल न मिले तो वह गुवाल लौट कर भगवान के पास आया। आ कर उसने देखा कि बैल घास खा कर तृप्त हुए वहाँ बैठे हैं।
बैलो को देखने के अनन्तर गुवाल एकदम क्रोध से लाल हो गया। क्रोध से जलता हुआ-ऊपर- नीचे पैर पटकता हुआ वह श्रीवीर प्रभु से बोला-'रे भिक्षु ! मेरे बैलों को छिपाकर मेरे साथ हांसी करता है? ले, इस हांपी का फल भोग।' इस प्रकार कह कर ज्यों ही वह भगवान की तर्जना (तर्जनीअंगुली उठा कर भर्त्सना) करने और ताडना करने (थप्पड़ आदि से मारने) को उद्यत होता है, त्यों ही स्वर्गलोक में शक्र का आसन कॉपने लगा। आसन काँपने पर शक्र देवेन्द्र देवराजने अवधिज्ञान से भगवान्
ભક્તિભાવથી જેનું હૃદય હમેશાં ઉછળી રહ્યું છે અને મૃત્યુલોકમાં જે કાંઇ સૂકમ કે સ્થૂલ બનાવ બને તેનું જેને તત્કાલ જાણ થાય છે એવા શબ્દે ભગવાનની પાસે આવી આ મૂખ શિરોમણી ભરવાડને ખૂબ ઠપકો આપે અને ભગવાન પાસે હમેશા તેમના રખેવાળ તરીકે રહેવા પ્રભુને વિનંતિ કરી, જેથી તિર્યંચ અને માનવકૃત ઉપ- ૨ સર્ગોનું પતે નિવાણું કરી શકે. ભગવાન તે સ્વયં બુદ્ધ હતા તેઓ જાણતા હતા કે જેણે જે જે કર્મ બાંધ્યા હોય તે તે તેને જાતે જ ભોગવવા પડે છે. પિતાના જ બળ અને વીર્ય વડે અનંતકાળનું આત્મપ્રદેશે લાગેલું અજ્ઞાન રૂપી આવરણ જાતે જ ખસેડવું પડે તેમાં કેઈની સહાયતા કામ આવતી નથી.
બ, હ્ય ઉપસર્ગો તે નિમિત્ત રૂપ છે. બાહ્ય ઉપસર્ગો અંદરના કર્મોના ઉદય આવ્યે બહાર દેખાય છે અને કાર્ડ આવી મળે છે. આંતરિક કર્મોદય ઘણા જ સૂક્ષમ-પુદ્ગલ પરમાણુઓ રૂપ છે; તે અન્યજનથી કેમ અટકાવી શકાય?
भगवतो गोपकृतो.
पसर्ग
वर्णनम् । सू०८२॥
॥१६९॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
श्रीकल्प
मुत्रे ॥१७॥
र
देवराजः अवधिना=अधिज्ञानोपयोगेन भगवन्त: श्रीवीरस्वामिनः उपसर्गम् आभुज्य-ज्ञास्वा मनुष्यलोके हव्यम्= शीघ्रं आगत्य तं गोपं एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत्-हं भो गोप! =रे गोपाल ! 'हं भोः' इति तिरस्कारपूर्वकमामन्त्रणम् , पुनरपि तमेव संबोधयति-'अप्पत्थियपत्थय' इत्यादिना रे अमार्थितमार्थक !-न केनापि यत्पार्थिवाञ्छितं--तन्मरणं तत्पार्थकं--तदिच्छो! रे दुरन्तपान्तलक्षण ! दुरन्तानिन्दुष्टपर्यवसानानि, प्रान्तानि-अशोभनानि लक्षणानि-लक्ष्यन्ते-शुभाशुभफलानि ज्ञायन्ते एभिरिति लक्षणानि-हस्तकरादिरेखातिलमषकादिरूपाणि सामुद्रिकशास्त्रमसिद्धानि चेष्टितानि वा यस्य तादृश! रे हीनपुण्यचातुर्दशिक ! हीनं पुण्यं यस्यासौ हीनपुण्यः, चतुर्दश्यां जातः चातुर्दशिकः हीनपुण्वश्वासौ चातुर्दशिकश्चेति-हीनपुण्यचातुर्दशिकस्तत्संबुद्धौपापात्मनित्यर्थः, तथा श्री-ही-धृति-कीर्ति परिवर्जित ! श्रिया शोभया वैभवेन वा ड्रिया लज्जया धृत्या धैर्येण कीाख्यात्या च परिवर्जित-सर्वतो रहित ! रे अधर्मकामक! अधर्मस्य काम:-वाञ्छा यस्य तादृश ! रे अपुण्यकामक ! अपुण्येच्छुक !, रे नरकनिगोदकामक !-नरकनिगोदरूपनीचगत्यभिलाषिन् ! तथा-रे अधर्मकाशित ! अधर्मकाङ्क्षायुत ! रे अधर्मपिपासित ! अधर्मविपासायुत !, रे अपुण्यकाक्षित अपुण्यकाङ्क्षायुत !, रे अपुण्य- वीरस्वामी पर आये हुए उपसर्ग को जानकर, और उसी समय मनुष्यलोक में आकर उस गुवाल से कहा-'
रे गुवाल! अरे जिसकी कोई इच्छा नहीं करता उसकी अर्थात् मृत्यु की इच्छा करने वाले! अरे दृष्ट फल- दायक और अशोभन लक्षगों वाले ! (जिन से शुभ-अशुभ समझा जाय वह लक्षण, सामुद्रिकशास्त्र में प्रसिद्ध हथेली आदि की रेखाएँ, तिल, मषा आदि अथवा चेष्टाएँ लक्षण कहलाती हैं) अरे हीन पुण्यवाले, कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेनेवाले! अर्थात् पापी! अरे श्री (शोमा या वैमर) ही (लजा) धृति (धैर्य) कीर्ति (ख्याति) से सर्वथा शुन्य ! अरे अधर्म के कामी !, अरे अपुण्य और नरक-निगोद के कामी !, अरे ! अधर्म की कांक्षा करने वाले ! अधर्म के प्यासे!, अरे अपुण्य की कांक्षा करने वाले !, अरे अपुण्य के प्यासे !, अरे नरकઆ કર્મોદયને આત્મા પિતે જ સમજી શકે અને તેને ફળ આપતાં પિતે પણ અટકાવી શકે તેમ નથી. કેવળ સારામાઠા ફળ રૂપે પરિણમતી વખતે પોતે તેમાં રાગદ્વેષ કરી જોડાય નહિ; અને પિતાના સ્વભાવ તરફ લક્ષ કરી આ ઉદય તરફ દુર્લક્ષ કરે અને વેદનાને સમભાવે ભગવે. આ જાતનું સૂકમપણે વરતતું આંતરિક કાર્ય પિતા દ્વારા જ થઈ શકે. બીજે કઈ આ અરૂપિ રચના અને તેની કાર્યપદ્ધતિ શી રીતે સમજી શકે? જયારે સમજ પણ ન પડી શકે તે તેનું નિવારણ પણ કેમ કરી શકે? આ નિવારણને સાટ ઉપાય મારા જ હાથમાં છે ને મારા સિવાય
न
गोपस्यइन्द्रकृततिरस्कारता सू०८२॥
EMAN
॥१७॥
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श्रीकल्प- भी
सूत्रे
॥१७॥
पिपासित !-अपुण्यपिपासायुत !, रे नरकनिगोदकाक्षित ! नरकनिगोदकासायुत !, रे नरकनिगोदपिपासित != नरकनिगोदपिपासायुत! किमर्थम् कस्मै प्रयोजनाय ईदृशम् एतादृशम् पापकर्म करोषि यत् त्रिलोकनाथं त्रिलोकपति, त्रिलोकवन्दितं त्रिलोकनमस्कृतं, त्रिलोकसुखकरं-त्रिलोकप्रमोदकारिणम् , त्रिलोकहितकरं त्रिलोककल्याणकारिणम् , भगवन्तम् श्रीवीरस्वामिनम् उपसर्गयसि-उपपर्गकरोषि ?" इतिकृत्वा-इतिकथयित्वा तंगोपं तर्जयितुम्-अङ्गल्यादिना ताडयितुं चपेटादिना, हनुमारयितुम् यष्टयादिना उपाक्रमत-उद्यतोऽभूत् ।
.. तद्-दृष्ट्वा करुणावरु गालयाम्दयासमुद्रो भगवान् श्रीवीरस्वामी शक्रं देवेन्द्र देवराजं प्रत्यषेधत्-निवारितवान् । ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः प्रभु श्रीवीरस्वामिनम् , एवं-वक्ष्यमाणं वचनम् अवादी-प्रभो! हे स्वामिन् ! देवानुप्रियाणां भाताम् अग्रेऽपि बहवः अनेके दुःसहाः कष्टसहनीयाः परीषहोपसर्गाः परीषहा-शीतोष्णादयः, उपसर्गाः-देवादिकृताश्च आपतिष्यन्ति आगमिष्यन्ति, अतः अहं तान-निवारयितुं देवानुपियाणामन्तिके-पाचे तिष्ठामि । ततः शक्रेन्द्रस्य तद् वचनं श्रुत्वा भगवता-श्रीवीरस्वामिना कथितम् 'हे शक्र ! ये च अतीताः भूतकालीनाः, ये च अनागताः भविष्यत्कालीनाः ये च प्रत्युत्पन्नाःवर्तमानकालीनाः तीर्थकराः सन्ति, ते सर्वेऽपि स्वकेन-निजेन उत्थानकमवलपोय पुरुषकारसराकमेग-तत्र उत्थान-वेष्टाविशेषः, कर्म-चलनादिक्रिया, बलं शरीरनिगोद को आकांक्षा करने वाले, अरे नरक-निगोद के पासे ! किस पयोजन से तू ऐसा पाप कर्म कर रहा है? जो त्रिलोक के नाथ, त्रिलोकवन्दित, त्रिलोक के प्रमोदकारी, त्रिलोक के कल्याणकारी भगवान् महावीर स्वामी को उपसर्ग करता है?' इस प्रकार कह कर इन्द्र, गुवाल को तर्जन करने, ताड़न करने और मारने को उद्यत हुए।
. यह देख कर दया के सागर भगवान् श्रीवीरस्वामीने शक्र देवेन्द्र देवराज को रोक दिया। तब वह शक्र देवेन्द्र देवराज वीर भगवान् से इस प्रकार वचन बोले--स्वामिन् ! देवानुपिय को अर्थात् आप को आगे भी अनेक कष्ट-परीषह और उपसर्ग (परीषद शीत, उष्ण आदि, उपसर्ग देवादिकृत कष्ट) आएँगे। मैं उनका प्रतीकार करने के लिए देवानुपिय के पास रहता हूँ।
तब शकेन्द्र के वचन सुनकर भगवान महावीर स्वामोने कहा-'हे शक! जो अतीतकालीन, भविष्यत्कालीन और वर्तमानकालीन तीर्थकर हैं, वे सभी आने ही उत्थान (चेष्टाविशेष), कर्म (चलना आदि બીજું કંઈ કંઈ કરી શકવાને જરા પણ સમર્થ નથી એવું ભગવાને પિતાના અનન્ય ભક્ત ને સમજાવ્યું ત્યારે તેણે પિતાની ભૂલ અને ગેરસમજણ કબૂલ કરી ભગવાનની માફી માંગી પિતાના સ્થાને પાછા ફર્યા. ભગવાને શક્રેન્દ્રને બળ-વીર્યના જે જે પ્રકારે બતાવ્યાં તેના પ્રકારે પાંચ છે. તેમાં “ઉત્થાન એટલે કેઈ પણ પ્રકારની
गोपताडनोधतेन्द्राय भगवत्कृतो निषेधः। ॥सू०८२॥
॥१७॥
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कल्प
मंजरी
टीका
सहायार्थ
SMS सामर्थ्य, वीर्य-जीवभवं सामर्थ्य, पुरुषकारः पौरुषं, पराक्रमः-निष्पादितस्वविषयः पुरुषकार एव, एषां समाहारः,
तेन कर्माणि क्षपयन्ति-निर्जरयन्ति, तथा असहायाः परसाहाय्यरहिता एव विहरन्ति-विचरन्ति, नो खलु देवाश्रीकल्प
सुरनागयक्षराक्षसकिन्नरकिंपुरुषगरुडगन्धर्वमहोरगादीनां साहाय्यं सहायताम् इच्छन्ति अपेक्षन्ते, इति-अस्मादेतोः मूत्रे
नो खलु हे शक्र ! मम कस्यापि साहाय्यप्रयोजनं । एवम् एतादृशं वचनं श्रुत्वा शक्रो देवेन्द्रो देवराजो निजं= ॥१७२॥
स्वकीयम् अपराधं क्षमयित्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः ॥सू०८२॥
मूलम्-तएणं समणे भगवं महावीरे कुम्मारगामाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पुवाणुपुनि चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे मुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव कोल्लागे संनिवेसे तेणेव उवागच्छइ । तएणं से समणे भगवं महावीरे छटक्खमणपारणे भिक्खायरियट्ठाए बहुलस्स माहगस्स गिहं अणुप्पवितु। तेण बहुलेण माहणेण भत्तिबहुमाणेण पाणिपडिग्गाहे खीरं दिण्णं, भगवया पारणगं कयं । तत्थ णं तस्स बहुलस्स तेणं दव्यसुद्धणं दायगसुद्धणं पडिग्गाहगसुद्धेगं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं भगवंमि पडिलाभिए समाणे गिहंसि य इमाइं पंच दिवाई पाउन्भूयाई क्रिया), बल (शरीर की शक्ति), वीर्य (जीव संबंधी सामर्थ्य), पुरुषकार (पुरुषार्थ), और पराक्रम (कार्य में सफल हो जाने वाला पुरुषार्थ), से कर्मों का क्षय करते हैं। दूसरे की सहायता के विना ही विचरते हैं, देवों, असुरों, नागों, यक्षों, राक्षसों, किन्नरों, किं पुरुषों, गरुडों, गन्धवों और महोरगों की सहायता की अपेक्षा नहीं करते । इस कारण हे शक्र ! मुझे किसी की सहायता से प्रयोजन नहीं है।'
इस प्रकार के वचन सुनकर शक्र देवेन्द्र देवराज ने अपना अपराध खमाकर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से प्रादुर्भूत हुए थे, उसी दिशा में चले गये ।।मू०८२।। શારીરિક, વાચિક અને કાયિક ચેષ્ટા દ્વારા પુરૂષાર્થ ફેરવવું તેને “ઉત્થાન” કહે છે. ચાલવું–બેસવું–બાલવું આદિ પદ્ધતિને “કમ' કહે છે. શારીરિક શક્તિ દ્વારા કાર્યની સફળતા મેળવવી તેને ‘બળ’ કહે છે. અંતરની શક્તિ એટલે “વીલ પાવર” ઈચ્છા શક્તિને “વી” કહે છે. “પુરુષકાર” એટલે માનસિક શક્તિનો વિકાસ કરી તેને ઉપયોગ કરે તેને “પુરુષકાર” કહે છે; અને શરીર-મન અને આત્માની સર્વ શક્તિઓ વડે રોકાઈ જઈ કાર્યની સફળતા મેળવવામાં ઓતપ્રેત થવું તેને “પરાક્રમ” કહે છે. આ તમામ પ્રકારો સ્વયં પ્રેરિત હોય તો જ કાર્ય સાધક થઈ શકે છે એમ ભગવાને પિતાના ભક્તને સ્પષ્ટીકરણ દ્વારા જ્યારે સમજાવ્યું ત્યારે કેન્દ્ર ઘણું રાજી ન થયા અને ભગવાન ઉપરને અનન્ય ભાવ તેની આંખમાં પ્રગટપણે દેખાવા લાગ્યા. (સૂ૦૮૨).
मिन्द्रमा
र्थनायां भगवत्कृतो निषेधः। मू०८२॥
॥१७२॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
तं जहा-वसुहारावुट्ठा १, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए २, चेलुक्खेवे कए ३, आहयाओ दुंदुहीओ ४, अंतरावि य णं आगासंसि अहोदाणरतिघुढे-५ य । तएणं से समणे भगवं महावीरे कोल्लागाओ संनिवेसाओ पडिणिक्खमइ,
पडिणिक्वमित्ता जणवयविहारं विहरइ ।।सू०८३॥ श्रीकल्प
छाया-ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः कुर्मारग्रामात् निर्गच्छति, निर्गत्य पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रा॥१७३।।
मानुग्रामं द्रवन् सुख सुखेन विहरन् यत्रैव कोल्लाकः संनिवेशः तत्रैव उपागच्छति । ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः षष्ठक्षपणपारणे भिक्षाचर्यार्थ बहुलस्य ब्राह्मणस्य गृहमनुपविष्टः । तेन बहुलेन ब्राह्मणेन भक्तिबहुमानेन पाणिपतद्ग्रहे क्षीरं दत्तं, भगवता पारणकं कृतम् । ततः खलु तस्य बहुलस्य तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन प्रतिग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन भगवति प्रतिलम्भिते सति गृहे च इमानि पश्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-वसुधारा दृष्टा १, दशावर्णानि कुसुमानि निपातितानि २, चेलोत्क्षेपः कृतः३, आदताः दुन्दुभयः ४,
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर कुर्मार ग्राम से विहार किये और प्राचीन तीर्थंकरों की परम्परा का अनुसरण करते हुए ग्रामानुग्राम सुखे-सुखे विचरते हुए जहाँ कोल्लाक संनिवेश था, वहाँ पहुँचे। वहाँ श्रमण भगवान् महावीर बेले के पारणा के दिन भिक्षाचर्या के लिये बहुलनामक ब्राह्मण के घर में प्रविष्ट हुए। उस बहुल ब्राह्मण ने भक्तिसन्मानपूर्वक करपात्र में खीर का दान दिया। भगवान् ने पारणा किया। तत्पश्चात् उस बहुल ब्राह्मण के घर में, द्रव्यशुद्ध, दायकशुद्ध एवं प्रतिग्राहकशुद्ध, इस प्रकार तीन करण शुद्ध दान से भगवान् को बहराने पर यह पाच दिव्य प्रकट हुए (१) वसुधारा वरसी (२) पाँच वर्गों के फूलों की वर्षा हुई (३) वस्त्रों की वर्षा हुई (४) आकाश में दुंदुभी बजी और (५) आकाश में 'अहो दानं, अहो दान' का घोष हुआ। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर कोल्लाग
भूजना अर्थ-तए णं' इत्यादि. त्या२पछी श्रमय भगवान महावीर उभार भाभथी विहार से प्राचीन તીર્થકરેની પરંપરા અનુસાર ગ્રામાનુગ્રામ ચાલતા, સુખે સમાધે વિચરતા જયાં “કોટલાક’ સંનિવેશ હતું ત્યાં આવી પહોચ્યા, છડના પારણે ભગવાન મહાવીર ભિક્ષાચર્યા માટે બહુલ નામના બ્રાહ્મણના ઘેર દાખલ થયાં. આ બ્રાહ્મણે ભક્તિભાવપૂર્વક પાત્રમાં ખીર વહેરાવી. આ ખીર વડે ભગવાન બેલા (છઠ) ઉપવાસનું પારણું કર્યું. બહુલે જે દાન આપ્યું તે શુદ્ધ અને નિમલ તેમ જ નિર્દોષ હતું. દાન લેનાર પણ પવિત્ર હતા ને આપનારને ભાવ પણ
તદ્દન વિશુદ્ધ અને ફળની ઈચ્છા વિનાને અનાસક્ત હતો. ત્રણે કરણ શુદ્ધ હોવાથી ત્યાં પાંચ દિવ્ય પ્રગટ થયા. Pror (व्याना नाम मा प्रमाणे छ. (१) सुधारान। १२साई (२) ५५२७ जानी वृष्टि (3) यसोनी वा (४) शमा
षष्ठक्षपणपारणे भिक्षार्थ बहुलब्राह्मणगृहे गमनम्।
सू०८३॥
॥१७३॥
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श्रीकल्प
कल्प
मत्रे
अन्तराऽपि च खलु आकाशे अहोदानमहोदानम् इति घुषितं ५ च। ततः स श्रमणो भगवान् महावीरः कोल्लाकात् सन्निवेशात प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य जनपदविहारं विहरति ॥मू०८३॥ .
टीका-'तए णं समणे' इत्यादि ततः शक्रपतिगमनानन्तरं, खलु श्रमगो भगवान् महावीरः कुर्मारग्रामात्र निर्गच्छति निर्गत्य पूर्वानुपूर्वी-पूर्वेषां प्राचीनानां तीर्थकराणाम् आनुपूर्वीम् परिपाटीम्-क्रमं चरन् अनुकु ग्रामानुग्रामं द्रान एकस्माद् ग्रामादपरं ग्रामं गच्छन् सुखं सुखेन विहरन्-यत्रैव कोल्लाकः सन्निवेशः तत्रैव उपागच्छति । ततः तदनन्तरं खलु स श्रमणो भगवान महावीरः षष्ठक्षपणपारणके-षष्ठक्षपणपारणादिवसे भिक्षाचर्या) पर्यटन् बहुलस्य=बहुलनामकस्य ब्राह्मणस्य गृहमनुपविष्टः, तेन बहुलेन भक्तिवहुमानेन भक्त्या प्रचुरसत्कारेण च पाणिपतदग्रहे करपात्र क्षीरं पायसं दत्तम् , भगवता-श्रीवीरस्वामिना तेन क्षीरेण पारणकं कृतम् ।
'मञ्जरी
॥१७४॥
टीका
सन्निवेश से निकले और निकल कर जनपद में विचरने लगे ॥मू०८३।।
टीका का अर्थ--शक्र के चले जाने के पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरने कुर्मार ग्राम से विहार किया औह पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की परम्परा से विचरते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव मुखपूर्वक विहार करते हुए
ए जहाँ कोल्लाग सग्निवेश था वहाँ पधारे । कोल्लाग सन्निवेश में श्रमण भगवान् महावीरने षष्ठभक्त (बेले) के पारणे के दिन भिक्षाचर्या के लिये भ्रमण करते हुए बहुलनामक ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया। बहुल ब्राह्मणने भक्ति और अत्यन्त सत्कार के साथ भगवान के कर-पात्र में खीरका दान दिया। भगवान् श्रीवीरप्रभुने उम खीर से पारणा किया।
पठापणपारणे भिक्षार्थ बहुलब्राह्मणगृहे गमनम्। ॥मू०८३।।
દુંદુભીની ઘોષણા (૫) આકાશમાં “અહદાન-અહેદાનને જયનાદ થયો. કેલલાક સન્નિવેશમાંથી નીકળી ભગવાન મહાવીર આજુબાજુના પ્રદેશમાં વિચારવા લાગ્યા. (સૂ૦૮૩)
ટીકાને અર્થ–શક ચાલ્યા ગયા પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કુમર ગામથી વિહાર કર્યો અને પૂર્વવર્તી તીર્થકરોની પરંપરાથી વિચરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં કરતાં જ્યાં કોલ્લાસન્નિવેશ હતું ત્યાં પધાર્યા. કેટલાગસન્નિવેશમાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પછભક્ત (છઠ) નાં પારણાને દિવસે, ગોચરીને માટે ફરતા ફરતા, બહલ નામના બ્રાહ્મણના ઘરમાં પ્રવેશ કર્યો. બહુલ બ્રાહ્મણે ભક્તિ અને અત્યંત સત્કાર સાથે ભગવાનને કર-પાત્રમાં ખીર વહેરાવી. ભગવાન શ્રીવરપ્રભુએ તે ખીરથી પારણું કર્યું, પારણાં પછી પ્રાસુક એષણીય અશુનાદિ રૂપ દ્રવ્ય
॥१७४॥
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श्रीकल्पसूत्रे ।। १७५ ।।
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ततः =पारणानन्तरं खलु तेन द्रव्यशुद्धेन शुद्धद्रव्येण मासुकेषणीयाशनादिरूपैण, दायकशुद्धेन द्रव्यतों भावतश्च शुद्धेन दात्रा, प्रतिग्राहकशुद्धेन = निरतिचारतपःसंयमसम्पन्नेन प्रतिग्राहकेण त्रिविधेनन्द्रव्य-दायक -प्रतिग्राहकभेदात् त्रिमकारकेण, त्रिकरणशुद्धेन =दायकशुद्धेन मनोवाक्कायलक्षण करणत्रयेण भगवति = श्रीवीरे क्षीरं पतिलम्भिते = प्रतिग्राहिते सति तस्य बहुलस्य ब्राह्मणस्य गृहे इमानि = अनुपदं वक्ष्यमाणानि पञ्च = पश्चसंख्यानि दिव्यानि-देवकृतानि वस्तूनि प्रादुर्भूतानि तद्यथा वसुधारा स्वर्णदृष्टिः दृष्टा देवैः कृता १, दशार्द्धवर्णानि पञ्चवर्णानि - कुसुमानि - पुष्पाणि निपातितानि वर्जितानि २, चेलोत्क्षेपः = त्रदृष्टिः कृतः ३, दुन्दुभयः आहताः ताडिता: ४, अन्तराऽपि खलु आकाशे - ' अहो दानम् अहो दानम् ' इति घुषितम् = उच्चैरुच्चारितं देवैः । ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः, कोल्लाकात् संनिवेशात् प्रतिनिष्क्राम्यति = प्रतिनिःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य = प्रतिनिःसृत्य जनपदविहारं विहरति ॥ ८३ ॥
पारणा के अनन्तर प्रासु एषणीय अशनादि रूप द्रव्य से शुद्ध द्रव्य और भाव से शुद्ध, दाता के कारण तथा अतिचार रहित तप और संयम से सम्पन्न ग्राहक (पात्र) के शुद्ध होने से, इस प्रकार द्रव्य, दाता और पात्र, तीनों शुद्ध होने से, तथा दाता के मन-वचन-काय-रूप तीनों करण शुद्ध होने से भगवान वीर को बहराने पर उस बहुल ब्राह्मण के घर में आगे कही जाने वाली पाँच देवकृत वस्तुएँ प्रगट हुई। वे इस प्रकार हैं- (१) देवों ने स्वर्ण की दृष्टि की, (२) पंच वर्ण के कुसुम वरसाये (३) वस्त्रों की वर्षा की (४) दुंदुभिया बाई, (५) आकाश में 'अहो दान, अहो दान' का उच्चस्वर से नाद किया ।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर कोल्लाग सन्निवेश से निकले और निकल कर जनपद - विहार विचरने लगे || ०८३||
શુદ્ધિથી, દ્રવ્ય અને ભાવથી શુદ્ધ એવા દાતાને કારણે તથા અતિચાર રહિત તપ અને સંયમવાળા ગ્રાહક (પાત્ર)ના શુદ્ધ હેાવાને કારણે આ રીતે દ્રવ્ય, દાતા અને પાત્ર ત્રણેની શુદ્ધિ હેાવાથી, તથા દાતાના મન વચન કાય રૂપ ત્રણે કરણ શુદ્ધ હવાથી, ભગવાન મહાવીરને વહેારાવવાથી તે અઠુલ બ્રાહ્મણનાં ઘરમાં આગળ જે કહેવાશે તે પાંચ દૈવી વસ્તુઓ પ્રગટ થઇ. તે આ પ્રમાણે હતી-(૧) દેવાએ સુવર્ણની વૃષ્ટિ કરી (૨) પાંચ રંગના પુષ્પા વરસાવ્યાં (3) बखोनी दृष्टि पुरी ( ४ ) हुहुलि नाह थये। ( ५ ) आशमां "अहो हान, अहो हान" नो अभ्यस्वरे नाह यो. ત્યારપછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કાલ્લાગ સન્નિવેશમાંથી બહાર નીકળીને જનપદ્મ-વિહાર કરવા માંડયા. (સૂ૦૮૩)
कल्प
मञ्जरी टीका
भिक्षादाने पञ्चदिव्यप्रकटनस् ।
| | ०८३ ||
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श्रीकल्पसूत्रे ॥ १७६॥
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मूलम् -- तपणं से विहरमाणे भगवं पढमं मिचाउम्मासम्मि अत्थियं गामं समणुपत्ते । तत्थ णं मूलपाणिजक्खस्स जक्वाययणे राओ काउसग्गे ठिए । दुल्लक्खे सो जक्खो सयपगडि अणुसरंतो भगवं उवसग्गे इतत्थ पुत्रं सो दंसमसगाई समुप्पाइय पहुं तेहिं दंसीअ । तेग उवसग्गेण अक्खुद्धं सज्ज्ञाणलुद्धं विलोइय विच्छिए उप्पाइय तेहिं दंसी । तेण वि अवियलं अविकंपियं पासिय बिउव्विएण महाविसेण महासीविसेण भगवओ सरीरमिदंसी । तेण वि वायजाएण: अयलमित्र अवियलं दट्टणं तेण रिच्छा विउन्निया । ते य पखरणखरधाएहिं उदवी । ओवि अणुव्विग्गं सयज्झाणलगं दणं विउत्रिएहिं घुरुघुरायमाणेहिं सुलग्गमुहखुरेहिं सुरेहिं फाली । तेण वि अविसण्णं झाणणिसण्णं विलोइय सज्जो समुप्पाइरणं कुलिसग्गतिक्खदंतग्गेणं करिणा उवदवीअ । ते विदढं थिरं अवियलं दगुणं विउनिएहिं खरतरनरवरदादेहिं वग्धेहिं उवदवीअ । तेग वि अवियलियं पासिय केसरीहिं खरयरन हरदा गवाएहिं उपदवीअ । तेग पुगो वि थिरं थिरसरीरं विलोइय पगडीए अत्रवियलेहिं वेयालेहिं उवदवीअ । एवं सो दुरासओ जक्खो पुष्णं रतिं जात्र उवसग्गे कारं - कारं खेयविष्णो विष्णो जाओ, परं भयवं अविसरणे अगाइले अहिए अदीणमाणसे तिविहमणवयकायगुत्ते चेव ते सव्वे वि उवसग्गे सम्मं सहीअ, खमीअ, तितिक्खीअ, अहियासीअ । तरणं से जक्खे ओहिणा पहुं मणसावि अविचलियं दहूं आभोगिय अगाहं खमासायूरं पहुं सयावराहं खमाविय बंदइ नमसर, वंदित्ता नर्मसित्ता सयं ठाणं गयो । तेणं कालेणं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे तत्थ णं अट्ठा - हिं मासद्धखमणेहिं चाउम्मासं वक मिय अथियाओ गामाओ पडिणिक्खमइ. पडिणिक्खमित्ता पत्रन्त्र अप्पडियविहारेण विहरमाणे सेयंबियं णयरिं पट्टिए ||०८४ ।।
छाया - ततः खलु स विहरन् भगवान् प्रथमे चतुर्मासे अस्थिकं ग्रामं समनुप्राप्तः । तत्र खलु शुलपाणियक्षस्य यक्षाssयतने रात्रौ कायोत्सर्गे स्थितः । दुर्लक्षः स यक्षः स्वप्रकृतिमनुसरन् भगवन्तमुपसर्गयति । मूल का अर्थ- 'तर णं से' इत्यादि । तत्पश्चात् विहार करते हुए भगवान् प्रथम चतुर्मास अस्थिक ग्राम में पधारे। वहाँ शूलपाणिनामक यक्ष के यज्ञायतन में रात्रि के समय कायोत्सर्ग में स्थित हुए । दुष्ट भावना वाले उस यक्ष ने अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हुए भगवान् को उपसर्ग किया। पहले पुरता उरता, भूगवान प्रथम यातुर्भासभां अस्थि गाभभ રાત્રીના સમયે કાયાત્સગ માં સ્થિર રહ્યાં. દુષ્ટ ભાવનાવાલા તે આપ્યા તેમ જ ઉપસર્ગાની પરંપરા શરુ કરી દીધી.
भूलना अर्थ - 'तपणं' इत्यादि विहार પધાર્યા. ત્યાં શૂલપાણી નામના યક્ષના યક્ષાયતનમાં પક્ષે, પાતાની પ્રકૃતિ અનુસાર, ભગવાનને ઉપસ
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कल्प
मञ्जरी टीका
भगतो यक्षकृतो
पसर्ग
वर्णनम् ।
॥ सू० ८४ ॥
॥१७६॥
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कल्प
श्रीकल्प
सूत्रे ॥१७७॥
मञ्जरी
टीका
तत्र पूर्व स देशमशकानि सनुत्पाध प्रभु तैरदंशयत् । तेनोपसर्गेणाक्षुब्धं सयानलुब्धं विलोक्य वृश्चिकानुत्पाद्य तैरदंशयत् । तेनापि अविचलम् अविकम्पितं दृष्ट्वा विकुक्तेिन महाविषेण महाशीविषेण भगक्तः शरीरेऽदंशयत् । तेनापि वातजातेन अचलमिव अविचलं दृष्ट्वा तेन ऋक्षा विकुर्विताः। ते च मखरनखरघातैरुपाद्रवन् । ततोऽप्यनुद्विग्नं स्वध्यानलग्नं दृष्ट्वा विकुर्वितघुरुघुरायमाणैः शूलाग्रमुखखुरैः शूकरैरस्फालयत् । तेनाप्यविषण्णं ध्याननिषण्णं विलोक्य सधः समुत्पादितेन कुलिशाग्रतीक्ष्णदन्ताग्रेण करिणोपाद्रवत् । तेनापि दृढं स्थिरम् अविचलं दृष्ट्रा विकुतो उसने डांस-मच्छर उत्पन्न करके उन से प्रभु को डॅसवाया। उस उपसर्ग से भी भगवान् को अक्षुब्ध और धर्मध्यान में अचल देखकर विच्छुओं को उत्पन्न करके उन से डॅसवाया। उस उपसर्ग से भी अचल और अकम्पित देखकर विकुर्वणा से उत्पन्न किये हुए अत्यन्त विषैले महान् सर्प से भगवान् के शरीर को डॅसवाया। जैसे पवन-समूह से पर्वत अचल रहता है, उसी प्रकार उस सर्पदंश से भी भगवान् को अविचल
देखकर उसने रीछों की विकुर्वणा की। उन रीछोंने तीखे नाखूनों से उपद्रव किया। उस से भी अनुद्विग्न और ध्यान में संलग्न देखकर विकुर्वणाजनित, घुरघुराते हुए, काटे की नौंक की तरह तीखे दात वाले शूकरों से विदारण करवाया। उस से भी विषाद को न प्राप्त और ध्यान-मग्न भगवान को देखकर शीघ्र ही उत्पम किये हुए, वज़ की नोंक के समान तीखे दांतों के अग्रभागवाले हाथी से भगवान का उपसर्ग कर
પહેલા ઉપસર્ગમાં ડાંસ-મચ્છર ઉત્પન્ન કરી ભગવાનને વિપુલ પ્રમાણમાં ડાંસ-મચ્છર કરડાવ્યા. આ વેદનામાં ભગવાન અક્ષુબ્ધ રહેવાથી, યક્ષે બીજે ઉપસર્ગ તૈયાર કર્યો. તેણે પિતાની દિવ્ય પ્રભાવડે, જમીન ઉપર સેંકડો વિંછીઓને પેદા કર્યા. આ વિંછીઓને ડંખ પણ, ભગવાન સહન કરી ગયા, અને ધર્મધ્યાનથી ચલિત થયાં નહિ. આ અચલ અને અકંપિત દશાવાળા ભગવાનને જોઈ, થશે, ત્રીજો પ્રયોગ કર્યો. આ પ્રગમાં, તેણે એક મહાન વિષધારી સપની ઉત્પત્તિ કરી. આ સપંડંસથી પણ ભગવાનને ચલિત થતા ન જેવાથી, તે વધારે કે પાયમાન થઈ, જંગલી પશુઓની વિદુર્વણુ કરી. આ વિકવણામાં રિંછા ઉત્પન્ન કર્યા, એ રિંછાએ પિતાના તીણા અને ઉગ્ર નખ વડે ભગવાનના શરીરને ઉઝરડી નાખ્યું. આવી વેદનામાં પણ ભગવાન અડોલ રહ્યાં. આ અડોલતાને યક્ષ સાંખી શક્યો નહિ. ભગવાનને ઉદ્વેગ વિનાના અને અસંવિગ્ન જોઈ, તેને મિજાજ કર્યો અને તેના ક્રોધની પારા શીશી વધવા લાગી. વૈક્રિય શક્તિ દ્વારા, ઘૂર દૂર કરતા તીક્ષણ દાંતવાળા સુવર (જૂડ) ને ઉત્પન્ન કર્યા. આ સુવર દ્વારા, ભગવાનના શરીરનું વિદારણ કરાવ્યું. આમાં પણ પ્રભુને દઢ રહેતા જઈ, તેણે ઘણો વિષાદ અનુભવ્યા. વજાની અણી જેવા તીખા તગતગતા દાંતવાળે હાથી તેણે સજર્યો, અને તે હાથી દ્વારા, તીવ્ર દુખ
भगतो यक्षकृतोपसर्गवर्णनम् । ॥मू०८४॥
॥१७७॥
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श्रकल्पमुत्रे ॥१७८॥
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वितैः खरतरनखरदंष्ट्रैर्व्याघ्रैरुपाद्रवत्। तेनाप्यविचलितं दृष्ट्वा त्रिकुर्वितैः केसरिभिः खरतर नवरदंष्ट्रा ग्रघातैरुपाद्रवत् । तेन पुनरपि स्थिरं स्थिरशरीरं त्रिलोक्य प्रकृत्याऽतीव विकर लेवेतालैरुपाद्रवत् । एवं स दुराशयो यक्षः पूर्ण रात्रि यावत् उपसर्गान् कारं कारं खेदखिन्नो विषण्णो जातः । परं भगवान् अविषण्णः अनाविलः अव्यथितः अदीनमानस: त्रिविधमनोवचः कायगुप्त एव तान् सर्वानप्युपसर्गान् सम्यक् असहत अक्षमत अतितिक्षत अध्यास्त | ततः खलु स यक्षोऽवधिना प्रभुं मनसाऽप्यविचलितं दृढमामुज्य अगाधं क्षमासगारं प्रभुं स्वापराधं क्षामयित्वा वाया। उस से भी भगवान को दृढ़ स्थिर एवं अविचल देखकर विकुर्वणा से उत्पन्न किये हुए अतिशय तीक्ष्ण नख और दाढों वाले व्याघ्रों से उपसर्ग करवाया । उस से भी विचलित हुए न देखकर विकुर्वणा से उत्पन्न किये हुए केसरी सिंह द्वारा, तीक्ष्णतर नखों और दादों के अग्रभाग से उपसर्ग करवाया। उस उपसर्ग से भी भगवान् को स्थिरचित्त और स्थिरकाय देखा तो स्वभाव से अत्यन्त विकराल वेतालों से उपसर्ग करवाया । इस प्रकार वह दुराशय यक्ष सारी रात उपसर्ग करना -करवा कर खेदविन्न और विषादयुक्त हो गया, परन्तु भगवान् ने विषादविहीन, कलुषताहीन, अव्यथित, अदीनमानस तथा मन वचन काय से गुप्त रह कर ही उन सब उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से सहन किया, बिना क्रोध के सहन किया, अदीन भाव से सहन किया और निश्चलता के साथ सहन किया । तब उस यक्ष ने अवधिज्ञान से प्रभु को मन से भी चलित न हुआ तथा दृढ़ जान कर अथाग क्षमा के सागर प्रभु से अपने अपराध के लिए क्षमा मांग कर वन्दन
આપ્યું. આ દુઃખથી પણુ ભગવાત અચલ રહ્યા. આવા પહાડ જેવા અચલ આદમી જોઇ તેના પિત્તો કર્યાં. આથી તેણે તીક્ષ્ણ નખ અને દાઢાવાળા વાઘ તૈયાર કરી, તેના દ્વારા અતુલ દુઃખ આપ્યું. જયારે યક્ષે અહિં પણ દુ:ખાને હસી કાઢતા ભગવાનને જોયા, ત્યારે તેણે કેશરીસિંહની વિકુવા ઉભી કરી. તેના નખ વડે, પ્રભુનું શરીર ચીરાખ્યુ. ઉગ્ર વેદના હાવા છતાં તેઓ મધ્યસ્થ મુખવાળા જણાયા. ત્યારબાદ તેનું વેર અને ક્રોધ શાંત કરવા પાતે વૈતાલનુ રૂપ ધારણ કરી, અત્યંત વિકરાળતા ખતવી અનેક કષ્ટો દ્વારા તેમને ચલિત કરવા પ્રયાસે કર્યા. છતાં તેમને વિષાદહીન જોતા યક્ષ પોતે વિષાદગ્રસ્ત થયા ને અત્યંત ખેદને પામવા લાગ્યા. ભગવાન તા વિષાદવિહીન, કલુષતાહીન, અન્યથિત, અદીનમાનસ, તથા મન-વચન-કાયાથી ગુપ્ત રહી મધ્યસ્થતાને અનુભવવા લાગ્યાં. આવા મરણાન્તિક દુઃખાને પશુસમ્યક્ પ્રકારે સહન કરી, અતુલશક્તિ પેદા કરવા લાગ્યાં. આવા ઉગ્રકષ્ટોમાં પણ ક્રોધને શમાવી દઇ ક્ષમાના ગુણુ ખિલવવા લાગ્યાં. દુઃખનુ વેદન કરતાં પણ દિનતા અનુભવી નહિ ને નિશ્ચલતાના ગુણને વધારે ને વધારે પ્રગટ કરતાં ગયાં. આ યક્ષે જયારે જાણ્યું કે ભગવાન તે મનથી પણ ચલિત થતાં નથી, આમ જાણી ક્ષમાના સાગર સમા
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतो
यक्षकृतोसर्गवर्णनम् । ॥ मु०८४ ।।
॥१७८॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥ १७९॥
简潕德凾實解
वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विा स्वस्थानं गतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरः तत्र खलु अष्टाभिर्मासार्द्धक्षपणैः चतुर्मासं व्यतिक्रम्य अस्थिकाद् ग्रामात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य पवन इवाप्रतिहतविहारेण विहरन श्वेताम्विकां नगरीं प्रस्थितः ॥ सु०८४ ॥
टीका- ' तरणं से विहरमाणे ' इत्यादि । ततः खलु स विहरन् क्रमेण विचरन् भगवान् = श्रीवीरस्वामी प्रथमे चतुर्मासे अस्थिकं = तन्नामकं ग्रामं समनुप्राप्तः = गतवान् । तत्र खलु शूलपाणियक्षस्य =शूलपाणिनामकयक्षस्य यक्षाने रात्रौ कायोत्सर्गे स्थितः । दुर्लक्ष : दुर्भावनः सः यक्षः स्वमकृतिं = निजस्वभावम् अनुसरन्=अनुगच्छन् भगवन्तमुपसर्गयति = भगवत उपसर्गान करोति । तत्र = उपसर्गेषु मध्ये पूर्व-प्रथमं सम्यक्षः, दंशमशकानिदंशाश्च - मशका - वेति दंश - मशकम् क्षुद्रजन्तुत्वेनैकवद्भावः, ततो दंशमशकं च दंशमशकं च दंशमशकं चेति देशमशकानि-दशानां मशकानां चानेकसमूहान् वैक्रियशक्त्या समुत्पाद्य प्रभुं = श्री वीरस्वामिनं तैः = दंशमशकैः अदंनमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके अपनी जगह चला गया। उस काल, उस समय में, श्रमण भगवान् महावीर ने उस अस्थिक ग्राम में चातुर्मास किया, और चातुर्मास में अर्धमास - खमण - अर्धमास - खमण किया । इस प्रकार भगवान् आठ अर्धमासखमणों से चातुर्मास व्यतीत करके अस्थिक ग्राम से निकले । निकल कर वायु के समान अप्रतिबन्धविहार करते हुए श्वेताम्बी नगरी की ओर पधारे ||०८४||
टीका का अर्थ -- तत्पश्चात् क्रम से विहार करते हुए श्री वीर प्रभु पहले चौमासे में स्थ नामक ग्राम में पधारे। वहाँ शूलपाणि नामक यक्ष के यक्षायतन में, रात्रि के समय, कायोत्सर्ग करके स्थित हुए । यक्ष दुष्ट भावना वाला था । उसने अपने स्वभाव के अनुसार भगवान् को उपसर्ग दिया। उसने डांसों और मच्छरों के अनेक समूह वैक्रियशक्ति से उत्पन्न करके भगवान् को उनसे कटवाया । પ્રભુ પાસે અપરાધની માી માગી. મારી મળતાં તેમને વંદના-નમસ્કાર કર્યો. ત્યારપછી પેાતાના સ્થળે તે ચાલ્યા ગયા. આ કાળ અને આ સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ અસ્થિક ગામમાં ચાતુર્માસ કર્યુ હતુ. ચામાસા દરમ્યાન તેમણે ‘અ’માસ ખમણ' કર્યો. આ પ્રમાણે આ આઠે ‘અધ માસ ખમણ' ચાતુર્માસમાં પૂરા કરી, તેએ અસ્થિક ગામમાંથી વિહાર કરી ગયાં. વાયુ સમાન અપ્રતિબંધ વિહારી બની તે શ્વેતાંબી નગરીમાં પધાર્યાં. (સ્૦૮૪) ટીકાના અત્યારપછી ક્રમે ક્રમે વિહાર કરીને શ્રીવીરપ્રભુ પહેલા ચામાસામાં અસ્થિક નામનાં ગામમાં પધાર્યા. ત્યાં શૂલપાણિ નામના યક્ષના યક્ષાયતનમાં રાત્રિને વખતે કાત્સગ કરીને ઉભાં રહ્યાં. તે યક્ષ દુષ્ટ ભાવના વાળે હતા. તેણે પેાતાના સ્વભાવ પ્રમાણે ભગવાનને ઉપસગેર્યાં કર્યાં. તેણે પેાતાની વૈક્રિયશક્તિથી ડાંસ અને મચ્છરોના
कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतो
यक्षकृतो
पसर्ग
वणनम् ।
।। सू० ८४||
॥१७९॥
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शयत्-दंशितवान्, तेन-दंशमशकद्वारोत्पादितेन उपसर्गेण अक्षुब्धक्षोभरहितं सद्ध्यानलुब्ध-समीचीनध्यानमग्नं प्रभुं विलोक्य दृष्ट्वा स वृश्चिकान उत्पाद्य तैः-वृश्चिकैस्तम् अदंशयत् । तेनापि अविचलं स्थिरम् अतएव-अविकम्पितं प्रभु दृष्ट्वा स विकुर्वितेन महाविषेण दुर्जरविषवता महाशीविषेण-विशालकायसर्पण भगवतः शरीरे अदं
शयत् । तेनापि वातजातेन-पवनसगृहेन-वात्यया अचलं पर्वतमिव अविचलम् अप्रकम्पं तं दृष्ट्वा तेन यक्षेण ऋक्षा:॥१८॥ भल्लकाः विकुर्विताः। ते च प्रखरनखरघातातीक्ष्णनखमहारैस्तं प्रभुम् उपाद्रवन् । ततोऽपि अनुद्विग्नम् अत्र
स्तम् स्वध्यानलग्नम् आत्मध्यानासक्तं प्रभुं दृष्ट्वा विकुर्वितैः घुरघुरायमाणैः धुर्पुरशब्दं कुर्वद्भिः शूलाग्रमुखखुरैः= शूलाग्रभागवत्तीक्ष्णदन्तैः शूकरैः चराहैः अस्फालयत्व्य दारयत् । तेनापि अविषण्णं-विषादरहितं ध्याननिषण्णं भगवान् डांस-मच्छरों के द्वारा उत्पन्न किये उपसर्ग से क्षुब्ध न हुए, और प्रशस्त ध्यान में लीन रहे तो उसने विच्छुओं को उत्पन्न करके उनसे डॅसवाया। इस उपसर्ग से भी भगवान् को विचलित या कंपित हुए न देख उसने वैक्रियशक्ति से उत्पन्न किये गये उग्र विषवाले विशालकाय सर्प से भगवान् के शरीर में डॅसवाया। भगवान् इससे अकंपित रहे, जैसे पवन के समूह से पर्वत अकंपित रहता है, तब उस यक्षने भालुओं-रीछों की विकुर्वणा की। भालुओं ने अपने तीक्ष्ण नखों से भगवान् को उपद्रव किया। यक्ष ने देखा
कि भगवान् उससे भी त्रास को प्राप्त न हुए और आत्मध्यान में लीन हैं। तो उसने विकुर्वणा से उत्पन्न लोग किये हुए घुरघुर शब्द करते हुए, काटे की नौंक के सदृश तीक्ष्ण दांतों वाले शूकरों से भगवान् को विदा
रण करवाया। उससे भी भगवान को विषाद न हुआ और वे ध्यान में स्थिर रहे तो उसने तत्काल અનેક સમહ ઉત્પન્ન કરીને ભગવાનને તે કરડાવ્યાં. ભગવાન ડાંસ-મચ્છર દ્વારા ઉત્પન્ન કરાયેલ ઉપસર્ગથી ક્ષુબ્ધ થયાં નહીં અને પ્રશસ્ત ધ્યાનમાં લીન રહ્યાં ત્યારે તેણે વીંછીઓ ઉત્પન્ન કરીને તેમના દ્વારા ડંસ દેવરાવ્યાં. આ ઉપસગથી પણ ભગવાનને ચલાયમાન કે કંપિત થતાં ન જોઈને તેણે વૈક્રિય શક્તિથી ઉત્પન્ન કરેલ ઉગ્ર વિષવાળા વિશાળકાય સર્ષ દ્વારા ભગવાનના શરીર પર ડંસ મરાવ્યાં. જેમ પવનના સમૂહ સામે પર્વત સ્થિર રહે છે તેમ ભગવાન તેનાથી પણ અકંપિત રહ્યાં ત્યારે તે યક્ષે રીંછનું નિર્માણ કર્યું. રીંછાએ પિતાના તીક્ષણ નહેરથી ભગવાનને પીડા આપી. યક્ષે જોયું કે ભગવાન તેનાથી પણ ત્રાસ પામ્યા નથી અને આત્મધ્યાનમાં લીન રહ્યાં છે ત્યારે તેણે
વૈક્રિયશક્તિથી ઉત્પન્ન કરેલ ઘેર ઘેર નાદ કરતાં કાંટાની અણી જેવાં તીક્ષણ દાંતવાળા સૂવરે (ભંડે) વડે ભગવાનનું છેવિદ્યારણ કરાવ્યું, તેથી પણ ભગવાનને વિષાદ ન થયું અને તેઓ ધ્યાનમાં સ્થિર રહ્યાં ત્યારે તેણે વજના અગ્ર
भगवतो यक्षकृतो
पूसर्ग
वर्णनम्। ॥सू०८४॥
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॥१८॥
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L
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श्रीकल्प
कल्पमंजरी
मूत्र
॥१८१।।
टीका
ध्यानावस्थित प्रभु विलोक्य पृष्टा सद्यः समुत्पादितेन तत्कालनिष्पादितेन कुलिशाप्रतीक्ष्ण-दंष्ट्राग्रेण वज्रायवनिशितदन्ताग्रभागेन करिणा इस्तिना उपाद्रवत-उपसर्गयुक्तमकरोत् । तेनापि दृढं दृढतायुक्तं स्थिर स्थैर्यसम्पन्नम् अत एव अविचलं मनोवाकायेन कायोत्सर्गतोऽचलं तं प्रभु दृष्ट्वा स यक्षो विकुर्वितैः खरतरनखरदंष्ट्र अतितीक्ष्णनखदन्तैः व्यायैः प्रामुपाद्रवत् । तनापि अविचलितं प्रभु दृष्ट्वा स यक्षो विकुर्वितः केसरिभिः सिंहै। खरतरनखरदष्ट्राग्रघात अतितीक्ष्णनखदन्तमहारैः उपाद्रवत् । तेन पुनरपि स्थिर स्थितचित्तं स्थिरशरीरं कायोत्सर्गाचलनाभावेन स्थिरशरीरयुक्तं प्रभुं विलोक्य स यक्षः प्रकृत्या स्वभावेन अतीवविकराले अत्यन्तभयङ्करैः वेताले व्यन्तरदेव विशेषैः उपाद्रवत् । एवम् अनेन प्रकारेण स दुराशयः दुष्टस्वभावो यक्षः पूर्णा रात्रिं यावत सम्पूर्णरात्रिपर्यन्तं उपसर्गान् कारं-कारंवारं वारं कृत्वा खेदखिन्नः परिश्रान्तः अत एव-विषण्ण-विषादयुक्तो जातः, परं-फिन्तु भगवान् महावीरस्वामी अविमा विषादरहितः अनाविल: अकलुषितः द्वेषवर्जितः अव्यही वज्र के अग्रभाग की तरह तीखे दन्ताप्रभागों वाले हाथियों द्वारा उपसर्ग किया। उस पर भी भगवान् को दृढ़, स्थिर अतएव मन वचन काय से अविचल देखकर यक्ष ने अत्यन्त तीखे नाखूनों एवं दांतों वाले व्याघ्रों द्वारा उपसर्ग किया। तर भी प्रभु अविचल रहे तो यक्ष ने अतिशय तीखे नखों और दाढ़ों के अग्रभाग वाले सिंहों द्वारा सर्ग करवाया तब भी भगवान का न तो चित्त ही चंचल हुआ, और न शरीर हो। वे कायोत्सर्ग से विचलित न होकर जब स्थिर ही बने रहे, तो यह देखकर यक्ष ने स्वभाव से विकराल चैताल नामक व्यन्तरदेवों के द्वारा भगवान् को सताया। इस प्रकार उस दुष्टस्वभाव वाले रक्ष ने सारी रात उपसर्ग किये। उपसर्ग करके वह स्वयं थक गया, इस कारण उसे विषाद हुआ, परन्तु भगवान् महावीर स्वामी को विषाद नहीं हुआ। वे द्वेष से अछूते रहे। उन्हों ने उद्वेग का अनुभव ભાગ જેવાં તીણ દંતાગ્રભાગવાળા હાથીઓ દ્વારા ઉપસર્ગ કર્યો, છતાં પણ ભગવાનને દઢ, રિથર તથા મન-વચન કાયા વડે અવિચલ જોઈને યક્ષે અત્યંત તીણુ નખ અને દાંતવાળા વાદ્યો દ્વારા ઉપસર્ગ કર્યો, તે પણ:પ્રભુ ચલાયમાન ન થયાં ત્યારે યક્ષે અતિશય તીણાં નખ અને દાઢનાં અગ્રભાગવાળા સિહ દ્વારા ઉપસર્ગ કરાવ્યું તે પણ ભગવાનનું ચિત્ત ચલાયમાન ન થયું અને શરીર પણ ચલાયમાન ન થયું. તેઓ કાર્યોત્સર્ગથી વિચલિત ન થતાં જ્યારે સ્થિર જ હ્યાં ત્યારે તે જોઈને યક્ષે વિકરાળ વૈતાલ નામના વ્યંતર દેવે દ્વારા ભગવાનને સતાવ્યા.
( આ પ્રમાણે તે દુષ્ટ રવભાવવાળા યક્ષે આખી રાત ઉપસર્ગો કર્યા. ઉપસર્ગ કરીને પોતે જ થાકી ગયે. તે કારણે તેને વિષાદ . પણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને વિષાદ ન થ અને દ્વેષ તેમને સ્પર્શી શકાય નહીં. તેમના
भगवतो यक्षकृतो.
पसर्गः
वर्णनम् । मू०८४॥
॥१८१॥
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श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥१८॥
टीका
थितः उद्वेगरहितः अदीनमानसः दीनतायुक्तमनोरहितः, तथा त्रिविधमनोचाकायगुप्तः-त्रिविधैः-करण-कारणानुमोदनैः कृत्वा मनोवचःकातः सन्ने तान् यक्षकृतान् सर्वानप्युपसर्गान् सम्यक असहत-भयाभावेन, अक्षमन-क्रोधाभावेन, अतितिक्षत-दैन्याकरणेन, अध्यास्त-निश्चलतया ।
ततः खलु स यक्षः अवधिना-प्राधिज्ञानेन प्रभुं मनसाऽपि अविचलितम् स्वध्यानादच्युतमतएव दृढंप्रबलस्थैर्यम् , आभुज्य-ज्ञात्वा अगाध-तलस्पर्शरहितं-महान्तम् क्षमासागरंपरापकारसहनगुणसमुद्रम् प्रभु श्रीमहावीरस्वामिनं स्वापराधं-निजं बहवियोपसर्गकरणजन्यमपराध क्षामयित्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च स्वं स्थानं गतः।
- तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरः तत्र अस्थिकामे अष्टाभिः अष्टसंख्यैः मासा दक्षपणः चतुर्मासक्षपणेरित्यर्थः चतुर्मास व्यतिक्रम्य अतिवाद्य अस्थिकाद् ग्रामात् प्रतिनिष्कामति-पतिनिःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य पवन इत्र अपतिहतविहारेण अपतिबन्धविहारेण-विहरन्-श्वेताम्बीकांतदाख्यां नगरी प्रस्थितः ॥सू०८४॥ नहीं किया। उनके मन में दीनता का प्रवेश न हुआ। वे कृत-कारित-अनुमोदना-रूप तीनों करणों से युक्त मन वचन काय से गुप्त रहे, और यक्ष द्वारा किये हुए समस्त उपसर्गों को निर्भय भाव से, शान्तिपूर्वक अदीनता के साथ तथा निश्चल रूप से सहन करते रहे। तब उस यक्षने अवधिज्ञानसे जाना कि प्रभु तो मन से भी ध्यान से विचलित नहीं हुए। यही नहीं, उनकी प्रबल स्थिरता भी उसने देखो तब अथाह क्षमाके सागर-दूसरों द्वारा किये अपकार को सहन करने रूप के गुण के समुद्र-भगवान् से अपने अपराध की क्षमा मांगी। उन्हें वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके वह अपने स्थान पर चला गया।
उस काल और उस समय में श्रमा भगान् महावीर ने उस अस्थिक ग्राम में आठ अर्धमास क्षपण પર પીડાની અસર ન થઈ. તેમના મનમાં દીનતાને પ્રવેશ થયે નડ. તેઓ કૃતકારિત અનુમોદનના રૂપ ત્રણે કાર
થી યુક્ત મન-વચન-કાયાથી ગુપ્ત રહ્યાં અને યક્ષ દ્વારા કરાયેલ સઘળા ઉપસર્ગોને નિર્ભય ભાવથી શાન્તિપૂર્વક અદીનતા સાથે તથા નિશ્ચલ રૂપે સહન કરતાં રહ્યાં ત્યારે તે યક્ષે અવધિજ્ઞાનથી જાણ્યું કે ભગવાનને મનથી પશુ ધ્યાનમાંથી વિચલિત થયાં નથી. એટલું જ નહીં પણ તેમની પ્રબળ સ્થિરતા પણ તેણે જોઇ ત્યારે અપાર ક્ષમાના સાગર-બીજા દ્વારા કરાયેલ અ૫કારને સહન કરી લેવાના ગુના સાગર-ભગવાન પાસે તેણે પોતાને અ૫રાધ માટે ક્ષમા માગી તેમને વંદના કરી નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તે પિતાને સ્થાને ચાલ્યા ગયે.
તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે તે અથસિક ગામમાં આઠ અમાસ ક્ષપણ (આઠ વાર પંદર પંદર
भगवतः सकाशाद् यक्षस्य
प्रार्थना। ०८४॥
॥१८॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥१८॥
टीका
श्वेताम्बि
मूलम्-अह य सेयंबियाए णयरीए दो मग्गा संति-एगो को वीओ उज्जू य । तत्थ जे से उज्जुमग्गे तत्थ एगा वियडा महाडवी अस्थि । तीए वियडाए महाडवीए चंडकोसिओ णामं एगो दिहिचिसो कालो ब्व महाविगरालो कालो वालो णिवसमाणो आसि । सो य नियकूरयाए तेण मग्गेण गमणाऽऽगमणं कुणमाणे पंथजणे दिट्ठीए जालेमाणे घाएमाणे मारेमाणे दंसेमाणे विहरइ । सो तीए महाडवीए परिभमिय परिभमिय जं कंचि सउणगमवि पासइ तंपिणं डहइ। तस्स विसप्पहावेण तत्थ तणाणि विदड्ढाणि, ण य पुणो नवीणाणि तणाणि समुन्भवति । एएण महोवदवेण सो मग्गो ओरुद्धो आसी। तेण,उज्जुमग्गेण गच्छमाणं भगवं गोवदारगा एवं वइंसु-"रे भिक्ख! एएण उज्जुणा मग्गेण मा गच्छाहि, वंकेण गच्छाहि, जे णं कष्णो तुइ सेण कण्णभूसणेण वि किं पओअणं, उज्जुमग्गे महाडवीए एगो महाविगरालो दिहिविसो सप्पो चिटइ, सो तुम भक्खिहिइ"। तं सोचा पहू णाणबलेण चिंतीअ-जं सो सप्पो जइवि उग्गकोहपगडी तहवि सुलहबोही अत्थि, जीवस्स कंचिति अणिकरि पडि तिव्वत्तणेण उदयावलियं पविटुं दहणं जणा तं परिवणसंभवबाहिरं मन्नंति, वत्थुओ सा तहा भविउं न अरिहइ, मणस्स कोवि अंसो जया वियडो होइ तया सो उचिएण उवाएण परिवटिङ सकिन्जइ। एयावइयं चेव नो, किं तु अणिटुंसस्स जावइयं तिव्वं बलं पडिकूले विसए इवइ तं तावइयं चेव अणुकूलेऽवि विसए परिवटिङ सकिजइ, काइवि बलबई चित्तठिई इट्ठा वा अणिहा वा होउ, सा अइसइओवओगियाए गेज्झा एव, जओ दुविहाऽवि चित्तट्टिई समाणसामत्थवई हवइ, परमिमो भेओ-एगा वट्टमाणक्खणे सुहे पोइया, अन्ना य असुहे, तह वि दुण्डं कज्जसाहणसामत्थं तुल्लं चेव गणणिज । जीए सत्तीए सुहा वा असुद्दा वा परिणामा हवंति, सा सत्ती अवस्सं इच्छणिज्जा एव मुणेयव्वा, जहा-आमन्नाणं साउपक्कन्नयाए पायणे अणेगोवोगिवत्थूणं भासरासीकरणे य समत्था सत्ती एगाओ चेव अग्गिओ समुब्भवइ तहा सुहाऽसुहकायव्यपरायणा सत्ती अप्पणो एगओ एव अंसाओ उन्भवइ, परं तीए सत्तीए उवओगं (पन्द्रह-पन्द्रह दिन के आठ बार के) तपश्चरण करके वह चतुर्मास व्यतीत किया। चतुर्मास व्यतीत करके भगान् अस्थिक ग्राम से निकले और वायु के समान अमतिबंध विहार करते हुए श्वेताम्बी नामक नगरी की
ओर पधारे ।।०८४॥ દિવસનું) તપશ્ચરણ કરીને તે ચાતુમાંસ પસાર કર્યું એટલે કે ચાર માસમાં ફક્ત આ દિવસ આહાર-પાણી લીધાં. ચાતુર્માસ પસાર કરીને ભગવાન અથિક ગામથી નીકળ્યાં અને વાયુની જેમ અપ્રતિબંધ વિહાર કરતા કરતા શ્વેતામ્બી नामनी नगरीमा पचाय (सू०८४)
नगरों मति
भगवतो विहारः।
का विद्यार
JADRASHEKHABCBSE
॥१८३॥
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श्रीकल्प
॥१८॥
सुहे अमुहे वा कुज्जा, इच्चेयावइयं असिस्सइ । मणुस्साणं एयारिसो वियारो भमभरिओ दीसइ, जं तिव्वा अणिपवित्तिगरी सत्ती भुज्जो भुज्जो धिक्करिय बाहिं करणिज्जेत्ति, परं तेण सह एयं विस्सरंति जं मणुस्सस्स जा सत्ती जावइयं अंणिर्टी काउं सक्केइ सा चेव सत्ती इट्टमवि तावइयं चेव काउं सक्केइ, जहा जो चक्कवट्टी जीए सत्तीए सत्तमनरयपुढविजोग्गाई जावइयाई हिंसाइकूरकम्माई अजिउं सक्केइ, सो चेव चक्कवट्टी जइ तं सत्तिं इटकज्जे संजोएइ, तो तावइयाई चेव अहिंसाइमुहकम्माई अजिय मोक्खमवि पत्तुं सक्केइ । जे जीवा सुहमसुई वा किंपि काउंन सकेंति, जे य तेयहीणा गलिबलिवद्दा विव होति, जे य जडा विव जगसत्ताए आहणिज्जति, जेसिं पामरयाए भोगलालसाए दारिदस्स पमायस्स य अवही एव नत्थि, एयारिसा जीवा न किंपि काउं सकति । जेसु पुण अत्तबलसोरियाइयं होइ ते सुहे अमुहे वा पज्जाए होतु इच्छणिज्जा एव । जो असुह. पज्जाएवि तं अत्तबलाइयं जेण अप्पं सेण निधत्तं, तस्स अप्पंसस्स सत्तीवि खओवसमभावेण चेव जीवेण पाविजइ । सा सत्ती निमित्नं पाविय जहिद्वं परिवट्टिउं सकिजइ, अओ तत्थ गमणे लाहो एव-त्ति चिंतिय भगवं
विकटातेणेव उज्जुणा मग्गेण पट्ठिए । जया भगवं तीए अडवीए पविटे, तया तत्थ धूली पाणिणं गमणागमणाभा- टव्यां वाओ चरणाइचिंधरहिया जहट्ठिया चेव । जलनालियाओ जलाभावेण सुकाओ । जुण्णा रुक्खा तस्विसजालाए चण्डकौशिक दड्ढा मुका य । सडियपडियजुष्णपत्ताइसंघाएण भूमिभागो आच्छाइओ, वम्मीयसहस्सेहिं संकेतो लुत्तमग्गो य
र वल्मोक आसी। कुडीरा सव्वे भूमिसाइगो संजाया। एयारिसीए महाडवीए भगवं जेणेव चंडकोसियस्स चम्मीयं तेणेव
पाव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ काउस्सग्गेण ठिए ।मू०८५।।
भगवतः छाया-अथ च श्वेताम्बिकायाः नगर्याः द्वौ मागौं स्तःएको वक्रो द्वितीय ऋजुश्च, तत्र यः स ऋजु
कायोत्सर्ग
सू०८५॥ मार्गस्तत्र एका विकटा महाटवी अस्ति । तस्यां विकटायां महाटव्यां चण्डकौशिको नाम एको दृष्टिविषः काल इच महाधिकरालः कालो व्यालो निवसन आसीत् । स च निजक्रूरतया तेन मार्गेण गमनागमनं कुर्वतः पान्थज
। मूल का अर्थ- 'अह य' इत्यादि । श्वेताम्बी नगरी के दो मार्ग थे-एक टेढ़ा, दूसरा सीधा । जो मार्ग सीधा था, उसमें एक विकट महा अटवी पड़ती थी। उस विकट महा अटवी में चंडकौशिक नामक एक दृष्टिविप, काल के समान विकराल काला साप रहता था। वह अपनी क्रूरता के कारण उस मार्ग
॥१८४॥ भूसना मथ- अह य' त्या वतीनगीना मे भाग तi. २४ 2431 मन से सीधी. २ भाग सीधे। હતે તેમાં એક મહાન અટવી આવતી હતી. આ મહા અટવીમાં ચંડકૌશિક નામને એક દષ્ટિવિષ કણિધર નાગ રહેતા હતા. આ સપ મહા વિકરાળ અને સાક્ષાત્ યમરાજ જે ગણાતા હતા. એ માગે અવરજવર કરતા પથિકે- તોરણ
તેનાં
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श्री कल्पसूत्रे ।। १८५ ।।
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नान् दृष्ट्या ज्वलयन् घातयन् मारयन् दशन् विहरति । स तस्यामटव्यां परिभ्रम्य परिभ्रम्य यं कंचित् शकुनकमपि पश्यति, तमपि दहाते, तस्य विषप्रभावेण तत्र तृणान्यपि दग्धानि, न च पुनः नवीनानि तृणानि समुद्भव न्ति । एतेन महोपद्रवेण स मार्गोऽवरुद्ध आसीत् । तेन ऋजुमार्गेण गच्छन्तं भगवन्तं गोपदारका एवमवादिषुः“रे भिक्षो ! एतेन ऋजुना मार्गेण मा गच्छ, वक्रेण गच्छ, येन कर्णखटयति, तेन कर्णभूषणेनापि किं प्रयोजनम् १, ऋजुमार्गे महाटव्यामेको महाविकरालो दृष्टिविषः सर्पस्तिष्ठति स त्वां भक्षिष्यति । तच्छ्रुत्वा मनुर्ज्ञानवलेनाचिन्तयत्-" यत् स सर्पो यद्यपि उग्रक्रोधप्रकृतिः, तथापि सुलभबोधिरस्ति, जीवस्य कांचिदपि अनिष्टकरीं प्रकृति तीव्रत्वेन उदयावलिकां प्रविष्टां दृष्ट्वा जनास्तां परिवर्तनसम्भववाह्यां मन्यन्ते, वस्तुतः सा तथा से आवागमन करने वाले पथिकों को अपनी दृष्टि के विष से जलाता, घात करता, मारता और डँसता था । वह उस अटवी में घूम-घूम कर जिस किसी पक्षी को भी देखता, उसी को भस्म कर देता था । उसके विष के प्रभाव वहाँ का घास भी जल गया था। वहाँ नवीन तृण तक भी उत्पन्न नहीं होते थे । इस महान उपद्रव के कारण वह मार्ग रुक गया था अर्थात् उधर से कोई आता-जाता नहीं था ।
उस सीधे मार्ग से भगवान् को जाते देख कर गोपदारकों ने इस प्रकार कहा - अरे भिक्षु ! इस सरल मार्ग से मत जाओ; चकरदार रास्ते से जाओ। जिससे कान टूट जाय, उस कान के गहने से क्या लाभ ? इस सीधे मार्ग में, महाटवी में अत्यन्त विकराल दृष्टिविष सर्प रहता है, वह तुम्हें खा जाएगा। यह सुनकर भगवान ने ज्ञान के बल से सोचा- वह सर्प यद्यपि उग्र क्रोधशील है, फिर भी વટેમાર્ગુ એને તે સર્પ ક્રૂરતાપૂર્વક પોતાના દૃષ્ટિવિષ વડે ખાળી નાખતા, ઘાત કરતા-માતા અને હસતા પણ હતા. આ અટવીમાં જો કાઇ પેક્ષી અહીંતહીં ઉડે તેને પણ બાળીને ભસ્મ કરી નાખતા. તેના વિષના પ્રભાવે ત્યાંનું ઘાસ પણ ભળી ગયું. જ્યાં ઘાસ મળી ગયું હતું ત્યાં નવા અંકુરા પણ ફૂટતા નહિ. આવા ઉપદ્રવને લીધે તે સદંતર જવાઆવવા માટે અધ થઈ ગયા હતા તેથી ત્યાંનું આવાગમન વ્યવહાર અટવાઈ પડયેા હતેા.
મા
ભગવાનને સીધે માગે શ્વેતાંખીનગરી તરફ જતાં જોઇ ગાવાળીઆએ આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હું ભિક્ષુ ! આ સરળમાર્ગ નહિ પકડતાં લાંખા માર્ગે જવાનુ રાખા, જેનાથી કાનની બુટી તૂટી જાય તે સાનાને (ઘરેણાંને) પહેરવાથી શે લાભ ? આ સીધા માર્ગમાં મહાન્ અટવી મધ્યે એક કાળા કૃણિધર નાગ રહે છેતે તમને ખાઈ જશે. ' આવું સાંભળી ભગવાને જ્ઞાન દ્વારા જાણી લીધું કે આ સર્પના ક્રોધ હજી સુધી દૂર થયા નથી, છતાં તે આત્મા સુલભ ખેાધી તા જરૂર છે. કાઇ પણ જીવની વમાનદશા અનિષ્ટકારી પ્રવતતી હોય
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અને આ અનિષ્ટ
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श्रीकल्पसूत्रे ॥१८६॥
मञ्जरी
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भगवतः श्वेताम्बि
भवितुं नाहति, मनसः कोऽप्यशो यदा विकृतो भवति, तदा स उचितेनोपायेन परिवर्तयितुं शक्यते । एतावदेव नो किंतु अनिष्टांशस्य यावत्कं तीनं बलं प्रतिकूले विषये भवति तत् तावत्कमेवानकलेऽपि विषये परिवर्तयितुं शक्यते । काचिदपि बलवती चित्तस्थितिः इष्टा वा अनिष्टा वा भवतु साऽतिशयितोपयोगितया ग्राद्यैव, यतो द्विविधाऽपि चित्तस्थितिः समानसामर्थ्यवती भवति, परमयं भेद:-एका वर्तमानक्षणे शुभे प्रयोजिता अन्याचाशुभे, तथापि द्वयोः कार्यसाधनसामर्थ्य तुल्यमेव गणनीयम् । यया शत्तया शुभा अशुभा वा परिणामाः भवन्ति, सा शक्तिरवश्यमेषणीयैव ज्ञातव्या यथा-आमानानां स्वादुपक्कान्नतया पाचने, अनेकोपयोगिवस्तूनां भस्मराशीकरणे च समर्था शक्तिरेकस्मादेवाग्नेः समुद्भवति तथा शुभाशुभकर्तव्यपरायणा शक्तिमुलभवोधि है। जीव की किसी अनिष्टकारी प्रकृति को, तीव्रता के साथ, उदयावलिका में प्रविष्ट देख कर लोग मान लेते हैं कि यह परिवर्तन की संभावना से बाहर है, किन्तु वास्तव में यह बात नहीं है। मन का कोई भी अंश जब विकृत हो जाता है तो उचित उपाय से वह बदला जा सकता है। यही नहीं, अनिष्ट अंश का जितना बल प्रतिकूल विषय में होता है, उतना ही तीव्र वह अनुकूल विषय में भी पलटा जा सकता है। चित्त की कोई भी बलवती स्थिति, चाहे वह इष्ट हो या अनिष्ट, अतिशय उपयोगी रूप में ही उसे ग्रहण करना चाहिए। कारण यह है कि दोनों (इष्ट और अनिष्ट) प्रकार की चित्तस्थिति समानशक्तिसम्पन्न होती है। दोनों में अन्तर यही है कि एक वर्तमान में शुभ में प्रयुक्त हो रही है और दूसरी अशुभ में। फिर भी दोनों का, अपने-अपने कार्य को सिद्ध करने का सामर्थ्य तो समान ही गिना जाना चाहिए। जिस मूलभूत शक्ति से शुभ या अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह शक्ति अश्य ही वांछनीय है, ऐसा समझना चाहिये। उदाहरण के लिए अग्नि की शक्ति को लीजिए। एक ही अग्नि की शक्ति कच्चे अन्न को अच्छी तरह पकाती भी है और अनेक उपयोगी वस्तुओं को भस्म भी करती है, यह द्विविध शक्ति अग्नि से ही તે જીવ પૂબ બતાવતે હેય, તેનું વર્તન બહારથી ઘણું ખરાબ અને ઝેરીલું હોય તે લોકો કહે છે કે આ જીવ કદાપિ પણ સુધારી શકશે નહિ પરંતુ વાસ્તવિક રીતે આ વાત બરાબર નથી. મનને કેઈ અંશ કદાચ વિકૃત બની જાય તે ઉચિત ઉપાય વડે તેને સુધારી શકાય છે તેમ જ બદલાવી પણ શકાય છે. આટલું જ નહિ પણ અનિષ્ટ અંશનું જેટલું બળ પ્રતિકૂલ વિષયમાં હોય છે તેટલું જ તીવ્ર તે અનુકૂલ વિષયમાં પણ પલટાઈ શકાય છે. ચિત્તની શક્તિ એવી છે કે ઈષ્ટતા પણ સાધે અને અનિષ્ટતા પણ સાધે ! માટે તેની શક્તિ કેઈ સરસ્ત વાળવાથી તેને સુંદર ઉપયોગ થઈ શકે છે. ચિત્તમાંથી ઈષ્ટ અને અનિષ્ટ બને ભારે નીકળે છે, પણ શક્તિની અપેક્ષા એ ચિત્ત બને-ઈષ્ટ અને અનિષ્ટપણમાં સમાનબલ-વીર્યથી કામ કરે છે.
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कल्प
श्रीकल्प
सूत्रे ॥१८७॥
मञ्जरी
टीका
रात्मन एकस्मादेवांशादुद्भवति, परं तस्याः शक्त्या उपयोग शुभेऽशुभे वा कुर्यात्-इत्येतावदवशिष्यते। मनुब्याणामेतादृशो विचारो भ्रमभृतो दृश्यते-यत् तीवाऽनिष्टप्रवृत्तिकरी शक्तिर्भूयो भूयो धिक्कृत्य बहिष्करणीयेति । परं तेन सह एतद् विस्मरन्ति-पद् मनुष्यस्य या शक्तिः यावत्कम् अनिष्टं कर्तुं शक्नोति, सैव शक्तिरिष्टमपितावदेव कर्तुं शक्नोति, यथा-यश्चक्रवर्ती यया शत्तया सप्तमनरकपृथिवीयोग्यानि यावत्कानि हिंसादिकूरकमाणि अर्जयितुं शक्नोति स एव चक्रवर्ती यदि तां शक्तिमिष्टकार्य संयोजयति, तदा तावन्त्येव अहिंसादिशुभकर्माणि अर्जयित्वा मोक्षमपि प्राप्तुं शक्नोति । ये जीवा शुभमशुभं वा किमपि कर्तुं न शक्नुवन्ति, ये च तेजोहीना गलिबलीवर्दा 'इव भवन्ति, ये च जडा इव जगत्सत्तयाऽऽहन्यन्ते, येषां पामरताया भोगलालसाया उत्पन्न होती है। इसी प्रकार शुभ और अशुभ कर्तव्य में प्रयुक्त होने वाली शक्ति आत्मा के एक ही अंश से उत्पन्न होती है। यह बात दूसरी है कि उस शक्ति का उपयोग शुभ में किया जाय या अशुभ में। - "तीत्र अनिष्ट प्रवृत्ति को उत्पन्न करने वाली शक्ति का बार-चार धिक्कार कर बहिष्कार करना चाहिए," मनुष्यों का यह विचार भ्रमपूर्ण है। ऐसा विचार करने वाले लोग भूल जाते हैं कि मनुष्य की जो शक्ति जितना अधिक अनिष्ट कर सकती है, वही शक्ति उतना ही अधिक इष्टसाधन भी कर सकती है। जो चक्रवर्ती जिस शक्ति से सातवें नरक में जाने योग्य जितने हिंसादि क्रूर कर्मों का अर्जन कर सकता है, वही चक्रवर्ती अगर उस शक्ति को इष्ट कार्य में प्रयुक्त करे-लगावे, तो उतने ही (अहिंसा आदि प्रशस्त
न कार्य करके) मोक्ष भी पा सकता है। जो जीव सामर्थ्यहीन हैं-शुभ या अशुभ कुछ भी नहीं कर सकते,
मसते. ચિત્તને અગ્નિ સાથે સરખાવવામાં આવ્યું છે. જેમ અગ્નિ કાચા અને પકવે છે અને તે જ અગ્નિ સમસ્ત પદાર્થોને બાળી પણ શકે છે. આવી બે ધારી શક્તિઓ જેમ અગ્નિમાં છે, તેમ ચિત્તમાં પણ રહેલી છે. ચિત્ત જે સવળે માગે વળે તેં આત્માને ઘડીએક ભરમાં મેક્ષગતિએ લઈ જાય છે અને શક્તિ અવળે માગે કામ કરે તે સાતમી નરકે પહોંચાડી દે છે.
અનિષ્ટ ઉત્પન્ન કરવાવાળી ચિત્તશક્તિને વારંવાર ધિક્કાર આપી તેને બહિષ્કાર કરવું જોઈએ એમ છે મનુષ્ય માનતે હેય તે તેની એક જમણા છે. જે ચિત્તશક્તિ અધિકમાં અધિક અનિષ્ટતાને આદરી શકે છે તેજ શક્તિ ઈષ્ટતાને પણ તેજ પ્રમાણે આદરી શકે છે. જે શક્તિ દ્વારા ચકવર્તી નરકમાં જવા યોગ્ય હિંસા આદિના પ્રશસ્ત કાર્યો કરી મોક્ષની સાધના પણ કરી શકે છે. જે જીવ સામર્થહીન છે. શુભ-અશુભ કાંઈ કરી શકવાની
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नगरों प्रति मा विहारः।
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श्रीकल्पसूत्रे
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दारिद्र्यस्य प्रमादस्य चावधिरेव नास्ति, एतादृशा जीवा न किमपि कर्तुं शक्नुवन्ति । येषु पुनरात्मबलशौर्यादिकं भवति, ते शुभेऽशुभे वा पर्याये भवन्तु, एषणीया एव, यतोऽशुभपर्यायेऽपि तद् आत्मबलादिकं येन श्रात्मांशेन निवृत्तं तस्य आत्मांशस्य शक्तिरपि क्षयोपशमभावेनैव जीवेन प्राप्यते । सा शक्तिः निमित्तं प्राप्य यथेष्टं परिवर्तितुं शक्यते, अतस्तत्र गमने लाभ एव " इति चिन्तयित्वा भगवांस्तेनैव ऋजुना मार्गेण प्रस्थितः । यदा भगवांस्तस्यामटव्यां प्रविष्टस्तदा तत्र धूलिः प्राणिनां गमनागमनाभावात् चरणादिचिह्नरहिता यथास्थिता एव । जलनालिकाः जो गलियार बैल की तरह तेजोहीन होते हैं, जो जड़ की भाँति जगत की सत्ता से दबे रहते हैं, जिनकी पामरता की, भोगलालसा की, दरिद्रता की और प्रमाद की कोई सीमा ही नहीं है, ऐसेप्राणी कुछ भी नहीं कर सकते। जिन में आत्मबल है, शौर्य आदि गुण हैं, वे चाहे शुभ अवस्था में हों या अशुभ अवस्था में, वांछनीय ही हैं। क्यों कि अशुभ अवस्था में भी वह आत्मबल आदि जिस आत्मांश से निष्पन्न हुए हैं, उस आत्मांश की शक्ति भी क्षयोपशम भाव से ही जीव को प्राप्त होती है । वह शक्ति निमित्त पाकर इच्छानुसार बदली जा सकती है । अत एव वहाँ जाने में लाभ ही है।
इस प्रकार विचार कर भगवान् ने उसी सीधे मार्ग से प्रस्थान किया। जब भगवान् उस अटवी में प्रविष्ट हुए तो वहाँ की धूल प्राणियों का गमनागमन न होने से चरणचिह्न आदि से रहित, ज्यों की त्यों थी । जल की नालियाँ जलाभाव से सूख गई थीं। पुराने पेड़ चंडकौशिक के विष की ज्वालाओं से શક્તિ ધરાવતા નથી, ગળિયા બળદની માફક તેજહીન છે; જડ જેવી જગતની બ્રાંતિમાં દમાયેલેા રહ્યો છે, જેને ૫ મરતા-ભે ગલાલસા--રિદ્રતા અને પ્રમાદની ાઇ સીમા નથી તેવા આત્મા જગતમાં કાંઇ પણ કરી શકતા નથી. જેનામાં આ આત્મબળ હાય, શૌય આદિ ગુણ હોય તે ભલે શુભ-અશુભ ગમે તે અવસ્થામાં પડેલા હોય તેા પણ તે વાંછનીય છે. કારણ કે આવા સામર્થ્યવાન આત્માને સસ્તે વાળવામાં વાંધે આવતા નથી.
આ શક્તિ ભલે તે સદ્ભાવની હોય કે અસદ્ભાવની! પરંતુ તે ક્ષયાપશમભાવ દ્વારા પ્રાપ્ત થઇ છે, એટલે રાક્તિ તો આદરણીય છે. ફેર એટલેા છે કે તે અશુભ રસ્તે દોરવાઈ ગઈ છે. તેને પાછી વાળી શુભ રસ્તામાં ગાઠવવાની છે. આવી અશુભ માગે દોરાએલી શક્તિ નિમિત્ત મળતાં પાછી વળે છે, અને તેનેા સદ્ઉપયોગ થઈ શકે છે. માટે આ સીધે માગે જવામાં ઘણા લાભ છે; એમ જ્યારે સપના જીવન ઉપરથી ભગવાને જાણી લીધુ' ત્યારે તેથી સીધા માગે પ્રસ્થાન કરી ગયા.
આ અટવીમાં પ્રવેશ કરતાં ભગવાનના ખ્યાલમાં આવી ગયુ` કે આ જિમ પ્રમાણે જ વાતાવરણ છે. આ ભૂમિ પર કાઈ પણ પ્રાણીનાં પગલાં જણાતાં નથી. પાણીના નાળાં અને ગરનાળાં ધારિયા વગેરે પાણીના અભાવે
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विकटा
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चण्डकौशिक वल्मीक
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भगवतः कायोत्सर्गः।
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
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॥१८९॥
टीका
जलाभावेन शुष्काः। जीर्णा वृक्षास्तद्विषज्वालया दग्धाः शुष्काश्च । सटितपतितजीर्णपत्रादिसंघातेन भूमिभाग आच्छादितः, वल्मीकसहस्रः संक्रान्तो लुप्तमार्गश्चासीत् । कुटीराः सर्वे भूमिशायिनः संजाताः । एतादृश्यां महाऽटव्यां भगवान् यत्रैव चण्डकौशिकस्य वल्मीकं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तत्र कायोत्सर्गेण स्थितः ॥१०८५॥
टीका-'अह य सेयंबियाए' इत्यादि । अथ च श्वेताम्ब्याः नगर्याः द्वौ मागौं स्तः-एको वक्र:= कुटिलः, द्वितीयः अपरो मार्गः ऋजुः सरलश्च । तत्रद्वयोर्मार्गयोमध्ये यः स ऋजुर्मार्गः, तत्र एका विकटा भयानका महाटवी अस्ति । तस्यां विकटायां भयानकायां महाटव्यां चण्डकौशिको नाम एकः दृष्टिविष:-दृष्टौ विषं जल गये थे और मूख गये थे। भूभाग सड़े पड़े जीर्ण पत्तों के ढेर से ढंक गया था, हजारों बावियों से व्याप्त था और मार्ग लुम हो गया था। वहाँ की सभी छोटी-छोटी कुटिया धराशायिनी हो गई थीं। ऐसी महा अटवी में, जहाँ चंडकौशिक की बांबी थी, वहाँ भगवान् पा पहुँच कर वहाँ कायोत्सर्ग में स्थित हो गये ।। मू०८५॥ .
टीका का अर्थ-श्वेताम्बी नगरी के दो मार्ग थे-एक चक्कर काट कर और दूसरा सीधा था। इन दोनों में जो सोधा रास्ता था, उसमें एक भयानक जंगल पड़ता था। उस भयानक जंगल में चंडસુકાઈ ગયેલાં માલુમ પડે છે. પુરાણાં ઝાડપાન ચંડકેશિકના વિષની જવાલાઓ વડે બળી ગયેલા અને સુકાઈને ખાખ જેવા થઈ ગયેલાં જ જણાય છે. ભૂમિ પણ સડેલાં અને જીર્ણ થયેલા પાંદડાથી ઢંકાઈ ગયેલી જણાતી હતી ને ઠેર ઠેર मोटा nal ori त्यो ५3at arrai sat. आम भाग Sorr3 सन शनय गयो ता. सानी नानी शुटि પણ પડી—ખખડી ગઈ હતી અને તેનો કાટમાળ ભેંયભેગો થઈ ગયો હતો. આવી ભયંકર અટવીમાં જ્યાં ત્યાં વેણુના ફાફડા જામી ગયા હતા. આ ભયંકર નિર્જન પ્રદેશમાં જ્યાં ચંડકેશિકને રાફડો હતો ત્યાં ભગવાન પહોંચી ગયા.
ચંડકેશિકના રાફડા પાસે આવી આજુબાજુ નજર કરી. જે જગ્યા તેમને નિર્દોષ જણાઈ, તે જગ્યાએ પિતે સાવધપણે કાયાને સ્થિર કરી કાસગ ધારણ કર્યો અને આત્મસમાધિમાં મનને જોડી દીધું. (સૂ૦૮૫).
ટીકાનો અર્થ – વેતાંબી નગરીમાં જવાના જે બે માર્ગો હતા. તેમાં એક કડી માર્ગ હતું. લોકોનું માનસ હંમેશા ટૂંકા રસ્તે થઈ, ઇચ્છિત સ્થળે પહોંચવાનું હોય છે. આવા ટૂંકા રસ્તા, પહાડ-નદી-નાળા વિગેરે અજાણ્યા રસ્તે થઈને જ સ્તાં હોય છે. પહેલે ચીલો પાડનાર માણસ મુશ્કેલી અનુભવે છે. પણ ત્યારપછી માણસેના પગરવ પડતાં, ત્યાં એક રીતસરની કેડી પડી જાય છે. ત્યારબાદ, આ કેડીને ઉપગ ધીમે ધીમે નાના રસ્તા તરીકે થાય છે.
બી એ ધરી માગ વેતાંબી નગરી તરફ જતું હતું, નગરજને તે રસ્તાને જ ઉપયોગ કરી રહ્યા હતા. કાર પરંતુ કમભાગે ત્યાંના રતે કંઈ એક ભયંકર સાપ અવાર નવાર નજરે પડતાં આવવા જવાનો વ્યવહાર એ છો
श्वेताम्बि
नगरी भाई मार्गस्थचण्डकौशिक
सर्पवर्णनम् । ०८५॥
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मुत्रे
श्वेताम्बिका
यस्य स तथाभूतः, काल इव-मृत्युरिव महाविकराला अतिभयङ्करः, कालः कृष्णवर्णः, व्यालः सर्पः, निवसन्
आसीत् । स-सर्पश्च निजक्रूरतया स्वदुष्टस्वभावेन तेन-महाटवीस्थेन मार्गेण गमनाऽऽगमनं कुर्वतः गच्छत आगश्रीकल्प
च्छतश्च पान्थजनान-पथिकलोकान् दृष्ट्या-चक्षुषा ज्वलयन-दहन घातयन्=पुच्छेन ताडयन् मारयन्=पाणेभ्यो
विमोचयन् दशन् दन्तः प्रहरन् विहरति-विचरति। सःचण्डकौशिकाख्यः सर्पः, तस्यां महाटव्यां परिभ्रम्य ॥१९॥
परिभ्रम्य वारं वारमितस्ततो भ्रमित्वा यं कश्चित् कमपि शकुनकमपि-पक्षिणमपि पश्यति, तमपि-आकाशचारिणमपि पक्षिणं दहति दृष्टिविषेण भस्मसात्करोति, स्थलचारिणां तर्हि कथैव का? तथा-तस्य-चण्डकौशिकसर्पस्य विषमभावेण-विषज्वालाप्रसरणेन तत्र-महाटव्यां तृणान्यपि दग्धानि-भस्मीभूतानि । न च पुनः दहनानन्तरं नवीनानि-नवानि तृणानि समुद्भवन्ति-परोहन्ति । एतेन अनेन चण्डकौशिकविषोभवेन महोपद्रवेण= बृहदुपसर्गेण सः महाटवीस्थः मार्गः, अबरुद्धा-पथिकगमनागमनवर्जित आसीत् । तेन-महाटवीस्थेन ऋजु-मार्गेण कौशिक नामक एक साप रहता था। वह दृष्टिविष था, अर्थात उसकी दृष्टि में विष था। जिस पर दृष्टि डाले, वह भस्म हो जाय । वह मृत्यु की तरह अत्यन्त भयंकर और काले रंग का था। वह सर्प अपने दुष्ट स्वभाव के कारण उस महाटवी के मार्ग से गमन-आगमन करने वाले पथिकों को अपनी दृष्टि से जलाता हुआ, पूंछ से ताड़ना करता हुआ, प्रागहीन बनाता हुआ और दांतों से प्रहार करता हुआ रहता था। वह उस अटवी में बार-बार इधर-उधर घूमता हुआ जिस किसी पक्षी को भी देखता, उम आकाशचारी पक्षी को भी अपने दृष्टिविष से भस्म कर देता था। ऐसी स्थिति में जमीन पर चलने वाले થવા લાગ્યો. આ સાપ પિતાના ઝેર વડે મનુષ્ય-પશુ, પંખી વિગેરેને મારી નાખતું હોવાનું માલુમ પડતાં આ રસ્તે
न મનુષ્ય અને પ્રાણીઓની અવર જવર તદ્દન ઓછી થઈ ગઈ. છતાં પણ દુષ્ટ પ્રકૃતિવાળા સાપે, પિતાની દુષ્ટતા ઓછી કરી નહિં. હવે કઈ હાથમાં ન આવતાં પશુ-પંખીને બદલે, ઝાડ-પાન-ફલ-ફૂલ વિગેરે ઉપર ઝેર ઓકવા માંડયે. પરિણામે આ વનસ્પતિ પણ, સુકાઈ અને નિર્ભો જ બની ગઈ. એટલે લોકોમાં એવી માન્યતા પ્રસરી ગઈ કે આ સર્ષની દષ્ટિમા જ હલાહલ વિષ રહેલું છે. જે કઈ એકેન્દ્રિયથી માંડી પંચેન્દ્રિય સુધીના જીને તે જુએ છે કે તરત જ તેની પર વક્ર દૃષ્ટિ કરે છે, અને વક્ર દૃષ્ટિ થતા, તેનું દૃષ્ટિ વિષ, મનુષ્ય તરફ ફેંકાય છે જે તે મનુષ્ય ઉપર વકષ્ટિપાત કરે છે કે, મનુષ્ય અગર પ્રાણી જે કઈ હોય તે બળવા માંડે છે, અને ક્ષણવારમાં બળીને ખાખ
થઈ જાય છે. આથી કે, તે માને છેડી, કેડી માર્ગ ગ્રહણ કરી, વેતાંબી નગરીએ જતા. ડોર
ઝેર રવયં કાળું હતું ને તેને લીધે ઝેર ધારણ કરનાર આ સર્પ પણ કાળે કાળો ભમ્મર જેવો દેખાતે ડોર હતું. આ સર્ષમાં એટલી બધી ભયંકર દુષ્ટતા ભરી હતી કે માણસને વિષથી માર્યા પછી પણ તે પિતાની પૂંછડી
मार्गस्थचण्डकौशिक वर्णन मू०८५॥
सर्प
॥१९॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
कल्पमञ्जरी
॥१९॥
टीका
गच्छन्तं भगवन्तं गोपदारकाः एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अादिषुः कथितवन्त:-“रे भिक्षो! एतेन= अनेन ऋजुना मार्गेण मा गच्छ, किन्तु वक्रेण मार्गेण गच्छ । येन भूषणेन कर्णः-त्रुटथति तेन भूषणेन कर्णाभरणेन किं प्रयोजनं ? किमपि कार्य नास्ति । अयमपि ऋजुमार्गः कर्णत्रोटकाभरणवदेवास्ति, यतोऽत्र ऋजुमार्गे महाटव्यामेको महाविकरालो दृष्टिविषः सर्पस्तिष्ठति, स सर्पः त्वां भक्षिष्यति ।
तत्म्योपदारकवचनं श्रुत्वा प्रभुः-श्रीमहावीरस्वामी ज्ञानबलेन ज्ञानप्रभावेण अचिन्तयत्-चिन्तितवान् यत् सःचण्डकौशिकः सर्पः यद्यपि उग्रक्रोधप्रकृतिः तीव्रक्रोधस्वभावोऽस्ति, तथापि-स सुलभबोधिरस्ति । जीवमनुष्य आदि प्राणियों का तो कहना ही क्या ? उस चण्डकौशिक सर्प के विष के प्रभाव से-विष की ज्वालाएँ फैलने से, उस अटवी का घास-फूस भी भस्म हो गया था। भस्म होने के बाद नया घास उगता नहीं था। चंडकौशिक के विषजनित इस उपद्रव के कारण अटवी का वह मार्ग रुक गया था कोई आवागमन नहीं करता था।
उसी सीधे मार्ग से भगवान् को जाते देख गुवालों के लड़कों ने भगवान् से कहा-हे भिक्षु! इस सीधे रास्ते से मत जाओ, चकरदार रास्ते से जाओ। जिससे कान ही टूट जाय, उस कान के आभूषण से क्या प्रयोजन ? अर्थात् इस सीधे रास्ते से क्या लाभ जब कि इससे जाने पर लक्ष्य स्थान पर पहुंचने से पहले ही प्राणों से हाथ धोने पड़ें ? यह सीधा रास्ता कान तोड़ देने वाले गहने के समान है। इस रास्ते में एक महाविकराल दृष्टिविष सर्प है। वह तुम्हें खा जायगा। વડે, તેના ઉપર પ્રહાર કરતે હતે. તે ઉપરાંત, તેના અવયને, દાંતથી કરડી ખાતે. આકાશમાં ઉડનાર પક્ષી પણ, તેના દૃષ્ટિવિષથી નીચે પટકાઈ પડતુ, અને મરણને આધિન થતું. જ્યારે આવા ઉંચે ઉડવાવાળા પક્ષી સુધી, તેનું ઝેર ઊંચે ચડતું તો જમીન પર ચાલનાર પ્રાણીઓની તો વાત જ શી ? ઘાસ આદિના અંકુરો પણ નવીન પણે ફૂટતાં નહિ હેવાને કારણે આખો રસ્તો વેરાન અને સ્મશાન ભૂમિ જે થઈ ગયો હતો. જાણે અહિં કઈ રણ ઉભુથયું ન હોય ! તેમ આ પ્રદેશ નિઃસત્વ બની ગયો હતો.
જ્ઞાનીઓ અને સાધુજનેને, ગૃહસ્થની માફક, કાંઈ ગુપ્તતા જાળવવાની ન હોવાથી આડે માગે જવા આવવાનું કાંઈ પ્રયોજન હતું જ નથી-તેથી, તેઓ હંમેશા સીધા માર્ગે જ જવા ટેવાયેલા હોય છે. તે અનુસાર ભગવાન પણુ, સાધુ માર્ગ હોવાથી, જાહેર રસ્તો પકડ્યો, અને તે તરફ તેમણે ચાલવા માંડયું.
- ભગવાન તો, આ બધુ પ્રથમથી જ જાણતાં હતાં. અને તે સપને ઉદ્ધાર તેમના જ હાથે થવા લખાયેલ હતો અને આ વાત તેમના ખ્યાલમાં જ હતી. વળી યક્ષના ઉગ્ર પરિતાથી જેઓ ડગ્યાં નહિ, તેને એક મામુલી સર્ષ
विकटाटबीमार्गेण
गमने भगवते गोपदारक
कृतनिषेधः। मु०८५॥
॥१९॥
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मूत्र
स्यपाणिनः कांचिदपि कामपि अनिष्टकरीम् अनर्थकारिणी, प्रकृति तीव्रत्वेन उग्रत्वेन उदयावलिकां प्रविष्टाम्= उदयावलिकान्तर्गतां दृष्ट्वा जनाः तां प्रकृति परिवर्तनसम्भववाह्याम् अपरिवर्तनीयां मन्यन्ते, वस्तुतः यथार्थतः सा-प्रकृतिः तथा अपरिवर्तनीया भवितुं न नैव अर्हति शक्नोति, मनसः चित्तस्य कोऽपि कश्चिदपि अंशः भागः यदा-पस्मिन् काले विकृत: विकारयुक्तो भवति, तदा तस्मिन् काले सामनोविकृतांशः उचितेन=
योग्येन उपायेन साधनेन परिवर्तयितुम् अविकृतास्थायां परिणमयितुं शक्यते, एतावदेव-मनोविकृतांशस्य उपा||१९२॥
यवशात् परिवर्तनीयता भवतीत्येतावमात्र नास्ति, किन्तु-अनिष्टांशस्य मनसोऽनर्थकरभागस्य यावत्कं यत्परिमाणं तीव्रम् उग्रम् , बलं सामर्थ्य प्रतिकूले अनिष्टे विषये भवति, तत्वलं तावत्कमेव-तत्परिमाणमेच अनुकूले=इष्टे अपि पिपये परिवर्तयितुं परिणमयितु शक्यते। काचिदपि बलवती सामर्थ्यसम्पन्ना चित्तस्थितिः मनोऽवस्था
गुवालों के लड़कों की बात सुनकर श्रीमहावीर स्वामी ने अपने ज्ञानवल से विचार किया-'यद्यपि चंड कौशिक सर्व उग्रक्रोध स्वभाव वाला है, फिर भी है सुलभबोधि । जीव की किसी भी अनर्थकारिणी प्रकृति को, उग्र रूप उसे, दयावलिका में आई देवकर लोग मान लेते हैं कि उसमें परिवर्तन होना संभा नहीं है. किन्तु यथार्थ में वह अपरिवर्तनीय नहीं होती। जब चित्त का कोई भी अंश विकारयुक्त हो जाता है तो उचित उपाय से उसे विकृत अवस्था से अविकृत अवस्था में पलटा जा सकता है। इतना ही नहीं कि चित्त के विकृत अंश को बदल कर अविकृत बनाया जा सकता है, किन्तु उस विकृत अंश का जितना सामर्थ्य प्रतिकूल अनिष्ट विषय में होता है, उतने ही सामर्थ्य के साथ उसका अनुकूल-इष्ट विषय में भी झुकाव हो सकता है। શ કરવાનો હતો? વળી શરીર ઉપરથી મેહ તો ભગવાને પહેલેથી જ કાઢી નાખ્યો હતો, એટલે શરીરના દુઃખે દુઃખ, થવાનું તેમને હતું જ નહિ. આ બધાનો વિચાર કરી, ભગવાન તે રસ્તે ચાલી નીકળ્યા. રસ્તામાં વિચાર કરતાં ગયાં કે, આ ચંડકેશિક ઉગ્ર રવમાવવાલો છે, છતાં સુલભ બધી છે. તેને સમજાવતાં વાર લાગે તેમ નથી. તે વિચારી આ અશુભ કર્મના ઉદયમાં સપડાયે છે, પરંતુ તેની માનસિક વૃત્તિ નિખાલસ છે તો જરૂર તેનું પરિવર્તન થઈ શકશે.
કદાચ કે કારણે ચિત્તને અમુક અંશ વિકૃત થઈ ગયો તો એમ સમજવાનું નથી કે તેનું આખુ ચિત્ત વિકૃત પની ગયું છે. અમુક ચિત્તવૃત્તિઓ વિકારી થઈ જાય છે, પણ બાકીની વૃત્તિઓ નિવકારી હોવાથી, વિકારી ચિત્તવૃત્તિને, નિર્વિકાર અવસ્થામાં ફેરવી શકાય છે. કારનું ચિત્ત-મન અનેક વૃત્તિઓનું બનેલું હોય છે. અનંત
'કાલના ભવ-ભ્રમણ દૂરમ્યાન અનેક શુભા શુભ બંને વૃત્તિઓ ઘડાએલી હોય છે. એટલે સારી અને નરસી બંને jain Education વૃત્તિએ થી વ્યાપ્ત થયેલ ચિત્ત અનેક સુંદર અને સુંદર ભાવોને પ્રકટ કરે છે.
भी
चण्डकौशिक विषये भगवतो विचारः। मू०८५॥
॥१९२॥
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श्रीकल्प
कल्पमंञ्जरी टीका
॥१९३॥
चित्त
इष्टा-अनुकूला अनिष्टा-पतिकूला वा भवतु, किन्नु सा चित्तस्थिता अतिशयिता-उत्कर्ष प्राप्ता सती उपयोगियता: कार्यकारितयैव ग्राह्या-विज्ञेया। तत्र हेतुमुपन्यस्यति-यतः यस्मादेतो द्विविधापि इष्टानिष्टभेदात् द्विपकाराऽपिचित्तस्थितिः समानसामर्थ्यवती-तुल्यबला भवति, परं-किन्तु तयोः अयम् अनुपदं वक्ष्यमाणः भेदः अन्तरं वर्तते, एका-प्रथमा चित्तस्थितिः वर्तमानक्षणे विद्यमानकाले शुभेन्शुभफलजनककार्ये प्रयोजिता व्यापारिता भवति, अन्या-द्वितीया च सा अशुभे=अशुभफलजनककार्ये प्रयोजिता भवति, तथापि-चित्तस्थितेः शुभाशुभप्रयोजितत्वेऽपि द्वयोर उभयोरपि चित्तस्थित्योः कार्यसाधनसामर्थ्य-शुभाशुभ फलोत्पादनशक्तिः तुल्यं समप्रमाणमेव गणनीयम्=मन्तव्यम् । यया शक्त्या सामर्थ्येन शुभाः वा अशुभाः वा परिणामाः भवन्ति-जायन्ते,सा शक्तिः
अवश्य=निःसंदेहं यथा स्यात् तथा एषणीयैव-अपेक्षणीयेव ज्ञातव्या बोध्या। यथान्येन प्रकारेण आमानाकोई ना=अपकतण्डुलाद्यन्नानाम् स्वादुपकानतया स्वादिष्टपकान्नत्वेन पाचने पचनक्रियायां, च-पुनः अनेको
चित्त की कोई भी स्थिति क्यों न हो, अगर उस में बल है, वह सामर्थ्यशालिनी है, तो चाहे वह अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो, अर्थात् वह कुमार्गगामिनी हो या सुमार्गगामिनी हो, उस उत्कर्षप्राप्त शक्ति को उपयोगी ही मानना चाहिए। कारण यह है कि चित्त की यह दोनों प्रकार की स्थितिया तुल्य सामर्थ्य वाली होती हैं। दोनों में भेद है तो केवल यही कि पहलो चित्तस्थिति वर्तमान में शुभफलजनक कार्य में प्रयुक्त हो रही है और दूसरी अशुभफलजनक कार्यमें, फिर भी उन दोनों चित्तस्थितियों में शुभ-अशुभ फल को उत्पन्न करने की शक्ति तो समान ही है। अत एव-जिस शक्ति के कारण शुभ या अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह मूलभूत शक्ति निस्सन्देह अपेक्षित ही है।
जैसे अग्नि की शक्ति कच्चे चावल आदि अन्नों को भलीभाति पकाने में समर्थ होती है, और अनेकानेक उपयोगी वस्तुओं को भस्म करने में भी समर्थ होती है, वह द्विविध शक्ति एक ही अग्नि से उत्पन्न होती है उसी प्रकार शुभ और अशुभ कर्त्तव्य में प्रयुक्त होने वाली शक्ति भी आत्मा के एक ही अंश से उत्पन्न होती है।
ભગવાન ચંડકૌશિકની મલિનવૃત્તિને ખસેડવા માગતાં હતાં. તેનું ચિત્ત જે દુષ્ટ કાર્યમાં રમણ કરે છે તેમાંથી તેને હટાવી, અન્ય ભાવ ઉપર નજર પડતાં, તેને પિતાનું નિજસ્વરૂપ સમજાઈ જશે, એમ માની, ભગવાને આ વિકટ માગ પકડયે.
ચિત્તને ચમકારે અને ઝુકાવ, જેટલે અને જેટલી શક્તિ એ અનિષ્ટતા-ઉપર વળે છે, તે જ ચમકારો અને ઝુકાવ અને તેટલી જ શક્તિ એ ઈષ્ટ ભાવે ઉપર પણ પડે છે. એ મૂળભૂત શક્તિ ચિત્તમાં કામ કરી રહી છે અને આ જે શક્તિ શુભ અને અશુભ બંને વૃદ્ધિઓમાં કામ કરે છે તે ચિત્તશક્તિને યથાયોગ્ય સમજી તેનું પરીવર્તન કરવું જોઈએ.
चण्डकौशिक विषये भगवतो विचारः। मू०८५॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥१९४॥
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TEEN SEX
पयोगिवस्तूनाम्= बहुकार्यसाधनपदार्थानां भस्मराशीकरणे = भस्मसमूहीकरणे च समर्था शक्तिरेकस्माद् अग्नेरेव समुद्भवति तथा=तेन प्रकारेण शुभाशुभकर्तव्यपरायणा = शुभकार्यसाधनतत्परा अशुभ कार्यसाधनतत्परा चेति द्विविधा शक्तिः=सामर्थ्यम् आत्मनः एकस्मादेव अंशाद् =भागात् उद्भवति = उत्पद्यते, परं= किन्तु तस्याः शुभा शुभकार्यसाधिकायाः शक्तेः उपयोगं शुभे अशुभे वा कुर्यात् इत्येतावत् शुभाशुभकार्य विनियोजनमात्रम्, | अवशिष्यते= प्राणिनां स्वाधीनत्वेन अवशिष्टं भवति । अत्र विषये मनुष्याणाम् एतादृशः = अनुपदं वक्ष्यमाणो एतादृशो विचारो भ्रमभृतो भ्रमपूर्णो दृश्यते यत् तीव्रा = उग्रा - प्रबला अनिष्टप्रवृत्तिकरी = अनिष्टकार्यप्रवृत्तिकारिणी शक्ति:= सामर्थ्यं भूयोभूयः - वारंवारं धिक्कृत्य = निन्दित्वा बहिष्करणीया = दूरीकर्तव्या इति । परं किन्तु तेन विचारेण सह==सार्धम् एतत् = दमनुपदं वक्ष्यमाणं विवेचनं ते विस्मरन्ति, यत्- 'मनुष्यस्य या शक्तिः यावदुयत्परिमाणम् अनिष्टम् = अनर्थ कर्तुं शक्नोति सैव शक्तिः इष्टमपि शुभमपि तावदेव = तत्परिमाणमेव कर्तुं शक्नोति अत्र दृष्टान्तमुपन्यस्यति - 'यथा' इत्यादि । यथा यः कथित् चक्रवर्ती यया शक्त्या सप्तमनरकपृथिवीयोग्यानि यावन्ति यत्परिमाणानि क्रूरकर्माणि = प्राणातिपातादीनि अर्जयितुम् शक्नोति स एव चक्रवर्ती यदि वेत् तां शक्तिम् इष्टक =शुभकार्ये संयोजयति तदा तर्हि तावन्त्येव = तत्परिमाणान्येव शुभकर्माणि= अहिंसादीनि अर्जयित्वा मोक्षअलवत्त उसका शुभ कार्य में उपयोग करना, यही शेष रहता है। यह व्यक्तियों के अधीन है।
सबला अनिष्ट प्रवृत्ति जनक शक्ति बार-बार विकार देकर दूर करने योग्य है। ऐसा जो लोग विचार करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि 'मनुष्य की जो शक्ति, जितना अनिष्ट कर सकती है, वही उतना इष्ट भी कर सकती है। इस विषय में चक्रवर्ती का उदाहरण लीजिए ।
कोई चक्रवर्ती जिस शक्ति से सातवीं नरकभूमि में जाने योग्य जितने प्राणातिपात आदि क्रूर कर्म उपार्जन करने में समर्थ होता है, वही चक्रवर्ती, उसी शक्ति को अगर शुभ में लगा दे तो उतने ही हिंसा आदि को उपार्जन करके मोक्ष भी पा सकता है।
ધાન્યને પકવવાની અને ધાન્યને બાળી નાખવાની એમ એ શક્તિએ અગ્નિમાં જોવામાં આવે છે. તેવી રીતે શુભ અને અશુભ બને કતવ્યેામાં કામ કરતી શક્તિ આત્માના એક જ અંશમાંથી ઉત્પન્ન થયેલી છે. હવે આપણે જોવાનુ એ રહે છે કે આ શક્તિના શેમાં ઉપયાગ કરવા ? આ શક્તિના શુભ કે અશુભમાં ઉપયેગ કરવાના અધિકાર વ્યક્તિ પરત્વેના હોય છે અને તે કાર્ય વ્યક્તિને આધિન રહે છે. ઘણા ચક્રવર્તિએએ પેાતાની શક્તિના ઉપયેગ નિજ સાધનમાં વાપરી આત્મથ પ્રાપ્ત કર્યો અને ખીજાએ તેજ શક્તિના સંસાર અર્થે વાપરી અશુભ કર્મો બાંધી અધમ ગતિમાં પહેોંચી ગયા.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
चण्डकौशिक त्रिषये भगवतो विचारः । || मू०८५||
॥१९४॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥ १९५॥
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मपि प्राप्तुं शक्नोति । ये जीवाः = प्राणिनः शुभम् अशुभं वा किमपि शुभाशुभयोर्मध्ये एकतरमपि कर्तुं न शक्नु = समर्था भवन्ति, च=पुनः ये जीवाः तेजोहीनाः- निस्तेजसः, गलिबलीवर्दा:= अविनीतवृषभा इव भवन्ति, च = पुनः ये:- जीवाः जडा इव जगत्सत्तया = जगतः शक्त्या अधिकारादिरूपया आहन्यन्ते = पराभूयन्ते येषां पामरतायाः भोगलालसायाः=भोगकामनायाः, दारिद्र्यस्य प्रमादस्य = आलस्यस्य च अवधिरेव = सीमैव नास्ति, एतादृशाः-ईदृशाः जीवाः=माणिनः किमपि = किञ्चिदपि कार्य कर्तुं नैव शक्नुवन्ति । येषु जीवेषु पुनः आत्मबलशौर्यादिकं भवति, ते जीवाः शुभे अशुभ वा पर्याये विद्यमाना भवन्तु, उभयत्र पर्याये विद्यमानास्ते जीवाः समानतया एषणीया: =अभिलषणीयाः । तत्र हेतुमाह-यतः यस्मात् कारणात् अशुभपर्यायेऽपि तत् = अनर्थकरम् आत्मवलादिकं येन आत्मांशेन कारणीभूतेन निरृत्तं = सम्पन्नमभूत्, तस्य आत्मांशस्य शक्तिरपि = अनर्थ करं सामर्थ्यमपि क्षयोपशमभावे नैव तदावरणक्षयोपशमभावद्वारैव जीवेन प्राप्यते । सा क्षयोपशमभाव लब्धा शक्तिः निमित्तं = कारणं प्राप्य यथेष्टं यथेच्छं यथास्यात्तथा परिवर्तितुं परात्ता भवितुं शक्यते, अतः अस्मात् कारणात् तत्र चण्डकौशिकाविष्ठितस्थाने गमने विहारे लाभ एव भवितुम् अर्हति - इति इत्थं चिन्तयित्वा = विचार्य भगवान् श्रीवीरस्वामी तेनैव ऋजुना मार्गेण प्रस्थितः = प्रचलितः । यदा = यस्मिन् काले भगवान् श्रीवीरः तस्याम्=
जो पाणी शुभ और अशुभ, दोनों में से किसी भी एक को उग्र शक्ति के साथ करने में असमर्थ होते हैं, और जो निस्तेज हैं, गलियार बैल के समान हैं, जो जड़ की भाँति जगत् की शक्ति से अभिभूत हो जाते हैं और जिनकी पामरता, भोगकामना, दरिद्रता और प्रमाद की कोई सीमा ही नहीं है, एसे प्राणी क्या कर सकते हैं ? उनसे कुछ भी नहीं हो सकता। इनके विपरीत, जिन जीवों में आत्मबल है, शूरताआदि है, वे शुभ या अशुभ किसी भी पर्याय में क्यों न हों, समान रूप से वांछनीय हैं। क्यों कि अशुभ पर्याय में भी जो आत्मबल आदि जिस आत्मांश से उत्पन्न हुआ है, उस आत्मांश की शक्ति-अनर्थकारी सामर्थ्य-भी क्षयोपशम के द्वारा ही जीव को प्राप्त होती है। वह क्षयोपशमभात्रजनित शक्ति, कारण मिलने पर इच्छानुसार परिवर्तित की जा सकती है, अतः जहाँ चंडकौशिक रहता है, वहाँ जाने में लाभ हो सकता है। इस प्रकार विचार कर श्रीवीर प्रभु उसी सीधे मार्ग से रवाना हुए।
મનુષ્ય પોતાની શકિતને ઓળખ્યા વિના પેતાને પામર માનતા થઇ ગયા છે અને આત્માદ્ધાર કરવા તરફ અગર શુવૃદ્ધિ કરવા તરફ તેનુ' વલણ રાખવા જતાં તે હિંમત ખાઇ બેસે છે. દરેક આત્મામાં શકત રહેલી
છે અને તે પણ સૌમાં સરખા પ્રમાણમાં છે. જેણે જેણે આત્મવિશ્વાસ કેળવ્યા
તેણે તેણે. તે શકિત પ્રાપ્ત કરી.
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मञ्जरी
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चण्डकौशिक
विषये
भगवतो विचारः ।
||म्०८५||
॥ १९५॥
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कल्प
श्रीकल्प
सूत्रे ॥१९६॥
मञ्जरी
टीका
विकटा
टव्यां
चण्डकौशिक
चण्डकौशिकाधिष्ठितायाम् अटव्यां प्रविष्टः, तदा तस्मिन् काले तत्र अटव्यां धलिः प्राणिनां गमनाऽऽगमनाभावात् चरणादिचिह्नरहिता-पादादिचिह्नवर्जिता, अत एव-यथास्थितैव आसीत् । तथा-जलनालिकाः जलाभावेन शुष्काः आसन् । तथा-जीर्णाः पुरातनाः केचन वृक्षाः तद्विषज्वालया-चण्डकौशिकसर्पविषदाहेन दग्धाः भस्मीभूताः, तथा-केचन वृक्षाः शुष्काः नीरसाश्च आसन् । तथा-तत्रत्यो भूमिभागः शटितपतितजीर्णपत्रादिसंघातेन-शटितानां-शीर्णानां पतितानाम् जीर्णपत्रादीनां संघातेन-समूहेन आच्छादितः आत आसीत् , तथावल्मीकसहौः-वल्मीका: वामलरा:-'बाम्बी' इति भाषापसिद्धाः, तेषां सहस्रः संक्रान्तः युक्तः, च-पुनः लुप्तमार्गः अदृश्यमानमार्ग आसीत्। तथा-सर्वे-तद्वनस्थिताः सकलाः कुटीराः लघुकुटयो भूमिशायिनो-धरापतिताः संजाता: अभवन् । एतादृश्याम ईदृश्याम्-अगम्यायाम् महाटव्यां भगवान् श्रीवीरस्वामी यत्रैव यस्मिन् स्थाने चण्डकौशिकस्य वल्मीकम् आसीत् , तत्रैव-तस्मिन्नेव वल्मीकस्थाने उपागच्छति, उपागम्य तत्रचण्डकौशिकाधिष्ठितवल्मीकाऽऽसन्नस्थाने कायोत्सर्गेण कायोत्सर्गपुरस्सरं स्थितः ॥१०८५॥
जिस समय भगवान महावीर उस भयानक अटवी में प्रविष्ट हुए, उस समय वहाँ की धूल पैरों आदि के निशानों से रहित थी. क्यों कि वहाँ आवागमन नहीं होता था, अतएव वह ज्यों की त्यों थी वहाँ की जल की नालिया जलाभाव के कारण मुखी पड़ी थीं। कितने ही पुराने पेड चंडकौशिक के विष की ज्वाला से भस्म हो गये थे और कितने ही सूख गये थे। अटवी का भूभाग सड़े पड़े और सूखे पत्तों के ढेरों
से आच्छादित हो गया था और हजारों बांवियों से व्याप्त था। मार्ग कहीं दिखाई नहीं देता था। वहाँ के ___ सभी कुटीर धराशायी (जमोदोस्त) हो गये थे। ऐसो दुर्गम अटवी में भगगन वहीं पहुँचे, जहाँ चंडकौशिक
की बांबी थी। वहाँ पहुच कर भगवान् उस बांबी के पास ही कायोत्सर्गपूर्वक स्थित हो गये ॥९०८५|| આ શકિત બહારથી આવતી નથી, પરંતુ અંદર ગુપ્ત રીતે રહેલી છે અને તેજ બહાર આવે છે. ફકત તેને આવિર્ભાવ થવામાં બહારના સાધને નિમિત્ત ભૂત થાય છે, એટલે આપણે કહીએ છીએ કે આ સાધનથી જ મારી શકિત ખીલી ! જે શકિત અંદર ન હતી તે ખીલી કયાંથી ? આ બતાવે છે કે દરેક આત્મામાં અનંત શકિતને પિંડ પડયે છે. ફકત કેવી રીતે બહાર લાવે તેજ વિચારવાનું રહે છે. - ભગવાન આ બધું જોતાં જોતાં સપના રાફડા આગળ આવી પહોંચ્યા અને તે રાફડાની આસપાસ જ
ધ્યાનમગ્ન થવા વિચાર કર્યો, અને તે સ્થળે કાર્યોત્સર્ગ કરી ઉભા રહ્યા. (સૂ૦૮૫).
पार्श्वे भगवतः कायोत्सर्गः। सू०८५॥
॥१९६॥
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श्रीकल्पसूत्रे
।।१९७||
真真
CACIENCECE MO
मूलम् - तए से डकोसिए बिसरे कुद्धे समाणे विलाओ बाहिर निस्सरिय काउसम्मनियं पहुं
चिंती - ' के रिसो हमो मच्चुकमणुल्सो जो खाणू वित्र थिस्तोग ठिओ, संपइ चेत्र इमं अहं जिला भासरासी करोमि ति कट्टु काण घमघमंतो आगुरुतो मिसिमिसेमाणो विसरिंग वममाणो फ वित्थास्यंतो भयंकरेहि फुकारेहिं दिट्ठि फोरेमागो रे निज्झाइत्ता सामि पलोएइ । सो न उज्झइ जहा अण्णे, एव दापि तचेपिपलाड तहपि सा न उज्झइ, ताहे पहुं पायगुडम्म डसर, डसित्ता 'मा मे उबर पंडिज्ज - त्ति कट्टु पचासकइ । तहवि पहने पड़ । काउस्सग्गाओ लेंसमवि न चलइ । एवं दोपि तच्चपि डसर, तहवि पड, ताहे अमरिसेणं पहुं पाएं तो अच्छा एवं तं भगवं संतमुद्दे अउलकंतिमंत सोम्मं सोमव सोम्मद माहुरियगुणजुत्तं खमासी पिच्छंत तस्स ताणि विसभरियाणि अच्छीणि विज्झाइयाणि । त कोह पुंजत्रो सो चंडकोसिओ जाओ। पहुस्स संविलेण तस्स कोहो समिओ । तस्स कोहजालार उचरिं पहुणा खमाजाले सितं, तेण सा संतो संतमहात्रो संजाओ । एयारिसं संतिसंपन्नं चंडकौसिये दणं पहू एवं बयासी - हे चंडकोसिय! अबुझ, ओबुज्झ, कोहं ओमु श्रच पुण्यभवे कोहवसेणेव कालमासे कालं किया तु रूप्पो जाओ, पुगोऽवि पात्रं करेसि, तेण पुणेोऽवि दुग्गई पावेहिसि, अभ अप्पागं कल्लागरमे पत्तेहि-त्ति- ।' एवं समिमं पवोहवणं सोचा चंडकोसिओ वियारसायरे पडिओ पुत्रभवनाई सरइ । तेण सो गिय-: पुत्रभवे को पगडीए यिमरणं विष्णाय पच्छायाचं करिय हिंसयपगडिं विमुचिय संतसहावो संजाओ । तए णं से सप्पे तो भत्ताई अगसणाए छेदित्ता मुहे झाग कालमासे कालं किचा उक्कोसओ अद्वारससागरोत्रमहिइए सहारा देवलोए उक्कोसट्टिइओ एगावयारो देवो जाओ। महाविदेहे सो सिज्झिस्स ॥०८६॥ छाया— ततः खलु स चण्डकौशिको विषधरः क्रुद्धः सन् विलाद् बहिर्निःसृत्य कायोत्सर्गस्थितं प्रभुं चिन्तयत् कीदृशोऽयं मृत्युभयविमुक्तो मनुष्यो यः स्थाणुरिव स्थिरत्वेन स्थितः सम्प्रत्येवेममहं विषया भस्मराशीकरोमीति कृत्वा क्रोधेन धमधमायमान आशुरक्तो मिसमिसायमानः विषाग्निं वमन फणां
मूल का अर्थ - ' तर णं' इत्यादि । तब वह चंडकौशिक विवधर क्रुद्ध होकर बिल से बाहर निकला
और कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु को देख कर सोचने लगा- 'कौन है यह मौत की भीति से मुक्त मानव, जो ठंठ की भाँति स्थिर होकर खड़ा है ? मैं इसको अभी की ज्वाला से भस्म कर देता हूँ । '
भूवना अर्थ - 'तपणं' इत्याहि थंडशिनाग महार नीता अधथी धुवांवां માનવી છે કે જે મેતથી પણ ડરતા નથી ?
ઉભેલાં જોઈ વિચાર કરવા લાગ્યા કે · આ કયે
थयो ने प्रभुने स्थिर
અને જીવારના ઠુંઠાની
營□□寳寳寳實實營運營實無有無無無營養食
कल्पः ।।
मञ्जरी
टीका
1
चण्ड- 1
कौशिकस्य
भगवदुपरि
विष
प्रयोगः
||म्०८६ ॥
॥१९७॥
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श्रीकल्प
विस्तारयन् भयङ्करैः फूत्कारैर्दृष्टि स्फारयन् सूरं निध्याय स्वामिनं प्रलोकते । स न दह्यते यथाऽन्ये । एवं द्विरपि त्रिरपि प्रलोकते, तथापि स न दह्यते, तदा प्रभुं पादाङ्गष्ठे दशति, दष्वा 'मा मे उपरि पतेत्' इति कृत्वा प्रत्यवष्वष्कते, तथाऽपि प्रभुन पतति । कायोत्सर्गाल्लेशमपि न चलति । एवं द्विरपि त्रिरपि दशति तथापि न पतति, तदाऽऽमर्षेण प्रभं प्रलोकमान आस्ते । एवं तं भगवन्तं शान्तमुद्रमतुलकान्तिमन्तं सौम्यं सौम्यवदनं सौम्यदृष्टिं माधुर्यगुणयुक्तं क्षमाशीलं प्रेक्षमाणस्य तस्य ते विषभृते अक्षिणी विध्याते। ततः क्रोधपुञ्जरूपः स
कल्प-'
मञ्जरी
॥१९८॥
टीका
ऐसा सोच कर क्रोध से 'धम-धम' की आवाज करता हुआ, शीघ्र ही कुपित हुआ, क्रोध से जलता हुआ, विषरूपी अग्नि का वमन करता हुवा फणा फेलाता हुवा भीषण फुफकार करता हुआ, मूरज की ओर देख कर प्रभु की ओर देखने लगा मगर दूसरों की तरह वह जले नहीं।
सर्पने दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी देखा, फिर भी प्रभु न जले। तब उसने प्रभु के पाँव के अंगूठे में डॅस लिया। डॅस कर 'यह मेरे ऊपर ही न गिर पड़े' यह सोच कर दूर सरक गया, तथापि भगवान गिरे नहीं। दूसरी और तीसरा बार इंसा, तब भी भगवान् न गिरे। कायोत्सर्ग से तनिक भी चलित न हुए। तब वह क्रोध से प्रभु को देखने लगा। शान्त मुद्रा वाले, अतुल कान्ति के धनी, सौम्य, सौम्यमुख, सौम्यदृष्टि, मधुरता के गुण से युक्त और क्षमाशील भगवान् को देखने वाले उस માફક સ્થિર થઈ ઉભે છે? હમણાં જ હું તેને જવાલા વડે બાળીને ભસ્મ કરી નાખું છું. ચંડકેશિક નાગ આવું. વિચારી ક્રોધથી ધમધમી ઉઠેલે શીઘ કે પાયમાન થતે ક્રોધાવેશથી નીકળતી જવાળાઓને ધારણ કરતે, વિષ રૂપી અગ્નિનું વમન કરતે, ફેણ વિસ્તૃત કરતે, ભીષણ ફૂંફાડા મારતે, સૂરજની સામે દેખતે ભગવાનની સામે દૃષ્ટિ . કરી, પરંતુ અન્ય માણસની માફક પ્રભુને બાળી શકશે નહિ. એ પ્રમાણે ચંડકેશિકે બીજીવાર-ત્રીજીવાર દષ્ટિ ભગવાન તરફ કરી; પરંતુ પ્રભુના શરીરને ઉની આંચ પણ આવી નહિ.
દષ્ટિ વડે જ્યારે ભગવાનને કાંઈ પણ અસર થઈ નહિ ત્યારે તેણે પ્રભુના અંગુઠે ડંખ માર્યો. ડંખ મારવાથી - આ માનવી વિષના જોરે કદાચ મારી ઉપર પડે તે બીકથી તે દૂર સરકી ગયે. છતાં પ્રભુને તે કાંઈ પણ થયું નહિ. આવી રીતે બે ત્રણ વાર ડંખ માર્યો, પણ તેમને કોઈ પણ પ્રકારની અસર જણાઈ નહિ, તેમ પડયા પણ નહિ અને
કાયોત્સર્ગમાંથી પણ ચુત થયા નહિ. આથી તેને ઘણું ક્રોધ વ્યાપી રહ્યો અને ક્રોધયુક્ત દષ્ટિથી એ સર્ષે ભગવાન તરફ जाष्टिपात यो. दृष्टिपात २di aid मुद्रावाणा अतुतिना घeी, सौम्य, सौम्यभुमी, भोभ्यष्टियुत, भपुर ।
चण्डकौशिकस्य भगवदुपार - प्रयोगः।।
सू०८६॥
विष
॥१९८॥
S
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सूत्रे
टीका
रचण्डकौशिकः स्तब्धो जातः। प्रभोः शान्तिबलेन तस्य क्रोधः शमितःतस्य क्रोधज्वालाया उपरि प्रभुणा क्षमा
म जलं सिक्तं, तेन स शान्तः शान्तस्वभावः संजातः। एतादृशं शान्तिसम्पन्नं चण्डकौशिकं दृष्ट्वा प्रभुरेवमवादीश्रीकल्प 'हे चण्डकौशिक ! अवबुध्यस्वावबुध्यस्व, क्रोधमयमुश्चावमुश्च, पूर्वभवे क्रोधवशेनैव कालमासे कालं कृत्वा त्वं सौ.
कल्प जातः पुनरपि पापं करोषि, तेन पुनरपि दुर्गतिं प्राप्स्यसि, अतः आत्मानं कल्याणमार्गे प्रवर्तयेति । एवं प्रभो
मञ्जरी ॥१९९॥ रमृतसमं प्रबोधवचनं श्रुत्वा चण्डकौशिको विचारसागरे पतितः पूर्वभवजाति स्मरति । तेन स निजपूर्वभवे क्रोध
प्रकृत्या निजमरणं विज्ञाय पश्चात्तापं कृत्वा हिंसकप्रकृति विमुच्य शान्तस्वभावः संजातः। ततः खलु स सर्पचंडकौशिक की विषभरी आँखें शान्त हो गई। क्रोध का पिंड वह चंडकौशिक स्तब्ध रह गया। प्रभु की शान्ति के बल से उसका क्रोध शांत हो गया। उसकी क्रोध-ज्वाला पर भगवान् ने क्षमा का जल सींच दिया। इस कारण वह शान्त और शान्तस्वभावो हो गया। इस प्रकार चंडकौशिक को शांतिसम्पन्न देखकर प्रभुने इस प्रकार कहा-'हे चंडकौशिक! बोध पाओ! क्रोध को छोड़ो, छोड़ो! पूर्व भव में क्रोध के. वशीभूत होकर ही कालमास में काल करके तुम सर्प हुए। अब फिर पाप कर रहे हो तो फिर दुर्गति पा ओगे, अतएव अपने आप को कल्याण-मार्ग में प्रवृत्त करो।'
. प्रभु के अमृत के समान यह प्रबोध-वचन सुनकर चंडकौशिक विचार-सागर में डूब गया। उसे कौशिकस्य पूर्व के जन्म का स्मरण हो आया। उससे वह पूर्वभव में क्रोध-प्रकृति से अपना मरण जान कर, पश्चात्ताप प्रतिबोधः। વાળા અને ક્ષમાશીલ ભગવાનને જોતાં ચંડકૌશિકની વિષમય આખે શાંત થઈ ગઈ ! ક્રોધના પિંડ સમાન એ
होम ॥८६॥ ચ કેશિક સ્તબ્ધ થઈ ગયે. પ્રભુના શાંતિબળ આગળ એને ક્રોધ શાંત પડી ગયે. તેની ક્રોધયુકત જવાળા ઉપર પ્રભુએ ક્ષમા રૂપી જળનું સિંચન કર્યું. આને લીધે તે શાંત અને શાંતસ્વભાવી થઈ ગયે તેને શાંત સ્વભાવી જોતાં પ્રભુએ તેને નીચે પ્રમાણે કહ્યું.
“डे यायि! सुज! सुर! सुजी!चन dिaicvel आप! भi धन 4 पाथी भने મરણ વખતે જ તું ક્રોધો બન્યો હોવાથી કાળ અર્થે મરણ પામી તું સર્પ બન્યા. ક્રોધની આવી માઠી ગતિ ભોગવી રહ્યો છે, છતાં હજુ તું ક્રોધને ભૂલવા માંગતા નથી. જે હજુ ક્રોધને વશ થઈ આવું પાપી જીવન જીવીશ તે આથી પણ વધારે માઠી ગતિને પામીશ, માટે હવે તું કલ્યાણના માર્ગને અપનાવ! અને જોધાવેશમાંથી હંમે- ॥१९९॥ शने भाटे छूटी on!"
' પ્રભુને આ અમૃત સમાન બેધ સાંભળી ચંડકેશિક નાગ વિચારસાગરમાં ડૂબી ગયે. વિચારશ્રેણી પર તેરે ચઢતાં તેને પૂર્વજન્મનું સ્મરણ થઈ આવ્યું. આ સ્મરણથી તેણે જોયું કે પૂર્વભવે કોઇ પ્રકૃતિમાં મરણ થવાથી
चण्ड
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श्रीकल्पसत्रे 1120011
6
漫漫漫漫漫聲帕真漁業務的黃蜂蜂局加強藏魚藏熊
त्रिशतं भक्तानि अनशनेन छेदयित्वा शुभेन ध्यानेन कालमासे कालं कृत्वा उत्कर्षतोऽष्टादशसागरोपमस्थिति के सहस्राराभिवेऽष्टमे देवलोके उत्कृष्टस्थितिक एकावतारो देवगे जातः । महाविदेहे स सेत्स्यति ॥ मु०८६ ॥ टीका- 'तए णं से चंण्डकोसिए' इत्यादि. ततः = श्रीवीरमभोः कायोत्सर्गपुरस्सर स्थित्यनन्तरं खलु सः दृष्टिविषः, चण्डकौशिकः = तन्नामा विषधरः = सर्पः क्रुद्धः = क्रोधयुक्तः सन् विलाद् बहिः बहिः प्रदेशे निस्सृत्य = निर्गत्य कायोत्सर्गस्थितं प्रभुं श्रीवीरस्वामिनं दृष्ट्वा अचिन्तयत् = चिन्तितवान् कीदृशः = कथम्भूतः अयम् = एष ममविलनिकटे स्थितः, मृत्युभयविप्रमुक्तः - मृत्योरपि निर्भयः मनुष्यो=मानवोऽस्ति, योऽयं स्थाणुरिव स्थिरत्वेन = निश्चलकरके और हिंसक प्रकृति का त्याग करके शान्तस्वभाव हो गया। तत्पश्चात् वह सर्प अनशन से तीस भक्त छेदन करके अर्थात् पन्द्रह दिनों का अनशन करके, शुभध्यान के साथ, कालनास में काल करके,
उत्कृष्ट स्थिति वाला और
अठारह सागरो की उत्कृष्ट स्थिति वाले सहवार नामक आठवें स्वर्ग में देव हुआ। वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा ||०८६ |
एकावतारी
टीका का अर्थ- वीर भगवान् के कायोत्सर्ग में स्थित हो जाने के पश्चात् दृष्टिविष चंडकौशिक
नामक सर्प क्रोध से युक्त होकर अपने बिल से बाहर निकला। बाहर निकल कर कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु को देख कर वह विचार करने लगा यह मृत्यु के भय से रहित मनुष्य कैसा है जो मेरे बिल के समीप આ ગતિને હું પામ્યો છું. આ વિચારને પરિણામે તેને પારાવાર પશ્ચાત્તાપ થયા અને હિંસામય પ્રવૃત્તિના યાગ કરી શાંત સ્વભાવી બની ગયા. શાંત સ્વભાવી થતાં તેણે પંદર દિવસનુ અણુશણુ આ શુભધ્યાનમાં રહી પૂર્વનાં પાપોનો હ્રદયપૂર્ણાંક પશ્ચાત્તાપ કરતા, પાપાને સંભારીને યાદ કરી તેની લાચના કરતા કાળ કરી ગયા-મરણ પામ્યા. અહીંથી મરી તે અઢાર સાગરોપમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા સહસ્રાર નામના આઠમા દેવલે કમાં, ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા એકાવતરા દેવ થયા. ત્યાંથી ચ્યવી મહાવિદેહક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થઈ કમ ના સથા ક્ષય કરી સિદ્ધગતિને પ્રાપ્ત કરશે. (સ્૦૮૬) ટીકાના અર્થ —“ પ્રાણ અને પ્રકૃતિ સાથે જ જાય” એ કહેવત ખાટી નથી. ગમે તેટલા પ્રયત્ન કરવામાં આવે, ગમે તેટલુ નુકશાન થાય પણ પેાતાના અસલ સ્વભાવ છૂટતા જ નથી . તદનુસાર આ સપે સઘળે પ્રદેશ રણ જેવે બનાવી દીધા તો પણ તેનો ક્રોધ શાંત થયો નહિ. પશુ રહિત તથા પંખીના ઉડ્ડયન વિશ્વના બની ગયે તો પશુ
તેને શાંતિ થઇ નહિ, અગ્નિમાં જેમ જેમ ઘાસ આદિનાખતા જઈએ તેમ તેમ અગ્નિ વધારે ને વધારે ભભૂકતો જાય છે; તેમ જેમ જેમ માગ વેરાન થતો ગયો તેમ તેમ તેને ક્રોધ શાંત થવાને બદલે વધતો જ ગયા. ન ભગવાનને દેખવાથી તો તેને ક્રોધ ઘણા જ વ્યાપી ગયે. કારણ કે અહીં, પશુપ ી આવાની હિંમત કરતું નથી. તો આ કાળા
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कल्प
मञ्जरी
टीका
म
चण्ड |
कौशिकस्य
भगवदुपरि
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प्रयोगः ।
||म्०८६ ॥
॥२० २०१॥
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मत्रे
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कल्पमञ्जरी टीका
चण्ड
म त्वेन स्थितोऽस्ति । तिष्ठतु नामैपः किन्तु सम्प्रत्येव-अधुनैव इम-पुरोवर्तिनम् अहम् विपज्यालया विषोग्रतेजसा
भस्मराशीकरोमि-भस्मञ्जीकरोमि, इतिकृत्वा एतद्विचिन्त्य क्रोधेन रोषेण धमधमायमानः='धमधमे'तिशब्दश्रीकल्प
कुर्वन् , आशुरुत-शीघ्रकुपितः 'मिसमिसायमानः'जानल्यमानो विषाग्नि वमन्उगिरन फणां विस्तारयन
विस्तृतां कुर्वन् भयङ्करै भीषणैः फुत्कारैः भयङ्करफुत्कारपूर्वकं दृष्टिं चक्षुः स्फारयन-विकाशयन् सूर=मूर्य निध्याय ॥२०१
निरीक्ष्य, स्वामिन श्रीवीरमभुं प्रलोकते प्रकर्षण पश्यति, किन्तु विपदृशा प्रलोक्यमानोऽपि सः श्रीवीरस्वामी न दद्यतेन भस्मीभवति, यथा येन प्रकारेण अन्ये माणिनो भस्मीभवन्ति । एवम् अनेन प्रकारेण-पूर्ववत् द्विरपि त्रिरपि=द्विवारमपि त्रिवारमपि प्रलोकते, तथापि सः-श्रीवीरस्वामी न दह्यते, तदा स सर्पः पादाङ्गष्ठेचरणाङ्गुष्ठाङ्गल्यवच्छेदेन दशति, दृष्ट्वा ‘मे उपरि=मम शरीरोपरि अयं मा न पतेत-इति कृत्वा इति विचार्य प्रत्यव
बष्कते=दुरिभवति, तथापि पादाङ्गष्ठे दंशनेनापि प्रभुनै पतति । एतावदेव न अपिच कायोत्सर्गात्कायोमें खड़ा है ? यह ढूंट के समान अडिग रूप से खड़ा हुआ है। यह भले खड़ा हो, परन्तु इसको अभी-अभी विष के उग्र तेज से राख का ढेर कर देता हूँ।
इस प्रकार विचार कर चण्डकौशिक रोषवश धमधमाट करने लगा। एकदम कुपित हो गया। क्रोध से जल उठा। विषरूपी अग्नि को निकालने लगा। भयानक फण फैलाकर, नेत्र फाड़ कर और सूर्य की
ओर देख कर भगवान की तरफ देखने लगा। किन्तु विषभरे नेत्रों से देखने पर भी प्रभु भस्म न हुए, जैसे दूसरे प्राणो भस्म हो जाते थे। इसी प्रकार उसने दूसरी बार भी देखा और तीसरी बार भी देखा। फिर भी वीर भगवान् भस्म न हुए। तब उस सर्प ने पैर के अंगूठे में काट खाया। काट कर उसने सोचा-'यह कहीं मेरे शरीर पर न गिर पड़े' अन एन वह दूर सरक गया। मगर अंगूठे में डंसने पर भी भगवान् नहीं गिरे। यही नहीं, किन्तु वे कायोत्सर्ग से लेश मात्र भी चलायमान न हुए। इसी प्रकार માથાના માનવીએ અહીં આવવાની હિંમત કેવી રીતે કરી? તેમાંય પણ ઝાડની માફક સ્થિર થઈને ઉભે રહ્યો છે? આવું અકલ્પનીય દશ્ય જોઈ ઘણે ધમધમી ઉઠયા અને ક્ષણવારમાં તે ભગવાનને હતા ન હતા કરી દેવા તૈયાર થયે.
દુષ્ટ માણસ વખત આવ્યે પિતાની દુષ્ટતા બતાવવામાં પાછી પાની કરતો નથી, અને તે અંગે તેના સઘળા પ્રયત કરી છૂટે છે તેમ ચંડકેશિક દષ્ટિ, ફેણ, ડંખ, વગેરે ધમપછાડા કર્યો. પણ જેમ જેમ તે ઉપાય અજમાવતો છે. ગયો તેમ તેમ તેના પ્રયત્ન નિષ્ફળ થવા લાગ્યા. આથી છેવટનું હથિયાર અજમાયશ કરવા સર્વ શક્તિઓને કેન્દ્રિત છે. કર ભગવાન સામે અતૂટ દષ્ટિપાત કર્યો, પરંતુ તેમાં નિષ્ફળતા અનુભવતાં તેને ક્રોધી સ્વભાવ શાંતપણે પરિણુમવા લાગે.
मा कौशिकस्य
THEATRE
का भगवदुपरि
विषप्रयोगः। ०८६॥
॥२०१॥
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श्रीकल्प
सत्रे ॥२०२॥
त्सर्गक्रियातः लेशमपि-किश्चिदपि न चलति। ततः स एवं पूर्ववत् द्विरपि त्रिरपि-द्विषारमपि त्रिवारमपि दशति, तथापि प्रभुनों पतति। तदा सः अमर्षण-क्रोधेन मभुं प्रलोकमानः पश्यन् आस्ते तिष्ठति । एवम् = अनेन प्रकारेण शान्तमुद्र-शान्ताकारम् अतुलकान्तिमन्त-निरुपमपभाऽलंकृत, सौम्यं मृदुस्वभावं, सौम्यवदनं
कल्पसौम्यमुखं सौम्यदृष्-िमृदुलदृश, माधुर्यगुणयुक्तं मधुरतारूपगुणालंकृतं, क्षमाशीलं क्षमास्वभावं तं-सर्वोत्कृष्टं भगवन्तं
मञ्जरी वीरस्वामिन प्रेक्षमाणस्य-अपश्यतः तस्य चण्डकौशिकस्य सर्पस्य ते कल्पान्तकालवाहिसदृशे विषभृते विषपूर्ण
टीका अक्षिणी-नेत्रे विध्याते शान्तिमापन्ने । ततः खलु क्रोधपुञ्जरूपः कोपराशिस्वरूपः-उग्रकोधी सचण्डकौशिकःसर्पः स्तब्धः कुण्ठितः जातः। प्रभोः श्रीवीरस्वामिनः, शान्तिबलेन-शान्तिप्रभावेण, तस्य-चण्डकौशिकस्य क्रोधः= कोपः शमितः। तस्य-चण्डकौशिकस्य क्रोधज्वालाया उपरि प्रभुगा श्रीवीरस्वामिना क्षमाजले शान्तिरूपं जलं सिक्तम् , तेन-क्षमाजलसेचनेन स शान्तः आकृत्या शान्तियुक्तः शान्तस्वभावाप्रकृत्या च शान्तियुक्तः संजातः। उसने दूसरी बार और तीसरी बार भी उँसा, तथापि प्रभु गिरे नहीं। तत्पश्चात् वह रोष के साथ प्रभु को देखता रहा। शांत आकार वाले, अनुपम कान्ति से मंडित, मृदुस्वभाव वाले, मधुरता से अलंकृत और क्षमाशील भगवान् वीर स्वामी को देखते हुए चंडकौशिक सर्प की, प्रलयकाल की आग के समान, विष चण्डसे परिपूर्ण आखें बुझ गई. अर्थात् शांत हो गई। तब क्रोध का पुंज-उग्र क्रोधी चंडकौशिक सपें कुंठित होना
कौशिकस्य गया। वीर प्रभु की शांति के प्रभाव से उसका क्रोध शांत हो गया। चंड कौशिक की क्रोध-ज्वाला पर म ०८६॥ भगवान् महावीर ने क्षमा का जल सींच दिया, अर्थात् अपनो क्षमा एवं शांति के प्रभाव से उसके क्रोध को नष्ट कर दिया। क्षमा का जल सींचने से वह आकृति से भी शांत हो गया और प्रकृति से भी शांत हो गया।
શાંતિનું સામાન્ય અંતમાં વ્યાપતાં તેને વિચાર કરવાને અમર પ્રાપ્ત થયે. અશાંતિમાં કાંઈ વિચાર આવતો નથી, તેમ જ એગ્ય નિરાકરણ પણ થઈ શકતું નથી. શાંતિ અને કોઈને ઉછાળો બનેનું અનુક્રમે વ્ય - પણું અને ઠરી જવું થતાં તેની વિચારધારા બદલાઈ. આવા પરમ દયાળુ ક્ષમાવંત અને શાંત મુદ્રાવાળા પુરુષને જઈ તેના અંતરમાં ઠંડક વળી અને માનભરી દષ્ટિએ તેમની તરફ જોઈ રહ્યો. અગ્નિ ઠંડા પાણીથી બુઝાય છે, શીત ગરમીથી ચાલી જાય છે, દરેક પદાર્થનો નાશ તેના વિરૂદ્ધ ગુણવાળા પદાર્થથી થાય છે એ પ્રકૃતિનો નિયમ છે.
॥२०२॥ જગતમાં યુદ્ધ બે જાતનાં પ્રવર્તી છે (૧) ઉષ્ણુયુદ્ધ-ધમધમાટ પ્રવૃત્તિવાળું હોય છે, તેનાથી સમસ્ત જગત પ્રવૃત્તિઓથી ધમધમી રહેલું દેખાય છે, જેમ હલન-ચલન-દડધામ-મારં મારા-પોકાર-કુરતા-શસ્ત્રસજાવટ-કોની દડધામ વિગેરે ચારેકોર નજરો નજર દેખ ય છે. ઈને ઘડી ભરની પણ ફુરસદ હોતી નથી. અગ્નિમાં જેમ જેમ કાઠાદિ નાખવામાં
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कल्पनामञ्जरी
टीका
श्रीकल्प
मुत्रे ॥२०॥
चण्ड
एतादृशम् ईदृश, शान्तिसम्पन्न शान्तिगुणवन्तं चप्डकोशिकं सर्प दृष्ट्वा प्रभु श्रीवारस्वामी एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अबादीत उक्तवान्-'हे चण्डकौशिक ! त्वम् बुध्यस्व बुध्यस्व-बोधं लभस्व बोधं लभस्व, तथा क्रोधं कोपम् , अवमुञ्चावमुञ्च सर्वथा त्यज, यतः पूर्वभवे क्रोधवशेनैव कालमासे कालं कृत्वा त्वं सर्पः संजातः। पुनरपि इह भवेऽपि पाप-क्रोधरूपं पापकर्म करोषि-उपार्जयसि तेन-पापकरणेन पुनरपि आगामिनि भवेऽपि दुर्गति नरकादिगर्हितगतिं प्राप्स्यसि । अतः अस्मात् कारणात्-क्रोधस्य दुर्गतिनिमित्तत्वात् त्वम् आत्मानं कल्याणमार्ग मोक्षमार्ग प्रवर्तय-मापय-इति । एवम् अनेन प्रकारेण प्रभोः श्रीवीरस्वामिनः अमृतसमं प्रबोधवचनं प्रबोधकरोपदेशं. श्रुत्वा श्रवणविषयीकृत्य चण्डकौशिको विचारसागरे-विचारसमुद्रे पतितः सन् पूर्वभाजाति पूर्वभवसम्बन्धिनी स्वकीयां जाति स्मरति । तेन स्वपूर्वभवजातिस्मरणेन स-चण्डकौशिकसर्पः निजपूर्वभवे स्वपूर्वजन्मनि क्रोधप्रकृत्या कोपस्वभावेन निजमरणं स्वकीयकालधर्ममाप्ति विज्ञाय अनुभूय पश्चात्तापं
इस प्रकार चंडकौशिक को शांत देखकर वीर प्रभु ने उससे कहा-हे चंडकौशिक ! तुम बूझो, बूझो बोध प्राप्त करो, बोध प्राप्त करो, क्रोध को तज दो, तज दो, अर्थात पूरी तरह त्याग दो, क्यों कि पूर्वभव में क्रोध के कारण ही तुम काल मास में काल करके साप हुए हो। इस भव में भी वही क्रोध रूप पाप कर रहे हो। इस पाप का आचरण करने से आगामी भव में भी नरक आदि गर्हित गति प्राप्त करोगे, क्यों कि क्रोध दुर्गति का कारण है, अतः तुम अपनी आत्मा को मोक्ष के मार्ग में लगाओ।
इस प्रकार के वीर भगवान् के बोधजनक उपदेश को सुनकर चंडकौशिक विचारों के समुद्र में डूब गया। उसे अपनी पूर्वभवसंबंधी जाति का स्मरण हो आया। पूर्वभव के जाति स्मरण से उसे विदित हो गया कि मैं क्रोध-प्रकृति के कारण ही कालधर्म को प्राप्त हुआ था। तब उसने पश्चात्ताप किया और અ.વે, તેન તેમ, તે આગળ ધપતો હોય છે, તેમ આ ગરમ યુદ્ધ, જેમ જેમ લડાતું જાય છે, તેમ તેમ તે વિસ્તૃત થતું જાય છે. (૨) શીત યુદ્ધ જુદા જ પ્રકારનું માલુમ પડે છે. તે બહાર દેખાતું નથી, તેની દેડધામ નજરે પડતી નથી; તે કંઈ પ્રકારે હલન-ચલન વાળું જણાતું નથી, પરંતુ આંતરિક પણે પ્રસરતું હોઈ સર્વ દાવાનળને ઠંડું ગાર બનાવી દે છે. જેમ હિમ એ ઠંડુ કુદરતી યુદ્ધ છે; તે શાકભાજી ઝાડ-પાન વિગેરેને બાળીને ભસ્મ કરે છે. તેમાં બહારને અગ્નિ હોતો નથી, પરંતુ અંદરની સખ્ત તાકત હોય છે. ઠંડા યુદ્ધને બહારનો આડંબર હોતો નથી, પણ તે અંદરખાનેથી સટ કામ કરી રહે છે. અને ગમે તેવા પદાર્થોને જડમૂળમાંથી ઉખેડીને નિબીજ કરી નાખે છે, તેમ ભગવાનની ઠડી આત્મ
શાંતી રૂપ શક્તિએ, સર્ષની કષાય રૂ૫ ઉષ્ણુ શક્તિ પર વિજય મેળવ્યું. આ વિજય પ્રસ્થાન રૂપે, સર્પને વિચાર % કરતા કરી મૂકો અને તેને આત્માના અસલ સ્વભાવ તરફ લઈ ગયે.
कौशिकस्य
पतिबोधः। मू०८६॥
॥२०॥
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श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥२०४॥
टीका
कृत्वा हिंसकप्रकृति धातुकस्वभावं विमुच्यम्परित्यज्य शान्तस्वभावः संजातः। ततः खलु सःचण्डकौशिकः सर्पः, त्रिंशतंत्रिंशत्संख्यानि भक्तानि अनशनेन छेदयित्वा शुभेन-प्रशस्तेन ध्यानेन कालमासे कालं कृत्वा उत्कर्षतः अष्टादशसागरोपमस्थितिके सहस्रारामिधे-सहस्रारनामके अष्टमे देवलोके उत्कृष्टस्थितिका अष्टादशसागरोपमस्थितिकः एकावतारएकमविको देवो जातः । स च देवायुस्समाप्त्यनन्तरं ततश्युत्वा महाविदेहे सेत्स्यति=सिद्धो भविष्यति ॥९०८६॥
मूलम् -एवं णं समणे भगवं महावीरे चंडकोसियसप्पोवरि उवयारं किच्चा ताओ अडवीओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता उत्तरवायालाभिहे गामे समागच्छइ । तत्थ एगो णागसेणो नाम गाहावई परिवसइ, तस्स एगो एव पुत्तो आसी, सो विदेसगओ बारसबरिसाओ अकालवुट्टी विव अकम्हा गिहे समागओ । अओ सो णागसेणो पुत्तागमणमहोच्छवम्मि विविहअसणपाणखाइमसाइमाइं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ णियग-सयण-संबंधि परियणे भजावेइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं पक बोववासपारणगे भिक्खायरियाए तम्स गिह अणुप्पनिटे । तेण नागसेणेण उकिटेणं भत्तिबहुमाणेणं भगवं खीरं पडिलाभिए। तए णं तस्स नागसेणस्स तेणं दवसुद्धणं दायगसुद्धणं पडिग्गाहगसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धगं भगमि पडिलाभिए समाणे गिहंसि य इमाई पंच दिवाई पाउन्भूयाई, तं जहा-सुहारा वुढा १, दसद्धवण्णे कुसुमे गिवाइए २, चेलुक्खेवे कए ३, आहयाओ दुंदुहीओ ४, अंतराऽवि य णं आगासंसि अहो दाणंर ति घुढे ५ य ॥मू०८७॥ अपने हिंसक स्वभाव को त्याग कर शांत स्वभाव धारण कर लिया। तत्पश्चात वह तीस भक्त अनशन से छेद कर, प्रशस्त ध्यान के साथ, कालमास में काल करके, अठारह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले सहस्रार नामक आठवें देवलोक में अठारह सागरोपम की स्थिति वाला, एक ही भव करके मोक्ष में जाने वाला देव हुआ। देवायु की समाप्ति के पश्चात्, वहाँ से च्युत होकर वह महाविदेह में सिद्ध होगा ।।मु०८६।।
ભગવાનના બે ધ વચનેએ, તેના પર જાદુઈ અસર કરી. તેના પૂર્વભવેનું સ્મરણ કરાવ્યું. નરક આદિ ભની પ્રાપ્તિને ૨થ એગ્ય ખ્યાલ કરાવ્યું. ભીષણ દુઃખની આગ હી કરવી. ક્રોધને છેડવા વારંવાર ઉપદેશ દેવા માંડશે. આવું અપૂર્વ જ્ઞાન અને દલને ઠંડક વળે તેવા વાતરાણી વચને સાંભળવાથી, તેનું મન શાંતરસે પરિણમવા લાગ્યું. અને તે રસમાં ઠરા, નિરાહારપણે રહી, ધ્યાનમગ્ન થયો. આત્મ ચિંતનમાં આયુષ્ય પુરું કરી, તે આઠમા દેવ કે
ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિએ, દેવપણે ઉત્પન્ન થયું. ત્યાંથી આવી એક ભવકરી, તે સિદ્ધગતિને પામશે. અહીંથી અવીને મહાક વિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લેશે. ત્યારે ભવજ ફક્ત છેલ્લો હશે! અને તે ભવમાં, સાધુપણું અંગિકાર કરી પૂર્ણ પુરુષાર્થ
વડે, આત્મ સ્વભાવ પ્રગટ કરી, શુદ્ધ દ્રવ્યને પ્રાપ્ત કરશે. અને આયુષ્ય પુરું કરી, સિદ્ધ દશાને મેળવશે. (સૂ૦૮૬)
ना. वाचालग्रामे
नागसेनगृहे और भगवतो
भिक्षाग्रहणम्। सू०८६॥
॥२०४॥
કરે
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥२०५॥
- छाया-एवं खलु श्रमगो भगवान् महावीरः चण्डकौशिकसोपरि उपकारं कृत्वा तस्या अटव्याः प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य उत्तरवाचालाभिधे ग्रामे समागच्छति। तत्रैको नागसेनो नाम गाथापतिः परिनसति, तस्यैक एव पुत्र आसीत् , स विदेशगतो द्वादशवर्वात् अकालवृष्टिरिवाऽकस्माद गृहं समागतः, अतः स नागसेनः पुत्राऽऽगमनमहोत्सवे विविधाशनपानखादिमस्वादिमानि उपस्कारयति, उपस्कार्य, मित्र-ज्ञाति-निजकस्वजन-सम्बन्धि-परिजनान् भोजयति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवान् पक्षोपवासपारणके भिक्षाचर्याय तस्य गृहमनुपविष्टः। तेन नागसेनेन उस्कृष्टेन भक्तिबहुमानेन भगवान् क्षीरं प्रतिलम्भितः। ततः खलु तस्य नागसेनस्य तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धन प्रतिग्राहकशुन त्रिविधेन त्रिकरणशद्धन भगवति प्रतिलम्भिते सति
मूल का अर्थ–एवं णं' इत्यादि। इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर चंडकौशिक सर्प पर उपकार करके उस अटवी से बाहर निकले। निकल कर उत्तरवाचाल नामक ग्राम में पधारे। वहाँ नागसेन नामक गाथापति रहता था। उसके एक ही पुत्र था। वह विदेश गया हुआ था। बारह वर्ष बाद अकालवृष्टि के समान वह अचानक ही घर आ गया अतः नागसेन ने पुत्र के आगमन के उत्सव में विविध प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवाये, और बनवा कर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, संबंधीजनों और परिजनों को भोजन जिमाया।
उस काल और उस समय में भगवान् अर्धमास खमण के पारणे के दिन, भिक्षाचर्या के लिये नागसेन के घर में प्रविष्ट हुए। नागसेन ने उत्कृष्ट भक्ति और बहुमान के साथ भगवान् को खीर बहराई। तब द्रव्यगुद्ध, दायक शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध-त्रिकरण शुद्ध आहार भगवान् को बहराने पर नागसेन के घर में यह पाँच
भजनो अर्थ'-'एवं णं' त्यादि. श्रमय भगवान महावीर, यशि सप ५२ 6481२ 1, मटवाया બહાર નીકળી ગયા. ત્યાંથી પ્રસ્થાન કરી, ‘ઉત્તર વાચાલ’ નામના ગામમાં પધાર્યા. આ ગામમાં “નાગસેન” નામનો ગાથાપતિ રહેતો હતો. તેને એક પુત્ર હતો, જે વિદેશમાં ગયો હતો. બાર વર્ષ બાદ, અકાલે વૃષ્ટિસમાન તે અચાનક પિતાને ઘેર આવી પહોંચે. પુત્રનું શુભ આગમન થતાં, નાગસેન ઘણે રાજી થઈ ગયે. અને તેની ખુશાલીમાં તેણે અનેક પ્રકારનાં મિષ્ટાન્નો બનાવી, વિવિધ પ્રકારના મેવા મિઠાઈએ તૈયાર કરાવી, મિત્રો-જ્ઞાતિજને, સ્વજને, પરિ
RSHI can yuali જને, સંબંધીઓ અને ઓળખાણ પિછ ભુવાળા સર્વને નેતર્યા, અને આનંદપૂર્વક ભોજન કરાવ્યાં. તે કાળે અને તે સમયે, ભગવાને “અમાસ ખમણ કર્યું હતું. અને તેમના પારણાનો દિવસ આવ્ય, અચાનક નાગસેનના ઘરમાં તે પધાર્યા. ન.ગલેને પૂર્ણ ભક્તિપૂર્વક અને માન સાથે, પ્રભુને ક્ષીરનું ભજન વહોરાવ્યું.
उत्तरवाचालग्रामे नागसेनगृहे भगवतो भिक्षाग्रहणम्। मू०८७॥
॥२०५॥
તો
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श्रीकल्पसूत्रे
॥२०६॥
गृहेच इमानि पश्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-वसुधारा दृष्टा १, दशार्द्धवर्णानि कुसुमानि निपातितानि २, चेलोस्क्षेपः कृतः ३, आता दुन्दुभयः ४ अन्तराऽपि च खलु आकाशे अहोदानमहोदानम् इति घुषितं ५ च ||सू०८७ || टीका--' एवं णं समणे भगवं' इत्यादि । एवम् उक्तप्रकारेण खलु श्रमणो भगवान् महावीर :चण्डकौशिक सर्पोपरि उपकारं = प्रबोधनेन सिद्धिभागित्वलक्षणमुपकारं कृत्वा तस्याः चण्डकौशिकसर्पाधिष्ठितायाः अटव्याः प्रतिनिष्क्राम्यति = प्रतिनिःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य उत्तरवाचालाभिधे - उत्तरवाचालनामके ग्रामे समागच्छति । तत्र एको नागसेनो नाम गाथापतिः परिवसति, तस्य = गाथापतेः एक एव पुत्रः आसीत् । सः - गाथापतिपुत्रो विदेशगतः = परदेशगतः सन् द्वादशवर्षात् - द्वादशं वर्षम् अतिवाह्य अकालदृष्टिरिव = आकस्मिकवर्षावत् अकस्मात्=अतर्कितं गृहे समागतः । श्रतः पुत्रागमनाद्धेतोः स नागसेनो गाथापतिः, पुत्रागमनमहोत्सवे = दिव्य प्रादुर्भूत हुए। वे इस प्रकार हैं- (१) सोने की वर्षा हुई (२) पाँच रंग के फूलों की वर्षा हुई (३) वस्त्रों की वर्षा हुई (४) दुंदुभयका घोष हुआ और आकाशमें 'अहो दान, अहो दान' की ध्वनि हुई | ०८७ ॥ टीका का अर्थ - इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने चंडकौशिक को प्रतिबोध देकर मोक्ष का भागी बना कर उसका उपकार किया । तदनन्तर जिस अटवी में चंडकौशिक रहता था, उस अटवी से प्रभु बाहर निकले । बाहर निकल कर उत्तरवाचाल नामक ग्राम में पधारे। उस ग्राम में नागसेन नाम का एक गृहस्थ रहता था। उसका एकाकी पुत्र विदेश गया हुआ था । बारह वर्ष के बाद, अकाल - वर्षा के समान, अचानक ही वह घर आ पहुँचा । पुत्र के आगमन को खूशी के उपलक्ष्य में नागसेन ने बड़ा भारी
જૈનર-લેનાર અને દાતવ્ય ત્રણે શુદ્ધ હોવ થી, નાગસેનને ઘેર પાંચ દિન્ય વસ્તુઓ પ્રગટ થઇ. તે આ છે.(१) सुवार्थी वृष्टि (२) पयरंगी डोनी वृष्टि (3) डिल्य वस्त्रोनी वृष्टि (४) हुहुलीनाह (4) 'महेोहान-मोहान' ना नयना लय योा। मने ध्वनि (सू०८७)
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ટીકાનો અ—ભગવાન મહાવીરે, ચંડકેાશિકને પ્રતિબંધ આપી, મેાક્ષના અધિકારી બનાવ્યા, ને તેને અનેક રીતે ઉપકૃત કર્યાં. પાતાનુ` કા` સફળ થયેલુ' જોઇ, મહાન ભવી જીવને તેનું શુદ્ધપણું બતાવી, ભગવાન તે સ્થાનનેછાડી ગયા. પ્રભુને તો સ્વય' વિકાસ સિવાય બીજું કાંઇ જોઈતુ ન હતું. સ્વયં વિકાસ દરમ્યાન, જો બીજા જીવા. પાતાનું નિમિત્ત પામી, સવળી દશા અનુભવે તો, તેમને તે વધારે પ્રિય હતુ.
જયાં જયાં પ્રભુ સ્વયં ઉત્થાન માટે પધાર્યા, ત્યાંત્યાં તેમને અનેક દુઃખમય કષ્ટોનાં બીજ, પાતેપૂર્વે વાવેલાં હતાં. અને તેનો ઉદય આવતાં, સમ પરિણામી રહી, જ્ઞાતા-દ્રષ્ટા તરીકે, તેમણે તે જોયા કર્યો. આવી રીતે વતતાં પ્રભુમાં સ્થિરતા
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कल्प
मञ्जरी
टीका
उत्तरवाचालग्रामे नागसेन गृहे भगवतो
भिक्षा
ग्रहणम् ।
॥मू०८७॥
॥२०६॥
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कल्पमञ्जरी टीका
स्वपुत्रस्य गृहाऽऽगमननिमित्तकबृहदुत्सवे विविधाशनपान वादिमस्वादिमानि-अनेकप्रकारकाऽऽहारपान खाद्यस्वा
धानि उपस्कारयति-पाचकनिष्पादयति, उपकार्य-निष्पाद्य मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनान् श्रीकल्प
तत्र-मित्राणिप्रसिद्धानि, ज्ञातया सजातयः, निजकाः स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजनाः पितृव्यादयः, सम्बधिजनः सूत्रे
पुत्रपुत्रीणां श्वशुरादयः, परिजनाः दासीदासादयः, इत्येतान् भोजयति, तस्मिन काले तस्मिन् समये भग॥२०७||
वान् श्रीवीरस्वामी पक्षोपवासपारण के अर्द्धमासक्षपणपारणादिवसे भिक्षाचर्या यै तस्य-गाथापतेः गृहम् अनुमविष्टः। ततः तेन नागसेनेन गाथापतिना उत्कृष्टेन भक्तिबहुमानेन भत्तया बहुमानेन च भगवान् श्रीवीरस्वामी क्षीरं पायसं प्रतिलम्भितः। ततः खलु तेन द्रव्यशुदेन, दायकशुद्धन, प्रतिग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धन भगवति महावीरे प्रतिलम्भिते प्रतिग्राहिते सति तस्य नागसेनस्य गृहे इमानि वक्ष्यमाणानि पञ्च दिव्यानि वस्तनि पादर्भतानि देवैः प्रकटितान्यभवन् , तद्यथा-दे वैवसुधारा वृष्टा १, दशादेवणोंनि पञ्चवणोनि कुसुमानिपुष्पाणि निपातितानि २, चेलोत्क्षेपः वसवृष्टिः कृतः ३, दुन्दुभयः आहता-वादिताः ४, अन्तराऽपि च खलु आकाशे 'अहो दानम् अहो दानम्' इति घुषितम्-उच्चरुचारितम् ॥मू०८७।। उत्सव मनाया। उस में नाना तरह के आन, पान, खाद्य और स्वाद्य : भोजन पाचकों से बनवाये । बनवाकर मित्रों को, सजातीयों को, पुत्र आदि निजक जनों को, काका आदि स्वजनों को, रिश्तेदारों को तथा दास-दासी आदि परिजनों को जिमाया। उस काल उस समय में भगवान् वीर प्रभु अर्धमास खमण के पारणक के दिन भिक्षाचर्या (गोचरी) के लिए उस गाथापति के घर में प्रविष्ट हुए। नागसेन गाथापति ने उत्कृष्ट भक्ति और बहुमान से भगवान् को खीर से प्रतिलम्बित किया-खोर बहराई । तब द्रव्यश्रुद्ध, दायकशुद्ध और पात्रशुद्ध इस प्रकार त्रिविधशुद्ध और त्रिकरण (मन, वचन, काय) से शुद्ध दान देने से नागसेन के घर में आगे कही जाने वाली पाँच दिव्य वस्तुओं का प्रादुर्भाव हुआ, अर्थात् पांचदिव्य વધતી ગઈ અને બહારનાં દુઃખના નિમિત્તો ઉત્પન્ન કરનાર છે પણ, ભગવાનની અતુલ ક્ષમા અને ધીરજ તેમજ સહન શકિતને જોઈ, પ્રતિબંધિત થયાં. તેમાંના ઘણાં, વપરાક્રમ ફેરવી ભગીરથ પુરુષાર્થ આદરી, પાંચમી ગતિએ જશે. અર્થાત મોક્ષ પામશે.
પ્રભુ આત્મ-સ્થિરતામાં લય થવા તપશ્ચર્યા કરતા અને તે પંદર-પંદર દિવસ સુધી ચાલ્યા કરતી. આવી તપશ્ચર્યાને પારણે કઈ પણ યોગ્ય ઘરમાં ભિક્ષાર્થે પહોંચી જતા. ત્યાં પોતાના હાથને પાત્ર બનાવી, ઉભા રહેતા, અને ધર ધણી નિર્દોષ Janार मापे तेनु ७५ ४२ता...
