SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्प. श्रीकस. सूत्रे '३८९। मञ्जरी टीका अथ च तव परममान्येषु वेदपदेवपि वेदेष्वपि कुत्रापि कस्मिश्चिदपि स्थले कर्मणो निषेधो नास्ति । तेन वेदेषु कर्मणो निषेधाभावेन 'कर्म अस्ति इति सिद्धम् । एवम् उक्तरूपेण प्रभुवचनेन कर्मास्तित्व-विषयके संशये छिन्ने सति हृष्तष्टा अतिप्रसन्नः सन् अग्निभूतिरपि इन्द्रभूतिवत् पश्चशतशिष्यसहितः प्रवजित श्रीमहावीरहस्ताद् दीक्षितो जातः ॥सू०१०७|| मूलम्-तए णं वाउभूई विप्पो 'दुवेवि भायरा पव्वइय' ति जाणिऊण चिंतेइ-सच्चमेसो सवण्णू दीसइ, जप्पभावेण ममं दोषि भायरा तयंतिए पन्चइया। अश्रो अहमवि तत्थ गमिय सयमणोगयं तज्जीव तच्छरीरविसयं संसयं अवाकरेमित्ति कटु सो वि पंचसयसिस्सपरिवुडो पहुसमीवे समणुपत्तो पहू तं नामसंसयनिद्देसपुव्वं वयइ-भो वाउभई ! तुज्झमणंसि संदेहो वट्टइ-जं सरीरं तं चेव जीवो। नो अन्नो तव्वइरित्तो कोवि जीवो पचक्खाइपमाणेण तं उवलंभाभावा । जलबुब्बुओ विच सो सरीराओ उपज्जए सरीरे चेव विलिज्जइ । अो नत्थि अन्नो कोधि पयत्यो जो परलोए गच्छेज्जा। "विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इच्चाइ वेयायणंपि अत्तत्थे माणं । एत्थ वुबइ सयपाणिणं देसभी जीवो पञ्चक्खो अत्थि चेव, जओ सोमइआ इगुणाणं पच्चक्ख तथा-जिस प्रकार नाना प्रकार की मृत औषधों से अमृत जीव का अनुग्रह होता है-रोग का नाश होता है, बल-पुष्टि आदि की उत्पत्ति होकर उपकार होता है, उसी प्रकार अमूर्त जीव का मूर्त कर्म से भी उपघात और अनुग्रह जान लेना चाहीए। इस प्रकार दृष्टान्तों से कर्म का अस्तित्व दिखला कर अग्निभूति के परममान्य प्रमाण को प्रदर्शित करने के लिये कहते हैं इस के सिवाय तुम्हारे अतिशय मान्य वेदों में भी, किसी भी स्थान पर कर्म का निषेध नहीं है। वेदो में कर्म का निषेध न होने से भी कम है' यह सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रभु केकथन से कर्म के अस्तित्व संबंधी संशय के दूर हो जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए अग्निभूति ने भी, इन्द्रभूति के समान, पाँच सौ शिष्यों सहित श्रीमहावीर प्रभु के हाथ से दीक्षा ग्रहण करली ॥०१०७॥ અમૂર્ત જીવને અનુગ્રહ થાય છે-રોગને નાશ થાય છે, બળ-પુષ્ટિ આદિની ઉત્પત્તિ થઈને ઉપકાર થાય છે, એજ પ્રમાણે અમૂર્ત જીવને કમથી પણ ઉપઘાત અનુગ્રહ જાણી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે દૃષ્ટાંતથી કમનું અસ્તિત્વ બનાવીને અગ્નિભૂતિના પરમ માન્ય પ્રમાણને પ્રદર્શિત કરવાને માટે કહે છે–આ સિવાય અતિશય. માન્ય વેદમાં પણ કોઈ પણ સ્થાને કમને નિષેધ નથી. વેદોમાં કમને નિષેધ ન હોવાથી પણ “કમ છે” તે સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રમાણેના પ્રભુના કથનથી હર્ષ અને સંતોષ પામેલ અગ્નિભૂતિએ પણ, ઇન્દ્રભૂતિની જેમ, પાંચસે શિષ્ય स.थे श्री महावीर प्रभुने ७थे ६क्षा अ६५ ४१ (सू० १०७).... अग्निभूते कम दीक्षाग्रहणम् । सू०१०७।।। AAJLATE ॥३८९ a Jain Education Seation www.jainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy