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________________ श्रीकल्प मञ्जरी ॥३९४॥ टीका भूतेभ्यः पृथिव्यादिभ्य उत्थाय-उत्पद्य पुनस्तान्येव भूतानि अनुविनश्यति-तेषु भूतेष्वेव विलीनो भवतीति । अत्रोच्यते अस्मिन् विषये प्रतिविधीयते-सर्वपाणिनां जीवो देशतः प्रत्यक्षोऽस्त्येव, यतः स जीवः स्मृत्यादिगुणानां स्मृति-जिज्ञासा-चिकोर्षा-जिगमिषा-ऽऽशंसादिनां गुणानां प्रत्यक्षस्वेन संवित्-ज्ञाता अस्ति । सः-जीवः देहेन्द्रियेभ्यः पृथक् अस्ति, कुतः ? इत्याह-'यतः' इत्यादि-यतः इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि यदा नश्यन्ति-व्याधिशस्त्रादिमिहिन्यन्ते तदा-इन्द्रियोपघातावस्थायाम् सः-आत्मा तं तम् पूर्वमनुभूतं इन्द्रियार्थ-शब्दादिकं स्मरति । एतदेव विशघते-'जहे' त्यादिना, यथा एषः-शब्दः मया पूर्वपार श्रुतः। तथा-एतत् इदं वनभवनवसनादि वस्तुजातं मया पूर्व दृष्टम् । तथा एषः गन्धः सुरभिर्दुरभिर्वा मया पूर्वम् आघातः। तथा-एषः मधुरतिक्तादिरस: मया पूर्व आस्वादितः ४ । तथा-एषः मृदुकर्कशादि स्पर्शः मया पूर्व स्पृष्टः ५ आसीदिति सर्वत्र संयोजनीयम् , एवं प्रकारः अनुभवो यो भवति सोऽनुभवो जीवं विना कस्य भवेत् ? अपि तु जीवातिरिक्तस्य न कस्यापि, अनुभवस्य जीवकर्तृत्वादिति । पुनरप्याह-'तुझ सत्येवि' इत्यादि । तव शाखेऽपि उक्तमस्ति, यत्-'सत्येन तुम्हारे इस सन्देह का समाधान इस प्रकार है-सब जीवों को अंशतः जीव प्रत्यक्ष होता ही है; क्यों कि जीव स्मृति आदि अर्थात्-स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा, जिगमिषा, आशंसा आदि गुणों का प्रत्यक्ष रूप से ज्ञाता है। वह जीव देह से और इन्द्रियों से भिन्न हैं, क्यों कि जब व्याधि या शस्त्र आदि के आपात वगैरह किसी कारण से इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं, तब इन्द्रियों के उपचात की स्थिति में भी आत्मा पहले अनुभव किये गये शब्द आदि विषयों का स्मरण करता है। इसी कथन का स्पष्टीकरण करते हैं-जैसे 'वह शब्द मैंने पहले (श्रोत्र इन्द्रिय का उपघात होने से पूर्व) सुना था ! वह वन मवन वसन (वस्त्र) आदि वस्तु-समूह मैंने पहले देखा था। वह सुगंध या दुर्गध मैं ने पहले संघी थी। वह मीठा का तिक्त रस मैंने पहले आस्वादन किया था। वह कोमल या कठोर स्पर्श मैंने पहले छुआ था। इस प्रकार का जो स्मरण होता है, वह स्मरण जीव के सिवाय और किसे होगा? जीव के सिवाय और किमी को नहीं हो सकता, क्यों कि अनुभव का कर्ता जीव ही है। और भी कहते हैं-तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है कि-'यह नित्य, ज्योतिर्मय और ઉલ્લેખ કરી સમજાવ્યું કે, આ બધા ગુણે, જડ શરીરમાંથી ઉત્પન્ન થઈ શકતા નથી, કારણ કે આ ગુણે, ચેતનાશક્તિવાળા અને ચેતના શક્તિથી ભરપૂર છે, ત્યારે જડમાં ચેતના શક્તિ બિલકુલ નથી, તે આ ગુ જડમાંથી કેવી રીતે ઉદભવ પામી શકે? માટે આ ગુણોવાળી જીવતત્વ, શરીરતત્વથી, તદ્દન ભિન્ન અને નિરાળું છે. ઈન્દ્રિય દ્વારા મેળવેલ જ્ઞાનપણુ, ઇન્દ્રિય લુપ્ત થવા છતાં, મરણમાં રહી શકે છે આ સ્મરણ શક્તિ જીવની છે, જડ છે . શરીરની નથી માટે જીવ અને કાયા બન્ને ભિન્ન છે. वायुभूते तज्जीवतच्छरीर विषय संशय निवारणम्। सू०१०८॥ ॥३९४॥ Jain Education In n al Sm.jainelibrary.org or Private & Personal Use Only
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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