भगवति प्रतिलाभिते नागसेनगृहे पश्चदिव्यप्रकटनम् । सू०८७॥
॥२०७॥
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श्रीकल्पसूत्रे 1120611
PALLAVALEEL
मूलम् -- तरणं से समणे भगवं महावीरे तओ गामाओ निग्गच्छर, निग्गच्छित्ता सेयंबियाए नगरीए मज्झं-मज्झेण विहरमाणे जेणेव सुरहिपुरं णयरं तेणेत्र उवागच्छइ । तत्थ णं पुढवीए पहाडियं विव सागरमित्र उच्छलंत तरंगतरंगियं गंगाणई उत्तरिउकामे भगवं तत्तीरे आगमीअ । तरणं से भगवं नावियस्स उग्गहेणं तीए नावाए ठिए । चलमाणी सा नावा अगाहजलम्मि पत्ता । तत्थ सुदादानामे एगो नागकुमारदेवो नित्रसी। जो वासुदेवभवे भगवओ जीवेण हयस्स सीहस्स जीवो आसि । सो सुदादादेवो भगवं दणं yoadरं मरिय कोहेण धमधमेंतो आसुरतो मिसिमिसेमाणो भगवओ पासे आगंतूण आगासट्टिओ किलकिलरखें कुणमाणो एवं वयासी -- “रे भिक्खू ! कत्थ गच्छसि ? चिट्ठ चिट्ठ" एवं कहिय कप्पंतकालपवणमित्र भयंकरंट्टाभि वाउं विउन्त्रिय उत्रसम्गं करेइ । तं जहा वेग संचट्टगवाउणा रुक्त्वा पडिया, पव्त्रया कंपिया, धूलिपडले अउलो अंधयारो जाओ, जलुम्मीओ आगासं फुसिउभित्र उच्छलंति पच्छा पडंति य, गंगाए जेलम्म सा नावा वि उवरि आगासे उप्पड निवडइ य, तेग दोलायमाणीए तीए नावाए खंभो भग्गो, कपट्टाणि तुडियाणि, पत्रणरोहिया पडागा फालिया, नात्रट्ठिया जगा भयभीया सयसयजीवणं संकेमाणा कलकल करिउमारभिं । नावाए अत्तरूत्रो नाविओ भउन्ग्गिो किंकायन्त्रमूढो संजाओ ।
ते काणं तेणं समएणं समणस्स भगवत्र महावीरस्स पुव्वभवमित्तेर्हि कंबल - संवलाभिहेहिं दोहिं वैमाणियं देवेहिं भोहिणा सुदादाभिहनागकुमारदेवकयं उवसगं आभोगिय तत्थ आगमिय तं निवारिय, सा नावा तीरे ठाविया । नओ ते देवा सुदाढ नागकुमारदेवं निव्भच्छिय हणिउमुज्जया, करुणदचित्तेण भगवया ते निवारिया । तत्र देवा नियरूवं पगडिय भगवं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता जामेत्र दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
मासायरे वीरागे भगवं उपसग कारगे सुदादादेवे कोहभावं उबगारकारगे कंवलसंवसु देवेसु य रागभावं न किंविवि करीअ, उभयत्थनि समभावं दरिसी ।
तएणं नावट्ठिया सव्वे जणा नियजीवणदायारं सयलजगजीवरक्खगं भगवं जाणिय भविहुमाणेणं थुइ ||०८८||
वस्तुएं प्रगट हुई। वे यह हैं - (१) देवों ने स्वर्ण की वर्षा की (२) पाँच वर्णों के पुष्पों की वर्षा की (३) वस्त्रों की दृष्टि की (४) दुंदुभियां बजाई और (५) आकाश में 'अहोदान, अहोदान' को घोषणा की ।।०८७|| લેનાર-દેનાર અને દાતવ્ય વસ્તુ-આ ત્રણે મન, વચન, કાયારૂપ ત્રણ કરણથી શુદ્ધ હાવાને લીધે ત્યાં પાંચ દિવ્ય વસ્તુએ પ્રગટ થતી નાગસેન’ જેવા કોઇ મહાન પુણ્યશાળી હોય તેને ત્યાંજ આવા ૫રણાના જોગ બનતો. (સ્૦૮૭)
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興藏身
कल्प
मञ्जरी
टीका
गङ्गानद्यां
भगवतः
सुदंष्ट्र
देवकृतीप्रसर्ग वर्णनम् ।
|| मू०८८||
॥२०८॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
गङ्गानद्यां भगवतः
छाया-ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरस्ततो ग्रामानिर्गच्छति, निर्गत्य श्वेताम्बिकाया नगर्या
मध्यमध्येन विहरमाणो यत्रैव सुरभिपुरं नगरं तत्रैव उपागच्छति । तत्र खलु पृथिव्याः पट्टशाटिकामिव सागरमिश्रीकल्प
वोच्छलत्तरङ्गतरङ्गिता गङ्गानदी तरीतुकामो भगवान् तत्तीरे आगच्छत् । ततः खलु स भगवान् नाविकस्य
अवग्रहेण तस्यां नावि स्थितः। चलन्ती सा नौरगाधजले प्राप्ता | तत्र सुदंष्ट्रनामा एको नागकुमारदेवो न्यव॥२०॥
सत् । यस्त्रिपृष्ठवासुदेवभवे भगवतो जीवेन हतस्य सिंहस्य जीव आसीत् । स सुदंष्टदेवो भगवन्तं दृष्ट्वा पूर्व वैरं स्मृत्वा क्रोधेन धमधमायमानः आशुरक्तो मिसमिसायमानो भगवतः पाचे आगत्य आकाशस्थितः किलकिलरवं
__मूल का अर्थ-'तएणं' इत्यादि । तत्पश्चा। श्रमण भगवान् महावीर उस उत्तरवाचाल गाव से बाहर निकलते हैं। वहीं निकल कर श्वेताम्बिका नगरी के बीचों बीच होकर जहाँ सुरभिपुर नामक नगर था, वहीं पधारते हैं। वहाँ पृथिवी की चत साड़ी के सदृश तथा समुद्र के समान उछलती हुई तरंगों से तरंगित गंगा नदी को पार करने की इच्छा से भगवान् उसके किनारे आये। तत्पश्चात् नाविक की आज्ञा लेकर भगवान् नौका पर आरूढ़ हुए। चलतो-चलती वह नौका अथाह जल में जा पहुँची। वहाँ मुदंष्ट्र नामक सिंह का एक नाग कुमार देव निवास करता था, जो त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में भगवान् के द्वारा मारे गये सिंहका जीव था। अर्थात् उस पूर्व भव में भगवान् त्रिपृष्ठ वासुदेव थे, और यह देव सिंह था। त्रिपृष्ठ वासुदेव ने उस सिंह को मारा था। अतः सुदंष्ट्र देव भगवान् को देखकर, पूर्वंभव के वैर का स्मरण कर के, क्रोध से धमधमाता हुआ, क्रुद्ध होता हुआ, क्रोध से जलता हुआ, भगवान के पास आकर, अधर में स्थित होकर
भूबने। मथ-'तए णं' या. त्या२५छी लगवान उत्तर वायनामना आभमाथी यथा समये माजी તાંબિકા નગરીની મધ્યમાંથી પસાર થઈ સુરભિપુર નામના નગરમાં પધાર્યા, જાણે પૃથ્વીએ ધવલવસ્ત્ર ધારણ કર્યું હોય તેવાં નિર્મળ હિલેળાં ખાતાં પાણી વાળી અને વિશાળ કાયા સમુદ્રની જેમ મોજાં ઉછાળતી એવી ગંગા નદીના તટે પ્રભુ પધાર્યા અને નદીને પેલે પાર જવા ઇચ્છા કરી. ત્યાં પડેલી નૌકાના માલિકની આજ્ઞા લઈ ભગવાન તે નૌકામાં બેઠા. પાણીનો પંથ કાપતી આ નોકા અગાધ જળ મધ્યે આવી પહોંચી. આ મધ્ય ભાગમાં ‘સુદંષ્ટ્રક
નામને એક નાગકુમાર દેવ નિવાસ કરી રહ્યો હતો. ત્રિપૃષ્ઠવાસુદેવના ભવમાં ભગવાને જે સિંહને માર્યો હતો તે જ 10 સિંહને આ જીવ હતો અને તે “સુદંષ્ટ્રક’ નામના નાગકુમાર તરીકે અહીં જન્મ્યા હતા.
આ સુદંક દેવે ભગવાનને જોયા કે તરત જ પૂર્વભવના વેરતું મરણ થઈ આવ્યું. સ્મરણ માત્રથી તે Jain Education
iીર ક્રોધાગ્નિથી બળવા લાગ્યો અને તરત જ ભગવાન પાસે આવી હવામાં અદ્ધર ઉભે રહી “કિલ-કિલ’ અવાજ કરતાં Stone
सुदंष्ट्र
देवकृतो
पसर्ग
वर्णनम्। मू०८८॥
॥२०९॥
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प
ANNEL
श्रीकल्प
मृत्रे ॥२१०॥
कल्पमञ्जरी टीका
कुर्वन् एवमवादीत-रे भिक्षो ! कुत्र गच्छसि ? तिष्ठ तिष्ठ' एवं कथयित्वा कल्पान्तकालपवनमिव संवर्तकाभिधं वायु विकृत्य उपसर्ग करोति, तद्यथा-तेन संवर्तकवायुना वृक्षाः पतिताः, पर्वताः कम्मिताः, धूलिपटलेन अतुलोऽन्धकारो जातः। जलोर्मय आकाशं स्पष्टुमिव उच्छलन्ति पश्चात् पतन्ति च, गङ्गायाः जले सा नौरपि उपरि आकाशे उत्पतति निपतति च, तेन दोलायमानायाः तस्या नावः स्तम्भो भग्नः, काष्ठपट्टानि त्रुटितानि, पवनरोधिका पता रोधिका पताका स्फटिता. नौस्थिता जनाः भयभीताः स्व-स्व-जीवनं शङ्कमानाः कलकलरवं कर्तुमारभन्त । नाव आत्मरूपो नाविको भयोद्विग्नः किंकर्तव्यमूढः सनातः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो 'किल-किल' शब्द करता हुआ बोला-'रे भिक्षु, कहाँ जाता है ? ठहर, ठहर !' इस प्रकार कह कर उसने प्रलयकालीन पवन के समान संवर्तक नामक वायु को विकुर्वणा करके उपसर्ग किया। उपसर्ग इस प्रकार हुआ-उस मंवर्तक से वृक्ष गिर गये, पर्वत काप उठे, धूल का ऐसा पटल उठा कि अतुल अंधकार छा गया। जल की हिलोरें जैसे आकाश को स्पर्श करने के लिए उपर उछलतीं और बाद में गिरती थीं। गंगा के पानी में वह नौका भी आकाश में उड़ने और नीचे गिरने लगी। डगमगाने के कारण उस नौका का स्तंभ टूट गया। काठ के पटिये टूट गये । हवा को रोकने वाली पताका (पाल) फट गई। नौका पर आरूढ़ जन भयभीत हो गये, जीवन के विषय में शंका करते हुए कल-कल शब्द करने लगे। नौका का नाविक चिन्तित हो उठा, भय के कारण खिन्न हो गया और किं कर्तव्यमूढ़ हो गया। બાલવા લાગ્યો-“હે ભિક્ષક! કયાં જાય છે? ઉભો રહે!' આમ કહી પ્રલય નીપજાવે તેવાં સંવર્તક નામના વાયુને વૈક્રિય શક્તિ દ્વારા પેદા કર્યો અને ભગવાનને ઉપસર્ગ આપવા તૈયાર થયે. આખા ઉપસર્ગનું વર્ણન નીચે મુજબ છે –
આ પ્રલયકારી પવનને લીધે વૃક્ષે ઉખડીને પડવા લાગ્યાં, પર્વતે કંપવા લાગ્યાં, ધૂળને વટેળ ચડાવી તેણે સર્વત્ર અંધકાર પાથરી દીધું. મેજાએ ખૂબ ઉછળવા લાગ્યાં, આ મેજાએ જાણે આકાશને સ્પર્શી રહ્યા હેય તેમ જણાવા લાગ્યાં. આ મોજાંએ ઊંચે ચઢીને નીચે પટકાતી વેળાએ ભયંકર ગર્જનાઓ થતી હતી. આ મોજાંઓને કારણે ગંગાના પાણીમાં વહેતી આ નૌકા પણ આકાશમાં ઉછળતી અને ફરી પાછી નીચે ગબડી પડતી હતી. ડગમગવાને કારણે તેને સ્થંભ તૂટી ગયે: લાકડાનાં પાટિયાં પણ વેરવિખેર થઈ ગયાં. હવાને આધારે ફરફરતો સઢ પણ ફાટી ગયે. હલેસાં કાંઈ કામનો ન રહ્યાં. નૌકામાં બેઠેલાં માણસો ભયભીત થઈ ગયાં. જીવનદેરી તૂટી જવાની શંકાથી હાહાકાર થવા મંડ. નૌકાને નાવિક પણ ચિંતાતુર થઈ ગયે. ભયના કારણે તેને ખૂબ ખિન્નતા व्यापी ४. त भूद भने विद्यारशून्य थई गयेor Private s Personal use only
गङ्गानद्यां भगवतः सुदंष्ट्र देवकृतोपसर्ग
वर्णनम्। PER०८८॥
॥२१०॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥२११ ॥
鄭興
藏
महावीरस्य पूर्वभवमित्राभ्यां कम्बल - शम्बलाभिधाभ्यां द्वाभ्यां वैमानिकदेवाभ्याम् अवधिना सुदंष्ट्राभिधनागकुमार देवकृत मुपसर्गमायोग्य तत्रागत्य तं निवार्य सा नौस्तीरे स्थापिता । ततस्तौ देवौ सुदंष्ट्रनागकुमारदेवं निर्भयै हन्तुमुद्यतौ ! करुणार्द्रचित्तेन भगवता तौ निवारितौ । ततः खलु तौ द्वावपि देवौ निजरूत्रं प्रकटय्य भगवन्तं वन्देते नमस्यतः वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतौ तामेव दिशं प्रतिगतौ । क्षमासागरो वीतरागो भगवान् उपसर्ग कारके सुदंष्ट्रदेवे क्रोधभावम्, उपकारकारकयोः कम्बल-शम्बलयो Garter रागभावं न किञ्चिदपि अकरोत् उभयत्रापि समभावमदर्शयत् ।
ततः खलु नौस्थिताः सर्वे जना निजजीवनदातारं सकलजगज्जीवरक्षकं भगवन्तं ज्ञात्वा भक्तिवहुमानेनाऽस्तुवन् ॥ ०८८ ॥
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पूर्वभव के मित्र कम्बल और शम्बल नामक दो वैमानिक देवों ने अवधिज्ञान से सुदंष्ट्र नामक नागकुमार देव के द्वारा किया हुआ उपसर्ग जाना । वे वहाँ श्राये और उसे रोक कर नौका किनारे पर रख दी। तत्पश्चात् उन दोनों देवों ने सुदंष्ट्र नागकुमार देव को फटकारा और वे स्वकृत अपराध का दण्ड देने को उद्यत हुए। मगर करुणामयचित्तवाले भगवान् ने उन्हे रोक दिया तब उन दोनों देवोंने अपना असली रूप प्रगट कर के भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना और नमकार करके जिस दिशा से प्रकट हुए थे, उसी दिशा में चले गये । क्षमा के सागर वीतराग भगवान् ने उपसर्ग करने वाले सुदंष्ट्र देव पर किंचित् भी द्वेष नहीं किया, और उपकार करने वाले कंबल शंबल देवों पर किंचित् भी राग नहीं किया। उन्हों ने दोनों पर
તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના પૂર્વભવના કબલ અને શબલ નામના એ વૈમાનિક દેવમિત્રોએ અવધિજ્ઞાન દ્વારા ભગવાન ઉપર વરસતી આ દુઃખની હેલી જાણી લીધી. ‘સુદÇ' નામના નાગદેવ આ વિતક વરતાવી રહેલ છે તે પણ જ્ઞાનના પ્રભાવે જાણ્યું. આ બન્ને દેવમિત્રો ત્યાં આવ્યા અને નૌકાને કિનારા પર સહીસલામત લઇ આવ્યા અને નાગકુમાર દેવને વધારે ઉપસગ કરતા રોકી પાડયા. ત્યારબાદ આ બન્ને દેવાએ નાગકુમાર દેવને પડકાર્યો અને માર મારવા તૈયાર થયા; પરંતુ કરૂણાના સાગર ભગવાને આ બન્ને દેવાને તેમ કરતા રાકયા. દેવાએ પાતાનુ મૂળ સ્વરૂપ પ્રગટ કર્યું અને વંદના નમસ્કાર કરી જે દિશામાંથી આવ્યા હતા તે દિશામાં ચાલ્યા ગયા. ક્ષમાના સાગર એવા વીતરાગી પ્રભુએ વિતક વિતાડનાર સુદ્ર દેવ ઉપર જરા પણ દ્વેષ કર્યો નહિ; તેમ જ ઉપકાર કરવાવાળા કબલ અને શ'બલ દેવા પર જરા પણ અનુરાગ ભાવ કર્યો નહિ. ભગવાને બન્ને જણા ઉપર
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कल्प
मञ्जरी
टीका
गङ्गानद्यां भगवतः सुदंष्ट्र देवकृतीसर्ग
वर्णनम् ।
॥ मु०८८||
॥२११॥
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श्रीकल्प
कल्पनामञ्जरी टीका
॥२१२॥
टीका-'तए णं' से समणे' इत्यादि । ततः नागसेनगृहे पारणानन्तरं खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः ततः तस्मात् उत्तरवाचालाभिधाद ग्रामात् निर्गच्छति-निःसरति, निर्गत्य=निःसृत्य श्वेताम्बिकाया नगर्या मध्यमध्ये विहरमाणो गच्छन् यत्रैव प्रदेशे सुरभिपुरं नगरं तत्रैव उपागच्छति। तत्र सुरभिपुरनगरसमीपे खलु पृथिव्याः पट्टशाटिकामिव-पट्टाम्बरायमाणाम् , सागरमिव-समुद्रमिव उच्छलत्तरङ्गतरङ्गिताम्-उद्गच्छत्तरङ्गवतीम् गङ्गानदीम् उत्तरीतुकामः-पारंगन्तुमिच्छुः, भगवान तत्तीरे-गङ्गानदीतटे आगच्छत् । ततः नदीतीरागमनानन्तरं खलु स भगवान् नाविकस्य अवग्रहेण आज्ञया तस्यां नावि-नौकायां स्थित:उपविष्टोऽभवत् । ततो नद्यां चलन्ती तरन्ती सा नौः अगाधजले प्राप्ता-आगता। तत्र=अगाधजलमध्ये सुदंष्ट्रनामा एको नागकुमारदेवो न्यवसत् । ही समभाव प्रदर्शित किया। तत्पश्चात् नौका पर सवार सभी जनों ने भगवान् को अपना जीवनदाता और सकल जगत् के जीवों का रक्षक जान कर भक्ति और बहुमान के साथ उन की स्तुति की ।मु०८८॥
टीका का अर्थ-नागसेन के घर पारणा करने के पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर उस उत्तरवाचाल नामक ग्राम से निकले । निकल कर श्वेताम्बिका नगरी के बीचोबीच हो कर विचरते हुए जिस प्रदेश में सुरभिपुर नगर था वहीं पहुँचे। सुरभिपुर नगर के निकट पृथ्वी के पटाम्बर के समान तथा समुद्र के सदृश उछलती हिलोरों से हिलुरती हुई गंगा नदी को पार करने की इच्छा करने वाले प्रभु गंगा के किनारे पर पधारे। नदी-किनारे आने के अनन्तर भगवान् नाविक की आज्ञा लेकर उस नौका में विराजे । चलती-चलती नौका अगाध जल में आई। उस अगाध जल में सुदंष्ट्र नामक एक नागकुमार देव સમભાવ જ પ્રગટ કર્યો. નૌકા સહીસલામત આવતાં તેની અંદર બેઠેલા મુસાફરોએ પ્રભુને જીવનદાતા માની તેમ જ પ્ર ણી માત્રના રક્ષક માની તેમની ભક્તિ અને બહુમાન કર્યા. (સૂ૦૮૮)
ટીકનો અર્થ અચાનક નાગસેનના પુણ્યના બળે તેના ઘેર પ્રભુનું પારણું થયું. ત્યારપછી પ્રભુ ઉત્તરવા ચાલ ગામમાં ચાલી નીકળ્યા. “ઉત્તરવાચાલ’ ગામથી સુરભિપુર જવામાં વચ્ચે તાંબિકા નગરી આવતી હતી. રસ્તે નગરીની મધ્યમાં થઈને જ પસાર થતા હતા. સુરભિપુર નગરીની નજીકમાં થઈને હિલોળા મારતી સફેદ દૂધ જેવી ગંગા નદી વહેતી હતી. આ નદી ઓળંગીને સુરભિપુર નગરમાં પહોંચાય તેમ હતું. લોકે આ કાંઠેથી સામે કાંઠે અવરજવર હેડકા દ્વારા કરી રહ્યા હતા. બન્ને સામસામે કાંઠે આવેલાં ગામને તમામ જાતને વ્યવહાર નાવડાઓ મારફત જ ચાલી રહ્યો હતો. ભગવાન સામે કાંઠેના ગામે જવા ઈચ્છતા હતા તેથી તેઓ નાવિકની રજા લઈ તેમાં બેસી ગયા. અહીં દરિયા જેવી વિશાલ ગંગા નદીમાં સુદંષ્ટ્ર નામને નાગકુમાર દેવ વસતે હતે.
मगङ्गानां
भगवतः सुदेष्ट्र देवकृतीपसर्ग वर्णनम्।
मू०८८॥
॥२१२॥
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श्रीकल्पमुत्रे २१३॥
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賞風
यः सुदंष्ट्रदेवः त्रिपृष्ठवासुदेवभवे भगवतो जीवेन हतस्य सिंहस्य जीव आसीत् । सः = अगाधजलवासी सुदंष्ट्रदेवो भगवन्तं =श्रीवीरस्वामिनं दृष्ट्वा पूर्व वैरं=स्मृत्वा क्रोधेन धमधमायमानः = " घमघम" इति शब्दं कुर्वन् आशुरक्तः=शीघ्रारुणलोचनः मिस मिसायमानः = क्रोधाग्निना जाज्वल्यमानश्च सन् भगवतः - धीवीरप्रभोः पार्श्वे आगत्य आकाशे स्थितः किलकिलरवं = किलकिलेति शब्दं कुर्वन् एवम् - अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत् - ' रे भिक्षो ! कुत्र गच्छसि ? तिष्ठ तिष्ठ " एवं कथयित्वा कल्पान्तका लपवनमिव प्रलयकाल पवनवत् भयङ्करं संवर्तकाभिषं=संवर्तनामकं वायुं त्रिकृत्य = वैक्रियशक्तया सनुत्पाद्य उपसर्ग करोति । तद्यथा - तेन - विकृतेन संवर्तकवायुना वृक्षाः निवास करता था, जो त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में भगवान् के जीव के द्वारा मारे गये सिंह का जीव था । अगाध जल में निवास करने वाला सुदंष्ट्र देव भगवान् वीर प्रभु को देखकर और पूर्ववैर का स्मरण कर के क्रोध से धमधमाता हुआ, लाल लाल लोचन करके, दांत पीसता हुआ भगवान के पास आकर और 'किलकिल' शब्द करता हुआ इस प्रकार बोला-' अरे भिक्षुक, जाता कहाँ है ? ठहर, ठहर !" इस प्रकार कह कर प्रलय - समय की वायु के समान भयंकर संवर्त्तकनामक वायु को विकुर्वगा करके उसने उपसर्ग किया ।
વેરની ભૂમિકા એવી દુઘંટ હોય છે કે તેનું બીજ જો એક વખત પણ ભુલેચૂકે વવાઇ ગયુ` હોય તે તે બીજ વડવાઇઓની માફક ફૂટી નીકળે છે અને તેના છેડા પણુ આવતા જ નથી. એક વેર વાળતાં બીજું વેર ઉભું જ થાય છે અને તેની પરંપરા ભવાભવ વધતી જ જાય છે, માટે જ્ઞાનીએ પેાકારી ાકારીને કહે છે કે વેર ઉભું' થવા જ દેવું નહિ, અને કદાચ ઉભું થયું હોય તે તેનુ નિરાકરણુ તુરત લાવી પરસ્પરમાં ક્ષમાપના થઇ જવી જોઇએ, નહિતર એની ભૂમિકા વધતાં તેને પાર આવશે નહિં.
સ્મા
પ્રમાણે ભગવાનનો જીવ જયારે ત્રિપૃષ્ઠ વાસુદેવપણે અવતર્યા હતા ત્યારે ત્રિપૃષ્ઠ વાસુદેવે લોકોને રજાડનારા એક ક્રૂર સિંહને ચીરી નાખ્યા હતા. તેનું વેર વધતાં તેનું ફળ તે સિંહે સુદ્ર દેવપણે અવતરી આ વખતે ભગવાન પાસેથો વસુલ કરવા માંડયુ. વેરી વેરીને તુરત જ ઓળખી કાઢે છે તેવા જીવના સ્વભાવ ઘડાઈ ગયા હોય છે. એકીજાના સમાગમ થતાં જ પુના વેરનાં બંધના ઉછળો આવે છે. વેર એ માયાવી ગાંઠ છે અને જીવ પાતાની વક્રતા અનુસાર તે ગાંઠને બાંધે છે, પોષે છે અને વધારી-ઘટાડી પણ શકે છે. આ ગાંઠે બધાતા જીવમાં માયા-કપટના દોષો એક પછી એક વધતાં જ જાય છે, જેના પરિણામે કષાય યુક્ત થઈ મહાન નિડિકમઈ ઉપાર્જન કરતા તે આત્મા ભવાભવમાં પૂર્વનાં વેર લેતા જાય છે અને સાથે સાથે નવાં વેરનાં મધના બાંધતા જાય છે, માટે જ શાસ્ત્રકારો કહે છે કે—
कल्पमञ्जरी
टीका
गङ्गानद्यां भगवतः
सुदंष्ट्र
देवकृतोपसर्ग
वर्णनम् ।
॥ सू० ८८॥
॥२१३॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥२१४॥
真真
पतिताः पर्वताः कम्पिताः, धूलिस्टलेन=धूलिसमूहेन अतुलः घोरः अन्धकारो जातः । जलोर्मयः = जलतरङ्गा आकाशं स्पष्टुमिका सस्पर्शनार्थमित्र उच्छलन्ति = उपरिगच्छन्ति, पश्चात् = उच्छलनानन्तरम् पतन्ति = नीचैरागच्छन्ति च । तत = गङ्गायाः जले सा नौः = नौका अपि उपरि=ऊ आकाशे उत्पतति च पुनः निपतति= अ आगच्छति । तेन=उत्तननिपततोभयव्यापारेग दोलायमानायाः =दोलावदाचरन्त्याः तस्याः = गङ्गाजलमध्यस्थितायाः नावः नौकाया स्तम्भः = स्थूणा, भग्नः = त्रुटितः काण्डपट्टानि त्रुटितानि, तथा पवनरोधिका = वायुनिरोधनकारिका पताका=दण्डावलम्वितवैजयन्ती स्कटिता=विदीर्णा, नौस्थिताः = नौकायामुपविष्टा जनाः=लोकाः=
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वह इस प्रकार - वैक्रियशक्ति से उत्पन्न किये हुए वायु से वृक्ष गिर पडे । पर्वत डोलने लगे । लिके पटल से घोर अंधकार छा गया। जल की लहरें जैसे आकाश को छूने के लिए जाती हो उस प्रकार ऊपर जाने लगीं और नीचे गिरने लगीं। इस कारण गंगा के जल में वह नौका भी ऊंची-नीची होने लगी । ऊंची-नीची होने के कारण हिंडोले (झला) के समान हिलती हुइ नौका का मस्तूल (स्तंभ) भग्न हो गया। लकडी के पटिये टूट गये। वायु के वेग का निरोध करने वाली पताका-डंडे पर फहराती हुई वैजयन्ती
"या लवने लवोभव भ िथयुं वेर विरोध, અંધ બની અજ્ઞાનથી, કર્યાં અતિશય ક્રોધ,
તે સવિ મિચ્છામિ દુક્કડં ક્ષમા કરો સદાય, અક્ષયપદ સુખદાય, સમભાવિ આતમ થશે. ભારે કર્મી જીવડાં, પીવે વેરનું ઝેર, ભવ અટવીમાં તે ભમે, પામે નહિ શિવ હેર,
ધનું મમ વિચારજો,
જીવ ખમાવું છું વિ, વેર વિધ ટળી જો,
""
આ પ્રમાણે પ્રભુને જોતાંજ નાગકુમારને અત્યંત ઝેર વ્યાપી ગયું અને દાંત પીસતા ભગવાનની પાસે આવી ઉપસગ માંડયા.આ દેવે પ્રચંડવાયુ વિકુર્થીને જળમાં અનેક પહાડ જેટલાં માજા' ઉભાં કર્યો. આ મેાજા એના ઉછાળાને લીધે નાવડી પણુ અહીંતહીં ઉછળીને પડવા લાગી. તેને કાટમાળ બધે તૂટી ફૂટી ગયા અને હમણાં જ નદીના
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कल्प
मञ्जरी
टीका
गङ्गानद्यां
भगवतः
सुदंष्ट्र
देवकृती
पसर्ग
वर्णनम् । ||म्०८८।।
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श्रीकल्पमंत्रे ॥२१५ ॥
SLEEPEATE
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भयभीताः = मयोद्विग्नाः सस्वतीवनं निजनिज जीवितंशङ्कमानाः सन्तः कलकलरावं = कोलाहलशब्दं कर्तुमारभन्त । नात्रः=नौकायाः, आत्मरूप ः = आत्मस्वरूपः, रक्षक इत्यर्थः, नाविको भयोद्विग्नः=भयत्रस्तः किं कर्त्तव्यमूढः= विचारशून्यः संजातः ।
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तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पूर्वभवमित्राभ्यां कम्वलशम्बलाभिधाभ्यां= कम्बल - सम्बलनामकाभ्यां द्वाभ्याम्, वैमानिकदेवाभ्याम् अधिना=अवधिज्ञानोपयोगेन सुदंष्ट्राभिधनागकुमारदेवकृतम् उपसर्गम् आभोग्य-ज्ञात्वा तत्रागत्य तम् = उपसर्गम् निवार्य=दूरीकृत्य सा नौः तीरे = गङ्गायास्तटे स्थापिता । ततस्तौ=म्ब - शम्बलौ देवौ सुदंष्ट्नागकुमारदेवं निर्भर्त्स्य = दुर्वचनमुक्ता हन्तुं ताडयितुमुद्यतौ जातौ तद्दृष्ट्वा (पाल) फट गई। नौका पर सवार लोग भय के कारण उद्विग्न हो उठे। उन्हें अपने-अपने जीवन के लिए सन्देह हो गया- सोचने लगे-न जाने बचेंगे या मरेंगे ? वे कोलाहल मचाने लगे। नौका के भग्न हो जाने के कारण नाविक चिन्तित हो गया, भय से त्रस्त हो गया और उसे भान न रहा कि क्या क औरक्या न करूं ! उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पूर्वभव के मित्र कम्बल और शम्बल नाम के दो वैमानिक देवोंने अवधिज्ञान के उपयोग से सुदंष्ट्रनामक नागकुमारदेवद्वारा कृत उपसर्ग को जाना, जानकर वे वहाँ आये और उस उपसर्ग को रोक दिया। उन्होंने वह नौका गंगा के किनारे लेजा कर स्थापित कर दी। तत्पश्चात् कम्बल और शम्बल देव सुदंष्ट्र-नागकुमार देव को दुर्वचन कह कर मारने को તળીએ જઇ બેસશે એમ આગાહી થવા લાગી. તેમાં બેઠેલા મુસાફરોના જીવ તળીએ બેસી ગયા. લાકા ‘બચાવો, બચાવો'ના પોકારો કરવા લાગ્યા. કેટલાક પેાતાના ઇષ્ટ દેવનુ સ્મરણ કરતાં જીવવાની આશા પણ છેાડીને બેઠાં હતાં. ભગવાન આ દરેકની સામે દયાળુ ભાવે જોઇ રહ્યા હતા. તેએ મનમાં વિચારતા કે આ જીવોએ પણ મારી જ સાથે આ દેત્રનું વેર બાંધ્યુ હશે. આ બધા તરફડાટ દેવના જ છે એમ ભગવાન પોતે જાણતા હતા છતાં લાર્કને કાંઇ કહ્યુ નહિ, તેમ જ ઇસારો પણ કર્યાં નહિ. ભગવાનના ખ્યાલમાં હતું કે આ વેરને બદલેા છેલ્લા જ છે, તેથી તે ક્રમ પૂરૂ થતાં આપોઆપ શાંતિ થઇ જશે. કેટલાક તા ભગવાનને આ ફાન શાંત કરવા વિનંતિ પણુ કરતા હતા; અને ભગવાન તેમને શાંત રહેવા સૂચના પણ આપતા હતા. આ કર્મીનું ફળ પૂરૂ થતાં ભગવાનના પૂર્વભવાના મિત્રો આવી પહોંચ્યા અને તેઓએ આ દેવને તેમ કરતા અટકાવી તાાનને શાંત પાડયું. નૌકાને કાંઠે દોરી ગયા. હિસલામતપણે કિનારે પહોંચી જતાં લેાકાના ખાળિયામાં જીવ આવ્યેા. ઘડી પહેલાં જીવન તૂટવાની અણી
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कल्प
मञ्जरी टीका
गङ्गानद्यां
भगवतः सुदंष्ट्र
देवकृतो. पसर्ग - वर्णनम् । ||म्०८८||
॥२१५ ॥
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श्रीकल्पमृत्रे
मञ्जरी
॥२१६॥
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ACETARTHA
करुणाईचित्तेन भगवता तौ देवौ तत्कार्याद निवारितौ । ततः खलु तौ-कम्बल-शम्बलौ द्वापि देवौ निजरूपं= स्वकीयदेवस्वरूपं प्रकटय्य भगवन्तं-श्रीवीरस्वामिनं वन्देते नमस्यतश्च, वन्दित्वा नमस्यित्वा च यस्या एवं दिशः प्रादुर्भतौ तामेव दिशं प्रतिगतौ । क्षमासागरः वीतराग रागद्वेषवर्जितो भगवान् श्रीवीरमभुः उपसर्गकारके सुदंष्ट्रदेवे क्रोधभावं, च-पुनः उपकारकारकयोः उपसर्गनिवारकत्वेनोपकारिणोः कम्बल-शम्बलयोदेवयोः रागभावं
कल्पकिञ्चिदपि-अणुमात्रमपि न नैव अकरोत कृतवान। किन्तु उभयत्र-सुदंष्ट्रनागदेवे कम्बल-शम्बलदेवयोश्च सम
टीका भावम् अदर्शयत्-दर्शितवान् ।
ततः खलु नौस्थिताः न जगः निज जीवनदातारं स्वजीवितदायकं सकलजगज्जीवरक्षक समस्तभुवनवतिप्राणित्राणपरायणं भगान्त श्रीवीरपभं ज्ञाता भक्तिबहुमानेन अस्तुवन्तत्प्रभाववर्णकवाक्यैः स्तुतवन्तः (सू०८८)
मूलम्--तए णं से समणे भगवं महावीरे नावाओ ओयरइ ओयरित्ता महारपणे मुण्णागारे रत्तीए काउस्सगे ठिए। तत्थ णं भगायो पुत्ररत्तावरनकालसमयंसि माईमिच्छादिट्ठी एगे संगमाभिहे देवे अंतियं पाउन्भूए। तए णं से देवे आसुरत्ते रुटे कुविए चंडिकिए मिसिमिसेमाणे काउस्सगढियं पहुं एवं वयासी--
उपकार"हं भो भिक्खू ! अपस्थियपत्थया! सिरी-हिरी-धिइ-कित्ति परिवज्जिया! धम्मकामया! पुण्णकामया! सग्ग
कापकारक कामया! मोक्रवकामया!, धम्मकविया ! ४, धम्मपिरासिया! ४, नो णं तुमं ममं जाणासि ? अहं तुमं धम्मायो
विषये तैयार हुए। यह देवकर करुणा ले आद्र चित्तवाले भगगन ने दोनों देवों को मारते रोक दिया। तत्पश्चात् भगवतः कम्बल और शम्बल दोनों ही देयोंने अपने देव-रूप को प्रकट कर के भगवान् वीर प्रभु को वन्दना को समभावः। और नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर के वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा में चले गये। एज।मू०८८।।
क्षमा के सागर और रागद्वेष से रहित भगवान् चीरने उपसर्गकर्ता सुदंष्ट्र पर किंचित् भी क्रोधभाव नहीं किया और उपकारकर्ता कम्बल-शम्बल देवों पर अणुमात्र भी राग नहीं किया। उन्हों ने मुदंष्ट्र, कम्बल और शम्बल के प्रति समभाव ही प्रदर्शित किया। तब नौका पर सवार सभी लोक भगवान महावीर को हो अपना जीवनदाता एवं जगत् के समस्त जीवों का त्राता जानकर भक्ति और बहुमान के साथ उनके प्रभाव का वर्णन करने वाले वाक्यों से स्तुति करने लगे ॥१०८८| પર હતું તે ઘડી પછી સંધાઈ જતાં લેકમાં આનંદ આનંદ વ્યાપી રહ્યો અને પ્રભુને ભક્તિભાવે પ્રાર્થ વા લાગ્યા.
॥२१६॥ અપાર વેદના આપનાર તરફ પરુ ભગવાન અદ્વેષી રહ્યા; તેમ જ દુઃખમાંથી છોડાવનાર તરફ પણ અરાગી રહ્યા. આવું તેમનું વર્તન જોઈ દેવમિત્રો વિમય પામ્યાં અને તેમની સ્તુતિ કરી નિવાસસ્થાને પાછા ફર્યા. મુસાફરો આવું દશ્ય જોઈ, અનુભવો આ સાધુને અંતરના આશીર્વાદ આપતા તેમની સ્તુતિ કરવા લાગ્યા. (સૂ૦૮૮)
圆圈圆圆圈圆圆跑遍
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श्रीकल्प
मृत्रे ॥२१७॥
कल्पमञ्जरी
टीका
परिभंसेमि" ति कट्ठ पउरं रयपुंज उप्पाडिय पहुस्स सासोच्छासं निरुंधइ। तह वि पहुं अक्खुद्धं दट्टणं पच्छा से तिक्खतुंडाओ महापिचोलियाओ विउब्धिय ताहि दसावेइ, निदंसावेइ, उबदसावेड तेण पहुसरीराओ पबलरुहिरधारा निस्सरेइ, तहवि पहू नो चलेइ। तओ पच्छा तिकखविसभरियकंटयाइं विच्छियसयसहस्साई विउव्विय पहुं उपसग्गेइ। पच्छा तेण विगरालसुंडे तिक्खदंते दंती पिउचिए । से णं मुंडाए भयवं उद्याविय अहे पाडेइ, तो छुरियतिकवदंतग्गेण विदारिय पाएहिं मदेइ। तभी से भयभेरवेण पिसायरूवेण भोसेइ। तओ सीह विउधिय पह सरीरं फालेइ। तए णं भगवओ उरि महाभारं लोहमयं गोलयं पक्खिवेड । एवं सप्परिच्छसूयरभूयपेयाइकएहिं नाणाविहेहि उबसग्गेहि उपसग्गिोऽवि भगवं अविचलिए अकंपिए अभीए अतसिए अत्तत्थे अणुबिग्गे अक्खुभिर असंभते तं उज्जलं मह पिउलं घोरं तिव्वं चंडं पगाढं दुरहियासं वेयणं समभावेण सम्म सहेइ खमेइ तितिक्खेइ अहियासेइ नो णं मगसावि तस्स असुहं चिंतेइ, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए चेव विदरइ। एवं से संगमे देवे जणवयविद्यारं विहरमाणं भगवं पच्छा गमिय छम्मासं जाव उबसग्गी तहावि बहुस्स बजरिसहनारायसंघयणतणेण न पाणहाणी जाया।
एवं णं विहरमाणे भगवं संवच्छरं साहिय मासं सचेलए, तो परं अचेलए होत्था।
तए णं से समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे बीयं चाउम्मासं रायगिहस्स णयरस्स नालंदाभिहाणे पाडगे मासमासकाखमणतवेणं ठिए। तत्थ णं पढममासक्खवणपारणगे विजयसेष्टिणा भगवं पडिलाभिए १ । एवं बितियपारणगे नंदसेठिगा, तइयपारणगे सुनंदसेठिणा, चउत्थपारणगे बहुलमाहणेण पडिलाभिए । सबत्य पंच दिव्वाई, पाउब्भूयाई २ । एवं तइयं चाउम्मासं चंपाए णयरीए दुदुमासक्खमणेण ठिए ३। चउत्थं चाउम्मासं चउम्मासक्खमण विठुचंपाए ठिए ४। पंचमं चाउम्मासं भदियाए णयरीए नाणाविहाभिग्गहजुत्तेणं चाउम्मासक्खमणेणं ठिए ५। छटुं पुण चाउम्मासं भदियाए णयरीए नाणाविहाभिग्गहजुत्तेणं चाउम्मासियतवेणं ठिए ६ । सत्तमं चाउम्मासं आलंभियाए णयरीए चाउम्मासियतवेण ठिए ७। अट्ठम चाउम्मासं रायगिहे णयरे चाउम्मानियतवेण ठिए ८ ॥५०८९॥
छाया-ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरोनावोऽवतरति, अवतीर्य महाऽरण्ये शून्यागारे रात्रिके कायोत्सर्गे
मूल का अर्थ-तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर नौका से नीचे उतरे और एक महारष में जाकर सूने घर में रातभरका कायोत्सर्ग करके स्थित हो गये । वहाँ मध्य रात्रि के समय
भूगना म-'तए णं' त्या. त्या२पछी भगवान नामाथी नीये तरी महा२९य त२५ यासी નીકળ્યા. આ અરણ્યમાં એક સુનું ઘર હતું. ત્યાં આખી રાત કાર્યોત્સર્ગમાં ઉભા રહ્યા. ત્યાં મધ્યરાત્રિના સમયે માયીક
पसर्ग वर्णनं चतुर्मास वर्णनं च।
०८९॥
॥२१७॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥२१८॥
का स्थितः। तत्र खलु भगवतः पूर्वरात्रापररात्रकालसमये मायी मिथ्यादृष्टिरेकः सङ्गमाभिधो देवोऽन्तिकं मादुर्भूतः।
ततः खलु स देव आशुरक्तो रुष्टः कुपितः चण्डिक्यितः मिसमिसायमानः कायोत्सर्गस्थितं प्रभुमेवमवादीत-- "हं भो भिक्षो ! अमार्थितमार्थक ! श्री-ही-धृति-कीर्तिपरिवर्जित ! धर्मकामक! पुण्यकामक ! स्वर्गकामक! मोक्षकामक ! धर्मकाक्षित ! ४ धर्मपिपासित ! ४ नो खलु त्वं मां जानासि, अहं त्वां धर्मात् परिभ्रंशयामि" इति कृत्वा प्रचुरं रजःपुञ्जमुत्पात्य प्रभोः श्वासोच्छ्वासं निरुगदि । तथापि प्रभुमक्षुब्धं दृष्ट्वा पश्चात् स तीक्ष्णतुण्डाः महापिपीलिकाः विकृत्य ताभिदंशयति, निदंशयति, उपदंशयति, तेन प्रभुशरीरात प्रबलरुधिरधारा निःसरति, तथापि प्रभुनौं चलति । ततः पश्चात् तीक्ष्णविषभृतकण्टकानि वृश्चिकशतसहस्राणि विकृत्य प्रभुमुपसमायी मिथ्यादृष्टि संगम नामक एक देव भगवान् के निकट प्रकट हुआ। तदन्तर वह देव शीघ्र ही लाल चोल हो गया। रुष्ट, कुपित, रौद्राकारधारक और दांत पीसता हुआ वह देव कायोत्सर्ग में स्थित भगवान् महावीर से इस प्रकार बोला-'अरे भिक्षु ! मौत की कामना करने वाले ! अरे श्री, ही, धृति, कोर्ति से शून्य ! अरे धर्म की कामना करने वाले ! स्वर्ग की कामना करने वाले! मोक्ष की कामना करने वाले ! अरे धर्म की आकांक्षा करने वाले (४) अरे धर्म के पिपासु (2)! तू मुझे नहीं पहचानता है ? देख, मैं तुझे अभी ही धर्म से भ्रष्ट कर देता हूँ।
इस प्रकार कह कर उसने विशाल रजका पुंज (धूल का पटल) उडा कर भगवान् के श्वासोच्छ्वास को रोक दिया। तब भी भगवान् वर्धमान स्वामी को क्षुब्ध हुआ न देखकर उसने तीखे मुख वाली बडी बडी चीटियों की विकुर्वणा कर के उन से डसवाया, खूब डॅसवाया और पूरी तरह डॅसवाया। उस से प्रभु के शरीर से रुधिर की प्रबल धारा वह निकली. फिर भी प्रभु चलायमान न हुए। तत्पश्चात् उग्र विष से परिपूर्ण काटोंઅને નિયા દષ્ટિવાળે અધમ દેવ જેનું નામ સંગમ હતું તે ભગવાનની પાસે આવી પ્રગટ થયા. આવતાની સાથે તેણે લાલાશ ધારણ કરી, રૂછપુષ્ટ શરીરને આકાર કરી કે પાયમાન દૃષ્ટિએ ઉભું રહ્યો તેને દેખાવ ભયંકર રૌદ્રતાવાળો હતા. તેણે દાંત કચકચાવીને ભગવાનને કહ્યું કે “અરે ભિક્ષુ ! તું તને શરણે આ બે છે! તું લજજાહિત થઈ રહ્યો છે. લક્ષમી, લાજ, ધીરજ અને કીર્તિ વિનાને બની ગયો છે ! અરે ધમળી ! પુણ્યવાછક ! સ્વર્ગની ઈચ્છાવાળા મેક્ષ મેળવવાવાળા! ધર્મના ઈચ્છુક! અરે ધર્મપિપાસુ! તું શું મને ઓળખતું નથી કે હું તને પળવારમાં જ ધમણ કરી નાખીશ? આમ કહી તેણે ધૂળની આંધી ચડાવી. આ ભયંકર આંધીને લીધે ભગવાનને શ્વાસોચ્છવાસ તેણે અટકાવી દીધે, તેમ છતાં ભગવાન મહાવીર ડગ્યા નહિ. ત્યારબાદ તેણે તીક્ષણ મુખવાળી મોટી મોટી કીડિઓ ઉત્પન્ન કરી ભગવાનને કરડાવી. સાધારણ સંખ્યામાં આ કીડિઓ ન હતી, પણ જાણે કીડિઓના રાફડો ફાટયા ન હોય તેમ તેઓ એકી સાથે ચટકા ભરવા લાગી. આ ચટકાઓને પરિણામે ભગવાનના શરીરમાંથી રૂાધરની સેરે ઉડી. આટલું
संगमदेवो
पूसर्ग वर्णनम्। ॥०८९॥
॥२१॥
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श्रीकल्प
॥२१९॥
गयति । पश्चात तेन विकरालशुण्डस्तीक्ष्णदन्तो दन्ती विकृतः, स खलु शुण्डया भगवन्तमुत्थाप्य अधः पातयति, ततः क्षुरिकातीक्ष्णदन्ताग्रेण विदार्य पादैमर्दयति । ततःस भयभैरवेण पिशाचरूपेण भीषयति । ततः सिंह विकृत्य प्रभुशरीरं स्फालयति। ततः खलु भगवत उपरि महामारं लौहमयं गोलकं प्रक्षिपति । एवं सर्पऋक्षमकर
कल्पभूतप्रेतादिकृतैः नानाविधैरुपसर्गरुपसर्गितोऽपि भगवानविचलितोऽकम्पितोऽभीतोऽत्रासितोऽत्रस्तोऽनुद्विग्नोऽक्षुभितो
मञ्जरी ऽसंभ्रान्तस्तामुज्ज्वलां महतीं विपुलां घोरां तीब्रां चण्डां प्रगाढां दुरध्यासां वेदनां समभावेन सम्यक सहते
टीका क्षमते तितिक्षते अध्यास्ते, नो खलु मनसाऽपि तस्याशुभं चिन्तयति तूष्णीको धर्मध्यानोपगत एव विहरति। वाले लाखो विच्छुओं की चिकुर्वणा करके प्रभु को उपसर्ग करवाया। तत्पश्चात् उसने भयानक सूंडवाले और तीखे दांतोवाले हाथी की विकुर्वणा की। उस हाथीने संड से भगवान् को ऊपर उठा कर नीचे गिराया और फिर छुरी की तरह तीक्ष्ण दांतों की नोकों से विदारण कर के पांचों से कुचला। उसके बाद उस देवने भयंकर पिशाच का रूप बना कर डराया। फिर भी सिंहकी विकुर्वणा कर के प्रभु के शरीर को फाड़ा। तत्पश्चात् भगवान के ऊपर बहुत भारी लोहे का गोला फेंका। इसी प्रकार सर्प, शुकर, भूत, प्रेत आदि द्वारा किये गये नानाविध उग्र उपसर्गों से भी भगवान् विचलित न हुए। वे अकम्पित, संगमदेवो. अभीत, अत्रासित, अत्रस्त, अनुद्विग्न, अक्षुभित और असम्भ्रान्त रहे। उन्होंने उस उज्ज्वल, महती, विपुल, घोर, तीव्र, चण्ड, प्रगाढ़ एवं दुस्सह वेदना को समभाव से, सम्यक प्रकार से सहन किया, क्षमण किया, वर्णनम् । तितिक्षा की, और अध्यास किया। मन से भी उस देवका अशुभ नहीं सोचा । मौनभाव से धर्मध्यान में लीन
मार सचमध्यान में लान मासू०८९।। થયું છતાં ભગવાન જરાયે ન ડગ્યા. ત્યારબાદ તેણે ઉગ્ર વિષથી ભરેલા અને ભયંકર આંકડાવાળા વિંછીઓની પરંપરા રે ઉભી કરી. તે દ્વારા સંગમદેવે ભગવાનને અપાર વેદના આપી. આથી પણ વધારે ભયંકર એવા તીણ સૂંઢવાળા અને દતુશળવાળા હાથીને પેદા કર્યો. હાથીએ ભગવાનને સૂંઢ વડે ઉછાળીને પછાડયા અને તીણા દાંત વડે ભગવાનને ચીર્યા તેમ જ પગ નીચે ચગદી નાખ્યા. આ પછી તે સંગમ દેવ ભયાનક પિશાચનું રૂપ ધારણ કરીને પ્રભુને હરાવવા લાગ્યું. ત્યારબાદ સિંહની વિકવણું કરી તેમનું શરીર તીક્ષ્ણ નહેર વડે ચીરી નાખ્યું. આ ઉપરાંત તેમની ઉપર ભારે વજનવાળા લોઢાના ગેળા ફેંકવા. ઉપરોક્ત સઘળા ઉપદ્રમાં સફળ ન થતાં સંગમ દવે સર્પ, ભૂંડ, ભૂત, પ્રેત વગેરેને ઉત્પન્ન કરી તેમની મારફત ભગવાનને પારાવાર દુઃખ આપ્યું; છતાં પ્રભુ તે અકપિત, ભયરહિત, ત્રાસ ॥२१९॥ વિનાના નિવિન, ઉદ્વેગરહિત ક્ષુબ્ધ થયા વિના અને જરા પણ અશાંતિ અનુભવ્યા વિનાના સ્થિર ઉભા રહ્યા. પ્રભુએ આ ભયંકર ઘોર, તીવ્ર, પ્રચંડ અને પ્રગાઢ વેદનાને સમભાવપૂર્વક વેદી અનંત દારૂણ દુઃખને સમ્યફ પ્રકારે સહન કર્યું, આ ત્રાસની આનંદપૂર્વક તિતિક્ષા કરી અને તેના પરિણામને વેદી લીધા. આટઆટલું થયા છતાં અનંત કરણના
पूसर्ग
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कल्प
मञ्जरी
टीका
र एवं स सङ्गमो देवो जनपदविहार विहरन्तं भगवन्तं पश्चात् गत्वा पाण्मासों यावत् उपासर्गयत् तथापि प्रभोवैज्रऋषभनाराचसंहननत्वेन न प्राणहानिर्जाता।
एवं खलु विहरन भगवान् संवत्सरं साधिकं मासं सचेलकः ततः परमचेलको बभूव । श्रीकल्प
ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्शनुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन् द्वितीयं चातुर्मासं ॥२२०॥
राजगृहस्य नगरस्य नालन्दाभिधाने पाटके मासमासक्षपणतपसा स्थितः। ततः खलु प्रथममासक्षपणपारणके विजयश्रेष्ठिना भगवान् प्रतिलम्भितः१। एवं द्वितीयपारणके नन्दश्रेष्ठिना, तृतीयपारण के सुनन्दश्रेष्ठिना, चतुर्थपारणके बहुलब्राह्मणेन पतिलम्भितः । सर्वत्र पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भतानि २। एवं तृतीयं चातुर्मासं चम्पायां हो कर ही वे विचरते रहे। इस प्रकार उस संगम देवने जनपद-विहार करते हुए भगवान के पीछे जाकर छह मास तक उपसर्ग किये । तथानि प्रभु का वज्रऋषभ नाराचसंहनन होने से प्राणहानी नहीं हुई। इस प्रकार विनरते हुए भगवान एक मास अधिक एक वर्ष पर्यन्त सचेलक रहे । तत्पश्चात् अचेलक हो गये (१)। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की परम्परा का अनुसरण करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हुए, दूसरे चोमासे में राजगृह नगर के नालन्दा नामक पाडे में, मासखमण तपस्या के साथ स्थित हुए। वहाँ पहेले मासखमण के पारणक के दिन विजय शेठने आहारदान दिया।
इसी प्रकार दूसरे पारणक के दिन नन्द शेठने तीसरे पारणक के दिन सुनन्द शेठने और चोथे पारणक के दिन को कोल्लाकसंनिवेश में बहुलब्राह्मणने आहार दिया । सब जगह पाच दिव्य प्रकट हुए(२) સાગર પ્રભુએ મનથી પણ તે દેવનું યચિત્ અશુભ ઈછયું નહિ. અને મૌનપણે ધર્મધ્યાનમાં જ લીન રહ્યા.
ઉપરના દુષ્ટ કાર્યોને પણ ટ૫ જાય તેવા અઘેર દુષ્કાર્યો દ્વારા સંગ મદેવે ભગવાનને ઉપસર્ગો આપ્યા. અને જ્યાં જ્યાં ભગવાન વિચરવા લાગ્યા ત્યાં ત્યાં સંગમ દેવે તેમની પાછળ પાછળ જઈ છ માસ સુધી અનેક અણુચિતવ્યા અને કલ્પનામાં પણ ન આવે તેવાં ઘણુ જ દારૂણ દુઃખે આપ્યાં. છતાં પણ પ્રભુની પ્રાણુહાની ન થઈ તેનું કારણ વજાઋષભ નારાચ સંહનન હતું. આ પ્રકારે વિચરતાં મહાવીર ભગવાન દીક્ષિત થયા, બાદ તેર માસ સુધી ચેલક રહ્યા. ત્યારબાદ અચલકપણે વિહાર કરવા લાગ્યા.૧ પૂર્વતીર્થકરેની પરંપરા અનુસાર ગ્રામાનુગ્રામ વિચારવા લાગ્યા. બીજું એ માસુ અતિ સુશોભિત રાજગૃહી નગરીના પ્રખ્યાત નાલંદા નામના' પાડામાં કર્યું
અહીં માસખમણ’નું તપ આદરી આત્મભાવે સ્થિર થયા. અહીં પ્રભુને પહેલા માસખમણુનું પારણું વિજય શેઠને છે ત્યાં થયું, બીજું પારણું બંદ શેઠને ત્યાં, ત્રીજું પારવું સુનંદ શેઠને ઘેર અને ચોથું પારણું બહુલબ્રાહાણુને ત્યાં થયું.
भगवतश्चातुर्मास
स्य तपसश्च वर्णनम्। ॥म०८९||
॥२२०॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥२२१॥
नगयों द्विद्विमासक्षपणेन स्थितः ३। चतुर्थ चातुर्मासं चतुर्मासक्षपणेन पृष्ठचम्पायां स्थितः ४। पञ्चमं चातुर्मासं भद्रिकायां नगया चतुर्मासक्षपणेन स्थितः ५। षष्ठं पुनश्चातुर्मासं भद्रिकायां नगर्या नानाविधाभिग्रहयुक्तेन चातुर्मासिकतपसा स्थितः ६ । सप्तमं चातुर्मासमालम्भिकायां नगयों चातुर्मासिकतपसा स्थितः ७॥ अष्टमं चातुर्मासं राजगृहे नगरे चातुमोसिकतपसा स्थित: ८ ॥सू०८९।।
टीका-"तए णं से समणे" इत्यादि । ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरो नाव: नौकातः अवतरति, अवतीर्य महारप्ये महाटव्यां शुन्यागारे जनरहितगृहे रात्रिके-सम्पूर्णरात्रावधिके कायोत्सर्गे स्थितः। तत्र खलु भगवतः-श्रीमहावीरस्वामिनोऽन्तिके-निकटे पूर्वरात्रापररात्रकालसमये-मध्यरात्रे मायी-मायावी मिथ्या
इसी प्रकार प्रभु तीसरे चातुर्मास में चम्पा नगरी में दो-दो मासखमग करके स्थित हुए (३)। चौथे चातुर्मास में चार मास के चौमग्सी तप के साथ पृष्टचम्पा में स्थित हुए (४)। पाँचवें चौमासे में भद्रिका नगरी में चौमासी तपस्या के साथ स्थित हुए (५)। छठे चातुर्मास में भद्रिका नगरी में नाना प्रकार के अभिग्रही से युक्त चौमासी तप के साथ स्थित हुए (६)। सातवें चौमासे में आलंभिका नगरो में चौमासी तप के साथ स्थित हुए (७)। आठवें चौमासे में राजगृह नगर में चौमासी तपस्या के साथ स्थित हुए (८) ।मु०८९||
टीका का अर्थ--तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर नौका से नीचे उतरे और उतर कर महाअटवी में जाकर एक शून्य मकान में सम्पूर्ण रात्रि तक के कायोत्सर्ग में स्थित हुए। वहाँ भगवान् महावीर स्वामी के समीप, पूर्वरात्रि-अपररात्रिकाल के समय अर्थात् मध्यरात्रि में एक मायावी और मिथ्याથયું. જેને જેને ઘેર ભગવાનને માસખમણના પારણે અતિ ભાવપૂર્વક આહાર મળે તેને તેને ઘેર પાંચ દિવ્ય પ્રગટ થયા. ૨, ત્રીજું ચાતુર્માસ પ્રભુએ ચંપાનગરીમાં કર્યું. અહીં પ્રભુએ બખે “મા ખમણુ’ તપ આદર્યા ને ધર્મધ્યાનમાં પિતાને સમય વિતાવતા.૩, ચોથું ચોમાસું પૃષચંપાનગરીમાં જ કર્યું અને ત્યાં ચાર માસનું ચૌમાસી તપ કર્યું.૪, પાંચમું ચાતુર્માસ ભદ્રિકા નગરીમાં ચૌમાસી તપસ્યા સાથે પૂરું કર્યું.૫, આજ નગરીમાં છઠું ચોમાસુ વિવિધ પ્રકારના અભિગ્રહે અને ચૌમાસી તપ સાથે પરિપૂર્ણ કર્યું. ૬, સાતમું ચોમાસુ આયંબિકા નગરીમાં પસાર કર્યું. ત્યાં પણ તેઓએ ચૌમાસી તપની આરાધના કરી.૭, આઠમું ચાતુર્માસ રાજગૃહી નગરીમાં ઉપર પ્રમાણેની તપસ્યા સાથે સમાપ્ત કર્યું.૮ (સૂ૦૮૯)
ટકાનો અર્થ—અપાર વેદનાઓને સહન કર્યા પછી પણ તેમનું મન શાંત અને નિર્જન ભૂમિમાં જવા આતુર હતું તેથી નૌકામાંથી સહિસલામત ઉતરી કેઈ એક અરણ્ય તરફ પ્રયાણ કરતાં પડતર ઘર નજરમાં આવ્યું. ત્યાં રાતવાસ ગાળવા નિશ્ચય કરી ધ્યાનમગ્ન થયા, આ બધા દુઃખોની તિતિક્ષા પાછળ અસીમ સહનશક્તિ પ્રગટ
भगवत
मार थातुर्मास
वर्णनम्। मू०८९॥
॥२२१॥
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दृष्टिः एकः कश्चित् सङ्गमाभिधः सङ्गमनामको देवः प्रादुर्भूतः प्रकटोऽभवत् । ततः खलु सः-सङ्गमो देवः सोमा
आशुरक्तः शीघ्रक्रोधारुणलोचनः रुष्टः रोपान्वितः कुपितः क्रुद्धः चाण्डिक्यितः रौद्राकारयुक्तः मिसमिसायमान:श्रीकल्प
क्रोधेन जाज्वल्यमानः सन् कायोत्सर्गस्थितं प्रभुम् एवम्-अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम्-अबादीत-हं भो भिक्षो! सूत्रे
'हे भोः' इति साधिक्षेपमामन्त्रगम् , अमार्थितपार्थक-मरणेच्छुक! श्री-ही-धृति-कीर्ति-परिवर्जित! लक्ष्मी-लज्जा ॥२२२॥ होम धैर्य-ख्याति-रहित ! धर्मकामक!धर्मेच्छो ! पुण्यकामक! पुण्येच्छो ! स्वर्गकामक! स्वर्गेच्छो !, मोक्षकामक!
मोक्षेच्छो !, धर्मकाशित ! धर्मकाङ्क्षायुक्त ! पुण्यकाक्षित ! स्वर्गकाङ्कित ! मोक्षकाक्षित धर्मपिपासित != धर्मपिपासायुक्त ! पुण्यपियासित ! स्वर्गपिपासित ! मोक्षपिपासित ! त्वं मां सङ्गमनामकं देवं नो खलु जानासि ? अहं त्वां धर्मात् परिभ्रशयामि-परिभ्रष्टं करोमि, इति कृत्वा-इत्युक्त्वा प्रचुरं-वहुं रजःपुनं धूलिसमूहम् उत्पात्य वैक्रियशक्त्या उड्डाय्य प्रभोः श्रीमहावीरस्य श्वासोच्छ्वासं निरुणदि स्तम्भयति, तथाऽपि प्रभुम् अक्षुब्ध क्षोभरहितं दृष्ट्वा पश्चात् तदनन्तरं सा सङ्गमो देवः तीक्ष्णतुण्डा: तीक्ष्णमुखयुक्ताः महापिपीलिका:-विशाल
भगवतः दृष्टि संगम नामका देव प्रकट हुआ। वह देव एकदम ही लाल नेत्रोंवाला हो गया, रुष्ट हो गया, ऋद्ध
संगमहो गया और भयानक आकार से युक्त हो गया। क्रोध से जलते हुए उस देवने कायोत्सर्ग में स्थित देवकृतोप्रभु से यह वचन कहे-'हं भो! इस प्रकार के अपमानमूचक संबोधन के साथ वह बोला-अरे मृत्यु ई पसर्गकी इच्छा करने वाले ! अरे लक्ष्मी, लज्जा, धैर्य और ख्याति से हीन । अरे धर्म पुण्य वर्ग और मोक्षकी वर्णनम्। कामना करने वाले ! अरे धर्म पुण्य स्वर्ग और मोक्षकी लालसा करने वाले ! अरे धर्म पुण्य स्वर्ग और मोक्ष ॥मू०८९।। के प्यासे ! तू मुझ संगम देवको नहीं जानता ? ले, मैं तुझे धर्म से भ्रष्ट करता हूँ।' इस प्रकार कह कर उसने बहुत बड़ा धूलि-समूह वैक्रिय शक्ति से उड़ाकर प्रभुके श्वासोच्छ्वास का निरोध कर दिया। इतने पर भी प्रभु को क्ष -रहित देखकर उसने तीखे मुखवाली लाखों चीटियों की विकुर्वणा करके કરવાને તેમને ઉદ્દેશ તરી આવતે. કારણ કે દુઃખેને તેઓ એક જાતની કલ્પના સમજતા. પિતે શરીરથી ભિન્ન છે, આત્મા અરૂપી છે, તેને છેદન-ભેદન કાંઈ પણ થતું નથી, તેવા દૃઢ નિશ્ચયી હતા, છતાં પૂર્વા પર તરફની રૂચિને લીધે જે સંગે બંધાયા હતા તે સંગો ઉદયમાં આવતાં, તેનાથી છૂટા રહેવું અને તે સંગી કારણુમાં કરી ॥२२२॥ રૂચિ નહિ કરતાં તટસ્થ ભાવે સ્થિત રહેવું, એ તેમનો મને ભાવ વર્તતો હતે. જોકે પૂર્વની પર તરફની રૂચિને લીધે
વેદન ઉભું થાય, પણ તે વેદનને વાસ્તવિક વેદન નહિ માનતાં કાલ્પનિક વેદન છે, એમ આત્મ અનુભવ કરતાં Jain Education Indigationa aboneगवान २५-२५३५मां भाग quतात.
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥२२३॥
टीका
भगवतः संगम
शरीरकपिपीलिकाः, विकृत्य 'यशक्त्योत्पाद्य ताभिः प्रभुम् दंशयति, निदंशयति-नि-नितराम्-अतिशयेन दंशयति, उपदंशयति-उप-सामस्त्येन-सर्वाङ्गावच्छेदेन दंशयति, तेन प्रभुशरीरात्-श्रीवीरस्वामिदेहात , प्रबलरुधिरधारा-अविच्छिन्नशोणितधारा निस्सरति, तथापि प्रमुनों चलति-कायोत्सर्गात्-स्खलितो न भवति, ततः पश्चात स सङ्गमो देवः तीक्ष्णविषभृतकण्टकानि-उग्रविषपूर्णकष्टकयुक्तानि, वृश्चिकशतसहस्राणिवृश्चिकलक्षं, विकृत्य= वैक्रियशक्त्योत्पाद्य प्रभुम् उपसर्गयति तथापि प्रभुनिश्चल एव तिष्ठति । प्रभुमविचलितं दृष्ट्वा पश्चात् तेन सङ्गमदेवेन विकरालशुण्डा भयङ्करशुण्डायुक्तःतीक्ष्णदन्तो दन्ती हस्ती विकृतः वैक्रियशक्त्योत्पादितः, स:-सङ्गम देवविकृतो हस्ती खलु शुण्डया भगवन्तं-श्रीचीरम् उत्थाप्य उपरिनीत्वा अधः-नीचैरवनितले पातयति, . ततः अधःपातनानन्तरं स हस्ती क्षुरिकातीक्ष्णदन्ताग्रेण=क्षुरिकाग्रवन्निशितेन दन्ताग्रभागेन प्रभुं विदार्य-विदीर्ण कृत्वा पादैःचरणैः मर्दयति तथापि प्रभुः कायोत्सर्गान्न चलति । ततः प्रभुमक्षुब्धं दृष्ट्वा सः-सङ्गमो देवः भयभैरवेण अतिभयान केन पिशाचरूपेण प्रभुं भीषयति भयमुत्पादयति । तथापि न चलति । ततः प्रभुमक्षुब्धं प्रभु को उन से कटवाया, खूब कट पाया और पूरी तरह सभी अंगो में कटवाया । इस से प्रभु के शरीर से रुधिर की तेजधार बहने लगी। फिर भी भगवान् कायोत्सर्ग से विचलित नहीं हुए। तब संगम देवने भयानक सूंडवाले और तीखे दांतोवाले हस्ती की विकुर्वणा की। संगम देव द्वारा वैक्रिय शक्ति से उत्पन्न किये गये हाथीने भगवान् को ऊपर उठाकर नीचे धरती पर पटका। नीचे पटककर उसने छुरोंके समान तीक्ष्ण दांतोंके अग्रभाग से प्रभु के शरीर को विदारण करके पैरों से कुचला फिर भी भगवान् कायोत्सर्ग से चलित न हुए। तब भगवान् को अडग देखकर संगम देवने अत्यन्त ही भयानक पिशाच का रूप बना कर उन्हें भयभीत करना चाहा फिर भी भगवान् चलायमान न हुए।
આ વૃદ્ધિને પરિણામે દુઃખની લેશ પણ પરવા કર્યા સિવાય, “સ્વાનુભવ’ વધાર્થે જતા હતા. આ સ્વાનુભવ કરવામાં પૂર્વ ઉપાર્જિત જે જે કર્મોને ઉદય આવી રહ્યો હતો તે તે કર્મોની રજ ભગવાઈને સ્વયં ખરી પડતી હતી. પિતામાં રાગ-દ્વેષ રૂપી ચિકાશ નહિ હોવાને કારણે બંધાવા ગ્ય કર્મ રજ પણ કમરૂપે બંધાતી ન હતી, એટલે ભૂતકાળનું કમરૂપી આવરણ પણ તેની મેળે ફળ ઉત્પન્ન કરી નિર્બેજ થઈ જઈ ખસી જતું અને ભાવી આવરણ પણ રાગ-દ્વેષની ચિકાશના અભાવે અકારક થઈ રહેતું. બન્ને ભૂત અને ભવિષ્ય દ્વર થવાથી વર્તમાનદશાને જ ભગવાન ભેગવી રહ્યા હતા. મૃત્યુલોકનો માનવી આત્મસ્થિરતા પ્રગટ કરવામાં આટલે બધે અચળ હોય છે તે મિથ્યાભિમાની દેના મનમાં વસી શકતું નથી તેથી તેઓ તેની કસોટી કરવામાં જરા પણ કચાશ રાખતા
देवकृतो
पूसर्ग
वर्णनम्। ॥सू०८९॥
-કય રવિ ને ય આવા વયો સિવાય, જેવા
॥२२३॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥२२४॥
Jain Education
KAARAKAA RAHAHAA
寳寳间眞宴
दृष्ट्वा सिंह विकृत्य तेन प्रभुशरीरं स्फालयति = विदारयति । तथापि प्रभुः कायोत्सर्गान्न किंचिदपि चलति । ततः खलु स भगवत उपरि महाभारं प्रचुरभारयुक्तं लौहमयं = लौह निष्पन्नं गोलकं = पिण्डं प्रक्षिपति = वेगेनापातयति । तथापि प्रभुरकम्पित एव तिष्ठति । एवम् अनेन प्रकारेण पूर्ववत् सर्प - ऋक्ष मुकर - भूत-प्रेतादिकृतैः = मंगम देत्रत्रिकुर्वित - सर्प-भक-राह-भूत-प्रेतप्रभृतिकृतैः नानाविधैः = बहुप्रकारकैः अन्यैः उपसर्गेः उपसर्गितोऽपि = जातोपद्रवोऽपि भगवान = श्रीवीरस्वामी अविचलितः = कायोत्सर्गादस्खलितः, अकम्पितः = अस्पन्दितः अभीतः = भयरहितः अत्रासितः = त्रासमप्राप्तः, अत एव - अत्रस्तः = त्रास वर्जितः, यद्वा- 'अत्तत्थे ' इत्यस्य 'आत्मस्थः ' इतिच्छाया, तत्पक्षे 'आत्मनिस्थितः - स्वस्थ इत्यर्थः, अनुद्विग्न: =उ वगरहितः, अक्षुभितः क्षोभरहितः, असम्भ्रान्तः =सम्भ्रमरहितःविस्मयवर्जितश्च सन् तां = पूर्वोक्तोपसर्गजनितां उज्ज्वलाम् = जाज्वल्यमानां महतीम् बृहतीम् विपुलाम् = मचुरां घोरां भयङ्करां तीव्राम् = उग्राम् चण्डां= कठोरां प्रगाढाम् = अतिदृढाम् दुरध्यासां कष्टेन सहनीयां वेदनां समभावेन = ' कोऽपि न मे प्रियी न च द्वेष्यः' इति सर्वप्राणिषु अपकार्युपकारिषु समबुद्धया सम्यक् सहते
तब प्रभु को क्षोभरहित देखकर सिंहकी विकुर्वणा की और उस सिंह से प्रभुके शरीर को विदारण करवाया । इतने पर भी प्रभु कायोत्सर्ग से लेशमात्र भी नहीं डिगे। तब उसने भगवान् ऊपर अत्यधिक भारवाला लौहेका गोला तेजी के साथ फेंका इस पर भी भगवान् अकम्प बने रहे ।
इसी प्रकार जैसा कि पहले शूलपाणि यक्ष के उपसर्ग-वर्णनमें कहा गया है, उसी प्रकार इस संगमदेवने भी साप, बोछु, रींछ, शूकर, भूत, प्रेत आदि को वैक्रियशक्ति से उत्पन्न करके भगवान् को उपसर्ग दिया, मगर भगवान् कायोत्सर्ग से चलित न हुए, कम्पित न हुए, निर्भय रहे, त्रास को प्राप्त न हुए, अत एव त्रास से वर्जित रहे या 'अत्तत्थ' अर्थात् आत्मस्थ ही बने रहे, उद्वेगहीन रहे, क्षोभहीन रहे, विस्मयहीन रहे । इन उपसगों से उत्पन्न हुई ज्वलंत, महान्, प्रचुर, भयंकर, उग्र, कठोर, गाढी, एवं दुस्सह वेदना
નથી. આવી કસોટીઓમાંથી પાર ઉતરનાર અને આવી કસોટીએ ચડનાર સર્વ તી કરામાં ભગનાન મહાવીર એક જ હતા. તેમના જેવા પરિષહેા બીજા કોઇ તીથ કરે ભાગન્યા હાય તેમ જણાતું નથી. આટલે સુધી મિથ્યાત્વી દેવા, આત્મજ્ઞાનિને દુઃખ દેવામાં અસાધારણ શક્તિના ઉપયેગ કરતાં હશે, તે તે ભગવાન મહાવીરના જીવન ઉપરથી જાણી શકાયું. આત્મશક્તિ પ્રગટ કરવામાં આટલે સુધી તૈયારી હેાવી જોઇએ એમ આ ઉપસર્ગો આપણને સૂચન કરી જાય છે.
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कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतः संगमदेवकृतो
पसर्गवर्णनम् ।
॥ मु०८९॥
॥२२४॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥२२५॥
भगवतः
संगम
भंयाऽभावेन, क्षमते-क्रोधाऽभावेन, तितिक्षते-दैन्याऽकरणेन, अध्यास्ते-निश्चलतया, नो खलु मनसाऽपि तस्य सङ्गमदेवस्य अशुभम् अनिष्टं चिन्तयति-विचारयति, प्रत्युत तूष्णीका मौनशीलः धर्मध्यानोपगतः ध्यानमग्नः सन्नेव विहरति-तिष्ठति। एवम् इत्थम् स:-उपसर्गकारी सङ्गमो देवः जनपदविहारं विहरन्तं भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनम् , पश्चात् पश्चात् पुनः पुन: पृष्ठतः गत्वा पष्ठमासींपण्मासान् यावत् उपासर्गयत्-उपसर्गमकरोत परन्तु भगवतो वज्रऋषभनाराचसंहननत्वेन प्राणहानिने जातेति । .. एवं खलु विहरन् भगवान्-श्रीवीरस्वामी संवत्सरं वर्ष तदुपरि साधिकम्=किञ्चिदिनाधिकं मासं यावत सचेलक: देवदृष्यवस्त्रधारी आसीत् , ततः परंतदनन्तरम् अचेलका वस्त्ररहितो बभूव ।
ततः अचेलीभवनानन्तरं खलु स भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्वी पूर्वजिनपरिपाटी चरन् आश्रयन् को समभाव से सहन किया उन्होंने न किसी को प्रिय, न किसी को द्वेष्य-द्वेष का पात्र-समझा। अपकारी और उपकारी पर समान बुद्धि रक्खी। इस वेदना को भगवान् ने सम्यक प्रकार से निर्भय भाव से सहन विया, क्रोधाभाव से क्षमा किया, दीनता न लाकर तितिक्षा की, निश्चल रह कर अध्यास किया। मन से भी संगम देव का अनिष्ट नहीं सोचा, बल्कि मौन धारण करके धर्मध्यान में मग्न ही रहे। इस प्रकार जनपद में विचरते हुए भगवान के पीछे-पीछे लग कर संगम देव ने छह महीनों तक उपसर्ग किया। परंतु भगवान् वऋषभनाराचसंघयण वाले होने से उनकी प्राणहानि नहीं हुई।
इस प्रकार जनपद में विचरते हुए भगवान् वीर स्वामी एक मास अधिक एक वर्ष तक, अर्थात् तेरह मास तक देवदृष्य वस्त्र को धारण किये रहे-सचेलक रहे, तत्पश्चात् अचेल अर्थात् वस्त्ररहित हो गये।
अचेलक होने के पश्चात् भगवान् महावीर ने पूर्ववर्ती जिनों-तीर्थकरों-की परम्परा का पालन करते
જ્ઞાનનું અંતર પરિણમન થતાં પિતાનું વાસ્તવિક સ્વરૂપ એળખાય છે; અને તે વાસ્તવિક સ્વરૂપની યથાર્થ ઓળખાણ થયે તેના પર રુચિ વધે છવ મંદકષાયી બને છે. મંદકષાયી બનતાં અઅિવના ભાવ બંધ થાય છે અને સંવર કરી તરફ તેનું લય જાય છે. સંવર કરણી આદરતાં આદરતાં પર પદાર્થો ઉપરનો મોહ અને તેની ઉપરને ભાવ ઓછો થવા માંડે છે. સમ્યકજ્ઞાન અને સમ્યફ શ્રદ્ધા તેમજ સમ્યક ચારિત્રનું અવલંબન લેતાં નિજેરા પણું થવા માંડે છે. માટે સમજણપૂર્વક જ્ઞાન અને શ્રદ્ધાને અપનાવતાં ઉદાસીન ભાવ પ્રગટે છે. મોક્ષનું મુખ્ય સાધન સંસાર તરફ વતત ઉદાસીન ભાવજ છે. જે ભાવના આધારે ત્યાર પછીની સર્વ ક્રિયાઓ થતી જોવામાં આવે છે. - આવા તીવ્ર દુઃખે દરમ્યાન શાસ્ત્રના કહેવા મુજબ ભગવાને દેવદુષ્ય ધારણ કરી રાખ્યું હતું અને ત્યાર બાદ તે વસ્ત્ર અકિરિમકપણે અદૃશ્ય થતાં, ભગવાન અચેલક રહેવા લાગ્યા. દેવ-દૂષ્ય હતું ત્યાં સુધી, ભગવાન સચેલક કહેવાતા એટલે વસૃસહિત કહેવાતા અને વસ્ત્ર દૂર થતા તેઓ અચેલક કહેવાયા. અલ અવસ્થા પ્રાપ કર્યા બાદ
देवकृतो
पूसर्गवर्णनम् ।
०८९||
होम
॥२२५॥
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श्रीकल्प
॥२२६॥
ग्रामानुग्रामम् एकस्माद्ग्रामाद् ग्रामान्तरम् द्रवन-विहरन् द्वितीयं चातुर्मासं राजगृहस्य नगरस्य नालन्दाभिधाने पाटके मासमासक्षपणतपसा प्रत्येकमासवतरूपतपस्यया स्थितोऽभवत् । तत्र-प्रत्येकमासक्षपणपारण केषु मध्ये प्रथममासक्षपणपारण के क्जियश्रेष्टिना भगवान् प्रतिलम्भितः १, एवं-विजयश्रेष्ठिवत् द्वितोयपारणके द्वितीयमासक्षपणपारणके नन्दश्रेष्टिना २, तृतीयपारण के सुनन्दश्रेष्ठिना ३, चतुर्थपारणके बहुलब्राह्मणेन भगवान्
मञ्जरी प्रतिलम्भितः ४ । सर्वत्र सर्वेषु पारण केषु पञ्च पश्च दिव्यानि-स्वर्णवृष्टयादीनि देवनिष्पादितानि प्रादुर्भूतानि=प्रकटी
टीका भूतानि । एवम् अनेन प्रकारेण तृतीयं चातुर्मासं चम्पायां नगया द्वि-द्विमासक्षपणेन स्थितः। चतुर्थ चातुर्मासं चतुर्मासक्षपणेन पृष्ठचम्पायां नगर्या स्थितः ४। पञ्चमं चातुर्मासं भदिकायां नगयों चतुर्मासक्षपणेन स्थितः ५। हुए और एक गाँव से दूसरे गाव विचरते हुए, दूसरे चौमासे में राजगृहनगर के नालन्दा नामक पाड़े में, मास-मास खमण करके स्थित हुए। पहले मास खमण के पारणे में विजय सेठ ने भगवान् को आहार-दान दिया(१)। विजयसेठ के हो समान, दूसरे मासवमण के पारणे में नन्द सेठ ने आहार बहराया(२)। तीसरे मासखमण के पारणे में सुनन्द सेठ ने (३), और चौथे मासखमण के पारणे के दिन कोल्लाकसन्निवेश
भगवतमें बहुल ब्राह्मण ने भगवान को वहराया (४), इन चारों पारणों के अवसर पर स्वर्णवर्षा आदि पाँच
आज चातुर्मासपाँच दिव्य पदार्थ प्रकट हुए।
वर्णनम् । इसी प्रकार तीसरा चातुर्मास चम्पा नगरी में हुआ । इस चतुर्मास में भगवान् ने दो दो मास का पारणा किया। मू०८९॥ चौथे चौमासे में पृष्टचम्पा नगरी में रहे। वहाँ चौमासी तप किया४ । पाँचवा चौमासा भद्रिका नगरी में, તેઓએ રાજગૃહી–ચંપાપુરી વગેરેમાં ચર્તુમાસ કરી, માસા દરમ્યાન. સ્થિરતા કરી. ચોમાસામાં મા ખમણ; ને મા ખમણ અને છેવટે માસી ત૫ સુધીના તપની આરાધના કરી.
એક માસથી માંડી ચાર ચાર માસ સુધીના માસ ખમણના તપને તપીને, તેઓ પારણાને દિવસે જુદા જુદા સ્થળે આહાર માટે ઉપસ્થિત થતા આ પારણાની ક્રિયાઓ ઉપર જણાવ્યા મુજબના મહાન પુણ્યશાળીઓને ત્યાં થતી આ વખતે દેનાર લેનાર અને દ્રવ્ય, એ ત્રણેની શુદ્ધિના પ્રભાવે, આહાર દેનારને ત્યાં પાંચ દિવ્ય વસ્તુઓ પ્રગટ થતી હતી.
રાજગૃહી ચંપા ભદ્રિકા વિગેરે નગરીઓ તે સમયે વિખ્યાત હતી. આ નગરિઓમાં “આતંભિકા નગરીને પણ સમાવેશ થાય છે. આ નગરિઓના ચાતુર્માસ દરમ્યાન મા ખમણની તપશ્ચર્યા ઉપરાંત, ભગવાન વિવિધ પ્રકારના ॥२२६॥ અભિમહા પણું ધારણ કરતા હતા આ અભિગ્રહે એટલે અમુક સંગમાં, અમુક વસ્તુઓ પ્રાપ્ત થાય તે તપના અતે પારણું કરવું. આવા નિશ્ચયો ઘણું દુર્ધટ છે અને એવા નિશ્ચય પરિપૂર્ણ થતાં ઘણુ પરિષહે તેમને સહન કરવા પડતા. ઘણીવાર, આદરેલાં મારુખમણ તપો પણ, અમર્યાદિતપણે વધી જતાં. (સૂ૦૮૯)
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मञ्जरी
२२७॥
टीका
षष्ठं चातुर्मासं पुनः द्वितीयवारं भद्रिकायां नगर्या नानाविधाभिग्रहयुक्तेन चातुर्मासिकतपसा स्थितः६। सप्तमं चातुर्मासम् आलम्भिकायां नगयों चातुर्मासिकतपसा स्थितः ७। अष्टभं चातुर्मासम् राजगृहे नगरे चातुर्मासिक तपसा स्थितः ॥१०८९॥
मूलम्-तएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ जयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिकावमित्ता कढिणकम्मक ववण? अणारियदेसं समणुपत्ते । तत्थ णं नवमं चाउम्मासं चाउम्मासतवेण ठिए। तत्थ णं भगवं इरियासमिइसमिए इत्थीजणकए भोगपत्थणारूवे अणुकूलपरीसहे, मिलिच्छनणकए पडिकूलपरीसहे य सहमाणे तितिक्खमाणे अहियासेमाणे तुसिगीए चेव वेरग्गमग्गे विहरी। केणवि वंदिओ णमंसिओ निदिओं तिरकिओ वा न तटे न रुटे समभावेण भावियप्पा चेच चिट्ठी। छक्कायपरिचालगो भगवं 'सव्वे पाणा सव्वे भूया सम्वे जीवा सव्वे सत्ता सयसयकम्मप्पहावेण चाउरंतसंसारकंतारे परिभमंति'-त्ति संसारवेचित्तं विभावमाणे विहरी। दबभावोवाहिपडिया अण्णाणिणो जीवा पावाई कम्माई बंधति-त्ति कटु भगवं पावकम्म-कलावाओ परम्मुहो आसो। बाला य भगवं दवणं लट्ठि-मुट्ठीहिं हणिय २ कंदिसु । अगारिया य भगवं दंडेहिं ताडिंसु, केसग्गे करिसिय करिसिय दुक्खं उप्पाइंसु, तहधि भगा नो दोसी । अगारत्थेहिं संभासिओवि भगवं तेहिं सद्धिं परिचयं परिच्चन्ज मोणभावेण सुहमाणनिमग्गे चेव विहरी । भगवं सहिउं असके परीसहोक्सग्गे न गगोअ, नञ्चगीएमु रागं न धरीअ, दंड जुद्धमुहिजुद्धाइयं सोचा न उकंठी । कामकहासंलीणाणं इत्थीजणाणं मिहोकहासंला मुणिय भगवं रागदोसरहिए मज्झत्थभावेण असरणे एव विहरीअ | घोराइघोरेसु संकडेसु किंचिवि मणोभावं न
1 मणाभाव
न विगडिय संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरी । भगवं परवत्थमवि न सेवित्था, गिहत्थपाए न मुंजित्था। असणपाणस्स मायन्ने रसेमु अगिद्धे अपडिन्ने आसी । अच्छिपि नो पमज्जीअ, नोऽवि य गायं कंडूईअ । विहरमाणे भगवं तिरिय पिट्टओ य नो पेहीय, सरीरप्पमाणं पहं अग्गे विलोइय इरियासमिईए जयमाणे पंथपेही विहरी। सिसिरंमि बाहू पसारितु परक्कमी । न उण बाहू कंधेसु अवलंबी। अण्णे मुणिणोऽवि एवमेव रीयंतु त्ति कटु माहणेण अपडिन्नेण भगवया एस विही बहुसो अणुकतो ॥सू०९०॥ किया और वहाँ भी चौमासी तप किया। फिर भगवान् ने भद्रिका नगरी में नाना प्रकार के अभिग्रहों से युक्त चौमासी तपस्या के साथ छठा चौमासा किया। सातवा चतुर्मास आलम्भिका नगरी में चौमासी तप से व्यतीत किया। आठवा चतुर्मास राजगृह नगर में चौमासी तपश्चरण के साथ किया !!मू०८९॥
भगवतोऽनार्यदेशसंजातपरीषहो
पसर्गवर्णनम्। मू०९०॥
॥२२॥
प
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BREATHER
छाया - ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरो राजगृहाद् नगरात् प्रतिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य कठिनकर्मक्षयार्थमनार्यदेशं समनुप्राप्तः। तत्र खलु नवमं चातुर्मासं चातुर्मा सतपसा स्थितः। तत्र खलु भगवान् ई-समितिसमितः स्वीजनकृतान भोगप्रार्थनारूपान् अनुकूलपरीषहान् , म्लेच्छजनकृतान् प्रतिकूलपरीषहांश्च
: कल्प१ सहमानस्तितिक्षमाणोऽध्यासीनः तूष्णीक एव वैराग्यमार्गे व्यहरत् । केनापि वन्दितो नमस्यितो निन्दि
मञ्जरी ॥२२८॥ तस्तिरस्कृतो वा न तुष्टो न रुष्टः समभावेन भावितात्मा चैवावतिष्ठत् । षट्कायपरिपलको भगवान् “सर्वे प्राणाः टीका
सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः स्वस्वकर्मप्रभावेग चातुरन्त संसारकान्तारे परिभ्रमन्ति" इति ससारवैचित्र्यं
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरस्वामी राजगृह नगर से निकले और निकल कर कठिन कर्मों का क्षय करने के लिए अनार्यदेशमें पधारे। वहाँ चौमासी तप के साथ चौमासे में स्थित हुए । वहाँ ईर्यासमिति से युक्त भगवान स्त्रियों द्वारा किये गये भोगप्रार्थनारूप अनुकूल परीषहों को, म्लेच्छ जनों द्वारा किये गये प्रतिकूल परीषहों को सहन करते हुए, तितिक्षण करते हुए, अध्यास करते
भगवतोऽ
श हुए, मौनयुक्त हो वैराग्य के मार्ग में विचरते रहे। किसी ने वन्दना की, नमस्कार किया तो तुष्ट न
संजातहुए, किसी ने निन्दा कि या तिरस्कार कीया तो रुष्ट न हुए। समभाव से भवितात्मा होकर ही रहे।
परापहाषटकाय के रक्षक भगवान 'सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव और सभी सच, अपने-अपने कर्मों के पूसर्गR प्रभाव से चार गति रूप संसार कान्तार ( अटवी) में परिभ्रमण कर रहे हैं। इस प्रकार संसार की वणनम् ।
- म०९०॥ 'तए णं' या श्रम भगवान महावीर शमली नारीभांथी नीजी निभाना क्षय अर्थ मनाया દેશમાં પધાર્યા. ત્યાં ચૌમાસી તપની આરાધના કરતાં થકાં ચતુર્માસમાં સ્થિર થયા. અહિં પ્રભુ ઈર્યોસમિતિ વિગેરે સમિતિઓ વડે યુક્ત થઈને વિચરવા લાગ્યા. આ સ્થળે તેમને સાનુકુળ પરીષહ સહન કરવા પડયા સ્ત્રીઓ તેમને પ્રાર્થના કરતી હતી તે પણ પ્રભુ વિરત ભાવમાંજ રહેતા હતા. આ ઉપરાંત મ્યુચ્છજાતિના લોકો તરફથી તેમને હેરાન કરવામાં પણ આવતા હતા આવા સાનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ બંને પરીષહેને સહન કરતા હતા. તેમજ તે પરીકહાની તિતિક્ષા કરવા મૌન ધારણ કરતા હતાં. સાનુકૂળ પરીષહેને સામનો કરવા તીવ્ર વૈરાગ્યને તેઓ પાળી રહ્યા હતા. તેમને કોઈ વંદન કરતું તે તેનાથી તે ખુશી થતા નહિ. કદાચ કઈ તેમને નિંદે તો તેનાથી તેમને નાખુશી ॥२२८॥ ઉત્પન્ન થતી નહિ. કોઈ તેમને તિરસ્કાર કરતુ તેમની ઉપર તેઓ દ્વેષ કરતા નહિ. દરેક બાબતમાં સમભાવ રાખી
સમપરિણામે સર્વનું છેદન કરતા. “દરેક પ્રાણી, ભૂત, જીવ, સત્વ પિતતાના કર્મોના પ્રભાવ પડે, સંસારરૂપી ભયંકર Jain Education Lioniवाभां भ री छ मे २नी संसारनी वियित्रताना विद्यार ४२ता वियरी २६ ता. 'द्र०ये मनसावे
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श्रीकल्प
मुत्रे ॥२२९॥
कल्पमञ्जरी टीका
विभावयन् व्यहरत् । “द्रव्यभावोगाधिपतिता अज्ञानिनो जीवाः पापानि कर्माणि बध्नन्ति" इति कृत्वा भगवान् पापकलापात् पराङ्मुख आसीत्। बालाश्च भगवन्तं दृष्ट्वा यष्टिमुष्टिभिर्हत्वा हत्वाऽक्रन्दन् । अनार्याश्च भगवन्तं दण्डैरताडयन्। केशाने कृष्ट्वा कृष्ट्वा दुःखमुदपादयन् , तथाऽपि भगवान् नाऽद्वेट् । अगारस्थैः सम्भापितोऽपि भगवान् तैः साई परिचयं परित्यज्य मौनभावेन शुभध्याननिमग्न एव व्यहरत् । भगवान् सहितुमशक्यान् परीपहोपसर्गान् नाऽगण यत्, नृत्यगीतेषु रागं नाऽधरत् , दण्डयुद्धमुष्टियुद्धादिकं श्रुत्वा नोदकण्ठत । कामकथासंलीनानां स्त्रीजनानां मिथःकथासंलापान् श्रुत्वा भगवान् रागद्वेवरहितो मध्यस्थभावेन अशरण एव व्यहरत् । घोरातिघोरेषु संकटेषु किश्चिदपि मनोभावं नो विकृत्य संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् व्यहरत । भगवान् परदस्त्रमपि न असेवत, विचित्रता का विचार करते हुए विचरे। 'द्रव्य और भाव उपाधि में पड़े हुए अज्ञानी जीव पापमय कर्मों का बन्ध करते हैं, ऐसा सोचकर भगवान् पाप के समूह से विमुख थे।
अनार्य देश के बालक भगवान महावीरप्रभु को देखकर लट्ठी और मुट्ठी से मार-मार कर हल्ला करते-रोते थे। अनार्य लोग भगवान् को डंडों से मारते थे। उनके बालों का अग्रभाग खींच-खींच कर कष्ट उत्पन्न करते थे। फिर भी भगवान ने उनपर द्वेष नहीं किया।
गृहस्थों के भाषण करने पर भी भगवान उनके साथ परिचय का परित्याग करते हुए, मौन-भाव से शुभध्यान में मग्न ही रहते थे। जिस परीषहों को सहन करना अशक्य था, उनको भी भगवान ने कुछ नहीं गिना, नृत्यों-गीतों में राग धारण नहीं किया, दंडयुद्ध या मुष्टि युद्ध आदि की बात सुनकर उत्कंठा प्रकट
नहीं को। काम-कथा में लीन स्त्रीजनों की आपस की बातें सुन कर भगवान् राग-द्वेष से रहित, मध्यस्थ ई भाव से अशरण (आश्रयरहित) ही विहार करते रहे। घोर और अतिघोर संकट आने पर भी लेश भर भी
ઉપાધિમાં પડેલા અજ્ઞાની છે પાપમય કર્મોના બંધ કર્યા કરે છે' એવું વિચારી ભગવાન પા૫ સમૂહથી વિમુખ રહીને વરતતા હતા. છતાંય અનાય દેશમાં નાના બાલકો ભગવાનને જોઇ લાઠી અને મુષ્ટિના પ્રહારો કરતા “મારોમારા’ના પોકારો કરી તેમના ઉપર હલાઓ કરતા અને તેમની પછવાડે હોકારાઓ પાડી રોકકળ કરી મારપીટ કરતા. તે દેશના પુખ્ત ઉમરના માણસે તેમને લાકડીઓ વડે મારતા તેમજ તેમના વાળને ખેંચીને કષ્ટ આપતા તે પણ ભગવાન દ્વેષરહિત થઈ વિચરતા.
આ અનાય ભુમિમાં ભગવાનને ગૃહસ્થીઓ બેલાવતા છતાં મૌન સેવતા અને તેમના પરિચયને ત્યાગ કરતા સહન કરવા અશકય, એવા પ્રભુને આવી પડેલા સંખ્યાબંધ પરીષહાને અહિં ગણવામાં પણ આવ્યા નથી.
भगवतः घोरपरीसहोपसर्ग सत्वेऽपि मनसोवि
कृतत्वम्। HAIR०९०॥
॥२२९॥
છે
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सूत्र
कल्पमञ्जरी
टीका
मा गृहस्थपात्रे न अभुङ्क्त । अशनपानस्य मात्राज्ञो रसेषु अगृद्धः अप्रतिज्ञ आसीत् । अक्ष्यपि नो मामार्जयत् , नो
अपि, च गात्रम् अकण्डूयत् विहरन् भगवान् तिर्यक् पृष्ठतश्च न प्रेक्षत, शरीरप्रमागं पन्थानम् अग्रे विलोक्य ईर्याश्रीकल्प
समित्या यतमानः पथप्रेक्षी व्यहरत् । शिशिरे बाहू प्रसार्य पराक्रमत । न पुनर्वाहू स्कन्धयोरवाऽलम्बत । अन्ये
मुनयोऽपि एवमेव रोयन्तु इति कृत्वा माहनेन अप्रतिज्ञेन भगवता एष विधिः बहुशोऽनुक्रान्तः ।।मू०९०॥ ॥॥२३०॥
मन को विकृत न करते हुए, संयम और तप से आत्मा को वासित करते हुए विचरे। भगवान् ने परवस्त्र का सेवन नहीं किया और गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं किया। वे भोजन-पानी की मात्रा के ज्ञाता थे, रसों में अनासक्त थे और अप्रतिज्ञ थे। उन्हों ने कभी आँख तक की भो.सफाई नहीं की, काया को खुजलाया नहीं। विहार करते समय वे न इधर-उधर देखते थे, न पीछे की ओर देखते थे। सामने शरीरममाण मार्गको देखते हुए, ईर्यासमितिपूर्वक यतना करते हुए चलते थे। शिशिर ऋतु में दोनों भुजाएँ फैला कर संयम में पराक्रम प्रकट करते थे। भुजाओं को अपने कंधों पर नहीं रखते थे। अन्य मुनि भी इसी प्रकार विचरें, यह सोच कर अपतिज्ञ माहन भगवान् वर्धमान ने अनेक बार इसी विधि का अनुसरण किया ।।मू०९०॥
નૃત્ય; ગીત; રંગ-રાગમાં તે, પ્રભુએ, દષ્ટિ પણ કરી નથી. દંડયુદ્ધ મુણિયુદ્ધ આદિયુદ્ધો સાંભળવાની ઉત્કંઠા ભગવાને એવી ન હતી. સ્ત્રી સમૂહ, ભગવાનને ડોલાયમાન કરવા, એકત્રીત થતાં ત્યારે કામકથામાં લીન થયેલ સ્ત્રી વર્ગનાં અંદરો અંદરના વાર્તાલાપ સાંભળીને પણ, ભગવાને તેમાં રાગ-દ્વેષ અનુભવ્યો નહિ, પરંતુ, મધ્યસ્થ ભાવનું સેવન કરી આશ્રય રહિત થઈ વિચરતા.
- ઘેર અને અતિઘોર સંકટ આવી પડતાં, મનને જરા પણ વિકૃત કરતા નહિ પરંતુ સંયમ અને તપની ભાવનાઓથી ભાવિત થઈ વિચરતા.
ભગવાને, અન્યના વસ્ત્રોનું સેવન કર્યું નથી, તેમજ ગૃહસ્થના પાત્રમાં ભેજન પણ આપ્યું નથી. તેઓ ભજન અને પાણીની મર્યાદાને જાણવાવાળા હતા, રસલુપી નહિ હોવાથી સર્વ રસદાયક પદાર્થોમાં અનાસક્ત રહેતા અને અપ્રતિજ્ઞ પણ હતા. શરીર શુશ્રષા માટે તેમણે કદાપિ પણ, આંખેને સાફ કરી નથી, તેમજ કાયાને ખજવાળી પણ નથી. વિહાર દરમ્યાન, આડીઅવળી નજર નહિ કરતાં સામે દૃષ્ટિ કરી શરીર પ્રમાણ રસ્તાને જતા જતા. ઈસમિતિ વિગેરે સમિતિનું યતના પૂર્વક પાલન કરતા કરતા વિચરતા હતા.
શિશિર ઋતુમાં, બંને હાથ ઉંચા કરી સંયમમાં પિતાનું પરાક્રમ દાખવતા બને ભુજાઓને કાંધ ઉપર હ રાખતા નહિ અન્ય મુનિજન પણ આ પ્રમાણે વિચરે એવો વિચાર કરી અપ્રતિજ્ઞએવા ભગવાન, અનેકવાર આવી
विधिनु अनुसरण ४२ता al. (२०६०)
भगवत आचारविधिवर्णनम्। ॥०९०॥
॥२३०॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥२३१॥
कल्पमञ्जरी टीका
टोका-"तए णं से समणे" इत्यादि । तत:-राजगृहनगरे अष्टमचातुर्मासकरणानन्तरं खलु स श्रमणो भगवान् महावीरो राजगृहानगरात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य कठिनकर्मक्षयार्थम् अनार्यदेश-म्लेच्छदेशं समनुप्राप्तः विहारं कुर्वन् गतः। तत्र खलु भगवान् नवमं चातुर्मासं चातुर्मासतपसा चातुर्मासिक तपःपूर्वकम् स्थितोऽभवत् । तत्र खलु ईर्यासमितिसमितः, उपलक्षणत्वाद् भाषासमित्यादिसमितः त्रिगुप्तिगुप्तश्च भगवान् स्त्रीजनकृतान् भोगप्रार्थनारूपान् अनुकूलपरीषहान् , तथा-म्लेच्छजनकृतान् तर्जनताडनादिरूपान् प्रतिकूलपरीषहांश्च सहमान:-क्रोधाभावेन, तितिक्षमाणः-दैन्याकरणेन, अध्यासीन:-निश्चलतया, तूष्णीक एवम्मौनमवलम्बमान एव वैराग्यमार्गे-निरतिचारचारित्राराधनमार्गे व्यहरत-तत्परोऽभूत, केनापि केनचिदपि जनेन वन्दितो नमस्थितः नमस्कृतः, निन्दिता गर्हितः, तिरस्कृतः अनाहतो वा न तुष्ट: वन्दितुर्नमस्कर्तुश्चोपरि न प्रसन्नः, न
टीका का अर्थ-राजगृह नगर में आठवा चातुर्मास बिताने के बाद श्रमण भगवान् महावीर ने राजगृह नगर से विहार किया। कठोर कर्मों का क्षय करने के लिए विचरते हुए प्रभु अनार्यदेश में पधारे। वहाँ चौमासी तप के साथ नौवा चौमासा किया। ईर्यासमिति और उपलक्षण से भाषासमिति आदि सभी समितियों से सम्पन्न तथा तीन गुप्तियों से गुप्त भगवान् स्त्रोजनों द्वारा की गई भोग-प्रार्थनारूप अनुकूल परीपहों को तथा अनार्य जनों द्वारा कृत तर्जना-ताड़ना आदि रूप प्रतिकूल परीषहों को क्रोध के विना सहते हुए, दीनता के विना तितिक्षण करते हुए, निश्चल भाव से अध्यास करते हुए मौन का अवलम्बन किये
हुए ही निरतिचार चारित्र के मार्ग में तत्पर रहे। किसी मनुष्य ने उन्हें वन्दन किया और नमस्कार किया __ तो वन्दना करने वाले और नमस्कार करने वाले पर वे यत्किंचित् भी तुष्ट-प्रसन्न नहीं हुए, किसीने निन्दा की
1 ટકાને અર્થ-રાજગૃહિ નગરીમાં આઠમું ચાતુર્માસ વીતાવ્યા બાદ, શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ત્યાંથી વિહાર કરી ચાલી નીકળ્યા. ભગવાન, પિતાના ગાઢ કર્મોની ઉદીરણ કરવા માગતા હતા ભૂમિમાં વિચરવાથી કર્મો ચકચુર કરી શકાશે. આ આશયને પૂરો કરવા પિતે અનાર્ય ભૂમિમાં વિચારવા લાગ્યા. અને અનાર્ય ભૂમિમાં ચૌમાસી તપ કરી સાથે નવમું મારું વ્યતીત કર્યું. ભગવાનનું રૂપ બ્રહ્મચર્ય અને તપના પ્રભાવ વડે દેદીપ્યમાન લાગતું હતું. તેમનું શરીર પણ કઠણ લેઢા જેવું મજબૂત અને સુદઢ હેવાથી તે ભૂમિની સ્વરૂપવાન સ્ત્રિઓ, ભગવાન ઉપર મોહ પામવા લાગી. અને તે તેમને દરેક રીતે ચલાયમાન કરવા પ્રયત્ન કરતી. દરેક પ્રકારના હાવ ભાવ વિલાસ, શરીર સૌદંર્યા વિગેરે બતાવવા ઉધત રહેતી. તેમના સ્થળની આસપાસ, સુગંધિત દ્રવ્ય છાંટી ઋતુની સજાવટ કરતી, જેથી ભગવાન લેભાઇ જાય! એમ તેઓ ધારતી હતી.
भगवतः समभाववर्णनम्।
॥२३१॥
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कल्पमञ्जरी
र रुष्टः निन्दितुस्तिरस्कर्तुश्वोपरि न क्रुद्धः अपि तु समभावेन सर्वेषु जनेषु समत्वबुद्ध्या-'न मे द्वेष्यो न वा कवित्
प्रियः' इत्येवं भावितात्मा सन् अतिष्ठत=स्थितोऽभवत् । षटकायपरिपालका षड्जीवनिकायरक्षको भगवान् श्रीकल्प
श्रीवीरस्वामी “सर्वे प्राणा-द्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणाः, सर्वे भूताः वनस्पतिलक्षणाः, सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियलक्षणाः,
सर्वे सन्चाः पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणाः, स्वस्वकर्मप्रभावेण चातुरन्तसंसारकान्तारे-चतुर्गतिके संसाररूपविषममार्गे॥२३२॥ परिभ्रमन्ति=नारकतिर्य-नरा-ऽमरतया पर्यटन्ति"-इति=एवं संसारवैचित्र्यं संसारवलक्षण्यं विभावयन्-विचारयन् टीका
संयममार्गे व्यहर-विहृतवान् । गर्दा की, अनादर किया, तो ऐसा करने वाले पर जरा भी रुष्ट या अप्रसन्न नहीं हुए। उन्हों ने सभी पर समान भाव धारण किया। 'मेरे लिए न कोई द्वेष का पात्र है, न कोई राग का पात्र है। इस प्रकार की भावना से आत्मा को भावित करते रहे। षड्नोष-निकाय के रक्षा श्रीमहावीर प्रभु 'सभो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप प्राण, वनस्पतिकाय रूप भूत, पंवेन्द्रियरूप जीव, पृथ्वीकाय-अप्काय-तेजस्काय-वायुकाय रूप सच, अपने-अपने कर्म के परिपाक के अनुसार चार गति रूप संसार के दुर्गम मार्ग में परिभ्रमण कर रहे हैं। भगवतः अर्थात् कभी नारक, कनो तिर्यश्च, कमो ना और कमो अमर (देव) रूप से जन्म-मरण कर रहे हैं। इस प्रकार
समभाव
वर्णनम्। हमारे संसार की भयावह विचित्रता का विचार करते हुए संयम-मार्ग में विचरते रहे।
॥मू०९०॥ ભગવાને આજ સુધી પ્રતિકૂલ સંગેને સામને કરી કમ ક્ષય કર્યો હતે. હવે કુદરતે તેમને સાનુકુલ (મજ્ઞ. જીવ લપસી પડે-જીવને ગમે તેવા) સંગે આપ્યા. આ સંગેમાં રહી તેમને કર્મક્ષય કરવાને હતે. કેવી અટપટી કરામત!
આવા મનેણ પદાર્થોમાં તે સહેજે લપસી જવાય ! અનુકૂલ સંગમાં જીવને બમણું ત્રણગણું, વીર્ય ફેળવવું પડે! પ્રતિકૂલ સંગોમાં એક જ પ્રકારનું અને એક ધારું વીર્ય દાખવવાનું હોય છે. ત્યારે અનુકુળતામાં બે જાતના અને તે પણ ઉલટી દિશાનાં વીર્યો (શક્તિ) ખૂબ ખૂબ પ્રમાણમાં દાખવવાં પડે છે. એકબાજુ એક શક્તિદ્વારા પિતાના આત્માને સ્થિર રાખીને, અંતર પરિણામી કરવાનું હોય છે, ત્યારે બીજી બાજુ ઉભા થયેલાં હોવાનું
॥२३२॥ નિમિત્તો સામે ટકકર જીલવાની હોય છે. પ્રતિકૂળતામાં, આત્મવીર્ય અંદર ગોપવી, પડયા રહેવાનું હોય છે, ત્યારે અનુકૂળતામાં આત્મવીર્ય વારંવાર બહાર જતું રહે છે તેને વારંવાર સમજાવી, સ્થિર કરી, અંતગતિ કરવાનું હોય છે. આ છે એક સર્વ કઠિન યોગ સાધના !
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श्रीकल्प
मृत्रे ॥२३३॥
कल्पमञ्जरी
टीका
"द्रव्यभावोपाधिपतिताः द्रव्यत उपाधिर्हिरण्यादिः, भावत उपाधिरात्मनो दुष्परिणतिः, तदुभयोपाधिपतिताः= तदुभयासक्ताः अज्ञानिनः ज्ञानहीनाः जीवाः पापानिपाणातिपातादीनि कर्माणि बध्नन्ति आत्मनि सम्बद्धानि कुर्वन्ति" इति कृत्वा इति ज्ञात्वा भगवान श्रीवीरस्वामी पापालापात-पापसमूहात्, पराङ्मुखः निवृत्त आसीत् ।
अनार्यदेशीयवालाश्च भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनं दृष्ट्वा यष्टिमुष्टिभिः दण्डमुष्टिभिः हत्वा हत्वा पुनः पुनस्ताडयित्वा अक्रन्दन स्वापराधपच्छादनाय स्वयं रुदितवन्तः।
अनार्या म्लेच्छाश्च भगवन्तं दण्डै: अताडयन्ताडितवन्तः, केशाग्रे कृष्ट्वा कृष्ठा-पुनः पुनः कृष्ट्रा प्रभोः दुःवम् उदपादयन् उत्पादितवन्तः, तथापि भगवान् नो तान् आर्यान् अद्वेट्=तदुपरि द्वेषं न कृतवान् । तथाअगारस्थैः-गृहस्थजनैः संभाषितोऽपि उक्तोऽपि भगवान तैः सार्द्ध सह परिचयं स्वजातिकुलादिपरिचयं परित्यज्य= विहाय मौनभावेन शुभध्याननिमग्नः धर्मध्यानतत्परः सन् व्यहर-विहारं कृतवान् । तथा-भगवान् श्रीवीरप्रभुः _ 'हिरण्य-सुवर्ण आदि द्रव्य-उपाधि, तथा आत्मा की दुष्परिणतिरूप भाव-उपाधि में आसक्त अज्ञानी प्राणी प्राणातिपात आदि पापकर्मों का बन्ध करते हैं। ऐसा जान कर श्री वीर भगवान् पापों से विमुख अर्थात् निवृत्त थे।
अनार्य देश के लड़के श्रीवीर प्रभु को देखकर लट्ठियों और मुट्ठियों से मार-मार कर बार-बार ताड़ना तर्जना करके अपना अपराध छिपाने के लिए उलटे रोने लगते थे। अनार्य-म्लेच्छ लोग भगवान् को डंडों से मारते थे, बार-बार बालों के अग्रभाग को खींच-खींचकर सताते थे। फिर भी भगवान ने उन अनार्यों के
पति जरासा भी द्वेष नहीं किया। और गृहस्थों द्वारा संभाषण करने पर भी भगवान उनके साथ जाति कुल कार आदि संबंधी परिचय नहीं करते थे। मौन धारण किये हुए धर्मध्यान में लीन होकर विहार करते थे।
આવા અનુકુળ સંગો એક બાજુ હતા. બીજી બાજુ ભગવાન અલ અવસ્થામાં વિચરતા હતા તે વખતે ભગવાને કેટલો સંયમને ભાર વહ્યો હશે અને આંતર ઈદ્રિ પર મૂકી દીધું હશે? તે કલ્પનામાં પણ આવતું નથી, અર્થાતુ આ અનાર્ય ભૂમિની સ્ત્રીએ જગતના સર્વ દેશમાં સર્વશ્રેષ્ઠ રમણી તરીકે પંકાતી. તેમની વચ્ચે આ પ્રભુ મેરૂ પર્વતની માફક, અડોલ અને નિષ્કપ ઉભા રહ્યા કેવુ મહાન આશ્ચર્ય ! આ વેગ સાધનાને જનશાસ્ત્રોમાં પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુણિમાં ગણી લેવામાં આવી છે. આ પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિ યુત સાધુ યેગી” ગણાય છે.
યોગના સર્વ સાધન આ આઠ પ્રવચનમાતામાં સમાઈ જાય છે. આ માતાને આધાર લઈ ભગવાને અનાય જો ભૂમિની સ્ત્રીઓની ભેગપ્રાર્થનાઓ ઉપર વિજય મેળવ્યો અને તેમની વિજયપતાકા ગરદમ ફરકવા લાગી કે પણ
भगवती
नायकृतो
का प्रसर्ग
वर्णनम् । ॥सू०९०॥
॥२३॥
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श्रीकल्प
॥२३४॥
टीका
सहितुमशक्यान्-दुःसहान् परीषहोपसर्गान् परीषहाः शीतोष्णादयः, उपसर्गाः देवमनुष्यतिर्यस्कृता उपद्रवास्ताननागणयत्न किंचिदमन्यत । नृत्यगीतेषु च रागम् आसक्तिं नाधरत्न धृतवान् । दण्डयुद्धमुष्टियुद्धादिकं कचित् प्रवर्तमानं श्रुत्वा तद् द्रष्टुं नोदकण्ठत उत्कण्ठितो नाभवत्। कामकथासंलीनानांकामसम्बन्धिनां कां कर्तुं प्रवृत्तानां स्त्रीजनानां मिथ:कथासंलापान परस्परंवार्तालापान् श्रुत्वा भगवान् रागद्वेषरहितो मध्यस्थभावेन अशरण: आश्रय
कल्प
मञ्जरी रहित एवं व्यहरत् । घोरातिघोरेषु अतिभयानकेषु संकटेपु-कष्टेषु किश्चिदपि यथास्यात्तथा मनोभावं-चित्तवृत्ति नो विकृत्य-किंचिदपि विचारयुक्तं न कृत्वा संयमेन-सप्तदशविधेन तपसा द्वादशविधेन च आत्मानं भावयन्= वासयन् व्यहरत् । भगवान् भयङ्करेऽपि शीते परवस्त्रम् अन्यदीयं वस्त्रमपि न असेवत-शीतनिवारणार्थ नो धृतवान् । सोनार तथा गृहस्थपात्रे न अभुक्तन भुक्तवान् । तथा-अशनपानस्य आहारपानीयस्य मात्राज्ञः परिमाणवेत्ता भगवान्
वीर भगवान् ने दुस्सह परीषहों (भूख-प्यास आदि की बाधाओं) तथा उपसर्गों (देवों, मनुष्यों तथा तिर्यचों द्वारा कुत उपद्रवों) को कुछ न समझा, अर्थात-समभाव से सहन किया। नृत्य-गीतों में राग धारण नहीं किया। कहीं दण्डयुद्ध हो रहा हो या मुष्टियुद्ध (धूंसेवाजी) हो रहा हो तो उसका वृत्तान्त सुन कर कभी उत्कंठा नहीं उत्पन्न की। कामसंबंधी बातचीत करने में प्रवृत्त स्वीजनों के पारस्परिक
भगवतः वार्तालाप को सुन कर भगवान् राग-द्वेष से रहित ही बने रहे और मध्यस्थ भाव से, आश्रय रहित होकर विचरे।
समभाव
वणनम्। भयानक और अत्यन्त भयानक संकट आने पर भी भगवान् चित्तवृत्ति को तनिक भी विकारयुक्त
म्०९०॥ न करके सत्तरह प्रकार के संयम और बारह प्रकार के तप की आराधना से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। भगवान् ने अत्यधिक शीत पड़ने पर भी, शीतनिवारण के लिए पराये वस्त्र को कभी धारण नहीं किया, तथा गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं किया। अभिप्राय यह है कि न भगवान् के पास वस्त्रपात्र थे, न दूसरों से लेकर ही उनका सेवन करते थे। उन्हों ने किसी भी स्थिति में वस्त्र-पात्र का આ સાંભળી દિગમૂઢ થઈ ગયા અને છેવટે આવા પ્રકારનું માનસ બતાવવાનું તેઓએ છોડી દીધું. અનુકૂળ પરિષહો ઉપરાંત, માર-તાડન-તન-છેદન-ભેદન કુતરાં કરડાવવા લાકડીના પ્રહાર–મુષ્ટિ-લાતે, ૫ગથી છૂંદવા ખૂદી નાખવા વિગેરેના દુઃખે તે હંમેશના થઈ પડયાં હતાં. એટલે બધા દુ:ખેને સમભાવથી સહન કરતા હતા. ભગવાન આ અનાર્ય પ્રદેશમાં નિરતિચાર પણે રહી વંદન નમસ્કાર-માન-અપમાન-પુજા-શ્રદ્ધા-નિંદા પ્રસન્નતા -અપ્રસન્નતા વિગેરેમાં
१२३४॥ સમ પરિણામે રહી વિચરતા હતા મૌનપણું એ તેમને મુખ્ય યોગ હતું. આ ઉપરાંત, રાગ-દ્વેષના ભાવથી તિરક્ત રહી છએ કાયના જીવોની રક્ષા કરતા.
જીવ ચતુર્ગતિમાં જે ભ્રમણ કરી રહ્યો છે, જન્મ, જરા મરણના દુઃખો અનુભવિ રહ્યો છે તે સર્વનું મૂળ
તે
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कल्पमञ्जरी
टीका
रसेषु-अधुरादिषु अमृद्धःगृद्धिभाववर्जितः अप्रतिज्ञः इहलोकपरलोकप्रतिज्ञारहितश्च आसीत् । तथा-भगवान् अक्ष्यपि
नेत्रमपि न प्रामाज यत् जलेन नो कदाचिदपि प्रक्षालितवान् । तथा-कण्डूतौ समुद्गतायामपि भगवान् गात्रं श्रीकल्प
शरीरमपि नो अकण्डूयतको कण्डूयितवान् । तथा विहरन्जनपदविहारं कुर्वन् भगवान् तिर्यक पार्श्वतः, पृष्ठतः
पश्चाद्भागे च न प्रेक्षत-नापश्यत् । शरीरप्रमाणं-देहप्रमाणं पन्थानम्-अग्रे-पुरतो विलोक्य दृष्ट्वा ईर्ष्यासमित्या ॥२३५||
यतमानः यतनां कुर्वन् पथप्रेक्षी-मार्ग विलोकमानो व्यहरत। शिशिरऋतौ, बाहू-भुजौ प्रसार्य-विस्तार्य पराक्रमतसंयमे आत्मबलमुपयोजितवान्, न पुनः स्कन्धयोः बाहू अवालम्बत-स्थापितवान् । भगवान् यदेवंविधमाचार सेवन ही नहीं किया। आहार और पानी के परिमाण को जानने वाले भगवान् मधुर आदि रसों में गृद्धि से सर्वथा रहित थे। इहलोक और परलोक संबंधी प्रतिज्ञा से रहित थे, अर्थात उन्हें न इस लोक संबंधो कोई कामना थी, न परलोकसंबंधी ही। वे सर्वथा कर्मनिर्जरा की भावना से उग्र तप संयम की आराधना करने में तत्पर थे। उन्होंने नेत्रको भी कभी जल से साफ नहीं किया। खुजली आने पर भी कभी शरीर को नहीं खुजलाया। जनपद-विहार करते हुए भगवान् ने कभी तिरछा-इधर-उधर, या पीछे की तरफ नहीं देखा। सामने की तरफ शरीरपरिमित-साढ़े तीन हाथ भूमि-मार्ग को देखते हुए विहार करते थे। शिशिर काल
में अपनी दोनों भुजाएँ। फैलाकर संयम में आत्मबल का प्रयोग करते थे, कंधों पर भुजाएँ नहीं स्थापित करते थे। છે તેની પાપમય પ્રવૃત્તિ છે; તેમજ જડ પદાર્થો તરફની અનર્ગત રૂચિ છે. આને લીધે નરક. નિગેદ; એકેન્દ્રિયથી માંડી
પચેન્દ્રિય સુધીની જાતેમાં પરિભ્રમણ કરી રહ્યો છે. આ વિવિધ પરિભ્રમણ દ્વારા સંસારની વિચિત્રતા પણ જોગવી રહ્યો છે. આ સંસારની વિચિત્રતાને નાશ કરવા આંતરિક અને બાહ્યા સંયમની પ્રબલ આવશ્યક્તા છે, એમ ભગવાનને લાગવાથી તેમણે પૂર્ણ સંયમને માર્ગ અપનાવ્યો હતે.
સેનું-રૂપુ-હીરા-માણેક-રત્ન-પરવાળા-મણિ વિગેરે બાદી દ્રવ્યો ઉપાધિ રૂપ છે, અને અંતરમાં તેની રૂચિ કરવી તે આત્માની દુપ્રણિધાન વાળી દુષ્ટ પરિણિતિ છે. આ બંને પ્રકારની અંતર અને બાહ્ય ઉપાધિમાં આસક્ત થયેલ બાલાની જીવ પ્રાણાતિપાત આદિ નિબિડ–ગાઢ પાપકર્મોને બંધ કરે છે. તેવા પાપથી ભગવાન વિમુખ હતા. અનાર્ય જાતિના મલેચ્છ લેકે ભગવાનને શારીરિક પીડા આપવામાં કંઈ કચાસ રાખતા નહિ; તે પણ
ભગવાન તેમની તરફ દાખવવાને બદલે કરૂણાજળ વરસાવતા તે જાણતા હતા કે આ બિચારા બાલઅજ્ઞાની સગર જીવે છે. તે નકામા કમ બાંધે છે. આ કમેને ઉદય તેમને આવશે, ત્યારે કેટલી વેદના તેઓ અનુભવશે?
भगवतः समभाववर्णनम्। सू०९०॥
॥२३५॥
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पालितवान्, तत्र हेतुमाह 'अण्णे मुणिणोऽवि' इत्यादि । अन्ये मुनयोऽपि एवम् इत्थम् रीयन्तु-विहरन्तु इति कृत्वा इति हेतोः माहनेन अहिंसकेन अप्रतिज्ञेन=इहलोकपरलोकपतिज्ञारहितेन भगवता एषन्मूलगुणोत्तरगुणसमाराधनलक्षणो विधि: आचारः बहुशः अनेकशः अनुक्रान्तः अनुमृतः उत्कर्षेण पालितः ॥मू०९०॥
श्रीकल्प
૨રૂા .
भगवान ने इस प्रकार का जो-उत्कृष्ट और अनुपम आचार पालन किया, उसका हेतु बतलाते हैं-अन्य . मुनिजन भी इस प्रकार विहार करें, इस हेतु से अहिंसक और अपतिज्ञ (इहलोक-परलोकसंबंधी प्रतिज्ञा से रहित) भगवान् ने मूलगुणों एवं उत्तरगुणों की आराधनारूप आचार का बार-बार उत्कर्ष के साथ पालन किया ।।०९०॥
भगवतः आचार
વિષિ
वर्णनम्। //g૦૧ળ
મનેઝ અને અમનેણ વાતાવરણમાં ભગવાન અધિકારી રહી સત્તર પ્રકારના સંયમ અને ચાર પ્રકારના તપ વડે આત્માને ભાવિત કરી, સુખે સમાધે વિચરતા. સર્વ સંયમમાં “મૌન” સંયમને મુખ્ય પણે તેઓ આગળ કરતા. ભગવાન વચ-પાત્ર અદિથી રહિત હતા છતાં ગૃહસ્થના વસ્ત્રપાનું સેવન કરવાનું મનથી પણ ઈછતા નહિ. શીત-ગરમી વિગેરેને સરખા માની, સમભાવે દિવસો વિતાવતા હતા સંસારના કેઈ પણ રસોથી નિલેપ હોવાથી આલોક અને પરલકની વાંચ્છાથી તેઓ રહિત હતા. શરીર અને આત્મવીય ફાળવવામાં સાધન રૂપ માનતા હોવાથી તેની શુશ્રષા તરફનો મેહ તેમને મટી ગયો હતો.
- ઉપરના ભાવનું વિવરણ કરવાના આશય એટલાં પૂરત છે કે, ભગવાન જેવા મહાપુરુષે પણ વીતરાગ ભાવ કેળવવામાં, કેટલા સમયથી વિચરે છે? જે સાધુ વીતરાગતાં પ્રગટ કરવા માગતા હોય, તેણે, વિતરાગ ભાવ ને પુષ્ટિ આપનારા સર્વ, બાહ્ય અને અંતર્ગત ભૂમિકાઓને અપનાવવી પડશે અને કેવલ જ્ઞાન ક્રિયા તરફનેજ ઝુકાવ લાવે પડશે, ભગવાને મૂલગુણે અને ઉત્તરગુણેની આરાધનારૂપ આચારના ઉત્કર્ષતાની સાથે વારંવાર પાલન કર્યું તે સાધુ-માગીઓએ વિસ્મરણ કરવું ન જોઈએ. ભગવાનનું આખું જીવન, અને ખાસ કરીને છધસ્થ અવસ્થામાં વિચરવાનું તે એક સાધુજને અને ગૃહસ્થો માટે, નમુનેદાર આદર્શ છે. આ આદશને નજર સામે રાખવાથી સાધુ–ગણુને પિતાનું શ્રેય સાધી શકશે તેમાં તે જરાય સંદેહ નથી ! પરંતુ મેક્ષમાં ઈચ્છા ધરાવતે શ્રાવક ગણ એટલે મોક્ષાથી પણ આ તેમના સાધુ જીવનમાંથી અનેક પ્રેરણા મેળવી, પિતે પિતાનું જીવન ઘડી, મેક્ષને લાયક બની શકશે! સાધુએને જેટલું અને જેટલા પ્રમાણમાં લેક સંગ તજ એવું જે ભગવાને બતાવ્યું છે, તેટલું ને તેના પ્રમાણમાં મોક્ષાથી શ્રાવકે પશુ વીતરાગતા કેળવવા લોકસંગ તજવો પડશે (સૂ૦૯૦)
૨રૂદ્દા
ગાયા છે
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सूत्रे
कल्पमञ्जरी
। २३७॥
संजात
भगवओ विहारठाणाणिमूलम्-कयाइ भगवं आवेसणेसु वा सहासु वा पवासु वा, एगया कयाइ सुग्णासु पणियसालासु पलियट्ठाणेमु पलालपुजेसु वा, एगया आगंतुयागारे आरामागारे णगरे वा बसी। मुसाणे मुण्णागारे रुक्खमूले वा एगया वसी। एएमु ठाणेसु तहप्पगारेसु अण्णेसु ठाणेसु वा वसमाणे समणे भगवं महावीरे राइंदियं जयमाणे अप्पमत्ते समाहिए झाई। तत्थ तस्सुवसग्गा नीया अणेगरूवा य हविस, तं जहा-संसप्पगा य जे पाणा ते, अदुवा पक्विणो भगवं उपसम्गिसु। पहुरूवमोहियाओ इत्थियाओ य भगवं उपसग्गिसु । सत्तिहत्थगा
टीका गामरक्खगा य किंपि अयमाणं भगवं चोरसंकाए सत्याभिघाएण उपसम्गिसु । भगवंते सव्वे उवसग्गे अहियासी । अह य इहलोइयाइं पारलोइयाई अणेगरूबाई पियाई अप्पियाई सद्दाई, अणेगरूबाई भोमाइरूबाई, अणेगरूवाई सुभिदुन्भिगंधाई, विरूबरूवाई फासाई सयासमिए रइं अरई अभिभूय अवाई समाणे सम्म अहियासो। .
मुण्णागारे राओ काउसग्गे ठियं भगवं कामभोगे सेविउकामा परत्थीसहिया एगवरा समागया पुच्छंति"कोऽसितुमं"-ति, तया कयावि भगवं न किंपि वयह तुसिणीए संचिटइ, तया अवायए भगवम्मि कुद्धा रुटा भगवतोऽसमाणा नाणाविहं उबसगं करेंति, तपि भगवं सम्म सही। कयावि 'को एत्थ' ति पुच्छिए भगवं वदी- नार्यदेश'अहमंसि भिक्खू' त्ति सोचा सकसाएहि तेहिं आहच्च-'अपसरेहि एत्तो-त्तिकहिय भगवं अयमुत्तमे धम्मे" ति कट्ट ततो तुसिणीए चेव निस्सरीअ। जंसि हिमवाए सिसिरे पवेयए मारुए पवायंते अप्पेगे अणगारा निवायं ठाण- परीषहोमेसंति, अण्णे 'संघाडीओ' परिसिस्सामोत्ति वयंति, एगे य इंधणाणि समादहमाणा चिदंति, केई पिहिया अइ
पसर्गदुक्खं हिमगसंफासं सहिउं सक्खामो ति सोयंति, तंसि तारिसगंसि सिसिरंसि दविए भगवं अपडिन्ने समाणे १ वर्णनम्। वियडे ठाणे तं सीयं सम्म अहियासी । एस विही "अण्णे मुणिणो वि एवं रियंतु" त्ति कटु अप्पडिन्नेण मइमया मू०९१॥ भगवया बहुसो अणुक्तो ॥०९१।
प्रभुविहारस्थानानिछाया-कदाचिद् भगवान् आवेशनेषु वा सभासु वा प्रपासु वा, एकदा कदाचित् शून्यासु पण्यशालासु पलितस्थानेषु पलालपु षु वा एकदा आगन्तुकागारे आरामागारे नगरे वा अवसत । श्मशाने शून्यागारे वृक्षमूले
प्रभु के विहारस्थान मूल का अर्थ-'कयाइ भगवं' इत्यादि। कभी भगवान् शिल्पकारों की शालाओं में उतरे, कभी ॥२३७॥
પ્રભુનું વિહારસ્થાન भूजना मथ-'कयाइ भगव' त्याहि मावानना ASIR स्थानो रोनीयासोमां, सभामi, SC
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कल्प
सत्रे
मञ्जरी
टीका
भगवतीविहार
वा एकदाऽवसत् । एतेषु स्थानेषु तथाप्रकारेषु अन्येषु स्थानेषु वा वसन् श्रमणो भगवान् महावीरो रात्रि
न्दिवं यतमानोऽप्रमत्तः समाहितोऽध्यायत् । तत्र तस्योपसर्गा नीताः अनेकरूपाश्चाऽऽसन् , तद्यथा-संसर्पकाश्च ये श्रीकल्प
पाणास्ते, अथवा-पक्षिणो भगवन्तम् औपसर्गयन् । प्रभुरूपमोहिताः स्त्रियश्च भगवन्तमौपसर्गयन् । शक्तिहस्तका
ग्रामरक्षकाच किमप्यवदन्तं भगवन्तं चोरशङ्कया शस्राभिघातेन उपासर्जयन्। भगवान् तान् सर्वानुपर्मान् सम्य॥२३८॥
गध्यसहत । अथ च ऐहलौकिकाम् पारलौकिकान् अनेकरूपान् प्रियान् अप्रियान् शब्दान अनेकरूपाणि भीमादिरूपाणि अनेकरूपान् सुरभिदुरभिगन्धान , विरूपरूपान् स्पर्शान् सदासमितः रतिम् अरतिमभिभूय अबादि सन् सम्यग् अध्यासीत। सभाओं में, कभी प्रपाओं में, कभी सूनी दुकानों में, कभी कारखानों में, कभी पलाल के पुंजों में, कभी धर्मशालाओं में, कभी आरामागारों में, कभी बगीचों के घरों में, कभी नगर में, कभी श्मशान में, कभी सूने घरों में, और कभी वृक्षों के नीचे उतरे । इन स्थानों में अथवा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में रहते हुए श्रमण भगवान महावीर रात-दिन यतना करते हुए, अप्रमत्त और समाधियुक्त रहे । इन स्थानों पर भगवान् को अनेक प्रकार के उपसर्ग हुए। वे इस प्रकार-संसर्पण करने वाले सर्प आदि जो प्राणी थे, उन्हों ने तथा पक्षियों ने भगवान् को उपसर्ग किया। शक्तिनामक शस्त्र हाथ में लिये हुए ग्रामरक्षक कुछ भी न बोलते हुए भगवान् को चोर समझ कर शस्त्र का आघात करके उपसर्ग देते थे। भगवान् ने उन सभी उपसर्गों को अच्छी तरह समभाव से सहन किया। और इहलोक और परलोक संबंधी अनेक प्रकार के प्रिय एवं अप्रिय शब्दों को, विविध प्रकार के भयंकर आदि रूपों को, भाति-भांति की सुगंध-दुर्गध को तथा तरह-तरह के स्पर्शों को, પ્રપાઓમાં, સૂની દુકાનમાં, કારખાનાઓમાં, ઘાસની ગંજીમાં, ધર્મશાળાઓમાં, આરામગૃહે માં નગરમાં, શમશાન ભૂમિમાં, સૂના ઘરમાં અને વૃક્ષની નીચે હતાં. આ સ્થાને અને એવા જ પ્રકારનાં અન્ય સ્થ માં, શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, યતના પૂર્વક, અપ્રમત્ત દેશ અને સમાધિમાં રહેતા હતા. આવા સ્થાનમાં, ભગવાનને અનેક પ્રકારના ઉપસર્ગો થતા હતા આ ઉપસર્ગો કેવા પ્રકારના હતા તે જણાવતાં શાસ્ત્રકાર કહે છે કે હલનચલન કરવાવાળા પ્રાણીઓ અને પક્ષીઓ પે તાની રીતે તેમને કષ્ટ આપતા.
જંગલ અને આવા નિર્જન સ્થાનની મુલાકાત લેતી હલકી કેટીની સ્ત્રીઓ, ભગવાનના દેદાર ઉપર મેહ પામી,
તેમને કષ્ટ ઉપજાવતી. સ્વરક્ષણ માટે હાથમાં કુહાડી લઈ ફરનાર ગ્રામજને મૌન ધારણ કરવાવાળા ભગવાન મહાવીરને ___Jain Education Stationant
ને ચોર સમજી, તેમને કુહાડીને માર મારતા ભગવાન આ ગામડીયાઓના કષ્ટ સહન કરી લેતા. આલોક અને પરલેક
वर्णनम् । मू०९१॥
॥२३८॥
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श्रीकल्प
टीका
शून्यागारे रात्रौ कायोसर्ग स्थितं भगवन्तं काम भोगान् सेवितुकामाः परस्त्रीसहिताः एकचराः समागताः पृच्छन्ति-" कोऽसित्वम्" इति, तदा कदाऽपि भगवान् न किमपि वदति, तूष्णीकः संतिष्ठते, तदा अवाद के भगवति क्रुद्वाः रुष्टाः सन्तः नानाविधमुपसर्ग कुर्वन्ति, तमपि भगवान् सम्यक असहत । कदाचित् “कोऽत्र" इति
कल्पपृष्ठो भगवान् अवदत् “अहमस्मि भिक्षुः" इति श्रुत्वा सकपायैस्तैराहत्य “अपसर इतः" इति कथितो भगवान्
मञ्जरी ॥२३९॥ “अयमुत्तमो धर्मः" इति कृत्वा ततस्तूष्णीक एव निरसरत् । यस्मिन् हिमवाते शिशिरे प्रवेपके मारुते प्रवाति अप्येके
सदा समितियुक्त, तथा रति-अरति का अभिभव करके, मौन रह कर, सम्यक् प्रकार से सहन करते रहे। कभी-कभी मूने घर में, रात्रि के समय, कामभोग सेवन करने की कामना वाले परस्त्री के साथ आये हुए जार पुरुष, कायोत्सर्ग में स्थित भगवान से पूछते थे-'तू कौन है ?' तो भगवान् कभी भी कुछ भी उत्तर नहीं देते थे-चुपचाप रहते थे। उस समय मौन रहने वाले भगवान् पर वे क्रुद्ध हो कर नाना प्रकार के कष्ट उन्हें देते थे। उस कष्ट को भी भगवान् ने सम्यक् प्रकार से सहन किया।
'यहाँ कौन है?' इस प्रकार पूछने पर कदाचित् भगवान् उत्तर देते-'मैं भिक्षु हूँ।' यह सुन- भगवतः कर वे कपाययुक्त हो जाते और मार पीट करते- हठ यहाँ से' । इस प्रकार कहे गए भगवान् 'यही समभावउत्तम धर्म है' ऐसा सोच कर विना बोले ही वहाँ से निकल जाते थे।
वर्णनम्।
॥मू०९१॥ जिस शीतल वायु वाली शिशिर ऋतु में, कँपी कँपो उत्पन्न करने वाली हवा चलने पर, कोई-कोई સંબંધી પ્રિય અને અપ્રિય શબ્દોમાં વિવિધ પ્રકારના મહા ભયંકર રૂપિમાં ભાત ભાતની સુગંધ અને દુર્ગામાં, અને તરેહતરેહના પર્થોમાં રતિ અને અરતી લાવ્યા સિવાય મૌન રહીને ભગવાન સહન કર્યે જતા હતા. કઈ કઈ રીતે સૂના ઘરમાં રાત્રિના વખતે છૂપી રીતે કામગનું સેવન કરવાવાળા જાર સ્ત્રી પુરુષે પણ અવતા. તેઓ, ભગવાનને ધ્યાનમગ્ન જોઈ “તું કેણ છે? શા માટે આવ્યો છે?” એવા પ્રશ્નો પૂછતા. ભગવાન નિરૂત્તર રહી, મૌનપણાને સેવતા આ મૌનપણે જોઈ તેઓ ક્રોધાતુર થતા અને જુદાજુદી જાતના દુઃખે તેમને આપતા આ સર્વ દુઃખોને ભગવાન સુપરિણામે સહન કરતા અને કદાચ ભગવાન જવાબ આપતા કે “હું ભિક્ષુક’ છું કે તે તેમનું આવીજ બનતુ! मि' शब्द समजी, ते पाय युटत यता ने भारपीट ४२१॥ भी पता. घी मत “यात्या !" ॥२३९॥ “હટી જા !” વિગેરે વાકયથી ૫ણુ ભગવાનને નવાજતાં. આવા વચને સાંભળી ભગવાન અંતર્ગત વિચારતા
કે “ ચાલ્યા જવું એજ શ્રેષ્ઠ છે” આવું વિચારી બાયા ચાલ્યા વિના ત્યાંથી નીકળી જતા હતા. શીતળ પવનવાળી Jain Education Ins onal કિન ઠંડી ઋતુમાં જયારે ઠંડા પવને સૂસવાટા કરતા ફેંકાતા હોય ત્યારે કોઈ સાધુ ઠંડીમાંથી બચવા માટે યોગ્ય
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श्रीकल्पसूत्रे
॥२४० ॥
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MALKETERNA
अनगारा निर्वातं स्थानमेषयन्ति, अन्ये 'संघाटीः प्रवेक्ष्यामः' इति वदन्ति, एके च इन्धनानि समाददन्तस्तिष्ठन्ति, केचित् 'पिहिता अतिदुःखं हिमकसंस्पर्श सोढुं शक्ष्यामः' इति शोचन्ति तस्मिन् तादृशे शिशिरे द्रविको भगवान् अप्रतिज्ञः सन् विकटे स्थाने तत् शीतं सम्यक् अध्यास्त । एष विधिः 'अन्ये मुनयोऽपि एवमीर ताम्' इति कृत्वा अप्रतिज्ञेन मतिमता भगवता बहुशोऽनुक्रान्तः | ०९१ ॥
टीका - "कयाइ भगवं" इति । कदाचित् = कस्मिंश्चित् समये भगवान् आवेशनेषु = शिल्पकारशालासु कदाचित् सभा, कदाचित् प्रपासु =नीयशालासु, अवसदिति परेणान्वयः, एत्रमग्रेऽपि बोध्यम् । एकदा कदाचित् अनगार वायुहीन स्थान की गवेषणा करते थे और कोई-कोई कहते थे कि 'हम संघाटी - चादर ओढ़ेंगे ' तथा कोई-कोई योग आदि शीत निवारण के लिए इंधन जलाते थे, कोई-कोई सोचते थे कि ओढ़ने पर ही इस शीत के कष्ट को सहन कर सकते हैं, ऐसे शिशिर के समय में भी भगवान् मुक्ति के अभिलाषी और अप्रतिज्ञ रह कर सम्यक् प्रकार से उस शीत को सहन करते थे । 'अन्य मुनि भी इसी प्रकार का आचरण करें' ऐसा सोच कर अप्रतिज्ञ एवं मतिमान् भगवान् ने अनेक बार इस प्रकार का आचार पालन किया ।। ०९१ ।। टीका का अर्थ - कभी-कभी भगवान् शिल्पियों की शालाओं में, कभी सभा स्थलों में और कभीकभी प्याओं में उतरते थे। कभी-कभी जनशून्य दुकानों में, कभी कारखानों में, कभी पलाल के पुत्रों में, સ્થાનાની શેાધ કરતા, કોઇ કોઇની ચાદર (સ`ઘાટી) એઢવ નું પસદં કરતા તા કેાઈ ઠંડીમાંથી છૂટવા માટે છાણાં સળગાવી તાપણુ કરતા. આવા સમયમાં પણ ભગવાન જે મુક્તિના અભિલાષી હતા અને અપ્રતિજ્ઞ હતા તેઓ સમ પરિણામે શીતના પરિષદ્ધને વેદતા હતા. અન્ય મુનિએ પણ વિશ્વમાં મારા જેવું જ આચરણ કરશે એમ ધારી ભગવાન વારવાર આવાજ પ્રકારના આચારનું પાલન કરતા. (સૂ૦૯૧)
ટીકાના અથ-મુનિને મહેલાત અને મસાણ સરખાંજ હોય છે. તેમને મન બને માટીની જ બનાવટ છે. દેહ રહિત એવા સિદ્ધ સુખે જીવે છે.' એ સૂત્ર અનુસાર દેહ ભાનરહિત થવામાં જ તેઓ જે દ્રષ્ટા છે તે દૃષ્ટિને જે જાણે છે રૂપ, અખાધ્ય અનુભવ જે રહે તે છે. જીવ સ્વરૂપ,
માનદ અનુભવે છે.
ઉપરના વાકયનું જેને ભાન વતી રહ્યું છે એવા ભગવાનને ઉચ્ચ જાતિની માટીની મહેલાતે કેમ પસંદ પડે ? તે તે કોઈ પણ એકાંત સ્થળના જ હિમાયતી હતા તેમને કોઈ પણ ઉપાયે પોતામાં સમાઇ જવાની તાલાવેલી લાગી હતી તેથી એવા એવા સ્થળેા શેાધતા કે જ્યાં કોઈના પગરવ પણ હાય નહિ ! કોઈ તેમને પરેશાન કરે નહિ; કોઈ તેમના
ܕ
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतोविहारस्थान
वर्णनम् ।
।। सू० ९१ ॥
॥२४०॥
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श्रीकल्प
कल्प मञ्जरी
॥२४॥
टीका
शून्यामु-जनरहितासु पण्यशालामु=आपणगृहेषु पलितस्थानेषु-लोहकारशालासु पलालपुञ्जेषु-पलालराशिषु वा अवसत एकदा एकस्मिन् समये आगन्तुकागारे आगन्तुकगृहे-धर्मशालायाम् आरामागारे-उपवनगृहे नगरे पुरे वा अवसत् । एकदा एकस्मिन् समये श्मशाने शून्यागारे जनरहितगृहे, वृक्षमुले वा अवसत् । एतेषु आवेशनादिरूपेषु स्थानेषु तथामकारेषु अन्येषु स्थानेषु वा वसन् श्रमणो भगवान् महावीरो रात्रिन्दिवम् अहोरात्रम् यतमानः यतनां कुर्वन् अप्रमत्तःम्प्रमादरहितः, अत एव समाहितः समाधियुक्तः सन् अध्यायत्-धर्मध्यानमकरोत् । तत्र तस्य श्रीवीरस्वामिनः, उपसर्गा, नीताः देवादिभिरुपस्थापिताः, ते उपसर्गाश्च अनेकरूपाः बहुविधा अभवन् । तद्यथा-ये संसर्पकाः चलनशीला प्राणाः द्वीन्द्रियादयस्ते, अथवा-गृध्रादयः पक्षिणः स्थाणुवदचलं भगवन्तं-श्रीवीरम् औपसर्गयन् उपसर्ग कृतवन्त । प्रभुरूपमोहिताः भगवद्रपमोहिताः स्त्रियश्च भगवन्तम् औपसगैयन् । तथा-शक्तिहस्तका कभी धर्मशालाओं में, कभी उपवन में बने घरों में, कभी श्मशानों में, कभी सूने घरों में, कभी वृक्षों के नीचे उतरते थे। इन सब स्थानों में तथा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में रहते हुए भगवान महावीर दिन-रात यतना करते हुए, प्रमादहीन होकर और समाधि में लीन रह कर धर्मध्यान ही करते रहते थे। इन स्थलों में ठहरते समय भगवान् को देवों आदि द्वारा भाति-भाति के उपसर्ग हुए। जैसे-सादि तथा द्वीन्द्रिय आदि चलने-फिरने वाले प्राणी अथवा गीध आदि पक्षी स्थाणु की तरह अचल भगवान् को उपसर्ग करते थे। कभी-कभी प्रभु के रूप पर मोहित होकर स्त्रिया प्रभु को उपसर्ग करती थीं। तथा-शक्ति नामक अस्त्र કાર્યમાં વિદ્ધરૂપ કે અંતરાયનું કારણ થાય નહિ! છતાં આવા એકાંતિક આમિક કામમાં પણ તેને ઘણે વિટંબના ઉભી થતી અને તે વિટંબનાઓને પણ કેઈ આરે હતે નહિ. ભગવાન લુહારની કેડમાં, પિયાવા જેવી જગ્યાએ, ખંડેર અશાન કે પડતર ઘર કે દુકાનમાં જ્યાં જ્યાં જતા ત્યાં ત્યાં, વસવાટ કરી રહેલ પશુપંખીઓ પણ ઉપદ્ર ઉમાં કરતાં, તેમ જ આવા સ્થળોએ દુરાચારી વ્યક્તિઓ આવતી જ હોય છે તેથી તેમની દ્વારા પણુ ભગવાનને કષ્ટના તીવ્ર અનુભવો થતા હતા. આ ખાટા-મીઠા સંસારમાં વિવિધ માનસ ધરાવતી વ્યક્તિએ પિતાને ઠીક લાગે તે રીતે સંમારનો હા મેળવવા ઇરછે છે, છતાં તેઓની આકાંક્ષા પૂરી થતી જ નથી અને કુતરાના કાનમાં કીડા પડતાં જેમ કુતરાને કયાંય ચેન પડતું નથી તેમ સંસાર લાલુપીને કયાંય પણ સુખ અને શાંતિ નહિ મળતાં મક્કાવાં નિર્જન સ્થાનમાં હવાનેબાચકાં ભરે છે. પરંતુ ભગવાન તે પિતાના કાર્યમાં મસ્ત રહેતા હોવાથી આવા કષ્ટને તદ્દન નિર્માલય જેવા ગણુતા, અને પોતાના સ્વભાવમાં તલ્લીન રહેતા. આવી જગ્યાએ ચામાચીડી-ઘુવડ,
ડાંસ,-વીંછી,-ગીધ, આદિ પુષ્કલ પ્રમાણમાં રહેતાં હોવાને કારણે તેઓ, ભગવાનને જુદી જુદી રીતે દુઃખ આપતાં હતાં. કે પ્રભુના શરીર સાથે મોહની માંધિથી ચાળા કરનાર રૂપસુંદરીઓને ઉપસર્ગ તેમને કે થતું હશે. તે વખતે પ્રભુએ
भगवत
उपसर्ग
वर्णनम् । सू०९॥
ઉપદ્રવે
તીવ્ર અનુભવે થતા
નવા ઇરછે છે, છતા
સાર લુપીને
॥२४॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
कल्पमञ्जरी टीका
॥२४२॥
मानी-
माशान् सदा रामदुरभिग
शक्तिनामकास्त्रविशेषधारकाः, ग्रामरक्षकाः ग्रामपालकाश्च किमपि-किश्चिदपि वचनम्-अवदन्तम् भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनं, चौरशङ्कया-चौरसंशयेन शस्त्राभिघातेन शस्त्रप्रहारेण औपसर्गयन्-उपसर्ग कृतवन्तः। भगवांस्तु तान्-उपर्युक्तान् सर्वानपि उपसर्गान् सम्यक् अध्यसहत सोढवान् । अथ च भावान् ऐहलौकिकान मनुष्य सम्बन्धिनः, तथापारलौकिकान् देवादिसम्बन्धिनश्च अनेकरूपान्-चप्रकारान् प्रियान्=अनुकूलान् अभियान प्रतिकूलान् शब्दान् , तथा-अनेकरूपाणि नानाविधानि भीमादिरूपाणि भीमानि भयङ्कराणि रूपाणिपिशाचादीनामाकाराः, आदिपदान् - देवाङ्गनादीनां मनोहराणि रूपाणि च, तथा-अनेकरूपान्=बहुविधान सुरभिदुरभिगन्धान=सुगन्धान दुर्गन्धांश्च, तथाविरूपरूपान् अमनोज्ञान् , उपलक्षणाच्च मनोज्ञान स्पर्शान् सदासर्वदा समितः समितिसम्पन्नः सन् रतिमरर्ति रागद्वेषौ अभिभूय-त्यक्त्वा अवादी-मौनी-मुखदुःखमप्रकाशयन् सम्यक अध्यास्त-निश्चलतया सोढवान् । हाथ में लिये ग्रामरक्षक-कोतवाल आदि कुछ भी न बोलने वाले भगवान् को चोर की आशंका करके अर्थात चोर समझ कर शस्त्रों का प्रहार करते उपसर्ग करके थे, परन्तु भगवान् इन सभी उपसगों को सम्यग रीति से सहन करते थे। तथा-भगवान् इहलोकसंबंधी मनुष्यादिकृत तथा परलोकसंबंधी अर्थात् देवादिकृत अनेक प्रकार के अवकल एवं प्रतिकुल शब्दों को, विविध प्रकार के भयानक पिशाच आदि के रूपों को 'आदि' शब्द से देनांगना आदि के मनोहर रूपों को, तरह-तरह की सुगंध और दुर्गध को, तथा अमनोज्ञ
और उपलक्षण से मनोज्ञ स्पर्टी को, सदैव समितियुक्त होकर, राग-द्वेष को त्याग कर, मौनभाव से-अपने मुख-दुःख को प्रकाशित न करते हुए, निश्चलरूप से सहन करते थे। कभी-कभी ऐसा भी प्रसंग आता પિતાની કઈ અલૌકિક શક્તિ વડે ઇન્દ્રિય ઉપર દમન ચલાવ્યું હશે ? પ્રભુને ચાર તરીકે ઠેરવીને ગ્રામ્ય રક્ષકોએ તેમના શુ હાલ કર્યા હશે ? મનુષ્યકૃત–દેવકૃત અને તિર્યચકૃત ઉપસર્ગો મરણ ઉપજાવે તેવાં હતાં, છતાં ભગવાન તે સર્વને ઉદયભાવે ગણી ફેંકી દેતાં, કારણ કે, તે ઉપસર્ગોને ઉપસી તરીકે માનતા જ નહિ. જેને આ દેહ ઉપરની સર્વાગી મમતા ઉડી ગઈ હતી, તેને દેહ રહે તેય શું અને ન રહે તે પણ શું? કારણ કે તેમણે તે દેહને એક “જડાત્મક” ભાવ તરીકે ગયે હતે. તે દેહ ઉપરના વિતક-દુઃખે તે તે વખતના જડના પરિણામિક ભાવે જ હતા. તે વખતે જડ દેહ, તે રૂપેજ પરિણમવા સર્જાયેલ હતું. એમ આમ બુદ્ધિએ, ભગવાને નકકી કર્યું હતું. પછી તે દશાને આપણે ઠીક પડે તે અર્થ માં ઘટાવીએ ! પરંતુ ભગવાનને દેહ સાથે તે સંબંધ (રુચિ) છૂટી ગયો હતે.
આ વાત આંતરિક ભાવને લક્ષમાં રાખીને કરવામાં આવી છે. જેની ફક્ત બાહ્ય-દષ્ટિ છે, તેને આ વાતની ઘેડ બેસશે ના નહિ. પણ વાસ્તવિક રીતે તે, આ પ્રમાણે જ છે. ભગવાનના સમયમાં, આમદર્શન કરવાના હિમાયતીઓ, પોતપોતાની
भगवत उपसर्ग
वर्णनम्।
मू०९१॥
॥२४२॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥२४३॥
鄭興
तथा - कदाचित् - शून्यागारे - निर्जनगृहे रात्रौ कायोत्सर्गे स्थितं भगवन्तं - श्रीवीरस्वामिनं कामभोगान् सेवितुकामाः परस्त्रीसहिताः एकचरा : =जारपुरुषाः समागताः पृच्छन्ति-' कोऽसि त्वम् ? इति । तदा कदाचित् भगवान् श्रीवीरस्वामी न किञ्चिदपि वदति, किन्तु तूष्णीकः = मौनसहितः संतिष्ठते, तदा तस्मिन् काले अवादके= अनुत्तरशीले भगवति = भगवन्तं प्रति क्रुद्धाः कृतक्रोधाः, रुष्टा = कृतरोपाः सन्तः नानाविधम् = अनेकप्रकारम् उपसर्गम् कुर्वन्ति=यष्टिमुष्ट्यादिभिर्भगवन्तं ताडयन्ति, तमपि उपसर्ग भगवान् = श्रीवीरस्वामी सम्यक् असहत = सोढवान् । कदाचित्= कस्मिंश्चित्समये- 'कोऽत्र' अत्र - अस्मिन् स्थाने कोऽस्ति ? इति = एतत् पृष्टः सन् भगवान् श्रीवीरस्वामी अवदत् उक्तवान् अहं भिक्षुरस्मि इति = एतद्वचः श्रुत्वा सकपायैः = क्रोधादिकपायसहितैः तैः =जारपुरुषैः आहत्य = ताडयित्वा “इतः=अस्मात् स्थानात् अपसर= दूरं गच्छ" इति = एतत् कथितः = उक्तः सन् भगवान् 'अयम् = ताडनादिसहनरूपः उत्तमः = उत्कृष्टो धर्मोऽस्ति' इति कृत्वा = इति ज्ञात्वा ततः तस्मात् स्थानात् तूष्णीकः = किंचिदवदन्नेव निरसरत्= निर्गतवान् । तथा यस्मिन् हिमवाते = शीतलवायुयुक्ते शिशिरे = शिशिरऋतौ प्रवेपके = शीतसंवलितत्वात्
कि भगवान् सुनसान घर में रात्रि के सुन कायोत्सर्ग में स्थित रहते थे। व्यभिचारी पुरुष परस्त्री के साथ कामभोग सेवन करने के लिए वहाँ आते और भगवान से पूछते - 'कौन है तू ?' तब भगवान् कुछ उत्तर नहीं देते, मौन साधे रहते । तब कुछ भी उत्तर न देनेवाले भगवान् पर वे क्रोधित होते, रुष्ट होते और भगवान को अनेक प्रकार से लट्ठी मुट्ठी आदि से ताड़ना करते। उस उपसर्ग को भी भगवान् सम्यक्रूप से सह लेते थे। कभी किसी ने पूछा - " कौन है यहाँ ?" इस प्रश्न के उत्तर में वीर प्रभु ने कहा'मैं भिक्षु हूँ।' वह शब्द सुन कर वे जार पुरुष क्रोध आदि कषायों से युक्त हो जाते और ताड़ना करके कहते - ' दूर जा यहाँ से।' इस प्रकार कहने पर भगवान् सोचते - 'ताड़ना आदि को सह लेना उत्कृष्ट धर्म है ।' और यह सोचकर वे चुपचाप, बिना कुछ कहे, निकल जाते थे ।
રીતે, આત્માની વાર્તા કરતા હતા. માચાર-વિચારાનું પાલન પણ પેાતાની ષ્ટિ એ જ કરતા, છતાં શીતપરીષહને પણ સહન કરવામાં લાચાર હતા. શીતપરીષહને સહન નહિ કરનારા આત્મા, ચાદર આદિ વસ્ત્રો, તથા માનવ વસવાટ વિનાના સ્થળેાની શેાધમાં જ ફરતા હતા. કારણ કે તેઓને દેહ દૃષ્ટિ ગઇ ન હતી.
જૈન ધર્માંના સાધુઓ સિવાયના અન્યમાગી સાધુઆ, અગ્નિ વિગેરે પ્રગટાવીને શીત સામે રક્ષણ મેળવતા કારણ કે તે શરીરને આત્મ-સાધન માનતા. અને “દેહ રખા ધર્મ. ” માનતા એટલે દેહનું અસ્તિત્વ હશે તે ધમ થઈ શકશે. એમ તેઓની ધારણા હતી. આવાઓનુ` મંતવ્ય, ભગવાનના આચારથી જુદું તરી આવે છે ! તે
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कल्पमञ्जरी
टीका
भगवत उपसर्ग
वर्णनम् । ॥सू०९१॥
॥२४३॥
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कल्पमञ्जरी टीका
जनानां प्रकम्पकारके मारुते यायौ प्रवाति-प्रचलति सति अप्येके केचित् अनगारा: साधवः निर्वातंबायुरहित
स्थानम् एषयन्ति गवेषयन्ति, अन्ये जनाः “संघाटी: शीतनिवारकवस्त्रविशेषान् प्रवेक्ष्यामः पविष्टाः भविष्यामः" श्रीकल्प
इति इत्थं शीतभीत्या वदन्ति-जल्पन्ति, एके अन्ये च भिक्षवः इन्धनानि काष्ठानि समादहन्तः अग्नौ प्रज्वलयन्तः
सन्तस्तिष्ठन्ति, केऽपि "पिहिताःचस्वाच्छन्नाः अतिदुःखं महाकष्टम् हिमकसंस्पर्श सहितुं शक्ष्यामः समर्था ॥२४४|| भविष्यामः" इति शोचन्ति मनसि विचारयन्ति, तस्मिन् तादृशे-तथाभूते शिशिरे शीतकाले द्रविका मोक्षाभिलाषी
भगवान्-श्रीवीरस्वामी अप्रतिज्ञः इहलोकपरलोकमतिज्ञारहितः सन् विकटे शीतभययुक्ते अनावृते स्थाने तत्-दुःसहं शीतं सम्यक् अध्यास्त-निश्चलतया सोढवान् । “अन्ये मदितरेऽपि मुनयः साधवः एवम् मदनुष्ठितप्रकारेण ईस्ताम्= विहरन्तु" इति कृत्वा इति विचार्य अप्रतिज्ञेन-पतिज्ञारहितेन मतिमता-मेधाविना भगवता-श्रीवीरस्वामिना एष:पूर्वोक्तो विधिः आचारः बहुशः अनेकशः अनुक्रान्त अनुसृतः-पालितः ॥०९१॥
शीतल वायु से युक्त शिशिर ऋतु में, शीतलता के कारण मनुष्यों को कँपकँपी उत्पन्न करने वाली हवा चलती थी। उस समय कितने ही साधु ऐसे स्थान खोजते फिरते थे जहाँ वायु का प्रवेश न हो। कोई-कोई जन शीत की भीति से कहते थे-'हम तो शीत को रोकने वाले वस्त्र में दुबक जाएँगे। कई लोग आग में इंधन जला कर तापते थे। कोई सोचते थे-वस्त्र ओढ़ने से ही महाकष्टकर सर्दी सहन की जा सकती है। ऐसे शीतलकाल में भी मोक्ष के अभिलाषी भगवान् इहलोक-परलोकसंबंधी समस्त कामनाओं से दूर रह कर सर्दी के भय वाले खुले स्थान में उस दुस्सह शीत को अचल भाव से सहन करते थे। ઉપરોક્ત ઉપસર્ગો દ્વારા સહેજે જાણી શકાય છે. જેને આત્મભાન જાગૃત થયું છે તેને આત્માની સ્વતંત્ર શક્તિ,
સ્વ–પર પ્રકાશકનો ગુણ અનંતવીર્ય અને અનંતસુખનો અનુભવ થતાં, દેહ ભાનભૂલાઈ જાય છે, ને કેવલ આત્મા, નિજ શક્તિએ નિર્ભર થઈ, આગળ વધે છે.
દેહ દશા અને આત્મદશા વચ્ચેનું અંતર, આકાશ-પાતાળ જેટલું હોય છે. જેની દેહદૃષ્ટિ છે, તે ગમે તેટલી ક્રિયાઓ કરશે, શરીરને સુકવી નાખી ખાખ બનાવી દેશે, તે પણ, આત્મદર્શન નહિ થાય. પરંતુ જેને આત્મલક્ષ થયું છે, નિજ સ્વભાવની જેને પિછાણુ થઈ છે, જેણે આત્મામાં રહેલ અનંત સુખો અને અનંત વીય ઉપર વિશ્વાસ મૂકી છે. તે, થોડી પણ શુદ્ધ ક્રિયા કરતે થેક, નિજ નિવાસ ધામમાં પહોંચી શકશે.
ભગવાન તો, નિજભાન સાથે લઈ ને જ અવતર્યા હતાં. જે “ઉત્કૃષ્ટ આત્મભાન” ને ક્ષાયિક સમ્યકત્વ શકિત કહેવામાં આવે છે, તે સમ્યકત્વ, તે જ ભવમાં, ભગવાનને સિદ્ધ ગતિમાં લઈ જશે. આવા ઉત્કૃષ્ટ ત્યાગીના યાગને,
भगवत उपसर्गवर्णनम् । सू०९॥
॥२४४॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥२४५||
मुलम्-तओ भगवं पुणोऽवि चिंतेइ-"बहुयं कम्मं मम निजरेयव्वं अत्थि, अओ अणारियबहुलं लाढदेसं बच्चामि, तत्थ हीलणनिंदणाईहिं बहुयं कम्मं निजरिस्सई" ति कटु लाढ देसं पविसी। तत्थ पविसमाणस्स भगवो मग्गे चोरा मिलिया। ते य भगवं दद्रण 'अवसउणं जायं जं मुंडिओ मिलिओ, एयं अवसउणं एयस्स चेव वहाए भवउ'-त्ति कटु भगवं लद्विमुहिप्पहारहिं बहुसो हर्णिसु । अह दुच्चरलाढचारी भगवं तस्स देसस्स बज्जभूमि सुम्भभूमि च समणुपत्ते। तत्थ णं से विरूवरूबाई तणसीयतेयफासाई दंसमसगे य सया समिए सम्मं सही । पंत सेज पंताई आसणाई सेवी। तत्थ भगवओ बहवे उवसग्गा समागया, तं जहा-लूहे भत्ते संपत्ते, जाणवया लसिंसु, कुकुरा हिसिसु निवाडिमु । अप्पा चेव उज्जुया जणा लसएण डसमाणे सुणए य निवारेति । बहवे उ "समणं कुक्कुरा डसंतु"-त्ति कुटु सुणए छुछुकारेंति। तत्थ वजभूमीए बहवे फरुसभासियो कोहसीला वसंति। तत्थ अण्णे समणा लढि नालियं च गहाय विहरिंसु, तहवि ते सुणएहि पिट्ठभागे संलुंचिन्जिसु। अओ लाढेसु दुच्चरगाणि ठाणाणि संति-त्ति लोए पसिद्धं, तत्थवि अभिसमेच्च भगवं 'साहूणं दंडो अकप्पणिज्जो'ति कटु दंडरहिए वोसट्टकाए गामकंडगाणं सुणगाणं च उवसग्गे अहियासी । संगामसीसे णागोब से महावीरे तत्य पारए आसी। एगया तत्थ गामंतियं उपसंकममाणं अपत्तगाम भगवं अणारिया पडिणिकखमित्ता एयाओ परं पलेहित्ति कहिय लसिसु । हयपुन्नोऽवि भगवं पुणो पुणो तस्थ विहरीत्र। तत्थ केइ अणारिया भगवं दंडेणं केइ मुट्ठिणा केइ कुंताइफलेणं केइ लेलुणा केइ कवालेण हंता हंता कंदिसु । एगया ते लुचियपुवाणि मंणि उटुंभिय विरूवरूवाई परीसहाई दाऊगं कायं लुंचिंसु, अहवा पंसुणा उवकिरिमु उच्छालिय णिहणिसु, अदुवा आसणाओ खलइंसु, तहवि पणयासे भयवं वोसट्टकाए अपडिन्ने दुक्खं सही। एवं तत्थ से सुंवुडे महावीरे फरुसाई परीसहोवसग्गाई पडिसेवमाणे संगामसीसे सुरो व्च अयले रीइत्या। एस विही मइमया माहणेण अपडिन्नेण भगवया 'एवं सव्वेऽवि रीयंतु'-ति कट्ट बहुसो अणुकंतो मू०९२॥
'मेरे सिवाय अन्य मुनि भी इसी प्रकार विहार करें-संयम की साधना करें' ऐसा विचार करके भगवान् वीर स्वामी ने बारम्बार इस आचार का पालन किया ।। सू०९१ ॥ વિષયમાં રાચી રહેલ વિષયને કીડે, કેવી રીતે સમજી શકે? રૂપ સુંદરીઓના ઝલલાટ રૂપ આગળ, બાહ્ય ઇન્દ્રિયોના
ઉશ્કેરાટનું ભગવાને કઈ શક્તિ દ્વારા, તેનું શમન કર્યું હશે? આ યોગ જેણે સાથે હેય, અગર આવા યોગમાં ( જે માનતા હોય તેજ આવા યુગનું પારખું કરી શકે (સૂ૦૯૧)
भगवतो. का ऽनार्यकृतो
मा
मसर्ग
वर्णनम्। ०९२।।
॥२४५॥
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श्री कल्पसूत्रे ॥२४६॥
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छाया—ततो भगवान् पुनश्चिन्तयति - " बहुकं कर्म मम निर्जरयितव्यमस्ति, अतोऽनार्यबहुलं लाटदेश जामि तत्र हीना - निन्दनादिभिर्बहुकं कर्म निर्जरयिष्यते" इति कृत्वा लाटदेशं प्राविशत् । तत्र प्रविशतो भगवतो मार्गे चोरा मिलिताः, ते च भगवन्तं दृष्ट्वा "अपशुकनं जातं यन्मुण्डितो मिलितः, एतदपशुकनम् एतस्यैव वधाय भवतु " इति कृत्वा भगवन्तं यष्टिमुष्टिप्रहारैर्बहुशोऽघ्नन्, अथ दुथरलाटचारी भगवान् तस्य देशस्य वज्रभूमिं शुभ्रभूमिं च समनुप्राप्तः । तत्र स विरूपरूपान् तृणशीततेजःस्पर्शान् दंशमशकान् च सदा समितः सम्यगसहत । प्रान्तां शय्यां प्रान्तान्यासनानि असेवत । तत्र भगवतो बहव उपसर्गाः समागताः, तद्यथा- रूक्षं भक्तं मूल का अर्थ - ' तत्र भगवं' इत्यादि । तत्पश्चात् भगवान् ने पुनः विचार किया- 'मुझे बहुत-से कर्मों की निर्जरा करनी है, अतः अनार्य बहुल लाटदेश में जाना चाहिए। वहाँ होलना एवं निन्दना आदि होने से बहुत कर्मों की निर्जरा होगी।' ऐसा सोच कर भगवान् ने लाट देश में विहार करते भगवान् को मार्ग में चोर मिले। उन्होंने भगवान् को देख कर सोचा- 'यह मुंडित मिल गया सो अपशकुन हो ग. यह अपशकुन इसी के वध के लिए हो।' इस तरह सोच कर उन्हों ने भगवान् को लट्ठियों और मुट्टियों का प्रहार करके खूब मारा-पीटा। भगवान् ने सम्यक् प्रकार से उसका सहन किया। इस के बाद उस दुर्गम लाट देश में विचरण करने वाले भगवान् उस देश की वज्रभूमि में और शुभ्र भूमि में पहुँचे । वहाँ भगवान् ने कंटक, शीत और उष्ण आदि के स्पर्शो को तथा डांस-मच्छर आदि के दंशों को समाधि में लीन रह कर सम्यक् प्रकार से निरन्तर सहन किया। कष्टकर निवासस्थानों का तथा कष्टकर अशन आदि का
भूजना अर्थ - 'तओ भगवं' इत्यादि लगवाने इथी विचार यों है, ब्लु भारे भनी निश કરવાની બાકી છે. માટે અનાય બહુલ લાદેશમાં જવુ જોઇએ. ત્યાં મારી હેલણા-નિંદા આદિ થવાથી ઘણાં કર્મોની નિર્જરા થશે. આવા વિચાર કરી, તેમણે લાટદેશમાં વિહાર કર્યા. વિહાર કરતાં, માગ માં ભગવાનને ચાર લોકોને ભેટો થયા. ચારેએ, ભગવાનને જોઈ, મનમાં વિચાર કર્યાં કે, આ મુડિઓ રસ્તામાં મળવાથ ભારે અપશુકન થયા. ! આ અપશુકન તેના વધ માટે જ છે.! આવા નિ ય કરી, તેએએ, ભગવાન ઉપર લાઠીએ અને મુઠ્ઠીઓના પ્રહાર કર્યા. ત્યારબાદ, ગડદા પાથી માર માર્યાં. આ બધું ભગવાને સમપરિણામે સહન કરી લીધું. દુર્ગંમ લાદેશમાં વિચરવાવાળા ભગવાન આ દેશની વજાભૂમિમાં અને શુભ્રભૂમિમાં પહોંચી ગયા. અહિં ભગવાનને કટક-કાંટા-કાંકશ ગરમી−ઠંડી તથા ડાંસ-મચ્છર આદિના વિષમ પ્રકારના કષ્ટો ઉપસ્થિત થતા. તે સÖને તેમણે સમભાવે સહન કર લીધા. આ ઉપરાંત, ઉતરવાના સ્થળેા પણ ઘણા કષ્ટદાયક હતાં તેમાં પણ ભગવાન અનશન આદિનું સેવન કરી
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कल्प-,
मञ्जरी टीका
भगवतोs
नार्यदेश
संजात
परीषडो
पसर्ग
वर्णनम् । ॥०९२ ॥
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॥२४६॥
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कल्प
मञ्जरी
टीका
संप्राप्तम् । जानपदा अलूपयन् , कुकुरा अहिंसन् न्यपातयन् । अल्पा एव ऋजुका जना लूषकान् दशतः शुनकांश्च
निवारयन्ति । बहवस्तु "श्रमणं कुक्कुरा दशन्तु" इति कृत्वा शुनकान् छुच्छुकारयन्ति । तत्र वनभूमौ बहवः परुषश्रीकल्प
भाषिणः क्रोधशीला वसन्ति । तत्र अन्ये श्रमणा यष्टिं नालिकां च गृहीत्वा व्यहरन् , तथापि ते शुनकैः पृष्ठभागे
समलुच्यन्त, अतो लाटेषु दुश्चरकाणि स्थानानि सन्तीति लोके प्रसिद्धम्। तत्रापि अभिसमेत्य भगवान् 'साधूनां ॥२४७॥ दण्डोऽकल्पनीयः' इति कृत्वा दण्डरहितः व्युत्सृष्टकायो ग्रामकण्टकानां शुनकानां चोपसर्गान् अध्यास्त। सङ्ग्राम
शीर्षे नाग इव स महावीरस्तत्र पारक आसीत् । एकदा तत्र ग्रामान्तिकमुपसंक्रामन्तमप्राप्तग्राममनार्याः प्रतिनिष्क्रम्य सेवन किया । वहा भगवान् पर बहुत उपसर्ग आये । जैसे-वहँ। लखा भोजन मिला, वहाँ के लोगोने मारपीट की, कुत्तोंने काटा और नीचे गिरा दिया। कोई बिरले सीधे लोग ही मारने वालों को और काटने वाले कुत्तों को रोकते थे। बहुतेरे तो यही सोचते थे कि इस अमण को कुत्ते काटें तो अच्छा, ऐसा सोच कर वे कुत्तों को छुछकारते थे। उस वज्रभूमि में बहुत-से रूखा बोलने वाले और क्रोधशील लोग रहते थे। दूसरे श्रमग वहाँ डंडा और लाठी लेकर विचरते थे, फिर भी कुत्ते उन्हें पीछे से नोच लेते थे अत एव लोक में यह बात फैल गई थी कि लाट देश में ऐसे स्थान हैं, जहाँ चलना कठिन है। वहाँ जाकर भी भगवान ने 'साधुओं को डंडा रखना कल्पता नहीं ऐसा सोच कर विना डंडा काया की ममता त्याग कर दुर्जनों और श्वानों के उपसर्गों को सहन किया। संग्राम के बीच भाग में हाथी की भाँति महावीर प्रभु उन उपसर्गों के पारगामी हुए। રહ્યા હતાં. આ દેશમાં, પ્રભુને અણચિંતા દુઃખે ઉત્પન્ન થયા. અહિ આહા૨ લુખ-સુકો અંત પ્રાંત મળતા. અહીંના દાદા લેકે મારપીટ પણ કરતા. જંગલી ડાધીયા કુતરાઓને ભગવાન ઉપર છોડી મૂકતા. આ કુતરાઓ, તેમને કરડી નીચે પટકી દેતા. કેઈ વિરલા પુરુષો જ કુતરાઓને હાંકી કાઢતા. બાકી તો કુતરાઓને સીસકારી, ભગવાનની પછવાડે દેડાવતા અને છૂટાં મૂકતાં. ઘણા અનાર્યો તે એમ પણ કહેતા કે, આ નવતર માણસ કયાંથી આવ્યો છે? માટે તેને અહિંથી કાઢ-રવાના કરે. આ વજભૂમિમાં લોકો કરડી ભાષા બોલતા હતા; તેમજ વાત વાતમાં કોધે ભરાઈ ઠંડા ઉડાડવાવાળા હતા. અહિં જંગલી કુતરાઓ તેમજ પાળેલા કુતરાએ, વિપુલ પ્રમાણુમાં દૃષ્ટિગોચર થતાં હતાં. તેથી શ્રમણે અહિં હંડા-લાકડી સાથે વિહાર કરતા હતા. તે પણ કુતરાએ તેમને કરડી પગમાંથી માંસના લેચા કાઢી નાખતા. આ કારણે લોકોમાં એવી વાત પ્રચલિત થઈ હતી કે, લાટ દેશમાં વિચરવું ઘણું કઠણ છે.
ભગવાન અહીં આવા વિકરાળ પ્રદેશમાં આવ્યા છતાં લાકડી-ડંડા વિગેરે કાંઈ પણ રાખતાં નહિ. તેઓનું In Eduદાળા તારા મંતવ્ય એવું હતું કે “સાધુઓને લાકડી-ડેડે કંઈ પણું રાખવું ક૯પતું નથી. ઠંડા આદિ રાખ્યા વગર આ વિહાર
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॥२४७॥
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥२४८॥
टीका
'एतस्मात् परं पलायस्व' इति कथयित्वाऽलूपयन्। हतपूर्वोऽपि भगवान् पुनः पुनस्तत्र व्यहरत। तत्र केचिदनार्या भगवन्तं दण्डेन केचिन्मुष्टिना केचित कुन्तादिफलेन केचित् लोष्टेन केचित् कपालेन हत्या हत्वा अक्रन्दन् । एकदा ते लुश्चितपूर्वाणि इमश्रूणि अष्टभ्य विरूपरूपान् परीषहान् ६त्वा कायमलुञ्चन् , अथवा पांमुना उपाऽकिरन् उच्छाल्य न्यन्नन् , अथवा आम दस्खलयन् , तथाऽपि प्रणताशो भगवान् व्युत्सृष्टकायोऽप्रतिज्ञो दुःखमसहत । एवं तत्र स संघतो महावीरः परुषान् परीवहोपसर्गा प्रतिसेवमानः सङ्ग्रामशीर्षे शूर इव अचल ऐन। एष विधिः मतिमता माहनेन अप्रतिज्ञेन भगवता 'एवं सर्वेऽपि ईरताम्' इति कृत्वा बहुशोऽनुक्रान्तः ।।०९२।।
एक समय भगवान् गाव के समीप पहुँचे और गांव में पहुँच भी नहीं पाये कि अनार्य लोक बहार निकल-निकल कर 'भाग जाओ यहाँ से दूर' ऐसा कह कर मारने लगे। जहाँ भगवान् पर पहले प्रहार किया गया था, वहाँ भी वे पुनः पुनः विहार करते थे। वहाँ कोई अनार्य भगवान् को डंडे से, कोई मुट्ठी से, कोई भाले आदि से, कोई मिट्टी के ढेले से और कोई ठोकरियों से मार-मार कर स्वयं चिल्लाते थे। कभीकभी वे पहले नाँची हुई मूछों को पकडकर, नाना प्रकार के परीषह देकर शरीर को नौंचते थे, अथवा भगवान को धूल से भर देते थे, ऊपर उछाल कर पटक देते थे, अथवा आसन से धक्का देते थे, तथापि निर्जेरार्थी भगवान् कायकी ममता त्याग कर तथा अप्रतिज्ञ होकर दुःवों को सहन कर लेते थे। इस प्रकार भगवान् ભૂમિમાં ભગવાન વિચરતા હતા, કારણ કે તેમણે દેહની મમતાને ત્યાગ કર્યો હતો. આથી તેઓ દુર્જને અને તેના
- શ્વાનના કષ્ટ સહન કરવા તત્પર થયા હતા. જેમાં સંગ્રામમાં હાથી મોખરે હોય છે તેમ ભગવાન ઉપસર્ગો રૂપી સંગ્રામમાં આગળ રહી સર્વકષ્ટોમાં પારગામી બની ગયા હતા.
કોઈ એક સમયે ભગવાન કઈ એક ગામની નજીક પહોંચ્યા. ગામમાં તે પૂરેપૂરા પહોંચ્યા પણ ન હતા ત્યાં તે અનાર્ય કે સપાટાબંધ બહાર નિકળી “ચાલ્યો જા–ચાલ્યો જાવિગેરેના પોકારે પાડવા લાગ્યા. બૂમબરાડાની સાથે લાકડીઓના માર પણ મારવા લાગ્યા, જ્યાં જ્યાં તેમને પ્રહારો થયા હતા ત્યાં ત્યાં ફરીથી તેઓએ વિહાર કર શરૂ કર્યો. આવી કઠોર ભૂમિમાં ભગવાનને ડાંગ, મુઠી, ભાલા, ફળ, ઢેફ, ઠીકરા વિગેરેથી મારી-ફૂટી તેમને “હુર” બોલાવતા. કેઈ કોઈ વખત તો તેમની વધેલી મૂછને પકડી આખા શરીરને નીચે વાળી મૂકતાં. ક્યારેક કયારેક તેમની ઉપર ખૂબ ધૂળ ઉડાડી તેમને ધૂળથી નવરાવી મૂક્તા. ઘણી વખત હાથથી તેમને આખા ને
આખા ઉપાડી નીચે પટકતા. તેમને ટાંગાટોળી કરી દૂર ફેંક્યા અને બેસવાની જગ્યાએ પણ બેસવા દેતા નહિ. આ હું બધું હોવા છતાં ભગવાન નિર્જરા પરિણામી રહી તમામ સહન કર્યા જતા હતા. તેઓએ તે સમૂળગે મમતાને ત્યાર
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श्रीकल्प
सूत्र
कल्पमञ्जरी टीका
||२४९॥
टीका-'तो भयवं' इत्यादि । ततः अनार्यदेशेऽनेकविधोपसर्गसहनानन्तरं पुनरपि भगवान् चिन्तयति= विचारयति यद्-बहुकं प्रचुरं कर्म मम निर्जरयितव्यंक्षपणीयम् अस्ति, अतः अस्मादेतोः अनार्यबहुलम् अनार्यप्रचुर लाटदेश लाटाख्यं देशं व्रजामि गच्छामि, तत्र लाटदेशे हीलना-निन्दनादिभिः-तत्रहीलना-अनादरः, निन्दना=गईणा-अवाच्यकथनं, तदादिभिः बहुकंबहु कर्म निर्जरयिष्यते-क्षयं प्राप्स्यति" इति कृत्वा इति विचार्य लाटदेशं प्राविशत्-लाटदेशे विहारं कृतवान् । तत्र-लाट देशे प्रविशतो भगवतः श्रीमहावीरस्य मार्गे चोराः मिलिताः ते-चोराश्च भगवन्तं दृष्ट्वा, अपशकुनं जातम् यत् मुण्डितो मिलितः, एतत् अपशकुनम् एतस्य मुण्डितस्यैव वधाय महावीरने वहाँ संग्राम के अग्रभाग में शूर पुरुष की तरह कठोर परीपहों और उपसर्गों को सहन करते हुए निश्चल भाव से विहार किया। 'अन्यमुनि भी ऐसा ही करें इस प्रकार विचार कर माहन एवं अपतिज्ञ भगवान ने बारम्बार इस विधि का सेवन किया ।।मू०९२||
टीका का अर्थ-अनार्य देश में माति-भाँति के उपसर्ग सहन करने के अनन्तर भगवान् ने पुनः चिन्तन किया-मुझे अभी बहुत से कमी का क्षय करना है। अतएव मुझे उस लाट देश में विहार करना चाहिये, जहाँ अनार्य लोगों की बहुलता है। लाट देश में अनादर होने से और गालिया खाने से तथा इसी प्रकार का अन्य अवांछित व्यवहार होने से मेरे बहुत कर्मों का क्षय हो जायगा। ऐसा सोचकर उन्होंने लाट देश में विहार किया। लाट देश में प्रवेश किया ही था कि मार्ग में चोर मिल गये। चोरों ने भगवान को देखकर समझा कि हमें यह मुंडा मिला अतः अपशुकन हो गया, यह अपशुकन इसी मुंडे के वध के लिए हो; ऐसा सोचकर चोरोने કર્યો હતે. આવી રીતે સંય મભૂમિમાં મોખરે રહી કર્મો ની સ થે લડાઈ કરતાં, પિતાની વૃત્તિઓ જરા પણ ઉછળવા દેતા નહિ. મુનિજનેને આ ધર્મ છે ને આ પ્રકારે તિતિક્ષા થશે તો દેહ ભાન ભૂલી જઈ આત્મભાન પ્રગટ થશે मेम सम लगवाने मा मारे। 4321. (२०६२)
ટીકાનો અર્થ-અનાર્ય દેશમાં જાતજાતના ઉપસર્ગો સહન કર્યા પછી ભગવાને ફરીથી ચિંતન કર્યું કે “મારે હજી ઘણાં કર્મોને ક્ષય કરવાનું બાકી છે, તેથી મારે તે લાટ દેશમાં ફરીથી વિહાર કરવો જોઈએ, જ્યાં અનાર્ય લેકે વધારે પ્રમાણમાં છે. લાટ દેશમાં અનાદર તિરસ્કાર થવાથી અને ગાળા ખાવાથી તથા એ પ્રકારને બીજે અનિચ્છનીય વ્યવહાર થવાથી મારા ઘણુ કર્મોને ક્ષય થઈ જશે' એવું વિચારીને તેમણે લાટ દેશ તરફ વિહાર કર્યો. લાટ દેશમાં જે પ્રવેશ કર્યો કે તરત જ માર્ગમાં ચેર લેકે મળ્યા. ચારેએ ભગવાનને જોઈને એમ માન્યું આ માથે મુંડાવાળે સામે મળવાથી આપણને અપશુકન થયા. આ અપશુકન માટે આ મુડી એનું મત જ માગે
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Lai vadilan AHAM MAHASA RAM
કરવાની બાકી અમારફ તિરસ્કાર કરી
॥२४९॥
વિચારીને તે
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कल्प
श्रीकल्प
सूत्रे ॥२५॥
मञ्जरी
टीका
भवतु अस्तु' इति कृत्वा इति मनसि विचार्य भगवन-श्रीवीरस्वामिनं, यष्टिमुष्टिप्रहारैः बहुशः अनेकशः अन्नन्हतवन्तः। अथ अनन्तरम् , दुश्चरलाटवारी दुर्गमलाट देशविहारी श्रीरस्वामी तस्य देशस्य बत्र भूमि-भूमि नामकं प्रदेश, शुभ्रभूमि-शुभ्रभूमिनामकं प्रदेशं च समनुप्राप्त अनुक्रमेण विहरन् गतः। तत्र-लाट देशीयजभूमिशुभ्रभूम्योः खलु सः भगवान् वीरस्वामी विरूपरूपान्-अनेकप्रकारान् तृण-शीत-तेजः-स्पर्शान् , तत्र-तणस्य% दर्भादेः, शीतस्य हिमस्य, तेजसः उष्णस्य च ये स्पर्शास्तान्, च-पुनः-देशमशकान् समितः समितियुक्तः सन् सदासर्वदा सम्यक् असहतसोढवान् । तथा-पान्ताम् शरीरासु बजनिकां शय्यां, प्रान्तानि आसनानि च असेवत। तत्र-लाट देशीय-वज्रभूमि-शुभ्रभूम्योः, भगवतः श्रीवीरस्वामिनः बहवः उपसर्गाः समागताः समुत्पन्नाः तद्यथा"तत्र भगवता रूक्षं-नीरसं भक्तम् अशनादिकं संमाप्तम् लब्धम् । जानपदा: लाट देशोत्पन्ना जनाः अलूपयन्= यष्टिमुष्टयादिनाऽताडयन् , तथा-कुकुराः अहिंसन् , अदशन् , न्यपातयन् निपातितवन्तश्च । अखाः कतिपये एवं श्रीवीर प्रमु को बार-बार यष्टि और मुष्टि से मारा। वह सब उपसर्ग भगवान् ने सम्यक् प्रकार से सहन किये। इसके बाद दुर्गम लाट देश में विहार करने वाले भगवान् क्रमशः लाट देशकी वजभूमिनामक प्रदेश में तथा शुभ्रभूमि नामक प्रदेश में पधारे। उस वनभूमि और शुभ्रभूमि में भगवान महावीर स्वामीने अनेक प्रकार के काटों आदि के तथा सर्दी और गर्मी के एवं दंशमशक आदि के कष्टों को समितियुक्त होकर, सम्यक् प्रकार से निरन्तर सहन किया। उन्होंने शरीर को कष्ट पहुँचाने वाले स्थानों में निवास किया, और कष्ट कर आसनों का सेवन किया। उस लाट देशकी वनभूमि एवं शुभ्रभूमि में भगवान् महावीर स्वामी को बहुत उपसर्ग आये।
जैसे-वहाँ भगवान् को रूग्वा सबा आहार मिला। लाट के लोगोंने भगवान् को लदी-गुडी आदि से ताड़न किया। प्रभुवोर को कुत्तोंने काटा और नीवे पटक दीया। वहा के अधिक लोग तो, 'पु. इस श्रमणको काटें,' છે એમ વિચારીને એ શ્રી પ્રભુને ઉપરાઉપરી લાકડીઓ તથા ગડદા પા ને માર માર્યો. ભગવાને તે ત્રા ય સ મ ભાવે સહન કર્યો. ત્યારબાદ દુર્ગમ લાટ દેશમાં વિહાર કરતા ભગવાન ક્રમશઃ લાટ દેશના વજામિ નામના પ્રદેશમાં તથા શજભમિ નામના પ્રદેશમાં પધાર્યા. તે વામિ તથા શુન્નભૂમિમાં ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ અનેક પ્રકારના કાંટા આદિના ઠંડી અને ગરમીના ડાંસ-મચ્છર આદિના કન્ટેને સમિતિયુક્ત થઈને સમ્યફ પ્રકારે નિરંતર સહન કર્યા. તેમણે શરીરને કષ્ટ પહેાંચ ડતા સ્થાનોમાં નિવાસ કર્યો અને કસ્ટકારી આસનને ઉપગ રાખ્યો. તે લાટ દેશની વજામિ અને શુભૂમિમાં ભગવાન મહાવીર સ્વામીને ઘણા ઉપસર્ગો નડયા.
જેમ કે ત્યાં ભગવાનને લખો-સૂકે આહાર મળત. લાટના લેકે એ ભગવાનને લા કડી તથા મુઠી વડે માય, છે તેમને કૂતરા કરડાવ્યા અને નીચે પછાડી નાખ્યા. ત્યાંના ઘણા લે કે તે “કૂતરા ભલે આ શ્રમણને કરડે” એવું
भगवतोऽनायदेशए संजात
परीपहो
पसर्ग
वर्णनम् । ०९२॥
॥२५॥
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H
श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥२५॥
टीका
TTARATHAMESH
ऋजुकाः कोमलप्रकृतिका जनाः लूपकान्ताडकान् दशत: दन्तैः प्रभुशरीरं विदारयतः शुनकान् कुक्करांश्च निवार रयन्ति ताडनाद लूषकान् , दशनात् कुक्कुरांश्च प्रतिषेधन्ति । बहवो जनास्तु "श्रमणं कुक्कुरा दशन्तु" इति कृत्वा इति विचार्य शुनकान्=कुकुरान् छुछुकारयन्ति भगवदुपरिसमाक्रमणाय प्रेरयन्ति । तत्र-तस्यां वनभूमौ बहवो जनाः परुषभाषिणः कठोरभाषणशीलाः, क्रोधशीला कोपस्वभावाः वसन्ति । तत्र-लाट देशीयवज्रभूमौ अन्ये श्रमणा:= शाक्यादयः श्वभयनिवारणाय यष्टिं दण्डं नालिकांस्वशरीरममाणाचतुरङ्गलाधिकं दण्ड विशेषं च गृहीत्वा व्यहरन्= विहृतवन्तः, तथाऽपि ते श्रमणाः, शुनकैः-कुकुरैः पृष्ठभागे पश्चाद्भागे समलुच्यन्त सन्दष्टा अभवन् , अतः अस्मात् कारणात् लाटेषु लाटदेशीयप्रदेशेषु स्थानानि दुश्चराणि-दुर्गर्माणि सन्ति, इति लोके प्रसिद्धम् । तत्रापि-तथाभूते लाटदेशेऽपि अभिसमेत्य गत्वा भगवान् 'साधूनां दण्डः अकल्पनीयः इति कृत्वा इति विचार्य दण्डरहितो व्युत्सृष्टकाय:= त्यक्तदेहममत्वः, ग्रामकण्टकानाम् दुर्जनानां शुनकानां कुकुराणांच उपसर्गान् अध्यास्त-निश्चलतया सोढवान् । सङ्ग्रामशीर्षे रणमूर्धनि नाग इव इस्तिवत् सः श्रमणो भगवान् महावीरः तत्र=उपसर्गविषये पारकः पारकर्ता आसीत्। ऐसा सोचकर कुत्तों को छुछकारते ही थे-काटने के लिए उत्साहित ही करते थे। अधिकांश लोग उस वज्रशुभ्रभूमि में रुक्ष और कठोर बोल ही बोलते थे, और स्वभाव के क्रोधी थे। लाट देशकी उस वज्रभूमि में · बौद्ध आदि श्रमण कुत्तों के भय से बचने के लिए डंडा लेकर ओर यष्टि अर्थात अपने शरीर के प्रमाण से
चार अंगुल लम्बी लकड़ी लेकर चलते थे, फिर भी कुत्ते पीछे की तरफ से उन श्रमणों को नौंच लिया करते थे । इस कारण यह बात प्रसिद्ध हो गई थी कि लाट देश में ऐसे स्थान हैं, जहाँ चलना बड़ा कठिन है। ऐसे लाट देश में भी जाकर भगवान् ने कभी डंडा नहीं लिया। उन्हों ने विचार किया कि डंडा धारण करना साधुओं को कल्पता नहीं है। भगवान् तो देहकी ममता से रहित होकर दुष्टजनो और कुत्तों के વિચારીને કૂતરાઓને સિસકારતા હતા-કરડાવવાને માટે ઉશ્કેરતા હતા અને તે વાશુભ્રભૂમિનાં મોટા ભાગના લોકો તે કાર વચનો જ બોલતા હતા અને સ્વભાવે ઘણું જ ક્રોધી હતા. લાટ દેશની તે વજીભૂમિમાં બૌદ્ધ આદિ શ્રમ કતરાઓના ભયથી બચવા માટે ડંડો લઈને તથા યષ્ટિ એટલે કે પિતાનાં શરીરના માપથી ચાર આંગળ લાંબી લાકડી લઈને ચાલતા હતા, તે પણ કતરા પાછળની બાજુએથી શ્રમણોને કરડતાં હતાં તે કારણે આ વાત પ્રસિદ્ધ થઈ ગઈ હતી કે લાટ દેશમાં એવી જગ્યાઓ છે કે જ્યાં ચાલવું પણ મુશ્કેલ છે, એવા લાટ દેશમાં જઈને પણ ભગવાને કદી ઠંડો પાસે રાખે નહિ. તેમણે વિચાર કર્યો કે હેડે ધારણ કરવો સાધુઓને કહપતો (ખપત) નથી. ભગવાન તે દેહની મમતા વિનાના થઈને દુષ્ટ લોકો અને કુતરાઓ વડે કરાતા ઉપસર્ગો સહન કરતા હતા. જેમ હાથી
भगवतोऽसंजातपरीषहो
नार्यदेश
पसर्गवर्णनम्।
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श्रीकल्पमुत्रे
॥२५२ ।।
海鮮
एकदा = एकस्मिन् समये तत्र = लाट देशदुर्गभूमौ ग्रामान्तिकं = ग्रामसमीपम् उपसंक्रामन्तम् = उपगच्छन्तम् अप्राप्तग्रामम् = अनधिगतग्रामं भगवन्तम्, अनार्याः म्लेच्छाः प्रतिनिष्क्रम्य = तद्ग्रामान्निःसृत्य " एतस्मात् स्थानात् परं= दूरं पलायस्त्र = शोत्रं परादृत्य गच्छ' इति = एतद्वचनं कथयित्वा अल्पयन् = यष्टिमुष्टयादिभिर्हतवन्तः । हतपूर्वोऽपि भगवान् कर्मक्षपणार्थं पुनः पुनः वारं वारं तत्र-लाटदेशे व्यहरत् = व्यचरत् । तत्र-लाटदेशे केचिदनार्याः दण्डेन, केचित् मुष्टिना, केचित् कुन्तादिफलेन = कुन्तादिशखाग्रभागेन, केचित् लोष्टेन = मृत्पापाणादिखण्डेन, के चित् कपालेन=वर्परेण भगवन्तं हत्वा हत्वा अक्रन्दन् = कोलाहलमकुर्वन् । एकदा ते भगवतो लुञ्चितपूर्वाणि= पूर्वलुञ्चितानि श्मश्रूणि = कूर्चाणि अवष्टभ्य = अवलम्ब्य विरूपरूपान् = अनेकप्रकारन् दुःसहान् परीपहान् दवा कार्य= शरीरम् अलुश्चन = विदारितवन्तः, अथवा = अथ च पांसुना = धूल्या उपाकिरन् =मच्छादितवन्तः तथा भगवन्तम् किये हुवे उपसर्गों को सहन करते थे । जैसे हाथी संग्राम के मोर्चे पर आगे ही बढ़ता जाता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर प्रभु भी आगे ही बढ़ते गये और उपसर्गों के पारगामी हुए ।
एक बार लाटदेश की दुर्गम भूमि में ग्राम के समीप पहुँचते हुए, किन्तु ग्राम तक न पहुँचे भगवान् को देखकर म्लेच्छ लोग गाँव से बहार निकल कर 'इस जगह से दूर भाग जाओ - यहाँ से लौट जाओ' इस प्रकार कह कर भगवान को यष्टि और मुष्टि आदि से मारने लगे । जहाँ पहले भगवान् पर प्रहार हुए थे, उन्हीं स्थानों में भगवान कर्मों का क्षय करने के लिये बार-बार विचरते थे । उस लाटदेश में कोई अनार्य डंडे से, कोई घूसे से, कोई भाले आदि शस्त्रों की नौक से, कोई मिट्टी के ढेले से और कोई पत्थर से और कोई ठीकरों से भगवान को मारते और कोलाहल करते थे। कभी-कभी वे पहले नौची हुई मूछों की जगह उत्पन्न छोटी २ मूछों को खींच-खींच कर भगवान को नाना प्रकार के कष्ट देते थे । शरीर का विदारण યુદ્ધના મેરચે આગળ જ વધતા જાય છે તેમ ભગવાન પણ આગળ વધતા ગયા અને ઉપસના પારગામી થયા. એક વખત લાટ દેશની દૃ`મ ભૂમિમાં કોઈ એક ગામના સીમાડે પ્રભુ પહોંચ્યા. પહેાંચતા વેંતજ ભગવાનને જોઇને મ્લેચ્છ લેાકા ગામમાંથી બહાર નીકળીને “ અહીંથી દૂર ભાગી નઓ, અહીંથી પાછા ક્” એમ કહીને લાકડી અને મુડી આદિ વડે મારવા લાગ્યા. જયાં પહેલાં ભગવાન પર પ્રહારા થયા હતા, એજ સ્થાનેામ ભગવાન કર્મોના ક્ષય કરવા માટે વારંવાર વિચરતા હતા. તે લાટ દેશમાં કોઈ ના ડંડાથી, તે કોઈ ગડદાથી, કાઈ ભાલા આદિ શસ્ત્રોની અન્નીથી, તે કાઇ માટીના ઢેફાથી, કોઇ પથ્થરથી, તેા કોઇ ઢેખાળાથી ભગવાનને મારતા અને કાલાહલ કરતા હતા. કોઈ કોઈ વાર તેએ લોન્ચ કરવા છતાં ક્રીથી ઉગેલી ટૂંકી મૂછોને ખેંચી ખે’ચીને ભગવાનને
獎賞獎
कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतोऽ
नार्यदेश
संजात
परीषहो
पसर्ग
वर्णनम् ।
||म्०९२ ।।
॥२५२ ॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥२५३॥
RELATE
उच्छास्य=ऊर्ध्वनीत्वा न्यघ्नन्=अताडयन् अथवा=अथ च ते भगवन्तम् आसनात् अस्खलयन् = पातितत्रन्तः, तथापि = पूर्वोक्तं सर्गेषु कृतेष्वपि प्रणताशः निःस्पृहो भगवान् व्युत्सृष्टकायः - त्यक्तशरीरमोहः अप्रतिज्ञः - इहलोक-परलोकप्रतिज्ञावर्जितश्च सन् दुखं= वेदनाम् असहत = सोढवान् । एवम्=अनेन प्रकारेण स भगवान् संहृतः = संवरयुक्तः सन् पुरुषान्=कठोरान् परीषहोपसर्गान् = शीतादिपरीपहान मानुषादि कृतानुपसर्गीश्च प्रतिसेवमानः सङ्ग्रामशीर्षे शूर इव अचलः=स्थिरः सन् ऐर्त= विहार कृतवान् । एषः अयं विधिः कल्पो मतिमता = बुद्धिमता माहनेन = ' माहन इत्युपदेशकेन अप्रतिज्ञेन=प्रतिज्ञारहितेन भगवता - श्रीवीरस्वामिना “एवं = मद्वत् सर्वेऽपि साधवः ईरतां विहरन्तु " इति कृत्वा = इति विचार्य बहुश: =अनेकशः अनुक्रान्तः = अनुसृतः - पालित इति | | ०९२||
मूलम् — तरणं भगवं रोगेहिं अपुट्ठेऽवि ओमोयरियं सेवित्था । अहय सुणगदंसणाईहिं पुट्ठेवि, कास सासाइएहिं रोगे अडे व भाविकाए णो से तेइच्छं साइज्जीअ । भगवं संसोहणं वमणं गाय-भंगणं सिणाणं संवाहणं दंतपक्चालणं च कम्मबंधणं परिणाय नो सेवीअ । गामधम्माओ विरए अवाई माहणे रीइत्था । सिसिरम्मि कर देते थे । अथवा धूलि से आच्छादित कर देते थे । अथवा ऊपर उछाल कर ताड़ना करते थे, अथवा आसन से नीचे गिरा देते थे। इतने सब उपसर्ग होने पर भी निःस्पृह - शरीर के प्रति निर्मम और इहलोकपरलोक संबंधी प्रतिज्ञा - कामना से वर्जित प्रभु उस वेदना को सहन करते थे । इस प्रकार भगवान् ने संवरयुक्त होकर कठोर शीत उष्ण आदि की परीषहों तथा मनुष्यादिकृत उपसर्गों को सहन करते हुए, संग्राम के अग्रभाग में शूर पुरुष के समान, स्थिर भाव से विहार किया। इस विधिकल्प का मतिमान् 'माहन' अर्थात् किसी को कष्ट मत दो, इस प्रकार का उपदेश देने वाले तथा अप्रतिज्ञ भगवान् महावीरने 'मेरे ही समान सब श्रमण आचरण करें ऐसा विचार कर बार-बार पालन किया |० ९२ ॥
વિવિધ પ્રકારના કષ્ટ પહોંચાડતા હતા. શરીરનું વિદારણ કરતા અથવા ધૂળથી આચ્છાદિત કરી દેતા હતા. અથવા ઉંચકી ઉછાળીને મારતા હતા અથવા આસન પરથી નીચે પાડી દેતા હતા. આટલા બધા ઉપસર્ગો થવા છતાં પણ નિઃસ્પૃહ, શરીર પ્રત્યે નિર્મીમ અને ઇહલેાક-પરલેાક સંબંધી પ્રતિજ્ઞા-કામનાથી રહિત પ્રભુ તે વેદનાને સહન કરતા હતા. આ પ્રમાણે ભગવાને સવરવાળા થઇને, કહેાર ઢંડી-ગરમી આદિના પરીષહે તથા મનુષ્યાદિ વડે કરાયેલા उपसगौने सडन ४२ता करता संग्रामना अग्रभागमा रहेस वीर पुरुषनी प्रेम स्थिर लावे बिहार ज्यो. "माहन" એટલે કે કેઈને પણ ન હણા એવા ઉપદેશ આપનાર તથા અપ્રતિજ્ઞ મત્તિમાન ભગવાન મહાવીરે “મારી જેમજ બધા શ્રવણું આચરણ કરે” એવું વિચારીને વારંવાર તે કલ્પ (વિધિ)નુ પાલન કર્યુ. (સૂ૯૨)
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतोऽ
नार्यदेश
संजात
परीषदो पसर्ग
वर्णनम् ।
||सु०९२॥
॥२५३॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥२५॥
भगवं छायाए आसीणे झाई। गिम्हे य आयावीअ, आयावे य उकुहुए अच्छी । अह य भगवं ओयणं मंथु कुम्मासं चेयाणि तिष्णि लूहाणि सीयलाणि पडिसेविय अट्ठमासे जाव इत्था। तओ य भगवं अद्धमार्स मासं साहिए दुवे मासे छम्मासे य असणा इयं परिहाय राभोवरायं अपडिन्ने विहरित्था, पारणगेवि गिलाणमन्नं मुंजित्था। एगया कयावि छटेण कयावि अट्ठमेणं दसमेणं दुवालसमेणं समाहि पेहमाणे अपडिन्ने भगवं भुंजित्था । णचा य से महावीरे णो चेव पावगं सयमकासी, अन्नेहिं वा णो कारित्या, करंतंपि णाणुजाणित्या। गाम णगरं वा पविस्स भगवं परद्वाए कडं घासमेसित्था, मुविमुद्धतमेसिय आययजोगयाए सेवित्था। भिक्खायरियाए भमंते भगवं वायसाइए रसेसिगो सते घासेसणाए चिढ़ते पेहाए सयंतानो निवर्तीअ, अह य पुरो ठियं समर्ण वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहि वा सोवागं वा पेहाए णिवट्टमागे अप्पत्तियं परिहरंते अहिंसमाणे सया समिए मंदं मंदं परक्कमिय अन्नत्थ घासमेसित्था। मुइयं वा अमइयं वा उल्लं वा मुक्कं वा सीयपिंड पुराणकुम्मासं अदुवा बक्कसं पुलागं वा जं किंचि लद्धं तं आहरित्था, लद्धे वा अलद्धे वा पिंडे दविए समभावेण रीइत्था । उकुडुयाइ आसणत्थे भगवं अकुक्कए अपडिन्ने उडमहोतिरियलोयसरूवं समाहिय झाणं झाइत्था। छउमत्थेवि भगवं अकसाई विगयगेहो सहरूबाईसु अमुच्छिए रिपरक्कममाणे सईपि पमायं णो कुन्वित्था। आयसोहीए आयतजोगं सयमेव अभिसमागम्म अभिगिव्वुडे आवकहं अम्माइल्ले भगवं समिए आसी। एसो विही मइमया माहणेण अपडिन्नेण भगवया "अण्णेवि मुणिणो एवं रीयंतु" निकट बहुसो अणुकंतो ।।०९३॥
छाया-ततः खलु भगवान् रोगैरस्पृष्टोऽपि अवमोदरिकं सिषेवे। अथ च शुनकदशनादिभिः स्पृष्टोऽपि कासश्वासादिकै रोगैरस्पृष्टोऽपि साविशङ्कया नो स चैकित्स्यमस्वादयत । भगवान संशोधनं वमनं गात्राभ्यञ्जनं। स्नान संवाहन दन्तपक्षालन वा कर्मवन्धनं परिज्ञाय नो असेवत ग्राम्यधर्माद् विरतोऽवादी माद्दनः ऐते । शिशिरे च
___ मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् भगवान् ने रागों से अस्पृष्ट होकर भी ऊनोदर तप का। सेवन किया। इसके अतिरिक्त श्वानदशन आदि से स्पृष्ट होकर भो और श्वास खांसी आदि रोगों से स्पृष्ट न होकर भावी रोगकी आशङ्का से भी भगवान् ने चिकित्सा नहीं करवाई। मलाशय का संशोधन, वमन, मालिश, स्नान, मर्दन, और दंतधावन को कर्मबन्धन का कारण जानकर सेवन नहीं किया। मैथुन से विरत
भबने। मथ-'तए णं' त्यादिवान अस्त नता, छti sdरी तनुतेमाये माराथन यु. मा સિવાય તેમને કુતરાએ કરડી જતા ને ભવિષ્યમાં એનું ઝેર ન ચઢી જાય આ ભાવનાથી તેમજ શ્વાસ કાસ આદિ કોઈ પણ રેગે હતા નહિ, પણું ભવિષ્યમાં રોગ ન થાય એ આશંકાથી પણ શારીરિક ચિકિત્સા તેમણે કદિ પણ કરાવી નહિ.
भगवत
आचार परिपालन विधि
वर्णनम् ।
।।मु०९३॥
॥२५४॥
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श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥२५५॥
टीका
भगवान छायायामासीनोऽध्यायत् , ग्रीष्मे च आतापयत् , आतापे च उत्कुटुक आस्त । अथ च भगवान् श्रोदनं मन्थुकुल्मापं चैतानि त्रीणि रूक्षाणि शीतलानि प्रतिसेव्य अष्टमासान् अयापयात् । ततश्च भगवान् अर्द्धमासं मासम् , साधिको द्वो मासौ षण्मासांश्च अशनादिकं परिहाय रात्र्युपरात्रमप्रतिज्ञो व्यहरत् पारण केऽपि ग्लानानां बुभुजे । एकदा कदापि षष्ठेन कदाप्यष्टमेन दशमेन द्वादशेन समाधि प्रेक्षमाणोऽप्रतिज्ञो भगवान् बुभुजे। ज्ञात्वा च स महावीरो नो एव पापकं स्वयमकापीत्, अन्यैश्च वा नो कारयामास कुर्वन्तमपि नान्वजानात् । ग्राम नगरं वा प्रविश्य भगवान् परार्थाय कृतं ग्रासमेषयामास मुविशुद्धं तमेपयित्वा आयतयोगतया सिषेवे, भिक्षाचर्याय भ्रमन् और मौनधारी होकर माहन विचरे । शिशिर ऋतु में भगवान् छाया में बैठे हुए ध्यान करते थे और ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते थे। आतापना लेते समय उत्कुटुक आसन से बैठते थे। भगवान् ने अोदन, मंथु (बोर का चुरा) और कुल्माष (उडद) इन तीन ठंडी और वासी वस्तुओं का सेवन करके आठ मास विताये। भगनान् ने अर्धमास, मास, अढाई मास और छह मास तक अशन आदि का परित्याग करके, अप्रतिज्ञ होकर विहार किया। पारणा के समय भी बासी भोजन किया। कभी बेला, कभी तेला, कभी चोला, कभी पंचोला करके समाधि को देखते हुए अप्रतिज्ञ भगवान् ने विहार किया। पापके परिणाम को जानकर महावीरने न स्वयं पाप किया, न दूसरों से करवाया और न करते का अनुमोदन किया। ग्राम या नगर में प्रवेश करके भगवान् ने दूसरों के अर्थ बनाये गये आहार की एषणा की, और निर्दोष आहार को एषणा करके ज्ञानपूर्वक
મળ વિસર્જન, નમન, માલિશ, સ્નાન, મર્દન; દંતધાવન વિગેરે ને કર્મબંધનના કારણે જાણું તેનું સેવન તેઓ કરતા નહિ. અને તેઓ મૈથુનથી સર્વથા વિક્ત હતા તેમજ મોનવૃતને ધારણ કરતા હતા. શિશિર ઋતુમાં, તડકામાં ઉભા રહી આતાપના લેતા. આતાપનાના સમયે ઉકડું આસન વાળીને બેસતા હતા. ભગવાને ચોખા, બેરને ચૂરે. અને અડદ આ ત્રણ ઠંડી અને વાસી વસ્તુઓનું સેવન કરી આઠ માસ વિતાવ્યા હતા. ભગવાને પખવાડિયું માસ-અઢી માસ-અને છ માસ સુધીની તપસ્યા કરી વિહાર કર્યો. પારણના સમયે પણ તેમને વાસી ભોજન કવું પડયું હતું. કોઈ કંઈ વખતે અરૂમ ચોલા પાંચ ઉપવાસ વિગેરે કરીને, દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર કાલ ભાવ ને જોઈ અપ્રતિજ્ઞા (નિશ્ચય રીતે નહિ) ભગવાન વિહાર કરતા હતા. પાપના માઠાં પરિણમે જોઈ ભગવાને સ્વયં પાપ કર્યું નથી, તેમજ કોઈની પાસે કરાવ્યું નથી. તેમજ કરનારને અનુદન પણ આપ્યું નથી. ગામ અગર નગરમાં જ્યાં
જ્યાં ભગવાન પધાર્યા ત્યાં ત્યાં તેમણે પ્રાસુક આહાર ગ્રહણ કર્યો. પ્રાસુક આહાર એટલે, પિતાના માટે બનાવેલ નહિ. પશુ નિર્દોષ આહા૨ આવા આહારની ગવેષણ કરી, જ્ઞાનયોગ દ્વારા તેને જોઈ તેને ઉપયોગ કરતા.
भगवत
आचार परिपालन
विधि र वर्णनम्।
सू०९३॥ થી
યે ઉક્કડ આસાન
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||२५५॥
ોિ
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I
कल्पमञ्जरी
टीका
भगवान् वायसादिकान् रसैषिणः सत्वान् ग्रासैषणायै निष्ठतः प्रेक्ष्य स्वयं तस्मात् न्यवर्तत । अथ च पुरतः
स्थितं श्रमणं वा ब्राह्मणं वा ग्रामपिण्डावलगं वा अतिथि का श्वपार्क वा प्रेक्ष्य निवर्तमानः अपत्ययं परिहरन् श्रीकल्प
अहिंसन् सदा समितः मन्दं मन्दं पराक्रम्य अन्यत्र ग्रासमेषयामास । मूपिकं वा अनुपिकं वा आई वा शुष्कं
वा शीतपिण्डं पुरागकुल्माषम् अथवा बक्कसं पुलाकं वा यत् किश्चिदपि लब्धं तत् आहरत् । उत्कुटुकाद्यासनस्थो ॥२५६॥ भगवान अकौफुच्योऽप्रतिज्ञ, उर्ध्वमधस्तिर्यग्लोकरूपं समाधाय ध्यानमध्यायत् । छद्मस्थोऽपि भगवान् अपायी
सम्यक् योग से उसका सेवन किया। भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करते हुए भगवान् काक आदि प्राणियों को काल-एषणा के लिए स्थित देखकर वहाँ से लौट जाते थे। सामने खड़े हुए श्रमण को, ब्राह्मण को, भि वारी को अतिथि को अथवा श्वपाक को देखकर वापिस लौटते, अविश्वास को उत्पन्न न करते, तथा हिंसा से बचते हुए सदा समितियुक्त, धीमे धीमे चलकर दूसरी जगह आहार की गवेषणा करते थे। व्यंजन से संस्कृत या असंस्कृत, गीला या सूखा ठंडा भोजन, पुराने उड़द अथवा छिलके या निस्सार अन्न-जो कुछ भी मिल गया उसी को ग्रहण कर लिया। मिला या न मिला तो भी संयमी भगवान् मुखविकार आदि
चेष्टाएँ नहीं करते थे और अपतिज्ञ थे। ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्छलोक के स्वरूप को जानकर ध्यान हा करते थे । छद्मस्थ होकर भी भगवान् ने कपायहीन, अनासक्त, शब्द एवं रूप आदि में मूर्छा न करते हुए
ભિક્ષાર્થે શ્રમણ કરતી વખતે જે કઈ સ્થળે કાગવાસ અપાતી હોય અને તે સ્થળે પ્રાણીઓ આ “કાગવાસના ખેરાકને લેવા ભેગાં થયાં હોય તે ત્યાંથી ભગવાન આહાર લીધા વિના પાછા વળી જતા. આ ઉપરાંત જે કઈ સ્થળે ભગવાન આહાર માટે પ્રવેશ કરતા અને ત્યાં જે તેઓ શ્રમણ, બ્રાહ્મણ, ભિખારી, અતિથિ વિગેરેને ઉભા જોતા તે ત્યાંથી આહાર લીધા વિના ચૂપચાપ પાછા વળી જતા. પાછા વળતી વખતે પણ એવી રીતે ચાલી નીકળતા કે કેઈને પણ અવિશ્વાસ ઉત્પન્ન ન થાય. તેઓ સદાય હિંસાથી બચવા માટે સમિતિયુક્ત રહી ધીમે ધીમે ચાલી અન્ય સ્થળે આહાર ગવેષણ માટે જતા હતા. ખોરાક વઘારેલું હોય કે વઘારેલ ન હોય તે ખરાક, ઢીલે અગર કઠણ ખરાક, જુના અડદ તથા તેના પેતરા અથવા સત્વહીન ગમે તે રૂક્ષ ભેજન મળી જાય તેને ભગવાન સમભાવથી ગ્રહણ કરી લેતા. કેઈ વખત ખારાક મળે કે ન મળે તે પણ તેઓ સમપરિણામી થઈ યથેચ્છ વિચરતા.
અકકડ આસનથી બેસતા ભગવાન કદાપિ પણ મુખની વિકૃતિ તેમ જ અન્ય કોઈ ચેષ્ટાઓ કરતા નહિ અને તઓ અપ્રતિજ્ઞ હતા. ઉદ્ઘલેક, અલેક અને ત્રીછોકનું સ્વરૂપ વિચારી તેઓ ધ્યાનમગ્ન રહેતા. છવસ્થ અવલોહ સ્થામાં પણ ભગવાન કષાયહીન અને અનાસક્ત રહી શબ્દ, રૂપ, ગંધ, સ્પર્શ આદિમાં મૂછભાવ કરતા નહિ. પિતાના
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भगवत
आचार परिपालन
विधि वर्णनम् ।
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मि०९३
॥२५६॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
॥२५७॥
टीका
विगतगृद्धिः शब्दरूपादिषु अमच्छितो विपराक्रममाणः सकृदपि प्रमादं नाकरोत् । आत्मशोध्या आयतयोगं स्वयमेव अभिसमागम्य अभिनितः यावत् कथम् अमायी भगवान् समितः आसीत् । एवं विधिर्मतिमता माहनेन अमतिज्ञेन भगवता महावीरेग 'अन्येरि मुनय एवमीरताम् , इति कृत्वा बहुशोऽनुक्रान्तः ।।०९३॥
टीका "तए णं भगा रोगेडिं" इत्यादि । ततः खलु भगवान् श्रोत्रीरस्वामी रोगः ज्वरादिभिः, अस्पृष्टोऽपि3 रहितोऽपि अबमोदरिकं न्यूनभोजित्वरूपं तपः सिषेवे सेवितवान् । अथ च-तथा च शुनकदशनादिभिः-कुकुर दन्ताघातादिभिः स्पृष्टोऽपि समन्वितोऽपि कासश्वासादिकैः रोगैः अस्पृष्टोऽपिवर्जितोऽपि-भाविशङ्कया आगामिरोगसन्देहेन तन्निवारणार्थमपि स भगवान्-चैकित्स्य-चिकित्साम्रोगप्रतिकारं नो अस्वादयत्न अनुमोदितवान्, तथा-भगवान-श्रीवोरस्वामी, संशोधनं मलाशयादि-संशोधनं, वमनम्-धान्ति गात्राभ्यञ्जनं शरीराभ्य-शरीरे विशेष रूप से पराक्रम करते हुए एक बार भो प्रमाद नहीं किया। आत्मशोधनपूर्वक स्वतः आयतयोग-ज्ञानपूर्वक सम्यक् योग व्यापार का आश्रय लेकर यावज्जीव निवृत्तिमय, अमायी और समित रहे । 'अन्य मुनि भी इसी प्रकार र
भगवत आचरण करें यह सोचकर मतिमान , माहन अप्रतिज्ञ भगवान् ने अनेकबार इस आचार का पालन किया ।।०९३॥
आचार टीका का अर्थ-तब भगवान वीरप्रभुने ज्वर आदि रोगों से अछूते होने पर भी उनोदर (भूख से परिपालन कम खाने रूप) तप का सेवन किया। कभी कुत्ता आदि ने काट खाया तो भी तथा सांस और खांसी आदि विधिरोगों से रहित होने पर भी आगे कहीं ये रोग न हो जायँ इस लिये उनके निवारण के हेतु भगवान् ने
- वर्णनम् ।
॥सू०९३॥ चिकित्सा का कदापि अनुमोदन नहीं किया । भगवान् वीर मलाशय आदि की शुद्धि, वमन (उलटी-कै), ક ક્ષય કરવા માટે પિતાનું વિર્ય–પરાક્રમ ફેરવતા, અને કઈ પણ સમયે પ્રમાદનું સેવન કરતા નહિ. આત્મ
ધનમાં આખો સમય ગાળતા. તેના જ્ઞાનપૂર્વક સમ્યફ ગોના વ્યાપારને આશ્રય લેતા, અને આ પ્રમાણે જાવજીવ સુધી નિવૃત્ત રહી સમાયી થઈને વતા; તેમ જ પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિના વેગને ધારણ કરી સમય વિતાવતા. તેવી જ રીતે અન્ય ૩ નિએ અમારૂં અનુકરણ કરશે એમ ધારી તેઓ સર્વ બાબતમાં આદર્શરૂપ પિતાનું ચારિત્ર ઘડતા. આ નમુનારૂપ ચાત્રિ ભાવી પેઢીને એક આદર્શ પુરો પાડશે એમ તેમનું સચોટ મંતવ્ય હતું. (સૂ૦૯૩)
ટીકાને અર્થે ભગવાન વીર પ્રભુએ, તાવ અાદિ રોગોથી રહિત હોવા છતાં ફક્ત કર્મો ખપાવવાના હેતુથી ઉનેદર ॥२५७॥ (ભૂખ લાગી હોય તેના કરતાં ઓછું ખાવું) તપનું સેવન કર્યું. કયારેક કૂતરા આદિ કરડવા છતાં તથા શ્વાસ અને ઉધરસ આદિ રોગોથી રહિત હોવા છતાં પણ ભવિષ્યમાં કદાચ એ રોગ ન થાય તે માટે તેના નિવારણના ઉદેશથી પણ ભગવાને ચિકિત્સાનું કદી પણ અનુમોદન આપ્યું નહીં. ભગવાન વીરભુ મળાશય આદિની શુદ્ધિ, વમન (ઉલટી), રોમાં
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श्रीकल्प
॥३५८॥
तैलमर्दनं, स्नानं प्रसिद्धम् , संवाहनं शरीरश्रमापनोदनाय भरीरमर्दनं दन्तप्रक्षालन-दंतधावनं च कर्मबन्धनं परिज्ञाय=बुवा तानि नो असेवतम्न सेवितवान् । ग्राम्यधर्मात्म्मेथुनाद विरतः पराङ्मुखः अवादि मौनशीलो माइन:अहिंसापरायणो एतव्यहरत् । शिशिरे ऋतौ भगवान् छायायाम्=वृक्षादीनां छायायाम्, आसीनः उपविशन् अध्यायत-धर्मध्यानं कृतवान् , तथा-ग्रीष्मे ऋतौ आतापयत्-प्रचण्डमार्तडातापनाम् असेवत, आतपे च उत्कुटुकः= कृतोत्कुटुकासनः सन् आस्त-उपाविशत् । अथ च भगवान् ओदनं-भक्तं, मन्थु-बदरादिचूर्ण कुल्माष-माष चैतानि त्रीगि अन्नानि रूक्षाणि नीरसानि शीतलानि अनुष्णानि प्रतिसेव्य भुक्त्वा अष्टमासान् अयापयत् व्यतिक्रान्तवान् । ततश्च भगवान्-श्रीवीरस्वामी अर्द्धमासंम्पर्श, मासं, साधिकौकिञ्चिदिनाधिकौ द्वौ मासौ, षड् मासांश्च अशनादिकम्अशन-पान-खादिम-स्वादिमं परिहाय-त्यक्त्वा अप्रतिज्ञः इहलोकपरलोकमतिज्ञारहितः सन् रात्र्युपरात्रम्-निरन्तरं व्यहरत संयममार्गे विहारं कृतवान् । पारणके पिम्पारणायामपि भगवान् ग्लानान-पयुंपितान्नं बुभुजे-भुक्तवान् । एकदा कदापि-समाधि-चित्तस्वस्थतां प्रेक्षमाणः अप्रतिज्ञो भगवान् षष्ठेन=षष्ठभक्तं कृत्वा कदापि अष्टमेनशरीर की मालीश, स्नान, शारीरिक थकावट को मिटाने के लिए मर्दन और दांतौन करने को कर्मबन्धन का कारण जानकर कभी सेवन नहीं करते थे। मैथुन के त्यागी, मौनी, अहिंसापरायण होकर विचरते थे। शीत ऋतु में भगवान् वृक्ष आदि की छाया में बैठ कर धर्मध्यान में लीन रहते थे, और ग्रीष्मऋतु में प्रचंड सूर्य की आतापना लेते थे। आतापना लेते समय उकड आसन से बैठते थे।
भगवान् ने ओदन (भक्त), मंथु-बोर आदि का चूरा और उड़द, इन तीन रूखे और बासी अनों का ही सेवन करके आठ महीने बिताये। भगवान् ने अधमास (एक पक्ष), एक मास, कुछ दिन अधिक दो मास और छह मास तक अशन पान खादिम और स्वादिम आहारों का परित्याग किया और अप्रतिज्ञ होकर निरन्तर શરીરનું માલિશ, સ્નાન, શારીરિક થાક દૂર કરવાને માટે મદન અને દાતણ કરવા વિગેરે ક્રિયાઓને કર્મબંધનું કારણ સમજીને કદી તેનું સેવન કરતા નહીં મૈથુનને સર્વથા ત્યાગ કરી મૌન ધારણ કરી અને અહિંસાપરાયણ થઇને વિચરતા હતા. ઠંડી ઋતુમાં ભગવાન વૃક્ષ આદિની છાયામાં બેસીને ધર્મધ્યાનમાં લીન રહેતા હતા અને ગ્રીષ્મ ઋતુમાં પ્રચંડ સૂર્યની આતાપના લેતા હતા. આતાપના લેતી વખતે ઉકડુ આસને બેસતા હતા. ભગવાને એડન (ભાત), સંધુ બર) આદિને ચૂર અને અડદ એ ત્રણ લુખા અને વાસી અન્નોનું જ સેવન કરીને આઠ માસ પસાર કર્યો. ભગવાને અર્ધનાસ (એક પખવાડિયું), એક માસ, બે માસ ઉપર કેટલાક દિવસે અને છ માસ સુધી અશન પાન ખાદીમ અને રવદિમ આહારનો ત્યાગ કર્યો અને અપ્રતિજ્ઞ (નિશ્ચિત રીતે નહિ) થઈને નિરંતર વિહાર કરતા રહ્યા.
भगवत आचार परिपालन विधि - वर्णनम्। सू०९३॥
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॥२५९॥
अष्टमभक्तं कृत्वा, कदापि दशमेन-दशमभक्तं कृत्वा, कदापि द्वादशेन-द्वादशभक्तं कृत्वा बुभुजे-भुक्तवान् । ज्ञात्वा पापकर्मपरिणामं दुष्टं ज्ञात्वा च स भगवान महावीरस्वामी पाप-पापकर्म-प्राणातिपातादिकं नो एव नैव स्वयम् अकार्षीत् कृतवान् । तथा-अन्यैर्जनैश्च नो कारयामासन्न कारितवान् , कुर्वन्तं प्राणातिपातादिकं पापं कर्म कुर्वन्तं नावजानात्-नानुमोदितवान् । ग्राम नगरं वा प्रविश्य भगवान्-श्रीवीरस्वामी परार्थाय अन्यजननिमित्ताय कृतं निष्पादितं ग्रासम्=आहारम् एषयामास-गवेपितवान् । सुविशुद्धम् आधाकर्मादिदोपवर्जितम् एषणीयं तंग्रासम् एपयित्वा गवेषयित्वा भगवान् यतयोगतया सम्यङ्मनोवाकायव्यापारपूर्वकं-समभावेन सिषेवेसेवितवान् । तथा भिक्षाचर्याय भिक्षार्थ भ्रमन् भगवान् रसैपिणोरसेनेन्द्रियविषयलोलुपान् वायसादीन् काकप्रभृतीन् सत्वान् विहार करते रहे । पारणा में वासी अन्न का सेवन किया। कभी कभी भगवान चित्त को स्वस्थता का विचार करके अप्रतिज्ञ भाव से बेला करके आहार करते थे, कभी तेला करके, कभी चौला करके और कभीकभी पंचोला करके, पाप के दुष्ट फल को जानकर महावीर स्वामीने प्राणातिपात आदि पापकर्मों का स्वयं सेवन नहीं किया, दूसरों से सेवन नहीं कराया और पापों का सेवन करने वालों का अनुमोदन नहीं किया।
ग्राम अथवा नगर में प्रवेश करके महावीर भगवान ने दूसरे जनों के लिए बनाये हुए आहार की गवेषणा की। आधाकर्म आदि दोषों से रहित तथा कल्पनीय आहार की गवेपणा करके भगवान् ने उसका सम्यक मन वचन काय के व्यापार के साथ अर्थात् समभाव से सेवन किया। भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए भगवान् रस के अभिलाषी अर्थात् जिह्वा के विषय-रस के लोलुप, काक आदि प्राणियों को आहार की પારણામાં બાફી અન્નનું સેવન કર્યું. કોઈ કોઈ વાર ભગવાન ચિત્તની સ્વસ્થતાના વિચાર કરીને અપ્રતિજ્ઞ ભાવથી છઠ કરીને, તે કયારેક અડ્રમ કરીને, તે ક્યારેક ચૌલા (ચાર ઉપવાસ) કરીને અને કયારેક પંચેલા (પાંચ ઉપવાસ) કરીને આહાર લેતા હતા.
પાપન દુષ્ટ ફળને જાણીને મહાવીર સ્વામીએ પ્રાણ તિપાત આદિ પાપકર્મોનું ન તે પોતે સેવન કર્યું કે ન બીજા પાસે સેવન કરાવ્યું. તેમ જ પાપનું સેવન કરનારને કદી અનુમોદન પણ ન આપ્યું.
ગામ અથવા નગરમાં પ્રવેશ કરોને મહાવીર ભગવાને બીજા લોકો માટે બનાવેલ આહારની ગવેષણ કરી આધાકર્મ (કેવળ સાધુના નિમિત્તે બનાવવું તે) આદિ દ વિનાના તથા કપે (સ્વીકારી શકાય) તેવા આહારની ગવેષણ કરીને ભગવાને તેનું સમ્યફ મન, વચન, કાયાના વ્યાપાર સાથે એટલે કે સમભાવથી સેવન કર્યું. શિક્ષા ભગવાન જ્યારે વિચરતા ત્યારે જે કંઈ ૨- અનિલાષી એટલે કે જીમને વિષય-રસના લાલચુ, કાગડા વિગેરે
भगवत
आचार परिपालन विधिवर्णनम्। सू०९३०
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श्रीकल्प
मञ्जरी
टीका
ना पाणिनः ग्रासैषणायै आहारान्वेषणार्थ तिष्ठतः प्रेक्ष्यदृष्ट्वा" स्वयं तस्मात् माणिनामाहारान्वेषणस्थानात् न्यवर्तत=
परावर्तत । अथ च पुरतः स्वगमनात्पूर्वतः स्थितं श्रमण-शाक्यादिकं वा ब्राह्मणं वा ग्रामपिण्डावलगंभीक्षयाजीवनयात्रानिर्वाहकं तत्तद्ग्रामाश्रयिणं भिक्षुकविशेष वा अतिथि साधु वा श्वपाकंचाण्डालं वा प्रेक्ष्यदृष्ट्वा तेषां
कपपूर्वतः स्थित श्रमणादीनामन्तरायो मा भूदिति बुद्ध्या ततो निवर्तमानः, तथा-जनेषु पूर्वोक्तश्रमणादिविषयम् ॥२६॥ अप्रत्ययम्=अविश्वास परिहरन परित्यजन , अहिंसन्माणातिपातादीन वर्जयंश्च सदा सर्वदा समितः ईर्यासमि
त्यादियुक्तः सन् मन्दं मन्द-शनैः शनैः पराक्रम्य-परावृत्य-निवृत्तो भूत्वा अन्यत्र-अपरस्थाने ग्रासम् आहारम् एषयामास-गवेषितवान् । तत्र भिक्षाचर्यायां तेन मूपिकं व्यञ्जनादियुक्तं वा अमूपिकम् व्यञ्जनादिरहितं वा, आईप्रसिद्धम् शुष्कं नीरसं भर्जितचणकादिकं वा शीतपिण्डम्=पयुपितमाहारं पुराणकुल्माष जीर्णमाषम् अथवा-यद्वाखोज में स्थित देखकर, स्वयं ही उस स्थान से निवृत्त हो जाते थे। इसके अतिरिक्त अपने पहुँचने से पहले से
भगवत खड़े शाक्य आदि श्रमण को, ब्राह्मण को, अथवा भीख मांग कर जीवन-निर्वाह करने वाले भिखमंगे को,
आचार अथवा किसी विशेष ग्राम का आश्रय लेने वाले भिक्षुक को. साधु को, या चाण्डाल को देखकर उन श्रमण
परिपालन आदि को भोजन-लाभ में विघ्न न हो जाय, ऐसा विचार करके उस स्थान से फिर जाते थे। तथा लोगो में विधिउक्त श्रमण ब्राह्मण आदि के अविश्वास का परिहार करते हुए माणातिपात आदि पापों से बचते हुए सदैव वर्णनम् । ईर्या आदि समितियों से सम्पन्न होकर, धीरे धीरे फिरकर दूसरे स्थान पर आहार की गवेषणा करते थे। ।०९३॥ दूसरे स्थान पर भी चाहे व्यंजन आदि से संस्कार किया हुभा आहार मिले या संस्कार न किया हुआ मिले, गीला मिले या भुने चने आदि रूखा मूखा मिले, वासी मिले या पुराने उड़द मिले, चने आदि के छिलके પ્રાણીઓને આહારની શોધમાં ઉભેલા જોતા તે તેઓ પિતે તે જગ્યાએથી પાછા ફરી જતા હતા. તદુપરાંત પિતે તેદારે ત્યાં પહોંચ્યા પહેલાં ત્યાં ઉભેલા શાકય આદિ શ્રમણને, બ્રાહ્મણને અથવા ભીખ માગીને જીવનનિર્વાહ કરનાર ભિખારીએને અથવા કોઈ ખાસ ગામને આશ્રય લેનાર ભિક્ષુકને, સાધુને કે ચાંડાલને જોઈને તે શ્રમણ આદિને ભેજનપ્રાપ્તિમાં વિનરૂપ ન થાય તેવા ઉદ્દેશથી વિચાર કરીને તેઓ તે સ્થાનેથી પાછા ફરી જતા હતા. તથા લેકમાં પૂર્વોક્ત શ્રમણ, બ્રામ કાળ અવિશ્વાસનો ત્યાગ કરતા પ્રાણાતિપાત આદિ પાપથી બચતા સદૈવ ઈષ્ય સાદિ સમિતિઓથી યુક્ત ॥२६॥ થઈને ધીરે ધીરે કરીને બીજી જગ્યાએ આહારની ગવેષણ કરતા હતા. બીજી જગ્યાએ પણ ચાહે શાક-ભાજી સહિતના
આહાર મળે કે ચાહે શાકભાજી વિના આહાર મળે, ભીને આહાર મળે કે શેકેલા ચણા આદિને સુખ-સૂકે છે કે અહાર મળે, વાસી મળે કે પુરાણુ અડદ મળે, ચણા આદિનાં ફોતરાં મળે કે નિઃસત્વ અન્ન મળે, જે કંઈ પણ
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मञ्जरी टीका
बक्कस-चणकादितुपं पुला=निःसारमन्नं वा यत् किश्चित् यत् किमपि कल्पनीयं लब्धं प्राप्तं तत् स ाहर भुक्तवान् । तथा-भिक्षाचर्यायां पिण्डे-ग्रासे लब्धे-माप्ते अलब्धे-अप्राप्ते वा द्रविका संयमी स भगवान् सम
भावेन-लाभालाभे च तुल्यभावेन ऐत-विहारं कृतवान् । तथा-उत्कुटुकाद्यासनस्थः उत्कुटुकाद्यासनेन स्थाता श्रीकल्प
भगवान्-श्रीवीरस्वामी अकौकुच्यः-मुवविकारादिरहितः अपतिज्ञः उभयलोकप्रतिज्ञावर्जितश्च सन ऊर्ध्वम् अधस्तिर्य॥२६॥
ग्लोकस्वरूप-लोकत्रयस्वरूपं समाधाय=चित्तावधानेन ज्ञात्वा ध्यानम्=धर्मध्यानम् अध्यायत्कृतवान् । छद्मस्थोऽपि%3 अनुत्पन्न केवलज्ञानोऽपि भगवान श्रीवीरस्वामी, अषायी-क्रोधादिकषायरहितः विगतगृद्धिः गृद्धिभाववर्जितः शब्दरूपादिषु-शब्दरूपगन्धरसस्पर्शषु अमूच्छितः अनासक्तः विपराक्रममाण विशेषेणात्मसामय वितन्वन् सकृदपि3
एकबारमपि, प्रमादं नाकरोत=न कृतवान्। तथा-भगवान् आत्मशोध्या आत्मशोधनेन-आत्मशोधनपूर्वकम् आयतका योगम्-सम्यक् मनोवाकायव्यापारं स्वयमेव स्वत एव, अभिसमागम्य-आश्रित्य यावत्कथंयावज्जीवम् अभिनिर्वृतः
मिले या निःसार अन्न मिले, जो कुछ भी कल्पनीय मिल जाय उसी का आहार करते थे। भिक्षाचर्या में आहार मिला तो और न मिला तो संयमशील भगवान् मध्यस्थभाव में ही विचरते थे।
उकडू आदि आसनों से स्थित भगवान् वीरप्रभु मुख आदि किसी अंग पर विकार नहीं होने देते इहलोक और परलोक की प्रतिज्ञा से रहित होकर तीनों लोकों के स्वरूप का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करके धर्मध्यान में संलग्न रहते थे। यद्यपि उस समय भगवान् केवलज्ञानी नहीं-छमस्थ थे, फिर भी क्रोध आदि कषायों से रहित थे, ममत्व से रहित थे और शब्द रूप गंध रस और स्पर्श रूप पाँचों इन्द्रियों के विषयों में अनासक्त थे। विशेष रूप से अपनी आत्मा का सामर्थ्य प्रकट करते हुए एक वार भी भगवान् ने प्रमाद नहीं किया।
आत्मा की शुद्धिपूर्वक, सम्यक् मन वचन काय के व्यापार को स्वयं ही आश्रित करके भगवान् जीवन-पर्यन्त ડોશી કપે એવું મળે એને જ આહાર કરતા હતા. ભિક્ષા ચર્ચામાં (ગોચરી) આહાર મળે કે ના મળે તે પણ સંયમશીલ ભગવાન મધ્યસ્થભ વથી જ વિચરતા હતા.
ઉકડુ આદિ આ સનથી રહેતા વીરપ્રભુ મુખ આદિ કોઈ પણ અંગ પર વિકાર થવા દેતા નહિ. ઈહલોક અને પર કની પ્રતિજ્ઞાથી રહિત થઈને ત્રણે લેકનાં સ્વરૂપનું મનેયેગપૂર્વક ચિન્તન કરીને ધર્મધ્યાનમાં લીન રહેતા હતા. જો કે તે સમયે ભગવાન કેવળ જ્ઞાની ન હતા પણ છદ્મસ્થ હતા, તે પણ ક્રોધ આદિ કષાયો કહિત હતા, મમત્વ વિનાના હતા; તેમજ શબ્દ, રૂપ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શરૂપ એમ પાંચ ઇન્દ્રિયના વિષયમાં અનાસક્ત હતા. વિશેષ
રૂપથી પ તાના આત્માનું સામર્થ્ય પ્રગટ કરતા ભગવાને એક વાર પણ પ્રમાદ સે નહિ. આત્માની શુદ્ધિપૂર્વક, - સમ્યફ મન, વચન અને કાયાના વ્યાપારને પોતે જ આશ્રિત કરીને ભગવાન આજીવન નિવૃત્તિભાવવાળા માયા વિનાના
भगवत
आचर परिपालन
की
विधि
वर्णनम्। सू०९३॥
॥२६॥
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श्रीकल्प
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१२६२॥
टीका
निवृत्तिभावसम्पन्नः, अमायी मायावर्जितः समितःईर्यासमित्यादिपञ्चसमितियुक्तश्च आसीत् । एषः पूर्वोक्तो विधिःकल्पः मतिमता मेधाविना माहनेन अहिंसापरायणेन अप्रतिज्ञेन-उभयलोकप्रतिज्ञारहितेन भगवता "अन्येऽपि3 मदितरेऽपि मुनयः साधवः एवं मद्वत् ईरताम्-विहरन्तु" इति कृत्वा इति विचार्य बहुशः सर्वथा अनुक्रान्ता अनुमृतः-पालित इति ॥५-९३॥ - मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे लाढदेसाओ पडिणिक्षमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव सावत्थी गयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ विचित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे दसम चाउम्मासं ठिए । तत्थ णं अट्ठमतवेणं एगराइयं भिक्खुपडिमं पडिवन्ने झाणं झियाइ । तत्थवि दिव्वे माणुस्से तेरिच्छे नाणाविहे उवसग्गे सम्म सहइ । एवं विहेण विहारेण विहरमाणे भगवं एगारसं चाउम्मासं वेसालीए णयरीए ठिए, तो पच्छा सुसुमारं णयरं समणुपत्ते, तओ णं विहरमाणे कोसंबीए णयरीए समोसरिए । तत्थ णं सयाणीओ राया। मिगावई महिसी। तीए विजया पडिहारिया। वाइणामओ धम्मपालगो। गुत्तणामा अमच्चो तस्स नंदा भज्जा, सा साविया आसी। अमू मिगावईए रायमहिसीए सही होत्था। तत्थ णं भगवं पोससुद्धाए पडिवयाए दबखेत्तकालभावं समस्सिय तेरसवत्थु समाउलं इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिग्गही । तं जहा-दवओ सुप्पकोणे १, बप्फियामासा २ होजा। खेत्तओ दाइया कारागारे ठिया ३, तस्थवि देहलीए ४, उवविट्ठा ५, सा पुण एगं पायं बाहिं एगं पायं अंतो किया ठिया ६ भवे। काली तयाए पोरिमीए अन्नभिक्खायरेहि निव्वत्तेहिं ७, भावओ दाइया कयकीया दासित्तं पता रायकन्ना ८, निगडबद्धहत्यपाया , मुंडियमत्थया १०, बद्धकच्छा ११, अट्ठमतवजुत्ता १२, अस्मृणि मुयमाणा १३ होजा। एयारिसेण अभिग्गहेण जइ आहारो मिलिस्सइ तो पारणगं करिस्सामि, अन्नहा छम्मासीतवं करिस्सामिति कह भगवं भिर बढाए अडइ। भगवो सो अभिग्गहो न कत्थइ परिपुणो हवइ ।।०९४|| नित्तिभाव से सम्पन्न, माया से रहित और पाच समितियों से युक्त रहे। यह विधि मेधावी, अहिंसापरायण
और इहलोक-परलोक संबंधी प्रतिज्ञा से रहित भगवान् ने 'अन्य मुनि भी इसी प्रकार इस आचारका पालन ___ करें' इस प्रकार विचार कर इस आचार का पूरी तरह पालन किया ।।मु०९३।।
અને પાંચ સમિતિએ થી યુક્ત કાા. આ પ્રમાણે મેધાવી, અહિંસાપરાયણ અને ઈલેક-પરલેક સંબંધી પ્રતિજ્ઞાથી
સહિત ભગવાને “બીજી મનિઓ પણ આ રીતે આ આચારનું પાલન કરે” એમ વિચારીને આ આચારનું સંપૂર્ણ बरसते पालन यु (सू०६३)
भगवतोऽभिग्रह वर्णनम्। सू०९३॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥२६३॥
HALELE CARELEA
छाया - ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरो लाटदेशात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव श्रावस्ती नगरी तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तत्र विचित्रेण तपःकर्मणा आत्मानं भावयन् दशमं चातुर्मासं स्थितः । तत्र खलु श्रष्टमतपसा एकरात्रिकीं भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नो ध्यानं ध्यायति । तत्रापि दिव्यान् मानुषान् तैरवान् नानाविधान् उपसर्गान् सम्यग् सहते । एवं विधेन विहारेण विहरन् भगवान् एकादर्श चातुर्मासं वैशाल्यां नगर्यो स्थितः । ततः पश्चात् शिशुमारं नगरं समनुप्राप्तः । ततः खलु विहरन् कौशाम्ब्यां नगयी समवसृतः । तत्र खलु शतानीको राजा । मृगावती महिपी । तस्या विजया प्रतिहारिका । वादि नामको धर्मपालकः । गुप्तनामा अमात्यः; तस्य नन्दा भार्या । सा श्राविकाऽऽसीत् । असौ मृगावत्या राजमहिष्याः सखी बभूव । तत्र खलु भगवान् पौषमूल का अर्थ - ' तर णं' इत्यादि । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर लाट देश से विहार करके जहाँ श्रावस्ती नगरी थी वहाँ पधारे। पधार कर विचित्र प्रकार के तपः कर्म से आत्मा को भावित करते हुए दसवा चौमासा वहाँ किया । वहाँ अष्टमभक्त (तेले ) के साथ एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार करके भगवान् ने ध्यान किया। वहाँ भी देवों संबंधी, मनुष्यों संबंधी तथा तिर्यंचों संबंधी नाना प्रकार के उप
को भीभाँति सहन किया। इसी प्रकार के बिहार से विहरते हुए भगवान् ने ग्यारहवें चतुर्मास वैशाली नगर में किया। तदनन्तर शिशुमार नगर में पधारे। शिशुमार नगर से विहार करके कौशाम्बी नगरी में पधारे। वहाँ शतानीक राजा था। मृगावती महारानो थी। विजया नामकी महारानी की द्वारपालिका थी । राजा का वादी नामक धर्माध्यक्ष था, और गुप्त नामक अमात्य था । अमात्य की पत्नी का नाम नन्दा था । वह श्राविका थी । वह राजरानी मृगावती की सखी थी ।
भूगना अर्थ -- 'तपणं त्याहि श्रमण भगवान महावीर, साटदेशमांथी विहार उरी, श्रावस्ती नगरीभां પધાર્યા. સંયમ-તપ વિગેરેથી આત્માને ભાવિત કરી દશમું ચાતુર્માસ ત્યાં કર્યું. અહિં અઠ્ઠમનુ' તપ આદરી, એક રાત્રીની ભિક્ષુપડિમા અંગીકાર કરી, યાનમગ્ન થયા. અહિં પણ, દેવ-મનુષ્ય-તિય ચાના ઉપસગેર્યાં ભઠ્ઠી ભાંતિથી તેમણે સહન કર્યા. આ પ્રકારે વિચતાં, અ યામું ચૌમાસુ`વશાળી નગરીમાં તેમણે કર્યુ. ત્યારબાદ શિશુમાર નામના નગરમાં તેઓ પધાર્યા. અને શિશુમાર નગરથી વિહાર કરી, કૌશામ્બી નગરીમાં, તેમનુ આગમન થયું. આકૌશામ્બી નગરીમાં. શતાનીક નામે રાજા માન્ય કરતા હતા. તેને ભૃગાવતી નામની રાણી હતી. આ રાણીને रियानाभनी दक्षिण ती राब्जने 'ही' नामनो धर्माध्यक्ष डतो. मने 'गुप्त' नामनो अमात्य हतो. અમાત્યની પત્નીનુ નામ ‘નંદા' હતું. આ નદા શ્રાવિકા હતી, અને મહારાણી મૃગાવતીની વ્હેનપણી હતી.
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मञ्जरी टीका
भगवतोऽभिग्रह
वर्णनम् । ॥मू०९४॥
॥२६३॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥२६४ ॥
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शुद्धायां प्रतिपदि द्रव्यक्षेत्रकालभावसमाश्रित्य त्रयोदशवस्तुसमाकुलम् इममेतद्रपम् अभिग्रहमभ्यगृह्णात् । तद्यथा" द्रव्यतः शूर्पकोणे १, वाष्पिता माषा २, भवेयुः । क्षेत्रतो दायिका कारागारे स्थिता ३, तत्रापि देहल्या ४, मुपविष्टा ५, सा पुनरेकं पादं वहिः एकं पादमन्तः कृत्वा स्थिता ६ भवेत् । कालतः तृतीयस्यां पौरुष्याम् अन्यभिक्षाचरेषु निवृत्तेषु ७, भावतः दायिका क्रयक्रीता दासीत्वं प्राप्ता राजकन्या ८ निगडबद्धहस्तपादा ९ मुण्डितमस्तका १०, बद्धकच्छा ११ अष्टमतपोयुक्ता १२ अश्रूणि मुञ्चन्ती १३ भवेत् । एतादृशेन अभिग्रहेण यदि आहारो मिलिष्यति, तदा पारणकं करिष्यामि, अन्यथा षण्मासीतपः करिष्यामि " इति कृत्वा भगवान् भिक्षार्थाय अटति । भगवतः सोऽभिग्रहो न कुत्रापि परिपूर्णो भवति ।। ०९४ ॥
भगवान् ने पौष शुद्ध प्रतिपद के दिन द्रव्य क्षेत्र काल भात्रका आश्रय लेकर तेरह बोलवाला यह अभिग्रह धारण किया - द्रव्य से (१) सूप के कोने में, (२) उबाले हुए उड़द हों; क्षेत्र से - ( ३) देनेवाली कारागार में हो, (४) कारागार में भी देहली पर हो, (५) सो भी बैठी हो, (६) वह भी एक पैर बाहर और एक पैर भीतर करके बैठी हो; काल से (७) तीसरे प्रहर में अन्य भिक्षाचरों के लौट जाने पर, भाव से(८) दायिका खरीदी हुइ हो, दासी बन गई हो मगर राजकुमारी हो, (९) उसे हाथों-पैरों में बेड़ी हो, (१०) सिर मुंड़ा हो, (११) कांछबंधी हो, (१२) तेले के तप से युक्त हो और (१३) आँसु बहा रही हो । इस प्रकार के अभिग्रह से यदि आहार मिलेगा तो पारणा करूंगा, अन्यथा छह मास का तप करूंगा। ऐसा
પ્રભુએ પોષ સુદ એકમના, દિવસે, દ્રવ્ય ક્ષેત્ર-કાલ અને ભાવના વિચાર કરી, તેર ખેલવાળા અભિગ્રહ ધારણ કર્યા. આ અભિગ્રહની શરતે નીચે મુજબની હતી :~
જો કેઈ વ્યક્તિ નીચેના આચાર સહિત માલુમ પડે તે હું મારા તપનું પારણુ' કરીશ. નહિતર આ તપને છ મહિના સુધી ખેંચી, છ માસિક તપની આરાધના કરીશ. (૧) દ્રશ્યથી સૂપડાના ખૂણામાં (૨) ખાફેલાં અડદ હોય, (૩) આ પવાવાસી વ્યક્તિ કારાગારમાં પૂરાઈ હેય (૪) કારાગારમાં ડેલી પર હાય, (૫) તે પણ બેઠી હાય (૬) તેના એક પગ ઉંબરાની બહાર અને એક પગ ઉંબરાની અંદર હાય (૭) અન્ય ભિક્ષાર્થિઓ ગયા પછીના ત્રીજો પ્રહર ચાલતા હૈાય, (૮) આપનાર ~ક્તિ વેચાતી લેવાએલી હોય, દાસી તરીકે તેનું જીવન હોય, અને મૂળમાં તે રાજકુમારી હેય, (૯) તેના હાથ-પગમાં બેડીનુ બંધન હેય, (૧૦) તેનું માથુ મુંડાવેલ હાય (૧૧) તેના કચ્છ બધેલે હોય (૧૨) તે અઠ્ઠમ તપથી યુક્ત હોય (૧૩) તે આંખામાંથી આંસુના પ્રવાહ વહેવડાવતી હાય ! ઉપરક્ત શરત મુજબ, યથાર્થ આહાર મલે, તેાજ તપનું પારણું કરી, તે માહારને શરીરાધે ભગવવા.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतोऽभिग्रह
वर्णनम् ।
।। सू० ९४५
॥२६४॥
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श्रीकल्पसूत्रे ।। २६५।।
PALLAVEER
Forestmorter
टीका - ' तर णं समणे भगवं ' इत्यादि । ततः लाटदेशविहरणानन्तरं खलु श्रमणो भगवान महावीरो लाट देशात् प्रतिनिष्क्राम्यति - प्रतिनिःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य = प्रतिनिस्सृत्य यत्रैव श्रावस्ती नगरी तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य = वस्त्यां नगर्यो, विचित्रेण-अनेकप्रकारेण तपःकर्मणा=तपश्चरणेन आत्मानं=स्त्रं भावयन् = त्रासयन्
दशमं चातुर्मासं स्थितः । तत्र - अष्टमतपसा = अष्टम तेन एकरात्रिकीम् = एकस्यां रात्रौ भवाम् भिक्षुप्रतिमां मुनेरभिग्रहविशेषम् प्रतिपन्नो ध्यानं ध्यायति करोति । तत्रापि भगवान् श्रीमहावीरस्वामी दिव्यान् देवकृतान्- मानुषान्मनुष्यकृतान् तैरश्चान्=तिर्यक्कृतान् नानाविधान् = बहुप्रकारन् उपसर्गान् सम्यक् सहते =क्रोधाभावेन ।
एवंविधेन = पूर्वोक्तप्रकारेण विहारेण विहरन् = ग्रामानुग्रामं विचरन् भगवान - श्रीवीरस्वामी एकादशं चातुर्मासम् वैशाल्यां नगर्या स्थितः । ततः पश्चात् = चतुर्माससमाप्त्यनन्तरं भगवान् शिशुमारं नगरं समनुप्राप्तः = अभिग्रह करके भगवान् भिक्षा के लिये भ्रमण करते थे, मगर वह अभिग्रह कहीं पूरा नहीं होता था ।। ०९४ ।। टीका का अर्थ-लाट देश में विचरण करने अनन्तर भ्रमण भगवान् महावीरने लाट देश से बिहार किया । विहार करके जहाँ श्रावस्ती नामकी नगरी थी, वहाँ पधारे। और अनेक प्रकार के तपश्चरण से अपनी आत्मा को भावित करते हुए भगवान दसवा चौमासा नहीं किया । वहाँ पर भगवान् ने अष्टमभक्त (तेले) की तपस्या के साथ एक रात में पूर्ण होने वाली भिक्षुप्रतिमा -मुनि के विशिष्ट अभिग्रह को अंगीकार करके ध्यान किया । वहाँ भी भगवान् श्रीमहावीरने देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यचकृत तरह-तरह के उपसर्गों को विना क्रोध के सहन किये। इसी प्रकार के बिहार को अंगीकार करके एक गाँव से दूसरे गाँव विचरते हुए भगवान् वीर प्रभुने ग्यारवाँ चौमासा वैशाली नगरी में किया। चौमासे की समाप्ति के पश्चात् નહિંતર, તે તપની વૃદ્ધિ કરી, છમાસ સુધી ખેંચી જવું, એવું ભગવાને મનથી નક્કી કયુ હતુ. આવે અભિગ્રહ ધારણ કરી, ભક્ષાર્થ કરતાં હતા. પરંતુ તેની પૂર્તિના ચેાગ નહીં બનતાં; તેમનુ આહાર અર્થ'નું પરિભ્રમણુ ચાલુ રક્રયુ. (સ્૦૯૪) ટીકાને અગાદેશમાં વિચરણ કર્યા પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે લાદેશમાંથી વિહાર કર્યો. વિહાર કરીને જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી ત્યાં પધાર્યાં. ત્યાં અનેક પ્રકારની તપશ્ચર્યા કરીને પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા ભગવાને ત્યાં જ દસમું ચામાસું કર્યું. ત્યાં ભગવાને અષ્ટભક્ત (અઠ્ઠમ)ની તપસ્યાની સાથે એક રાતમાં પૂ થનારી ભિક્ષુપ્રતિમા–મુનિના વિશિષ્ટ અભિગ્રહને અ`ગીકાર કરીને ધ્યાન ધર્યું. ત્યાં પણુ ભગવાન શ્રી મહાવીરે દેવકૃત, મનુષ્યકૃત અને નિય``ચકૃત જાતજાતના ઉપસ્રર્ગો ક્રોધ કર્યો વિના સહન કર્યો.
આ પ્રમાણે વિહારને અંગીકાર કરીને એક ગામથી બીજે ગામ વિચરતા ભગવાન વીરપ્રભુએ વૈશાલી નગરીમાં
कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतः
तपश्चर्या वर्णनम् ।
।। सू०९४।।
॥२६५॥
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श्रीकल्स
स्त्र ॥२६६॥
कल्पमञ्जरी
तरीका
विहारानुक्रमेण गतवान् । ततः खलु विहरन् भगवान् श्रीवीरस्वामी कौशम्यां नगया समवस्तः। तत्र खलु शतानीको नाम राजा आसीत् । तस्य मृगावती नाम महिषीराज्ञी, तस्याः मृगावत्याः विजया नाम प्रतिहारिकाद्वारपाली, तस्य शतानीकराजस्य वादि नामको धर्मपालका-धर्माध्यक्षः गुमनामा च अमात्यः मन्त्री आसीत् । तस्य-गुप्तनाम्नो मन्त्रिणो नन्दा नाम भार्या, सा नन्दा श्राविका-श्रमणोपासिको आसीत् । असौ= नन्दा मृगावत्याः राजमहिष्याः सखी वयस्या बभूव । तत्र कौशाम्ब्यां नगयो खलु भगवान् श्रीवीरस्वामी पौषशुद्धायां पौषमासस्य शुक्लपक्षीयायां प्रतिपदितिथौ द्रव्यक्षेत्रकालभावं समाश्रित्य त्रयोदशवस्तु समाकुलं त्रयोदशवस्तु युक्तम् इममेतद्रपं-वक्ष्यमाणलक्षणम् अभिग्रहम् अभ्यगृहात स्वीकृतवान् । तद्यथा-तत्र प्रथमं द्रव्यतोऽभिग्रहः प्रदयते-शूर्पकोणे १ स्थिता बाष्पिता: स्विन्ना माषा:-'बाकुला' इति प्रसिद्धाः२ भवेयुः, क्षेत्रतोऽभिग्रहः-दायिकाभिक्षादात्री कारागारे स्थिता ३ भवेत-तत्रापि-कारागारेऽपि देहल्यांग्रहद्वारे उपविष्य-आसीना ५ भवेत् , वीरप्रभु चलते-चलते शिशुमार नगर में पधारे। तदनन्तर भगवान् कौशाम्बी नगरी में पधारे। कौशाम्बी नगर में शतानीक नामक राजा था। मृगावती नामक उनकी रानी थी। मृगावती की द्वारपालिका का नाम विजया था। शतानीक राजा का विजय नामक धर्माध्यक्ष था और गुप्त नामक मंत्री था। गुप्त नामक मंत्रीकी पत्नीका नाम नन्दा था। नन्दा श्राविका थी और रानी मृगावती की सहेली थी।
वीर भगन ने पौष मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा, तेरह बातों से युक्त इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया। पहेले द्रव्य की अपेक्षा से अभिग्रह बतलाते हैं(१) सुप (छाजले) के कोने में, (२) उबाले हुए उड़द अर्थात् वाकले हो; क्षेत्र से अभिवह बतलाते हैं(३) भिक्षा देने वाली कारागार में स्थित हो, (४) कारागार में देहली-दरवाजे पर हो (५) सो भी बैठी हो, અગિયારમું ચોમાસું કર્યું. ચોમાસું પૂર્ણ કર્યા પછી વીર પ્રભુએ વિહાર કરતા કરતા શિશુમાર નગરમાં પધાર્યા. ત્યારબાદ ભગવાન કૌશામ્બી નગરીમાં પધાર્યા. કૌશામ્બી નગરીમાં શતાનીક નામના રાજા હતા. તેમને મૃગાવતી નામની રાણી હતી. મૃગાવતીની દ્વારપાલિકાનું નામ વિજયા હતું. શતાનીક રાજાને વાદી નામનો ધમધ્યક્ષ હતો અને ગુપ્ત નામે મંત્રી હતા. ગુપ્ત નામના મંત્રીની પત્નીનું નામ નન્દા હતું. નન્દા શ્રાવિકા હતી અને રાણી મૃગાવતીની બેનપણી હતી.
વીરભગવાને પિષ માસના શુકલ પક્ષની પડવેની તિથિએ, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવની અપેક્ષાએ તેર બાબતે વાળે આ પ્રકારનો અભિગ્રહ ધારણ કર્યો. પહેલા દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અભિગ્રહ બતાવે છે–(૧) સૂપડાના ખૂણામાં , (૨) બાફેલા અડદ એટલે કે બાકળા હેય; ક્ષેત્રથી અભિગ્રહ બતાવે છે–(૩) ભિક્ષા દેનારી વ્યક્તિ કારાગારમાં રહેલ હોય (3) કારાગારમાં પણ દરવાજાના ઉંબરામાં હોય (૫) તે પણ બેઠેલ હોય (૬) વળી એક પગ ઉંબરા બહાર
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भगवतोमिग्रह वर्णनम् । ०९४॥
॥२६६॥
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श्रीकल्प
॥२६७॥
सा पुनः एकं पादं चरणं बहिः-देहलीतो बहिः प्रदेशे एकम् अपरं पादम् अन्तः अभ्यन्तरप्रदेशे कृत्वा स्थिता ६ भवेत् । कालतोऽभिग्रहः-तृतीयस्यां पौरुष्यांतृतीयपहरे अन्यभिक्षाचरेषु निवृत्तेषु-परावृत्यगतेषु सत्सु ७, भावतोऽभिग्रहः-दायिका-भिक्षायादात्री क्रयक्रीताम्मल्यगृहीता तथा-दासीत्वं प्राप्ता दासीभूताराजकन्या भवेत् ८ सा पुनः निगडबद्धहस्तपादा-निगाडितकरचरणा ९ तथा-मुण्डितमस्तका-केशापनयतो मुण्डितशिरा १०, बद्धकच्छा ११ अष्टमतपोयुक्ताअष्टमभक्तरूपतपस्यान्विता १२, अश्रूणि मुश्चन्ती १३ भवेदिति । एतादृशेन-एवंविधेन अभिग्रहेण यदि आहारो मिलिष्यति तदा पारणकं करिष्यामि, अन्यथा-त्रयोदशवस्तुषु कस्यापि वस्तुनोऽभावेऽभिग्रहापूरणे षष्मासीतपवाष्मासिकं तपः अनशनरूपं करिष्यामि' इति कृत्वा एतन्मनसिकृत्य भगवान् भिक्षार्थाय-भिक्षार्थम् कौशाम्ब्याः प्रतिगृहम् अटतिभ्रमति, किन्तु भ्रमतो भगवतः सत्रयोदशवस्तुयुक्तोऽभिग्रहः कुत्रापि क्वचिदपि गृहे परिपूर्णों न भवति ॥सू०९४॥ (१) वह भी एक पैर देहली से बाहर निकाले हो और दसरा पर देहली के भीतर करके बैठी हो, काल से अभिग्रह बतलाते हैं-(७) तीसरे पहर अन्य भिक्षाजीवियों के लोट कर चले जाने पर, भाव से अभिग्रह बतलाते हैं-(८) भिक्षा देने वाली खरीदी हुई हो, दासी बनी हो मगर राजाकी कन्या हो, (९) उसके हाथों-पैरों में बेड़िया पड़ी हों, (१०) मस्तक मुंडा हुआ हो, (११) कांछ बाँधी हुई हो, (१२) तेले की तपस्या से युक्त हो और (१३) आमू बहा रही हो। इस प्रकार के अभिग्रह से अगर आहार मिलेगा तो में पारणा करूंगा, इन तेरह बोलों में से किसी भी एक की कमी होगी और अभिग्रह पूरा न होगा तो छह मासी तपस्या करूंगा। इस प्रकार मन ही मन में निश्चय करके भगवान् भिक्षाके लिए कौशाम्बी के घर-घर में परिभ्रमण करते थे, परन्तु किसी भी घर में यह तेरह बोल का अभिग्रह पूर्ण नहीं होता था ॥सू०९॥ મૂકેલ હોય અને બીજો ઉંબરાની અંદર રાખીને બેઠી હોય, કાળથી અભિગ્રહ બતાવે છે-(૭) ત્રીજા પહોરે ભિક્ષુકાના પાછા ફર્યા બાદ. ભાવથી અભિગ્રહ બતાવે છે-(૮) ભિક્ષા દેનારી વ્યક્તિ ખરીદાયેલ હોય, રાજાની કન્યા હોવા છતાં દાસી બની હેય (૯) તેના હાથપગમાં બેડિયો નાખેલી હોય, (૧૦) માથું મૂડેલું હોય (૧૧) કછોટો બાંધેલ હોય (૧૨) અઠ્ઠમની તપસ્યા સહિત હોય (૧૩) આંખમાંથી આંસુ વહેતા હોય; આ પ્રમાણેના અભિગ્રહથી જે આહાર મળશે તે હું પારણું કરીશ આ તેર બેલમાંથી એકની પણ ખામી હશે અને અભિગ્રહ પૂરે નહીં થાય તે છમાસી તપસ્યા કરીશ. આ પ્રમાણે મને મન નિશ્ચય કરીને ભગવાન શિક્ષાને માટે કૌશામ્બીના ઘરે ઘરે પરિભ્રમણ કરતા હતા, પણ કોઈ ઘરમાં આ તેર બેલને અભિગ્રહ પૂર્ણ થતું ન હતું. (સૂ૦૯૪)
भगवतोभिग्रह वर्णनम्। सू.९४॥
॥२६७॥
થઇ
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श्रीकल्प
सूत्रे
कल्प मञ्जरी
॥२६८॥
टीका
मूलम-एवं पइदिणं भगवं अडमाणं पासिय लोगा अणं मण्णं वितति, तत्थ केइ एवं वयंति'एस णं भिक्खू पइदिणं अडइ, ण उण भिक्खं गिण्डइ, एत्थ केणवि कारणेण हायव्वं । केइ वयंति-'उम्मतणेण भमई'। अवरे व्यंति-अयं कस्स वि रण्णो गुत्तयरो किंपि विसिटुं कज्जमुदिसिय अडइ । अण्णे वयंतिचोरोऽयं, चोरियमुदिसिय अडइ। एगे वयंति-'एसो चरिमो तित्थयरो अभिग्गहेण अडई। तो पच्छा सव्वे जणा जाणिसु जे एस णं तेलुक्कनाहे सबजगजीवहियगरे समणे भगवं महावीरे दुक्करदुक्करेणं अभिग्गहेणं अडइ। मंदभग्गा अम्हे जं णं एरिस्स महापुरीसस्स अभिग्गहं पूरिऊ न सकामो। एवं अडमाणस्स भगवओ पंचदिवसोणा छम्मासा वीइकंता। तए णं बीए दिवसे लोहनिगडबंधणतोडणपडिनिहित्तम्मि अगाइकालीणभवबंधणतोडणं काऊं लोहयारहाणोए भगवं धणावहसेट्ठिणो गिहे चंदणबालाए अंतीए समणुपने । तं दणं सा चंदणा हतुवा चित्तमाणंदिया हरिसवसविसप्पमाणहियया चितेइ
"अहो पत्तं मए पत्तं, किंचि पुण्णं ममथिवि ।
जं इमो अतिही पत्तो, कप्परुक्खो ममंगणे" ॥९॥ त्ति चिंतिय भगवं पत्थेइ-नोचियं इमं भत्तं भदंतस्स, तहवि जइ कप्पणिज्जं तो ममोपरि किवं काऊं गिज्झउ । तए णं से भगवं तत्थ बारस पयाणि पडिपुण्णाणि पासइ, अस्सुरूवं तेरसमं पर्यन पासइ, तो भगवं पडिणियट्टइ। पडिणियट्टमाणं भगवं दणं चंदणा परिचितेइ
“आगो भगवं एत्थ, पच्छा एसो नियहियो।
किंदुक्कम्मं मए चिणं, जस्सिमं एरिसं फलं" ॥९॥ ___अहं केरिसी अधण्णा अपुष्णा अकयत्था अकयपुष्णा अकयलक्खणा अकयविहवा कुलद्धेणं मए जम्मजीवीयफले, जीए इमा एयाख्वा दुइपरंपरा लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया। मम अट्ठमतवपारणगे समागो एयारिसो गहियभिग्गहो महामुणी महावीरो भगवं अपडिलाभिओ चेव पडिणियत्तो। गिहागनो कप्परुक वो इत्थाश्री अवसरिओ। हत्थगयं वजरयणं नटुंति कह सा चंदणावालाए रोइउमारभी। तए णं भगवं तेरसमं वयं पडिपुण्णं विण्णाय पडिणियट्टिय चंदणबालाए हत्थाप्रो बप्फिय मासे करपत्ते पडिग्गहिय पारणं कासी।
तेणं कालेणं तेणं समएणं तस्स णं धणावहसेहिस्स गिहंसि देवेहिं पंचदिव्वाइं पगडीकयाई। तं जहावसुहारावुढा १, दसद्धवन्ने कुसुमे णिवाइए २, चेलुक्खेवे कए ३, आहयाओ दुंदुहीओ ४, अंतरा वियणं आगासंसि ___ अहो दाणं अहो दाणंतिघुट्टे य५। देवा जयजय सदं पउंजमाणा चंदणबालाए महिमं करिंसु । तीए निगडबं.
अभिग्रहामटमानस्य भगवत विषये लोकवितर्क वर्णनम्। मू०९४॥
॥२६८॥
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श्रीकल्पमुत्रे ॥२६९॥
Arunk
धामि त्थपाया वलय णेउरसमलंकिया जाया, केसपासो सुंदरो समुन्भूयो । तीए सव्वं सरीरं नाणाविहवत्थालंकारविभूसियं संजायं । सन्वत्थ हरिसपगरिसो जाओ। देवदुंदुहिज्झुणि सुणिय लोगा तत्थ आगंतूण चंदणबालं थुसु, घणावहसेठस्स घण्णवार्य दलमाणा तन्भज्जं मूलं निंदिसु । तं सोऊण चंदणवाला लोगे निवारेमाणी वदीअ - भो लोगा ! एवं मा वयंतु मम उ एसेव मूला माया अतोत्रगारिणी अत्थि, जप्पभावेण अज्जमए एरिसे सुअवसरे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए ति ॥ ०९५॥
छाया -- एवं प्रतिदिनं भगवन्तमटन्तं दृष्ट्वा लोका अन्योऽन्यं वितर्कयन्ति तत्र केचिदेवं वदन्ति - ' एष खलु भिक्षुः प्रतिदिनमटति न पुनर्भिक्षां गृह्णाति, अत्र केनापि कारणेन भवितव्यम् ' । केचिद्वदन्ति - " उन्मत्तत्वेन भ्रमति" । अपरे वदन्ति - अयं कस्यापि राज्ञो गुप्तचरः किमपि विशिष्टं कार्यमुद्दिश्य अटति । अन्ये वदन्ति - चौरोऽयं चौर्यमुद्दिश्य अटति । एके वदन्ति - ' एप चरमस्तीर्थकरोऽभिग्रहेणाटति' ततः पश्चात् सर्वे जना अजानन् - यद् एष खलु त्रैलोक्यनाथः सर्वजगज्जीवहितकरः श्रमणो भगवान् महावीरों दुष्करदुष्करेणाभिग्रहेणाटति, मन्दभाग्या वयं यत्
मूल का अर्थ - ' एवं ' इत्यादि । इस प्रकार प्रतिदिन परिभ्रमण करते हुए भगवान् को देखकर लोग परस्पर तर्कणा करते थे । उनमें से कोई कहते - यह भिक्षु प्रतिदिन परिभ्रमण करता है, किन्तु भिक्षा नहीं लेता। इसमें कोई कारण होना चाहीए। कोई कहते - पागलपन के कारण घूमता है। दूसरे कहते - यह किसी राजा का जास है। किसी विशेष कार्य को लेकर घूम रहा है। कोई कहते - यह चोर है, और चोरी करने के उदेश से घूम (हा है । कोई कहते - यह अन्तिम तीर्थंकर हैं, अभिग्रह के कारण घूमते हैं। तत्पश्चात् सभी जनों को ज्ञात हो गया कि यह तीन लोक के समस्त जीवों के हितकारी, श्रमण भगवान् अस्तां भगवानने लेई, बोडी तर्ड वित १२वा લાગ્યા. લાકોના કેટલાક ભાગ ખેલતા હતા કે, આ ભિક્ષુ હ ંમેશાં ફર્યા કરે છે પરંતુ ભિક્ષા લેતા નથી, માટે કોઈ પણ કારણ હોવુ જોઇએ. કાઇ કાઈ તે ખેલતા હતા કે પાગલ થઈ જવાને કારણે ઘૂમ્યા કરે છે. કોઈ કોઈ એમ પણ ખેાલતા હતા કે રાજાના જાસુસ છે; જેથી કેઇ વિશિષ્ટ કાર્યંને માટે અહિં તડું ફર્યા કરે છે. કાઈ કાઇ તે એમ પણ ખેલતા કે આ સાધુ ચાર છે, અને ચેરી માટે ચારે તરફ જોયા કરે છે. કાઈ કાઇનું ખેલવું એમ પણ થતુ કે આ છેલ્લા તીર્થંકર છે અને પોતાના અભિગ્રહ પાર પાડવા આવી રીતે ગમનાગમન કર્યો કરે છે. લાંબા વખત પછી દરેકના જાણવામાં આવ્યું કે આ ભિક્ષુ ત્રિલોકનાથ છે. જગતના સર્વ જીવાના હિતકારી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર છે. અને તાતા અભિગ્રહની પૂર્તિ માટે કરે છે પણ અભિગ્રહ પૂરા થતા લાગતા નથી.
नाथ, जगत् के भूजनोथ -' एवं ' इत्यादि. या प्रमाणे प्रतिठिन श्रम
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ASHANKARAHKAHHANDKERKZEK
कल्प
मञ्जरी
टीका
अभिग्रहार्थ
मटमानस्य भगवत
विषये लोकवितर्क वर्णनम् ।
॥ मु०९५।।
॥२६९॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥२७०॥
HTT
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खलु ईदृशस्य महापुरुषस्याभिग्रहं पूरयितुं न शक्नुमः' । एवमटतो भगवतः पञ्च दिवसोनाः षण्मासा व्यतिक्रान्ताः । ततः खलु द्वितीये दिवसे लोग निगडबन्धनत्रोटनप्रतिनिधित्वे अनादिकालीन भवबन्धनत्रोटनं कर्तुं लोहकारस्थानयो भगवान् धनावह श्रेष्ठिनो गृहे चन्दनबालाया अन्तिके समनुप्राप्तः तं दृष्ट्वा सा चन्दना हृष्टतुष्टा चित्तानन्दिता हर्षवशविसर्पहृदया चिन्तयति-
“ अहो पात्रं मया प्राप्तं, किश्चित् पुण्यं ममास्त्यपि ।
यदयम् अतिथिः प्राप्तः, कल्पवृक्षो ममाङ्गणे " ॥ ९ ॥ इति ।
चिन्तयित्वा भगवन्तं प्रार्थयति - " नोचितमिदं भक्तं भदन्तस्य, तथापि यदि कल्पनीयं तदा ममोपरि कृपां कृत्वा गृह्णातु " । ततः खलु स भगवांस्तत्र द्वादशपदानि प्रतिपूर्णानि पश्यति अश्रुरूपं त्रयोदशं पदं न महावीर हैं, और अतीव दुष्कर अभिग्रह के कारण भ्रमण कर रहे हैं। हम लोग मन्दभाग्य हैं कि ऐसे महापुरुष के अभिग्रह को पूरा नहीं कर सकते । इस प्रकार भगवान् को घूमते-घूमते पाँच दिन कम छ माह हो गये । तब दूसरे दिन लोहे की बेडियों को तोड़ने के स्थानापन्न अनादि कालीन संसार-बंधनों को तोड़ने के लिए लोहकार के समान भगवान् धनावह सेठ के घर में चन्दनबाला के समीप पहुँचे । भगवान् को देखकर चन्दना हृष्ट-तुष्ट हुई। उसके चित्त में आनन्द हुआ। हर्ष से उसका हृदय विकसित हो गया। वह सोचती है— " किंचित् पुण्य शेष है मेरा, मुझे मिले यह पात्र महान् । अतिथि रूप में कल्पवृक्ष ही, उग आया आँगन - उद्यान" ॥
इस प्रकार विचार कर उसने भगवान से प्रार्थना की- 'यह भोजन भगवान् के योग्य नहीं है, तथापि यदि कल्पनीय हो, तो हे भगवान् । मुझ पर कृपा करके ग्रहण कीजीए ।' तब भगवान् ने वहाँ वारह बोलों का
આ પ્રકારે અવરજવર કરતાં છ મહિનામાં પાંચ દિવસ ઓછા એટલેા સમય પસાર થઈ ગયા. આ વ્યતીત વખતના બીજે જ દિવસે કોઇ એક ઘેર આહાર અર્થે જઈ પહોંચ્યા, તે ત્યાં લેાઢાની બેડિએથી બધાએલ સ્થિતિમાં ચંદનબાલા નામની કોઇ એક કુમારિકાને તેમણે ધનાવહ રોડના મકાનમાં જોઇ ભગવાન જાણે સાક્ષાત્ લાખડની બેડી તાડવાને બદલે અનાદિ કાલિક સ સારની બેડીને તોડવાવાળા લુહાર આવ્યા ન હોય! તેમ ચંદનમાલા ભગવાનને જોઈ હષઁથી પુલકિત થઈ. તેના ચિત્તમાં આનદ વ્યાપી ગયા. તેનું હૃદય વિકસિત થયું અને તે વિચારવા લાગી કે “ હજી મેં પાપ કરતાં પાછુ વાળીને જોયુ છે કે શેષ પુણ્યના પ્રતાપે આવા મહાનપાત્ર મારી પાસે આવી ચડયા ! જાગે આ તિથિ રૂપમાં કલ્પવૃક્ષ જ મારા આંગણા રૂપી ઉદ્યાનમાં ઉગી નીકળ્યુ. આ પ્રકારે વિચારી તેણે એ પ્રભુને પ્રાથના કરી કે હે ભગવાન! આ ભેાજન ગ્રહણ કરવા યેગ્ય નથી, છતાં કલ્પવા યેાગ્ય હોય તેા હે ભગવાન, આપ મહેરબાની કરી લ્યે એવી મારી પ્રાથના છે.
कल्प
मञ्जरी
टीका
अभिग्रह
पूर्तयेऽटतः
चन्दनबाला
समीपे
गमन
वर्णनम् । ॥३०९५॥
॥२७०॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥२७१ ॥
XXXBKKKAKK KXXXKAKÄMÄKKKI
पश्यति, ततो भगवान् प्रतिनिवर्तते । प्रतिनिवर्तमानं भगवन्तं दृष्ट्वा चन्दना परिचिन्तयति." आगतो भगवानत्र, पश्चादेष निवृत्तः ।
कि दुष्कर्म मया चीर्ण, यस्येदमीदृशं फलम् " ॥ ९ ॥
अहं कीही अधन्या अपुण्या अकृतार्था अकृतपुण्या अकृतलक्षणा अकृतविभवा, कुलब्धं खलु मया जन्मजीवीतफलम् यया इयमेतद्रपा दुःखपरम्परा लब्धा = प्राप्ता अभिसमन्वागता । ममाष्टमतपः पारण के समागत एतादृसो गृहिताभिग्रहो महामुनिर्महावीरो भगवान् अमतिलम्भित एव प्रतिनिवृत्तः गृहागतः कटो हस्तादपसृतः । हस्तगतं वज्ररत्नं नष्टमिति कृत्वा सा चन्दनबाला रोदितुमारभत । ततः खलु भगवान् त्रयोदशं पदं पूर्ण होना देखा, किन्तु अँम् रूप तेरह तेरहवाँ बोल नहीं देखते । इस कारण भगवान् वापिस लोटने लगे । भगवान् को लौटते देख चन्दना सोचती है—
हाय हाय प्रांगण में मेरे, रखकर वरद चरण भगवान । लौट रहे हैं लोकनाथ यह, मैं कैसी पापों की खान ॥
मैं कैसी धन्य हूँ, पुण्यहीन हूं। अकृतार्थ हूँ। मैंने पुण्य नहीं किया, मैं सुलक्षणों से होन हूँ, मैंने विभव नहीं पाया। मुझे जन्म का और जीवन का भला फल नहीं मिला, जिसने इस प्रकार की दुःखपरम्परा का लाभ किया, प्राप्ती की और सामना किया। मेरे तेले के पारण के अवसर पर आये हुए ऐसे अभिग्रहधारी महामुनि महावीर भगवान् आहार लिए बिना ही लौट गये, जैसे घर में आया हुआ कल्पक्ष ही हाथ से चला गया । हाय, हाथ आया हीरा गुम हो गया। इस प्रकार विचार कर चन्दनवाला रोने लगी । उस समय भगवान ने तेरहवाँ बोल અહીં ભગવાને અભિગ્રહની ખાર શરતે પૂર્ણ થતી જોઈ, પણ તેરમી શરત જોવામાં આવી નહિ, તેથી ભગવાન પાછા વળવા લાગ્યું. ભગવાનને પાછા ફરતા જોઇ ચંદનમાલા શાક કરવા લાગી કે ‘આંગણે આવેલ સાક્ષાત્ દેચિદેવ પાછા ફરી રહ્યા છે, હું કેવી અભાગણી છું કે હાથમાં આવેલું રત્ન ખાઇ બેઠી! હું ખરેખર પાપણી છું, અમૃતા છુ, પુણ્યહીન છુ, વિભવહીન છું, મને મારા જન્મ અને જીવનનું શુભ ફળ ન મળ્યું. મને અભાગણીને જીવનમાં દુઃખપર પરાઓના જ લાભ મળ્યા. મારી એ કમનસીબી છે કે મારા અઠ્ઠમના પારણે આવેલા આવા શિગ્રહી મુનિ ભગવાન મહાવીર બહાર વિના પાછા વળી ગયા. ઘરમાં આવેલું કલ્પવૃક્ષ હાથમાંથી ચાલ્યું ગયું. અરે ! મેં તેા હાથમાંથી આવેલું રત્ન ગુમાવ્યુ'! આવા પ્રકારના શૅકવિલાપ કરી ચંદનબાલા રડવા લાગી, અને તેની આંખમાં ઝળઝળીયાં આવ્યાં, ચંદનમાલાની આંખમાં જ્યાં આંસુનુ બિંદુ દેખાયુ કે ભગવાન પાછા પશ્ચા. કારણ કે
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श्री कल्पमञ्जरी टीका
भगवन्तं दृष्ट्वा चन्दन -
बालाया
हर्षोल्लास
वर्णनम् ।
।। ०९५।।
॥२७१ ॥
w.
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श्री कल्प
कल्पमञ्जरी
॥२७२॥
RAJASTHAHATTA
टीका
अभिग्रह
प्रतिपूर्ण विज्ञाय प्रतिनिवृस्य चन्दनवालाया इस्वाद वाष्पितमाषान् करपात्रे परिगृह्य पारणमकार्षीत् ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्य खलु धनावहश्रेष्ठिनो गृहे देवः पञ्चदिव्यानि प्रकटीकृतानि ! सधवावसुधारा दृष्टा १, दशावर्णानि कुसुमानि निपातितानि २, चेलोत्क्षेपः कृतः३, आइताः दुन्दुमयः ४, अन्तराऽपि च खलु आकाशे 'अहोदानम् अहोदानम्' इति घुषितं च । देवा जयजय शब्दं प्रयुञ्जानाः चन्दनवालाया महिमानमकुर्वन् । तस्या निगडबन्धनस्थाने हस्तपाद वलयनूपुरसमलङ्कृतं जातम् केशपाशः सुन्दरः समुद्भतः। तस्या सर्व शरीरं नानाविधवस्त्रालङ्कारविभूषितं संजातम्। सर्वत्र हर्षप्रकर्षोंजातः। देवदुन्दुभिध्वनि श्रुत्वा लोकास्तत्राऽऽगत्य चन्दनबालापस्तुवन् , धनावहश्रेष्ठिने धन्यवाद ददतस्तद्भायां मूलामनिन्दन् । तच्छ्रुत्वा चन्दनवाला लोकान् निवारयन्ती अवदत्-'भो लोकाः। एवं मा वदन्तु, मम तु एषैव मूला माता अनन्तोपकारिणी अस्ति, यत्पभावेण अद्य मया ईदृशः अवसरो लब्धः प्राप्तोऽभिसमन्वागत इति सू०९५॥ पूर्ण हुआ जानकर, लौटकर चन्दनबाला के हाथ से उडद के बाकले करपात्र में ग्रहण कर के पारणक किया।
उस काल और उस समय, उस धनावह सेठ के घर में देवोंने पाच दिव्य प्रकट किये । वह इस प्रकार-(१) सोनै यो की वर्षा हुई (२) पाच रंग के फूलों की वर्षा हुई (३) वस्त्रों की वर्षा हुई (४) दुंदुभियौको ध्वनि हुई (५) 'आकाश में अहोदान अहोदान' का घोष हुआ। जय-जयकार करके देवोंने चन्दनबाला का महिमा का प्रकाश किया। बेडियो की जगह उसके हाथ-पैर कडों और नूपुरों से अलंकृत हो गये। सुन्दर केशपाश उत्पन्न हो गया। उसका समस्त शरीर नाना प्रकार के वस्त्रों और अलंकारों से विभूषित हो गया। सर्वत्र हर्षका उभार आ गया। देवदुंदुभियों की ध्वनि सुनकर, लोग वहाँ आये और चन्दनवाला की स्तुति करने लगे। धनावह सेठ को धन्यवाद देते हुए उसकी पत्नी मूला की निन्दा करने लगे। यह सुनकर આંખમાં આંસુએ તેમના અભિગ્રહની તેરમી શરત હતી. તેરેતેર બેલ પરિપૂર્ણ થતાં ભગવાને ચંદનબાલાના હાથે અડદના બાકળા કરપાત્રમાં સ્વીકાર્યા અને એ રીતે પ્રભુએ દીધું તપશ્ચર્યાનું પારણું કર્યું.
આ વખતે ધનાવહ શેઠને ત્યાં પાંચ દિવ્ય પ્રગટ થયા. પાંચ દિવ્ય પ્રગટ થતાં દેએ દુંદુભી ધ્વનિ સાથે જયજયકારની ઘોષણા કરી અને ચંદબાલાને મહિમા ગાવે. તેના હાથની બેડીએના સ્થાને સુવર્ણમય કંકણે અને ઝાંઝરના અલકારો દેખાયાં. તેના માથાના મુંડનને બદલે સુંદર કેશકલાપ દષ્ટિગોચર થયા. તેનું આખુ શરીર વિવિધ પ્રકારના વસ્ત્રો અને અલંકારથી વિભૂષિત થયું. સર્વત્ર હર્ષનાદે થવા લાગ્યા. દેવદુંદુભીને અવાજ સાંભળી લેકે ત્યાં ઉભરાયા અને ચંદનબાલાની પ્રશંસા કરવા મંડયા. તે વખતે લેકે ધનાવહ શેઠને ધન્યવાદ અને મૂલા શેઠાણીની નિ દા
म पूरणानन्तरं
श्रेष्ठियहे
दिव्यानि प्रकटनादि वर्णनम्। स०९५॥
DASTARATI
॥२७२।।
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श्रीकल्प
श्रीकल्पमञ्जरी
॥२७३॥
टीका
टोका-" एवं पडिदिनं भगवं अडमाण" इत्यादि। एवं अनेन प्रकारेण प्रतिदिनं दिने दिने भगवन्तं श्रीमहावीरस्वामिनम् अटन्तंभ्रमन्तं दष्वा लोका:-जनाः अन्योऽन्यं परस्परं वितर्कयन्ति, तत्र लोकेषु केचित्= कतिपये लोकाः एवं वदन्ति-" एष: अयं खलु भिक्षुः प्रतिदिनम् अटति-भ्रमति, पुनः किन्तु भिक्षां न गृह्णाति, अत्र प्रतिदिनमटतोऽप्यस्य भिक्षाग्रहणाऽभावे केनापि अस्मदाद्यज्ञातेन कारणेन हेतुना भवितव्यम् । केचित् वदन्ति'एष भिक्षुः उन्मत्तत्वेन जातोन्मादतया भ्रमति'। अपरे वदन्ति-अयं कस्यापि राज्ञो गुप्तचरो वर्तते, सोऽयं स्वस्य राज्ञः किमपि विशिष्टं कार्यमुद्दिश्य केनापि विशिष्टकार्यप्रयोजनेन अटति । अन्ये वदन्ति-चौरोऽयं वर्तते, चौर्यमुद्दिश्य अटति। एके वदन्ति-एषः भिक्षुः चरमः अन्तिम:-चतुर्विशः, तीर्थकरो जिनः अभिग्रहेण अटति। ततः पश्चात्तदन्तरं सर्वे जनाः भगवन्तं श्रीवीरम् अनानन्=परिचितवन्तः-“यत् एषः भिक्षुः खलु त्रैलोक्यनाथः= चन्दनबालाने उन्हें रोक दिया, और कहा-लांगो ! ऐसा न कहो। मूला माता ही मेरी महान् उपकारिणी है, जिसके प्रभाव से आज मुझे यह सुअवसर लब्ध हुआ, प्राप्त हुआ और मेरे सामने आया ।।०९५॥
टीका का अर्थ--इस प्रकार भगवान् श्रीमहावीर को प्रतिदिन भिक्षा के लिए पर्यटन करते देखकर लोग आपस में तर्क-वितर्क करते थे। उन लोगो में से कितनेक लोग इस प्रकार कहते-यह भिक्षु प्रतिदिन भिक्षा के लिए घूमता है, मगर भिक्षा लेता नहीं है, इस में कोई न कोई कारण होना चाहीए, जो हमें मालूम नहीं पड़ता। कोई कहते-यह भिक्षु उन्मत होने के कारण चक्कर काटा करता है। दूसरे कहते-यह कीसी राजा का गुप्तचर है। यह अपने राजा के किसी विशेष कार्य को लेकर घूमता हैं। किसीने कहा-यह चोर है
और चोरी के उद्देश्य से घूमता है। कोई कोई कहते थे-यह भिक्षु चौवीसवें तीर्थकर हैं, और अपरी प्रतिज्ञा की કરવા લાગ્યા. લોકોને આ પ્રમાણે બોલતા સાંભળી ચંદનબાલાએ તેમને અટકાવ્યા અને કહ્યું કે “આ મૂલા માતા જ મારો મહાન ઉપકાર કરવાવાળી છે. જેના પ્રભાવવડે આજે મને આ અનુપમ અવસર પ્રાપ્ત થયું. (સૂ૯૫)
ટીકાને અર્થ–સામાન્ય ખોરાક એ ભિક્ષકનું ભોજન છે. આવું ભોજન ને ગમે ત્યાંથી પ્રાપ્ત થઈ શકે છે, છતાં આ ભિક્ષુ ઘેર ઘેર આથડે છે, ને ભેજન તેની આગળ ધરવા છતાં તે લેતે નથી. માટે આ ભિક્ષુને જુદે જ ઈરાદે હેવો જોઈએ એમ લેકે અંદરોઅંદર વાત કરતા હતા. આ વાતે સામાન્યપણે આખા ગામમાં ચર્ચાવા લાગી, ને આ ચર્ચામાંથી અનેક પ્રકારના તર્કવિતર્કો ઉભા થવા લાગ્યા. વાત વાયુવેગે પ્રસરતાં લેકો આ ભિક્ષુકની ટીકા કરવા
લાગ્યા અને જાતજાતના ગપગોળા ફેંકવા લાગ્યા. આ કપનાનો કોઈ પણ અંત હવે નહિ. કદાચ આ ભિક્ષુક કઈ રે દુશમનને જાસુસી મનુષ્ય હવે જોઈએ! તેમ જ કદાચ ારી કરવા નિમિત્ત ચારેર તપાસ પણ કરી રહ્યો હોય !
अभिग्रहार्थमटता भगवतः
HAI लोनित
वर्णनम् । है। मू०९५।।
॥२७॥
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श्रीकल्प
||२७४||
त्रिलोकस्वामी, सर्वजगज्जीवहितकर सकलभुवनस्थप्राणिकल्याणकारी श्रमणो भगवान् महावीरः, दुष्करदुष्करेण= अतिकठिनेन अभिग्रहेण अटति इति । ततस्ते एवं शोचन्ति-अहो ! वयं=सर्वे मन्दभाग्याः भाग्यहीनाः स्मः यत् यस्मादेतोः खलु ईदृशस्य त्रैलोक्यनाथत्वादि विशिष्टस्य महापुरुषस्य अभिग्रहं पूरयितुं सम्पन्नं कर्तुं न शक्नुमः=न समर्था भवामः। एवम् इत्थम् अटतः अभिग्रहापूांभिक्षार्थ भ्रमतः भगवन्तः श्रीवीरस्वामिनः पञ्चदिवसोनाः पञ्चभिर्दिनैऍनाः षण्मासाः व्यतिक्रान्ताः व्यतीता अभवन् । ततः पश्चाहन्यूनषाण्मासीव्यतिक्रमणानन्तरं खलु द्वितीये दिवसे लोहनिगडबन्धनत्रोटनप्रतिनिधित्वे-लोहशृङ्खलानियन्त्रणखण्डनस्थाने, अनादिकालिन भवबन्धनत्रोटनं अनादिकालोद्भवभवबन्धनभञ्जनं कत्तुं लोहकारस्थानीय लोहकारतुल्यो भगवान् महावीरो धनावह श्रेष्ठिनो गृहे चन्दनवालायाः तन्नाम्न्याः राजपुच्याः अन्ति-समीपे समनुप्राप्त समागतः, तं-गृहप्राप्तं श्रीवीरस्वामिनं दृष्ट्वा सा चन्दनादन्दनवाला, हृष्टतुष्टा-हृष्टाइर्षिता, तुष्टा-सन्तोष प्राप्ता चित्तानन्दिता आनन्दितमानसा पूर्ति के लिये भ्रमण करते हैं। कुछ दिनों बाद सभी जन वीर भगवान् से परिचित हो गये। जान गये कि यह भिक्षु तीन लोक के स्वामी और संसार के प्राणो-मात्र के कल्याणकर्ता श्रमण भगवान् महावीर हैं, और दुष्कर-दुष्कर (अत्यन्त ही कठोर) अभिग्रह के कारण भ्रमण करते हैं। जब लोगों को पता लगा तो वे इस प्रकार शोक करने लगे-आह ! हम सब अभागे हैं, जो ऐसेत्रिलोकीनाथ महापुरुष का अभिग्रह पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार अभिग्रह पूर्ति के निमित्त भिक्षा के लिए भ्रमण करने वाले भगवान् महावीर को पाँच दिन कम छह मास पूर्ण हो गये। इतना समय बीत जाने के बाद, दूसरे दिन, लोहेकी सांकलोंके बंधनों को तोड़ देने के स्थानापन्न अनादि काल से चले आ रहे भव-बन्धनों को तोड़ने के लिए लुहार के समान भगवान् महावीर धनावह श्रेष्ठी के घर चन्दनवाला के निकट पहुँचे। भगवान् को आये देखकर चन्दनवाला हर्षित हुई, और सन्तोष को प्राप्त हुई, उसका चित्त आनन्दित हुआ। हर्षकी अधिकता से हृदय उछलने लगा।
આવી દુષિત નિંદાઓ ઉપરાંત સજજનોને વિચારપ્રવાહ પણ વહેતે થવા લાગ્યા. આ વિચારપ્રવાહમાં ભગવાનને તીર્થકર તરીકે સંબંધી તેઓ કે પિતાના અગ્રિડને પાર પાડવા પ્રયાસ કરી રહ્યા હશે તેમ તેમને લાગવા માંડયું. તીર્થકરે પિતાના કર્મોને તેડવા માટે વિવિધ પ્રકારના ભગીરથ પ્રયાસે અગાઉ કરતા હતા, એવું મંતવ્ય પણ વિદ્વાને જાહેર કરી રહ્યા હતા. નાના પ્રકારના ગપગેળાની વચ્ચે શું સત્ય છે તે શોધવું ઘણું મુશ્કેલ થઈ પડયું હતું. આખા ગામની ચર્ચા આ વિષય ઉપર કેન્દ્રિ થઈ હતી. લોકો પણ ચર્ચા કરતા કરતા થાકી ગયા હતા, કારણ કે લગ
र अभिग्रहम पूर्तयेष्टतः म चन्दनवाला
समीपे
गमन
वर्णनम्। ॥०९५॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ||२७५॥
कल्पमञ्जरी
श्रीका
हर्षवंशविसर्पद्धदया हर्षाधिक्येनोच्छलद्धदया सती चिन्तयति मनसि विचारयति-'अहो पत्तं' इत्यादि-'अहो'-इति विस्मये' मया पात्रं-मुपात्रं प्राप्त लब्धम् । ममापि किश्चित् पुण्यम् अस्ति, यत्न्यस्मात् हेतोः अयं कल्पवृक्ष:= कल्पवृक्षतुल्यः अतिथिः भिक्षार्थी मुनिः ममाङ्गणे प्राप्ता-समागतः।" इति चिन्तयित्वा भगवन्तं प्रार्थयतिहे प्रभो ! यद्यपि भदन्तस्य कल्याणकारकस्य इदम् एतद् भक्तम् आहारः नोचितंन योग्यं, तुच्छत्वात् , भवादृशस्यातिथेयोग्यं तु विशिष्टं भक्तं समर्पणोयम् , तथापि-यदि एतत् तुच्छमपि अन्नं संतोपामृतपायिनो भवतः एषणीयेषिणः कल्पनीयम् एषणीयं भवेत् , तदा तर्हि ममोपरि कृपांदयां कृत्वा एतदन्नं गृह्णातु-स्वीकरोतु भवान् । ततः खलु स भगवान् श्रीवीरस्वामी तत्र द्वादश-अभिगृहीतेषु त्रयोदशसु पदेषु द्वादशसंख्यानि पदानि प्रतिपूर्णानि= अविकलानि पश्यति, किन्तु तत्रैकमेव अश्रुरूपं-नेत्रोदबिन्दुलक्षणं त्रयोदशं पदं न पश्यति, ततः तस्मात् कारणात् भगवान् श्रीवीरस्वामो प्रतिनिवर्तते-पराहत्तो भवति, प्रतिनिवर्तमानं भगवन्तं-श्रीवीरं दृष्ट्वा चन्दना-चन्दनबाला परिचिन्तयति मनमि संविचारयति-'भगवान श्रीवीरस्वामी अत्र आगतः, पश्चात् भक्तमगृहीत्वैव एष: श्रीवीरस्वामी वह मन ही मन सोचती है-अहा, आज मुझे सुपात्र की प्राप्ति हुई, इस से प्रतीत होता है कि मेरा कुछ पुण्य शेष है, जिससे कल्पक्ष के समान यह भिक्षार्थी श्रमण मेरे आंगन में आये है, इस प्रकार विचार कर चन्दन- बाला भगवान् से प्रार्थना करती है-'प्रभो ! यद्यपि तुच्छ होने के कारण यह आहार आपके योग्य नही है; आप जैसे अतिथि को तो विशिष्ट आहार अर्पित करना उचित है; तथापि यह तुच्छ अन्न भी सन्तोषामृत पीने वाले तथा एषणीय आहारकी एषणा करने वाले आपको कल्पनीय हो तो मुझ पर दया करके इसे स्वीकार कर लीजिए।'
तब भगवान् ग्रहण किये हुए तेरह वोलों में से बारह बोलोकी पूर्ति हुई देखते हैं, सिर्फ बहते आम् जो तेरहवाँ बोल था उसे नहीं देखते । अतरव भगवान् वीरस्वामी वहा से लौटने लगते हैं। भगवान् को लौटते देख कर चन्दनवाला मनमें विचार करती है-भगवान् श्रीवीरप्रभु यहाँ पधारे और आहार ग्रहण किये ભગ છ માસનો વખત વ્યતીત થતાં તે વાત જુની અને પુરાણી બની ગઈ હતી અને કાલના ઇતિહાસમાં નવનવા પ્રકરણ દિનપ્રતિદિન ઉપસ્થિત થતાં લોકોનો સ ખા બાબતમાં ઘટવા લાગ્યું. ભગવાને પણ ઇછિત આહાને હમણું જોગ નથી એમ વિચારી શાંત રહી આહાર માટે ઝાઝી મથામણુ નહિ કરતાં શાંતચિત્તે આત્મમંથનમાં ચિત્ત પરવા લાગ્યા. સજજનેને મન આ વાત હૃદયમાં ખૂંચવા લાગી કે આટઆટલે વખત પસાર થઈ ગયો છતાં અમે ભગવાનને ઇચ્છિત આહાર આપી શકયા નહિ! તે અમારૂં ખરેખરૂં કમભાગ્ય છે. ભગવાનને તે આ બાબતનું દુઃખ હતું જ નહિ. કારણ કે તેમને આવા બાના નીચે વધારે કર્મક્ષય થતું હોવાથી, તેમજ આત્મ-સ્વભાવનું પ્રાબલ્ય વધવાથી
आहार
ग्रहणार्थ भाई चन्दन
वालायाः प्रार्थना मू०९५॥
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श्रीकल्प
मूत्रे
मञ्जरी
२७६॥
टीका
र वर्तमान
निवृत्तः पराठत्य गतः। मया कि दुष्कर्म-दुष्कृतं पापं चीर्ण कृतम् यस्य दुष्कर्मणः इदृशम् अशुभं फलं जातम्उदयावलिकायामागतम् । तथा-अहं कीदृशी अप्रन्या अप्रशस्या अपुण्या-पुण्यहीना अकृतार्था अकृतकृत्या, अकृतपुण्या-अननुष्ठितपुण्यकर्मा अकृतलक्षणा लक्षणहीना-प्रशस्तलक्षणवर्जिता अकृतविभवा=असम्पादितवैभवा अस्मि,
कल्पमया खलु जन्मजीवीतफलम्जन्मनो जीवीतस्य च फलं कुलब्ध-कुत्सितरूपेण प्राप्तम् , यथा-अधन्यत्वादिविशिघ्या मया इयमेतद्रपाईदृशी दःखपरम्परा लब्धा-उपार्जिता, प्राप्ता-उपार्जिता सती स्वायत्तीकृता, स्वायत्तीभूतापीयं दुःखपरम्परा अभिसमन्वागता आभि-प्राभिमुख्येन सम्=साङ्गत्येन प्राप्तेः अनुपश्चात् आगता भोग्यतामुपगता। तथा-मम अष्टमतपः पारणे समागतः, एतादृशः इदृशः दुष्कर-दुष्करः गृहीताभिग्रहो महामुनि महावीरी भगवान् अपतिलम्भित भक्तम् अप्रतिग्राहित एवं प्रतिनिवृत्तः पराठत्य गतः। तन्मन्ये-गृहागत:= गृहप्राप्तः कल्पवृक्षः हस्तात् अपमृतः दरीभूतः। तथा-हस्तागतं हस्तस्थितं वज्ररत्नं सर्वरत्नेभ्यः श्रेष्ठं वज्राख्यं भिक्षागृहणं रत्नं नष्टम् अपगतम् । इति कृत्वा-इत्थं परिचिन्त्य सा चन्दनवाला रोदितुम् अश्रूणि विमोचयितुम् आरभत= विना पराआरब्धवती। ततःचदनबालाया रोदनानन्तरं खलु भगवान् श्रीवीरस्वामी तत्रैव चन्दनागृहेऽवशिष्टमेकं त्रयोदशं
भगवन्त विना ही लौट गये। न जाने मैंने क्या पाप-कर्म किया है, जिसका ऐसा अशुभ फल उदय में आया है ! मैं कैसी अधन्य हूँ, पुग्यहीन हूँ, अकृतार्थ हूँ ! मैंने पुण्य-उपार्जन नहीं किया ! मैं सुलक्षणी नहीं हूँ !
चन्दनमैंने कोई वैभव नहीं पाया ! मुझे जन्म का और जीवन का कैसा दुष्फल मिला है ! जिससे कि मुझे ऐसी बालायाः दुःख-परम्परा की उपलब्धि हुई, प्राप्ति हुई और दुःखपरम्परा ही मेरे सन्मुख आई ! अष्टममभक्त के पारणे के अश्रुपातअवसर पर ऐसे अत्यन्त दुष्कर अभिग्रह को धारण करने वाले महामुनि महावीर प्रभु आहार लिये विना ही
वर्णनम् ।
सू०९५॥ वापिस लौट गये, मो मैं समझती हूँ कि घर में आया कल्पक्ष ही हाथ से चला गया। मानों हाथ में आया हुआ सर्वोत्तम हीरा गुम हो गया।' इस प्रकार विचार करके चन्दवाला रुदन करने लगी-उसके नेत्रों से
અપૂર્વ આનંદની હેવી વરસતી હતી, છતાં શરીર સાથેનો પૂર્વ સંગ કઈ કઈ વાર ડોકીયુ કાઢતાં છતાં અહારની છે ઈરછા પ્રગટ પણ થતી છતા તે ઈચ્છાને જ્ઞાન દ્વારા વિવેકથી શાંત પાડતા અને વિચારતા કે, કાળ જ્યારે પરિ
પકવ થશે ત્યારે જ આહારની જોગવાઈ આપોઆપ થઈ જશે! આ પ્રમાણે કાળ વ્યતીત થતાં છ મહિનામાં પાંચ ॥२७६॥
દિવસ ઓછા રહેતાં ધનાવહ શેઠને ત્યાં આહાર અર્થે ભગવાનનું આગમન થયું ત્યારે તેમણે ઈચ્છિત વસ્તુઓ સમગ્રહું પગે એકત્ર થયેલી જોઇ. પરંતુ એક મુખ્ય વસ્તુનો અભાવ જોતાં તે પાછા વળવા લાગ્યા. આ વસ્તુ એ કે હદયને તેમાં
તીવ્ર ઉલ્લાસ. અને તે ઉ૯લાસની નિષ્ફળતાની પછવાડે અપાત. આ ને માથે ભક્તિના પૂરક છે. જે ભક્તમાં રહે
दृष्ट्वा
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श्री कल्पसूत्रे
१२७७||
獎賞獎
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पदं = त्रस्तु प्रतिपूर्ण विज्ञाय प्रतिनिवृत्य =परागत्य चन्दनबालायाः हस्तात् बाष्पितमाषान् = स्विन्नमाषान् 'बाकुला' इति भाषा प्रसिद्धान् करपात्रे = हस्तभाजने प्रतिगृह्य = आदाय पारणम् अकार्षीत् = कृतवान् ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये = श्रोमहावीरस्वामीनो भिक्षाग्रहणकालावसरे तस्य = चन्दनबाला क्रेतु- धनावह श्रेष्ठिनः गृहे देवैः पञ्चदिव्यानि = अनुपदं वक्ष्यमाणानि वसुधारादिकानि वस्तूनि प्रकटीकृतानि - तद्यथा - देवैः वसुधारा = स्वर्णवृष्टिः दृष्टा = कृताः १, दशार्द्धवर्णानि पञ्चवर्णानि कुसुमानि-पुष्पाणि निपातितानि दृष्टानि २, चेलोत्क्षेपः= वस्त्रवर्षेणं, कृतंः ३, दुन्दुभयः = भेर्यः आहताः = ताडिताः - चादिता: ४, अन्तरापि च खलु आकाशे 'अहोदानम्अहोदानम्' इति एतद्वचनं घुषितम् = उच्चैरुच्चारितम् ५ । ततश्च देवाः जयजय शब्द प्रयुञ्जानाः=वदन्तः चन्दनबालाया महिमानं = प्रभावम् अकुर्वन् = ख्यापितवन्तः । तस्या = चन्दनबालायाः निगडबन्धनस्थाने हस्तपादं हस्तद्वयं पादद्वयं च वलयन्नूपुरसमलङ्कृतं=बलयाभ्यां नूपुराभ्यां च समलङ्कृतं जातम्, मुण्डितशिरसश्च तस्याः केशपाशः = केशसमृहः सुन्दरः=शोभनः समुद्भूतः = संजातः । तथा तस्याः = चन्दनबालायाः सर्वशरीरं नानाविधवखालङ्कारविभूषितं= बहुमकारक वस्त्राभूषणसुशोभितं संजातम् । सर्वत्र पर्वस्मिन् स्थाने उपप्रकर्षः = आनन्दातिशयो जातः लोकाः जनाः आँसू बहने लगे। चन्दनबाला के रुदन करने पर भगवान् शेष रहे हुए एक बोल की पूर्ति हुई जानकर पुनः वापिस लौटे। लोटकर चन्दनबाला के हाथ से उबले हुए उडद - वाकले - करपात्र में ग्रहण किये। उस काल और उस समय में अर्थात् भगवान् महावीर के भिक्षा ग्रहण करने के अवसर पर चन्दनबाला को खरीदने वाले धनावह सेठ के घर देवोंने पाँच दिव्य वस्तुएँ प्रकट कीं । वे इस प्रकार हैं(१) देवने स्वर्णमुद्राओं की दृष्टि की (२) पाँच वर्ण के अचित फूलोंकी वर्षा की (३) वस्त्रोंकी वर्षा की (४) दुन्दुभियाँ बजा (५) आकाश के मध्य में 'अहो दानं, अहो दानं' का उच्चस्वर से घोष किया । तत्पश्चात् देवीने 'जय जय' शब्द का प्रयोग करके चन्दनबाला की महिमा प्रसिद्ध की । चन्दनबाला की बेडियों की जगह दोनों हाथ कंकणों से और दोनों पैर नूपुरों से अलंकृत हो गये । उसके मुंडित मस्तक पर सुन्दर केश - पाश उत्पन्न हो गया। सारा शरीर भाँति = भाँति के वस्त्रों और आभूषणों से सुशोभित
પોતાના ઇષ્ટદેવને માટે હૃદયના ઉલ્લાસ ઉછળતા હોય તેનામાં આ બે વાનાં તા જરૂર હોવા ઘટે! ઉપરોક્ત ભાવ ભગવાને જ્યારે પાછા વળતી વખતે જોયે કે તરત જ પાતાના અભિગ્રહ પૂરા થયેલા જોયા અને ભક્તના લુખા–સુકા આહાર વહેારી ભક્તના હૃદયના અને તેના સંસારનાં તીવ્ર 'ધને તેાઢી નાખ્યાં તેમજ ભક્ત ચંદનબાળાને મરણના અસહા
TATOCONECE
कल्प
मञ्जरी
टीका
धनावह श्रिष्ठिनः गृहे पंचदिव्य
प्रगटनम् ।
॥ मु०९५॥
॥२७७॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥२७८॥
टीका
देवदुन्दुभिध्वनि देवदुन्दुभिशब्दं श्रुत्वा तत्र-चन्दनाधिष्ठितस्थाने आगत्य-चन्दनबालाम् अस्तुवन्=तत्मभाववर्णनवाक्यैः स्तुतवन्तः। तथा-धनावहश्रेष्ठिने धन्यवादं ददतः तद्भाया-धनावहपत्नी मूलाम् अनिन्दनधिकृतवन्तः। तत् मृलानिन्दनं श्रुत्वा चन्दनबाला लोकान्-मूलां निन्दतो जनान् निवारयन्ती अवदत् उक्तवती-'भो लोकाः! हे जनाः! एवम् अनेन प्रकारेण मा बदन्तु, ममतु एषव-इयमेव मूला माता अनन्तोपकारिणी अत्यन्तोपकारिणी च अस्ति, यत्पभावेण अद्य-अस्मिन्दिने मया ईदश: धीवीरप्रभोरभिग्रहपूरणरूपः स्ववसर प्रशस्तप्रसङ्गः, लब्धः अधिगतः, प्राप्त स्वायत्तीभूतः, ततश्चायम्-अभिसमन्वागत:-अभि आभिमुख्येन, सं-सांगत्येन अनुप्राप्त प्रश्चात् आगतः सुपात्रदानतः साफल्यमुपगत इति ॥मू०९५॥
मूलम्-तए णं 'एसा चंदणबाला समणस्स भगवो महावीरस्स पढमा सिस्सिणी भविस्सइ'-त्ति आगासंसि देवेहि घुट्ट | का एसा चंदणबाला जीए हत्थेग भगवओ पारणगं जायं-" ति तीए चरितं संखेवओ दंसिज्जइ
एगया कोसंबी नयरी नाहो सयाणाओ णामं राया चंपा गयरीणायगं दधिवाहणाभिहं निर्व अवकमिय दुणीईए चंपाणयरि लुटी । दधिवाहणो राया पलाइओ। तओ सयाणीयरायस्स कोवि भडो दधिवाहणरायस्स धारिणी णामं महिसीं वसुमई पुत्तिं च रहमि ठाविय कोसंत्रिं नयइ, मग्गे सो भणइ-इमं माहसि भजं करिस्सामित्ति । तो धारिणी देवी तं वयणं सोचा निसम्म सीलभंगभएण सयजीहं अवकरिसिय मया । तं दणं भीओ सो हो गया। सब जगह खूब हर्ष ही हर्ष छा गया। देवदुन्दुभी का घोप सुना, तो सब लोग वहीं आ पहुँचे, जहाँ चन्दनवाला थी और उसके प्रभावकी प्रशंसा करने लगे। सबने धनावह सेठ को धन्यवाद देते हुए उनकी पत्नी मूला की निन्दा की, उसे धिक्कार दिया। मूला की निन्दा सुनकर चन्दनवाला निन्दा करने वाले लोगों को रोकती हुई कहने लगी- हे भाईओ इस प्रकार मत बोलो। मूला माता ही मेरा अनन्त उपकार करने वाली है, जिसके प्रभाव से आज मैंने-भगवान का अभिग्रह पूर्ण करने का यह शुभ अवसर लाभ किया है, पाया है और सन्मुख किया है। अर्थात् यह मूला माता का ही उसकार है कि मै भगवान का अभिग्रह पूर्ण करके सुपात्रदान का फल पा सकी ।।०९५॥ બજામાંથી મુક્ત કરી. • અગાધ દુઃખના ગતમાં ધકેલી દેનાર તેની કહેવાતી મૂલા માતાની નિંદા કરનાર લોકોને અટકાવી ચંદનબાળા બેલી કે, “ મારી માતાએ મને આ પ્રમાણે ન કર્યું હોત તો હું શી રીતે સાક્ષાત ભગવાનનાં દર્શન કરી શકત! અને આવું મારું ફેંકી દેવા લાયક તુચ્છ ધાન્ય ભગવાનના કરપાત્રમાં શી રીતે પડત! આ બધે સંગ મેળવી આપનાર મારે મૂલા માતાને જેટલે ઉપકાર માનું એટલે થેડે છે! આમ કહીને મૂલા શેઠાણીને ગદ્ગદ્દ ४ माजी पी. (१०८५) .
चन्दनबालायाः
चरित
वर्णनम्। मू०९५॥
॥२७८॥
AF
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥२७९॥
मञ्जरी टीका
भडो इमावि एयारिसं अकजं मा रिज तिकटु तं वसुमई किचिवि न भणिय कोसंबीए चउप्पहे विक्की। विकायमाणिं तं एगा गणिया मुलं दाउं किणीअ । सा वसुमई तं गणियं भणीअ हे अंब ! कासि तं ? केण अटेण अहं तए कीणीया? सा भणइ-अहं गणिया, मम कजं परपुरिसपरिरंजणं । तीए एरिसं हियय वियारगं अणज्ज वजपायविच वयणं सोचा सा कंदिउमारभीउ । तीए अट्टणायं सोचा तस्थढिो धणावहो सेट्ठी चिंतीअ'इमा कस्सवि रायवरस्स ईसरस्स वा कन्ना दीसइ, मा इमा आवया भायणं होउ' ति चिंतीय सो तइच्छियं दव्वं सोचा तं कन्नं वेतण नियभवणे गई। सेट्ठी तब्भजा मूला य तं गियपुत्तिवित्र पालिउं पोसिउं उबकमी।
एगया गिम्हकाले अनभिचाभावे सा वसुमई सेटिणा वारिजमाणावि गिहमागयस्स तस्स पायपक्खालणं करी। पाए पक वालंतीए तीए केसपासो छुटिओ। "इमाए केसपासो उल्लभूमीए मा पडउ" त्ति कटुतं सेट्ठी नियपाणिलट्ठीए धरिऊग बंधी। तया गएकखट्ठिया सेटिणा भजा मूला वसुमईए केसपासं बंधमाग सेटिं दट्टण चिंतीभा-'इमं कन्नं पालिय पोसिय मए अगटुं कयं, जइ इमं कन्नं सेट्ठी उबहेज्जा तो है अपयट्ठा चेव भविस्सामि, उप्पज्जमाणा चेव वाही उवसामेयधि' ति कटु एगया अन्नगाम गयं सेढि मुणिय सा नाबिएण तीए सिरं मुंडाविय सिंबलाए करे निगडेग पार नियंतिय एगम्मि भूमिगिहे तं ठाविय तं भूमिगहं तालएण नियंतिय सयं तस्सि चेव गामे पिउगेहं गया। सा य वमुमई तत्थ छुहाए पीडि जमाणा चितेह
"कत्थ रायकुलं मेऽस्थि, दुइसा केरिसी इमा।
कि मे पुरा कयं कम्म, विधागो जस्स ईरिसो ॥१॥" एवं चिंतेमागा 'सा कारागारमुत्तिपज्जतं तवं करिस्सामि' ति कटु मणमि परमेष्ठिमंतं जरिउमारभी। एवं तीए तिनि दिणा वइकंता । चउत्थे दिणे सेट्ठी गामंतराओ आगओ वसुमई अदट्टण परियणे पुच्छी। मला निवारिया ते तं न किंपिकही। तओ कुद्धो सेट्ठी भणीअ-जाणमाणावि तुम्हे वसुमई न कहेह, अओ मज्झगिहाओ निग्गच्छह-त्ति सोऊण एगाए वुड्डाए दासीए 'ममं जीविएण सा जीवउ' ति कट्ट सेटिणो तं सव्वं कहियं । तं सोऊग सेट्टी सिग्यं तत्थ गंतुणं तालगं भंजिय दारं उग्धाडिय वसुमई आसासी । तएणं से सेट्ठी गिहे न भायणं न य भत्तं कत्थवि पासइ, पसुनिमित्तं निप्फाइए बल्फिय मासे चेव तत्थ पासइ, ते अण्ण भायणाभावे मुप्पे गहिय तेण भत्तटुं वसुमईए समधिया। सयं च निगडाइ बंधणच्छेयणटं लोहयारमाकारिउं
तग्गिहे गमि। सा वसुमई य स वप्फियमासं सुप्पं हत्थेण गाहिय चितीअ-'इयोपुव्वं मए किपि दाणं दाऊण ई मेव पारणगं कयं, अजउ न किंपि दाऊणं कहं पारेमि ? केरिसो मे दुहविवागो उदिओ, जेणं अहं एरिसं
चन्दनवालायाः
चरित वर्णनम् । ॥५०९६॥
॥२७९॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥२८॥
टीका
दसं संपत्ता। जइ कस्सवि अतिहिस्स एवं भत्तं दच्चा अहं पारणगं करेमि, तो सेयं-त्ति चिंतीय गिहदेहलीए रगं पायं बाहिं एगं पायं च अंतो किच्चा मुणिमग्गं पासमाणी चिट्ठइ । सा चेव वसुमई चंदणस्सेव सीयलसहावत्तणेण चंदनबालत्ति नामेण पसिद्धिं पत्ता ॥मू०९६।।
छाया-ततः खलु 'एषा चन्दनबाला श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य प्रथमा शिष्या भविष्यति' इति आकाशे देवघुषितम् । कैषा चन्दनवाला ?, यस्या हस्तेन भगवतः पारणकं जातमिति-तस्याश्चरित्रं संक्षेपतो दृश्यते
एकदा कौशाम्बीनगरीनाथः शतानीको राजा चम्मानगरी नायकं दधिवाहनाभिधं नृपमवक्रम्य दुर्नीत्या चम्पानगरीमलुष्टत् । दधिवाहनो राजा पलायितः। ततः शतानीकराजस्य कोऽपि भटो दधिवाहनराजस्य धारिणी नाम्नी महिषीं वसुमती पुत्री च रथे स्थापयित्वा कौशाम्बी नयति, मार्गे स भणति-' इमां महिषीं भाया करिष्यामि' इति । ततो धारिणी देवी तद्वचनं श्रुत्वा निशम्य शीलभङ्गभयेन स्वजिह्वामपकृष्य मृता। तां दृष्ट्रा
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि । तदनन्तर आकाश में देवोंने घोषणा की-'यह चन्दनबाला श्रमण भगवान् महावीर की प्रथम शिष्या होगी।' जिसके हाथ से भगवान का पारणा हुआ, वह चन्दनबाला कौन थी? और उसका चरितसंक्षेप में दिखलाया जाता है।
एकबार कौशाम्बी नगरी के अधिपति राजा शतानीक ने चम्पानगरी के नायक राजा दधिवाहन पर आक्रमण करके दुर्नीति से चम्पानगरी को लूटा। दधिवाहन राजा भाग गया। तब शतानीक राजा का एक योद्धा राजा दधिवाहन की धारीणी नामक रानी को और वसुमती नामक पुत्री को रथ में बिठलाकर कौशाम्बी ले चला। मार्ग में उसने कहा-'इस रानी को मै अपनी पत्नी बनाऊँगा।'धारीगी देवीने उसके यह वचन सुनकर और समझकर शीलभंग होने के भय से अपनी जीभ बहार खींच ली और प्राण त्याग दिये। धारिणी देवी को
भूगन। म -'तएण' त्यादि. मा मते माशिमा हिय घोषg Himani भावी है 20 2100 શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પ્રથમ શિષ્યા થશે.' જેના હાથે ભગવાને આહાર ગ્રહણ કર્યો તે ચંદનબાળા કોણ હતી ? તેને સંક્ષેપ હેવાલ નીચે વર્ણવવામાં આવે છે–
કોઈ એક સમયે કૌશામ્બી નગરીના અધિપતિ રાજ શતાનીકે ચંપાનગરીના નાયક રાજા દધિવાહન ઉપર આક્રમણ કર્યું. તેને હરાવી ચંપાનગરીને લૂંટી લીધી, દધિવાહન રાજા રાજ્ય છોડી નાસી ગયો. ત્યારબાદ શતાનીક રાજાને એક યોદ્ધો દધિવાહન રાજાની રાણી ધારિણી અને તેની પુત્રી વસુમતીને રથમાં બેસાડી કૌશામ્બી નગરી તરફ ઉપડી ગ. માર્ગમાં તેણે ધારિણી રાણીને કહ્યું કે, “હું તને મારી રાણી બનાવીશ.” આ સાંભળી શીલભંગના ભયથી
चन्दनबालायाः
चरित
वर्णनम्। मु०९६१
॥२८॥
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श्री कल्प
भीतः स भटः 'इयमपि एतादृशमकार्य मा कुर्यात्' इति कृत्वा तां वसुमतीं किञ्चिदपि न भणित्वा कौशाम्ब्याचतुष्पथे व्यक्रीणात् । विक्रीयमाणां तामेका गणिका मूल्यं दत्त्वाऽक्रीणात् । सा वसुमती तां गणीकामभणत्हे अम्ब ! काऽसित्वम् ?, केनार्थेनाहं त्वया क्रीता ?, सा भणति-'अहं गणिका-मम कार्य परपुरुषपरिरञ्जनम् । तस्या ईदृशं हृदयविदारकमनायं वज्रपातमित्र वचनं श्रुत्वा सा क्रन्दितुमारभत । तस्या आर्तनादं श्रुत्वा तत्रस्थितो धनावहः श्रेष्ठी अचिन्तयत्-' इयं कस्यापि राजवरस्य ईश्वरस्य वा कन्या दृश्यते, मा इयमापद्भाजनं भवतु' इति चिन्तयित्वा स तदिष्टं द्रव्यं दत्वा तां कन्यां गृहीत्वा निजभवनेऽनयत् । श्रेष्ठी तद्भार्या मूला च तां निजपुत्री
कल्पमञ्जरी
सूत्रे
॥२८॥
टीका
र
मृतक देखकर वह भट जरा भी डरा नहीं, यह राजकुमारी भी ऐसा हो अकार्य न कर बैठे, यह सोच कर उसने वसुमती से कुछ भी न कहा और कौशाम्बी के चौक में लेजाकर बेच दिया। बिकती हुई वसमती को एक वेश्याने मूल्य देकर खरीदा। वमुमतीने उस वेश्या से कहा-'माता, तुम कौन हो? किस प्रयोजन से मुझे रखीदा हैं?' वेश्या बोली-' में गणिका हूँ, परपुरुषों का मनोरंजन करना मेरा कार्य है।' गणिका के इस प्रकार के हृदयविदारक, अनार्य और वज्रपात के समान व्यथाजनक वचन सुनकर वह रोने लगी। उसका आर्तनाद सुनकर वहाँ खडे धनावह सेठने विचार किया यह किसी उत्तम राजा की या धनिक की कन्या दीखती है। यह आपत्ति का पात्र न बने तो अच्छा, ऐसा सोचकर गणिका को इच्छित धन देकर वसुमती को
चन्दनचालायाः
चरित
वर्णनम् । ०९६॥
રાણી જીભ કરડી મરી ગઈ. ધારિણી રાણીની આવી દશા જોઈ યોદ્ધાએ વિચાર કર્યો કે કદાચ વસુમતી પણ આ પ્રમાણે કરી બેસે તે? આથી તેણે વસુમતીને કાંઈ પણ કહ્યું નહિ ને સીધી કૌશામ્બી નગરીમાં લઈ જઈ તેને ચેક વચ્ચે ઉભી રાખી અને તેનું લિલામ કરી પૈસા ઉપજાવ્યા. આ વસુમતીનું વેચાણ એક વેશ્યાને ત્યાં થયું. કારણ કે તેણીએ વધારે મૂલ્યની આંકણી મૂકી હતી. આ દશ્ય જોઈ વસુમતીએ વેશ્યાને પ્રશ્ન કર્યો કે “હે માતા! તમે કોણ છે અને કયા પ્રજનથી તમે મારી ખરીદી કરે છે?” વેશ્યાએ આ સાંભળી પ્રત્યુત્તર આપ્યો કે “હું ગણિકા છું અને પરપુરુષના મનરંજન માટે તારી ખરીદી કરૂં છું.” ગણિકાનું આવું અનર્થકારી હદયવિદારક અને વાત સમાન શ્વથાજનક વચન સાંભળી વસુમતી હદયફાટ રૂદન કરવા લાગી. તેનું કપાત સાંભળી ત્યાં ઉભા રહેલા ધનાવહ શેઠ મનમાં વિચાર કરવા લાગ્યા કે આ કન્યા કેઈ ઉત્તમ રાજાની અથવા કઈ શેઠની હેવી જોઈએ. જેથી આ આપત્તિનું પાત્ર ન થાય તે સારૂં એટલે આ વેશ્યાને ત્યાં ન વેચાય તે ઈચ્છવા યોગ્ય છે. એમ વિચ રીતે તે શેઠે
|॥२८॥
છે
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श्रीकल्प
मूत्रे ॥२८२॥
海賞漫漫
真真真真
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मित्र पालयितुं पोषयितुमुपाक्रमेताम् | एकदा ग्रीष्मकाले अन्यभृत्याभावे सा वसुमती श्रेष्ठिना वार्यमाणाऽपि गृहमागतस्य तस्य पादप्रक्षालनमकरोत् । पादौ प्रक्षालयन्त्यास्तस्याः केशपाशः छुटितः अस्याः केशपाशः भूमौ मापततु" इति कृत्वा तं श्रेष्ठी निजपाणियष्टया धृत्वाऽवन्नात् । तदा गवाक्षस्थिता श्रेष्ठिनो भार्या मूला वसुमत्याः केशपाशं वनन्तं श्रेष्ठिनं दृष्ट्वाऽचिन्तयत्- 'इमां कन्यां पालयित्वा पोषयित्वा मयाऽनर्थं कृतम्, यदि इमां कन्यां श्रेष्ठ उद्वहेत् तदाऽहम् अपदस्था भविष्यामि - उत्पद्यमान एवं व्याधिः उपशमयितव्यः' इति कृत्वा एकदा अपने घर ले आया । सेठ और सेठ की पत्नी मूला, अपनी पुत्री के समान उसका पालन-पोषण करने लगे । एक बार ग्रीष्म के समय में अन्य सेवक के अभाव में वसुमती, सेठ के द्वारा मना करने पर भी बाहर से घर आये हुए धनाह के पैर धोने लगी। पैर धोते समय उसका केशपाश छुट गया। तब 'इसका केशपाश गीली भूमि में न पड़ जाय' ऐसा सोचकर सेठने उसे अपने हाथरूप यष्टि में लेकर बाँध दिया। तब गवाक्ष में स्थित सेठ की पत्नी मूलाने सेठ को वसुमती का केशपाश बाँधते देखकर विचार किया - ' इस कन्या का पालन-पोषण करके मैंने अनर्थ किया। कदाचित् सेठने इस कन्या के साथ विवाह कर लिया तो मैं अपदस्थ हो जाऊँगी । बोमारो को उत्पन्न होते समय ही शान्त कर देना चाहिए।' इस प्रकार सोचकर एक बार सेठ को ગણિકાને સમજાવી, વધારે ધન આપી તેની પાસેથી વસુમતીને મેળવી લીધી. શેઠ અને તેની પત્ની મૂલા તેને પોતાની પુત્રી સમાન ઉછેરવા લાગ્યા.
કોઈ એક ઉનાળાની ઋતુમાં ધનાવહુ શેઠ અગત્યના કામને લીધે બહાર ગયા હતા. ગરમી અને પ્રચંડ તાપને લીધે અકળાતા તેએ ઘરમાં દાખલ થયા. તે વખતે કંઈ પણ નાકર કે શેઠાણીની હાજરી જોવામાં આવી નહિ. પોતે ગરમીથી ઘણા આકુળ-વ્યાકુળ થતા હતા. આ જોઈ વસુમતી બહાર આવી અને શેઠે ના પાડવા છતાં પોતાના પિતાતુલ્ય ધનાવહુ શેડના પગ ધોવા લાગી. પગ ધોતી વખતે વસુમતીના ખેડો છૂટો થઈ જવાથી તેની લટો નીચે પડી ખરાબ થશે ને રગદોળાશે એવા વિચારથી અંબેડાને પેાતાના હાથમાં લઈ શેઠે બાંધી દીધા. આજ સમયે મૂલા શેઠાણ બારમાં બેડી હતી તેણે આ બધું નજરોનજર નિહાળ્યુ. આથ તેનું મન ચગડોળે ચડયું અને વિચારવા લાગી કે આ કન્યાનું પાલન-પેષણ કરવામાં મેં ગંભીર ભૂલ કરી છે. કદાચ શેઠ આ છેાકરી સાથે લગ્નગ્રંથીથી જોડાઈ જશે તે મારો કફોડી સ્થિતિ થઈ જશે. રાગ અને દુશ્મનને ઉગતાં જ ડામવા જોઇએ! આવા વિચાર
મનમાં આણુ વસુમતીનું કાસળ કાઢી નાખવા તે તત્પર થઈ.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
चन्दनबालायाः
चरित
वर्णनम् ।
॥सू०९६ ।।
IIRGRII
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श्रीकल्प
कल्प मञ्जरी
॥२८३॥
टीका
अन्यग्रामं गतं श्रेष्टिनं ज्ञात्वा सा नापितेन तस्याः शिरो मुण्डयित्वा शृङ्खलया करौ निगडेन पादौ नियन्य एकस्मिन् भूमिगृहे तां स्थापयित्वा तद् भूमिगृहं ताल केन नियन्त्र्य स्वयं तस्मिन्नेव ग्रामे पितृगृहं गता। सा च वसुमती तत्र भूमिगृहे क्षुधया पीड्यमाना चिन्तयति
"कुत्र राजकुलं मेऽस्ति, दुर्दशा कीदृशी इयम् ।
किं में पुरा कृतं कर्म, विपाको यस्य इदृशः ॥१॥" एवं चिन्तयन्ती सा कारागारमुक्तिपर्यन्तं तपः करिष्यामि' इति कृत्वा मनसि परमेष्ठिमन्त्रं जपितमारभत । एवं तस्यास्त्रीणि दिनानि व्यतिक्रान्तानि । चतुर्थे दिने श्रेठी ग्रामान्तरादागतो वसुमतीमदृष्ट्वा परिजनानपृच्छन् । मूलानिवारितास्ते तं न किंचिदकथयन् ! ततः क्रुद्धः श्रेष्ठी अभगन्-जानाना अपि यूयं वसुमती न दूसरे गाव गया जानकर उसने नाई से बमुमती का मस्तक मुंडया दिया। हथकडियों से हाथ और बेडियों से पैर बांधकर उसे एक भूगृह में डाल भूगृह को ताले से बँध कर दिया । मला स्वयं उसी ग्राम में अपने पिता के घर चली गई। वसुमती उस भूगृह (भोयरे) में भूख और प्यास से पीडित होती हुई सोचती है
कहाँ वह राजकुल मेरा, कहाँ यह दर्दशा मेरी!
न जाने पूर्व के किस कर्म-का परिपाक है ऐसा!!! इस प्रकार विचार करती हुई उसने 'मैं कारागार से मुक्त होने तक तप करूंगी' ऐसा निश्चय कर के मन में परमेष्ठी मंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। यो उसके तीन दिन बीत गये। चौथे दिन सेठ घर आये। वसुमती को न देखकर परिजनों से पूछा। मूला ने उन्हें मना कर दिया था, अतः उन्होंने कुछ
કઈ એક વખતે શેઠને બહારગામ જવાનું થયું. તે સમયનો લાભ લઈ તેણીએ એક હામને બોલાવ્યો અને વસુમતના મસ્તકનું મુંડન કરાવી નાખ્યું. તેના હાથપગમાં બેડીઓ નાખી તેને ભોંયરામાં હડસેલી મૂકી અને ભોંયરાને તાળું વાસી પિતે મેડી પર ચડી ગઈ. મેડી પર આવી કપડાંલતાથી સજજ થઈ પિતાના પિયેર પહોંચી ગઈ. આ ભેાંયરામાં વસુમતી ભૂખ અને તૃષાથી પીડિત થઈ વિચારવા લાગી કે
“यां तेरा भाई, या माशा भारी
४या से पूर्व भेषि, ३री छ साशा भारी." એટલે કે “કયાં મારું રાજકુળ અને કયાં આ ભેંયરાનું કેદખાનું? ક્યા અશુભ કર્મોને આ વિપાક હશે” આમ વિચારે ચડતાં તેણીએ “કેદમાંથી મુક્ત થાઉં ત્યાં સુધી તપની આરાધના કરીશ” એ નિશ્ચય કર્યો. અને આ આરાધના આ સાથે તેણે નમસ્કાર મંત્રના જાપ શરૂ કર્યા. આમ કરતાં તેણુએ ત્રણ દિવસ પસાર કર્યા. એથે દિવસે શેઠ ઘેર આવ્યા.
चन्दनबालायाः
चरित वर्णनम्। ।।मू०९६॥
॥२८॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
॥२८४॥
टीका
कथयत ? अतो मद्गृहात् निर्गच्छत' इति श्रुत्वा एकया वृद्धया दास्या 'ममजीवीतेन सा जीवतु' इति कृत्वा श्रेष्ठिनः तत् सर्व कथितम् । तत् श्रुत्वा श्रेष्ठि शीघ्रं तत्र गत्वा तालकं भकृत्वा द्वारमुद्घाटय वसुमतीमाश्वासयत्। ततः खलु स श्रेष्ठी गृहे न भाजनं न च भक्तं कुत्रापि पश्यति, पशुनिमित्तं निष्पादितान् बाष्पितमापानेव तत्र पश्यति । तेऽन्यभाजनाभावे शूर्प गृहीत्वा तेन भक्तार्थ वसुमत्यै समर्पिता, स्वयं च निगडादिबन्धनच्छेदनार्थ लोहकारमाकारयितुं तद्गृहेऽगच्छत् । सा वसुमती च स वाष्पितमापं शूपं हस्तेन गृहीत्वा अचिन्तयत-इतः पूर्व मया किमपि दानं दत्त्वैव पारणकं कृतम् , अद्यतु न किमपि दत्त्वा कथं पारयामि ? कीदृशो मे दुर्विपाक उदितो नहीं बतलाया। तब क्रुद्ध होकर सेठने कहा-'तुम जानते हुए भी वसुमती के विषय में नहीं बतलाते हो तो मेरे घर से बाहर निकल जाओ। यह सुनकर एक बुढी दासीने 'मेरे जीवन से भी वह जीये' ऐसा सोचकर अर्थात मेरे प्राण जाएँ तो जाएँ, मगर वसुमती के प्राण बच जाएं, यह विचार कर सेठ को सब बतला दिया। सुनकर सेठने शीघ्र ही वहाँ जाकर, ताला तोडकर, द्वार खोलकर, वसुमती को आश्वासन दिया। तत्पश्चात् सेठ को घर में न कोई भाजन दिखाई दिया, न भोजन ही। उसे पशुओं के लिए उबाले हुए उडद ही वहाँ नजर आए। दुसरा भाजन न होने से उन्हें भूप में लेकर उसने भोजन के लिए वसुमती को दिये । धनावह सेठ स्वयं बेडो यादि बन्धनों को छेदने के लिए लुहार को बुलाने उसके घर चला। वसुमती उबले हुए उडदौ वाले सूप को हाथ में लेकर सोचने लगी-' इससे पहले मैंने कुछ दान देकर ही पारणा किया है। आज कुछ भी વસુમતીને નહિ દેખવાથી નેકરવર્ગને પૂછયું. નોકરવર્ગને શેઠાણીએ મનાઈ કરેલ હોવાથી તેઓ કાંઈ જવાબ આપી શક્યા નહિ. નકરો તરફથી જવાબ નહિ મળતાં શેઠ ક્રોધે ભરાયા અને ઘરની બહાર ચાલ્યા જવાને સને હુકમ કર્યો. આ નેકરવગની અંદર એક વૃદ્ધ દાસી હતી. તેણે જીવના જોખમે પણ વસુમતીને બચાવી લેવા દઢ નિશ્ચય કર્યો. મન મજબૂત કરી તે દાસીએ શેઠને સર્વ હકીકતથી વાકેફ કર્યા. આ સાંભળી શેઠ ભેંયરા પાસે પહોંચ્યા, તાળું તેડી વસુમતીને બહાર કાઢી. બે ત્રણ દિવસથી ભૂખી-તરસી છે' એમ જાણી ઘરમાં અન્નને માટે શોધ કરી, પણ ક્યાંય કોઈ પણ પ્રકારનું અન્ન તેમને હાથ આવ્યું નહિ. તપાસ કરતાં કરતાં ભેંસને ખાણમાં આપવાના અડદને ચુલે ઉકળતા જોયા. ઝડપ લઈને તેમણે સૂપડું હાથમાં લીધું, અને તેમાં અડદના બાકળા લઈ વસુમતી પાસે આવી તેની સામે ધર્યા. “હું હમણાં આવું છું” એમ વસુમતીને કહી તેઓ બેડી તેડવા માટે લુહારને બોલાવવા ગયા.
વસુમતી આ અડદના બાકળાવાળા સુપડાને હાથમાં લઈ વિચારવા લાગી કે “આજ સુધી તો કોઈ પણ પ્રકારના તપની પૂર્તિ પહેલાં અનદાન આવ્યું છે, અને અન્નનું દાન આપ્યા પછી જ મેં પારણું કર્યું છે, તે આ
चन्दनबालायाः
चरित वर्णनम् । मू०९६॥
॥२८४॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥२८५॥
टीका
येन अहमीदृशीं दशां सम्पाप्ता । यदि कस्या अपि अतिथये एतद् भक्तं दत्त्वा अहं पारणकं करोमि, तदा श्रेयः इति चिन्तयित्वा गृह देहल्या एकं पादं बहि, एकं पादं च अन्तः कृत्वा मुनिमार्ग पश्यन्ती तिष्ठति । सैव वसुमती चन्दनस्येव शीतलस्वभावत्वेन 'चन्दनवाले' ति नाम्ना प्रसिद्धिं गता ||मू०९६॥
टीका-'तए णं' इत्यादि। ततः खलु " एषा चन्दवाला श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य प्रथमा सर्वत आद्या शिष्या भविष्यति" इति-एतद वचनम् आकाशे देवेः घुषितम् उच्चैरुच्चारितम् । एपा चन्दनवाला का?=3 अस्याः कः परिचयः ? यस्याः चन्दनवालायाः हस्तेन भगवतः श्री महावीरस्वामिनः पारणकं जातम् इति= एतजिज्ञासूनां कृते तस्याः चन्दवालायाः चरित्रं संक्षेपतो दृश्यते, तथाहि-एकदा एकस्मिन् समये कौशाम्बी दान दिये बिना कैसे पारणा करूं ! कैसा मेरे पापकर्म का उदय आया है कि, मै ऐसी दुर्दशा को प्राप्त हुई। अगर किसी अतिथि अर्थात् महात्मा को यह भोजन देकर मै पारणा करूं तो अच्छा। इस प्रकार विचार करके वह एक पैर घर की देहली के वाहर और एक पैर भीतर करके मुनि की राह देखती हुई बैठी। वही वसुमती चन्दन के समान शीतल स्वभाव वाली होने से 'चन्दनबाला' के नाम से प्रसिद्ध हुई ॥सू०९६।।।
टीका का अर्थ-भगवान् का पारणा हो जाने के पश्चात् 'यही चन्दनवाला श्रमण भगवान महावीर की सब से पहली शिष्या होगी' इस प्रकार की घोषणा देवोंने आकाश में की। कौन थी यह चन्दनबाला ? जिसके हाथ से भगवान् का पारणा हुआ, उसका परिचय क्या है, इस बात के जिज्ञासुओं के लिए चन्दनवाला का संक्षिप्त परिचय दिया जाता हैઅઠ્ઠમતપનું પારણું કોઈને દાન દીધા વિના કેવી રીતે કરૂં? આ કેઈ નિવિડ અશુભ કર્મોને ઉદય છે કે મને આવી દુર્દશા પ્રાપ્ત થઈ ! અત્યારે કોઈ અતિથિ અર્થાત્ મહાત્મા આવી પડે ને તેને દાન દઉં તો કેવું સારૂં? અને આવું દાન લેનાર કેઈ તથા રૂપને આત્માર્થી મુનિ હોય તો કેવું સુંદર ! આવા પ્રકારની ચિતવના કરતી અને ભાવ પ્રગટ કરતી તે એક પગ ઉંમરની બહાર અને એક પગ ઉંમરાની અંદર કરી મુનિની રાહ જોવા લાગી. વસુમતીને સ્વભાવ ચંદન જેવો શીતળ અને ચંદ્રમા જેવો ઠંડો હોવાના કારણે તેનું નામ “ચંદનબાલા” પાડવામાં આવ્યું હતું અને આ નામથી તે પ્રસિદ્ધિને પામી હતી. (સૂ૦૯૬).
ટકાને અર્થ_ભગવાને પારણું કર્યા પછી દેવેએ આકાશમાં એવી ઘોષણા કરી કે “ આજ ચંદનબાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સૌથી પહેલી શિષ્યા થશે.” જેના હાથે ભગવાને પારણું કર્યું એ ચંદનબાળ કેણુ હતી ? જિજ્ઞાસુઓને આ વાતને પરિચય કરાવવા માટે ચંદનબાળાનું સંક્ષિપ્ત વૃત્તત આપવામાં આવે છે
बालाया:
चरित
वर्णनम् । सू०९६॥
॥२८५॥
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मञ्जरी
नगरीनाथः शतानीको नाम राजा चम्पानगरीनायकंचम्पानामकनगरीस्वामिनं दधिवाहनाभिधंदधिवाहन नामक, नृपं राजानम् अवक्रम्य सैन्यैराक्रम्य दुर्नीत्या चम्पानगरीम् अलुण्टत् लुण्टितवान् । दधिवाहनो राजा
लुण्टने पारब्धे चम्पानगरीतो भयाबहिः पलायितः। ततः शतानीकराजस्य कोऽपि कश्चित् भटः योद्धा दधिश्री कल्प
वाहनराजस्य धारिणीनाम्नी महिषीं राजी वसुमती नाम पुत्री च रथे स्थापयित्वा कौशाम्बी नयति, स भटो ॥२८६॥
मार्गे भगति इमां धारिणीं महिषीं-दधिवाहनराजस्य राज्ञीम् अहं स्वकीयां भाया पत्नी करिष्यामि इति । टीका ततः भटस्य एवंविधवचनकथनानन्तरं सा धारिणी देवी तद्वचनं श्रुत्वा निशम्य शीलभङ्गभयेन स्वजिह्वाम्अपकृष्य वलान्मुखतो बहिनिःसार्य मृता। तां धारिणी मृतां दृष्ट्वा भीत: भयाकुलः सः भटः चिन्तयति, यत् इयमपि-वसुमत्यपि एतादृशम्-धारिणीवत् अकार्यम्-आणत्यागरूपम् अकर्तव्यम्-मा कुर्यात्' इति कृत्वा इति
एक समय कौशाम्बी नगरी के राजा राजा शतानीक ने चम्पानगरी के स्वामी दधिवाहन राजा पर अपनी सेना के साथ आक्रमण किया और दुर्नीति का आश्रय लेकर चम्पानगरी को लूटा। राजा दधिवाइन चम्पानगरी में लूटपाट प्रारंभ होने पर भयभीत होकर बाहर भाग गया। तब शतानीक का कोई योद्धा दधि
चन्दनवाहन राजाकी धारिणी नामक रानी को और वसुमती नामक पुत्री को रथ में बिठला कर कौशाम्बी की ओर
बालायाः ले चला। रास्ते में उस योद्धाने कहा-'राजा दधिवाहन की रानी धारिणी को मैं अपनी स्त्री बनाऊंगा।'
चरित
वर्णनम् । योद्धा का यह कथन धारिणी रानीने सुना और समझा। उसे शील के खंडित होने का भय हुआ। अत एव
मामू०९६॥ उसने अपनी जिह्वा बाहर खोच लो और प्राण त्याग दिये ! धारिणी को मृतक अवस्था में देखकर योद्धा भयभीत हो गया। वह सोचने लगा-कहीं ऐसा न हो कि यह-वसुमती भी धारिणी की भाँति कोई अवांछनीय
એક વખત કોશાખીનગરીના રાજા શતાનીકે ચંપાનગરીના રાજા દધિવાનના રાજ્ય પર પિતાનાં સિન્ય સાથે આક્રમણ કર્યું અને છળનો આશ્રય લઈને ચંપાનગરીને લુંટી. ચંપાનગરીમાં લુંટફાટ શરૂ થતાં રાજા દધિવાહન ભયભીત થઈને નાસી ગયો તે વખતે શતાનીકનો કઈ દ્ધો દધિવાહન રાજાની ધારિણી નામની રાણીને અને વસુમતી નામની પુત્રીને રથમાં નાખીને કૌશામ્બીની તરફ ઉઠાવી ગયા. રસ્તામાં તે યોદ્ધાએ રાજા દધિવાહનની રાણી ઉર્ડ ૨૮દા ધારિણીને કહ્યું કે “હું તને મારી પત્ની બનાવીશ.” યે દ્ધાનું આ કથન ધારિણી રાણીએ સાંભળતાં તેને પિતાનું
શિયળ ભંગ થવાને ડર લાગ્યો, તેથી તેણે પિતાની જીભ બહાર ખેંચી કાઢીને પ્રાણત્યાગ કર્યો. ધારિણીને મૃતાપર વસ્થામાં જોઇને તે દ્ધો ભયભીત થયો. તેણે વિચાર કર્યો કે કદાચ એવું બને કે વસુમતી પણ ધારિણીની જેમ રે,
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श्रीकल्प
सूत्र ॥२८७||
मञ्जरी टीका
चिन्तयित्वा तां वसुमती मार्गे स्वहदिस्थितं किश्चिदपि किमपि न भणित्वा नोक्त्वा कौशाम्ब्याः चतुष्पथे व्यत्रीणात विक्रीतवान् । विक्रीयमाणां तां-वसुमती एका-गणिका वेश्या मूल्यं भटनियतं शुल्कं दवा अक्रीणात् क्रीतवतो। तदनु सा वसुमती-तां गणिकां अभणत्-पृष्टवती-' हे अम्ब! हे मातः ! त्वं काऽसि ? केन अर्थेन प्रयोजनेन अहं त्वया क्रीता? इति-चसुमती प्रश्नानन्तरं सा गणिका भणति-उत्तरयति-अहं गणिका अस्मि, ममणिकायाः कार्य-प्रयोजनं, परपुरुषपरिरञ्जनम्-अन्यपुरुषाणां बिलासहासादिभिः प्रसादनम् इति । ईदृशम् एनम्बिधं तस्या वेश्याया हृदयविदारकं मनःखेदजनकम् अनार्यम् आर्यजनानुचितं वज्रपातमिव बज्रपतनवदुःसहं वचनं श्रुत्वा सा वसुमती क्रन्दितुं रोदितुम् आरभत-आरब्धवती। रुदत्यास्तस्या-वसुमत्याः आर्तनादं श्रुत्वा तत्रचतुष्पथे स्थितो धनावहः धनावहनामा कश्चित् श्रेष्ठी अचिन्तयत्-चिन्तितवान्-इयम्=क्रन्दन्ती बालिका कार्य कर बैठे-प्राण त्याग दे ! यह सोच उसने अपने मन की कोई भी बात वसुमती से न कह कर कौशाम्बी के चौराहे पर ले जाकर उसे बेच दिया। विकती हुई वसुमती को योद्धा के द्वारा निश्चित किया हुआ शुल्क दे कर एक वेश्याने खरीद लिया। तत्पश्चात् वमुमतीने उस गणिका से पूछा-माताजी, तुम कौन हो? और किस प्रयोजन से तुमने मुझे खरीदी है ? वसुमती के इस प्रश्न के पश्चात् इस गणिका ने कहा- मैं वेश्या हूँ। वेश्या का काम है-पर-पुरुषों को प्रसन्न करना, विलास हास आदि करके उनका मनोरंजन करना। हृदय को विदारण करदेने वाले, मनमें खेद उत्पन्न करने वाले, आर्यजनों के लिए अनुचित तथा वज्रपात की तरह असह्य वचन सुनकर वसुमती आक्रन्दन-रुदन करने लगी। रोती हुई वसुमती की दुःखभरी वाणी सुनकर उसी चौहारे पर खडे हुए धनावह नामक एक सेठ ने विचार किया-'आकृति से प्रतीत होता है कि रोनेवाली અનિચ્છનીય કાર્ય કરી બેસે-પ્રાણત્યાગ કરે. આમ વિચારીને તેણે પોતાના મનની કઈ પણ વાત વસુમતીને ન કહેતાં કૌશામ્બીના ચોકમાં લઈ જઈને તેને વેચી દીધી. એક વેશ્યાએ યોદ્ધાએ નક્કી કરેલી કીંમત આપીને વસુમતીને ખરી લીધી. ત્યારબાદ વસુમતીએ તે વેશ્યાને પૂછયું, “માતાજી, તમે કોણ છે ? અને શા ઉદ્દેશથી તમે મને ખરીદી છે?” વસુમતીના આ પ્રશ્ન બાદ તે ગણીકાએ કહ્યું, “હું વેશ્યા છું. પર-પુરુષને પ્રસન્ન કરવા, વિલાસ આદિ દ્વારા તેમનું મનોરંજન કરવું તે વેશ્યાનું કામ છે.
