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________________ PA श्रीकल्पमृत्रे मञ्जरी ॥२१६॥ R ACETARTHA करुणाईचित्तेन भगवता तौ देवौ तत्कार्याद निवारितौ । ततः खलु तौ-कम्बल-शम्बलौ द्वापि देवौ निजरूपं= स्वकीयदेवस्वरूपं प्रकटय्य भगवन्तं-श्रीवीरस्वामिनं वन्देते नमस्यतश्च, वन्दित्वा नमस्यित्वा च यस्या एवं दिशः प्रादुर्भतौ तामेव दिशं प्रतिगतौ । क्षमासागरः वीतराग रागद्वेषवर्जितो भगवान् श्रीवीरमभुः उपसर्गकारके सुदंष्ट्रदेवे क्रोधभावं, च-पुनः उपकारकारकयोः उपसर्गनिवारकत्वेनोपकारिणोः कम्बल-शम्बलयोदेवयोः रागभावं कल्पकिञ्चिदपि-अणुमात्रमपि न नैव अकरोत कृतवान। किन्तु उभयत्र-सुदंष्ट्रनागदेवे कम्बल-शम्बलदेवयोश्च सम टीका भावम् अदर्शयत्-दर्शितवान् । ततः खलु नौस्थिताः न जगः निज जीवनदातारं स्वजीवितदायकं सकलजगज्जीवरक्षक समस्तभुवनवतिप्राणित्राणपरायणं भगान्त श्रीवीरपभं ज्ञाता भक्तिबहुमानेन अस्तुवन्तत्प्रभाववर्णकवाक्यैः स्तुतवन्तः (सू०८८) मूलम्--तए णं से समणे भगवं महावीरे नावाओ ओयरइ ओयरित्ता महारपणे मुण्णागारे रत्तीए काउस्सगे ठिए। तत्थ णं भगायो पुत्ररत्तावरनकालसमयंसि माईमिच्छादिट्ठी एगे संगमाभिहे देवे अंतियं पाउन्भूए। तए णं से देवे आसुरत्ते रुटे कुविए चंडिकिए मिसिमिसेमाणे काउस्सगढियं पहुं एवं वयासी-- उपकार"हं भो भिक्खू ! अपस्थियपत्थया! सिरी-हिरी-धिइ-कित्ति परिवज्जिया! धम्मकामया! पुण्णकामया! सग्ग कापकारक कामया! मोक्रवकामया!, धम्मकविया ! ४, धम्मपिरासिया! ४, नो णं तुमं ममं जाणासि ? अहं तुमं धम्मायो विषये तैयार हुए। यह देवकर करुणा ले आद्र चित्तवाले भगगन ने दोनों देवों को मारते रोक दिया। तत्पश्चात् भगवतः कम्बल और शम्बल दोनों ही देयोंने अपने देव-रूप को प्रकट कर के भगवान् वीर प्रभु को वन्दना को समभावः। और नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर के वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा में चले गये। एज।मू०८८।। क्षमा के सागर और रागद्वेष से रहित भगवान् चीरने उपसर्गकर्ता सुदंष्ट्र पर किंचित् भी क्रोधभाव नहीं किया और उपकारकर्ता कम्बल-शम्बल देवों पर अणुमात्र भी राग नहीं किया। उन्हों ने मुदंष्ट्र, कम्बल और शम्बल के प्रति समभाव ही प्रदर्शित किया। तब नौका पर सवार सभी लोक भगवान महावीर को हो अपना जीवनदाता एवं जगत् के समस्त जीवों का त्राता जानकर भक्ति और बहुमान के साथ उनके प्रभाव का वर्णन करने वाले वाक्यों से स्तुति करने लगे ॥१०८८| પર હતું તે ઘડી પછી સંધાઈ જતાં લેકમાં આનંદ આનંદ વ્યાપી રહ્યો અને પ્રભુને ભક્તિભાવે પ્રાર્થ વા લાગ્યા. ॥२१६॥ અપાર વેદના આપનાર તરફ પરુ ભગવાન અદ્વેષી રહ્યા; તેમ જ દુઃખમાંથી છોડાવનાર તરફ પણ અરાગી રહ્યા. આવું તેમનું વર્તન જોઈ દેવમિત્રો વિમય પામ્યાં અને તેમની સ્તુતિ કરી નિવાસસ્થાને પાછા ફર્યા. મુસાફરો આવું દશ્ય જોઈ, અનુભવો આ સાધુને અંતરના આશીર્વાદ આપતા તેમની સ્તુતિ કરવા લાગ્યા. (સૂ૦૮૮) 圆圈圆圆圈圆圆跑遍 Jain Education station
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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