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________________ श्री कल्प ॥४१४ ॥ Jain Education छुटयते' इति यत्त्वया कथितं, तदपि मिथ्या ! यतः लोके सुवर्णस्य मृत्तिकायाश्च परस्परं योऽनादिः प्रवाहापेक्षयानादिकालागतः सम्बन्धो भवति, स छुटद्यते पुत्र । एवमेव जीवस्यापि अनादिवन्धो निस्संशयं छुटते इति बोध्यम् । अत्र विषये तत्र शस्त्रेऽप्युक्तमस्ति - ' ममेति बध्यते जन्तुः' इत्यादि । अयं भावः -जन्तुः मम= मदीयम् एतत्पुत्रदारादिकम् इति स्त्रीकुर्वन् सन् ममता रज्ज्वा बध्यते=बन्धं याति, पुनः स जीवः निर्ममेति'मम पुत्रदारादिकं नास्तीति ममत्वमकुर्वन् प्रमुच्यते इति । इतोऽन्यदपि तत्र शास्त्र बन्धमोक्षपरं प्रभूतं वचनमस्ति । तदेव दर्शयितुमाह - 'पुनरपि' इत्यादि । पुनरपि तव शास्त्रे प्रोतं- 'मन एव मनुष्याणाम्' इत्यादि । मनुष्याणां - बन्ध-मोक्षयोः, कारणं-मन एव = अन्तःकरणविशेष एव न तु तदन्यः कोऽपि पदार्थस्तयोः कारणमस्ति । तत्र विषयासक्तं मनः जीवस्य बन्धाय - चतुर्गतिक संसार परिभ्रमणाय भवति । तथा-निर्विषयम् = इन्द्रियविषयासक्तिरहितं मनस्तु मुत्तयै= जीवस्य मोक्षाय - भवभ्रमणविरमणाय भवतीत्यादि । अतो जीवस्य बन्धी मोक्षथ भवतीति सिद्धम् । एवं श्रुत्वा विस्मितः छिन्नसंशयः सन् प्रतिबुद्धो भूत्वा मण्डिकोपि अर्द्ध चतुर्थशतशिष्यैः सह प्रव्रजितः । ननु - अग्भूितिकृत कर्म संशयादस्य को विशेषः ? उच्यते स कर्मसत्ता गोचरः, अयं तु तस्मिन् सत्यपि जीक्कर्मसंयोग गोचरोऽस्तीति विशेषो ज्ञातव्यः । तुमने कहा कि अनादि बंध छूटता नहीं है, सो भी मिथ्या है। लोक में सोने और मीट्टी का परस्पर जो प्रवाह की अपेक्षा से अनादिकालीन संबंध है, वह छूट ही जाता है। इसी प्रकार जीव का भी कर्मों के साथ का अनादि सम्बन्ध अवश्यमेव छूट नाता है। इस विषय में तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है-जब जीव 'यह पुत्रकलत्र आदि मेरे हैं' ऐसा मानते है तो ममता की रस्सी से बँधता है और जब जीन यह समझ लेता है कि 'पुत्र कलत्र आदि मेरे नहीं हैं तो ममत्व से रहित होकर मुक्त होता है। इसके अतिरिक्त भी बंध - मोक्ष का समर्थन करनेवाले बहुत से वचन तुम्हारे शास्त्र में विद्यमान हैं। कहा भी है- 'मनुष्यों के बंध और मोक्ष का कारण मन ही है, मन के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हैं। विषयों में आसक्त मन चार गति रूप संसार भ्रमण का कारण होता है। तथा इन्द्रिय-विषयों की आसक्ति से रहित मन जीव के मोक्षभव भ्रमण के अन्त का कारण होता है।' इससे सिद्ध हुआ कि जीव को बंध और मोक्ष होता है । मोक्ष अन! ? मात्मानो ! आ आत्मा है ? तो ते અન્ય સર્વ વિભાવ અને દેહાઢિ સ ંચાગના આભાસથી રહિત એવા કરવામાં પ્રવૃત્તિ તે મેક્ષ માગ અને આ દશા' પ્રાપ્ત થાય એટલે 'सत् ३५, अविनाशी, चैतन्यभय, स्वभावभय, કેવળ’ એટલે ‘શુદ્ધ આત્મા આ દશા પ્રાપ્ત માક્ષ થયેા કહેવાય.” LOGISTIC TOUC 蕙 कल्प मञ्जरी टीका मण्डिस्य बन्धमोक्षविषयक संशयनिवारणम् । दीक्षाग्रहणं च । ॥ सू० १११ ॥४१४॥ www.jainelibrary.org.
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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