હદયનું વિદારણ કરનાર-મનમાં ખેદ ઉત્પન્ન કરનાર, આર્યજનને માટે અનુચિત તથા વજપાત જેવાં અસહ્ય વચન સાંભળીને વસુમતી આકંદ કરવા લાગી રડતી વસુમતીની દુઃખભરી વાણી સાંભળીને એજ ચેકમાં ઉભેલા ધનાવહ નામના એક શેઠે વિચાર કર્યો, “મુખાકૃતિ પરથી લાગે છે કે આ રડતી બાળા કાંતે કઈ મેટા
चन्दनबालायाः चरित
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वर्णनम् ।
म०९६॥
॥२८७॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
२८८॥
हीका
कस्यापि राजवरस्य-महाराजस्य ईश्वरस्य धनिकस्य वा कन्या-पुत्री दृश्यते-आकारेण ज्ञायते, इयं बालिका आपद्धाजन दुःखपात्रम् मा भवतु' इतिइत्थं चिन्तयित्वा-विचार्य सः धनावहः श्रेष्ठी तदिष्टं वेश्याभिलषितं द्रव्यं मूल्यं दत्वा तां-वसुमती कन्यां राजपुत्रीं गृहीला आदीय निजभवने स्वगृहे अनयत्-नीतवान् । स्वगृहा
कल्पऽऽनयनानन्तरं श्रेष्ठी धनावहः मूला-नाम तद्भर्या धनावहस्त्री च तां वसुमती निजपुत्रीमिव-स्वकन्यावत् पालयितुं रक्षितुं पोषयितुं च उपाक्रमेताम् आरभेते स्म ।
एकदा ग्रीष्मकाले ग्रीष्मऋतु समये अन्यभृत्याभावे अपरकिङ्करानुपस्थितौ सा वसुमती, श्रेष्ठिनाधनावहेन वार्यमाणाऽपि ग्रामान्तराद गृहम् स्वभवनम् आगतस्य श्रेष्ठिन:-धनावहस्य पादपक्षालनं अकरोत-पितृबुद्धया कृतवती। पादौ-धनावहस्य चरणौ प्रक्षालयन्त्याः तस्याः-वसुमत्याः, केशपाश:-केशकलापः छुटित:-बन्धान्मुक्तो जातः। तदा अस्याः केशपाशः आर्द्रभूमौ पङ्किलभुवि मा पततु । इति कृत्वा इति विचार्य तं केशपाशं स लडकी यह या तो बडे राजा की या किसी धनवान् की बेटी होनी चाहिए। वह बेचारी लडकी दुखिनी न हो तो अच्छा।' ऐसा सोचकर धनावह सेठने वेश्या का मुंहमांगा मोल चुकाकर राजकुमारी वसुमती को ले
चन्दन
बालायाः लिया। वह उसे अपने घर ले गये। घर ले जाने के पश्चात् धनावह सेठ और उनकी पत्नी मूलाने वसुमती का
चरित अपनी ही बेटी के समान पालन-पोषण करना आरंभ किया।
मा वर्णनम् । एक वार ग्रीष्म ऋतु का समय था, सेठ धनावह दूसरे गाव से लौट कर अपने घर आये थे। जब वे घर आये. उस समय कोई नौकर उपस्थित नहीं था। अत एव वसुमती ही धनावह को अपना पिता समझकर पैर धोने लगी। धनावहने मना किया, पर वह नहीं मानी जब वसुमती धनावह के चरण प्रक्षालन कर रही थी, उस समय उसका केशकलाप (जुड़ा) खुल गया। सेठ धनावहने सोचा-इसके बाल कीचड़રાજાની અથવા કે પૈસાદારની દીકરી હોવી જોઈએ. આ બિચારી બાળા દુઃખી ન થાય તે સારૂં” એવું વિચારીને વેશ્યાને માં માગ્યા દામ ચૂકવીને તેણે વસુમતીને લઈ લીધી. તે તેને પિતાને ઘેર લઈ ગયો. ઘેર લઈ ગયા પછી ધનાવહ શેઠ અને તેની પત્ની મૂલાએ વસુમતીનું પિતાની જ પુત્રીની જેમ પાલનપોષણ કરવા માંડયું.
॥२८८ એકવાર ગ્રીષ્મ ઋતુને સમય હતે. ધનાવહ શેઠ બીજે ગામ જઈને પિતાને ઘેર પાછા ફર્યા. જ્યારે તેઓ તેમ ઘેર આવ્યા ત્યારે કેઈ નોકર હાજર ન હતું તેથી વસુમતી જ ધનાવહને પિતાના પિતા ગણીને તેમના પગ ધોવા લાગી. ધનાવહે ના પાડી, પણ તે માની નહીં. જ્યારે વસુમતી ધનાવના પગ ધતી હતી ત્યારે તેને કેશકલાપ
થી શિક
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श्रीकल्पसूत्रे
॥२८९ ॥
धनावहः श्रेष्ठी, निजपाणियष्टया = विकाराभावेन यष्टि तुल्याभ्यां स्वहस्ताभ्यां धृत्वा गृहीत्वा अवघ्नात् बद्धवान् । तदा गवाक्ष स्थिता = वातायनोपविष्टा श्रेष्ठिनो=धनावहस्य भार्या=मूला वसुमत्याः केशपाशं केशकलापं बन्धन्तं श्रेष्ठिनं =धनावहं दृष्ट्वा श्रचिन्तयत् = मनसि विचारितवती - 'इमाम् = एतां कन्यां = बालिकां पालयित्वा पोषयित्वा च मया अनर्थम् = स्वस्यैवानिष्टं कृतम् - सम्पादितन् 'कुतः ? इत्याह = 'जइ' इत्यादि वा यदि इमां वसुमतीं कन्यां श्रेष्ठी= मम पतिर्धनावहः उद्वहेतु = परिणयेत्, तदा तर्हि तस्यां परिणीतायां सत्याम् अहम् अपदस्था=अधिकारच्युता एव भविष्यामि, तदत्र मया प्रयतनीयं येन वसुमतीं मत्पतिः परिणेतुं न शक्नुयात्, यतः - उत्पद्यमानाः = जायमान एव व्याधिः = रोगः उपशमयितव्यः = चिकित्सनीयः, इति कृत्वा = चिन्तयित्वा सान्मूला एकदा = एकस्मिन् समये अन्यग्रामं = ग्रामान्तरं गतं श्रेष्ठिनं ज्ञात्वा नापितेन तस्याः वसुमत्याः शिरो मुण्डयित्वा शृङ्खलया करौ हस्तौ निगडेन वाली जमीन पर न गिर जाएँ, यह सोचकर उन्होंने निर्विकारभाव से यष्टि ( लकड़ी) के समान अपने हाथों में लेकर उसके केशपाशको बाँध दिया। उस समय धनावह शेठ की पत्नी मूला खिड़की में बेठी थी । उसने वसुमती का केशकलाप बाँधते हुए धनावट को देखकर मन में विचार किया इस लड़की का पालनपोषण करके मैंने अपना ही अनिष्ट कर डाला है । क्यों कि इस छोकरी के साथ मेरे लिया तो इसके साथ विवाह करलेने पर मैं अपदस्थ हो जाऊँगी - अर्थात् मैं अधिकार से अत एव मुझे कोई ऐसा प्रयत्न करना चाहीए कि मेरे पति इस से विवाह न कर सकें। हो रही हो तभी उसका इलाज कर लेना ही अच्छा मूलाने ऐसा विचार कर लिया। बाद उसे अवसर मिल गया। एक बार धनावर सेठ दूसरे गाँव चले गये। उन्हें बाहर गया जान कर (मोठी) छूटी गये. शेठ धनावडे मनमा “ तेना वाणनी सटी अहववाणी कमीन पर रजेने पडे. " તેમણે નિર્વિકાર ભાવેષ્ઠિ (લાકડી)ના જેવા પાતાના હાથેામાં લઈને તે કેશકલાપ બાંધી દીધા. આ બાજુ તેજ વખતે ધનાવહ શેઠની પત્ની મૂલા ખારીમાં બેઠી હતી તેણે વસુમતીના ધનાવહુને જોયા. તેણે વિચાર્યુ” કે “આ કરીનુ પાલન-પાષણ કરવામાં મેં મારૂં પોતાનું જ કારણ કે આ કન્યા યૌવનના ઉંબરે પહેાંચી છે. જો આ છેાકરી સાથે મારા પતિ લગ્ન કરશે તે અધિકાર રહિત બની જઇશ. તેથી મારે એવા ઉપાય કરવા જોઇએ કે જેથી મારા પતિ તેની સાથે વિવાહ કરી શકે નહિ. રાગ અને દુશ્મન ઉત્પન્ન થતાં જ તેના ઇલાજ કરવા જોઇએ. મૂલાએ આ પ્રમાણે નિષ્ણુ ય કર્યો. ઘેાડા સમય પછી તેને તક પણ મળી. એક વાર ધનાવહ શેઠને ખીજે ગામ જવાનું થયું. તેમને બહાર ગયેલા
पतिने विवाह कर वंचित हो जाऊँगी ।
जब बीमारी उत्पन्न
।
के
અ મ વિચારીને કેશકલાપ બાંધતા અનિષ્ટ કર્યુ છે. તેની સાથે લગ્ન
થતાં જ
कुछ
ही समय
HAAAAAAAAAAPER
कल्प
मञ्जरी
टीका
चन्दन बालायाः चरित वर्णनम् । ।।सृ०९६ ।।
॥२८९ ॥
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कल्प
श्रीकल्प
मूत्रे ॥२९॥
मर्जी
टीका
मोर पादौ चरणौ च नियन्त्र्य-निगडितौ कृत्वा एकस्मिन् भूमिगृहे ता-वसुमती स्थापयित्वा तद्-भूमिगृहं तालकेन
नियन्त्र्य नियन्त्रितं कृत्वा स्वयं तस्मिन्नेव ग्रामे-कौशाम्बी नगर्यामेव पितृगृहे गता। सा-निगडितहस्तपादा वसुमती च तत्र-नियन्त्रिते भूमिगृहे क्षुधया पीड्यमाना चिन्तयति मनसि विचारयति, चिन्ता स्वरूपमाह-'कस्य रायकुलं' इत्यादिना-'मे मम राजकुलं-नृपवंशः कुत्र-क्य ? तथा इयम् उपस्थिता मम दुर्दशाहितावस्था कीदृशी ? अनयोर्नास्ति किंचिदपि साम्यम् । अहो ! मे मम पुरा-पूर्वभवे कृतम् उपार्जितं कर्मअशुभकर्म किकथम्भूतमस्ति ? यस्य-अशुभकर्मणः ईदृशः एवम्विधः विपाका दुर्दशालक्षणं फलम् उदयमागतः।" एवं चिन्तयन्ती सा 'कारागारमुक्तिपर्यन्तं तपः अनशनलक्षणं करिष्यामि' इति कृत्वा इति विचार्य मनसि 'नमो अरिहंताणं' मूलाने नाई से वसुमती का सिर मुंडवा दिया। हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी। तब वसुमती को एक भौंयरे में बंद कर दी। भौयरे को ताला जड़ दिया। यह सब करके वह मूला, कौशाम्बी में ही अपने माय के (पिता के घर) चल दी। हाथों-पैरों से जकड़ी वसुमती भीयरे में पड़ी हई मन ही मन विचार करने लगी। वह क्या विचार करने लगी सो कहते हैं
कहाँ तो मेरा वह राजवंश-जिसमें मेरा जन्म हुआ और कहाँ यह इस समयकी मे देशा? दोनों में तनिक भी समानता नहीं। आह ! पूर्व भव में मेरे द्वारा उपार्जित अशुभ कर्म न जाने कैसा है ? जिसका फल ऐसा भोगना पड़ रहा है। इस दुर्दशा के रूपमें जो उदय में आया है। इस प्रकार विचार करती हुई वसुमतीने यह निश्चय कर लिया कि जब तक मैं इस कारागार से छुटकारा न पाऊँगी तब तक अनशन तपस्या करूँगी।' इस प्रकार विचार कर वह वसुमति 'नमो अरिहंताणं' इत्यादि रूप पंचपरमेष्ठी मंत्र का जाप करने लगी। જાણુને મૂલાએ હજામને બોલાવી તેની પાસે વસુમતીનું માથું મુંડાવી નાખ્યું. અને હાથમાં હાથકડી અને પગમાં બેડી નાખી. પછી વસુમતીને એક ભેંયરામાં પૂરી દીધી, ભેંયરાને તાળું વાસી દીધું. આ બધું કરીને તે કૌશામ્બીમાં જ પિતાને પિયર ચાલી ગઈ. હાથ અને પગોથી બંધાયેલી વસુમતી તે ભોંયરામાં કેદ–અવસ્થામાં મને મન વિચાર કરવા લાગી. તે શે વિચાર કરવા લાગી તે બતાવે છે– - “ક્યાં મારો એ રાજવંશ, જેમાં મારો જન્મ થયે અને કયાં મારી આ સમયની દુર્દશા ? બન્નેમાં જરી પણ સમાનતા નથી. અહા ! પૂર્વભવમાં મેં ઉપાર્જિત કરેલ અશુભ કર્મ શું ખબર કેવાં છે, કે જેનું આવું ફળ ભેગવવું પડે છે ! આ દુશાના રૂપે જ તે ઉદયમાં આવ્યા છે.” આ પ્રમાણે વિચાર કરતી વસુમતીએ એ નિર્ણય કર્યો કે “ જ્યાં સુધી આ કારાગારમાંથી મારે છુટકારે ન થાય ત્યાં સુધી હું અનશન તપસ્યા કરીશ.” આ પ્રમાણે
चन्दनबालायाः
चरित वर्णनम् । ॥सू०९६॥
॥२९॥
तपस्या उशश."
मा प्रभाष
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यो मुमत्व
अदृष्ट्या
एव मूलानी धनार
कल्पमञ्जरी
टीका
मार
इत्यादि रूपं पश्चपदस्वरूपं परमेष्ठिमन्त्रं जपितुम् आरभत पारब्धवती। एवं भूमिगृहे निगडितहस्तपादायाः परमेष्ठिमन्त्र जपन्त्याः तस्याः सुमत्याः त्रीणि दिनानि व्यतिक्रान्तानि व्यतीतानि, ततः चतुर्थे दिवसे श्रेष्ठी
धनावहः ग्रामान्तरात् आगतो वसुमतीम् अदृष्ट्वा परिजनान् स्वजनान् भृत्यादीन् तद्विषये अपृछत्-पृष्टवान् । श्रीकल्प
परन्तु श्रेष्टिना वसुमती जिज्ञासायां कृतायामपि पूर्वत एवं मूलानिवारिताः ते सर्वे परिजनाः तं धनावहं वसुमती
विषये किमपि न अकथयन्न कथितवन्तः। ततः क्रुद्धः जातकोपः श्रेष्ठी-धनावहः अभणत्-जानाना अपि यूयं ॥२९॥
मया बहुशो जिज्ञासितां वसुमती न कथयत, अतो यूयं मद्गृहाद् निर्गच्छत-निस्सरत, इति इत्थं श्रेष्ठिनो वचनं श्रुत्वा एकया वृद्धया दास्या "मम जीवीतेन= जीवनेन सा वसुमती जीवतु-प्राणान्धरतु" इति कृत्वा एतदु विचिन्त्य श्रेष्ठिने धनावहाय सर्व वृत्तम् कथितम् तत् सर्व श्रुत्वा श्रेष्ठी-धनावहः शीघ्रं तत्र भूमिगृहद्वारसमीपे गत्वा तालकं भङ्कत्वात्रोटयित्वा द्वारम् उद्धाट्य वसुमती आश्वासयत् धैर्यकारकवचनैःसमतोषयत् । ततः-वसुमत्याइस प्रकार तीन दिन बीत गये। चौथे दिन धनावह सेठ दसरे गाँव से लौटे। उन्हें वसुमती दिखलाइ नहीं दी तो भृत्य आदि परिजनो से उसके विषय में पूछताछ को। इस प्रकार शेठ के द्वारा जानने की जिज्ञासा करने पर भी, मूला द्वारा मना किये हुए नोकरचाकर वसुमती के विषय में कुछ भी न बोले । तब धनावह सेठ को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा-तुम लोक जानते-बुझते भी और मेरे द्वारा पूछने पर भी, वसुमती के विषय में कुछ भी नहीं कहते हो तो मेरे घर से बाहर निकल जाओ। इस प्रकार सेठ के वचन सुनकर एक वृद्ध दासीने सोचा-मेरे जीवन से भी वसुमती जीवीत रहे; अर्थात् मेरे प्राण जाते हों तो भले जाएँ, मेरे प्राणों के बदले वसुमती के प्राण बच जाने चाहिए। यह सोचकर उसने समग्र वृत्तान्त धनावह से कह दिया। इस वृत्तान्त को सुनकर धनावह शीघ्र ही भौंयरे के द्वारके समीप गये। भौंयरे का ताला तोड़ा। द्वार खोला, वसुमती को धीरज बंधाने वाले वचन कह कर सन्तोष दिया। विया२ ४शन "नमो अरिहंताणं" त्यादि ३५ पय परमेही भावना ५ ४२१ साली. माशत हिस पसार થયા. ચોથે દિવસે ધનાવહ શેઠ બીજે ગામથી પાછા ફર્યા. તેમણે શેઠાણી કે વસુમતી કેઈને ન જોતાં નેકર આદિ પરિજનેને તેના વિશે પૂછપરછ કરી આ પ્રમાણે શેઠે પૂછવા છતાં પણ મૂલા શેઠાણી તરફથી મના કરાયેલ હોવાથી નોકર-ચાકર વસુમતીને વિષે કંઈ પણ બોલ્યા નહીં ત્યારે ધનાવહ શેઠ ગુસ્સે થયા. તેમણે કહ્યું, “તમે લેકે જાણવા છતાં અને મારા પૂછવા છતાં પણુ વસુમતી વિષે કંઈ પણ કહેતા નથી માટે મારા ઘરમાંથી બહાર નીકળી ચાલ્યા જાઓ.” શેઠના એવાં વચનો સાંભળીને એક વૃદ્ધ દાસીએ વિચાર કર્યો, “મારો પ્રાણ જાય તે ભલે જાય પણ વસુમતીને જીવ બચાવો જ જોઈએ.” આમ વિચારી તેણે આખું વૃત્તાંત ધનાવહ શેઠને કહી દીધું. આ વૃત્તાંત સાંભળીને ધનાવહ તરત જ ભોંયરાના દ્વારની
પાસે ગયા ભેંયરાનું તાળું તેડી નાખ્યું. દ્વાર ખેલ્યું અને વસુમતીને આશ્વાસનનાં વચને કહીને સાંત્વન આપ્યું.
चन्दनबालायाः
चरित वर्णनम्।
॥२९॥
S
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श्रीकल्पसूत्रे १२९२।।
आश्वासनानन्तरं खलु स श्रेष्ठी गृहे स्वभवने मूलया पितृगृहगमनावसरे गुप्तस्थाने संरक्षितत्वात् किमपि भाजनं = पात्रं भक्तम् = ओदनादिकं च कुत्रापि न पश्यति, केवलं पशुनिमित्तं पश्वयं निष्यादितान् = कृतान् बाष्पितमाषान् = स्विन्नमाषान् 'वाकुला' इति भाषा प्रसिद्धान् तत्र पश्यति, ते= वाष्पितमाषाः अन्यभाजनाभावे शूर्पे एव गृहीत्वा - आदाय तेन=धनावहेन भक्तार्थ भोजनार्थं वसुमत्यै समर्पिताः दत्ताः स्वयं च धनावहो निगडादिबन्धनच्छेदनार्थ लोहकारम् आकारयितुम् = आहातुम् तद्गृहे अगच्छन् = गतवान् । सा = निगडितहस्तपादा वनुमती च सवाष्पितमापं=वाष्पितमापसहितं शूर्प हस्तेन गृहीत्वाऽचिन्तयत् - मनसि विचारितवती - इतः पूर्व मया किमपि दानम्=अशनपानखाद्यस्त्राद्यरूपं साधुभ्यो दत्वैत्र पारणकं कृतम्, अद्यतु-अस्मिन् दिने तु किमपि = किञ्चिदपि अशनादिकं मुनये न दत्वा कथं केन प्रकारेण पारयामि = पारणं करोमि ? में मम कीदृशः = कथम्भूतो दुर्विपाकः= गर्हितकर्मफलम् उदितः = उदयावलिकायाम् उपस्थितः येन दुर्विपाकेन अहं = ईदृशीम् = = एतादृशीं दासीत्वादिरूपां
मूला जब अपने पिता के घर गई थी तो बरतन - भांड़े सब गुप्त जगह मे रख गई थी । अतएव सेठ को जल्दी में न कोई बरतन मिला और न भोजन ही कहीं दिखाई दिया ! केवल जानवरों लिये उबले हुए उड़द, जिन्हें लोकभाषा में 'बाकुला' कहते है, वही मिले। दुसरा वरतन न होने के कारण सूप में ही उन्हें लेकर धनात्रह सेठने वह वसुमती को दिये। सेठ स्वयं बेड़ी वगैरह को काटने के हेतु लुहार को बुलाने के लिये लुहार के घर चले गये । बंधे हुए हाथों-पैरों वाली वसुमती उबले हुए उड़द वाले ग्रुप को हाथ में लेकर सोचने लगो-इस से पहले मैंने साधुओं को अशनपान खादिम और स्वादिम का दान देकर ही पारणा किया है, आज निदान दिये पारणा कैसे करूँ ? कैसा गति कर्म मेरे उदय में आया है, जिसके दुर्विपाक के कारण
મૂલા જ્યારે પોતાના પિતાને ઘેર ગઈ હતી ત્યારે વાસણ-કુસણુ બધુ ગુપ્ત જગ્યાએ મૂકીને ગઈ હતી, તેથી શેઠને ઉતાવળમાં કોઇ વાસણુ પણ ન જડયુ. તેમ જ ભેજન પણ નજરે ન પડયું. ફક્ત ઢોરને માટે બાફેલા અડદ જેને લોકભાષામાં “બાકળા” કહે છે તેજ મળ્યા. બીજું વાસણુ ન જડવાથી સૂપડામાં જ બાકળા લઇને ધનાવહ શેઠે વસુમતીને આપ્યા, અને શેઠ જાતે જ બેડી વગેરે તેાડવાને માટે લુહારને ખેલાવવા માટે લુહારને ઘેર ગયા. જકડાયેલ હાથ-પગવાળી વસુમતીએ બાફેલા અડદવાળું સૂપડું હાથમાં લઇને વિચાર્યું”, “ આ પહેલાં મેં સાધુએને અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમનું દાન દઇને જ પારણાં કર્યા છે, આજે દાન આપ્યા વિના પારણુ કેવી રીતે કરૂ ? કેવા ઉપાર્જિત કાઁના મારે ઉદય થયા છે કે જેના દુપાકને કારણે હું દાસીપણું વગેરે વગેરે ભાગવી આ દશા પામી
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कल्प
मञ्जरी टीका
चन्दनबालायाः चरित वर्णनम् । ९ ।। सू०९६ ॥
॥२९२ ॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥२९३॥
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21 Jun
'दशाम् अवस्थां सम्प्राप्ता= लब्धवती । यदि चेत् कस्मै अपि अतिथये = मुनये एतद् भक्तं =शूर्पस्थं वाष्पितमापरूपमशनं दत्वा पारणकं करोमि, ततः श्रेयः = कल्याणं भवेत् । इति चिन्तयित्वा गृहदेहल्याः बहिः = वहिर्भागे एकं पादं =चरणं कृत्वा एकम्=अपरं पादं=चरणं च अन्तः = अन्तर्भागे कृत्वा मुनिमार्ग= मुनेरागमनं पश्यन्ती = प्रतीक्षमाणा तिष्ठति । सैव वसुमती चन्दनस्येव श्रीखण्ड चन्दनवत् शीतलस्वभावत्वेन - शीतलप्रकृतितया 'चन्दनवाले' ति नाम्ना प्रसिद्धिं ख्याति प्राप्ता लब्धवतीति ।। ०९६ ।।
अंतिमो उवसग्गो
मूलम् - तरणं से समणे भगवं महात्रीरे कोसंबीओ णयरोओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जणवयविहारं fares | तओ पच्छा भगवं वारसमं चाउम्मासं चंपाए णयरीए चउम्मासतवेणं ठिए, तओ निक्खमिय छम्माणियाभिहस्स गामस्स वहिया उज्जाणम्मि काउसग्गे ठिए । तत्थ णं एगो गोवालो आगंतूण भगवं दहूणं एवं वयासी - भो भिक्खू ! मम इमे बइले रक्खउत्ति कहिय गामम्मि गयो । गामाओ आगमिय बल्लेन पास, भगवं पुच्छे कत्थमे बइला ? | झाणनिमग्गे भगवं न किंचि वयइ । तओ से पुत्रभववेराणुबंधिकम्मुणा कुद्ध आरती मिसिमिसेमाणां भगवभो कष्णेसु सरगडनामस्स कठिणरुक्वस्स कीले निम्माय कुठारप्पहारेण अंतो निखणिय तेसिं उवरिभागे छेदीअ, जे णं ते न कोई नाउं सकिजा न विय निस्सारिउं । पहुस्स इमो अट्ठारसमभवद्धकम्मुणो उदओ समुत्रडिओ । दुरासओ सो गोवालो तओ निक्खमिय अन्नत्थ गओ । पहू य तओ निक्aमिय मज्झिमपात्राए णयरीए भिक्खट्टाए अडमाणे सिद्धत्थ सेट्टि हिमणुपत्रिद्वे । तत्थ णं खरगा भिहो विज्जो अच्छा, सो य पहुं हुं जाणीअजं एयस्स कण्णेसु केणत्रि सल्लाई निखायाई, तेणं एस पहू मैं दासीपन आदि की इस दशा को प्राप्त हुई हूँ, अगर मैं किसी मुनि को यह भोजन - रूप मे स्थित उड़द अशन- देकर पारणा करूँ तो मेरा कल्याण हो जाय। इस प्रकार विचार करके वह घर की देहली से एक पैर बाहर और दूसरा पैर अन्दर करके मुनि के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। वही राजकुमारी वसुमती श्रीखंड चन्दन के समान शान्त प्रकृति वाली होने के कारण 'चन्दनबाला' इस नाम से विख्यात हुइ ॥ मू०९६ ॥ છુ'! જો હું કોઇ મુનિને આ ભાજન-સૂપડામાં રહેલ બાફેલાં અડદ રૂપ અશન-વહેારાવીને પારણું કરૂ તા મારૂ' કલ્યાણુ થઈ જાય. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે એક પગ ઘરના ઉમરાની બહાર અને બીજો પગ અંદર રાખીને મુાનના આગમનની રાહ જોવા લાગી. એ જ રાજકુમારી વસુમતી શ્રીખ'ડ ચન્દન જેવી શાંત સ્થલાવવાળી હોવાથી તે "थनमाणा”ना नामथी अभ्यात थर्ध (सु०८६)
BELA AALEEZAAAAAAAAE
कल्प
मञ्जरी
टीका
अन्तिम
सर्ग
वर्णनम् । ।। सू०९७५
।।२९३ ||
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श्रीकल्पसूत्रे ॥२९४॥
LOSE TERES
魔魚魚黃真真真人身
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अलं वेणं अणुभव इति । तए णं सो विज्जो सेट्ठि कहीअ । पहू य गहियभिक्खे उज्जाणं समणुपत्त । सो सेट्ठी विज्जोय उज्जाणे गमिय काउस्सग्गद्वियस्स पहुस्स कण्णेहिंतो महईए जुत्तीए ताई सल्लाई निस्सारेंति । जइ विकीलगुद्धरणे पहुस्स दुस्सहा वेयणा संजाया, तहवि भगवं चरिमसरीरत्तणेण अनंतबलत्तणेण यतं उज्जलं तिव्वं घोरं कायरजणदुरहियासं वेयणं सम्मं सहीअ । तए णं से सेट्ठी विज्जो य ओसहोवयारेण तं atri काउं सयं हिं गमीअ । तेण कुविच्चेण गोत्रालो मरिय नरयं गओ । सेो विज्जो य तेण सुह कम्मुणा वारसमे कप्पे उवना इइ गंथंतरे ॥ मु० ९७ ॥
छाया—ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः कौशाम्ब्या नगर्याः प्रति निष्क्राम्यति, प्रति निष्क्रम्य जनपदविहारं विहरति । ततः पश्वाद् भगवान् द्वादशं चातुर्मासं चम्पायां नगर्यो चतुर्मास तपसा स्थितः ततो निष्क्रम्य पण्मानिकाभिधस्य ग्रामस्य वाद्योद्याने कायोत्सर्गे स्थितः तत्र खलु एको गोपाल आगत्य भगवन्तं वा एवमवादीत् - " भी भिक्षो ! मम इमौ बलीवर्दी रक्षतु " इति कथयित्वा ग्रामे गतः । ग्रामात् आगत्य अन्तिम उपसर्ग
किया
मूल का अर्थ - 'तए णं से' इत्यादि । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीरने कौशाम्बी नगरी से विहार और विहार करते हुए वे जनपद में विचरने लगे । तत्पश्चात् भगवान् चौमासी तप के साथ चम्पा - नगरी में बारहवें चतुर्मास के लिए विराजे । तदनन्तर वहाँ से विहार कर पण्मानिक नामक ग्राम के बाह्य उद्यान में कायोत्सर्ग में स्थित हुए। वहाँ एक गुवाल आकर और भगवान् को देखकर इस प्रकार बोला'हे भिक्षु ! मेरे इन दोनों बैलोंकी रखवाली करना । ' ऐसा कहकर गाँव में चला गया। गाँव से लोटने पर उसे
અંતિમ ઉપસર્ગ
भूलना अर्थ – 'तरणं से' इत्याहि मा पछी श्रमशु भगवान भडावीर, भैशाम्भी नगरीमांथी विहार पुरी,
તપની આરાધના કરી, આ બહાર ઉદ્યાનમાં કાર્યાત્સગ
દેશના જુદા જુદા ભાગમાં વિચરવા લાગ્યાં. ખારમું ચાતુર્માસ કરવા તેએશ્રી ચંપાનગરીમાં પધાર્યા ને ત્યાં ચોમાસી આ ચામાસુ પસાર કર્યા પછી, તેઓ ‘ માસિક ’ નામના ગામની કાઇ એક ગાવાળ આવી ભગવાનને ઢેખતાં ખેલવા લાગ્યા કે કરજે' આમ કહી તે ગામમાં રવાના થયા. ગામમાંથી પાછા વળતાં,
ચાતુર્માસ પૂરું કર્યું. કરી સ્થિત થયાં. ત્યાં બન્ને બલદેનું રક્ષણ
હું ભિક્ષુક ! તું આ મારા
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कल्प
मञ्जरी टीका
अन्तिमोपसर्ग
वर्णनम् । ॥सू०९७॥
॥२९४॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
||२९५॥
टीका
को जा
अन्तिमो
बलीवहौं न पश्यति, भगवन्तं पृच्छति-कुत्र मे बलीमहौं । ध्याननिमग्नो भगवान् न किश्चिद वदति । ततःस पूर्वभववैरानुबन्धिकमगा क्रुद्धः आशुरक्तः मिसमिसायमानो भगवतः कर्णयोः शरकटनाम्नः कठिनवृक्षस्य कीले निर्माय कुठारप्रहारेण अन्तनिवन्य तयोरुपरिभागावच्छिनत् , येन ते न कोऽपि ज्ञातुं शन्कुयात् नापि च निस्सारयितुम् । प्रभोरयम् अष्टादशभवबद्धकर्मणउदयः समुपस्थितः। दुराशयः स गोपालः ततो निष्क्रम्यान्यत्र गतः प्रभुश्च ततो निष्क्रम्य मध्यमपापायां नगया भिक्षार्थाय अटन् सिद्धार्थ श्रेष्टिगृहमनुप्रविष्टः। तत्र खलु खरकाभिधो वैद्य आम्ते स च प्रभुं दृष्टा अजानीत यत्-एतस्य कर्णयोः केनापि शल्ये निखाते, तेन एष प्रभुः वैल दिखाई न दिये। भगवान से पूछा-'कहाँ है मेरे बैल ?' ध्यानमग्न भगवान् कुछ न बोले। तब उसने पूर्वभव के वैरानुबंधी कर्म के कारण क्रत होकर, लाल होकर और मिसमिसाते हुए शरकट नामक कठिन वृक्ष की दो कीलें बनाकर, भगवान के कानों में कुठार के प्रहार से अन्दर ठोंक दी, और उनके बाहर के भागों को काट डाला, जिस से किसी को मालूम न हो और कोई निकाल भी न सके। प्रभु के यह अठारहवें भव में बाँधे हुए कर्म का उदय उपस्थिा हुआ। वह दुराशय गुवाल वहाँ से निकल कर अन्यत्र चला गया।
भगवान् वहाँ से निकल कर मध्यम पागनगरी में भिक्षा के लिए अटन करते हुए सिद्धार्थ सेठ के गृह में प्रविष्ट हुए। वहाँ खरक नामक एक वैद्य था। उसने प्रभु को देखकर जान लिया कि इनके कानों में તે ગોવાળે બળદને જયાં નહીં. તેથી તેણે ભગવાનને પૂછયું કે “હે સાધુ! મારા બળદ કયાં?' ધ્યાનમગ્ન પ્રભુએ કાંઈપણ જવાબ વાળ્યો નહીં. આથી પૂર્વભવના વૈરાનુંબંધી કમના વેગે, તે ગોવાળ ક્રોધાયમાન થયા. દેધથી લાલ પીળો થતે, શરકટ નામના કઠણ વૃક્ષની ડાળીમાંથી, બે ખીલાં બનાવ્યાં. આ ખીલાને ભગવાનના કાનમાં કુહાડાના ઘા વડે ઘાંચી મજબૂત કરી દીધા, ને તે ખીલાની બહાર દેખાતાં ભાગોને કાપી નાખ્યાં. આમ કરવાનું કારણ એ હતું કે, આવા કાર્યની કોઈને જાણ થાય નહીં. તેમજ આવા બંધબેસ્તા ખીલાને કોઈ કાઢી પણ શકે નહિ. આવું નિકાચિત કર્મ, બ્રહ્માએ પોતાના અઢારમાં ભવમાં બાંધ્યું હતું. ને તેનો ઉદય તેમને આ અંતિમ ભવમાં જણાય. ને તેનું પરિપકવ ફળ પણ ભેગવવું પડયું.
આ દુરાશયી ગોવાળ ત્યાંથી નિકળી જઈ, કેઈ અજાણ્યા સ્થળે ચાલ્યા ગયે. ભગવાન અહીંથી નીકળી, મધ્યમ પાવા નગરીમાં ભિક્ષાથે અટન કરતાં કરતાં, સિદ્ધાર્થ શેઠને ત્યાં જઈ ચડ્યાં. આ શેઠને ત્યાં ખરક' નામને એક વૈદ્ય હતું. તેણે પ્રભુને જોતાંજ કાનમાં ઠોકેલાં ખીલાને ઓળખી લીધાં. ને વિચાર કરતાં તેને ખ્યાલમાં આવ્યું
वर्णनम्। सू०९७॥
॥२
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श्री कल्प मुत्रे ॥२९६॥
熊熊獎
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अतुलां वेदनामनुभवतीति । ततः खलु स वैद्यः श्रेष्ठिनमकथयत् । प्रमुश्च गृहीतभिक्षः उद्यानमनुप्राप्तः । स श्रेष्ठी वैद्यश्व उद्याने गत्वा कायोत्सर्गस्थितस्य प्रभोः कर्णाभ्यां महत्या युक्त्या ते शल्ये निःसारयतः । यद्यपि कीलकोद्धरणे प्रभोः दुःसहा वेदना संजाता, तथाऽपि भगवान् चरमशरीरत्वेन अनन्तबलत्वेन च तामुज्ज्वलां तीत्रां घोरां कातरजनदुरध्यासां वेदनां सम्यक् असहत । ततः खलु स श्रेष्ठी वैद्यश्च औषधोपचारेण तं नीरूजं कृत्वा स्वगृहमगच्छताम् । तेन कुकृत्येन गोपालो मृत्वा सप्तमं नरकं गतः श्रेष्ठी वैद्यश्व तेन शुभकर्मणा द्वादशे कल्पे उत्पनौ इति ग्रंथान्तरे ।। ०९७।।
टीका- 'तर णं से समणे' इत्यादि । ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः कौशाम्ब्याः नगर्याः प्रतिनिष्क्राम्यति= प्रतिनिःसरति प्रतिनिष्क्रम्य = प्रतिनिःसृत्य जनपदविहारं = देशविहारं विहरति । ततः पश्चाद= किसीने कीलें ठोंक दी हैं; इस कारण प्रभु को अतुल वेदनाका अनुभव हो रहा है। तब उस वैधने सेठ से कहा। भगवान् भिक्षा ग्रहण करके उद्यान में आ गये। सेठने और वैद्यने उद्यान में जाकर कायोत्सर्ग में स्थित प्रभुके कानों से बड़ी युक्ति के साथ उन कीलों को निकाल दिया। यद्यपि कीलों के निकालने में प्रभु को दुस्सह वेदना हुई, तथापि चरमशरीरी और अनन्तवली होने के कारण भगवान ने उस जाज्वल्यमान तीव्र, घोर और कायर जनों द्वारा असह्य वेदना को सम्यक् प्रकार से सह लिया । तत्पश्चात् वह सेठ और वैद्य औषधोपचार से भगवान को निरोग करके अपने घर गये। उस कुकृत्य से गुवाल मर कर नरक में गया । तथा सेठ और वैद्य उस शुभ कर्मके कारण से बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए ||०९७||
टोका का अर्थ - तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान् महावीर कोशाम्बी नगरी से विहार किये और विहार कर કે, કોઈ દુરાત્માએ જાણી જોઇને, દુઃખ દેવા નિમિત્તે આવું દુષ્ટ કાય કર્યું" છે. તેમજ પ્રભુને થતી અતુલ વેદના પણ, તેણે જાણી લીધી. આ દૃશ્ય પારખી દ્યે તે વાત શેઠને કરી, ભગવાન ભિક્ષા ગ્રહણ કરી, ઉદ્યાનમાં પધાર્યા. ને ત્યાં તેઓ પોતાના દૈનિક કાર્યક્રમ મુજબ કાર્યાત્મ`માં ઉભાં રહ્યાં. તેટલામાં શેઠ અને વૈદ્ય ત્યાં આવી પહોંચ્યાં ને પ્રભુના કાનમાંથી યુક્તિપૂર્વક ખીલા ખેચી લીધાં, આ ખીલા ખેંચાતી વખતે, પ્રભુને અસહ્ય વેદના થઈ તા પણ પ્રભુએ, આવી જાજવલ્યમાન તીવ અને ઘેર વેદનાને સમ્યક્ પ્રકારે સહી લીધી. ખીલા કાઢયા, અને યાગ્ય ઔષધ ઉપચારા કરીને ભગવાનના કાનાને વેદનારહિત બનાવી શેઠ અને વૈદ્ય ઘર તરફ વળ્યા. સારાનરસા કાર્યાના ઘાત-પ્રત્યાઘાત હોય જ છે. તદનુસાર પોતાનાં દુષ્કૃત્યાનું ફળ ભાગવવા, આ ગેાવાળને નરકગતિમાં જવુ' પડયુ. જ્યારે વૈદ્ય તેમ જ શેઠ શુભકાર્યાના ફળ રૂપે બારમાં દેવલાકમાં દેવપણે ઉત્પન્ન થયાં. (સ્૦૯૭)
ટીકાના અ་—ચતુર્માસ પૂરૂ' થયા બાદ તે સ્થળ છોડીને દેશના અન્ય સ્થળેાએ વિહાર કરવાના સાધુઓને
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कल्प
मञ्जरी
टीका
अन्तिमोपसर्ग वर्णनम् ।
॥ सृ ०९७॥
॥२९६ ॥
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श्री कल्प
कल्प
मञ्जरी टीका
॥२९७||
तदगन्तरं भगवान् श्रीवीरस्वामी द्वादशं चातुर्मासं चम्पायां नगया चतुर्मासतपसा-मासचतुष्टयांवधिकेन तपसा स्थितः, चतुर्मासानन्तरं ततः वम्पानारी तोनिष्क्रम्य षण्मानिकाभिधस्य-अण्मानिकनामकस्य ग्रामस्य बाह्योद्याने कायोत्सर्ग स्थितः। तत्र खलु एका कश्चित् गोपालः आगत्य भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनं दृष्ट्वा एवं वक्ष्माणं वचनम्
आदीत् उक्तवान् तथाहि “भो भिक्षो! मम इमौ=पुरतः स्थितौ बलीवदौऋषभौ भवान् रक्षतु इति एतद्वचनं कथायिखा ग्रामे गतः। पश्चात्नतः पश्चात् ग्रामात् तत्र आगत्य स बलीवदौं न पश्यति, ततो भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनं पृच्छति-यद् भो भिक्षो । मे वजीवदी कुत्र गतौ? इति जिज्ञासायां कृतायामपि ध्याननिमग्न: ध्यानासक्तो भगवान् श्रीवीरस्वामी न किश्चिद् वदति-न किमप्युत्तरयति । ततः स पूर्वभावैरानुबन्धिकर्मगा क्रुद्धः-जातकोपःआशुरक्तःशीघ्रकोधारुणः मिसमिसायमान:-क्रोधेन जाज्वल्यमानो भगवतः श्रीवीरस्य कर्णयोः शरकटनामस्य जनपद-देश में विचरने लगे। तत्पश्चात् भगवान् वीरप्रभु बारहवें चौमासे में चम्पानगरी में विराजे और चार मासकी तपस्या की। चौमासा समाप्त हो जाने पर चम्पानगरी से विहार कर षण्मानिक नामक गांव के बाहरी बगीचे में कायोत्सर्ग में स्थित हुए। वहाँ एक गुवालने आकर भगवान् वीरप्रभुको देखा और इस प्रकार कहा-'हे भिक्षु । सामने खडे मेरे इन दोनों बैलों की रखवाली करना। यह वचन कह कर वह गांव में चला गया। जब वह गुमाल गान जाकर वापिस लौटा तो उसे वहाँ बल नजर नहीं आये। तब उसने भगवान् से पूछा-'भिक्षु, मेरे बैल कहाँ चले गये?' इस प्रकार जिज्ञासा करने पर भी ध्यान में लीन भगवान ने कुछ उत्तर नहीं दीया। तब वह गुवाल पूर्व भव में बाँधे हुए वैरानुबंधी कर्म के उदय से कुपित हो उठा, एकदम ही क्रोध से लाल हो गया और क्रोध से जल उठा। उसने भगवान के दोनों कानों में शरकट આચાર છે. તે સદાચાર મુજબ ભગવાન પણ અન્ય સ્થાનમાં વિચરવા લાગે. કૌશામ્બી-ચંપાપુરી વિગેરે નગરીએ માં રહ્યા બાદ ભગવાન તે પ્રદેવમાં આવેલા “
વમાનિક નામના ગામની બહાર કાયેત્સર્ગ કરી સ્થિર રહ્યા. અડી તેમને છેલે ઉપસમાં આવ્યું, અને તે ત્રિપૂટ વાસુદેવના ભવે મા પાલકના કાનમાં રેડેલા શીશાનું પરિપકવ ફળ હતું. નિકાચિત કર્મ બાંધતી વખતે જે ભાવે દ્વારા બંધાયું હોય તે ભાવેના રસ રૂપે જ આ કમ પરિણમે છે. તેના રસમાં કોઈ ફેરફાર પડને નથી, છતાં જે આત્મા વીર્ય કરાવે તે તેના અનુભાગમાં ફેર પડે છે. આ ફેર એટલે કે રસની તીવ્રતા મંદતામાં ફેરવાઈ જય છે. પણ રસ તદ્દન ઉડી જતું નથી. નિકાચિત કર્મવાળાની ગતિ કરતી નથી, પણ જાતિ કરી શકે છે. નરકનાં સ્થાને સાત જાતનાં બતાવેલાં છે. તે સ્થાનેની કક્ષા આત્મવો વડે નીચે આવી શકે છે, પરંતુ ગમે તેવા પ્રયાસો દ્વારા પણ નરકગતિથી મુક્ત થવાનું નથી.
अन्तिमो
सेवा पसर्ग
वर्णनम् । मु०९७॥
॥२९७॥
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श्रीकल्पमुत्रे
॥२९८॥
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कठिनवृक्षस्य कीले= कीलकद्वयं निर्माय कृत्वा कुठारप्रहारेण कुठारपृष्ठापातेन अन्तः = कर्णाभ्यन्तरे निखन्य = प्रवेश्य तयोः = निखातयोः कीलकयोः उपरिभागौ - कर्णविवरतो बहिर्भूतभागौ अच्छिनत् कुठारेण छेदितवान् । येन हेतुना ते कर्णनिखाते कोलके न कोऽपि कश्चिदपि दृष्ट्वा ज्ञातुं शक्नुयात् नापि च निस्सारयितुं =अपनेतुं शक्नुयात् । प्रभोः= श्री वीरस्वामिनः अयम् - एषः अष्टादशभवबद्धकर्मगः = अष्टादशे भवे = त्रिपृष्ठवासुदेवजन्मनि शय्यापालकस्य कर्णयोरुत्कलितशीशकद्रवनिक्षेपणेन बद्धस्य = उपार्जितस्य कर्मणः उदयः = उदयोवलिकायां प्रवेशः समुपस्थितः = जातः । दुराशय: = दुरात्मा स गोपालः ततः तस्मात् स्थानात् निष्क्रम्य = निर्गत्य अन्यत्र गतः । प्रभुश्च = श्रीवीरस्वामी च ततः = षण्मानिक ग्रामस्य वाद्योद्यानात् निष्क्रम्य = निःसृत्य मध्यमपापायाम् = मध्यमपापानामिकायां नगया भिक्षार्थाय=भिक्षार्थम् अटन् = भ्रमन् क्रमेण सिद्धार्थश्रेष्ठिगृहम् अनुपविष्टः । तत्र = सिद्वार्थश्रेष्ठगृहे खलु प्रयोजनवशादागतः खरकाभिधः= खरकनामावैद्यः = चिकित्सकः आस्ते= तिष्ठति । स च प्रभुं दृष्ट्वा अजानित = ज्ञातवान् यत् एतस्य=श्रीवीरस्य कर्णयोः कर्णद्वये केनापि दुर्जनेन शल्ये =कीले निखाते = कर्णविवराभ्यन्तरे प्रवेशिते, तेन = कील नामक कठिन वृक्षकी दो कीलें बनाकर तथा कुल्हाडे के पिछले भाग से ठोंक ठोंक कर गाड़ दीं। कानों के भीतर ठोंकी हुइ कीलों के बाहर निकले हुए सिरे उसने कुल्हाडे से काट डाले, जिस से देखनेवाला देख नसके कि कानों में कीले ठोंकी हुइ है और वह कीले निकल भी न सकें । भगवान ने अठारहवें भाव में जो कर्म बांधे थे, उनका यह फल था । उस भव में वह त्रिपृष्ठ वासुदेव थे। उन्होंने शय्यापालक के कानों में उकलता हुआ शीशेका रस डलवाया था। वही कर्म अब उदय में आया ।
दुष्टाय वह बाल उस स्थान से निकल कर दूसरी जगह चला गया। भगवान् वीरप्रभुने पूण्मानिक ग्राम से निकल कर मध्यमपात्रा नामक नगरी में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए अनुक्रम से सिद्धार्थ नामक सेठ के घर में प्रवेश किया। सिद्धार्थ सेठ के घर खरक नामक वैद्य किसी प्रयोजन से आया था। उसने प्रभु को देखकर जान लिया कि इनके कानों के अन्दर किसी दुर्जनने कीलें ठोक दी हैं। कीलें ठोंकने के
નિદ્ધત્ત કર્મોનુ જડ ઉડુ હેતું નથી, તેથી તે નિર્મૂલ કરી શકાય છે. પણ નિકાચિત કર્મોને જડમુળથી કાઢી શકાતાં નથી. પ્રકૃતિ, સ્થિતિ, અનુભાગ અને પ્રદેશ એ ચાર ભેદ છે. નિવ્રુત કર્મોમાં આ ચારે પ્રકારા ભસ્મીભૂત થઈ શકે છે, જ્યારે નિકાચિતમાં પ્રદેશવેદન જરૂર રહે છે. ભગવાને પૂર્વે બાંધેલાં નિકાચિત કમ આ ભવે તે મૂળ રસમાં ઉદય આવ્યું અને તેના ફળ રૂપે તેમના કાનમાં ખીલા ઠોકાયા.
કમ બરાબર ભાગવાઈ રહ્યું અને તેને અંત આવતાં સિદ્ધાર્થી શેઠ અને વૈદ્યનું મિલન થયું. આ બન્ને ધર્માત્માઓનાં મન ભગવાનનુ' દુ:ખ જોઇ ઘણા જ વહેવલ થયા. ખીલા પણ એવી રીતે નાખવામાં આવ્યા હતા કે
श्रीकल्पटीका
अन्तिमोपसर्ग
वर्णनम् ।
।। भ्रू०९७॥
॥२९८॥
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श्री कल्पसूत्रे
॥२९९ ॥
निखननेन एषः=अयं प्रभुः श्रीवीरस्वामी अतुलां = निरुपमां दुःसहां वेदनांव्यथाम् अनुभवति इति । ततः खलु सः= खरकनामावैद्यः श्रेष्टिनं= सिद्धार्थम् अकथयत् = श्रीवीरव्यथावृत्तांतं निवेदितवान् । प्रभुश्च गृहीतभिक्षः सन् उद्यानम् = उपवनम् समनुप्राप्तः=आगतः । इतश्च सः सिद्धार्थनामकः श्रेष्ठी खरकनामा- वैद्यश्व उद्याने उपवने गत्वा कायोत्सर्गस्थितस्य प्रभोः = श्रीवीरस्वामिनः कर्णाभ्यां कर्णद्वयात् महस्या=अति कौशलवत्या युक्त्या ते=कर्णनिखाते शल्ये = कील के निस्सारयतः = बहिष्कुरुतः । यद्यपि कीलकोद्धरणे = कर्णविवरतः कीलकवहिष्करणे प्रभोः = श्रीवीरस्वामिनः दुःसहा कष्टेन सहनीया वेदना=पीडा संजाता, तथाऽपि भगवान् श्रीवीरस्वामौ चरमशरीरत्वेन = अनन्तबलत्वेन च ताम् उज्ज्वलाम् उत्कृष्टाम् तीव्राम् = उग्राम् घोरां=भयङ्कराम् कातरजनदुरध्यासाम् - कातरजनैः = अधीरपुरुषैः वेदनां सम्यक असत सोडवान् । ततः कीलकनिःसारणानन्तरं खलु सिद्धार्थनामा श्रेष्ठी वैद्यः = खरक औषधोपचारेण= कारण भगवान् अनुपम और दुस्सह वेदनाका अनुभव कर रहें हैं। खरक वैद्यने यह बात सिद्धार्थ सेठ से कही । भगवान भिक्षा ग्रहण करके उद्यान में चले गये ।
इधर सिद्धार्थ नामक सेठ और खरक वैद्य दोनों उद्यान में पहुँचे। भगवान कायोत्सर्ग में स्थित थे । उन्होंने अत्यन्त कुशलतापूर्ण युक्ति से भगवान के दोनों कानों में से ठोकी हुई वह कीलें निकालीं । यद्यपि दोनों कानों में से कीलें बाहर निकालने में भगवान् को अतीव दुस्सह व्यथा फिर भी चरमशरोरी अर्थात् तद्भवमोगामी होने तथा अनन्त बल से संपन्न होने के कारण भगवान् ने उस उत्कृष्ट, उग्र भयानक और अधीर पुरुषों द्वारा असह्य वेदना को भलीभाँति सहन कर लिया। सिद्धार्थं सेठ और खरक वैद्य औषधो
દેખનારને તે કાનના શણુગાર રૂપ લાગે! કાઇને પણ આ વેદનાનું સ્વરૂપ સમજાયું નહિ, ફક્ત આ એ જ પુણ્યશાળી પુરુષાને ભગવાનની વેદનાની પીડા સમજાઈ. આથી યુક્તિ-પ્રયુક્તિ વડે કાનમાંથી ખીલાઓને બહાર કાઢી નાખ્યા કાઢતી વખતે ભગવાનના મુખમાંથી નીકળેલી ચીસ એટલી વેદનાપૂર્વકની તીવ્ર હતી કે આસપાસનાં પ્રાણીઓ જી ઉઠયાં. લાકે ક્તિ એ પ્રમાણે હતી કે ભગવાને પાડેલી ચીસથી પાસેના પતમાં ચિરાડ પડી ગઇ. એવી પ્રબલ વેદના પ્રભુ તે સમયે ભાગવી રહ્યા હતા. સંયમી મુનિઓની શુશ્રુષા તીથ કર ગાત્ર ણુ મંધાવી આપે છે; પ્રખર સંચમી સુનિ હાય, સાધનામાં આતપ્રાત થયેલ ડૅાય, તેમની સેવા કરવાવાંળી વ્યક્તિ, ત્યાગ ભાવની ઇચ્છુક અને પોષક હોય તે જરૂર પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય બંધાય તે નિશ્ચિત વાત છે. આ અને પુણ્યાત્માએ યથા સમયે મરણ પામી, અચ્યુત નામના બારમાં દેવલાકમાં દેવપણે ઉત્પન થયા.
कल्प
मञ्जरी
टीका
अन्तिमो पसर्ग
वर्णनम् ।
॥०९७॥
॥२९९ ॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥३००॥
औषधप्रयेण तं - श्री वीरस्वामिनं नीरुजं निर्व्यथं कृत्वा स्व-निजं गृहम् अगच्छताम् = गतवन्तौ । तेन कुकृत्येन गोपालः कासरे मृत्त्रा सप्तकं नरकं गतः । श्रेष्ठी = सिद्वार्थः वैद्यः खरकथेमौ द्वौ कालावसरे कालं कृत्वा तेन शुभकर्मणा = पुण्यकर्मणा द्वादशे कल्पे = अच्युताख्ये देवलोके उपपन्नौ = देवत्वेनोत्पन्नौ ॥०९७||
मूलम् - तरणं से समणे भगवं महावीरे इरियासमिए, जात्र गुत्त बंभयारी, अममे, अचिणे, अकोहे, अमाणे, अमाए, अलोहे संते, पसंते, उबसंते, परिजिन्कुए, अगासवे, अग्गंथे, छिण्णग्गंथे, छिण्णसोए, निरुत्रलेवे, आयहि , आयाइए, आयजोइए, आयपरकमे, समाहिपत्ते, कंसपार्यत्रमुकतोए, संख इव निरंजणे, जीवो इव अपयगई, अचवित्र जायरूवे, आइरिसफलग मित्र पागडभावे, कुम्मोन गुतिदिए, पुकवरपत्तंत्र निश्वले वे, गगगमित्र निरालंबणे, अमिलोन निरालए, चंदोव सोमलेसे, सूरो इव दित्ततेए, सागरी इव गंभीरे, विहगो इव सव्जओ विप्मुके, मंदरो इव अप्पकंपे, सारयसलिलं सुद्धहियए, खग्गिविसामंत्र एगजाए, भारंडपक्खीव अप्पमते, कुंजरो इव सोंडीरे, वसभो इव जायत्थामे, सीठो इत्र दुद्धरिसे, वसुंधरेव सन्त्रकास सहे, मुहुयहुयासणो इव तेयसा जलते वासावासवज्जं अद्वसु गिम्ह हेमंतिए मासेमु गामे २ एगरायं णयरे २ पंचरायं वासीचंद कप्पे समलेहुकंचणे सममुहदुहे इह लोगपरलोग अपविद्वे अडिने संसारपारगामो कम्म णिग्वायगडाए अडिए विहरs, नत्थिणं तस्स भगवओ कत्थइ पडिवंधे । पचार से भगवान् महावीर को नीरोग करके अपने २ घर चले गये। इस पापकर्म के कारण वह गुवाल मृत्यु के अवसर पर मर कर सातवें नरक में गया। सेठ सिद्वार्थ और खरक वैद्य दोनों यथासमय शरीरत्याग कर उस पुण्य कर्म के उदय से बारहवें अच्युत नामक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए । मू० ९७॥
વેરના સ્વભાવ કરાળીયાની લાળ જેવા હોય છે. જેમ કરેાળીયાની લાળ બહાર નીકળતાં વધવા જ માંડે છે. અને તેના આરતારો આવતા નથી, અને તેમાં સપડાયેલ જીવજંતુ તેમાંથી કાઇ કાળે નીકળી શકતું નથી, તે પ્રમાણે વેરની પરંપરા વધતી જ રહે છે અને તે વૈરાનુ ધી કર્મો એક પછી એક બંધાતા અને ભગવાતા જાય છે. માટે વેરના બદલે વાળવાની ઇચ્છા ન રાખવી; પરંતુ તેની ક્ષમાપના કરતાં તે નિર્મૂળ અને નિર્જીવ થઈ જાય છે. બીજ ખળી ગયા પછી જેમ તેનમાંથી અકુર ફૂટતા નથી તેજ પ્રમાણે વેરનું ઉપશમ થતાં તે શમી જાય છે, માટે જે જે ભવમાં વેર ઉત્પન્ન થયાં હોય તે સવેČનું ઉપશમ માનવ ભરમાં વિવેક અને સમજણપૂર્ણાંક કરી નાખવું જોઇએ. અન્ય ભવામાં આવી સામગ્રી હોતી નથી, તેમ જ જીવને પણુ ક્ષયે પશમભાવ માનવભાવ જેટલા હોતા નથી. (સૂ૦૯૭)
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श्रीकल्प
मञ्जरी
टीका
अन्तिमोपसर्ग
वर्णनम् ।
॥ मू०९७॥
॥ ३००॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
एवं विहेगं विहारेणं विहरमाणस्स भगवओ अणुत्तरेण णाणेण अणुत्तरेण दसणेण अणुत्तरेण तवेण अणुत्तरेण
संजमेण अणुत्तरेण उट्ठाणेण अणुत्तरेण कम्मेण अणुत्तरेण बलेण अणुत्तरेण वीरिएणं, अणुत्तरेण पुरिसकारेण श्रीकरप
अणुत्तरेण परक्कमेण अणुत्तराए खंतीए अणुत्तराए मुत्तोए अणुत्तराए लेसाए अणुत्तरेण अज्जवेण अणुत्तरेण मद्दवेण
अणुत्तरेण लाघवेण अणुत्तरेण सच्चेग अणुत्तरेण झाणेग अणुत्तरेण अज्झवसाणेग अप्पाणं भावेमाणस्स बारसवासा ॥३०१॥ तेरस पक्खा वोइकता। तेरसमस्स वासस्स परियार वट्टमाणाणं जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे
वइसाह सुद्धे, तस्स णं वइसाह सुद्धस्स नवमी पक्खेणं जंभियाभिहस्स गामस्स बहिया उजुवालियाए णईए उत्तरकूले सामगामिहस्स गाहावइस्स खित्तम्मि सालरुक्खस्स मूले रतिं काउस्सग्गे ठिए । तत्थणं छउमत्थावस्थाए अंतिमराइयंमि भगवं इमे दस महामुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे । तं जहा
एगं च णं महं घोरदित्तस्वधरं तालपिसायं पराजियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध १। एवं एगं च णं महामुक्किल पकावगं पुंसकोइलं २, एगं च णं महं चित्तविचित्त पक्वगं पुंसकोइलं ३, एगं च णं महंदामयुगं सवरयणामयं ४, एगं च णं मई सेयं गोवग्गं ५, एगं च णं महं पउमरं सबओ समंता कुसुमियं ६, एगं च णं महं सागरं उम्मिवीइसहस्स कलियं भुयाहिं तिष्णं ७, एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं ८ एगं च पं महं हरिवेरुलियवनाभेणं नियगे. अंतेणं माणुसुत्तरं पन्चयं सयो समंता आवेढियपरिवेढियं ९ एगं च णं महं मंदरे पच्चए मंदरचूलियाए उरि सोहासणवरगयं अप्पाणं मुविणे पासित्तागं पडिबुद्धे १० ।।०९८।।
छाया--ततःखलु स श्रमणो भगवान महावीरः ईर्यासमितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी अममोऽकिञ्चनोऽक्रोधोऽमानो ऽमायोऽलोभः शान्तः प्रशान्तः उपशान्तः परिनिर्वतः अनासवः अग्रन्थः छिन्नग्रन्थः छिन्नस्रोता निरुपलेपः __ आत्मस्थितः आत्महितः आत्मज्योतिष्कः आत्मपराक्रमः समाधिप्राप्तः कांस्यपात्रमिव मुक्ततोयः, शङ्ख इव
मूल का अर्थ--'तएणं से' इत्यादि । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ईर्यासमिति से सम्पन्न, यावत् SED गुप्त ब्रह्मचारी, निर्मम, अकिंचन, क्रोधहीन, मानहीन, मायाहीन, शान्त, प्रशान्त, उपशान्त, परिनिर्वृत्त, आस्रव
रहित, छिन्नग्रन्थ छिन्नस्रात, निरुपलेप, आत्मस्थित, आत्महित, आत्मज्योतिष्क, आत्मपराक्रम, समाधिमाप्त, भूगना अय–'
तसे त्या-या समिति सपन, भाषा समिति मा ugu गुरथी सपन्न भने गुस प्रक्षयारी, निभ, मयिनी, Aatी, भमानी, अभायावी, निalel, aid, said, Guaid पानिवृत्तनिरासपी, અગ્રન્થી, છિન્નગ્રન્થી, છિન્નતી. નિલેપી, આત્મસ્થિત, આત્મહિતેષુ, આત્મપ્રકાશક,-આત્મવીર્યવાન, સમાષિપ્રાપ્ત
भगवतो विहार वर्णनम् । ॥म०९८४
॥३-१॥
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श्रीकल्पसूत्रे ।३०२॥
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निरञ्जनः, जीव इवाप्रतिहतगतिः, जात्यकनकमित्र जातरूपः, आदर्शफलकमिव प्रकटभावः कूर्मइव गुप्तेन्द्रियः, generates frovarः, गगनमित्र निरालम्बनः, अनिल इव निरालय:, चन्द्र इव सौम्यलेश्यः, सूर इव दीजा:, सागर इव गंम्भीरः, विहग इव सर्वतो विमुक्तः, मन्दर इत्र अकम्पः, शारदसलिलमित्र शुद्धहृदयः, खड्गविषाणमित्र एकजातः, भारण्डपक्षीव अप्रमत्तः, कुञ्जर इव शौण्डीरः, वृषभ इत्र जावस्थामा, सिंह इव दु:, वरे सर्वस्पर्शसः, सुहुतहुतारान इव तेजसा ज्वलन् वर्षावासवर्जुमष्टामु ग्रैष्म हेमन्तिकेषु मासेषु ग्रामे २ एकरा नगरे २ पञ्चरात्रं वासी चन्दनकलः समलोष्ट काञ्चनः सममुखदुःखः इव लोकपरलोकाप्रतिबद्धः अप्रतिज्ञः संसार पारगामी कर्मनिर्यातनार्थाय अभ्युत्थितो विहरति, नास्ति खलु तस्य भगवतः कुत्रचित् प्रतिबन्धः । कांसे के पात्र के समान स्नेह वर्जित, शंख के समान निरंजन, जीव के समान अव्याहत गति वाले, उत्तम स्वर्ण के समान देदीप्यमान, दर्पण के समान तथों को प्रकाशित करने वाले, कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय: कमल-पत्र के समान उपलेप-विहीन, आकाश के समान, निरवलम्बन, पवन के समान आलयविहीन, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्या वाले, सूर्य के समान देदीप्यमान तेज से युक्त, सागर की तरह गंभीर, पक्षी के समान सर्वतः विमुक्त, सुमेरु की तरह अकम्प, शरद ऋतु के जल के समान स्वच्छ हृदय, गैंडे के सींग के समान अद्वितीयजन्म लेनेवाले, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, गज के समान वीर, वृषभ के समान वीर्यवान्, सिंह के समान अजेय, पृथ्वी के समान समस्त स्पर्शी को सहने वाले, अच्छी तरह होमी हुई अग्नि के समान तेज से जाज्वल्यमान, वर्षाकाल के सिवाय ग्रीष्म और हेमन्त के आठ महीनों में ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक रहनेवाले, वासी चन्दन के समान, मिट्टी और स्वर्ण को समदृष्टि से देखनेवाले, सुख-दुःख में समान, इहलोक - परलोक में अनासक्त, अप्रतिज्ञ, संसार पारगामी और लिए पराक्रमशील होकर विचरते थे। भगवान् को कहीं भी प्रतिबन्ध नहीं था ।
कर्मों को नष्ट करने के
निःस्नेही, निरंजन, अव्याडुतगति, हेहीप्यमान, तत्त्वप्रकाश, गुप्तेन्द्रिय, निप्ति, निराबाजी, निरासयी, सौभ्योश्या तेन्स्वी, गंभीर, सर्वतो विप्रमुक्त, स्वछयो, अद्वितीयम, अप्रमत्त, वीर, निर्यवान्, अनेय, सर्वसह જાવવમાન, વર્ષાકાલ સિવાય ગ્રીષ્મ અને હેમતના આઠ મહીનામાં ગામમાં એક રાત્રિ અને નગરમાં પાંચ રાત્રિ સુધી રહેવાવાળા, વાસી ચંદન સમાન, માટી અને સેનાને સમાન દૃષ્ટિએ જોનાર, સુખદુઃખમાં સમાન, ઇહલેાક પરલેાકની આસકિત રહિત, અપ્રતિજ્ઞ, સસાર પરિગામી, પરાક્રમશીલ એવા ઉપરાંકત ગુણેાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, વિચરવા લાગ્યા. પ્રભુને કયાંય પણ પ્રતિબંધ હતા નહિ.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतो
बिहार
वर्णनम् ।
।। ०९८।।
॥३०२॥
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मा
રેવ
मञ्जरी
રૂ૦રૂll
टीका
एवंविधेन विहारेण विहरतो भगवतः अनुत्तरेण ज्ञानेन अनुत्तरेण दर्शनेन अनुत्तरेण तपसा अनुत्तरेण संयमेन अनुत्तरेण उत्थानेन अनुत्तरेग कर्मणा अनुत्तरेण बलेन अनुत्तरेण वीर्येण. अनुत्तरेण पुरुषकारेण अनुत्तरेण पराक्रमेण अनुत्तरया क्षान्त्या अनुत्तस्या मुक्त्या अनुत्तरया लेश्यया अनुत्तरेण आर्जवेन अनुत्तरेण मार्दवेन अनुत्तरेण लाघवेन अनुतरेण सत्येन अनुत्तरेण ध्यानेन अनुत्तरेग अध्यवसानेन आत्मानं भावयतो द्वादशवर्षाः त्रयोदशपक्षा व्यतिक्रान्ताः। त्रयोदशस्य वर्षस्य पर्याये वर्तमानानां यः स ग्रीष्मागां द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षः
इस प्रकार के विहार से विचरते हुए भगवान् को अनुत्तर (सर्वोत्तम) ज्ञान, अनुत्तर दर्शन, अनुत्तर तप, अनुत्तर संयम, अनुत्तर उत्थान, अनुत्तर क्रिया, अनुत्तर बल, अनुत्तर वीर्य, अनुत्तर पुरुषकार, अनुत्तर पराक्रम, अनुत्तर क्षमा, अनुत्तर निर्लोभता, अनुत्तर लेश्या, अनुत्तर आर्जव, अनुत्तर मार्दव, अनुत्तर लाघव, अनुत्तर सत्य, अनुत्तर ध्यान तथा अनुत्तर अध्यवसाय से आत्मा को भावित करते करते बारह वर्ष और तेरह पक्ष व्यतीत हो गये। भगवान् की दीक्षा के तेरहवें वर्ष के पर्याय में वर्तमान ग्रीष्म ऋतु का जो दूसरा मास
અહીં નિઃસ્નેહી આદિ શબ્દોને અર્થ કરવામાં આવે છે–
ભગવાન, કાંસાના પાત્ર સમાન સ્નેહવર્જિત હોવાથી, તેઓ નિઃસ્નેહી કહેવાયા. શખ સમાન મળ રહિત હેવાથી તેઓ નિરંજન કહેવાયા. જીવની સમાન હોવાથી અવાહનગતિ કહેવાયા. ઉત્તમ સુવર્ણ સમાન તેમની કાયા હોવાથી તેઓ દેદીપ્યમાન કહેવાયા. પણ સમાન તો ને પ્રકાશીત કરવાવાળા હોવાથી, તેઓ તત્વ પ્રકાશક કહેવાયા. કાચબાની સમાન ઇન્દ્રિયોને ગેપવાવાળા હોવાથી તેઓ ગુપ્તેન્દ્રિય કહેવાયા. કમલપત્રની માફક લેપ રહિત હોવાથી નિલિત કહેવાયા. આકાશ માફક આધાર–વિનાના હોવાથી, તેઓ નિરાવલંબી કહેવાયા. પવનની સમાન ઘરવગરના હેવાથી નિરાલયો કહેવાયા. ચંદ્રમા સમાન સૌમ્ય દેવાથી તેઓ સૌમ્યસ્થી ગાવા, સૂર્યના તેજ જેવું તેમનું તેજ હોવાથી તેઓ તેજસ્વી લેખાયાં. સાગર સમાન હોવાથી ગંભીર ગાયા, પક્ષી સમાન ગમે ત્યાં જઈ શકવવાળા હોવાથી તેઓ સર્વતે વિપ્રમુકત કંઈપણ જાતની રૂકાવટ-વગરના લેખાયા, સુમેરૂની સમાન નિશ્ચયમાં અડોલ હોવાથી અકંપ-મનાયા, શરદૂઋતુના જળ જેવા સ્વચ્છ હદયવાળા ગાતા, ગેંડાના શીંગડાતી સમાન અદ્વિતીય-એક જન્મ લેનાર કહેવાયા; ભાખંડપક્ષો સમાન જાગૃત હોવાના કારણે તેઓ અપ્રમત્ત ગણાયા, ગજ જેવા હેવાથી વીર’ કહેવાયાઃ વૃષભ સમાન હોવાથી વીર્યવાન-પરા મી-કહેવાયા, સિંહ સમાન જોરદાર હોવાથી અજેય ગણાયા; પૃથ્વો સમાન સર્વને ભાર ખમવાવાળા હોવાથી તે એ સર્વ સહ-સહનાવી મનાયા. ઘી હોમેલા અગ્નિ જેવા તેજસ્વી હોવાથી જાજવલયમાન ગણાયા; વર્ષાકાળ સિવાઘના શ્રીમ અને હેમંતના આઠ મહીનાઓમાં ગામમાં એક રાત્રિ અને નગરમાં પાંચ રાત્રિ
भगवतो विहार वर्णनम् । मू०९८॥
Il૩૦3.
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श्रीकल्प
कल्प मञ्जरी
सूत्रे
॥३०४॥
टीका
भगवतो दशमहा
वैशास्त्रशुद्धः, तस्य खलु वैशाखशुद्धस्य नवमीपक्षे खलु जृम्भिकाभिवस्य ग्रामस्य बो ऋजुपाळिकाया नया उत्तरकूले सामगाभिधस्य गाथापतेः क्षेत्र शालवृक्षस्य मृले रात्रि कायोत्सर्ग स्थित । तत खलु छद्मस्थावस्थाया अन्तिमर वे भगवान् इमान् दशमहास्वप्नान् दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। तद्यथा
एकंच खलु महान्तं घोरं दीप्तरूपधरं तालपिशाचं पराजितं स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धः १। एवमेकं च खलु महाशुक्लपक्षकं पुंस्कोकिलम् २, एकंच खलु महान्तं चित्रविचित्र पक्षकं पुंस्कोकिलम् ३। एकं च खलु और चौथा पक्ष-वैशाख शुक्ल पक्ष था, उस वैशाख शुक्ल पक्ष की नौवींके दिन भगवान् जूंभिक नामक ग्राम के बाहर, ऋजुपालिका नदी के उत्तर किनारे, सामग नामक गाथापति के खेत में,सालवृक्ष के नीचे, रात्रि में, कायोत्सर्ग में स्थित हुए। छद्मस्थ अवस्था की उस अन्तिम रात्रि में भगवान् यह दस महास्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुए। वे स्वम ये हैं
(१) एक महान् घोर दीप्त रूप धारी तालपिशाच को स्वप्न मे पराजित देखकर प्रतिबुद्ध हुए। (२) इसी प्रकार एक अत्यन्त सफेद पंवोवाले पुरुष जातीय कोकिल को देखकर प्रतिबुद्ध हुए। (३) एक विशाल સુધી રહેવાવાળા અપકારી ને ઉપકારી માનવાથી સુવાસિત ચંદન સમાન, માટી અને સેનાને સમાન દષ્ટિથી જોનાર, સુખદુઃખમાં સમાન, ઈહલોક પરલોકની આસકિત રહિત અપ્રતિ-કોઈપણ જાતની પ્રતિજ્ઞા વગરના, સંસારના પાગામી અને આકર્મોને નાશ કરવા માટે પરાક્રમશીલ કહેવાયા.
ઉપરના ગુણેથી વિરાજિત એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર કેવા કેવા અધ્યવસાયથી આત્માને ભાવિત કરતા હતા તે કહે છે કે, અનુત્તર-(સર્વોત્તમ) જ્ઞાન, અનુત્તર દર્શન, અનુત્તર તપ, અનુત્તર સંયમ, અનુત્તર ઉત્થાન, અનુત્તર ક્રિયા, અનુત્તર બળ, અનુત્તર વીય, અનુત્તર પુરુષકાર, અનુત્તર પરાક્રમ અનુત્તર ક્ષમા, અનુત્તર નિભતા, અનુત્તર વેશ્યા, અનુત્તર આજંવ, અનુત્તર માર્દવ, અનુત્તર લાઘવ, અનુત્તર સત્ય, અનુત્તર ધ્યાન અને અનુત્તર અથવસાયે વડે પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા હતા. આવી રીતે આત્માને ભાવિત કરતાં, કરતાંતેમને બાર વર્ષ અને તેર પખવાડીયાં પસાર થઈ ગયાં. દીક્ષા પર્યાયના તેરમા વર્ષે ગ્રીમ ત્રતુને બીજે માસ અને ચેાથું અવાડિયું એટલે વૈશાખ સુદ નવમીને દિવસ ચાલતા હતા. જંભિક નામના ગામની બહાર, અજુ પાલિકા નદીના ઉત્તર કિનારે, સામગ નામના ગાથા પતિના ક્ષેત્ર મધ્યે, સાલ વૃક્ષની નીચે, રાત્રીના સમયે કાર્યોત્સર્ગમાં તેઓ સ્થિત થયા. આ છદ્મસ્થ અવસ્થાની છેલ્લી રાત્રી હતી. આ રાત્રીના સમયે, ભગવાને દશ મહાસ્વપ્ન જોયાં, અને જોતાની સાથે તેઓ પ્રતિબુદ્ધ થયા. તે સ્વપ્ન આ પ્રમાણે હતાં–
સ્વપ્નનું જ્ઞાન-(૧) એક મહાન અઘરી દીસરૂપધારી તાલપિશાચને સ્વપ્નમાં પિતે હરાવ્યું છે એમ ભગવાને
वर्णनम् । ॥सू०९८१
॥३०॥
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म
श्रीकल्प
सूत्रे ॥३०५॥
मञ्जरी टीका
महद् दामद्विकं सर्वरत्नमयम् ४, एकं च खलु महान्तं श्वेतं गोवर्गम् ५, एकं च खलु महत् पद्मसरः सर्वतः समन्तात् कुसुमितम् ६, एकं च खलु महान्तं सागरम् ऊर्मिवीचिसहस्रकलितं भुजाभ्यां तीर्णम् ७, एकं च खलु महान्तं दिनकरं तेजसा ज्वलन्तम् ८, एकं च खलु महान्तं हग्वैिडूर्यवर्णाभेन निजकेन अन्त्रग मानुषोत्तरं पर्वतं सर्वतः समन्ताद आवेष्टितपरिवेष्टितम् ९, एकं च खलु महान्तं मन्दरे पर्वते. मन्दरचूलीकाया उपरि सिंहासन वरगतमात्मानं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । मू०९८॥
टीका-'तएणं से समणे' इत्यादि । ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः ईर्ष्यासमित: इर्यासमिति-समन्वितः-यतनया गमनेन प्राणिगणं रक्षन्-' यावत्'-पदेन भाषासमितः, एषणासमितः, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितः, उच्चार प्रस्रवणश्लेष्मशिकाणजल्लपरिष्ठापनिकासमितः, मनोगुप्तः, बचोगुप्तः कायगुप्तः, चित्र-विचित्र पंखेवाले पुरुष-कोकिल को देखा। (४) एक महान् सर्व रत्नमय माला-युगल देवा। (५) एक विशाल श्वेत गोवर्ग देखा। (६) सब तरफ से पुष्पित एक पद्म-युक्त विशाल सरोवर देखा। (७) एक हजारों तरंगों से युक्त, महान् समुद्र को अपनी भुजाओं से पार किया देखा। (८) एक महान् तेज से जाज्वल्यमान सूर्य को देखा। (९) पिंगलवर्ण की हरि मणि और नीलवर्ण की नीलम मणि की आभा के समान कान्तिवाली अपनी आंत से महान् मानुषोत्तर पर्वत को सब और से वेष्टित और परिवेष्टित देखा । (१०) मेरु पर्वत पर मन्दरचूलिका के उपर अपने आप को एक श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा देखा। स्वप्न देखकर भगवान जागृत हुए ।।०९८॥ ____टीका का अर्थ-उस समय भगवान महावीर ईर्या समिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभाण्ड- मात्रनिक्षेपणा समिति, उच्चारप्रस्रवणश्लेष्मशिंगाणजल्लपरिष्ठापनिकासमिति से युक्त थे, तथा मनोगुति, वचनगुप्ति જોયું. (૨) એક અંત્યંત સફેદ પાંખવાળ પુરુષ જાતિના કેફિલને જે. (૩) એક વિશાળ ચિત્ર-વિચિત્ર પાંખેવાળા નર-કોકિલને તેમણે જોયે. (૪) એક સુવર્ણમય અને રત્નમય માળાની જોડી જોઈ. (૫) એક વિશાળ સફેદ વર્ણવાળું ગાયોનું ધણ દેખ્યું. (૫) ચારે તરફ પુષ્પથી ભરેલું એક વિશાલ પદ્મ સરવર દેખ્યું. (૭) હારે મજાવાલા મહાન સમુદ્રને પિતે ભુજાઓથી તરી ગયા હોય તેવું સ્વપ્ન તેમણે જો યું. (૮) મહાન તેજસ્વી સૂર્યને જોયે. (૯) પીળા રંગના અને લીલા રંગના નીલમ મણિઓની કાંતિની સમાન કાંતિવાળા આંતરડાથી મહાત્ “માનુષત્તર પર્વત ને ચારે બાજુથી વિંટળાએલ જે. (૧૦) મેરૂ પર્વત ઉપરના “મંદારભૂલીકા” નામના શિખર ઉપર એક ઉત્તમ સિંહાસનની ઉપર પોતે બેઠેલા જોયા. આ પ્રમાણે દેખતાંની સાથેજ ભગવાન જાગૃત થયા વસૂ૦૯૮
ટકાને અર્થ– તે સમયે ભગવાન મહાવીર ઈર્યાસમિતિ, ભાષાસમિતિ, એષણ સમિતિ, આદાનભાંડ માત્ર નિષણા સમિતિ, ઉચ્ચાર પ્રશ્રવણ શ્લેષ્મસિંધાજલ રિઝાપત્રિકા સ-તિથી યુક્ત હતા તથા મને ગુણિ, અને વચગુપ્તિ,
भगवतो भी दशविध
महास्वाम
वर्णनम्। ०९८॥
॥३०५॥
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श्री कल्प. सूत्रे ॥ ३०६ ॥
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寶道
गुप्तः, गुप्तेन्द्रियः” इत्येषां संग्रहः, तत्र 'भाषासमितः भाषासमितियुक्तः- भाषासमितिश्व - निरवद्यवचनप्रवृत्तिः, तया युक्तः, एषणासमितः - एषणायाम् = अशनादिगवेषणायाम् उद्गमादि द्विचत्वारिंशद्देोषवर्जनेन समितः = समितियुक्तः, आदानभाण्डमात्र निक्षेपणास मितः - आदाने = भाण्डमात्रयोर्ग्रहणे भाण्डमात्र यो : - भाण्डस्य = पात्रस्य मात्रस्य = वस्त्रादिरूपस्योपकरणस्य च, यद्वा - भाण्डामत्रयोः - भाण्डस्य वखाद्युपकरणस्य अमत्रस्य = पात्रस्य चेत्युभयोः निक्षेपणायाम् - अवस्थापनायां समितः = प्रतिलेखन दिपूर्वक प्रवृत्तियुक्तः, उच्चारप्रस्रवणश्लेष्मशिङ्खाण जलपरिष्ठापनिकासमितः- तत्र - उच्चारः - पुरीषं, प्रस्रवणं-मूत्रं, श्लेष्मा=कफः, शिङ्खाणं नासिकामलं, जल्लः - प्रस्वेदमलम्, एतेषां परिष्ठापनिकायां = परित्यागे समितः =स्थण्डिलादि दोषपरिहारपूर्वक प्रवृत्तियुक्तः, मनोगुप्तः – मनोगुप्तिस्त्रिविधा - तंत्र प्रथमा सा- आईरौद्रध्यानानुबन्धि कल्पना जाल वियोगरूपान्, द्वितीयामनोगुप्तिश्र - शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिनी और काय गुप्ति से सम्पन्न थे, गुप्त थे और गुप्तेन्द्रिय थे । प्राणियों की रक्षा करते हुए यतनापूर्वक चलना
समिति है। निर्दोषवचनों का प्रयोग करना भाषासमिति है । एषणा में अर्थात् - आहार आदि की गवेषणा में उद्गम आदि ४२ बयालीस ) दोषों का वर्जन करना एवणासमिति है । भांड - पात्र तथा मात्र वख आदि उपकरणों के ग्रहण करने और रखने में अथवा भाण्ड और वस्त्र आदि उपकरणों के तथा अमत्र अर्थात् पात्र के आदान-निक्षेप में यतना करना अर्थात् प्रतिलेखनादि पूर्वक प्रवृत्ति करना आदानभाण्डमात्रनिपेक्षणासमिति है । उच्चार - मल, पण मूत्र, श्लेष्म- कफ, शिघाण-रेंट, जल-पसीने का मैल, इन सब के परिष्ठापन - परठने में यतना करने को उच्चारपत्र गश्लेष्मर्शियाग जल्ल परिष्ठापनिकासमिति कहते हैं । भगवान् मनोगुप्ति से युक्त थे । मनोगुप्ति तीन प्रकार की है- (१) आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान संबंधी कल्पनाओं का अभाव होना । (२) शास्त्र के
અને કાયગુપ્તિથી સ ંપન્ન હતા, ગુપ્ત હતા અને ગુપ્તેન્દ્રિય હતા. પ્રાણીઓની રક્ષા કરતાં યતના પૂર્વક ચાલવું તે ઇર્યાસમિતિ છે, નિર્દોષ વચનાના પ્રયાગ કરવા તે ભાષાસિમિત છે, એષણામાં એટલે કે આહાર આદિની ગવેષણામાં ઉદ્ગમ સ્થાક્રિ ૪ર દોષાના ત્યાગ કરવા તે એષા સમિતિ છે. ભાંડ-પાત્ર તથા માત્ર-વસ્ત્ર આદિ ઉપકરણેાને ગ્રહણ કરવામાં તથા રાખવામાં અથવા ભાંડ કે વસ્ત્ર આદિ ઉપકરણ તથા અમત્ર એટલે કે પાત્રના આદાન-નિક્ષેપમાં યતના કરવી એટલે કે પ્રતિલેખન અને પ્રમાન કરીને પ્રવૃત્તિ કરવી તે આદાન-ભાંડ માત્ર નિક્ષેપણા સમિતિ છે. ઉચ્ચાર મળ પ્રસ્રવણુ -મૂત્ર, શ્લેષ્મ-કફ, શિ ́ઘાણુ-(લીંટ) જલ-પરસેવાના મેલ, છે બધાના પરિષ્ઠાપન પરડવામાં યુતના કરવી તેને ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણુ શ્લેષ્મશિ ધાણજલ્લ–પરિષ્ઠાપનિકા સમિતિ કહે છે. ભગવાન મનાગુતિવાળા હતા. મનેાગુપ્તિ ત્રણ પ્રકારની છે–(૧)આત ધ્યાન સબંધી કલ્પનાઓના અભાવ હાવા. (૨) શાસ્ત્રને અનુકૂળ, પરલેાકને સાધનારી ધર્મધ્યાનને
कल्प
मञ्जरी
टीका
ईर्यादि पंचसमिति लक्षण
वर्णनम् ।
।। सू०९८।।
॥३०६ ॥
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श्रीकल्प
१३०७॥
र धर्मध्यानानुबन्धिनी माध्यस्थ्यपरिणतिः २, तृतीया च सा सकलमनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधावस्थाभाविनी आत्मरमणरूपा। उक्तंच योगश खे
"विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।
आत्मारामं मनस्तज्ज्ञै मनोगुप्ति रुदाहृता ॥१॥इति । तया मनोगुप्त्या युक्तः। बचोगुप्त:-चनगुप्तियुक्तः। तत्र वचनगुप्तिश्चतुर्विधा,
उक्तंच-"सच्चा तहेव मोसा-य, सच्चा मोसा तहेच य।
चउत्थी असच मोसा उ, वयगुत्ती चउबिहा॥१॥” (उत्त. २४ अ.) छाया-"सत्या तथैव मृषा च, सत्यामृषा तथैव च।
चतुर्थ्यसत्यामृषा तु, वचोगुप्तिश्चतुर्विधा ॥१॥इति । अनुकूल, परलोक को साधनेवाली, धर्मध्यान के अनुकूल मध्यस्थभाव रूप परिणति, (३) समस्त मानसिक वृत्तियों के निरोध से, योगनिरोध की अवस्था में उत्पन्न होनेवाली आत्मरमणरूप प्रवृत्ति । योगशास्त्र में कहा है
"विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।
. आत्मारामं मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता" ॥१॥ इति। कल्पनाओं के जाल से सर्वथा मुक्त, समत्व मे मुमतिष्ठित और आत्मारूपी उद्यान में रमग करनेवाला मन ही मनोगुप्ति है। ऐसा गुप्ति के ज्ञाताओने कहा है ॥ १॥
भगवान् वचनगुप्ति से भी युक्त थे। वचनगुप्तिचार प्रकार की है। कहा भी हैઅનુકૂળ મધ્યસ્થભાવરૂપ પરિણતિ (૩) સઘળી માનસિક વૃત્તિઓના નિરધથી યે નિધ અવસ્થામાં ઉત્પન્ન થનારી આમરમરૂપ પ્રવૃત્તિ. ગશાસ્ત્રમાં કહ્યું છે
विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।
आत्मारामं मनस्तज्ज्ञे, मनोगुप्तिरुदाहृता ॥ १ ॥ इति । કપનાઓની જાળથી સર્વથા મુક્ત, સમત્વમાં સુપ્રતિષ્ઠિત અને આત્મામાં રમણ કરનાર મન જ, મને ગુપ્તિ છે, એવું મને ગુપ્તિના જાણકારએ કહેલ છે. ના
ભગવાન વચનગુપ્તિવાળા પણ હતા. વચન ગુણિ ચાર પ્રકારની છે, કહ્યું પણ છે—
मनोगुप्ति
लक्षण वर्णनम् ।
॥३०७॥
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श्रीकल्पसूत्रे ||३०८||
अयमर्थः--त्रत्रगुप्तिः=चचनगुप्तिश्चतुर्विधा-सत्या, मृषा, सत्यामृषा, असत्यामृषाचेति । अयं भावः - जीवं-प्रति'अयं जीवः' इति कथनं सत्यवचनम् १, जीवं प्रति- 'अयमजीवः' इति कथनं मृषावचनम् २, 'अद्यास्मिन नगरे 'शतं बालका जाता:' इति पूर्वमनिर्णीय कथनं सत्यामृषावचनम् ३, ' ग्रामः समागतः' इति कथनं न सत्यं नापि मृषेति, असत्यामृषावचनम् ४, इति चतुर्विध वचनयोगनिवृत्तिर्वचोगुप्तिरिति । एवं चतुर्विधवचोगुप्ति युक्तः । यद्वा-कुशलानां वचसाम् उदीरणम् अकुशलानां च निवत्तनं वचोगुप्तिः, तया युक्त इति । कायगुप्तियुक्तः । तत्र सच्चा तहेव मोसा य, सच्चा मोसा तहेव य ।
44
Con
चउत्थी असच मोसा उ, वयगुत्ती चउन्विहा " ॥ १ " इति ।
(१) सत्यवचनगुप्त ( २ ) मृवाचनगुप्ति (३) सत्यामृषावचनगुप्ति और (2) चौथा असत्यामृषावचनगुप्ति, इस प्रकार वचनगुप्ति चार प्रकार की है ।। १ ॥
इसका अभिप्राय यह है - वचन चार प्रकारका है, जैसे -- जीव को 'यह जीव है' ऐसा कहना सत्यवचन है । जीव को 'यह अजीव है' ऐसा कहना मृषावचन है । 'आज इस नगर में सौ बालकजन्मे ' इस प्रकार पहले निर्णय किये बिना ही कहना सत्यामृवावचन है। 'गाँव आ गया' इस प्रकार का कहना न सत्य है, न मृषा (असत्य) है, इस लिये यह असत्यामृवावचन व्यवहारभाषा है। इन चारों प्रकार के वचन योग के त्याग को वचनगुप्ति हैं। कहते अथवा - प्रशस्त वचनों का प्रयोग करना और अप्रशस्तवचनों का त्याग करना वचनगुप्ति हैं । भगवान् इस वचनगुप्ति से युक्त थे ।
" सच्चा तत्र मासा व art असच मोसा उ,
३) सत्या वयन गुप्ति (२) भृषा वयन गुप्ति (3) सत्याभृषा वयन गुप्ति अने (४) असत्याभृषावयन गुप्ति, આ પ્રમાણે વચનગુપ્તિ ચાર પ્રકારની છે. (૧) તેના ભાવાય આ છે. વચન ચાર પ્રકારનાં છે, જેમકે-જીવને “આ જીવ છે.” એમ કહેવુ' તે સત્ય વચન છે. જીવને “આ જીવ છે” એમ કહેવું તે મૃષાવચન છે. ‘આજે આ નગરમાં સેા બાળકો જન્મ્યાં” આ પ્રમાણે પહેલાં નિર્ણય કર્યા પિના કહેવું તે સત્ય!ષા વચન છે. ગામ આવી ગયું” આ પ્રમાણે કહેવું તે સત્ય પશુ નથી અને મૃષા (અસત્ય) પણ નથી. તેથી તે અસત્યામૃષા વચન છે. એ ચારે પ્રકારનાં વચન મેગના ત્યાગને વચન ગુપ્તિ એટલે કે મૌન કહે છે. અથવા પ્રશસ્ત વચનેાના પ્રયોગ કરવા અને Jain Education on अप्रशस्त पथनानो त्याग उवो ते वचन शुसि छे. भगवान या प्रथनशुसिवाणा ता.
सच्चा मोसा तदेव य ।
वयगुनी चउव्विहा" | १|| इति ।
□□寳寳寳
कल्प
मञ्जरी
टीका
वचोगुप्ति
लक्षण वर्णनम् ।
||०९८॥
॥३०८॥
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श्री कल्पसूत्रे
॥ ३०९ ॥
PARALLELE
काय गुप्ति - द्विधा चेष्टानिवृत्ति रूपा १, यथाऽऽगमंचेष्टानियमरूपा च २ । तत्र परीषहोपसर्गादि सम्भवेऽपि यत् कायोत्सर्ग करणादिना कायस्य निश्चलताकरणम्, सर्वयोगनिरोधावस्थायां वा सर्वथा यत् कायचेष्टानिरोधनं सा प्रथमा १ । गुरुमापृच्छय शरीरसंस्तारकभूम्यादि प्रतिलेखना - प्रमार्जनादिसमयोक्त- क्रियाकलापपुरस्सरं शयनासनादि विधेयम्, ततः शयनासननिक्षेपाऽऽदानादिषु स्वेच्छया चेष्टापरिहारेण नियता = शास्त्रनियमानुसारिणी या कायचेष्टा सा द्वितीयेति उक्तंच-
"उपसर्गप्रसंङ्गेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य, काय गुप्तिर्निगद्यते |१|
भगवान् कायगुप्ति से युक्त थे । कायगुप्ति दो प्रकार की है- ( १ ) कायिक चेष्टाओं को त्याग देना और (२) चेष्टाओं का आगम के अनुसार नियमन करना । इन में परिषह उपसर्ग आदि उत्पन्न होने पर कायोत्सर्गक्रिया आदि के द्वारा शरीर को अचल कर लेना अथवा योग मात्र का निरोध हो जानेकी अवस्था में पूर्ण रूप से कायिक चेष्टा का रुक जाना प्रथम कायगुप्ति है । गुरु से आज्ञा लेकर शरीर, संथारा, भूमि आदि की प्रतिलेखना तथा प्रमार्जना आदि शास्त्रोक्त क्रियाएँ करके ही शयन आसन आदि करना चाहिए । अतः शयन, आसन, निक्षेप और आदान आदि क्रियाओं में स्वेच्छापूर्वक चेष्टाओं का परित्याग करके शाखानुसार काय की चेष्टा होना दूसरी कायगुप्ति है। कहा भी है
“ उपसर्गप्रसङ्गेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य, काय गुप्तिर्निगद्यते ॥ १ ॥
ભગવાન કાયગુપ્તિવાળા પણુ હતા. કાયગુપ્તિ બે પ્રકારની છે-(૧) કાયિક ચેષ્ટાઓના ત્યાગ કરવા અને (૨) ચેષ્ટ એનું આગમ પ્રમાણે નિયમન તેમાં પરીષદ્ધક ઉપસ આદિ ઉત્પન્ન થતાં કાત્સગ-ક્રિયા આદિ વડે શરીરને અચળ કરી લેવું અથવા યાગ માત્રનો નિરોધ થઇ જવાની અવસ્થામાં પૂર્ણરૂપે કાયિક ચેષ્ટનું અટકી જવું તે પહેલી કાયગુપ્તિ છે. ગુરુની આજ્ઞા લઈને શરીર, સથારે, ભૂમિ આદિની પ્રતિલેખના તથા પ્રમાના આદિ શાસ્ત્રોક્ત ક્રિયાઓ કરીને જ શયન આસન આદિ કરવુ જોઇએ. તેથી શયન, આસન, નિક્ષેપ, અને આદાન આદિ ક્રિયાઓમાં સ્વેચ્છાપૂર્વક ચેષ્ટાઓના પરિત્યાગ કરીને શસ્રાનુસાર કાયની ચેષ્ટા હોવી તે બીજી કાયગુપ્તિ છે. કહ્યુ પણ છે— "उपसर्ग प्रसंगेपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निगद्यते ॥१॥
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獎
कल्प
मञ्जरी
टीका
कायगुप्ति लक्षण
वर्णनम् ।
॥मू०९८॥
॥३०९॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥३१०॥
शयनाssसन निक्षेपा, -ऽऽदानसंक्रमणेषु च ।
स्थानेषु चेष्टा नियमः, कायगुप्तिस्तु सा परा ॥२॥ इति ।
भगवतो गुरोरभावाद् द्वितीया कायगुप्तिर्गुरुमनापृच्छयैव बोध्याः । एवं द्विविधकायगुप्तियुक्तः । अत एव-गुप्तः= मनोवचः कायगुप्तियुक्तः । नथा-गुप्तेन्द्रियः =स्व स्व विषयतो निगृहीतेन्द्रियः = वशीकृतेन्द्रिय इत्यर्थः । इति यावत्पदसंग्रहीत विवरणम् । तथा गुप्तब्रह्मचारी - गुप्तः रक्षितः - ब्रह्मचारः = यावज्जीवनं मैथुनविरमणलक्षण:-ब्रह्मणः = ब्रह्मचर्यस्य चतुर्थव्रतस्य चार:= अनुष्ठानं सेवनम् अस्यास्तीति गुप्तब्रह्मचारी - यावज्जीवमैथुननिवृत्ति इति भावः । शयनासननिक्षेपाऽऽदान संक्रमणेषु च स्थानेषु चेष्टानियमः, कायगुप्तिस्तु सा परा उपसर्ग का प्रसंग होने पर भी कायोत्सर्ग को सेवन करने वाले मुनि के शरीर का स्थिर होना प्रथम कायगुप्ति कहलाती है ॥ १ ॥
" || 2 ||
MAMATARA
Jain Education Insional
कल्प
मञ्जरी
ठीका
शयन, आसन, निक्षेप ( किसी वस्तु को रखना ), आदान ( ग्रहण करना) तथा संक्रमण ( इधर-उधर करना) आदि स्थानों में चेष्टा का नियम होना दूसरी कायगुप्ति है ॥ २ ॥
भगवान के गुरु का अभाव था, अत एव उनकी कायगुप्ति गुरु को विना पूछे ही जान लेनी चाहीए । इस प्रकार वे दोनों प्रकार की कायगुप्ति से युक्त थे । इन तीनों गुप्तियों से युक्त होने के कारण वे गुप्त थे । तथा गुप्तेन्द्रिय थे - विषयों में प्रवृत्त होनेवाली इन्द्रियों का निरोध कर चूके थे ।
भगवान् गुप्त ब्रह्मचारी थे । अर्थात् यावज्जीवन मैथुनस्थागरूप चौथे ब्रह्मचर्य महाव्रत का अनुष्ठान करनेवाले थे । शयनासननिक्षेषाऽऽदान संक्रमणेषु च
स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा " ॥२॥
ઉપસના પ્રસ’ગે પણ કાર્યાત્સ'નુ' સેવન કરનાર મુનિના શરીરનુ સ્થિર હેવુ તે પહેલી કાયઝુમિ કહેવાય છે. ૫૧૫ शयन, आसन, निक्षेष (६) वस्तुने राजवी), महान (श्रड १२५), तथा सभा (याम तेम ४२) माहि સ્થાનેામાં ચેષ્ટાનું નિયમન હોવું તે બીજી કાયગુપ્તિ છે. ભગવાનને ગુરુ ન હતા તેથી તેમની કાયગુપ્તિ ગુરુને પૂછ્યા ॥३१०॥ વિનાની સમજી લેવી જોઇએ. આ રીતે તે બન્ને પ્રકારની કાયગુપ્તિવાળા હતા. એ ત્રણે ગુપ્તિવાળા હેાવાથી તેઓ ગુપ્ત હતા. તથા શુસેન્દ્રિય હતા. વિષયામાં પ્રવૃત્ત થનારી ઇન્દ્રિયાને નિરોધ કરી ચૂકયા હતા. ભગવાન ગુપ્ત બ્રહ્મચારી હતા. એટલે કે આજીવન મૈથુન ત્યાગરૂપ ચાથા બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું અનુષ્ઠાન કરનાર હતા. તથા મમતા
काय गुप्ति
लक्षण
वर्णनम् ।
॥सू० ९८५
ww.
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श्री कल्प
सूत्र ॥३११ ॥
तथा - अममः =ममतारहितः, अर्किश्चनः = निष्किञ्चनः, अक्रोधः = क्रोधरहितः, तथा - अमानः = मानरहितः, अमायः= मायावर्जितः, अलोभः=निर्लोभः तथा - शान्तः = अन्तर्वृर्त्या, प्रशान्तः - बहिर्वृत्या, उपशान्तः - उभयवृत्या, परिनिर्वृतः = सर्वसन्तापरहितः, अनास्रवः = आस्रववर्जितः, अग्रन्थः = वाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहितः, छिन्नग्रन्थः = परित्यक्तद्रव्यभावग्रन्थः, छिन्नस्रोताः=विनाशितास्रत्र कारणः, निरुपलेपः = द्रव्यभावमलवर्जितः, तथा-आत्मस्थितः =आत्मनि स्थितः - आत्मनिष्ठः, यद्वा-‘आयट्ठिए' इत्यस्य ‘आत्मर्थिकः' इतिच्छाया, तत्पक्षे - आत्मैवार्थः- प्रयोजनम् आत्मार्थः, सोऽस्त्यस्येत्यात्मार्थिकः, यद्वा-आत्मानमर्थयतीति आत्मार्थी स एवाऽऽत्मार्थिक:- आत्माभिलाषी = आत्मकल्याणोत्सुकः, तथा आत्महितः = षड्जीवनिकाय परिपालकः, तथा-आत्मज्योतिष्कः - आत्मैवज्योतिः - आलोको यस्य स आत्मज्योतिष्कः, यद्वा- 'आयजोइए' इत्यस्य ‘आत्मयोगिकः' इतिच्छाया, तत्पक्षे-आत्मनो योगाः - मनोत्राकायविषययोगाः सन्त्यस्य स आत्मयोगिकः= वशीकृतवाङ्मनः काययोग इत्यर्थः । तथा - आत्मपराक्रमः = आत्मबलशाली । तथा-समाधिप्राप्तः सम्यमेोक्षमार्गातथा - ममता से रहित थे। अकिंचन थे, क्रोध मान माया और लोभ से रहित थे । अन्तर्वृत्ति से शान्त थे, बाहर से प्रशान्त थे, और भीतर बाहर से उपशान्त थे । सब प्रकार के सन्ताप से रहित थे । आस्रव से रहित थे । बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित थे । द्रव्य-भाव ग्रन्थ ( परिग्रह ) के त्यागी थे । आस्रव के कारणों को नष्ट कर चुके थे । द्रव्य और भावमल से वर्जित थे । आत्मनिष्ठ थे । अथवा 'आयट्ठिए' की 'आत्मार्थिक' ऐसी छाया होती है। इसका अर्थ है - आत्मार्थी, आत्म कल्याण के इच्छुक, भगवान् आत्महित-षड्जीवनिकाय के परिपालक थे। आयजोइए - आत्मज्योतिवाले थे, अथवा आत्मयोगिक अर्थात् मन वचन तथा काययोग को वश में करनेवाले थे । आत्मबल से सम्पन्न थे । समाधि - मोक्षमार्ग में स्थित थे । વિનાના હતા, અકિંચન હતા ક્રોધ, માન, માયા અને લેાલથી રહિત હતા. માન્તવૃત્તિથી શાંત હતા, બહારથી પ્રશાંત હતા અને અંદર તથા બહારથી ઉપશાંત હતા. બધા પ્રકારના સંતાપથી રહિત હતા. આસ્રવથી रडित इता. बाह्य भने आल्यन्तर अन्थिथी रहित हता. द्रव्य-भाव ग्रन्थ (परियड) ना त्यागी हुता. भावना अरशोनो नाथ पुरी यूभ्या हुता. द्रव्य भने लाब भजथी रहित हता. आत्मनिष्ठ ता. अथवा “आयट्ठिए" नी “मात्मार्थिछु” शेवी छाया होय छे. तेनो अर्थ छे-भात्भार्थी, आत्मालिसाषी, भेटखे हैं- भुभुक्षु इता. भगवान आरू द्वित छवनिभायना परिपाक्ष हुता. आयजोइए - आत्मन्यातिवाजा अथवा आत्मयोगीक भेट भन, वन तथा કાયયેાગને વશ કરનાર હતા. આત્મબળથી સ ંપન્ન હતા. સમાધિ-મે ક્ષમામાં સ્થિત હતા. કાંસાંનાં પાત્રની જેમ
मञ्जरी
टीका
भगवदवस्था
वर्णनम् ।
॥सू०९८॥
॥३११॥
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मञ्जरी
टीका
भगवद
वस्थितः, तथा-कांस्यपात्रमिव-कांस्यपात्रवत् मुक्ततोयः स्नेहवर्जितः, शङ्खइय=शङ्खवत् निरञ्जनः निर्मलः, तथा जीवइव-जीववत् अप्रतिहतगतिः अकुण्ठितगतिः, जात्यकनकमिव-उत्तमसुवर्णवत् जातरूपः-मुरूपसम्पन्नः, आदर्श
फलकमिव दर्पण फलकवत् प्रकटभाव: प्रकाशितजोवाजोवादि सकलपदार्थः, कूर्मइव कच्छपवत् गुप्तेन्द्रिय श्रीकल्प.
वशीकृतेन्द्रियः, पुष्करपत्रमिव कमलपत्रवत् , निरुपलेपः स्वजनाद्यभिष्वङ्गरहितः, गगनमिव आकाशवत् , निरालसूत्रे
म्बना कुलग्रामनगराधालम्बनवर्जितः। अनिल इववायुवत् निरालया-निर्गुहः, चन्द्र इव-चन्द्रवत् सौम्यलेश्या अनु॥३१२॥
पतापहेतुमनः परिणामधारकः, मूर इव-मूर्यवत् दीप्ततेजाः द्रव्यतः शरीरदीप्त्या भावतो ज्ञानेन देदीप्यमानः, सागर इ-समुद्रवत् गम्भीर: हर्षशोकादि कारणसंयोगेऽपि निर्विकारचित्तः, विहग इव-पक्षिवत् सर्वतो विप्रमुक्तः निर्बन्धनः, मन्दर इव=मन्दरपर्वतवत् अप्रकम्पः परोषहोपसर्गपवनरचलित;, शारदजलमित्र-शरदृतुजलवत् कांसे के पात्र के समान स्नेह (राग) से रहित थे। शंख के समान निर्मल थे। जीव के समान अठितअबाध गतिवाले थे। उत्तम स्वर्ण के समान सुन्दर रूप थे। दर्पण-फलक के समान जीव-अनीव समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले थे। कछुवे के समान इन्द्रियों को वष करनेवाले थे। कमल के पत्ते के समान स्वजन आदि को आसक्ति से रहित थे। आकाश के समान कुल, ग्राम, नगर आदिका आलंबन नहीं लेते थे। पवन के समान घर रहित थे । चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यावाले अर्थात् क्रोधादिजन्यसन्तापसे रहित मानसिक परिणाम के धारक थे। सर्य के समान दीप्ततेज थे। अर्थात् द्रव्य से शारीरिक दीप्ति से और भाव से ज्ञान से देदीप्यमान थे। सागर के ममान गंभीर थे। हर्ष-शोक आदि के कारणों का संयोग होने पर भी विकार-विहीन चित्तवाले थे। पक्षीके समान सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त थे। मेरु शैल के समान परोषह और उपसर्ग रूपी पवन से चलायमान नहीं होते थे। शरदऋतु के जल के समान निर्मल चित्त थे। નેહ (રાગ વિનાના હતા. શંખના જેવા નિર્મળ હતા. જીવના જેવાં અકુંતિ અબાધ ગતિવાળા હતા. ઉત્તમ સુવર્ણ જેવા સુંદર રૂપવાળા હતા. દર્પણની જેમ જીવ- અજીવ આદિ સમસ્ત પદાર્થોને પ્રકાશિત કરનાર હતા. કાચબાની જેમ પોતાની ઇન્દ્રિયને ગે પાવનાર-વશ કરનાર હતા. કમળનાં પાનની જેમ સ્વજન આદિની આસક્તિ વિનાના હતા આકાશની જેમ કુળ, ગામ, નગર આદિનું અવલંબન લેતાં નહીં. પવનની જેમ ગૃહ વિનાના હતા. ચન્દ્રમાની જેમ સૌમ્ય વેશ્યાવાળા એટલે કે કોધાદિજન્ય સંતાપથી ડિત માનસિક પરિણામના ધારક હતા સૂર્યની જેમ દીપ્તતેજવાળા હતા એટલે કે દ્રવ્યથી શારીરિક દીપ્તિથી અને ભાવથી જ્ઞાન વડે દેદીપ્યમાન હતા. સાગરના જેવા ગંભીર
હતા. હર્ષ-શોક આદિના કારણેને સંગ થવા છતાં પણ નિવિકાર ચિત્તવાળા હતા. પક્ષીની જેમ બધી જાતનાં પણ બંધનથી મુક્ત હતા. મેરૂ પર્વતની જેમ પરીષહ અને ઉપસર્ગ રૂપી પવનથી ચલાયમાન થતા નહી. શરદઋતુનાં
वस्था
वर्णनम्। मू०९८॥
का
॥३१२॥
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कल्प
श्रील्प
सूत्रे ॥३१३॥
मञ्जरी
शुद्धहृदया-निर्मलचित्तः, खनिविषाणमिव एकजातः एकः प्रधानःजाता उत्पन्नः। तथा-भारण्डपक्षीव-भारण्डनामकपक्षिवत् अप्रमत्तःप्रमादरहितः, कुञ्जर इव हस्तिवत् शौण्डीरः शूरः-पराक्रमी, तथा-वृषभ इव-बलीवर्दवत् , जातस्थामा उत्पन्नवीयः, सिंह इव-सिंहवत् , दुर्धर्षः अपराजेयः, वसुन्धरेव-पृथिवीवत् सर्वस्पर्शसह, शीतोष्णादि सकल स्पर्शसहनशीलः, तथा-मुहुत हुताशन इव-निक्षिप्तघृतादि वह्निरिव तेजसा प्रकाशेन ज्वलन्= दीप्यमानः, तथा-वर्षावासवर्जवर्षतौं वासं विहाय-वर्षाकालिकमासचतुष्टयं परित्यज्य तदतिरिक्तेषु अष्टासु ग्रैष्महेमन्त-ऋतु सम्बन्धिषु मासेषु ग्रामे २ एकरात्रत् नगरे २ पश्चरात्रम् , तथा-वासीचन्दनकल्पः-वासीव वासीताम्अपकारिणमित्यर्थः, चन्दनमिव उपकारकत्वेन कल्पयति मन्यते-इति वासीचन्दनकल्पः। उक्तश्च
"यो मामपकरोत्येष तत्वेनोपकरोत्यसौ।।
शिरामोक्षाधुपायेन कुर्वाण इब नीरुजम् ॥" गेंडा के सींग के समान ये रागादि की की सहायता से रहित होने के कारण, एक स्वरूप थे। भारंड नामक पक्षी के समान प्रमादरहित थे। हाथी के समान पराक्रमी थे। वृषभ के समान वीर्यशाली थे। सिंह के समान अजेय थे। पृथ्वी के समान सर्वसह-शीत-उष्ण आदि सकल स्पर्शों को सहन करनेवाले थे।
जिस में घीकी आहुति दी गई हो ऐसी अग्नि के समान तेजोमय थे। वर्षावास-वर्षाऋतु के चार मासों के सिवाय ग्रीष्म और हेमन्त ऋतुओं के आठ महिनों में, ग्राम में एक रात और नगर में पाँच रात से अधिक नहीं ठहरते थे। भगवान् वासो चन्दन कल्प थे अर्थात् वमूले के समान अर्थात् अपकारी पुरुष को भी चन्दन के समान उपकारक मानते थे। जैसे कहा है--
“यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ।
शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् " ॥ इति ।। જળ જેવા નિર્મળ ચિત્તવાળા હતા. ગેંડાના શિંગડાની જેમ એક જ અદ્વિતીય ઉત્પન્ન થયેલ હતા. ભારડ નામના પક્ષીના જેવા પ્રમાદ રહિત હતા. હાથી જેવા પરાક્રમી હતા. વૃષભની જેમ વર્તવાન હતા. સિંહ જેવા અજેય હતા. પૃથ્વીની જેમ સર્વ-શીત, ઉષ્ણ આદિ સકળ સ્પર્શોને સહન કરનાર હતા. જેવાં ઘીની આહુતિ અપાઈ હોય એવા 05वा तवी ता. वर्षावास-व/तुना थार महीना। सिवाय श्रीभ भने हेमन्त ऋतुमाना मा भडिनाએમાં ગામમાં એક રાત અને નગરમાં પાંચ રાતથી વધારે રહેતા નહી. ભગવાન વાસી ચન્દન ક૫ હતા, એટલે કે વાસલાની જેમ અપકારી પુરુષો પણ પ્રભુને ચન્દનની જેમ ઉપકારક માનતા હતા જેમકે કહ્યું છે–
भगवद
वस्था वर्णनम् । मू०९८
॥३१॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
कल्पमञ्जरी
॥३१४॥
टीका
अथवा-वास्यामपकारिण्यां चन्दनस्य कल्प इत्र-छेद इव उपकारित्वेन यो वर्तते स वासीचन्दनकल्पः। उक्तश्च
"अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः।
सुरभी करोति वासी, मलयजमपि तक्षमाणमपि ॥"इत्येवम्भूतः, तथा-समलोष्टकाञ्चनः मृत्पाषाणादिखण्ड-सुवर्णयोः साम्यदर्शी, समसुखदुःखः=मुखदुःखे तुल्ये जानानः,
जैसे शिरामोक्ष-चढी हुई नस के उतारने आदि उपायों से रोगी को निरोगी करनेवाला उपकारक होता है, उसी प्रकार जो मेरा अपकार करता है, वह वास्तव में उपकार करता है। अथवाबासी अर्थात् अपकारी वमूला के प्रति जो चन्दन के छेद (खण्ड) के समान उपकारी के रूप में वर्ताव करता है, अर्थात् अपकारी का भी उपकार करता है, वह वासी चन्दनकल्प कहलाता है। कहा भी है
"अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः।
मुरभी करोति वासी, मलयजमपि तक्षमाणमपि ॥१॥इति।। महान् पुरुष, अपकार करनेवाले का भी उपकार ही करते हैं। जैसे मलयज चन्दन छीला जाता हुआ भी वमूले को मुगंधित ही करता है। भगवान एसे 'वासीचन्दनकल्प' थे। तथा-भगवान् मिट्टी एवं पाषाण के टुकडे को तथा सोने को समान दृष्टि से देखते थे। सुख-दुःख को समान समझते थे। इह लोक में यश
"यो मामपकरात्वेष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ ।
शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नोरुजम् ।। જેમ શિરમો–એટલે કે ચડિ ગયેલી નસને ઉતારવા આદિ ઉપાથી રેગીને નીરોગી કરનાર ઉપકારક થાય છે, એજ પ્રમાણે જે મારા પર અપકાર કરે છે, તે વાસ્તવમાં તે ઉપકાર કરે છે.” અથવા વાસી એટલે કે અપકારી વાંસલા પ્રત્યે જે ચન્દ્રનના ટુકડાની જેમ ઉપકારી રૂપે વર્તાવ કરે છે, એટલે કે અપકારી ઉપર પણ ઉપકાર કરે છે, તે વાસી ચન્દન કપ કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે–
"अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः।
सुरभीकरोति वासी, मलयजमपि तक्षमाणमपि ॥१॥” इति જેમ મલયજ-ચન્દન કાપવા છતાં પણું વાંસલાને સુગંધિત કરે છે તેમ મહાન પુરુષ અપકાર કરનાર ઉપર ५ ५२ रे छे." लगवान सवा "वासीचंदनकल्प"ता. तथा भगवान भारी भने पथ्थरना १४ाने તથા સોનાને સમષ્ટિએ જોતા હતા. સુખ-દુઃખને સમાન ગણતા હતા. આ લોકમાં યશ-કીર્તિ આદિની તથા પરલોકિક
भगवद्वस्था
वर्णनम् । मसू०९८९
॥३१४॥
પણો
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श्री कल्प
टीका
इहलोकपरलोकाप्रतिबद्धः इहलोकसम्बन्धिषु यश-कीर्त्यादिषु परलोकसम्बन्धिषु स्वर्गीयसुखादिष्वासक्तिरहितः अप्रतिज्ञः इहलोकपरलोकप्रतिज्ञारहितः, संसारपारगामी संसारमहासमुद्रपारकर्ता, तथा-कर्मनिर्घातनार्थाय-कर्मणां समूलनाशं कर्नम् अभ्युत्थितः उद्यतश्च सन् विहरति । इत्थं तस्य विहरतः भगवतः खलु कुत्र चित् कस्मिंश्चि
कल्प स्थाने प्रतिबन्धः अवरोधो नास्ति ।
मञ्जरी एवंविधेन एतादृशेन विहारेण जनपदविचरणेन विहरत: विचरतो भगवतः श्रीवीरस्वामिनः अनुत्तरेणलोकोत्तरेण सर्वातिशायिना ज्ञानेन, तथा अनुत्तरेण दर्शनेन-जीवादिपदार्थानां श्रद्धानेन तथा अनुत्तरेण तपसाद्वादश विधानशनादिरूपेण, अनुत्तरेण संयमेन सप्तदशविधेन, अनुत्तरेण उत्थानेन-उद्यमेन अनुत्तरेण कर्मणाक्रियया, अनुत्तरेण बलेन-शारीरशतयुपचयेन, अनुत्तरेण वीर्येण आत्मजनितसामर्थ्यविशेषेण, अनुत्तरेण पुरुषकारेण-पौरुषेण, अनुत्तरेण पराक्रमेण-सामर्थेन, अनुत्तरया क्षान्त्या-सामर्थ्य सत्यपि परापकारसहनरूपया क्षमया, अनुत्तरया मुक्त्या निर्लोभतया, अनुत्तरया लेश्यया शुक्ललक्षणया, अनुत्तरेण आर्जवेन=सरलत्वेन अनुकीर्ति आदि की तथा पारलौकिक-स्वर्ग आदि के सुखों की आसक्ति से रहित थे। इहलोकपरलोक संबंधी प्रतिज्ञा से रहित थे। संसार रूपी महासमुद्र के पारगामी थे। काँका समूल उन्मूलन करने के लिए उद्यत
भगवद्विहार
वर्णनम्। होकर विचरते थे। इस प्रकार विचरते हुए भगवान् को किसी भी स्थान पर प्रतिबंध नहीं था।
०९८॥ ___ अनुत्तर अर्थात् लोकोतर-सवोत्कृष्ट ज्ञान, अनुत्तर दर्शन (जीव आदिपदार्थों का श्रद्धान), अनुत्तर वारह प्रकार के अनशन आदि तप, सत्तरह प्रकार के अनुत्तर उत्थान-उद्यम, अनुत्तर कर्म-क्रिया, अनुत्तरबलशारीरिक शक्ति का उपचय, अनुत्तर वीर्य-आत्मजनित सामथ्ये, अनुत्तर पुरुषकार-पुरुषार्थ, अनुत्तर पराक्रम शक्ति, अनुत्तर क्षमा (सामर्थ्य होने पर भी पर के किये अपकार को सहन कर लेना), अनुत्तर मुक्ति-निर्लोभता, अनुत्तर शुक्लेश्या, जीव के शुभपरिणाम. अनत्तर मृदुता, अनुत्तर लाघा । द्रव्य से अल्प उपाधि और સ્વ આદિ સુખની આ તિથી રહિત હતા. આ લેક પલક સંબંધી પ્રતિરાથી રહિત હતા. સંસારરૂપી મહાસાગરના પારગામી હતા. કર્મોને મૂળમાંથી જ છેદવાને તત્પર થઈને વિચરતા હતા. આ પ્રમાણે વિચરતા ભગવાનને કોઈ પણ સ્થાને પ્રતિબંધ ન હતું. અનુત્તર એટલે કે લકત્તર–સર્વોત્કૃષ્ટ જ્ઞાન, અનુત્તર દશન (જીવ આદિ પદાર્થોનું ॥३१५॥ શ્રદ્ધાન) અનુત્તર બાર પ્રકારનાં અનશન આદિ તપ, સત્તર પ્રકારનાં અનુત્તર સંયમ, અનુત્તર ઉત્થાન-ઉદ્યમ, અનુત્તર કર્મ-કિયા, અનુત્તર બળ–શારીરિક શક્તિનો ઉપચય, અનુત્તર વીર્ય–આતમજનિત સામર્થ્ય, અનુત્તર પુરુષકાર–પુરુષાર્થ તે અનુત્તર પરાક્રમ-શકિત અનુત્તર ક્ષમા ! (સામર્થ્ય હોવા છતાં પણ બીજાએ કહેલ અપકાર સહન કરવા) અનુત્તર રુકિ , " રાઈ
O
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श्रीकल्पसूत्रे
॥३१६॥
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तरेण मार्दवेन = मृदुत्वेन अनुत्तरेण लाघवेन = द्रव्यतोऽल्पोपाधिकत्वेन भावतो गौरवत्यागेन, अनुत्तरेण सत्येन= प्राणिहितार्थ यथार्थ भाषणेन, अनुत्तरेण ध्यानेन=धर्मध्यानेन, अनुत्तरेण अध्यवसानेन = श्रात्मपरिणामेन च आत्मानं= स्वं भावयतः = त्रास्यतः श्रीवीरस्य द्वादशवर्षाणि त्रयोदशपक्षाच व्यतिक्रान्ताः व्यतीताः । भगवतो दीक्षायाः
太有填實廣
कल्प
टीका
त्रयोदशस्य वर्षस्य= संवत्सरस्य पर्याये वर्तमानानां यः स ग्रीष्माणां = ग्रीष्म ऋतूनां द्वितीयो मासः चतुर्थः मञ्जरी वैशाखशुद्धः - वैशाखमासस्य शुक्लः पक्षो भवति, तस्य खलु वैशाखशुद्धस्य = वैशाखमाससम्बन्धिशुक्लस्य पक्षस्य नवमीपक्षे नवम्यां तिथौ जृम्भिकाभिधस्य जृम्भिकनामकस्य ग्रामस्य बाह्ये ऋजुपालिकायाः=ऋजुपालिकानाम्न्याः नद्याः उत्तरकूले= उत्तरतोरे सामगाभिवस्य = सामगनामकस्य गाथापतेः = गृहस्थस्य क्षेत्रे सालवृक्षस्य मूले मूलासन्नप्रदेशे रात्रिं=स्थितः । तत्र = सालवृक्षमूलासन्नप्रदेशे रात्रौ कायोत्सर्गे खलु छद्मस्थावस्थाया अन्तिमरात्रे = रात्रेरन्तिमप्रहरे भगवान् श्रीवीरप्रभु इमान् = वक्ष्यमाणान् दश महास्वमान् विशिष्ट स्वमान् दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धः । तद्यथा-भाव से गौरव का त्याग, अनुत्तर सत्य प्राणियों के हितार्थ यथार्थ भाषण, अनुत्तर धर्मध्यान और अनुत्तर आत्मिक परिणाम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए तथा इस प्रकार के विहार से विहरते हुए भगवान् श्रीवीर प्रभुको बारहवर्ष और तेरह पक्ष व्यतीत हो गये । तेरहवां वर्ष जब चल रहा था, उस तेरहवें वर्ष का उस समय ग्रीष्म ऋतु का दूसरा मास, चौथा पक्ष- वैशाख शुद्धपक्ष - अर्थात् वैशाख मास का शुक्ल पक्ष था, उसकी नौंवी तिथि को जंभिक नामक गाँव के बाहर ऋजुपालिका नदी के उत्तर तीर पर सामग नामक गाथापति के खेत में, साल वृक्ष के मूल में अर्थात् मूल पास के प्रदेश में रात्रि में भगवान् विराजे । उस साल वृक्ष के मूल के नीचे समीपवर्ती प्रदेश में, रात्रि के समय, कायोत्सर्ग में छद्मस्थ अवस्था की अन्तिम रात्रि के प्रहर में भगवान् आगे कहे जानेवाले दश महास्वमों को देखकर जागृत हुए। यथा
નિલેભિતા, અનુત્તર શુક્લલેડ્યા-જીવના શુભ પરિણામ, અનુત્તર સરલતા, અનુત્તર મૃદુતા, અનુત્તર લાઘવ-દ્રવ્યથી અપ ઉપાધિ અને ભાવથી ગૌરવના ત્યાગ, અનુત્તર સત્ય-પ્રાણીઓને હિતા યથા ભાષણ, અનુત્તર ધર્મધ્યાન અને અનુત્તર આત્મિક પરિણામથી પાતાના આત્માને ભાવિત કરતા તથા એ પ્રકારના વિહારથી વિચરતા શ્રી વીર પ્રભુને ખાર વ અને તેર પખવાડિયા પસાર થઈ ગયાં. યારે તેરમું વર્ષાં ચાલતુ હતુ, ત્યારે તે તેરમા વર્ષની તે ગ્રીષ્મૠતુના બીજો માસ–ચાથું... પખવાડિયુ -વૈશાખ શુદી એટલે કે વૈશાખ માસને શુકલપક્ષ હતા, તેની નામની તિથિએ જંભિક નામના ગામની બહાર ાજીપાલિકા નદીના ઉત્તર કિનારે સામગ નામના ગૃહસ્થના ખેતરમાં, સાલવૃક્ષની નીચે રાત્રે ભગવાન બિરાજ્યાં. તે સાલવૃક્ષની નીચે રાત્રિને સમયે, કાયાત્સગ માં છદ્મસ્થ અવસ્થાની અંતિમ રાત્રિના અંતિમ પ્રહરે, ભગવાન આગળ કહેવાનાર દસ મહાસ્વપ્ના જોઈને જાગ્યા. જેમ કે—
演興賞藏
दश महास्वझ
दर्शनम् । ॥सू०९८ ॥
॥३१६॥
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श्रीकल्पमुत्रे
॥३१७॥
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तेषु दशसु महास्वनेषु एकं च खलु महान्तं विशालं घोरदीप्तरूपधरं भयङ्कररूपधारिणं तालपिशाचं= तालवृक्षवद्दीर्घतरपिशाचं पराजितम् = स्वस्य पराक्रमेण अभिभूतं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः =जागरितः । इति प्रथमः स्वप्नः । एवम् = अनेन प्रकारेण एकं च खलु महाशुक्लपक्षम् = अतिशुक्लपक्षयुक्तं पुंस्कोकिलं = पुरुषजातीयं कोकिलं दृष्ट्वा प्रतिबुद्ध इति पूर्वेण सम्बन्धः । इति द्वितीयः ।
तथा-एकं च खलु महान्तं = विशालं चित्रविचित्रपक्षकं चित्रेण = चित्रकर्मणा विचित्रौ = विविधवर्णवन्तौ पक्षौ यस्य तं तथा भूतं बहुविधवर्णयुक्तपक्षवन्तं पुंस्कोकिलं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । इति तृतीयः । एकं च खलु महद् = विशालं सर्वरत्नमयं दामद्विकं = मालाद्वयं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः इति चतुर्थः । एकं च खलु महान्तं श्वेतं = शुक्लवर्ण गोवर्ग = गोसमूहं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः इति पञ्चमः । एकं च खलु महत्= दीर्घे पद्मसरः = कमलालङ्कृतजलाशयं सर्वतः=समन्तात् कुसुमित=कमव्यप्तम् दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः इति षष्ठः । एकं च खलु महान्तं सागरम् ऊर्मिवोचिसहस्रकलितम्ऊर्मी=महातरङ्गाणां वीचिनां साधारणतरङ्गाणां च सहस्रैः कलितं युक्तं भुजाभ्यां = बाहुभ्यां तीर्ण= पारितं दृष्ट्वा
१. प्रथम स्व- उन दस स्वप्नों में से पहले स्वप्न में एक विशाल तथा भयानक - भयंकर रूपवाले तालपिशाच (ताड़ के सदृश खूब लम्बे पिशाच) को अपने पराक्रम से पराजित हुआ देखा । २. द्वितीय स्वनइसी प्रकार एक अत्यन्त सफेद पंखों से युक्त पुरुषजाति के कोकिल को देखकर जागे । ३ तीसरा स्वम् - एक विशाल चित्रविचित्र - चित्रों से विचित्र होने के कारण अनेक वर्ण के पंखोंवाले, अर्थात् नाना प्रकार के वर्णों
युक्त पंखवाले पुरुष - कोकिल को देखकर जागे । ४. चौथा स्वप्न - एक बडे सर्वरत्नमय मालाओं के युगल को देखकर जागे । ५. पाँचवा स्वप्न - सफेद रंग की गायों के एक समूह को देखकर जागे । ६. छडा स्वम एक विशाल पद्मसरोवर को देखा, जो सब तरफ से कमलों से छाया हुवा था । ७. सातवाँ स्वमहजारों लहरों से युक्त एक महासागर को अपनी भुजाओं से पार कर दिया देखा । ८. आठवाँ स्वप्न - तेज से
૧. પ્રથમ સ્વપ્ન-તે દસ સ્વપ્નાઓમાંથી પ્રથમ સ્વપ્નમાં ભગવાને એક વિશાળ તથા ભયાનક રૂપવાળા તાલપશાચને-તાડના જેવા ખૂબ લાંબા પિશાચને પેાતાના પરાક્રમથી પરાજિત થતા જોયા. ર. બીજું સ્વપ્નએજ પ્રમાણે એક અત્ય ંત સફેદ પાંખાવાળા નરજાતિના કાયલને જોયા. ૩. ત્રીજું સ્વપ્ન-એક વિશાળ ચિત્રવિચિત્રચિત્રોથી ચિત્રિત હોવાને કારણે અનેક રંગની પાંખાવાળા, એટલે કે વિવિધ પ્રકારના વર્ણવાળી પાંખાવાળા નરકાયલને જોયા. ૪. ચાથુ સ્વપ્ન-એક મેટા સરત્નમય માળાએની જોડી જોઇ. પ. પાંચમું સ્વપ્ન-સફેદ રંગની ગાયાના એક સમૂહને જોયા. ૬. છઠ્ઠું સ્વપ્ન-એક વિશાળ પદ્મસરોવરને જોયું જે ચારે બાજુએ કમળાથી છવાયેલું હતું. ૭. સતમું સ્વપ્ન-હજારા માજા આવાળા એક મહાસાગરને પેાતાની ભુજાએથી પાર કરતાં પેાતાને જોયા. ૮. આઠમુ
श्रीकल्पमञ्जरी
टीका
दश महास्वझ वर्णनम् ।
| ।। सू०९८ ।।
॥३१७॥
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श्री कल्प
सूत्र
कल्पमञ्जरी टीका
॥३१८||
प्रतिबुद्धः इति सप्तमः । एकं च खलु तेजसा ज्वलन्तं दीप्यमानं महान्तं विशालं दिनकर-भूयं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः इत्यष्टमः। एकं च खलु महान्तं-हरिवैडूर्यवर्णाभेन-हरिः पिङ्गलवों मणिः, वैडूर्य-नीलवर्णों मणिः, तद्वयसम्बन्धिनोर्वर्णयोरिव आभा-कान्तिर्यस्य तद डर्यवर्णाभं तेन तथाभूतेन निजकेन-स्वकीयेन अन्त्रेण= आँतडी' इति भाषापसिद्धेन, मानुषोत्तरं पर्वतं सर्वतः समन्तात् आवेष्टितपरिवेष्टितम् आवेष्टितं सामान्यतोवेष्टितं परिवेष्टितम् सर्वथावेष्टितं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः इति नवमः। तथा एकं च खलु महान्तं मन्दरे मन्दरचूलिकायाः उपरि मेरुलिकोपरि सिंहासनवरगतं श्रेष्ठसिंहासनास्थितम् आत्मानं स्वं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः इति दशमः ।।०९८॥
मूलम् एएसि णं दस महासुविणाणं के महालए फलवित्तिविसेसे भवइत्ति सो कहिज्जइ
जण्णं समणेण भगवया महावीरेण सुविणे महाघोरदित्तरूबधरे तालपिसाए पराजिए दिढे तेणं भगवं मोइणिज्ज कम्मं मूलाओ उग्याइस्सइ १ । ज णं सुकिल्लपक्खगे पुंसकोइले दिटे, भगवं सुक्क झाणोवगए विहरिस्सइ २। ज णं चित्तविचित्त पर वगे पुंसकोइले दिटे, तेणं भगवं ससमयपरसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघविस्ता पन्नविस्सइ परुविस्सइ दंसिस्सइ निदंसिस्सइ उवदंसिस्सइ ३। जं ण सन्च रयणामयं दामदुगं दिटुं, तेणं भगवं अगारधम्म अणगारधम्मति दुविहं धम्म आवविस्सइ ४। ज णं सेयगोवग्गो दिट्ठो, तेणं चाउवण्णा इण्णं संघ ठाविस्सइ ५। ज णं पउमसरं दिलं, तेणं भवणवइवाणमंतरजोइसिय बेमाणियत्ति चउबिहे देवे आधविस्सइ ६। जंणं महासागरो भुयाहि तिण्णो दिहो, तेणं अणादीयं अणवदग्गं चाउरंत संसारसागरं तरिम्सइ ७ । ज णं तेयसा जलंतो दिणयरो दिट्ठो, तेणं अगतं अणुत्तरं कसिणं पडिपुण्णं अव्याहयं निरावरणं केवलबरनाणदंसणं समुप्पज्जिस्सइ ८। जंणं हरिवेरुलियवन्नामेणं नियगेणं अंनेणं माणुसुत्तरे पन्चए सबओ जाज्वल्यमान विशाल मर्य को देखा। ९. नौवा स्वप्न--रि (पिंगलवर्ण की)) मणि और वैडूर्य (नीले वर्ण की) मणि के वर्ण के समान कान्तिवाली अपनी आंत-आंतड़ी से मानुषोत्तर पर्वत को चारों तरफ से सामान्य रूप से आवेष्टित ओर विशेष रूप से परिवेष्टित देखा। १०. दसवां स्वाम--महान् मेरु पर्वत की चोटी पर श्रेष्ठ सिंहासन पर स्थित, अपने आप को देखा। यह दस स्वप्न देखकर भगवान् जागृत हुए ॥सू०९८॥ સ્વપ્ન-તેજથી જાજવલ્યમાન વિશાળ સૂર્યને જોયા. ૯, નવમું સ્વપ્ન-હરિ પિંગલ વર્ણની) મણી અને વિર્ય (નીલવર્ણના) મણીના વણ જેવી કાન્તિવાળાં પોતાનાં આંતરડાંથી માનુષોત્તર પર્વતને ચારે તરફથી સામાન્યરૂપે વીંટળાયેલ અને વિશેષરૂપે પરિપ્રિત જે. ૧૦. દસમું સ્વમ-એક, મહાન, મેરૂ પર્વતના શિખર પર શ્રેષ્ઠસિહાસને પિતાને બીરાજતા જોયા, એ દસ સ્વમો જોઈને ભગવાન જાગ્યા છે સૂ૦૯૮ છે
दश महास्वम वर्णनम्। ॥०९८॥
॥३१८॥
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आकल्प
सूत्रे ॥३१९॥
मञ्जरी
समंता आस्वेढियपरिवेढिय दिहे, तेणं भगवओ कितिवन्न सहसिलोगा सदेव मणुयामुरे लोए गिजिस्संति ९। जं णं मंदरे पाए मंदरचूलियाए उवरि सीहासणवरगओ अप्पा दिटे, तेणं भगवं सदेवमणुयासुराए परिसाए मझगए केवलिपन्न धम्म आवविस्सइ पन्नविस्सइ परूविस्सइ दंसिस्सइ निदंसिस्सइ उवदंसिस्सइ ।।मू०९९।।
छाया-एतेषां खलु दशमहास्वमानां को महालयः फलमृतिविशेषो भवतीति स कथ्यते
यत् खलु श्रमणेन भगवता महावीरेण स्वप्ने महान् घोरदीप्तरूपधरस्तालपिशाचः पराजितो दृष्टस्तेन टीका भगवान् मोहनीयं कर्ममूलाद् उद्घातयिष्यति १। यह बलु शुक्लपक्षकः पुंस्कोकिलो दृष्टस्तेन भगवान् शुक्लथ्यानोपगतो विहरिष्यति २। यत्वल चित्रविचित्रपक्षकः पुंस्कोकिलो दृष्टस्तेन भगवान् स्वसमयपरसमयिकं द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् आख्यापयिष्यति प्रज्ञापयिष्यति प्ररूपयिष्यति दर्शयिष्यति निदर्शयिष्यति उपदर्शयिष्यति। यत्खलु सर्वरत्नमय दामद्विकं दृष्टं तेन भगवान् गारधर्ममनगारधर्ममिति द्विविधं धर्मग श्राख्यापयिष्यति ६।४।
मूल का अर्थ- 'एएसिणं इत्यादि। इन दस महास्वनो का क्या महान फल है, सो कहते हैं
(१) श्रमण भगवान महावीर ने स्वममें जो भयंकर और दीप्तरूप धारण करनेवाले ताल पिशाच को दश देवा और पराजित किया, उसके फल स्वरूप भगवान् मोहनीय कर्म को समूल नष्ट करेंगे। (२) सफेद महास्वप्न पंचवाला पुरुष-कोकिल देखा, इस से भगवान् शुक्ल ध्यान से युक्त होकर विचरेंगे । (३) भगवान् ने चित्र--
वर्णनम्। विचित्र पंखोवाला पुरुष-कोकिल देखा, सो उसके फलस्वरूप भगवान् स्वसमय एवं परसमय का निरूपण
।।मु०९९॥ करनेवाले द्वादशांग गणिपिटक का कथन करेंगे, प्रज्ञापन करेंगे, प्ररूपण करेंगे, दर्शित करेंगे, निदर्शित करेंगे और उपदर्शित करेंगे। (४) सर्वरत्नमय माला का युगल देखा, उसके फलस्वरूप भगवान् अगारधर्म और अनगार
भूसना मथ–एपसिणं इत्यादि. २६२ मा भोना शुशु महान छ. ते वामां आवे छे.
(૧) શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પહેલા વસમાં, જે દિવ્ય અને અ ઘરરૂપ ધારણ કરેલ પિશાચ જે, અને તેને પોતે સંગ્રામમાં હરાવ્યું, તેનો અર્થ એ કે, ભગવાન “મહ” રાજનો સમૂળગો ઉછેદ કરી, મેહનીય કમને નષ્ટ કરશે. (૨) બીજે સ્વપ્ન સફેદ પાખવા નર કોકિલને જોવાથી ભગવાન શુકલ ધ્યાનયુક્ત થશે. (૩) ત્રીજે
॥३१९॥ રવને ચિત્ર-વિચિત્ર પાંખેવાળા નર- કિલને દેખવાથી ભગવાન, સ્વસ મય-પરસમયના નિરૂપણ કરવાવાળા થશે, કો અને દ્વાદશાંગીના કથન કરવાવાળા બનશે. આ દ્વાદશાંગીનું જ્ઞાન પ્રરૂપશે, તેનું દર્શન કરાવશે. નિર્દેશન કરાવશે તેમજ દ, ઉપદર્શન પણ કરાવશે. (૪) ચોથે સ્વપ્ન સર્વરનમય માળાની જોડીને દેખવાથી ભગવાન આગાર અને અણગાર દરોમાં
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श्रीकल्पसूत्रे ॥३२० ॥
तेन
ira aarti दृष्टस्तेन चातुर्वर्ण्याकीर्ण संघ स्थापयिष्यति ५ । यत्खलु पद्मसरो दृष्टं तेन भवनपति व्यन्तरज्योतिषिक वैमानिकेति चतुर्विधान् देवान् आख्यापयिष्यति ६ । ६ । यत्खलु महासागरो मुजाभ्यां तीर्णो दृष्टः तेनानादिकमनवदग्रं चातुरन्त संसारसागरं तरिष्यति ७ । यत् खलु तेजसा ज्वलन दिनकरो दृष्टः, अनन्तमनुत्तरं कृत्स्नं प्रतिपूर्णमव्याहतं निरावरणं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पत्स्यते ८ । यत्खलु हरिवैडूर्यवर्णाभेन निजनान्त्रेण मानुषोत्तरः पर्वतः सर्वतः समन्ताद् आवेष्टितपरिवेष्टितो दृष्टः तेन भगवतः कीर्तिवर्णशब्दश्लोकाः सदेवमनुजासुरे लोके गास्यन्ते ९ । यत्खलु मन्दरे पर्वते मन्दरचूलिकाया उपरि सिंहासनवरगतः
इस प्रकार दो तरह के धर्मों को कथन करेंगे। (५) श्वेत रंग की गायों का समूह देखा, उससे भगवान् चातुर्वर्ण्य से युक्त संघ श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविकारूप चार तीर्थ की स्थापना करेंगे। (६) एद्मों से युक्त सरोवर देखने से भगवान् भवनपति, व्यन्तर, ज्यौतिपिक और वैमानिक - इन चार प्रकार के देवो को प्ररूपण करेंगे। (७) महासागर को भुजाओं से पार किया देखा, इससे भगवान् अनादि अनन्त चारगति रूप संसार समुद्र को पार करेंगे। (८) तेज से जाज्वल्यमान सूर्य को देखने से भगवान् को अनन्त, अनुत्तर, प्रतिपूर्ण, श्रमतियाती और आवरण रहित श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होंगे। (९) हरि मणि और वैडूर्यमणि की आभा के समान अपनी प्रांत से मानुषोत्तर पर्वत को आवेष्टित और परिवेष्टित देखा, उसके फल स्वरूप भगवान् की कोर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक देवों, मनुष्यों एवं असुरों सहित लोक में गाये जाएँगे । (१०) मेरु पर्वत पर मेरु की चोटी के ऊपर श्रेष्ठ सिंहासन पर अपने आपको बैठा देखा, उसके फलस्वरूप બન્ને ધર્મોનું કથન કરશે. (૫) પાંચમે સ્વપ્ને શ્વેતરંગની ગાયાના ધણને દેખવાથી ભગવાન ચારવણુ વાળા ધની સ્થાપના કરશે એટલે તે સાધુ-સાધ્વી શ્રાવક અને શ્રાવિકા રુપી તીની સ્થાપના કરશે. (૬) છઠ્ઠું સ્વપ્ને કમળેાવાળુ સરાવર દેખવાથી, ભગવાન, ભવનપતિ, વ્યંતર, યેતિષિક અને વૈમાનિક દેવાને ઉપદેશ આપશે. (૭) સાતમે સ્વપ્ને મહાસાગરને, સ્વભુજાએ વડે પાર કરતા જોવાથી અનાદિ-અન ંત–ચતુ་તિરૂપ સંસાર સમુદ્રના તેઓ પાર पाभशे. (८) आहमे स्वप्ने तेनेभय सूर्य ने लेवाथी भगवान, अनंत, अनुत्तर, प्रतिपूर्ण, अप्रतिघाती, भने निरावर શ્રેષ્ઠ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શીનને પ્રાપ્ત કરશે. (૯) નવમા સ્વપ્ને હરિ નામના મણુિ અને લિલમ એટલે વૈડૂ મણીની કાંતિવાળાં પેાતાના આંતરડાંથી ચારેબાજુ વિટાએલ માનુષેાત્તર પહાડને દેખવાથી ભગવાનની કીર્તિ, વર્ષાં શબ્દ અને શ્લોક દેવા મનુષ્યા અને અસુરોમાં ગવાશે. (૧૦) દશમે સ્વપ્ને મેરુ પર્વતના શિખરે સિ'હાસન
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Tanus
कल्प
मञ्जरी
टीका
दश
महास्वन फल
वर्णनम् । ।। ०९९ ।।
॥३२० ॥
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श्रीकल्प
मूत्र ॥३२१॥
आत्मा दृष्टः, तेन भगवान् सदेव-मनुजासुरायाः परिषदो मध्यगतः केवलिमज्ञप्तं धर्ममाख्यापयिष्यति प्ररूपयिष्यति दर्शयिष्यति निदर्शयिष्यति उपदर्शयिष्यति । १०॥ मू०९९ ॥
टीका--'एएसि णं दसमहासुविणाणं' इत्यादि । एतेषां पूर्वोक्तानां भगवदृष्टानां खलु दश महास्वप्नानां का कथंभूतः महालयः अतिमहान फलत्तिविशेषः फलोपस्थितिविशेषो भवति इति जिज्ञासायां स कथ्यते तथाहि--
यत् खलु श्रमणेन भगवता महावीरेण स्वप्ने घोरदीप्तरूपधरः तालपिशाचः पराजितो दृष्टः, तेन भगवान् मोहनीयं कर्म मूलात् उद्घातयिष्यति-उन्मूलयिष्यति १। इति प्रथमं महास्वमफलम् १। यत् खलु शुक्लपक्षका श्वेतपक्षवान् पुँस्कोकिलो भगवता दृष्टः, तेन भगवान् शुक्लध्यानोपगतः-शुक्लध्यानावस्थितः सन् विहरिष्यति २। इति द्वितीयम् ।। यत् खलु चित्रविचित्रपक्षकः पुंस्कोकिलो भगवता स्वप्ने दृष्टः, तेन भगवान् स्वसमयपरसमयिकम्।
मञ्जरी
टीका
देश महास्वप्न
भगवान् देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समवसरणपरिषद् के मध्य में विराजमान होकर केवलियों द्वारा प्ररूपित धर्म का उपदेश करेंगे, धर्मकी प्रज्ञापना, प्ररूपणा, दर्शना, निदर्शना और उपदर्शना करेंगे ॥१०९९।।
टीका का अर्थ-भगवान् द्वारा देखे गये इन पूर्वोक्त दश महास्वप्नों का क्या अतिमहान् फल होगा? इस प्रकार की जिज्ञासा (जानने की इच्छा) होने पर उसफल को कहते हैं। यथा--
(१) श्रमण भगवान महावीर ने स्वम में जो भयंकर और प्रचण्डरूप वाले ताड़ जैसे पिशाच को पराजित किया देखा, उमसे भगवान् मोहनीय कर्म को मूल से उखाड़ेगे। यह पहले महास्वप्न का फल है। (२) भगवानने जा श्वेत पंखोवाला पुरुष-कोकिल देखा, उससे भगवान शुक्लध्यान में लीन होकर विचरेंगे। यह दुसरे महास्वप्न का फल है। (३) भगवानने जो चित्र-विचित्र पखोवाला पुरुषकोकिल स्वप्न में देखा,
वर्णनम्। ०९९॥
ઉપર આરૂઢ થયેલ પિતાને જેવાથી ભગવાન, દેવ-મનુષ્ય અને તિર્યની પરિષદમાં બેસી-કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ કરશે, ને ધમની પ્રજ્ઞાપના-દર્શન-નિદર્શન અને ઉપદનપિ પાંચ રીતિ નંતિ સમજાવશે. (સૂ૦૯).
ટીકાને અર્થ—ભગવાને જેએલાં તે પૂર્વોકત દસ મહાસ્વપ્નોનું શું અતિમહાન ફળ મળશે? આ પ્રકારની જિજ્ઞાસા થતા તે ફળને આ પ્રમાણે વર્ણવે છે–(૧) શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સ્વપ્નમાં જે ભયાનક અને પ્રચંડ રૂપવાળા તાડ જેવા પિશાચને હરાવ્યું અને ભાવ એ છે કે તેથી ભગવાન મહનીય કર્મને મૂળમાંથી ઉખાડી નાખશે. આ પહેલા મહાસ્વપ્નનું ફળ છે. (૨ ભગવાને જે વત પાંખેવાળા નર-કેયલને જે, તેને ભાવ એ છે કે ભગવાન પર
॥३२॥
પણી
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श्री कल्पमृ
॥ ३२२ ॥
स्वसिद्धान्त - पर सिद्धान्तसमन्वितं द्वादशाङ्गं - द्वादशानि अङ्गानि यस्मिन् स तथा तं गणिपिटक -गणिनाम् = आचार्याणां पिटक इव = रत्नाधारमञ्जषेव यः स तं आख्यापयिष्यति - सामान्यतया कथयिष्यति, तथा - प्रज्ञापयिष्यति - वचन पर्यायेण नामादिभेदेन वा कथयिष्यति, तथा - प्ररूपयिष्यति - स्वरूपतः कथयिष्यति, तथा दर्शयिष्यति - उपमानोपमेयभावादिभिः कथयिष्यति, तथा - निदर्शयिष्यति - परानुकम्पया भव्यकल्याणापेक्षया वा निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शयिष्यति, तथा - उपदर्शयिष्यति - उपनय - निगमनाभ्यां सकलनयाभिप्रायतो वा निशङ्कं शिष्यबुद्धौ व्यवस्थापयिष्यति इति तृतीयम् ३ । यत् खलु सर्वरत्नमयं दामद्विकं दृष्टं तेन भगवान् - श्रीवीरस्वामी अगारधर्म - गृहधर्मम् अनगारधर्म = मुनिधर्ममिति द्विविधं द्विप्रकारं धर्मम् आख्यापयिष्यति - सामान्यतया विशेषतया च कथयिष्यति, तथा - प्रज्ञापयिष्यति, प्ररूपयिष्यति, दर्शयिष्यति, निदर्शयिष्यति, उपदर्शयिष्यति, इति चतुर्थम् ४ । यत् खलु श्वेत उससे भगवान् स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त से युक्त बारह अंगोंवाले गणिपिटक (आचार्यों के लिए रत्नों की पेटो के समान आचारांग आदि) का सामान्य विशेषरूप से कथन करेंगे, पर्यायवाची शब्दों से अथवा नामादि भेदों से प्रज्ञापन करेंगे, स्वरूप से प्ररूपण करेंगे, उपमान- उपमेय भाव आदि दिखाकर कथन करेंगे, पर की अनुकम्पा से या भव्यजीवों के कल्याण की अपेक्षा से निश्चयपूर्वक पुनः पुनः दिखलाएँगे; तथा उपनय और निगमन के साथ अथवा सभी नयों के दृष्टिकोण से, शिष्यों की बुद्धि में निश्शंक रूप से जमाएँगे यह तीसरे स्वप्न का फल है । (४) भगवान् ने समस्त रत्नोंवाले मालायुगल को देखा, उससे भगवान् गृहस्थधर्म और मुनिधर्म दो प्रकार के धर्म का सामान्य और विशेषरूप से कथन करेंगे, प्रज्ञापन करेंगे, प्ररूपण करेंगे, दर्शित करेंगे, निदर्शित करेंगे और उपदर्शित करेंगे यह चौथे महास्वम के फल है । (५) भगवान् ने जो श्वेत गोवर्ग (गायों का શુકલધ્યાનમાં લીન થઇને વિચરશે. આ ખીન્ન મહાસ્વપ્નનું ફળ છે. (૩) ભગવાને જે ચિત્ર-વિચિત્ર પાંખાવાળા નરકોયલને જોયા, ભગવાન સ્વસિદ્ધાંત અને પસિદ્ધાંતથી યુક્ત ભાર અંગેાવાળા ગણિપિટક (આચાર્યને માટે રત્નાની પેટી, સમાન આચારાંગ આદિ)નું સામાન્ય વિશેષરૂપથી કથન કરશે, પર્યાયવાચી શબ્દોથી અથવા નામાદિ ભેદોથી પ્રજ્ઞાપન કરશે, સ્વરૂપથી પ્રરૂપણા કરશે, ઉપમાન ઉપમેય ભાવ આદિ બતાવીને કથન કરશે, બીજાની અનુક’પાથી કે ભવ્ય જીવેાના કલ્યાણની અપેક્ષાએ નિશ્ચયપૂર્વક કરી ફરીને બતાવશે, તથા ઉપનય અને નિગમનની સાથે અથવા બધા નયાના દષ્ટિકાણુથી, શિષ્યાની બુદ્ધિમાં નિઃશ'કરૂપે ઠસાવશે. આ ત્રીજા સ્વપ્નનુ ફળ છે. (૪) ભગવાને સમસ્ત રત્નાવાળી માળાની જોડી જોઈ, તેના ભાવ એ છે કે,ભગવાન ગૃહસ્થધમ અને મુનિધમ એ એ પ્રકારના ધનુ' સામાન્ય અને વિશેષરૂપથી કથન કરશે, પ્રજ્ઞાપન કરશે પ્રરૂપણા કરશે, દર્શિત કરશે, નિર્દેશિત કરશે. આ ચાથા મહાસ્વપ્નનું ફળ છે.
कल्प
मञ्जरी
टीका
दश महास्वश फल
वर्णनम् । ॥सू०९९॥
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श्राकल्पसूत्रे ॥ ३२३ ॥
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गो युक्तं
दश
दृष्टः तेन चातुर्वर्ण्याऽऽकीर्णे=चत्वारो वर्णाश्चातुर्वर्ण्य= श्रमण- श्रमणी - श्रावक-श्राविकारूपं तेन आकीर्ण= स्थापयिष्यति इति पञ्चमम् ५। यत् खलु पद्मसरो दृष्टं तेन भगवान् भवनपतिव्यन्तरज्योतिषिक वैमानिकेति चतुर्विधान् देवान् आख्यापयिष्यति - प्रज्ञापयिष्यति, दर्शयिष्यति, निदर्शयिष्यति उपदर्शयिष्यति इति षष्ठम् ६ । यत् खलु महासागरो भुजाभ्यां तीर्णो दृष्टः तेन अनादिकम् आदिवर्जितम् अनवदग्रम् = अन्तरहितं चातुरन्त संसार सागरं = चतुरर्गतिकसंसाररूपसमुद्रं तरिष्यति इति सप्तमम् ७ । यत् खलु तेजसा ज्वलन् दिनकरः=सूर्यो दृष्टः, तेन भगवतः श्री वीरप्रभोः अनुत्तरम् = प्रधानं कृत्स्नं सकलम् - अखण्डम् - सर्वपदार्थावगाहनात् केबलवरज्ञानदर्शनमपि कृत्स्नं व्यपदिश्यते, एवं प्रतिपूर्णम् - सकलांशसम्पन्नम्, अव्याहतम् = व्याघातवर्जितम्, निरावरणम् - आवरणरहितं च केवलवरज्ञानदर्शनं - केवलवरज्ञानं - केवलवरदर्शनं च समुप्तत्स्यते इत्यष्टमं ८ । यत् खलु हरिवैडूर्यवर्णाभेन निजझुंड) देखा, उससे साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप चार प्रकार के संघ की स्थापना करेंगे यह महका फल है । (६) पनों से युक्त जो सरोवर देखा, उससे भगवान् भवनपति, व्यन्तर, ज्यौतिषिक और वैमानिक, इन चार प्रकार के देवों को सामान्य- विशेषरूप से उपदेश करेंगे, प्रज्ञापन करेंगे, प्ररूपण करेंगे, दर्शित, निदर्शित तथा उपदर्शित करेंगे, यह छठे महास्वप्न का फल है । (७) भगवान् ने महासमुद्र को महास्वझ भुजाओं से तिरा देखा, उससे आदि तथा अन्त से रहित, चार गतिवाले संसार रूप समुद्र को पार करेंगे यह सातवें महास्त्रम का फल है । (८) भगवानने तेज से देदीप्यमान सूर्य देखा, उससे भगवान् को प्रधान, सम्पूर्ण एवं समस्त पदार्थों को जानने के कारण अविकल ( कुस्न) प्रतिपूर्ण (सकल अंशोंसे युक्त) सब प्रकार को रुकावटों से रहित तथा आवरण रहित केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति होगी यह आठवें (૫) ભગવાને જે શ્વેત ગેાવ (ગાયાનું ધણુ) દેખ્યુ તેના ભાવ એ છે કે સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકારૂપ ચાર પ્રકારના સંઘની સ્થાપના કરશે. આ પાંચમા મહાસ્વપ્નનું ફળ છે. (૬) પદ્મોવાળુ જે સરોવર જોયુ, તેને ભાવ એ છે કે ભગવાન ભવનપતિ, વ્યંતર, જ્યોતિષિક, અને વૈમાનિક એ ચાર પ્રકારના દેવાને સામાન્ય વિશેષ રૂપથી ઉપદેશ व्यायशे, प्रज्ञाधन ४२शे, दर्शित, निहर्शित तथा उपहर्शित उरशे भा छडा महास्वग्ननु ण छे. (७) लगवाने भड्डाસાગરને પેાતાની ભુજાએ વડે પાર કર્યો, તેના ભાવ એ છે કે માહિ' તથા અન્તવિનાના, ચાર ગતિવાળા સૌંસારરૂપી સાગરને પાતે પાર કરશે. આ સાતમા મહાસ્વપ્નનું ફળ છે. (૮) ભગવાને તેજથી દૈદિપ્યમાન સૂર્ય જોયે, તેના ભાવ એ છે કે ભગવાનને પ્રધાન, સંપૂર્ણ અને સકળ પદાર્થોને જાણવાને કારણે અવિકલ (કૃષ્ન), પ્રતિપૂર્ણ (સકલ અશાવાળું) બધી જાતની સજાવટ વિનાનુ' તથા આવરણ વિનાનુ` કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થશે. આ આઠમા મહાસ્વપ્નનું
फल
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कल्प
मञ्जरी टीका
वर्णनम् । ।। सू०९९ ।।
॥३२३॥
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॥३२४॥
टीका
केनान्त्रेण मानुषोत्तरः पर्वतः सर्वतः समन्तात् आवेष्टितपरिवेष्टितो दृष्टः, तेन भगवतः-श्रीवीरस्वामिनः कीर्तिवर्णशब्दश्लोका-तत्र-कीर्तिः-"अहो अयं पुण्यभागी" त्यादि सर्वव्यापि साधुवादः, वर्णः एकदिग्व्यापिसाधुवादः,
शब्द: अर्धदिग्व्यापिसाधुवादः, श्लोकः-तत्रैव गुणवर्णनं चैते स देवमनुजाऽमुरे देवमनुष्यासुरसहितलोके श्री कल्प
कल्पभुवने मनुष्यादिभिः गास्यन्ते-इति नवमम् ९। यत् खलु मन्दरे पर्वते मन्दरचूलिकाया उपरि सिंहासनवर गत
मञ्जरी आत्मा दृष्टः, तेन भगवान् श्रीवीरप्रभु स देवम नुजामुरायाः देवमनुष्यासुरसहितायाः परिषदः सभायाः मध्यगतःमध्ये विराजितः सन् केवलिपज्ञप्त-सर्वज्ञप्ररूपितं धर्मम् 'आख्यापयिष्यति, प्रज्ञापयिष्यति, प्ररूपयिष्यति, दर्शयिष्यति, निदर्शयिष्यति, उपदर्शयिष्यति' एषां पदानां व्याख्याऽस्मिन्नेव सूत्रे कृतेति सिंहावलोकनन्यायेनसाऽवलोकनीयेति दशमं महास्वमफलम् १० ॥मू०९९।। महास्वप्न का फल है। (९) भगवान ने जो हरिमणि और वैर्यमणि की कान्ति के समान अपनी आंत से मानुषोत्तर पर्वत को सब तरफ से आवेष्टित और परिवेष्टित देखा, उससे समस्त लोक में-देवी मनुष्यों एवं असुरों सहित सम्पूर्ण लोक में भगवान् की कीर्ति का गान होगा। वणे, शब्द और श्लोक का भी गान होगा। 'अहा. यह पुण्यशाली हैं इत्यादि सभी दिशाओं में व्याप्त होनेवाले साधुवाद-प्रशंसावचनों को कीर्ति महास्वाम कहते हैं। एक दिशा में व्याप्त होनेवाला साधुवाद 'वर्ण' कहा जाता है। आधी दिशा में फैलने वाला साधुवाद शब्द कहा जाता है। और जिस स्थान पर व्यक्ति हो, वहीं उसके गुणों का वखान होना श्लोक
SH वर्णनम्। कहलाता है। यह नौंवे महास्वम का फल है। मेरू पर्वत पर, मेरू पर्वत की चूलिका के ऊपर उत्तम सिंहासन मू०९९।। पर अपने आपको बैठा देखा, उससे भगवान् वीरप्रभु देवों मनुष्यों एवं असुरों सहित सभा के मध्य में विराजित होकर सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण करेंगे; धर्म को दर्शित, निदर्शित और उपફળ છે. (૯) ભગવાને જે લીલા રંગના અને વૈડૂર્ય મણીની કાન્તિ જેવા પિતાના આંતરડાંથી માનુષેત્તર પર્વતને બધી તરફથી આવેષ્ટિત અને પરિણિત જોયો, તેનો ભાવ એ છે કે સકળ લેકમાં દે મનુષ્ય અને અસુરે સહિત સંપૂર્ણ લેકમાં ભગવાનની કૌતિ ગવાશે વણ શબ્દ અને લેકના પણ ગીત ગવાશે. “અહા !આ પુણ્યશાળી છે” ઈત્યાદિ સધની દિશામાં પ્રસરનાર સાધુવાદ-પ્રશંસાવચનને ‘કીતિ' કહે છે. એક દિશામાં પ્રસરનાર સાધુવાદને “વણ” કહે છે. અધી દિશામાં ફેલાવનાર સાધુવાદને “શબ્દ” કહે છે અને જે સ્થાને વ્યક્તિ હોય ત્યાં જ તેના ગુણોના વખાણ થાય તેને “ક” કહે છે. આ નવમાં મહાસ્વપ્નનું છે. (૧૦) મેરૂ પર્વત પર, મેરુ પર્વતના શિખર ઉપર
ઉત્તમ સિંહાસન પર પિતાને બી જેલા જોયા. તેને ભાવ એ છે કે ભગવાન મહાવીર સ્વામી દે, મનુષ્ય અને હે Bર અસુરે સહિતની મધ્યમાં વિરાજીને સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત ધર્મનું કથન, પ્રજ્ઞાપન, પ્રરૂપણ કરશે, ધર્મને દર્શિત અને ઉપદશિત
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श्री कल्प सूत्रे । ३२५।।
漫漫漫漫鄭真真藏鮮
मूलम् - - तरणं तस्स समगस्स भगवओ महावीरस्स तत्रसंजममाराहेमाणस्स बारसेहिं वासेहिं तेरसेहिं पखेहिं वीइते हि तेरसमस्स वासस्स परियाए वह्माणस्स जे से गिम्हाणं दोचे मासे चउत्थे पक्खे व साहसुद्धे, तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमीपखेगं गुच्चएणं दिवसेणं विजएणं, मुहुत्तेणं इत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागणं पाणगामिणो छायाए त्रियत्ताए पोरिसीए तत्थ गोदोहियाए उकुडयाए निसिजाए आयावणं आयावेमाणस्स छद्वेगं भत्ते अपाणए उडाणु अहोसिरस्स झाग कोडोवगयस्स सुक्कज्झाणं तरियाए वमाणस्स निव्त्राणे सिणे पडिपुणे अन्वाहए निरावरणे अगते अणुत्तरे केवलवरगाणदंसणे समुप्पण्णे ।
तणं से भगवं अरहा जिणे जाए केवली सव्वाण्णू सव्वदरिसीस देवमणुयासुरस्स लोयस्स आगई गई ठि चत्रणं उत्रत्रयं भुत्तं पीयं कडं पडिसेत्रियं वीकम्मं रहोकम्मं लवियं कहियं माणसियंति सव्वे पज्जाए जाण पास । सचलोए सव्वजीवाणं सव्यभावाई जाणमाणं पासमाणे विहरइ ।
तणं समणस्स भगाओ महावीरस्स केवलवरणाणदंसणुप्पत्तिसमए सव्वेहिं भवगवइ-वाणमंतर जोइसियमावासी देवेrय देवीहि य उवयंते य उप्पयंतेहि य एगे महं दिव्वे देवज्जोए देवसण्णिवाए देवकहकहे उपिजलगभूए यात्रि होत्था ||०१००॥
छाया -- ततः खलु तस्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तपः संयममाराधयतः द्वादशसु वर्षेषु त्रयोदशसु पक्षेषु च व्यतिक्रान्तेषु त्रयोदशस्य वर्षस्य पर्याये वर्तमानस्य यः सः ग्रीष्मागां द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षः वैशाखशुद्रः, तस्य खलु वैशाखशुद्धस्य दशमीपक्षे सुत्रते दिवसे विजये मुहूर्ते हस्तोत्तरासु नक्षत्रे योगमुपगते दर्शित करेंगे इन पदों की व्याख्या इसी सूत्र में पहले की जा चुकी है। अतः सिंहावलोकन - न्याय से वही व्याख्या देखलेनी चाहिए। यह दसवें महास्वप्न का फल है ।। ०९९ ॥
मूल का अर्थ - ' तरणं इत्यादि । उस समय श्रमण भगवान् महावीर को तप संयम की आराधना करते हुए बारह वर्ष और तेरह पक्ष व्यतीत हो चुके थे । तेरहवाँ वर्ष चल रहा था । ग्रीष्म ऋतु का दूसरा महीना था, चौथा पक्ष वैशाख शुद्ध पक्ष था । उस वैशाख शुक्ल पक्ष की दसमी तिथि थी । सुव्रत दिवस, કરશે. એ પદોની વ્યાખ્યા આજ સૂત્રમાં પહેલાં કરાયેલ છે. તેથી સિંહાવલોકનન્યાયથી જીજ્ઞાસુએએ એજ વ્યાખ્યા જોઇ લેવી જોઇએ. આ દસમાં મહાસ્વપ્નનું ફળ છે. ાસા
भूलना अर्थ - तणं' हत्याहि श्रमायु लगवान महावीरने तप संयमनी आराधना अश्ता, जार वर्ष मने તેર પખવાડિયા વ્યતીત થયાં હતાં, ને તેરમુ વર્ષાં ચાલતું હતુ'. ગ્રીષ્મૠતુના બન્ને મહિના, ચેાથુ પખવાડિયુ
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कल्प
मञ्जरी
टीका
केवलज्ञान दर्शनप्राप्ति
वर्णनम् ।
॥ मु० १००॥
|| ३२५||
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श्री कल्पसूत्रे
॥ ३२६ ॥
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興興源
प्राचीनगामिन्यां छायायां व्यक्तायां पौरुष्याम् तत्र गोदोहिकया उत्कुटुकया निषद्यया आतापनाम् आतापयतः षष्ठे भक्तेनाऽपानकेन ऊर्ध्वजान्त्रधः शिरसो ध्यानकोष्ठोपगतस्य शुक्लध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य निर्वाण कृत्स्नं प्रतिपूर्णमव्याहत निरावरणमनन्तमनुत्तरं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् ।
ततः खलु स भगवान् अर्हन् जिनो जातः केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य आगतिं गतिंस्थितिं वनमुपपातं भुक्तं पीतं कृतं प्रतिसेवितम् आविष्कर्म रहःकर्म लपितं कथितं मानसिकमिति सर्वान् पर्यायान् जानाति पश्यति । सर्वलोके सर्वजीवानां सर्वभावान् जानानः पश्यन् विहरति ।
विजय मुहूर्त्त, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग था । छाया पूर्व दिशा की और ढल रही थी । व्यक्त नामक पौरुषी थी अर्थात् दिन का तीसरा महर था ऐसे समय में भगवान् गोदोह नामक उकडू आसन से स्थित होकर आपना ले रहे थे । चौविहार षष्ठभक्त (बेले) की तपस्या थी । प्रभु ने दोनों घुटने ऊपर कर रक्खे थे और मस्तक नीचे की ओर झुका रक्खा था। ध्यानरूपी कोष्ठ में प्राप्त थे । शुक्लध्यान की आन्तरिका में वर्त्तमान थे । उस समय भगवान् को मुक्ति के हेतुभूत, अविकल, प्रतिपूर्ण, अव्याबाध, अनावरण, अनन्त तथा अनुत्तर केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ । तब वह भगवान् अर्हन् और जिन हो गये । केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गए। देवों मनुष्यों और असुरों सहित लोक की आगति, गति, स्थिति, च्यवन तथा उपपात को और खाये, पीये, किये, सेवन किये को, प्रकट कर्म को, पारस्परिक भाषण को कथन को, मनोगत भाव को, इस प्रकार सब पर्यायों को जानते और देखने लगे । समस्त लोक में, सब जीवों के એટલે વૈશાખ શુદ્ધિ વર્તતી હતી. તે દિવસે શુકલ પક્ષના દશમે દિવસ આવી રહ્યો હતા. સાથે સાથે દિવસ પણ સારા, વિજયમુહૂત, અને ઉત્તરાફાલ્ગુની નક્ષત્રના યોગ હતા. દિવસના ત્રીજો પ્રહર ચાલતા હતા. આ સમયે ભગવાન, ‘ગોદોહ' નામનું ઉકડૂ આસન જમાવી રહ્યા હતા તે આસને સ્થિત થઈ, ‘આતાપના' લેતા હતા. ચતુર્વિધ આહારના ત્યાગ સાથે તેમણે છઠ્ઠની તપસ્યા આદરી હતી. પ્રભુએ બન્ને ઘૂંટણા ઉપર પેાતાના હાથ રાખ્યાં હતાં. અને માથુ નીચે ઝુકાવ્યું હતું. ધ્યાનના કાઠામાં મશ્કુલ હતા. તે વખતે તેઓ શુકલધ્યાનમાં આરૂ થયેલા હતા. આ સમયે પ્રભુને મુક્તિના હેતુભૂત, અવિકળ, પ્રતિપૂર્ણ, અવ્યાબાધ, અનાવરણુ, અનંત, અને અનુત્તર એવુ કેવલજ્ઞાન-કેવલદેન ઉત્પન્ન થયું. કેવળ જ્ઞાન-કેવળ દર્શન ઉત્પન્ન થતા, ભગવાન અત્ જીન-કેવલી કહેવાયાં. તેએ સર્વૈજ્ઞ અને सर्व थया. ते देव-मनुष्य-तिर्यय सहित झोउना लवोनी, आगति, गति, स्थिति, भ्यवन, उपघात, विगेरे,
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मञ्जरी टीका
केवलज्ञान दर्शनप्राप्ति
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श्री कल्पसूत्रे ॥३२७॥
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ततः खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य केवलवरज्ञानदर्शनोत्पत्तिसमये सर्वैः भवनपति - व्यन्तर - ज्यौतिषिक - विमानवासिभिः देवैश्व देवीभिव उपयद्भिश्व उत्पतद्भिश्व एको महान् दिव्यो देवोद्योतो देवसन्निपातः arone: उत्पिञ्जलकभूतचापि बभूव ||०१०० ॥
टीका – 'तए णं तस्स' इत्यादि । ततः = महास्त्रमदशकदर्शनानन्तरं खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तपः संयमं = तपोद्वादशविधं संयमं सप्तदशविधं समाराधयतः = सम्यक् प्रकारेण कुर्वतो द्वादशसु वर्षेषु त्रयोदशसु पक्षेषु च अर्थात् सार्धषण्मासाधिकेषु द्वादशवर्षेषु व्यतिक्रान्तेषु व्यतीतेषु सत्सु त्रयोदशस्य वर्षस्य पर्याये= संयमपर्याये वर्तमानस्य यः सः ग्रीष्माणां = ग्रीष्मऋतुसम्बन्धी द्वितीयो मासः चतुर्थः पक्षो वैशाखशुद्धः, तस्य खलु वैशाखशुद्धस्य दशमीपक्षे = दशम्यां तिथौ सुत्रते= सुव्रतनामके दिवसे, विजये मुहूर्ते, हस्तोत्तरासु नक्षत्रेसभी भावों को जानते हुए तथा देखते हुए विचरने लगे । तव श्रमण भगवान् महावीर के केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के समय में, सब भवनपति, व्यन्तर, ज्यौतिषिक तथा विमानवासी देवों और देवियों के आने-जाने से एक महान दिव्य देव प्रकाश हुआ, देवोंका संगम हुआ, कल-कल नाद हुआ और देवों की बहुत बड़ी भीड़ हुई || मू०१००||
टोका का अर्थ-दस महास्त्रम देखने के पश्चात्, तप संयम की आराधना करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को दीक्षा अंगीकार किये, बारह वर्ष और तेरह पक्ष अर्थात् साढ़े बारह वर्ष और पन्द्रह दिन बीत जाने पर संयम - पर्याय का तेरहवाँ वर्ष चलता था, उस समय ग्रीष्मऋतु संबंधी दूसरा मास और चौथा पक्ष - वैशाख शुद्ध पक्ष था। उस वैशाख शुद्ध पक्ष की दशमी तिथि में, सुव्रत नामक दिवस में, विजय मुहूर्त में, ચર્યાએ ને જાણવા અને દેખવા લાગ્યા. દરેક જીવનો ખાન-પાન આદિની ક્રિયાએ પણ, તેમના જ્ઞાન દ્વારા જણાતી જતી હતી. પ્રગટક રહસ્યક, પરસ્પરના ભાષણા, કથન અને મનોગત ભાવા વિગેરેને તેએ જાણવા તેમજ દેખતા થકા વિચરવા લાગ્યા. ત્યારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને કેવળજ્ઞાન-કેવળદર્શીન ઉત્પન્ન થતાં ભવનપતિ, વ્યંતર, ચૈાતિષિક તથા વિમાનવાસી દેવ-દેવીઓ આવવાં લાગ્યાં. આ અવરજવરને પરિણામે, એક મહાન દિવ્ય દેવ પ્રકાશ પડવા લાગ્યો. દેવાના સંધ ‘કલ-કલ' અવાજ કરતા ભગવાનના દર્શન કરવા ભીડ કરી રહ્યો હતા. (સૂ॰૧૦૦)
વિશેષા— ભગવાનને ઉગ્ર તપ-સંયમની આરાધનાના અંતે, સાડાબાર વર્ષી અને પંદર દિવસને વખત પૂરા થયા હતા. આ સચમની છેલ્લી અવસ્થામાં, તેમને જે દશ મહાસ્વપ્નના અનુભવ થયા હતા, તે તેમના નિરાવરણીય જ્ઞાનના ઉઘાડની પૂર્વભૂમિકાનું દિગ્દર્શન હતું. આ સ્વપ્નો સુખદ અનુભ્રવના આગાહીરૂપે હતાં. આ સ્ત્રષ્નાબાદ પશુ
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वर्णनम् ।
॥ सू० १०० ॥
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॥३२८॥
टीका
हस्तोपलक्षितोत्तरानक्षत्रे-उत्तराफलगुनीनक्षत्रे योग-चन्द्रेण योगम् उपगते प्राप्ते प्राचीनगामिन्यांपूर्वदिग्गतायां छायायां व्यक्तायां व्यक्ताभिधानायां पौरुष्यां-दिवसस्य तृतीये पहरे इत्यर्थः, तत्रसालक्षमूलासनपदेशे अपानकेन=निर्जलेन पष्ठेन भक्तेन, गोदोहिकया उत्कुटुकया निषद्यया-गोदोहनामकोत्कुटुकासनेन आतापनाम् आतापयत आतापनां कुर्वतः ऊर्वजान्वधः शिरस: उपरिकृतजानुद्वयाधः कृतमस्तकस्य, ध्यानकोष्ठोपगतस्य-ध्यानधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च, तदेव-कोष्ठः कुशूलस्तमुपगत-सम्माप्तस्तस्य-ध्यानेन निगृहीतेन्द्रियः करणवृत्तिकस्य शुक्लध्यानान्तरिकायाम् शुक्लध्यानं पृथत्तावितर्क सविचारम् १, एकत्ववितर्कम् अविचारम् २, मूक्ष्मक्रियम् अप्रतिपाति ३, समुच्छिन्नक्रियम् अनिवर्ति ४, इति चतुर्विधं, तत्र-आद्यं ध्यात्वा-द्वितीये एकत्ववितर्काविचाररूपे ध्याने वर्तमानस्य स्थितस्य निर्वाणं निर्वाणकारणत्वात् कृत्स्नं सकलम्-अवण्डम् , सर्वपदार्थावगाहनात् केवलवर ज्ञानदर्शनमपि कृत्स्नं व्यपदिश्यते । प्रतिपूर्णम्-मकलांशसम्पन्नम् अव्याहतंव्याघातवर्जितम् निरावरणम् आवरणरहितम् , अनन्तम् अनन्तवस्तुविषयकम् अनुत्तरं सवेत उत्कृष्टं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्। चन्द्रमा के साथ उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र का योग होने पर, छाया जब पूर्वदिशाकी ओर जाने लगी थी, व्यक्ता नाम की पौरुषी में अर्थात् दिन के तीसरे पहर में, सालक्ष के मूल के समीपवर्ती प्रदेश में, चौविहार षष्ठभक्त के तप से, गोदोह नामक उत्कुटुक आसन से आतापना लेते हुए, दोनों घुटने ऊपर और सिर नीचा किये हुए भगवान् धर्मध्यान और शुक्लध्यान रूपी कोष्ठ में प्रविष्ट, थे। ध्यान के द्वारा उन्होंने इन्द्रियों के और अन्तःकरण के व्यापार को रोक दिया था। शुक्ल ध्यान चार प्रकार का है-(१) पृथक्त्ववितर्क सविचार (२) एकल वितर्क अविचार (३) मुक्ष्मक्रिय अपनिपाति (४) समुच्छिन्नक्रिय अनिर्वति भगवान् शुक्लध्यान के पृथक्त्व वितर्क सविचार नामक प्रथमपाये को ध्यार एक वितर्क अविचार नामक दुसरे पाये में लीन थे। ભગવાન ધ્યાનમાં આરૂઢ થયા હતા. આ ધ્યાન શ્રેષ્ઠ ભૂમિકાનું હતું આ શ્રેષ્ઠ ભૂમિકા શુક્લ ધ્યાન કહે છે. આ શુકલ યાનના ચાર પ્રકાર છે. (૧) પંથકન્ય વિતક સુવિચાર (૨) એકત્વ વિતક અવિચાર (૩) સૂફમક્રિયા અપ્રતિપાદિત (૪) સમુછિન ક્રિયા અનિવર્તિ શુકલ ધ્યાનને પહેલે પાર પથકવ એકત્વ સવિચારને છે, જેમાં તમામ આત્મિક ભાવને પૃથક પૃથક કરી તેના પર સંપૂર્ણ વિચાર કરતાં કરતાં તમામ ભાવેને એકરૂપ બનાવી, આત્મ પરિણતિમાં સ્થિર કરે છે બીજા “શુકલ ધ્યાન’ના પાયા રૂપે ‘એકત્વ પૃથકત્વ અવિચાર’ની શ્રેણી પર જીવ ચડે છે. આ શ્રેણીમાં જગતના સર્વ પદાર્થોની સામુદાયિક અતર અવસ્થાઓ અને તેની પરિણતિએને જુદી જુદી કરી, તે સર્વ ઉપર સૂકુમ ભાવે વિચાર કરે છે અને તેમના વર્ણ-ગંધ-રસ-સ્પર્શ આદિને આમ પરિશુતિ અને આર મ શક્તિથી ભિન્ન
केवलज्ञान मरदर्शनमाप्ति
- वर्णनम् ।
मू०१००॥
ES ॥३२८
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥३२९॥
ततः खलु स भगवान् अर्हन् अशोकादिपातिहार्ययोग्यः जिनो-रागद्वेषजेता जातः, पुनः कीदृशो जात इत्याह-केवली केवलज्ञानसम्पन्नः, सर्वज्ञः सर्वपदार्थज्ञः, सर्वदर्शी सर्वपदार्थदर्शकः, तथा-सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य आगति-भवान्तरात् गति-भवान्तरे स्थिति च्यवनं देवलोकात्तिर्यग्नरेषु अवतरणम् उपपातं मनुष्यतिर्यगायु:समाप्स्यनन्तरं देवलोके नरके वा उत्पत्तिम् , भुक्तं-खादिवमोदनादिकं पीतं-पानविषयीकृतं जलदुग्धादिकम् , कृतं चौर्यादिकं प्रतिसेवितं दोषादिकम् आविष्कर्म प्रकटकृतं रहः कर्म-प्रच्छन्नकृतं, लपितं-परस्परभाषितं कथितं= कंचिजनं प्रति एकाकिनोक्तम् , मानसिकम्-मनोगतं दुःखसुखादिकम् इति-एतत्पकारान् सर्वान् पर्यायान् जानाति उसी समय भगवान् को निर्वाण-मोक्ष का कारण, कृत्स्न-सकल पदार्थों को जानने के कारण सम्पूर्ण या अखण्ड, प्रतिपूर्ण-समस्त अंशो से युक्त, अव्याहत-व्याघातो से रहित, आवरणहीन, अनन्त-अनन्त वस्तुओं को जाननेवाला तथा अनुत्तरसर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ।
तब भगवान् अर्हन अर्थात् अशोकवृक्ष आदि आठ भातिहार्यो के योग्य तथा जिन-राग-द्वेष के विजेता हो गये। और केवली केवलज्ञानसम्पन्न, संत्रज्ञ-पदार्थों के ज्ञाता, तथा सर्वदर्शी-सभी पदार्थों को देखनेवाले हो गये। तथा देवी, मनुष्यों और असुरों सहित लोक की आगति=भवान्तर से आना, गति-भवान्तर में जाना, च्यवन देवलोक से तिर्यंच और मनुष्य भवों में अवतरित होना, उपपात-मनुष्य या तिथंच के भव की समाप्ति के पश्चात् देवलोक या नरक में उत्पन्न होना, भुक्त-खाया हुआ ओदन आदि, पीत-पिया हुआ जल, दूध आदि, कृत-किया हुआ काम-चोरी आदि, प्रतिसेवित-सेवन किया हुआ दोष आदि, प्रकटकर्म, गुप्तकर्म, लपित-पारस्परिक भाषण, कथित-किसी के प्रति अकेले द्वारा किया हुआ कथन, मानसिक-मन के मुखदुःख કરી, કેવળ આમ અવલંબને જીવ સ્થિર થાય છે. આ ક્રિયાઓ પહેલા અને બીજા શુકલધ્યાનના પાયા ઉપર થાય છે. આ બીજા પાયાના અંત સમયે, અને ત્રીજા પાયાના પહેલા સમયે, નિર્વાણુના કારણભૂત, સમસ્ત અંશેથી યુક્ત, અવ્યાહત અને આઘાતે રહિત, નિશવરવાળું અનંત વસ્તુઓના સૂફમ પર્યાયો અને તેની રૂપાંતર અવસ્થાઓને જાણવાવાળું, અનુત્તર કેવળ જ્ઞાન-કેવલદર્શન, ભગવાનને પ્રાપ્ત થયું. આ પ્રાપ્ત થતાં અશોકવૃક્ષ આદિ આઠ મહા પ્રતિહાર્યો યોગ્ય ભગવાન થયા. રાગ-દ્વેષને ક્ષય કરવાવાળા “જિન” થયા કેવલજ્ઞાન સંપન્ન, સર્વ પદાર્થોના જ્ઞાતા અને દ્રષ્ટા થયા. સર્વ જગતવાસી જંતુ જીની સકલ અવસ્થાઓ અને તેના રુપાંતરેને ભગવાન જાણવા-દેખવાવાળા થયા. તેમજ
જડ પર્યાના સમ ભાવેને પશુ જાણવા-દેખવાવાળા થયા. પિતાને જ્ઞાનગુણ અને નિજાનંદી સ્વભાવ, જે અનંતાત્ર કાલથી અપ્રગટ હતાં. તે પ્રગટ થયા. આને લીધે અનંત સુખ જે ઢંકાઈ રહેલું હતું તે બહાર આવ્યું; પિતાની દૃષ્ટિ
केवलोत्पत्ति वर्णनम् । मू०१०॥
॥३२९॥
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श्री कल्पमूत्रे
उपचा देश
प्रत्यक्षीकरोति, पश्यति-केवलज्ञानालोकेन करामलकवत प्रेक्षते । एवंभूतः स भगवान् सर्वजीवानां सर्वभावान्= सर्वपर्यायान् जानाना विदन् पश्यन्-प्रेक्षमाणो विहरति ।
ततः तदनन्तरं खलु-श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य केवलवरज्ञानदर्शनोत्पत्तिसमये-केबलवरज्ञानस्यकेवलवरदर्शनस्य च प्रकटनकाले सर्वैः समस्तैः भवनपति-व्यन्तरं-ज्यौतिषिक-विमानवासिभिश्चतर्विधैः देवीभिश्च उपयद्भिः-प्रभुसमीपमागच्छद्भिश्च, उत्पतद्भिः ऊर्वआगनमण्डलं गच्छद्भिश्च एको महान् विशाल: दिव्य शोभन: देवोद्योत: देवभकाशः देवसन्निपातः देवसङ्गमः देवकलकल: देवनादः उत्पिञ्जलकभूतः-संबाधश्थापि बभूव ॥सू०१०॥
मूलम्-तए णं से समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमिक्ख जोयणवित्थारणीए सयसयभासापरिणामिणीए वाणीए पुवं देवाणं पच्छा मणुस्साणं धम्ममाइक्खइ । तस्थ भगवओ सा धम्मदेसणा तित्थयर कप्पपरिपालगाए जाया, न केणवि तत्थ विरई पडिवन्ना। नो णं एवं कस्सवि तिस्थयरस्स भूयपुव्वं अओ एयं चउत्थं अच्छेरयं जायं । आदि भाव, इत्यादि सभी पर्यायों को साक्षात्-केवलज्ञान के प्रकाश में हस्तामलकवत् जानने लगे। इस प्रकार के भगवान् समस्त जीवों से सब पर्यायों को जानते-देखते हुए विचरने लगे।
श्रमण भगवान् महावीर के केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के समय भवनपति, व्यन्तर, ज्यौतिपिक और विमानवासी-इन चार प्रकार के सभी देवों और देवियोंका भगवान् के समीप आने और आकर ऊपर आकाशमंडल में जाने के कारण एक विशाल शोभनप्रकाश फैल गया। देवों का संगम हो गया। देवों का कल-कलनाद हो उठा और देवों की बहुत बड़ी भीड़ हो गई ॥मू०१००॥
केवुलोत्पत्ति
वर्णनम्। है ।मु०१०॥
॥३३०||
અનંતકાળથી પર પદાર્થરૂપે પરિણમી રહી હતી તે ‘સ્વ' તરફ વળી ત્યાં સ્થિર થઈ શુદ્ધાશુદ્ધ પર્યાયને પિંડ ગણાતે આત્મા, સમસ્ત પર્યાને શુદ્ધ નિરાવલંબી અને નિજગુણ યુક્ત બનાવી, પિતામાં સમાઈ ગયા. “સમજીને સમાઈ જવું” એ અવ્યક્ત “ભાવ” જે દીક્ષા પર્યાય વખતે ભગવાનને પ્રગટ થયું હતું, તે ભાવે વ્યક્તરૂપ ધારણ કર્યું. સર્વ પર્યાય અને ભાવે, નિજાનંદમાં આવી જવાથી તે સર્વ કેવળ જ્ઞાન સ્વરૂપે પરિણમવા લાગ્યા અને આ પર્યાયે સ્થિર અને એકરૂપ થતાં આત્મા અખંડરૂપે બની, કેવળ એકરૂપ સંપૂર્ણજ્ઞાનમય થયે જે જ્ઞાન અને આનંદ તેને નિજ સ્વભાવ છે. (સૂ૦-૧)
પી
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श्री कल्प
कल्प
मञ्जरी
॥३३॥
टीका
तए णं से समणे भगवं महावीरे तो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्वमित्ता जणवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं पावापुरीणामं णयरी होत्था-रिद्धस्थिमियसमिद्धा। तत्थ णं पावाए पुरीए सीहसेणो णाम राया होत्था, महयादिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे । तस्सणं सीहसेणस्स रणो सीलसेणा णामं देवी, हस्थिवालो णाम पुत्तो जुधराया होत्था। तीए गं पावाए पुरोए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए सम्बोउय पुप्फ फलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे महासेणं नाम उजाणे होत्था। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे महासेणे उज्जाणे समोसढे ||मू०१०१!!
