SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री कल्प सूत्र ॥३११ ॥ तथा - अममः =ममतारहितः, अर्किश्चनः = निष्किञ्चनः, अक्रोधः = क्रोधरहितः, तथा - अमानः = मानरहितः, अमायः= मायावर्जितः, अलोभः=निर्लोभः तथा - शान्तः = अन्तर्वृर्त्या, प्रशान्तः - बहिर्वृत्या, उपशान्तः - उभयवृत्या, परिनिर्वृतः = सर्वसन्तापरहितः, अनास्रवः = आस्रववर्जितः, अग्रन्थः = वाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहितः, छिन्नग्रन्थः = परित्यक्तद्रव्यभावग्रन्थः, छिन्नस्रोताः=विनाशितास्रत्र कारणः, निरुपलेपः = द्रव्यभावमलवर्जितः, तथा-आत्मस्थितः =आत्मनि स्थितः - आत्मनिष्ठः, यद्वा-‘आयट्ठिए' इत्यस्य ‘आत्मर्थिकः' इतिच्छाया, तत्पक्षे - आत्मैवार्थः- प्रयोजनम् आत्मार्थः, सोऽस्त्यस्येत्यात्मार्थिकः, यद्वा-आत्मानमर्थयतीति आत्मार्थी स एवाऽऽत्मार्थिक:- आत्माभिलाषी = आत्मकल्याणोत्सुकः, तथा आत्महितः = षड्जीवनिकाय परिपालकः, तथा-आत्मज्योतिष्कः - आत्मैवज्योतिः - आलोको यस्य स आत्मज्योतिष्कः, यद्वा- 'आयजोइए' इत्यस्य ‘आत्मयोगिकः' इतिच्छाया, तत्पक्षे-आत्मनो योगाः - मनोत्राकायविषययोगाः सन्त्यस्य स आत्मयोगिकः= वशीकृतवाङ्मनः काययोग इत्यर्थः । तथा - आत्मपराक्रमः = आत्मबलशाली । तथा-समाधिप्राप्तः सम्यमेोक्षमार्गातथा - ममता से रहित थे। अकिंचन थे, क्रोध मान माया और लोभ से रहित थे । अन्तर्वृत्ति से शान्त थे, बाहर से प्रशान्त थे, और भीतर बाहर से उपशान्त थे । सब प्रकार के सन्ताप से रहित थे । आस्रव से रहित थे । बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित थे । द्रव्य-भाव ग्रन्थ ( परिग्रह ) के त्यागी थे । आस्रव के कारणों को नष्ट कर चुके थे । द्रव्य और भावमल से वर्जित थे । आत्मनिष्ठ थे । अथवा 'आयट्ठिए' की 'आत्मार्थिक' ऐसी छाया होती है। इसका अर्थ है - आत्मार्थी, आत्म कल्याण के इच्छुक, भगवान् आत्महित-षड्जीवनिकाय के परिपालक थे। आयजोइए - आत्मज्योतिवाले थे, अथवा आत्मयोगिक अर्थात् मन वचन तथा काययोग को वश में करनेवाले थे । आत्मबल से सम्पन्न थे । समाधि - मोक्षमार्ग में स्थित थे । વિનાના હતા, અકિંચન હતા ક્રોધ, માન, માયા અને લેાલથી રહિત હતા. માન્તવૃત્તિથી શાંત હતા, બહારથી પ્રશાંત હતા અને અંદર તથા બહારથી ઉપશાંત હતા. બધા પ્રકારના સંતાપથી રહિત હતા. આસ્રવથી रडित इता. बाह्य भने आल्यन्तर अन्थिथी रहित हता. द्रव्य-भाव ग्रन्थ (परियड) ना त्यागी हुता. भावना अरशोनो नाथ पुरी यूभ्या हुता. द्रव्य भने लाब भजथी रहित हता. आत्मनिष्ठ ता. अथवा “आयट्ठिए" नी “मात्मार्थिछु” शेवी छाया होय छे. तेनो अर्थ छे-भात्भार्थी, आत्मालिसाषी, भेटखे हैं- भुभुक्षु इता. भगवान आरू द्वित छवनिभायना परिपाक्ष हुता. आयजोइए - आत्मन्यातिवाजा अथवा आत्मयोगीक भेट भन, वन तथा કાયયેાગને વશ કરનાર હતા. આત્મબળથી સ ંપન્ન હતા. સમાધિ-મે ક્ષમામાં સ્થિત હતા. કાંસાંનાં પાત્રની જેમ For Private & Personal Use Only Jain Education International मञ्जरी टीका भगवदवस्था वर्णनम् । ॥सू०९८॥ ॥३११॥ www.jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy