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________________ श्रीकल्प कल्प मञ्जरी ॥६७। टीका टीका-तए णं उदंचंत-' इत्यादि । ततः खलु उदश्चदुत्सवा उद्यदुत्सवः सिद्धार्थभूपः प्रत्यूषकालसमयेप्रातःकालावसरे, प्रमोद-कदम्ब-मोचक-प्रभुजन्म-सूचक-याचक-निकुरम्ब, तत्र-प्रमोदकदम्बमोचकम्-आनन्दवृन्ददायकं यत् प्रभुजन्म तस्य ये सूचका:ज्ञापका याचकाः भिक्षुकाश्च तेषां निकुरम्बसमूह, देन्यसेन्य-पराभवशून्य दारिद्रय-रूप-सैनिक-पराजय-रहित-दारिद्रयमुक्तम्, अकरोत्। तथा-स नागरिकसमाजवनमपि नगरवासिजनसमूहरूपवनमपि, राजराज-कमला-विलास-हास-वसु-सलिला-ऽऽसारेः-राजराजः कुबेरः, तस्य या कमला लक्ष्मीः -सम्पत्तिः, तस्या यो विलासः विलसनं, तं हसतीति तादृशं यद्वसुन्धनं तद्रूपं यत्सलिलं जलं तस्याऽऽसारैः धारासम्पातैः, तैः कीदृशैः ? इत्याह-स्फारैः-विशालैः, दुःख-दावानल-समुज्ज्वलत्कील-कवल-प्रबलभयात्-दुःखमेव यो दावानलोचन्यवहिः तस्य यः समुज्ज्वलन्-प्रज्वलन् कील-शिखा-ज्वाला तस्य यत् कवलं प्रसनं तस्मात् यत् प्रबलं-पकृष्टं भयं तस्मात्, विमोच्य-पृथकृत्य, उद्भिन्दद-मन्दा-ऽऽनन्दा-कर-पूरम्उद्भिन्दन परोहन्-उत्पद्यमानः अमन्दाऽऽनन्दाङ्करपूर अतिशयितप्रमोदरूपाङ्करसमूहो यस्य यस्मिन् वा ताह टीका का अर्थ--'तए णं' इत्यादि । तब राजा सिद्धार्थ उत्सव मनाने के लिए उद्यत हुए। प्रातः- काल के अवसर पर उन्होंने आनन्द के समूह को देने वाले भगवान् के जन्म को सूचित करने वाले अन्तःपुर के दासदासियों को तथा भिखारियों को दीनतारूपी सेना के पराजय से रहित कर दिया, अर्थात् सदा के लिए उन्हें दरिद्रता से मुक्त कर दिया। तथा नगर-निवासी जनसमूहरूपी वन को भी कुबेर की लक्ष्मी के विलास का उपहास करने वाले, अर्थात् अत्यधिक, धनरूपी जल की विशाल धाराएँ बरसा कर, दुःखरूपी दावानल की जलती हुई ज्वालाओं का ग्रास होने के प्रबल भय से मुक्त करके. उत्पन्न होने वाले अतिशय प्रमोदरूपी अंकुर-समूह से सम्पन्न कर दिया। अभिप्राय यह है कि सिद्धार्थ राजाने कुवेर के धन से भी अधिक धन देकर नागरिक जनों को दरिद्रता के दुःख से रहित सिद्धार्थकृत भगवज्जन्मोत्सवः । ॥६७॥ सन मथ-'तपणे त्याह. भामापने पोताना पुत्र बभ-उत्सव Granाम मानहायल, પણ આવા લેકનાથ થવાવાળા પુત્રને જન્મઉત્સવ ઉજવવામાં તે આખુયે રાષ્ટ્ર તૈયાર થઈ ગયું. રાજાએ, પિતાનેખજાને ખુલ્લો મૂકી દીધે, ને ગરીબવર્ગના દુઃખ મટાડવામાં કાંઇપણુ મણ રાખી નહિં. પિતાના આશ્રયે પડેલા નેકરીયાત વર્ગને તે, રાજાએ ન્યાલ કરી દીધો, ને તવંગરની કક્ષામાં તે સર્વને મુકી દીધા. Jain Education stational For Private & Personal Use Only wivw.jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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