छाया--ततः खलु स श्रमणो भगवान महावीर उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः आत्मानं लोकं च अभीसमीक्ष्य योजनविस्तारिण्या स्व स्व भावा परिणामिन्या वाण्या पूर्व देवेभ्यः पश्चात मनुष्येभ्यो धर्ममाख्याति । तत्र भगवतः
सा धर्मदेशना तीर्थकरकल्पपरिपालनाय जाता, न केनापि तत्र विरतिः प्रतिपन्ना। नो खलु एवं कस्यापि 5 तीर्थकरस्य भूतपूर्वम् , अतः एतच्चतुर्थमाश्चर्य जातम् ।
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् उन उत्पन्न ज्ञान-दर्शन को धारण करनेवाले श्रमण भगवान् महावीरने आत्मा को और लोक को परिपूर्ण तथा यथार्थ रूप से जानकर, एक योजन तक फैलनेवाली और (श्रोताओं की) अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जानेवाली वाणी से, पहेले देवों को और फिर मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। वहाँ भगवान की वह धर्मदेशना तीर्थकरों के कल्प का पालन करने के लिए ही हुई। वहाँ किसीने विरति अंगीकार नहीं की। एसा किसी भी तीर्थकर के विषय में नहीं हुआ था। अत एव यह चौथा आश्चर्य हुआ।
भजने। अर्थ-'तएणं' त्या पन्ना सरधरे Asle ' श्रम लगवान महावीर २१ भने પરના યથાર્થ જાણકાર બન્યા. આ જ્ઞાનની સાથે, તેમને અલૌકિક દિવ્યવાણીની પણ પ્રાપ્તિ થઈ આ વાણીનુ શ્રવણ, એક જન સુધી થઈ શકતું હતું તેમજ આ વણીને પ્રભાવ એ હતું કે સર્વ પ્રાણીઓ આ વાણી દ્વારા વ્યક્ત થતા ભાવને પિતાપિતાની ભાષામાં સમજી શકતાં આ વાણી દ્વારા ભગવાને પહેલાં દેવને ત્યારબાદ મનુષ્યને ઉપદેશ આપ્યો. આ ધર્મ દેશના અગાઉના તીર્થકરોની પરંપરાનું પાલન કરવા પૂરતી જ નિવડી. આ ધમ દેશનાંમાં કેઈ પણ જીવે વિરતિ લીધી નથી. આ બનાવ ભગવાન મહાવીરની બાબતમાં તેમજ અનંત તીર્થકરોના વ્યવહારમાં પહેલહેજ બન્યું તેથી તે શું આશ્ચર્ય થયું.
चतर्थमाश्चर्य (अच्छेरा ४) ॥सू०१०१॥
॥३३॥
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श्रीकल्पसूत्रे ||३३२ ।
10
鄭風
ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरस्ततः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य जनपदविहारं विहरति, तस्मिन् काले तस्मिन् समये पावापुरी नाम नगरी आसीत् ऋद्धस्तिमितसमृद्धा । तत्र खलु पावायां पुर्याा सिंहसेनो नाम राजाssसीत् महाहिमवन्महामलय मन्दरम हेन्द्रसारः । तस्य खलु सिंहनेस्य राज्ञः शीलसेना नाम देवी, हस्तिपालो नाम पुत्रो युवराज आसीत् । तस्याः खलु पापायाः पुर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे सर्वर्तुक पुष्पफलसमृद्धं रम्यं नन्दनवनप्रकाशं महासेनं नामोद्यानमासीत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरो महासेने उद्याने समवसृतः ॥ १०१ ॥ ।
टीका -- “तणं से समणे भगवं' इत्यादि । ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः उत्पन्नज्ञानदर्शनतत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर वहाँ से विहार करके जनपद में विचरने लगे। उस काल और उस समय में पावापुरी नमरी थी । वह ऋद्ध ऊँचे-ऊँचे भवनों से युक्त, स्विमित = स्वपरचक्र के भय से रहित और समृद्ध धन-धान्य की समृद्धि से युक्त थी । उस पावापुरी नगरी में सिंहसेन नामक राजा था। वह महाहिमवान्, महामलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान श्रेष्ठ था । उस सिंहसेन राजा की शीलसेना नाम की रानी थी । हस्तिपाल नामक पुत्र युवराज था । उस पावापुरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में, सब ऋतुओ के पुष्पों तथा फलों से समृद्ध, रमणीक, नन्दनवन समान प्रकाशवाला महासेन नामक उद्यान था। उस काल और उस समय मे श्रमण भगवान् महावीर महासेन उद्यान में पधारे ॥ ०१०१ ।।
टीका का अर्थ - उस समय उत्पन्न हुए ज्ञानदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीरने आत्मा के-अपने
ત્યારપછી શ્રવણુ ભગવાન મહાવીર અનુક્રમે વિહાર કરતાં કરતાં, પાવાપુરીનામની નગરીમાં પધાર્યા. આ નગરી ઋદ્ધ-એટલે તેમાં ઉંચા ઉંચા ભવના રહેલાં હતાં. ક્ષિમિત-એટલે સ્વ-પર ચક્રના ભયથી વિમુક્ત હતી. સમૃદ્ધએટલે ધન અને ધાન્યથી સમૃદ્ધ થયેલી હત. આ નગરીમાં સિંહુસેન નામના રાજા રાજ્ય કરતા હતા. આ રાજા મહાદ્ધિમયાન પહાડ, મહામલય, મેરૂ અને મહેન્દ્ર પર્યંત સમાન શ્રેષ્ટ હતા આ રાજાને શીલ નામની રાણી હતી. તેમજ હસ્તિપાલ નામના પુત્ર હતે. આ પુત્રે યુવરાજપદ પ્રાપ્ત કરેલુ હતુ. આ પાવાનગરીની બહાર, ઉત્તર પૂર્વ દિશામાં એટલે ઈશાનકાણુમાં મઋતુના પુષ્પા અને ફળવાળુ એક સમૃદ્ધ અને રમણીય ઉદ્યાન હતું. આ ઉદ્યાનની શૈાભા નંદનવન સમી હતી. આ ઉદ્યાનનુ નામ ‘મહાસેન’ રાખવમાં આવ્યું હતુ. આકાલ અને આ સમયે भगवान महावीर मा उद्यानभां पधार्या. (सू० १०१ )
વિશેષા અરહા જનકેવલી' એવા જ્ઞાન દર્શનના ધાયક શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, પાંચ અસ્તિકાયરૂપ
कल्प
मञ्जरी टीका
चतुर्थमाश्चर्य (अच्छेरा ४) ॥ सू० १०१॥
।।३३२॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
||३३३॥
टीका
धरः-उत्पन्नस्य-जातस्य ज्ञानस्य केवलज्ञानस्य दर्शनस्य च धरधारक: आत्मानस्वं, लोकपश्चास्तिकायलक्षणं च अभिसमीक्ष्य यथावद विज्ञाय योजनविस्तारिण्या-योजनप्रमाणप्रदेशव्यापिन्या स्व स्व भाषापरिणामिन्यादेवमनुष्यतिर्यग्भाषातया परिणतीभवन्त्या पाण्यावाचा पूर्व-सर्वतः प्रथमं देवेभ्यः देवानुद्दिश्य प्रश्चात् अनन्तरम् मनुष्येभ्या मनुष्यानुद्दिश्य धर्मम् आख्याति-उपदिशति । तत्र-सदेवासुरमनुनाया परिषदि भगवतो या धर्मदेशना जाता सा-धर्मदेशना केवलं तीर्थकरकल्पपरिपालनाय जाता, तत्र-धर्मदेशनायां केनापि जीवेन विरतिः विरक्तिः, सावधव्यापारनिवृत्तिलक्षणा न प्रतिपन्नाम्न स्वीकृता। एवम्-तीर्थकरस्य धर्मदेशनायां सत्यां कस्यापि विरत्यस्वीकरणं खलु श्रीमहावीरातिरिक्तस्य कस्यापि तीर्थकरस्य-जिनस्य परिषदि नो भूतपूर्वम्-पूर्व न भूतम् । अतः और पंचास्तिकाय रूप लोक के स्वरूप को यथावत् जान करके, एक योजन प्रमाणप्रदेश तक व्याप्त हो जानेवाली, तथा देवो मनुष्यों और तिर्थचों की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जानेवाली वाणी से पहले देवों को लक्ष्य करके और फिर मनुष्यों को लक्ष्य करके धर्म का उपदेश दिया।
मुगे. अनुरों और मनुष्यों की उस परिषद में भगवान् को जो धर्मदेशना हुई, वह धर्मदेशना केवल र तीर्थंकरों के कल्प-मर्यादा का पालन करने के लिए ही हुई। उस धर्मदेशना के होने पर किसी भी जीपने
विरति-सावधव्यापार के परित्याग रूप विरति-अंगीकार नहीं की। तीर्थकर की धर्मदेशना हो और कोई भी जीव विरती अंगिकार न करे, यह घटना श्री महावीर के सिवाय किसी भी तीर्थकर की परिषद में कभी घटीत नहीं हुई थी। अर्थात तीर्थंकरों की देशना अमोघ होती है। उसे श्रवण कर कोई न कोई भव्य जीव अवश्य ही संयम अंगीकार करता है। परन्तु महावीर स्वामी की यह देशना इस रूप में खाली गई। यह લકને દેખવાવાલા થયા. જેની વાણુ એક જન સુધી સંભળાય એવા વાણી-પ્રભાવક બન્યા. આ વાણુનું વ્યાપકપણું ચારે દિશાઓમાં પ્રસારિત હતું. ભાષાના સર્વ પુદ્ગલે જુદી જુદી રીતે રૂપાંતર થઈ શકે, એવા અલૌકિક શબ્દ રૂપિ પરમાણુઓ આ વાણીમાં ગોઠવાયાં હતાં અને ભાષાના મુદ્દગલેને ઉત્પાદ-વ્યય ઝપાટાબંધ થઈ રહેતાં, ધુવપછામાં સ્થિર થયે જતાં હતાં તેને લીધે આખી વાણી અખંડરૂપે નીકલતી અને તેના વહનને પ્રવાહ સલંગરીતે ખંડિત થયા વિના, એક યોજન સુધી ચારે બાજ વહેત. આ તે તે વખતને પ્રબલ વાણી પ્રવાહ વિચાર રૂપે ગોઠવાઈ ભગવાનના મુખમાંથી નીકળ્યા કરતા ! આવી વાણી દ્વારા, ભગવાન દેવને અનુલક્ષી તેમને બોધ આપતા તેમજ ત્યાર પછી મનુષ્ય તરફ લક્ષ કરી, તેમને અનુલક્ષી ધમને ઉપદેશ આપતા હતા. આ પહેલ વહેલી જે ધર્મ દેશના આપવામાં આવી હતી, તેનું લક્ષ્યાંક કેવલ અતીત તીર્થકરોની પરંપરાના પાલન પૂરતું જ હતું. અગાઉના તીર્થકરની વાણી, કેવલજ્ઞાન થયા પછી છૂટતી હતી ત્યારે, ઘણા સુલમ બધી જીવો સંસારથી વિરક્ત થતા હતા.
चतुर्थमाश्चर्य (अच्छेरा ४) सू०१०१॥
॥३३३॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥३३४॥
अभूतपूर्वत्वाद् हेतोः एतत् चतुर्थ - दशानामाश्चर्याणाम् उपसर्गः १, गर्भहरणम् २, स्त्रीतीर्थकरत्वम् ३, अभावितापरिषत् ४, कृष्णस्यापरकङ्काः - अपरकङ्काव्यराजधानीगमनम् ५, मूलरूपेणावतरणं चन्द्रसूर्ययोः ६, हरिवंशकुलोत्पत्तिः ७, चमरोत्पातः ८, अष्टशतसिद्धा:, असंयतेषु पूजा १०, इत्येतेषां मध्ये परिषदभावितत्वरूपं चतुर्थम् आश्चर्यं जातम् । ततः = धर्म देशनानन्तरं खलु स श्रमणो भगवान् महावीरः, ततः = सालवृक्षमूलासन्न प्रदेशात् प्रतिनिष्क्रामति= प्रतिनिःसरति, प्रतिनिष्क्रम्य = प्रतिनिःसृत्य जनपदविहारं - जनपदो देशो विद्दीयते विचर्यते येन विहरणेन - गमनेन तज्जनपदविहारं यथास्यात्तथा विहरति- विचरति, यद्वा- जनपद विहारं विहरति-करोति । धातुनामनेकार्थत्वादर्थान्तरते व करोत्यर्थो बोध्यः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'पापापुरी' नामनगरी आसीद = पापापुरी 'पा' इति पापात् पाति- रक्षतीति पापा, पृषोदरादित्वात्सिद्धिः । सा चासौ पुरी चेति पापापुरी एतन्नाम्नी नगरी, अभूतपूर्व घटना थीं। अत एव दस अच्छेरों में यह चौथा अच्छेरा है। दस अच्छेरे ये है-- (१) उपसर्ग होना (२) गर्भ का संहरण होना (३) खीका तीर्थकर होना ( ४ ) अभावित परिषद् होना । (५) कृष्ण का अपरकंका नामक घातकीखंडवत राजधानी में जाना (६) चन्द्र और सूर्यका असली रूप में समवसरण में आना । (७) हरिवंशकुल की उत्पत्ति ( ८ ) चमर का उत्पात (९) एकसौ आठ जीवों का एक ही समय में सिद्ध होना और (१०) असंयतों की पूजा होना । इन दस अच्छेरों मे अभावित परिषद् रूप चौथा अच्छे हुआ।
धर्मदेशना के बाद वह श्रमण भगवान् महावीर सालवृक्ष के मूल के निकटवर्ती प्रदेश से निकले और निकल कर जनपद - विहार करने लगे- देश में विचरने लगे। उस काल उस समय में पापापुरी नामकनगरी थी ।
શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની વાસી ઉપરના એ લક્ષ્યાંકને પ્રાપ્ત કરી શકી ન હતી, તેનું કારણ, ત્રણ રીતે જણાય છે. પહેલુ કારણ એ કે ચેાથા આરાના કાલનુ પ્રાબલ્ય પુરૂ થયુ હતું. પાંચમાં આરાના કાલના પ્રભાવ જામતા હતા. તેથી કાલના પ્રભાવે પણુ દુલ`ભ બધીપણું આવ્યું હાય ? શ્રીજું કારણ તે વખતના જીવાની લાયકાત પણ તૈયાર ન હાય ! જ્યાં ઉપાદાન ન જાગ્યું હોય, ત્યાં પ્રચંડ નિમિત્તો પણ શુ કરી શકે ? જીવાની ભૂમિકા વિશગીપણાને ચાગ્ય ન થવાને કારણે, ભગવાનનુ ધખીજ ક્ષારરૂપી ભૂમિકામાં પડવાથી, તે બીજ મળી ગયું. વળી આ જીવાને, મહારના પુણ્યંધ પ્રમલ નહિ હાવાને કારણે પણ, આ વાને, વિરતી દશાવાળા સંચાગા પણ, કદાચ ઉપલબ્ધ ન થઈ શકયા હોય, ત્રીજી કારણ ત્યાં રહેલા જીવાની ભસ્થિતિ નહિ પાકી હોય. ગમે તે કારણેા અતભૂત કામ કરી રહ્યા હાય પણ એક વાત તેા સામીત થાય છે કે મહાવીરની પ્રથમ વાણી, અસરકારક બની નહી! આ ઘટનાને અસંભવિત येथा 'आश्चर्य' तरी शाखामा गामां आव्यु छे.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
दर्शक (अच्छेरा १०) वर्णनम् ।
॥सु ०१०१
॥ ३३४॥
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श्री कल्प
॥ ३३५॥
Je Je Journey Sing
सेयं सम्प्रति पावापुरीतिकथ्यते सा कीदृशी ? इत्याह- ऋद्धस्तिमितसमृद्धा - तत्र - ऋद्धा - नभःस्पर्शिबहुलमासादयुक्ता बहुलजनसंकुलाच स्तिमिता = स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा = धनधान्यादिपरिपूर्णा, अत्र - त्रिपदकर्मधारयः । तत्र तस्यां खलु पापायांपुर्वी सिंहसेनो नाम राजा आसीत्, स कीदृशः ? इत्याह- 'महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसारः - महाहिमवन्महामलयमन्दर महेन्द्राणां पर्वतानां सार इव सारो यस्य स तथा - लोकमर्यादाकारित्वेन महाहिमवत्सदृशः, प्रसृतयशःकीर्तित्वेन महामलयतुल्यः, दृढ़प्रतिज्ञत्वेन कर्तव्यदिग्दर्शकत्वेन च मेरुमहेन्द्रसदृश पाप से रक्षा करनेवाली होने से पापा कहलाती है । आजकल वह 'पावापुरी' है। वह नगरी कैसो थी, सो कहते हैं-वह ऋद्धा-आकाश को स्पर्श करनेवाले बहुत से प्रासादों से युक्त थी और जनों की बहुलता से व्याप्त थी, तथा स्तिमिता स्व-परचक्र के भय से रहित थी । और समृद्धा - धन-धान्य आदि से भरी-पूरी थी । उस पावापुरी नगरी में सिंहसेन नामक राजा था। महाहिमवान्, महामलय, मेरु और महेन्द्र पर्वतों के सार के समान सारवाला था । लोकमर्यादा की स्थापना करनेवाला होने के कारण महाहिमवान् पर्वत के समान था । उसको यश-कीर्ति सर्वत्र फैली हुई थी, अतः महामलय पर्वत के समान था । दृढ़ प्रतिज्ञ होने तथा कर्त्तव्य रूपी दिशाओं का दर्शक होने के कारण मेरु और महेन्द्र के समान था । सिंहसेन राजा की
તીર્થંકરોની વાણી અને દેશનાના વિચાર પ્રવાહ, એટલા બધા અમેઘ હોય છે કે, તેનું શ્રવણ થતાં ભવ્ય જીવા અદૃશ્ય સચમ અને વિરતીપણાને અંગિકાર કરે છે. જેમ અષાઢ માસના વરસાદ એકધારા વરસી, પૃથ્વીની અંદર પેાતાના જલ પ્રવાહ દાખલ કરી દે છે, તેમ ભગવાન તીર્થંકરની વાણી પણુ, તાતી તેજવતી હાઈ અશુભ વિચારા ને ક્ષણ વારમાં પટાવી નાખે છે. ને સંસારના ભાવાને ફૂગાવવામાં ભવ્ય જીવને સહાયક બને છે.
દશ આશ્ચયરૂપ ઘટનાઓમાં આ ચેાથી આશ્ર્વરૂપ ઘટના છે, જેને જૈનશાઓમાં ‘ અચ્છેરા' કહેવામાં આવે છે. આ દશ અચ્છેરાઓ નીચે પ્રમાણે છે- (૧) પહેલુ' અચ્છેરૂ એકે ભગવાન મહાવીર ને ઉપસર્ગી થયા. આવા ઉપસર્વાં કાઈ પણ તીથ “કશને થયા હોય તેમ જણાતું નથી. તેથી તે આશ્ચય ભૂત ગણાય છે, અને એ તીવ્ર ક્ર બંધનનુ પરિણામ છે. (૨) બીજું અચ્છેરૂં એ કે ભગવાનનુ' ગČકાળ દરમ્યાન હરણુ થવુ. આવુ... આગમન તીર્થંકરાને હાજ નહિ છતાં પણ તે થયું તેથી આશ્ચય ગણાયું. (૩) ત્રીજી નુ' તીથ કર પણે થવું. (૪) ચાથુ' અભાવિત પિરષદ્-મેધના લ રહિત બનેલી પહેલી પરિષદ્. (૫) પાંચમું શ્રી કૃષ્ણ મહારાજનુ ' અપર કકા ' નામની રાજધાની જે ઘાતકી ખંડમાં આવેલી છે ત્યાં જવું, દ્રુપદીનું ત્યાં હરણ થયું હતું. વાસુદેવ પેાતાની ભૂમિની સીમા કાઇ પણ કાલે વટાવી કલા નથી. છતાં કૈપદીને ત્યાંથી લાવવા માટે અને પાંડવાનુ કામ કરવા માટે શ્રી કૃષ્ણરાજને ત્યાં જવુ પડયું
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कल्प
मञ्जरी
टीका
पापापुरी तन्नृप - वर्णनम् ।
॥सू०१०१॥
॥३३५॥
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सत्रे
कल्प. मञ्जरी टीका
॥३३६॥
।
ping इत्यर्थः। तस्य खलु सिंहसेनस्य राज्ञः शीलसेना नाम देवी-महिषी आसीत् , तथा-हस्तिपालो नाम तत्पुत्रः
युवराजः आसीत् । तस्याः खलु पापायाः पुर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये=उत्तरपूर्वान्तराले दिग्भागे-ईशानकोणे ओकल्प
सर्वतुकपुष्पफलसमृद्धं-बसन्तादि पड्तु सम्बन्धिपुष्पफलसुसम्पन्नं, रम्यं-सुन्दरं नन्दनवनप्रकाश-नन्दनवनतुल्यं, महासेनं नाम-महासेननामकम् उद्यानम् आसीत् ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये-सिंहसेनराजशासनकालावसरे श्रमणो भगवान् महावीरः, महासेनाद्याने समवसृतः विहारक्रमेण समागतः ॥मू०१०१॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं तीए पावाए पुरीए एगस्स सोमिलाभिहस्स बंभणस्स जन्नवाडे जन्नकम्मम्मि समागया रिउ जजु सामा थव्यणाणं चउण्डं वेयाणं इइहासपंचमाणं निघंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साहं सारया वारया धारया, सडंगनी सद्वितंत विसारया संखाणे सिक्खाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोइसामयणे अन्नेमु य बहुसुं बंभण्णएसु परिवायएसु नएसु सुपरिणिटिया सव्वविहबुद्धिनिउणा जन्नकम्मनिउणा इंदभूइपभिइणो एगारस माहणा सयसयसिस्स परिवारेण परिवुडा जन्नकम्मनिउणा तत्थ जण्णं कुणंति। तहा शीलसेना नामको रानी थी। हस्तिपाल नामक उसका पुत्र युवराज था।उस पावापुरी के उत्तर-पूर्व दिशा के अन्तराल में, ईशान कोण में, वसन्त आदिछहों ऋतुओं संबंधी फूलों और फलों से सम्पन्न, रमणीक एवं नन्दनवन के समान महासेन नामक उद्यान था। उस काल, उस समय में, अर्थात् सिंहसेन राजा के शासन- काल के अवसर पर श्रमण भगवान महावीर क्रमशः विहार करते हुए महासेन उद्यान में पधारे ॥१०१.१॥ હતું (૬) છઠું–ચંદ્ર અને સૂર્ય દેવો, પિતાના અસલ સ્વરૂપે કોઈ પણ વખતે તીર્થકરેના સમવસરણમાં આવતા જ નથી. છતાં ભગવાન મહાવીરના સમવસરણમાં તેમનું આવવું થયું. (૭) સાતમું હરિવંશ કુલની ઉત્પત્તિ, જુગલિઆના એક યુગલને અહિં લાવી તેમાંથી થઈ તે એક અહેરા ભૂત વાત બની.! (૮) આઠમું શક્રેન્દ્ર ને મારવા, ચમરે મહાન ઉત્પાત મચાવ્ય, તે પણ એક આશ્ચર્યકારક બને છે ચરમેન્દ્ર નીચેની ધરતીને ધણી છે. અને શકેન્દ્ર પહેલાં દેવલોકને ધણી છે છતાં અમરેન્દ્ર તેની સાથે યુદ્ધ કરવા તત્પર થયા. (૯) નવમું એકી સાથે એકજ સમયમાં એકસો આઠ જી, સિદ્ધગતિને પામ્યા, તે પણ આશ્ચર્ય કારક ગણાય. (૧૦) દશમું આ શાસનમાં અસંયતિએની પૂજા જગતમાં થાય તેના ગુણ ગાન ગવાય! તે એક અચ્છેરું છે. ભગવાન ત્યાંથી નીકળી. સમૃદ્ધ એવી પાવાપુરી
નગરીમાં પધાર્યા. અહિંને રાજ સિંહસેન તે વખતે મહાબલવાન અને સર્વ પ્રકારના આયુધથી સજજ એ ગણાતેJain Education interinar नगरीमा मे 'महासेन' नामनु Gधान disgPRAL Gधानाभा जय श्रेणीनुभयातु (सू०१०१)
पापापुरी
तन्नृप
वर्णनम्। सू०१०१॥
॥३३६॥
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श्रीकल्प
श्रीकल्पमञ्जरी
॥३३७॥
टीका
अण्णे वि तत्थ बहवे उवज्झाया-गग्ग-हारीय-कोसिय-पेल-संडिल्ल-पारासज्ज-भरदाज-वस्सिय-सावणियमेत्तेजां-गिरस-कासव-कच्चायण-दक्खायण-सारव्ययायण-सोनगायण-नाडायण-जातायणा-स्सायण-दब्भायणचारायण-काविय-बोहियो-वमन्नवा-तेजप्पभिइओ मिलिया होज्जा ।।मू०१०२।।
छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्यां पापायां पुर्याम् एकस्य सोमिलाभिधस्य ब्राह्मणस्य यज्ञपाटे यज्ञकर्मणि समागता ऋग्यजुः सामाथर्वणां चतुणी वेदानाम् इतिहासपश्चमानां निघण्टु षष्ठानां साङ्गोपाङ्गानां सरहस्यानां स्मारका वारका धारका षडङ्गविदः षष्टितन्त्रविशारदा संख्याने शिक्षणे शिक्षाकल्पे व्याकरणे छन्दसि निरुक्ते ज्योतिषामयने अन्येषु च बहुषु ब्राह्मण्येषु पारिव्राजकेषु नयेषु सुपरिनिष्ठिताः सर्वविधबुद्धिनिपुणा यज्ञकर्मनिपुणा इन्द्रभूतिपभृतय एकादश ब्राह्मणाः स्वस्त्र परिवारेण परिवता यज्ञं कुर्वन्ति । तथा अन्येऽपि तत्र बहव उपाध्यायः-गार्य-हारीत-कौशिक-पेल-शाण्डिल्य-पाराशर्य-भारद्वाज-वात्स्य-सावर्ण्य-मैत्रेया
मूळ का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि। उस काल और समय में, पावापुरी में, किसी सोमिल नामक ब्राह्मण के यज्ञ के पाडे-महोल्ले में, यज्ञ-कर्म में आये हुए अंगोपांग सहित तथा रहस्य सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद; इन चारों वेदों के, पाँचवें इतिहास के और छ? निघंटु के स्मारक (दूसरों को याद करानेवाले), वारक (अशुद्ध पाठ को रोकनेवाले) और धारक (अर्थ के ज्ञाता), छहों अंगों के ज्ञाता, पष्टितन्त्र (सांख्यशास्त्र) में विशारद, गणित में शिक्षण में, शिक्षा में कल्प में, व्याकरण में, छन्द में, निरुक्त में, ज्योतिष में तथा अन्य बहुत-से ब्राह्मणों के शास्त्रों मे तथा परिव्राजकों के आचारशास्त्र मे कुशल, सब प्रकारकी बुद्धियों से सम्पन्न यज्ञकर्म में निपुण इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण. अपने-अपने शिष्य परिवार सहित यज्ञ कर रहे थे। इनके अतिरिक्त और भी बहुत-से उपाध्याय वहाँ इकटे हुए थे। यथा गार्य, हारित, कौशिक,
भूजन अर्थ “तेणं कालेणं" त्याह-आणे भने सभये पारापुरीमा सेमिनामना सामना यज्ञना વાડામાં, યજ્ઞ-કર્મ માં આવેલ અંગોપાંગ સહિત તથા રહસ્ય સહિત ત્રાટ્વેદ, યજુર્વેદ, સામવેદ, અને અથર્વવેદ એ ચારે વેદના, પાંચમા ઈતિહાસના અને છઠ્ઠા નિઘંટુના સમારક (બીજાને યાદ કરાવનાર) વારક (અશુદ્ધ પાઠને રેકનારા), અને ધારક (અર્થને જાણનારા), છએ અંગેની જાણકાર, ષષ્ટિ તંત્ર (સાંખ્ય શાસ્ત્રોમાં વિશારદ, ગણિતમાં, શિક્ષણમાં, શિક્ષામાં, કપમાં, વ્યાકરણમાં, છંદમાં, નિરૂક્તમાં, તિષમાં તથા બ્રાહ્મણના બીજા ઘણા શાસ્ત્રોમાં તથા પરિવ્રાજકના આચાર શાસ્ત્રમાં નિપુણ, બધા પ્રકારની બુદ્ધિઓથી સંપન્ન, યજ્ઞ કર્મમાં નિપુણ ઇન્દ્રભૂતિ આદિ અગિયાર બ્રાહ્મણ પોતપિતાના શિષ્ય પરિવાર સાથે યજ્ઞ કરતા હતા. તેમના સિવાય બીજા પણ ઘણુ એ ઉપાધ્યાયે ત્યાં એકત્ર થયા હતા જેમકે
..यज्ञ वर्णनम् । मू०१०२॥
॥३३७॥
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कल्प
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मञ्जरी
टीका
शिरस-काश्यप-कात्यायन-दाक्षायण-शारद्वतायन-शौनकायन-नाडायन-जातायना-वायन-दार्भायण-चारायणकाप्य-बोध्यो-पमन्यवा-त्रेयप्रभृतयो मिलिता अभवन् ।मु०१०२॥
टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि । तास्मिन् काले तस्मिन् समये तस्यां पापायां-पापा श्रीकल्प.
नाम्न्यां पुर्याम् एकस्य सेोमिलाभिधस्य सोमिलनामकस्य ब्राह्मणस्य यज्ञपाटे-यज्ञस्थाने यज्ञकर्मणि-यज्ञक्रिया. ॥३३८॥
याम् समागताः ऋग्यजुस्सामाथर्वणां चतुगी वेदानाम् इतिहास पश्चमानाम् निघण्टु षष्ठानां-निघण्टुः वैदिककोषःस षष्ठो येषां तेषां च शास्त्राणां साङ्गोपाङ्गानाम्-अङ्गोपाङ्गसहितानाम्-छन्दः कल्पज्यौतिष-व्याकरण-निरुक्तशिक्षारूपाङ्गषट्रकसहितानां तथा-छन्दःप्रभृत्यङ्गीभूतशास्त्रसहितानां चेत्यर्थः, सरहस्यानां रहस्यसहितानाम्-सारांशसहितानामित्यर्थः, स्मारकाः परेषां जनानां स्मारयितारः, वारकाः अशुद्धपाठनिषेधकाः, धारका: एतत्प्रतिपाद्यापैल, शाण्डिल्य, पाराशर्य, भारद्वाज, वात्स्य, सावर्ण, मैत्रेय, आंगिरस, काश्यप, कात्यायन, दार्भायण, चारायण, काप्प, बौध्य, औपमन्यव, आत्रेय आदि ॥०१०२॥
टीका का अर्थ-उस काल और उस समय में, उस पावापुरी में एक सोमिल नामक ब्राह्मण के यज्ञस्थल में, यज्ञ-क्रिया के लिए आये हुए इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण अपने-अपने शिष्य-परिवार युक्त होकर यज्ञ कर रहे थे। वे ब्राह्मण ऋक, यजु, साम और अथवं इन चारों वेदों में, पांचमें इतिहास में और छठे निघंटु (दिक कोष) में कुशल थे। वे छन्द कल्प ज्योतिष व्याकरण निरुक्त तथा शिक्षा, इन छहों अंगों सहित तथा रहस्य-सारांश सहित वेदों के स्मारक थे, अर्थात् अन्यलोगों को याद कराने वाले थे, वारक थे अर्थात अशुद्ध उच्चारण करने वालोंको रोकते थे, और धारक थे, अर्थात इनके अभिधेय अर्थ को धारण करने पाय, हारीत, शशि, पैस, शालय, पाराशय, भारद्वारा पास्य साय, भत्रेय मानिस, अश्यप, अत्यायन, हाक्षाया, શારદૂવતાયન, શૌનકાયન, જાતાયન, આધાયન દાભયન, ચારાથણ કાય, બૌધા, ઔપમન્યવ આત્રેય વગેરે (સ. ૧૦૨)
ટીકાને અર્થ –તે કાળે અને તે સમયે, તે પાવાપુરીમાં મિલ નામના એક બ્રહ્મણના યજ્ઞ સ્થળમાં, યજ્ઞક્રિયાને માટે આવેલ ઇન્દ્રભૂતિ આદિ અભિનય, ૨ બ્રાહ્મણ પિતાપિતાના શિષ્ય-પરિવાર સહિત યજ્ઞ કરતા હતા. તે બ્રાહ્મણ ઝફ
યજી સામે અને અથર્વ એ ચારે વેદમાં, તેમજ પાંચમા ઈતિહાસમાં અને છઠ્ઠા નિઘંટુ (વૈદિક કોષ) માં કુશળ હતા SLR તેઓ છંદ, કપ, જ્યોતિષ, વયાકરણ, નિરુકત તથા શિક્ષા એ છએ અંગે સહિત તથા ૨હસ્ય, સારાંશ સહિત વેદાને S o સ્મારક હતા, એટલે કે બીજા લેકોને યાદ કરાવનાર હતાવારક એટલે અશુદ્ધ ઉચ્ચાર કરનારને રોકતા હતા. ધારક છે
यज्ञ वर्णनम् । मू०१०२॥
॥३३८॥
case
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कल्प. मञ्जरी
टीका
र्थानां धारणकर्तारः, पडङ्गविदा छन्दः-प्रभृतिषडङ्गज्ञाः, षष्टितन्त्रविशारदाः सांख्यशास्त्रनिपुणाः, संख्याने गणितशास्त्रे शिक्षणे अध्यापने शिक्षाकल्पे-शिक्षायां कल्पेचेत्यर्थः, व्याकरणे शब्दशास्त्रे छन्दसि छन्दः शास्त्रे निरुक्ते%
निरुक्ताख्ये वेदाङ्गभूते शास्त्रे ज्योतिषामयने-ज्योतिषशास्त्रे अन्येषु च-शिक्षादिभिन्नेषु च बहुषु अनेकेषु ब्राह्मण्येषु श्रीकल्पमृत्रे
ब्राह्मणसम्बन्धिषु शास्त्रेषु, पारिवाज केषु--परिव्राजकसम्बन्धिषु नयेषु-आचारशास्त्रेषु परिनिष्ठिताः-अतिनिपुणाः, तथा-सर्वविधबुद्धिनिपुणाः तात्कालिकपदार्थावगाद्यात्मकबुद्धि भविष्यपदार्थावगाह्यात्मकमति-नवनवपदार्थोद्भावनकरात्मक प्रज्ञारूपबुद्धित्रयेण प्राप्तकौशलाः, यज्ञकर्मनिपुणा: यज्ञक्रियाकुशलाः इन्द्रभूतिप्रभृतयः इन्द्रभूत्यादयः, एकादश-एकादशसंख्यकाः ब्राह्मणाः स्व स्व परिवारेण-निज निज शिष्यरूपन्देन, परिताः परिवेष्ठिताः, तत्रपाणपुरोस्थयज्ञस्थाने यज्ञं कुर्वन्ति । तथा अन्येऽपि तत्र यज्ञकर्मणि बहन उपाध्यायाः-गार्य-हारित-कौशिक-पैलशाण्डिल्य-पाराशर्य-भारद्वाज-वात्स्य-सावर्य-मैत्रेया-शिरस-काश्यप-कात्यायन-दाक्षायण-शारद्वतायन-शौनकासमझने वाले थे। छन्द आदि छहों अंगों के ज्ञाता थे । सांख्यशास्त्र में निष्णात थे । गणित में, शिक्षण (अध्यापन) में, शिक्षा में, कल्प में, व्याकरण शास्त्र में, छन्द शास्त्र में, निरुक्त-निरुक्त नामक वेद के अंगरूप शास्त्र में, ज्योतिषशास्त्र में, तथा इनके अतिरिक्त दूसरे बहुत से ब्राह्मणों के शास्त्रों में और परिव्राजको संबंधी आचारशास्त्र में अति निपुण थे। सब प्रकारकी बुद्धियों में निपुण थे। तात्कालिक बातको जानने वाली बुद्धि भविष्यत् की बात को सगझलेने वाली मति, और नयी-नयी बात को खोज निकाल लेनेवाली सूझरूप प्रज्ञा-इस तीन प्रकार की बुद्धि में उन्हें कुशलता प्राप्त थो । वे यज्ञके अनुष्ठान में कुशल थे । इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्यान्य उपाध्याय भी उस यज्ञ में सम्मिलित हुए थे। उनमें से कुछ यह हैं-गाये, હતા, એટલે કે તેમના અભિધેય અથને ધારણ કરનાર-સમજનાર હતા. છેદ આદિ છએ અંગેના જાણકાર હતા. સાંખ્ય શાસ્ત્રમાં નિષ્ણાત હતા. ગણિતમાં, શિક્ષણ (અધ્યાપન)માં શિક્ષામાં, કપમાં વ્યાકરશુશાસ્ત્રમાં, છંદ શાસ્ત્રમાં, નિરુક્ત (નિરુક્ત નામના વેદના અંગ રૂપ શાસ્ત્રોમાં, ન્યૂતિષ શાસ્ત્રમાં અને તેના સિવાય બ્રાણના બીજાં ઘણાં એ શાસ્ત્રોમાં અને પરિવાજ કે સંબંધી આચાર શાસ્ત્રમાં નિપુણ હતા. બધા પ્રકારની બુદ્ધિઓમાં નિપુણ હતા. તાત્કાલિક વાતને જાણવાની બુદ્ધિ, ભવિષ્યની વાતને સમજવાની મતિ, અને નવી નવી વાતને શોધી કાઢનારી સૂઝ રૂપ પ્રજ્ઞા એ ત્રણ
પ્રકારની બુદ્ધિમાં તેમણે નિપુણતા મેળવી હતી. તે યજ્ઞના અનુષ્ઠાનમાં કુશળ હતા. ઈન્દ્રભૂતિ આદિ અગિયાર બ્રાહ્મણ ફાર સિવાય બીજા ઘણા ઉપાધ્યાયે પશુ યજ્ઞમાં એકઠા થયા હતા. તેમાંથી કેટલાકનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે–ગાર્યું,
यज्ञ वर्णनम्। सू०१०२।।
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श्रीकल्पसूत्रे ॥ ३४० ॥
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獎賞獎資
यन- नाडायन - जातायना - श्वायन दार्भायण चारायण - काप्य - बौध्यौ- पमन्यवा-त्रेयप्रभृतयः - गाग्र्यो हारितः कौशिकः पैलः शाण्डिल्यः पाराशर्यः भारद्वाजो वात्स्यः सावय मैत्रेयः आङ्गिरसः काश्यपः कात्यायनो - दाक्षायणः शारद्वतायनः शौनकायनो नाडायनो जातायनः आश्वायनो दार्भायणः चारायणः काप्यो बौध्यः श्रपमन्यव आत्रेयः प्रभृती=आदौ येषां ते तथाभूता मिलिताः = एकत्रिता अभवन् ॥सू० १०२ ।।
मूलम् — तेणं कालेणं तेणं समरणं पात्राए पुरीए समणस्स भगवओ महावीरस्स देवेहि समोसरणं विरइयं तं जहा - बाउकुमारा देवा जोयण-परिमिय भूमिमंडलाओ संवहकवाउणा कयवरमवणीय तं विसोर्हेति । मेहकुमारा देवा अचित्तं जलं वरिसंति । अण्णे देवा पागारतिगं रएंति, तत्थ पढमं सुवण्णकंगुरसोहियं रुष्पसालं १, वीयं रयणकंगुरसेाहियं सुवण्णसालं २, तइयं वज्जमणिकंगुरसोहियं रयणसालं ३, तत्थ चउसट्ठी इंदा समागच्छंति। असोगरुक्त्व - पुफबुडि - दिव्ज्झुणि- चामरफलिह सीहासण-भामंडल दुंदुहि आयवत्ताणी अट्टमहापाडिहारियाणी सयलजगजीवमनोहराणि पाउन्भर्विसु । कहिं चि रयणपत्त - रयणपुप्फ- रयणफला लंकिया रक्खा, कहिं चि वेरुलिया साभाभूमी । कहिं चि नीलमणिष्पभाभूमी, कहिं चि फलिहाभा, कहिं चि जोई रयणमया, कहिं चिपउमरागमया, कहिं चि कंचगसंकासा. कहिं चि वालसूरियसमा, कहिं चि तरुणारुणसंनिहा, कर्हि चि त्रिज्जुको डिसमपहाभूमी भत्रीअ । तस्स य चउद्दिसं पण्णत्रीसपणत्रीसजोयणपरिमिए खित्ते ईइभीइमारिदुब्भिवख उही उसर्विसु । लोध सुहइगोभविं । पाउसाइया छ उउणो पाउन्भविंसु । चंद्रमूरियविज्जुहोडि मणिगणेर्हितो त्रि अनंतानंतकोडिगुणिया जिणप्पहा पभासीअ । तत्थ समोसरणभूमीए सग्गाओवि अगुणिया मुसमाआसी ||०१०३॥
छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये पात्रायां पुर्या श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य देवैः समवसरणं विरचितं, तद्यथा-वायुकुमारा देवा योजनपरिमितभूमिमण्डलात् संवर्त्तकवायुना कचवरमपनीय तद् विशोधयन्ति । मेघकुमारा हारीत, कौशिक, पैठ, शाण्डिल्य, पाराशर्य भारद्वाज, वात्स्य, सावर्ण्य, मैत्रेय, आंगिरस, काश्यप, कात्यायन, दाक्षायण, शारद्वतायन, शौनकायन, नाडायन, जातायन, आश्वायन, दार्भायन, चारायण, काप्य, बौध्य, औप मन्यव आत्रेय आदि || सू० १०२ ॥
हारीत, प्रौशिक, चैत्र, शहिय, पाराशर्य, भारद्वान वात्स्य, सामथ्र्य, मैत्रेय, आंगिरस, अश्यय, अत्यायन, हाक्षाय शारद्वातायन शैौनडायन, नाडायन, लतायन, आधायन, डालयन, व्यारायश्थ, अध्य, जोध्य, आयमन्यव आत्रेय वगेरे (सू०१०२ )
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कल्प
मञ्जरी
डीका
भगवतः समवसरण
वर्णनम् ।
॥ मू०१०३॥
॥३४०॥
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देवा अचित्तं जलं वर्षन्ति । अन्ये देवाः प्राकारत्रिकं रचयन्ति, तत्र-प्रथमं सुवर्णकङ्गरशोभितं रूप्यसालं १,
को द्वितीयं रत्नकङ्गरशोभितं सुवर्णसालं २, तृतीयं वज्रमणिकॉरशोभितं रत्नसालम् ३। तत्र चतुष्पष्ठिरिन्द्राः समाश्रीकल्प
गच्छन्ति । अशोकक्ष १-पुष्पवृष्टि २-दिव्यध्वनि ३-चामर ४-स्फटिकसिंहासन ५-भामण्डल ६-दुन्दुभ्या ७सूत्रे
तपत्राणि ८ अष्टमहापातिहार्याणि सकलजगज्जीवमनोहराणि प्रादुरभवन् । कुत्रचिद् रत्नपत्र-रत्नपुष्प-रत्नफला॥३४॥ ___ लङ्कृताक्षाः, कुत्रचिद् वैडूर्यसंकाशाभूमिः, कुत्रचिन्नीलमणिप्रभाभूमिः, कुत्रचित् स्फटिकामा, कुत्रचिद् ज्योती
मूल का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि-उस काल और उस समय में पावापुरी में, देवोंने श्रमण भगवान् महावीर के समवसरणकी रचनाकी । वह इस प्रकार वायु कुमार देवोने एक योजन परिमित भूमंडल से, संवर्तक वायु के द्वारा कूडा-कचरा हटाकर उसकी सफाइकी । मेघकुमार देवोंने अचित्तजल कीवर्षाकी। दूसरे देवोंने तीन प्राकार (चहार दीवारिया) बनाये । उनमें पहला स्वर्ण के कंगूरों से शोभित चांदीका प्राकार गढ बनाया। दूसरा रत्नोंके कंगरों से शोभित स्वर्णका प्राकार बनाया। तीसरां हीरोंके कंगूरो से सुशोभित रत्नों का प्राकार बनाया। वहां चौंसठ इन्द्र आये । (१) अशोकक्ष (२) अचित पुष्पवृष्टि (३) दिव्यध्वनि (४) चामर (५) स्फटिकका सिंहासन (६) भामण्डल (७) दुंदुभी और (८) आतपत्र छत्र, यह जगत् के समस्त जीवों के मनको हरनेवाले आठ महापातिहार्य प्रकट हुए।
कहीं-कहीं रत्नोंके पत्तो पाले, कहीं रत्नोंके फूलोंवाले तो कहीं-कहीं रत्नोंके फलोवाले वृक्ष थे। कहीं-कहीं वैडूर्य के समान भूमिथी तो कहीं नीलमणिकी प्रमावाली थी। कहीं स्फटिक के समान उज्ज्वल
भूजन मथ-'तेणं कालेणं' याह. भनेते समये, पावापुरी नगरीमा, हेवाणे श्रम मावान् महावीरना સમવસરણની રચના કરી. કેવા પ્રકારની રચના કરી તે કહે છે કે-વાયુકુમાર દેએ એક એક જન સુધી ચારે તરફની ભૂમિને, સંવત્તક વાયુદ્વારા, સાફ કરી તે જમીન ઉપરના કચરાને વાળચાળી એક તરફ દૂર ફેંકી દીધા. મેઘકુમાર દેએ, અચિત્ત જળની વર્ષા કરી અન્ય દેવોએ ત્રણ પ્રકારના ચાર ચાર દરવાજા સહિત ગઢ બનાખ્યા. પહેલા પ્રકારના ગઢ ચાંદીના હતા આ ગઢના દરવાજાને સેનાના કાંગરાં કરવામાં આવ્યાં હતાં. બીજા પ્રકારને ગઢ સુવણુને બનાવવામાં આવ્યું હતું. તેના કાંગરાં રત્નથી શણગારવામાં આવ્યાં હતાં. ત્રીજા પ્રકારને ગઢ રત્નને બનાવવામાં આવ્યું હતું. તેના કાંગરા હિરા માણેકનાં હતાં. આ સમવસરણમાં, ચોસઠ ઇન્દ્રો હાજર રહ્યા હતા આ ઈન્દ્રોએ,
સમસ્ત જીના મનને હરી લે તેવા, આઠ મહાપ્રતિહાય પ્રગટ કર્યો. જેનાં નામ આ પ્રમાણે છે. (૧) અશોકવૃક્ષ १- (२) मयित्त पुष्पवृष्टि (3) M०वनि (४) याभ२ (५) २३४ रत्ननु सिंहासन (6)माम (७) मी (८) आतपत्र(७७.)
भगवतः समवसरण
शोभा वर्णनम्। ॥सू०१०३॥
॥३४१॥
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श्री कल्पसूत्रे ||३४२||
HAKAR KARKA MAAT
(無資
रत्नमयी, कुत्रचित् पद्मरागमयी, कुत्रचित् काञ्चनसंकाशा, कुत्रचित् बालसूर्यसमा, कुत्रचित् तरुणारुणसंनिभा, कुत्रचिद्विद्युत्कोटिसमप्रभा भूमिरभवत् । तस्य च चतुर्दिशं पञ्चविंशति-पञ्चविंशति योजनपरिमिते क्षेत्रे इतिभीतिमारिदुर्भिक्षवैराधिव्याध्युपाधय उपाशाम्यन् । लोकाः सुखभागिनोऽभवन् । प्राडादिकाः षड् ऋतव प्रादुरभवन् । चन्द्रसूर्यविद्युत्कोटिमणिगणेभ्योऽपि अनन्तानन्तकोटिगुणिता जिनप्रभा माभासत । तत्र समवसरणभूमौ स्वर्गादपि अनन्तगुणिता सुषमाऽऽसीत् || मू०१०३ ॥
टीका- 'तेगं कालें तेणं समएणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पापायां पुर्याी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य समवसरणं देवैर्विरचितं = विशेषेण निर्मितम्, तद्यथा-हि-प्रथमतो वायुकुमारा देवाः योजनपरिमितभूमितो कहीं ज्योति रत्नमयी । कहीं पद्मराग के वर्ण की तो कहीं स्वर्ण के समान । कहीं बाल-सूर्यके सदृश तो कहीं तरुग सूर्य के वर्ण के समान थी। कहीं कहीं का भूमितल कोटि-कोटि विद्युत् की दीप्ती के सदृश ज्योतिर्मय था । समवसरण से पच्चीस २ योजन की दूरी तक, चारों दिशाओं में इति, भीति, महामारी, दुर्भिक्ष, वैर, आधि, व्याधि, और उपाधि उपशान्त हो गई थी । सभी लोग सुखी हो गये थे । वर्षा आदि छहों ऋतुएँ प्रकट हो गई थी। जिन भगवान् की प्रभा करोड़ों चन्द्रमा, सूर्य विद्युत और मणिगणों से भी अनन्तानन्त करोडोंगुणी प्रकाशित हो रही थी । समवसरण भूमि की शोभा स्वर्ग से भी अनन्तगुणी थी ( मू० १०३)
टीका का अर्थ-उस काल और उस समय में, पावापुरी में श्रमण भगवान् महावीर के समवसरणका देवने निर्माण किया । वह इस प्रकार =सव से पहले वायुकुमार देवोंने एक योजन अर्थात् चार कोस के
કાઇ કાઈ સ્થળેાએ, રત્નાના પાંદડાવાળાં, તે કઈ ઠેકાણે રત્નોના ફૂલોવાળાં, તે કઈ ઠેકાણે રત્નાના ફળવાળાં વૃક્ષા રોપવામાં આવ્યાં હતાં. કોઈ ભૂમિ વૈડૂ રત્ન જેવી હતી, કૈાઇ ભૂમિ નીલમણિના તેજ જેવી હતી, કોઈ ભૂમિ સ્ફટિકરત્ન સમાન ઉજ્જવળ જણાતી, તેમજ કઇ ભૂમિના પ્રકાશ રત્નમય ભાસત હતે. કેઈ ભૂમિતળ પદ્મરાગ “મિથુન, વણુ જેવું દીસતુ, કેઈ ભૂમિ નવ પ્રભાતના સૂ`તેજ સમુ લાગતુ, તે કોઈ સ્થળ મધ્યાહ્નના સૂ` સમ પ્રકાશતું હતુ. કોઇ ધરાતલ કરોડા વિદ્યા ચમકારા જેવુ જાજવલ્યમાન દેખાતું હતું. સમવસરણની ચારે બાજુ पस्थीश पन्थीश योगन सुधी, इति, लीति, महामारी, भरडी, अखेरा, रोग, हुष्ाण, लडाई, युद्ध, व्याधि, व्याधि, વેર, ઝઘડા વિગેરે ઉપશાન્ત થઈ ગયા હતા. આ પ્રદેશના સર્વ સમૂહ સુખમય બની ગયે. શર્દૂ-વસંત આદિ છએ ઋતુઓને પ્રભાવ જણાવા લાગ્યું. ભગવાનને પ્રતાપ, કરોડો ચંદ્રમા, કરોડો સૂર્ય અને વિદ્યુત તેમજ મણિએથી પણ અધિકાધિક પ્રકાશમાન જણાતા હતા સમવસરણની ભૂમિ સ્વર્ગથી પણ અનંતગણી શે।ભા આપી રહી હતાં (સ્૦૧૦૩)
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कल्प
मञ्जरी टीका
समवसरण
शोभा वर्णनम् ।
||सू० १०३॥
॥३४२॥
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श्री कल्प
कल्प.
मञ्जरी
।।३४३॥
टीका
समवसरण
मण्डलात-क्रोशचतुष्टयपरिमितभूमण्डलात् सवर्तकवायुना संवर्तनामकपवनद्वारा कचवरम् अपनीय=निःसार्य तद्= योजनपरिमितभूमण्डलं विशोधयन्ति सम्मायन्ति । तत्समार्जनानन्तरं मेघकुमारा देवास्तत्राचित्तं मासुकं जलं वर्षन्ति मञ्चन्ति. अन्ये देवाः प्राकारत्रिकम्त्रीन् प्रकारान् रचयन्ति-कुर्वन्ति, तत्र-त्रिषु प्राकारेषु मध्ये प्रथमम्आदौ सुवर्णकगरशोभित-स्वर्णनिर्मितकपिशीर्षकालङ्कृतं रूप्यसालं रजतमाकारं रचयन्ति १। द्वितीयं रत्नकङ्गरशोभित रत्नमयकपिशीर्षकालङ्कृतं सुवर्णसालं स्वर्णमयं प्राकारं रचयन्ति २, तृतीयं मणिकङ्गुरशोभितं चन्नमणिमयकपिशीर्षकविभपितं रत्नसालं-रत्नमयं-माकारं रिचयन्ति ३। तत्र-समवसरणे चतुष्पष्टिः चतुष्पष्टिसंख्यकाः धेरे में से, संवर्तक नामक वायु के द्वारा सारे कूडे कचरेको हटा दिया । एक योजन परिमित भूमिमंडल एकदम साफ सुथरा हो गया। जब भूमि स्वच्छ हो गई तो मेयकुमार देवोंने अचित्त जलकी वर्षाकी, जिससे धल बैठ गई और पृथ्वी शीतल हो गई। तदनन्तर अन्यान्य देवोंने तीन माकारों (गढ) की रचना की। तीन प्राकारों में पहला चांदी का था और उस पर सोने के कंगरे शोभायमान हो रहे थे। दूसरा प्राकार सोनेका था और उस पर रत्नों के कंगरे शोभित थे। तीसरा रत्नोंका था और उस पर वज्रमणि के कंगरे अपनी अनुपम शोभा प्रकट कर रहे थे ।
વિશેષ -સમવસરણ ને જૈન પારિભાષિક શબ્દમાં, “અમે સરણ” કહે છે. તેને આને અર્થ એ નીકળે છે કે. દરેક પ્રાણી ભૂત-વ-સવને “સમાન શણું, મળી રહે છે. એકજ ભૂમિ ઉપર તમામ પ્રાણીઓ સમસ્ત પ્રકારના અને ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારના વેરભાનું વિસમર કરી, સમાન ભૂમિકા ઉપર સર્વ એકત્ર થાય છે એટલે વસી રહે છે તેવા ભાવ પણ આમાંથી નીકળે છે. આ ઉપરાંત ધર્મોપદેશ માટે સવોત્કૃષ્ટ શેભા સ્થાન ! એ ભાવ પણ પ્રગટ થાય છે. આ સભાસ્થાનનું નિર્માળુ મનુષ્યની શક્તિ બહાર છે. તેનું નિર્માણ અભુત શક્તિવાળા દેવે વડે કરવામાં અવે છે. સાફસૂફીમાં એક જ પણ દષ્ટિગોચર થતી ન હતી. તેના ઉપર દૈવી શક્તિ વડે સુગંધિત દ્રવ્યો મિશ્રિ અચિત્ત જલના છંટકાવ કરવામાં આવ્યો હતો. આ છંટકાવના લીધે, પૃથ્વીમાંથી ઉષ્ણ-શીતમિશ્રિત હવાની લહેરી છૂટતી તેથી તે. સર્વને ખુશનુમા અને દિલને આનંદદાયક બની રહેતી. આ કાર્ય બાદ. અન્ય દેવેએ ત્રણ પ્રકારના ગઢની રચના કરી. “સોમરણને કૃત્રિમ નગર બનાવવાની ચેજના હોય છે. ફરક એટલેજ હોય છે કે, આ કતિમ નગરમાં ફક્ત “લમ દેશના' જ થઈ શકે ધીજી કેાઈ રારીરિક કે માનસિક પ્રવૃત્તિનું આ ધામ ન હતું,
આ સમવસરણને પ્રવેશદ્વારવાળો ગઢ ચાંદીને બનાવ્યું હતું. તે ગઢની શોભામાં વૃદ્ધિ કરવા, કાંગરાં મૂકવામાં { આવ્યાં હતાં. આ કાંગરાં સોનાનાં હતાં. અનુક્રમે આગળ જતાં સેનાને ગઢ બનાવવામાં આવ્યું હતું. જેને દરવાજો
शोभा
वर्णनम्। ॥०१०३॥
॥३४३॥
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कल्प. मञ्जरी टीका
इन्द्राः शक्रादय इन्द्राः समागच्छन्ति-आयान्ति । तथा-समवसरणे अशोकवृक्ष १-पुष्पवृष्टि २-दिव्यध्वनि ३
चामर ४-स्फटिक सिंहासन ५-भामण्डल --दुन्दुभ्या ७ ऽऽतपत्राणि-तत्र-अशोकवृक्षः १, पुष्पवृष्टिः २, दिव्यओकल्प
ध्वनिः३, चामरं ४, स्फटिकसिंहासनं स्फटिकमणिमयं सिंहासनम् ५, भामण्डलं धुतिमण्डलम् ६, दुन्दुभिः भेरी७,
आतपत्र-छत्रम् ८ चैतानि, अष्टमहापातिहार्याणि-अष्टसंख्यानि महान्ति-अलौकिकानि प्रातिहार्याणि सकल ॥३४४॥ जगज्जीवमनोहराणि-सकलानां जगज्जीवानां चित्तहरणकारकाणि वस्तूनि प्रादुरभवन् प्रकटी बभूवुः । पुनरपि
समवसरणशोभा वर्णयति-कुत्रचित्=समवसरणस्य कस्मिंश्चित्पदेशे रत्नपत्र-रत्नपुष्प-रस्नफलालकृताः रत्नमयपत्रपुष्पफभूषिताः वृक्षाः प्रादुरभवन् , कुत्रचिद् भूमिः पृथिवीवैडूर्यसंकाशाः धैडूर्यमणिमयत्वेन हरितवर्णा, कुत्र
उस समवसरण में शक्र आदि चौसठ इन्द्र उपस्थित थे। उस समवसरण में (१) अशोकवृक्ष (२) अचित्त पुष्पदृष्टि (३) दिव्य-ध्वनि (४) चामर (५) स्फटिकका सिंहासन (५) भा मण्डल (७) दुंदुभी [भेरी] और (८) छत्र, यह संसार के समस्त जीवों के चित्त को हरण करने वाले आठ महान् अलौकिक-दिव्य प्रातिहार्य प्रकट हुए । समवसरणकी शोमा का और भी वर्णन करते हैं-समवसरण के किसी भाग में रत्नमय
पत्तोंवाले वृक्ष थे, किसी भाग में रत्नमय पुष्पों वाले वृक्ष थे और कहीं-कहीं पर रत्नमय फलों से विभूषित समय वृक्ष सुशोभित हो रहे थे। समवसरण की भूमि कहीं वैडूर्यमणिमय होने से अनुपम हरीतिमाको धारण किये
પણ સુવર્ણમય અને ગઢના કાંગરા રનેથી સણગારવામાં આવ્યાં હતાં. હજુ ૫ણુ આગળ વધતાં એક ત્રીજા ગઢની રચના કરવામાં આવી હતી. આ ગઢનું નિર્માણ, પ્રવેશદ્વાર સાથે રનોનું બનાવેલું હતું અને તેના ઉપર વિવિધ પ્રકારના મણિએનાં કાંગરાં કરવામાં આવ્યાં હતાં. આ ત્રણ ગઢ તેના પ્રવેશદ્વારો સાથે પસાર કર્યા પછી જ, ધર્મ દેશનાના સભામંડપ તરફ જઈ શકાતું હતું. આ સમેસરણની રચના દેવકૃત છે એમ બતાવવા સારું, ત્યાં આઠ પ્રકારની અલૌકિક વસ્તુઓ દષ્ટિગોચર થતી હતી. (૧) ભગવાનના શરીરથી બાર ગણે ઉંચે અશોકવૃક્ષ, (૨) અચેત
सानी वृष्टि (३) हव्यम्पनि, (४) याभ२ (५) २३४४ सिंहासम (6) तमना भु५ ५२ प्रखरी २२ भाभ, (७) व ली (८) छत्र ७५२ ७३ भ त्रय छत्री,
આ સમવરની શોભાનું કરી વર્ણન કરવામાં આવે છે-સમવરણમાં ઠેરઠેર રત્નમય પત્રો પપ અને કલેરવાળા વૃક્ષેનું આપણું થયેલું હતું. તેનું ધરાતલ અને સપાટી વિવિધ રત્નના તેજથી વિવિધ પ્રકાશ આપતી હતી એટલે સમવસરણના કોઇ ભાગમાં રત્નમય પાંદડાંવાળા તે કોઈ ભાગમાં રત્નમય કળાવાળા તો કોઈ ભાગમાં રત્નમય - વાંળાં વૃક્ષ હતાં. ત્યાની ભૂમિને ભગ કોઈ ઠેકાણે વૈડૂર્યમય હોવાથી અનુપમ હરિતરંગ ધારણ કરતું હતું. કેક
समवसरण
शोभा वर्णनम्। ०१.३॥
॥३४४॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
३४५॥
समवसरण
चिद नीलमणिप्रभा नीलमणिमयत्वेन नौलवर्णा, कुंत्रचित् भूमिः स्फटिकामा स्फटिकमणिमयत्वेन धवलकान्तिमती, कुत्रचित् भूमिः ज्योतीरत्नमयी, कुत्रचित् भूमिः पद्मरागमयी-पद्मरागमणिमयत्वेन रक्तवर्णा, कुत्रचित् भूमिः काञ्चनसङ्काशा-स्वर्णमयत्वेन ईपद्रक्तपीतवर्णा, कुत्रचित् भूमिः बालमूर्यसमा सद्य उदित मूर्यवत् अतिरक्तवर्णा, काचित् भूमिः तरुणारुणसङ्काशानाध्याहि कसूर्यसमप्रभा, काचित् भूमिर्षिधुत्कोटिसमप्रभा-कोटिसंख्य विद्युत्सदृशप्रभा अभवत्-जाता। तस्य-समवसरणस्य च चतुर्दिशिचतमषु दिक्षु पञ्चविंशति योजनपरिमिते शतकोशशतक्रोश परिमिते क्षेत्रे ईति-भौतिमारि दुर्भिक्षवैराऽऽधिव्याध्युपाधयः ईतयः-अतिवृष्टयनाष्टिमषिक
शलभशुकात्यासन्नराजरूपाः षड्विधाः, भीतिः-भयं, मारि-विचिका, दुर्भिक्षं, वैरं, आधिः-मानसीव्यथा, र व्याधिः-शारीरिकपीडा, उपाधिः-उपसर्गः-देवमनुष्यतिर्यगाद्युपद्रवश्यैते उपाशाम्यन्-उपशान्ताः, लोकाः सर्वे
थी, कहीं नीलमणिमय होने के कारण निलिमा से युक्त थी कहीं स्फटिकमय होने से धवल थी तो कहीं ज्योतिरत्नमयी होने से भास्वर हो रही थी। कहीं पद्मरागमणिमयी होने से अन्ठी लालिमा से व्याप्त भी तो कहीं स्वर्णमयी-हल्की पीत वर्गकी थी। भूमि का कोई भाग वालमूर्य के समान एकदम रक्तवर्ण था तो कोई भूमिभाग मध्याह्नकालीन सूर्य के सदृश प्रभा से युक्त था । कहीं-कहीं की भूमि करोडो विजलियोंकी प्रभा जैसी प्रभा से आलोकित थी। समवसरण से चहुँ और सौ-सौ की दूरी तक के क्षेत्र में ईति नहीं थी, अतिवृष्टि,१ अनारष्टि, २ चूहोका उपद्रव ३ टिट्टियोंका उपद्रव ४ तोतोका उपद्रव ५ और समीप में दूसरे राजाका उपद्रव ये छह तरह की ईतिया हैं। इनका भय का अभाव था, अथवा ईतियों का भय नहीं था। महामारी (विचिका), दुष्काल, वैर, आधि (मानसिक पीड़ा), व्याधि (शारीरिक व्यथा), उपाधि (देव मनुष्य तथा ઠેકાણે લમણિમય હોવાને લીધે નીલિમાયુક્ત હતું, કે ઈ ઠેકાણે સ્ફટિકમય હોવાથી સફેદ હો, કઈ ઠેકાણે જ્યોતિ રત્નમય હોવાથી ભાવર હતું. કેઈ ઠેકાણે પધરાગ મણિમય હોવાથી અને ખી લાલિમાંથી વ્યાપ્ત હતો. કોઈ ઠેકાણે સુવર્ણમય હોવાથી હલ્કા પીળાવર્ણવાળો હતો. કોઈ ઠેકાણે બાળસૂર્યની સમાન અત્યંત લાલવણું વાળે હો. કેઈ ભૂભાગ મધ્યાહ્નકાના સૂર્યની સમાન પ્રભાવવાળો હતે કઈ ભાગ કરે | વીજળીઓની પ્રભાવાળા ભાસતે હતે.
સમવસરણની ફરતી ચારે બાજુએ, સો સે ગાઉ સુધી, કોઈ પણ સ્થળે કઈ જાતના ઉપદ્ર નજરે પડતા. नही. ति' 2 मे तन उपद्रव मानिन्छ । 2. (१) अतिवृष्टि (२) मनावृष्टि () ४२७।। (४) नीड () ५८ने। उपद्रव, (६) दुश्मन नु यही आवषु. 11 Siत माथि (भानसि. पी. व्याधि (श:२४
शोभा
वर्णनम्। मू ०१०३॥ र
॥३४५॥
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जनाः सुखभागिना मुखिनः जाताः, प्राडादिकापाड्-वर्या-शरद्धेमन्तवसन्तग्रीष्माः षट-पटसंख्यका ऋतवः
प्रादुरभवन् प्रादुर्भूताः। अथ समवसरणे स्वर्णसिंहासनासीनस्य श्रीमहावीरस्वामिनः प्रभां वर्णयति-चन्द्रसूर्य श्री कल्पविद्युत्कोटिमणिगणेभ्योऽपि-कोटिसंख्येभ्यश्चन्द्रेभ्यः सूर्येभ्यः तावतीभ्यो विद्युद्भयो मणिसमूहेभ्यश्चापि-अनन्ता
कल्पनन्तकोटिगुणिता जिनप्रभा श्रीमहावीरनिनस्य प्रभा प्राभासत-माभासिता, तत्र-समवसरणभूमौ स्वर्गतोऽपि
मञ्जरी ॥३४६॥ स्वर्गलोकतोऽपि अनन्तगुणिता अनन्तगुणैरधिका सुषमा-परमशोभा आसीत् ॥मू०१०३।।
मूलम-तंसि तारिसगंसि समोसरणंसि समासीणस्स भगवओ दसणटुं धम्मदेसणा सवणटुं च भवणवइ बागमंतर जोहसिय विमाणवासिगो देवा य देवीओ य निय निय परिवार परिवुडा सव्वट्टिए सबजुईए पब्भाए छायाए अञ्चीए दिव्वेणं तेएणं दिवाए लेसाए दसदिसो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा समावति । ते दट्टणं जन्नबाडडिया जन्नजाइणो सब्वे माहणा परोप्परं एकमाइकावंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूविति-भो भो लोया! पासंतु जन्नप्पभावं, जेणं इमे देवा य देवीओ य जन्नदसणटुं हविस्सगहणटुं च निय निय विमाणेहि निय निय इड्डीदिएहि सकवं समावति । तत्थढ़िया लोया अच्छेरय मणुभविय एवं वइंसु-जं इमे माहणा धण्णा कयकिच्चा कयपुण्णा कयल वगा य जेसिं जन्नवाडे देवा य देवीओ य सकवं समावति ।।मू०१०४॥
समवसरण तिर्यच कृत उपसर्ग) सब शान्त हो गये थे। इस प्रकार की शान्ति होने से सभी लोग सुखी हो गये थे। वर्णनम् । पाइए--वर्षा, शरद्, शिशिर हेमन्त वसन्न और ग्रीष्म-यह छह ऋतुएँ प्रकट हो गई थी।
॥सू०१०४ समासरण में स्वर्ण के सिंहासन पर विराजमान श्रीमहावीर स्वामी की प्रभा का वर्णन करते हैं-कोटिमा चन्द्रों, सूर्यो, विजलियों और मणियों के समृडों से भी अनन्तानन्तगुणो प्रभा जिन भगवान् महावीर की उद्भासित हो रही थी। वह समवसरण स्वर्गलोक से भी अननगुणित परमशोभा से सुशोभित हो रहा था ।।५०१०३।। पी11, उपाधि (मास्मिर पीडt) यांय दृष्टिगोयर यता न तi. १२६, शिशिर, मन्त, सत, श्रीभ सने वर्षा २५॥ છએ હતુઓને પ્રભાવ એકત્ર થઈ પિતપતાની વિશિષ્ટતા, ત્યાં બતાવી રહ્યો હતો. એટલે ત્યાં આવતા દેવ મનુષ્ય અને તિર્યંચને કઈ પણ એક ઋતુને ઉકળાટ મુંઝવી રહ્યો ન હતો. તેને લીધે, તેમને ત્યાંની હવા, સર્વથા અનુ
॥३४६॥ કૂળ જણાવાથી તેઓ એકાગ્ર ચિત્ત ભગવાનની વાણીને સાંભળી શકતાં હતાં. સમસરણના સિંહાસન ઉપર બિરાજેલ
ભગવાન મહાવીરને દેહ કે ટિ. સૂર્ય, ચંદ્ર, વિધુત અને મણિઓના સમૂહથી પણ વધારે કાતિવાળો દેખાતે હતે. છેટૂંકમાં આ સમવસરણ”ની શેભા, વર્ગની શોભાને પણ ટક્કર મારે તેવી અનુપમ અને અદૂભૂત હતી. (સૂ૦-૧૦૩) તે
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श्री कल्प
कल्पमञ्जरी
३४७॥
टीका
छाया-तस्मिन् तादृशे समवसरणे समासीनस्य भगवतो दर्शनार्थ धर्मदेशना श्रवणार्थ च भवनपति व्यन्तर ज्योतिषिक विमानवासिनो देवाश्च देव्यश्च निज निज परिवारपरिवृताः सर्वद्धर्या सर्वद्यत्या, प्रभया छायया अर्चिषा दिव्येन तेजसा दिव्यया लेश्य या दशदिशो उद्योतयन्तः प्रभासयन्तः समावयान्ति, तान् दृष्ट्वा यज्ञपाटस्थिता यज्ञयाजिनः सर्वे ब्राह्मणाः परस्परमेवमाख्यान्ति, एवं भाषन्ते एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति भो भो लोकाः! पश्यन्तु यज्ञप्रभावं, येन इमे देवाश्च देव्यश्च यज्ञदर्शनार्थ हविष्यग्रहणार्थ च निज निज विमान निज निज सर्वऋद्धयादिकैः साक्षात् समागच्छन्ति । तत्र स्थिता लोका आश्चर्यकमनुभूय एवमवादिषुः यद् इमेर
मूलका अर्थ-'तंसि तारिमगंसि' इत्यादि। उस दिव्य समवसरण में विराजमान भगवान के दर्शन के लिये तथा धर्मदेशना श्रवण करने के लिए भानपति, व्यन्तर, ज्योतिषिक और विमानवासी देव और देवियाँ से झुंड के झुंड अपने-अपने परिवार के साथ समस्त ऋद्धि से सर्व द्युति से सवप्रकार के विमानों की दीप्तिया से
दिव्य शोभाओं से शरीर पर धारण किये हुवे सर्व प्रकार के आभूषणों के तेज की ज्वालाओं से शरीर सम्बधि दिव्य प्रभाओं से दिव्यशरीर की कांतीयों से दशों दिशाओं को उद्योतित करते हुवे विशेषरूपसे प्रकाश युक्त होकर आते हैं। उन्हें देख कर यज्ञ स्थल में स्थित यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले सभी ब्राह्मण आपस में इस प्रकार कहने लगे, इस प्रकार भाषण करने लगे, इस प्रकार प्रज्ञापन करने लगे और इस प्रकार प्ररूपणा
करने लगे-हे महानुभावो ! देखो यज्ञ के प्रभाव को! यह देव और देविया यज्ञ को देखने के लिए और में हविष्य को ग्रहण करने के लिए अपने-अपने विमानों और अपनी-अपनी ऋद्धि के साथ साक्षात् आरहे हैं !
भूगन। -तंसितारिसगंसि' त्याला दिव्य समवसरमा मीराता मायानना हशन भाटे तथा तभने। ધર્મોપદેશ સાંભળવા સારું ભવનપતિ, વ્યંતર, તિષિક અને વિમાનવાસી દેવ અને દેવીઓ પિત–પિતાના પરિવાર સાથે ત્યાં આવી રહ્યા હતા. તેઓ પિતાની સાથે પિતાની રિદ્ધિ-સમૃદ્ધિથી સર્વ પ્રકારના તિથી, તમામ પ્રકારના વિમાનની દીપ્તીયાથી, દિવ્ય શોભાઓથી, શરીર પર ધારણ કરેલ તમામ પ્રકારના આણે-ઘરેણાઓના તેજની
જ્વાલાઓથી, શરીરની દિવ્ય પ્રભાએથી, દિવ્ય શરીરની કાંતીઓથી ઉદ્યોતિત કરતા થકા અને વિશેષરૂપથી પ્રકાશયુકત થઇ આવી રહ્યા હતા. આવી રીતે, દેવી અલંકારથી અલંકૃત, અને આભુષણોથી વિભૂષિત એવા દેવ-દેવીઓને આવતાં જોઈ, યજ્ઞ કરવાવાળા સર્વ બ્રાહ્મણો, અંદરોઅંદર આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા; આ પ્રકારે નિવેદ કરવા લાગ્યા. આ પ્રમાણે સાક્ષી પુરવા લાગ્યા. આ પ્રકારે સંભાષણે કરવા લાગ્યાં કે, "અહો યજ્ઞાથી ઓ ! યજ્ઞને પ્રભાવ તે જુઓ ! સર્વ દેવ-દેવીઓ આ યજ્ઞને જોવા માટે તેનો પ્રસાદ અને હવિષ લેવા માટે સર્વ પરિવાર અને ઋદ્ધિ
समवसरण वर्णनम् । सू०१०४॥
||३४७॥
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श्रीकल्प
श्रीकल्पमञ्जरी
॥३५८॥
टीका
ब्राह्मणा धन्याः कृतकृत्याः कृतपुण्याः कृतलक्षगाश्च, येषां यज्ञपाटे देवाश्च देव्यश्च साक्षात् समावयन्ति ।।मू०१०४॥
टीका-'तंसि तारिसगंसि' इत्यादि । तस्मिन् तादृशे=अलौकिके समवसरणे समासीनस्य-उपविष्टस्य भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनः, दर्शनार्थ-दर्शनाय धर्मदेशनाश्रवणार्थ च-धर्मोपदेशश्रवणाय च भवनपति-व्यन्तरज्योतिषिक-विमानगसिनो देवाः देव्यश्च निज निज परिवारपरिहताः सर्वऋध्या देवोचित्तया विमानपरिवारादि सर्वऋध्या सर्वद्युत्या सर्वकान्त्या दिव्यप्रभया विमानदीप्त्या दिव्यछायया दिव्यशोभया अर्चिषा-दिव्यशरीरस्थ रत्नादिकेनोवलया दिव्येन तेजसा शरीरसंम्बधि रोचिषा-प्रभावेण वा दिव्यया लेश्यया दिव्यशरीरकान्या दशदिशो उद्योतयन्तःसर्वदिशो प्रकाशकरणेन उद्योतयन्तः प्रभासयन्तः प्रकाशयन्तः समावयन्ति-समायान्ति, प्रभुसमीपे आगच्छन्तीत्यर्थः तान्- समागच्छतः सपरिवारान्-देवान् दृष्ट्वा यज्ञपाटस्थिताः-यज्ञस्थाने स्थिताः यज्ञयाजिनः= वहाँ जो लोग उपस्थित थे, वे यह आश्चर्य देव कर बोले-यह ब्राह्मण धन्य हैं, पुण्यवान् हैं और सुलक्षण हैं, जिनके यह स्थान में साक्षात् देवों और देवियों का आगमन हो रहा है ।।मू०१०४॥
टीका का अथ-उस पूर्वोक्त अलौकिक रचना से युक्त समवसरण में विराजमान श्रीमहावीर स्वामी के दर्शनार्थ और धर्मोपदेश को सुनने के अर्थ भग्नपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव और देवियाँ अपने-अपने परिवार सहित तथा आने-अपने वैभव के साथ आ रहे थे। उन्हें सपरिवार आते देख यज्ञ સાથે આવી રહ્યાં છે !” જે જે લેક સમુદ્ર ય ત્યાં ઉપસ્થિત થયેલ હતું, તે આ સાંભળી આશ્ચર્યમુગ્ધ થઈ બોલવા લાગ્યા કે, “આ બ્રાહ્મણે ધન્યવાદને પાત્ર છે ! આ યજ્ઞાથ એ પુણ્યશાળી અને સુલક્ષણોવાળા છે ! કે જેના યજ્ઞમાં
समवसरण
वर्णनम् । ॥मू०१०४॥
લાગ્યા કે આ
વા જ છે! (
સક બનાવી હતી અને તે રચના કરવા
વિશેષાર્થ–સમવસરણની રચના ખુદ દેએ બનાવી હતી અને તે રચના કરવામાં દેએ અત્યંત જહેમત ઉડાવી હતી. કારણ કે ઈન્દ્રો તથા અન્ય સમકિતી દે તીર્થકરના યથાયોગ્ય “આત્મ સ્વરૂપને જાણવાવાળા હતા. તેથી તેઓને ભક્તિભાવ તેમના પર અથાગપણે વરસી રહ્યો હતે. આને લીધે આત્મસ્વરૂપની વાણી સાંભળવા તેઓ ત્વરાથી આવી રહ્યા હતા. પરંતુ સમય અને સંગને લાભ ઉઠાવી લેકોને રંજન કરવાવાળા પણ આ દુનિયામાં ઘણા પડ્યા છે. આ યજ્ઞાથી એની મનોકામના ભૌતિક પદાર્થોને સંગ મેળવવા પુરતોજ હતું. તેમાં કેઈ નવીનતા તે હતી જ નહિ ! પરંતુ દુન્યવી લેકે સાંસારિક સુખેનેજ ઈરછે છે. ક રણકે આ સુખાભાસથી પર એવું છે વું અતીન્દ્રિય સુખ અંતરાત્મામાં વસી રહેલું છે. તે તે તે બિચારાઓને ભાન પણ હોતું નથી, તેમજ તે ભાન કરાવવા વાળા વિરલ જ હોય છે ! આથી યજ્ઞાથીએ પિતાની મહત્તા બતાવવા, ઉપસ્થિત થયેલા લે ને, આંગુલિનિર્દેશ
॥३४८॥
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सूत्र
मञ्जरी
रीका
याज्ञिकाः सर्वे ब्राह्मणाः परस्परम् अन्योऽन्यम् एवं-यक्ष्यमाणं वचनम् आख्यान्ति सामान्यतो वदन्ति, एवं
भाषन्ते भावव्यञ्जनपूर्वकं वदन्ति एवं प्रज्ञापयन्ति-विशेषतः कथयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति हेतुदृष्टान्तप्रदर्शनपुरस्सरं श्रीकल्पब्रुवन्ति, तथाहि भो भो लोकाः! भवन्तः यज्ञप्रभावं पश्यन्तु, येन यज्ञप्रभावेण इमे एते देवाश्च देव्यश्च यज्ञ
कल्पदर्शनार्थ हविष्यग्रहणार्थ-पायमघृतादि वहितपदार्थस्वीकारार्थ च निज निज विमानः निज निज सर्वद्धयादिकः ॥३४॥
साक्षात्-प्रत्यक्ष समागच्छन्ति, तत्रस्थिताः यज्ञपाटके स्थिता यज्ञदर्शनार्थिनो लोका आश्चर्यकम्-विस्मयम् अनुभूय-प्राप्य-विस्मिताः सन्तः एवम् वक्ष्यमाणं वचनम् अवादिषुः-उक्तवन्तः-तथाहि-यद इमे-एते याज्ञिकाः ब्राह्मणाः धन्याः प्रशंसनीयाः कृतकृत्याः सम्पादितस्वकर्तव्याः कृतपुण्याः कृतसुकृताः, कृतलक्षणा: प्रशस्तहस्तरेखादिरूपलक्षणवन्तः सन्ति । येषां याज्ञिकानां ब्राह्मणानां यज्ञबाटे यज्ञस्थाने देवाश्च देव्यश्च साक्षात्-प्रत्यक्ष यथास्यात्तथा समावयन्ति-समायान्ति ।मु०१०४॥
मूलम्-एवं परोप्परं कहमाणेसु समाणेसु एत्थंतरे ते देवा जन्नवाडयं चइय अग्गे पट्टिया। तं दट्टणं ते जन्न नाडगो माहणा निकंपा नित्तेया ओमंथिय वयणनयण कमला दीगविषण्णवयणा संजाया एत्थंतरे अंतरा आगासंसि देवेहि धुह-तं जहा
का यज्ञपाटकस्थ
ब्राह्मण के बाड़े में उपस्थित यज्ञकर्म करनेवाले सभी ब्राह्मण परस्पर इस प्रकार सामान्यरूप से कहने लगे, भाव प्रकट वर्णनम् । करके कहने लगे, विशेषरूप से कहने लगे, और हेतु तथा दृष्टान्त दे-देकर कहने लगे--'महानुभावो! मू०१०५॥ यज्ञ के प्रभाव को तो देखो। यह देव और देविया यज्ञ के दर्शन के लिए और हविष्य (अग्नि मे होमे हुए खीर घृत आदि पदार्थों) को स्वीकार करने के लिए अपने-अपने विमानों से और अपने-अपने वैभव के
साथ प्रत्यक्ष आ रहे हैं।' यज्ञ के वाडे में उपस्थित यज्ञदर्शक लोग यह अचरज देखकर विस्मित रह गये नई और कहने लगे-यह याज्ञिय ब्राह्मण धन्य है-प्रशंसनीय है, कृतकृत्य हैं, कृतपुण्य हैं और सुलक्षणों से सम्पन्न है।
इन के यज्ञस्थल में देवों और देवियों का प्रत्यक्ष आगमन हो रहा है। नू०१०४॥ કરી રહ્યા હતા કે, દેનું જૂથ આપણા યજ્ઞના હવનહામ જોવા માટે તેમજ ખીર વૃત આદિ પદાર્થોને પ્રસાદ લેવા
॥३४९॥ સારૂં પોતપોતાના વિમાન અને વૈભવ સાથે આવી રહ્યું છે. આ વખતે ત્યાં હાજર રહેલી જનમેદનીએ દેવોનું આગમન
જોઈ આશ્ચર્ય અને વિસ્મય પામીને કહેવા લાગ્યા કે આ યાજ્ઞિક બ્રાહ્મણોને ધન્ય છે, તેઓ પ્રશંસનીય છે. કૃતકૃત્ય છે. કૃત થતું પુણ્ય છે. અને સુલક્ષણોથી સંપન્ન છે. કે જેથી તેમનાં યજ્ઞસ્થળે દેવદેવીઓ પ્રત્યક્ષ હાજર થાય છે. (સૂ૦-૧૦૫) રે
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श्रीकल्पसूत्रे ।।३५०॥
“भो भो पमाय महूय भएह एणं, आगच निव्वु पुरिप सत्थवाहं । जो णं जगत्यहिओ सिरिवद्धमाणो, लोगोवयारकरणे गओ जिर्णिदो ||१||
एवं सोचा खणमित्तं ऊससिय पुत्रं तात्र गोयमगोतो इंदभूई नाम माहणो रुट्टो कुद्धो आसुरुतो मिसिमिसेमाणो एवं वयासी - अम्हंमि विजमाणे अन्नो को इमो पासंडो समासियवियंडो, जो अप्पाणं सव्वण्णुं सव्वदरिसिं कहेइ, न लज्जेइ सा ? दीसर, इमो को विधुत्तो कवडजालिओ इंदजालिओ । अणेण सव्वण्णुत्तस्स आर्डवरं द रिसिय इंदजालप्पओगेण देवावि वंचिया, जं इमे देवा जनवाडं संगोवंग वेयण्णुं मंच परिहाय तस्थ गच्छति । एएर्सि बुद्धि विपज्जासो जाओ, जेणं इमे तित्थजलं चइय गोप्पयजलमभिलसमाणा वायसाविव, जलं चय थलमभिलसमाणा मंडूगाविव, चंदणं चरय दुग्गंधमभिलसमाणा मक्खियाविव, सहयारं चय बब्बूरमभिलसमाणा उद्याचित्र, सुज्जपगासं चाय अंधयारमभिलसमाणा उलूगाविव जन्नवार्ड चइय धुत्तमुत्रगच्छंति । सच्चं जारिसो देवो वारिसाचेव तस्स सेवगा । नो णं इमे देवा, देवाभासा एव । भमरा सहयार मंजरीए गुंजंति, वायसा निवतरुम्मि । अत्थु तह वि अहं तस्स सव्वण्णुत्तगव्वं चूरिस्सामि । हरिणो सीहेण, तिमिरं भक्खरेण, सलभो वण्हिणा, विवीलिया समुद्देणं, नागो गरुडेण, पव्त्रओ वज्जेणं, मेसो कुंजरेण सद्धिं जुज्झिउं कि सक्के ? । एवं चेत्र एसो इंदजालिओ ममंतिए खर्णपि चिट्ठिउं नो सक्के | अणे अहं तयंतिए गमिव तं धुतं परा जिणेमि । सुज्जंतिए खज्जोअस्स वरागस्स का गणणा | अहं नो सिाहजं पडिक्खिस्सामि किं अंग्यागासे सुजो अन्न पडिक्वइ ? अओ सिग्यमेव गच्छामि । एवं परिवितिय पोत्ययहत्थो कमंडलु दासवाणीहिं पीयवरेहिं जन्गोववीयविभूसिय कंधरोह - हे सरस्सई कंठाभरण ! हे वाइविजयलच्छी केयण ! हे वाइमुहकवाड यंतणतालग ! हे वाइचारणविचारणपंचाणण ! वाइसरियसिंधु चुलुगीगरागत्थी ! वाइसीहा द्वात्रय ! वाइविजय विसारय ! वाइविंदभूवाल ! वाइसिरकरालकाल ! वाइकलीकांड खंडण किवाण ! वाइतमत्थोम निरसणपचंडमत्तंड ! वाइ गोहूमपेसणपासाणचक्का ! वाइयामघड मुग्गर ! वाइउलूग दिनमणी ! वाइवच्छुम्मूलणवारण ! वाइदइच देववई ! बाइसासणनरेस ! वाइकंसकंसारि ! वाइहरिणमिगारि ! वाइज्जरजरंकुरन ! वाइजूइमलमणी ! वाइहिय यसलवर ! वाइसलहपज्जलंनदीबग ! वाइचक्कचूडामणि ! पंडिय सिरोमणी ! विजिय । गवाइवाय ! लद्धसरस्सईमुप्पसाय ! दूरीकयावरगब्बुमेस ! इच्चाहजसं गायंतेहि पंचसयसीसेहिं परिवुडो जयजयसदेहिं सद्दिज्जमाणो पहुसमीवे समणुपत्तो । तत्थ गंतॄण सेा समोसरण समिद्धिं पहुतेयं च त्रिलोइयं किमेति चगियचित्तो संनाओ ||०१०५||
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कल्प
मञ्जरी
टीका
यज्ञपाटकस्थब्राह्मण
वर्णनम् ।
॥सू० १०५ ॥
॥३५०॥
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श्रीकल्प.
सूत्रे ॥३५१ ॥
愛愛藏汤
छाया - एवं परस्परं कथयत्सु सत्सु अत्रान्तरे ते देवा यज्ञपाटकं त्यक्वाऽग्रे प्रस्थिताः । तद् दृष्ट्वा यज्ञयाजिनो ब्राह्मणा निष्कम्पा निस्तेजसः अत्रमथितवदननयनकमला दीनविवर्णवदनाः संजाताः । अत्रान्तरे अन्तरा आकाशे देवैर्घुष्टंट, तद्यथा
“भो भो प्रमादमवधूय भजध्वमेन, मागत्य निरृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम् । यः खलु जगत्त्रयहितः श्री बर्द्धमानो,लोकोपकारकरणैrतो जिनेन्द्रः || १ || "
एवं
क्षणमात्रच्छवस्य पूर्व तावद् गौतमगोत्रइन्द्रभूतिर्नाम ब्राह्मणो रुष्टः क्रुद्धः शुरको मिसमूल का अर्थ - 'एवं परोपरं ' इत्यादि । वे परस्पर इस प्रकार कह ही रहे थे। कि इस बीच देव यज्ञस्थान को छोड कर आगे चले गये। यह देखकर याज्ञिक ब्राह्मण स्तब्ध रह गये, निस्तेज रह गये, उनके नेत्र और मुख रूपी कमल मुरझा गये, चेहरे पर दैन्य और फीकापन आ गया। इसी समय आकाश में देवोंने घोषणा की—
" तज प्रमाद आकर भजलो इनको हे भाई ।
हैं मुक्ति-पुरी के सार्थवाह ये अति सुखदाई | श्रीमान जिन अखिल लोक के है हितकारी, सकल जीव उपकार-सदा शुभवत के धारी " ॥१॥
यह सुनकर क्षणमात्र ठंडी सांस लेकर सबसे पहेले गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण रुष्ट हुए,
भूणना मथ - ' एवं परोपरं ' छत्याहि या यज्ञार्थी परस्पर से प्रमाणे मोसता हता भेटलाभां देव યજ્ઞસ્થાન એળંગીને આગળ ચાલ્યા ગયા. આમ થવાથી તે સ્તબ્ધ બની ગયા, નિસ્તેજ થઈ ગયા. તેઓના મુખ કરમ ઇ ગયા, અને ચહેરા ઉપર દીનતા અને ફિકાશ જણાવા લાગી. આ વખતે અ ંતરિક્ષમાં દૈવી ઘેાષા અને ગેબી અવાજે થવા લાગ્યા, તેમ જ દિવ્ય પાકારે સંભળાવા માંડયા કે હું ભાઈએ ! તમે પ્રમાદ તજી આ વ્યક્તિને ભજવા માંડા, તેનું ભજન મુક્તિપુરીના સથવારા સમાન છે. આ ભજન અત્યંત સુખદાઈ અને કલ્યાણકારી છે. આ વધમાન ‘જિન' અખિલ લાકમાં હિતકારી અને સકલ જીવેાના ઉપકારી છે, તેમજ તેએ શુભ વ્રતધારી પણ છે. ” પેાતાના યજ્ઞની પ્રસંશાને બદલે મહાવીરની પ્રસંશા સાંભળી તેએની ગજગજ ફુલતી છાતીનાં પાટીયાં બેસવા
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कल्प
मञ्जरी
टीका
यज्ञपाटकस्थ ब्राह्मण
वर्णनम् । ॥मू०१०५॥
॥३५१॥
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कल्प
मञ्जरी
टीका
मिसायमान एवमवादीत् मयि विद्यमानेऽन्यः कोऽयं पाषण्डः समाश्रितवितण्डः, य आत्मानं सर्वशं सर्वदर्शिनं कथयति, न लजते सः ? दृश्यतेऽयंकोऽपि धूर्तः कपटजालिकऐन्द्रजालिकः। अनेन सर्वज्ञत्वस्याडम्बरं
दर्शयित्वा इन्द्रजालपयोगेण देवा अपि वञ्चिताः, यत् इमे देवा यज्ञपाटं साङ्गोपाङ्गवेदज्ञ मां च परिहाय श्रोकल्प
तत्र गच्छन्ति । एतेषां बुद्धि विपर्यासेा जातः, येन इमे तीर्थजलं त्यक्त्वा गोष्पदजलमभिलषन्तो १३५२॥ वायसा इव, जलं त्यक्त्वा स्थलमभिलपन्तो मण्डूकाइच, चन्दनं त्यक्त्वा दुर्गधमभिलपत्यो मक्षिका
इव, सहकारं त्यक्त्वा वळूरमभिलपन्त उष्ट्रा इव, सूर्यप्रकाशं त्यक्त्वाऽन्धकारमभिलषन्त उलूका इव,
यज्ञपाटं त्यक्त्वा धूर्त्तमुपगच्छन्ति । सत्यम् , यादृशो देवास्तादृशा एव तस्य सेवकाः। नो खल्विमे देवाः, हे देवाभासा एव । भ्रमराः सहकारमञ्जया गुनन्ति वायसा निम्बत। अस्तु, तथाऽप्यहं तस्य सर्वज्ञत्वगर्व
क्रुद्ध हुए, लाल हो उठे और मिसमिसाते हुए इस प्रकार बोले-'मेरे मौजूद रहते, दुसरा कौन है यह पाखण्ड ओर वितण्डागदी, जो अपने आप को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहता है ? प्रतीत होता है, यह कोई धूर्तकपटजाल रचनेवाला इन्द्रजालिया है। इसने सर्वज्ञता का आडम्बर दिखाकर, इन्द्रजाल का प्रयोग करके, देवों को भी ठग लिया है। इसी से ये देव यज्ञपाडे को और सांगोपांग वेदों के वेत्ता मुझको छोड कर वहाँ जा रहे हैं। इनका सिर फिर गया है, इसी से ये तीर्थ के जलको त्याग कर गोष्पद के जलकी अभिलाषा करनेवाले कौओं की तरह, जल को त्याग कर थल की कामना करनेवाले मेंढकों की तरह, चंदन को त्याग कर मल की इच्छा करनेवाली मक्खियों की तरह, आम को त्याग कर बवल की अभिलाषा करनेवाले ऊंटों की तरह, और मूर्य के आलोक को त्याग कर अंधकार की अभिलाषा करनेवाले उल्लुओं को तरह, यज्ञ की भूमि को त्याग कर धूर्स के पास जा रहा हैं! લાગ્યાં! શ્વાસ રૂંધાવા લાગ્યો ! તેમાંથી પ્રથમ ગૌતમ ગોત્રી ઈન્દ્રભૂતિ નામનો બ્રાહ્મણ ક્રોધાયમાન થઈ લાલપીળે બની ગશે. અને તે કોધાવેશથી ધમપછાડા કરતે બોલવા લાગ્યું કે—“મારી હયાતિમાં એ તે બીજે કણ છે કે જે પિતાને સવજ્ઞ અને સર્વદર્શ માની રહ્યો છે ? એમ લાગે છે કે જરૂર કંઈ પાખંડી અને વિતંડાવાદી તેમજ ધૂત અને કપટજાળી ઇન્દ્રજાળ રચી રહ્યો હોય! તે તે સર્વસને આડંબર કરી, ઇન્દ્રજળને પ્રયોગ કરી. સર્વ દેવ-દેવી એને પણ
ઠી રહ્યો છે! એ થી રે યજ્ઞના વાડાને તેમજ સાંગોપાંગ દેને જાણવાવાળા મને પણ ત્યજીને આગળ ચાલ્યા STER જાય છે. દેવોનાં માથા ફરી ગયાં છે કે તીર્થજળને છેડી ખાડાના પાણીની ઈચ્છા કરી રહ્યા છે ! આ દેવ થુંક
यज्ञपाटकस्थ
ब्राह्मण । वर्णनम् । ॥०१०५॥
॥३५२॥
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श्रोकल्प
सूत्रे
।। ३५३ ।।
鐵暴
Pronou
चूरिष्यामि । हरिणः सिंहेन, तिमिरं भास्करेण. शलभो वह्निना, पिपीलिका समुद्रेण, नागो गरुडेन, पर्वतो वज्रेण, मेषः कुञ्जरेण सार्धं योद्धुं किं शक्नोति ? एवमेवैष ऐन्द्रजालिको ममान्तिके क्षणमपि स्थातुं नो शक्नोति । अधुनैवदन्ति गत्वा तं धूर्त्तं पराजयामि । सूर्यान्तिके खद्योतस्य वराकस्य का गणना ? । अहं न कस्यापि साहाय्यं प्रतिक्षिष्ये, किमन्धकारप्रणाशे सूर्योऽन्यं प्रतीक्षते ? अतः शीघ्रमेव गच्छामि । एवमुक्त्वा पुस्तकहस्तः सच है, जैसे देव वैसे उस के सेवक ! निश्चय हो ये देव नहीं, देवाभास (झूठे देव - देवसरीखे प्रतीत होनेवाले) हैं। भ्रमर आम की मंजरी पर गुंजार करते हैं, कौवे नीम के पेड पर । खैर, फिर भी मैं उसके सर्वज्ञता के अहंकार को चूर-चूर करूंगा। क्या हिरन सिंह के साथ, तिमिर भास्कर के साथ, पतंग आग के साथ, चिउंटी समुद्र के साथ, सर्प गरुड के साथ, पर्वत वज्र के साथ और मेढा हाथी के साथ युद्ध कर सकता है ? कभि नही कर सकता है। इसी प्रकार वह इन्द्रजालिया मेरे सामने पल भर भी नहीं ठहर कता । अभी इसी समय मैं उसके पास जाकर उस धर्म की बोलती बंध करता । सूर्य के समक्ष बेचारे जुगनू की क्या गिनती ! मैं किसी की सहायता की प्रतीक्षा नहीं करूँगा । अन्धकार का नाश करने में सूर्य को क्या किसी की प्रतीक्षा करनी होती है ? अतएव मैं शीघ्र ही जाता हूँ ।
ગળફાના સ્વાદ લેનાર કાગડા જેવા દેખાય છે ! પાણીનો ત્યાગ કરી જમીનની વાંછના કરનાર મેંક જેવા જાય છે! ચંદનની ગ ંધને તજી મળની ગંધ લેવાવાળી માખીઓ જેવા આ દેવા લાગે છે! આંબાવૃક્ષને બદલે કાંટાવાળા ખાવળની ઝંખના કરવાવાળા ઊંટ જેવા તેઓ દેખાય છે! સૂના તેજના ત્યાગ કરીઅંધકારની ઇચ્છા કરનાર ઘૂવડા જેવા આ દેવા દેખાય છે! ખરેખર તેએ યજ્ઞની પવિત્ર ભૂમિને છાંડીને ધૂતની ધૃત શાળામાં જઇ રહ્યા છે! जरामर छे, नेवा देव तेवा पूनरा
નિશ્ચયથી જણાય છે કે આ દેવા નથી, પણ દેવલાસ-ખાટા દેવ છે. ખરી વાત છે કે ભમરાએ આંબાની મંજરી ઉપર ગુજારવ કરે છે અને કાગડાએ લીંબડાના ઝાડ પર કા-કા કરે છે. ખેર, હું તેની સન્નતા અને અહંતાના ચૂરેચૂરા કરી નાખીશ! શું હરણ સિંહ સાથે ખેલ કરી શકે ? શું અધકાર સૂર્યની સાથે રિફાઈ કરી શકે ? શું પતગીએ આગ ઉપર જીત મેળવી શકે ? શું કીડી સમુદ્રનું પાણી પી શકે ? શું સપ ગરૂડને હરાવી શકે ? શું પત વજાને તોડી શકે? શું મેં હાથી સાથે યુદ્ધ કરી શકે ? આવી રીતે આ ઇન્દ્રજાળીએ મારી સામે એક પળ પણ ટકી શકશે નહિ ! હમણાં જ હું તેની પાસે જઇ, તેની ખેલતો બવ કરાવી દઉં ! સૂર્યના તેજ આગળ બીચારા આગિયાની શી વશાત ? હું કોઇની પણ સહાયતા આ કામમાં ઈચ્છતા નથી, શું અંધકારને નાશ કરવામાં સૂર્ય કોઈની માહ જોતા હશે ? માટે હવે હું શીઘ્ર ત્યાં જઈ પહોંચુ !
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कल्प
मञ्जरी
टीका
यज्ञपाटकस्थ ब्राह्मण वर्णनम् ।
॥सू० १०५ ॥
॥३५३॥
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पीका
Jd कमण्डलुदर्भासनपाणिमिः पीताम्बरैः यज्ञोपवीतविभूषितसव्यकन्धरैः-हे सरस्वतीकण्ठाभरण ! हे वादिविजय
लक्ष्मीकेतन ! हे वादिमुखकपाटयन्त्रणतालक! हे वादिवारणविदारण पश्चानन! वाद्यैश्वयसिन्धुचुलुकीकरागस्ते ! श्रीकल्पवादिसिंहाष्टापद ! वादिविजयविशारद ! वादिवृन्दभूपाल! वादिशिरःकरालकाल ! वादिकदलीकाण्डखण्डनकृपाण !
कल्पवादितमस्तोमनिरसनप्रचण्डमार्तण्ड ! वादिगोधमपेषणपाषाणचक्र ! वाघमघटमुद्गर ! वाधुलूकदिनमणे! वादिवृक्षो
मञ्जरी ॥३५४॥ न्मूलनवारण ! वादिदैत्यदेवपते ! वादिशासननरेश ! वादिकंसकंसारे ! वादिहरिणमृगारे ! वादिज्वरज्वराङ्कुश ।
_इस प्रकार कह कर और पुस्तक हाथ में लेकर पाँचसौ शिष्यों के साथ प्रभु के निकट जाने को से रवाना हुए। उनके शिष्य कमण्डलु और दर्भ का आसन हाथ में लिए हुए थे। पीताम्बर पहने थे। उनका बाया कँधा यज्ञोपवीत से सुशोभित हो रहाथा, वे अपने गुरु-इन्द्रभूति का इस प्रकार यशोगान कर रहे थे
और जयजयकार करते जा रहेथे ।-हे सरस्वती रूगी कंठाभरण वाले ! हे वादी-विजय की लक्ष्मो के ध्वज ! हे वादीयों के मुव रूपी द्वार को बंध कर देने वाले ताले ! हे वादी रूपी हस्ती को विदारण करनेवाले। पंचानन ! हे वादियों के ऐश्वर्य रूपी सागर को चुल्लू में पी जानेवाले अगस्ति ! हे वादि-सिंहों के लिए अष्टापद ! हे वादिविजय विशारद ! हे वादिवृन्दभूपाल ! हे वादियों के सिर के विकराल काल ! हे वादी रूपी
यज्ञपाटकस्थ
ब्राह्मण कदलियों को काटनेवाले के लिए कृपाण-तलवार ! हे वादि-तम के समूह को नष्ट करनेवाले प्रचण्ड मार्तण्ड !
वर्णनम्। हे वादियों की गेहूँओं को पिसने के लिए पाषाण चक! हे वादियो रूपी कच्चे घडों के लिये मुदगर ! मू०१०५॥ हे वादी रूपी उलूकों के लिये मर्य! हे वादि-गृक्षों को उखाड फैंकनेवाले गजराज ! हे वादो रूपी देत्यों के
આ પ્રમ ણે બકવાટ કરી, હાથમાં પુસ્તક લઈ, પાંચસે શિષ્યના સમુદાયને લઈને પ્રભુ પાસે જવા તે રવાના થયો. તેના પટ્ટશિષ્ય તેમનું કમંડળ અને દર્ભનું આસન હાથમાં પકડયું હતું. પીતાંબર ધારણ કર્યું હતું. તેને ડાબે ખંભ ય પવીત વડે શોભી રહ્યો હતે. પિતાના ગુરુ “ઇન્દ્રભૂતિના યશગાન અને જયજયકાર બેલાવતે તેને શિષ્ય સમુદાય પણ તેની સાથે ચાલી રહ્યો હતે. યશોગાન કેવા પ્રકારનાં હતાં, તે કહે છે-“હે સરસ્વતી રૂપી કડીને ધારણ કરવાવાળા ! હે વાદી–વિજયની લમીના વ્રજરૂપ! હે વાદિઓના મુખ રૂપી દ્વારને બંધ કરવાવાળા ! હે વાદી રૂપી હાથીનું વિદ્યારણ કરવાવાળા પંચાનન કેશરી સિંહ સમાન ! હે વાદિએના એશ્વર્યા રૂપી સાગરને ઘેળીને પી જવાવાળા અગત્ય મુનિ ! હે વાદિ રૂપી સિંહના અષ્ટાપદ! હે વાદિ વિજય વિશારદ ! હે વાદિવૃન્દ ભૂપાલ !
॥३५४॥ હે વાદિએના કાલ સમાન ! હે વાદિ રૂપી કદથી વૃક્ષને કાપવાવાળી તલવાર સમાન ! હે વાદિ રૂપી અંધકારને નષ્ટ
કરવાવાળા સૂર્ય! હે વાર્દિરૂપી ઘઉંને પીસવાવાળી ઘંટી સમાન ! હે વાદિ રૂપી કાચા ઘડાને ફેડનાર મુદુગર સમાન! lain Education onહે વાદિ રૂપી ઘુવડોના સમાન ! હે વાદિ રૂપી વૃક્ષેને ઉપાડી ફેંકી દેનાર ગજરાજ સમાન ! હે વાદિ રૂપી દેત્યેના
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श्रीकल्पसूत्रे ।। ३५५ ।।
狂暴
Senten
वादि मलमणे ! वादिहृदयशल्यवर ! वादिशलभप्रज्वल दीपक ! वादिचक्रचूडामणे ! पण्डितशिरोमणे ! विजितानेकवादिवाद ! लब्धसरस्वती सुप्रसाद ! दूरीकृतापरगर्वोन्मेष ! इत्यादियशोगायद्भिः पञ्चशतशिष्यैः परिवृतो जयजय शब्दैः शब्दायमानः प्रभुसमीपे समनुप्राप्तः । तत्र गत्वा स समवसरणसमृद्धिं प्रभुतेजश्च विलक्य किमेतदिति चकितचित्तसंजातः ०१०५ ।।
टीका- 'एवं परोप्परं' इत्यादि । एत्रम् - अनुपदमुक्तं वचनं, परस्परम् = अन्योऽन्यं कथयत्सु = वदत्सु सत्सु अत्रान्तरे = एतस्मिन्मध्ये ते = सपरिवारा विमानमारूढाः समवतरन्तोदेवाः, यज्ञपाटकं = यज्ञस्थानं त्यक्त्वा = अतिक्रम्य अग्रे प्रस्थिताः-प्रयाताः । तद् दृष्ट्वा ते यज्ञयाजिनो = याज्ञिकाः, ब्राह्मणाः, निष्कम्पाः = स्तब्धाः, निस्तेजसः- तेजो रहिताः, लिए देवेन्द्र ! हे वादी -शाशक नरेश ! हे वादी-कंस-कृष्ण । हे वादी रूपी हरिणों के सिंह । हे वादी रूपी ज्वर के लिए ज्वरांकुश | हे वादि-समूह को पराजित करनेवाले श्रेष्ठ मल्ल ! हे वादियों के हृदय में चुमनेवाले तीखे शल्य ! हे वादी रूपी पतंगो के लिए जलते दीपक ! वादिचक्रचूडामणि ! हे पण्डित शिरोमणि । हे अनेक वादियों के बाद को विजय करनेवाले ! हे सरस्वती का सुप्रसाद पानेवाले ! हे अन्य विद्वानों के गर्भ की वृद्धि को दूर करदेनेवाले " इस प्रकार के यशोगान के साथ इन्द्रभूति ब्राह्मण प्रभु के पास पहुँचे। वहाँ पहुँच कर समवसरण की समृद्धि और प्रभु का तेज देखकर वह 'यह क्या ?' इस प्रकार चकित - चित्त हो गये ॥ ०१०५ ।।
टीका का अर्थ- जब वे पूर्वोक्त वचन आपस में कह रहे थे, उसी बीच सपरिवार और विमानों पर आ वे आते हुए देव यज्ञभूमि को लांघ कर आगे चले गये । यह देखकर वे यज्ञकर्त्ता ब्राह्मण स्तब्धदेवेन्द्र ! हे वाहि शास नरेश ! हे वाहि-उस-य! हे वाहि-रोना सिंह ! हे पद ३पी तावना नाथ भाटे વરાંકુશ ઔષધ સમાન ! હું વાદિ સમૂહને પરાજીત કરવાવાળા મલ ! હે વાદિના શરીરમાં ઘાચવાવાળા તીક્ષ્ણ શલ્ય ! હે વાદિ રૂપી પત ંગને ભસ્મ કરવાવાળા દોષક ! હું વાદિ ચક્ર-ચૂડામણિ ! અે પંડિત શિમણિ! વાદિ વિષય વિજેતા ! હું સરસ્વતી દેવીના કૃપાશીલ! વિદ્વાનેાના ગર્વાંને તેાડનાર સુરંગ સમાન ! ” આવાં ચશાગાન કરાવતા ઇન્દ્રભૂતિ પોતાના શિષ્ય સમુદાયની સાથે પ્રભુ પાસે પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચતાં જ સમવસરણનુ ભવ્ય અને તેજોમય દન જોઈ તેઓ બધા ચકિત ચિત્ત બની ગયા. (સૂ॰૧૦૫)
વિશેષા—જ્યારે બ્રાહ્મણે એ જોયુ' કે દેવે રાશ થઈ ગયા. તેમની સુખની કાન્તિ એછી થવા
તે યજ્ઞભૂમિને વટાવીને તેથી પણ આગળ વધી રહ્યા છે, ત્યારે તેઓ લાગી. તેને પેાતાની પ્રતિષ્ઠા અને કીર્તિ ઓછા થતાં જણાયાં.
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कल्प
मञ्जरी टीका
यज्ञपाटकस्थ ब्राह्मण
वर्णनम् ।
॥ ०१०५ ॥
॥ ३५५॥
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कल्प
मञ्जरी टीका
मा अवमथितवदननयनकमलाः अवमर्दितमुखनेत्रकनलाः, दीनविवर्णवदनाः दैन्ययुक्तनिष्पभमुखाः संजाताः। अत्रान्तरे
Pा ब्राह्मणशोक समये अन्तराऽऽकाशे-गगनमध्ये देवैः घुषितम्-उच्चैरुच्चारितम्-किमित्याह-तद्यथेत्यादि-तथाहिश्रीकल्प
भो भोः-भव्याः। यूयम् प्रमादम् अवधूय दूरीकृत्य निर्वृतिपुरी मोक्षापुरी प्रति सार्थवाहम् एनम्=
श्रीवर्द्धमानप्रभुं आगत्य भजध्वम् सेवध्वम् । यः श्रीवर्धमानस्वामी जगत्त्रयहित:-त्रिलोककल्याणकारो, लोकोप॥३५६॥ कारकरणैकवतः-जनानामुद्धरणमार्गोपदेशरूपोपकारकरणे प्रधाननियमधरः, जिनेन्द्रः-रागद्वेषजयिनां सामान्य
केवलिनां स्वामी चास्ति ।
एवम्-इत्येतदेवघुपितं वचनं श्रुत्वा-श्रवणगोचरीकृत्य क्षणमात्रम् उच्छवस्य-उर्ध्वश्वासं गृहीत्वा, पूर्व-सर्वतः प्रथमं तावत् अन्येष्ववदत्सु सत्सु गौतमगोत्र:-गौतमगोत्रोत्पन्नः, इन्द्रभूतिः तदाख्यः नाम प्रसिद्धो ब्राह्मणः सन्न रह गये, तेजोहीन हो गये । उनके मुख और नेत्र कुम्हला गये। उनके चेहरे पर दीनता झलकने लगी। मुख फीका पड गया। जब ब्राह्मण इस प्रकार खेद-खिन्न हो रहे थे, उसी समय आकाश के मध्य में देवोने उच्च स्वर से घोषणा की। वह घोषणा क्या थी, सो कहते हैं
'भो भव्य जीवो ! तुम प्रमाद का परित्याग करके, मोक्ष रूपी नगरी के लिए सार्थवाह के श्रीवर्धमान भगवान को आकर भजो, इनकी सेवा करो। यह श्रीवर्धमानस्वामी त्रिलोक के कल्याणकारी हैं, मनुष्यों के उद्वार के मार्ग का उपदेश देने रूप उपकार करना ही इनका प्रधान व्रत-नियम है। यह जिनों राग-द्वेष को जीतनेवाले सामान्य केलियों के स्वामी हैं।' આ ઉપરાંત દેવોની ઘોષણે તેમના સાંભળવામાં આવતી. આવી ઘોષણા અને કલરવમાં, તેઓ કહેતા સંભળાયા કે– હે ભવ્ય જી! તમે તમારી નિદ્રા ઉડાડો ! આ અમુલ્ય અવસર ફરી ફરી નહિ આવે! આ અપૂર્વ અવસરનો લાભ લઈ કલ્યાણ સાધે! મોક્ષ રૂપી નગરીમાં જવાનો આ સર્વોત્કૃષ્ટ સથવારે તમને મળી ગયું છે! આત્માને અનંત સુખ આપવાવાળું ધામ તમારે આંગણે આવીને ઉભું રહ્યું છે. ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીને ભજે, તેની ઉપાસના કરો.
આ ભગવાને અનંત આ પદાઓ વેઠી, ઉત્કૃષ્ટ આત્મજાતિને પ્રમટાવી છે, તેમ જ સંસારના ત્રિવિધ તાપનું શમન કર્યું છે. તમારે આ સંસારની આગ ઝરતી વાલાઓમાંથી ઉગરવું હોય તે, તેમને ઉપદેશ સાંભળ! તેમના કથનને વિચાર કરે ! આ ભગવાનને હૈયે, ત્રણે લોકનું હિત વસ્યું છે. સંસારના અપરંપાર દુઃખોમાંથી છૂટવાને તેઓ ઉપદેશ આપી રહ્યા છે. કારણ કે તેઓએ આ જ્ઞાનદશા, સ્વયં પ્રાપ્ત કરી છે. તેઓએ રાગ-દ્વેષ વિકાર આદિને બાળી ભસ્મ કર્યા છે. તેઓ સામાન્ય આપ્તપુરુષોમાં પણ શ્રેષ્ઠતા ધરાવે છે.
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ब्राह्मण वर्णनम् । ॥मू०१०५||
॥३५६॥
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श्री कल्प सूत्रे । ३५७।।
रुष्टः =अन्तर्हितक्रोधः, ततः क्रुद्धः = स्फुरिताधरतया व्यक्तक्रोधः, आशुरक्तः- शीघ्रक्रोधारुणनयनः, मिसमिसायमानः = क्रोधेन जाज्वल्यमानः एवं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत् - "मयि - इन्द्रभूत विद्यमाने तिष्ठति सति, अन्यः = मद्भिन्नः कः - अपरिचितः अयम् = एषः पाषण्डः = विडम्बनः समाश्रितवितण्डः = वितण्डावादी वर्तते, यः आत्मानंस्वं सर्वज्ञ = सकलपदार्थज्ञानवन्तं सर्वदर्शिनं=सक पदार्थप्रत्यक्षीकारिणं कथयति लोकसमक्षे वदति, स न लज्जते । अयं कोऽपि धूर्तः कपटजालिक:-कपटजालवान् ऐन्द्रजालिक: = मायावी दृश्यते = अनुमीयते । अनेन पापण्डिना सर्वज्ञत्वस्य = सकलपदार्थज्ञानशालितायाः सूचकम् आडम्बरं = प्रपञ्चं दर्शयित्वा = प्रकाश्य इन्द्रजालप्रयोगेण= मायाविस्तारणाया देवा अपि वञ्चिताः=छलिताः, यत् = यस्माद् वञ्चनात् हेतोः इमे= एते देवाः यज्ञपाटकं = यज्ञस्थानं
देवों की इस प्रकार की घोषणा को सुनकर, क्षणभर ऊँची श्वास लेकर, सब से पहले गौतमगोत्र में उत्पन्न इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण के मन में क्रोध उत्पन्न हुआ । होठ फड़कने लगे - अतः क्रोध प्रकट हो गया । उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गये । वह मिसमिसाने लगे-क्रोध से जलने लगे और इस प्रकार वचन बोले- मेरे विद्यमान रहते, यह दूसरा कोन पाखंडी और वितंडावादी है जो आपको सर्वज्ञ-सब पदार्थों का ज्ञाता और सर्वदर्शी - सब पदार्थों को साक्षात्कार करनेवाला - कहलाता है? लागों के सामने ऐसा कहते उसे लज्जा नहीं आती ? जान पडता है, यह कोई कपटजाल रचनेवाला मायावी है ! इस पाखंडीने सर्वज्ञता को प्रकट करनेवाला प्रपंच रचकर, इन्जाल फैलाकर देवों को भी छल लिया है-देव भी इसके चक्कर में आ गये
દેવાની આ પ્રમાણેની ઘેાષણા સાંભળી, તે વધારે, ગુંચવણમાં પડયા. તેમને લાગ્યું' કે, જો આના ઉપાય નહિ કરવામાં આવે તે ધ ના કાબુ આપણા હાથમાંથી સરી પડશે! તમામ યજ્ઞાથી એકમો, ઇન્દ્રભૂતિને ઘણુ લાગી આવ્યું. તેના ક્રોધની સીમા વધી ગઇ. કારણ કે તેનૢં માન તે વખતના સમાજમાં અદ્વિતીય હતુ. તેનું જ્ઞાન વિશાળ અને પ્રશ્ચિમ હતુ. તેનેા પ્રભાવ ચારેબાજી પડી રહ્યો હતા. તેનુ વાક્ચાતુ` ભલભલા દિલેલખાજીએ ને હ ંફાવી નાખતુ`. તેની રિફાઇ કરી શકે તેમ તે વખતનાસમાજમાં, કાઇ દૃષ્ટિગોચર થતું ન હતું. તેની વિદ્વત્તા, ભાષા ઉપરના કાબુ, તેમજ પ્રાભાવિક આજસની તુલના થઈ શકે તેમ ન હતી. તેને મન, ભગવાન પાખડી અને વિતંડાવાદી જણાતા. આ ઉપરાંત, ભગવાને લોકાને ઈન્દ્રજાળ દ્વારા વશ કર્યાં છે, તેમ તેને જણાયા કરતુ હતુ. તેથી ભગવાન ‘માયાવી પુતળું છે' તેમ તેની માન્યતા હતી મનુષ્ય સ્વભાવ એટલા બધા ભાળેા અને સરળ હોય છે કે, તેને વશ કરવામાં ઝાઝી મહેનત પડતી નથી; પણુ દેવા જે ચતુર અને દાક્ષિણ્ય યુકત હોય છે, તેએ પણ આ ઈન્દ્રજાળિયાની જાળમાં સપડાઇ ગયા ! મારું જ્ઞાન અગાધ અને અસીમ છે, તેમજ ચાર વેદોના મૂળભૂત અર્થા અને તેના રહસ્યને જાણુવાવાળું છે, વળી વેદના અંગે
真真藏變道
कल्प
मञ्जरी
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यज्ञपाटकस्थ ब्राह्मण वर्णनम् ।
॥ सृ ०१०५ ॥
॥३५७॥
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तत्रस्थं साङ्गोपाङ्गवेदज्ञम्=अङ्गोपाङ्गसहितानां वेदानां ज्ञातारं माम् = इन्द्रभूतिं च परिहाय= त्यक्त्वा तत्र - पाषण्डिपार्श्वे गच्छन्ति, तद् एतेषां देवानां बुद्धिविपर्यासः =मतिवैपरीत्यं जातः = अभूत्, येन = बुद्धिविपर्यासेन इमे = एते देवाः तीर्थजलं गङ्गादितीर्थसम्बन्धिजलं त्यक्त्वा = उपेक्ष्य गोष्पदजलं क्षुद्रखातसम्बन्धि जलम् अभिलषन्तः = इच्छन्तः वायसा इव=काका इव यज्ञपाटकं=त्यत्ता धूर्तमुपयान्तीति परेणान्वयः एवमग्रेऽपि तथा इमे देवाः जलं त्यक्वा = विहाय स्थलं=जलवर्जितस्थानम् अभिलषन्तः = कामयमानाः, मण्डुकाः इव तथा इमे देवाः चन्दनं = श्रीखण्डादि त्यत्तत्रा दुर्गन्धमभिलषन्त्यः=इच्छन्त्यः मक्षिकाः, इव, तथा इमे देवाः सहकारम् आम्रवृक्षं त्यक्स्त्रा - वरं - कण्टकिवृक्षविशेषम् अभिलषन्तः उष्ट्राः इव, तथा इमे देवाः सूर्यप्रकाशं त्यक्त्वा अन्धकारमभिलषन्त उलूकाः इव प्रतिभान्ति, येऽमी देवा यज्ञपार्ट= यज्ञस्थानं त्यक्त्वा धूर्त = मायाविनम् उपगच्छन्ति उपयान्ति । सत्यं यादृश: - यत्तुल्यः देवो भवति हैं। इसी कारण तो वे देव यज्ञ की (पावन) भूमि को और अंगोपांगो सहित वेदों के ज्ञाता मुझको त्याग कर उस पाखण्डी के पास जा रहें हैं । निश्चय ही इन देवों की मति भी विपरीत हो गई है । ये देव गंगा आदि तीर्थों के जल को त्याग कर सुच्छ खड्डे के पानी की कामना करनेवाले काको के समान यज्ञभूमि को छोड उस धर्त के पास जा रहे हैं ! और ये देव जलकी उपेक्षा करके स्थल की इच्छा करनेवाले मेंढको के समान, श्रीखंड आदि चन्दन की अवहेलना करके दुर्गंध को पसंद करनेवाली मक्खी के समान, तथा ग्राम्र वृक्ष को छोडकर बबूल की अभिलाषा करनेवाले ऊँटों के समान तथा दिवाकर के आलोक की अलेहना करनेवाले उल्लुओं के समान मालूम होते हैं; जो इस यज्ञस्थान को छोडकर इस मायाबी के पास जा रहे हैं। सच है जैसा देव वैसे ही उसके पूजारी चांग उपरांत, श्रुति-स्मृति-पुराणु-छ:-अव्य-असार-व्या४२ - उपनिषड्-इत् संहिता भने वैधि श्रन्थाना मारोग्य શાસ્ત્ર વિગેરેને પિછાણુવાવાળું છે, છતાં, આ દેવા મારુ' પણુ ઉલ્લંધન કરી આગળ ધપી રહ્યા છે યજ્ઞરૂપી પિવત્ર ભૂમિને અદ્યગણી, તેએ આ વાતેાડિયા પુરુષ તરફ જઇ રહ્યા છે!
આ દેવા ખરેખર ભૂલ કરી રહ્યા છે! તેએ તી જળને ઘેાડી, ખાડાખાબાચીયાના ગંધાતા પાણીના પીનારા કાગડાએ સમાન છે. યજ્ઞભૂમિને મૂકી તે ધૂની પાસે જઇ રહ્યાં છે, અને જળની ઉપેક્ષા કરીને સ્થળને ઇચ્છનાર દેડકાની સમાન છે. શ્રીખંડ આદિચંદનને તજી દુર્ગંધને પસ ંદ કરનાર માખીઓની સમાન છે. આમ્રવૃક્ષને મૂકી શૂલ અને કાંટાથી ભરપૂર બાવળની અભિલાષા કરવાવાળા ઊંટની સમાન, સૂર્યના પ્રકાશની અવલેહના કરવાવાળા ધ્રુવડાની સમાન જણાય છે કે, જેઓ આવા રૂડા આલ્હાદજનક યજ્ઞસ્થાનને ત્યાગ કરી ઘડીના છઠ્ઠા ભાગમાં Jain Educational onal दृश्य थवावाजा भाषावीनी पासे ह्या छे. जी बात है 'वा देव छे तेवा भरी' छे. आ
श्री कल्पमूत्रे ।। ३५८।।
漫漫
晚真機真
海鮮
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कल्पमञ्जरी टीका
यज्ञपाटकस्थब्राह्मक
वर्णनम् । ॥सू० १०५।।
॥३५८॥
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टीका
ji तस्य देवस्य सेवकाः अपि तादृशा-तदनुरूयाः एव भवन्ति । इमे खलु देवा नो सन्ति, किन्तु देवाभासाः=
देववदन्ये केचित् सन्ति । भ्रमराः सहकारमञ्जर्याम्-आम्रमञ्जया गुञ्जति-मधुरमव्यक्तं शब्दं कुर्वन्ति, वायसा:
काकाः निम्बतरौ निम्बवृक्षेऽनुरागं कुर्वन्ति, अस्तु एतद्भवतु तथापि-देवानां धूतपार्श्व गमनेऽपि, अहम् तस्य श्रीकल्प
कल्पमुत्रे धर्तस्य सर्वज्ञत्वगर्वसर्ववित्त्वजनितादारं, चूरिष्यामि मद्दयिष्यामि । हरिण: मृगः सिंहेन किं योधुं शक्नोति ?'
मञ्जरी ॥३५९॥
इत्युत्तरेणान्वयः, एवमग्रेऽपि, तिमिरम्=अन्धकारः, भास्करण सूर्येण सह, शलभः पतङ्गो वह्निना अग्निना सह, पिपीलिका समुद्रेण सह, नागः सर्पः, गरुडेन-पक्षिराजेन सह, पर्वतो वज्रेण सह, मेषः-मेण्डः कुञ्जरेण हस्तिना सार्ध-सह योg=रणं कर्तु किं शक्नोति ? अपि तु न शक्नोति, एवमेव-पूर्वरीत्येव एषः अयम् ऐन्द्रजालिका मायावी, मम-अन्तिके-सन्निधौ क्षणमपिस्थातुं नो शक्नोति । अधुनैव-अस्मिन्नेवकाले अहम्-तदन्तिके-धूर्तपार्थे गत्वा तं छलितदेवादि, धर्तमायाविनं, पराजयामि-परास्तं करोमि । सूर्यान्तिके सूर्यसमक्षे खद्योतस्य वराकस्य मन्दस्य का गणना ? न गणनेतिभावः। अहम् कस्यापि विदुषःसाहाय्य साहायताम् न प्रतीक्षिष्ये होते हैं। निस्सन्देह ये देव नहीं, देवाभास हैं-देव जैसे प्रतीत होनेवाले कोई और ही हैं। भ्रमर ाम्र की
यज्ञपाटकस्थमंजरी पर गुनगुनाते हैं, परन्तु काक नीमके पेडको ही पसंद करते हैं। खैर, देवों को उस छलियों के पास
ब्राह्मण जाने दो, पर मैं उस छलिया के सर्वज्ञत्व के घमंड को खंड खंड कर दंगा। हिरण की क्या शक्ति जो वह वर्णनम् । सिंह के साथ युद्ध करे? इसी प्रकार अंधकार, सूर्य के साथ, पतंग-अग्नि के साथ, चिउँटी सागर के साथ, ०१०५॥ साप गरुड़ के साथ, पर्वत वज्र के साथ और मेढा हाथी के साथ क्या युद्ध कर सकता है ? नहीं, कदापि नहीं। इसी प्रकार वह धूर्त इन्द्रनालिया मेरे समक्ष क्षगभर भी नहीं टिक सकता। मैं अभी उस धूत के पास जाकर देवादिकों को भी छलनेवाले मायावी को परास्त करता हूँ। सूर्य के सामने बेचारा जुगनू-आग्या દે નથી પણ દેવાભાસ છે, એટલે દેવ જેવા જણાતા આ કેઈ બીજાજ છે. ભમરાઓ આંબાની માંજરી પર ગુંજારવ કરે છે પણ કાગડાઓ લીંબડાના ઝાડને જ પસંદ છે. ખેર ! દેવેને તે પૂતની પાસે જવા દે. પણ હું તેની પાસે જઈ તેની સર્વજ્ઞતાના ભુક્કા ઉડાડી દઈશ! શું હરણિયું સિંહની સાથે યુદ્ધ કરી શકે છે ? એવી જ રીતે અંધકાર સૂર્યની સાથે પતંગિયા અગ્નિની સાથે કીડી સમુદ્રની સાથે, સર્ષ ગરૂડની સાથે, પર્વત ॥३५९॥ વજની સાથે અને મેં હાથીની સાથે શું યુદ્ધ કરી શકે છે? કદાપિ નહિં. આવી જ રીતે તે ધૂર્ત ઈન્દ્ર
જળિયો મારી સામે એક ક્ષણભર પણ ટકી શક્યા નથી. હું હમણાં જ તેની પાસે જઈ ને પણ ઠગવાવાળી વિજાર તેની ધૂર્તતાને ખુલ્લી કરી નાખીશ! સૂર્યની સામે બિચારે આગીયે શું વસ્તુ છે? એટલે કાંઈ નહિ. મારે બીજાની રીત
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श्रीकल्प
मञ्जरी टीका
नापेक्षिष्ये, तद्भूर्तपराजये एक एवाहं पर्याप्तोऽस्मि इति भावः । अन्धकारप्रणाशे=अन्धकारदूरीकरणे किं सूर्यः सब
अयं-चन्द्रनक्षत्रादिम् प्रतीक्षते ? अपि तु न प्रतीक्षते। अतः-अहं शीघ्रमेव गच्छामि एवम् इत्थम् उक्त्वाश्रीकल्प
कथयित्वा पुस्तकहस्तः प्रवस्यति-शास्त्रर्थे प्रमाणप्रदर्शनाय गृहीतपुस्तकःसन् कमण्डलुदर्भासनपाणिभिः-कमण्डलु:
दर्भासन-कुशासनं च पाणौ येषां ते तथाभूतास्तैः गृहीतकमण्डलुकुशासनैः पीताम्बरैः परिधृतपीतवस्त्रैः यज्ञोपवीत॥३६०॥
विभूषितसव्यकन्धरैः-यज्ञोपवीतेन विभूषिता=अलङ्कता कन्धरा-ग्रीवा येषां तैः-यज्ञोपवीतधारिभिः-'हे सरस्वतीकण्ठाभरण ! सरस्वती एव कण्ठाभरणं-कण्ठविभूषणं यस्य स तथा तत्संबुद्धौ, तथा-हे वादिविजयलक्ष्मीकेतनवादिनाम् उपरि यो विजयस्तस्य या लक्ष्मीः, तस्या केतन-पताकास्वरूप-परवादिपराभवकरणेऽग्रगण्येत्यर्थः । तथा-हे वादिमुखकपाट यन्त्रणतालक-बादिमुखमेव कपाटं तस्य यन्त्रणे तालक-तालकस्वरूपम् ! परवादिवाक्प्रसरक्या चीज है ! कुछ भी तो नहीं। मुझे किसी दूसरे विद्वान् की सहायता की आवश्यकता नहीं। मैं अकेला ही उस धूर्त के छक्के छुड़ाने के लिए समर्थ हूँ। अन्धकार का निवारण करने के लिए सूर्य क्या चन्द्रमा आदि की सहायता चाहता है ? नहीं। अतएव मैं अभी, इसी समय जाता हूँ।'
इस प्रकार कहकर होनेवाले शास्त्रार्थ में प्रमाण दिखलाने के लिए इन्द्रभूतिने अपने हाथ में पुस्तकें लीं। कमण्डलु तथा कुशासन हाथ में लिए हुए, पोत वस्त्र धारण किए हए, यज्ञोपवीत से शोभित बायें कंधेवाले और २.शोगान करनेवाले अपने पाँचसौ शिष्यों के साथ वह इन्द्रभूति भगवान् के समीप चले। उस समय उनके शिष्य उनको जय-जयकार कर रहे थे। शिष्य इस प्रकार यशोगान कर रहे थे-'हे सरस्वतीरूपी आभूषण कंठ में धारण करनेवाले! हे प्रतिवादियों पर प्राप्त की जानेवाली विजय रूपी लक्ष्मी की पताका के समान ! अर्थात् प्रतिनादियों का पराभव करने में अग्रगण्य ! हे वादियो के मुख रूपी कपाट को बंद करदेनेवाले ताले ! अर्थात् સહાયતા લેવાની જરૂર નથી. હું તેને પરાસ્ત કરવાને એક જ શક્તિમાન છું. ઇન્દ્રભૂતિ આ પ્રમાણે વિચારધારાએ ચડી ત્યાં જવાનો નિર્ણ કર્યો. પિતાના હાથમાં વિદ્વતાને શોભે તેવું એક પુસ્તક લીધું. તે ઉપરાંત અન્ય સાધનો જેવાં કે કમંડળ આદિ તેમ જ ચઢાઈ, ચાખડી વગેરે લઈ પિતાંબર ધારણ કરી, યજ્ઞોપવીતથી શોભાયુક્ત થઈ પાંચસે શિષ્યના સમુદાય સાથે ઇન્દ્રભૂતિ, ગૌતમ ભગવાન જે સ્થળે બિરાજ્યા છે ત્યાં જવા રવાના થયા. ચાલતી
વખતે ગગનને પણ ભેદી નાખે તેવા જય-જયકારવાળા પોકારે પાડીને શિષ્યવૃંદ ઉપવું. રસ્તામાં પિતાના ગુરુના ___Jain Education strionaयशोगान didi माटाणु २२ते। आपका म्यु vate & Personal use Only
यज्ञपाटकस्थब्राह्मण वर्णनम्। मू०१०५॥
॥३६०॥
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श्रीकल्प
कल्प
मत्रे
मञ्जरी
॥३६॥
टीका
र निरोधकेत्यर्थः। हे वादिवारणविदारणपश्चानन !-चादिवारणाः परवादिरूपा मत्तमतङ्गजाः, तेषां विदारणे=
कुम्भदलने पश्चानन सिंह परवादिविद्यामददूरीकारक ! इत्यर्थः । हे वाद्यैश्चर्यसिन्धुचुलुकीकराऽऽगस्ते !-वादिनां यत् ऐश्वर्य-विद्वज्जनाग्रगण्यत्वं तदेव सिन्धुः समुद्रः, तम्य चुलुकीकरणे अगस्ते अगस्तिरूप!-अनायासकृत दुर्धर्षपरवादिपराजयेत्यर्थः। हे वादिसिंहाष्टापद!-वादिन एच सिंहास्तेषां कृते अष्टापद-शरभ !-बादिविक्रमविनाशकेत्यर्थः ! हे वादिविजयविशारद ! धादिविजयकरणे परमदक्ष ! हे वादिवृन्दभूपाल ! परवादिदस्युदमनार्थ धृतप्रचण्डतर्कदण्डेत्यर्थः। हे वादिशिरः करालकाल! वादिनां शिरस्सु करालकाल प्रचण्डकालतुल्य ! हे वादिकदलीकाण्डखण्डनकृपाण ! वादिरूपाणां कदलीकाण्डानां खण्डने कृपाण-खड्गरूप!-अनायासेन सकलवादिमानविच्छेदनसमर्थेत्यर्थः। तथा-हे वादितमस्तोमनिरसन प्रचण्डमार्तड !-वादिन एव तमस्तोमाः अन्धकारस्वरूपाः, तन्निरसनेदरीकरणे प्रचण्डमार्तण्ड-प्रखरमूर्य !-स्वप्रभावदरीकृतसकलवादिसमृहेत्यर्थः। हे वादि गोधमपेषणवादियों की बोलती बंद करदेनेवाले ! हे प्रतिवादी रूपी मदोन्मत्त हाथियों के कुंभस्थलों को विदारण करनेवाले सिंह ! हे प्रतिवादियों के ऐश्वर्य-विद्वानों में अग्रगण्यता रूपी सागर को एफ ही चुल्लू में सोखजानेवाले अगस्ति अर्थात् दुर्दान्तवादियों को अनायास ही-घुटकियों में जीतले नेवाले ! हे वादियों रूपी सिंहों के पराक्रम को नष्ट करदेनेवाले अष्टापद ! वादियों को परास्त करदेने में दक्ष । हे वादी रूपी लुटेरों का दमन करने के लिए प्रचण्ड तर्क रूपी दंड धारण करने वाले ! हे वादियों के सिर के विकराल काल ! हे वादी रूपी कदलियों के खण्डखण्ड करदेने के लिए कृपाण, अर्थात् अनायास ही वादियों का मानमर्दन करनेवाले! हे वादी रूपी सघन अंधकार का निवारण करने के लिये प्रखर सूर्य ! हे प्रतिवादी रूपो गेहूँओं को
पताना गुरुनी प्रतिमा, मय गुप, सीखनु सामथ्य पशु, वाहत२५ने प्रभाव, नीरता, शैली, सात, વિષયને ગ્રહણ કરવાની શક્તિ, વિષયના રહસ્યની આરપાર ઉતરી જવાવાળી તીવ્રબુદ્ધિ, અનેક દષ્ટિબિંદુઓ વડે પિતાના વિષયો અને ધારણાને મજબૂત કરવાનું પરાક્રમ વિગેરેનાં ગુણગાન કરતાં, આ ટેળું પસાર થવા લાગ્યું. સિંહ અને હાથીની ઉપમાં, અંધકાર અને સૂર્ય, ધડો અને લાકડી વૃક્ષ અને ગજરાજ, દેવ અને દાનવ, કંસ અને કૃષ્ણ, સિંહ અને મૃગલાં, કદલી અને કૃપા, ઘુવડ અને સૂર્ય, સિંહ અને અષ્ટાપદ, જવર અને જવરાંકુશ વિગેરેની ઉપમા અને ઉપમેયને આધાર લઈ પિતાના ગુરુ આ ઈન્દ્રજાળિયાને જરૂર પરાસ્ત કરશે એવા દંભી અને બડાઈખેર ઉદ્ગા સાથે આ શિષ્યમંડલ ચાલતું હતું.
यजपाटकस्थ
ब्राह्मण
वर्णनम् । म ॥मू०१०५॥
॥३६१॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ||३६२।।
कल्पमञ्जरी
रीका
बार पापाणचक्र !-वादिरूपा ये गोधूमाः तत्पेषणे चूर्णीकरणे पाषाणचक्र ! घरट-चूर्णीकृतपरवादिमानेत्यर्थः। तथा
हे वाद्यामघटमुद्गर !-चादिन एव आमघटा: अपक्घटास्तचूर्णने मुद्गरतुल्य ! वादिविद्वत्ताऽभिमानचूर्णीकारकेत्यर्थः, तथा-हे वाधुलुकदिनमणे !-बादि न एव उलूकास्तेषां कृते दिनमणे-सूर्यरूप! परवादितर्कदृष्टिविनाशकेत्यर्थः। तथा-हे बादिक्षोन्मूलनवारण !-वादिन एव वृक्षास्तेषामुन्मूलने वारण-गजरूप ! वादिमानोन्मूलन समर्थेत्यर्थः । तथा-हे वादिदैत्यदेवपते वादिरूपाणां दैत्यानां पराभवकरणे देवपते! देवेन्द्र ! तथा-हे वादिशासननरेश!-वादिनां शासने स्वाधीनी करणे नरेश-राजरूप ! तथा हे वादिकंसकंसारे बदिन एच कंसस्तदमने कंसारे कृष्णरूप ! तथा-हे वादिहरिणमृगारे !-चादिन एवं हरिणास्तेषां कृते मृगारे=सिंहस्वरूप ! स्वसिंहनादवित्रासित सकलमृगरूपवादिसमूहेत्यर्थः। तथा-हे वादिज्वरज्वराङ्कुश!-वादिन एव ज्वरास्तदुपशमने ज्वराङ्कुश ज्वराङ्कशनामकौषधरूप ! तथा-हे वादियूथमल्लमणे वादिसमूहविद्रावणे श्रेष्ठमल्ल ! हे वादिहृदयशल्यवर ! स्वप्रगाढपाण्डित्यप्रभावेण वादिहृदयाऽनवरतपीडाकरणे तीक्ष्णशल्यस्वरूपेत्यर्थः। तथा-हे वादिशलभप्रज्वलदीपक !-वादिन एव पिस डालने के लिये चक्की के समान ! हे प्रतिवादी रूपी कच्चे घडों के लिये मुद्गर के समान वादीयो की विद्वत्ता को चूर-चूर करदेनेवाले! हे वादी रूपी उलूकों के लिए सूर्य अर्थात् प्रतिवादीयों की तर्क-दृष्टि को नष्ट करदेने वाले ! हे वादी रूपी वृक्षों को उबाड गिराने वाले गजराज, अर्थात् वादियों का मानमर्दन करने- वाले ! हे वादी रूपी दानों का पराभव करनेवाले देवेन्द्र! हे प्रतिवादीओं को अपने अधिन करनेवाले नरेश ! हे वादी रूपी कंस के लिए कृष्ण समान ! हे अपने सिंहनाद से समस्त वादी रूप मृगों को भयभीत करदेनेवाले सिंह ! हे वादी रूपी ज्वर का निवारण करने के लिए ज्वरांकुश नामक औषध ! हे वादियों के समूह को पराजित करनेवाले महान् मल्ल ! हे अपने प्रकाण्ड पांडित्य के प्रभाव से प्रतिवादियों के अन्तःकरण में सदैव खटकनेवाले काँटे ! हे प्रतिवादी रूपी पतंगों को भस्म करनेवाले जलते दीपक, अर्थात् प्रति
આવા ઉપમાન ઉપરાંત પ્રતિવાદીઓને હરાવવામાં પિતાના ગુરુદેવની તીવ્ર શક્તિ રહેલી છે તેવું સામર્થ્ય પ્રગટ કરતા ચાલ્યા જતા હતા. જેમ પતંગ અગ્નિમાં, શરીર મૃત્યુમાં, અજ્ઞાની પંડિતમાં ખતમ થઈ જાય છે તેમ આ વર્ધમાન પણ અમારા ગુરુની આગળ પરાજય પામશે! કારણ કે તેઓ, સકલ શાસ્ત્રો અને તેના અર્થમાં પારગત છે. તમામ કલાઓના જાણકાર છે, પંડિતેમાં શિરમણિ છે, અધિષ્ઠાત્રી દેવીનું કૃપાભાજન છે, વિદ્વાનોના ગર્વનું
न दवावाजा छ, तम ज्ञान विगैरेभा स . मा प्रभारी मा disdi, IND पता, अ.
ब्राह्मण
वर्णनम् । सम्०१०५॥
॥३६२॥
છે ss:
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कल्प
श्रीकल्पमूत्रे ॥३६३॥
मञ्जरी
टीका
शलभास्तेषां भस्मीकरणे प्रज्वलदीप प्रज्वलप्रदीपस्वरूप ! भस्मीकृतसकलवादियशःशरीरेत्यर्थः। तथा--हे वादिचक्रचूडामणे ! वादिचक्र धादिसमूहस्तस्य चूडामणे । सकलशास्त्रार्थकलाकुशलाग्रगण्येत्यर्थः। तथा-हे पण्डितशिरोमणे != विद्वज्जनशिरोमणिस्वरूप! तथा हे विजितानेकवादिवाद ! विजितोऽनेकवादिनां सकलवादिनां वादः शास्त्रार्थविचारो येन स तथा तत्संबद्धौ-सर्वदा शास्त्रार्थविजयिन्नित्यर्थः। तथा-हे लब्धसरस्वतीसुप्रसाद !-लब्धः-माप्त: सरस्वत्याःविद्याधिदेवतायाः सुप्रसाद: सुप्रसन्नता येन स तथा तत्सबुद्धौ, हे सरस्वतीकृपापात्रेत्यर्थः। तथा हे दरीकृतापरगर्योन्मेष !-दूरीकृतः विनाशितः अपरेषाम अन्येषां पण्डितानां गर्वोन्मेषः पाण्डित्याहङ्कार दियेन स तथा-तत्संबुद्धौ, दलितसकलपण्डित-पाण्डित्यदत्यर्थः । इत्यादि यशोगायद्भिः कीर्तयद्भिः पञ्चशतशिष्यैः परिवृतो 'जय जय' शब्दैः । शब्दाय्यमानः प्रभुसमीपे वीवीरप्रभु-पार्वे समनुप्राप्तः गतः । तत्रप्रभुपार्चे गत्वा स इन्द्रभूतिः समवसरणसमृद्धिं प्रभुतेजश्चविलोक्य दृष्ट्वा 'किमेतम् !' इति वदन् चकितचित्तः विम्मितमानसः संजातः ।।मू०१०५॥
गणधरवाद ____ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तं इंदभूई-भो गोयमगोत्ता इंदभूईत्ति संबोहिय वादियों के यश रूपी शरीर का विनाश करनेवाले! हे वादि चक्र चूडामणि-सकलशास्त्रों में अर्थों और कलाओं में। कुशल जनो में अग्रगण्य ! हे विद्व जन-शिरोमणि ! हे सकल वादियों के बाद को जीतनेवाले ! हे विद्या की अधिष्ठात्री देवता के कृपाभाजन ! हे अन्य विद्वानों के गर्व की वृद्धि को विनष्ट करनेवाले ! अर्थात् सब पण्डितो की पण्डिताई के गर्न को खर्च करनेवाले ! इस प्रकार पाँचसौ शिष्यों द्वारा किये जाते यशोगान और जय-जयकार के साथ इन्द्रभूति भगवान् के पास पहूँचे। वहाँ पहूँच कर समवसरण की लोकोत्तर विभूति को और प्रभु के तेज को देखकर चकित रह गये। सोचने लगे-यह क्या ? ||०१०५॥ નવી વાર કરતા આ શિવે સમવસરણ નજીક આવી પહોંચ્યા. ત્યાં તેઓ સમવરણુની અદ્વિતીય રચના, અનુપમ શેભા અને અપૂર્વકૃતિને જોઈ ડઘાઈ ગયા ! દિમૂઢ થઈ ગયા ! આંખો ફાટી રહી ! મોં વકાસી રહ્યા ! દાંતમાં આંગળી ઘાલી ગયા! આગળ ચાલતાં લકત્તર પુરુષ–ભગવાનને કંચનવણે દેહ અને તેનું લાલિત્ય જોઈ તેઓ શાનશુધ ખેઈ બેઠાં ! તેમનું તેજ, પ્રભાવ અને મુખ ઉપર તરતી તનમનાટવાળી સૌમ્યતા જોઈ તેમને ગર્વ ગળવા માંડે !
ક્રોધની પારાશીશીનું અંતર ધટવા લાગ્યું! આ બધું જોઈ, જાણી, અનુભવી તેઓ વિચારવા લાગ્યા અને “હાયકારાને र निसास तेसाना भुममाथी न भायो ! (सू०१०५).
यज्ञपाटकस्थ
ब्राह्मण वर्णनम् । ॥सू०१०५।।
॥३६३॥
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W
ational
M.
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥३६४॥
टीका
इन्द्रभूतेः आत्म
डियाए सुहाए महुराए वाणीए भासी। भगवओ वयणं सोचा सो पुणो अईव चगिय चित्तो जायो। 'अहो! अणेण मम णामं कहं णाचं ?। एवं वियारिय मणसि तेण समाहिय किमेत्य अच्छेरगं-जं जगपसिद्धस्स तिजगगुरुस्स मज्झ नाम को न जाणइ ? मज्झ मणंसि जो संसओ वट्टइ-तं जइ कहेइ छिंदइ य, ताहे अच्छेरं गणिज्जा । एवं पियारेमाणं तं भगवं कहीअ-गोयमा! सुज्झ मणंसि एयारिसो संसओ वट्टइ-जं जीवो अत्थि णो वा ?। जओ वेएम-"विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानु विनश्यति-न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति"ति कहियमथि । अस्स विसए कहेमि-तुमं वेयपयाणं अत्थं सम्मं न जाणासि-जीवो अत्थि, जो चित्तचेयण्ण विष्णाण सन्नाइलक्खणेहि जाणिज्जइ । जइ जीवो न सिया ताहे पुण्णपावाणं कत्ता को भवे ? तुज्झ जन्नदाणाइकज्जकरणस्स निमित्तं को होज्जा ? तवसस्थेविवुत्तं-"सवै अयमात्माज्ञानमयः" अओ सिद्धं जीवो अत्थित्ति । इच्चाइ पहुवयणं साच्चा तस्स मिच्छत्तं जले लणमिव, सुज्जोदये तिमिरमिव चिंतामणिम्मि दारिदमिव गलियं । तेण सम्मत्तं पत्तं । तएणं से भगवं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-भदंत ! रुक्खस्स उच्चत्तं माविउं वामणजणो विव अहं मइमंदो तुम्हं परिक्खिउं समागओ, सामी! जो तए मम पविबोहो दत्तो तेणं संसाराओ विरत्तोम्हि अओ मं पवाविय दुकावपरंपरा उलाओ भवसायराश्री तारेह ।
तएणं समणे भगवं महावीरे 'इमो मे पहमो गणहरो भविस्सइ 'त्ति कटु तं पंचसयसिस्स सहियं नियह- त्थेण पञ्चावेई।
तेणं कालेणं तेगं समरणं गोयमगोचे इंदभूई अणगारे समणस्स भगवो महावीरस्स जेटे अंतेवासी नाए इरियासमिए भासासमिए एसगासमिए आयाणभंडमत्त निक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाण परिद्वावणियासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तभयारीचाईवणेलज्जु तवस्सी खंतिखमे जिइंदिए सेाही आणियाणे अप्पुस्सुए अहिल्ले ससामण्णरए इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरी कटु विहरइ।
सेणं इंदभूईणामं अणगारे गोयमगोते सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाग संठिए बजरिसह नारायणसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेस्से चउद्दसपुची चउणाणोवगए समक्खरसण्णिवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदरसामंते उड्डजाण अहोसिरे झाणकोहोजगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥सू०१०६||
विषयक
संशय वारणं तस्य दीक्षा
ग्रहण
वर्णनम्। सू०१०६॥
॥३६४॥
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छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरस्तमिन्द्रभूति 'भो गौतमगोत्र ! इन्द्रभूते?" इति संवोध्य हितया सुखया मधुरया वाण्याऽभाषत । भगवतो वचनं श्रुत्वा स पुनरतीव चकितचित्तो जातःअहो ! अनेन मम नाम कथं ज्ञातम् ? एवं विचार्य मनसि तेन समाहितम्-किमत्राश्चर्यकं यजगत्मसिद्धस्य त्रिजगद्गुरो मम नाम को न जानाति ? मम मनसि यः संशयो वर्तते तं यहि कथयति छिनचि च तदा आश्चर्य गण्यते । एवं विचारयन्तं तं भगवानकथयत्-गौतम ! तब मनसि एतादृश संशयो वर्त्तते यत्-जीवो
श्रीकल्प.
कल्पमञ्जरी टीका
गणधरवाद मूल का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि। उस काल और समय में श्रमण भगवान् महावीरने उन इन्द्रभूति से 'हे गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति !' इस प्रकार संबोधन करके हितरूप, सुखरूप और मधुरवाणी से भाषण किया। भगवान् का कथन सुनकर इन्द्रभूति और अधिक चकितचित्त हुए। सोचने लगे-'आश्चर्य
है कि इन्होंने मेरा नाम कैसे जान लिया ?' फिर मन ही मन समाधान कर लिया-इस में विस्मय की बात र ही कौन-सी है ? मैं जगत् में प्रसिद्ध हूँ और तीनों जगत् का गुरु हूँ। मेरा नाम कौन नहीं जानता ? हाँ, मेरे मन में जो संशय विद्यमान है, उसे बतला दें और उसका निवारण कर दें तो मैं आश्चर्य मानें।
इस प्रकार विचार करते हुए इन्द्रभूति से भगवान् ने कहा-गौतम् । तुम्हारे मन में ऐसा संशय है कि
इन्द्रभूतेः
आत्मविषयक संशय वारणं तस्य दीक्षा
ग्रहण
वर्णनम्। ।।मू०१०६५
ગણધરવાદ भूगन। म —'तेणं कालेणं' इत्याहि. भनेते समये श्रममावान महावीर, गीत गात्री छन्द्रभूतिने સંબોધીને, હિતકર, સુખકર અને શાંતિકારક, મીઠી મધુરી વાણીને ઉચ્ચારી. ભગવાનની શાંતિ પ્રિયવાણીનું શ્રવણ કરવાથી, તેનું ચિત્ત ચકિત થયું તેમજ પિતાનું નામ, તેમના જાણવામાં આવતાં તેને આશ્ચર્ય પણ થયું. “હું જગત પ્રસિદ્ધ છું, ત્રણે જગતને ગુરુ છું. તે મારું નામ કોણ નથી જાણતું ? આવા તેના શુદ્ર જાણુપણાને લીધે વિસ્મય પામવા જેવું છે જ નહિ! પરંતુ જે આ વ્યક્તિ, મારા મનમાં રહેલ શંકાનું દર્શન કરાવે અને તેનું નિવારણ કરે, તે કાંઇક આશ્ચર્ય પામવા જેવું ખરું !”
ઈદ્રભૂતિ આવી રીતે વિચાર કરતે હો ત્યાંજ ભગવાનને પ્રશ્ન આવી પડ્યું કે “હે ગૌતમ! તારા મનમાં કે “જીવ'ના અસ્તિત્વ સંબંધી શંકા છે એ વાત બરાબર છે? અને તારા મનમાં જીવ’ના વિદ્યમાન પણ વિષે શંકા
॥३६५॥
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श्री कल्प
मूत्रे
मञ्जरी
॥३६६||
JANASI
RATA
म
ऽस्ति न वा ? यतो वेदेषु-"विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसमाऽस्ति" इति कथितमस्ति । अत्र विषये कथयामि-त्वं वेदपदानामर्थ सम्यग न जानासि । जीवोऽस्ति, यश्चिचैतन्यविज्ञान-संज्ञादिलक्षणै यते। यदि जीवो न स्यात् तदा पुण्यपापयोः कर्ता को भवेत् ? तव यज्ञ दानादिकार्यकरणस्य निमि को भवेत् ? तव शास्त्रेऽप्युक्तम्-“सबै अयमात्मा ज्ञानमयः" अतः सिद्धम्-जीवोऽस्तीति । इत्यादि प्रभुवचनं श्रुत्वा तस्य मिथ्यात्वं जले लवणमिव सूर्योदये तिमिरमिव, चिन्तामणौ दारिद्रयमिव गलितम् । टीका जीव है या नहीं है ? क्यों कि वेदों में ऐसा कहा है कि "विज्ञानघनएतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति" इति । अर्थात् विज्ञानघन ही इन भूतों से उत्पन्न होकर फिर उन्हों में लीन हो जाता है। परलोक संज्ञा नहीं है।।' इस विषय में मैं ऐसा कहता हूँ कि तुम वेद के पदों का सही अर्थ नहीं जानते। जीव का अस्तित्व है। जो चित्त, चैतन्य, विज्ञान तथा संज्ञा लक्षणों से जाना जाता है। यदि जीव
इन्द्रभूते न हो तो पुण्य-पाप का कर्ता कौन है ? तुम्हारे यज्ञ दान आदि कार्य करने का निमित्त कौन है ? तुम्हारे शास्त्र
आत्ममें भी कहा है-'सवै अयमात्मा ज्ञानमयः' इति । अर्थात् 'वह आत्मा निश्चय ही ज्ञानमय है। अतः सिद्ध हुआ कि विषयक जीव है । इत्यादि प्रभु के वचन सुनकर इन्द्रभूति का मिथ्यात्व, जल में नमक की भाति, मूर्योदय में अंधकार की संशय वारणं तरह तथा चिन्तामणि रत्न की उपलब्धि होने पर दरिद्रता की तरह गल गया। उन्होंने सम्यक्त्व प्राप्त कर तस्य दीक्षा ५६१ २ तेवु' विवा४५' ५५ भानु छ ? माय सेम डे "विज्ञानघनएतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय
वर्णनम् । पुनस्तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति" ति विज्ञानधन मा भूतेथी पन्न थाय छ, भने ते विज्ञानधन
॥सू०१०६॥ પાછું પ્રાણીઓમાં જ લીન થઈ જાય છે, અને તેથી, આ વિજ્ઞાનધનમાં પલેક સંજ્ઞા નથી, આ પ્રમાણેનું વેદ ०१४य, छेते ५२।१२ ने?" मा प्रभाणेना ६४५ पुनरुच्या२ ४री, भगवान गौतमने ४ छे है, "गौतम ! તું આ વેદવાકયનો અર્થ જાણતા નથી. માટે હું તે તમને સમજાવું છું કે, જીવનું અસ્તિત્વ છે. કારણ કે આ विधभान.५" वित्त, चैतन्य, विज्ञान तथा संज्ञा लक्षण द्वारा Mणी आय 9." ने अपनी यातीनहाय तो. પુય-પાપન કર્તા કોને ગણવે ? તમારા યજ્ઞ, દાન વિગેરે કાર્ય કરવાવાળા નિમિત્તભૂત કેણ છે? તમારા વેદ શાસ્ત્રમાં કહ્યા છે કે “આ આમાં નિશ્ચયથી જ્ઞાનમય છે” અર્થાત આ આતમા ખુદ જ્ઞાનપિંડ જ છે, આથી સિદ્ધ ॥३६६॥ થાય છે કે દરેક પ્રાણમાં જીવ નામનું તત્વ મેજુદ છે.
