SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥९ ॥ बाला ममं पेमालुणो अम्मापिउणो कहिस्संति, ते णं मं उबद्दवसंकुलं विष्णाय मा खेयखिन्ना हवंतु-त्ति सिग्य तं दुरासयं दिविसय नमइउं तप्पिट्ठमज्झासीणो एव पहू मूढगदासयण्ण तप्पिटवरि नियसरीरस्स अप्फारं भारं आरोवी। तेणं सो दुरासो देवो तारेण सरेण चिकरिय पुढवीतले निवडिओ। तए णं देवाणं जयज्झुणी सुरज्युणि समजणि । तए णं णयग्गीवो सो देवो खामियदेवाहिदेवो पत्तसम्मत्तो सयधामं पत्तो ॥मू०७०|| छाया-ततः खलु भगवान् महावीरः क्रमेण धवल-दल-विलस-द्वितीया-चन्द्र इव सौम्यकरैः सद्गुणनिकरैः गिरिकन्दरा-ऽऽलीनश्चम्पकपादप इव वयसा संवर्द्धते । एवं स भगवान् महावीरो मयरपक्षकाकपक्षशोभिभिः सक्योभिः शिशुभिः सार्द्ध बालवयोऽनुरूपं गोपितस्वरूपं क्रीडति । एकदा देवलोके देवगणालङ्कृतायां सुधर्मायां सभायां समासीनः शुनासीरः सौधर्मेन्द्रः अनुपमगुणैर्वर्धमानस्य वर्धमानस्य प्रभोः पराक्रमं वर्णयितुमुपक्रमते, तं श्रुत्वा निशम्य सर्वे देवा देव्यश्व हर्षवशविसर्पहृदयाः संजाताः। भगवतो बाल्या वस्थावर्ण नम्. मूल का अर्थ-'तए णं इत्यादि । तब क्रम से, शुक्ल पक्ष की द्वितीया का चन्द्र जैसे अपनी सौम्य किरणों से बढ़ता है उसी प्रकार भगवान् महावीर सद्गुणों के समूह से, तथा जैसे पर्वत की गुफा में स्थित चम्पक-वृक्ष क्रम से बढ़ता है उसी प्रकार क्य से, बढ़ने लगे। इस प्रकार भगवान् महावीर मयरपक्ष से सुशोभित चोटी से शोभायमान समवयस्क शिशुओं के साथ, अपने असली स्वरूप को गोपन करके, बाल्यावस्था के अनुरूप क्रीड़ा करने लगे। एक बार देवलोक में देव-समूह से अलंकृत सुधर्मा सभा में बैठे हुए इन्द्र सौधर्मेन्द्रने अनुपम गुणों से बढ़ते हुए वर्धमान प्रभु के पराक्रम का वर्णन करना आरंभ किया। उसे सुनकर और समझकर सभी देवों और देवियों का हृदय, हर्ष के वशीभूत होकर खिल गया। किन्तु उनमें से प्रभु के पराक्रम की છે भूसना मयं-'तए 'त्याहि.भ शुस पक्षन। यद्रमा, हिन-प्रतिहिन सामेमा त य छ તેમ ભગવાન મહાવીર પણ, સદૂગુણમાં વૃદ્ધિ પામવા લાગ્યાં. જેમ પર્વતની ગુફામાં ઉગેલ ચંપક વૃક્ષ, ક્રમે ક્રમે હોં વિકાસ પામે છે, તેમ ભગવાન પણ વયથી વૃદ્ધિ પામવા લાગ્યાં. મેરની પાંખથી સુશોભિત ચોટલીવાલ સમાન વયના સુંદર મિત્રો સાથે, ભગવાન પિતાનું પરાક્રમ ગેપવી રાખીને, વાયાવરથાને અનુરૂપ કીડાઓ અને રમત કરવા લાગ્યાં. ડોન Jain Education Stional" " " " " vete Personal Use Only Low .jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy