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________________ श्रीकल्प सूत्रे ||३६२।। कल्पमञ्जरी रीका बार पापाणचक्र !-वादिरूपा ये गोधूमाः तत्पेषणे चूर्णीकरणे पाषाणचक्र ! घरट-चूर्णीकृतपरवादिमानेत्यर्थः। तथा हे वाद्यामघटमुद्गर !-चादिन एव आमघटा: अपक्घटास्तचूर्णने मुद्गरतुल्य ! वादिविद्वत्ताऽभिमानचूर्णीकारकेत्यर्थः, तथा-हे वाधुलुकदिनमणे !-बादि न एव उलूकास्तेषां कृते दिनमणे-सूर्यरूप! परवादितर्कदृष्टिविनाशकेत्यर्थः। तथा-हे बादिक्षोन्मूलनवारण !-वादिन एव वृक्षास्तेषामुन्मूलने वारण-गजरूप ! वादिमानोन्मूलन समर्थेत्यर्थः । तथा-हे वादिदैत्यदेवपते वादिरूपाणां दैत्यानां पराभवकरणे देवपते! देवेन्द्र ! तथा-हे वादिशासननरेश!-वादिनां शासने स्वाधीनी करणे नरेश-राजरूप ! तथा हे वादिकंसकंसारे बदिन एच कंसस्तदमने कंसारे कृष्णरूप ! तथा-हे वादिहरिणमृगारे !-चादिन एवं हरिणास्तेषां कृते मृगारे=सिंहस्वरूप ! स्वसिंहनादवित्रासित सकलमृगरूपवादिसमूहेत्यर्थः। तथा-हे वादिज्वरज्वराङ्कुश!-वादिन एव ज्वरास्तदुपशमने ज्वराङ्कुश ज्वराङ्कशनामकौषधरूप ! तथा-हे वादियूथमल्लमणे वादिसमूहविद्रावणे श्रेष्ठमल्ल ! हे वादिहृदयशल्यवर ! स्वप्रगाढपाण्डित्यप्रभावेण वादिहृदयाऽनवरतपीडाकरणे तीक्ष्णशल्यस्वरूपेत्यर्थः। तथा-हे वादिशलभप्रज्वलदीपक !-वादिन एव पिस डालने के लिये चक्की के समान ! हे प्रतिवादी रूपी कच्चे घडों के लिये मुद्गर के समान वादीयो की विद्वत्ता को चूर-चूर करदेनेवाले! हे वादी रूपी उलूकों के लिए सूर्य अर्थात् प्रतिवादीयों की तर्क-दृष्टि को नष्ट करदेने वाले ! हे वादी रूपी वृक्षों को उबाड गिराने वाले गजराज, अर्थात् वादियों का मानमर्दन करने- वाले ! हे वादी रूपी दानों का पराभव करनेवाले देवेन्द्र! हे प्रतिवादीओं को अपने अधिन करनेवाले नरेश ! हे वादी रूपी कंस के लिए कृष्ण समान ! हे अपने सिंहनाद से समस्त वादी रूप मृगों को भयभीत करदेनेवाले सिंह ! हे वादी रूपी ज्वर का निवारण करने के लिए ज्वरांकुश नामक औषध ! हे वादियों के समूह को पराजित करनेवाले महान् मल्ल ! हे अपने प्रकाण्ड पांडित्य के प्रभाव से प्रतिवादियों के अन्तःकरण में सदैव खटकनेवाले काँटे ! हे प्रतिवादी रूपी पतंगों को भस्म करनेवाले जलते दीपक, अर्थात् प्रति આવા ઉપમાન ઉપરાંત પ્રતિવાદીઓને હરાવવામાં પિતાના ગુરુદેવની તીવ્ર શક્તિ રહેલી છે તેવું સામર્થ્ય પ્રગટ કરતા ચાલ્યા જતા હતા. જેમ પતંગ અગ્નિમાં, શરીર મૃત્યુમાં, અજ્ઞાની પંડિતમાં ખતમ થઈ જાય છે તેમ આ વર્ધમાન પણ અમારા ગુરુની આગળ પરાજય પામશે! કારણ કે તેઓ, સકલ શાસ્ત્રો અને તેના અર્થમાં પારગત છે. તમામ કલાઓના જાણકાર છે, પંડિતેમાં શિરમણિ છે, અધિષ્ઠાત્રી દેવીનું કૃપાભાજન છે, વિદ્વાનોના ગર્વનું न दवावाजा छ, तम ज्ञान विगैरेभा स . मा प्रभारी मा disdi, IND पता, अ. ब्राह्मण वर्णनम् । सम्०१०५॥ ॥३६२॥ છે swww.jainelibrary.orgs:
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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