આ પ્રકારે પ્રભુનાં વચન સાંભળી ઈ-દ્રવૃતિનું મિથ્યાત્વ પાણીમાં મીઠાની માફક ઓગળી ગયું. સૂર્યને પ્રકાશ થતાં જેમ અંધકાર દૂર થઈ જાય છે તેમ તેનું મિથ્યાત્વ નાશ પામ્યું. જેમ ચિંતામણીની ઉપલબ્ધિ થતાં કાર
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श्रीकल्प
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कल्पमञ्जरी टीका
॥३६॥
तेन सम्यक्त्वं प्राप्तम् । ततः खलु स भगवन्तं चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादी-भदन्त ! वृक्षस्योच्चत्वं मातुं वामनजन इवाहं मतिमन्दस्त्वां परीक्षितुं समागतः। स्वामिन् ! यस्त्वया मा प्रतिबोधो दत्तः, तेन कृतकृत्यः संसाराद्विरक्तोऽस्मि, अतो मां प्रव्राज्य दुःखपरम्पराकुलाद् भवसागरात् नारय ।
ततः खलु श्रमणो भगवान महावीरः 'अयं मे प्रथमो गणधरो भविष्यति' इतिकृत्वा तं पञ्चशतशिष्यसहितं निजहस्तेन प्रावाजयत् ।
तस्मिन् काले तस्मिन समये गौतमगोत्र इन्द्रभूतिरनगारो श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी अनगारो जातः। ईर्यासमितः भाषासमितः एषणासमितः आदानभाण्डामात्रनिक्षेपणासमितः उच्चारप्रस्रवणश्लेष्म शिकागजल्लपरिष्ठापनिकाममितः वाकसमितः कायसमितः, मनोगुप्तः वाग्गुप्तः कायगुप्तः गुप्तः गुप्तेन्द्रियः गुप्तलिया। तत्पश्चात् इन्द्रभूति ने भगवान् को बन्दना कि, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर के इस प्रकार कहा-भदन्त ! मैं मंदमति आपको परीक्षा करने आया था, मानो जैसे वामन, वृक्षकी ऊंचाई नापने चला हो! स्वामिन् ! आपने मुझे जो बोध बीज दिया है, उससे मै कृतार्थ हुआ और संसार से विरक्त हुआ हूँ। अत:मुझे दोलित करके अमह्य दुःखोकी परम्परा से व्याकुल इस संसार-सागर से तार दीजिए, तब श्रमण भगवान् महावीरने 'यह मेरा प्रथम गणधर होगा' इस प्रकार कहकर पांच सौ शिष्यों सहित इन्द्रभूति को अपने हाथ से दीक्षा दी उस काल और उस समय गौतमगोत्रीय इन्द्रभूतिअनगार श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी अनगार हुए। ईर्यासमिति, भाषासमिति एषणासमिति, आदानभान्डमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चारप्रस्रवण श्लेष्मशिकागजल्लपरिष्ठापन समिति, मनःसमिति वचनसमिति, कायसमिति, मनवचन कायकी गुप्ति से गुप्त ગરીબાઈ દૂર થાય છે તેમ સત્ય જ્ઞાનની સમજણ થતાં તેનું મિથ્યાભિમાન અપ થઈ ગયું. તેણે થોડી વાતચીતમાં સર્વસ્વ ગ્રહણ કરી લીધું ત્યારબદ ઇન્દ્રભૂતિએ ભગવાનને વંદના-નમસ્કાર કર્યો, અને બેલવા લાગ્યો કે “હે ભદન્ત ! હું મંદ બુદ્ધિવાળે આપની પરીક્ષા કરવા આવ્યો હતે. જાણે વામન ઝાડની ઉંચાઈને માપવાં ચાલ્યા હોય! હે સ્વમિન ! આપે જે મને બેધ આપે તેના વડે હું કૃતાર્થ થયો છું ને સંસારથી વિરતિ પામે છું, માટે મને દીક્ષિત કરી દુઃખની પરંપરારૂપ એવા આ સંસારમાંથી મને મુક્ત કર.” “આ મારે પ્રથમ ગણુધર થશે” એમ કહી પાંચસે શિષ્યના પરિવાર સહિત ઇન્દ્રભૂતિ બ્રાહ્મણને ભગવાને દીક્ષા આપી. તે સમયે ગૌતમગાત્રી ઈન્દ્રતિ અણગાર શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના જ્યેષ્ઠ શિષ્ય બન્યા. સમિતિ, ભાષા સમિતિ, એષણસમિતિ, આદાન ભાંડપાત્ર - નિક્ષેપણ સમિતિ, ઉચ્ચારપ્રસ્ત્રવણમશિઘાણજa૫રિકા પનસમિતિ યુક્ત બન્યા મનગુપ્તિ, વચનગુપ્તિ અને
इन्द्रभूते
आत्मविषयक संशय वारणं तस्य दीक्षा
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वर्णनम् । सू०१०६॥
॥३६७॥
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कल्प. मञ्जरी टीका
॥३६८॥
ब्रह्मचारी त्यागी ने लज्जुः तपस्वी क्षान्तिक्षमः जितेन्द्रियः शोधिः अनिदानः अल्पौत्सुक्यः (अवहिल्लः) अत्वरितः सुश्रामण्यरतः इदमेव नँग्रन्थं प्रवचनं पुरतः कृत्वा विहरति । स खलु इन्द्रभूति मानगारो गौतमगोत्रः सप्तोत्सेधः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः वज्रऋषभनाराचसंहननः कनकपुलकनिकषपद्मगौरः उग्रतपाः दिप्ततपाः तप्ततपाः महातपाः उदारः घोरः घोरगुणः घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्यवासी उत्क्षिप्तशरीरः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्य: चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः सर्वाक्षरसंनिपाती श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यादरसामन्ते ऊर्ध्वजानुरधःशिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयमानो विहरति ।मु०१०६।। गुप्तेन्द्रिय गुप्तब्रह्मचारी त्यागी, बनकीलज्जावंती वनस्पति के समान पाप से लज्जित होनेवाले, तपस्वी, क्षमा करने में समर्थ, जितेन्द्रिय, चित्तशोधक, निदान रहित, उत्सुकता रहित, अत्वरित (स्थिर), समीचीन संयम में लीन हुए । इसी निर्गन्थ प्रवचन को आगे करके विचरने लगे। वह गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार सात हाथ ऊंचे, समचतुरस्र संस्थानवाले तथा वऋषभ नाराचसंहनन से सम्पन्न थे। सुवर्ण के टुकडेकी कसोटीपर घिसी हुई रेखा के समान तथा कमलकी केसरके समान गौर वर्ण थे । उग्रतपस्वी, दीप्त तपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, उदार, घोर, घोरगुणी, घोरतपस्वी घोरब्रह्मचारी, देहको ममता से रहित, विशालतेजोलेश्याको संक्षिप्त करके रहनेवाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता चार ज्ञानों से युक्त और समस्त अक्षरों के ज्ञाता थे। श्रमग भगवान महावीर से न अधिक दर और न अधिक समीप में ऊपर घुटने और नीचा सिर किये गये, ध्यान रूपी कोष्ठ में प्राप्त होकर संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।मु०१०६।। કાયમુર્તિના પણ ધારક બન્યા. ગુપ્તેન્દ્રિય, ગુપ્તબ્રહ્મચારી, ત્યાગી, પાપભીરૂ, તપસ્વી, ક્ષમાશીલ, જીતેન્દ્રિય, ચિત્તશોધક, નિદાનવિહીન, ઉત્સુકતા રહિત સ્થિર અને સંયમી બન્યા. આવી આઠ પ્રવચન માતા યુક્તબની નિગ્રન્થ પ્રવચનને શિરોધાર્ય કરી તેઓ વિચારવા લાગ્યા. આ ગીતમગાત્રી ઈન્દ્રભૂતિ અણુગાર, સાત હાથીની ઉંચાઈવાળા હતા. તેમનું શારીરિક કદ સમચતુર સંસ્થાનવાળું હતું. તેમને શારીરિક બાંધો વજીરૂષભનારા સંહનનવાળે હતો. તેમનો વર્ણ કસોટી ઉપર સેનું કસવાથી જે લીટે થાય તેવા રંગને ઘઉંવર્ણો ચકચકિત હતું તેમ જ કમલની અંદર રહેલ કેસરપુંજ જેવો ગોરા-તપખિરિયા રંગનો હતો. તેઓ ઉગ્ર તપસ્વી, દીપ્ત તપસ્વી, તખતપસ્વી અને મહાતપસ્વી બન્યા. તેઓ ઉદાર ઘર, મહાગુણી અને મહાબ્રહ્મચારી થયા. હની મમતા રહિત બની, વિશાલ તેલશ્યાના ધારક થઈ તેમ જ તેને યથાયોગ્ય ગુપ્ત રાખી ચોદ પૂર્વના જ્ઞાતા થયા, ચાર જ્ઞાનના ધણી અને સમસ્ત અક્ષરજ્ઞાનોમાં નિપુણ બન્યા. તેઓ ભગવાનની સમીપ રહી વિનયપૂર્વક બેઠતાં, ઉઠતાં ધ્યાન માં લીન રહી સંયમ,
इन्द्रभूतेः
आत्मविषयक संशय वारणं तस्य दीक्षा
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श्रीकल्प
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॥३६९॥
टीका
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टीका-"तेणं कालेणं तेणं समएणं" इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सपरिवारस्येन्द्रभूतेः प्रभुपार्थे समागमनकालावसरे श्रमणो भगवान् महावीरः, तं-सगर्वमुपागतम् , इन्द्रभूति “भो गौतमगोत्रोत्पन्न ! हे गौतमगोत्रोत्पन्न ! इन्द्रभूते!" इति एतत्पदेन सम्बोध्य अभिमुखीकृत्य हितया कल्याणकारिण्या सुखया मुखजनिकया, मधुरया मिष्टया वाण्या अभाषत, सः इन्द्रभूतिः भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनः, वचनं-गोत्रनामोच्चारणं श्रुत्वा, पुनः= भूयः, अतीव अत्यन्तं चकितचित्तः विस्मितमनाः जातः, 'अहो-पाश्चर्यम् अनेन-महावीरेण मम अपरिचितस्य नाम, कथं केन प्रकारेण ज्ञातम् ?' एवम् इत्थं मनसि विचार्य-विचिन्त्य तेन इन्द्रभूतिना समाहितम्-स्वमनसि स्वयमेव समाधानं कृतम्-अत्र-प्रम नामगोत्रज्ञाने किमाश्चर्यम् ? को विस्मयः ? यत् यस्मादेतोः अगत्पसिद्धस्य त्रिजगद्गुरो लोकत्रयगुरोः मम नाम का वालो युवा वा स्थविरो वा न जानाति ?, अपि तु आबालं प्रसिद्ध मन्नामगोत्र सर्वोऽपि जनो जानाति । यदि मम मनसि यः संशयो वर्तते स कथयति, च-पुनः छिनत्ति दुरीकरोति
टीका का अर्थ-उस काल में और उस समय में, अर्थात् जब इन्द्रभूति अपने शिष्यपरिवार के साथ, गर्व सहित, भगवान महावीर के समीप पहुँचे तब, भगवान् 'हे गौतम गोत्र में उत्पन्न इन्द्रभूति । इस पद से संबोधित कर के कल्याणकारिणी मुखकारिणी और मधुर वाणी से बोले । भगवान् के द्वारा किया गया अपने नाम और गोत्र का उच्चारण सुनकर इन्द्रभूति के मन में अत्यन्त आश्चर्य हुआ। यह सोचने लगे कि महावीरने मुझ अपरिचित का नाम-गोत्र कैसे जाना ? ऐसा सोचकर फिर इन्द्रभूतिने अपने मन में समाधान कर लिया कि मेरा नाम-गोत्र जानलेने में आश्चर्य क्या है ? मैं जगत् में विख्यात हूँ, और तीनों लोकों का गुरु हूँ। कौन बालक, युवक और वृद्ध है जो मेरा नाम न जानता हो ? हाँ, आश्चर्य तो तब गिनूगा जब यह मेरे मन में जो संशय है, उसको कह दें और उसका निवारण भी कर दें।
ટીકાનો અર્થ તે કાળે અને તે સમયે એટલે કે જયારે ઇન્દ્રભૂતિ પિતાના શિષ્ય પરિવારની સાથે ગર્વ સહિત ભગવાન મહાવીરની પાસે પહોંચ્યા ત્યારે ભગવાને “હે ગૌતમગેત્રી ઈન્દ્રભૂતિ” એ પદથી સંબોધીને કલ્યાણકારી, સુખકારી અને મધુર વાણીથી બાવ્યા. ભગવાન દ્વારા કરાયેલ પિતાના નામ અને ગેત્રનું ઉચ્ચારણ સાંભળીને ઈન્દ્રભૂતિના મનમાં ઘણું આશ્ચર્ય થયું. તે વિચારવા લાગ્યા કે ભગવાને અપરિચિત એવા મારૂં નામ-ગોત્ર કેવી રીતે જાણ્યું? એવું વિચારીને ફરી ઇન્દ્રભૂતિએ પોતાના મનનું સમાધાન કર્યું કે નામ-ગોત્ર જાણવામાં નવાઈ શી છે? હું જગતમાં વિખ્યાત છું અને ત્રણે લેકને ગુરુ છું. એ ક બાળક, યુવક અને વૃદ્ધ છે કે જે મરૂં નામ નહીં જાણતે હોય? હા, નવાઈ તે ત્યારે માનીશ જ્યારે તે મારા મનમાં જે સંશય છે તેને કહી દે અને તેનું નિવારણ પણ કરી નાખે
इन्द्रभृतेः
आत्मविषयक संशय निवारण
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श्रीकल्प सूत्र ॥ ३७० ॥ ॥
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च, तदा आश्चर्यं गण्यते । एवम् इत्थं विचारयन्तं तम् - इन्द्रभूर्ति भगवान् अकथयत् उक्तवान् गौतम ! इन्द्रभूते ! तत्र मनसि एतादृशः - वक्ष्यमाणप्रकारकः संशयो वर्तते, यत् - जीवोऽस्ति नवा ?, यतो वेदेषु - "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति” इति इत्थं कथितम् = उक्तम् अस्ति । अत्र=अस्मिन् विषये कथयामि त्वम् वेदपदानां वेदोक्तपदानाम् अर्थ सम्यक् - यथार्थतया न जानासि तव ज्ञातोऽर्थः - 'विज्ञानमेवघनानन्दादिरूपत्वाद् विज्ञानघनः स एव एतेभ्यः प्रत्यक्षतः परिच्छिद्यमानस्वरूपेभ्यः पृथिव्यादिलक्षणेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय=उत्पद्य पुनस्तान्येवानुविनश्यति - तत्रैवाव्यक्तरूपतया संलीनो भवतीति भावः । न प्रेत्य संज्ञाऽस्तिपुनर्जन्म प्रेत्युच्यते तत्संज्ञा = परलोकसंज्ञा नास्तीति भावः । एतेन जीवो नास्ति, इति त्वं मन्यसे । यथार्थस्त्वयम् - विज्ञानवन एवेतिज्ञानोपयोग दर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽनन्यत्वाद् आत्मा विज्ञानघनः प्रतिप्रदेश
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गौतम इन्द्रभूति यह सोच ही रहे थे कि भगवान्ने उनसे कहा हे गौतम - इन्द्रभूति । तुम्हारे मन में यह संदेह है कि जीव (आत्मा) का अस्तित्व है या नहीं हैं ? क्यों कि वेदों में 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्ति' 'विज्ञानघन आत्मा' भूतों से उत्पन्न होकर उन्हीं में लीन हो जाता है, पर लोकसंज्ञा नहीं है' ऐसा कहा है। मैं इस विषय में कहता हूँ तुम वेद-पदोका वास्तविक अर्थ नहीं जानते । उक्त वेदवाक्य का तुम्हारा जाना हुआ अर्थ यह है- 'घने आनन्द' आदि स्वरूप होने के कारण विज्ञान ही विज्ञानघन कहलाता है । वह विज्ञानघन ही प्रत्यक्ष से प्रतीत होनेवाले पृथ्वी आदि भूतों से उत्पन्न होकर, भूतों में ही अव्यक्तरूप से लीन हो जाता है । मृत्यु के बाद फिर जन्म लेना प्रेत्य कहलाता है। ऐसी प्रेत्यसंज्ञा अर्थात् परलोकसंज्ञा नहीं है।' इससे तुम मानते हो कि जीव नहीं है। इस वाक्य का वास्तविक अर्थ यह है
ગૌતમ ઇન્દ્રભૂતિ આમ વિચારતા જ હતા ત્યારે ભગવાને તેમને કહ્યુ—“હું ગૌતમ ! ઇન્દ્રભૂતિ તમારા મનમાં आा सहेड छे } छत्र ( आत्मा )नु अस्तित्व नथी ? अरब है वेहोमांस' विज्ञानघन एवै - तेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति इति विज्ञानघन आत्मा भूतार्थी उत्पन्न यर्धने તેમનામાં જ લીન થઈ જાય છે, પરલાકસ ંજ્ઞા નથી. હું આ વિષયમાં કહું' છું કે તમે વેદ-પદેના વાસ્તવિક અ જાણતા નથી. પૂર્વોક્ત વેદવાકયના તમે સમજેલ અથ' આ છે-“ધન આનદ આદિ સ્વરૂપ હોવાને કારણે વિજ્ઞાન જ વિજ્ઞાનઘન કહેવાય છે. તે વિજ્ઞાનધન જ પ્રત્યક્ષથી પ્રતીત થનાર પૃથ્વી આદિ ભૂતાથી ઉત્પન્ન થઈને શ્વેતામાં જ અવ્યક્ત રૂપે લીન થઈ જાય છે. મૃત્યુ પછી ફરી જન્મ લેવા પ્રેત્ય કહેવાય છે. એવી પ્રેત્યસંજ્ઞા એટલે કે પરલેાકJainy Education Int. ie anal ગમનરૂપ સંજ્ઞા નથી.' તેથી તમે માને છે કે જીવ નથી. એ વાકયના વાસ્તવિંક અથ આ છે—નાનાપયેત્ર અને
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इन्द्रभूतेः
आत्मविषयक संशय निवारण वर्णनम् ।
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श्री कल्पसूत्रे ॥३७१ ॥
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मनन्तविज्ञानपर्याय संघातात्मकत्वाद्वा आत्मा विज्ञानघन एव, सोऽयमात्मा एतेभ्यो भूतेभ्यः पृथिव्युदकादिभ्यः समुत्थाय घटविज्ञानपरिणतो हि आत्मा घटाद् भवति तद्विज्ञानक्षयोपशमस्य तत्राऽऽक्षेपात्, अन्यथा निरालम्बनतया तस्यालीकताप्रसक्तिः स्यादिति तेभ्यः पृथिव्युदकादिभ्यो भूतेभ्यः कथंचिदुत्पद्य, पुनः उत्पत्यनन्तरम् तान्येव भूतानि=पृथिव्यादीनि अनुविनश्यति तेषु विवक्षितेषु भूतेषु आत्माऽपि तद्विज्ञानघनात्मना उपरमते, अन्यविज्ञानात्मना उत्पद्यते, यद्वा-व्यवहितेषु तेषु सामान्यचैतन्यरूपतयाऽवतिष्ठते, इति न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति = प्राकृतिक घटादि विज्ञानसंज्ञाऽवतिष्ठते इदि । " एतेन जीवोऽस्तीति मतं सिध्यति । यः =जीवः चित्तचैतन्य विज्ञानसंज्ञादिलक्षणैः-चित्तम्=अन्तःकरणविशेषः, चैतन्यं = चेतनत्वं - संज्ञानकर्तृत्वम् विज्ञानं विशिष्टं ज्ञानं, संज्ञा = चेष्टा इत्याज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगरूप विज्ञान विज्ञानघन कहलाता है। विज्ञान से अभिन्न होनेके कारण आत्मा विज्ञानघन है । अथवा आत्मा का एक-एक प्रदेश अनन्त विज्ञान- पर्यायोंका समूहरूप है, इसकारण आत्मा विज्ञान नही है । यह आत्मा अर्थात् विज्ञानघन भूतों से उत्पन्न होता है, क्योंकि घट के कारण आत्मा घट विज्ञानरूप परिणति से युक्त होता है क्योंकि-घटविज्ञान के क्षयोपशमका अर्थात् घटविज्ञान के आवरण के क्षयोपशम का वहाँ आक्षेप होता है: अन्यथा निर्विषय होने के कारण उसमें मिध्यापन का प्रसंग हो जायगा । अत एव पृथ्वी आदि भूतों से कथंचित् उत्पन्न होकर, बाद में आत्मा भी, उन भूतों के नष्ट हो जाने पर, उस भूत विज्ञानघनरूप पर्याय से नष्ट हो जाता है। अथवा भूतों के अलग हो जाने पर सामान्य चैतन्य के रूप में स्थिर रहता है, अतः उसकी मेध्यसंज्ञा नहीं है, अर्थात् प्राकृतिक घटादि विज्ञानकी संज्ञा उसमें नहीं रहती है । इससे जीव है यही मत सिद्ध होता है । अन्तःकरण को चित्त कहते हैं चेतनके भावको चैतन्य कहते हैं, દર્શનાચેગ રૂપ વિજ્ઞાન વિજ્ઞાનઘન કહેવાય છે. વિજ્ઞાનથી અભિન્ન હાવાથી આત્મા વિજ્ઞાનઘન છે અથવા આત્માને એક એક પ્રદેશ અનન્ત વિજ્ઞાન-પર્યાયાના સમૂહરૂપ છે, તે કારણે આત્મા વિજ્ઞાનધન જ છે. આ આત્મા એટલે કે વિજ્ઞાનઘન ભૂતાથી ઉત્પન્ન થાય છે, કારણ કે ઘટને કારણે આત્મા ઘટવજ્ઞાન રૂપ પરિણિતવાળા હોય છે. કારણ કે ઘટિકાનના યેાપશમના એટલે કે ઘવિજ્ઞાનના આવરગના યાપશ્ચમના ત્યાં આક્ષેપ હોય છે, નહીં તેા નિવિષય હાવાને કારણે તેમ મિથ્યાપણાના પ્રસંગ થઈ જશે. તેથી પૃથ્વી આદિ ભૂતેથી કયાંક ઉત્પન્ન થઈને પછી આત્મા પણ તે ભૃતાના નાશ થતાં તે ભૂત-વિજ્ઞાનઘન રૂપ પર્યાયથી નાશ પામે છે અથવા તે અલગ થતાં સામાન્ય ચૈતન્યના રૂપે સ્થિર રહે છે, તેથી તેની પ્રેત્ય સંજ્ઞા નથી એટલે પ્રાકૃતિક ઘટાદિ વિજ્ઞાનની સંજ્ઞા તેમાં રહેતી નથી, તેથી જીવ છે એમ મત સિદ્ધ થાય છે. અ ંતઃકરણને ચિત્ત કહે છે. ચેતનના ભાવને ચૈતન્ય કહે છે એટલે કે સ જ્ઞાનને
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मञ्जरी
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इन्द्रभूतेः
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मंशय निवारण वर्णनम् । ॥ सू० १०६
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PM दिनी यानि लक्षणानि=स्वरूपाणि तैयिते लक्ष्यते, अतश्रित्तादिलक्षणलक्ष्यमाणत्वाजीवोऽस्तीति सिध्यति।
पुनरपि जीवसाधनोपायमाइ-'जई' इत्यादि। यदि जीवो न स्यात्न भवेत् तदा तर्हि-जीवाऽसत्त्वे पुण्यश्रीकल्प
पापयोः कर्ता का जीवातिरिक्तो भवेत् ? अपि तु न कोऽपिभवेत्, नहि पुण्यपापानुकूलव्यापारो जीवं विना
सम्भवति तस्मात् पुण्यपापकर्तृत्वान्जीवोऽस्तीति सिध्यति । पुनर्जीवोऽस्तीति मतं पुष्णाति 'तुज्झ' इत्यादि॥३७२॥ सवाभिमतस्य यज्ञदानादिकार्यकरणस्य निमित्तं जीवं विना को भवेत् ? अपि तु जीव एव तत्करणनिमित्तं भवितु
महति, व्यापारस्य जीवाधीनत्वात् तस्माज्जीवोऽस्तीतिसिध्यति । इत्थं जीवास्तित्वं साधयित्वा सम्पति वेदप्रमाणेन तत्साधयितुमाह-'तव सत्थे वि' इत्यादि-तब शाखेऽपि उक्तमस्ति-"सबै अयमात्मा ज्ञानमयः" स चित्तादिअर्थात् संज्ञान का जो कर्ता हो वह चैतन्य है। विशिष्ट ज्ञान विज्ञान कहलाता है। चेष्टा संज्ञा कहलाती है। इन चित्त, चैतन्य, विज्ञान और संज्ञा आदि लक्षणों से जीव का ज्ञान होता है, इससे जीवकी सिद्धि होती है।
जीवकी सिद्धिका दूसरा उपाय बतलाते है-अगरजीव न हो तो पुण्य और पाप का कर्ता जीव के अतिरिक्त दसरा कौन होगा? अर्थात् कोई भी नहीं हो सकता । जीव के विना पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाला व्यापार संभव नहीं है। इसलिये पुण्य-पापका कर्ता होने से जीरका अस्तित्व सिद्ध होता है। जीव है, इस मत को फिर पुष्ट करते है-तुम्हारे माने हुए यज्ञदान आदि कार्यों के करने का निमित्त, जीव के अभाव में, कौन होगा ! जीव ही उन कार्यों के करनेका निमित्त हो सकता है, क्यों कि व्यापार जीव के अधीन है। इससे भी जीव है, यह सिद्ध होता है। इस प्रकार जीवका अस्तित्व सिद्ध करके अब वेद के प्रमाण से उसे सिद्ध करने के लिए कहेते हैं-तुम्हारे शास्त्रमें भी कहा है-“सवै अयमात्मा ज्ञानमयः" જે કર્તા હોય તે ચેતન્ય છે. વિશિષ્ટ જ્ઞાન વિજ્ઞાન કહેવાય છે, ચેષ્ટા સંજ્ઞા કહેવાય છે. એ ચિત્ત, ચિતન્ય, વિજ્ઞાન અને સંજ્ઞા આદિ લક્ષણોથી જીવનું જ્ઞાન થાય છે તેથી જીવની સિદ્ધિ થાય છે.
જીવની સિદ્ધિ (સાબિતી)નો બીજો ઉપાય બતાવે છે–જે જીવ ન હોય તે પુન્ય અને પાપનો કર્તા જીવ સિવાય બીજુ કેણ હશે? એટલે કે કોઈ પણ હોઈ ન શકે. જીવ વિના પુન્ય પાપને ઉત્પન્ન કરનાર વ્યાપાર સંભવિત નથી. તેથી પુન્ય-પાપને કર્તા હોવાથી જીવનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. જીવ છે, આ મતને ફરી પુષ્ટ કરે છે-તમે માનેલ યજ્ઞ દાન આદિ કાર્યો કરવાનું નિમિત્ત જીવના અભાવમાં કોણ હશે ? જીવ જ તે કાર્યો કરવાનું નિમિત્ત હોઈ શકે છે. કારણ કે બાપાર જીવને આધીન છે તેથી પણ જીવ છે એ સિદ્ધ થાય છે. આ રીતે જીવનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ
Part इन्द्रभूतेः
आत्मविषयक संशय निवारण वर्णनम्। ०१०६॥
स
॥३७२।।
Jain Education initionase
16 अमाप्युयातना
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श्री कल्प
सूत्रे
॥ ३७३ ॥
海鮮
लक्षणलक्ष्यमाणोऽयम् = एवं आत्मा जीवः, ज्ञानप्रयः = ज्ञानघनरूपः इति श्रतः जीवोऽस्तीति मतं सिद्धम् । - इत्यादि प्रभुवचनं श्रुत्वा तस्य इन्द्र भूतेः मिध्यात्वं जले लागमित्र सूर्योदये तिमिरमित्र, चिन्तामणौ दारिद्रय-मित्र गलितं नष्टम् । तेन सम्यक्त्वं प्राप्तम् । ततः खलु सः इन्द्रभूतिः भगवन्तः = श्रीमहावीरप्रभुं वदन्ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा, एवं वक्ष्यमाणं वचनम् अत्रादीत - हे भदन्त ! वृक्षस्य उच्चत्वम् मातुं = परिच्छेत्तुं वामनजन इव अहम् मतिमन्दः = अल्पबुद्धि: स्वां=सर्व श्री वीरस्वामिनं परीक्षितुं समागतः । हे स्वामिन् ! यस्त्वया मां प्रतिबोधो दत्तः, तेन=प्रतिबोधेन अहं संसाराद् विरक्तो जातोऽस्मि । अतः = सांसारिकविषयतो विरक्तत्वात् मां प्रव्राज्य = दीक्षित्वा दुःखपरम्पराऽऽकुलात् = अनेक दुःखयुक्तात् भवसागरात् = संसारसमुद्रात् वारय ।
ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः “अयम् = इन्द्रभूतिः मे मम प्रथम = आद्यः, गणधरो भविष्यति ” इति कृत्वा तम इन्द्रभूर्ति पञ्चशतशिष्यसहितं निजहस्तेन - प्रात्राजयत् = दीक्षितवान् ।
चित्त आदि लक्षणों से प्रतीत होनेवाला यह आत्मा ज्ञानघनरूप है। अतः जो है, यह मत सिद्ध हुआ । इत्यादि प्रभु के वचनोंको सुनकर इन्द्रभतिका मिध्यात्व उसी प्रकार गल गया, जैसे जल में लवण गल जाता है, सूर्यका उदय होने पर अंधकार नष्ट हो जाता है और चिन्तामणि की प्राप्ति हो जाने पर दरिद्रता का नाश हो जाता है। इसी तरह इन्द्रभूति को सम्यक्त्वकी प्राप्ती हो गई ।
तत्पश्चात इन्द्रभूति ने भगवान् महावीर को वन्दन और नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार कहा- भगवन्। जैसे वामन - छोटि कायवाला वृक्ष की ऊँचाई को मापने के लिए चले, उसी प्रकार में मतिहीन आप सर्वज्ञकी परीक्षा करनेवाला था ! हे भगवान् ! आपने मुझे जो बोध दिया है, उस से मैं कृतकृत्य हो गया। मैं संसार से विरक्त हो गया हूँ। विरक्त होने के कारण मुझे दीक्षा प्रदान करके ચિત્ત આદિ લક્ષોાથી પ્રતીત થનાર આ આત્મા જ્ઞાનધન રૂપ છે તેથી જીવ છે એ મત સિદ્ધ થયા. ઈત્યાદિ પ્રભુનાં વચના સાંભળીને ઈન્દ્રવ્રુતિનું મિથ્યાત્વ એજ પ્રમાણે એગળી ગયું કે જેમ પાણીમાં મીઠું ઓગળી જાય છે, સૂર્યના ઉદય થતાં અંધકાર નાશ પામે છે અને ચિન્તામણી મળતાં જેમ દરિદ્રતા નાશ પામે છે. ઇન્દ્રભૂતિને સમ્યક્ ત્વની પ્રાપ્તિ થઈ ત્યારબાદ ઇન્દ્રભૂતિએ ભગવાન મહાવીરને વંદના અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન-નમસ્કાર કરીને પ્રમાણે કહ્યું —ભગવન્ ! જેમ વામન વૃક્ષની ઉંચાઈ માપવાને માટે જાય તેમ હું મતિહીન આપ જ્ઞની પરીક્ષા કરવા આવ્યા હતા. હે પ્રભુ! આપે મને જે બેધ આપ્યા છે તેથી હું કૃતકૃત્ય થયે છું. હું સ`સારથી વિરક્ત થઈ ગયા છે. વિરક્ત થવાને કારણે મને દીક્ષા આપીને દુઃખોથી ભરેલ આ સસાર રૂપી સાગરમાંથી તારે. ત્યારે ભગવાન મહાવીરે “આ ઇન્દ્રભૂતિ મારો પહેલા ગણધર થશે” એમ કહીને પાંચસે શિષ્યો સાથે ઇન્દ્રભૂતિને પેાતાને હાથે દીક્ષા આપી.
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कल्प
मञ्जरी
टीका
इन्द्रभूते: दीक्षाग्रहण वर्णनम् ।
॥सू० १०६ ॥
॥३७३ ॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥३७४॥
श्रीकल्पमञ्जरी
टीका
___ तस्मिन् काले तस्मिन् समये गौतमगोत्र इन्द्रभूतिरनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठः सर्वतः प्रथमः
अन्तेवासी-शिष्यो जातः। स कीदृशः इत्याह-'इरियासमिए' इत्यादि।ईऱ्यांसमितः ईर्यासमित्यायुक्तः, भाषासमितः, एषणासमितः आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमितः उच्चारप्रस्रवणश्लेष्मशिवाण जल्लपरिष्ठापनिकासमितः, मनःसमितः, वाक्समितः, कायसमितः, मनोगुप्तः, वाग्गुप्तः, कायगुप्तः, गुप्तः, गुप्तेन्द्रियः, गुप्तब्रह्मचारी" एतेषामीर्यासमितादि गुप्तब्रह्मचारिपर्यन्तानां पदानां व्याख्याऽस्य चतुस्सप्तत्यधिकैकशततम-१७४ सूत्र टीकातोऽबसेया। तथा-त्यागी त्यागशील:, बने लजाबनस्थलजालुवनस्पतिविशेषवत् सावधव्यापाराल्लज्जाशीलः। तपस्वी-षष्ठाष्टमादितपश्चर्या दुःखों से भरे हुए इस संसार रूपी सागर से मुझे तार दीजिए । तब श्रमण भगवान महावीर ने 'यह इन्द्रभूति मेरा प्रथम गणधर होगा' इस प्रकार ज्ञान से देखकर पाँच सो शिष्यों सहितइन्द्रभूति को अपने हाथ से दीक्षा प्रदान की।
उस काल और उस समय में गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठसब से प्रथम-शिष्य हुए । वह कैसे थे, सो कहते है-वह ईयांसमित थे अर्थात् ईर्यासमिति से युक्त थे। इसी प्रकार भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति थे, उच्चार-प्रस्रवण श्लेष्मशिङ्काणजल्ल परिष्ठापनिका समिति थे, मनःसमिति थे, वचनसमिति थे, मनोगुप्त अर्थात् मनोगुप्ति से युक्त थे, इसी प्रकार वचनगुप्त थे, कायगुप्त थे, गुप्त थे, गुप्तेन्द्रिय थे, गुप्तब्रह्मचारी थे। इर्यासमिति से लेकर गुप्तब्रह्मचारी तक के पदोका अर्थ १७४ वें सूत्र की टीका के हिन्दी भाषानुवाद से जान लेना चाहीए। वह त्यागी-त्यागशोल थे। वनमें जो लाजवंती नामन बनस्पति होती है, उसके समान पापमय व्यापारों से लज्जाशील-संकोच
તે કાળે અને તે સમયે ગૌતમ ગોત્રીય ઈન્દ્રત અણુગાર શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના જેષ્ઠ-સૌથી પહેલા શિષ્ય થયા. તેઓ કેવા હતા તે કહે છે–તે ઇર્યાસમિતિ હતા એટલે કે ઈર્ષાસમિતિથી યુક્ત હતા, એજ પ્રમાણે ભાષાસમિતિ, એષણ સમિતિ, અદાન ભાડમાત્રનિક્ષેપણ સમિતિ હતા. ઉચાર પ્રસવણ શ્લેષ્મસિંધાણુ જલ પરિષ્કાપનિકા સમિતિ હતા, મનઃસમિતિ હતા, વચન સમિતિ હતા, કાય સમિતિ હતા, અને ગુપ્ત એટલે મને ગુપ્તિથી યુક્ત હતા, એજ પ્રમાણે વચન ગુપ્ત હતા, કાયગુપ્ત હતા, ગુરૂ હતા, ગુપ્તેન્દ્રિય હતા, ગુપ્ત બ્રહ્મચારી હતા. ઈસમિતથી માંડીને ગુપ્તબ્રહમચારી સુધીના પદોના અર્થ ૧૭૪માં સૂત્રની ટીકાના ગુજરાતી ભાષાનુવાદથી સમજી લેવું જોઈએ. તે ત્યાગીત્યાગશીલ હતા, વનમાં જે લાજવંતી નામની વનસ્પતિ થાય છે તેની જેમ પાપમય વ્યાપારથી લજજાશીલ
इन्द्रभूते: दीक्षाग्रहण वर्णनम्।
PATRESEASTH
॥३७४॥
પણ
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बोकल्प
मुत्रे ५३७५॥
पारामतोच्छूितदेहः, समचतरमा
मञ्जरी
टीका
चतुरसंतुल्यारोहपरिन्यूनाधिकाः चनस्रोऽत्रयो-
सम्पन्नः, क्षान्तिक्षमः क्षमागुणेन परापकारसहनवान् , जितेन्द्रियः-वशीकृतेन्द्रियगणः, शोधिः अन्तःकरणशोधकः, अनिदानः निदानवर्जितः, अल्पौत्सुक्या-औत्सुक्यवर्जितः, अत्वरितः वेगवर्जितः-स्थिर इत्यर्थः, सुश्रामण्यरतः= समीचीनसाध्वाचारपरायणः, इदमेव नैर्ग्रन्य-निर्ग्रन्थसम्बन्धि प्रवचनं पुरतः=अग्रे कृत्वा विहरति ।
सः-गृहीतदीक्षः खलु इन्द्रभूतिरनगारः गौतमगोत्रः सप्तोत्सेधः-सप्तहस्तपरिमितोच्छ्रितदेहः, समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः-समातुल्याः-अन्यूनाधिकाः चनस्रोऽसयो-हस्तपादोपर्यधोरूपाश्चत्वारोऽपि विभागाः यस्य तत् समचतुरस्रंन्तुल्यारोहपरिणाई, तच्च संस्थानम्-आकारविशेषः इति समचतुरस्त्रसंस्थानं, तेन संस्थितम् युक्तः, तथा वनऋषभनाराचसंहनना-नजंजीलिकाकारमस्थि, ऋषभः-तदुपरि-परिवेष्टनपट्टाकृतिकोऽस्थिविशेषः, नाराचम्= उभयतो मर्कटबन्धः, तथा च द्वयोरस्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धनेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोः शील थे। बेला तेला आदि भी तपश्चर्या से युक्त थे। क्षमाशील होने के कारण दूसरोंके द्वारा कृत अपकारों को सह लेते थे । इन्द्रियोंको वश में कर चुके थे। अन्तःकरण के शोधक थे। निदान (नियाणा) अर्थात् आगामी काल संबंधी विषयोंकी तृष्णा से रहित थे। उत्कंठा से रहित थे। स्थिर थे । और समीचीन साधु-आचार में तत्पर थे । इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके विचरते थे।
नह इन्द्रभूति अनगार गौतम गोत्रीय सात हाथ के उँचे शरीर वाले थे। समचतुस्र संस्थानवाले थे। हाथ, पैर, ऊपर और नीचे के चारो भाग जिसके समान हो उसको समचतुरस्र कहते हैं। ऐसे आकार विशेषको समचतुरस्रसंस्थान कहते है। उनका बज-ऋषभ-नाराच संहनन था। कीली के आकारकी हड्डी वज्र कहलाती है। उसके ऊपर वेष्टन-पट्ट की आकृति की हड्डी को ऋषभ कहते है। दोनों ओर के हड्डी से मर्कट बंधको नाराच कहते हैं। अतः दोनों तरफसे मर्कटबंध से बंधी हुइ और पटुकी आकृतिकी तीसरी સંકે ચશીલ હતા. છઠ, અઠમ આદિની તપસ્યાથી ઍક્ત હતા ક્ષમાશીલ હોવાને લીધે બીજી દ્વારા કરાયેલ અપકારને સહન કરી લેતા હતા. ઇન્દ્રિયાને વશ કરી ચૂક્યા હતા. અંતઃકરણના શેધક હતા. નિદાન (નિયાણા, એટલે કે ભવિષ્ય કાળ સંબંધ વિષયેની તૃષાથી રહિત હતા, ઉઠાથી રહિત હતા. સ્થિર હતા. અને સમીચીન સાધુ-આચારમાં તત્પર હતા એજ નિગ્રન્થ પ્રવચનને આગળ કરીને વિચારતા હતા.
તે ગૌતમ ગોત્રીય ઇન્દ્રતિ અણુગાર સાત હાથ ઊંચા શરીરવાળા હતા સમચતુરસ સંસ્થાનવાળા હતા. હાથ, પગ, ઉપર અને નિચેના ચારે ભાગ જેને સમાન હોય તેને સમચતુર કહે છે. એવા આકાર વિશેષને સમચતુ
આ સંસ્થાન કહે છે. તેમને નરFમનારાજ સંનન હતું. ખીલીના આકારના હાડકાને વજી કહે છે. તેના ઉપર વેટનપટ્ટની આકૃતિના હાડકાને ત્રષભ કહે છે. બન્ને તરફના મકટ બંધને નાકાચ કહે છે. તેથી બન્ને તરફથી
इन्द्रभूते
दक्षिाग्रहण वर्णनम् । ॥सू०१०६॥
॥३७५
2 Jain Education Intentional
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श्री कल्प
॥३७६॥
लाल
सा वज्रऋषभनारा
___ रुपरि तदस्थित्रयं पुनरपि दृढीकर्तु तत्र निखातं की लिकाकारं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वज्रऋषभनाराचम् ,
तत् सहनन-संहन्यन्ते दीक्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत् संहननम्-अस्थिनिचयो यस्य स वज्रऋषभनाराचसंहननः। तथा-कनकपुलकनिकषपनगौरः कनकस्य सुवर्णस्य पुलका खण्डम् , तस्य निकषा-शाणनिघष्टरेखा, 'पन'-शब्देन पद्मकिञ्जलं गृह्यते, तेन पद्म पद्मकिअल्लं च, तद्वद् गौरः शाणनिघृष्टसुवर्णरेखाकमलकिञ्जरकवद्गौरवर्ण इत्यर्थः, यद्वा-कनकस्य मुवर्णस्य पुलका सारो वर्णातिशयः, तत्पधानो यो निकष:-शाणनिघृष्टसुवर्णरेखा, तस्य यत् पक्षम-बहुलत्वं तद्वद गौर। शाणनिघृष्टानेक सुवर्णरेखावच्चाकचिक्ययुक्तगौरशरीरः, उग्रतपाः-उग्रम उत्कृष्टं प्रवृद्धपरिणामत्वात्पारणादौ विचित्राभिग्रहत्वाञ्च अपधृष्यमनशनादि द्वादशविधं तपो यस्य स तथा-तीव्रतपश्चर्याघान्, वेष्टित की हुई दोनों हड्डीयोंके ऊपर, उन तीनौको फिर भी अधिक दृढकरने के लिए जहाँ कोली के आकार की वज्र नामक अस्थि लगी हुई हो, वह वनऋषभ नाराच कहलाता हैं। जिसके द्वारा शरीर के पुद्गल दृढ किये जाएँ, उस अस्थि निचय-हड्डियोंके रचना-विशेषको संहनन कहते । ऐसा वऋषभनाराच संहनन इन्द्रभूति अनगारको प्राप्त था। उनका शरीर एसा गौर-वर्णथा जैसे स्वर्णके खंड को कसौटी परघिसने से सुनहरी और चमकती हुई रेखा होती है, अथवा जैसे कमल का किंजल्लक होता है। अभिप्राय यह कि उनका शरीर कसौटी पर घिसे स्वर्ण की रेवा और कमल के केसर के समान चमकीला एवं गौर वर्ण का था। अथवा कसौटी पर घिसे स्वर्ण की अनेक रेखाओं के समान गोरे शरीरवाले थे। बढ़ते हुए परिणामों के कारण तथा पारणादि में विचित्र प्रकार के अभिग्रह करने के कारण उनका अनशन आदि बारह प्रकार का तप उत्कृष्ट था, अतः वे उग्रतपस्वी थे। बढ़ी हुई तपस्यावान् होने से दीप्ततपस्वी थे। अधिक तपस्या મર્કટ બંધથી બાંધેલી અને પટ્ટની આકૃતિના ત્રીજા હાડકાથી વીટાયેલ અને હાડકાંઓ ઉપર, એ ત્રણેને ફરીથી કોBE દઢ કરવાને માટે જ્યાં ખીલીના આકારનું વજી નામનું અસ્થિ લાગેલું હોય તે વાજબાષભ-નારા કહેવાય છે. જેના દ્વારા શરીરના પુઠ્ઠલ દઢ કરાય, તે અતિ નિચય-હાડકાંની રચના વિશેષને સંહનન કહે છે. એવું વાઅષભ નારાચ સંતના ઈતિ અણગારને પ્રાપ્ત થયેલ હતું. તેમનું શરીર એવું ગૌર–વણું હતું કે જેમ સોનાના ટુકડાને કસોટી પર ઘસવાથી સોનેરી અને ચળકતી રેબા થાય છે, અથવા જે કમળને પરાગ હોય છે. તાત્પર્ય એ કે તેમનું શરીર કસોટી પર વસેલા સુવર્ણની રેખા અને કમળનાં કેસર જેવું ચળકતું અને ગૌર વર્ણનું હતું. અથવા કસોટી પર વસેલા સુવર્ણની અનેક રેખાઓનાં જેવા ગોરા શરીરવાળા હતા.
વધતા જતા પરિણામને કારણે તથા પારણાદિમાં વિચિત્ર પ્રકારના અભિગ્રહ કરવાને કારણે તેમનું અનશન આદિ બાર પ્રકારનું તપ ઉત્કૃષ્ટ હતું, તેથી તેઓ ઉગ્ર તપસ્વી હતા વધારે તપસ્યાવા હોવાથી દીપ્ત તપસ્વી હતા. મેટા
इन्द्रभूते
सरि चमकती हुई रेखा होती है पर एसा गौर-वर्णया जैसे
दीक्षाग्रहण
CTEMPERATRA
वर्णनम् । सू०१०६॥
॥३७६॥
SR
. Jain Education N
ational
G
uiww.jainelibrary.org.
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श्रीकल्पमृत्रे ॥३७७॥
हजार प्रव
興德隆
Jain Education H
दीपाः = समिद्धतपश्चर्यावान्, महातपाः = वृहत्तपश्चर्यावान्, उदारः =सकलनीवैः सहमंत्री भावात्, घोरः = परीषहोपसर्गकषायशत्रुप्रणाशविधौ भयानकः, बोरगुणः - घोरा = कातरैर्दुश्वराः गुणाः = मूलगुणा यस्य स तथा, घोरतपस्वी = दुश्वरतपोधारी, घोरब्रह्मचर्यवासी = कातरदुश्वरब्रह्मचर्यवासी कठिन ब्रह्मचर्यधारणधीरः, उम्क्षिप्तशरीरः = त्यक्तदेहाभिमानः, शरीरसंस्कारवर्जितो वा संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः = शरीरान्तर्लीनतेजोलेश्यावान् - विशिष्टतपोजनितलब्धिविशेषसमुत्पन्नतेजोज्वालावान्, चतुर्दशपूर्वी = चतुर्दशानां पूर्वाणां धारकः, चतुर्ज्ञानोपगतः = मति - श्रुत्यवधि - मनः पर्यायज्ञानसम्पन्नः, सर्वाक्षरसंनिपाती=सकलवर्णावगाहिबुद्धिः = सर्वाक्षरमवेशिकारिबुद्धिः, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते - नातिदुरे नातिसमीपे - उचितस्थाने ऊर्ध्वजानुः = उपरिकृतजानुः अधः शिराः = नम्रीकृतमस्तकः, ध्यानकोष्ठोपगतः - ध्यायते - चिन्त्यतेऽनेनेति ध्यानम् - एकस्मिन् वस्तुनि तदेकाग्रतया चित्तस्यावस्थापनम् ध्यानं कोष्ट करने के कारण महातपस्वी थे। प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखने के कारण उदार थे। परीषह, उपसर्ग एवं कषाय रूपी शत्रुओं को नष्ट करने में भयानक होने से घोर थे। वह घोर (कायरोंद्वारा दुष्कर) मूल गुणों से युक्त होने से घोर गुणवान थे । दुश्वर तपश्चरण के धारक थे। कायरजनों द्वारा आचरण न किये जा कने योग्य ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उन्होंने देहाभ्यास का त्याग कर दिया था, अथवा वे शरीर के संस्कार (श्रृंगार) से रहित थे। विशिष्ट तपस्या से प्राप्त हुई विशाल तेजोलेश्या नामकलब्धि उन्होंने शरीर में ही लीन (छीपा) कर रक्खी थी। चौदह पूत्र के धारक थे। मति श्रुत-अवधि - मनः पर्यवज्ञान से युक्त थे। उनकी बुद्धि समस्त अक्षरों में प्रवेश करनेवाली थी। वह भगवान् से न अधिक दूर रहते और न अत्यन्त समीप ही रहते थे । उचित स्थान पर रहते थे । वहाँ घुटने ऊपर कर के तथा मस्तक नमाकर ध्यान रूपी कोष्ट को प्राप्त थे।
માટી તપસ્યા કરવાને કારણે મહાતપસ્વી હતા પ્રાણી માત્ર તરફ મિત્રભાવ રાખતા હોવાથી ઉદાર હતા પરિષહ, ઉપસગ અને કષાય રૂપી શત્રુઓને નાશ કરવામાં ભયાનક હાવાથી ઘેાર હતા. તે ઘાર (કાયા દ્વારા દુષ્કર) મૂળ ગુણાવાળા હાવાથી ઘાર ગુણવાન હતા. દુશ્ર્વર તપશ્ચરણના ધારક હતા. કાયર માણસેાદ્વારા આચરી ન શકાય એવા બ્રહ્મચર્ય નુ પાલન કરતા હતા. તેમણે દેહાધ્યાસને ત્યાગ કર્યો હતે, અથવા તેઓ શરીરના સંસ્કાર ( શ્ર’ગાર )થી રહિત હતા. વિશિષ્ટ તપસ્યા વડે પ્રાપ્ત થયેલ વિશાળ તેજોલેશ્યા નામની લબ્ધિ તેમણે શરીરમાં જ લીન કરી દીધી હતી. ચૌદ પૂર્વાના ધારક હતા. મતિ, શ્રુત, અવધિ અને મનઃપવજ્ઞાનથી યુકત હતા. તેમની બુદ્ધિ સમસ્ત અક્ષરમાં પ્રવેશ કરનારી હતી. તે ભગવાનથી વધારે દૂર પણ ન રહેતા અને અન્યંત નજીક પણ ન રહેતા ઉચિત સ્થાન પર રહેતા હતા. ત્યાં ઘુંટણા ઉપર કરીને તથા મસ્તક નમાવીને ધ્યાન રૂપી કાષ્ટા પ્રાપ્ત હતા. કાઇ પણ એક વસ્તુમાં એકાગ્રતા
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कल्प
मञ्जरी
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इन्द्रभूते: दीक्षाग्रहणं संयमाराधन
वर्णनं च ।
॥सू० १०६ ॥
॥३७७॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥३७८॥
इव ध्यानकोष्ठः, तमुपगतः, यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्ण न भवति तथैव ध्यानतः इन्द्रियान्तः करणवृत्तयो बहिन यान्तीति भावः, नियन्त्रितचित्तवृत्तिमानित्यर्थः । संयमेन = सप्तदशविधेन तपसा = द्वादशविधेन आत्मानं भावयमानः = त्रासयन् विहरति ॥ ०१०६ ॥
मूलम् -- तरणं अग्निभूई माहणो सव्वविजापारगो इंदमइव्त्र चिंतेइ सच्चे सो महं इंद्रजालिओ दोसर । अणेण मम भाया इंदभूइ वंचिओ । अहुणा श्रहं गच्छामि असन्वण्णुं अप्पाणं सव्वण्णुं मण्णमाणं तं धुतं पराजिणिय माया वंचियं मज्झभायरं पडिणियमित्ति वियारिय पंचसयसिस्सेहिं परिवुडो सगन्धं पहुसमीवे पत्तो । तं भगवं नामसंसयनिद्देसपुत्रं संबोहिय एवं वयासी - भो अग्भूिई । तुज्झमणंसि कम्मविसए संसओ वह जं कम्म अस्थि वा नत्थि ? "पुरुषएवेद 'U' सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं" इच्चाइ वेयत्रयणाओ सव्वं अप्पाचेव न कम्मं । जईकम्मं भवे ताहे पञ्चकखाइप्पमाणेगं तं लब्भंसिया, तं नत्थि ? जइकम्मं मन्निजइ ताहे तेण मुचेण कम्णा सह यमुत्तस्स जीवस्स कहं संबंधो हवेज्जा ? अनुत्तस्स जीवस्स मुत्ताओ कम्माओं उवघायाणुग्गहा कह होउं सकिज्जा ? जहा भागासो खग्गाइणा न छिज्जइ, चंदणेग नोवलिविज्जइ त्ति, तं मिच्छा, अइसयणाणिणो कम्मं पञ्चकखत्तणेण पासंति, छउमत्थाउ जीवाणं वेचित्त पासिय तं अणुमाणेण जाणंति । कम्मस्स विचित्तयाए चेव पाणीणं सुदुहाइभावा संपते, जओ कोई जीवो राया हवइ, कोई आसो गओ वा तस्स वाहणो हवइ, कोपियाई, कोई छत्तधारगो हवइ । एवं को िखुयखामो भिक्खागो होइ, जो अहोरत्तं अडमाणो वि भिक्ख न लहइ । जमगसम ववहरमाणाणां पोयवणियाणं मज्झे एगो तरह, एगो समुमि बुडइ । एयारिसाणं कज्जाणं किसी भी एक वस्तु में एकाग्रतापूर्वक चित्त का स्थिर होना ध्यान कहलाता है। वे उसी ध्यान रूपी कोष्ठ (कोठी) में स्थित थे । अर्थात् जैसे कोठी में रहा हुआ धान इधर-उधर बिखरता नहीं है, उसी प्रकार ध्यान करने से इन्द्रियों की तथा मन की वृत्ति बाहर नहीं जाती है। आशय यह है कि इन्द्रभूति अनगार ने अपने चित्त की वृत्ति को नियंत्रित कर लिया था। वे सत्तरह प्रकार के संयम और द्वादश प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ||०१०६ ॥
પૂર્વક ચિત્તનું સ્થિર હાવું તેને ધ્યાન કહે છે. તે એજ ધાન રૂપી કાષ્ઠ (કાઠી)માં રહેલ હતા. એટલે કે જેમ કાઠીમાં રહેલ અનાજ આમ તેમ વેરાતું નથી, એજ પ્રમાણે ધ્યાન ધરવાથી ઇન્દ્રિયાની તથા મનની વૃત્તિ બહાર જતી નથી. આશય એછે કે ઇન્દ્રભૂતિ અણુમારે પેાતાની ચિત્તની વૃત્તિને નિયંત્રિત કરી લીધી હતી. તે અને બાર પ્રકારના તપ વડે આત્માને વાસિત કરતા વિચરવા લાગ્યા. (સૂ૦૧૦૬)
સત્તર પ્રકારના સંયમ
真真真藏
कल्प
मञ्जरी
टीका
अग्निभूतेः कर्मविषयक संशयनिवारणं
तस्य
दीक्षाग्रहणं
च ।
॥सु ०१०६॥
||३७८||
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श्री कल्पसूत्रे
| ३७९ ।।
德興演
कारणं कम्मंचेव, नो णं कारणे णं विणा किंपि कज्जं संपज्जए । अह य जहा मुत्तस्स घडस्स अमुत्तेण आगासेण सह संबंधो तहा कम्मणो जीवेण सह । जहा य मुत्तेहि नाणाविहेहि मज्जेहि, ओसहेहि य अमुत्तस्स जीवस्स उघाओ अग्गो य हवंतो लोए दीसइ, तदेव अमुत्तस्स जीवस्स मुत्तेण कम्मुणा उवधाओ अणुग्गहो य मुव्वो । अह य वेयपसु वि न कत्थइ कम्मुणो निसेहो, तेण कम्मं श्रत्थि त्ति सिद्धं । एवं पहुवयणेण संसम्म छिन्नम्म समाणे तुट्टो अग्गिभूई त्रि पंचसयसिस्स सहियो पन्त्रइओ | | ०१०७॥
छाया - ततः खलु अग्निभूतिर्ब्राह्मणः सर्वविद्यापारगः इन्द्रभूतिरिव चिन्तयति = सत्यं स महान् ऐन्द्रजालिको दृश्यते । अनेन मम भ्राता इन्द्रभूतिर्वञ्चितः । अधुनाऽहं गच्छामि, असर्वज्ञमात्मानं सर्वज्ञं मन्यमानं तं पराजित्य मायया वञ्चितं मम भ्रातरं प्रतिनिवर्त्तयामीति विचार्य पञ्चशतशिष्यैः परिवृतः सगर्व प्रभुसमीपे प्राप्तः । तं भगवान् नापसंशयनिर्देशपूर्व संबोध्यैवमवादीत् भो अग्निभूते ! तत्र मनसि कर्मविषये संशयो वर्त्तते, यत् - फर्मास्ति वा नास्ति ? पुरुष एवेद 'U' सर्वं यद्भुतं यच भाव्यं" इत्यादि वेदवचनात् सर्वमात्मैव न मूल का अर्थ- 'तए णं' इत्यादि । तत्वात् समस्त विद्याओं में पारंगत अग्निभूति ब्राह्मणने इन्द्रभूति के समान विचार किया - सचमुच, वह तो बड़ा भारी इन्द्रजालियाँ दीखता है ! उसने मेरे भाई इन्द्रभूति को भी अपनी जाल में फसा लिया ! अब मैं जाता हूँ और अपर्व किन्तु अपने आपको सर्वज्ञ माननेवाले उस धूर्त को पराजित करके छल करके-छले हुए अपने भाई को वापिस लाता । इस प्रकार विचार कर वह अपने पांचसौ शिष्यों के साथ, गर्व सहित प्रभु के समीप पहुँचा । भगवान् ने उनके नाम और संशय का उल्लेख करके संवोधन करते हुए कहा – हे अग्निभूते । तुम्हारे मन में कर्म के विषय में संशय है कि कर्म है या नहीं है ? ' पुरुष एवेद 'U' सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्' इति । अर्थात् 'यह सब पुरुष ही है
भूगनो अर्थ - ' तब णं' इत्यादि समस्त विद्यायामां पारंगत सेवा अभिभूति ब्राह्मणे, इन्द्रभूतिना વિચાર કર્યો. કે, ખરે ખર ! આ પુરુષ ઇન્દ્રજાલીયેાજ દેખાય છે ! તેણે તેા, મારા ભાઈ ઈન્દ્રભૂતિ જેવાને પણ, પેાતાના ફ્રાંસલામાં જોડી દીધા. હવે હું ત્યાં જાઉં ! અને પેાતાને સજ્ઞ માનતા એવા ઠગને પરાજીત કરી, મારા જયેષ્ઠ ભાઇને મુક્ત કરી, સાથે લેતે આવું! આ પ્રકારે નિર્ણાંય કરી પેાતાના પાંચસે શિષ્યેાના પરિવાર સાથે ગવ સહિત પ્રભુ સમીપે પહાચ્યા. ભગવાને તેનુ નામ અને સંશયના ઉલ્લેખ-કરી, તેને સએધ્યા, ને કહેવા લાગ્યા કે, હું અગ્નિભૂતિ! તારા મનમાં કર્માંસંબંધી સંશય છે કે નિહુ? કમ હશે કે કેમ તેવી શંકા તું સેવી રહ્યો છે કે નહિ?
闻真賞獎
कल्प
मञ्जरी
टीका
अग्निभूतेः कर्मविषयक संशय
निवारणम् ।
॥मू०१०७॥
॥३७९ ॥
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।
मञ्जरी
टीका
STRICT
D कर्म । यदि कर्म भवेत् प्रत्यक्षादिप्रमाणेन तद् लब्धं स्यात्, तन्नास्ति । यदि कर्म मन्यते, तदा तेन मूर्तेन
कर्मणा सह अमूर्तस्य जीवस्य कथं सम्बन्धो भवेत् ? अमूर्तस्य जीवस्य मूर्तात् कर्मणः उपघातानुग्रहौ कथं श्रीकल्प
भवितुं शक्नुयाताम् ? यथा-आकाशः खड्गादिना न छिद्यते, चन्दनेन नोपलिप्यते इति । तन्मिथ्या, अति
शयज्ञानिनः कर्म प्रत्यक्षत्वेम पश्यन्ति, छद्मस्थास्तु जीवानां वैचित्र्यं दृष्ट्राऽनुमानेन तद जानन्ति । कर्मणो ॥३८॥
विचित्रतयैव प्राणिनां सुखदुःखादिभावाः संपद्यन्ते यतः कश्चिज्जीवो राजा भवति, कश्चिद् अश्वो गजो वा तस्य जो है, हो चुका है और जो होनेवाला है।' इस वेद-वचन से सब कुछ आत्मा ही है, कर्म नहीं। यदि कर्म होता तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उसकी उपलब्धि होती। परन्तु उपलब्धि नहीं होती, अतः कर्म नहीं है। यदि कर्म माना जाय तो मूर्त कर्म के साथ अमूर्स जीव का संबंध कैसे हो ? मूर्त कर्म से अमृत जीव का उपघात और अनुग्रह कैसे हो सकता हैं? जैसे आकाश खड्ग आदि से नहीं काटा जा सकता, और चन्दन आदि से लिप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु इस प्रकार सोचना मिथ्या है। अतिशय ज्ञानी प्रत्यक्ष प्रमाण से कर्मों को देखते हैं और अल्पज्ञ जीवों की विचित्रता को देखकर अनुमान से कर्म को जानते हैं। कर्म की विचित्रता से ही प्राणियों में सुख-दुःख कि अवस्था उत्पन्न होती हैं। कोई जीव राजा "पुरुष एवेद °U° सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्" अर्थात्-
मातभा पुरुष छते ॥ पुरुष छ,२ थ या છે, અને ભાવીકાળે થવાના છે તે બધા પુરુષ જ છે ! આ વેદ વચનથી, તને એવું જ્ઞાન પ્રાદુર્ભત થયું છે કે, આ જગત આત્મામય છે. કમ જેવું કાંઈ છે જ નહિ.” જે કર્મનું વિદ્યમાનપણું હોત તે, પ્રત્યક્ષ આદિ પ્રમાણે દ્વારા જણાયા વિના રહેત નહિ પણ તેની ઉપલબ્ધિ થતી નથી, માટે કમ જેવું કાંઈ છે જ નહિ. જે કદાચ “કમ' માનવામાં આવે તે, અમૂર્ત જીવની સાથે મૂતને તે સંબંધ કેવી રીતે હોઈ શકે ? ” “ મૂર્ત કમંઢારા, અમૂર્ત આત્માને ઉપઘાત કે અનુગ્રહ કેવી રીતે જણાય? જેમ આકાશ અમૃત છે, તેને મૂત એવા ખર્શ આદિથી કાપી શકાય નહિ જેમ ચંદન મૂત” છે તે તે, અમૂર્ત એવા આકાશને લેપતુ નથી; તેમ આત્મા અમૂત છે, અને કમ મૂર્ત છે, તે મૂર્ત પદાર્થ, અમૂર્ત સાથે કેવી રીતે એક રૂપ થઈ શકે? શું આવા પ્રકારના તારા મંતવ્યો વતે છે તે બરાબર છે ને ? વેદના સૂત્રને તું ઉપર પ્રમાણે અર્થ કરે છે તે પણ બરાબર છે ને ?”
અગ્નિભૂતિએ “હકારમાં પ્રત્યુત્તર આપે અને જે જે ઉપર પ્રમાણે તેના અભિપ્રાય હતા તેની કબુલાત કરી. ભગવાને વળતે જવાબ આપી કહ્યું કે, “આવા તારા અભિપ્રાયે ખેટા છે. અતિશય જ્ઞાની પુરુષો, પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ વડે
કર્મોને દેખે છે; અને અ૯પજ્ઞાની ઓની વિચિત્રતા જોઈ અનુમાનપણે કમને જાણે છે. કમની વિચિત્રતાને લીધે - પ્રાણીઓમાં સુખદુઃખના ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, કોઈ જીવ જે રાજા થાય તે, કોઈ હાથી કે ઘડે થઇ તે રાજાનું
SM अग्निभूतेः
कर्मविषयक - संशय निवारणम्। मू०१०७॥
॥३८०॥
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कल्प
श्रीकल्पसूत्रे ३८॥
मञ्जरी
टीका
वाहनं भवति, कश्चित् पदातिः, कश्चिच्छत्रधारको भवति । एवं कश्चित् क्षुत्क्षामो भवति योऽहोरात्रमटन्नपि र भिक्षां न लभते । युगपद् व्यवहरमाणानां पोतवणिजां मध्ये एकस्तरति, एकः समुद्रे बुडति । एतादृशां कार्याणां
कारणं कमैंव, नो खलु कारणेन विना किमपि कार्य संपद्यते । अथ च यथा मूर्तस्य घटस्यामूर्तेन आकाशेन व सह सम्बन्धस्तथा कर्मणो जीवेन सह । यथा च मूर्तेर्नानाविधैर्मयैः, औषधैवामूर्तस्य जीवस्योपघातोऽनुग्रहश्च
भवन् लोके दृश्यते तथैव अमूर्तस्य जीवस्य मूर्तेन कर्मणा उपघातोऽनुग्रहश्च ज्ञातव्यः। अथ च वेदपदेष्वपि न कुत्रापि कर्मणो निषेधस्तेन कर्मास्तीतिसिद्धम् । एवं प्रभुवचनेन संशये छिन्ने सति दृष्टतुष्टोऽग्निभूतिरपि पञ्चशतशिष्यसहितः प्रबजितः ॥५०१०७॥ होता है, कोई हाथी अथवा कोइ घोडा होकर उसका वाहन बनता है। कोई पैदल चलता है, कोई छत्र धारण करता है। इसी प्रकार कोई भूख से दुर्बल होता है, और दिन-रात भटकता हुआ भी भीख नहीं पाता ! एक साथ व्यापार करनेवाले नौका-चणिकों में से एक पार पहूँच जाता है, और एक समुद्र में डूब जाता है। इन सब कार्यों का कारण कर्म ही है, क्यों कि कारण के बिना कोई भी कार्य उत्पन्न नहीं होता। और, जैसे पूर्व घटका अमन आकाश के साथ संबंध होता है, उसी प्रकार कर्म का जी के साथ। जैसे नाना प्रकार के भूत मधो से और मृत औषधों से जीव का उपवात और अनुग्रह होता हुआ लोक में देखा जाता है, उसी प्रकार अमूर्त जीव का मूर्त कर्म के
द्वारा उपचात और भनुग्रह जानना चाहिए। इसके अतिरिक्त वेद-पदों में भी कहीं भी कर्म का निषेध __नहीं किया गया है, अतः कर्म है, यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार प्रभु के कथन से संशय दूर हो जाने पर
हर्पित और संतुष्ट हुए अग्निभूति भी अपने पाचसौ शिष्यों के साथ दीभित हो गये ॥म्०१०७। વાહન બને છે. કર્મની વિચિત્રતા ને લીધે કઈ પગે ચાલે છે, તે કઈ માથે છત્ર ધારણ કરાવે છે કમને લીધે, કેઈ ભુખે દુર્બલ માનવ રેટી માટે દિન રાત ભટકે છે છતાં તેને પેટ પૂરતું મળતું નથી !'
એકી સાથે અને એક જ સમયે વ્યાપાર કરવાવાળા વેપારીઓમાં એક પાર પામે છે, ત્યારે બીજે ડૂબી જાય છે. આ તમામનું મૂળભૂત કારણુ કર્મોદય છે. કોઈ પણ કાર્યની પછવાડે કારણ તે હોવું જોઈએ; કારણ વિના કાર્ય બનતું નથી. જેમ મૂત ઘડાને સંબંધ અમૂર્ત આકાશ સાથે થાય છે તેમ કમને સંબંધ આત્મા સાથે જણાય છે. જેમ મત સ્વરૂપી મધ અને મૂર્ત સ્વરૂપી ઔષધિઓ વડે જીવને ઉપધાત અને અનુગ્રહ થાય છે, તેમજ જણાય છે, તેમ અમૂર્ત છને પણ મૂર્ત કર્મોદ્વારા ઉપઘાત અનુગ્રહ થાય છે. વેદવાક્ય અને વેદવાણીમાં કયાંય પણ કમને નિષેધ કરવામાં આવ્યું નથી, માટે કર્મ છે તે સિદ્ધ વસ્તુ છે. આ પ્રમાણે પ્રભુના કથનથી સંશય દૂર થતાં તે હર્ષિત થશે. સંતુષ્ટ થઈ તેણે પણ પિતાના પાંચ શિખ્યાના સમુદાય સાથે દીક્ષા ગ્રંઠણ કરી. (સૂ૦૧૦૭)
अग्निभूते: कर्मविषयक संशय निवारणं
दीक्षाग्रहणं
च।
स
॥३८॥
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कल्प.
श्रीकल्प.
सूत्र ॥३८॥
म
मञ्जरी
टाका
टीका-"तए ण अग्गिभूई माहणे" इत्यादि । ततः इन्द्रभूतेर्दीक्षाग्रहणानन्तरं खलु अग्निभूतिर्ब्राह्मणः सर्व विद्यापारगः समस्तविद्यापारङ्गतः, इन्द्रभूतिरिव चिन्तयति-सत्यम् यथार्थम् सः महावीरो महान् ऐन्द्रनालिका मायावी दृश्यते । अनेन मम भ्राता इन्द्रभूतिः वञ्चिता छलितः, अधुना अहम् गच्छामि, गत्वा च असर्वज्ञ सन्तमपि आत्मानं स्वं सर्वहं मन्यमानं तं धुत पराजित्य-परास्तीकृत्य मायया वञ्चितं मम भ्रातरं प्रतिनिवर्तयामि आनयामि इति विचार्य पञ्चशतशिष्यैः-परिटतः सगर्व यथास्यात्तथा प्रभुसमीपे श्रीमहावीरपार्थे प्राप्ततः तम् अग्निभूति भगवान्-श्रीमहावीर प्रभु, नामसंशयनिर्देशपूर्वतदीयनाम तद्हृदयस्थितसंशयमूचनपुरस्सरं सम्बोध्य एवं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत्-उक्तवान् , तथा हि-'भो अग्निभूते । तत्र मनसि कर्मविषये संशयो वर्तते' यत् कर्म अस्ति वा-अथवा नास्ति ? यतो वेदवचनमिदमस्ति-"पुरुष एवेद 'U' सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम्"
टीका का अर्थ-इन्द्रभूति की दीक्षा के पश्चात् सब विद्याओं में निपुण अग्निभूति ब्राह्मण ने इन्द्रभूति के समान विचार किया-सच है, यह महावीर महाइन्द्रजालिया दिखाई देता है। उसने मेरे भाई इन्द्रभूति को भी छल लिया। अब में जाता हूँ और असर्वज्ञ होने पर भी अपने को सर्वज्ञ समझनेवाले उस मायावी को परास्त करके माया से ठगे हुए अपने बन्धु इन्द्रभूति को वापिस लाता हूँ ! इस प्रकार विचार कर वह अग्निभूति अपने पाचसौ शिष्यों के साथ, अभिमान सहित, भगवान् के समीप गये। भगवान् ने अग्निभूति का नाम लेकर तथा उनके हृदय में स्थित सन्देह को सूचित करते हुए, संबोधन किया और इस प्रकार
सप्रकार कहा-'हे अग्निभूति ! तुम्हारे मन में कर्म के विषय में सन्देह रहता है कि कर्म है अथवा नहीं है ?' वेद का वचन है कि-"पुरुष एवेद 'U' सर्वे यद् भृतं यच्च भाव्यम्"। इस वाक्य का आशय यह है कि यह जो वर्तमान है,
ટીકાનો અર્થ-ઇન્દ્રભૂતિની દીક્ષા પછી સઘળી વિદ્યાઓમાં નિપુણ અગ્નિથતિ બ્રાહ્મણે ઈદ્રભૂતિના જે વિચાર કર્યો કે વાત જરૂર સાચી છે કે તે મહાવીર એક મહાન ઈrદ્રજાળી લાગે છે. તેણે મારા ભાઈ ઈન્દ્રભૂતિને પણ ઠગી લીધા. હવે હું જાઉં છું અને અસર્વજ્ઞ હોવા છતાં પણ પિતાને સર્વજ્ઞ સમજનાર માયાવીને પરાસ્ત કરીને માયાથી ઠગાએલા મારા ભાઈને પાછો લાવીને જ જંપીશ આ પ્રમાણે નિર્ણય કરીને તે અગ્નિભૂતિ પિતાના પાંચસો શિષ્યોની સાથે અભિમાનપૂર્વક ભગવાનની પાસે ગયા.
ભગવાને અગ્નિજતિને તેના નામથી સંબોધન કરીને તથા તેમના હદયમાં રહેલા સંદેહને જાહેર કર્યો. ભગવાને આ પ્રમાણે કહ્યું –હે અગ્નિભૂતિ! તમારા મનમાં કર્મના વિષયમાં સંદેહ રહે છે કે કેમ છે કે નથી? વેદનું વચન है "पुरुष ए वेद U" सर्वे यद्भूतं यच्च भाव्यम्" 240 पाय॥ आशय मे छे 3 मारे वर्तमान छ, त
अग्नितेः कर्मविषयक संशय निवारण
वर्णनम्।। ॥सू०१०७॥
॥३८२॥ .
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श्री कल्पसूत्रे ||३८३॥
演真真機夾緊
अत्र - 'इद' शब्दोत्तरमनुस्वार एव सकारे परे "U" कारत्वमापन्नः तेन यदिदं वर्तमानं यत् भूतम् = श्रतीतम् यत् भाव्यं =भविष्यत् तत् सर्वं वस्तु पुरुष एव, एवकारोऽत्र कर्मादिवस्तुनिषेधार्थः तेन पुरुषातिरिक्तं किञ्चिदपि agartateयर्थः । इत्यादि वेदवचनात् सर्वमात्मैव = भूत भवद्भविष्यत् सर्वं वस्तु श्रात्मैव न तु आत्मातिरिक्तं किञ्चिदपि वस्तु विद्यते, ततश्च कर्मापि न विद्यते इति । यदि चेतु कर्म भवेत्, तदा तत् कर्मप्रत्यक्षादिप्रमाणेन लभ्यं स्यात्, तन्नास्ति = प्रत्यक्षादिप्रमाणेन तदुपलब्धिर्न भवति । यदि कथंचित् मन्यते, तदा तेन मूर्तेन कर्मणा सह अमूर्तस्य जीवस्य कथं केन प्रकारेण सम्बन्धो भवेत् ? मूर्तीमूर्तयोः परस्परं सम्बन्धासम्भवात् । तथाअमूर्तस्य जीवस्य मूर्तात् कर्मग उपघातानुग्रहौ - तत्रोपघातः - नरकनिगोदादिगतिप्रवर्तनेन पीडनम् - अनुग्रह - स्वर्गादिगतिप्रवर्तमेन सौख्योपभोगचेत्येतौ कथं केन प्रकारेण भवितुं शक्नुयाताम् ? मूर्तीमूर्तयोरुपधात्योपयातका
भूत है और जो भावी है, वह सभी वस्तु पुरुष (आत्मा) हो है । यहाँ 'पुरुष' शब्द के पश्चात् प्रयुक्त हुआ 'ए' (ही) कर्म आदि वस्तुओं का निषेध करने के लिये है, तो अभिप्राय यह निकला कि पुरुष के अतिरिक्त कोई भी वस्तु नहीं है । इत्यादि वेद वचन के अनुसार जो हुआ, जो है और जो होगा, वह सब वस्तु आत्मा ही है । आत्मा से भिन्न अन्य कोई पदार्थ नहीं है, अत एव कर्म का भी अस्तित्व नहीं है। कर्म होता तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उसकी प्रतीति होती, किन्तु प्रत्यक्ष आदि किसी भी प्रमाण से कर्म की प्रतीति नहीं होती ।
फिर भी कदाचित् कर्म का अस्तित्व मान लिया जाय तो मूर्त्त कर्म के साथ अमूर्त जीव का संबंध किस प्रकार हो सकता है ? मूर्त्त और अमूर्त का आपस में संबंध संभव नहीं है । इस के अतिरिक्त अमू आत्मा का मूर्त कर्म से उपघात -नरक - निगोद आदि गतियों में ले जाकर पीड़ा पहुँचाना - और अनुग्रह स्वर्ग आदि गति में पहुँचा कर सुख का उपभोग कराना - कैसे हो सकता है ? यह संभव नहीं कि मूर्त और छेने लावी छे, ते कधी वस्तु पुरुष (आत्मा) न छे. "पुरुष" शब्हनी पाछण वपरायेस 'एव' (ही) उभ આદિ વસ્તુઓના નિષેધ કરવાને માટે છે. તેથી તાત્પ એ નીકળ્યું કે પુરુષના સિવાય કાઈ પણ વસ્તુ નથી. ઇત્યાદિ વેદવચન પ્રમાણે જે થયુ, જે છે અને જે થશે, બધી વસ્તુ આત્મા જ છે. આત્માથી ભિન્ન બીજો કાઇ પદાર્થ નથી. તેથી કનું પણ અસ્તિત્વ નથી. કમ હોત તો પ્રત્યક્ષ આદિ પ્રમાણેાથી તેની પ્રતીતિ થાત, પણ પ્રત્યક્ષ આદિ ફાઈ પણ પ્રમાણુથી કમ ની પ્રતીતિ થતી નથી. છતાં પણ કદાચ કર્મીનું અસ્તિત્વ માની લેવામાં આવે તે મૃ કમની સાથે અમૂત જીવનેા સબધ કેવી રીતે હોઇ શકે ? મૃત અને અમૃતના અન્યાન્ય સંબધ સંભવી શકે નહી. તદુપરાંત અમૃત આત્માના મૂત ઉપઘાત–નરક-નિગેાદ આદિ ગતિઓમાં લઇ જઈને પીડા પહેાંચાડવી અને અનુગ્રહ -સ્વર્ગ આદિ ગતિમાં પહેાંચાડીને સુખના ઉપભાગ કરાવવા તે કેવી રીતે હાઈ શકે ? એ સંભવિત નથી કે મૂત અને
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मञ्जरी टीका
अग्निभूतेः कर्मविषयक
संशय निवारणम् ।
।। सू० १०७॥
||३८३॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥ ३८४॥
强漫酒
नुग्राह्यानुग्राहकत्वासम्भवात्, तत्र दृष्टान्तमुपन्यस्यति - 'यथे ' - स्यादि - यथा - आकाश: खड्गादिना न छिद्यते, तथा - चन्दननेन=घृष्टचन्दन द्रव द्रव्येन नोपलिप्यते इति । एवम् अग्निभूतिमनोगतं संशयमुफ्पाद्य तन्निराकर्तुमाह'तमिच्छा' इत्यादि । हे अग्निभूते ! तत्तव मतं मिथ्या, यस्माद्धेतोः अतिशय - ज्ञानिनः = सर्वज्ञाः प्रत्यक्षत्वेनसाक्षात्कारेण कर्म पश्यन्ति, घटपटादिवत् करामलकवद्वा । छद्मस्थास्तु जीवानां वैचित्र्यं = गतिवैलक्षण्य दृष्ट्वा अनुमानेन तद= कर्म जानन्ति । तथाहि अनुमानप्रयोगः - जीवाः कर्मवन्तो गतिवैचित्र्यादिति । तथा कर्मणोविचित्रतयैव वैलक्षण्येनैव तादृशकर्मवतां प्राणीनां जीवानां सुखदुःखादिभावाः विचित्राः सम्पद्यन्ते । यतः यस्मात् कारणात् कोऽपि जीवः राजा भवति, कश्चित् कोऽपि जीवः अश्वः कोऽपि गजो वा भूत्वा तस्य राज्ञः वाहनं अमूर्त में से एक उपाय हो और दूसरा उसका उपघातक हो, तथा एक अनुग्राह्य हो और दूसरा अनुग्राहक हो । इस विषय में दृष्टान्त देते हैं। यथा-आकाश तलवार, आदि के द्वारा काटा नहीं जा सकता और चन्दनादि के लेप से लेपा नहीं जा सकता ।
इस प्रकार अग्निभूति के मनोगत संशय का समर्थन करके उसका निराकरण करने के लिये कहते हैंहे अग्निभूति, तुम्हारा यह मत मिथ्या है। क्यों कि सर्वज्ञ कर्म को प्रत्यक्ष से देखते हैं, जैसे घट पट आदि को अथवा हथेली पर रक्खे आंवले को देखते हैं । अल्पज्ञ पुरुष जीवों की गति आदि की विलक्षणता को देख कर अनुमान प्रमाण से कर्म को जानते हैं। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है-जीव कर्म से युक्त हैं, क्योकि उनकी गति में विचित्रता देखी जाती है। तथा कर्म की विचित्रता - भिन्नता के कारण ही, विचित्र कर्मवाले प्राणियों के सुख-दुःख आदि विचित्र भाव उत्पन्न होते हैं, क्यों कि कोई जीव राजा होता है, कोई घोड़ा होता है और कोई हाथी होता है । घोडा या हाथी होकर राजा का वाहन बनता है। कोई जीव उस
અદ્ભૂત માંથી એક ઉપશ્ચાત્ય હેય અને બીજી તેનું ઉપઘાતક હાય તથા એક અનુગ્રાહ્ય હોય અને બીજું અનુગ્રાહક હાય. આ વિષે દ્ર્ષ્ટાંત આપે છે કે,-જેમ આકાશ તલવાર દિદ્વારા કાપી શકાતું નથી તેમજ શ્રીખંડ ચંદનાદિના લેપથી લેપી શકાતું નથી. આ પ્રમાણે અગ્નિભૂતિના મનેાગત સ ંશયનુ સમન કરીને તેનું નિરાકરણ કરવાને માટે કહે છે–” હું અગ્નિભૂતિ, તમારા આ મત મિથ્યા છે. કારણ કે સત્ત, કમને પ્રત્યક્ષથી જુએ છે, જેમ ઘટ પટ આદિને અથવા હથેલીમાં રાખેલ આમળાને જુએ છે. અલ્પજ્ઞ પુરુષ જીવાની ગતિ આદિની વિલક્ષણતાને જોઈને અનુમાન પ્રમાણથી ક્રમને જાણે છે. અનુમાનના પ્રયોગ આ પ્રમાણે છે-જીવ કર્યાંથી યુક્ત છે, કારણ કે તેમની ગતિમાં વિચિત્રતા દેખાય છે. તથા કર્માંની વિચિત્રતા–ભિન્નતાને કારણે જ, શિચિત્રકવાળા પ્રાણીઓનાં સુખ-દુઃખ આદિ વિચિત્ર ભાવ ઉત્પન્ન
થાય છે. કારણ કે કાઇ જીવ રાજા થાય છે, કાઈ ઘાડા થાય છે, અને કાઇ હાથી થાય છે. ઘેાડા કે હાથી લઈને
暴
कल्प
मञ्जरी ठीका
अग्निभूतेः
कर्मविषयक संशय
निवारणम् । ॥सू०१०७॥
॥ ३८४॥
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श्रोकल्पसूत्रे
१३८५||
藏真實
简
भवति, कवि - जीवतस्यैव राज्ञः पदातिर्भवति, कश्चित् जीवः छत्रधारको भवति एवम् इत्थं कश्चित् जीवः क्षुत्क्षामः = क्षुधापीडितो भवति यः क्षुत्क्षामः कर्मवित्र्यात् अहोरात्रम् अटन्नपि = भ्रमन्नपि भिक्षां न लभते, तथा - 'जमगसमगं' युगपत् - एककाले व्यवहरमाणानां पोतवणिजां मध्ये एकस्तरति = समुद्रपारं गच्छति, एकः = अपरः समुद्रे बुडति - निमज्जति, एतादृशाम् विचित्राणां कार्याणां कारणं कर्मैव न तु कर्मातिरिक्तं किमपि लक्ष्यते । ननु पूर्वोक्तानां कार्याणां स्वाभाविकत्यमिति तत्कारणतया कर्मस्वीकरणं व्यर्थमितिचेत्तत्राह - स स्वभावः किं वस्तु, अवस्तु वा ? यदि अवस्तु तदा तस्मात्कार्योत्पत्तिर्न कदापि भवितुमर्हति । यदि वस्तु मूर्तीमूर्ती वा । अमूर्तस्तदात्वन्मतानुसारेण तस्मात् मूर्त्तकार्याणामुत्पत्तिर्भवतुं नार्हति । यदि मूर्तस्तदा स कर्मैवेति मनसि निधायाह- 'नो खलु' इत्यादि ।
राजा का प्यादा होता है और कोई उसका छत्रधारक - उस पर छत्र तानने वाला होता है । इसी प्रकार कोइ जीवभूव से पीड़ित होता है, जो अपने कर्म की विचित्रता के कारण दिन और रात भीख के लिए भटकता फिरता है, फिर भी भीख नहीं पाता । तथा-एक ही समय में व्यापार करनेवाले नौका- व्यापारियों में से एक कुशल समुद्र पार हो जाता है और दुसरा समुद्र में ही डूब जाता है। इन सब विचित्र कार्यों का कारण कर्म ही हैं; कर्म के सिवाय और कुछ भी प्रतीत नहीं होता।
शंका- पूर्वोक्तविचित्र कार्य स्वभाव से ही होते हैं अतएव कर्म को उनका कारण मानना व्यर्थ है । समाधान तुम स्वभाव को विचित्र कार्यों का कारण कहते हो तो बताओ कि स्वभाव क्या है ? वह कोई वस्तु है या अस्तु ? अगर अवस्तु है तो उससे कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । वस्तु है तो मृर्त રાજાનું વાહન બને છે. કેાઇ જીવ તે રાજાને પાયદળ સૈનિક થાય છે અને કોઈ તેના છત્રધારક-તેના પર છત્ર ધારણ કરાવતાર થાય છે. એજ પ્રમાણે કેઈ જીવ ભૂખથી પીડાય છે, જે પોતાના કર્માંની વિચિત્રતાને કારણે દિવસ અને રાત ભીખને માટે ભટકે છે તે પણ ભીખમાં કઇ પામતા નથી તથા એક જ સમયે વ્યાપાર કરનાર વહાણુમાં સફર કરતા વેપારીએ માંથી એક સકુશળ સમુદ્રપાર કરે છે અને બીજો સમુદ્રમાં જ ડૂબી જાય છે. એ બધા વિચિત્ર કાચનું કારણુ ક જ છે, કના સિવાય બીજું કંઇ પણ લાગતું નથી.
શકા-પૂર્વીકૃત વિચિત્ર કા` સ્વભાવથી જ થાય છે તેથી કને તેનું કારણ માનવુ' તે બ્ય છે. સમાધાન-તમે સ્વભાવને વિચિત્ર કાર્યાનું કારણ કહેા છે. તા બતાવા કે સ્વભાવ શુ' છે? તે કોઈ વસ્તુ છે કે વસ્તુ ? જો અવસ્તુ હોય તો તેનાથી કાર્યની ઉત્પત્તિ થઇ શકતી નથી. જે વસ્તુ હોય તે મૂત' છે કે અમૂત ? જો
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कल्प
मञ्जरी
टीका
अग्निभूते: कर्मविषयक
संशयनिवारणम् । ॥सू०१०७॥
॥३८५॥
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सूत्रे
श्रीकल्पमञ्जरी टीका
किमपि घटपटादि कार्य कारणेन विनाकारणाभावे नो सम्पद्यते, अपितु कारणेनैव किमपि कार्य सम्पद्यते
अतो जीवानां राजत्वादि विचित्रकार्याणां कारणतया कर्म स्वीकरणीयमेवेति पर्यवसितम् । इत्थं कर्मणः सत्ताश्रीकल्प
मुपपाद्य सम्पति मृामयोः कर्मजीवयो सम्बन्धं युक्तवा साधयति-'अह च' इत्यादि।
अथ न-यथा मूर्तस्य घटस्य अमूर्तेन आकाशेन सह सम्बन्धः, तथा तेन प्रकारेण मूर्तस्य कर्मवः अमूर्तेन ॥३८६|| जीवेन सह सम्बन्धो बोध्यः । तथा च-मूतैः नानाविधैः अनेकप्रकारैः मद्यैर्जीवस्य उपघातः वैरुप्यादि दोषजननेन
हानिर्भवति । तदुक्तम्है या अमूर्त ? अगर अमूर्त है तो तुम्हारे मतानुसार वह मूर्त कार्यों को उत्पन्न नहीं कर सकता । अगर मूर्त है तो फिर वह कर्म हो है। इसी बात को मन में लेकर कहते हैं-'नो खलु' इत्यादि।
घट पट आदि कोई भी कार्य कारण के विना उत्पन्न नहीं हो सकता। कारण से ही कोई कार्य उत्पन्न होता है। अतः जीवों के राजा होने आदि विचित्र कार्यों का कारण कर्म स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार कर्म की सत्ता सिद्ध कर के अब मूर्त कर्म और अमूर्त जीव का संबंध युक्ति से सिद्ध करते हैं-'अह य' इत्यादि।
जैसे मूर्त घट का भमूर्त आकाश के साथ सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार मूर्त कर्म का अमूर्त जीव के माथ संबंध समक्ष लेना चाहिए। अथवा-जैसे नाना प्रकार के मूत मद्यों के द्वारा जीव का उपवात (विरूपता
आदि दोषों की उत्पत्ति होने से हानि) होती है। कहा भो हैઅમૂર્ત હોય તે તમારા મત પ્રમાણે તે મૃર્ત કાર્યોને ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી. જે મૂર્ત હોય તે પછી તે કમ જ छ । पातने मनमा सधन ४ -"नो खलु" त्याह
ઘટપટ આદિ કઈ પણ કાર્ય કાર વિના ઉત્પન્ન થઈ શકતાં નથી. કારણથી જ કે કાર્ય ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી છે જેનું ના થવું આદિ વિચિત્ર કાર્યોનું કારણ કમને સ્વીકારવું જોઈએ. આ પ્રમાણે કમની સત્તા સિદ્ધ કરીને हुये भूत भने भभूत' ने संबध युटितथी सिद्ध २-"अहय” त्यादि
જેમ મૂર્ત ઘડાનો અમૃત આકાશની સાથે સંબંધ હોય છે, એ જ પ્રમાણે મૂત કમને અમૂર્ત જીવની સાથે છે. સંબંધ સમજી લેજો જોઈએ. અથવા જેમ વિવિધ પ્રકારના મૂત મધોના દ્વારા જીવને ઉપધાત. (વિરૂપતા આદિ દેની ET पत्ति थपथी हानी) य छ. ४धुं ५५ छ
अग्निभूते कर्मविषयक
संशय- .. निवारणम्।
॥३८६॥
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श्रीकल्प
सूत्र 1132911
漫漫,真真是減演演變
वैरुप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो,
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विद्वेशो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्वसद्भिः ।
९
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११ १२ १३ १४.
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पारुष्यं नीचसेवा कुल-बल-तुलना धर्म - कामा-र्थहानिः, कष्टं भोः ! षोडशैते fretarकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ १॥ इति ।
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अपि च-- श्रूयते च ऋषिर्मयात् प्राप्तज्योतिर्महातपाः । स्वर्गाङ्गनाभिराक्षसो मूर्खवन्निधनं गतः ॥ १ ॥ किचेह बहुनोक्तेन प्रत्यक्षेणैत्र दृश्यते ।
दोषोऽस्य वर्तमानेऽपि तथा भण्डनलक्षणः || २ || इति ।
“चैरुप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो, विद्वेषो ज्ञाननाश: स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः । पारुष्यं नोचसेवा कुलबलतुलना धर्मकामार्थ हानि,
कष्टं भोः ! षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः " ॥ १ ॥ इति ।
अर्थात्- 'मदिरापान से हानिकर यह सोलह दोष उत्पन्न होते हैं - विरूपता १, नाना प्रकार की व्याधियाँ २, स्वजनों के द्वारा तिरस्कार ३, कार्य-काल की बर्बादी ४, विद्वेष ५, ज्ञान का नास ६, स्मरण-शक्ति और बुद्धि की हानि ७, सज्जनों से अलगाव ८, रूखापन ९, नीचों की सेवा १०, कुल ११, बल १२, तुलना १३, धर्म १४, काम १५, और अर्थ १६, की हानि" । और मी कहा है
वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो, विद्वेषो ज्ञाननाश: स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः ।
पारुष्यं नीचसेवा कुल-बल- तुलना धर्मकामार्थहानिः,
कष्टं भोः ! षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ इति ।
એટલે કે દિરા પીવાથી આ સેાળ હાનિકારક ઢાષો ઉત્પન્ન થાય છે. (૧) વિરૂપતા (૨) વિવિધ પ્રકારની व्यधियो (3) स्वनो द्वारा तिरस्४२ (४) अर्थ अजनी मरणाही (५) विद्वेष (६) ज्ञाननो नाश (७) स्भरशु शक्ति ने बुद्धिनी हानि (८) सनोथी विटायालु (८) उठोरया (१०) नीय बोडीनी सेवा (११) भुज, (१२) जण, (१३) तुझना (१४) धर्म, (१५) अम रमने (१६) अर्थनी हानी जीप उडेल छे है
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कल्प
मञ्जरी टीका
अग्निभूतेः कर्मविषयक संशय
मिवारणम् ।
॥सू०१०७॥
॥३८७॥
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श्रीकल्पमुत्रे
कल्पमञ्जरी टीका
॥१८८॥
अग्निभतेः
म एतद्विषये विशेषजिज्ञासुभिरस्मदाचार्यचरणकृताचारमणिमञ्जूषा व्याख्याविभूषिस्य दशवकालिक सूत्रस्य पञ्चमेऽध्ययने
द्वितीयोद्देशस्य 'सुरं वा मेरगं वात्रि' इत्यादि षट् त्रिंशत्तमादि गाथानां व्याख्यावलोकनीयेति। _____तथा-मूर्तेर्नानाविधैरोषधैरमूर्तस्य जीवस्य अनुग्रहः रोगनाश वलपुष्टयादिजमनेनोपकारो यथा भवति, तथैव अमूर्तस्य जीवस्य तेन प्रकारेणैव अमूर्तस्य जीवस्य मूर्तेन कर्मणा उपघातोऽनुग्रहश्च ज्ञातव्य इति। एवं दृष्टान्तो पन्यासपूर्वकं कर्मास्तित्वमुपदाग्निभूतेः परममान्यप्रमाणपदर्शनाय पाह-'अह य' इत्यादि।
"श्रूयते च ऋषिर्मयात्, प्राप्तज्योतिर्महातपाः । स्वर्गागनाभिराक्षिप्तो मूर्खवन्निधनं गतः ॥१॥ किं चेह बहनोक्तेन, प्रत्यक्षेणेव दृश्यते ।
दोषोकस्य वर्तमानेऽपि तथा भण्डनलक्षणः" इति । अर्थात-मुना जाता है कि ज्ञान-ज्योतिमाप्त और महातपस्वी ऋषि भी मदिरा पान के कारण अप्सरात्रों से अभिभूत होकर मुखे मनुष्य की तरह मौत के ग्रास बने ॥१।। इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ? मद्यपान की बुराई तो वर्तमान में भी प्रत्यक्ष देवी जाती है। शराबी सर्वत्र भांड़ा जाता है । २॥
इस विषय में विशेष जिज्ञासुओं को मेरे गुरू पूज्य आचार्य श्री घासीलालजी महाराज की बनाई हुई आचारमणिमंजूषा नामक टोकापाले दशवकालिक सूत्र के पाँचवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक की 'सुरं वा मेरगं वाधि' इत्यादि छत्तीसों आदि गाथाओं की व्याख्या देख लेनी चाहिए।
श्रूयते च ऋपिर्मद्यात् प्राप्तज्योतिर्महातपाः । स्वर्गाङ्गनाभिराक्षिमो मूर्खवनिधनं गतः ॥१॥ कि चेह बहुनोक्तेन प्रत्यक्षेनैव दृश्यते ।
दोषोऽस्य बर्नमानेऽपि तथा भाण्डनलक्षणः ।।२।। इति । એટલે કે સાંભળવામાં આવે છે કે જ્ઞાન-તિ પ્રાપ્તઅને મહા તપસ્વી ઋષિ પણ મદીરા પાનને કારણે અપ્સરાઓથી અભિભૂત થને મુખ મનુષ્યની જેમ તને કેળીયો બન્યા છે. ૧ છે
આ વિશે વધારે કહેવાથી શું લાભ ? મદિરાપાનની બુરાઈ તે વર્તમાન કાળમાં પણ પ્રત્યક્ષ દેખાય છે. શરાબી બધે નિંદાય છે. (નોંધ:--આ વિષયમાં વિશેષ જિજ્ઞાસા ધરાવનારે પૂજય આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે રચેલ 'मायामणि भा'नामनीटापा शासि सूत्रन पायमांमध्यनना भी शनी 'सुरवा मेरगं वावि' त्याहि છત્રીસમી આદિ ગાથાઓની વ્યાખ્યા જોઈ લેવી જોઈએ.—પ્રકાશક) તથા જેમ વિવિધ પ્રકારની ચૂત પાસેથી
कर्मविषयक
संशयनिवारणम् । ॥मू०१०७॥
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कल्प.
श्रीकस.
सूत्रे '३८९।
मञ्जरी
टीका
अथ च तव परममान्येषु वेदपदेवपि वेदेष्वपि कुत्रापि कस्मिश्चिदपि स्थले कर्मणो निषेधो नास्ति । तेन वेदेषु कर्मणो निषेधाभावेन 'कर्म अस्ति इति सिद्धम् । एवम् उक्तरूपेण प्रभुवचनेन कर्मास्तित्व-विषयके संशये छिन्ने सति हृष्तष्टा अतिप्रसन्नः सन् अग्निभूतिरपि इन्द्रभूतिवत् पश्चशतशिष्यसहितः प्रवजित श्रीमहावीरहस्ताद् दीक्षितो जातः ॥सू०१०७||
मूलम्-तए णं वाउभूई विप्पो 'दुवेवि भायरा पव्वइय' ति जाणिऊण चिंतेइ-सच्चमेसो सवण्णू दीसइ, जप्पभावेण ममं दोषि भायरा तयंतिए पन्चइया। अश्रो अहमवि तत्थ गमिय सयमणोगयं तज्जीव तच्छरीरविसयं संसयं अवाकरेमित्ति कटु सो वि पंचसयसिस्सपरिवुडो पहुसमीवे समणुपत्तो पहू तं नामसंसयनिद्देसपुव्वं वयइ-भो वाउभई ! तुज्झमणंसि संदेहो वट्टइ-जं सरीरं तं चेव जीवो। नो अन्नो तव्वइरित्तो कोवि जीवो पचक्खाइपमाणेण तं उवलंभाभावा । जलबुब्बुओ विच सो सरीराओ उपज्जए सरीरे चेव विलिज्जइ । अो नत्थि अन्नो कोधि पयत्यो जो परलोए गच्छेज्जा। "विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इच्चाइ वेयायणंपि अत्तत्थे माणं । एत्थ वुबइ सयपाणिणं देसभी जीवो पञ्चक्खो अत्थि चेव, जओ सोमइआ इगुणाणं पच्चक्ख
तथा-जिस प्रकार नाना प्रकार की मृत औषधों से अमृत जीव का अनुग्रह होता है-रोग का नाश होता है, बल-पुष्टि आदि की उत्पत्ति होकर उपकार होता है, उसी प्रकार अमूर्त जीव का मूर्त कर्म से भी उपघात और अनुग्रह जान लेना चाहीए। इस प्रकार दृष्टान्तों से कर्म का अस्तित्व दिखला कर अग्निभूति के परममान्य प्रमाण को प्रदर्शित करने के लिये कहते हैं
इस के सिवाय तुम्हारे अतिशय मान्य वेदों में भी, किसी भी स्थान पर कर्म का निषेध नहीं है। वेदो में कर्म का निषेध न होने से भी कम है' यह सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रभु केकथन से कर्म के अस्तित्व संबंधी संशय के दूर हो जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए अग्निभूति ने भी, इन्द्रभूति के समान, पाँच सौ शिष्यों सहित श्रीमहावीर प्रभु के हाथ से दीक्षा ग्रहण करली ॥०१०७॥ અમૂર્ત જીવને અનુગ્રહ થાય છે-રોગને નાશ થાય છે, બળ-પુષ્ટિ આદિની ઉત્પત્તિ થઈને ઉપકાર થાય છે, એજ પ્રમાણે અમૂર્ત જીવને કમથી પણ ઉપઘાત અનુગ્રહ જાણી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે દૃષ્ટાંતથી કમનું અસ્તિત્વ બનાવીને અગ્નિભૂતિના પરમ માન્ય પ્રમાણને પ્રદર્શિત કરવાને માટે કહે છે–આ સિવાય અતિશય. માન્ય વેદમાં પણ કોઈ પણ સ્થાને કમને નિષેધ નથી. વેદોમાં કમને નિષેધ ન હોવાથી પણ “કમ છે” તે સિદ્ધ થાય છે.
આ પ્રમાણેના પ્રભુના કથનથી હર્ષ અને સંતોષ પામેલ અગ્નિભૂતિએ પણ, ઇન્દ્રભૂતિની જેમ, પાંચસે શિષ્ય स.थे श्री महावीर प्रभुने ७थे ६क्षा अ६५ ४१ (सू० १०७)....
अग्निभूते कम दीक्षाग्रहणम् ।
सू०१०७।।।
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॥३८९
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श्री कल्प
कल्पमञ्जरी
॥३९॥
टीका
तणेणं संविऊ अत्यि। सो जीवो देहिदियेहितो पुहं अस्थि । जओ जया इंदियाई नस्संति तया सो त तं इंदियत्यं सरइ, जहा-एसो सदो मए पुव्वं मुणिओ, एवं वत्थुनायं मए पुवं दिटुं, एसो गंधो मर भग्घाओ, एसो महुर तित्ताइरसो मए पुवं आसाइओ, एसो मिउकक्खडाइफासो मए पुव्वं पुट्ठो मासी । एवं पयारो जो अणुहबोहवइ, सो जीवं विना कस्स होजा? तुज्झ सत्थे वि धुत्तं
"सत्येन लभ्यस्तपसा होपब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धीयं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः" इति । जइ सरीराओ अन्नो कोवि जीवो न हवेज ताहे "सत्येन तपसा ब्रह्मचर्यण एपलभ्यः" इइकई संगच्छेज । अओ सिद्धं सरीराओ भिन्नो अन्नो जीवो अत्थित्ति । एवं पहुकयगुणेणं छिन्नसंसओ पडिबुद्धो वाउभूई सयसिस्सेहिं पब्बइओ |मू०१०८॥
छाया-ततः खलु वायुभूतिर्विमः 'द्वावपि भ्रातरौ प्रव्रजितौ' इति ज्ञात्वा चिन्तयति-सत्यम् , एष सर्वज्ञो दृश्यते, यत्प्रभावेण मम द्वावपि भ्रातरौ तदन्तिके प्रनितौ। अतोऽहमपि तत्र गत्वा स्वमनोगतं तज्जीवतच्छरीरविषयं संशयमपाकरोमीति कृत्वा सोऽपि पश्चशतशिष्यपरिवृतः प्रभुसमीपे समनुप्राप्तः । प्रभुस्तं नामसंशयनिर्देशपू वदति-भो! वायुभूते! तयमनसि संदेहो वर्तते-यत् शरीरं तदेव जीवः, नान्यस्तद्वयतिरिक्तः
मूल का अर्थ-तब वायुभूति ब्राह्मग ने 'मेरे दोनों भाई दीक्षित हो गये' यह जान कर विचार कियासचमुच हो वह सर्वज्ञ प्रतीत होते हैं, जिस सर्वज्ञता के प्रभाव से मेरे दोनों भाई उनके पास दीक्षित हुए हैं। अत एव मैं भी वहाँ जाकर अपने मनमें स्थित 'तज्जीव-तच्छरीर' अर्थात् वही जीव और वही शरीर हैं- भिन्न नहीं, इस विषय के संशय का निवारण करूँ। इस तरह विचार कर वह भी अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास पहुँचे। प्रभु ने उन के नाम का और संशय का उल्लेख कर के कहा-हे वायुभूति ! तुम्हारे
મૂળને અચં-ત્યારબાદ વાયુભૂતિ બ્રાહ્મણે જાણ્યું કે, ભાઈઓ દીક્ષિત થઈ ગયા છે. આ સાંભળી તેને પ્રતીતિ થઈ કે જરૂર ‘વદ્ધમાન સ્વામી” સર્વજ્ઞ જણાય છે. તેની સર્વજ્ઞતા ને લીધે, મારા બંને ભાઈએ, સંસારથી વિરક્ત थया, भाट भाशय पण
त्यांच्यात अने तथी नितु ! भारे संशय सेवा छे'तज्जीवतच्छरीर' अर्थात
शरीर छ, भने शरीर छत छ. माने भिन्न नदी पर 30 छ, આવી શંકાનું સમાધાન “વર્ધમાન” પાસે જઈ કરી આવું! આ પ્રમાણે વિચારગ્રસ્ત બની નિર્ણય કર્યો, અને પોતાના પાંચસે શિવ સમુદાય સાથે પ્રભુની સમીપે અ વવા તે રવાના થયા. પ્રભુની સમીપ આ વી, યથાસ્થિત સ્થાન પર બેઠા. ત્યાર પછી પ્રભુએ, તેમની ઉપર દૃષ્ટિ કરી, તેમના ખરા નામનું સંબોધન કરીને તેમના મનમાં “જીવ-અને શરીર
वायुभूते तज्जीवतच्छरीर विषय
मंशय निवारणम् । ॥सू०१०८
॥३९०॥
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श्रीकल्पमूत्रे ॥३९१॥
獎賞演真了
कोsपि जीवः, प्रत्यक्षादि प्रमाणेन तदुपलम्भाभावात् । जलबुदबुद इव स शरीराद् उत्पद्यते शरीर एव विलीयते । अतो नास्ति अन्यः कोऽपि पदार्थो यः परलोके गच्छेत् । विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इत्यादि वेदवचनमपि अत्रार्थे मानम् । अत्रोच्यते - सर्वप्राणिनां देशतो जीवः प्रत्यक्षोऽस्त्येव, स स्मृत्यादि गुणानां प्रत्यक्षत्वेन संविदस्ति स जीवो देहेन्द्रियेभ्यः पृथगस्ति । यतों तदा इन्द्रियाणि नश्यन्ति तदा स तं तमिन्द्रियार्थं स्मरति, यथा एष शब्दों मया पूर्व श्रुत १ एतद् वस्तु जातं मया पूर्व दृष्टम् २, एष गन्धों मया पूर्वमाघातः ३, एव मधुरतितादिरसो मया पूर्वमास्वादितः ४, एष मृदुकर्कशादि स्पर्शो मया पूर्व स्पष्ट आसीत् । एवं प्रकारो योऽनुभवो मन में सन्देह है कि जो शरीर है वही जीव है । शरीर से भिन्न कोई जीव नहीं है, क्यों कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उसका उपलंभ नहीं होता। जल के बुलबुले के समान जीव शरीर से उत्पन्न होता है । और शरीर में हो विलीन हो जाता है । अत एव उससे भिन्न कोई पदार्थ नहीं जो परलोक में जाता हो । 'विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादि ( पूर्वोल्लिखित) वेद - वचन भी इस विषय में प्रमाण है । अर्थात् पाँचभूतों से यह आत्मा उन होता है, और पाँच भूता में ही मिल जाता है ।
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इस का समाधान यह है सभी प्राणियों को देश से जीव का प्रत्यक्ष होता ही हैं। वह जीव स्मृति आदि गुणों का साक्षात् ज्ञाता है। वह जीव शरीर तथा इन्द्रियों से भिन्न है; क्यों कि जीव, इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी, इन्द्रियों द्वारा जाने हुए विषयों का स्मरण करता है। जैसे वह शब्द मैंने पहले सुना था; वे वस्तुएँ मैंने पहले देखी थीं; वह गं मैने पहले सूची थी; वह मधुर और तिक्त रस मैंने पहले चखा था; वह એકજ છે' એ ઘાળાઈ રહેલી શંકા, સભા સમક્ષ પ્રગટ કરી. “ તારા મનમાં સ ંદેહ છે કે, જીવ અને શરીર જુદા નથી, પણ એકજ છે. ક રણ કે પ્રત્યક્ષ આદિ પ્રમાણુ વડે, તેની ઉપલબ્ધિ થઈ શકતી નથી જલના પરપોટા સમાન, જીવ શરીરમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને તેમાંજ વિલય થાય છે. શરીરથી કોઈ ભિન્ન પદાથ છે જ નહિ. કે પરલેાકમાં तो होय ! 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इत्यादि मा देहवाउयो वडे, तु तारी मान्यता ने पुष्टि आपे छे. "
ઉપર દર્શાવેલી વાયુભૂતિની માન્યતાને નિર્મૂળ કરવા, ભગવાન સમાધાન આપે છે કે, સર્વાં પ્રાણીઓ જુદા જુદા ભાસે છે, તે તેનું પ્રમાણુ છે. જીવમાં સ્મૃતિ વિગેરે ગુણૢા રહેલા છે, તે તેની બીજી પ્રત્યક્ષતા છે. ઇન્દ્રિયા અને શરીરની રચના ભિન્ન ભિન્ન જણાય છે, તે પણ તેના પુરાવા છે. કારણ કે ઇન્દ્રિયાના નાશ થતાં પણુ, ઇન્દ્રિયા Jain Education દ્વારા જણાયેલ વિષયોની સ્મૃતિ રહે છે. પહેલા સાંભળેલા શબ્દો, પહેલી દેખાએલ વસ્તુઓ, અગાઉ સૂંધાએલ પદાર્થો,
कल्प
मञ्जरी टीका
वायुभूतेः
तज्जीव
तच्छरीर
विषय
संशय
निवारणम् ।
||०१०८ ||
॥३९१॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥३९२॥
वायुभूतेः
भवति, सो जीवं विना कस्य भवेत् !। तब शास्त्रेऽप्युक्तम्-सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः" इति । यदि शरीराद् अन्यः कोऽपि जीवो न भवेत्तदा "सत्येन तपसा ब्रह्मचर्येण एपलभ्यः" इति कथं संगच्छेत ? अतः सिद्धं शरीराद भिन्नोऽन्यो जीवोऽस्तीति । एवं प्रभुवचनेन छिन्नसंशयः प्रतिबुद्धो वायुभूतिरपि पंचशतशिष्यः प्रवजितः ॥०१०८||
टीका-'तए णं वाउभूई विप्पो' इत्यादि । ततः खलु वायुभूतिविमः द्वावपि भ्रातरौ प्रबजितौ" इति ज्ञात्वा मनसि चिन्तयति-तथाहि-"सत्यम् , एषः श्रीमहावीरस्वामी सर्वज्ञो दृश्यते, यत्प्रभावेण मम द्वावपि कोमल या कठोर आदि स्पर्श मैंने पहेले छुआ था। इस प्रकार का जो स्मरण होता है, वह जीव के सिवाय किस को होगा? तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है
'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं
पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः' इति । ___अर्थाद-'यह नित्य, ज्योति स्वरूप और निर्मल आत्मा, सत्य, तप और ब्रह्मचर्य के द्वारा उपलब्ध __ होता है, जिसे धीर तथा संयमवान् यति ही देखते हैं।' यदि जीव पृथक न हो तो यह कथन कैसे संगत
होगा? इस से सिद्ध है कि जीव शरीर से भिन्न और स्वतंत्र है। प्रभु के इस प्रकार के कथन से वायुभूति का र संशय छिन्न हो गया। वह प्रतिबुद्ध हुआ और पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षित हुआ ।मु०१०८॥
___टोका का अर्थ-'मेरे दोनों भाई महावीर स्वामी के समीप दीक्षित हो गये ऐसा जान कर वायुभूति ब्राह्मण मन ही मन विचार करते है-सच है,-श्रीमहावीर स्वामी सर्वज्ञ मालूम होते हैं। यह उनकी सर्वज्ञता का ही ખટામિડા વિગેરે ચાખેલા રસો, કઠોર-સુંવાળા વિગેરે સ્પર્શાએલા સ્પર્શે, જ્યારે યાદ કરીએ છીએ ત્યારે સ્મરણમાં भाव. मा २२५' ७ सिवायन थाय? तभा शालमा झुछ है-"सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः" ति मा नित्य यति २१३५ निभा આત્મા, સત્ય-તપ અને બ્રહાચર્ય દ્વારા ઉપલબ્ધ થાય છે, ને જે આત્માને ધીર-વી૨ સંયમવાન થતિ જોઈ શકે છે. જો જીવ જુદે ન હોય તે, આ કથન કેવી રીતે સંગત ગણાય? આથી સિદ્ધ થાય છે કે, જીવ શરીરથી ભિન્ન અને સ્વતંત્ર છે. પ્રભુના આવા પ્રવચનથી વાયુભૂતિને સંશય દૂર થયે. ને પ્રતિબંધ પામી, પ્રભુ આગળ દીક્ષા લેવા તત્પર થયે ભગવાને પણ ચગ્ય અવસર જાણે, તેમને પાંચસો શિષ્યની સાથે દીક્ષા આપી દીક્ષિત કર્યા. (સૂ૦૧૦૮)
વિશેષાર્થ–ઈન્દ્રભૂતિ અને અગ્નિભૂતિની પ્રતિષ્ઠા ઘણી હતી, છતાં તેઓ પણ પ્રભાવિત થઈ સંસારથી વિરક્ત ન બન્યા, માટે આ પુરુષ કોઈ સામાન્ય શક્તિને નથી, પણ અદ્ભૂત વિજ્ઞાનને ધારક હોવો જોઈએ. જેમ મારા બંને
तज्जीवतच्छरीर विषय संशय निवारणम् दीक्षाग्रहणं
मू०१०८॥
॥३९२॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ।। ३९३ ।।
TECT ETER
भ्रातरौ तदन्तिके प्रव्रजितौ । अतोऽहमपि तत्र गत्वा स्वमनोगतं तज्जीवतच्छरीर विषयं = जीव- शरीर क्यविषयकं संशयम् अपाकरोमि, इति कृत्वा = इत्येतद्विचिन्त्य सोऽपि = वायुभूतिरपि पञ्चशतशिष्यपरिवृतः प्रभुसमीपे समनुप्राप्तः= समागतः । प्रभुः = वायुभूतिं नामसंशयनिर्देशपूर्व = तन्नाम तन्मनोगतसंशयनिर्देशपुरस्सरं वदति - भो वायुभूते । तव मनसि संदेहो वर्तते यत् शरीरं तदेव जीवः । तद्व्यतिरिक्तः = शरीर भिन्नः अन्यः कोऽपि जीवों नास्ति, प्रत्यक्षादिप्रमाणेन तदुपलम्भाभावात् । जलबुद्बुद इव जलबुद्बुदवत् स जीवः शरीरात् उत्पद्यते उत्पन्नः सन् शरीरे एव विलीयते = विलीनो भवति । अतो नास्ति अन्यः = शरीरातिरिक्तः कोऽपि पदार्थः = जीवपदार्थः, यः परलोके गच्छेत् ? । 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादि विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येव अनुविनश्यदि- इति वेदवचनमपि अत्रार्थे शरीरजीवैक्यविषये मानं=प्रमाणम् । अयं भावः - विज्ञानघनो = जीव एतेभ्यो प्रभाव है कि मेरे दोनों भाई उनके समीप दीक्षित हो गये हैं। अत एव मैं भी उनके पास जाकर अपने मन के ' वही जीव वही शरीर' अर्थात् जीव और शरीर विषयक एकता संबंधी संशय का समाधान प्राप्त करूँ । इस प्रकार विचार कर वायुभूति भी अपने पास शिष्यों को साथ लेकर भगवान् के समीप आये । भगवान् ने वायुभूति के नाम और संशय का उल्लेख करते हुए कहा - हे वायुभूति ! तुम्हारे मन में यह सन्देह पैठा हुआ है कि- 'जो शरीर है वही जीव है। शरीर से भिन्न जीव अलग नहीं है, क्यों कि प्रत्यक्ष यदि किसी भी प्रमाण से जीव की प्रतीति नहीं होती। जैसे जल का बुद्बुद जल से ही उत्पन्न होता है और जल में लीन हो जाता है, जल से अलग उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, इसी प्रकार जीव भी शरीर से उत्पन्न होता है और शरीर में हो विलीन हो जाता हैं । अतः शरीर से भिन्न कोई जीव पदार्थ नहीं है जो मृत्यु के पश्चात् परलोक में जाय । 'विज्ञानघन ही इन पृथ्वी आदि भूतों से उत्पन्न होकर उन्हीं में लीन हो जाना है' यह वेद-वाक्य भी जीत्र और शरीर की एकता के विषय में प्रमाण है ।
ભાઇઆની અને અમારા બધાની જે જે શંકાએ અમને મુઝવે છે, તે બધી શાંકાએ અનુક્રમે નિમૂ ળ થતી જાય છે. જીવનું અસ્તિત્વ અને કર્મનુ' હાવાપણું, આ બન્ને શ'ક આ અમારા મનમાં વતતી હતી, તેનું નિવારણ આ વ્યક્તિએ સચોટ કથન દ્વારા કરી આપ્યા પછી, મને પણ ઘેાડી ઘેાડી શ્રદ્ધા તેના પર આવતી જાય છે. માટે હું પણ મારી શંકા તેની આગળ પ્રદર્શિત કરી, તેના ખુલાસો મેળવું! આવુ વિચારી તે પ્રભુ પાસે ગયા એટલે શરીર અને જીવ' એકજ છે. તે જાતની તેમની શંકા, પ્રભુએ સ્વયં પ્રગટ કરી. આથી વાયુતિને પોતાના મની વાત એમણે કેવી રીતે काशी ते मे विस्मय थयो. लगवाने, भवानी स्मृति, लज्ञासा, थिङीष, लगमिषा, माशांसा विगेरे गुना
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無無無無無無
कल्प
मञ्जरी
टीका
वायुभूतेः
तज्जीव
तच्छरीर विषय
संशय
निवारणम् । ||सू०१०८||
॥३९३॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
॥३९४॥
टीका
भूतेभ्यः पृथिव्यादिभ्य उत्थाय-उत्पद्य पुनस्तान्येव भूतानि अनुविनश्यति-तेषु भूतेष्वेव विलीनो भवतीति । अत्रोच्यते अस्मिन् विषये प्रतिविधीयते-सर्वपाणिनां जीवो देशतः प्रत्यक्षोऽस्त्येव, यतः स जीवः स्मृत्यादिगुणानां स्मृति-जिज्ञासा-चिकोर्षा-जिगमिषा-ऽऽशंसादिनां गुणानां प्रत्यक्षस्वेन संवित्-ज्ञाता अस्ति । सः-जीवः देहेन्द्रियेभ्यः पृथक् अस्ति, कुतः ? इत्याह-'यतः' इत्यादि-यतः इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि यदा नश्यन्ति-व्याधिशस्त्रादिमिहिन्यन्ते तदा-इन्द्रियोपघातावस्थायाम् सः-आत्मा तं तम् पूर्वमनुभूतं इन्द्रियार्थ-शब्दादिकं स्मरति । एतदेव विशघते-'जहे' त्यादिना, यथा एषः-शब्दः मया पूर्वपार श्रुतः। तथा-एतत् इदं वनभवनवसनादि वस्तुजातं मया पूर्व दृष्टम् । तथा एषः गन्धः सुरभिर्दुरभिर्वा मया पूर्वम् आघातः। तथा-एषः मधुरतिक्तादिरस: मया पूर्व आस्वादितः ४ । तथा-एषः मृदुकर्कशादि स्पर्शः मया पूर्व स्पृष्टः ५ आसीदिति सर्वत्र संयोजनीयम् , एवं प्रकारः अनुभवो यो भवति सोऽनुभवो जीवं विना कस्य भवेत् ? अपि तु जीवातिरिक्तस्य न कस्यापि, अनुभवस्य जीवकर्तृत्वादिति । पुनरप्याह-'तुझ सत्येवि' इत्यादि । तव शाखेऽपि उक्तमस्ति, यत्-'सत्येन
तुम्हारे इस सन्देह का समाधान इस प्रकार है-सब जीवों को अंशतः जीव प्रत्यक्ष होता ही है; क्यों कि जीव स्मृति आदि अर्थात्-स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा, जिगमिषा, आशंसा आदि गुणों का प्रत्यक्ष रूप से ज्ञाता है। वह जीव देह से और इन्द्रियों से भिन्न हैं, क्यों कि जब व्याधि या शस्त्र आदि के आपात वगैरह किसी कारण से इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं, तब इन्द्रियों के उपचात की स्थिति में भी आत्मा पहले अनुभव किये गये शब्द आदि विषयों का स्मरण करता है। इसी कथन का स्पष्टीकरण करते हैं-जैसे 'वह शब्द मैंने पहले (श्रोत्र इन्द्रिय का उपघात होने से पूर्व) सुना था ! वह वन मवन वसन (वस्त्र) आदि वस्तु-समूह मैंने पहले देखा था। वह सुगंध या दुर्गध मैं ने पहले संघी थी। वह मीठा का तिक्त रस मैंने पहले
आस्वादन किया था। वह कोमल या कठोर स्पर्श मैंने पहले छुआ था। इस प्रकार का जो स्मरण होता है, वह स्मरण जीव के सिवाय और किसे होगा? जीव के सिवाय और किमी को नहीं हो सकता, क्यों कि अनुभव का कर्ता जीव ही है। और भी कहते हैं-तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है कि-'यह नित्य, ज्योतिर्मय और ઉલ્લેખ કરી સમજાવ્યું કે, આ બધા ગુણે, જડ શરીરમાંથી ઉત્પન્ન થઈ શકતા નથી, કારણ કે આ ગુણે, ચેતનાશક્તિવાળા અને ચેતના શક્તિથી ભરપૂર છે, ત્યારે જડમાં ચેતના શક્તિ બિલકુલ નથી, તે આ ગુ જડમાંથી કેવી રીતે ઉદભવ પામી શકે? માટે આ ગુણોવાળી જીવતત્વ, શરીરતત્વથી, તદ્દન ભિન્ન અને નિરાળું છે. ઈન્દ્રિય
દ્વારા મેળવેલ જ્ઞાનપણુ, ઇન્દ્રિય લુપ્ત થવા છતાં, મરણમાં રહી શકે છે આ સ્મરણ શક્તિ જીવની છે, જડ છે . શરીરની નથી માટે જીવ અને કાયા બન્ને ભિન્ન છે.
वायुभूते तज्जीवतच्छरीर विषय संशय निवारणम्। सू०१०८॥
॥३९४॥
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श्री कल्प
सूत्रे ॥३९५॥
कल्पमञ्जरी टीका
लभ्यस्तपसा शेष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः इति । अयं भावः-एपः अयम् नित्य-नित्यः, छान्दसवानपुंसकत्वम् , शाश्वतः, ज्योतिर्मयः ज्योतिः स्वरूपः, शुद्ध निर्मल: आत्मा सत्येन तपसा ब्रह्मचर्येण लभ्यः पाप्यः यम् आत्मानम् धीराः धैर्यवन्तः जितेन्द्रिया इत्यर्थः, संयतात्मानः कूर्मवत् तत्तदिद्रियार्थेभ्यो निगृहीतमनसः, यतयः मुनयः पश्यन्ति साक्षात्कुर्वन्तीति । यदि शरीरात् अन्या-पृथक् जीवो न भवेत् , तदा 'सत्येन लभ्यस्तपसा शेष ब्रह्मचर्येग' इति वेदवचनं कथं संगच्छेत ? अतः शरीराद भिन्नो जीवोऽस्ति' इति सिद्धं भवति । एवं प्रभुषचनेन छिन्नसंशयः-पतिबुद्धो वायुभूतिरपि पञ्चशतशिष्यैः सह प्रवजितः । मू०१०८॥ निर्मल आत्मा सत्य से, तप से तथा ब्रह्मचर्य से उपलब्ध होता है; जिसको धैर्यवान-जितेन्द्रिय तथा संयतात्मा-हम की तरह इन्द्रियों के विषयों से मन को निगृहीत करने वाले-मुनि ही साक्षात् कर सकते हैं। यदि शरीर से पृथक् जीव न हो तो वेद का यह वाक्य किस प्रकार संगत होगा? इस से सिद्ध है कि शरीर से भिन्न जीव की सत्ता है। इस प्रकार प्रभु के कथन से वायुभूति का संशय हट गया। वह अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये मू०१०८।।
તમારા શાસ્ત્રોમાં પણ કહ્યું છે કે સંયત આમાએ પિતાની ઇન્દ્રિયને કાચબાની માફક ગોઠવી તેમજ મનને વિષયે મ.થી ખેચી લઈને પિતાને સાક્ષાત્કાર કરવો જોઈએ. આ બધું પ્રત્યક્ષ પ્રમાણુરૂપ હેવાથી જીવ અને કાયા જુદા છે એમ સિદ્ધ થાય છે. ભગવાનની આવી અપૂર્વ વાણીનું શ્રવણ થતાં વાયુતિના અંતર્ગત ભાવે કેવી રીતે પલટાયા તે કહે છે કે
હ જીવ એક રૂપે ભાસે છે અજ્ઞાન વડે; ક્રિયાની પ્રવૃત્તિ પણ તેથી તેમ થાય છે. જીવની ઉપત્તિ અને રેગ શેક દુખ મૃત્યુ દેહને સ્વભાવ જીવપદમાં જણાય છે. એ જે અનાદિ એક રૂપને મિથ્યાત્વ ભાવ; જ્ઞાનિના વચને વડે દૂર થઈ જાય છે. ભાસે જડ ચૈતન્યને પ્રગટ સ્વભાવ ભિન્ન
બન્ને દ્રવ્યો નિજ નિજ રૂપે સ્થિત થાય છે. on
જડ ને ચૈતન્ય અને દ્રવ્યને સ્વભાવ ભિન્ન;
मार वायुभूते दीक्षाग्रहणम्। मू०१०८॥
॥३९५०
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श्रीकल्प
कल्प. मञ्जरी
॥३९६॥
मलम्-तए णं वियत्ताभिहो माहणो वि विमरिसइ-जं इमे वेयत्तयी सरूवा महापंडिया तओ वि भायरा छिन्न णिय णिय संसया पध्वइया, अओ इमो कोवि अलोइओ महापुरिसो पडिभासइ, तयंतिए अहमवि गच्छामि, जइ सो ममं संसयं छेइस्सइ, ताहे अहमवि पन्वइस्सामित्ति कटु सो वि पंचसयसिस्सपरिवार परिवुडो पहुसमीपे समागच्छइ । पहूय तं नामसंसयनिहेसपुव्वं आभासेइ-भो वियत्ता ? तुज्झमणंसि-'पुढवीआइ पंचभूया न संति, तेसि जा इमा पडीई जायइ सा जल चंदान मिच्छा, एयं सव्वं जगं मुण्णं वट्टइ "स्वप्नोपमं वै सकलं" इचाइ वेयत्रयणाओ त्ति-संसओ वट्टइ सो मिच्छा । जइ एवं ताहे भुवणपसिद्धा सुमिणा सुमिण-पयत्था कहं दीसंतु ? | वेएसु वि वुत्तं-"पृथिवी देवता-आपो देवता" इच्चाइ, अओ पुढवी आइ पंचभूयाइ संति ति सिद्धं । एवं सेाचा निसम्म छिन्नसंसओ वियत्तो वि पंचसयसीसेहिं पहुसमीवे पन्वइओ । मू०१०९॥
छाया-ततः खलु यताभिधो ब्राह्मणो विमृशति,-यद इमे वेदत्रयीस्वरूपा महापण्डितात्रयोऽपि भ्रातरश्छिन्न निज निज संशयाः पत्रजिताः, अतोऽयं कोऽपि अलौकिका महापुरुषः प्रतिभासते, तदन्तिके अहमपि
टीका
व्यक्तस्य पञ्चभूता
स्तित्व
विषय
संशय निगरणम् दीक्षाग्रहण
॥सू०१०९॥
સુપ્રતિતપણે બન્ને જેને સમજાય છે સ્વરૂપ ચેતન નિજ જડ છે સંબંધ માત્ર અથવા તે સેવ પણ પદ્રવ્યમાંય છે. એ અનુભવને પ્રકાશ ઉલાસિત થયે; જડથી ઉદાસી તેને આત્મવૃત્તિ થાય છે. કાયાની વિચારી માયા, સ્વરૂપે શમાયા એવા,
નિગ્રન્થને પંથ ભવ અંતને ઉપાય છે.” ઉપર પ્રમાણેની અંતરધારા વાયુષતિની મને ભૂમિકા ઉપર ઉડી આવતાં, આનંદથી તેનું હૈયું ફેલાવા લાગ્યું. પર તે સમય મત્રને પ્રમાદ નહિ કરતાં ભગવાનની પાસે પાંચસે શિષ્યો સાથે દીક્ષા ગ્રહણુ કરી.
" नु २१ पण, त यतi समाय;
તેમ વિભાવ અનાદિને, જ્ઞાન થતાં દૂર થાય.” આ પ્રમાણે વાયુભૂતિ જાગૃત થતાં સ્વાનુભવ કરવા તરફ વળ્યા; અને પિતાની અમ–પરિણતિને પિતાનામાં मला analaiman ढीत भन्यो. (सू०१०८)
તે
॥३९६॥
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे
मञ्जरी
|३९७॥
टीका
गच्छामि । यदि स मम संशयं छेत्स्यति तदाऽहमपि प्रजिष्यामीति कृत्वा सोऽपि पंचशतशिष्यपरिवारपरिवृतः प्रभुसमापे समागच्छति । प्रभुश्च तं नामसंशयनिर्देशपूर्वमाकारयति-भो व्यक्त! तब मनसि पृथिव्यादिपञ्चभूतानि न सन्ति, तेषां या-इयं प्रतीतिर्जायते सा जलचन्द्रवन्मिथ्या । एतत्सर्व जगत् शून्यं वर्तते-"स्वप्नोपम वैसालम्" इत्यादि वेदवचनादिति संशयो वर्तते । स मिथ्या । यद्येवं तदा भुवनप्रसिद्धाः स्वमास्वप्नपदार्थाः कथं दृश्येरन् ? वेदेष्वप्युक्तम्-"पृथिवी देवता आपो देवता" इत्यादि । अतः पृथिव्यादिपञ्चभूतानि सन्तीति सिद्धम् । एवं श्रुत्वा निशम्य छिन्नसंशयो व्यक्तोऽपि पञ्चशतशिष्यैः प्रभुसमीपे प्रव्रजितः ॥०१०९॥
मूल का अर्थ-'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् व्यक्त नामक ब्राह्मण ने विचार किया-'यह वेदत्रयी के समान महापण्डित तीनों भाई अपने-अपने संशय का निवारण कर के दीक्षित हो गये हैं। मालूम होता है, वह कोई अलौकिक महापुरुष हैं, मैं भी उन महापुरुष के पास जाऊँ। अगर वह मेरे संशय को दर कर देगें तो तो मैं भी दीक्षित हो जाऊँगा। ऐसा सोच कर वह भी पाँचौ शिष्यों के साथ प्रभु के समीप गये। प्रभु ने उन्हें नाम और संशय का उल्लेख करके कहा-हे व्यक्त! तुम्हारे मनमें यह संशय है कि पृथ्वी आदि पाँ भूत नहीं हैं, उनकी जो प्रतीति होती है से जल-चन्द्र के समान मिथ्या है। यह समस्त जगत् शून्य रूप है। वेद में भी कहा है-'स्वप्नोपमं वै सकलम् ' इति । अर्थात्-सब कुछ स्थान के समान है। तुम्हारा यह विचार मिथ्या है। अगर ऐसा हो तो तीन लोक में प्रसिद्ध स्वम-अस्वप्न गंधर्वनगर आदि पदार्थ क्यों दिखाई
भूज। अर्थ -'तएणं, त्या. त्या व्यकृत नामना या ब्राह्मणे विचार या भु य : સમાન મહાપંડિતો તેમજ સગાસહારે પિતા પોતાના સંશોનું નિવારણ કરી દીક્ષિત થયા ! આ ઉપરથી માલુમ પડે છે કે તે કોઈ અલૌકિક પુરુષ છે ! હું પણ તેમની પાસે જાઉં! કદ:ચ ને મારી શંકાને નિવારશે તે હું પણ તેમની પાસે દીક્ષા-પર્યાય ધારણ કરીશ. આમ વિચારી તે પણ પાંચસે શિષ્યો સાથે પ્રભુ પાસે પહોંચી ગયે.
પ્રભુએ તેના નામ અને સંશયનો ઉલ્લેખ કરી કહ્યું કે “હે વ્યક્ત ! તારા મનમાં એ સંશય છે કે થિવી અઢિ પાંચ ભક્ત હશે કે નહિ ? અને જે હોય તે પણ જળ-ચંદ્ર સમાન મિથ્યા છે, તેમજ આ સમસ્ત જગત शू-य ३५ छ. भां घुछ 3-"स्वप्नोपमं वै सकलम्" तमाम स्वभवत् छ. मा मधी मामतामा तने શંકા ઉઠી છે તે વાત ઠીક છે ને ? વ્યક્ત જવાબ વાળે કે “હા, તેમજ છે, મને ઉપરની વાતેમાં ગાઢ શંકાઓ વતે છે. ભગવાને તેના મનનું સમાધાન કરવા કહ્યું કે “આ તારી માન્યતા ભૂલભરેલી છે. જે તારા કહેવા મુજબ આ બધુ ત્રણે લોકમાં દેખાતા નગર આદિ તેમજ અન્ય પદાર્થો સ્વપ્રવત્ છે; તે તે નજરોનજર કેમ દેખાય છે?
व्यक्तस्य पञ्चभूतास्तित्व विषयक
संशय निवारणम् । दीक्षाग्रहणं
०१०९॥
॥३९७
તેની
F
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सूत्रे
टीका
टीका-'तए णं वियत्ताभिहो' इत्यादि । ततः वायुभूतिप्रव्रजनानन्तरं खलु व्यक्ताभिधः-व्यक्तनामा ब्राह्मणो विमृशति-विचारयति यत् इमे=इन्द्रभूत्यग्निभूति-वायुभूतयः वेदत्रयीस्वरूपाः ऋग्यजुस्सामेति वेदत्रयी तत्स्वरूपा
महापण्डिताः त्रयोऽपि भ्रातरः छिन्न निज निज संशया:-विगत स्वहृद्गतसन्देहाः प्रबजिताः । अतोऽयं कोऽपि श्री कल्प- अलौकिका लोकोत्तरो महापुरुषः प्रतिभासते । तदन्तिके अहमपि गच्छामि । यदि सः मम संशयं-संदेहं
मञ्जरी छेत्स्यति । तदा अहमपि प्रजिष्यामि इति कृत्वा इति परामृश्य सोऽपि पञ्चशत-शिष्यपरिवारपरिवृतः सन् ॥३९८॥
प्रभुसमीपे समागच्छति, प्रभुश्च तम्=व्यक्तं नामसंशयनिर्देशपूर्वमाभाषते-सम्बोधयति, तथाहि-भो व्यक्त ! तवा देते हैं ? वेदो में भी कहा है-'पृथिवी देवता आपो देवता' अर्थात्-'पृथिवी देवता है, जल देवता है, बार इत्यादि । 'अतः पृथिवी आदि पाँच भूत हैं, यह सिद्ध हुआ। ऐसा मुन कर और हृदय में धारण करके, जिनका संशय निवृत्त हो गया है, ऐसे वह व्यक्त भी पांच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के साथ दिक्षित हो गये ॥मू०१०९॥
टीका का अर्थ-नायुभूति के दीक्षित हो जाने के पश्चात् व्यक्त नामक ब्राह्मण ने विचार किया-इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति, यह तीनों महापंडित तीन वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद-स्वरूप थे। व्यक्तस्य यह तीनों भाई अपने-अपने मनोगत संदेहों के दूर कर के दीक्षित हो गये। इस कारण यह-महावीर- पश्चभूताकोई लोकोत्तर महापुरुष प्रतीत होते हैं। में भी उन के निकट जाऊँ। यदि उन्हों ने मेरी शंका का निवा
स्तित्व
विषयक रण कर दिया तो मैं भी दीक्षा अंगीकार कर लूँगा। इस प्रकार विचार कर व्यक्त पण्डित भी अपने पांच सौ म अन्तेवासियों को साथ लेकर भगवान् के निकट पहूँचे। भगवान् ने व्यक्त का नामोच्चारण करते हुए तथा
निवारणम् । म उनके मन का संशय प्रकाशित करते हुए इस प्रकार संबोधन किया-हे व्यक्त ! तुम्हारे अन्तःकरणमें ऐसा
॥०१०९॥ हमा ५ अर्बुछ है-'पृथ्वी देवता, आपो देवता' मा पृथ्वी से देवता छ भने ५ यता छ; તેથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે પૃથ્વી આદિ પંચમહાભૂતે વિદ્યમાન છે. વેદવાકયને આ સવળો અર્થ મળતાં તેની મિયા માન્યતા અદશ્ય થઈ ગઈ, તેને પણ સંસાર ઉપર વૈરાગ્ય આવતાં પાંચસે શિષ્યોની સાથે પ્રભુની સમીપે तेहीक्षित थयो. (सू०१०६)
વિશેષા–ઇન્દ્રભૂતિ-અગ્નિભૂતિ અને વાયુભૂતિ ત્રણે સગા સહકર હતા તેમજ પંડિત તરીકે પણ તેઓ પંકાતા હતા. તેઓ વેદત્રયી સ્વરૂપ હતા આ ત્રણ પ્રખર પંડિતે પણ વર્ધમાન સ્વામી આગળ નમી પડ્યા, ને જ્યારે તેમનું કથન તેમને ॥३९८॥ ખરેખર ગળે ઉતર્યું હશે ત્યારે જ આમાથ સાધવા તેઓ નિકળી પડયા હશે ! આથી એમ સમજાય છે કે “મહાવીર’
લકત્તર પુરુષ હોવા જોઈએ એમ પ્રતીતિ થાય છે. હું પણ તેમની નિકટ જાઉં, અને આ સંસારની બળતરાને અંત પર લાવું આવું વિચારી ‘વ્યક્ત” પંડિત પણ પિતાનેં દઢ થયેલ માન્યતાનું નિરાકરણ શોધવા પાંચસે શિષ્યો સાથે ઉપડયો.
संशय
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Soal 3
1 3
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मीर
श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे
SARAL
॥३९९॥
मञ्जरी टीका
मनसि-पृथिव्यादि पञ्चभूतानि न सन्ति, तेपां-पृथिव्यादिभूतानां या इयम् प्रतीतिः अनुभवो जायते सा जल- चन्द्रवत्-जले प्रतिबिम्बितश्चन्द्र इस मिथ्या यतः एतत्-दृश्यमानं सर्व निःशेषं जगत् शून्यं वर्तते । तत्र प्रमाणमुपन्यस्यति'स्वप्नोपमं वै सकलम्' इति । सकलं दृश्यमानं सर्व स्वप्नोपमम् स्त्रमदृष्टपदार्थवत् अस्ति वैनिश्चयेन, न तु सत्यमित्यर्थः, इत्यादि वेदवचनात् , इति इत्थं तब मनसि संशयो वर्तते । सः मिथ्या अस्ति । तथाहियदि एवं-पृथिव्यादिभूतपश्चकाभावः स्यात् , तदा भुवनप्रसिद्धाः सकललोकप्रख्याताः स्वप्नास्वामपदार्थाः-स्वमावस्थायां गजतुरगादयः, अस्त्रमावस्थायां गन्धर्वनगरादयश्चपदार्थाः कथं-केन प्रकारेण दृश्येरन् दृष्टिविषयतयासंशय है कि-पृथिवी आदि पाँच भूतों की सत्ता नहीं है। इन पाँचों भूतों की जो प्रतीति होती है, वह जल में परिविम्बित होनेवाले चन्द्रमा की प्रतीति की तरह भ्रान्ति मात्र है। यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत शुन्य है। इस विषय में प्रमाण देते हैं-'स्वमोपमं वै सफलम्' अर्थात्-'निश्चय ही सभी कुछ स्वम के सदृश है ।' जैसे स्त्रम में विविध प्रकार के पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु उनकी पारमार्थिक सता नहीं है, उसी प्रकार जगत में दिखाई देने वाले विविध पदार्थों की भी वास्तविक सत्ता नहीं है। वेद के उक्त वाक्य से इसी मत का सिद्धि होती है।
तुम्हारा यह संशय मिथ्या है। अगर पाँचों भूतों का अभाव हो और यह जगत् शून्य-रूप हो तो लोक में प्रसिद्ध स्वम अस्वप्न के अर्थात्-स्वप्न के गजतुरगादि, अस्वप्न के गन्धर्व नगरादिपदार्थ क्यों अनुभव में आवे? - ભગવાને તેના મનમાં રહેલી શંકાને પિતાના જ્ઞાન દ્વારા જાણી લીધી અને કહ્યું કે “તારામાં એ જાતને અભિપ્રાય વરતી રહ્યો છે કે પૃથ્વી આદિ પાંચ તે આ જગતમાં છેજ નહિ, પરંતુ જેમ જળમાં ચંદ્રનું પ્રતિબિંબ દેખાય છે, ને તે જળને ચંદ્રમાજ છે એમ આપણે માનીએ છીએ તેમ ચંદ્રમાની પ્રતીતિ માફક આ પૃથ્વી આદિનું દેખાવું તે પણ એક બ્રાનિ: માત્ર છે! આ જગત શૂન્ય રૂપજ છે ! બ્રાન્તિપણે આ સર્વ પદાર્થો દેખાય છે, બ્રાન્તિપણેજ સગા સહોદર લેખાય છે. વાસ્તવિક રીતે તે આ વધુ દેખાય છે તે ક૯પનાનેજ સંસાર છે. “કપનાથી જ ઉ થયે છે અને કપના ખસી જતાં શૂન્યપણું જ ભાસે છે જેમ સ્વપ્નમાં સકલ પદાર્થો દૃષ્ટિગોચર થાય છે અને ભેગવાય છે તેને વાસ્તવિક માની તેને રસ ચૂસાય છે, મિત્ર દુશમનને ભેદ જણાય છે. પણ સ્વપ્ન ખસી જતાં કાંઈ પણ દેખાતું નથી આ એક ભ્રમ હતો એમ જાણી આપણે નિદ્રામાં સૂઈ જઈએ છીએ અગર નિદ્રામાંથી જામૃત થઈએ છીએ તેમ આ સંસાર પણ એક દીધ સ્વનું છે એટલે જાગીને જોતાં અગર મૃત્યુ વખતે આમાનું કે આપણને જણાતું નથી તેથી મેં આ ખોટું જોયું તેવો ભ્રમ ઉપસ્થિત થાય છે.”
व्यक्तस्य पञ्चभूतास्तिस्य
विषय
संशय निवारणम् । ।।सू०१०९||
॥३९९॥
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श्री कल्प
सूत्र ॥४०॥
मञ्जरी
ऽनुभवविषयाः क्रियेरन् ?, किंच तवाभिमते वेदेऽपि पृथिव्यादिभूवपश्चकास्तित्वम् उक्तम् , तथाहि-'पृथिवी देवता, आपो देवता' इत्यादि अतः वेदेऽपि पृथिव्यादिभूतपश्चकास्तित्वाभिधानात् पृथिव्यादिपञ्चभूतानि सन्ति, इति सिद्धम् । एवं श्रुत्वा-सामान्यतः श्रवणगोचरीकृत्य निशम्य-ऊहापोहाभ्यां विशेषतो हृदिनिश्चित्य, छिन्नसंशयो
कल्पव्यक्तोऽपि पञ्चशतशिष्यैः सह, प्रभुसमीपे प्रबजितः ॥०१०९॥
टीका आशय यह है कि-तुम कहते हो कि यह सब जल-चन्द्र के समान भ्रान्त हैं; किन्तु कहीं न कहीं पारमार्थिक होने पर ही दूसरी जगह उसकी भ्रान्ति होती है। आकाश में वास्तविक चन्द्र न होता तो जल में चन्द्रमा का भ्रम भी न होता। जगत् के पदार्थों को स्वप्नदृष्ट पदार्थों के समान कहना भी ठीक नहीं, क्यों कि जागृत अवस्था में वास्तविक रूप से पदार्थों का दर्शन न होता तो स्वप्न में वह कैसे दिखाई देते ? जिस वस्तु का कार व्यक्तस्य सर्वथा अभाव है, वह स्वप्न में भी नहीं दीखती। इसके अतिरिक्त स्वमदृष्ट पदार्थों में अर्थक्रिया नहीं होती,
पञ्चभूताअत एव उन्हें कथंचित् असत् मान भी लिया जाय तो भी जागृत अवस्था में दिखाई देने वाले जिन पदार्थों में
स्तित्व
विषय अर्थक्रिया होती है, उन्हें किस प्रकार मिथ्या-असत् माना जा सकता है ? इसके अतिरिक्त तुम्हारे प्रमाणभूत माने हुए वेद में भी तो पाँच भतो का अस्तित्व कहा हैं। यथा-पृथिवी देवता है, जल देवता है, इत्यादि ।
निवारणम् ભગવાને તેને ઉર પ્રમાણેને મત જાણી લઈ સમજાવતાં કહ્યું કે આ તારી બધી માન્યતા સત્યથી વેગળી છે
दीक्षाग्रहणं છે. સ્વપ્નમાં તે કોઈ પણ પદાર્થોની હયાતી જણાતી જ નથી, ત્યારે આ જગતમાં તું ઘેડા, હાથી, મહેલ, મહેલાત, નદી, તળાવ વિગેરે અનેક પદાર્થો યથા તથા જુએ છે. જે આકાશમાં ચંદ્ર ન હોય તે શું તે જળમાં દેખાઈ શકે? સ્વપ્નમાં પણ જે જે પદાર્થો વાસ્તવિક રીતે મેજુદ છે તેથી જ તે પદાર્થો સ્વપ્નમાં ભારે . જે પદાર્થોનું અસ્તિત્વ ન હોય તે તે પદાર્થો કેવી રીતે દેખાઈ શકે? સ્વપ્નમાં જે જે પદાર્થો આભાસ તરીકે જણાય છે તે આભાસી પદ છૅમાં અWકિયા હોતી નથી, તેથી સ્વપ્ન બાદ તેઓ તેને જણાતાં નથી, ત્યારે સંસારના સર્વ પદાર્થો અર્થ ક્રિયા સંપન્ન છે માટે જ તે દેખાવે રેગ્ય છે અને તેમનું અસ્તિત્વપણું વાસ્તવિક રીતે ઢકેલું છે. “આભાસ” એ મૂળ વસ્તુ નથી, ખાલી પ્રતિબિંબ છે માટે તે અર્થ ક્રિયા સંપન્નથી સર્વ પદાર્થ અથક્રિયા સંપન્ન છે. કંઈ ને
॥४०॥ કંઈ પરિણામ ક્રિયા સહિત જ સર્વ પદાર્થ જોવામાં આવે છે. જે જે કઈ ક્રિયા છે તે તે સર્વ સફળ છે, નિરર્થક નથી. આવી અર્થ ક્રિયાને લીધે તેના રૂપ, રંગ, વર્ણ, કદ વિગેરેમાં ફેરફાર થયા કરે છે. માટે જ પૃથ્વી આદિ પર્થો જમજનક નથી પણ વાસ્તવિક છે. વેદમાં પણ આ પદાર્થોને દેવની કક્ષામાં મૂકયા છે. કારણ કે આ પદાર્થોની .
संशय
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श्रीकल्प
मूलम् - चउरो वि पंडिया पहुसमीचे पव्त्रइयति सुणिय उवज्झाओ सुहम्माभिहो पंडिओ वि नियसंशयछेयण पंवसयसिस परिवुडो पहुस्स अंतिए समागओ । पहू य तं कहेइ-मो मुहम्मा ! तुज्झमसि एयारिसो संस - जो इह भवे जारिसो होइ सो परभवेवि तारिसी चैव होउं उप्पज्जइ, जहा सालिववणेणं साली चेव सूत्रे उप्पज्जंति, नो जवाइयं । “पुरुषो वै पुरुषत्वमश्रुते पशव: पशुत्वम्" इचार वेयत्रयणाओत्ति । तं मिच्छा - जो ॥४०१ ॥ मद्दवाइ गुणजुत्तो मणुम्साउं बंध सो पुगो मणुस्सत्तणेण उप्पज्जइ । जो उ मायामिच्छाइ गुणजुत्तो होइ सो मसणेण ने उप्पज्जर, तिरियत्तणेण उप्पज्जइ । जं कहिज्जइ - ' कारणानुसारं चेत्र कज्जं हवई' तं सच्चं किंतु अणेण एवं न सिम्झइ जं जहारूत्रो वट्टमाणभवो तहारूवो चेव आगामी भवो भविस्सर, जओ वट्टमाणाणागय भवाणं परोप्परं कज्जकारणभावो नस्थि अओ 'अणागयभवस्स कारण माणभवो श्रत्थि इमो पञ्चओ भमभरिओ, वट्टमाणभवे जस्स जीवस्स जारिसा अज्झवसाया हवंति तयज्झवसायरूत्रकारणाणुसारमेव जीवाणं अणायभवस्स ऊबंध, तं बद्धाउरूवकारणमणुसरीय चेत्र अणागयभवो भवः ।
जइ कारणानुसारमेव कज्जं होज्जा तया गोमयाइओ विछियाईणं उप्पत्ती नो संभवेज्जा, इयहणंपि न संग, जओ गोमयाइयं विछियाईणं जीवुप्पत्तीए कारणं नस्थि तं तु केवलं तेसि सरीरुप्पत्तीए चेत्र कारणं, मोमयाsarartner fifछया सरीररूवकज्जस्स य अणुरुवया अस्थिचेव, जओ गोमयाइए रूवरसाइ पुग्गलाणं जे गुणाति चेत्र गुणाविंछियाइ सरीरेविउबलब्भंति । एवं कज्जकारणाणं अणुरूत्रयासीगारे, वि एयं न सिज्झइ जंजहा पुब्बभवों तहेव उत्तरभवो वि होइ । वेएस वि वृत्तं "श्रृंगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" इच्चाइ । अओ भवंतरे वेसारिरसं भवइ जीवस्सति सिद्धं । एवं सोऊण नद्वसंदेहो सोवि पंचसयसिस्सेहिं पहुसमीवे पत्र ||५||०११०॥ जब वेद में भी पाँचों भूतों का अस्तित्व प्रतिपादन किया गया हैं तो यह सिद्ध हुआ कि पाँच भूत हैं। यह कथन सामान्य रूप से श्रवण करके और ऊहापोह द्वारा विशेषरूप से हृदय में निश्चित करके व्यक्त भी संशय निवृत्त होने पर पांचसौ शिष्यों के साथ भगवान् के समीप प्रत्रजित हो गये ॥ - १०९ ॥ શક્તિ એટલી બધી હાય છે કે તેને માનવી દૈવી શક્તિ તરીકે ઓળખે છે એટલા માટે જ આ પાંચ મહાભૂનાની પછવાડે ‘ધ્રુવતા' શબ્દ મૂકયા છે. આ પદાર્થો પેાતાની શિક્ત દ્વારા ગમે તેવું રૂપાંતર કરી શકે છે. અરે એક શુમત્રમાં તીવ્ર શક્તિ રહેલી છે, તો સ્મુધાની તેા વાત જ કયાં રહી ? આથી આ પાંચ ભૂતા સ્થસિદ્ધ થાય છે. આવું' અપૂર્વ સામર્થ્ય જડ દ્રવ્યે માં હોય છે તેવું કથન મહાવીર સ્વામીના સ્વય`મુખેથી સાંભળતાં તેમના શબ્દોમાં પણ પાંચસો શિષ્યાની સાથે દીક્ષિત થયા. (સ્૦૧૦૯)
“ વ્યક્ત ને શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ ને
તે
海鮮
有機獸淇淇淇淇淇滋滋
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MERO
कल्प
मञ्जरी
टीका
धर्मणः
समानभव विषय
संशयनिवारणम्
दीक्षाग्रहणं
च ।
॥सू०११०॥
॥४०१॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
सूत्रे ॥४०॥
।
टीका
मुधर्मणः . समानभव
छाया-'चत्वारोऽपि पण्डिताः प्रभुसमीपे प्रव्रजिताः' इति श्रुत्वा उपाध्यायः सुधर्मामिधः पण्डितोऽपि निजसंशयच्छेदनार्थ पश्चशतशिष्यपरितृतः प्रभोरन्ति के समागतः। प्रभुश्च तं कथयति-भो सुधर्मन् ! तव मनसि एतादृशः संशयो वर्तते य इह भवे यादृशो भवति स परभवेऽपि तादृश एव भूत्वोत्पद्यते, यथा शालिवपनेन शालयएवोत्पद्यन्ते नो यवादिकम् । “पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवपशुत्वम्" इत्यादि वेदवचनादिति । तन्मिथ्या, यो मार्दवादिगुणयुक्तो मनुष्यायुर्वध्नाति स पुनर्मनुष्यत्वेनोत्पद्यते । यस्तु मायामिथ्यादिगुणयुक्तो भवति स मनुष्यत्वेन नोत्पद्यते, तिर्यक्त्वेन उत्पद्यते । यत् कथ्यते-"कारणानुसारमेव कार्य भवति" तत्सत्यं, किन्तु-अनेन एवं न सिभ्यति ___ मूल का अर्थ-'चउरो वि' इत्यादि । ‘इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति और व्यक्त चारों ही पण्डित दीक्षित हो गये !' यह सुनकर उपाध्याय सुधर्मा नामक पण्डित भी अपने संशयको छेदने के लिए पाँचसौ शिष्यों के साथ प्रभुके पास पहुंचे। प्रभुने उन से कहा-हे सुधर्मन् ! तुम्हारे मन में ऐसा संशय है कि जो जीव इस भव में जैसा होता है, परभव में भी वैसा ही होकर उत्पन्न होता है, जैसे शालि बोने से शालि ही उगते हैं, जौ (यव) आदि नहीं। वेद-वचन भी ऐसा है कि-'पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्' इति । अर्थात्-पुरुष पुरुषत्व को प्राप्त होता है और पशु पशुत्व को ही प्राप्त होता है।'
तुम्हारा यह विचार मिथ्या है। जो मृदुता आदि गुणों से युक्त जोव मनुष्यायु का बन्धन करता है, वह मनुष्य रूप से उत्पन्न होता है। जो तीव्रतर माया-मिथ्यात्व आदि गुणों से युक्त होता है, मनुष्य रूप से उत्पन्न नहि होता, किन्तु तिर्यच रूप से उत्पन्न होता है, यह जो कहा जाता है कि कारण के अनुरूप ही
भूजन अर्थ -"चउरो वि" त्यान्द्रभूति, मनिति, वायुगति भने व्यातये “थारे पारित हीक्षित 25 गया" से સાંભળીને ઉપાધ્યાય સુધર્મા નામના પંડિત પણ પિતાની સંશોના નિવારણ માટે પાંચ શિષ્યોની સાથે પ્રભુની પાસે પહોંચ્યા. પ્રભુએ તેને કહ્યું–હે સુધર્મા ! તમારા મનમાં એ સંશય છે કે-જે જીવ આ ભવમાં જે હોય છે. પરભવમાં પણ તે એજ થઈને જન્મે છે, જેમ શાલિ વાવવાથી શાલિ જ ઉગે છે, પણ જવ આદિ ઉગતા નથી. વેદ-વચન પણ એવું છે કે"पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्." मेटले पुरुषने पुरुषत्व प्राप्त थाय छ भने पशु, पशुत्वने ॥ પામે છે. તમારે આ વિચાર મિથ્યા છે. મૃદુતા આદિ ગુણોથી યુક્ત એ જે જીવ મનુષ્ય આયુના બન્ધ બાધ છે, તે મનુષ્યરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે, જે તીવ્રતર માયા-મિથ્યાત્વ આદિ મુંણેથી યુકત હોય છે, તે મનુષ્યરૂપે ઉત્પન્ન થત નથી પણ સિંચરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. એમ જે કહેવાય છે કે કારણુને અનુરૂપ કાર્ય થાય છે, તે બરાબર છે. પણ
विषय
संशयनिवारणम् । ॥०११०॥
॥४०२॥
જિ
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श्रीकल्प
कल्प
मञ्जरी
॥४०३॥
टीका
सुधर्मणः समानभव
यत्-यथारूपो वर्तमामभवस्तथारूप एव अागामी भवो भविष्यति, यतो वर्तमानाऽऽनामतभवयोः परस्परं कार्यकारणभावों नास्ति, अतः-'अनागतभवस्य कारणं वर्तमान भवोऽस्ति' अयं प्रत्ययो भ्रमभृतः, वर्तमानभने यस्य जीवस्य यादृशा अध्यवसाया भवन्ति तदध्यवसायरूपकारणानुसारमेव जीवानामनागतभवस्यायुर्वध्यते, तद् बद्धा. रूपकारणमनुमृत्यैवानागतभवो भवति ।
'यदि कारणानुसारमेवकार्य भवेत्तदा गोमयादिता वृश्चिकादीनामुत्पत्ति नौं संभवेत्' इतिकथनमपि न संगतं, यतो गोमयादिकं वृश्चिकादीनां जीवोत्पत्तौ कारणं नास्ति, तत्तु केवलं तेषां शरीरोत्पत्तावेव कारणम् , गोमयादिरूप कारणस्य वृश्चिकादि शरीररूपकार्यस्य चानुरूपताऽस्त्येव, यतो गोमयादिके रूपरसादिपुद्गलानां ये गुणा भवन्ति त एवं गुणावृश्चिकादिशरीरेऽप्युपलभ्यन्ते । एवं कार्यकारणयोरनुरूपता स्वीकारेऽपि एतन्न सिध्यति यत्कार्य होता है, सो ठीक है, किन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि जैसा वर्तमान भव है वैसा ही आगामी भव होगा, क्योंकि वर्तमान भव और आगामी भव में परस्पर कार्य कारणभाव नहीं है। अर्थात् आगामी भवका कारण वर्तमान भव है, यह समझना भ्रम पूर्ण है। वर्तमान भव में, जीस जीव के परिणाम-अध्यवसाय जैसे होते हैं, उन्ही अध्यवसाय रूप कारण के अनुसार आगामी भव की आयु बंधती है और बद्ध आयु रूप कारण के अनुसार ही आगामी भव होता है। अगर कारण के अनुसार ही कार्य होता तो गोबर आदि से वृश्चिक आदि की उत्पत्ति संभव न होती। यह कथन भी संगत नहीं है, क्यो कि गोबर आदि, वृश्चिक आदि के जीरकी उत्पत्ति में कारण नहीं हैं, सिर्फ वृश्चिक आदि के शरीर की उत्पत्ति में ही कारण होते हैं। और गोवर आदि रूप कारण तथा वृश्चिक जादि शरीर रूप कार्य में अनुरूपता है ही। गोबर आदि में रूप, रस, आदि पुद्गल के जो गुण होते हैं, वही गुण दृश्चिक आदि के शरीर में भी पाये जाते हैं। તેથી એ સિદ્ધ થતું નથી કે જેવો વર્તમાન ભવ છે, એવો જ આગામી ભવ હશે, કારણ કે વર્તમાન ભવ અને આગામી ભવમાં પરસ્પર કાર્ય-કારણભાવ નથી. એટલે કે આગામી ભવનું કારણુ વર્તમાન ભવ છે, એમ માનવું તે ભ્રમભર્યું છે. વર્તમાન ભવમાં, જે જીવના પરિણામ–અધ્યવસાય જેવા હોય છે, એજ અધ્યવસાયરૂપ કારણને અનુસાર આગામી ભવને આ યુબંધ બંધાય છે. અને આયુબંધના કારણ પ્રમાણે જ આગામી ભવ થાય છે. “જે કારણને અનુસાર જ કાર્ય થતું હોય તે છાણ વગેરેમાંથી વીંછી વગેરેની ઉત્પત્તિ સંભવી ન શકત” આ કથન પણ અસંગત છે. કારણકે છાણ આદિ, વીંછી આદિના જવની ઉત્પત્તિનું કારણ નથી, પણ ફકત વીંછી આદિના શરીરની ઉત્પત્તિના કારરૂપ હોય છે. અને છાણ આદિરૂપ કારણતથા વીંછી આદિ શરીરરૂપ કાર્યમાં અનુરૂપતા છે જ. છાણ આદિમાં ૨૫. રસ, આદિ પુદલતાના જે ગુણ હોય છે, તે જ ગુણ વીંછી આદિનાં શરીરમાં પણ હોય છે. આ
विषय
संशयनिवारणम् । म्०११०॥
॥४०॥
હિમા
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥४०४॥
श्रीकल्पमञ्जरी टीका
यथा पूर्वभवस्तथैवोत्तरभवोऽपि भवति । वेदेष्वप्युक्तम्-"शृगाला वै एष जायते यः सपुरीषो दयते" इत्यादि, अतो भवान्तरे वैसादृश्यमपि भवति जीवस्येति सिद्धम् । एवं श्रुत्वा नष्टसंदेहः सोऽपि पश्चशतशिष्यः प्रभुसमीपे प्रव्रजितः ॥०११०॥
टीका-"चउरोऽवि पंडिया' इत्यादि। "चत्वारोऽपि-इन्द्रभूत्यग्निभूति, वायुभूति, व्यक्तभिधाः पण्डिताः पभुसमीपे प्रव्रजिताः इति श्रुस्वा उपाध्यायः सुधर्माभिधः पण्डितोऽपि निजसंशयच्छेदनार्थ पञ्चशतशिष्यपरितः प्रभोरन्तिके समागतः। प्रभुश्च तं-समागतं सुधर्माणं पण्डितं कथयति भो सुधर्मन् ! तब मनसि एतादृशःअनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपः संशयो वर्तते, तथाहि यो-जीवः इद भवे अस्मिन् जन्मनि यादशम्याग्योनिप्राप्तो भवति, इस प्रकार कार्य-कारण की अनुरूपता स्वीकार कर लेने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि जैसा पूर्व भव है, वैसा ही उत्तर भव भी होता है। वेदोंमें भी कहा है-'शृगालो वै एष जायते यः सपुरीपो दह्यते' इति । अर्थात्-जो मनुष्य मल सहित जलाया जाता है, वह निश्चय ही शृगाल के रूप में उत्पन्न होता है, इत्यादि। इससे सिद्ध है कि भवान्तर में जीव विसदृश रूप से भी उत्पन्न होता है। यह कथन सुनकर सुधर्मा उपा. ध्याय का संशय नष्ट हो गया। वह पाँचसौ शिष्यों के साथ प्रवजित हो गये ॥मू०११०॥
टीका का अर्थ-इन्द्रभूति श्रादि चारों पण्डित प्रभु के समीप प्रवजित हो गये, यह मुनकर उपाध्याय सुधर्मा नामक विद्वान् भी अपने संशय को दूर करने के लिये पाँचसौ शिष्यों को साथ लेकर भगवान् के निकट गये। भगवान् ने अपने समीप आये सुधर्मा पण्डित से कहा-हे सुधर्मन् ! तुम्हारे चित्त में ऐसा संशय है कि-जो जीव इस भव में जिस योनि को प्राप्त है, वह जीव आगामी भव में भी उसी योनिका પ્રમાણે કાર્ય-કારણની અનુરૂપતા સ્વીકારી લેવાથી પણ એ સિદ્ધ થતું નથી કે જેવો પૂર્વ ભવ હોય છે તે આગામી सवय होय छे. वेहोभा ५४ धुं छ-"श्रृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" मे रे मनुष्य भण સાથે જલાવાય છે, તે અવશ્ય શિયાળ રૂપે ઉં૫ન્ન થાય છે ઈત્યાદિ. તેથી સિદ્ધ થાય છે કે બીજા ભવમાં જીવ જુદા રૂપે પણ ઉત્પન્ન થાય છે. આ કથન સાંભળીને સુધર્મા ઉપાધ્યાયને સંશય નાશ પામે. તેમણે પાંચસો શિષ્ય સાથે દીક્ષા લીધી સૂ૦૧૧૦
ટીકાને અથ–ઇન્દ્રભૂતિ આદિ ચારે પંડિતએ પ્રભુની પાસે દીક્ષા લીધી એ સાંભળીને ઉપાધ્યાય સુધર્મા નામના વિદ્વાન પણ પોતાના સંશયને દૂર કરવા માટે પાંચસો શિષ્યની સાથે ભગવાનની પાસે ગયા. ભગવાને પિતાની પાસે આવેલ સુધર્મા પંડિતને કહ્યું–હે સુધમાં ! તમારા મનમાં એ સંશય છે કે જે જીવ આ ભવમાં જે ચાનિ
मुधर्मणः समानभव विषय संशयनिवारणम् दीक्षाग्रहणं
मु०११०॥
॥४०४॥
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ન e na!
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श्रीकल्प.
तु विपरीता पाय:-मनुष्ययोनिमाति, स:-मनुष्यत्वा किन्तु विस
सूत्र
कल्पमञ्जरी टीका
॥४०५॥
मुधर्मणः समानभव
सः-जीवः परभवेऽपि भवान्तरेऽपि तादृश एव-ताशयोनिमानेव भूत्वा उत्पद्यते। यथा-येन प्रकारेण शालिवपनेन शालय एव उत्पद्यन्ते, नतु-तदतिरिक्तं यवादिकम् । अयं तव संशयः-'पुरुषो वै पुरुषत्वनमश्नुते पशवःपशुत्वम्-पुरुषः पुमान् पुरुषत्वं वै पुंस्त्वमेव अश्नुते-पामोति, पशवः चतुष्पदाः पशुत्वं वै-चतुष्पदत्वमेव अश्नुवते= पामुवन्ति, न तु विपरीतां योनिम्-इत्यादि वेदवचनादस्तीति । तत्-तव मतं मिथ्या वत्तते, तथाहि-यो-जीवो मादवादि गुणयुक्तो भवति स मनुष्यायुः मनुष्ययोनियोग्यायुः बध्नाति सः-बद्धमनुष्यायुर्जीवः मनुष्यत्वेन उत्पद्यते । तु-पुनः यो-जीवः, मायामिथ्यादि गुणयुक्तो भवति, स:-मनुष्यत्वेन नोत्पद्यते, अपि तु तिर्यक्त्वेन उत्पद्यते । यत-कथ्यते 'कारणानुसारमेव कारणानुरूपमेव कार्य भवति-तत् सत्यं, किन्तु विसदृशमपि भवति, तथाहिआमतंडुलजलस्य यत्रेकविंशति पर्यन्तं प्रक्षेपः तत्र 'तान्दलिया' इति प्रसिद्धस्य शाकविशेषस्य उत्पत्तिर्जायते यथावा
होकर उत्पन्न होता है। जैसे शालि नामक धान्य बोने से शालि ही उगते हैं, उसके अतिरक्त जौ आदि नहीं म उगते । तुम्हें यह संशय वेदके इस वाक्यके कारण है कि-"पुरुषो वे पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्' निश्चय ही पुरुष पुरुषपन को ही प्राप्त करता है और पशु पशुपन को ही प्राप्त होते हैं।'
तुम्हारा यह मत मिथ्या है. क्यों कि जीव मार्दव (नम्रता) आदि गुणो से युक्त होता है, वह मनुष्य - योनि के योग्य आयु को बाँधता है और मनुष्यायु बांधने वाला मनुष्य रूप में उत्पन्न होता है, किन्तु जो ई जीव माया-आदि गुणों से युक्त होता है, वह मनुष्य रूप से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु तिथंच रूप से
उत्पन्न होता है। जो कहा जाता है कि 'कारण के अनुरूप ही कार्य होता है," वह सत्य है, परन्तु इतने से वर्तमान भवका सादृश्य भविष्यकालिक भव में सिद्ध नहीं होता है। वर्तमान भव, भविष्यत् भव का कारण होता है-यह जो मत है वह भ्रान्तिपूर्ण ही है। वर्तमान भव भविष्यद् भव का कारण नहीं होता है, परन्तु પામ્યો છે, તે જીવ આગામી ભવમાં પણ તેજ નિમાં ઉત્પન્ન થાય છે, જેમ શાલિ નામનું અનાજ વાવવાથી શાલિ જ ઉગે છે, તે સિવાય જવ આદિ ઉગતાં નથી. વેદના આ વાક્યને કારણે તમને એ સંશય થયો છે-- "पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्"-अवश्य पुरुष पुरुषपणाने पाछे गाने पशु पशुपाने पामे छ. તમારે આ મત મિથ્યા છે, કારણ કે જે જીવ માર્દવ (નમ્રતા) આદિ ગુવાળા હોય છે, તે મનુષ્યનિને યોગ્ય આયુ-અબ્ધ બાંધે છે, અને મનુષ્યાયું બાંધનાર મનુષ્ય રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે, પણ જે જીવ માયા-મિથ્યાત્વ આદિ ગુણવાળો હોય છે, તે મનુષ્ય રૂપે ઉત્પન્ન થતું નથી, પણ તિર્યંચ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. કારણને અનુરૂપજ કાય
થાય છે એમ જે કહેવાય છે તે સત્ય છે, પણ એટલાથી વર્તમાન ભવની ભવિષ્યકાળના ભાવ સાથેની સમાનતા આ સિદ્ધ થતી નથી. વર્તમાન ભવ, ભવિષ્યના ભવનું કારણ હોય છે એ જે મત છે તે જામક છે. વર્તમાન ભવ
विषय
संशय निवारणम्
॥४०५॥
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setional
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श्रीकल्पसूत्रे ॥४०६ ||
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वनानिदग्ध वेत्र - बीजात्कदलीकाण्डस्योत्पत्ति भवति अथवा सप्तरात्रौषितं कांस्यपात्रस्थं घृतं सद्यो विषायते इत्यादि) - अपि च वर्त्तमानभवसादृश्यमागामिनि भवे न सिध्यति, यतो वर्त्तमानभवानागतभवयोः कार्यकारणभावो नास्ति । वर्त्तमानमवोऽनागतभवस्य कारणं भवतीति यन्मतं तद् भ्रान्तिपूर्ण मेत्र, परन्तु वर्त्तमानभवे यादृशा अध्यवसाया भवन्ति, तादृशाऽध्यवसायरूप कारणानुसारमेव जीवा अनागतभवसम्बन्धिकमायुर्वध्नन्ति, तदनुरूप एव जीवाना मनागतभवो भवति । किंच कारणानुरूपकार्यस्वीकारे गोमयादितो वृश्चिकादीनामुत्पत्तिर्न संभवेत् इति यदुच्यते, तदभ्यसमीचीनमेव, यतो गोमयादिकं वृश्चिकादीनां जीवोत्पत्तौ न कारणम्, किन्तु तेषां शरीरोत्पत्तावेव कारणम् । गोमयादिरूप कारणस्य, वृश्चिकादि शरीररूप कार्यस्य च आनुरूप्यमस्त्येव यतो गोमयादौ रूपरसादिगानां गुणा भवन्ति त एव गुणा वृश्चिकादि शरीरेष्वप्युपलभ्यन्ते । इत्थं च कार्यकारणयेारानुरूप्यस्वीकारेऽपि यादृशः पूर्ववस्तारा एव उत्तरभवोऽपि भवतीति न सिध्यति । इदं न ममैत्राभिमतम्, अपि तु वेदेऽप्युक्तमस्तिवर्त्तमान भव में जिस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं, उस प्रकार के अध्यवसायरूप कारण के अनुसार, ही ita भविष्यत्कालिक भव सम्बन्धी आयु बाँधते हैं और तदनुसार ही जीवों को भविष्यत्कालिक भव होता है। तथा - कारण के अनुरूप कार्य स्वीकार करने पर गोमय (गोबर) आदि से वृक्ष आदि की उत्पत्ति की संभावना नहीं है, यह जो कहा जाता है, सो भी असंगत है; क्यों कि गोवर आदि वृश्चिकादि के जीव की उत्पत्ति में कारण नहीं है, किन्तु उनके शरीर को उत्पत्ति में ही कारण हैं। गोमयादि रूप कारण और वृश्चिकादि के शरीर रूप कार्य में सादृश्य है ही, क्यो कि गोवर आदि में रूप रसादि पुद्गलों के जो गुण हैं ही गुण वृश्चिकादि शरीर में भी उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार कार्यकारण में सादृश्य स्वीकार करने पर भी 'जैसा पूर्वभव होता है वैसा ही उत्तर भव भी होता है' यह सिद्ध नहीं होता ।
ભવિષ્યના ભવનુ કારણ હાતા નથી પણ વર્તમાન ભવમાં જે પ્રકારના અધ્યવસાય હાય છે, તે પ્રકારના અધ્યવસાયરૂપ કારણુ પ્રમાણે જ ભવિષ્યના લવ સંબંધી આયુ બાંધે છે અને તે પ્રમાણે જ જીવાને ભવિષ્યકાળના ભવ હોય છે. તથા કારણને અનુરૂપ કાર્ય ના સ્વીકાર કરતાં છાણુ આદિથી વીંછી આદિની ઉત્પત્તિની સભવના હાતી નથી, એમ જે કહેવાય છે તે પણ અસંગત છે, કારણ કે છાણ વગેરે વીંછી વગેરેના જીવની ઉત્પત્તિના કારણરૂપ નથી પણ તેમના શરીરની ઉત્પત્તિના કારણરૂપ છે. છાણ આદિ રૂપ કારણુ અને વીંછી આદિનાં શરીરરૂપ કાર્ય માં સાશ્ય (સમાનતા) છે જ, કારણ કે છાણુ આદિમાં રૂપ, રસ આદિ પુખ્તલાના જે ગુણુ છે તેજ ગુણુ વી'છી આદિનાં શરીરમાં પણ હેાય છે. આ પ્રમાણે કાર્ય કરવામાં સાદૃશ્યને સ્વીકારવા છતાં પણ “જેવા na સવ હાય છે તેવા ઉત્તરભવ હાય છે” એ સિદ્ધ થતું નથી. આ કેવળ મારા જ અભિપ્રાય નથી, પણ વેદમાં પણ કહ્યુ છે
JAALAAL
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कल्प
मञ्जरी
टीका
सुधर्मणः
समानभव विषय संशय
निवारणम् । ॥सू०११०॥
॥४०६ ॥
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श्रीकल्प
सूत्रे
॥१०७॥
Pu
"श्रृंगालो वै एष जायते, यः सपुरीषो दह्यते" यः सपुरीषः विष्ठासहितः दह्यते - भस्मी क्रियते सः - श्रृगालो वै= शृगाल एव जायते - इत्यादि, अतो 'भवान्तरे जीवस्य वैसादृश्यं भवति' इति सिद्धम् । एवम् = पूर्वोक्तं श्रीवीरवचनं श्रुत्वा नष्टसन्देहः = छिन्नसंशयः सोऽपि = सुधर्माऽपि पञ्चशतशिष्यैः सह प्रभुममीपे मत्रजितः ||५||० ११०॥
मूलम् — तरणं उवज्झायं मुहम्मं पव्त्रइयं साऊण मंडिओवि अनुसयसीसेहिं परिवुडो पहुसमीचे समणुपत्तो । पहूय तं कहे-भो मंडिया ! तुज्झ मणंसि बंधमोक्खविसओ संसओ वहइ-जं 'जीवस्स बंधो मोक्खो य हवइ न वा । ' ' स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा " इच्चाइ वेयत्रयणाओ जीवस्स न बंधो न मोक्खा । जइ बंधा मन्निज्जइ ताहे सो अगाइओ वा ? पच्छाजाओ वा ? जइ अणाइओ ता सो न छुट्टिज्जइ - जो अाइओ सो अनंताओ हव वियणा । जइ पच्छाजाओ ताहे कया जाओ ? कह छुट्टिन ? ति । तं मिच्छा। लोए जीवा असुहकम्मबंधेण दुहं, सुहकम्मबंधेण सुहं पत्ता दीसंति, सगलकम्मछेण जीवो मोक्खं पावइति लोए पसिद्धं । 'अणाइबंधो न छुट्टिज्जइ' त्ति जं तए कहियं तंपि मिच्छा, जओ लोणस महियाए य जो अणाई संबंधो सो छुट्टिज्जइ चेव । तवसत्थेमुवि' वृत्तं - " ममेति बध्यते जन्तुनिर्ममेति प्रमुच्यते " इच्चाइ । पुणोवि -
" मन एव मनुष्याणां कारणं, बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं, मुक्त्यै निर्विषयं मनः " ॥ १ ॥ अओ सिद्धं जीवस बंधो मोक्खो य हवइति । एवं सोचा विहिमो छिन्न विधु सयसीसेहिं पञ्चइओ ।
इच्चाई |
संसओ पडिबुद्धो मंडिओ
यह केवल मेरा ही अभिमत नहीं है, किन्तु वेद में भी कहा है- "श्रृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" इति । जो मनुष्य विष्ठा सहित जलाया जाता है वह निश्चय ही श्रृंगाल रूप में उत्पन्न होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि भवान्तर में विसदृशता भी होती है। इस प्रकार के श्रीमहावीर के वचन सुनकर सुधर्मा भी छिन्नसंशय हो गये । वह भी अपने पँचसौ शिष्यों के साथ प्रभु के समीप दीक्षित हो गये । ०११० ।। " श्रृगालो व एष जायते यः
थाय छे. तेथी मे सिद्ध थाय छेा दद्यते" ने मनुष्य भग सहित सावाय छे ते यो शियाण ३ये उत्पन्न સાંભળીને સુધર્માના સંશયનુ પણ નિવારણ થઈ ગયુ' તેમણે પણ પેાતાનાં પાંચસો શિષ્યા સહિત પ્રભુ પાસે દીક્ષા
કે ભવાન્તરમાં વિસશતા પણ હેાય છે.
