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________________ कल्पमञ्जरी टीका गौतम वीर! एयं किं कयं भगवया, जं चरणपज्जुबासगं में दूरे पेसिय मोक्खं गए। किमहं तुम्हं हत्थेण गहिय अचिहिस्सं, कि देवाणुप्पियाणं निव्वाणविभागं अपत्थिस्सं, जेणं मं दूरे पेसी। जइ दीणसेवर्ग में सएण सद्धिं अनइस्सं तो किं मोक्खणयरं संकिण्णं अभविस्सं? महापुरिसा उ सेवगं विणा खणंपि न चिट्ठति, श्रीकल्प भदंतेण सा नीई कहं विसरिया । इमा पवित्ती विपरिया जाया। सह णयणं ताव दूरे चिट्ठउ परं अंतसमए ॥४५४॥ ममं दिहि ओऽवि दरे पक्खिवी । को अवराहो मए कओ जं एवं कयं । अहुणा को ममं गोयम गोयमेत्ति कहिय संबोहिस्सइ, कमहं पण्डं पुच्छिस्सामि, को मे हिययगयं पण्डं समाहिस्सइ । लोए मिच्छंधयारो पसरिस्सइ, तं कोणं अाकरिस्सइ । एवं विलबमाणे गोयमसामी मणंसि चिंती-'सच्चं, जं वीयरागा रागरहिया चेव हवंति । जस्स नाम चेव वीयरागो से कंसि रागं करेजा ! एवं मुणिय ओहिं पउंजइ । ओहिणा भवकृवपाडिणं मोहकलियं वीयरागो बालंभरूवं नियावराहं जाणिय तं खामिय पच्छायावं करेइ अणुचिंतेइ यको मम, अहं कस्स ? एगो एव अप्पा आगच्छइ गच्छइ य, न कोवि तेण सद्धि आगच्छइ गच्छइ य । " एगो हं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्स वि। एव मप्पाणमणसा, अदीणमणुसासए" ॥१॥ इच्चाइ। वयणेण एगत्त भावणा भावियस्स गोयमसामिस्स कत्तियमुक्कडवयाए दिणयरोदयसमयंमि चेव लोयालोयालोयणसमत्थं निव्वाणं कसिणं पडिपुण्णं अव्वाहयं निरावरणं अणंतं अणुत्तरं केवलबरनाणदंसणं समुप्पण्णं । तया भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासीहि देवदेवी विदेहि सयसयइड्डीसमिद्धेहि आगंतूण केवलमहिमा कया। तेलुकम्मि अमंदाणंदो संजाओ। महापुरिसाणं सवावि चेटा हियहरा एव हवति । तहाहि "अहंकारो वि वोहस्स, रागो वि गुरुभत्तिओ। विसाओ केवलस्सासी, चित्तं गोयमसामिणो ॥१॥ जं रयणि चणं समणे भगवं महावीरे कालगए, सा रयगी देवेहि उज्जेविया। तप्पभियं सा रयणी लोए दीवालियत्तिपसिद्धा जाया। नवमल्लई नालेच्छई कासी कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो संसारपारकर पोसहोववासदुगं करिसु। बीए दिवसे कत्तिय सुद्धपडिवयाए गोयमसामिस्स केवलमहिमा देवेहि कया, तेणं तं दिवसं नूयणवरिसारंभदिवसत्तणेण पसिद्धं जायं । भगवओ जेट्ठभाउणा नंदिवद्धणेण भगवं मोक्वगयं सोच्चा सोगसायरे निमज्जिएण चउत्थं कयं । सुदंसणाए भइणीए तं आसासिय नियगिहे आणाविय Jain Education inatantional चउत्थस्स पारणगं कारियं तेण सा कत्तियमुद्धबिइया भाउबीयत्ति पसिद्धि पत्ता ।।मु०११६॥ स्वामिनः विलापवर्णनम् केवलज्ञान प्राप्तिश्च ॥सू०११६॥ ॥४५४॥ MHDw.jainelibrary.org:
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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