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________________ श्रीकल्प कल्पमंञ्जरी टीका ॥१९३॥ चित्त इष्टा-अनुकूला अनिष्टा-पतिकूला वा भवतु, किन्नु सा चित्तस्थिता अतिशयिता-उत्कर्ष प्राप्ता सती उपयोगियता: कार्यकारितयैव ग्राह्या-विज्ञेया। तत्र हेतुमुपन्यस्यति-यतः यस्मादेतो द्विविधापि इष्टानिष्टभेदात् द्विपकाराऽपिचित्तस्थितिः समानसामर्थ्यवती-तुल्यबला भवति, परं-किन्तु तयोः अयम् अनुपदं वक्ष्यमाणः भेदः अन्तरं वर्तते, एका-प्रथमा चित्तस्थितिः वर्तमानक्षणे विद्यमानकाले शुभेन्शुभफलजनककार्ये प्रयोजिता व्यापारिता भवति, अन्या-द्वितीया च सा अशुभे=अशुभफलजनककार्ये प्रयोजिता भवति, तथापि-चित्तस्थितेः शुभाशुभप्रयोजितत्वेऽपि द्वयोर उभयोरपि चित्तस्थित्योः कार्यसाधनसामर्थ्य-शुभाशुभ फलोत्पादनशक्तिः तुल्यं समप्रमाणमेव गणनीयम्=मन्तव्यम् । यया शक्त्या सामर्थ्येन शुभाः वा अशुभाः वा परिणामाः भवन्ति-जायन्ते,सा शक्तिः अवश्य=निःसंदेहं यथा स्यात् तथा एषणीयैव-अपेक्षणीयेव ज्ञातव्या बोध्या। यथान्येन प्रकारेण आमानाकोई ना=अपकतण्डुलाद्यन्नानाम् स्वादुपकानतया स्वादिष्टपकान्नत्वेन पाचने पचनक्रियायां, च-पुनः अनेको चित्त की कोई भी स्थिति क्यों न हो, अगर उस में बल है, वह सामर्थ्यशालिनी है, तो चाहे वह अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो, अर्थात् वह कुमार्गगामिनी हो या सुमार्गगामिनी हो, उस उत्कर्षप्राप्त शक्ति को उपयोगी ही मानना चाहिए। कारण यह है कि चित्त की यह दोनों प्रकार की स्थितिया तुल्य सामर्थ्य वाली होती हैं। दोनों में भेद है तो केवल यही कि पहलो चित्तस्थिति वर्तमान में शुभफलजनक कार्य में प्रयुक्त हो रही है और दूसरी अशुभफलजनक कार्यमें, फिर भी उन दोनों चित्तस्थितियों में शुभ-अशुभ फल को उत्पन्न करने की शक्ति तो समान ही है। अत एव-जिस शक्ति के कारण शुभ या अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह मूलभूत शक्ति निस्सन्देह अपेक्षित ही है। जैसे अग्नि की शक्ति कच्चे चावल आदि अन्नों को भलीभाति पकाने में समर्थ होती है, और अनेकानेक उपयोगी वस्तुओं को भस्म करने में भी समर्थ होती है, वह द्विविध शक्ति एक ही अग्नि से उत्पन्न होती है उसी प्रकार शुभ और अशुभ कर्त्तव्य में प्रयुक्त होने वाली शक्ति भी आत्मा के एक ही अंश से उत्पन्न होती है। ભગવાન ચંડકૌશિકની મલિનવૃત્તિને ખસેડવા માગતાં હતાં. તેનું ચિત્ત જે દુષ્ટ કાર્યમાં રમણ કરે છે તેમાંથી તેને હટાવી, અન્ય ભાવ ઉપર નજર પડતાં, તેને પિતાનું નિજસ્વરૂપ સમજાઈ જશે, એમ માની, ભગવાને આ વિકટ માગ પકડયે. ચિત્તને ચમકારે અને ઝુકાવ, જેટલે અને જેટલી શક્તિ એ અનિષ્ટતા-ઉપર વળે છે, તે જ ચમકારો અને ઝુકાવ અને તેટલી જ શક્તિ એ ઈષ્ટ ભાવે ઉપર પણ પડે છે. એ મૂળભૂત શક્તિ ચિત્તમાં કામ કરી રહી છે અને આ જે શક્તિ શુભ અને અશુભ બંને વૃદ્ધિઓમાં કામ કરે છે તે ચિત્તશક્તિને યથાયોગ્ય સમજી તેનું પરીવર્તન કરવું જોઈએ. चण्डकौशिक विषये भगवतो विचारः। मू०८५॥ la Jain Education Stational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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