આ પ્રમાણે શ્રી મહાવીરનાં વચના
श्रह ४२ ॥ सू०११०॥
NAGERAGECORA
賞真真真真真真躑
कल्प
मञ्जरी टीका
धर्मणः
दीक्षाग्रहणम् मण्डितस्य
बन्धमोक्ष
विषय संशयनिवारणं
च ।
।। सू० १११ ॥
॥४०७ ॥
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श्रीकल्पसूत्रे
||४०८||
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On 2002
मंडियं पब्ब जियं सोच्चा मोरिय पुत्तो वि नियसंसयछेयणद्वं अध्धुट्ठसयसीसेहिं परिवुडो पहु समीवे पत्ती । तं पिहू एवं चेत्र कहेइ - मो मोरियपुत्ता । तुज्झमणंसि एयारिस संसओ वट्टइ-जं देवा न संति ' का जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्र यम वरुण कुबेरादीन' इइ वयणाओ । तं मिच्छा वेएवि - " स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलेाकं गच्छति" इइ वयणं विज्जइ । जइ देवा न भवेज्जा ताहे देवलेागोपि न भवेज्जा, एवं सह “स्वर्गलोकं गच्छति" इदं वयणं कहं संगच्छेज्जा । एएणं वक्केणं देवाणं सत्ता सिज्झइ । अच्छउ ताव सत्थवयणं, पस्सउ इमाए परिसाए ठिए इंदार देवे । पञ्चकखं एए देवा दीसंति । एवं पहुस्स वयणं सोच्चा निसम्म मोरियपुत्तो छिन्नसंसओ अध्धुद्ध सयसीसेहिं पव्वइओ ॥ ०१११ ॥
छाया— ततः खलु उपाध्यायं सुधर्माणं प्रत्रजितं श्रुत्वा मण्डिकोऽपि अर्द्धचतुर्थशतशिष्यैः परिवृतः प्रभु समीपे समनुप्राप्तः । प्रमुश्च तं कथयति - भो मण्डिक । तत्र मनसि बंधमोक्षविषयः संशयो वर्त्तते, यत् - जीवस्थ बन्धो मोक्ष भवति न वा ? “स एष त्रिगुणो त्रिभुर्न बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा" इत्यादि वेदवचनाज्जीवस्य न बन्धो न मोक्षः । यदि बन्धो मन्यते तदा स अनादिको वा पश्चाज्जातो वा ? यद्यनादिकस्तदा स न छुटयेत “ योऽनादिकः सोऽनन्तकः" इति वचनात् । यदि पश्चाज्जातस्तदा कदा जातः ? कथं
मूल का अर्थ - 'तए णं' इत्यादि । तत्पश्चात् उपाध्याय सुधर्मा को दीक्षित हुआ सुनकर मण्डिक भी साढ़े तीन सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास गये । भगवान् ने मण्डिक से कहा- हे मण्डिक ! तुम्हारे मन में बन्ध और मोक्ष के विषय में संशय है कि जीव को बन्ध और मोक्ष होता है या नहीं ? ' स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा' यह निर्गुण और व्यापक आत्मा न बद्ध होती है न संसरण करती न मुक्त होती है न किसी को मुक्त करती है । इत्यादि वेदवाक्य से न जीव का बन्ध होता है, न मोक्ष होता है। यदि बन्ध माना जाय तो वह अनादि है अथवा पीछे से उत्पन्न हुआ है ? अगर अनादि
મૂળના અથ‘તવ નં’ઈત્યાદિ સુધર્મા નામના ઉપાધ્યાયને અણુગાર થયેલ સાંભળી, મ`ડિક નામના વિદ્વાન બ્રાહ્મણ પણ સાડાત્રણસેા શિષ્યાના પરિવાર સાથે, ભગવાન સમીપ ગયા. તેને સખાધી વાત કરતાં, ભગવાન ખેલ્યા કે, હું માંડિક ! શું તારા મનમાં બધ અને મેક્ષ સ'બધી શંકા છે? જીવ ને બ'ધ-મેાક્ષ હોય કે નહિ ? આ નિર્ગુČણુ અને વ્યાપક આત્મા બધાતેા નથી, સંસારમાં ફરતા નથી તેમજ મુકત પણ હોતા નથી, અને કાઇને મુક્ત पुरी तो नथी. तारा बेहवाश्यां " स एष त्रिगुणो विभु ने बध्यते संसरति वा मुच्यते माचयति वा " આ પ્રમાણે તું કહે છે કે જીવને મેક્ષ કે બંધ હોતા જ નથી. તારા મત એવા છે કે જો અન્ય માનવામાં
कल्प
मञ्जरी
टीका
धर्मणः
दीक्षाग्रहणम् मण्डस्य
बन्धमोक्ष
विषय संशयनिवारणं च ।
।। सू० १११ ॥
॥ ४०८ ॥
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥४०९॥
टीका
छुटयत इति, लोके जीवा असुनकर्मबन्धनेन दुक्ख, शुभकर्मषन्धनेन सुख प्राप्ता दृश्यन्ते, सकलकर्मच्छेदेन
जीवो मोक्षं प्राप्नोतीति प्रसिद्धम् । अनादिबन्धो न छुटयते, इति यत्वया कथितं तदपि मिथ्या। यतो का लोके सुवर्णस्य मृत्तिकायाश्च योऽनादिः सम्बन्धः स छुट्चत एव । तव शास्त्रेऽप्युक्तम्-"ममेति बध्यते जन्तुनिर्ममेति प्रमुच्यते ॥” इत्यादि । पुनरपि
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय विषयासक्तं, मुक्त्यै निर्विषयं मनः" ॥१॥ इत्यादि। अतः सिद्धं जीवस्य बन्धो मोक्षश्च भवतीति । एवं श्रुत्वा विस्मितश्छिन्नसंशयः प्रतिबुद्धो मण्डिकोपि अर्द्धहै तो वह कभी छूटना नहीं चाहीये, क्यों कि यह कहा गया है कि 'जो अनादि होता है, वह अनन्त होता मार है।' अगर बाद में उत्पन्न हुआ तो कब उत्पन्न हुआ? और कैसे छूटता है ? यह मत मिथ्या है, क्यों कि __ लोक में जीव अशुभ कर्म-बंध से दुःख को और शुभ कर्म-बंध से सुख को प्राप्त करते देखे जाते हैं। यह भी प्रसिद्ध है कि समस्त कर्मों का नाश होने से जीव मोक्ष प्राप्त करता है।
अनादि बंध छूटता नहीं, ऐसा तुमने कहा सो भी मिथ्या है, क्यों कि लोक में स्वर्ण ओर मृत्तिका का जो अनादि संबंध है, वह छूटता ही है। “ममेति वध्यते जन्तुनिर्ममेति प्रमुच्यते " इति । अर्थात्-“ममत्व के हा कारण जीव को बन्धन होता है और ममता से रहित जीव मोक्ष पाता है" इत्यादि और भी कहा है
"मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयो।
बन्धाय विषयासक्तं, मुक्त्यै निर्विषयं मनः" ॥१॥ આવે તે આ “બને અનાદિ માનવ પડે, તે તેને અંત હોઈ શકે નહિ. કારણ કે જે બાબત અનાદિ હોય, તે અનન્ત હોવી જોઈએ. અગર જીવને બંધ આદિવાળે માને છે, કયારે બંધની ઉત્પત્તિ થઈ? તેમજ તે કયારે અને કેવી રીતે છૂટી શકે? ઉપર પ્રમાણેને તારે મત પ્રવતી રહ્યો છે પરંતુ તે મત મિથ્યા છે. કારણ કે સંસારમાં જે સુખ ભગવે છે. તે શુભ કમને બંધ છે; અને દુખ ભોગવે છે, તે પાપ કમ (અશુભ) બંધ છે, અને આ સમસ્ત શુભાશુભ કમનો નાશ થતાં, જીવ મુકત થાય છે. ને મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરે છે. તે કહ્યું કે, અનાદિબંધ છૂટે નહિ, તે પણ ખાટું છે. કારણ કે આ જંગતમાં. કંચન અને માટીને સંયોગ અનાદિન છે; છતાં તે છૂટી જાય છે; તે “કામ” ५५ द्रव्यती सूक्ष्म २०४ छ, भाटे ते
नये. भूगभूत वात छे , “ममेति बध्यते जन्तु निर्ममेति प्रमुच्यते" ना ममत्व मापने सीप थाय छ; अने भभव भाव edi सपने मोक्ष थाय छे.
yang 3
मण्डिकस्य बन्दमोक्षविषय
संशयनिवारणम् । मू०१११॥
છે
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श्रीफल्प
मञ्जरी
॥११॥
टीका
चतुर्थशवशिष्यैः प्रवजितः ॥ ६॥ ___मण्डिकं प्रव्रजितं श्रुत्वा मौर्यपुत्रोऽपि निजसंशयच्छेदनार्थम्-अर्दचतुर्थशतशिष्यैः परिवृतः प्रभुसमीपे प्रातः। तमपि प्रभुरेवमेव कथयति-भो मौर्यपुत्र । तब मनसि एत्तादृशः संशयो वर्तते यत् देवा न सन्ति-"की जानाति मायोपमान गीर्वाणान् इन्द्र-यम-वरुण-कुबेरादीन्" इति वचनात् । तन्मिध्या। वेदेऽपि-"स एप यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति" इति वचनं विद्यते । यदि देवा न भवेयुस्तदा देवलोकोऽपि न भवेत् ।
अर्थात्-"मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्ध का और विषयों से निवृत्त मन मुक्ति का कारण होता है" इत्यादि । इस से जीव को बंध और मोक्ष होता है, यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार सुनकर मण्डिक चकित हुए। उनका संशय दूर हो गया। उन्हें प्रतिबोध प्राप्त हुआ। वे भी साडेतीनसौ शिष्यों सहित दीक्षित हो गये।
मण्डिक को दीक्षीत हुए सुनकर मौर्यपुत्र भी अपना संशय निवारण करने के लिए साढे तीनसौ शिष्यों के परिवार सहित प्रभु के पास आया। प्रभुने उनसे भी ऐसा कहा-हे मौर्यपुत्र ! तुम्हारे मन में ऐसा सन्देह है कि देव नहीं हैं क्यों कि-'को जानाति मायोपमान गीर्वाणान्' अर्थात्-'माया के समान इन्द्र, यम, वरुण और कुवेर आदि देवों को कौन जानता है ?' ऐसा कहा गया है। तुम्हारा यह विचार मिथ्या है। वेद में भी यह वाक्य है-'स एप-पज्ञायुधी यजमानोऽअसा स्वर्गलोकं
"मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं, मुत्य निर्विषयं मनः" ॥१॥ इति । આ બંધ અને મોક્ષના કારણભુત “મન” છે. વિષયમાં જે “મન’ આસક્તિ રાખે તે “મન” બંધ કરે છે; અને જે વિષથી નિવૃત્ત રહે છે તે મુતિને પામે છે. આથી જીવને બંધ અને મેલ છે તે સાબીત થાય છે.
આમ સાંભળી મંડિક તાજુબ થશે. તેને શ્રમ ભાંગી ગયે. તે પ્રતિબંધ પામતાં સાડાત્રો શિષ્યો સાથે દીક્ષિત થયે. મંડિકને પ્રતિબંધ પામેલ જોઈ મૌર્યપુત્ર પણ પિતાના સાડાત્રણસો શિગેના પરિવાર સાથે શંકાના નિવારણ અર્થે પ્રભુ પાસે ગયા. પ્રભુએ પણ તેને પૂછ્યું કે “હે મૌર્યપુત્ર! તમારા દિલમાં એવી શંકા છે કે ૨૦' નથી, તમે દેને (ઇન્દ્ર, યમ, વરુણ, કુબેર વિગેરેને) માયાવી માને છે તે વાત બરાબર છે ને? પરંતુ આ વાતને तमन ३० ते अस्थाने छे. वेह-बाध्य प हेछ है “स एष यज्ञायुधा यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति"
मण्डिकस्य दीक्षाग्रहणम् मौर्यपुत्रस्य देवास्तित्वविषयसंशयनिवारणम्
०१११॥
॥४१०॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥४११॥
टीका
एवं सति "स्वर्गलोकं गच्छति" इ वचनं कथं संगच्छेत ? । एतेन वाक्येन देवानां सत्ता सिध्यति । तिष्ठतु तावच्छात्रववचनं, पश्यतु अस्यां परिषदि स्थितान् इन्द्रादिदेवान् । प्रत्यक्षमेते देवा दृश्यन्ते । एवं प्रभोर्वचनं श्रुत्वा निशम्य मौर्यपुत्रः छिन्नसंशयोऽर्द्धचतुर्थवतशिष्यै प्रवजितः ॥१०१११॥
टीका-'तए णं उवज्झायं सुहम्म' इत्यादि । ततः खलु उपाध्यायं सुधर्माणं प्रवजितं श्रुत्वा मण्डिकोऽपि अर्धचतुर्थशवशिष्यः साईत्रिशतशिष्यैः परिवेष्टितः प्रभुसमीपे समनुमाप्तः। प्रभुश्च तंम्मण्डिकं कथयति, तथाहिभो मण्डिक! तब मनसि बन्धमोक्षविषयः संशयो वर्तते-संशयस्वरूपमाह-यदित्यादिना, यत्-जीवस्य बन्यो गच्छति' अर्थात्-'यज्ञरूप आयुध (शस्त्र)वाला यज्ञकर्ता शीघ्र ही स्वर्गलोक में जाता है। यदि देव न होते तो देवलोक भी न होता। ऐसी स्थिति में स्वर्ग लोकमें जाता है यह कथन कैसे संगत हो सकता है ? इस वाक्य से देवों की सत्ता सिद्ध होती है। परन्तु शास्त्र के वाक्य को रहने दो, इसी परिषद् में स्थित इन्द्र आदि देवों को देख लो। यह देव प्रत्यक्ष ही दिखाई दे रहे हैं। प्रभु के इस प्रकार वचन सुनकर और समझकर मौर्यपुत्र भी छिन्न संशय होकर साढे तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये ॥११॥
टीका का अर्थ-तत्पश्चात् उपाध्याय सुधर्मा को प्रवजित हुआ सुनकर मण्डिक भी साढे तीनसौ शिष्यों के परिवार के साथ भगवान के समीप पहुँचे । भगवान् ने मण्डिक से कहा-हे मण्डिक ! तुम्हारे मनमें बन्ध-मोक्षविषयक संशय है। उस संशयका स्वरूप बतलाते हैं-जीव का बंध और मोक्ष होता है या नहीं? तुम्हारे इस યજ્ઞરૂપ આયુધવાળા યજ્ઞકર્તા શીગ્રપણે સ્વર્ગમાં જાય છે. જે તમારા કહેવા મુજબ દેવ ન હોય તે દેવક પણ ન હવે જોઈએ, તે આ “સ્વર્ગ” રૂપી કથન જે વેદ-વાકયમાં કહેવામાં આવ્યું છે તે તમારા કથન સાથે કેવી રીતે બંધબેસતું છે ? આ વેદ-વાકયથી જ સિદ્ધ થાય છે કે દેવે છે અને દેવેની સત્તા પણ છે. શાસ્ત્રની વાતને તમે ગ્રહણ ન કરે તે પણ આ પરિષદૂમાં જે રે સાક્ષાત્ બેઠા છે તેને જોઈ લે. પ્રભુનું આવું વચન સાંભળી મૌર્યપુત્ર પણ સંશય રહિત થયે ને સાઠાત્રણસે શિષ્યો સાથે તેણે પણ પ્રવજ્યા અંગીકાર કરી. (સૂ૦૧૧). ' વિશેષાર્થ–“સુધમ’ જેવા વિદ્વાન ઉપાધ્યાય પણ ભગવાનની વાણીથી ચલિત થયા એમ જાણવાથી મંઠિક પણ પિતાના સાડાત્રણ શિષ્યોના સમૂહ સાથે ભગવાન તરફ જવા રવાના થયે. ભગવાને તેના મનની સપાટી પર તરતા ભાવેને જોઈ લીધા, ને તે ભાવમાં બંધ-મક્ષ રૂપી શંકાઓ ઉઠતી હતી તે તેમણે જાણી લીધી. ભગવાને તે શંકાઓને આગળ કરી મડિકને કહ્યું કે તેને જીવના બંધ અને મેક્ષની શ્રેણી બેટી લાગે છે? જો તું બંધ અને
पर देवास्तित्वविषयसंशयनिवारणम्। सू०१११॥
છે
॥४१॥
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श्रीकल्प
कल्प
सुत्रे
मञ्जरी
॥४१२॥
टीका
मोक्षश्च भवति न वा? तवात्र संशये कारणम्-'स एष विगुणो विभुन बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा' “स एषः जीवः विगुणः निर्गुणः विभुः व्यापकः न बध्यते बन्धनं न याति, वा अथवा न संसरति नोत्पद्यते भवं न पामोति, तथा न मुच्यतेन मुक्तो भवति, वा-अथवा न परं मोचयति ।" इत्यादिवेदवचननिकरोऽस्ति । त्वं स एष विगुण' इत्यादिवेदवचनादेव 'जीवस्य न बन्धो न चापि मोक्षो भवतीति मन्यसे। अत्रेत्थं तव युक्तिः-यदि जीवस्य बन्धो मन्यते, तदा-सम्बन्धः अनादिका आदिरहितः नित्य इत्यर्थः, वा-अथवा पश्चात् जातः? तत्र यदि अनादिका नित्यो मन्यते, तदा स न छुट येतन छियेत, 'योऽनादिकः संशय का कारण वेद का यह वचन है-'यह निर्गुण और सर्वव्यापी आत्मा न तो बंधन को प्राप्त होती है, न उत्पन्न होती है, न मुक्त होती है और न दूसरे को मुक्त करती है। इसी वेद वचन से तुम मानते हो कि जीव को न बंध होता है और न मोक्ष होता है। इस विषय में तुम्हारी युक्ति यह है-अगर जीव का बंध माना जाय तो वह बंध अनादि है या सादि-बाद में उत्पन्न हुआ है ? अगर नित्य माना जाय तो वह छूट नहीं सकता; મિક્ષને કલ્પિત માનતો હોય તે તું બેટે રસ્તે છે! તારા કથન મુજબ આ આત્મા નિર્ગુણ અને સર્વવ્યાપી છે તેથી તેને બંધ કે મોક્ષ હોય જ નહિ એ તારા અભિપ્રાય છે. ઉપની તી માન્યતા તદ્દન ગેરરસ્તે દરન રી છે. જગતમાં ઉઘાડી આંખે દેખાય છે કે
એક રાંક ને એક નૃપ, એ આદી જે ભેદ, કારણ વિના ન કાર્ય તે, તેજ શુભાશુભ વેધ. શુભ કરે ફળ ભોગવે, દેવાદિ ગતિ માંય; અશુભ કરે નકદિ ફળ, કમરહિત ન કયાંય. જે જે કારણુ બંધના, તે બંધને પંથ; તે કારણ છેદક દશા, મિક્ષ પંથ ભવ અંત. રાગ દ્વેષ અજ્ઞાન છે, મુખ્ય કમના ગ્રંથ; થાય નિવૃત્તિ જેહથી, તે મેક્ષને પં.
આત્મા સત્ ચૈતન્યમય, સર્વાભાસ રહિત oral
જેથી કેવળ પામીએ, મોક્ષ પથ તે રીત.
। मण्डिकस्य बन्धमोक्षविषयसंशयनिवारणम्। मू०१११॥
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श्रीकल्प
कल्प.
सूत्रे
मञ्जरी
॥४१३॥
टीका
सोऽनन्तकः, यः पदार्थः अनादिका आदि रहितो भवति सः अनन्तकः-अन्तरहित:-नित्योऽपि भवति, इति वचनात् । एवं च नित्यस्य सदास्थायित्वात् अनादिको जीवबन्धो न छियेतेति पर्यवसितम् । अथ द्वितीय विकल्पितं खण्डयितुमाह-'यदि पश्चाज्जातः' इत्यादिना-यदि पश्चात् जीवस्य बन्धो जातः तदा-पश्चाद्बन्धस्वीकारे कदा कस्मिन् काले सजातः ? कथं-केन प्रकारेण च स छुटयते ? छिद्यते ? अत्र नास्ति किमपि प्रत्युत्तरम्-इति । अतो जीवस्य नास्ति बन्धो न चापि मोक्ष इति पर्यवसितम् । इदं यत्तव मतं तन्मिथ्या। यतो लोके जीवाः अशुभकर्म-बन्धनेन तत्कर्मजनितं दुःखं प्राप्ता दृश्यन्ते' इति परेण सम्बध्यते, एवं शुभकर्मबन्धेन जीवाः मुखं प्राप्ताः दृश्यन्ते । तथा सकलकर्मछेदेन-कर्मकलापस्य ध्यानानलेन भस्मसात्करणेन जीवः सुखदुःखनिमित्तीभूत-शुभाशुभकर्मकृतबन्धनाभावात् मोक्ष मुक्ति पामोति इति प्रसिद्धम् । तथा-'अनादिबन्धी न क्यों कि जो पदार्थ आदि-रहित होता है, वह अन्तरहित भी होता है। इस तरह जो नित्य होता है वह सदैव बना रहता है, अतएव अनादिकालीन जीव का बंध नष्ट नहीं होना चाहिए। अब दूसरे विकल्प का खंडन करने के लिए कहते हैं-अगर जीव का बंध पश्चात् उत्पन्न हुआ है तो वह किस समय हुआ? और किस प्रकार छूटता है ? इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं है। अत एव सिद्ध हुआ कि जीव को बंधक और मोक्ष नहीं होता।
यह जो तुम्हारा मत है सो मिथ्या है, क्यों कि लोक में प्रसिद्ध है कि जीव अशुभ कर्म-बंधन के कारण, उस कर्मजनित दुःख के भागी देखे जाते हैं, और शुभकर्म बंध के कारण जीव सुख के भागी देखे जाते है। तथा ध्यान रूपी अग्नि से समस्त कर्म समूह को भस्म कर देने के कारण, जीव सुख और दुःख के कारणभूत शुभ एवं अशुभ कर्मों से होनेवाले बंध का अभाव होने से मोक्ष प्राप्त करते हैं। ' અર્થાત્ એક રાંક છે અને એક રાજા છે એ શબ્દથી નીચપણું, ઉંચપણું, કુરૂપપણું, સુરૂપપણું એમ ઘણું વિચિત્રપણું છે, અને એ જે ભેદ રહે છે તે–સર્વ સમાનતા નથી. તેજ શુભાશુભ કર્મને બંધ છે, એમ સિદ્ધ થાય છે. કેમ કે કારણ વિના કાર્યની ઉત્પત્તિ થતી નથી. શુભ કર્મ કરે તો તેથી દેવાદિ ગતિમાં તેનું શુભ ફળ ભેગવે. અને અશુભ કર્મ કરે તે નરકાદિ ગતિને વિષે તેનું અશુભ ફળ ભેગ. તને કર્મને બંધ સમજાવ્યું. હવે તે બંધના વિરોધી સ્વભાવને મેક્ષ કહે છે. જે જે કારણો વડે બંધ થાય છે તે તે કારણેને છેદવાથી મોક્ષ માગ આવી મળે છે અને ભવનો અંત આવી જાય છે. કર્મના બંધનમાં રાગદ્વેષ અને અજ્ઞાન પાયારૂપે છે. આ ત્રણેનું એકત્વ એ કર્મની ગાંઠ છે. આ ત્રણ વિના કમને બંધ થાય જ નહિ. અને આ ત્રણેથી નિવૃત્તિ કરવી તે “મેક્ષ' કહેવાય.
मण्डिकस्य बन्धमोक्षविषय
संशयनिवारणम् । ॥सू०१११॥
॥४१३॥
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श्री कल्प
॥४१४ ॥
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छुटयते' इति यत्त्वया कथितं, तदपि मिथ्या ! यतः लोके सुवर्णस्य मृत्तिकायाश्च परस्परं योऽनादिः प्रवाहापेक्षयानादिकालागतः सम्बन्धो भवति, स छुटद्यते पुत्र । एवमेव जीवस्यापि अनादिवन्धो निस्संशयं छुटते इति बोध्यम् । अत्र विषये तत्र शस्त्रेऽप्युक्तमस्ति - ' ममेति बध्यते जन्तुः' इत्यादि । अयं भावः -जन्तुः मम= मदीयम् एतत्पुत्रदारादिकम् इति स्त्रीकुर्वन् सन् ममता रज्ज्वा बध्यते=बन्धं याति, पुनः स जीवः निर्ममेति'मम पुत्रदारादिकं नास्तीति ममत्वमकुर्वन् प्रमुच्यते इति । इतोऽन्यदपि तत्र शास्त्र बन्धमोक्षपरं प्रभूतं वचनमस्ति । तदेव दर्शयितुमाह - 'पुनरपि' इत्यादि । पुनरपि तव शास्त्रे प्रोतं- 'मन एव मनुष्याणाम्' इत्यादि । मनुष्याणां - बन्ध-मोक्षयोः, कारणं-मन एव = अन्तःकरणविशेष एव न तु तदन्यः कोऽपि पदार्थस्तयोः कारणमस्ति । तत्र विषयासक्तं मनः जीवस्य बन्धाय - चतुर्गतिक संसार परिभ्रमणाय भवति । तथा-निर्विषयम् = इन्द्रियविषयासक्तिरहितं मनस्तु मुत्तयै= जीवस्य मोक्षाय - भवभ्रमणविरमणाय भवतीत्यादि । अतो जीवस्य बन्धी मोक्षथ भवतीति सिद्धम् । एवं श्रुत्वा विस्मितः छिन्नसंशयः सन् प्रतिबुद्धो भूत्वा मण्डिकोपि अर्द्ध चतुर्थशतशिष्यैः सह प्रव्रजितः । ननु - अग्भूितिकृत कर्म संशयादस्य को विशेषः ? उच्यते स कर्मसत्ता गोचरः, अयं तु तस्मिन् सत्यपि जीक्कर्मसंयोग गोचरोऽस्तीति विशेषो ज्ञातव्यः ।
तुमने कहा कि अनादि बंध छूटता नहीं है, सो भी मिथ्या है। लोक में सोने और मीट्टी का परस्पर जो प्रवाह की अपेक्षा से अनादिकालीन संबंध है, वह छूट ही जाता है। इसी प्रकार जीव का भी कर्मों के साथ का अनादि सम्बन्ध अवश्यमेव छूट नाता है। इस विषय में तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है-जब जीव 'यह पुत्रकलत्र आदि मेरे हैं' ऐसा मानते है तो ममता की रस्सी से बँधता है और जब जीन यह समझ लेता है कि 'पुत्र कलत्र आदि मेरे नहीं हैं तो ममत्व से रहित होकर मुक्त होता है। इसके अतिरिक्त भी बंध - मोक्ष का समर्थन करनेवाले बहुत से वचन तुम्हारे शास्त्र में विद्यमान हैं। कहा भी है- 'मनुष्यों के बंध और मोक्ष का कारण मन ही है, मन के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हैं। विषयों में आसक्त मन चार गति रूप संसार भ्रमण का कारण होता है। तथा इन्द्रिय-विषयों की आसक्ति से रहित मन जीव के मोक्षभव भ्रमण के अन्त का कारण होता है।' इससे सिद्ध हुआ कि जीव को बंध और मोक्ष होता है ।
मोक्ष अन! ? मात्मानो ! आ आत्मा है ? तो ते અન્ય સર્વ વિભાવ અને દેહાઢિ સ ંચાગના આભાસથી રહિત એવા કરવામાં પ્રવૃત્તિ તે મેક્ષ માગ અને આ દશા' પ્રાપ્ત થાય એટલે
'सत् ३५, अविनाशी, चैतन्यभय, स्वभावभय, કેવળ’ એટલે ‘શુદ્ધ આત્મા આ દશા પ્રાપ્ત માક્ષ થયેા કહેવાય.”
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मञ्जरी टीका
मण्डिस्य बन्धमोक्षविषयक
संशयनिवारणम् । दीक्षाग्रहणं
च ।
॥ सू० १११
॥४१४॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४१५॥
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“ मण्डिक मि" इत्यादि । गण्डिकं मत्रजितं श्रुत्वा मौर्यपुत्रोऽपि निजसंशयच्छेदनार्थम् अर्द्धचतुर्धशतशिष्यैः= पञ्चाशदुरतशतत्रय-परिमितशिष्यैः परिवृतः सन् प्रभुसमीपे प्राप्तः । तमपि प्रभुः एवं वक्ष्यमाणं वचनं कथयतिभो मौर्यपुत्र । तव मनसि एतादृशः संशयो वर्तते, यत् देवाः म सन्ति, तत्र प्रमाणतयोपन्यस्तं वचनं प्रकटयति - " को जानाति" इत्यादि । मायोपमान् = मायावत् अलीकान् इन्द्र-यम- वरुण-कुबेरादीन् गीर्वाणान् = देवान्
इस प्रकार सुनकर मुडिक विस्मित हुए। उनका संशय दूर हो गया । वह प्रतिबोध प्राप्त करके अपने साढेतीन सो शिष्योंके साथ दीक्षित हो गये ।
शंका- अग्निभूति द्वारा किये गये कर्म-विषयक संशय से इस संशय में क्या अन्तर है ?
समाधान- अग्निभूतिको कर्म के अस्तित्व में ही सन्देह था। पर मण्डिक कर्म का अस्तित्व तो मानते थे किन्तु जीव और कर्म के संयोग के संबंध में शंकित थे । यही दोनों में अन्तर हैं ।
मण्डिक को दीक्षित हुआ सुनकर मौर्यपुत्र भी अपने संशय का निवारण करने के लिए अपने तीन सौ पचास शिष्यों के साथ भगवान् के समीप पहुँचे। उन्हें भी भगवान् ने आगे कहे वचन कहे - हे मौर्यपुत्र ! तुम्हारे मन में ऐसा संशय है कि देव नही है । इस विषय में प्रमाणरूप से प्रयुक्त वचन प्रकट करते हैं-' माया के समान मिथ्या इन्द्र, यम, वरुण, और कुबेर आदि देवों को कौन देखता है !' इस कथन से देव नहीं हैं, ऐसा सिद्ध होता है । किन्तु तुम्हारा देवों को स्वीकार न करना मिथ्या हैं, क्यों कि वेद में भी ऐसा कहा है कि-' यह यज्ञ रूपी शखवाला यजमान - यज्ञकर्त्ता शीघ्र ही स्वर्गलोक में जाता है । ' ભગવાને મધ અને મેાક્ષનુ કથન, માગ અને દ્ધતા એ ત્રણે બતાવતાં મડિક વિસ્મિત થયા અને પ્રત્રજ્યા અ'ગિકાર કરી તે વિરક્ત બન્યા. તેના સાડાત્રણસે। શિષ્યાએ પણ તેજ માત્ર ગ્રહણ કર્યો.
શ'કા-અગ્નિભૂતિની ક્ર' સબ'ધની અને મડિકની કમ'-બંધ સબધની શકાઓમાં શું ફરક છે ? સમાધાન-અગ્નિભૂતિને તે ખુદ કમ”માંજ સ ંદેહ હતા. તેને મન ક્રમ” જેવું કાંઈ છેજ નહિ એમ લાગતુ, પરંતુ મ’ડિક ‘કમ”ના અસ્તિત્વને સ્વીકારતા હતા, પણ જીવ અને ક્રના સંબંધ થતા હશે કે કેમ ? તેની શંકા તે સેવી રહ્યો હતો આ અનેમાં આટલું અંતર છે.
મંડિકને પ્રત્રજીત થયેલ જાણી મો પુત્ર પણ પેાતાની શ`કાના નિવારણ અર્થે સાડાત્રણસો શિષ્યા સાથે ઉપડયા. મૌ પુત્રની શકા ‘દેવ'નું અસ્તિત્વ છે કે નહિ તે બાબતનુ હતુ, તેનું કહેવુ' હતુ કે આ ખધા ઇન્દ્રો-યમ કુબેર વરુણ અદિને કોણે જોયા છે ? તેની શંકાના નિવારણ અર્થે ભગવાને વેદ-વાકયના દાખલા ટાંકી મતાન્યા ને સ્થગની
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कल्प
मञ्जरी
टीका
मौर्यपुत्रस्य देवास्तित्व
विषयसंशय
निवारणम् ।
॥ ०१११ ॥
॥४१५॥
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श्रीकल्प
मूत्रे ॥४१६॥
श्रीकल्पमञ्जरी टीका
को जानाति-प्रत्यक्षात्मकज्ञानविषयी करोति" इति वचनात् देवा न सन्तीति । तन्मिथ्या-तत्-देवाभावस्वीकरणम् तव मिथ्या । यतो वेदेऽपि “स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति" सः एष:-अयं यज्ञायुधो-यागरूपशस्त्रवान् यजमान यज्ञकर्ता-अञ्जसा-शीघ्र स्वर्गलोकं गच्छति इति-एतद् वचनं विद्यते । यदि देवा न भवेयुः तदा देवलोकोऽपि न भवेत् । एवं सति 'स्वर्गलोकं गच्छति' इदम्-एतद् वचनं कथं संगच्छेत ? तत्स्वीकारे तु देवलोक तत्स्थायि देवानामपि सिद्धिः पर्यवसिता। इत्थमागमप्रमाणेन देवान साधयित्वा सम्पति प्रत्यक्षप्रमाणेन तान् साधयति-'अच्छउ' इत्यादि । श्रास्तां तिष्ठतु तावत् शास्त्रवचनम् ; पश्यतु भवान् प्रत्यक्षतोऽस्यां परिषदि स्थितान-विद्यमानान् इन्द्रादिदेवान इति । एवं प्रभोर्वचनं श्रुत्वा सामान्यतः श्रवणगोचरीकृत्य, निशम्य ऊहापोहाभ्यां विशेषतो हृदि निश्चित्य-मौर्यपुत्रः छिन्नसंशयः सन् अर्द्धचतुर्थशतशिष्यैः सह प्रबजितः ॥सू०१११॥
मूलम्-मोरियपुत्तं पाइयं मुणिउं अकंपिओ चिंतेइ-जो जो तस्स समीवे गओ सो सो पुणो न निव्वत्तो। सम्वेर्सि संसओ तेण छिन्नो। सव्वे वि य पव्वइया । अश्रो अहंपि गच्छामि संसयं छेदेमिति कट्ठ तिसय सीससहिओ पहुसमीपे संपत्तो। तं दटुं भगवं वएइ-भो अकंपिया! तुज्झमणंसि इमो संसओ अस्थि जं नेरइया न संति "न हवै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति" इच्चाइ वयणओ ति तं मिच्छा । नारया संति चेव, न उण ते एस्थ आगच्छंति, नो णं मणुस्सा तत्थ गमि उं सक्कंति । अइसयणाणिणो ते पञ्चक्रवत्तेण पासंति। तव सत्थंमि वि-"नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति" एयारिसं वकं लब्भइ, जइनारगा न भविज्जा अगर देव न होते तो देवलोक भी न होता । ऐसी स्थिति में 'स्वर्गलोक में जाता है' यह वाक्य कैसे ठीक बैठ सकता है ? इस वाक्य को स्वीकार करने पर देवलोक और देवलोक में रहनेवाले देवों की भी सिद्धि हो गई। इस प्रकार आगम प्रमाण से देवो की सत्ता का साधन करके अब प्रत्यक्ष प्रमाण से साधन करते हैं कि 'शास्त्र वचनों को जाने दो, तुम इस परिषद में बैठे हुए इन्द्र आदि देवों को प्रत्यक्ष देखलो'। इस प्रकार प्रभु के वचन सुनकर तथा ऊहापोह कर के विशेषरूप से हृदय में निश्चित कर के मौर्यपुत्र सन्देह-रहित हो कर साढे तीन सौ शिष्यों सहित दीक्षीत हो गये ॥मू०-१११॥
હયાતી બનાવી દીધી. જે જે શુભ કર્તવ્ય ધર્મ સંબંધી હોય તે સર્વ કર્તવ્યોનું યથાર્થ પાલન કરનાર દેવગતિમાં ર જાય છે એમ વેદની વાત ભગવાને કરી. આ ઉપરાંત તેમની પરિષદુમાં આવેલા દેવેની હાજરી બતાવી તેની શંકા
નિર્મૂળ કરી, આથી તે પિતાના સાડાત્રણ શિષ્ય સમુદાય સાથે દીક્ષિત થઈ ભગવાનની આજ્ઞા એ વિચારવા લાગ્યા. (સૂ૦૧૧૧)
मौर्यपुत्रस्य देवास्तित्वविषय
संशयनिवारणम् दीक्षाग्रहणं
०११॥
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श्री कल्पसूत्रे ॥४१७॥
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नाहे 'सुन्नभक्रुगो नारगो होइ' त्ति वकं कहं संगच्छिज्जा ? । अणेण सिद्धं गारगा संति त्ति । एवं सोचा अकंपिओ त्रि तिसयसीसेहिं पञ्चइओ || ८||
'अकंपिओ त्रिपन्नइओ' त्ति जाणिय पुष्णभावसंदेहजुओ 'अयल - भाया' इय नामगो पंडिओ वि तिसयसीसेहिं परिवुड पहुसमीवे समागओ । तं दगुणं भगवं एवं वयासी - भो अयल - माया ! तत्र हिययंसि इमो संसओ वट्ट - जं पुण्णमेत्र पकिटं संतं पट्टि सुहस्स हेऊ ? तमेव य अवचीय माणमच्चंत थोवावस्थं संतं दुहरसहेऊ ? उय तय इरितं पावं किंपि वत्थु अस्थि ? अहवा एगमेव उभयरूवं ? उभयंपि सतं तं वा अस्थि ? उ पुरिसा इरित्तं अन्नं किंपि नत्थि ? जओ वेएस कहियं 'पुरुष एवेद 'U' सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं' इच्चाइ त्ति । तं मिच्छा । इहलोए पुष्णपावफलं पच्चक्खं लक्खिज्जइ, एवं ववहारओ वि पत्तिज्जइ-जं पुण्णस्स फलं दीहा उय लच्छी रुवारोग्ग-मुकुलजम्माइ, पावस्स य तव्चिवरीयं अप्पा उयाइफलं, इय पुण्णं पात्रं च सतं तं त्रियाणाहि 'पुरुष एवेदं इच्चेयमिसिए अग्भूिप हे जं मए कहियं तं चेत्र मुणेयव्वं । तत्र सिद्धते वि पुष्णं पात्रं च सतं तत्तणेण गहियं तं जहा - "पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा " इच्चाइ । अणेण सिद्धं पुण्णं पावं च उभ यमवि सतं तं वत्थु विज्जइ । इय सुणिय छिन्न संसओ अयलभाया वि तिसयसीसेहिं पञ्चइओ | | ०११२ || छाया - मौर्यपुत्रं प्रव्रजितं श्रुत्वा अकम्पितः चिन्तयति-यो यस्तस्य समीपे गतः स स पुनर्न निवृत्तः, सर्वेषां संशयस्तेन छिन्नः सर्वेऽपि च प्रव्रजिता अतोऽहमपि गच्छामि संशयं छेदयामीति कृत्वा त्रिशत- शिष्यसहितः प्रभुसमीपे संप्राप्तः । तं दृष्ट्वा भगवान् वदति - भो अकम्पित ! तब मनसि अयं संशयोऽस्ति, यत्-नैरयिका
मूल का अर्थ -- ' मोरियपुत्तं इत्यादि - मौर्यपुत्र को प्रवजित हुआ सुनकर अकम्पित ने सोचा- जो जो उनके पास गया सो वापिस न लौटा। उन्हो ने सभी का संशय दूर कर दिया। सभी दीक्षित हो गये । तो में भी जाऊँ और अपने संशय का निवारण करूँ।' इस प्रकार विचार कर तीनसौ शिष्यों के साथ वह महावीर के समीप पहुँचा । अकम्पित को देखकर भगवान् ने कहा- हे अकम्पित ! तुम्हारे मन में यह
भूजनो अर्थ – 'मोरियपुत्तं' इत्याहि भौरिय पुत्रने अवन्ति थयेस नागी, अपिते विचार यों हैं, તેની પાસે ગયા, તે પાછા વળતા જ નથી. તેણે તેા, સના સ ંશય દૂર કર્યાં. દૂર થતાં તે દીક્ષિત થઇ, આત્મ સુધારણા તરફ વળી ગયા. હું પણ જાઉં અને મારી શંકાઓને દૂર કરૂ! આમ વિચારી ત્રણસેા શિષ્યા સાથે તે પ્રભુ સમીપે પહોંચ્યા. પહેાંચતાં વેંત જ પ્રભુએ તેને પ્રશ્ન કર્યાં કે “હું અક'પિત ! તારા મનમાં સ ંદેહ છે કે નારકીના
कल्प
मञ्जरी
टीका
अकम्पितस्य दीक्षाग्रहणम्
अचल भ्रात्रोः
पुण्यपापविषय संशय
निवारणं च । ॥ सू० ११२
॥४१७॥
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श्रीकल्प
कल्प मञ्जरी
॥४१८॥
टीका
म सन्ति "न हवै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति" इत्यादि वचनादिति, तन्मिथ्या, नारकाः सन्त्येव न पुनस्ते ऽत्राऽऽगच्छन्ति, नो खलु मनुष्यास्तत्रगन्तुं शक्नुवन्ति । अतिशयज्ञानिनस्तान् प्रत्यक्षत्वेन पश्यन्ति । तव शास्त्रेऽपि-"नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति" एतादृग् वाक्यं लभ्यते। यदि नारका न भवेयुस्तदा 'शूद्रान्नभक्षको नारको भवति' इति वाक्यं कथं संगच्छेत ? । अनेन सिद्ध 'नारकाः सन्ती' ति । एवं श्रुत्वा अकम्पितोऽपि त्रिशतशिष्यः प्रबजितः।
'अकम्पितोऽपि प्रत्रजितः' इति ज्ञात्वा पुण्यपापसन्देहयुतोऽचलभ्रातेति नामकः पण्डितोऽपि त्रिशतशिष्यः परिवृतः प्रभुसमीपे समागतः। तं दृष्ट्वा भगवानेवमवादित्-भो अचलभ्रातः तव हृदयेऽयं संशयो वर्तते यत्सन्देह है कि नारक जीव नहीं है, क्यों कि शास्त्र में कहा है-'न ह वै पेत्य नरके नारकाःसन्ति' इति । अर्थात-'परभव में, नरक में नारक नहीं हैं। तुम्हारा यह मत मिथ्या हैं। नारक तो हैं ही, किन्तु वे यहाँ आते नहीं हैं और न मनुष्य ही वहीं जा सकते हैं। फिर भी लोकोसरज्ञानी उन्हें प्रत्यक्ष रूपसे देखते हैं। तुम्हारे शास्त्र में भी ऐसा वाक्य देखा है कि नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति' इति अर्थात्जो शूद्र का अन्न खाता है, वह नारकरूप मे उत्पन्न होता है। अगर नारक न होते तो 'शूद्र का अन्न खाने वाला नारक होता है, यह कैसे संगत होता? इससे नारकों का अस्तित्व सिद्ध होता है। इस प्रकार सुमकर अकम्पित भी तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये।
'अकम्पित भी दीक्षीत हो गये' यह जान कर पुण्य-पाप के विषय मे सन्देह रखनेवाले अचलभ्राता नामक पण्डित भी तीनसौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास गये। उन्हें देखकर भगवान् ने ऐसा कहा हे
री , भ? ४१२९५ ता॥ शास्त्रमा ४५ छे 3-"न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति" પરભવમાં નરકમાં નારક નથી.” આ તારું મંતવ્ય મિથ્યા છે. નારકી છે! પણ તેઓ અહીં આવતા નથી, તેમજ મનુષ્ય પણ ત્યાં જઈ શકતા નથી. તે પણ લકત્તર પુરુષે તેમને પ્રત્યક્ષપણે જોઈ રહ્યા છે. તમારા શાસ્ત્રમાં એવું वाध्य नेपामा माछ, "नारको वे एप जावते यः शूद्रान्नमश्नाति" ति, अर्थात- शूद्रनु मन भाय છે, તે નારકપણે ઉત્પન્ન થાય છે” જે નારકીના છ ન હોય, તો આ વાકયની સંગતતા કેવી રીતે થઈ શકે? માટે સિદ્ધ થાય છે કે, નારકીના જીનું અસ્તિત્વ છે. આવું સાંભળી, અકંપિત પણ પિતાના ત્રણ શિષ્યો સાથે અણગાર થયો.
અકંપિતની દીક્ષા સંભળા, પુણ્ય-પાપમાં સંદેહ રાખવાવાળો અચળબ્રાતા નામને પંડિત પણ ત્રણ શિષ્ય on સાથે પ્રભુની પાસે ગયો તેને જોઈ ભગવાને પ્રશ્ન કર્યો કે હું અળખાતા ! તારા મનમાં એવી માન્યતા થઈ ગઈ
अकम्पितस्य दीक्षाग्रहणम् में अपलभ्रात्रोः
पुण्यपापविषय
संशय 0 निवारणं च।
सू०११२॥
॥४१८॥
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कल्प
श्रीकल्प
सूत्रे ॥४१९॥
मञ्जरी टीका
पुण्यमेव प्रकृष्ट सत् प्रकृष्टसुखस्य हेतुः, तदेव चाऽपचीयमानमत्यन्तस्तोकावस्थं सत् दुखस्य हेतुः? उत तदतिरिकं पापं किमपि वस्नु अस्ति ? अथवा एकमेवोभयरूपम् ? उभयमपि स्वतन्त्र वाऽस्ति ? उत पुरुषातिरिक्तं किमपि नास्ति, यतो वेडेषु कथितं “पुरुष एवेद 'U° सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं" इत्यादीति, तन्मिथ्या । इह लोके पुण्य-पापफलं प्रत्यक्ष लक्ष्यते । एवं व्यवहारतोऽपि प्रतीयते-यत् पुण्यस्य फलम् दीर्घायुष्क-लक्ष्मीरूपा-ऽऽरोग्य-सुकुलजन्मादि, पापस्य च तद्विपरीतमल्पायुष्कादि फलम्, इति पुण्यं पापं च स्वतन्त्रं विजानीहि, 'पुरुष एवेद' मित्येतस्मिन् विषये अग्निभूतिप्रश्ने यन्मया कथितं तदेव ज्ञातव्यम् । तब सिद्धान्तेऽपि पुण्यं पापं अचलभ्राता! तुम्हारे हृदय में ऐसा सन्देह है कि पूण्य ही जब प्रकर्ष को प्राम होता है तो प्रकृष्ट सुख का हेतू हो जाता है और जब वही अपकर्ष को प्राप्त होकर अत्यन्त अल्प होता है तो दुःश्व का कारण बनजाता है, अथवा पुण्य से भिन्न पाप कोई अरग वस्तु है ? अथवा एक ही वस्तु उभयरूप है ? या दोनों स्वतंत्र है? या पुरुष (आत्मा) के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ? क्यों कि वेदों में कहा है-'पुरुष एवेद •U. सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम्' इति । अर्थात्- यह सब पुरुष ही है जो हो चुका है, और जो होगा।' इत्यादि ।
तुम्हारा यह संशय निराधार है। इस लोक में पुण्य और पाप का फल प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। इसके अतिरिक्त व्यवहार से भी प्रतीत होता है कि दीर्घ आयु, लक्ष्मी, सुन्दर रूप, आरोग्य, मुकुल में जन्म आदि पुण्य का फल है. और पाप का फल इससे विपरीत अल्पायु आदि है। इस लिए पुण्य और पाप को स्वतंत्र समझो। 'यह सब पुरुष ही है। इस विषय में अग्निभूति के प्रश्न के उत्तर में मैंने जो कहा है, वही यहाँ છે કે, જ્યારે પુરુચ ધણું વધી જાય, ત્યારે ઘણું સુખ આવી મળે છે, એટલે ઘણુ સુખના હેતુરૂપ બને છે. અને કાર ઘટતું જાય ને અકપ થઈ જાય, ત્યારે તે પુણ્ય, પાપનું કારણ બની જાય છે ? આ ઉપરાંત શું તું એમ પણ માની રહ્યો છે કે, પાપ જેવું કઈ તરવું પુણયથી નિરાળું નથી, અથવા આ એક તવ બંને રૂપ છે ? તેમજ બંને અલગ-અલગ છે? આથી વળી આગળ વધી તું એમ માની રહ્યો છે કે આ જગતમાં “આમા સિવાય બીજો કોઈ પદાર્થ નથી ? કારણ કે વેદવાકય એમ કહે છે કે આ જગત કેવળ બ્રહ્મમય છે, બ્રહ્મમય હતું ને બ્રહામય રહેશે? તેને પણ તું એમ જ માને છે ? કેમ એમ જ ને ? તારા આવા પ્રકારના તમામ અભિપ્રાય નિરાધાર છે. અલેકમાં પુણ -પાપના ફળે પ્રત્યક્ષ દેખાય છે. આ સિવાય વ્યવહારમાં પશુ દેખાય છે કે દીર્ધ આયુ, લહમી, સુંદર રૂપ,
રોગ્ય, સ ર કુળમાં જન્મ આદિ પુણ્યના ફળ છે. અને આનાથી વિપરીતતાવાળું અલ્પ આયુ વિગેરે પાપનાં ફળરૂપ છે, માટે પુણ્ય અને પાપને સ્વતંત્ર સમજવા જોઈએ. સમસ્ત જગત “આત્મમય છે એ વિષયમાં અગ્નિભૂતિના : : શ્વમ જે ઉત્તર દેવાયું હતું તે ઉત્તરથી સમજણ કરી લેવી. તમારા સિદ્ધાંત માં પણ પુણ્ય અને પાપને સ્વતંત્રપણે
अचलभ्रात्रोः पुण्यपाप
विषय __ संशय निवारणम् । सू०११२॥
॥४१९॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥४२० ॥
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च स्वतन्त्रत्वेन गृहीतं, तद्यथा - "पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा" इत्यादि । श्रनेन सिद्धं पुण्यं पापं च उभयमपि स्वतन्त्रं वस्तु विद्यते । इति श्रुत्वा छिन्नसंशयोऽचलभ्राताऽपि त्रिशतशिष्यैः प्रव्रजितः ॥ ०११२ ॥ टीका - "मोरियपुत्तं पव्त्रयं " इत्यादि । मौर्यपुत्रं पत्रजितं श्रुत्वा अकम्पितः - अकम्पितनामा पण्डितः चिन्तयति । तथाहि -यो यस्तस्य समीपे गतः स सः पुनस्ततो न निवृत्तः =न परावत्याऽऽगतः । सर्वेषां संशयः तेन छिन्नः = दूरीकृतः सर्वेऽपि च तत्पार्श्वे प्रव्रजिताः । अतोऽहमपि गच्छामि, स्वकीयं संशयं छेदयामि, इति कृत्वा = एतद् विचार्य त्रिशतशिष्यसहितः प्रभुसमीपे सम्माप्तः । तम् दृष्ट्वा भगवान् वदति - भो अकम्पित ! 'न ह वै प्रेत्य नारकाः सन्ति' प्रेत्य = परभवे नरके - निरये नारकाः = नैरयिकाः नरकोत्पन्ना जीवा न वै नैव समझ लेना चाहिए। तुम्हारे सिद्धान्त में भी पुण्य और पाप को स्वतंत्ररूप में ही अंगीकार किया है। जैसे'पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणा' इति । अर्थात् - 'पुण्यकर्म से पुण्यवान होता है' और पापकर्मसे पापवान् होता है इत्यादि । इस से सिद्ध हैं कि पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं। यह सुनकर अचलभ्राता का संशय भी छिन्न हो गया। वह अपने तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये | ०११२ ||
• टीका का अर्थ - मौर्यपुत्र को दीक्षित हुआ सुनकर अकम्पित नामक पण्डित विचार करने लगे- जो जो भी महावीर के पास गया, वह वह लौटकर वापिस नहीं आया। उन्हों ने सभी के संशय का निवारण कर दिया और सभी उनके समीप दीक्षित हो गये। तो मैं भी क्यों न जाऊँ और अपने संशय का निवारण करूँ ? इस तरह विचार कर अकम्पित पंडित भगवान् के पास अपने तीनसो शिष्यों के परिवार को साथ लेकर पहुँचे। उन्हें देखकर भगवान ने कहा- हे अकंपित ! 'परभव में, नरक में नारक= नरकजीव नहीं हैं। इस मजीद्वार ४२वाभां भाव्यां हे प्रेम है- “पुण्यः पुण्येन कर्मणाः पापः पापेन कर्मणा” भेटले युएय म्भथी पुण्यवान થવાય છે અને પાપકર્મથી પાપવાન બનાય છે. આથી સિદ્ધ થાય છે કે પુણ્ય અને પાપ બને સ્વતંત્ર પદાર્થો છે. આવું સાંભળી અચળભ્રાતાને સંશય છેદાઈ ગયા અને તે પણ પેાતાના ત્રણસે શિષ્યા સાથે દીક્ષિત થયા. (સૂ॰૧૧૨)
મૌય પુત્ર વિગેરેને વૈરાગ્યમાં ઝુલતા કરેલા જોવામાં આવતાં અકપિતના મને ભાવે પણ બદલાયા. તેને આત્મા પણ કકળી ઉઠયા. ‘નારકીના જીવા છે કે નહિ' તેવી શંકા સેવતા તે ભગવાન પાસે આવી પહેાંચ્યું. ભગવાને તેને સમજાવ્યું કે નારકીના જીવે અહી આવી શકતા નથી. કારણ કે તેનુ શરીર એવું હાય છે કે નરક બહાર જઇ શકતા જ નથી. તેમ જ અહિં' આવવું ઘણું દૂર છે તેમ જ કઠીન છે. તેથી માનવ જેમ ત્યાં જઈ શકતા નથી; તેમ જ તેએ પણ અહીં આવી પણ શકતા નથી.. આટલા બધા આવાગમન માટે દૈવી શક્તિ એટલે અપાર શક્તિ હાવી જોઇએ તે તેમનામાં નથી હાતી.
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कल्प
मञ्जरी टीका
अकम्पितस्य परभवे नारक विषय संशय निवारणम् ।
।।मू०११२ ।।
॥४२०॥
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श्री कल्प
कल्प मञ्जरी टीका
॥४२॥
सन्ति, 'ह' इति वाक्यालङ्कारे । इत्यादि वचनात्-तब मनसि अयं संशयोऽस्ति, यत्-'नैरयिका न सन्ति' इति । इदं यत् तव मतं-तत् मिथ्या। यतः नारकाः सन्त्येव, किन्तु ते अत्रअस्मिन् लोके पुन ने आगच्छन्ति । तत्र-नरके मनुष्याः गन्तुं न शक्नुवन्ति । अतिशयज्ञानिनः तान् नरकवर्तिनो नारकान-नरकजीवान् प्रत्यक्षत्वेन= केवलज्ञानालोकेन साक्षात्कारेण पश्यन्ति । तव शास्त्रेऽपि "नारको वै एष जायते यः शूद्वान्नमश्नाति' “यो द्विजः शूद्रान्नम् अश्नाति भुड़े एष: असौ शूद्रान्नभोक्ता नारकः-नरकोत्पादी आयते वै-भवत्येव" एतादृक् वाक्यं लभ्यते। यदि नारका न भवेयुः सदा 'शूद्रान्नभक्षकः नारको भवति' इति वाक्यं कथं केन प्रकारेण संगच्छेत। अनेन 'नारकाः सन्ति' इति मतं सिद्धम् । एवं श्रुत्वा अकम्पितोऽपि त्रिशतशिष्यैः सह प्रत्रजितः। __ 'अकंपिओ वि' इत्यादि- 'अकम्पितोऽपि प्रबजितः' इति ज्ञात्वा-पुण्यपापसन्देहयुतः पुप्यपापविषये सन्देहवान् अचलभ्राता-इति नामकः पण्डितोऽपि त्रिशतशिष्यः परितः सन् प्रभुसमीपे समागतः। तं दृष्ट्वा वेदवाक्य से तुम्हारे मनमें यह संशय है कि नारक नहीं है। लेकिन तुम्हारा यह मत मिथ्या है। नारक तो हैं, पर वे इस लोक में आते नहीं हैं और मनुष्य नरक में (इस भरीर से) नहीं जा सकते। हॉ, अतिशय ज्ञानी नरक के जीवों-नारकों को केवल ज्ञान से प्रत्यक्ष देखते हैं। तुम्हारे शास्त्र में भी ऐसा वाक्य मिलता है कि-"नारको वै एष जायते यः शुद्रान्नमश्नाति" जो ब्राह्मण शुद्र का अन्न खाता है, वह नरक में नारक के रूप में उत्पन्न होता ही है। अगर नारक न होते तो 'शूदान-भोजी नारक होता है यह वाक्य कैसे संगत होता? इससे सिद्ध है कि नारक जीवों की सत्ता है। ऐसा सुनकर अकम्पित भी तीनसो शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये ॥८॥
अकम्पित भी दीक्षित हो गये, यह जानकर पुण्य-पाप के विषय में सन्देहवाले अचलभ्राता नामक
આ ઉપરાંત તેઓ પરમાધર્મી દેવાની અધીનતામાં રહેલા છે. તેઓ પાપના ઉદયે, ત્યાંની ક્ષેત્રવેદના ઉપરાંત પરધમીના પ્રહારે સતત અમેઘપણે સહ્યા જ કરે છે, આથી તેઓ અહીં આવી શકતા નથી તેમ જ માર આડે કાંઈ સૂઝતું પણ નથી અને પરમધમીના તંત્ર નીચેથી ઘડીએક પણ અળગા થઈ શકતા નથી. નારકનું અસ્તિત્વ छ सेभ होनु ५५५ वन छ. “नारको वै एष जायते यः शूगन्नमश्नाति" मेरो शूद्रनुमन्न माय ते ना२४ થાય છે અગર નારક નહીં હોત તે આ વાકય કેવી રીતે સુસંગ બનત? તેથી સિદ્ધ થાય છે કે નારક જીની સત્તા છે. આવી અપૂર્ણ વાણુથી અમંપિત પિગળી ગયો અને પિતાના ષ્ણુ શિષ્યો સાથે તે પણ દીક્ષિત થઈ ગયે. ૧૮
અલંપિતનું પ્રવ્રજન સાંભળી પુણ્ય-પાપ એ એક જ તત્વ છે એવી માન્યતાવાળા અચળભ્રાતા નામના પંડિત
अकम्पितस्य
दीक्षाग्रहणम् । BR०११२॥
॥४२॥
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श्रीकल्स
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कल्पमञ्जरी
टीका
भगवान् एवम् अवादी-“भो अचलभ्रातः! तव हृदये अयं संशयो वर्तते यत्-"पुण्यमेव प्रकृष्टम् अतिशयितं सत् प्रकृष्टसुखस्य हेतुः कारणं भवति ? तदेव-पुण्यमेव च-पुनः, अपचीयमानं-क्षीयमाणम् , अत एव स्तोकावस्थम् अल्पीभावमापन्नं सत् दुःखस्य हेतुर्भवति ?, उत श्राहोस्वित तदतिरिक्तं पुण्यभिन्न किमपि किश्चित् वस्तु
अस्ति-विद्यते ?, अथवा एकमेव-पुण्यपापयोरेकतरमेव उभयरूपं-पुण्यपापोभयरूपं विद्यते ?, यद्वा-उभयमपि द्वय॥४२२॥
मपि-पुण्यं पापं च स्वतन्त्र-परस्परानपेक्षं-पृथक् पृथम् अस्ति ? उत-यद्वा-पुरुषातिरिक्तं-पुरुषभिन्नम् आत्मभिन्नम् किमपि-किश्चिदपि पुण्यपापादि वस्तु नास्ति ? यतः-यस्मात्-पुरुषातिरिक्तस्य कस्याषि पदार्थस्य सत्त्वाभावाद्धेतोः वेदेषु कथितम् , तथाहि-'पुरुष एवेद°0° सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्' यत् इदं वर्तमानं, यद् भूतं व्यतीतं, यच्च भाव्यम् भविष्यत् , तत्-सर्व वस्तु पुरुष एव-आत्मैच, न तदतिरिक्तं पुण्यपापादि किपि वस्तु विधते' इत्यर्थः" इत्यादि। इति-इत्थं तब मनसि पुण्यपापविषये संशयोऽस्ति । तन्मिथ्या, । यत:-"इहलोके अस्मिन् लोके पुण्य-पापफलं सुकृतदृष्कृतकर्म परिणामः प्रत्यक्ष-साक्षातलक्ष्यते-दृश्यते। एवं व्यवहारतोऽपि प्रतीयतेज्ञायते, यत-पुण्यस्य फलम्-दीर्घायुष्क-लक्ष्मी-रूपा-ऽऽरोग्यमुकुल जन्मादि, अथ पापस्य च तद्विपरीतम् अल्पापण्डित भी अपने तीनसौ अन्तेवासियों सहित भगवान् के पास पहूँचे। उन्हें देखकर भगवान् ने इस प्रकार कहा-हे अचलभ्राता! तुम्हारे अन्तःकरण में यह सन्देह है कि पुण्य ही जब प्रकृष्ट ( उच्च कोटि का) होता है तो वह सुख का कारण होता है, और जब वही पुण्य घट जाता है, और अल्प रहता हैं तब दुःख का कारण बन जाता है? अथवा पाप, पुण्ण से भिन्न कुछ स्वतंत्र वस्तु है ? अथवा पुण्य अथवा पाप का कोई एक ही स्वरूप है ! या दोनों परस्पर निरपेक्ष स्वबंत्र है ? अथ च आत्मा के अतिरिक्त पुण्य-पाप कोई वस्तु नहीं हैं ? क्यों कि वेद में यह कहा गया है कि-'जो वर्तमान है, जो अतीत में था, और भविष्यत में होगा वह सब पुरुष (आत्मा) ही है, आत्मा से भिन्न पुण्य-पाप आदि कोई पदार्थ नहीं हैं।
तुम्हारे मन में ऐसा संशय है, किन्तु यह मिथ्या है। इस संसार में पुण्य ओर पाप का फल प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। व्यवहार से भी प्रतीत होता है कि पुण्य का फल दीर्घजीवन, लक्ष्मी, रमणीयस्वरूप, ત્રણસો તેવાસિઓને સાથે લઈ ભગવાન પાસે પહોં, તેને સિદ્ધાંત એ હતું કે જ્યારે પૂણ્ય ઉચ્ચ કોટિમાં પ્રવર્તતું હોય છે ત્યારે તે સુખનું કારણ બને છે અને પુણ્ય ઘટતું જાય અગર અ૫ થઇ જાય ત્યારે તે દુઃખનું
કારણ બને છે. આ બને તોને અચલજાતા એક રૂપ માનતે હવે, Sonal ભગવાને તેને પ્રત્યક્ષતાપૂર્વક બતાવ્યું જગતમાં જે જે જે સુખમય સ્થિતિ જોગવી રહ્યા છે તે પુણ્યના
अचलभ्रातुः पापपुण्य विषय
संशयमिवारणम् । सू०११२।।
॥४२२॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
युष्कादि-अल्पायुष्कत्वदारिद्रय-कुरूपत्व-सरोगत्व-दुष्कुल-जन्ममभृतिफलम् । इति प्रागुक्तानां पुण्यपापफलानां
प्रत्यक्षलक्ष्यमाणत्वेन व्यवहारतश्च प्रतीयमानत्वेन च पुण्यं पापं च विना दीर्घायुष्कत्यादि म्तोकायुष्कत्वादिरूपश्रीकल्प
फलानुपपच्या पुण्य-पापं च स्वतन्त्र-परस्परानपेक्षि-पृथक पृथग विजानीहि । “पुरुष एवेद' मित्येतस्मिन् विषये सूत्र अग्निभूतिप्रश्ने यत्-समाधानवचनं कथितम्-तदेवात्रापि ज्ञातव्यम् , तब सिद्धान्तेऽपि-पुण्यं पापं चेत्युभयं स्वतन्त्र. ॥४२३॥ नीरोगता और सत्कुल में जन्म आदि हैं, और पाप का फल इन से उलटा-अल्पायु, दरिद्रता, कुरूपता, रुग्णता
और असत्कुल में जन्म आदि हैं। इस प्रकार पुण्य और पाप के फल साक्षात् दिखाई देते हैं और व्यवहार से यह प्रतीत होता है कि पुण्य के विना दीर्घायु आदि सथा पाप के बिना अल्पायु आदि मुफल और दुष्फल नहीं हो सकते, अत एव पुण्य और पाप को पर्याय की अपेक्षा स्वतंत्र-परस्पर निरपेक्ष, पृथक्पृथक हैं। यही मानना चाहीए। तथा कारण में भेद न हो तो कार्य में भेद नहीं हो सकता। सुख और दुःव परस्पर विरुद्ध दो कार्य हैं, अतः उनका कारण भी परस्पर विरुद्ध और अलग-अलग होना चाहीए। पुण्य-पाप को अभिन्न मानोगे तो उससे सुख-दुःख रूप दो कार्य नहीं होंगे; अथवा सुखदुःख को भी अभिन्न ही मानना पडेगा। किन्तु सुख और दुःख को अभिन्न मानना प्रतीत से वापित है। जैसे दीपक की मदन्ता अन्धकार को उत्पन्न नहीं करती उसी प्रकार पुण्य की मदन्ता दुःख को उत्पन्न नहीं कर सकती।
_ 'यह सब पुरुष ही है इत्यादि वाक्य के विषय में जो तुम्हें सन्देह है उसका समाधान अग्निभूति के प्रश्न में जो समाधान मैने किया है, वही यहाँ भी समझ लेना। इसके अतिरिक्त तुम्हारे पागम में भी पुण्य ફળ રૂપે છે અને દુઃખમય સ્થિતિ અ૫ કે વધારે તે બધું પાપના ફળ રૂપે હોય છે. પુણ્ય અને પપિને ઉદય સાથે સાથે પણ વતતો હોય છે. એક બાબતમાં પુણ્યના ફળ રૂપે સુખને અનુભવ થતે હેાય છે, ત્યારે સાથે સાથે બીજી બાબતમાં પાપના ઉદયે દુઃખ વેદત હોય છે, સે ટકે સુખી જાતે જીવ, બરા-છોકરાં તેમ જ શારીરિક વેદનાને ઉદયે દુઃખ અનુભવતે માલુમ પડે છે. માટે પુણ્ય-પાપની પર્યાયે, સ્વતંત્ર, પરસ્પર નિરપેક્ષ અને પૃથક પૃથફ હોય છે.
છે જે કારણમાં ભેદ ન હોવ તે, કાર્યમાં ભેદ પડતું નથી. સુખ અને દુઃખ બંને પરસ્પર વિરોધી સર્વરૂપે છે.
માટે તેના કારણે પણ, પરસ્પર વિરુદ્ધ હોવા જોઈએ, એટલે અલગ અલગ હોવા જોઈએ. જે પુર્વ પાપ બંનેને રાહ એક માને, તે તેના સુખ અને દુખ બંને પરિણામે જુદાજુદા હાઈ શકે નહિ. માટે તે અભિન્ન નથી, પણ થી ભિન્ન છે. દીપકની મંદતા, અંધકાર ને ઉત્પન્ન કરી શકતી નથી, તેમ પુણ્યની મંદતા દુઃખને ઉત્પન્ન કરી શકતી નથી.
अचलभ्रातुः पापपुण्य विषय
संशयनिवारणम् । ॥०११२॥
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॥४२॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥४२४॥
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त्वेन गृहीतं - स्वीकृतम्, तद्यथा - "पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणा" जीवः- पुण्येन शुभकर्मणा पुण्यःपुण्यवान् भवति, षापेन - अशुभकर्मणा पापः - पापवान् भवति, 'पुण्यः पापः' इत्युभयत्रमत्वर्थीयोऽर्शआदित्वादच् प्रत्ययः । तेन पुण्यपापशब्दयोः क्लीवत्वेऽपि विशेष्यनिघ्नत्वात्पुंस्त्वम् । यद्वा- वैदिकप्रयोगस्वात्पुंस्त्वम् तेन पुण्यं पापं चेत्युभयं शुभाशुभकर्मभ्यां भवतीत्यर्थः । इत्यादि । अनेन पुण्यं पापं चेत्युभयमपि स्वतन्त्रं वस्तु विद्यते इति सिद्धम् । एवं भगवतो वचनं श्रुत्वा छिन्नसंशयः सन् अचलभ्राताऽपि त्रिशतशिष्यैः सह प्रव्रजितः । ॥ ० ११२ ॥
मूलम् - मेयज्जो विनियसंसयछेयणडं तिसयसीसेहिं परिवुडो पहु समीवे समागओ । भगवंतं वएइभो यज्जा ! तब मणसि इमो संसओ बहह-परलोगो नत्थि । जओ वेएम कहियं - "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति" इचाइ । तं मिच्छा । परलोगो अत्थिचैव अन्ना जायमेत्तस्स बालस्म माउथणदुद्धपाणे सन्ना कहं भवे । तत्र सिद्धते वि वृत्तं "यं यं वाऽपि स्मरन भावं त्यजस्यन्ते कलेवरम् । और पाप दोनों को स्वतंत्र स्वीकार किया गया है। कहा है- "पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा" अर्थात- जीव शुभ कर्म से पुण्यवान् होता है और अशुभ कर्म से पापवान होता है। ऐसा मान ने पर वाक्य का अर्थ यह होगा - 'शुभ कर्म से पुण्य और अशुभ कर्म से पाप होता है । '
इससे यह सिद्ध हुआ कि पुण्य और पाप-दोनो स्वतंत्र वस्तुए है। आशय यह है कि आर्हत मन में कोई भी दो पदार्थ सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न नहीं होते, तथापि अचलभ्राता के माने हुए सर्वथा अपक्ष का निरास करने के लिए यहाँ केवल भेद-पक्ष का समर्थन किया गया है । द्रव्य की अभेद भी है, अनेकान्तवाद के ज्ञाताओं को यह समझना कठिन नहीं । भगवान् के यह वचन भ्राता का संशय छिन्न हो गया। वह भी अपने तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये |
अपेक्षा दोनों में
सुनकर अचल
०११२ ||
तभारा आगम शास्त्रोभां पथ पुएय भने पापना तत्त्वाने हो गएयां छे. प्रेम - “पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापे न कर्मणा" भेटवे यज्ञ उरवावाजा, एय उपार्जन उरे छे. अने तेने स्वर्गीय सुमोनी प्रप्ति थाय छे, तेभ तमाश શાસ્ત્રોમાં નિર્દેશન છે. અમારા મત પ્રમાણે, કંઇ પણ એ પદાર્થો, સવથા ભિન્ન કે સર્વથા અભિન્ન હેાતાં નથી. છતાં, અચળભાતાને સંદેહ જે સર્વાંદા અભેદ પક્ષના હતા, તેને નિમૂળ કરવા, અને દરેક પદાર્થને એકાંતિક નહિ પણ અનેક તિક દૃષ્ટિએ જોવા, ભગવાને સમજણ આપી હતીઃ
આ રીતે પેાતાને અનેકાંત દૃષ્ટિનુ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થતાં, અચલભ્રાતા વૈરાગ્ય ને પામ્યા, અને સ્વયં દીક્ષિત થયા. તેની સાથે તેના ત્રણરોા શિષ્યએ પણ દીક્ષા ગ્રહણ કરી. (સૂ૦૧૧૨)
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कल्प
मञ्जरी
टीका
अचलभ्रातुदक्षाग्रहणम् ।
मौर्यपुत्रस्य
परलोक
विषयसंशयनिवारणम् ।
॥सू० ११२ ॥
॥४२४॥
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श्रीकल्प
सूत्रे ॥४२५॥
कल्प मञ्जरी
टीका
तं तमेवैति कौन्तेय ! सदा तद्भावभावितः" इच्चाइ। अओ सिद्धं परलोगो अस्थित्ति । एवं सोचा निसम्म छिन्नसंसओ मेयजोवि तिसयसीसेहिं पचरओ ॥१०॥
तं पवइयं सोचा एगारसमो पंडिओ पभासामिहोवि तिसयसीससहिओ नियसंसयावणयणत्थं पहसमीवे समणुपत्तो। पहुणा य सो आभट्ठो-भो पभासा! तव मणंसि इमो संसओ वट्टइ-जं निव्वाणं अत्थि नत्थि वा? जइ अस्थि किं संसाराभावो चेव निव्वाणं! अह वा दीव सिहाए विव जीवस्स नासो निव्वाणं ? जइ संसाराभावो निवाणं मन्निज्जइ, ताहे तं वेयविरुद्धं भवइ, वेएम कहियं-"जरामये वै तत्सर्व यदग्निहोत्रम्" इति। अणेण जीवस्स संसाराभावो न भवइत्ति । जइ दीव सिहाए विव जीवस्स नासो निव्वाणं मन्निज्जइ, ताहे जीवाभावो पसज्जइति । तं मिच्छा। निब्याणं ति मोक्खो ति वा एगहा! मोक्खो उवद्धस्सेव हवइ । जीवो हि कम्मेहिं बद्धो अओ तस्स पययणविसेसाओ मोक्खो भवइ चेव । अस्स विसए मंडिय पण्हे सव्वं कहियं, तं धारेयव्वं तवसत्थे पि वुत्तं-"द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च। तत्र परं "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेति। अणेण मोक्खस्स सत्ता सिज्झइ। अओ सिद्ध मोक्खो अत्थि ति। एवं सोचा छिन्नसंसओ पभासोवि तिसयसीसेहि पवइओ ॥११॥ एत्थ संगहणीगाहादगं- ..
जीवेय कम्मविसए, तज्जीवय तच्छरीरै भूएं य। तारिसय जम्मजोणी परे भवे, बंधमुक्खे य ॥१॥ देव नेरइये पुण्णे, परलोए तह य होइ निवाणे।
एगारसाबि संशयच्छेए पत्ता गणहरतं ॥ २॥।॥ को गणहरो कइसंखेहिं सीसेहिं पव्वइओत्ति-पडिवाइया संगहणी गाहा
पंचसयो पंचण्डं, दोण्हं चिय होइ सद्धतिसयो य ।
सेसाणं च चउण्हं, निसओ तिसओ इबइ गच्छो ॥१॥ एवं पहुसमीवे सव्वे चोयालसया दिया पव्वइया ।मु०११३॥
॥ इय गणहरवाओ। छाया-मेतार्योऽपि निज संशयच्छेदनार्थ त्रिशतशिष्यैः परिवृतः प्रभुसमीपे समागतः। भगवान् तं वदतिभो मेतार्य । तर मनसि अयं संशयो वर्तते, परलोको नास्ति । यतो वेदेषु कथितम्-"विज्ञानपनएघेतेभ्यो
प्रभासस्य निर्वाण विषय
संशयनिवारणम् दीक्षाग्रहणं
च।
॥सू०११३॥
॥४२५॥
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कल्प मञ्जरी टीका
भूतेभ्यः समुत्थायपुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति इत्यादि । तन्मिथ्या। परलोकोऽस्त्येव, अन्यथा जातमात्रस्य बालस्य मातस्तनदुग्धपाने सज्ञा कथं भवेत् ? तव सिद्धान्तेऽप्युक्तम्
"यं यं भावं स्मरन्नित्यं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । श्रीकल्प
तं तमेवेति कौन्तेय ! सदा तद्भावभावितः" ॥१॥ इत्यादि । ॥४२६॥
मूल का अर्थ-'मेयज्जो वि' इत्यादि । मेतार्य भी अपने संशय को दूर करने के लिए तीनसौ शिष्यों के साथ प्रभु के समीप पहूँचे। भगवान् ने उनसे कहा-हे मेतार्य ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि परलोक नहीं है ? क्यों कि वेदो में ऐसा कहा है-'विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवान विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति' इति । अर्थात्-विज्ञानघन आत्मा इन भूतों से उत्पन्न होकर फिर उन्ही में लीन हो जाता है। परलोक संज्ञा नहीं हैं, इत्यादि।
तुम्हारा यह संशय निराधार है। परलोक-पुनर्जन्म है ही, अन्यथा तत्काल उत्पन्न बालकको माता के स्तन का दूध पीने की इच्छा (या बुद्धि) कैसे होती ? तुम्हारे सिद्धान्त में भी कहा है
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजन्त्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवेति कौतेय, सदा सद्भावभावितः ॥ इति । अर्थाद-हे अर्जुन ! जीव अन्तिम समय में जिन जिन भावों का स्मरण-चिन्तन करता हुआ शरीर तजता है, उन भावों से भावित वह जीव उसी-उपी भाव को प्राप्त होता है ॥१॥
भूजना म मेयजो वित्या . भेताय° ५५ पोताना संशयनु निशर शोषवा, प्रभु पासे सो શિષ્યો સાથે આવી પહો . મેતાર્યની શંકા એ હતી કે, “પરલેક” છેજ નહિ. કારણકે વેદોમાં એવું કહેવાયું
"विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवान विनश्यति, न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति" धात, मात-विज्ञान ઘન આત્મા જાતેજ, ભૂતેમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે, ને તે ભૂતમાંજ સમાઈ જાય છે. માટે “પરલેક સંજ્ઞા નથી. વિગેરે.
તમારી આ માન્યતા પાયા વિનાની છે. પહેક-પુનર્જન્મ વિગેરે પણ છે જે તે ન હોય તે, તાત્કાળિક ઉત્પન્ન થયેલ બાળકને, માતાનું સ્તનપાન કરવા કેમ ઈચ્છા થાય ? તમારા સિદ્ધાંતમાં પણ કહ્યું છે કે,
"यं यं वापि स्मरन् भावं, त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवेति कौन्तेय ! सदा तद्भाव भावितः” ॥ इति. અર્થાત-હે અર્જુન ! અંત સમયે જીવ જે જે ભાવો અને જેને સમરણ-ચિંત્વન કરે છે, ને તેનું સ્મરણહાચિંત્વન કરતાં, પિતાનું શરીર તજે છે, તેને ભાવે સ્મરણ અને ચિંતન લઈને તે જીવ ફરી અવતરે છે. માટે
मेतार्यस्य
परलोक विषय संशयनिवारणम् । ०११३|| ..
॥४२६॥
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श्री कल्प
सूत्रे ॥४२७॥
टीका
CTERS
अतः सिद्धं परलोकोऽस्तीति । एवं श्रुत्वा-निशम्य छिन्नसंशयो मेतार्योऽपि त्रिशतशिष्यैः प्रबजितः ॥१०॥
तं प्रबजितं श्रुत्वा एकादशः पण्डितः प्रभासाभिधोऽपि त्रिशतशिष्यसहितो निजसंशयापनयनार्थ प्रभुसमीपे समनुप्राप्तः। प्रभुणा च स आभाषितः-भो प्रभास । तव मनसि अयं संशयो वर्त्तते, यवनिर्वाणम् अस्ति ? नास्ति वा? यद्यस्ति, किं संसाराभाव एवं निर्वाणम् ? अथवा दीपशिखाया इव जीवस्य नाशो निर्वा
कल्प
मञ्जरी णम् ?। यदि संसाराभावो निर्वाणं मन्यते, तदा तद् वेदविरुद्धं भवति । वेदेषु कथितम्-"जरामयं वै तत्सर्वम् अग्निहोत्रम्" इति । अनेन जीवस्य संसाराभावो न भवतीति । यदि दीपशिखाया इव जीवस्य नाशो निर्वाणं मन्यते, तदा जीवाभावः प्रसज्जते-इति । तन्मिथ्या। निर्वाणमिति मोक्ष इति वा एकाौँ। मोक्षस्तु बद्धस्यैव ।
__ अत एव एरलोक का अस्तित्व स्वीकार करना चाहीए। इस कथन को कानों से सुनकर और हृदय में धारण करके संशय छिन्न हो जाने पर मेतार्य भी तीनसौ शिष्यों सहित दीक्षित हो गये। मेतार्य को दीक्षित हुआ सुनकर ग्यारहवें पण्डित प्रभास भी तीनसौ शिष्यों सहित अपना संशय दर
मेतार्यस्य करने के लिए प्रभु के पास पहूँचे । मुने उनसे कहा-हे प्रभास ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि निर्वाण है या
दीक्षाग्रहणम् नहीं ? अगर है तो क्या संसार का अभाव ही निर्वाण है ? अथवा दीपक की शिखा के समान जीव का नाश
प्रभासस्य
निर्वाण हो जाना निर्वाण है ? अगर संसार का अभाव निर्वाण माना जाय तो वह वेद से विरुद्ध है। वेदो में कहा विषय है 'जरामर्य-वै तत्सर्व यदग्निहोरात्रम्' इति । अर्थात-'यह जो अग्निहोत्र है सो सब जरा-मरण के लिये है।'
मंशय इस से प्रतीत होता है कि जीव के संसार का अभाव नहीं होता है। अगर दीपक की लौके समान जीव का निवारणं च । नाश होना निर्वाण माना जाय तो जीव के अभाव का प्रसंग आता है।
पाए ।सू०११३ પલેકનું અસ્તિત્વ રવીકારવાનું રહે છે. આ ઉપદેશથી મેતાર્યનું મન પીગળી ગયું. અને પિતાના ત્રણસો શિખ્યો છે સાથે તેણે દીક્ષા અંગીકાર કરી.
મેતાર્ય મુનિએ પ, દીક્ષા લીધી છે એમ જાણી અગ્યારમાં પંડિત પ્રભાસ પશુ, ત્રણ શિષ્ય સાથે, પિતાની આ માન્યતાનું સ્પષ્ટીકરણ મેળવવા સારૂં પ્રભુ પાસે જવા રવાના થયો. પ્રભુએ તેની માન્યતા જ્ઞાન દ્વારા જાણી લીધી; ને ‘નિર્વાણુ” નથી તેમ તેની માન્યતાની તેણે રજુઆત કરી. આ સાથે તેનું બીજું પણ એ મંતવ્ય હતું કે, સંસારને અભાવ તેનું નામ “નિર્વાણ છે. તેમજ, જેમ દિવાની શિખાની સમાન જીવને નાશ થવો તે “નિર્વાણુ” કહેવાય છે.
॥४२७॥ सापान, ५२ वेस तना विद्यारी निभू ४२वा, समन भाये , वेहोहित 'जरामर्थ वे तत्सर्व यदग्निहोत्रम् ' ति अर्थात्-मारे अनिडात्र छ, मधु १२-भ२५ माटे छ. माथी प्रतीत थाय छ , सपने સંસારને અભાવ નથી. જો દીપક સમાન જીવના નાશને નિર્વાણ તરીકે માનવામાં આવે તે, જીવને અભાવ માન
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સાથે સાથે મુનિએ પોલીસ પ્રભુ પાસે જવા ન આ સાથે તેનું બીજું
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श्रीकल्प
मञ्जरी
॥४२८॥
टीका
जीवो हि कर्मभिर्बदः, अतस्तस्य प्रयत्नविशेषान्मोक्षो भवत्येव । अस्य विषये मण्डिकाने सर्व कथितं तद धारयितव्यम् । तव शास्त्रेऽप्युक्तम्-'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च। तत्र परं-'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इति। अनेन मोक्षस्य सत्ता सिध्यति । अतः सिद्ध मोक्षोऽस्तीति । एवं श्रुत्वा छिन्नसंशयः प्रभासोऽपि त्रिशतशिष्यैः प्रवजितः॥११॥ ___ अत्र संग्रहणी गाथा द्वयम्
. जीवे च कर्मविषये, तज्जीवक तच्छरीरे-भूते च ।
तादृशक जन्मयोनौ परे भेवे, बन्धमोक्षो च ॥१॥ तुम्हारा यह सन्देह निराधार है। निर्वाण और मोक्ष दोनों एक ही अर्थ को बतलाने वाले शब्द हैं। बद्ध जोव का ही मोक्ष होता है। जीव कर्मों से बद्ध है, अतः प्रयत्न-विशेष से उसका मोक्ष होता ही है। मोक्ष के विषय में मण्डिक के प्रश्न में कहा है, वह सब समझ लेना चाहिए। तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च । तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इति । अर्थात्-दो प्रकार के ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त स्वरूप हैं। इस से मोक्ष की सत्ता सिद्ध होती है। अतः मोक्ष का सदभाव सिद्ध हुआ। इस प्रकार सुनकर प्रभास भी संशय-निवृत्त होकर तीनसौ शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये। किस गणधर का कौन संशय था ? इस विषय में यहाँ दो संग्रहिणी गाथाएँ हैं
"जीवे य कम्मविसये, तज्जीव य तच्छरीर भूए य ।
तारिसय जम्मजोणी परे भवे बंधमुक्खे य ॥१॥ વને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. માટે તારે આ સંદેહ પાયા વગરનો છે. નિર્વાણ અને મોક્ષ’ બને એકજ અર્થબતાવવાવાળા પર્યાયવાચક શબ્દો છે. જે જીવ બંધાએલ છે, તેને જ મોક્ષ હોય! જીવ કર્મોવડે બંધાયેલ હોય તેનેજ વિશેષ પ્રયત્નો વડે મોક્ષ થઈ શકે માક્ષની બાબતમાં છઠ્ઠા ગધર મંડિકને જે દલીલે વડે સમજાવવામાં माया, a talat १ सभ देवी. तभा थालमा ५५ ४ ३, 'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मति अर्थात्-मे २॥ अझ onा नये 8 'प२७ भने भी अपरा ' આ બંનેમાં પરબ્રહ્મ, સત્ય, જ્ઞાન અને અનંત રવરૂપી છે. આથી “માક્ષને સદૂભાવ સિદ્ધ થાય છે. આવા અદ્વિતીય પ્રવચન દ્વારા, પ્રભાસને સંશય ટળી ગયો, અને ત્રણ શિષ્યો સાથે તે દિક્ષીત થયા. કયા ગણધરને કયે સંશય હતે ? આ વિષયમાં અહીં બે સંગ્રહિણી ગાથાઓ આપવામાં આવે છે
जीवे य कम्मविसये तज्जीव य तच्छरीर भूए य । तारिसयजम्मजोणी परेभवे बंध मुक्खे य (१) ॥
प्रभासस्य दीक्षाग्रहणम्। मू०११३॥
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॥४२८॥
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श्रीकल्पसूत्र ॥४२९॥
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१०
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देवे नैरयिके पुण्ये परलोके तथा च भवति निर्वाणे |
१२
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१५
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एकादशापि संशयच्छेदे प्राप्ता गणधरम् ||२|| | को गणधरः कतिसंख्यैः शिष्यैः प्रव्रजित इति प्रतिपादिका संग्रहणी गाथापञ्चशतः पञ्चानां द्वयोश्चैव भवति सार्द्धत्रिशतश्च । शेषाणां च चतुणी त्रिशतः त्रिशतो भवति गणः || १ ||
एवं प्रसमीपे सर्वे चतुश्चत्वारिंशच्छतानि द्विजाः प्रव्रजिताः ॥ ११३ ॥ ॥ इति गणधरवादः ॥
देवनेरइय पुण्णे, परलोए तह य होड़ निव्वाणे । एगारसावि संसयच्छेए पत्ता गणहरतं " ॥ २ ॥ इति ।
अर्थात्- ग्यारह गणधर को निम्नलिखित ग्यारह विषयों में सन्देह थे - (१) इन्द्रभूति को जीव के विषय में (२) अग्निभूति को कर्म के विषय में (३) वायुभूति को तज्जीव- तच्छरीर ( वही जीव वही शरीर) के विषय में (४) व्यक्त को भूतों के विषय में (५) सुधर्मा को पूर्वभव सरीखे उत्तरभव के विषय में (६) मण्डि को बन्धमोक्ष के विषय में (७) मौर्यपुत्र को देवों के विषय में (८) अकम्पित की नारको के विषय में (९) अचलभ्राता को पुण्य-पाप के विषय में (१०) मेतार्य को परलोक के विषय में और (११) प्रभास को मोक्ष के विषय संशय था । संशय का छेदन होने पर ग्यारहों गणधर - पद को प्राप्त हुए । १-२ ॥
पुणे, पुरो तह य होइ निव्वाणे । गारसावि संसयच्छेए पत्ता गणहरतं ( २ ) इति
અર્થાત્--અગ્યાર ગણધરને નિચે લખ્યા મુજબ, અગ્યાર વષયમાં શંકા હતી (૧) ઇન્દ્રભૂતિને ‘જીવ’ના વિષયમાં, (૨) અગ્નિભૂતિને ‘કમ” બાબતમાં (૩) વાયુભૂતિ ને તજીવ અને તુચ્છરીરમાં એટલે જે શરીર છે તેજ જીવ છે આ વિષયમાં, (૪) વ્યક્તને પાંચ મહાભૂતો ખાખતમાં, (૫) સુધર્માને પૂર્વભવ જેવેાજ ઉત્તરભવ હોય તેને सगतां विषयभां, (९) भने गंध-भोक्ष संबंधी, (७) भौर्य पुत्रने 'देवा' संमंधी, (८) अपितने 'नारी' ना भोग्नुपष्ठा विषे, (ङ) अयआता ने पुण्य-पाप ने बगतो, (१०) भेताय ने परखड संधी, (११) प्रभासने મેાક્ષની ખાખતમાં સ ́શય હતા.
PAC
कल्प
मञ्जरी टीका
गणधराणां
सन्देहसंग्रहः सू०११३॥
॥४२९ ॥
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श्री कल्प
मुत्रे
॥४३०॥
टीका- 'मेयज्जोsit' - त्यादि । मेतार्योऽपि निजसंशयच्छेदनार्थं त्रिशतशिष्यैः परिवृतः प्रभुसमीपे समागतः । भगवान् - तं वदति - भो मेतार्य ! तव मनसि ध्यं= वक्षमाणः संशयो वर्तते, तथाहि - 'परलोको नास्ति, यतो कोन गणधर कितने शिष्यों के साथ दीक्षित हुए, यह कहने वाली संग्रहणी गाथा यह हैपंचसयो पंचण्डं, दोण्डं चिय होइ सद्ध तिसयो य ।
सेसाणं च चढणं, तिसयो तिसयो हवइ गच्छो ॥ इति ।
अर्थात् - प्रारंभ के पाँच (गणधरों) के पाँच-पाँचसौ, दो के साढेतीनसौ-साढेतीनसौ और शेष चार के तीन-तीन सौ शिष्यों का समुदाय था । १ । इस प्रकार प्रभु के समीप सब चवालीससौ ब्राह्मण ( गणधरों के) शिष्य भी उस समय दीक्षित हुए। अर्थात् सब चवालीससौ ग्यारह (४४११) दीक्षित हुए ||०११३ ॥ || गणधरवाद समाप्त ॥
टीका का अर्थ - मेतार्य भी अपना संशय छेदन करने के लिए अपने तीन सौ शिष्यों के साथ प्रभु के समीप आये । भगवान् मे उनसे कहा- हे मेतार्य ! तुम्हारे मन में यह संशय विद्यमान है कि-परलोक नहीं है; આ અગ્યારે બ્રાહ્મણા પાતાના વિષયે સબધી જે જે શંકાએ તેએ સેવી રહ્યા હતા, તે તે શંકાઓનું વ્યક્તિગત નિરાકરણ થતાં તેએ તીવૈરાગ્યને પામ્યા. સંસારની અપારતાને જાણી, તે દીક્ષિત થઈ અણુધર પદ્મ ને પ્રાપ્ત થયા. કયા કયા ગધરા કેટકેટલા શિષ્યા સાથે દીક્ષિત થયાં તે બતાવવાવાળી સંગ્રહણી ગાથા અહિં
अहेवामां आवे छे-
"पंच
पंचाई, दोहं चिय होय सद्ध तिम्रओ य । सेसाणं च चउण्डं, तिसओ हवइ गच्छो ॥” इति
અર્થાત્—શરૂઆતના પાંચગણુધરે, પાંચસા-પાંચસેા શિષ્યો સાથે એ સાડાત્રણસે સાથે અને બાકીના ચારે ત્રણસે ત્રણસે શિષ્યેાના સમુદાય સાથે દીક્ષા ધારણ કરી. આ પ્રમાણે પ્રભુ પાસે બધા મળી ચુમાળીસસે બ્રાહ્મણે એ એટલે અગ્યાર ગણધરોની સાથે ખધા ચુંમાળીસસેા ને અગીયાર બ્રાહ્મણેાએ દીક્ષા પર્યાય અગિકાર કરી. (સૂ૦-૧૧૩) बुधरवाह संपू
ટીકાના અમેતા પશુ પોતાના સશસ્ત્રના નિવારણુ માટે પેાતાના ત્રણસેા શિષ્યો સાથે પ્રભુની પાસે આવ્યા. ભમવાને તેને કહ્યું-હું મેતા! તમારા મનમાં સય છે કે-પરલેાક નથી, કારણ કે વેદમાં કહેલ છે કે
એ
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श्रीकल्प
मञ्जरी
टीका
गणधर शिष्यसंख्या
कथनम् ।
।। सू०११३॥
॥४३०॥
.
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श्रीकल्प
कल्प
कर
मञ्जरी
॥४३॥
हरीका
मन वेदेषु कथितम्-'विज्ञानघनएचैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न प्रत्यसंज्ञाऽस्ति' इत्यादि।
एतद्विवरणमिन्द्रभूतिप्रसङ्गे कृतमिति ततोऽबसेयम् । इति यन्मन्यसे तत् मिथ्या। परलोकोऽस्त्येव, अन्यथाजातमात्रस्य बालस्य मातृस्तनदुग्धपाने संज्ञा कथं भवेत् । परलोकस्वीकारे तु पूर्वभवानुभूतदुग्धपानस्यानु- . भवाद्भवति मातस्तन्यपानचेष्टा बालस्य । तव सिद्धान्तेऽप्युक्तम्-" यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम। तं तमेवेति कौन्तेय ! सदा तद्भावभाषितः॥१॥' हे कौन्तेय ! भर्जुन! जीवः अन्ते मरणकाले यं यं वाऽपि भावं स्मरन् चिन्तयन् कलेवरं-शरीरं त्यजति, स सदा तद्भावभावितः अन्तकालचिन्तितभाववासितः सन् तं तमेव-अन्त स्मृतमेवामुकममुकं भावम् एति-पामोति । इत्यर्थः।१। इत्यादि वचनमुक्तम् , अतः परलोकोऽस्तीति स्वीकरणीयम् । एवं श्रुत्वा सामान्यतः अरणगोचरीकृत्य, निशम्य=विशेषतो हृद्यवधार्य छिन्नसंशयः सन् मेतायोऽपि त्रिशतशिष्यैः प्रत्रजितः ॥१०॥ क्यों कि वेदो में कहा है कि विज्ञानघन आत्मा ही इन भूतों से उत्पन्न होकर फिर उन्हीं भूतों में लीन हो जाता है, परलोक नहीं है, इत्यादि । (इस वाक्य का विवरण इन्द्रभूति के प्रकरण में किया जा चुका है, वहीं से जान लेना चाहिए) हे मेतार्य ! ऐसा तुम मानते हो सो मिथ्या है। परलोक का अवश्य अस्तित्व है। अगर परलोक न होता तो तत्काल जन्मे हुए बालकों को माता के स्तन का द्ध पीने की बुद्धि कैसे होती ? परलोक स्वीकार करने पर तो पूर्वभव के दुग्धपान का संस्कार से माता का स्तनपान करने की चेष्टा संगत हो जाती है। तुम्हारे सिद्धान्त में भी कहा है -हे अर्जुन ! जोव मरणकाल में जिन-जिन भावों का स्मरणचिन्तन करता हुआ शरीर का परित्याग करता है, वह अन्तिम समय में चिन्तन किये हुए उन्हीं भावों से भावितवासित होकर उसी-उसी भाव को प्राप्त करता है। इत्यादि । अत एव परलोक को स्वीकार करना चाहिए। વિજ્ઞાન ધનજ આત્મા એ ભૂતેથી ઉત્પન્ન થઈને ફરી એજ તેમાં લીન થઈ જાય છે, પરલોક નથી, ઈત્યાદિ (આ વાકયનું વિવેચન ઈન્દ્રભૂતિના પ્રકરણમાં કરાઈ ગયું છે તેમાંથી જોઈ લેવું) હે મેતાય ! એવું તમે માને છે તે વ્યર્થ છે. પરલોકનું અસ્તિત્વ જરૂર છે. જે પરક ન હોત તે તુરતના જન્મેલા બાળકને માતાના સ્તનનું દૂધ પીવાની બુદ્ધિ કેવી રીતે હોત? પરલેક સ્વીકારતાં તે પૂર્વભવના દૂધ પીવાના સંસ્કારથી માતાનું સ્તનપાન કરવાની ચેષ્ટા સંગત થઈ જાય છે. તમારા સિદ્ધાંતમાં પણ કહે છે-“હે અર્જુન! જીવ મરણકાળે જે જે ભાવેનું સ્મરણ-ચિન્તન કરતા શરીરને પરિત્યાગ કરે છે, તે અન્તિમ સમયમાં ચિહ્નિત ભાવથી ભાવિત-વાસિત થઈને તે તે ભાવને પ્રાપ્ત કરે छ"त्या. तेथी ५२ ने सी३२ मध्ये.
मेतार्यस्य परलोक विषय
संशय
निवारणम् ।
०११३॥
॥४३१॥
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श्रीकल्पमृत्रे ॥४३२॥
銷管道
तं मेता पत्रजितं श्रुत्वा एकादशः पण्डितः प्रभासामिधोऽपि = प्रभासनामकोऽपि त्रिशतशिष्यसहितो निजसंशयापनयनार्थ=स्वसंशयच्छेदनार्थ प्रभुसमीपे = श्री महावीरमभ्रुपार्श्वे समनुप्राप्तः समागतः । प्रभुणा च स प्रभास आभाषितः = उक्तः- भो प्रभास ! तत्र मनसि अयं संशयो वर्त्तते यत् निर्वाणम् अस्ति ? नास्ति वा ? इति । यदि निर्वाणमस्ति तदा तन्निर्वाणं किं संसाराभाव एव = चतुर्गतिभ्रमणलक्षणसंसाराऽमाप्तिरेव - शुद्धात्मस्वरूपेऽवस्थानमेव ? अथवा - दीपशिखाया नाश इव = सर्वथाऽभाववत् जीवस्य नाशः = सर्वथाऽभाव एव निर्वाणम् ? अत्र द्विपक्षे-यदि संसाराभावो निर्वाणम्-इति प्रथमः पक्षो मन्यते, तदा तद् वेदविरुद्धं भवति । यतो वेदेषु कथितम् - "जराम वै तत्सर्वं यदेतदग्निहोत्रम् ” इति । अयमर्थः - यदेतत् - अनेकविधम् अग्निहोत्रं तत्सर्वं जरामयम् = जरामरण निमित्तमिति । अनेन वेदवचनेन जीवस्य संसाराभावो न भवतीत्युपलभ्यते । यदि
इस प्रकार सुनकर और विशेष रूप से अन्तःकरण में धारण करके मेतार्य भी छिन्नसंशय होकर draat शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये । १० ।
तार्य को दीक्षित हुआ सुनकर ग्यारहवें प्रभास नामक पंडित भी तीनसौ अन्तेवासियों सहित अपने संशय को दूर करने के लिए श्रीमहावीर स्वामी के समीप पहुँचे । भगवान् प्रभास से बोले - हे प्रभास ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि निर्माण है अथवा नहीं? अगर निर्वाण है तो क्या वह संसार का अभाव ही हैं, अर्थात् चार गतियों में भ्रमण रूप संसार का रुक जाना-शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही है ? अथवा दीपक की शिखा के नाश के समान जीव का सर्वथा अभाव हो जाना निर्वाण है ? इन दोनों पक्षों में से यदि संसार का अभाव निर्माण है, यह पहला पक्ष माना जाय तो वह वेद से विरुद्ध है; क्यों कि वेदों में कहा है कि - 'यह जो नाना प्रकार का अग्निहोत्र है, वह सभी जरा और मरण का कारण है । " આ પ્રમાણે સાંભળીને અને વિશેષ રૂપે અંતઃકરણમાં ધારણ કરીને મેતાય' પણ સ ંશયરહિત થઇને ત્રણસો શિષ્યા સાથે દીક્ષિત થયા. ૧૦
મેતા ને દીક્ષિત થયેલ સાંભળીને અગિયારમાં પ્રભાસ નામના પતિ પણ ત્રણસે અતવાસિયા સાથે પેાતાના સંશયને દૂર કરવાને માટે શ્રીમહાવીર સ્વામી પાસે ગયા. ભગવાને પ્રભાસને કહ્યુ “હે પ્રભાસ ! તમારા મનમાં એ સંશય છે કે નિર્વાણુ છે કે નથી ? જો નિર્વાણુ હોય તે શું તે સ ંસારને અભાવ જ છે એટલે કે ચાર ગતિમાં ભ્રમણ રૂપ સંસારનું અટકી જવું-શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપમાં સ્થિત થવું જ છે ને ? અથવા દીપકની યેાતના નાશની જેમ જીવના સર્વથા અભાવ થઈ જવા એ જ નિર્વાણુ છે? એ બન્ને પક્ષેામાંથી જો સસારના Jain Educational अभाव निर्वाणु छे से पहे पक्ष भानंवामां आवे तो ते वेहनी (वद्ध छे, र वेहोभांडे - "म
कल्प
मञ्जरी टीका
तार्यस्य
दीक्षाग्रणम्
प्रभासस्य निर्वाण विषयसंशयनिवारणं च । ॥सू०११३॥
॥४३२ ॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
सूत्र
॥४३३॥
टीका
प्रभासस्य निर्वाण
दीपशिखाया नाश इव जोवस्य नाशो निर्वाणम्-इति द्वितीयः पक्षो मन्यते, तदा जीवाभाव जीवस्य सर्वथोच्छेदः प्रसज्यते ? इति तब निर्वाणविषये संशयोऽस्ति । तन्मिथ्या-तदेतत्तव संशयजालं मिथ्याज्ञानविज़भिमतम् । यतो-निर्वाणमिति मोक्ष इति च एकाथौं। मोक्षस्तु बद्धस्यैव भवति । जीवस्तु कर्मभिः अनादिकालतो ज्ञानावरणीयादिकर्मभिर्वद्धः, अतः प्रयत्नविशेषात्तस्य मोक्षो भवत्येव । अस्य विषये मण्डिकमश्ने सर्व कथितं, तत एव त्वया धारयितव्यम् । माहमेव ब्रवीमि, तव शास्त्रेऽप्युक्तम्-'द्वे ब्रह्मणी' इत्यादि। अयमर्थ:-परम् इस वेद-वाक्य से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि जीव के संसार का अभाव हो ही नहीं सकता। अगर दीपशिखा के नष्ट हो जाने के समान निर्वाण-मोक्ष-माना जाय तो जीव के सर्वथा अभाव की अनिष्टापत्ति होती है। निर्वाण के विषय में तुम्हें यह संशय है। यह संशय मिथ्याज्ञान से उत्पन्न हुआ है। क्यों कि निर्वाण और मोक्ष, दोनों एकार्थवाचक शब्द है। मोक्ष बद्ध का ही होता है। जोव अनादि काल से ज्ञानाघरणीय आदि कर्मों से बद्ध है, अतः विशेष प्रयत्न करने से उसका मोक्ष होता ही है। इस विषय में मण्डिक के प्रश्न में जो कहा है, वह सब यहाँ भी समझ लेना चाहिए।
अभिमाय यह है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से जब आत्मा मुक्त हो जाता है तो उस में औपाधिक भाव-कर्मजनित विकार भी नहीं रहते। उस समय आत्मा अपने वास्तविक शुद्ध चैतन्यस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। जन्म जरा और मरण से सर्वथा रहित हो जाता है। यही मोक्ष का स्वरूप है। अग्निहोत्र जरा मरण का कारण है' इस कथन से यह सिद्ध नहीं होता कि जीव के जरा-मरण का अभाव हो ही नहीं જે વિવિધ પ્રકારના અગ્નિહોત્ર છે તે બધા જરા અને મરણનું કારણ છે.” આ વેદવાકયથી તે એ જ સિદ્ધ થાય છે કે જીવને સંસારનો અભાવ હોઈ શકતો જ નથી. જે દીપ-શિખ ને નાશ થવા સમાન નિર્વાણુ–ક્ષ મનાય તે જીવના સર્વથા ભાવની અનિષ્ટ પત્તિ નડે છે. નિર્વાણુના વિષયમાં તમને આ સંશય છે. આ સંશય મિથ્યાજ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થયે છે. કારણ કે નિર્વાણ અને મોક્ષ એ બન્ને એકાWવાચક શબ્દો છે. મેક્ષ બદ્ધનો (બંધાયેલ) જ થાય - છે જીવ અનાદિ કાળથી જ્ઞાનવરણીય આદિ કર્મોથી બદ્ધ છે તેથી વિશેષ પ્રયત્ન કરવાથી તેને મેશ થાય છે જ, આ વિષયમાં મેડિકના પ્રશ્નમાં જે કહ્યું છે તે બધું અહીં પણ સમજી લેવું જોઈએ.
તાત્પર્ય એ છે કે જ્ઞાનવર્ણય આદિ કર્મોથી જ્યારે આત્મા મુક્ત થઈ જાય છે તે તેમાં પાધિક ભાવકમજનિત વિકાર પણ રહેતું નથી. તે સમયે આત્મા પિતાના વાસ્તવિક શુદ્ધ ચૈતન્ય સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરી લે છે. જન્મ, જરા અને મરથી તદન રહિત થઈ જાય છે એ જ મોક્ષનું સ્વરૂપ છે. “અગ્નિહોત્ર જરા-મરણનું કારણ છે” આ કથ થી એ સાબિત થતું નથી કે જીવને જરા-મરણને અભાવ થઈ શકતું જ નથી. આ વાકયમાં તે પ્રતિ
विषय
संशयनिवारणम्। मू०११३॥
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॥४३३॥
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥४३४॥
टीका
प्रभासस्य निर्वाण विषय
अपरं चेति द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये-ब्रह्मद्वयं ज्ञातव्यमिति । तत् द्विविधे ब्रह्मणि यत् परं ब्रह्म तत् सत्य-ज्ञानानन्तस्वरूपम् । तदुक्तं वेदे-"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" इति । यदि जीवस्य मोक्षो न स्यात्तदा तस्य सत्यज्ञानानन्तस्वरूपमाप्तिरपि न स्यात् । ततश्च तव प्रमाणत्वेनाभिमतानां वेदानां वचनं कथं संगच्छेत ? अनेन वेदवचनेन तु मोक्षस्य सत्ता सिध्यति । अतः सिद्धं मोक्षोऽस्तीति । एवं प्रभोर्वचनं श्रुत्वा छिन्नसंशयः स प्रभासोऽपि त्रिशतशिष्यैः सह प्रभुपाचे प्रवजितः ॥११॥ सकता। इस वाक्य में तो यह प्रतिपादित किया गया है कि अग्निहोत्र जरा-मरण के अन्त का कारण नहीं, प्रत्युत जरा-मरण का कारण है। इस में ध्यान, अध्ययन, तपश्चरण आदि कारणों से होनेवाले जरा-मरण के अभाव रूप मोक्ष का निषेध नहीं किया गया है। अग्निहोत्र आरंभ-समारंभ एवं हिंसाजनित तथा स्वर्ग और वैभव आदि की कामना से प्रेरित अनुष्ठान है, एत एव उसे जरा-मरण का जो कारण कहा है सो उचित ही है। मोक्ष सम्यग्ज्ञान और समम्यक् चारित्र से होता है, उसका निषेध उक्तवाक्य में नहीं है।
मैं ही ऐसा कहता हूँ, सो नहीं; तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है-ब्रह्म के दो भेद हैं-पर और अपर । और इन दोनों में से जो पर ब्रह्म है. वह सत्य, ज्ञान एवं अनन्त स्वरूप है। वेद में भी कहा है-'सत्यं ज्ञान
मनन्तं ब्रह्म ।' अगर जीव को मोक्ष न होता तो उसे सत्य, ज्ञान एवं अनन्त स्वरूप की प्राप्ति कैसे होती? ऐसी स्थिति में प्रमाण माने हुए तुम्हारे वेदों का कथन किस प्रकार संगत होगा? वेद के इस वाक्स से तो मोक्ष की सत्ता ही होती है। अतः मोक्ष है, यह निस्सन्देह सिद्ध है। प्रभु के इस प्रकार के वचन सुनकर પાદન કરાયેલ છે કે અગ્નિહોત્ર કરા-મરણના અંતનું કારણ નથી, પ્રત્યુત જરા-મ૨ણુનું કારણ છે. એમાં ધ્યાન, અધ્યયન, તપશ્ચરણ આદિ કારણોથી થનાર જરા-મરણના અભાવે રૂપ મોક્ષને નિષેધ કરાયો નથી. અગ્નિહોત્ર આરંભસમારંભ અને હિંસ જનિત તથા સ્વર્ગ અને વૈભવ આદિની કામના વડે પ્રેરિત અનુષ્ઠાન છે તેથી તેને જરા-મરણનું જે કારણ કહેલ છે તે યોગ્ય જ છે. મેલ સમ્યગ જ્ઞાન અને સમ્યફ ચારિત્રથી મળે છે, તેને નિષેધ ઉપર્યુક્ત વાકયમાં નથી. હું જ એમ કહું છું એટલું જ નહીં. પણ તમ ર શાસ્ત્રમાં પણ કહ્યું છે-બ્રહ્મના બે ભેદ છે–પર भने ४५२-२मा माथी २ ५२ब्रह्म छ ते सत्य, ज्ञान भने सनत २१३५ छ. भा पर घुछ-"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" ने मोक्ष नडात तो तेने सत्य, ज्ञान भने सनत स्१३पनी प्रासि वी शत थात?
એવી સ્થિતિમાં પ્રમાણુરૂપ માનેલ તમા વેદનું કથન કઈ રીતે સંગત થશે? વેદના આ વાક્યથી તે મોક્ષની તો સત્તા જ સિદ્ધ થાય છે તેથી મિક્ષ છે તે નિઃસંદેહ સિદ્ધ થાય છે. પ્રભુને આ પ્રકારનાં વચને સાંભળીને પ્રભાસે
संशय
निवारणम् दीक्षाग्रहणं
॥४३४॥
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श्री कल्प सूत्रे । ४३५।।
त्र - एतेषामेकादशगणधराणां संशयविषये संग्रहणीगाथाद्वयम् - 'जीवे' इत्यादि । इन्द्रभूतेः जीवे - जीवविषये संशयः १ । कर्मविषये अग्निभूतेः २ । तज्जीव तच्छरीरे= तज्जीवतच्छरीरविषये संशयो वायुभूतेः ३ । भूते= पञ्चभूतविषये संशयो व्यक्तस्य ४ । परभवे तादृशकजन्मयोनौ यो जीव इह भवे शो भवति स परभवेऽपि area ra भवति इति विषयकः संशयः सुधर्मगः ५ । बन्धमोक्षे=बन्धमोक्षविषये मण्डिकस्य संशयः ६ । देवविषये संशयो मौर्यपुत्रस्य ७ । नैरयिके =नारकविषये संशयोऽकम्पितस्य ८ । पुण्ये = पुण्यविषये - उपलक्षणात् पापे च संशयः अचलभ्रातुः ९ । परलोके = परलोकविषये संशयो मेतार्यस्य १० । तथा च निर्वाणे= मोक्षविषये संशयः प्रभासस्य ११ । इति ।
एते = इन्द्रभूत्यादिप्रभासान्ता एकादशापि गणधराः स्वस्व संशयच्छेदे सति गणधरत्वं प्राप्ता इति । प्रभास भी छिन्नसंशय होकर अपने तीनसौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास प्रवजित हो गये ।
इन ग्यारह गणधरों के संशय के विषय में दो संग्रहणी गाथाएँ हैं - (१) इन्द्रभूति को जीव के विषय में संशय था । (२) अग्निभूति को कर्म के विषय में संशय था । (३) वायुभूति को वही जीव है और वही शरीर है, ऐसा संशय था । (४) व्यक्त को पाँच भूतों के विषय में संशय था । (५) सुधर्मा को यह संशय था कि जो जीव इस भव मे जैसा है, परभव में भी वैसा ही जन्मता है । (६) मण्डिक को बन्ध और मोक्ष के विषय में संशय था । (७) मौर्यपुत्र को देवों के अस्तित्व के विषय में संशय था । ( ८ ) अकम्पित के नारकों के विषय में संशय था । ( ९ ) अचलभ्राता को पुण्य-पाप संबंधी संशय था । (१०) मेतार्य को परलोक में संशय था और (११) प्रभास को मोक्ष के अस्तित्व में संशय था । इन्द्रभूति से लेकर प्रभास
પણ સંશયરહિત થઇને પેાતાના ત્રણુસા શિષ્યા સાથે પ્રભુ પાસે દીક્ષા લીધી.
એ અગિયાર ગણધરાના સંશયના વિષયમાં બે સંગ્રહણી ગાથા છે—(૧) ઇન્દ્રભૂતિને જીવના વિષયમાં સંશય હતા. (૨) અગ્નિભૂતિને કમના વિષયમાં સંશય હતા. (૩) વાયુભૂતિને એ જ જીવ છે અને એ જ શરીર છે એવા સંશય હતા. (૪) વ્યક્તને પાંચ છ્તાના વિષયમાં સંશય હતા. (૫) સુધર્માને એવા સંશય હતા કે જે જીવ આ ભવમાં જેવા છે, પરભવમાં પણ તેવે જ જન્મે છે. (૬) મંડિકને બંધ અને મેાક્ષના વિષયમાં સ’શય હતા. (૭) મૌર્ય પુત્રને દેવાના અસ્તિત્વના વિષયમાં સંશય હતે. (૮) અકતિને નારકીના વિષયમાં સંશય હતા. (ङ) अथलश्राताने पून्य-थापना विषयभां संशय हतो. (१०) भेतार्थने पराउने विषे संशय हतो. (११) प्रभासने મોક્ષના અસ્તિત્વ વિષે સંશય હતે. ઇન્દ્રભૂતિથી માંડીને પ્રભાસ સુધીના તે અગિયારે ગણધર પોતપોતાના સંશય
कल्प
मञ्जरी टीका
गणधराणां सन्देहसंग्रहः । ॥ सू०११३॥
॥ ४३५॥
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श्रोकल्पसूत्रे ।४३६॥
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को गणरः कतिसंख्यकैः शिष्यैः प्रत्रजित इति प्रतिपादिका संग्रहणी गाथा -
'पंच सवाई' इत्यादि । पञ्चानां गणधराणाम् = इन्द्र भूत्यग्निभूति - वायुभूति - व्यक्त - मुधर्मणाम् प्रत्येकं पञ्चशतः पञ्चशतः=पञ्चशतसंख्यकः पञ्चशतसंख्यकः शिष्याणां गणो भवति । ततः परयोद्वयोः = मण्डिकमौर्ययोः प्रत्येकं सार्द्धत्रिशतः सार्द्धत्रिशतः = सार्द्धत्रिशतसंख्यकः सार्वत्रिशतसंख्यकः शिष्याणां गणो भवति । शेषाणां तदतिरिक्तानां चतुर्णाम्=अकम्पिताचलभ्रातृमेतार्यप्रभासानां प्रत्येकं त्रिशतः त्रिशतः = त्रिशतसंख्यकः शिष्याणां गणो भवतीति । एवम् अनेन प्रकारेण प्रभुसमीपे सर्वे चतुश्चत्वारिंशच्छतानि = चतुश्चत्वारिंशच्छतसंख्यका द्विजाः = गणधर - शिष्या अपि प्रत्रजिता इति ॥ ०११३ ||
॥ इति गणधरवादः ॥
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदणवाला भगवओ केवलुप्पत्तिं विष्णाय पन्चज्जं गहीउं उकंठिया समाग्री पहु समी संपत्ता । सा य पहुं आदक्खिणं पदक्खिणं करेइ, करिता बंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! संसारभव्विग्गाहं देवाणुप्पियाणं अंतिए पन्चइउं । तए णं समणे भगवं महावीरे तं चंदणतक यह ग्यारह गणधर अपना-अपना संशय दूर होने पर गणधरता - गणधरपदवी को प्राप्त हुए ।
कौन मगर कितने शिष्यों के साथ दीक्षित हुए, यह बतलाने वाली संग्रहणी गाथा है
इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त और सुधर्मा इन पांच गणधरों का प्रत्येक के पाँच-पाँचसौ शिष्यों का गण था। इनके बाद दो-मण्डिक और मौर्यपुत्र का प्रत्येक के साढेतीनसौ शिष्यों का गण था । शेष चार- अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास का तीन-तीनसौ शिष्यों का समूह था । इस प्रकार प्रभु के पास सब मिलकर चवालीससौ द्विज गणधरों के शिष्य भी दीक्षित हुए थे । ०११३ ॥
|| गजधरवाद समाप्त ॥
દૂર થતાં ગણધરતા-ગણધરની પદવી પામ્યા.
કયા ગણધર કેટલા શિષ્યા સાથે દીક્ષિત થયા તે બતાવનારી સંગ્રહણીગાથા આ પ્રમાણે છે-ઇન્દ્રભૂતિ, અગ્નિભૂતિ, વાયુભૂતિ, વ્યક્ત અને સુધર્મા એ પાંચે ગધામાં પ્રત્યેકનુ પાંચસો-પાંચસાનુ શિષ્યગણ હતું. ત્યારબાદ મ ંડિક અને મૌય પુત્ર એ બન્નેમના દરેકનું સાડાત્રણસેાનુ શિષ્યગણ હતું. બાકીના ચાર-અકમ્મિત, અચલભ્રાતા, મેતાય અને પ્રભાસ એ દરેકને ત્રણસે ત્રણસે શિષ્યોના સમૂહ હતા. આ પ્રમાણે પ્રભુની પાસે બધા મળીને ચુ'માળીસસે બ્રાહ્મણા જે આ અગીઆર ગણધરના શિષ્યા હતા તેઓ દીક્ષિત થયા હતા. (સૂ૦૧૧૩)
॥ ગણુધરવાદ સમાપ્ત !
कल्पमञ्जरी
टीका
गणधराणां शिष्यसंख्या
कथनम् ।
॥ मू० ११४॥
॥४३६॥
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श्रीकल्स
कल्प. मञ्जरी टीका
११३७॥
बालं अग्गेगाउं अन्नाओ बहो उग्गभोगरायण्यामच्चप्पभिईणं कन्नाओ पव्यावेइ पुणो य बहवे उग्गभोगाइकुलप्पभूरा नरा नारीमो य पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्वावइयं एवं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिय समणोवासया जाया।
तगणं से समणे भगवं महानी रे तित्थयर नामगोय कम्मक्खवणई समणसमगीसावयसापियारूपं चउविहं संघ ठाविय इंदभूइपभिईणं गणहराणं-'उप्पन्ने वा विगमे वा धुवे वा' इव तिवई दलइ । एयाए तिवईए गणहरा दुवालसंगं गणिपिडगं विरयंति । एवं एगारसण्डं गगहराणं नव गणा जाया तं जहा-सत्तण्हं गणहराणं परोप्परभिन्न वायणाए सत्तगणा जाया। अकंपियायलभायाणं दुण्डंपि परोप्परं समाणवायणयाए एगो गणो जाओ। एवं मेयजपभासाणं दुण्डंपि एगवायणयाए एगो गणो जाओ। एवं नव गणा संभूया।
तएणं से समणे भगवं महावीरे मज्झिम पावापुरीओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमिसा अणेगे भविए पडिबोहमाणे जणवयविहारं विहरइ । एवं अणेमेसु देसेसु विहरमाणे भगवं जणाणं अण्णाणदेण्णमवणीय ते जाणाइसंपत्तिजुए करी। जहा अंवरम्मिपगासमाणो भाण अंधयारमवणीय जगं हरिसेइ तहा जगभाशु भगवं मिच्छत्तांधयारमवणीय णाणप्पगासेण जगं हरिसी। भवकूबपडिए भविए जाणरजुणा बाहिं उद्धरीभ । भगवं जले धरो व अमोहधम्मदेसणामियधाराए पुर्वि सिंघीय।
एवं विहारं विहरमाणस्स भगवनो एगचत्तालीसं चाउम्मासा पडिपुष्णा, तं जहा-एगो पढमो चाउम्मासो अस्थियगामे १। एगो चंपा गयरीए २, दुवे पिट्टचंपाणयरीए ४। बारस वेसाली णयरी वाणियग्गामनिस्साए १६। चउस रायगिह णगर नालंदाणाम य पुरसाहानिस्साए ३०। छ मिहिलाए ३६। दुवे भदिलपुरे ३८। एगो आलंभियाए णयरीए ३९, एगो सावत्थीए णयरीए ४०। एगो बजभूमि नामगे अणारिय देसे जाओ ४१ । एवं एगचत्तालीसा चाउम्मासा भगवओ पडिपुण्णा ४१। तएणं जणवयविहारं विहरमाणे भगवं अपच्छिम बायालीसइमं चाउम्मासं पावापुरीए हत्थिपालरणो रजुगसालाए जुष्णाए ठिए ॥सू०११४॥
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्दनवाला भगवतः केवलोत्पत्ति विज्ञाय प्रव्रज्या ग्रहीतमुत्कण्ठिता सती प्रभु समीपे संप्राप्ता। सा च प्रभुमादक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा
मूल का अर्थ-'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल और उस समय में चन्दनबाला भगवान महावीरप्रभु को केवली हुए जानकर दीक्षा ग्रहण करने के लिये उत्कंठित हुई प्रभु के समीप पहुँची। उसने प्रभु को आदक्षिण
भूजन - तेणं कालेणं' त्यात आणे भने त समये यनमा सवानने ज्ञाननी पति થઈ એમ જાણી દીક્ષા ગ્રહણ કરવા ઉદ્યત બની, અને પ્રભુની પાસે આવી પહોંચી. તેણીએ પ્રભુને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણ
संघस्थापना चतुर्माससंख्या च। ।मु०११४॥
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॥४३७)
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श्री कल्प
सूत्र
॥४३८॥
एवमवादी-इच्छामि खलु भदन्त ! संसारभयोद्विग्नाऽहं देवानुप्रियाणामन्तिके प्रत्रजितुम् । ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः तां चन्दनबालामग्रे कृत्वा अन्या बहीः उपभोगराजन्यामात्यमभृतीनां कन्याः प्रव्राजयति । पुनश्च बहव उपभोगादिकुलप्रसूता नरा नार्यश्च पञ्चाणुवतिक सप्तशिक्षातिकम् एवं द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपद्य श्रमणोपासका जाता।
ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरस्तीर्थकरनामगोत्रकर्मक्षपणार्थ श्रमण श्रमणी श्रावकश्राविकारूपं चतुर्विधं संघ स्थापयित्वा इन्द्रभूतिप्रभृतिभ्यो गणधरेभ्यः-"उत्पन्नो वा विगमो वा ध्रुवो वा" इति त्रिपदी ददाति। एतया त्रिपद्या गणधराः द्वादशाङ्गं गणिपिटकं विरचयन्ति । एवं एकादशानां गणधराणां नव गणा प्रदक्षिणपूर्वक वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-'भगवान् ! संसार के भय से उद्विग्न होकर मैं देवानुपिय के समीप प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तब श्रमण भगवान् महावीरने चन्दनबाला को आगे करके और भी बहुत सी उग्रवंश, भोगवंश, राजन्यवंश की तथा अमात्य आदिकों की कन्याओं को दीक्षित किया। फिर बहुत से उग्रकुल, भोगकुल आदि में जन्मे हुए नरों तथा नारियोंने पाँच अणुव्रत एवं
संघस्थापना
से गणधरेभ्यः सात शिक्षातबाले-बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया, और उन्होंने श्रावक-श्राविका का पद पाया।
त्रिपदी प्रदानं तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरने तीर्थ कर नाम गोत्र का क्षय करने के लिए साधु, साध्वी श्रावक च। और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना करके इन्द्रभूति आदि गणधरों को 'उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य' ॥सू०११४ इस प्रकार की त्रिपदी प्रदान की। इस त्रिपदी के आधार से गणधरोंने द्वादशांग गणिपिटक की रचना की। પૂર્વક વંદન નમસ્કાર કરી નિવેદન કર્યું કે- હે ભગવન્ત ! સંસારથી ઉદ્વેગ પામી આપની સમીપ દીક્ષા અંગીકાર કરવા માગું છું.' શ્રમણ ભગવાને અવસર જાણી સંમતિ આપી અને ચંદનબાળાની દીક્ષા થતાં ઘણી ઉગ્રવંશી, ભે ગવંશી અને રાજન્યવંશીની કન્યાઓ તેમ જ અમાત્ય વિગેરેની પુત્રીઓએ સંસાર છોડી પ્રવ્રયા અંગીકાર કરી. આ ઉપરાંત ઉગ્રકુલ, ભેગકુલ વિગેરેની નર-નારીઓએ પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાત્રત એમ બાર પ્રકારના ત્રતવાળા ગૃહસ્થ ધર્મ અંગીકાર કર્યો અને ભગવાને આવા નર-નારીઓને શ્રાવક અને શ્રાવિકા પદ અર્પણ કર્યું.
॥४३८॥ ત્યારબાદ તીર્થકર નામ-શેત્રને ક્ષય કરવા માટે ભગવાને સાધુ-સાધ્વી અને શ્રાવિક-શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘની સ્થાપના કરી. ત્યારપછી ઈગતિ વિગેરે ગણધર દેવને ઉત્પાદ, વ્યય, અને ધ્રૌવ્યની ત્રિપદીનું પ્રદાન કર્યું. આ ત્રિપદીના તેજ આધારે ગણુધરેએ દ્વાદશાંગ ગણિપિટકની રચના કરી.
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श्रीकल्प
श्रीकल्पमञ्जरी
॥४३९॥
टीका
जाताः, तद्यथा-सप्तानां गणधराणां परस्परभिन्नवाचनया सप्तगणा जाताः। अकम्पिता-ऽचलभ्रात्रोयोरपि परस्परं ममानवाचनया एको गणो जातः। एवं मेतार्यप्रभासयोयोरपि एकवाचनया एको गणो जातः। एवं नव गणा संभूताः।
ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरो मध्यमपापापुरीतः प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य अनेकान् भनिकान् प्रतिबोधयन् जनपदविहारं विहरति । एवमनेकेषु देशेषु विहरन् भगवान् जनानामज्ञानदैन्यमपनीय तान् ज्ञानादिसम्पत्तियुतानकरोत् । यथा-अम्बरे प्रकाशमानो भानुरन्धकारमपनीय जगद् हर्षयति, तथा जगद्भानुर्भगवान् मिथ्यात्वान्धकारमपनीय ज्ञानप्रकाशेन जगद् अहर्षयत् । भवकूपपतितान् भविकान् ज्ञानरज्ज्वा बहिरुदधरत् । भगवान् जलधर इव अमोघधर्मदेशनामृतधारया पृथिवीम् असिञ्चत् ।। ग्यारह गणधरों के नौ गण हुए। वे इस प्रकार-सात गणधरों की भिन्न भिन्न बाचनाएँ होने से सात गण हुए। अकम्पित और अचलभ्राता-दोनों की परस्पर समान याचना होने से एक गण हआ। इस प्रकार मेतार्य और प्रभास दोनों की भी एक सी वाचना होने से एक गण हुआ। इस प्रकार नौ गण हुए।
तदन्तर श्रमण भगवान महावीर मध्यम पावापुरी से विहार कर अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हए जनपद-विहार विचरने लगे। इस प्रकार अनेक देशो में विहार करते हुए भगवान् ने लोगों की अज्ञान रूपी दरिद्रता को दूर करके उन्हें ज्ञानादि की सम्पत्ति से युक्त किया। जैसे आकाश में प्रकाशमान होता हुआ भानु अंधकार को दूर करके जगत को हर्षित करता है, उसी प्रकार जगद्भानु भगवान् ने मिथ्यात्व रूपी अंधकार का निवारण करके ज्ञानके आलोक से लोक को आहादित किया। भव रूपी कृप में पडे हुवे - આ અગીઆર ગણધર દેના નવ ગચ્છ થયા. સાત ગણધરોની જુદી જુદી વાંચના હોવાને કારણે સાત ગચ્છ ગણાયા. અકંપિત અને અલભ્રાતા બન્નેની પરસ્પર સમાન વાંચના હોવાથી તેઓને એક ગરછ થયો. આ પ્રકારે મેતાર્યા અને પ્રભાસ બન્નેની એક જ વાંચના હોવાથી તેમને પણ એક ગચ્છ ગણો. આ પ્રકારે અગિયાર ગણધરનાં નવ ગચ્છ થયા.
ત્યારપછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર મધ્યમ પાવાપુરીથી વિહાર કરી અનેક ભવ્ય જીવોને પ્રતિબંધ દેતા દેતા જનપદમાં વિચારવા લાગ્યા. આ પ્રમાણે અનેક દેશમાં વિહાર કરી ભગવાને તેની અજ્ઞાનરૂપી દરિદ્રતા દૂર કરી. અને જ્ઞાનાદિ સંપત્તિનું દાન કર્યું. જેમ આકાશમાં પ્રકાશિત થતે સૂર્ય અંધકારને દૂર કરી જગતને આનંદિત બનાવે છે તેમ જગતભાનું ભગવાને મિથ્યાત્વરૂપી અંધકારનું નિવારણ કરી જ્ઞાન દ્વારા લેકને આહાદિક બનાવ્યું.
नवगणभेद कथनम् भगवद्धर्म देशना च। सू०११४॥
॥४३९॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४४० ॥
强强强
एवम् विहारं विहरतो भगवतः एकचत्वारिंशत् चतुर्मासाः प्रतिपूर्णाः । तथथा - एकः प्रथमश्रातुर्मासोstroग्रामे १ | एकश्चम्पानगर्याम् २, द्वौ पृष्ठचम्पायानगर्याम् ४। द्वादश वैशालीनगरी वाणिजग्रामनिश्रायाम् १६ । चतुर्दश राजगृहनगरे नालन्दानामक पुरशाखानि श्रायाम् ३० । षट् मिथिलायाम् ३६ । द्वौ भद्दिलपुरे ३८ । एक आलम्मिकायां नगर्याम् ३९ । एकः श्रावस्त्यां नगर्याम् ४० । एको वज्रभूमिनाम के अनार्यदेशे जातः ४१ । ततः खलु जनपदविहारं विहरन् भगवान् अपश्चिमं द्विचत्वारिंशत्तमं चातुर्मासं पापापुर्थी हस्तिपालराजस्व रज्जुकशालायां जीर्णायां स्थितः ||मू०११४ ||
टीका- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये - चन्दनबाला भगवतः= श्री वीरस्वामिनः केवलोस्पति विज्ञाय प्रवज्यां=दीक्षां ग्रहीतुम् उत्कण्ठिता = उत्सुका सती प्रभुसमीपे = श्रीवीरस्वामिभव्यों को ज्ञान की डोर से बाहर निकाला । भगवान् ने मेघ की भाँति अमोघ धर्मोपदेश की अमृतमयी धारा से पृथ्वी को सिंचन किया। इस प्रकार विहार करते हुए भगवान् के एकतालीस चतुर्मास पूर्ण हुए । वे इस प्रकार - पहला चतुर्मास अस्थिक ग्राम में (१), एक चम्पानगरी में (२), दो चतुर्मास पृष्ठचम्पा में (४), बारह बैशाली नगरी और वाणिज्य ग्राम में (१६), चौदह राजगृह नगर में नालंदा नामक पाडे में (३०), छह मिथिला में (३६), दो भद्दिलपुर में (३८), एक आरंभिका नगरी में (३९) एक श्रावस्ती नगरी में (४०), और एक वज्रभूमि नामक अनार्य देश में (४१), हुआ । इस प्रकार भगवान् के एकतालीस चौमासे व्यतीत हुए। तत्पश्चात् जनपद विहार करते हुए भगवान् अन्तिम बयालीसवा चौमासा करने के लिए पावापुरी में sस्तिपाल राजा के पुराने चुंगीधर ( जकातस्थान) में स्थित हुए | सू० ११४ ।।
ભવરૂપી કૂવામાં પડેલા ભવ્યેાને જ્ઞાનરૂપી દોરી વડે બહાર કાઢયા. ભગવાને મેઘની માફક અમેઘપણે ધર્મોપદેશની ધારા વડે પૃથ્વીને સિંચન કર્યું
આ પ્રમાણે નિર'તર વિહાર કરતાં, ભગવાને એકતાલીસ ચતુર્માસ પૂર્ણ કર્યો. તેનું વર્ણન નીચે મુજબ છેઃ—
પહેલુ' ચામાસુ અસ્થિક ગામમાં (૧), એક ચ'પાનગરીમાં (૨), એ પૃષ્ઠ ચ'પાનગરીમાં (૪), ખાર ચાતુર્માંસ વૈશાલી નગરી અને વાણિજય ગામમાં (૧૬) ચૌદ ચાતુર્માસ રાજગૃહિ નગરીના નાલંદા નામના પાડામાં (૩૦), છ शोभासां मिथिद्यामां (३६), मे महिसपुरम (३८), मेड मास लिअ नगरी (उ), मे श्रावस्ती नगरीमा (४०), अने એક વજાભૂમિ નામના અનાય દેશમાં (૪૧), ત્યારબાદ વિહાર કરતાં કરતાં ભગવાને અ ંતિમ બેતાલીશમ્' ચાતુર્માસ पावापुरी मां, हस्तियास शब्जनी लूनी हाथुशाणा (अतस्थान ) भां यु. ( सू०११४ )
淇演真演有感
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतः चातुर्मास संख्या
कथनम् ।
।। सू० ११४।
॥४४०॥
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श्री कल्प
॥४४॥
निकटे संमाता सा च प्रभुम् आदक्षिणप्रदक्षिणम् अञ्जलिपुटं बद्धा तं बद्धाञ्जलिपुटं दक्षिणकर्णमूलत आरभ्य ललाटपदेशेन वामकर्णान्तिकेन चक्राकारं त्रिः परिभ्राम्य ललाटदेशे स्थापनरूपं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं पचनम् अवादीत-हे भदन्त ! संसारभयोद्विग्नाम्भवभयत्रस्ताऽहं
कल्पदेवानुप्रियाणां भवताम् अन्तिके-समीपे प्रवजितुं दीक्षा ग्रहीतुम्-इच्छामि खलु । ततः खलु श्रमणो भगवान्
मञ्जरी महावीरः तां चन्दनबालां अग्रे-पुरतः कृत्वा अन्याः चन्दनबालातिरिक्ताः बद्दी अनेकाः उपभोग राजन्याss. टीका मात्यप्रभृतीनाम् कन्याः प्रव्राजयति-दीक्षयति । पुनश्च बहवः अनेके-उपभोगादिकुलप्रमृताः-नरा नार्यश्च पश्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षातिकम् एवम् अनेन प्रकारेण द्वादशविधं द्वादशमकारक गृहिधर्म पतिपद्य-स्वीकृत्य श्रमणोपासका श्रावकाः जाताः।
टीका का अर्थ-उस काल और उस समय में भगवान् महावीर स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई जानकर चन्दनबाला दीक्षा ग्रहण करने के लिए उत्सुक होकर भगवान् के निकट पहुँची। उसने भगवान् को आदक्षिण प्रदक्षिण की-हाथजोड कर, जुडे हुए हाथों को दाहिने कान से आरंभ करके ललाट की तरफ से बायें कान के पास तक चक्राकार तीन बार घुमाकर बलाट-प्रदेश पर स्थापित किया। आदक्षिणप्रदक्षिणा करके पन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके आगे कहे हुए वचन कहे-'हे भगवन् ।
बालायाः
दीक्षाग्रहणम्। संसार के भय से त्रास को प्राप्त मैं आप-देवानुपिय के समीप दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ। तब श्रमण भगवान् महावीरमे चन्दनवाला को आगे करके चन्दनबाला के अतिरिक्त और भी बहुत-सी उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल (क्षत्रियकुल) की तथा अमात्य आदि की कन्याओं को दीक्षा प्रदान की। तत्पश्चात् उग्रकुल, भोगकुल आदि कुलों में जन्में हुए अनेक नर-नारियोंने पाच अणुव्रत तथा सात शिक्षावत रूप द्वादश प्रकार के गृहस्थ धर्म को अंगीकार किया और श्रावक-श्राविका बने।
વિશેષાર્થ–બચપણમાં જ સંસારનો દુઃખદુ અનુભવ મળતાં, ચંદનબાલામાં તીવ્ર વૈરાગ્યની ધારા છૂટી. સંસાર તરફને વેગ ઘટવા માંડો ! ભગવાનને આહારદાન આપ્યા પછી, તેનું મન પ્રવ્રજ્યા તરફ રહેતું હતું. તે કાળ તે સમયે ભગવાનને કેવલજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું જાણી, ચંદનબાલાની કક્ષા માટેની તાલાવેલી જાગી. અને ભગવાનની પાસે ॥४४शी આવી દીક્ષાની માગણી કરી. ભગવાને તેને દીક્ષા આપી. ચંદનબાલાની પાછળ, ઉંગ્રકુળ, ભાગકુળ આદિની બહેનદિકરીઓ, વહરે, માતાઓ, પ્રૌઢાઓ અને કુમારિકાઓએ પણ ધક્ષા લીધી. જેઓ દીક્ષા લેવા અસમર્થ હતા on તેઓએ પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રત, એમ બાર પ્રકારને ગૃહસ્થ ધર્મ અંગીકાર કરી શ્રાવક શ્રાવિકા થયા. કદી
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श्रीफल्प
॥४४२॥
टीका
ततः खलु सः श्रमणो भगवान् महावीरः तीर्थकर नामगोत्रकर्मक्षपणार्थ-पूर्वभवोपार्जितस्य तीर्थकरनामगोत्रकर्मणो निर्जरणार्थ श्रमण-श्रमणी श्रावक-श्राविकारूपं चतुर्विध-चतुष्पकारक सङ्घ स्थापयित्वा इन्द्रभूतिभृतिभ्यः इन्द्रभूत्यादिभ्यो गणघरेभ्यः 'उत्पनो वा विगमो वा ध्रुवो वा' इति इत्याकारिका त्रिपदी पदत्रयीं ददाति।
श्रीकल्पएतया अनया त्रिपद्या गणधराः इन्द्रभूत्यादयः द्वादशाङ्गं गणिपिटकं विरचयन्ति। एवम् इत्थम् एकादशानां
मञ्जरी तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने पूर्वबद्ध नीर्थकर नामगोत्र कर्म का क्षय करने के लिए, श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप चार प्रकार के संघ की स्थापना करके इन्द्रभूति आदि मणधरों को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की त्रिपदी प्रदान की। अर्थात् गणधरों के समक्ष यह प्ररूपणा करते हैं कि जगत् के समस्त चेतन, अचेतन, मृत, अमृत, मूक्ष्म, स्थल आदि पदार्थ पर्याय की अपेक्षा उत्पत्तिशील और व्ययशीक है तथा द्रव्य की अपेक्षा थ्रीव्यशील हैं। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण अपने पूर्वपर्याय का परित्याग करता है, उत्तरपर्याय को ग्रहण करता है, फिर भी द्रव्य से ज्यों का त्यों रहता है। जीव का मनुष्य-पर्याय की अपेक्षा
चतुर्विधसंघ विनाश होता है, देव-पर्याय की अपेक्षा उत्पाद होता है, किन्तु आत्मद्रव्य वही का वही बना रहता है।
स्थापन इस त्रिपदी को प्राप्त करके इन्द्रभूति आदि गणधरों ने गणिपिटक रूप द्वादशांगी-आचार आदि बारह गणधरेभ्यः अंगों की रचना की। अर्थात् गणधर ऐसे मेधावी, धारणाशक्तिसम्पन्न तथा विशद बुद्धि के धनी थे कि ईत्रिपदी प्रदान भगवान् के इस सूत्र-वाक्य को समझ कर उन्होंने उसे अत्यन्त विस्तृत रूप प्रदान किया और वे बारह
सू०११४॥ ભગવાને સાધુ સાધ્વી, શ્રાવક, શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘની સ્થાપના કરી. કૈવલજ્ઞાન થતાં, સર્વ ઈચ્છાએ નિમૂળ થઈ જાય છે. છતાં આવી ચતુર્વિધ સંઘની સ્થાપના કરવાની ઈચ્છા ભગવાનને કેમ થઈ આવી હશે? તેના જવાબમાં એ કે, આ સ્થાપના ઈચ્છાપૂર્વક કરવામાં આવી ન હતી. પરંતુ ભગવાને, પૂર્વભવે જે તીર્થકર નામક ઉપાર્જન કર્યું હતું, તેમાં તેના ફળરૂપે, “તીર્થ” આવવાનું હતું. તેથી આ તીર્થની સ્થાપના પૂર્વપ્રયાગાદિ કર્મના ઉદયે થઈ.
પછી પ્રભુએ ગણધર દેવને ત્રિપદીનું દાન કર્યું. આ ત્રિપદી એટલે ત્રણ પદે જેવાં કે-ઉત્પાદ, વય, અને દ્રૌવ્ય. ઉત્પાદ એટલે ઉત્પત્તિ, વ્યય એટલે નાશ અને ધ્રૌવ્ય એટલે ટકવાપણું-સ્થિરતા. આ ત્રિપદી આપતાં, ભગવાને નિરુપણ કર્યું કે, જગતના સમસ્ત પદાર્થોની, જેવા કે ચેતન, અચેતન, મૂર્ત, અમૂર્ત સૂકમ, કે સ્થૂલ વિગેરેની ત્રણ ॥४४२।। અવસ્થાઓ થયા કરે છે, આ અવસ્થાઓને, જૈન-પારિભાષિક શબ્દોમાં “પર્યાયા” કહેવામાં આવે છે, આ પર્યાયે, સમયે સમયે દરેક પદાર્થની બદલાતી જ રહે છે; આગળની પર્યાય નાશ પામે છે અને નવી ઉત્પન્ન થાય છે. છતાં તેણે જે દ્રવ્ય આશ્રિત, આ પર્યાયે ઉત્પન્ન અને નાશ થાય છે, તે દ્રવ્યમાં કાંઈ પણ ફેરફારો થતા નથી અને દ્રવ્ય, કારણ
વય એટલે . જેવા કે એવામાં બયાન નવી
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गणधराणाम्, इन्द्रभूत्यादीनां, नव गणाः जाताः। तद्यथा-सप्तानाम् इन्द्रभूत्य १,-ग्निभात २-वायुभात ३व्यक्त४-मुधर्म ५-मण्डिक ६-मौर्याणाम् ७, गणधराणां, परस्परभित्रवाचनया सप्तगणाः जाताः॥७॥ अकम्पिता १ऽचलभ्रात्रो २ द्वयोरपि परस्परं समानराचनया एको १ गणो जातः ८। एवं मेतार्यप्रभासयोरपि एकवाचनया एको गणो जातः९। एवं नव गणा संभूताः।
श्री कल्फर
कल्प
मञ्जरी
४४३॥
टीका
अंगों की रचना करने में समर्थ हो सके। इसका अभिप्राय यह भी निकलता है कि समग्र जैनदर्शन का मूल आधार उत्पाद व्यय और ध्रौव्य की त्रिपदी ही है। इस त्रिपदी की विस्तृत और विशद आलोचना ही जैन दर्शन का हृदय है। जैनदर्शन का समस्त दार्शनिक चिन्तन इसी त्रिपदी की भूमिका पर प्रतिष्ठित है।
દ્રવ્યપણે ટકી રહે છે, માટે પ્રત્યેક પદાર્થ ત્રૌવ્યશીલ હોય છે. એટલે દરેક દ્રવ્ય, ઉત્પાદ, વ્યય અને પ્રીવ્યપણે રહેલું છે. પદાર્થ પર્યાયની અપેક્ષાએ, “ઉત્પત્તિ' શીલ અને ‘વ્યય’ શીલ મનાય છે, પણ દ્રવ્ય અપેક્ષાએ, ધ્રૌવ્ય શીલ માનવામાં આવે છે. પ્રત્યેક પદાર્થ, પ્રતિક્ષણ પૂર્વ પર્યાયને પરિત્યાગ કરે છે, ઉત્તર પર્યાયને ગ્રહણ કરે છે, છતાં દ્રવ્ય તે જ્યાં હોય ત્યાંજ પડ્યું રહે છે. જીવને, મનુષ્ય પર્યાયની અપેક્ષાએ વિનાશ ગણાય છે, દેવ-પર્યાયની હા નવાળમે અપેક્ષાએ, ઉત્પાદ ગણાય છે, અને આત્મ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ, દ્રૌવ્ય મનાય છે. આ ત્રિપદીની પ્રાપ્તિ થતાંજ, ગણધર · कथनम् । દેવોની જ્ઞાનશક્તિ ઘણી વૃદ્ધિ પામી. મૂળ તે તેઓ જ્ઞાની હતા. જ્ઞાનના ઈચ્છુક હતા, અને જ્ઞાન પિપાસુ પણ હતાં! ॥सू०११४॥ પણ તેઓની જ્ઞાનશક્તિ, અવળી ચાલી ગયેલ હતી, તેમાં ભગવાનને યોગ પ્રાપ્ત થતાં, તે જ્ઞાનશક્તિ સવળી બની, અને જ્ઞાનને અખૂટ પ્રવાહ જે અવધિત થયે હતું, તે ત્રિપદી દ્વારા, બહાર અમેઘપણે વહેવા લાગ્યા, અને ભગવાનની વહેતી વાણીને ઝીલવા લાગે. કેવલીની વાણીનાં સૂક્ષમતમ ભાવેને ઝીલવાં, ગણધરે પણ શક્તિમાન હતાં નથી; છતાં સર્વ કરતાં, તેમની ચાદ્યશક્તિ ઘણી તીવ્ર હોવાથી તે મોટા પ્રમાણમાં તેનું પ્રહણ કરી શકે છે. આ વાણીને, ગણધર દેવ ઝીલતા ગયા, અને તેને દ્વાદશાંગ રૂ૫ પેટીમાં વણતાં ગયાં, આ દ્વાદશાંગ રૂપ પેટીમાં, આચારાંગ” આદિ બાર અંગેની રચના કરવામાં આવી છે. ગણધર દેવે, બુદ્ધિશાળી, તીવ્ર બુદ્ધિના ધણી તેમજ તીવ્ર ગ્રાહક શક્તિના ધારક હોવાથી, ભગવાનના વાક અને શબ્દને સમજી, તેનું અત્યંત વિસ્તૃત રૂપ તેઓએ
II૪૪રૂા. બનાવ્યું. આ ઉપરથી એ અભિપ્રાય નીકળી આવે છે કે, સમગ્ર જૈનદર્શનને મૂળ આધાર, ઉત્પાદ-વ્યય અને દૈવ્યની ત્રિપદી ઉપર છે. આ ત્રિપદીને વિશેષ વિચાર, તેનું મંથન, અને સ્વાધ્યાય એ જૈનદર્શનને સાર છે. જૈનદર્શનનું સમસ્ત ચિંતન, આ ત્રિપદીની ભૂમિકા ઉપર કેન્દ્રિત થયું છે.
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श्रीकल्प
कल्य
मञ्जरी
॥४४४॥
टीका
ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीरो मध्यमपापापुरीतः प्रतिनिष्क्राम्यति प्रतिनिस्सरति, प्रतिनिष्क्रम्यप्रतिनिस्मृत्य अनेकान्-बहून् भविकान्=भव्यजीवान् प्रतिबोधयन् प्रतिबुद्धान् कुर्वन् जनपदविहारं विहरति । एवम् अनेन प्रकारेण अनेकेषु देशेषु विहरन् भगवान् महावीरो जनानाम् भव्यजनानाम् अज्ञानदैन्यम् =अज्ञानरूपदारिद्रयम् अपनीय तान् जनान् ज्ञानादिसम्पत्तियुतान् ज्ञानादिसम्पत्तिशालिनः अकरोत् कृतवान् ।
ग्यारह गणधरों के नौ गच्छ हुए। वे इस प्रकार-इन्द्रभति, अग्निभूति, वायभति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डिक और मौर्यपुत्र इन सात गणधरों की भिन्न-भिन्न वाचनाएँ होने से सातों के सात गच्छ हुए। अकम्पित और अचलभ्राता की वाचना मिलती थी, अतः दोनों का एक ही गच्छ बना । इसी प्रकार मेतार्य और प्रभास की भी एक ही वाचना थी, अत एव उन दोनों का भी एक ही गच्छ हुआ । इसी प्रकार नौ गच्छ हुए।
तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान् महावीर मध्य पागपुरी से विहार किये । विहार कर अनेकानेक भव्य जीवों को प्रतिबोध प्रदान करते हुए जनपद-विहार विचरने लगे। अनेक देशों में विचरते हुए भगवान् महावीरने भव्य जनों की अज्ञान रूपी दरिद्रता को दूर करके उन्हें ज्ञानादि की सम्पत्ति से समृद्ध बनाया। जैसे आकाश में प्रकाशित होनेवाला मूर्य अन्धकार का विनाश करके जगत् के जीवों को हर्पित करता हैं, उसी प्रकार भगवान् ने मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को दूर करके संसार के प्राणियों को आनन्दित किया। तथा भवकूप में पडे हुए जनों को ज्ञान रूपी रस्सी से उबारा। अर्थात आरंभ-परिग्रह में आसक्त चित्त
અગીયાર ગણધરના નવ ગચ્છ થયા, જેવા કે ઇન્દ્રભૂતિથી મૌર્ય પુત્ર સુધીના સાત ગણધરની જુદી જુદી વાચનને લીધે સાત ગછ થયા. અર્થાપિત અને અલભ્રાતા, આ બેઉની સરખી વાચના હોવાથી આ બેઉને એક આઠમે ગચ્છ થશે. એવી જ રીતે મેતા અને પ્રભાસ, આ બેઉની સરખી વાચના હેવાથી આ બેઉને એક-નવમાં ગછ થયો. આ પ્રમાણે નવ ગછ થયા. ભગવાન પાવાપુરીમાંથી વિહાર કરી, દેશે દેશમાં વિચારવા લાગ્યા. ભગવાનના પુણ્યપ્રભાવે, ભવ્યજનેને સિતારે તેજ થવા લાગ્યો. તેઓ સંસારના તાપથી મુક્ત થયા. સંસારની કાળી બળતરામાંથી છૂટી, શીતળ છાંયડી તળે આવવા લાગ્યા. જ્ઞાનપ્રકાશ થતાં, અંધકાર દૂર થવા લાગ્યું. ભવરૂપી કૂવામાંથી હમેશને માટે બહાર નીકળી, ભગવાનની વાણીરૂપ ગંગાજળનું તેઓએ પાન કર્યું આરંભ અને પરિગ્રહ એ સંસારનું મૂળ છે, એમ ભગવાનદ્વારા નીકળેલ વાણીથી જાણ્યું આ આરંભ અને પરિગ્રહ, સર્વ પ્રકારના કલેશના મૂળ છે, તેમ જાણી ઘણા ભવી જીએ, તેને સદંતર ત્યાગ કર્યો, અને જે સદંતર ત્યાગી શક્યા નહિ, તેઓ, તેનું પરિમાણુ કરી, અનાસકત ભાવે રહેવા લાગ્યા. સમ્યકજ્ઞાન દર્શન અને ચારિત્રયુક્ત વાણીનું શ્રવણ થતાં, ઘણુ જીવે મોક્ષના પથિકે
भगवद्धर्म
देशना वर्णनम्। ॥०११४॥
છે
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श्रीकल्प
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मञ्जरी
॥१४५॥
टीका
भगवद्धर्म
यथा-अम्बरे आकाशे प्रकाशमानः=देदीप्यमानो भानुः मूर्यः अन्धकारम् अपनीय जगद् हर्षयति आनन्दयति, तथा तेन प्रकारेण जगदानु: स्वकीयकेवलज्ञानरश्मिना जगत्पकाशकत्वेन जगत्सूर्यों भगवान् मिथ्यात्वान्धकारम् अपनीय दूरीकृत्य जगत् अहर्षयत् आनन्दितवान् । तथा-भवकूपपतितान् जनान् ज्ञानरज्ज्वा=ज्ञानरूपया रज्ज्वा बहिरुदधरत्-बहिरुद्धतवान् , आरम्भपरिग्रहप्रसक्तचित्तान् जनान् ज्ञानप्रदानेन मोक्षमार्गगामिनः कृतवानित्यर्थः। तथा-भगवान्-जलधर इव मेघ इव अमोघधर्मदेशनामृतधारया अबन्ध्यधर्मोपदेशरूपामृतवर्षणेन पृथिवीं असिञ्चत् । अयं भाव:-यथा-मेघो ग्रीष्मतापतप्तां पृथिवीं स्व जलधारयाऽऽीकृत्य सस्यसम्पत्तिबहुलां करोति, तथैव भगवान् धर्मोपदेशरूपजलवर्षणेन पृथिवीं भव्यहृदयभूमि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपसस्यसम्पत्तियुतामकरोदिति ।
एवम् पूर्वोक्तेन प्रकारेण-तीर्थङ्करपरिपाटया दीक्षादिनादारभ्य अनवरतविहारं विहरतः निरवच्छिन्नविहारं कुर्वतो भगवतः एकचत्वारिंशत् चातुर्मासाः प्रतिपूर्णाः व्यतीताः। तद्यथा-एकः प्रथमश्चातुर्मासोऽस्थिकग्रामे= वाले जीवों को ज्ञानप्रदान करके मोक्षमार्गगामी बनाया। तथा-भगवान् ने मेघ के समान अमोघ (सफल) धर्म-देशना की मुधा-धारा प्रवाहित करके महीतल का सिंचन किया। अभिप्राय यह है कि जैसे मेघ गर्मी के ताप से संतप्त पृथ्वी को अपनी जलधारा से सींचकर धान्य-सम्पत्ति की बहुलता से युक्त कर देता है, उसी
प्रकार भगवान् ने धर्मोपदेश रूपी जल की वर्षा करके भन्यजीवों की हृदय-भूमि को ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी र धान्य-सम्पत्ति से युक्त कर दिया।
इस प्रकार तीर्थंकरों को परम्परा के अनुसार दीक्षा के दिन से लेकर निरन्तर विहार • करते भगवान् के एकतालीस चौमासे व्यतीत हो गये। वे इस प्रकार हुए-एक पहला चौमासा भस्थिक ग्राम में १, બન્યા. ભગવાનની વાણી નિમળ અને નિર્દોષ હતી, તેથી તે વાણીએ ઘણા જીને સાચા રાહે સ્થિર કર્યા. ભગવાનની વાણીનું શ્રવણ, જેઠ માસના ધગધગતા ઉનાળામાં અકળાએલા જેને જેમ ઠંડુ બરફનું પાણી મળતાં શાંતિ પ્રસરે છે, તેમ સંસાર તાપથી તપેલા છેને ઠંડકવાળું બન્યું. અને તેઓ પણ, આગેકદમ ભરવા લાગ્યા. જેમ અખૂટ મેઘ ધારાથી, પૃથ્વી, ધન ધાન્ય સંપત્તિ વડે નાચી ઉઠે છે, તેમ ભગવાનની દિવ્યવાણી વડે, લેકમાં ઉત્સાહ અને આનંદ ઉભરાવા લાગ્યા. અને લોકે સાચા જ્ઞાન અને સાચા ચારિત્રના આરાધક બન્યા,
| તીર્થકરોની પરંપરા અનુસાર, ભગવાનના ચોમાસાની ગણત્રી, દીક્ષાના દિવસથી શરુ થાય છે, આ પ્રમાણે - ગણતાં, પ્રભુના એકતાલીસ ચાતુર્માસ થાય છે. આ સઘળા ચાતુર્માસે મૂળ પાઠના અનુવાદમાં બતાવવામાં આવ્યા
देशना
मा.
वर्णनम् । ॥०११४॥
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श्रीकल्प
कल्प
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॥४४६॥
टीका
अस्थिकनाम्नि ग्रामे जातः १, एकश्चम्पानगर्याम् २, द्वौ चातुर्मासौ पृष्ठचम्पानगर्याम् ४, द्वादश चातुर्मासा वैशालीनगरीवाणिजग्रामनिश्रायाम् १६, तथा-चतुर्दश चातुर्मासा राजगृहनगरे-राजगृहनमरवर्त्तिन्यां नालन्दानामकपुरशाखा
निश्रायाम् ३०, तथा-पट् चातुर्मासा मिथिलायाम् ३६, तथा-द्वौ चातुर्मासौ भदिलपुरे ३८, एकश्चातुर्मास आलम्भिमा कायां नगर्याम् ३९, एकः श्रावस्त्याम् ४०, तथा-एकश्चातुर्मासो वज्रभृमिनामके अनार्यदेशे जातः४०, एवम
अनेन प्रकारेण भगवतः एकचत्वारिंशत्संख्यकाः चातुर्मासाः प्रतिपूर्णाः समाप्ताः। ततः खलु जनपदविहारं विहरन् भगवान अपश्चिमम् अन्तिमं द्विचत्वारिंशत्तमं चातुर्मासं पापापुर्या हस्तिपालराजस्य जीर्णायां-पुरातन्यां रज्जुकशालायां करग्रहणगृहे 'चूंगीघर' इति प्रसिद्ध स्थितः ॥९०११४॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आसन्नं नियनिव्वाणतिहि अणुहविय मज्झ पेमाणुरागरत्तस्स अस्स "मम निव्वाणं दहण केवलनाणुप्पचिपडिबंधो मा भवउ" त्ति कट्ट गोयमसामि देवसम्ममाइण पडिबोहणढे आसन्नगामंमि दिवसे पेसी ।
तेणं समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई अगार वासमझे वसिय, साइरेगाइं दुवालसवासाई छउमत्थपरियाए, देमूणाई तोसं वासाई केलिपरियाए एवं वायलीसं वासाइं सामण्णपरियाए पसिय, बावत्तरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता खोणे वेयणिज्जा उयनामगुत्तकम्मे इमीसे ओसप्पिणीए दृसमसुसमाए समाए बहुवीइक्वंताए तीहिं बासेहि अद्धनयमेहि य मासेहि सेसेहि पावाए णयरीए हस्थिवालस्स रणो रज्जुगसालाए जुण्णाए तस्स दुचत्तालीस इमस्स वासावासस्स जेसे चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहुले, तस्स णं कत्तिय बहुलस्स एक चम्पानगरी में २, दो चौमासे पृष्ठचम्पा में ४, बारह वैशाली नगरी और वाणिजग्राम में १६, चौदह राजगृह नगर के नालन्दा नामक उपरनगर में ३०, छह चौमासे मिथिला नगरी में ३६, दो भद्दिलपुर में ३८, एक आलंभिका नगरी में ३९, एक श्रावस्ती नगरी में ४०, और एक बज्रभूमि नामक अनार्य देश में ४१, इस प्रकार भगवान के एकतालीस चतुर्मास बीत गये । तत्पश्चात् जनपद विहार करते हुए भगवान् अन्तिम बयालीसवा चौमासा करने के लिए पावापुरी में हस्तिपाल राजा के पुरानी मुंगीघर में स्थित हुए ॥मू०११४॥ છે. જદા જુદા સ્થળે, ચોમાસા કરવાથી તે વખતે વરતાતી દેશની સઘળી સીમાઓને આવરી લેવામાં આવી હતી. આથી સઘળા મનુષ્ય, ભગવાનની વાણીને અપૂર્વ લાભ મેળવી શક્યા હતા. છેલું એટલે કે બેતાલીસમું ચાતુર્માસ પાવાપુરીમાંજ કે જ્યાં સંધની સ્થાપના, ત્રિપદીનું પ્રદાન વિગેરે થયું હતું, તેજ ગામમાં થયું. અહીં ભગવાને તે awत पावापुरीमा २५ ४२तास्ता नाभना रानी शुशाणाभा ( स्थान)भा यामासु ४यु (२०११४)
भगवतः चातुर्मास संख्या कथनम्
गौतमस्वामिनम् देवशर्मप्रतिबोधनार्थ प्रेषणं च। ॥सू०११४॥
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श्री कल्पसूत्रे
॥४४॥
眞獎
PAREKHA
पन्नरसीपक्खेणं जा सा चरमा रयणी, तीए अद्धरतीए एगे अवीए छटेणं भत्तेणं अपाणएणं संपलियंक निसणे दस अझयणाई पावफलविवागाई, दस अज्झयणाई पुण्णफलविवागाई कहित्ता, छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाई बागरित्ता एवं छप्पण्णं अज्झयणाई कहित्ता पहाणं नाम मरुदेवज्झयणं विभावेमाणे कालगए त्रिइकंते समुज्जाए । छिन्नजाई जरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे जाए । तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदे नाम दोचे संच्छरे पीइवडणे मासे नंदिबद्धणे पक्खे, अग्गिवेस्से उवसमित्ति अवर नामे दिवसे, देवानिरति अनामा रयणी, अच्चे लवे, मुहुत्ते पाणू, सिद्धे थोवे, नागे करणे, सव्बद्धसिद्धे मुहुत्ते साई नक्खत्ते चंदेण सद्धिं जोगमुवागर चात्रि होत्था ।
जं स्यणि चणं समणे भगवं महात्रीरे कालगए तं स्यणि चणं बहूहिं देवेहि देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमाणेहिय देवुज्जोए देवसण्णिवाए देवकहकहे उपिंजलगभूए यावि होतथा ॥ ०११५ ॥
छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः आसन्नां निजनिर्वाणतिथिमनुभूय मम प्रेमानुरागरक्तस्यास्य " मम निर्वाणं दृष्ट्वा केवलज्ञानोत्पत्तिमतिवन्धो मा भवतु" stत कृत्वा गौतमस्वामिनं देवशर्मब्राह्मण प्रतिबोधनार्थमासन्नग्रामे दिवसे मैपयत् ।
स खलु श्रमणो भगवान महावीरस्त्रिंशद् वर्षाणि अगारवासमध्ये उषित्वा सातिरेकाणि द्वादशवर्षाणि छद्मस्थपर्याये, देशोनानि त्रिंशद् वर्षाणि केवलिपर्याये, एवं द्विचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपर्याये उषित्वा
मूल का अर्थ - 'तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीरने अपने निर्वाण का दिन समीप जानकर 'मेरे प्रेम में अनुरक्त इन्द्रभूति के मेरा निर्वाण देखकर केवल ज्ञान की उत्पत्ति में विघ्न न हो, ऐसा विचार कर गौतम स्वामी को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए पास के एक ग्राम में, दिन में भेज दिया।
तक छद्मस्थ
वह श्रमण भगवान महावीर तीस वर्ष गृहवास में रहे। कुछ समय अधिक बारह पर्याय में रहे, तथा कुछ कम तीस वर्ष केवली पर्याय में विचरे। इस प्रकार बयालीस वर्ष श्रमण-पर्याय में भूमना अर्थ – 'तेणं कालेणं' इत्यादि. ते आज भने ते समये भगवान महावीरे पोतानो निर्वाण नलड़ આબ્યા જાણી ઇન્દ્રભૂ તને મારા ઉપર અથાગપ્રેમ છે, અને તેને લીધે, તેનું કેવળજ્ઞાન અવરોધાઈ જશે' એમ વિચારી ગૌતમ સ્વામીને તે દિવસે સાંજે દેવશમાં બ્રાહ્મણને પ્રતિબેાધ કરવા માકલી દીધા. આ દેવશર્મા બ્રાહ્મણ, નજીકના ગામમાં રહેતા હતા. અને તે મેક્ષપથિક તેમજ સત્યને ગ્રહણ કરવાવાળા જણાતા હતા. શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર ત્રીસ વ ગૃહસ્થાવાસમાં રહ્યા. બાર વર્ષથી કંઈક અધિક-અર્થાત્ બાર વર્ષે સાડા છ માસ છદ્મસ્થ-પર્યાયમાં રહ્યા. ત્રીસ વર્ષમાં
कल्प
मञ्जकी
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गौतमस्वामिनम् देवशर्म प्रतिबोधनार्थ प्रेषणम् ।
॥सू० ११४॥
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yee द्वासप्ततिवर्षाणि सर्वायुष्कं पालयित्वा क्षीणे वेदनीयायुष्कनामगोत्रकर्मणि अस्या अवसर्पिण्यादुष्षमसुषमायां
समायां बहुव्यतिक्रान्तायां त्रिषु वर्षेषु अर्द्धनवमेषु च मासेषु, पापायां नगया हस्तिपालस्य राज्ञो रज्जुकशालायां
जीर्णायां तस्य द्विचत्वारिंशत्तमस्य वर्षावासस्य यः स चतुर्थों मासः सप्तमः पक्षः कार्तिकबहुलः, तस्य खलु श्रीकल्प
कार्तिकबहुलस्य पञ्चदशीपक्षे या सा चरमा रजनी, तस्या अर्धरात्रौ एकोऽद्वितीयः षष्ठेन भक्तेनापानकेन ॥४४८॥ संपल्यङ्कनिषण्णः दश अध्ययनानि पापफलविपाकानि दशाध्ययनानि पुष्यफलविपाकानि कथयित्वा पत्रिंशच्चा
पृष्टव्याकरणानि व्याकृत्य एवं षट्पञ्चाशदध्ययनानि कथयित्वा प्रधानं नाम मरुदेव्यध्ययनं विभावयन् कालगतः व्यतिक्रान्तः समुद्यातः छिन्नजातिजरामरणबन्धनः सिद्धो बुद्धो मुक्तोऽन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखमहीनो जातः। रहे और बहत्तर वर्ष की समग्र आयु भोगी। तत्पश्चात् वेदनीय आयुष्क, नाम और गोत्र कर्म के क्षीण होने पर, इस अवसर्पिणी काल के दुष्षम सुषम आरे का अधिक भाग बीत जाने पर, तीन वर्ष और साढेआठ मास शेष रहने पर, पावापुरी में राजा हस्तिपाल के जीर्ण चुंगीघर में, उस बयालीसवें चौमासे के चौथे मास, सात में पक्ष-कार्तिक कृष्णपक्ष की अमावास्या की अन्तिम आधी रात्रि में, एक अद्वितीय (अकेले) निर्जल षष्टभक्त की तपस्या करके पर्यकासन से विराजमान हुए। दस अध्ययन पाप के फल-विपाक के और दस अध्ययन पुण्य के फल-विपाक के कहकर तथा छत्तीस विना पूछे प्रश्नो का उत्तर देकर-इस प्रकार छप्पन अध्ययन फरमा कर, प्रधान नामक मरूदेव के अध्ययन का प्ररूपण करते हुए कालधर्म को प्राप्त हुए, संसार से निवृत्त हुए, पुनरागमन-रहित ऊर्ध्वमति-कर गये, जन्म जरा और मरण के बन्धन से रहित होगये । કાંઈક ઓછા કેવલપર્યાયમાં વિચર્યા. આવી રીતે બેંતાલીશ વર્ષ સાધુપર્યાયમાં રહ્યા અને સમગ્ર રીતે તેર વર્ષનું આયુષ્ય પૂર્ણ કર્યું. ત્યારબાદ વેદનીય, આયુષ્ય, નામ અને ગોત્રકમ ક્ષીણ થતાં, અવસર્પિણી કાળના દુબસુષમાં આરાને ઘણું ખરો ભાગ યતીત થતાં ત્રણ વર્ષ અને સાડા આઠ માસ બાકી રહેતાં, પાવાપુરીમાં, હસ્તપાલ રાજાની જુની કરશાળા-દાણુશાળામાં, બેંતાલીસમા માસામાં અને ચતુર્માસના સાતમા પખવાડિયામાં, કારતક વદ અમાવાસ્યા (ગુજરાતી આ વદી અમાસ-દીવાળી)ની છેલી અર્ધરાત્રીએ, એકલા નિજલ બેલાનું તપશ્ચરણ કરીને, પર્યક–પલાંઠી આસનવાળીને ભગવાન વિરાજ્યા. દુઃખ વિપાક નામના સૂત્રના દશ અધ્યયને અને સુખવિપાક સૂત્રના દેશ અધ્યયનેનું પ્રવચન કર્યા બાદ, તથા અણપૂછાએલ છત્રીશ પ્રશ્નોના ઉત્તર આપ્યા પછી, છપન અધ્યયનનું ફરમાન કર્યા બાદ, “પ્રધાન’ નામના મરુદેવના અધ્યયનનું પ્રવચન ચાલતું હતું તેવામાં, ભગવાન કાળધર્મ પામ્યા. કાળધર્મ પામતાં સંસારથી નિવૃત્ત થયા પુનરાગમન રહિત બન્યા. ઉધ્વગતિ
भगवतः निर्वाणम् । म्०११४॥
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श्री कल्प
श्रीकल्पमञ्जरी
H४४९॥
टीका
तस्मिन्काले तस्मिन् समये चन्द्रो नाम द्वितीयः संवत्सरः, प्रीतिवर्धनो मासः, नन्दिवर्धनवेश्यः उपशमेत्यपर नामा दिवसः देवानन्दा निरतीत्यपरनाम्नी रजनी अर्धे लबः मुहत्तः प्राणः, सिद्धः स्तोकः नाग:करणं, सार्थसिद्धो मुहूर्तः स्वातीनक्षत्रं चन्द्रेण सार्ध योगमुपागतं चापि अभवत् ।
यस्यां रजन्यां च खलु श्रमणो भगवान् महावीरः कालगतस्तस्यां रजन्यां च खलु बहुषु देवेषु देवीष च अवपतत्सु च उत्पतत्सु च देवोद्योतः देवसंनिपातः देवकलकलः उत्पिञ्जलकभूतश्चाप्यभवत् ।।म्०११५॥
टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरः, सिद्ध हुए, बुद्ध हुए, मुक्त हुए, परम शान्ति को प्राप्त हुए और समस्त दुःखो से रहित हुए।
उस काल और उस समय में चन्द्र नामक द्वितीय संवत्सर था, नीतिवर्धन मास था, नन्दिवर्धन पक्ष था। अग्निवेश्य जिसका दूसग माम उपशम है, दिन था। देवानन्दा, अपर नाम निरति नामक रात्रि थी। अर्ध नामक ला था, मुहूर्त नाम: पान था, सिद्ध नामक स्तोक था, नाग नामाकरण था, सार्थसिद्ध मुहर्त था और स्वाती नक्षत्र चन्द्रमा के साथ योग को प्राप्त था।
जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उस रात्रि में बहुत से देवों और देवियों के नीचे आने और उपर जाने के कारण देव-प्रकाश हुआ, देवों का कल-कल हुआ देवों की बहुत बडी भीड लगी मू०११५॥
टीया का अर्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर ने अपने निर्वाण के दिन समोप કરી ગયા. જનમ જરા અને મરણના બંધનથી રહિત થઈ સિદ્ધ, બુદ્ધ, મુકત, પરિનિવૃત, અને સર્વદુઃખના અંતકારી થયા, પરમશતિ ને પામી સમસ્ત દુઃખેથી રહિત બન્યા. તે કાળ અને તે સમયે “ચંદ્ર' નામનું બીજું વરસ ચાલતું હતું. તેમાં પ્રતિવર્ધન માસ હતો. અને નંદિવર્ધન નામનું પખવાડિયું હતું‘અગ્નિવેશ્ય” અથવા '५' नामनी ६५सतो. पानही अय। निति' नामनी रात्री ती. 'A' नामने। स तो . 'मुहूत" નામને પ્રાણ હરે “સિદ્ધ’ નામનું તેમ હતું. “નાગ” નામનું કરણ હતું. ‘સર્વાર્થસિદ્ધ’ નામનું મુહૂર્ત હતું, અને
સ્વાતિ નક્ષત્રને ચંદ્રમા સાથે વેગ વરતી રહ્યો હતે. જે રાત્રિએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર નિર્વાણુ પામ્યા. તે રાત્રીએ છે ઘણા દેવદેવીઓના અવામ મનને લીધે દેવ-પ્રકાશ થવા પામ્યું હતું. '
આ ઉપરાંત દેવનો મેળે જાયે હતે. દેના કલકલાટની સાથે ઘણી ભીડ ૫૭ જામી હતી. (સૂ) ૧૧૫). વિશેષાર્થ – ભગવાન મહાવીરે પિતાને અંતકાલ નજીકમાં પ્રવર્તત જોય-એટલે દેહ છૂટવાને વખત આવી
भगवत: निर्वाण वर्णनम् । मू०११५॥
॥४४९॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४५०॥
आसन्नां = समीपप्राप्तां निजनिर्वाणतिथिं = स्वमोक्षदिनम् अनुभूय = ज्ञात्वा मम प्रेमानुरागरक्तस्य मयि स्नेहवतः अस्य = गौतमस्य मम निर्वाणं दृष्ट्वा, केवलज्ञानोत्पत्तिप्रतिबन्धः केवलज्ञानमाप्त्यन्तरायो मा भवतु इति कृत्वा = इति विचार्य गौतमस्वामिनं देवशर्मब्राह्मणमतिबोधनार्थ देवशर्माख्यस्य ब्राह्मणस्य प्रतिबोधप्रयोजनाय, आसन्नग्रामे - पापापुरीसमीपवर्तिनि ग्रामे दिवसे प्रेषयत् = प्रेषितवान् ।
स खलु श्रमणो भगवान् महावीर; त्रिंशद् वर्षाणि अगारवासमध्ये = गृहवासमध्ये, उषित्वा = वासं कृत्वा सातिरेकाणि= साधिकानि द्वादशवर्षाणि छद्मस्थपर्याये, देशोनानि = किंचिदूनानि त्रिंशत् वर्षाणि केवलिपर्याये = केवलत्वे, एवं द्विचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपर्याये चारित्रपर्याये उषित्वा स्थित्वा जन्मकालादारभ्य द्वासप्तति वर्षाणि सर्वायुष्कं = सर्वमायुः पालयित्वा = समाप्य वेदनीयायुष्कनामगोत्रकर्मणि क्षीणे सति अस्या अवसर्पिण्या:= जानकर 'मेरे उपर स्नेह रखनेवाले गौतम को मेरा निर्वाण देखकर केवलज्ञान की प्राप्ति में विघ्न न हो' इस प्रकार विचार कर गौतमस्वामी को देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए पावापुरी के समीपवर्त्ती किसी ग्राम में दिन के पीछले समय भेज दिया ।
श्रमण भगवान् महावीर तीस वर्ष तक गृहवास में रहे। कुछ समय अधिक बारह वर्ष पर्यन्त छद्मस्थास्था में रहे। और कुछ समय कम तीस वर्ष के बली - पर्याय में रहे। इस प्रकार बयालीस वर्षों तक चारित्र - पर्याय में रहे । जन्मकाल से आरंभ करके समग्र आयु बहत्तर वर्षकी भोगी । तत्पश्चात् वेदनीय, श्रायु, પહોંચ્યા છે એમ જાણ્યું. તેને જણાતું હતું કે ઇન્દ્રભૂતિ નામના મારા પટ્ટશિષ્યને મારા પર ઘણેા અનુરાગ છે. આ અનુરાગથી ગૌતમ મારા દેહાવસાન વખતે પેતાની જ્ઞાનમિકાથી કદાચ ચુત થાય! તે તેને નિરાવરણુ એવુ કૈવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થવામાં વિઘ્ન ઉપસ્થિત થાય, એટaા માટે ગૌતમસ્વામીને પાસેના ગામમાં રહેનાર દેવશર્મા નામના બ્રાહ્મણના પ્રતિબાધ માટે દિવસે જ મેાકલી દીધા.
