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________________ श्रीकल्प कल्पमञ्जरी टीका ३४५॥ समवसरण चिद नीलमणिप्रभा नीलमणिमयत्वेन नौलवर्णा, कुंत्रचित् भूमिः स्फटिकामा स्फटिकमणिमयत्वेन धवलकान्तिमती, कुत्रचित् भूमिः ज्योतीरत्नमयी, कुत्रचित् भूमिः पद्मरागमयी-पद्मरागमणिमयत्वेन रक्तवर्णा, कुत्रचित् भूमिः काञ्चनसङ्काशा-स्वर्णमयत्वेन ईपद्रक्तपीतवर्णा, कुत्रचित् भूमिः बालमूर्यसमा सद्य उदित मूर्यवत् अतिरक्तवर्णा, काचित् भूमिः तरुणारुणसङ्काशानाध्याहि कसूर्यसमप्रभा, काचित् भूमिर्षिधुत्कोटिसमप्रभा-कोटिसंख्य विद्युत्सदृशप्रभा अभवत्-जाता। तस्य-समवसरणस्य च चतुर्दिशिचतमषु दिक्षु पञ्चविंशति योजनपरिमिते शतकोशशतक्रोश परिमिते क्षेत्रे ईति-भौतिमारि दुर्भिक्षवैराऽऽधिव्याध्युपाधयः ईतयः-अतिवृष्टयनाष्टिमषिक शलभशुकात्यासन्नराजरूपाः षड्विधाः, भीतिः-भयं, मारि-विचिका, दुर्भिक्षं, वैरं, आधिः-मानसीव्यथा, र व्याधिः-शारीरिकपीडा, उपाधिः-उपसर्गः-देवमनुष्यतिर्यगाद्युपद्रवश्यैते उपाशाम्यन्-उपशान्ताः, लोकाः सर्वे थी, कहीं नीलमणिमय होने के कारण निलिमा से युक्त थी कहीं स्फटिकमय होने से धवल थी तो कहीं ज्योतिरत्नमयी होने से भास्वर हो रही थी। कहीं पद्मरागमणिमयी होने से अन्ठी लालिमा से व्याप्त भी तो कहीं स्वर्णमयी-हल्की पीत वर्गकी थी। भूमि का कोई भाग वालमूर्य के समान एकदम रक्तवर्ण था तो कोई भूमिभाग मध्याह्नकालीन सूर्य के सदृश प्रभा से युक्त था । कहीं-कहीं की भूमि करोडो विजलियोंकी प्रभा जैसी प्रभा से आलोकित थी। समवसरण से चहुँ और सौ-सौ की दूरी तक के क्षेत्र में ईति नहीं थी, अतिवृष्टि,१ अनारष्टि, २ चूहोका उपद्रव ३ टिट्टियोंका उपद्रव ४ तोतोका उपद्रव ५ और समीप में दूसरे राजाका उपद्रव ये छह तरह की ईतिया हैं। इनका भय का अभाव था, अथवा ईतियों का भय नहीं था। महामारी (विचिका), दुष्काल, वैर, आधि (मानसिक पीड़ा), व्याधि (शारीरिक व्यथा), उपाधि (देव मनुष्य तथा ઠેકાણે લમણિમય હોવાને લીધે નીલિમાયુક્ત હતું, કે ઈ ઠેકાણે સ્ફટિકમય હોવાથી સફેદ હો, કઈ ઠેકાણે જ્યોતિ રત્નમય હોવાથી ભાવર હતું. કેઈ ઠેકાણે પધરાગ મણિમય હોવાથી અને ખી લાલિમાંથી વ્યાપ્ત હતો. કોઈ ઠેકાણે સુવર્ણમય હોવાથી હલ્કા પીળાવર્ણવાળો હતો. કોઈ ઠેકાણે બાળસૂર્યની સમાન અત્યંત લાલવણું વાળે હો. કેઈ ભૂભાગ મધ્યાહ્નકાના સૂર્યની સમાન પ્રભાવવાળો હતે કઈ ભાગ કરે | વીજળીઓની પ્રભાવાળા ભાસતે હતે. સમવસરણની ફરતી ચારે બાજુએ, સો સે ગાઉ સુધી, કોઈ પણ સ્થળે કઈ જાતના ઉપદ્ર નજરે પડતા. नही. ति' 2 मे तन उपद्रव मानिन्छ । 2. (१) अतिवृष्टि (२) मनावृष्टि () ४२७।। (४) नीड () ५८ने। उपद्रव, (६) दुश्मन नु यही आवषु. 11 Siत माथि (भानसि. पी. व्याधि (श:२४ शोभा वर्णनम्। मू ०१०३॥ र ॥३४५॥
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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