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________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥४३॥ # मवाप्तुमित्र, अशरणः शरणं प्राप्तुमित्र, विमलं प्रभुमुखकमळं लोचनगोचरीकर्तु नितान्तो- त्कण्ठित-स्वान्त आसीत् ॥०६३ || टीका- 'तए णं सकिंदवज्जा' इत्यादि । ततः खलु त्रिषष्टिसंख्या अपि इन्द्राः = ईशानादयो निजनिजपरिवारपरिवृताःस्वस्वपरिजनपरिवेष्टिताः सन्तः, तत्र = अतिपाण्डुकम्बलशिलासमीपे स्वस्वासने स्थिताः । ततः खलु सर्वे देवा देव्यश्च एकतः = एकत्र मिलित्वा स्वकस्वककार्यप्रवृत्ताः सन्तः सर्वऋदया = सकलसम्पच्या, सर्वद्युत्या=सर्वप्रकाशेन, सर्ववलेन = सर्वपराक्रमेण सर्वसैन्येन वा, सर्वसमुदयेन – सर्वेषां = स्वपरिवाराणां समुदयेन समूहेन सर्वेण सम्यगुदयेन वा, सर्वाऽऽदरेण = सर्वप्रकारेण आदरेण, सर्वविभूत्या= सर्वैश्वर्येण, सर्वसंभ्रमेण= सर्वप्रकारया त्वरया, सर्वाऽऽरोहैः- सर्वसंनद्धीकरणैः, सर्व - पुष्प - गन्ध - माल्या - लङ्कार - विभूषया, तत्र सर्वेत्यस्य पुष्पाको, शरणहीन शरण प्राप्त करने को उत्कंठित होता है, उसी प्रकार देवगण भी भगवान् का निर्मल मुखकमल देखने के लिए उत्कंठितचित्त हो गये ||०६३ || टीका का अर्थ- 'ari' इत्यादि । तत्पश्चात् ईशान आदि तिरसठ इन्द्र भी अपने - अपने परिवार से वेष्टित होकर भतिपाण्डुकम्बलशिला के समीप अपने-अपने आसन पर बैठ गये। तब सब देव और देवियाँ एक साथ मिल कर अपने-अपने कार्य में लग गये। समस्त सम्पत्ति से, समस्त प्रकाश से, समस्त पराक्रम से या समस्त सेना से, अपने-अपने समस्त परिवार से या सम्यक् उदय से, सब प्रकार के आदर से, समस्त ऐश्वर्य से, समस्त त्वरा से, समस्त समारोह - तैयारी से, पुष्पों से, समस्त गंधों, समस्त मालाओं, समस्त अलंकारों જેમ રાગી રાગના નિવારણની રાહ જોઈ રહ્યો હાય છે, જેમ નિરાધાર આધારને વળગવાનું વિચારી રહ્યો હાય છે, જેમ શરણહીન ચરણ પ્રાપ્ત કરવાને ઝંખી રહ્યો હેાય છે, તેમ સવાઁ દેવ-દેવાંગનાએ, ભગવાનનું નિ`ળ અને સૌમ્ય મુખ જેવાની તાલાવેલી સેવી રહ્યાં હતાં. (સૂ॰ ૬૩) टीने अर्थ- 'तरण' त्यिाहि त्यार माह ईशान याहि त्रेसठ इन्द्र यशु पोतपोताना परिवारथी वटणाधने અતિપાંડુકમ્મલશિલાની પાસે પોતપોતાનાં આસન પર બેસી ગયાં. ત્યારે સઘળા દેવ અને દેવીએ એક સાથે મળીને પોતપોતાના કામે વળગી ગયાં. સમસ્ત સપત્તિથી, સમસ્ત પ્રકાશથી, સમસ્ત પરાક્રમથી, સમસ્ત સેનાથી, તાતાના સમસ્ત પરિવારથી અથવા સમ્યક્ ઉદયથી, બધી જાતના આદરથી, સમસ્ત અશ્વયથી, पूरी त्वराथी, पू समारोह - तैयारीथी, पुग्यो थी, समस्त गंधो, समस्त भाषाओं, समस्त माभूषथे, अने For Private & Personal Use Only Jain Educationation कल्प मञ्जरी टीका भगवज्जन्मोत्सवं कर्तुकामा नां देवानां मनोभाव वर्णनम् ॥४३॥ www.jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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