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[४०/३] श्री आवश्यक [मूलसूत्रम्
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"आवश्यक" नियुक्ति: एवं वृत्ति:
नियुक्ति: ५४३ से ८२९ [भद्रबाहुसूरि सूत्रिता नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः]
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
पन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
jain_e_library's Net Publications
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-] मूल [- / गाथा-]
अध्ययन [ - ],
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
RARARARARARARA श्री आगमोदयसमितिमन्थोद्धारे, प्रन्थाः ६०.
श्रीमलयगिर्याचार्यकृत विवरणयुतं श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्भबाहुखामि सूत्रितनिर्युक्तियुत
श्री आवश्यकसूत्रम् । तृतीय-भागः
प्रकाशक:- श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः - जीवनचन्द - साकरचन्दः जहेरी । एवं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटीयां २६-२८ तमे गृहे
रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापितम् ।
वीरसम्वत् २४५८. प्रतयः १२५० ]
विक्रमसंवत् १९८८. मूल्यम् रु. २८-०
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[आवश्यक- निर्युक्तिः एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा
श्री भद्रभाहुस्वामिजी की निर्युक्ति पर मलयगिरिसूरिजी रचिता वृत्ति की प्रत सबसे पहले "श्री आवश्यकसूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | पूज्यपाद श्री हरिभद्रसूरिजीने भी आवश्यक सूत्र पर एक विशाल वृत्ति की रचना कि है, जो हमारी "आगम सुत्ताणि सटीकं" एवं "सवृत्तिक आगम सूत्राणि" मे मुद्रित हुइ है।
* हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-निर्युक्ति-भाष्य-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, निर्युक्ति, भाष्य, सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम दिया है, उसके साथ इसी प्रत का सूत्रक्रम और 'दीप अनुक्रम' देने की हमारी पद्धत्ति है मगर यहां तो मुख्य तौर पे निर्युक्ति और भाष्य पर हि मलयगिरिजी रचिता वृत्ति है क्यों की ये वृत्ति सिर्फ़ १- अध्ययन तक ही प्राप्त हो रही है इसिलिए बायी तरफ़ सूत्रांक और दीप- अनुक्रमवाले विभाग कि कोइ उपयोगिता नहि रही |
यहां मूल संपादक कि बनायी हुई एक अनुक्रमणिका भी पायी गई है, जो की तिनो [चारो] विभागो की एक साथ हि है, जिसमे नियुक्ति, भाष्य आदि के क्रम, (प्रत के) पृष्ठांक सहित लिख दिये है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते निर्युक्ति एवं भाष्य तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है ।
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
...मुनि दीपरत्नसागर.......
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययन [ - ], निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
Sri Agamodaya Samiti Series, No. 60.
Śri AVASYAKA SÛTRA
Copies 1250.].
Part-III
WITH
NIRYUKTI (gloss) by ŚRUTAKEVALIN Šri BHADRABAHUSVAMIN
ALONG WITH
The Commentary by Śri Malayagirisûri.
Price Rs. 2-8-0
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[A. D. 1932.
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययन [ - ], निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
आवश्यकस्य मलयगिरीयाया वृत्तेर्भागत्रयस्य विषयानुक्रमः ।
विषयः
२
प्रयोजनाद्युपन्यास साफल्यम् - ( वचनप्रामाण्यम् ) मङ्गलचर्चा, नामादिलक्षणानि, द्रव्यमङ्गले नयचर्चा, मङ्गलोपयोगे मङ्गलवा, नामादीनां भिन्नता, नामावेकान्तनिरासः । द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विचारः । ( मढवादिसिद्धसेनमते ) । १२ नन्दिनिक्षेपाः । ज्ञानपकरूपं (गा. १) प्रत्यक्षपरोक्षविभागः, आत्मनो ज्ञातृत्वं इन्द्रियाणां करणत्वेऽपि व्यवधायकता, केवले शेषज्ञानाभावसिद्धिः ।
१२
ज्ञानपचकपार्थक्यसिद्धिः ।
...
२०
विषयः ज्ञानपञ्चकक्रमसिद्धिः, एकेन्द्रिये मुत्तसिद्धिः, लक्षणादिभेदेर्मतितयोर्भेदः । अवमहादयो मतिभेदाः (गा. २) । ( संशयादीहाया भेदः ) २२ अवग्रहादीनां स्वरूपम् । (गा. ३) व्यञ्जनावमहे ज्ञानं, चक्षुर्मनसोरप्राप्यकारिता। ....
अवमहादीनां कालमानम् । (गा. ४) । ..... शब्दादीनां प्राप्ताप्राप्तयद्धस्पृष्टवादि (गा. ५) । (शब्दस्याप्राप्यकारितानिरासः ) शब्दस्याकाशगुणत्वमपालम् ।
अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः
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...
पत्राहुः
१
१३
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पत्राड:
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-]
अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
... पत्रातुः
४४
... ४६
विषयः अष्टाविंशतिर्भेदाः । (द्रव्य क्षेत्रकालभावविचार। ) । मुदज्ञानकथनप्रतिज्ञा । (गा. १६) । यावदक्षरं प्रकृतिः, अशक्तिर्भणने । (गा.. १७-१८ ) ४५ अक्षराचा भेदाः, (गा. १९) ( अक्षरभेदाः) । अनक्षरश्रुतम् (गा. २०) अङ्गानङ्गप्रविष्टविचारः । शाखाभरीति: (गा. २१) । बुद्धिगुणाः (गा. २२ ) । श्रवणविधिः (गा.२३) । अनुयोगविधिः (३गा. २४) । ४९ अवधेः प्रकृतयः, (गा. २५) । ( यावत्प्रकृतिभणनेऽशतिः (गा. २६) । अवध्यादीनि द्वाराणि (गा. २७-२८ ) । अबर्नक्षेपाः, (गा. २९ ) । अवषेर्जघन्यं क्षेत्रम् (गा. ३०) ।
...
अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
विषय:
इन्द्रियविषयाणामात्मा कुलमेयता, प्रकाश्यप्रकाशक विषयमानभेदः ।
...
२९ ... ३१ ३२
...
...
मिश्रपराघातशब्दश्रवणम् (गा. ६) । शब्दपुद्गलानां ग्रहणनिसर्गो, (गा. ७) । त्रिविधेन शरीरेण ग्रहणं भाषा च, (गा. ८) । भाषाया ग्रहणमोक्षो, भेदाय (गा. ९) । भाषाया लोकव्याप्तिः, पूरणरीतिश्व (गा. १०-११ ) । ( जैनसमुद्घातरीत्या न व्याप्तिः ) । अभिनिवोधिकस्यैकार्थिकानि (गा. १२ ) ... सत्पदादीनि द्वाराणि (गा. १३-१४) । ( सम्यक्त्वे व्यवहारनिद्ययौ ) | ( क्रियानिष्ठयोर्भेदाभेदौ )। (अवगाहस्पर्शनयोर्भेदः ) ।
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पत्राड:
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५०
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययन [ - ], निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-1, मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
विषयः
अवधेरुत्कृष्टं क्षेत्रम्, (या. ३२ ) । षोढाऽभिजीवावस्था-नम्. सूचिश्रेणिस्त्वादेशः । ...
...
अवधेः क्षेत्रकालप्रतिबन्धः (गा. ३२-३५) । कालादिवृद्धि नियमः (गा. ३६ ) क्षेत्रस्य सूक्ष्मता, (गा. ३७) । .... अवषेः प्रस्थापकनिष्ठापको (गा. ३८ ) । द्रव्यक्षेत्रवर्गणाः (गा. ३९-४० ) । | गुरुखघ्वादीनि द्रव्याणि (गा. ४१ ) । अवधेर्द्रव्यत्रादिप्रतिबन्धः (गा. ४२-४३ ) । ... परमावधेर्द्रव्यादि (गा. ४४-४५ ) तिश्नरकयोरवधिः, (गा. ४६-४७ ) .... देवानामघस्तिर्यगूर्ध्वमवधिः, (गा. ४८-५१ ।) आयु
मानेनावधिः (गा. ५२ ) ।
अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः
...
•••मन्त्राइः
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५३
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५४
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... ६१
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७०
विषयः उत्कृष्टाद्यवधीनां गतिषु सत्ता, संस्थानं च (गा. ५३-५५ ) । ६७ आनुगामिकेतराबवधी, (अन्तगवादिभेदाः), (गा. ५६ )। ६८ क्षेत्रकालद्रव्यपर्यवेष्ववस्थानम् (गा. ५७-५८ ) क्षेत्रकालद्रव्यपर्यायाणां वृद्धिदानी, (गा. ५९ ) । ७१ स्पर्धकावधि:, (प्रतिपात्यप्रतिपातिनौ ) (गा. ६०-६१ ) । ७२ बाह्यान्तरावयोः प्रतिपाद्योत्पाती, (गा. ६२-६३ ) द्रव्यपर्यायप्रतिबन्धः (गा. ६४ ) ।
साकारादीनि (गा. ६५) । अवरबाह्याः (गा. ६६ ) । ७४ सम्बद्धासम्बद्धाः (गा. ६७) । गत्याद्यतिदेशः । (गा. ६८) । ७५ आमशोषण्याद्याः (६९-७० ) ।
वासुदेव चत्र्यईतां बलम्, (गा. ७१-५) । ( श्रीराम
...
बायाः ) मनःपर्यायखरूपम्, (गा. ७६ ) ।
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं -], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पत्रा
श्रीमाव. मलयगि.
अनुक्र
प्रत
सत्रांक
विषयः
पत्रा केवमानस्वरूपम्, (गा. ७७)। ... ... ८२
| गणधरववंशवाचकवंशप्रवचनानां नमस्कारः, (गा. ८२)। प्रज्ञापनीयभाषणं द्रव्यभुक्ता च, (गा. ७८)। (सि- ___ नियुक्तिकयनप्रतिज्ञा, (गा. ८३)। नियुक्तिविषयाणि दाना १५ भेदाः)। ... ... -- ८३
| शास्त्राणि । (८४-८६)। ... ...१०० तेनाधिकारः, प्रदीपदृदृष्टान्तोऽनुयोगे, ( पीठिका ),
गुरुपरम्परागता सामायिकनियुक्तिः, (गा. ८७) । (गा. ७९)। आवश्यकनिक्षेपाः (अगीतार्यासंवि
(द्रव्यपरम्परायां दृष्टान्तः)। अस्य रनवणिजो ज्ञाती, एकार्थिकानि, ध्रुवनिक्षेपाः, पनघा सूत्राणि, स्कन्धनिक्षेपाः, अर्याधिकाराः, उपक
नियुक्तत्वेऽप्यर्थानां विभाषणम् , (गा. ८८)। तपोनियमादीनां भेदप्रभेदाः, ब्राह्मण्यादीनां दृष्टान्ताः, गङ्गाप्र
| मझानवृक्षः कुसुमवृष्टिर्मन्यनं च ( गा. ८९-९०)। १०४ बाइदर्शिकथा, पूर्वानुपूर्व्यायाः, प्रमाणागमलोकोत्तरा
सूत्रकृती हेतवः, (गा. ९१)। अर्थभाषका अईन्च: दिभेदाः, अध्ययनादीनां निक्षेपाः, मध्यमालचर्चा | ८६ सूत्रकतो गणधराः, (गा. ९२)। श्रुतचरणसारः उपोद्घावमङ्गलम्, (मा. ८०)। द्रव्यमावती), सुखा- (गा. ९६)।... ... ... ... १०६
वताराविभेदाः ।.... ... ... ... ९७ | अचरणस्य न मोक्षः, पोतदृष्टान्तः, सापेक्षे ज्ञानक्रिये । |श्रीवीरनमस्कारः, (गा. ८१)।। ... ... ९९ (गा. ९४-१०३)। ... ...
दीप
PRAKASCAREERSNESE
अनुक्रम
...
अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं ], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
9C%EOCTOR
दीप अनुक्रम
विषयः
पत्रा INIक्षये केवलं, उत्कृष्टकर्मस्थितौ नैकमपि, कोटाकोट्यन्तायः। केवलस्याशेषविषयता, (गा. १२४ ) । जिनप्रवचनादीनि,
(गा. १०४-१०६)। ... ... ... १११ (गा. १२५) एकाथिकानि, (गा. १२६-१२८)। १२८ पल्यादयो एष्टान्ताः, (गा.१०७)। (अस्पबहुषन्धचर्चा)। ११३/ अनुयोगनिक्षेपाः, ७ (गा. १२९)। ... ... १३०४ अनन्तानुबन्न्यादयः, (गा. १०८-१११) । अतिचारे
काष्टादिदृष्टान्तैर्भाषकाद्याः, (गा. १३२)। ... १३८ । | मूलच्छेदे च हेतवः, । (गा. ११२)... ... ११६
व्याख्यानविधौ गवादिदृष्टान्ताः, (गा. १३३) ... १३९
शिष्यगुणदोषाः, शैलघनाद्या दृष्टान्ताः, (गा. १३४-६)। १४१ चारित्रपनकम् , (गा. ११३-१५)। (परिहारे २०
देशादीनि उपोद्घानद्वाराणि २६ । (गा. १३७-१३८)। १४६18 द्वाराणि)। ... ... ... ... ११८
उद्देशनिक्षेपाः ८ (गा. १३९)। निर्देशनिझेपाः (गा. * उपशमश्रेणिः, (गा. ११६) । सूक्ष्मसम्परायः। (गा.
१४०)। निर्देशे नयाः, (गा. १४१)। ... १४८ ११.)। ... ... ... .. १२३
निर्गमनिक्षेपाः ६, (गा. १४२)। ... ... १५१ कषायसामर्थ्यम्, (गा. ११८-२०)। ... ... १२५ नयसारभवः, (गा. १४३-४४। १-२ मू० भा)। १५२ क्षपकश्रेणिः, (गा. १२१-२३)। (गाथात्रयस्थासमी- कुलकरवक्तव्यता, हस्तिनो नीतयश (गा. १४५-१६६)।
चीनता)। ... ... ... ... १२६ / . ३ . भा०)। ... ... ... १५३ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शितः, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं ], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव.
विषयः पत्रा
विषयः मलयगि धाश्रीकषभभवाः,२० स्थानकानि,श्रीऋषभवक्तव्यता,अमिषेका, १५७ ऋषभनिर्वाणं, अष्टापदतीर्थ भरतकेवलं दुर्भाषणं श्रीवी
वंशस्थापना (गा. १८५-१८६)। वृद्धिः विवाह, रभवाः । (गा. ३५०-४५७)। ... ... २३३/
नृपत्वं चमाद्याः, आहाराद्याः (गा. १८७-२३०).! १९२ | स्वप्मा अपहारः निश्चलता अमिमहः जन्म नाम मीषणं लेखसम्बोधनादीनि २१, लोकान्तिकाः सांवत्सरिकदानं राजानः शाला विवाहः प्रियदर्शना दानं लोकान्तिकाः, दीक्षामकुमाराध तपःकर्म ज्ञानोणि साधुसाध्वीमानं गणधरा. ह: सिद्धनमस्कारपूर्व पापाकरणनियमः, कुमारमामे
गणः पर्यायः सर्वायुः । (गा. २३१-२३५)। ... २०१ गोपोपसर्गः कोलाके दिव्यानि ( लोहार्यः), शूलपाणिः ४पभदीक्षा नमिविनमी, विद्याधरनिकायाः १६, तापसाः स्वप्नदशकं अच्छन्दकः, चण्डकौशिकः प्रदेशिमहिमा
पारणं श्रेयशंसवृत्तं पारणकानां स्थानानि दातारः, आदि- कम्बलशम्बलौ पुष्यः, गोशालः, नियतिग्रहः, पाटकत्यमण्डलं, धर्मचक्र, चकोत्पातः, मरुदेवीमोक्षः, मरी- दाहः, उपहासः मुनिचन्द्रः, सोमाजयन्यौ मनुष्यचिदीक्षा, पखण्डसाधनं, सुन्दरीदीक्षा, ९९भ्रातृदीक्षा, मांसं पथिकानिः मुखत्रासः, मण्डपदाहः मेषः अना
बाहुबलिदीक्षा, (गा. ३३६-३४९ । ३७ भा.)। २१५ र्याटनं नन्दिषेणः, विजयाप्रगल्भे, वाहनं अयस्कारः परिवाजकता, अवप्रहाः ५, माहनाः तीर्थकृष्चक्रिदशाई- यक्षः तामली लोकावधिः पराङ्मुखस्थानं कटपूतना | त्वानि, चक्रिणो वासुदेवाः, जिनान्तराणि, मरीचिमानः, बग्गूरः विलस्तम्बा, वेश्यायनः, गणराजः आनन्दः अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-]
अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
विषयः
प्रतिमाः पेढालः सङ्गमकः सुखसातप्रनः कौशाम्बी च मरोत्पातः मेण्टिकः अमिमहः स्वातिदत्तः ऋजुवालुका तप महासेनवनं महिमा (गा. ४५८- ५४२
... ३४०
विषयः एकादशघा कालः, चेतनाचे वनस्थितिः, अद्धाकालभेदाः, यथायुष्ककाल:, (गा. ६६४ ) । उपक्रमाले इच्छाकारायाः सामाचार्य:, इच्छाकारः, (गा. ६८१) । मिथ्याकारः (६८७) तयाकारः, (गा. ६९० ) । आवश्यकी (६९४) नैवैधिकी (६९६) ( १३५ - १३६मा ), आपृच्छायाः (गा. ६९७) । उपसम्पत् (गा. ७०२ ) । ... ... ३४१ प्रमार्जननिषद्याक्षकृतिकर्मादीनि (गा. ७१७ । १३७ भा.) ( हा. १२३) । चारित्रोपसम्पत्, (गा. ७२३ ) । ३५१ अध्यवसानाचा आयुष्कोपक्रमाः, भये सोमिलकथा, दण्डादयो निमित्ते, प्रशस्ताप्रशस्तदेशकालौ, प्रमाणकालः, भावे भङ्गाः । (गा. ७३५) ...... ... ३५५
अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः
...
४६-११४ भा. समवसरणादीनि द्वाराणि, करणनियमानियमो देवविधिः|देशनाकाल: प्रतिविम्बानि पर्षदः सामायिकप्र तिपत्तिः तीर्थप्रणामः परमरूपादि संशयच्छेदः वृत्तिदानं बलिः गणधर देशना (गा. ५४३ - ५९० ) । ... गणधराणां नामानि संशयाः परिवारः इन्द्रभूत्युक्तिः, ( १२१-१२६ भा. ) संशयाः सदुपगमाः, (६४१ । १३२ मा. ) । ... ३१२ गणधराणां जन्मभूमिनक्षत्रगोत्रपर्यायायुर्ज्ञानमोक्षतपांसि (गा. ६५९) ।
... ३०१
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं - नियुक्ति: -, भाष्यं [-1, मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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धीपाव विषयः
अनुक्र० मटयागपुरुपनिझेपाः १०, कारणनिक्षेपाः ४, तद्रव्यान्बद्रव्ये नि. आर्यरक्षितवृत्ते स्वर्णनन्दी पञ्चशैलः इङ्गिनी जीवरस्वामी
मितनिमित्तिनौ, समवाय्यसमवायिनी कादि, भावे- प्रभावती गान्धारः गुटिकाशतं युद्धं पर्युषणोपवासःक्षाऽसंयमादि, प्रवृत्तितोऽशरीरत्वान्तं,प्रत्ययेऽवध्यादि लक्षणं
मणं, रक्षितस्य विद्यार्थ पाटलीपुत्रे गमनं, दीक्षा, भद्रगुप्त१२ सदशसामान्यादि श्रद्धानादि बा, (गा. ७५३)1३६३ /
निर्यापणा वनखामिपाश्र्वेऽध्ययनं फल्गुरक्षितदीक्षा मूलनयाः, स्मात्पदं,अवधारणविधिः, दिगम्बरीयमतसमीक्षा। ३६९
रथावतः कुटुम्बदीक्षा वृद्धानुवत्तनं पुष्पमित्रत्रयं नयानु*नगमलक्षणं, ( भिन्नसामान्यनिरासः), सहव्यवहारर्जुसू
योगानां पार्यक्य, (गा. १२४ मू. भा.)। मथुरायां शब्दसममिरूदैवम्भूतलक्षणानि, प्रस्थकवसतिप्रदेशरष्टान्ताः , प्रभेदबत्त्वं। ... ... ... ३७१,
शकागमः, गोष्ठामाहिलवृत्तं, (गा. ७७७)। ... ३९१ वनखामिवृत्ते शालमहाशाली कौण्डिन्यादयस्तापसाः पुण्ड
| निद्ववाधिकारः, १ (१२५-१२६ भा.)२ (१२७-१२८) रीककण्हरीको दीक्षा साध्व्युपाश्रयावस्थितिः, सत्सार
३(१२९-१३०) ४ (१३१-१३२) ५(१३३कल्पः, दृष्टिवादानुमा रुक्मिणीदीक्षा विद्याद्वयम् , उत्त- १३४) ६ (१३५-१४०) (१४१-१४४)। ४०१ रापये सानिस्तारा पुर्यामुत्सवः पुष्पावचयः रामः नोटिकनिरासः (सविस्तर) (१४५-१४८ भा.)।
भावकता, (गा. ७७२)। ... ... ... ३८३/ दोषद्वयादि ७८८। ... ... ... ४१८ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं ], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
K
विषयः
-10-05
प्रत
सूत्राक
-
2
दीप अनुक्रम
पत्रा
विषयः
पन्नाः अनुमते तपःसंयमादि, सामायिकस्यात्मावि लक्षणं, (गा. दृष्टानुभवादौ सम्यक्त्वं, ( आनन्दादिभावकचरित्राणि )