શ્રમણુ ભગવાનનું સમગ્ર જીવનનું સિંહાવલેાકન કરતાં આપણને જાણવા મળે છે કે તેના ત્રીસ વર્ષને સમય ગૃહસ્થ જીવનમાં પસાર થયા. આ જીવનમાં માલ્યાવસ્થા બાદ કરતાં તેમના બાકીના ગૃહસ્થ જીવનમાં તેમણે પોતાના ગૃહસ્થકાળ સયમીપણે અને વિરક્ત શામાં ગાળ્યો. માર વથી અધિક વખત કઠીન સાધુ અવસ્થામાં પસાર કર્યો. આ કાળમાં તેમણે ભગીરથ પ્રયાસ આદર્યા અને આત્મસાધનાની પ્રાપ્તિ કરી. બાકીના ત્રીશ વર્ષોં કૈવલીપણે વ્યતીત કરી આંતેર વર્ષનું સમય આયુષ્ય તેમણે પૂરૂ કર્યું. આ પ્રકારે ભગવાને બેતાલીસ વષેનું ચારિત્ર પાળ્યુ.. કેવળજ્ઞાન થાય છે, છતાં દેહની સ્થિતિ ઉભી રહે છે. આ દેહને આધારે વેદનીય, આયુષ્ય, નામ અને
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कल्प
मञ्जरी
टीका
भगवतः निर्वाण
वर्णनम् । ॥मू०११५॥
॥४५०॥
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श्रीकल्प
मत्रे ॥४५१॥
एतदवसर्पिणी सम्बन्धिन्यां दुष्षममुषमायां समायां वहुव्यसिक्रान्तायाम् अधिकांशेन व्यतीतायां, तस्यां पुनः त्रिषु वर्षेषु अर्द्धनवमेषु-सार्धाष्टामु मासेषु शेषेषु-अवशिष्टेषु सत्म, पापायां नगया इस्तिपालस्य तदाख्यस्य राज्ञः जीर्णायां-पुराण्यां रज्जुकशालायां तस्य द्विचत्वारिंशत्तमस्य वर्षावासस्य-वर्षतुनिवासस्य-चातुर्मासस्य यःस चतुर्थों मासः, सप्तमः पक्षः-श्रावणकृष्णपक्षादयं सप्तमः पक्षः कार्तिक बहुला कार्तिककृष्णपक्षः, तस्य खलु कार्तिकबहुलस्य-कार्तिककृष्णपक्षस्य पञ्चदशीपत्रे अमावास्यातिथौ या सा चरमा अन्तिमा रजनी-रात्रिः, तस्याः रजन्या अर्धरात्र-रात्रेर भागे एकः-एकाकी अद्वितीयः-अपरमुक्तिगामिजनरहितः, अपानकेन जलपानरहितेन षष्ठेन भक्तेन-दिनद्वयतपोरूपेण युक्तः संपल्यनिषण्ण पद्मासनोपविष्टः दश अध्ययनानि पापफलविपाकानि
कल्पमञ्जरी टीका
भगवतः निर्वाणवर्णनम् । ॥०११५॥
नाम और गोत्र नामक चार अघातिक कौ का क्षय हो जाने पर इसी अवसर्पिणी काल के दुष्पम-मुषम नामक चौथे आरे का अधिक भाग बीत जाने पर और सिर्फ तीन वर्ष तथा साढेश्राठ महोने शेष रहने पर पावापुरी में हस्तिपाल राजाकी पुरानी शुल्कशाला में बयालीस चौमासे के चौथे मास और सातवें पक्ष में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में और कार्तिक कृष्णपक्ष की अमावस्या तिथि में, अन्तिम रात्रि के अर्थ भाम में अर्थात् आधी रात के समय में अकेले-दूसरे मोक्षगामी जीव के साथ के विना ही जल-पान रहित बेले की तपस्या के साथ पद्मासन से विराजमान हुए। उस समय विपासूत्र के प्रथम स्कन्ध नाम से प्रसिद्ध पाप का ગોત્ર કમર રહેતાં હોય છે. દેહ છૂટતાં આ કમેને પણ સદંતર નાશ થઈ જાય છે અને જીવ નિરાકાર અવસ્થા પ્રકટ કરી સિદ્ધ થાય છે.
ભગવાનના અંતિમકાળ વખતે અસર્પિણ કાળ ચાલતું હતું. આમાં પણ દુષમ સુષમાં નામના ચોથા આરાને લગભગ પૂરે સમય વ્યતીત થયો હતો એટલે ચોથા આરાના ફક્ત ત્રણ વર્ષ અને સાડાઆઠ મહિના જ બાકી રહ્યા હતા. આ સમયે ભગવાન પાવાપુરીમાં હતા. ત્યારે રાજા હસ્તિપાલ હતા. તેની ગણુશાળામાં પશુ લગવાને બેતાલીસમું ચાતુર્માસ કર્યું હતું. આ ચતુર્માસને થે મહિનો ચાલી રહ્યો હતે. તેમ જ ચતુર્માસનું સાતમું પખવાડિયું વ્યતીત થઈ રહ્યું હતું. આ માસ કારતક મહિનાનું હતું, જેને આપણે આ માસ તરીકે ગણીએ છીએ.
કાર્તિક જદ ( ગુજરાતીમાં આસો વદ) અમાસને દિવસે અર્ધ રાત્રિના પાછલા પહોરે ભગવાન મોક્ષ પધાર્યા, ભગવનને દેહ છૂટતી વખતે ભગવાન એકલા જ મોક્ષગામી હતા. તે સમયે જગતને કંઈ પશુ જીવ સિદ્ધ થયે જ ન હતું. અંતિમ સમયે ભગવાને ચાવીહારના ત્યાગરૂપ છઠ્ઠ આદરેલ હતું. તપશ્ચરણ સાથે પદ્માસન વાળી સ્થિર
॥४५॥
=
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श्रीकल्पसूत्रे ।।४५२।।
विपाकसूत्रम् प्रथमस्कन्धत्वेन प्रसिद्धानि दुःखविपाकनामकानि दशसंख्यकान्यध्ययनानि, तथा दशअध्ययनानि पुण्यफलविपाकानि = विपाकसूत्रस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धत्वेन प्रसिद्धानि सुखविपाकनामकानि दशाध्ययनानि कथयित्वा, च = पुनः पट्त्रिंशत् = षट्त्रिंशदध्ययनात्मकानि अपृष्टव्याकरणानि=प्रश्नं विनैव उक्तानि उत्तराध्ययननाम्ना प्रसिद्धानि व्याकृत्य =उक्त्वा एवम् =अनेनू प्रकारेण षट्पञ्चाशदध्ययनानि कथयित्वा प्रधाननामकं मरुदेवाध्ययनम् विभावयन्= निरूपयन् कालगत : = कालधर्मप्राप्तः, कायस्थितिभवस्थिति कालाद्गतः, व्यतिक्रान्तः = संसाराद् व्यतिगतः, समुद्यतः= अपुनरावृत्योर्द्ध गतः । छिन्नजातिजरामरणवन्धनः = उन्मूलितजातिजरामरणकारणकर्मा, सिद्धः - साधितपरमार्थः, 'बुद्धः = ज्ञाततत्वार्थः, , मुक्तः = सकलकर्मकलापपाशाद्वियुक्तः, अन्तकृतः = दूरीकृतसर्वदुःखः, परिनिर्वृतः = सर्वसन्तापाभावात् परमशान्तिप्राप्ताः, तथा च कीदृशी जात इति दर्शयति — सर्वदुःखप्रहीणः = प्रहीणशारीरमानससर्वदुःखः
जातः अभवत् ।
फलविपाक दर्शाने वाले दस दुःखविपाक नामक अध्ययनों को तथा विपाकसूत्र के द्वितीय अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध, पुण्य का फल बतलानेवाले दस सुखविपाक नामक अध्ययनों को कह कर और उत्तराध्ययन के नाम से प्रसिद्ध छत्तीस अध्ययन रूप पृष्ट व्याकरणों को अर्थात् पूछे बिना ही किये गये व्याकरणों को कह कर और इस प्रकार सब छप्पन अध्ययन फरमा कर प्रधान नामक मरूदेव अध्ययन का प्ररूपण करते हुए काल को प्राप्त हुए । अर्थात् कार्यस्थिति और भवस्थिति से मुक्त हुए, पुनरागमन रहित गति को प्राप्त हुए, जन्म जरा और मरण के बन्धन से मुक्त हुए, परमार्थ को साधकर सिद्ध हुए, तवार्थ को जानकर बुद्ध हुए और समस्त कर्मों के समूह से मुक्त हुए, उनके समस्त दुःख दूर हो गये। किसी भी प्रकार का संताप न रहने से परम शांति को निर्माण को प्राप्त हुए, और इस कारण समस्त शारीरिक और मानसिक दुःखों से रहित हो गये ।
डाया भन, वयनना योगे विशल्या इता. शुद्ध ध्यानना थोथा पाये आउट था चाय लघुअक्षर मेटले 'अ इ उ - ૪-હું' આ પાંચ અક્ષરોના ઉચ્ચારણમાં જેટલે વખત પસાર થાય તેટલે વખત તે પાચે રહી શેષ રહેલા વેદનીય, આયુ, નામ, ગાત્ર આ ચારે કર્મો ક્ષય કરી મેાક્ષ પધાર્યા.
જે વખતે ભગવાન તપસ્યા સાથે પદ્માસન વાળી બેઠા હતા તે સમયે ભગવાનની વાણીને છેવટના પ્રવાહ નીકળ્યે જતા હતે. જેમ ભાદરવા માસને છેલ્લા વરસાદ પૂર્ણ શક્તિથી ધોધમાર પડે છે તેમ ભગવાનની આ વાણી છેલ્લી હતી; તેથી જેટલા શબ્દો વાણી દ્વારા આવવા બાકી હતા તે સત્ શબ્દાદિક પુદ્ગલા અખંડપણે વહેતા થયા ને વાણી રૂપે ગેઠવાઈ. સ્વયં મુખેથી ધ્વનિ મારફત 'નીકળવા માંડયા,
源
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतः
निर्वाणवर्णनम् ।
।। मृ०११५ ।।
॥४५२॥
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श्री कल्पसूत्रे ॥४५३॥
During
演員
तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवतो - निर्माणकालावसरे चन्द्रो नामद्वितीयः संवत्सर आसीत्, तथा प्रीतिवर्द्धनो नाम मासः, नन्दिवर्द्धनो नाम पक्षः, उपशमेत्यपरनामा अग्निवेश्यो नाम दिवसः, निरतीत्यपरनाम्नीं देवानन्दा नाम रजनी = रात्रिः, अर्को नाम लवः, मुहूर्त्ती नाम प्राणः सिद्धो नाम स्तोकः, नागो नामकरणं, स्वार्थसिद्धो नाम मुहूर्तः, स्वाती नक्षत्रं चन्द्रेण सार्द्धं योगं संबन्धम् उपागतं चापि अभवत् ।
यस्यां रजन्यां=रात्रौ च खलु श्रमणो भगवान महावीरः कालगतः - कालं कृतवान् तस्यां रजन्यां च खलु बहुषु देवेषु देवीषु च अवपतत्सु = अधआगच्छत्सु उत्पतत्सु = ऊर्ध्व गच्छत्सु च देवोद्योतः देवप्रकाशः, देवसंनिपातः = देवसङ्गमः, देवकलकलः = देवनादः उत्पिञ्जलकभूतः = संबाधश्चापि अभवत् । ' बहुहिं देवेहिं ' इत्यादिषु सप्तम्यर्थे तृतीया ॥ - ११५॥
मूलम् - तरणं से गोयमसामी ममणस्स भगाओ महावीरस्स निव्वाणं सुणिय बज्जाहए वित्र खणं मोणमोलंबिय दो जाओ । तओ पच्छा मोहवसंगओ सो विलबइ-भो ! भो ! भदंत महावीर ! हा ! हा ! उस काल और उस समय में अर्थात् भगवान् के निर्माण के अवसर पर चन्द्र नामक द्वितीय संवत्सर था। प्रीतिवर्धन नामक मास, नन्दिवर्धन नामक पक्ष, उपशम जिसका दूसरा नाम है ऐसा अग्निवेश्य नामक दिवस था । देवानन्दा, जिसका दूसरा नाम निरति है, रात्रि थी । अर्ध नामक लत्र, मुहूर्त्त नामक प्राण, सिद्ध नामक स्तोक, नाम नामक करण, सर्वार्थसिद्ध नामक मुहर्त्त था और स्वाती नक्षत्र के साथ संबंध को प्राप्त था। जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उस रात्रि में बहुत से देवों और देवियों के नीचे आने और ऊपर जाने से देवप्रकाश हुआ, देवों का संगम हुआ, देवों का कलकल नाद हुआ और देवों की बहुत बडी भीड भी हुई ।।९११५ ।।
આ વખતે ભગવાનના પ્રવચનમાં વિપાક સૂત્રના પ્રથમ શ્રુતસ્કંધ જેને દુઃખવિપાક તરીકે એળખવામાં આવે છે, તેમ જ વિપકસૂત્રના બીજો શ્રુતસ્કંધ જેમાં પુણ્યના સુખરૂપ ફળે વળ્યાં છે તે વિપાકસૂત્ર વાણીમાં આવતુ આ ઉપરાંત વશુપુછેલા એવા છત્રીસ અધ્યયનવાળુ ઉત્તરાધ્યયનસૂત્ર તેમના મુખ દ્વારા નીકળતુ હતુ, તેમ જ છપ્પન અયને પણ પ્રવચનમાં જણાતાં હતાં. આ અધ્યયનમાં ‘મરુદેવ’નું અધ્યયન ચાલતુ હતુ. તે દરમ્યાન ભગવાનના દેહ છૂટી ગયા અને અજર-અમર અવિનાશી અને ચૈતન્ય સ્વરૂપ એવા પદને ભગવાનના आत्मा चाभ्यो. ते वसते या या योगो, नक्षत्रो, मुहूर्ता, भास, हिन विगेरे करती रह्यां तां तेनु' ज्यान भूपाभांति उरवामां भाव्यु छे. (सू०११५)
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KALKATEEL
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतः
निर्वाणवर्णनम् ।
॥सू० ११५ ॥
॥४५३॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
गौतम
वीर! एयं किं कयं भगवया, जं चरणपज्जुबासगं में दूरे पेसिय मोक्खं गए। किमहं तुम्हं हत्थेण गहिय अचिहिस्सं, कि देवाणुप्पियाणं निव्वाणविभागं अपत्थिस्सं, जेणं मं दूरे पेसी। जइ दीणसेवर्ग में सएण
सद्धिं अनइस्सं तो किं मोक्खणयरं संकिण्णं अभविस्सं? महापुरिसा उ सेवगं विणा खणंपि न चिट्ठति, श्रीकल्प
भदंतेण सा नीई कहं विसरिया । इमा पवित्ती विपरिया जाया। सह णयणं ताव दूरे चिट्ठउ परं अंतसमए ॥४५४॥
ममं दिहि ओऽवि दरे पक्खिवी । को अवराहो मए कओ जं एवं कयं । अहुणा को ममं गोयम गोयमेत्ति कहिय संबोहिस्सइ, कमहं पण्डं पुच्छिस्सामि, को मे हिययगयं पण्डं समाहिस्सइ । लोए मिच्छंधयारो पसरिस्सइ, तं कोणं अाकरिस्सइ । एवं विलबमाणे गोयमसामी मणंसि चिंती-'सच्चं, जं वीयरागा रागरहिया चेव हवंति । जस्स नाम चेव वीयरागो से कंसि रागं करेजा ! एवं मुणिय ओहिं पउंजइ । ओहिणा भवकृवपाडिणं मोहकलियं वीयरागो बालंभरूवं नियावराहं जाणिय तं खामिय पच्छायावं करेइ अणुचिंतेइ यको मम, अहं कस्स ? एगो एव अप्पा आगच्छइ गच्छइ य, न कोवि तेण सद्धि आगच्छइ गच्छइ य ।
" एगो हं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्स वि।
एव मप्पाणमणसा, अदीणमणुसासए" ॥१॥ इच्चाइ। वयणेण एगत्त भावणा भावियस्स गोयमसामिस्स कत्तियमुक्कडवयाए दिणयरोदयसमयंमि चेव लोयालोयालोयणसमत्थं निव्वाणं कसिणं पडिपुण्णं अव्वाहयं निरावरणं अणंतं अणुत्तरं केवलबरनाणदंसणं समुप्पण्णं । तया भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासीहि देवदेवी विदेहि सयसयइड्डीसमिद्धेहि आगंतूण केवलमहिमा कया। तेलुकम्मि अमंदाणंदो संजाओ। महापुरिसाणं सवावि चेटा हियहरा एव हवति । तहाहि
"अहंकारो वि वोहस्स, रागो वि गुरुभत्तिओ।
विसाओ केवलस्सासी, चित्तं गोयमसामिणो ॥१॥ जं रयणि चणं समणे भगवं महावीरे कालगए, सा रयगी देवेहि उज्जेविया। तप्पभियं सा रयणी लोए दीवालियत्तिपसिद्धा जाया। नवमल्लई नालेच्छई कासी कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो संसारपारकर पोसहोववासदुगं करिसु। बीए दिवसे कत्तिय सुद्धपडिवयाए गोयमसामिस्स केवलमहिमा देवेहि कया, तेणं तं दिवसं नूयणवरिसारंभदिवसत्तणेण पसिद्धं जायं । भगवओ जेट्ठभाउणा नंदिवद्धणेण भगवं
मोक्वगयं सोच्चा सोगसायरे निमज्जिएण चउत्थं कयं । सुदंसणाए भइणीए तं आसासिय नियगिहे आणाविय Jain Education inatantional चउत्थस्स पारणगं कारियं तेण सा कत्तियमुद्धबिइया भाउबीयत्ति पसिद्धि पत्ता ।।मु०११६॥
स्वामिनः विलापवर्णनम् केवलज्ञान
प्राप्तिश्च ॥सू०११६॥
॥४५४॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४५५॥
ALESALE
छाया - ततः खलु स गौतमस्वामी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य निर्वाणं श्रुत्वा वज्राहत इव क्षण मौनमवलम्ब्य स्तब्धो जातः । ततः पश्वाद् मोहवशङ्गतः स विलपति - भो भी भदन्त ! महावीर ! हा ! हा! वीर ! एतत् किं कृतं भगवता ? यत् चरणपर्युपासकं माम् दूरे प्रेष्य मोक्षं गतः, किमहं स्वां हस्तेन गृहीत्वा अस्थास्यम्, fi देवानुप्रियाणां निर्वाणविभागं प्रार्थयिष्यम्, येन मां दुरे प्रेप्यः यदि दीनसेवकं मां स्वकेन सार्द्धमनेयः, तदा किं मोक्षनगरं सङ्कीर्णमभविष्यत् ? महापुरुषास्तु सेवकं विना क्षणमपि न तिष्ठन्ति, भदन्तेन सा नीतिः कथं विस्मृता ? इयं प्रवृत्ति विपरीता जाता । सहनयनं तावद् दूरे तिष्ठतु, परमन्तसमये मां दृष्टितोsपि दुरे प्राक्षिपः कोऽपराधो मया कृतः । यद् एवं कृतम्। अधुना को मां गौतम गौतमेति कथयित्वा सम्बोधयिष्यति, कमहं प्रश्नं प्रक्ष्यामि, को मे हृदयगतं मनं समाधास्यति । लोके मिथ्यान्धकारः प्रसरिष्यति,
德源
मूल का अर्थ - 'तरणं से' इत्यादि । उसके बाद गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ सुन कर क्षण भर मौन रह कर सुन्न हो गये, जैसे वज्र का आघात लगा हो। उसके बाद मोह के वशीभूत होकर वह विलाप करने लगे - हे भगवन् ! महावीर ! हा हा ! वीर ! यह क्या किया आपने ? मुझ चरण - सेवक को दूर भेज कर आप मोक्ष चले गये ! मैं क्या आप को हाथ से पकड़ कर बैठ जाता ? क्या देवानुप्रिय के मोक्ष में हिस्सा बँटाने की मांग करता, जिससे मुझे दूर भेज दिया ? अगर इस दीन सेवक को भी साथ लेते जाते तो मोक्षनगर सँकड़ा हो जाता वहाँ जगह नहीं मिलती ? महापुरुष सेवक के विना क्षणभर भी नहीं रहते; आपने यह नीति कैसे विसार दी ? यह तो उलटी ही बात हुई ! अरे साथ ले जाना तो दूर रहा, मगर अन्तिम समय में मुझे नजरों से भी ओझल फेंक दिया ! ऐसा क्या अपराध किया था मैंने जो यह किया ? आह, अत्र 'गोयमा, गोयमा, कह कर कौन मुझे संबोधन करेगा ? मैं किससे
भूजन। अर्थ-'तए र्ण से' इत्याहि त्यारमा गौतमस्वामी भगवान महावीरनु निर्वाध सांलजी घडीलर સૂનકાર થઈ ગયા. તેમને વજ્ર જેવા આઘાત લાગ્યો. ત્યારપછી મેહવશ થઈ વિલાપ કરવા મંડયા. વિલાપ કરતાં કરતાં ખેલવા લાગ્યા કે હે ભગવાન! આપે શુ કર્યુ? આપ તમારા ચરણુસેવકને તરછેાડી મેાક્ષ પધારી ગયા ? શું હું તમારા હાથ પકડી બેસી જવાના હતા ? શુ મેક્ષમાં ભાગ પડાવવાના હતા ? જેથી તમેાએ મને દૂર મોકલી આપ્યા! શુ' તમે મને સાથે લઈ જાત તા ત્યાં જગ્યાના તટો પડત ? મહાપુરૂષ સેવક વિના ઘડી પણુ રહી શકતા નથી! આપે કઇ નીતિનું પાલન કર્યું" ? આ તે ઉલટી વાત મની! સાથે લેવાનુ તા દૂર રહ્યુ, પણ રૉ અતિમ સમયે તમે નજરથી દૂર કર્યો ! મે' આવા કયા અપરાધ કર્યાં હતા ? ‘અરે મને ગાયમા! ગાયમાં ? કહી
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गौतम स्वामिनः
विलाप
वर्णनम् ।
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श्रीकल्पसूत्रे
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तं कः खलु अपाकरिष्यति ? । एवं विलपन् गौतमस्वामी मनस्यचिन्तयत् - सत्यं, यद वीतरागाः = रागरहिता एव भवन्ति, यस्य नामैव वीतरागः स कस्मिन् रागं कुर्यात् । एवं ज्ञात्वा अवधि प्रयुङ्क्ते । अवधिमा भवकूपपातिनं मोहकलितं वीतरागोपालम्भरूपं निजापराधं ज्ञात्वा क्षामयित्वा पश्चात्तापं करोति अनुचिन्तयति च - को मम ? अहं कस्य ? एक एव आत्मा आगच्छति गच्छति च, न कोऽपि तेन सार्द्धम् आगच्छति गच्छति च । “ एकोऽहं नास्ति मे कोऽपि नाहमन्यस्य कस्यापि । एवमात्मानं मनसा अदीनमनुशासयेत् ॥ १ ॥
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प्रश्न करूँगा ? कौन मेरे हृदयगत प्रश्न का समाधान करेगा ? लोक में मिथ्यात्व का जो अन्धकार फैलेगा, कौन उसे दूर करेगा ? इस प्रकार विलाप करते-करते गौतमस्वामी ने मन में विचार किया सच है, बीतराग राग-रहित ही होते हैं। जिसका नाम ही वीतराग है, वह किस पर बाग करेगा ? यह जानकर गौतम स्वामी ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान से भवकूप में गिरानेवाला, मोहयुक्त और वीतराग को उलहना देना रूप अपना अपराध जान कर और खमा कर पश्चात्ताप किया और विचार किया । " एगो हं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सवि । एवमणमणसा, अदीणमणुसास ए " ॥ १ ॥ इति ।
"मेरा कौन और मैं किसका ? अकेला ही आत्मा आता है और जाता है। न कोई उस के साथ आता है न जाता है। मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं ही किसी अन्य का हूँ। इस प्रकार मन से કાણું ખેલાવશે ?' હું કાને પ્રશ્નો પૂછીશ ? મારી શકાનું સમાધાન કાણુ કરશે? જગતના મિથ્યાત્વ રૂપ અંધકારને કાણ દૂર કરશે ? આ પ્રમાણે વિલાપ કરતાં ગૌતમસ્વામીએ વિચાર કર્યાં કે એ સાચુ છે ! વીતરાગ તા રાગરહિત જ હાય ! જે રાગરહિત થયા છે તેજ વીતરાગ કહેવાય! આવા વીતરાગી કાના ઉપર રાગ કરે ? આવું સમજતાં ગૌતમ સ્વામીએ અવધિજ્ઞાનના ઉપયોગ મૂકયા.
અવિધજ્ઞાનથી જોતાં જણાયુ કે ભવરૂપમાં હઠ સેવનારી માહવાળી વાણી બાલી વીતરાગને ઠપકો દેતાં મહાન અપરાધ થાય છે ! આથી તેએએ થયેલ અપરાધની માફી માગીને પશ્ચાત્તાપ કરવા લાગ્યા. પશ્ચાત્તાપ સાથે વિચાર ઉદ્ભભવ્યાં કે— " एगो हं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्स वि ।
एव मप्पाणमणसा, अदीणमणुसास ए ॥ १ ॥ इति ।
હું કાણુ, મારૂં કાણું ? હું કાને ? આત્માં એકલા જાય છે અને એકલા આવે છે! તેની સાથે કૈાઈ જતું જતુ નથી, તેમ જ આવતું પણ નથી ! હું' એકલેા જ છું! મારૂ કોઈ નથી અને હું પણુ કાઇનેા નથી ! આ પ્રકારે મનથી અદૃીપ થઇ આત્મા ઉપર રાજ્ય ચલાવનાર થવુ જોઈએ.
कल्प
मञ्जरी
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गौतमस्वामि
नोsवधि
प्रयुञ्जनम्
॥मू०११६॥
॥४५६॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥४५७॥
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इत्यादिवचनेन एकत्वभावनाभावितस्य गौतमस्वामिनः कार्तिकशुक्लप्रतिपदि दिनकरोदयसमये एव लोकालोकाssलोकनसमर्थं निर्वाणं कृत्स्नं प्रतिपूर्णम् अव्याहतं निरावरणम् अनन्तम् अनुत्तरं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् । तदा भवनपतिव्यन्तरज्यौतिषिक विमानवासिभिः देवदेवीवृन्दैः स्व-स्व - ऋद्धि-समृद्धिभिः आगत्य केवलमहिमा कृतः । त्रैलोक्ये अमन्दानन्दः संजातः । महापुरुषाणां सर्वा अपि चेष्टाः हितकर्य एव भवन्ति । तथाहि" अहङ्कारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तयेः ।
विषादः केवलायासीत्, चित्रं गौतमस्वामिनः " ॥ १ ॥
अपने अदीन = उदार आत्मा का अनुशासन करना चाहिए। इत्यादि वचन से एकत्वभावना से भावित गौतमFat को कार्तिक शुक्ला प्रतिपद् के दिन, सूर्योदय के समय ही लोक और अलोक के अवलोकन में समर्थ, निर्वाण का कारण, सब पदार्थों को साक्षात्कार करने वाला, प्रतिपूर्ण अव्याहत, निरावरण, अनन्त, और अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गया। उस समय भवनपति व्यन्तर, ज्यौतिषिक और विमानवासी देवों और देवियों के समूह ने अपनी-अपनी ऋद्धि-समृद्धि के साथ आकर केवलज्ञान की महिमा की तीनों लोकों में अमन्द आनन्द हो गया। महापुरुषों की सभी चेष्टाएँ हितकर ही होती हैं। कहा भी है"अहंकारी व बोस, रागो वि गुरुभत्तिओ ।
विसाओ केवलस्सासी, चित्तं गोयम सामिणो ” ॥ १ ॥ इति ।
अर्थात- आश्चर्य है कि गौतमस्वामी का अहंकार बोध - प्राप्ति का कारण बन गया, राग गुरुभक्ति का
આ પ્રમાણે એકત્વ ભાવનાથી ભાવિત થઈ ગૌતમ સ્વામોએ કારતક સુદ એકમના દિવસે સૂર્યોદય વખતે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યુ”. આ કેવળજ્ઞાન લેાકાલેાકને જોવાવાળું નિર્વાણના કારણભૂત, સ્વપરપ્રકાશક, પ્રતિપૂર્ણ, અવ્યાહત, નિાવરણ, અનંત, અનુત્તર અને શ્રેષ્ઠ હોય છે, કેવળજ્ઞાન સાથે દેવળદર્શીન પણ ઉત્પન્ન થયુ. તે સમયે ભવનપતિ, વ્યંતર, જયાતિષક અને વિમાનવાસી દેવદેવીઓના સમૂહ પોતપાતાની રિદ્ધિ-સમૃદ્ધિ સાથે ઉતરી આવ્યે અને કેવળજ્ઞાનના ઉત્સવ ઉજવ્યેા. ત્રણે લોકમાં અપૂર્વ આનંદ વ્યાપી રહ્યો. મહાપુરુષાના સવ્યવહાર હિતકર જ होय छेउ छ -
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" अहंकारी व बोहिस्स; रागो वि गुरुभत्तिओ ।
विसाओ केवलस्सासी, चित्तं गोयमसामिणो " ॥ १ ॥ અર્થાત્ આશ્ચય' છે કે ગૌતમ સ્વામીના અહંકાર, ખાધ પ્રાપ્તિનું કારણ બની ગયું. રાગ ગુરુભક્તિનું કારણુ
कल्प
मञ्जरी टीका
गौतमस्वामिनः केवलमाप्तिः ।
॥मू०११६॥
॥४५७॥
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श्रीकल्प
श्रीकल्पमञ्जरी
॥४५८॥
टीका
यस्यां रजन्यां च खलु श्रमणो भगवान् महावीरः कालगतः सा रजनी देवैद्रुद्योतिता, तत्प्रभृति सा रजनी लोके दीपावलिका इति प्रसिद्धा जाता। नवमल्लकी-नवलेच्छकी-काशी-कोशलका अष्टादशापि गणराजा: संसारपारकरं पोषधोपवासादिकमकुर्वन् । द्वितीये दिवसे कार्तिकशुद्धप्रतिपदि गौतमस्वामिनः केवलमहिमा देव:
कृतः। तेन स दिवसो नूतनवर्षारम्भदिवसत्वेन प्रसिद्धो जातः। भगवतो ज्येष्ठभ्राता नन्दिवर्धनेन भगवन्तं 2 मोक्षगतं श्रुत्वा शोकसागरे निमग्नेन चतुर्थ कृतम् । सुदर्शनया भगिन्या तमाश्वास्य निजगृहे आनाय्य चतुर्थस्य
पारणकं कारितम् , तेन सा कार्तिकशुद्धद्वितीया भ्रातृद्वितीयेति प्रसिद्धि प्राप्ता ॥सू०११६।। कारण बना-और शोक केवलज्ञान का कारण हो गया।
जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर मुक्त हुए, उस रात्रि में देवों ने खूब प्रकाश किया। तभी से वह रात्रि लोक में 'दीपावली' के नाम से प्रसिद्ध हुई। काशी देश के नौ मल्लकी और कोशल देश के नौ लेच्छकी इस प्रकार अढारही गणराजाओनै संसार से पार करनेवाले दो-दो पोषधोपवास किये। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ला प्रतिपद् को देवों ने गौतमस्वामी के केवलज्ञान की महीमा की । इस कारण वह दिन नूतन वर्षारम्भ का दिन प्रसिद्ध हुआ। भगवान् को मोक्ष गया सुन कर शोक-सागर में डूबे हुए भगवान् के ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन ने उपवास किया। सुदर्शना बहिन ने उनको सान्त्वना देकर और अपने घर पर लाकर उपवास का पारणक करवाया। इस कारण कार्तिक शुक्ला द्वितीया 'भाई दूज' के नाम से प्रसिद्ध हुई।सू-११६॥ થઈ પડયું શક અને કેવલ જ્ઞાનનું કારણ થયું.
જે રાત્રીએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર મુક્ત થયા તે રાત્રીએ દેએ ખૂબ પ્રકાશ પાથર્યો અને તેથી જ તે રાત્રી લેકમાં “દિવાળી” તરીકે પ્રસિદ્ધિ પામી.
કાશી દેશના મલકિ જાતિના નવ મુગટબંધ રાજાઓ અને કોશલ દેશના લેચ્છકિ જાતિના નવ એમ કુલ અઢાર દેશના રાજાઓએ સંસાર પાર કરવાવાળા એ પિષધ ઉપવાસ કર્યા હતા. કાશી દેશના રાજાએ મહિલક” તરીકે અને કૌશલ દેશના રાજાએ “ઋકિ” તરીકે ઓળખાય છે.
બીજે દિવસે કારતક સુદ એકમના દિવસે દેવેએ ગૌતમસ્વામીના કેવળજ્ઞાનનો મહિમા કર્યો; તેથી તે “નૂતન વર્ષારંભ” તરીકે ઓળખાય છે.
ભગવાનને મેક્ષ પધાર્યા જાણી શોકગ્રસ્ત થયેલા ભગવાનના પેડ બ્રાતા નંદીવર્ધને ઉપવાસ કર્યો. તેમની સુદર્શન હેને નંદિવર્ધનને સાંત્વના આપી તેમને પિતાને ઘેર પારણું કરાવ્યું તેથી ભાઈબીજ તરીકે પ્રખ્યાત છે. (સાદ)
मा दीपावल्यादेः प्रसिद्धिकारण वर्णनम् । ०११६॥
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श्री कल्प॥ ४५९॥
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टीका- 'तए णं से गोयमसामी' इत्यादि । ततः खलु सः गौतमस्वामी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य निर्वाण = मोक्षं श्रुत्वा वज्राहत इव वज्रताडितवत् क्षण-क्षणपर्यन्तं, मौनं अवलम्ब्य = आश्रित्य स्तब्ध: = कुण्ठितचेष्टः जातः, ततः पश्चात् तदनु मोहवशङ्गतः = जातमोहः स गौतमस्वामी विलपति = विलापं करोतिभो भो भदन्त ! महावीर ! हा ! हा ! वीर ! एतत् किं कृतम् भगवता ! चरणपर्युपासकं = स्वचरणसेवकं माम् दूरे प्रेष्य मोक्षं=निर्वाणं गतः । किम् अहं त्वां हस्तेन गृहीत्वा अस्थास्यम् = स्थितोऽभविष्यम् ?, किं- देवानुमियाणां निर्वाणविभागं प्रार्थयिष्यम् = अयाचिष्ये ? येन हेतुना मां दुरे प्रेषयः =प्रेषितवान् । यदि दीनसेवकम् मां स्वेन सार्द्धम्=अनेष्यः, तदा तर्हि किं मोक्षनगरं मुक्तिपुरं सङ्कीर्ण = निरवकाशम् अभविष्यत् ? | महापुरुषास्तु सेवकं विना क्षणमपि न तिष्ठन्ति, भदन्तेन सा=सेवक सहनयनी नीतिः = परिपाटी कथं केन प्रकारेण विस्मृता = विस्मरणपथं नीता ? इयम् = एषा प्रवृत्तिः विपरीता = विपर्यस्ता जाता । सहनयनं तु तावत् दूरे तिष्ठतु, परं= किन्तु अन्तसमये = निर्वाणकाले, मां दृष्टितोऽपि = नेत्रतोऽपि दूरे माक्षिपः = मक्षिप्तवान् । कः अपराधः मया कृतः ?
टीका का अर्थ-तत्र गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ सुन कर मानों वज्र से आहत हुए हों, इस प्रकार क्षणभर मौन रह कर सुन्न हो गये ! तत्पश्चात् मोह के वश हो कर वह विलाप करने लगे, हे भगवन् ! महावीर ! हा ! हा ! वीर ! आपने यह कया किया ? मुझ चरणसेवक को दूर भेज दिया और आप स्वयं मोक्ष चल दिये ! क्या मैं आप को हाथ से पकड़ कर बैठ जाता ? क्या आप के मोक्ष में हिस्सा माँग लेता ? फिर क्यों मुझे दूर भेज दिया ? अगर मुझ गरीब सेवक को अपने साथ लेते जाते तो क्या मोक्ष- नगर में जगह न मिलती ? महापुरुष सेवक के विना क्षण भर भी नहीं रहते, भदन्त ने यह परिपाटी कैसे भुला दी ? यह ता उलटी ही बात हो गई ! खैर, साथ ले जाना तो दूर रहा, मुझे
से भी ओझल फेंक दिया ! क्या अपराध किया था मैंने, जिससे आपने ऐसा किया ? अब आप
ટીકાને અથ—જ્યારે ભગવાન મહાવીર નિર્વાણ પામ્યા તે સાંભળીને ગૌતમસ્વામીને જાણે વાપાત થયેા હાય તેવા આઘાત લાગ્યો. આ પ્રમાણે ક્ષણવાર મૌન રહીને સૂનમૂન થઈ ગયા. ત્યારબાદ માહને વશ થઇને તે વિલાપ કરવા લાગ્યા—હે, હે, ભગવાન ! મહાવીર ! અરે રે! વીર! આપે આ શું કર્યું ? ચરણુ સેવક એવા મને દૂર મેકલીને આપ મોક્ષે સિધાવ્યા ! શું હું આપના હાથ પકડી બેસી જવાના હતા ? શુ આપના મેાક્ષમાં ભાગ માગત? તે મને શા માટે દૂર માકલી દીધા ? જો મને–ગરીમ સેવકને આપની સાથે લઇ ગયા હોત તેા શુ મેક્ષ–નગરમાં જગ્યા ન મળત ? મહાપુરુષ સેવક વિના એક ક્ષણ રહેતા નથી, આપે આ પરિપાટી (નિયમ) કેમ ભૂલાવી દીધી ? આ તે અવળી જ વાત બની ગઇ! ખેર, સાથે લઈ જવાનુ' તે દૂર રહ્યુ. પશુ મને આખા સામેથી
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गौतमस्वामिबिलापवर्णनम् ।
।। ०११६ ॥
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श्री कल्पसूत्रे
॥४६०॥
यत्=यस्माद् अपराधात् एवम् = इत्थं कृतम् । अधुना = सम्प्रति देवानुप्रियाणाम् अभावे को मां गौतम गौतमेति कथयित्वा सम्बोधयिष्यति । कं जनम् अहं प्रश्नं प्रक्ष्यामि ? को जनो मे मम हृदयगतं = मनोऽवस्थितं प्रश्नं समाधास्यति ? लोके मिथ्यान्धकारः = मिथ्यारूपान्धकारः, प्रसरिष्यति = विस्तीर्णो भविष्यति, तं मिथ्यान्धकारं, को जनः अपाकरिष्यति = दुरीकरिष्यति ? एवम् = इत्थम्, विलपन = विलापं कुर्वन् गौतमस्वामी मनसि = हृदि अचि - न्तयत् - सत्यं = यथार्थ, यत् - वीतरागाः, रागरहिताः = रागवर्जिता एव भवन्ति यस्य नामैव वीतरागः सः कस्मिन् रागं कुर्यात् ? अपि तु न कस्मिन्नपि । एवम् इत्थम् ज्ञात्वा अवधिम् = अवधिज्ञानं प्रयुङ्क्ते । अवधिना = अवधिज्ञानोपयोगेन भवपपातिनं= संसाररूपकूपपातनशीलं मोहकलितं = मोहयुतं वीतरागोपालम्भरूपं = श्रीमहावीरस्वामिनं प्रति उपालम्भरूपम् - उपालम्भलक्षणं निजापराधं ज्ञात्वा क्षामयित्वा पश्चात्तापम् करोति । अनुचिन्तयति च - को जनो ममास्ति ? अहं च कस्यास्मि ? अस्मिन् संसारे न कोऽपि ममास्ति, न चाहं कस्यचिदस्मीत्यर्थः ।
देवानुप्रिय के अभाव में कौन 'गोवमा, गोयमा' कह कर मुझे संबोधन करेगा ? किससे मैं प्रश्न पूछूंगा ? कौन मेरे मन प्रश्न का समाधान करेगा ? लोक में मिध्यात्व का अंधकाररूप फैल जायगा, अब कौन उसे दूर करेगा ? इस प्रकार विलाप करते हुए गौतमस्वामी ने मन में विचार किया-सत्य है; वीतराग, राग से वर्जित होते हैं। जिसका नाम ही वीतराग हो, वह किस पर राग रक्खेगा ? किसी पर भी नहीं । ऐसा जान कर गौतमस्वामी ने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। अवधिज्ञान के उपयोग से उन्हें मालूम हुआ कि यह भगवान् को उपालंभ देना मेरा अपराध है। यह अपराध भत्र रूपी कूप में गिराने वाला और मोहजनित है ! यह जान कर उन्हों ने अपने अपराध के लिए पश्चात्ताप किया और विचार किया कि - પણ અદૃશ્ય કર્યા? મેં એવા કયા અપરાધ કર્યાં હતા કે જેથી આપે આમ કર્યું' ? હવે આપ દેવાનુપ્રિયના અભાવમાં કાણુ 'ગેયમા, ગાયમા' કહીને મને સંબધન કરશે ? કાને હું પ્રશ્નો પૂછીશ ? કાણુ મારા મનના પ્રશ્નોનુ સમાધાન કરશે ? લેકમાં મિથ્યાત્વરૂપી અંધકાર ફેલાશે. હવે કાણુ તેને દૂર કરશે ?
આ પ્રમાણે વિલાપ કરતાં ગૌતમસ્વામીએ મનમાં વિચાર કર્યો કે સત્ય છે. વીતરાગ રાગ વિનાના હોય છે. જેનું નામ જ વીતરાગ છે તે કોના પર રાગ રાખે ? કોઈના પર પણ નહી! એમ સમજીને ગૌતમસ્વામીએ અવધિજ્ઞાનનેના ઉપયાગ કર્યા. અવિધજ્ઞાનના ઉપયોગથી તેમને લાગ્યુ કે આ પ્રમાણે ભગવાનને ઠપકો આપવા તે મારા અપરાધ છે. આ પ્રાધ ભવરૂપ કૂવામાં પાડનાર અને મેાહજનિત છે એમ જાણીને તેમણે પેાતાના અપરાધ માટે પશ્ચાત્તાપ કર્યાં અને વિચાર કર્યાં કે સૌંસારમાં મારૂ કાણુ છે ? અને હું કાના છું? એટલે કે મારૂ કોઈ નથી
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कल्प
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टीका
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नोsवधिप्रयुञ्जनम् ।
॥ सू०११६ ॥
॥४६०॥
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४६१॥
與漢承
यतः आत्मा एक एव = सजातीयद्वितीयरहित एव परलोकात् आगच्छति च = पुनः एकाकी एव लोके गच्छति । न कोऽपि तेन - आत्मना सार्द्ध-सह, आगच्छति गच्छति च । तदुक्तम्- ' एगोहं' इत्यादि ।
एकः=अद्वितीयः अहमस्मि, कोऽपि मे= मम नास्ति । अहं च अन्यस्य कस्यापि नास्मि । एवम् = इत्थम् मनसा = चित्तेन अदीनम् = उदारम् आत्मानम् अनुशासयेत् ॥ १ ॥
इत्यादिवचनेन एकत्वभावनाभावितस्य गौतमस्वामिनः कार्तिक शुक्लप्रतिपदि दिनकरोदयसमये = सूर्योदयसमकाले एव लोकालोकाऽऽलोकन समर्थ = लोकालोकदर्शनक्षमं निर्वाणं = मोक्षकारणतया तत्स्वरूपं कृत्स्नं सर्वपदार्थसाक्षात्कारितया सर्वस्वरूपम् प्रतिपूर्ण = वैकल्यरहिततवाऽविकलम् अव्याहतम् = व्याघातवर्जितं निरावरणम् = आवरणरहितम्, अनन्तम्=अन्तरहितम्, अनुत्तरम् = सर्वश्रेष्ठ केवलवरज्ञानदर्शनं= केवलज्ञानं - केवलदर्शनं च समुत्पन्नं=
संसार में मेरा कौन है ? और में किस का हूँ, क्यों कि यह आत्मा विना किसी दूसरे आत्मा के साथ - अकेला ही परलोक से आता है और अकेला ही परलोक में जाता है । न कोई आत्मा के साथ आता है, न साथ जाता है। कहा भी है
'मैं अकेला हूँ - अद्वितीय हूँ। मेरा कोई नहीं है और मैं किसी का नहीं हूँ। इस प्रकार मन से अपने दैन्यरहित - उदार आत्मा का अनुशासन करे !"
इस प्रकार एकत्वभावना से प्रभावित हुए गौतम स्वामी को कार्त्तिक शुक्ला प्रतिपदा को, ठीक सूर्योदय के समय ही, लोक और अलोक को जानने-देखने में समर्थ, मोक्ष के कारणभूत, समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले, अविकल - सम्पूर्ण, सब प्रकार की रुकावटों से रहित, सब प्रकार के आवरणों से रहित, सब प्रका रकी द्रव्य क्षेत्र काल भाव संबंधी परिधियों से रहित तथा शाश्वतस्थायी और सर्वोत्तम केवलज्ञान और અને હું' કાઇના નથી, કારણ કે આત્મા બીજા કાઈ પણ આત્માના સાથે વિના એકલે જ પરલેકમાંથી આવે છે અને એકલા જ પરલોકમાં જાય છે. આત્માની સાથે કાઈ આવતું પણ નથી અને જતું પણ નથી. કહ્યું પણ છેહું એકલા -અદ્વિતીય છું. મારૂ કાઈ નથી અને હું કોઈના નથી. આ પ્રમાણે મનથી પેાતાના દૈન્યરહિતઉદાર આત્માનું અનુશાસન કરે.
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"
આ પ્રમાણે એકત્ર ભાવનાથી પ્રભાવિત થયેલ ગૌતમ સ્વામીને કાક સુદ એકમે ખરાખર સૂર્યોદયને સમયે જ
લેક અને અલકને જાણવા-દેખવાને સમથ મેાક્ષના કારણભૂત, સમસ્ત પદાર્થાને પ્રત્યક્ષ કરનાર, અવિકલ–સંપૂ, સધળી જાતની આખિલીએ વિનાનું, સઘળા પ્રકારના આવરણા વિનાનું, સઘળા પ્રકારની દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને
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Jabour Duront on our Tory in our only on our Fr
藏
कल्प
मञ्जरी
टीका
गौतम स्वामिनः केवलप्राप्तिः ।
।। सू० ११६॥
॥४६१॥
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श्रीकल्प
॥४६२॥
हिरवा स्वायत
जातम् । तदा तस्मिन् समये भवनपतिव्यन्तरज्योतिषिकविमानवासिभिः देवदेवीवृन्दैः = देव देवीसमूहैः स्व-स्वऋद्धि- समृद्धिभिः आगत्य = गौतमस्वामिपार्श्व समागत्य केवलमहिमा = केवलमहोत्सवः कृतः । तदा त्रैलोक्ये= त्रिषु लोकेषु अमन्दानन्दः = महान् प्रमोदः संजातः । महापुरुषाणां = महात्मनां सर्वा अपि चेष्टाः = क्रिया हितकर्यः = otheronifior व भवन्ति । तथाहि
獎賞
गौतमस्वामिनः अहङ्कारोऽपि = विद्यामदोऽपि बोधाय = सम्यत्तत्रमाप्तये आसीत् अभूत्, तथा तस्य रागोऽपि गुरुभक्तितः=गुरुभक्तये, आसीत्, विषादोऽपि = भगवद्विरहजनितः खेदोऽपि केवलाय - केवलज्ञानप्राप्तये आसीत्, । इत्येवं गौतमस्वामिनः सर्वे चरित्रं चित्रम् = आश्चर्यकारकम् आसीत् । इति ।
केवल दर्शन उत्पन्न हो गया। भगवान् गौतम सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये ।
उस समय भवनपति, व्यन्तर, ज्यौतिषिक और विमानवासी-चारों निकायों के देवों और देवियों ने अपनी-अपनी ऋद्धि-समृद्धि के साथ गौतमस्वामी के पास आकर केवलज्ञान का महोत्सव मनाया। उस समय तीनों लोकों में खूब आनन्द ही आनन्द हो गया। महापुरुषों की सभी क्रियाएँ हितकारिणी ही होती हैं । देखिए न, गौतम स्वामी को अपनी विद्या का अहंकार हुआ तो उससे उन्हें सम्यक्तव की प्राप्ति हुई । अर्थात् अहंकार से प्रेरित होकर वे भगवान् को पराजित करने चले तो सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। इसी प्रकार उनका राग भाव गुरुभक्ति का कारण बना। भगवान् के वियोग से उत्पन्न हुआ खेद केवलज्ञान की प्राप्ति का कारण हो गया। इस प्रकार गौतमस्वामी का समग्र चरित्र आश्चर्यजनक है-अनोखा है ।
ભાવ સંબધી પરિવિએ (સીમા) વિનાનુ ં તથા શાશ્વત-સ્થાયી અને સર્વોત્તમ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શીન ઉત્પન્ન છ્યું. ભગવાન ગૌતમ સજ્ઞ અને સર્વંશી થઇ ગયા. તે સમયે ભવનપતિ વ્યંતર, જયેતિષિક અને વિમાનવાસી ચારે નિકાયાના દેવે! અને દેવીએએ પેાતપેાતાની ઋદ્ધિ-સમૃદ્ધિની સાથે ગૌતમ સ્વામી પાસે આવીને કેવળજ્ઞાનને મહાત્સવ ઉજન્મ્યા. તે સમયે ત્રણે લેાકમાં આનંદ આનંદ છવાઈ ગયા.
મહાપુરુષોની સઘળી ક્રિયા હિતકારી હાય છે. જુઓને, ગૌતમ સ્વામીને પોતાની વિદ્યાનું અભિમાન થયું તેા તેથી તેમને સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત થયું. એટલે કે અહકારથી પ્રેરાઇને તેઓ ભગવાનને પરાજિત કરવા ઉપડયા તે સમ્યક્ત્વ પામ્યા. એજ પ્રમાણે તેમને રાગભાવ ગુરુભક્તિનું કારણ બન્યા. ભગવાનના વિરહથી ઉત્પન્ન થયેલ ખેદ Jain Education Internal ठेवाज्ञाननी प्राप्तिनुं अरण मन्यो, या प्रमाणे गौतम स्वामीनु आयु यस्त्रि आश्चर्यन-नो छे. ने शत्रे
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गौतम स्वामिनः
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महिमा |
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यस्यां रजन्यां-रात्रौ च खलु श्रमणो भगवान् महावीर: कालमतः कालधर्म मातः सा रजनी देवैः ।
उयोतिता-दिव्यज्योतिषा प्रकाशिता तत्मभृति तदादि सा रजनी लोके 'दीपावलिका' इति नाम्ना प्रसिद्धा जाता। श्रीकल्प
नरमल्लकी-नवलेच्छकी-काशी-कोसलका मल्लकीजातीयाः काशीदेशस्य नव गणराजाः लेच्छकीजातीयाः
कोसलदेशस्य नव गणराजा इत्येवं अष्टादशापि गणराजाः संसारपारकर-भवसमाप्तिकारि पोषधोपवासद्विकं-पोषणं ॥४६३॥
पोष: धर्मपुष्टिः-तं धत्तेन्गृहातीविपोषधः स चासावुपचासश्चेति, यद्वा-पोषधम्मागुक्तव्युत्पत्तिकम् अष्टम्यादिपर्वदिनजातं तत्रोपवासः-उप-भाहारत्यागमुपेत्य वासः निवसन-पोषधोपवासः, तस्य द्विकद्वयम्-चतुर्दश्याममावास्यायां च पोषधोपचासम् अकुर्वन कृतवन्तः। द्वितीये दिवसे-दिने कार्तिकशुद्धमतिपदि गौतमस्वामिनः केपलमहिमा केवलज्ञानमहोत्सयो देवैः कृतः। तेन हेसुना स दिवसः कार्तिकशुक्लपतिपदिनं नूतनवर्षारम्भदिवसत्वेन प्रसिद्धो जातः। भगवतः-श्रीवीरस्वामिनः ज्येष्ठभ्रात्रा नन्दिवर्धनेन भगवन्तं श्रीवीरस्वामिनं मोक्षगतं=
जिस रात्रि में श्रवण भगवान् महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, बह रात्रि देवों ने दिव्य प्रकाशमय बना दी थी, तभी से वह रात्रि 'दीपावलिका' इस नाम से प्रसिद्ध हुई। मल्लकी-जाति के काशी देश के नौ गणराजाओं ने तथा लेच्छकी जाति के कोसल देश के नौ गणराजाओं ने, इस प्रकार महारहों गण- राजाओं ने संसार जन्ममरण का अन्त करने वाले दो-दो पोषधोपवास किये। पोष अर्थात धर्म की पुष्टि करने वाला उपचास पोषधोपवास कहलाता है। अथवा धर्म का पोषण करने वाला, अष्टमी आदि पर्व-दिनों में किया जाने वाला, आहार आदि का त्याग करके जो धर्मध्यानपूर्वक निवास किया जाता है, वह पोषधोपवास कहलाता है। दूसरे दिन अर्थात् कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को देवों ने गौतम स्वामी के केवलज्ञान का महोत्सव मनाया था इस कारण वह दिन-कार्तिक शुक्ला प्रतिपद् नवीन वर्ष के आरंभ का दिन कहलाया। શમણુ ભગવાન મહાવીર કાળધર્મ પામ્યા, તે રાત્રિને દેવોએ દિવ્ય પ્રકાશથી પ્રકાશિત કરી નાખી હતી. ત્યારથી તે રાત્રિ “દીપાવલિના આ નામથી પ્રસિદ્ધ થઈ મલકી જાતિના કાશી દેશના નવ ગણરાજાઓએ તથા લચ્છક્કી ( લિચ્છવી) જાતિના કેસલ દેશના નવ ગણરાજાઓએ, આ રીતે અઢારે ગણરાજાઓએ સંસાર જન્મમરણને અન્ત લાવનાર બે છે વિપકવાસ કર્યો. પિષધ એટલે કે ધર્મની પુષ્ટિ કરનાર ઉપવાસ પિષધપવાસ કહેવાય છે. અથવા ધર્મનું પિષણ કરનાર, આઠમ આદિ પર્વ દિને કરાતા, આહાર આદિનો ત્યાગ કરીને જે ધમધ્યાન પૂર્વક
નિવાસ કરાય છે, તે પિષધપવાસ કહેવાય છે. બીજે દિવસે એટલે કાર્તક સુદી એકમે દેએ ગૌતમ સ્વામીના છે કેવળજ્ઞાનને મહોત્સવ ઉજવ્યો હતો. તે કારણે તે દિવસે-કાર્તક સુદી એકમ-નૂતન વર્ષને પ્રથમ દિવસ કહેવાયે. Jain Educationalation 2
भी दोपावल्यादेः प्रसिद्धिकारण
वर्णनम्। ॥सू०११६॥
॥४६३॥
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श्रीकल्पसूत्रे ॥४६४॥
मोक्षप्राप्तं श्रुत्वा शोकसागरे= श्रीवीरस्वामिमहात्रियोगजनितशोकसमुद्रे निमग्नेन सुता चतुर्थ चतुर्थभक्तं कृतम् । सुदर्शनया = सुदर्शनानाम्न्या नन्दिवर्धनस्य भगिन्या तं नन्दिवर्धनम् आश्वास्य धैर्यवचनेनाऽऽश्वासितं कृत्वा निजगृहे = स्वभवने आनाय्य चतुर्थस्य = चतुर्थभक्ततपसः पारणकं कारितम् तेन सा कार्तिकशुद्धद्वितीया 'भातृद्वितीया' इति अनेन नाम्ना प्रसिद्धिं प्रख्याति प्राप्ता ॥ ०११६ ॥
भगवओ परिवारवण्णणं
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स इंदभूइप्पभिईणं ( १४००) चउदस सहस्ससाहूणं उकिडा साहुसंपया होत्था । चंदणवालापभिईणं (३६०००) छत्तीससमणीसाहस्सीणं उि समणी संपया । संखपोक्ख लिप्पभिडणं (१५९०००) एगूणस द्विसहस्सन्भहियाणं एगमयसहस्ससमणोवासगाणं कट्ठा समणोवास संपया । सुलसा रेवईपभिईणं (३१८०००) अट्ठारस्स सहस्सन्भहियाणं तिसयसहस्ससमणोंवासियाणं उकिट्ठा समगोत्रातियसंपया । अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणस्सेव अवित वागरमाणाणं तिसयाणं चउदसपुत्रीणं उकिट्ठा चउदसपुव्त्रिसंपया । अइसयपत्ताणं तेरससयाणं ओहिनाft उकट्ठा ओहिनाणिसंपया । उप्पण्णवरनाणदंसणधराणं सत्तसयाणं केवलनाणीणं उकिट्ठा केवलनाणिसंपया । अदेवाणं देवढिपत्ताणं सत्तसयाणं वेउन्त्रीणं उकिट्ठा वेउन्त्रियसंपया । अढाइज्जेसु दीवेसु दोसु य समुद्देसु पज्जत्तगाणं सन्निपंचिंदियाणं मणोयए भावे जाणमाणाणं पंचसयाणं विउलमईणं उकिट्ठा विलम संपया । सदेवमयासुराए परिसाए बाए अपराजियाणं चउसयाणं वाईणं उकिट्टा वाइसंपया होत्या । सिद्धाणं जात्र सन्दुक्खपणाणं सत्तसयाणं अंतेवासीणं उकिट्ठा संपया, एवं चेत्र चउदससयाणं अज्जियासिद्धाणं उकट्ठा संपया, एवं सव्वा एगबीसइसया सिद्धसंपयाणं अणुत्तरोववाइयाणं उकिट्ठा अणुत्तरोववाइयसंपया होत्था । दुविहाय अंतगडभूमी होत्था, तंजहा-जुगंतगडभूमी य परियायंतगडभूमी य ॥ सू० ११७||
भगवान महावीर के ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धनने, भगवान् को मोक्ष प्राप्त हुआ सुन कर शोक के सागर में निमग्न होकर उपवास किया था। तब नन्दिवर्धन की बहिन सुदर्शना ने उन्हें सान्त्वना दे कर और अपने घर में लाकर उपवास का पारणा करवाया। इस कारण कार्त्तिक शुक्ला द्वितीया ' भाई - दुज' के नाम से विख्यात हो गई । ०११६ ||
ભગવાન મહાવીરના મોટા ભાઈ નન્તિવન, ભગવાને મેાક્ષ પ્રાપ્ત કર્યા તે સાંમળીને, શાકના સાગરમાં ડૂબીને ઉપવાસ કર્યા હતા ત્યારે નન્તિવનની બેન સુદર્શનાએ તેમને શાન્ત્યના દઈને અને પેાતાના ઘેર લાવીને ઉપવાસનું પારણું કરાવ્યું. આ કારણે કાક શુદી બીજ “ભાઈ ખીજ”ને નામે પ્રખ્યાત થઈ
સૂ॰૧૧૬॥
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餐變藏酒滋
रे
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवतः परिवार
वर्णनम् ।
॥ सू० ११७॥
॥४६४॥
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कल्पमञ्जरी टीका
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य इन्द्रभूतिमभृतीनां चतुर्दशसहस्रसाधूनामुत्कृष्टा साधुसम्पदा जाता। चन्दनबालाप्रभृतीनां पत्रिंशच्छ्रमणीसाहस्रीणामुत्कृष्टा श्रमणौसम्पदा,
शङ्खपुष्कलिप्रभृतीनामेकोनषष्टिसहस्राभ्यधिकानामेकशतसहस्रश्रमणोपासकानामुत्कृष्टा मणोपासकसम्पदा, सुलसाश्री कल्प
रेवतीप्रभृतीनामष्टादशसहस्राभ्यधिकानां त्रिशतसहस्रश्रमणोपासिकानामुत्कृष्टा श्रमणोपासिकसम्पदा, अजिनानां मूत्र
जिनसंकाशानां सर्वाक्षरसंनिपातिनां जिनस्येवावितथं व्याकुर्वतां त्रिशतानां चतुर्दशपूर्षिणामुत्कृष्टा चतुर्दशपूर्ति॥४६५॥
सम्पदा, अतिशयमाप्तानां त्रयोदशशतानाम् अवधिज्ञानिनां उत्कृष्टा अवधिज्ञानिसम्पदा, उत्पन्नवरज्ञानदर्शनधराणां सप्तशतानां केवलज्ञानिनां उत्कृटा केवलज्ञानिसम्पदा, अदेवानां देवर्द्धिपाप्तानां सप्तशतानां वैक्रियिणां उत्कृष्टा
भगवान् के परिवार का वर्णन मूल का अर्थ-'तेणं काले णं' इत्यादि। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर की इन्द्रभूति आदि चौदह हजार साधुओं की उत्कृष्ट साधु-संपदा था । चन्दनवाला आदि छत्तीस हजार साध्वियों की उत्कृष्ट साध्वो संपदा थी। शंख, पुष्कलि आदि एक लाव उनसठ हजार श्रावकों को उत्कृष्ट श्रावकसम्पदा थी। मुलसा रेवती श्रादि तीन लाख अठारह हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट श्राविका-सम्पदा थी। जिन नहीं परन्तु जिन के समान, सर्वाक्षरसन्निपाती और जिन की भांति ही सत्य प्ररूपणा करने गले चौदह पूर्वधारकों की उत्कृष्ट तीनसौ चौदह उत्कुष्ट पूर्वधारी-सम्पदा थी। अतिशय को प्राप्त तेरहसौ अवधिज्ञानियों की अवधिज्ञानी-सम्पदा थी। सातसौ उत्पन्न-पर शानदर्शन को धारण करनेवाले केवलियों की केवली-सम्पदा थी। देव न होने पर भी देव-ऋद्धि को प्राप्त सातसौ वैक्रियलब्धि के धारकों की क्रियिक-सम्पदा थी। अढाईत
ભગવાનના પરિવારનું વર્ણન भूगन। मथ-'तेणं कालेणं या त समये अभय मावान महावीर ने, इन्द्रभूति विशेष यौ। હજાર સાધુઓની ઉત્કૃષ્ટ સાધુસંપઢા હતી. ચંદનબાળા વિગેરે છત્રીશ હજાર સાધ્વીઓની ઉત્કૃષ્ટ સંપદા હતી.
શંખ, પુષ્પકલિ વિગેરે એક લાખ એગણસાઠ હજાર શ્રાવકેની શ્રાવક સંપદા હતી. સુલસા રેવતી વિગેરે ત્રણ લાખ Rી અઢાર હજાર શ્રાવિકાઓની સંપઢા તેમને હતી. જીન નહિં પણ જીન સમાન, સારસન્નિપાતી અર્થાત સર્વશ્રતના
જાણનાર અને જેની વૃત્તિ સત્ય પ્રરૂપણ કરવાવાળી, એવા ચૌદ પૂર્વ ધારકેની, ત્રણસે ઉત્કૃષ્ટ ચૌદ પૂર્વ ધારી સંપદા હતી. તેણે અતિશયની પ્રાપ્તિવાળા તેરસ અવધિજ્ઞાનીઓની-અવધિજ્ઞાની સંપદા હતી. સાતસો ઉત્પન વરજ્ઞાન દર્શનને ધારણ કરવાકરવા વાળા કેવળજ્ઞાનીઓની કેવળી સંપદા હતી. દેવ નહિ પણ દેવઋદ્ધિને પ્રાપ્ત સાતસે મુનિએની ઉત્કૃષ્ટ સંપદા હતી.
भगवत्परिवार
वर्णनम्। ॥सू०११७॥
॥४६५॥
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: श्रीकल्पसूत्रे
॥४६६॥
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वैक्रयिकसम्पदा, अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोः पर्याप्तकानां सव्झिपञ्चेन्द्रियाणां मनोगतान भावान् जानतां पञ्चशतानां विपुलमतीनां उत्कृष्टा त्रिपुलमतिसम्पदा, सदेवमनुजासुरायां परिषदि वादे अपराजितानां चतुश्शतानां वादिनां उत्कृष्टा वादिसंपदा जाता। सिद्धानां यावत् सर्वदुःखमहीनानां सप्तशतानामन्तेवासिनां उत्कृष्टा संपदा, एवमेव चतुर्दशशतानामार्थिकासिद्धानाम् उत्कृष्टा संपदा, एवं सर्वा एकविंशतिः शतानि सिद्धसंपदा आसीत् । गतिकल्याणानां स्थिति कल्याणानामागमिष्यद्भद्राणामष्टशतानामनुत्तरोपपातिकानामुत्कृष्टा अनुत्तरोपपातिकसम्पदाssसीत् । द्विविधा चान्तकृत भूमिरासीत्, तद्यथा - युगान्तकृतभूमिश्च पर्यायान्तकृतभूमिश्र ॥०११७।।
टीका- 'तेगं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य इन्द्रभूति - प्रभृतीनाम् = इन्द्रभूत्यादीनां चतुर्दशसहस्र १४००० साधूनाम् उत्कृष्टा साधुसम्पदा - साधुसम्पत्तिरासीत् । द्वीपों और समुद्रों के पर्याप्त संत्री पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाननेवाले पाँचसौ विपुलमति ज्ञानयोकी विपुलमति-सम्पदा थी। देवों, मनुष्यों और असुरों सहित परिषद् में, बाद-विवाद में, पराजित न होनेवाले - चारसौ वादियों की उत्कृष्ट बादी-सम्पदा थी । सिद्धों यावत् समस्त दुःखों से रहित सातसौ सिद्धों की उत्कृष्ट सिद्ध-सम्पदा श्री । इसी प्रकार चौदहसौ आर्यिका सिद्धों की उत्कृष्ट सम्पदा थी । इस तरह दोनों को मिलाकर इक्कीस सौ सिद्धों की सम्पदा थी। गतिकल्याण, स्थितिकल्याण और भावीभद्र आठ सौ अनुत्तरोपपातिकों (अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वालों) की उत्कृष्ट अनुत्तरोपपातिक सम्पदा थी। दो प्रकार की अन्तकृत भूमि थी। जैसे - युगान्तकृतभूमि और पर्यायान्तकृतभूमि ॥०११७॥
1 टीका का अर्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावोर की इन्द्रभूति आदि चौदह हजार साधुओं की उत्कृष्ट साधु-सम्पदा थी; अर्थात् भगवान् के चौदह हजार साधु थे। चन्दनवाला आदि छत्तीस અઢી દ્વીપ અને એ સમુદ્ર પન્તના પર્યાપ્તસજ્ઞી પચેન્દ્રિય જીવાના મનેાગત ભાવાને જાણુવાવાળા પાંથસે વિપુલમતિ જ્ઞાનીઓની વિપુલમતિ-સ ંપદા હતી. દેવા, મનુષ્યા અને અસુરે સહિતની પરિષદમાં વાદ-વિવાદમાં પરાજિત ન થવાવાળા ચારસો વાદીઓની ઉત્કૃષ્ટ વાદીસ’પદા હતી. સિદ્ધો યાવત સમસ્ત દુઃખોથી રહિત સાતમા સિદ્ધોની ઉત્કૃષ્ટ સિદ્ધ-સંપદા હતી. આ પ્રકારે ચોઇસેા આર્થિકા-સિદ્ધોની ઉત્કૃષ્ટ સંપદા હતી. આ પ્રમાણે બન્ને મળી એકવીસસેા સિદ્ધોની સ'પદા હતી. ગતિકષાળુ, સ્થિતિકલ્યાણ અને ભાવીભદ્ર આઢસા અનુત્તરાપપાતિક અનુત્તર વિમાનમાં જવાવાળાની दृष्ट संहा हती. मे प्रभारनी ततभूमि हुती. (१) युगान्तकृत भूमि, (२) पर्यायान्तकृत भूमि. (सू०११७) વિશેષાથ”—તે કાળ અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરનું શાસન એટલું બધું વેમવતું હતું કે ચૌદ હજાર પુરુષા સાધુ પર્યાય પાળી રહ્યા હતા. ભગવાનના પ્રવચનના દેશ કેવળ ભાવી જીવાને સંસારસાગરમાંથી બચાવી
कल्प
मञ्जरी टीका
भगवत्परिवार वर्णनम् । ॥सू०११७॥
॥४६६॥
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चन्दनवालामभृतीनां चन्दनवालादीनां-ट्त्रिंशच्छ्रमणीसाहस्रीणां-पत्रिंशत्सहस्रपरिमितसाध्वीनाम् उत्कृष्टा श्रमणीसम्पदा-साध्वीरूपसम्पतिरासीत् । शङ्खपुष्कलिपभृतीनां-शङ्कः शतकापरनामा, पुष्कली च श्रमणोपासको तत्पभृतीनांतदादोनाम् एकोनषष्टिसहस्राभ्याधिकानाम् एकोनषष्टिसहस्रोत्तरकाणाम् एकशतसहस्रश्रमणोपासकानाम् एकोनषष्ठिसहस्राधिकै एकलक्षसंख्यकश्रावकाणाम् १५९००० उत्कृष्टा श्रमणोपासकसम्पदा-श्रावकरूपसम्पत्तिः जाता। तथामुलसा-रेवती मभृतीनाम्-अष्टादशसहस्राभ्यधिकानाम् अष्टादशसहस्रोत्तरकाणां,त्रिशतसहस्रश्रमणोपासिकानां-अष्टादशसहस्राधिक लक्षत्रयसंख्यकश्राविकामाम् उत्कृष्टश्रमणोपासिकासम्पदा श्राविकासम्पत्तिः जाता। तथा-अजिनानाम् अस हजार साध्वियों की उत्कृष्ट साध्वी-संपदा थी, अर्थात् छत्तीस हजार सानियां थीं। शंख, शतक-अपरनामवाले तथा पुष्कलि वगैरह एक लाख उनसठ हजार (१५९०००) श्रावकों की उत्कृष्ट श्रावक-सम्पदा थी। मुलसा रेवती (रेवती यह भगवानको भौषध दान देने वाली थी।) आदि तीन लाख अठारह हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट श्राविका सम्पदा थी। जिन अर्थात् सर्वज्ञ न होने पर भी सर्वज्ञ और सर्वाक्षर-सभिपाती अर्थात् લેવાને હતો. તેમના પ્રવચનની પ્રથમ ભૂમિકા વિરાગ્ય હતી. આ પ્રવચને એટલા બધા નિર્દોષ હતા અને શીતલ વહેતાં કે યોગ્ય જીવેનું વલણ આ તરફ થઈ રહ્યું હતું ને સંસારતાપમાંથી ઉગરવાનો માર્ગ ભગવાનની નિર્દોષ અને નિર્મળ વાણી છે, એમ સમજી ઘણા આત્માર્થી અને મેક્ષાથી છએ સાધુવતો અંગીકાર કર્યા.
પુરુષે ઉપરાંત નિર્મળ અને સરળ હાથની બહેને પશુ સ્વઉદ્ધાર નિમિત્તે ભગવાન પાસે દીક્ષિત થઈને ભગવાનની અમૃતમય વાણીનું પાન કરવા લાગી. આ વાણી દિલને ઠંડક આપનારી હેવાથી આત્મરસ જામવા લાગ્યું. તેના પ્રતાપે સી-સમુદાયે મહાવતે અંગીકાર કર્યા, જેમની સંખ્યા છત્રીસ હજારની હતી, પુરુષો કરતાં સ્ત્રીના હદ ધર્મથી વધારે રંગાય છે, તેથી તેમની સંખ્યા પુરૂ કરતાં વધતી ગઈ. તેમનામાં સૌથી મોટા અને અગ્રેસરપદે ચંદનબાળા હતાં.
જેઓ સાધુપણું લેવાને અશક્ત નિવડયા તેઓએ બાર વ્રત ધારણ કર્યા, એટલે સંસારમાં રહી પાપભીર બની સર્વ પ્રકારના વ્યાપાર તથા ભેગ અને ઉપગની વસ્તુઓનું પરિમાણ કરી ધાર્મિક ક્રિયાઓ કર્યા કરતા. નીતિપૂર્વક ધન પ્રાપ્ત કરી. નિપાપી જીવન વિતાવવાના પ્રયાસે તેઓ કરતા. આવે વગ ઘણે છેટે હતો અને તેની સંખ્યા એક લાખ ઓગણસાઠ હજારની થઈ. આ વર્ગને “શ્રાવક વગ” કહેવામાં આવ્યું, જે ભગવાનના પ્રરૂપેલા સિદ્ધાંતો અનુસાર ચાલી તેમના અનુયાયીએ ગણતા હતા. તેમાં શંખ જેનું બીજું નામ શતક હતું તે અને પુષ્કલિ વિગેરે મુખ્ય હતા. સંસારમાં રહેતા સ્ત્રીવર્ગ પણ ભગવાનના પ્રરૂપેલા બાર તેને અંગીકાર કરી જીવન
भगवत्परिवार
निवोणम्।
सू०११७॥
Al૪૬૭
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टीका
वेज्ञानां जिनसङ्काशानां जिनतुल्यानाम सर्वाक्षरसंनिपातिनां सर्वे च ते अक्षरसन्निपाता: अक्षरसंयोगा:-सर्वाक्षरसन्नि
पाताः, ते सन्ति येषां ते तथा-विदितसकलवाझ्या इत्यर्थः, तेषाम् , पुनः कीदृशानाम् ? जिनस्येव-जिनवश्रीकल्प- अवितर्थ यथार्थ, व्याकुर्वतम् प्रश्चनिर्णयं कर्वतां त्रिशतानां शतत्रयसंख्यकानां चतुर्दशसंख्यकपूर्वधारिणाम् उत्कृष्ठा
कल्पचतुदेशपूर्तिसम्पदा जाता। तथा-अतिशयमाप्तानाम-प्रभावशालिनाम् त्रयोदशशतानां त्रिशताधिकैकसहस्रसंख्यकानाम्
मञ्जरी १६८॥
अवधिज्ञानिनाम् अवधिज्ञानवताम् उत्कृष्टा अवधिज्ञानिसम्पदा-अवधिज्ञानसम्पन्नमुनिरूपसम्पत्तिः, तथा-उत्पन्नवरज्ञानदर्शनधराणाम् उत्पन्न-समुत्पन्नं यद्वरं ज्ञानं दर्शनं च तदुभयधराणां सप्तसतानां सप्तशतसंख्यकानां केवलज्ञानिनाम् उत्कृष्टा केवलज्ञानिसम्पदा, तथा अदेवानां देवभिन्नानामपि देवर्द्धिमाप्तानां सप्तशतानां सप्तशतसंख्यकानां क्रियिणां वैक्रियशक्तिमतां उत्कृष्टा वैक्रियिकसम्पदा, तथा-अर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु जम्बूद्वीप-धातकीखण्ड पुष्कसम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता, तथा यथार्थ अर्थात् सर्वज्ञ जैसा उत्तर देने वाले चौदह पूर्वधारियों की तीन सौ उत्कृष्ट चतुर्दशपूर्वधारी सम्पदा थी। अवधिज्ञान को धारण करनेवाले प्रभावशाली तेरह सौ मुनियों की उत्कृष्ट अवधिज्ञानी सम्पदा थी। उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले सात सौ केवलज्ञानियों की उत्कृष्ट केवली-सम्पदा थी। देव न होने पर भी देव-ऋद्धि अर्थात् वैक्रियलब्धि को धारण करने वाले सात सौ मुनियों की वर्णनम्। उत्कृष्ट सम्पदा थी। जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वोप और पुष्कराद्विीप-इस तरह अढाई द्वीपों के तथा लवण ॥सू०११७॥ વિતાવતે. તે શ્રાવિકા વગરની સંખ્યા પણ ત્રણુલાખ અઢાર હજારની હતી, તેમાં મુખ્યપણે સુલસા દેવી અને રેવતી દેવી હતાં. રેવતીએ ભગવાનને ઔષધનું દાન આપ્યું હતું.
જિન નહિ પણ જિન સરિખા એટલે સર્વજ્ઞ નહિ પણ સર્વજ્ઞ સમાન જેનું જ્ઞાન હતું, “સર્વાક્ષરસન્નિપાતી એટલે સંપૂર્ણ શ્રુતજ્ઞાનના જ્ઞાતા, અને યથાર્થ–એટલે સર્વજ્ઞ સમાન ઉત્તર આપવાવાળી ચૌદ પૂર્વનું જ્ઞાન ધારણ કરવાવાળા ચૌદ પૂર્વ ધારીઓની ત્રસની સંખ્યા હતી. આ શ્રુતજ્ઞાનીઓને ઉપદેશ સર્વજ્ઞ જેવું જ છે. આવા શ્રુતજ્ઞાનીઓ “શ્રુતકેવલીઓ” તરીકે ઓળખાય છે. કારણ કે જેમ કેવલીઓને કેવલજ્ઞાન પ્રત્યક્ષ હોય છે તેમ આ શ્રુતકેવલીઓને કેવલજ્ઞાન પક્ષ હોય છે. કેવલી ના જેટલું જ તેઓ અનુમાન પ્રમાણથી જ જાણી શકે છે અને કહી શકે છે. આવા ‘કેવલી” સામાન્ય શ્રુતકેવલી એ કહેવાય. મૃતકેવલીએ ને કેવલીઓ વચ્ચે પ્રત્યક્ષ અને પરોક્ષ જેટલે જ ફરક હોય છે.
॥४६८॥ પ્રભાવ પાડી શકે તેવા ઉત્કૃષ્ટ શ ક્તધારક અને અવધિજ્ઞાનના ધારક એવા મુનિઓની સંખ્યા તેરસો જેટલી હતો. ઉત્પન્ન થયેલ જ્ઞાન અને દર્શનના ધા૨ક એવા સામે કેવલજ્ઞાનીએ પ્રભુ પાસે હતા. દેવ નહિ પણ દેવ જેટલી સેને દિયશક્તિના ધારક એવા ઉમિલમ્પિના ધારણ કરવાવાળા સાતસ વક્રિયિકાને સંધ પ્રભુ પાસે હતા. જંબુદ્વીપ, 82
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श्रीकल्पसूत्रे
॥४६९॥
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रार्द्धरूपेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोः पर्याप्तकानां सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोगतान् = हृदयस्थितान् भावान्=अभिप्रायान् जानवां पञ्चशतानां=पञ्चशतसंख्यकानां विपुलमतीनाम् उत्कृष्टा विपुलमतिसम्पदा, तथा-सदेवमनुजासुरायाम् = देवमनुष्यासुरसहितायां, परिषदि= सभायां वादे = शास्त्रार्थविचारे अपराजितानाम् = अपरास्तानां चतुश्शतानां चतुश्शतसंख्यकानां वादिनाम् उत्कृष्टा वादिसम्पदा जाता । तथा सिद्धानां 'यावत्'- पदेन बुद्धानां मुक्तानां, परिनिर्वृत्तानाम्, इत्येषां संग्रहः, सर्वदुःखप्रहीणानां महोग सर्वदुःखानां सप्तचतानां = सप्तशत संख्यकानाम् - अन्तेवासिनां शिष्याणाम् उत्कृष्टा संपदा, एवमेव = अनेन प्रकारेणैव चतुर्दशशतानां = चतुर्दशशतसंख्यानाम् आर्थिकासिद्धानाम् = सिद्धिमाप्तानां समुद्र और कालोदधिसमुद्र-इम दो समुद्रों के पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन के भावों पर्यायों को जानने वाले पाँच सौ विपुलमति-मनः पर्ययज्ञान के धारक विपुलमतियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। देवों, मनुष्यों और असुरों से सहित सभा में शास्त्रार्थ के विचार में पराजित न होने वाले चार सौ वादियोंकी उत्कृष्ट वादीसम्पदाथी । सिद्ध, और 'यावत' - पद से- बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत तथा सब दुःखों का अन्त करने वाले सातसौं सिद्धों की उत्कृष्ट संपदा थी। इसी प्रकार चौदहसौ सिद्धि को प्राप्त साध्वियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी । ઘાતકી ખાંડ અને અધ પુષ્કરા દ્વીપ, એવા અઢી દ્વીપા તથા લવણ સમુદ્ર અને કાલેાધિ સમુદ્ર એવા એ સમુદ્રોમાં રહેલા તમામ પયામિ પ્રાપ્ત કરેલ સંજ્ઞાજીવે ના મનેગત ભાવા અને વારંવાર ફરતી મનની અવસ્થાને જાણવાવાળા વિપુલમતિ મન:પર્યાય જ્ઞાનના ધરવાવાળા વિપુલમતિના સંખ્યા પાંચસે જેટલી હતી. ધ્રુવ-મનુષ્ય અને અસુરો સહિતની સભામાં શાસ્રાય કરવામાં કદાપિ પણ પરજીત ન થાય તેવા વાદીઓની સંખ્યા ચારસાની હતી.
ઉપર જણાવેલા મનઃવજ્ઞાનના ધારામાં એ વિભાગે હાય છે. (૧) ઋન્નુમતિ મન:પર્યવજ્ઞાનવાળા. (૨) વિપુલમતિ મનઃપવજ્ઞાનને ધારણુ કરવાવાળા. તેમાં વિપુલમતિ જ્ઞાન ઋજુમતિજ્ઞાન કરતાં સૂક્ષ્મભાવાને તથા મનમાં થતા પરિવનાને જાણી શકે છે. ઋજુમતિવાળાની સખ્યા દર્શાવવામાં આવી નથી. મતિજ્ઞાન ધરાવવાવાળા આત્માઓ દ્રવ્ય અને ભાવ મનની સપાટીએ તરતા ભાવા–વિચારને જાણી શકે છે, ત્યારે વિપુલમતિવાળા મનના અંત તમાં જે વિષાર ઉપસ્થિત થતાં હોય તેને વિશિષ્ટપણે જાણી શકે છે.
અહિં વાદીખાની વાત કરી તે વાદીએ એકાંતિક વાદ કરીને પેાતાના સંપ્રદાયને સ્થિર કરવામાં પ્રખર અને अमल हता तेम डि 'हेवु नय; यु भनेअंत दृष्टियी वातने सिद्ध उरवावाजा या वाहीओ हुता. सिद्धयावत् એટલે સિદ્ધ મુદ્ધ મુક્ત પરિનિશ્ર્વર્યંત અને સ* દુઃખાના અંત કરનાર એવા સાતસા સિદ્ધોની સખ્યા હતી. આ પુરુષ सिद्धो उपरांत श्री-सिद्धी पशु हता, भेभने 'मार्थिना नामथी ओवामां आवे छे. या सिद्ध आर्थि
賞獎贏
श्रीकल्प
मञ्जरी टीका
भगवत्परिवार वर्णनम् । ॥सू०११७॥
॥४६९॥
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श्री कल्पसूत्रे
1180011
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花花漫漫漫量
आर्यिकाणां सम्पत्, एवम् अनेन प्रकारेण भगवतः सर्वा एकविंशतिः शतानि एकविंशतिशतपरिमित सिद्धसम्पदा आसीत् । तथा - गति कल्याणानाम् अन्तरभवे शोभनगतिमताम् - मोक्ष्यमाणानाम्, स्थितिकल्याणानाम् देवलोके त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिं प्राप्स्यमानानाम्, आगमिष्यद्भद्राणाम् = भविष्यद्भवे मनुष्यत्वं प्राप्यमोक्षरूपभद्रं प्राप्स्यमानानाम् अष्टशतानाम् = अष्टशतसंख्यकानाम् अनुत्तरोपपातिकानाम् उत्कृष्टा अनुत्तरोपपातिकसम्पदा आसीत् । तथाद्विविधा=द्विप्रकारा च अन्तकृतभूमिः - आसीत्, तद्यथा - युगान्तकृतभूमिः १ पर्यायान्तकृतभूमिश्र २ तत्र - युगान्तकृतभूमिः - युगानि =कालमानविशेषाः, तानि च क्रमवर्तीनि, तत्साधर्म्याद् ये क्रमवर्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः इस तरह सब मिला कर इक्कीस सौ सिद्धों की उत्कृष्ट सिद्ध-सम्पदा थी। अगले अनन्तर भव में मुक्ति पाने वाले देवलोक में तेतीस सागरोपम की स्थिति प्राप्त करने वाले तथा जो अगले भत्र में मनुष्य होकर मोक्षरूप भद्र को प्राप्त करेंगे ऐसे आठ सौ अनुत्तरोपपातिकों (अनुत्तरत्रिमान में जानेवालों ) की उत्कृष्ट अनुत्तरोपपातिक सम्पदा थी ।
तथा - दो प्रकार की अन्तकृत भूमि थी - ( १ ) युगान्तकृतभूमि और पर्यायान्तकृतभूमि । काल की एक प्रकार की अवधिको युग कहते हैं । युगक्रम से होते हैं। इस समानता के कारण गुरु, शिष्य, प्रशिष्य आदि के क्रम से होने वाले पुरुष भी युग कहलाते हैं। उन युगों से प्रमित मोक्षगामियों के काल को युगान्तकृतभूमि कहते हैं। आशय यह है कि भगवान् महावीर के तीर्थ में, भगवान् महावीर के निर्वाण से आरंभ करके जम्बूस्वामी के निर्माण पर्यन्त का काल युगान्तकृतभूमि है। इस के पश्चात् मोक्ष गमन का
એની સંખ્યાને આંકડા ચૌદસા સુધી પહોંચતે હતા. બધા સ્ત્રી-પુરુષ સિદ્ધો મળી એકવીસસેા હતા. આ ભવમાં ભગવાનની સમીપે સાધુપણામાં વિચરી રહ્યા હતા, તેએમાં કેટલાક જીવા આવતા ભવમાં દેવલાકમાં દૈવીશ સાગરીપ્રેમનું આયુષ્ય લઈ દેવપણે ઉત્પન્ન થશે ને ત્યારપછીના ભવ મનુષ્યના કરી મેાક્ષની પ્રાપ્તિ કરશે, એવા અનુત્તર વિમાનમાં ઉત્પન્ન થવાવાળાઓની સંખ્યા આઠસેા જેટલી હતી.
બે પ્રકારની ‘અતકૃત ભૂમિકા’ કહેવામાં આવી છે (૧) યુગાન્તકૃત ભૂમિકા, (૨) પર્યાયાન્તકૃત ભૂમિકા. કાળની એક પ્રકારની હુઇને ‘યુગ' કહે છે. કાળના પણ વ્યવહારિક દૃષ્ટિએ ભાગલા પાડવામાં આવ્યા છે. આવા એક ભાગલાને ‘યુગ’ કહે છે. આવા ચુમાને પણ ક્રમ હાય છે. કારણ કે તેની પણ ક્રમબદ્ધ અવસ્થા છે, જે યુગમાં સમાનતાની અપેક્ષાએ ગુરુ, શિષ્ય, પ્રશિષ્ય, વિગેરેની અનુક્રમે અવસ્થાએ થતી રહેતી હોય અને આવા ફેરફાર ક્રમ પ્રમાણે થયા કરતા હોય તે ‘યુગ’ ‘ક્રમબદ્ધ યુગ’ તરીકે ઓળખાય છે. પારમાર્થિક ભાવે ગુરુ, શિષ્ય વિગેર
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कल्प
मञ्जरी
टीका
अन्तकृत भूमि वर्णनम् । ।।सू०११७॥
॥४७०॥
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श्रीकल्पमृत्रे ॥૪૦॥
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營
पुरुषास्तेऽपि युगानि, तैः प्रमिता अन्तकृतानां निर्वाणगामिनां भूमिः = काल : भगवतो महावीरस्वामिनस्तीर्थे निर्वाणादारभ्य जम्बूस्वामिनो निर्वाणावधिको निर्वाणगामिनां काल इत्यर्थः । ततः परं निर्वाणगमनमुच्छिन्नम् । द्वितीया - पर्यायान्तकृत भूमिः - पर्यायः - भगवतः केवलित्वपर्यांयः तस्मिन् सति अन्तो भवान्तः कृतो यैस्तेषां भूमिः - मुक्तिमार्गभूमिका, सा पर्यायान्तकृत भूमिः - भमत्रन्महावीरस्य केवलज्ञानोत्पच्यनन्तरं वर्षचतुष्टयानन्तरमारव्धमुक्तिमार्गभूमिरिति भावः । इति भूमिद्वयम् ।। ०११७॥
हो गया। मुक्तिमार्ग की भूमि पर्यायान्तकृतभूमि कहलाती है । भगवान् की केवली - पर्याय को यहाँ 'पर्याय' कहा है । वह पर्याय होने पर जिन्होंने भव का अन्त किया - मोक्ष पाया, उनकी भूमि पर्यायान्तकृतभूमि कहलाती है। तात्पर्य यह कि भगवान महावीर की केवली -पर्याय उत्पन्न होने के अनन्तर, चार वर्ष बाद प्रारंभ हुई मोक्षमार्ग की भूमि पर्यायान्तकृतभूमि है । यह दो भूमियाँ थीं ॥सू०११७॥
ક્રમથી થવાવાળી વ્યક્તિ ‘યુગપ્રધાનપુરુષ’ તરીકે કહેવાય છે. આવા યુગપ્રધાન પુરુષોની પણ ભૂમિકાએ હાય છે. આ ભૂમિકાએ પાકતા આવા યુગપ્રધાન પુરુષો પણ અંધ થઇ જાય છે, તેથી આવા સર્વોત્તમ પુરુષોની ભૂમિકા અદશ્ય થયેલી મનાય છે. આવી ભૂમિકાને ‘યુગાન્તકૃત ભૂમિકા' કહેવાય છે.
કહેવાનું તાત્પય એમ છે કે ભગવાન મહાવીરના શાસનમાં ભગવાન મહાવીરના નિર્વાણુથી આરંભ કરી જ ખુ રવામીના નિર્વાણુ પર્યંન્તના કાળને ‘યુગાન્તકાળ' કહે છે ને આ સુગાન્તકાળ જે ભૂમિકાએ વતી રહ્યો હતેા તે ભૂમિકા ‘યુગાન્તકૃત ભુમિકા' તરીકે ઓળખાય છે. જંબુસ્વામી પછી મોક્ષપર્યાય બંધ થઈ ગઈ છે એમ શાસ્ત્રોક્ત વચન છે એટલે જ બુસ્વામી જેવા છેલ્લા મહાન યુગપુરુષ જે ભૂમિકાએ થઇ ગયા તે મેાક્ષમિકા હવે અધ થઇ ગઈ છે તેથી તે ભૂમિકા ‘યુગાન્તકૃત ભૂમિકા' તરીકે પ્રસિદ્ધ છે. માણભૂમિકાની પહેલાં કેવલી પર્યાયની ભૂમિકા હોય છે. મોક્ષપર્યાયભૂમિકા જેને યુગાન્તકૃત ભૂમિકા કહે છે' તે તે 'ધ થઈ ગય઼ ! ત્યારપછોની કેવલી પર્યાયની ભૂમિકાની વાત કરીએ.
મુક્તિ-માગ સહાયકારક ભૂમિકાને પર્યાયાન્વકૃત ભૂમિકા કહે છે. ભગવાનની કેવલી પર્યાયને અહિં પર્યાય’ કહેવામાં આવી છે. આ પર્યાય ઉત્પન્ન થતાં જેમણે ભવના અંત કર્યાં મેાક્ષની પ્રાપ્તિ કરી તેવા કેવલજ્ઞાનપ્રાપ્ત જીવાની ભૂમિકા પર્યાયાન્તકૃત ભૂમિકા' કહેવાય છે. તાત્પય એ છે કે ભગવાન મહાવીરની કેવલી પર્યાય થયાં. પછીના ચાર વ ખાદ ‘પર્યાયાન્તકૃત ભૂમિકા' શરૂ થઈ. આ ‘પર્યાયાન્તકૃત ભુમિકાને ‘મેાક્ષમાત્રની ઉત્તર ભૂમિકા' કહે છે. (સૂ॰૧૧૭)
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(I: APR
Eq• मञ्जरी टीका
अन्तकृतभूमि વળનમ્ । Ilg॰૧૭ા
॥૪૦॥
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गोकल्प
कल्पमञ्जरी
सूत्रे 1.४७२॥
टीका
मूलम् -तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओमहावीरस्स पट्टम्मि सिरिसुहम्म सामी अहेसि॥०११८। छाया-बस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पट्टे श्री सुधर्मस्वामी-आसीत् ॥मू०११८॥
टीका-"तेणं कालेणं तेणं समएणं" इत्यादि। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पट्टे श्रीसुधर्मस्वामी आसित् । श्रीगौतमस्वामिनः केवलित्वात्पट्टस्थाप्यखाभावेन श्रीसुधर्मस्वामिन एव पट्टे स्थापना। यतः आगमे-'श्रुतं मे आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् । एवमुक्तम् । यदि केवलिनः पट्टे स्थापनाऽभविष्यत्तदा केवलिनः सर्वसाक्षात्कारात् कुतश्चिदपि श्राव्यविरहात् भगवता एवमाख्यातमेवं मे श्रुतमिति नाकथयिष्यत् । अतः केवली पट्टे न स्थाप्यते । इति ।मु०११८॥
मूल का अर्थ-'तेणं काले णं' इत्यादि। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पाट पर श्रीसुधर्मा स्वामी थे ।।०११८॥ ___टीका का अर्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पाट पर श्री सुधर्मास्वामी थे।
श्री गौतम स्वामी केवली हो चुके थे, अतः पाट पर नहीं बैठे; इस कारण सुधर्मा स्वामी पाट पर प्रतिष्ठित किये गये। इस का कारण यह है-आगम में 'हे भायुष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान ने ऐसा कहा है' ऐसा उल्लेख है। अगर पाट पर केवली को स्थापना होती तो केवली सर्वदर्शी-सर्वज्ञ होते हैं, उन्हें किसी से कुछ सुनने की आवश्यकता नहीं होती, तो फिर वह ऐसा न कहते कि-'भगवान् ने ऐसा कहा है, मैंने मुना है। अत एव केवली पाट पर प्रतिष्ठित नहीं किये जाते।मू०११८॥
भूक भने सानो अथ-'तेणं कालेनं त्याहि. ते ण भने ते समये सावान महावीरना निaig माह તેમની પાટે સુધર્માસ્વામી બિરાજયા એમ શાસ્ત્રોક્ત કથન છે. સુધર્મા સ્વામી કરતાં પહેલો હક્ક ગોતમ સ્વામીને હતે, કારણ કે તેઓ દીક્ષામાં વડીલ હતા તેમ જ કેવલી પણ હતા, ત્યારે સુધર્મા સ્વામી કેવલી પણ ન હતા, તેમ જ દીક્ષા અને વયમાં પણ ગૌતમ સ્વામી કરતાં નાના હતા તે ગૌતમ સ્વામીને બદલે સુધર્મા સ્વામી પાટ ઉપર બિરાજીત થયા તે કેમ બન્યું?
તેના પ્રત્યુત્તરમાં શાસ્ત્રોક્ત ખ્યાન એમ છે કે “હે આયુષ્પન! સાંભળ્યું છે કે તે ભગવાને એમ કહ્યું છે” કેવલી પાટ ઉપર બેસે તે કેવલો સર્વજ્ઞ અને સદશી હોય છે, અને તેને કોઈના પ્રવચનને ઉલ્લેખ કરવાની આવશ્યકતા રહેતી નથી. પાટે સ્થિત થયેલ વ્યક્તિ ભગવાનના પ્રવચનને ઉલેખ ન કરે તે ભગવાનના શાસનને લેપ थाय भाटे गौतम स्वामी पाटन ( या. (सू०११८) sparsonal use Only
म भगवतः पट्ट
वर्णनम् । मू०११८॥
॥४७२॥
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कोलागसंनिवेसे पा मिरिवद्धमाणसामि
गोयमसामिानः
कल्प मञ्जरी
॥४७३॥
टीका
सुहम्मसामिपरिचओ मूलम्-कोल्लागसंनिवेसे धम्मिल्लविप्पस्स भद्दिलाभजाए जाओ सुहम्मसामो चउद्दसविजापारगो पणासर्वारसंते पव्वइओ। तीस वासाई सिरिवद्धमाणसामिस्स अंतिए निवसिय भगवओ निव्याणाणतरं बारसबरिसाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता जम्मओ वाणउइवरिसंते गोयमसामिनिव्वाणाणंतरं केवलणाणं पाविय अररिसाई केवलिपरियागे ठिच्चा एगसयवरिसाइं सव्वाउयं पालइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स निव्वाणाणंतरं वीसइवरिसेसु वीइकं तेसु जंबुसामिणं नियपट्टे ठाविय शिवं गए ॥मू०११९॥
छाया-कोल्लाकसंनिवेशे धम्मिल्लविमस्य भदिला भार्यायां जातः। सुधर्मस्वामी चतुर्दशविद्यापारगः पश्चाशद्वर्षान्ते प्रबजितः। त्रिंशद्वर्षाणि श्रीवर्द्धमानस्वामिनोऽन्तिके न्युष्य भगवतो निर्वाणानन्तरं द्वादशवर्षाणि छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा जन्मतो द्विनवतिवर्षान्ते गौतमस्वामिनिर्वाणानन्तरं केवलज्ञानं प्राप्याष्टवर्षाणि केवलिपर्याये स्थित्वा एकशतवर्षाणि सर्वायुष्कं पालयित्वा श्रमणस्य भगतो महावीरस्य निर्वाणानन्तरं विशतिवर्षेषु ठगतिक्रान्तेषु जम्बूस्वामिनं निजपट्टे स्थापयित्वा शिवं गतः ।।मु०११९॥
सुधर्मा स्वामी का परिचय मूल का अर्थ-कोल्लागसन्निवेसे' इत्यादि। सुधर्मास्वामी कोल्लाक सन्निवेश में धम्मिल ब्राह्मण की भदिला भार्या के उदर से जन्मे । चउदह विद्याओं के पारगामी थे। पचासवें वर्ष के अन्त में दीक्षित हुए। तीस वर्ष तक श्री वर्धमान स्वामी के समीप रह कर, भगवान् के निर्वाण के पश्चात् बारह वर्ष तक छमस्थ अवस्था में रहे। जन्म से लेकर वानवे वर्ष के अन्त में मौतमस्वामी के निर्वाण के अनन्तर केवलज्ञान माप्त करके, आठ वर्ष तक केवली अवस्था में रह कर, एक सौ वर्षे की समग्र आयु भोग कर, भगवान्
સુધર્મા સ્વામીને પરિચય भूगने -'कोल्लाग सन्निवेसे त्याहि सुधर्भावामी heels नामना सनिवेशमा चम्मित प्रसनी माता નામની ભાર્યાની કુક્ષિ એ ઉત્પન્ન થયા હતા. ચૌદ વિદ્યામાં પારંગત હતાં. તેઓની ઉંમર પચાસમે વર્ષે પહોંચી ત્યારે તેઓ દીક્ષિત થયા હતા. ત્રીસ વર્ષ સુધી વર્ધમાનસ્વામીની સમીપમાં રહ્યા હતા. ભગવાનના નિર્વાણ બાદ બાર વર્ષ સુધી છવાસ્થ અવસ્થામાં હતા એટલે ખાંશુમા વર્ષના અંતમાં તેમને કેવલજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ. આ કેવલજ્ઞાન ગૌતમસ્વામીના નિર્વાણ બાદ થયું હતું. તેઓ આઠ વર્ષ સુધી કેવલી અવસ્થામાં રહ્યા. બધું મળી એક
सुधर्मस्वामि परिचय वर्णनम् । सू०११९॥
॥४७३॥
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श्रीकल्प
कल्प.
सूत्रे
मञ्जरी
॥४७४॥
टीका-कोल्लागसंनिवेसे' इत्यादि। कोल्लागसन्निवेशे कोल्लाक नामके ग्रामे, धम्मिलविस्थ धम्मिलाख्यब्राह्मणस्य भदिलाभार्यायां जाता उत्पन्नः सुधर्मस्वामी चतुर्दशविद्यापारगः वेदचतुष्टयं, ऋग्यजुःसामाथवरूपशिक्षा-कल्प-व्याकरण-निरुक्त-स्यौतिष-छन्दोरूप-वेदाङ्गपटक-मीमांसा-न्याय-धर्मशास्त्रपुराणानि चेति चतुर्दशविद्यापारङ्गतः, पञ्चाशद्वर्षान्ते प्रवनितः दीक्षां गृहीतवान् । ततःत्रिंशद् वर्षाणि-यावत् श्रीवर्धमानस्वामिनः अन्तिके-समीपे न्युष्य-निवासं कृत्वा भगवतः श्रीवीरस्वामिनो, निर्वाणानन्तरं मोक्षमाप्त्यनन्तरं द्वादशवर्षाणि टीका छमस्थपर्यायं पालयित्वा, जन्मतः उत्पत्तिकालात द्वानवतिवर्षान्ते गौतमस्वामिनिर्वाणानन्तरं केवलज्ञानं प्राप्य, अष्टवर्षाणि केवलिपर्याये स्थित्वा एकशनवर्षाणि सर्वायुष्कं सकलमायुः पालयित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य महावीर के निर्वाण के बाद वीस वर्ष बीत जाने पर जम्बूस्वामी को अपने पाट पर स्थापित करके मोक्ष गयेसू०११९॥
टीका का अर्थ-कोल्लाक नामक ग्राम में, धम्मिल्ल नामक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी भदिला थी। सुधर्मास्वामी उसी के उदर से उत्पन्न हुए। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद में शिक्षा, कल्प,
मुधर्मस्वामि व्याकरण, निरुक्त, ज्यौतिष और छन्द-इन छह वेदांगों में तथा मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र और पुराण इन परिचय सब चौदह विधाओं में पारंगत थे। पचासवें वर्ष के अन्त में उन्होंने दीक्षा अंगीकार को। उसके बाद वर्णनम् । तीस वर्ष तक श्री वर्धमानस्वामी के समीप निवास करके, भगवान वीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात सू०११९॥ बारह वर्ष तक छमस्थ-पर्याय में रह कर, जन्म से बानवे (९२) वर्ष के अन्त में, गौतमस्वामी के मोक्ष नाने के बाद केवलज्ञान प्राप्त करके, आठ वर्ष तक केवली-पर्याय में स्थिर रह कर, एकसौ वर्ष की વર્ષનું આયુષ્ય પૂરું કરી તેઓ મોક્ષ પધાર્યા, તે ભગવાન મહાવીરના નિર્વાણુ બાદ વીશ વર્ષ પૂરા થયે મેક્ષ ગયા હતા. મેક્ષ પધાર્યા પહેલાં તેઓએ જંબુસ્વામીને પિતાની પાટે સ્થાપિત કર્યા હતા. (સૂ૦ ૧૧૯)
ટીકાને અર્થ–કલાક નામના સંનિવેશમાં સ્મિલ્લ નામને એક બ્રાહ્મણ રહેતા હતા. તેની પત્નીનું નામ ભલિા હતું. સુધમાં સ્વામી તેને પેટે જન્મ પામ્યા હતા. તેઓ વેદ, સામવેદ, યજુર્વેદ અને અર્થવવેદમાં
॥४७४॥ નિપુણ હતા. શિક્ષા-ક૯પ-વ્યાકરણ-નિરૂક્ત-જતિષ અને છંદ એવા વેદના છએ અંગમાં પારંગત હતા. મીમાંસા
ન્યાય ધર્મશાસ્ત્ર અને પુરાણ વિગેરે બધી મળી થી વિદ્યામાં પ્રવીણ હતા. પ્રભુને યોગ તેમને પચાસમાં વર્ષે ____ात ययात्रीश वसुधी भोपानना सभासभ घ्या. त्यार पछी साधुयर्याभा या मागणी माशुभाw.jainelibrary.org
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श्री कल्पमुत्रे | ४७५ ।।
Sex Tu
निर्वाणानन्तरं विंशतिवर्षेषु व्यतिक्रान्तेषु = व्यतीतेषु निजपट्टे = जम्बूस्वामिनं स्थापयित्वा शिवं=मोक्षं गतः । सू० ११९ ।। जंबू स्वामिपरिचओ
मूलम् - रायगिहे णयरे उसभदत्तस्स सेट्टिणो धारिणीए अंगजाओ पंचमदेवलोगाओ चुभो जंबू नाम पुती होत्या । सोय सोलसररिसीओ सिरीसुहम्मसामिसमीवे धम्मं सोचा पडिबुद्धो पडिवन्नसीलसम्मत्तो अम्मापऊणं दढागण अट्ठकन्नाओ परिणी । विवाहरत्तीए सो ससिणेहादि - ताहि पेमसंमिय वाणीहिं न वामहिओ । सो य परोप्परं कहापडिकहाहिं ता अट्ठवि इत्थीओ पडिबोहीअ । तीए रत्तीए चारियहं गिहे पि नवनव अन्भहिएहिं चउहिं चोरस एहिं परिवुडं पभवाभिहं चोरंपि पडिवोहीअ । तओ पच्छा उइयंमि दिणयरे पंचसयचोरभज्जदृग-तज्जणगजणणी हिसद्धिं सयं पंचसयसचवीसइइमो होऊणं णवणवईओ कणगकोडीओ परिचज्ञ सुम्मसामिसमी पवइओ से णं सिरिजंबूसामी सोलसवरिसाई गिद्दत्थत्ते, वीस वासाई छाउमस्थे, चोयालीसं वासाई केवलिपज्जाए एवमसीई वासाई सच्चाउयं पालइत्ता पमवं अणगारं नियपट्टे ठाविय सिरिवीर निव्वाणाओ चउसहितमे वरिसे सिद्धिं गए ।
सिरिजंबूसामी जाव मोक्खंगओ नासी ताव एव भरहे वासे दसठाणा भर्विसु, तं जहा - मणपज्जवणाणं १, परमोहिणाणं २, पुलागलद्धी ३, आहारगसरीरं ४, खत्रगसेणी ५, उवसमसेणी ६, जिगकप्पो ७, संजमत्तिगं ८, केवलणाणं ९, मिझणा १० यत्ति मोक्खं गए उ तस्सि एया ठाणा बुच्छिष्णा ।
भवति एत्थ दुवे संगहणी गाहाओ
वारसवरिसेहि गोयम, सिद्धो वीराउ वीसहि मुहम्मो । चरसहीए जंबू, वुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा ॥ १ ॥
मण १, परमोहि २, पुलाए ३, आहारग ४, खवग ५, उवसमे ६, कप्पे ७ ।
संजमतिग ८, केवल ९, सि-झणा १०, य जंबुम्मि बुच्छिन्ना || २ || इइ ||०१२०॥
समस्त आयु भोग कर, श्रमण भगवान् महावीर के मोक्षगमन के पश्चात् बीस वर्ष व्यतीत होने पर जंबू स्वामी को अपने पाट पर स्थापित करके मोक्ष पधारे ॥ ०११९ ॥
વર્ષ કેવલજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરી આઠ વર્ષ સુધી કેવલી અવસ્થામાં સ્થિત રહી સામુ (૧૦૦) વર્ષ પૂરૂ કર્યા બાદ એટલે ભગવાન માક્ષે ગયા પછી વીસ વર્ષ પૂરા થયે મેાક્ષમાગ ખુલ્લા રહે ને ભગવાનની દ્રાૠશાંગી લેાકેાને સતત સાંભળવા Jain Education भजे ते राहाथी स्वाभी नेवा उत्तम भने योग्य पुरुषने घाटे स्थिर . ( सू० ११५)
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कल्प
मञ्जरी टीका
जंबू स्वामि परिचय वर्णनम् ।
॥ ०१०२ ॥
॥४७५ ॥
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श्रीकल्प
कल्प
सूत्र
मञ्जरी
॥४७६॥
टीका
॥जबूस्वामिपरिचयः॥ छाया-राजगृहे नगरे ऋषभदत्तस्य श्रेष्ठिनो धारिण्या अङ्गजातः पञ्चमदेवलोकाच्युतो जंबूनामपुत्र आसीत् । स च षोडशवर्षीयः श्रीसुधर्मस्वामिसमीपे धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद्धः प्रतिपन्नशीलसम्यक्त्वः अम्बापित्रोदृढाग्रहेणाष्टकन्याः पर्यणयत् । विवाहरात्रौ सस्नेहाभिस्ताभिः प्रेमसंभृतवाणीभिर्नव्यामोहितः। स च परस्परं कथा प्रतिकथाभिस्ता अष्टापि स्त्रियः प्रत्यबोधयत । तस्यां रात्री चौर्यार्थ गृहे प्रविष्ट नवनवत्यभ्यधिकैश्चतुर्भिश्चोरशतै परिवृतं प्रभवाभिधं चौरमपि प्रत्यबोधयत् । ततः पश्चात् उदिते दिनकरे पञ्चशतचोर-भार्याष्टक-तजनक जननी-निजजनक
जंबूस्वामी का परिचय मूल का अर्थ-'रायगिहे' इत्यादि । राजगृहनगर में ऋषभदत्त श्रेष्ठी की धारिणी नामक भार्या की कंख से उत्पन्न, पञ्चम देवलोक से आये हुए जंबू नामक पुत्र थे। सोलह वर्षकी उम्र में सुधर्मास्वामी के समीप धर्म सुनकर प्रतिबोध पाया। शीलवत और सम्यक्त्व धारण किया। माता-पिता के प्रबल आग्रह से आठ कन्याओं के साथ विवाह किया। सुहागरात में वह स्नेहवती पत्नियों की प्रेमपूर्ण वाणी से मोहित न हुए। उन्हों ने परस्पर कथाओं के उत्तर में कथाएँ कहकर आठौ पन्नीओं को प्रतिबोधित किया। उसी रात्रि में चोरी करने के लिए घर में घुसे हुए चारसौ निन्यानवे (४९९) चोरों सहित प्रभव नामक चोर को भी प्रतिबोधित किया। उसके बाद दिन उगने पर पांच सौ चोरों, आठौं पत्नीओं, पत्नीओं के माता-पिताओ
જંબુસ્વામીને પરિચય भूगनी अर्थ -'रायगिहे' या. ही नारीमा ऋपमहत्त ने पाक्षिी नामनी नायर्या हती. तेने જંબૂ નામને એક પુત્ર હતું, તે પાંચમા દેવકથી આવ્યું હતું. સોળ વર્ષની ઉમરે તેણે સુધર્માસ્વામીની પાસે ધર્મ સાંભળ્યો. આ સાંભળી તેને પ્રતિબંધ છે. પ્રતિબધ થતાં તેમણે શીલત્રત અંગીકાર કર્યું ને સાથે સાથે સમ્યકૃત્ત્વને પણ ધારણ કર્યો. માતા-પિતાના પ્રબલ આગ્રહથી તેમણે આઠ કન્યાઓ સાથેનું પાણિગ્રહણ કર્યું. પ્રથમ રાત્રીએ પણ તે આવી નેહાલ અને સુંદર પત્નીના પ્રેમથી હિત ન થયા. તેમણે આંખ રાત પ્રશ્નોત્તરી ક આઠે સ્ત્રીઓને વૈરાગ્યની ભાવના જાગૃત કરી.
આ વખતે તેમના ઘરમાં ચારસે નવાણું ચાર દાખલ થયા. આ ચેન ઉપરી પ્રભવ નામને માટે ચાર હવે, તેને પણ જંબૂએ બોધ આપી વૈરાગ્યવાન બનાવ્યું. ત્યારબાદ બીજે દિવસે પાંચસો ચાર, આઠ પિતાની પત્નીઓ,
जंबूस्वामि परिचय वर्णनम् । सू०१२०॥
॥४७६॥
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र
कल्प मञ्जरी
सूत्रे
टीका
Jaya जननीभिः सार्ध स्वयं पञ्चशतसप्तविंशतितमो भूत्वा नवनवति कनककोटी परित्यज्य सुधर्मस्वामीसमीपे प्रत्रजितः।
स खलु षोडशवर्षाणि गृहस्थत्वे, विंशतिवर्षाणि छाबस्थ्ये, चतुश्चत्वारिंशत्वर्षाणि केवलिपर्याये, एवमशीतिश्रीकल्प
वर्षाणि सर्वायुष्कं पालयित्वा प्रभवमनगारं निजपट्टे स्थापयित्वा श्रीवीरनिर्वाणाच्चतुष्पष्टितमे वर्षे सिद्धिं गतः।
श्रीजंबूस्वामि मोक्षं गते सति भरते वर्षे दशस्थानानि व्युच्छिन्नानि, तद्यथा-मनापर्यवज्ञानम् १, परमा॥४७७॥ वधिज्ञानम् २, पुलाकलब्धिः३, आहारकशरीरम् ४, क्षपकश्रेणिः ५, उपशमश्रेणिः ६, जिनकल्पः ७, संयम
त्रिकम् ८, केवलज्ञानम् ९, सिद्धि १०, इति । मोक्षं गते तु तस्मिन् एतानि स्थानानि व्युच्छिन्नानि । तथा अपने माता-पिता के साथ, स्वयं पाँचसो सत्ताईसवें होकर निन्यानवें करोड सौनयों का त्याग करके सुधर्मास्वामी के समीप संयम धारण किया। वह सोलह वर्ष गृहस्थावस्था में, वीस वर्ष छद्मस्थावस्था में, चवालीस वर्ष केवली-पर्याय में रह कर और कुल अस्सी वर्ष की आयु पाल कर प्रभव अनगार को अपने पाट पर स्थापित करके श्रीवीरनिर्वाण से चौसठवें वर्ष में सिद्धि को प्राप्त हुए।
श्री नंबूस्वामी के मोक्ष जाने पर इस भरतक्षेत्र में दस स्थानों का विच्छेद हो गया। वह इस प्रकार हैं-(१) मनःपर्यवज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुलाकब्धि, (४) आहारक शरीर, (५) क्षपकश्रेणी, (६) उपशम- श्रेणी, (७) जिनकल्प, (८) तीन चारित्र, (९) केवलज्ञान, (१०) मोक्ष । उनके मोक्ष माने के बाद यह दस स्थान विच्छिन्न हुए। તેમના માતપિતાએ તથા પિતાનાં માતપિતા સાથે એમ કુલ મળી જંબૂ શિખે પાંચસો સત્તાવીશ જણે દીક્ષા ગ્રહણ કરી. દીક્ષા લેતા પહેલાં પિતાની પાસે નવાણું કરાડ સેનૈયા હતા, તેનો પણ પરિત્યાગ કર્યો. આ ધનને ત્યાગ કરી સુધર્મા સ્વામી પાસે આવી સર્વ જણાએ અણુગાર ધર્મને અપનાવ્યો.
જંબુસ્વામી સોળ વર્ષ ગૃહસ્થાશ્રમમાં, વીસ વર્ષ છદ્મસ્થ અવસ્થામાં ને ચાલીસ વર્ષ કેવલી અવસ્થામાં રહ્યા હતા. કુલ એંસી વર્ષનું આયુષ્ય પૂરું કરી પ્રભવઅણગારને પિતાની પાટે સ્થિત કરી નિર્વાણ પધાર્યા. વીર નિર્વાણુ બાદ ચેસમેં વર્ષે તેઓ મુક્તિપદને પામ્યા ને તેમની વાણીનું સ્થાન પ્રભવ નામના અણુગારને સંપાયું.
જંબુસ્વામી મેક્ષ પધારતાં દશ સ્થાને વિચ્છેદ થયો. જે નીચે પ્રમાણે છે-૧) મનઃ પર્યાવજ્ઞાન, (૨) પરમ अवधिज्ञान, (3) yaalou, (४) 081२४ सरीर, (५) क्ष५४श्रेणी, (6) पशभश्रेष्मी, (७) ४६५, (८) यास्त्रि (e) ज्ञान, (१०) मोक्ष.
जंबूस्वामि परिचय वर्णनम् । मू०१२०॥
॥४७७H
SEL.
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श्रीकल्प
मञ्जरी
टीका
भवतोऽत्र द्वे संग्रहणीगाथे
द्वादशववर्षेषु गौतमः सिद्धो वीराद् विंशतौ सुधर्मा । चतुष्षष्टयां जंबूः, व्युच्छिन्नानि तत्र दशस्थानानि ॥१॥
मनः१, परमावधि २, पुलाक ३, आहारक ४, क्षपको ५, पशमाः ६, कल्प७ । ॥४७८॥
संयमत्रिकं ८, केवलं९, सिद्धि १० श्च जंब्यां व्युच्छिन्नानि ॥२॥ ॥सू०१२०॥ यहाँ दो संग्रहणीगाथाएँ हैं
बारसवरिसेहि गोयमु, सिद्धो विराउ वीसइ मुहम्मो । चउसट्ठीए जंबू, वुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा ॥१॥ मण १, परमोहि २, पुलाए ३, पाहारग ४, खवग ५, उवसमे ६, कप्पे७ ।
संजमतिग८, केवल ९, सिझणा १० य जंबुम्मि पुच्छिन्ना ।२।। इति । श्रीवीर निर्वाण से बारह वर्ष बीतने पर गौतम, वीस वर्ष बीतने पर सुधर्मा और चौसठ वर्ष बीतने पर जंबूस्वामी का निर्माण हुआ। उसके पश्चात् दशस्थान विच्छिन्न हो गये ॥१॥
जंबूस्वामी के बाद विच्छिन्न दश स्थान यह हैं-(१) मनःपर्यवज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुला- कलब्धि, (४) आहारक शरीर, (५) क्षपकश्रेणी, (६) उपशमश्रेणी, (७) जिनकल्प, (८) तीन संयम, (९) केवलज्ञान, (१०) मुक्ति ॥२॥ ॥म्०१२०॥ દશ સ્થાને સાથે બતાવતી બે ગાથાઓ અહિં વણી લેવામાં આવી છે–
वारस वरिसेहिं गोयमु सिद्धो वीराउ वीसइ मुहम्मो । चउसट्ठीए जंबू , वुच्छिन्ना तत्थं दसठाणा !।१।। मण परमोहि पुलाए, आहारग, खग, उसमे, कप्पे ।
संजमतिग केवल सिझणा य जंबुम्मि चुच्छिन्ना ॥२॥ इति । અર્થાત–શ્રીવીર નિર્વાણથી બાર વર્ષે ગૌતમ, ત્રીસ વર્ષ વીતતાં સુધર્મા અને ચેસઠ વર્ષ વીતતાં જંબુનું નિર્વાણ થયું. તે પછી નીચે જણાવેલા દશ સ્થાનકે લેપ થઈ ગયાં.
भूस्वामी माहा५ये स्थानी-(१) मनः पवज्ञान, (२) परभ अवधिज्ञान, (3) galsaiध, (४) मा २४ dain Education Tito aरी२, (५) १५४श्रेणी, (६) Guथभष), (७) 43E4() संयम (6) शान, (१०) भुति . (सू०१२०)
जबूस्वामि परिचय वर्णनम् । ०१२०॥
॥४७८॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
टीका - 'रायगिहे णयरे' इत्यादि। रानगृहे नगरे ऋषभदत्तस्य-अपमदत्तनामकस्य श्रे नः धारिण्या: अङ्गजातः देवलोकात् पश्चमब्रह्मदेवलोकान् च्युतः जंबूनामपुषः जंबूनामकपुत्रः आसीत् । स च षोडशवर्षीयः
षोडशवर्षवयस्कः पन्धीसुधर्मस्वामिसमोपे धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद: बोधमाप्तः, प्रतिपन्नशीलसम्यक्त्वा स्वीकृतश्रीकल्प
शीलसम्यक्रवः अम्बा-पित्रो मातापित्रोः हवाग्रहेण-भत्यन्तानुरोधेन अष्ट-अष्टसंख्याः कन्याः पर्यणयत्न
परिणीतवान् । विवाहरात्रौ स-जंबुकुमारः सस्नेहाभिः स्नेहवतीभिः ताभिः-अष्टाभिः कन्याभिः प्रेमसंभृत।।४७९॥
वाणीभिः सानुरागवाग्मिः न व्यामोहितन मोहं गतः। स च परस्परम् अन्योऽन्यं कथाप्रतिकथाभिः उत्तरप्रत्युत्तरः ता-परिणीताः अष्टापि खियः प्रत्यबोधयत्-प्रतिबोधितवान् । तस्यां विवाहसम्बन्धिन्या रात्री चौर्यार्थ गृहे-स्वभवने प्रविष्ट नवनवस्पभ्यधिकैश्चतुर्भिः चोरशतैः परिवृत-परिवेष्टितं युक्तमित्यर्थः, प्रभवाभिध
टीका का अर्थ-राजगृह नगर में ऋषभदत्त सेठ की धारिणी नामक पत्नी के उदर अङ्गजाब ब्रह्म नामक पांचवें देवलोक से ध्यरकर आये हुए जंबू नामक पुत्र थे। सोलह वर्षकी उम्र में उन्होंने सुधर्मा स्वामी से धर्म का उपदेश सुना और प्रतिबोध प्राप्त किया। प्रतिबोध पाकर शील और सम्यक्त्व अंगीकार किया। माता-पिता के तीव्र अनुरोध से आठ कन्याओं के साथ विवाह किया। मगर विवाह की रात्रिमुहागरात में वह जंबुकुमार अनुरागवती उन आठौं कन्याओं की प्रणय-परिपूर्ण वाणी से मोहित न हुए। उनके साथ जंबुकुमार की आपस में कथाएँ-मतिकथाएँ हुई। आठों रमणियोने जंबुकुमार को अपनी और आकृष्ट करने के लिए अनेक कथाएँ कहीं। उनके उत्तर में जंबूकुमारने भी कथा कही। इस प्रकार उत्तर-प्रत्युत्तर होने पर आठौं नवविवाहिता पत्नीयों को भी प्रतिबोध प्राप्त हुआ।
उसी-विवाह की रात्रि में चारसौ निन्न्यानवें चोरों को साथ लेकर प्रभव नामक प्रसिद्ध चोर चोरी
ટીકાને અથ–રાજગૃહ નગરમાં ઋષભદત્ત શેઠને ધારિર નામની પત્નીના ઉદરે જન્મ પામેલ. બ્રહ્મ નામના પાંચમા દેવલેકમાંથી આવેલ જંબૂ નામને પુત્ર હોં. સોળ વર્ષની ઉમરે તેણે સુધમાંસ્વામી પાસે ધર્મને ઉપદેશ સાંભળે અને પ્રતિબંધ પામે. પ્રતિબંધ પામીને શીલ અને સમકૃત્વ અંગીકાર કર્યું. માતા-પિતાના આગ્રહથી તેણે આઠ કન્યા સાથે લગ્ન કર્યા. પણ વિવાહની રાત્રે-સુહાગરાત્રિએ તે જંબુકુમાર તે આઠ અનુરાગવાળી કન્યાએની પ્રણય-પરિપૂર્ણ વાણીથી મેહિત થયે નહીં. તેમની સાથે જબકુમારની આપસમાં કથાઓ-પ્રતિકથાઓ થઈ. આંઠ રમણીઓએ જંબૂકુમારને પિતાની તરફ આકર્ષવાને માટે અનેક કથાઓ કહી. તેમના ઉત્તરમાં જંબૂકમારે
પણ કથા કહી. આ પ્રમાણે ઉત્તર-પ્રત્યુત્તર થતાં આઠ નવોઢા પત્ની પણ પ્રતિબંધ પામી. Shrmational मे विनी. रात्रे यारसना (४९६) थोशन साये न स नामना प्रध्यात थार थोरी पाने
जंबूस्वामि परिचय वर्णनम् । मू०१२०॥
॥४७९॥
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श्रीकल्प
मञ्जरी
टीका
प्रभवनामकं चौरमपि प्रत्यबोधयत्यतिबोधितवान् । ततः पश्चात् सदनन्तरं उदिते दिनकरे=सूय पञ्चशतचोर
भार्याष्टक-तजनक-जननी निजजनकजननीभिः सार्ध सह स्वयम्-आत्मना पञ्चशतसप्तविंशतितमो भूत्वा नवश्रीकल्प
नवति कनककोटीः= सुवर्णमुद्राकोटीः परित्यज्य-विहाय सुधर्मस्वामिसमीपे प्रबजितः दीक्षां गृहीतवान् । स
जंबूमुनिः खलु पोडशवर्षाणि यावत् गृहस्थत्वे विंशतिं वर्षाणि छामस्थ्ये-छद्मस्थपर्याये, चतुश्चत्वारिंशतवर्षाणि ॥४८०॥ केवलिपर्याये एवम् इत्थम् अशीति वर्षाणि सर्वायुष्कं पालयित्वा प्रभवम् अनगारं, निजपट्टे-स्वपट्टे स्थापयित्वा
श्रीवीरनिर्वाणात्-श्रीमहावीरस्वामि-मोक्षगमनकालादारभ्य चतुष्पष्टितमे वर्षे सिद्धिं गतः।
श्री अंबूस्वामी यावत्कालपर्यन्तं मोक्षं गतो नासीत् , तावदेव भरते वर्षे वक्ष्यमाणानि दशस्थानानि आसन् तद्यथा-मनापर्यवज्ञानम् १, परमावधिज्ञानम् २, पुलाकलब्धिः ३, आहारकशरीरम् ४, क्षपकश्रेणि ५, उपकरने के लिये जंबूकुमार के घर में घुसे । उन्हें भी उन्होंने प्रतिबोधित किया।
तत्पश्चात् सूर्योदय होने पर पाँचसौ चोरों के साथ आठों पत्नीओं के साथ, पत्नीओं के माता-पिता के साथ और अपने माता-पिता के साथ, आप स्वयं पाँचसौ सत्ताईसवें होकर दहेज की निन्यानवे कोटि स्वर्णमुद्राओं को तथा अपने घरकी अखूट संपत्ति को त्याग कर सुधर्मास्वामी के पास प्रवजित हो गये। ___जंबूस्वामो सोलह वर्ष तक गृहवास में रहे, वीस वर्ष तक छद्मस्थपर्याय में रहे, चवालीस वर्ष तक केवली-पर्याय में रहे। इस प्रकार अस्सी वर्ष की समस्त आयु भोग कर प्रभव अनगार को अपने पाट पर प्रतिष्ठित करके श्रीमहावीर भगवान् के निर्वाणकाल से चौसठवें वर्ष में मोक्ष गये।
जब तक जंबस्वामी मोक्ष नहीं गये थे तब तक भरतक्षेत्र में आगे कहे दस स्थान थे। यथाમાટે જંબકુમારના ઘરમાં ઘૂસ્યો. તેમને પણ તેણે પ્રતિબંધિત કર્યા. ત્યારબાદ સૂર્યોદય થતાં પાંચસે ચેરાની સાથે આઠે પત્નીની સાથે, પત્નીઓનાં માતા-પિતાની સાથે અને પોતાનાં માતા-પિતાની સાથે એમ કુલ પાંચ સત્તાવીસમાં તે પોતે દહેજ (કરિયાવર)ની નવાણું કરેડ સુવર્ણ મુદ્રાઓને અને પોતાની અખૂટ સંપત્તિને ત્યાગ કરીને સુધર્મા સ્વામીની પાસે દીક્ષિત થયા.
જબૂસ્વામી સોળ વર્ષ સુધી સંસારમાં રહ્યા, વીસ વર્ષ સુધી છસ્થાવસ્થામાં રહ્યા, ચુંમાળીશ (૪૪) વર્ષ સુધી કેવળી–પર્યાયમાં રહ્યા. આ પ્રમાણે એંશી (૮૦) વર્ષનું કુલ આયુષ્ય ભોગવીને, પ્રભવ અણુગારને પોતાની
પાટ પર પ્રતિષ્ઠિત કરીને શ્રી મહાવીર ભગવાનના નિર્વાણ કાળથી ચોસઠમા વર્ષે મોક્ષે સિધાવ્યાં. જ્યાં સુધી જમ્મુ Uળ સ્વામી મોક્ષ પામ્યા ન હતા, ત્યાં સુધી ભરત ક્ષેત્રમાં આગળ કહેલ દસ સ્થાન હતા
जंबूस्वामि
परिचय वर्णनम् । ।मु०१२०॥
॥४८०॥
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श्रोकल्प
मूत्रे ॥४८१॥
Jain Education;
शमश्रेणि ६, जिनकल्प ७, संयमत्रिकम् = परिहारविशुद्धमुक्ष्म संपराय - यथाख्यातचारित्रम् - इति चारित्रत्रयम् ८, केवलज्ञानम् ९, सिद्धिः १० - इति । मोक्षं गते तु तस्मिन् एतानि दशस्थानानि व्युच्छिन्नानि ।
radise द्वे संग्रहणगाथे- ' वारस वरिसेहिं' इत्यादि । वीराद्-वीरनिर्वाणाद् द्वादशवर्षेषु व्यतीतेषु मः सः वर्षेषु व्यतीतेषु सुधर्मा मोक्षं गतः । तथा चतुष्पष्टौ वर्षेषु व्यतीषु जंबूस्वामी मोक्षं गतः । तत्र=तस्मिन् जंबूस्वामिनि मोक्षं गते दशस्थानानि व्युच्छिन्नानि विच्छेदं प्राप्तानि । तानि दशस्थानानि - मनः = मनः पर्यवज्ञानम् १. परमावधिज्ञानम् २. पुलाकः = पुलाकलब्धिः ३, आहारकः = आहारकलब्धिः ४, क्षपकः क्षपकश्रेणिः ५, उपशमः = उपशमश्रेणिः ६, कल 1: = जिनकल्पः ७, संयमत्रिकम् ८, केवलम् = केवलज्ञानम् ९, सिद्धिः = मोक्षश्रेति दशस्थानानि जंबां= जंबूस्वामिनि मोक्षं गते व्युच्छिन्नानीति ॥ १२० ॥
( १ मनः पर्यत्रज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुलाकलब्धि, (४) आहारक शरीर, (५) क्षपकश्रेणी, (६) उपशमश्रेणी, (७) जिनकल्प, (८) तीन चारित्र - १रिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात, (९) केवलज्ञान और (१०) मोक्ष | जंबूस्वामी के मोक्ष पधारने पर यह दस स्थान विच्छिन्न हो गये ।
इस विषय में दो संग्रहणीगाथाएँ हैं—
वीर - निर्माण से बारह वर्ष बीतने पर गौतम सिद्ध हुए, बीस वर्ष बीतने पर सुधर्मास्वामी मोक्ष पधारे तथा चौसठ वर्ष बीतने पर जंबूस्वामी मोक्ष पधारे। जंबूस्वामी के मोक्ष जाने पर दसस्थान अर्थात् दस बातें विच्छिन्न हो गई । वह दसस्थान यह हैं - १ मनः पर्यवज्ञान, २ परमावधिज्ञान, ३ पुलाकपुलाकलब्धि, ४ आहारकलब्धि, ५ क्षपकश्रेणी, ६ उपशम श्रेणी, ७ जिनकल्प, ८ तीन चारित्र, ९ केवलज्ञान और १० मोक्ष | जंबूस्वामी के मुक्त होने पर यह दस स्थान विच्छिन्न हुए |०१२०॥
(१) मनःपर्यवज्ञान (२) परभावविज्ञान (3) पुसाङ -सम्धि (४) महार४- शरीर (4) क्षय:- श्री (६) उपशम-श्रेणी (७) निन- उदय (८) त्र यारित्र परिहार- विशुद्धि, सूक्ष्म-सांपराय भने यथाभ्यात (6) ठेवणज्ञान માક્ષ તેમના નિર્વાણુ માદ એ દસ સ્થાન વિચ્છેદ પામ્યા. તે વિષે એ સંગ્રહણી ગાથાઓ છે.
વીર–નિર્વાણુને ખાર વર્ષે પસાર થતાં ગૌતમ સિદ્ધ બન્યા, વીસ વર્ષ વીતતાં સુધર્માંસ્વામી મેાક્ષ ગયા તથા ચેાસઠ વર્ષ વીતતાં જ ભૂસ્વામી મેક્ષ ગયા. જ ભૂસ્વામી માન્ને જતાં નીચેના દસ સ્થાન વિછિન્ન થઈ ગયાં. તે इस स्थान माछे- (१) मनः पर्यवज्ञान (२) परभावधिज्ञान, (3) पुसाउसन्धि, (४) आहार-सम्धि, (५) क्षयश्री, (१) उपशम श्रेणी, (७) निम्य, (८) त्र यास्त्रि (E) ठेवणंज्ञान भने (१०) भोक्ष. भूस्वामी भोक्षे व આ દસ સ્થાન વિચ્છિન થયાં (સૂ॰૧૨૦)
कल्प
मञ्जरी
टीका
जंबू स्वामिपरिचय
वर्णनम् ।
।'०१२० ।।
॥४८१ ॥
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मृत्रे
कल्पमञ्जरी टीका
मूलम्-सिरिजंबूसामिम्मि मोक्खं गए तप्पट्टे सिरिपभवसामी उवाविसीय । तउप्पत्तीचेवम्
विझायलसमीवे जयपुराभिहाणं नयरं आसि । तत्थ विझो णामणरवई होत्था। तस्स पुत्तदुगं आसि--
एगो जेट्ठपभवाभिहागो, अवरो कणिपभवाभिहाणो। तत्थ जेटुपभवो केणवि कारणेणं कुद्धो जयपुरनयराओ श्री कल्प
निस्सरिय विझायलस्स विसमत्थले अभिणवं गाम वासित्ता तत्थ निवसीभ । सो य चोरिय-लुंटणाइगरि
हियवित्ति ओलंबीय। ।४८२॥
एगया तेण आकष्णियं जं-रायगिहे नयरे जंबू नामगो उसमदत्तसेढिपुत्तो अट्ट सेटिकण्णाओ परिणी । दाये तेग ससुरोहितो णवणवइ कोडि परिमियाश्रो सुवण्णमुद्दाओ लद्धाओत्ति । एवं सोचा सो पभवो चोरो णवणवइ अहिएहिं चउहि चोरसएहि परिवुडो रायगिहे णयरे जंबूकुमारस्स गिहे चोरियटुं पविट्ठो। तत्थ सो ओसावणीए विजाए सव्वे जणे निदिए करीब। भावसंजयम्मि जंबकुमारम्मि सा विजा निष्फला जाया। सो जागरमाणो चेव चिट्ठी। तप्पभावेण तस्स अट्ठवि भज्जा जागरमाणीओ चेव ठिया । तो सो पभवो चोरो चोरेहि सद्धिं ताओ सुवण्णमुद्दाओ गहिय चलिउमारद्धो। तया जंबकुमारो नमुक्कारमंतप्पभावेण तेसिं गई थंभी। नियगई थभियं ददण पभवो विम्हिओ किंकायचबिमूढो य जाओ। तस्स एरिसिं ठिई दहण जंबकुमारो हसीअ । तस्स हासं सोचा प्रभवो तं कहीअ-महाभागा। जं मम इयं ओसावणी विजा अमोहा अस्थि । सा वि तुमंमि णिप्फला जाया । तए पुण अम्हाणं गई चावि थभिया। अओ तुवं को वि विसिट्रो पुरिसो पडिभासि । तुम ममोवरि किवं किच्चा थंभणि विजं मम देहि । अहं च तुम्भं ओसावणि विज दलामि । तस्स इमं वयणं सोचा जंबूकुमारो कही । इमाओ लोइयविज्जाओ दुग्गइकारणाओ संति । तुज्झ विजाए मझम्मि पभावो न जाओ। तुम्भाणं गई जं मए थंभिया, एत्थ न कावि विज्जा कारणं । अयं पहावो नमुक्कारमंतस्स अस्थि । एवं कहिय जंबूकुमारो तस्स चारित्तधम्म उवादिसी। तं सोचा पभवाईगं चोराणं मपंसि वेरग्गं संजायं । तओ बीए दिवसे सपरिवारो जंबकुमारो तेहिं पभवाइएहिं चोरेहिं सद्धिं सुहम्मसामिसमीवे पन्चइओ।
जंबूसामिम्मि मोक्खं गए तप्पट्टे पभवसामी उवाविसी । सो उ जंगमकप्परुक्खोव्य भव्वजीवाणं मनोरहं पूरेमाणो मुयणाणसहस्सकिरणकिरणेहि मिच्छत्ततिमिरपडलं विणासेतो भवहिययकमलाई वियासेतो सुहम्मसामिपरिपोसियं चउन्धिहसंघवाडियं देसणामिएणं अहिसिंचिय उवसम-विवेग-वेरमणाइपुप्फेहिं पुफ्फिर्य
अत्तकल्लाणफलेहि फलियं च कुव्वंतो विहरइ । एवं विहरमाणो सो कालमासे कालं किच्चा सग्गं गओ। तओ _dain Education igeona चुओ सो महाविदेहे खित्ते समुप्पज्जिय सासओ सिद्धो भविस्सइ ।।सू०१२१॥
प्रभवस्वामि
परिचयवर्णनम् । ॥सू०१२०॥
॥४८२।।
R
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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी
॥४८३॥
टीका
छाया-श्री जंबूस्वामिनि मोक्षं गते तत्पट्टे श्री प्रभवस्वामी उपाविशत् । तदुत्पत्तिश्चैवम्
विन्ध्याचलसमीपे जयपुराभिधानं नगरमासीत् । तत्र विन्ध्यो नाम नरपतिरभवत् । तस्य पुत्रद्वयमासीत् । एको ज्येष्ठप्रभवाभिधानोऽपरः कनिष्ठप्रभवाभिधानः। तत्र ज्येष्ठप्रभवः केनापि कारणेन क्रुद्धो जयपुरनगराद् निस्सृत्य विन्ध्याचलस्य विषमस्थले अभिनवं ग्रामं वासयित्वा तत्र न्यवसत् । स च चौय-लुण्टनादि गर्हित वृत्तिम् अवालम्बत।
एकदा तेन आकर्णितं यद राजगृहे नगरे जंबूनामकः ऋषभदत्तश्रेष्ठिपुत्रः अष्टश्रेष्ठिकन्या पर्यणयत् । दाये तेन श्वशुरेभ्यो नवनवतिकोटिपरिमिताः सुवर्णमुद्रा लब्धा इति । एवं श्रुत्वा स प्रभवश्चौरी नवनवत्यधिकैः
मूल का अर्थ-'सिरिजंबूसामिम्मि' इत्यादि-जंबूस्वामी के मोक्ष पधारने पर श्री प्रभवस्वामी उनके पाट पर बैठे। उनकी उत्पत्ति इस प्रकार है-विन्ध्य पर्वत के पास जयपुर नामकनगर था। वहाँ विन्ध्य नामक राजा था। उसके दो पुत्र थे-एक ज्येष्ठमभव कहलाता था, और दूसरा कनिष्ट (छोटा) प्रभव कहलाता था। उनमें से ज्येष्ठपभव किसीकारणसे क्रोधित होकर जयपुरनगर से निकल कर विन्ध्याचल के एक विषम स्थान में एक नया गाव वसाकर वहीं रहने लगे। उन्होंने चोरी एवं लूटपाट आदि निन्दित आजीविकाका अवलम्बन लिया।
एकवार उन्होंने सुना कि राजगृहनगर में जंबू नामक ऋषभदत्त सेठ के पुत्रका आठ सेठों की कन्याओ के साथ विवाह हुआ है। उन्हे अपने श्वसुरों से निन्न्यानवेंकरोड स्वर्ण-मुद्राएँ दहेज में मिली हैं। यह सुनकर प्रभव
भूलन। मथ-'सिरिजंबूसामिम्मि! त्या स्वामी मोक्ष पधारतi, प्रभस्वामी तभनी पाटे मिया તેમની ઉત્પત્તિ કેવી રીતે છે તે જણાવે છે. વિંધ્ય પર્વતની પાસે જયપુર નામે નગર હતું. ત્યાં વિશ્ચક નામે રાજા હતું. તેને બે પુત્ર હતા. તેમાંના એક જયેષ્ઠપ્રભવ કહેવાતા, અને બીજા કનિષ્ઠપ્રભવ કહેવાતા. કેઈપણ કારણ વશાત્ ગુસ્સે થઈને જયેષ્ઠપ્રભવે જયપુર નગરથી બહાર નીકળી વિધ્યાચલ પહાડના એક વિષમ સ્થાનમાં એક નવું ગામ વસાવી, તે ત્યાં રહ્યો. ત્યાં તેણે ચેરી ડાકુ અને ધાડ આદિ વડે આજીવિકા કરવા માંડી. એક વાર તેણે સાંભળ્યું કે, રાજગૃહ નગરીમાં ઋષભદત્ત નામને શેઠ રહે છે. તેને એક પુત્ર છે, જેનું નામ જંબૂકુમાર છે. તેનું લગ્ન આઠ સર્વશ્રેષ્ઠ કુમારીકાઓ સાથે થયેલ છે. આ આઠ કુમારીકાઓ ઘણું ધનાઢય પિતાઓની પુત્રીઓ છે. તેઓ નવાણું કરોડ સોનામહોર દાયજામાં લાવેલ છે. આ ઉપરાંત દર-દાગીનાને તે કઈ આરે–તારો नथी ! मेवुमन द्रव्य तया पोताना पियरोथी सावा छे..
प्रभवस्वामिपरिचयवर्णनम् । मू०१२।।
હતો. તેને બે
પુ
ત્ર
જયપુર નગરથી બનેલી આદિ વડે આ
॥४८३॥
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कल्पमञ्जरी
टीका
चतुर्भिः चोरशतैः परिवृतो राजगृहे नगरे जंवकुमारस्य गृहे चौयार्थ प्रविष्टः। तत्र सः अवस्वापिन्या विद्यया सर्वान् जनान् निद्रितान् अकरोत् । भावसंयते जंबूकुमारे सा विद्या निष्फला जाता । तत्पभावेण तस्याष्टापि भार्या जाग्रत्य एव स्थिताः । ततः स प्रभवचौरः चौरैः साई ताः सर्वाः सुवर्णमुद्राः गृहीत्वा चलितुमारब्धः। तदा
जंबूकुमारो नमस्कारमन्त्रप्रभावेण तेषां गतिम् अस्तम्भयत् । निजगति स्तम्भितां दृष्टा प्रभवो विस्मितः। किं ॥४८४॥
कर्तव्यविमूढश्च जातः। तस्येदृशी स्थितिं दृष्ट्वा जंबूकुमारोऽहसत् । तस्य हासं श्रुत्वा प्रभवस्तमकथयत्-महाभाग ! ममेयम् अवस्वापनी विद्या अमोघा अस्ति । साऽपि त्वयि निष्फला जाता। त्वया पुनरस्माकं गति वापि स्तम्भिता। अतस्त्वं कोऽपि विशिष्टः पुरुषः प्रतिभासि । त्वं ममोपरि कृपां कृत्वा स्तम्भनी विद्या चोर अपने साथी ४९९ चोरों के साथ, राजगृहनगर में आकार चोरी करने के लिए जंबूकुमार के घर में घुसे। उन्होंने अवस्वापिनी विद्या से वहाँ के सब लोगों को निद्राधीन कर दिया। मगर जंबुकुमार तो भाव-साधु हो चुके थे। अतः उन पर अवस्वापिनी विद्या का असर नहीं हुआ, वह जगते रहे। उनके प्रभाव से उनकी आठों भायें भी जागती ही रही। तत्पश्चात् प्रभव चोर अपने साथी चोरों के साथ उन सब स्वर्ण-मुद्राओं (सोनेयों) को बटोर (इकट्ठा) कर चलने को उद्यत हुए। तब जंबकुमारने नमस्कारमंत्र के प्रभाव से उनकी गति स्तंभित कर दी। अपनीगति स्तंभित (अवरुद्ध) हुइ देख प्रभव चकित रह गया और उन्हे सूझ न पडा कि अब क्या करना चाहिए।
उनकी यह दशा देखकर जंबूकुमार को हँसी आ गइ । उनकी हँसी सुनकर प्रभव ने उनसे कहामहाभाग ! मेरी यह अवस्वापिनी विद्या अमोघ (वृथा न होनेवाली) है; परन्तु उसका भी आप पर असर नहीं हुआ। आपने हमारी गति भी स्तंभित कर दी हैं। इससे प्रतीत होता है कि आप कोई विशिष्ट पुरूष है।
આવું સાંભળી, પ્રભાર પિતાના ચાસે નવ્વાણું ચેર સાથીઓ સાથે રાજગૃહી નગરીમાં આવી પહોંચે. આ ચારી કરવાના ઈરાદાથી, તે જંબૂ કુમારના ઘરમાં પ્રવેશ્યો. તેણે અવસ્થાપિની વિદ્યાની વાપ્તિ કરી હતી. તેથી ઘરના સવ માણુને નિદ્રાધીન કરી નાખ્યા. પરંતુ જંબૂ કુમારભાવ સાધુ થઈ ચુકયા હતા તેથી તેની ઉપર આ વિદ્યાની અસર ન થઈ. તેથી તેઓ જાગતા રહ્યા. તેના જાગવાથી, તેમની આઠ ભાર્યાઓ પણ જાગતી જ રહી. ત્યારબાદ પ્રભાવ ચોર તમામ સેના મહેરો ભેગી કરી ગાંસડીમાં બાંધી, પિતાના સાથીઓ સાથે રવાના થવા તૈયાર થયે તે વખતે તે જંબૂ ગુમારે નમસ્કાર મંત્રના પ્રભાવ વડે, તેને ઉભે સ્થિર કરી દીધું. એ ઉભો રાખી દીધું કે ત્યાંથી ચસકી પણ શક્ય નહિ ! પ્રભવ ખંભિત થતાં, તે અચંબો પામ્ય, ને તેને કાંઈ સૂઝ પડી નહીં. તેની આવી દશા જોઈ, જંબૂ
કમ, ૨ હસ્યા. તેમનું હાસ્ય જોઈને બેલી હઠ કે “હે ભાગ્યવાન ! મારી અવસ્થાપિની વિદ્યા નકામી થઈ ગઈ ! તે વિદ્યાએ Jan Education In કઈ આપની ઉપર અસર કરી નહીં પરંતુ ઉલટું હું ખંભિત થઈ ગયા ! આથી જણાય છે કે, આપ કઈ અદૂભુત વ્યક્તિ
प्रभवस्वामिपरिचयवर्णनम्। सू०१२१॥
॥४८४॥
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टीका
मह्यं देहि । अहं च तुभ्यम् अवस्वापिनी विद्यां ददामि । तस्येदं वचनं श्रुत्वा जंबकुमारोऽकथयत-इमा लौकिकविद्या दुर्गतिकारणाः सन्ति । तब विद्याया मयि प्रभावो न जातः, युष्माकं गतिश्च मया स्तम्भिता, अत्र न
कापि विद्याकारणम् । अयं प्रभावो नमस्कारमन्त्रस्यास्ति । एवं कथयित्वा जंबकुमारस्तस्मै चारित्रधर्ममपाश्रीकल्पदिशत् । तं श्रुत्वा प्रभवादीनां चौराणां मनसि वैराग्यं संजातम् । ततो द्वितीये दिवसे जंबकुमारः तैः प्रभवा
मञ्जरी ॥४८५॥
दिभिश्चोरैः सह सुधर्मस्वामिसमीपे प्रवजितः ।
जंबस्वामिनि मोक्षं गते तत्पट्टे प्रभवस्वामी उपाविशत् । स तु जङ्गमकल्पवृक्ष इव भव्यजीवानां मनोरथं पूरयन् श्रतज्ञानसहस्रकिरणकिरणैमिथ्यात्वतिमिरपटलं विनाशयन् भव्यहृदयकमलानि विकासयन् सुधर्मस्वामि आप कृपा करके स्तंभनी विद्या मुझे दीजिए-सिखा दीजिए, और मैं आप को अवस्वापिनी विद्या सिखा देता हूँ। प्रभव के यह वचन सुनकर जंबूकुमारने कहा-यह लौकिक विद्याएँ अधोगति का कारण हैं । तुम्हारी विद्या का मुझपर प्रभाव नहीं हुआ और मैंने तुम्हारी गति अवरुद्ध करदी इसमें कोई विद्या कारण नहीं है। यह तो नमस्कार मंत्र का प्रभाव है। इस प्रकार कहकर जंबूकुमार ने प्रभव को चारित्र धर्मका उपदेश दिया। प्रभवस्वामिवह उपदेश सुनकर प्रमव आदि सभी चौरों के मन में विरक्ति उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् दूसरे दिन जंबूकुमारमा
परिचय
वर्णनम् । उन प्रभव आदि चोरों के साथ सुधर्मास्वामी के समीप दीक्षित हुए। जंबूस्वामी जब मोक्ष पधार गये तो प्रभवस्वामी उनके पाट पर विराजमान हुए। वे चलते-फिरते कल्पवृक्ष के समान भव्य जीवों के मनोरथों को मार पूर्ण करते हुए श्रुतज्ञान रूपी सूर्य की किरणों से मिथ्यात्व रूपी-अन्धकार के पटल का विनाश करते हुए, भव्य લાગે છે ! આપ મહેરબાની કરી મને તે ‘સ્તંભની વિદ્યા આપે. તેના બદલામાં હું આપને મારી “અવસ્થાપિની’ વિદ્યા शीवी !
પ્રભવનું આવું કથન સાભળી જંબૂકુમાર બોલ્યા. “આ લૌકિક વિદ્યાઓ અર્ધગતિનું કારણ છે. તારી વિદ્યાનો પ્રભાવ મારી ઉપર પડયો નહીં અને મારી વિદ્યાએ તારી પર અસર પાડી ! આમાં કઈ અલૌકિકતા નથી, પણ નમસ્કાર મંત્રને પ્રભાવ છે! આવું કહી જંબૂ કુમારે, પ્રભવને ચારિત્ર ધર્મને ઉપદેશ આપે. આ ઉપદેશ સાંભળી,
॥४८५॥ પ્રભવ આદિ સર્વ થેરેના મનમાં વિરતિ ભાવ ઉત્પન્ન થશે. બીજે દિવસે જંબૂકુમાર સાથે, આ પાંચ ચેરેએ
સુધર્મા-સ્વામી પાસે દીક્ષા ગ્રહણ કરી. જંબુસ્વામીની મુક્તિબાદ, પ્રભવ સ્વામી તેમની પાટે આવ્યા. તેઓ ક૫હન સમાન ભવ્ય જીવના મને રથે પૂરા કરવા લાગ્યા. શ્રુતજ્ઞાનરૂપી કિરણે વડે, મિથ્યાત્વરૂપી અંધકારને નાશ
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श्रीकल्प
श्रीकल्पमञ्जरी
॥४८६॥
टीका
परिपोषितां चतुर्विधसंघवाटिकां देशनामृतेनाभिषिच्य उपशम-विवेक-विरमणादि पुष्पैः पुष्पिताम् आत्मकल्याणफलैः फलितां च कुर्वन् विहरति । एवं विहरन् स कालमासे कालं कृत्वा स्वर्ग गतः। ततश्चयुतः स महा. विदेहे क्षेत्रे समुत्पद्य शाश्वतः सिद्धो भविष्यति ॥सू०१२१॥ टीका-'सिरि जंबसामिम्मि' इत्यादि । व्याख्या सुगमा ।।मू०१२१॥
उवसंहार मूलम्-सम्पति सूत्रकारः सूत्रमिदं कल्पवृक्षत्वेन प्ररूपयन् फलप्रदर्शनपूर्वकम् उपसंहरति
णयसारभवो भूमी आलवालं च भावणा । । सम्मत्तं बीयमक्खायं, जलं हिस्संकिया इयं ॥१ अंकुरो नंदजम्मं च, वुत्ती ठाणग वीसई ।। रुक्खो वीरभवो जस्स, साहाओ गणहारिणो ॥ २ चउस्संघो पसाहाओ, सामायारी दलानि य ।
पुप्फावलि य तिवई, वारसंगी सुगंधओ ॥ ३ जीवों के हृदय-कमल को विकसित करते हुए, सुधर्मास्वामी द्वारा पोषित चतुर्विध संघरूपी वाटिका को अपने उपदेशामृत से सींचते हुए, उपशम, विवेक और विरमण आदि पुष्पों से पुष्पित करते हुए और आत्मकल्याण रूप फलों से फलवान् बनाते हुए विचरने लगे। इस प्रकार विचरते हुए प्रभवस्वामी काल-मास में काल करके अर्थात् यथासमय देह त्यागकर देवलोक में पधारे। देवलोक से चव कर वे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होंगे ॥ मू०१२१॥
टीका का अर्थ- इस सूत्र की व्याख्या सरल है। सू०१२१॥ કરવા લાગ્યા. ભગ્ય જેના હૃદય-કમળનો વિકાસ કરતા કરતા, સુધર્માસ્વામી દ્વારા પિષાએલ ચતુવિધ સંધ રૂપી વાડીનું પિતાના ઉપદેશ અમૃત દ્વારા, સિંચન કરતાં ઉપશમ, વિવેક અને વિરમણ આદિ પુછી પુષિત કરતાં અને આત્મકલ્યાણુરૂપ ફળેથી ફલિત બનતાં વિચરવા લાગ્યા,
આ પ્રમાણે વિચરતાં કાલ અવસરે કાલ કરી તેઓ સ્વર્ગમાં ગયા. સ્વગથી આવી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન ए थशे, त्यांचा भक्षय ४१, सिद्ध गतिने पाभये. (सू० १२१)
ટીકાને અ~ષ્ટ છે (સૂ૦ ૧૨૧)
उपसंहारः सू०१२॥
॥४८६॥
Jain Education Integral
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श्रीकल्पसूत्रे
1162811
Jain Education Inte
फलं मोक्खो निराबाहा - ताक्खयि मुहं रसो । वीरस्स भवरुक्खोऽमू, कप्पसुत्तस्सरूनगो ॥ ४ भव्वसंकष्पकप्पदु - कप्पो चिंतिय दायगी । सेवियो विणया णिश्चं देइ सिद्धिमणुत्तरम् ॥ ५ ॥ इय कष्पसुतं संपूणं ॥
छाया - नयसारभवो भूमि, रालवालं च भावनाः । सम्यक्तं वीजमाख्यातं जलं निश्शङ्कितादिकम् ॥ १ अङ्कुरो नन्दजन्मं च वृत्तिः स्थानक विंशतिः । वृक्षो वीरभवो यस्य शाखा गणधारिणः ॥ २ चतुस्संघः प्रशाखाः सामाचार्यो दलानि च । पुष्पावलि च त्रिपदी द्वादशाङ्गी सुगन्धकः ॥ ३ उपसंहार
अब सूत्रकार इस कल्पसूत्र को कल्पवृक्ष समान निरूपित करते हुए और फल बतलाते हुए उपसंहार करते हैं- भगवान् महावीर का कल्पसूत्ररूप यह भत्र-क्ष है । नयसार का भव इसकी भूमि है । भावनाएँ इसकी क्यारी हैं । समकित बीज है। निःशंकित आदि जल है ॥ १ ॥ नन्दका जन्म अंकुर है। बीस स्था नकबाड है। महावीर का भत्र वृक्ष है, जिसकी शाखाएँ गगधर हैं ||२|| चतुर्विधसंघ प्रशाखाएँ ( टहनियाँ ) है । समाचारिया पत्ते हैं । त्रिपदी फूल हैं। बारह अंग सौरभ म्रुगंध है ||३|| मोक्ष इसका फल है । अन्याबाध,
उपसंहार
મૂળના અ”—હવે સૂત્રકાર આ કલ્પસૂત્રને કલ્પવૃક્ષ સમાન નિરૂપિત કરી તેનું ફૂલ અતાવે છે. કલ્પસૂત્રરૂપ ભગવાન મહાવીરનું આ ભવ-વૃક્ષ છે ! નયસારના ભવ, આ ભવ-વૃક્ષની ભૂમિ છે. ભાવનાઓ, તે ભવવૃક્ષની કયારી છે. આ વૃક્ષમાં સકિત તેનુ' ખીજ છે; અને નિઃશકિત આદિ પ્રાણી છે. ॥ ૧॥ નંદનો જન્મ 'કુર છે. વીસ સ્થાનકા એ મહાવીરના ભવવૃક્ષની વાડ છે. મહાવીરના જીવ વૃક્ષ છે, ને ગણધરા તેની શાખાઓ છે. ॥ ૨ ॥
कल्प
मञ्जरी
ढीका
उपसंहारः
।। सू० १२१॥
॥४८७॥
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श्रीकल्प
कल्प
मुत्रे
मञ्जरी
॥४८८॥
टीका
फलं मोक्षो निराबाधा नन्ताक्षयि मुखं रसः ।। वीरस्य भवक्षोऽसौ, कल्पसूत्रस्वरूपकः ॥ ४ भव्यसङ्कल्पकल्पद्रु-कल्पश्चिन्तितदायकः । सेवितो विनयान्नित्यं ददाति-सिद्धिमनुत्तराम् ॥ ५
॥ इति कल्पसूत्रं सम्पूर्णम् ॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पश्चदशभाषाकलित ललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापकवादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल
वतिविरचित-श्रीकल्पमूत्रम् सम्पूर्णम् ॥ टीका-'णयसारभवो' इत्यादि। यथावृक्षोत्पत्तियोग्यां सुभूमि प्रथमं निरीक्ष्य आलवालं विधाय रसालादिरसवत्फल बीजानि तत्रोप्यन्ते । पुनस्तानि जलेन सिच्यन्ते, तदनु तानि बीजानि अङ्कुरत्वेन जायन्ते। तद्रक्षार्थ वृत्तिश्च कल्प्यन्ते । एवं प्रयत्नेन तानि बीजानि सपत्रशाखाप्रशाखासमन्वितशाखित्वेन जायन्ते । तत्र वृक्षेषु सरसानि सुरभीणि पुष्पाणि फलानि च भवन्ति । तथैव भगवतो वीरस्य कल्पमूत्रस्वरूपकोऽसो भववृक्षो- अनन्त, अक्षय, मुख इसका रस है। इस प्रकार यह कल्पसूत्र वीर भगवान् का भववृक्ष-रूप है ॥४॥ यह कल्पमूत्र भव्य जीवों का मनोरथ सफल करने के लिए कल्पवृक्ष के समान है। अभीष्ट प्रदान करनेवाला है विनयपूर्वक नित्य सेवन किया हुआ यह मूत्र सर्वोत्कृष्ट सिद्धि प्रदान करता है ॥५॥
कल्पसूत्र सम्पूर्ण ॥ ચતુવિધ સંધ શાખામાંથી ફૂટેલી પ્રશાખાઓ છે. સમાચારીએ તેના પાંદડા છે. ત્રિપદી તેનું ફૂલ છે. બાર અંગ (દ્વાદશાંગી) વૃક્ષની સૌરભ-સુગંધ છે. તે ૩ મોક્ષ તે વૃક્ષનું ફળ છે. અવ્યાબાધપણું અનંતતા, અને અક્ષય સુખ, તે વૃક્ષને રસ છે. આ પ્રકારે કપસૂત્ર, વીર ભગવાનનું ભવવૃક્ષરૂપ છે. ૪
આ કલ્પસૂત્ર ભવ્ય જીવોના મને સફળ કરવાવાળું કલ્પવૃક્ષ છે. અભીષ્ટ પ્રદાન કરવાવાળું છે. વિનયપૂર્વક તેનું નિત્ય સેવન કરતાં આ સૂત્ર સર્વોત્કૃષ્ટ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરાવે છે. જે ૫ છે
(ति ५सूत्रना राती अनुवाद .)
उपसंहारः ग्रन्थसमाप्तिश्च
०१२
॥४८८॥
Fi
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पोकल्पसूत्रे
४८९ ॥
*20000
Jain Educatio
ऽस्ति । अस्य वृक्षस्य भूमिः - उत्पत्तिस्थानं नयसारभवः । भावनाः = अनित्याशरणादि द्वादशभावना आलवालम् । अस्य बीजं सम्यक्त्वम् आख्यातं = कथितम् । जलं सेचनजलस्थानीयं निश्शङ्कितादिकं = निश्शङ्किताद्यष्टविधसम्यक्त्वा चाररूपं बोध्यम् । नन्दजन्म = पञ्चविशतितमो भवोऽस्य वृक्षस्य अङ्कुरः । अस्य वृत्तिः स्थानकविंशतिः विंशतिस्थानकानि । एवंरूपो वीरभवः = महावीर जन्मरूपो वृक्षोऽस्ति । अस्य वृक्षस्य शाखा; गणधारिणः - गणधरा गौतमादयः सन्ति, प्रशाखाः चतुस्सङ्घः चतुर्विधः सङ्घः सन्ति, अस्य दलानि पत्राणि सामाचार्यः =साध्वाचाररूपादशआवश्यकादि सामाचार्यश्च सन्ति । अस्य पुष्पावलि त्रिपदी - उत्पादव्ययधौव्यरूपा विज्ञेया । त्रिषदीरूपायाः पुष्पावल्याः सुगन्धकः = सुगन्धो द्वादशाङ्गी विद्यते । फलं चास्य मोक्षः । तस्य रसो निराबाधानन्ताक्षयि = अव्याहतम् अनन्तं
टीका का अर्थ- सबसे पहले वृक्ष की उत्पत्ति के योग्य अच्छी भूमि देखभाल कर क्यारी बनाकर, आम्र आदि रसदार फलों के बींज वहाँ बोये जाते हैं। फिर उन्हें जल से सींचें जातें है । तत्पश्चात् वे बीज अंकुररूप से उगते हैं। उनकी रक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती है। इस प्रकार के प्रयत्न से वे बीज पत्तों, शाखाओं प्रशाखाओ ( टहनियों) से युक्त वृक्षों के रूप में परिणत होजाते हैं। उनवृक्षों में सरस और सुगंधित पुष्प और फल लगते हैं। इसी प्रकार यह कल्पसूत्र भगवान् के भव-वृक्ष के समान है। इसकी भूमि - उत्पत्तिस्थान नयसार का भव है । अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएँ इसकी क्यारी हैं । इसका बीज समकित कहा गया है। निःशंकित आदि सम्यक्त्व के आठ आचार इसे सींचने के लिये जल के समान हैं। वीस स्थानक इसकी वाड़ है । ऐसा यह वीर-भव वृक्ष के समान है। गौतम आदि गणधर इस वृक्ष की शाखाए हैं । चतुर्विध संघ प्रशाखाएँ — शाखाओं की शाखाएँ हैं आवश्यक आदि साधु आचार रूप दस प्रकार की समाचारियाँ इसके पत्ते हैं। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप त्रिपदी इसकी पुष्पावली है। द्वादशांगी इसका सौरभ है । मोक्ष इसका फल है । व्याबाध, अनन्त असीम और अक्षय सुख इसका रस है ।
ટીકાના મથ॰—સૌથી પહેલાં વૃક્ષની ઉત્પત્તિને ચેાગ્ય સારી જમીન જોઈ ને કયારી બનાવીને આા આદિ રસદાર કળાનાં મીંજ ત્યાં વાવવામાં આવે છે. પછી તેને પાણી પાવામાં આવે છે. ત્યારબાદ તે ખીજ અંકુર રૂપે ઉગે છે. તેના રક્ષણ માટે વાડ બનાવાય છે. આ પ્રકારના પ્રયત્નથી તે બીજ પાન, ડાળિયા, અને પ્રશાખાઓ (ટહુનિયેા) વાળાં વૃક્ષ રૂપે પરિણમે છે. તે વૃક્ષાને સરસ અને સુગ ંધિદાર ફૂલા અને ફળેા આવે છે.
એજ પ્રમાણે આ કલ્પસૂત્ર ભગવાનનાં ભવ-વૃક્ષ જેવુ છે. તેની ભૂમિ-ઉત્પત્તિ સ્થાન નયસારને ભવ છે. અનિત્ય શરણુ આદિ ખાર ભાવનાએ તેની કયારી છે. સામકિત તેનું બીજ કહેવાયું છે. નિઃશ ંકિત આદિ સમ્યક્ત્વના માટ આચાર તેને સિંચવાનાં જળ જેવાં છે. વીસ સ્થાનક તેની વાત છે. એવા આ વીર ભવ વૃક્ષના જેવા છે.
Leone SENTE
कल्प
मञ्जरी
टीका
उपसंहारः ।। सु०१२१ ॥
||४८९ ।।
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श्री कल्प
मञ्जरी टीका
॥४९॥
क्षयरहितं च मुखम् अस्ति । एवं प्रकारकोऽसौ कल्पसूत्रस्वरूपको वीरस्य भववृक्षो विज्ञेयः । भव्यसंकल्पकल्पदुकल्पः-भव्यानां मोक्षार्थिनां यः संकल्पः अध्यवसाय:-अभिलाषस्तत्पूरणे कल्पद्रुकल्प कल्पवृक्षतुल्यः, अतएवचिन्तितदायकः असौ कल्पसूत्रस्वरूपो वीरभवक्षो विनयात सविनयं नित्यं सेविता-पठन-पाठन-श्रवण-श्रावणमननादिरूपया आराधनया आराधितः सन् अनुत्तरां-सर्वोत्कृष्टां सिद्धिं ददातीति ॥ १।२।३।४।॥५॥
इतिश्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराज प्रधानशिष्य-प्रियव्याख्यानि-संस्कृत-पाकृत-जैनागमनिष्णात-पं. मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराज विरचिता श्रीकल्पसूत्रस्य कल्पमञ्जरी व्याख्या सम्पूर्णा ।।
॥शुभं भूयात् ।। अरस्तु ॥ कल्पमूत्ररूप वीर का यह भववृक्ष है ऐसा समझना चाहिए। यह कल्पमूत्र मुमुक्षु जीवोंकी अभिलाषा पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के समान है, अतएव सभी अभिष्ट पदार्थों का दाता है। विनयपूर्वक इसका नित्य पठन पाठन श्रवण श्रावण मनन आदिरूप आराधना करने से यह सर्वोत्कृष्ट सिद्धि प्रदान करता है ॥ १-५॥
प्रियव्याख्यानी, संस्कृत-पाकृतवेत्ता, जैनागमनिष्णात पूज्यश्री घासीलालजी म. के प्रधान शिष्य पण्डित मुनिश्री कन्हैयालालजी म. द्वारा रचित श्री कल्पमूत्र की कल्पमंजरी व्याख्या सम्पूर्ण हुई॥
॥शुभं भूयात् ॥ श्रीरस्तु । ગૌતમ અદિ ગણધર આ વૃક્ષની શાખાઓ છે. ચતુર્વિધ સંધ પ્રશાખાઓ-શાખાઓની શાખાઓ છે. આવશ્યક આદિ સાધુ-આચારરૂપ દસ પ્રકારની સામાચારિયે તેના પાન છે. ઉત્પાદ, વ્યય. ધ્રૌવ્યરૂપ ત્રિપદી તેની પુપાવલી છે. દ્વાદશાંગી તેની સુગંધ છે. મોક્ષ તેનું ફળ છે. અવ્યાબાધ, અનંત-અસીમ રમને અક્ષય સુખ તેને રસ છે.
આ પ્રકારના આ કલ્પસૂત્ર સ્વરૂપ ભગવાન મહાવીરનું ભવવૃક્ષ સમજવું જોઈએ. આ કલ્પસૂત્ર મુમુક્ષ જીની અભિલાષા પૂર્ણ કરવામાં કલ્પવૃક્ષ સમાન છે. તેથી સધળા અભિષ્ટ પદાર્થ દેનારૂં છે. વિનયપૂર્વક હંમેશાં તેનું પડન પાઠન, શ્રવણ શ્રાવણ, મનન આદિ રૂપ આરાધના કરવાથી તે સર્વોત્કૃષ્ટ સિદ્ધિ આપે છે. ૧-૫
પ્રિયવ્યાખ્યાની, સંસ્કૃત પ્રાકૃતવેત્તા, જૈનાગમનિષ્ણાત, પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના મુખ્ય શિષ્ય પંડિત મુનિશ્રી કન્ડેયાલાલજી મહારાજ દ્વારા રચિત શ્રી કલ્પસૂત્રની કહ૫મંજરી વ્યાખ્યા સંપૂર્ણ થઈ o nal
|| शुभं भूयात् ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥
उपसंहारः ग्रन्थसमाप्तिश्च
सू०१२१॥
॥४९॥
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सिरिमहावीरसामिकयतवकोट्रगं
तवाण नामाणि
संखा तवदिवसा दिवसा
पारणा
१८०
| छम्मासियं | पंचदिवमूणं छम्मासियं
चउमासियं
तिमासियं ५] अड्दचिमासियं
दुमासियं ७ | अद्भेगमासियं
एगमासियं अड्ढमासियं अट्ठभत्तं छट्ठभत्तं भद्दपडिमा
महाभद्दपडिमा १४ सपोभदपडिमा
१० । योगफलम्
४१६५ | ३५१ ग्यारह वर्ष छ मास पचीस दिन की तपस्या हुई, और ग्यारह मास इक्कीस दिन पारणा के हुए।
०.०Gms cause
३६०
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________________ कुमार बुक बाइन्डींग से पीरमोहमदशाह से अहमदाबाद