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श्रीकल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥११॥
टीका
समीपमागच्छत्सु, उत्पतत्सु-उपरि गच्छत्सु च सत्सु, सति सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् तृतीया, एको महान् दिव्यः= अद्भुतः देवोदद्योतः देवप्रकाशः, देवसंनिपातः= देवसम्मिलनं, देवकलकला-देवानामागतानां सामूहिकशब्दः, उत्पिञ्जलकभूतः=देवानामत्यन्तसंबाधश्चापि बभूव । _ अथ अनन्तरं देवा देव्यश्च एका महतीममृतवर्षा =सुधादृष्टिं, गन्धवर्षा गन्धद्रव्यदृष्टिं, चूर्णवर्षा =मुगन्धिचुगदृष्टिं, पुष्प वर्षा च हिरण्यवर्षा-स्वर्णदृष्टिं रजतवृष्टिं वा रत्नवर्षा रत्नवृष्टिं च अवर्पन्=कृतवन्तः ।।०५६।।
मूलम्-तए णं आसणेमु कंपमाणेसु छप्पन्नं दिसाकुमारीओ ओहिनाणोवओगेण भगवओ सिरिमहावीरस्स संसारतारहारं जम्मं जाणिय सोकरिसहरिसा सिग्यं सिग्यं पमूइघरं समागया, तं जहा
भोगंकरा १, भोगवई २, सुभोगा ३, भोगमालिणी ४, सुवच्छा ५ वच्छमित्ता ६ वारिसेणा ७ बलाहगा ८; एयाभो अढदिसाकुमारीओ अहोलोगाओ आगया तित्थयरं तित्थयरमायरं च कमणिज्जभावभरियचेयसा अभिवंदिऊण पसूइघरं संवगवाएण विसोहित्ता सुगंधवरगंधियं गंधवटिभूयं किच्चा भगवओ तित्थयरस्स तित्ययरमाऊए य अदरसामंते आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिढिसु ॥मू०५७॥
भगवजन्म- कालवर्णनम्
आने-जाने से लोगों में एक महान् अद्भुत प्रकाश फैल गया। देवों का सम्मिलन हुआ। आये हुए देवों का कल-कल शब्द हुआ। तथा देवों की खूब भीड़ हुई, अर्थात् इतने बहुत देवों और देवियों का आगमन हुआ कि राजभवन विशाल होने पर भी उसमें समाना कठिन हो गया।
इसके पश्चात् देवों और देवियों ने एक बड़ी सुधा की वर्षा की, सुगंधित द्रव्यों की वर्षा की, सुगंधित चूर्ण की वर्षा की, पुष्पों की वर्षा की, सोने-चांदी की वर्षा की और रत्नों की वर्षा की ॥०५६॥
દે અંદર અંદર મળતા ઝુલતાં હતાં, તેથી “કલ-કલ’ શબ્દનો શેર બકેર પણ થતું હતું. આ શોર અરફુટ રહે. અને દેવ-દેવીઓની ખૂબ ભીડ જામી હતી.
ત્યારપછી દે અને દેવીઓએ એક ઘણી મોટી અમૃતવર્ષા કરી, સુગંધવર્ષા કરી, ચણવષ કરી, भर्ना ७२, सोनाथांदी भने २त्नानी ५५ | 3री. (सू०५६)
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हमा
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