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________________ श्रीकल्प सूत्रे ।। ३९३ ।। TECT ETER भ्रातरौ तदन्तिके प्रव्रजितौ । अतोऽहमपि तत्र गत्वा स्वमनोगतं तज्जीवतच्छरीर विषयं = जीव- शरीर क्यविषयकं संशयम् अपाकरोमि, इति कृत्वा = इत्येतद्विचिन्त्य सोऽपि = वायुभूतिरपि पञ्चशतशिष्यपरिवृतः प्रभुसमीपे समनुप्राप्तः= समागतः । प्रभुः = वायुभूतिं नामसंशयनिर्देशपूर्व = तन्नाम तन्मनोगतसंशयनिर्देशपुरस्सरं वदति - भो वायुभूते । तव मनसि संदेहो वर्तते यत् शरीरं तदेव जीवः । तद्व्यतिरिक्तः = शरीर भिन्नः अन्यः कोऽपि जीवों नास्ति, प्रत्यक्षादिप्रमाणेन तदुपलम्भाभावात् । जलबुद्बुद इव जलबुद्बुदवत् स जीवः शरीरात् उत्पद्यते उत्पन्नः सन् शरीरे एव विलीयते = विलीनो भवति । अतो नास्ति अन्यः = शरीरातिरिक्तः कोऽपि पदार्थः = जीवपदार्थः, यः परलोके गच्छेत् ? । 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः' इत्यादि विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येव अनुविनश्यदि- इति वेदवचनमपि अत्रार्थे शरीरजीवैक्यविषये मानं=प्रमाणम् । अयं भावः - विज्ञानघनो = जीव एतेभ्यो प्रभाव है कि मेरे दोनों भाई उनके समीप दीक्षित हो गये हैं। अत एव मैं भी उनके पास जाकर अपने मन के ' वही जीव वही शरीर' अर्थात् जीव और शरीर विषयक एकता संबंधी संशय का समाधान प्राप्त करूँ । इस प्रकार विचार कर वायुभूति भी अपने पास शिष्यों को साथ लेकर भगवान् के समीप आये । भगवान् ने वायुभूति के नाम और संशय का उल्लेख करते हुए कहा - हे वायुभूति ! तुम्हारे मन में यह सन्देह पैठा हुआ है कि- 'जो शरीर है वही जीव है। शरीर से भिन्न जीव अलग नहीं है, क्यों कि प्रत्यक्ष यदि किसी भी प्रमाण से जीव की प्रतीति नहीं होती। जैसे जल का बुद्बुद जल से ही उत्पन्न होता है और जल में लीन हो जाता है, जल से अलग उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, इसी प्रकार जीव भी शरीर से उत्पन्न होता है और शरीर में हो विलीन हो जाता हैं । अतः शरीर से भिन्न कोई जीव पदार्थ नहीं है जो मृत्यु के पश्चात् परलोक में जाय । 'विज्ञानघन ही इन पृथ्वी आदि भूतों से उत्पन्न होकर उन्हीं में लीन हो जाना है' यह वेद-वाक्य भी जीत्र और शरीर की एकता के विषय में प्रमाण है । ભાઇઆની અને અમારા બધાની જે જે શંકાએ અમને મુઝવે છે, તે બધી શાંકાએ અનુક્રમે નિમૂ ળ થતી જાય છે. જીવનું અસ્તિત્વ અને કર્મનુ' હાવાપણું, આ બન્ને શ'ક આ અમારા મનમાં વતતી હતી, તેનું નિવારણ આ વ્યક્તિએ સચોટ કથન દ્વારા કરી આપ્યા પછી, મને પણ ઘેાડી ઘેાડી શ્રદ્ધા તેના પર આવતી જાય છે. માટે હું પણ મારી શંકા તેની આગળ પ્રદર્શિત કરી, તેના ખુલાસો મેળવું! આવુ વિચારી તે પ્રભુ પાસે ગયા એટલે શરીર અને જીવ' એકજ છે. તે જાતની તેમની શંકા, પ્રભુએ સ્વયં પ્રગટ કરી. આથી વાયુતિને પોતાના મની વાત એમણે કેવી રીતે काशी ते मे विस्मय थयो. लगवाने, भवानी स्मृति, लज्ञासा, थिङीष, लगमिषा, माशांसा विगेरे गुना For Private & Personal Use Only Jain Educationations 無無無無無無 कल्प मञ्जरी टीका वायुभूतेः तज्जीव तच्छरीर विषय संशय निवारणम् । ||सू०१०८|| ॥३९३॥ www.jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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