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________________ श्रीकल्प ||२७४|| त्रिलोकस्वामी, सर्वजगज्जीवहितकर सकलभुवनस्थप्राणिकल्याणकारी श्रमणो भगवान् महावीरः, दुष्करदुष्करेण= अतिकठिनेन अभिग्रहेण अटति इति । ततस्ते एवं शोचन्ति-अहो ! वयं=सर्वे मन्दभाग्याः भाग्यहीनाः स्मः यत् यस्मादेतोः खलु ईदृशस्य त्रैलोक्यनाथत्वादि विशिष्टस्य महापुरुषस्य अभिग्रहं पूरयितुं सम्पन्नं कर्तुं न शक्नुमः=न समर्था भवामः। एवम् इत्थम् अटतः अभिग्रहापूांभिक्षार्थ भ्रमतः भगवन्तः श्रीवीरस्वामिनः पञ्चदिवसोनाः पञ्चभिर्दिनैऍनाः षण्मासाः व्यतिक्रान्ताः व्यतीता अभवन् । ततः पश्चाहन्यूनषाण्मासीव्यतिक्रमणानन्तरं खलु द्वितीये दिवसे लोहनिगडबन्धनत्रोटनप्रतिनिधित्वे-लोहशृङ्खलानियन्त्रणखण्डनस्थाने, अनादिकालिन भवबन्धनत्रोटनं अनादिकालोद्भवभवबन्धनभञ्जनं कत्तुं लोहकारस्थानीय लोहकारतुल्यो भगवान् महावीरो धनावह श्रेष्ठिनो गृहे चन्दनवालायाः तन्नाम्न्याः राजपुच्याः अन्ति-समीपे समनुप्राप्त समागतः, तं-गृहप्राप्तं श्रीवीरस्वामिनं दृष्ट्वा सा चन्दनादन्दनवाला, हृष्टतुष्टा-हृष्टाइर्षिता, तुष्टा-सन्तोष प्राप्ता चित्तानन्दिता आनन्दितमानसा पूर्ति के लिये भ्रमण करते हैं। कुछ दिनों बाद सभी जन वीर भगवान् से परिचित हो गये। जान गये कि यह भिक्षु तीन लोक के स्वामी और संसार के प्राणो-मात्र के कल्याणकर्ता श्रमण भगवान् महावीर हैं, और दुष्कर-दुष्कर (अत्यन्त ही कठोर) अभिग्रह के कारण भ्रमण करते हैं। जब लोगों को पता लगा तो वे इस प्रकार शोक करने लगे-आह ! हम सब अभागे हैं, जो ऐसेत्रिलोकीनाथ महापुरुष का अभिग्रह पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार अभिग्रह पूर्ति के निमित्त भिक्षा के लिए भ्रमण करने वाले भगवान् महावीर को पाँच दिन कम छह मास पूर्ण हो गये। इतना समय बीत जाने के बाद, दूसरे दिन, लोहेकी सांकलोंके बंधनों को तोड़ देने के स्थानापन्न अनादि काल से चले आ रहे भव-बन्धनों को तोड़ने के लिए लुहार के समान भगवान् महावीर धनावह श्रेष्ठी के घर चन्दनवाला के निकट पहुँचे। भगवान् को आये देखकर चन्दनवाला हर्षित हुई, और सन्तोष को प्राप्त हुई, उसका चित्त आनन्दित हुआ। हर्षकी अधिकता से हृदय उछलने लगा। આવી દુષિત નિંદાઓ ઉપરાંત સજજનોને વિચારપ્રવાહ પણ વહેતે થવા લાગ્યા. આ વિચારપ્રવાહમાં ભગવાનને તીર્થકર તરીકે સંબંધી તેઓ કે પિતાના અગ્રિડને પાર પાડવા પ્રયાસ કરી રહ્યા હશે તેમ તેમને લાગવા માંડયું. તીર્થકરે પિતાના કર્મોને તેડવા માટે વિવિધ પ્રકારના ભગીરથ પ્રયાસે અગાઉ કરતા હતા, એવું મંતવ્ય પણ વિદ્વાને જાહેર કરી રહ્યા હતા. નાના પ્રકારના ગપગેળાની વચ્ચે શું સત્ય છે તે શોધવું ઘણું મુશ્કેલ થઈ પડયું હતું. આખા ગામની ચર્ચા આ વિષય ઉપર કેન્દ્રિ થઈ હતી. લોકો પણ ચર્ચા કરતા કરતા થાકી ગયા હતા, કારણ કે લગ र अभिग्रहम पूर्तयेष्टतः म चन्दनवाला समीपे गमन वर्णनम्। ॥०९५॥ ॥२७४॥ Jain Education Internal ** ** For Private & Personal use only ainelibrary.org
SR No.600024
Book TitleKalpasutram Part_2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1959
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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