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________________ कल्प श्रीकल्पसूत्रे ॥१८६॥ मञ्जरी हीका भगवतः श्वेताम्बि भवितुं नाहति, मनसः कोऽप्यशो यदा विकृतो भवति, तदा स उचितेनोपायेन परिवर्तयितुं शक्यते । एतावदेव नो किंतु अनिष्टांशस्य यावत्कं तीनं बलं प्रतिकूले विषये भवति तत् तावत्कमेवानकलेऽपि विषये परिवर्तयितुं शक्यते । काचिदपि बलवती चित्तस्थितिः इष्टा वा अनिष्टा वा भवतु साऽतिशयितोपयोगितया ग्राद्यैव, यतो द्विविधाऽपि चित्तस्थितिः समानसामर्थ्यवती भवति, परमयं भेद:-एका वर्तमानक्षणे शुभे प्रयोजिता अन्याचाशुभे, तथापि द्वयोः कार्यसाधनसामर्थ्य तुल्यमेव गणनीयम् । यया शत्तया शुभा अशुभा वा परिणामाः भवन्ति, सा शक्तिरवश्यमेषणीयैव ज्ञातव्या यथा-आमानानां स्वादुपक्कान्नतया पाचने, अनेकोपयोगिवस्तूनां भस्मराशीकरणे च समर्था शक्तिरेकस्मादेवाग्नेः समुद्भवति तथा शुभाशुभकर्तव्यपरायणा शक्तिमुलभवोधि है। जीव की किसी अनिष्टकारी प्रकृति को, तीव्रता के साथ, उदयावलिका में प्रविष्ट देख कर लोग मान लेते हैं कि यह परिवर्तन की संभावना से बाहर है, किन्तु वास्तव में यह बात नहीं है। मन का कोई भी अंश जब विकृत हो जाता है तो उचित उपाय से वह बदला जा सकता है। यही नहीं, अनिष्ट अंश का जितना बल प्रतिकूल विषय में होता है, उतना ही तीव्र वह अनुकूल विषय में भी पलटा जा सकता है। चित्त की कोई भी बलवती स्थिति, चाहे वह इष्ट हो या अनिष्ट, अतिशय उपयोगी रूप में ही उसे ग्रहण करना चाहिए। कारण यह है कि दोनों (इष्ट और अनिष्ट) प्रकार की चित्तस्थिति समानशक्तिसम्पन्न होती है। दोनों में अन्तर यही है कि एक वर्तमान में शुभ में प्रयुक्त हो रही है और दूसरी अशुभ में। फिर भी दोनों का, अपने-अपने कार्य को सिद्ध करने का सामर्थ्य तो समान ही गिना जाना चाहिए। जिस मूलभूत शक्ति से शुभ या अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह शक्ति अश्य ही वांछनीय है, ऐसा समझना चाहिये। उदाहरण के लिए अग्नि की शक्ति को लीजिए। एक ही अग्नि की शक्ति कच्चे अन्न को अच्छी तरह पकाती भी है और अनेक उपयोगी वस्तुओं को भस्म भी करती है, यह द्विविध शक्ति अग्नि से ही તે જીવ પૂબ બતાવતે હેય, તેનું વર્તન બહારથી ઘણું ખરાબ અને ઝેરીલું હોય તે લોકો કહે છે કે આ જીવ કદાપિ પણ સુધારી શકશે નહિ પરંતુ વાસ્તવિક રીતે આ વાત બરાબર નથી. મનને કેઈ અંશ કદાચ વિકૃત બની જાય તે ઉચિત ઉપાય વડે તેને સુધારી શકાય છે તેમ જ બદલાવી પણ શકાય છે. આટલું જ નહિ પણ અનિષ્ટ અંશનું જેટલું બળ પ્રતિકૂલ વિષયમાં હોય છે તેટલું જ તીવ્ર તે અનુકૂલ વિષયમાં પણ પલટાઈ શકાય છે. ચિત્તની શક્તિ એવી છે કે ઈષ્ટતા પણ સાધે અને અનિષ્ટતા પણ સાધે ! માટે તેની શક્તિ કેઈ સરસ્ત વાળવાથી તેને સુંદર ઉપયોગ થઈ શકે છે. ચિત્તમાંથી ઈષ્ટ અને અનિષ્ટ બને ભારે નીકળે છે, પણ શક્તિની અપેક્ષા એ ચિત્ત બને-ઈષ્ટ અને અનિષ્ટપણમાં સમાનબલ-વીર્યથી કામ કરે છે. का नगरी प्रति विहारः। ॥सू०८५॥ ॥१८६॥ Jain Educationd ation ww.jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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