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________________ श्रीकल्प मञ्जरी टीका नापेक्षिष्ये, तद्भूर्तपराजये एक एवाहं पर्याप्तोऽस्मि इति भावः । अन्धकारप्रणाशे=अन्धकारदूरीकरणे किं सूर्यः सब अयं-चन्द्रनक्षत्रादिम् प्रतीक्षते ? अपि तु न प्रतीक्षते। अतः-अहं शीघ्रमेव गच्छामि एवम् इत्थम् उक्त्वाश्रीकल्प कथयित्वा पुस्तकहस्तः प्रवस्यति-शास्त्रर्थे प्रमाणप्रदर्शनाय गृहीतपुस्तकःसन् कमण्डलुदर्भासनपाणिभिः-कमण्डलु: दर्भासन-कुशासनं च पाणौ येषां ते तथाभूतास्तैः गृहीतकमण्डलुकुशासनैः पीताम्बरैः परिधृतपीतवस्त्रैः यज्ञोपवीत॥३६०॥ विभूषितसव्यकन्धरैः-यज्ञोपवीतेन विभूषिता=अलङ्कता कन्धरा-ग्रीवा येषां तैः-यज्ञोपवीतधारिभिः-'हे सरस्वतीकण्ठाभरण ! सरस्वती एव कण्ठाभरणं-कण्ठविभूषणं यस्य स तथा तत्संबुद्धौ, तथा-हे वादिविजयलक्ष्मीकेतनवादिनाम् उपरि यो विजयस्तस्य या लक्ष्मीः, तस्या केतन-पताकास्वरूप-परवादिपराभवकरणेऽग्रगण्येत्यर्थः । तथा-हे वादिमुखकपाट यन्त्रणतालक-बादिमुखमेव कपाटं तस्य यन्त्रणे तालक-तालकस्वरूपम् ! परवादिवाक्प्रसरक्या चीज है ! कुछ भी तो नहीं। मुझे किसी दूसरे विद्वान् की सहायता की आवश्यकता नहीं। मैं अकेला ही उस धूर्त के छक्के छुड़ाने के लिए समर्थ हूँ। अन्धकार का निवारण करने के लिए सूर्य क्या चन्द्रमा आदि की सहायता चाहता है ? नहीं। अतएव मैं अभी, इसी समय जाता हूँ।' इस प्रकार कहकर होनेवाले शास्त्रार्थ में प्रमाण दिखलाने के लिए इन्द्रभूतिने अपने हाथ में पुस्तकें लीं। कमण्डलु तथा कुशासन हाथ में लिए हुए, पोत वस्त्र धारण किए हए, यज्ञोपवीत से शोभित बायें कंधेवाले और २.शोगान करनेवाले अपने पाँचसौ शिष्यों के साथ वह इन्द्रभूति भगवान् के समीप चले। उस समय उनके शिष्य उनको जय-जयकार कर रहे थे। शिष्य इस प्रकार यशोगान कर रहे थे-'हे सरस्वतीरूपी आभूषण कंठ में धारण करनेवाले! हे प्रतिवादियों पर प्राप्त की जानेवाली विजय रूपी लक्ष्मी की पताका के समान ! अर्थात् प्रतिनादियों का पराभव करने में अग्रगण्य ! हे वादियो के मुख रूपी कपाट को बंद करदेनेवाले ताले ! अर्थात् સહાયતા લેવાની જરૂર નથી. હું તેને પરાસ્ત કરવાને એક જ શક્તિમાન છું. ઇન્દ્રભૂતિ આ પ્રમાણે વિચારધારાએ ચડી ત્યાં જવાનો નિર્ણ કર્યો. પિતાના હાથમાં વિદ્વતાને શોભે તેવું એક પુસ્તક લીધું. તે ઉપરાંત અન્ય સાધનો જેવાં કે કમંડળ આદિ તેમ જ ચઢાઈ, ચાખડી વગેરે લઈ પિતાંબર ધારણ કરી, યજ્ઞોપવીતથી શોભાયુક્ત થઈ પાંચસે શિષ્યના સમુદાય સાથે ઇન્દ્રભૂતિ, ગૌતમ ભગવાન જે સ્થળે બિરાજ્યા છે ત્યાં જવા રવાના થયા. ચાલતી વખતે ગગનને પણ ભેદી નાખે તેવા જય-જયકારવાળા પોકારે પાડીને શિષ્યવૃંદ ઉપવું. રસ્તામાં પિતાના ગુરુના ___Jain Education strionaयशोगान didi माटाणु २२ते। आपका म्यु vate & Personal use Only यज्ञपाटकस्थब्राह्मण वर्णनम्। मू०१०५॥ ॥३६०॥ ainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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