१४९-१५५)। ... ... ... ४२८ (गा. ८४४)। ... ... ... ४५६ *बतानां द्रव्येष्ववतारा, द्रव्यपर्यायापेक्षया सामायिक। ... ४३१ | वल्कलचीरिवृत्तम् । ... ... ... ... ४५७ सामायिकस्य भेदाः सम्यक्त्वादीनां भेदाः (१५० भा.) अनुकम्पाद्या हेतवः, तान्नाश्च वैपादयः, अभ्युत्थाना
दयः, (गा. ८४९)। ... सन्निहितास्मादेः सामायिकम् , (गा. ८०३)। ... ४३५
कालमान, प्रतिपद्यमानादयः, अन्तरं, अविरह विरही आकसामायिकप्राप्तिहेतुक्षेत्रदिकालगत्यादीनि द्वाराणि अलङ्का
र्षाः स्पर्शना भागः पर्यायाः, दमदम्ताद्या दृष्टान्ताः रादिद्वारान्तानि, दिनिक्षेपः, (गा. ८२९)। ...४३६ (गा. ८७९)। ... ... ... ४६९
इत्युपोद्घातनियुक्तिः। द्रव्यपर्यायव्यापिताविचारः, (गा. ८३०)। ... ४५१
सूत्रस्य दोषा गुणाः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिनयानां सममनुमनुजवादीनां दौल ये चोल कादयो दृष्टान्ताः, (गा.८४०)। ४५१
गमः, (गा. ८८६)। ... ... ... ४८२ आलस्याद्या धर्मविनइतवः, यानावरणादिरूपकम्, उत्पत्यादिफलान्तं नमस्कारे, समुत्थानवाचनाउन्धितः भा.सू.१०२/31 (गा. ८४३)। ....... ...४५५/ खामी निक्षेपास्तेषु नयाः किमादिषट्पया सत्सदादि
अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
H
श्री आव ० मलयगि०
Jain Educat
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययन [ - ], निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
विषयः
... ४८५ ... ४९४
... ५०८
नवपद्या च निरूपणं वस्तूनि आरोपणाद्याः प्रकृत्याचाः, मार्गाचा हेतव:, (गा. ९०३) । देशक नियम कम हा गोपत्वानि, (गा. ९२७ ) । रागद्वेषकषायेन्द्रियाणां भेदाः स्वरूपं दृष्टान्ताच, (गा. ९२८) १४९७ परीषहस्वरूपं, उपसर्गाणां स्वरूपं दृष्टान्ताच । अनेकथाऽर्हन्निरुतयः, नमस्कारफलं च (गा. ९२६ ) । ५१० कर्मशिल्पा दिसिद्धाः कर्मसिद्ध:, (गा. ९२९) । शिल्पसिद्धः । (गा. ९३० ) । विद्यासिद्धः, (गा. ९३१२ ) । मत्रे ( ३३ ) योगे. (३४) आगमार्थयोः, (गा. ३५) यात्रायां ( ३६ ) बुद्धिसिद्धस्वरूपं, बुद्धेर्भेदाः, औत्पत्तिक्या लक्षणं दृष्टान्ताय,
... ५११
...
...
पाइ
...
विश्यः
-कर्मजाया लक्षणं तद्द्दष्टान्याय, (गा. ९४६) । ... ५२६ पारिणामिक्या लक्षणं तदृष्टान्ताम्र, (गा. ९५१) ।... ५२७ तपःकर्मक्षय सिद्धौ सिद्धस्वरूपं समुद्घातः शैलेशी शाटीदृष्टान्तः पूर्वप्रयोगादयः लोकाप्रतिष्ठितत्वादि ईषत्याग्भारा अवगाहना संस्थानं देश प्रदेशस्पर्शना सिद्धानां लक्षणं सुखं च पर्यायाः, नमस्कारफलम् (गा. ९९२) । ५३४ आचार्यनिक्षेपादि, (ग. ९९९ ) उपाध्यायनिक्षेपादि, (गा. १००७। मा. १५१ ) साधुनि-' पादि, (गा. १०१७ ) उपसंहारः, संक्षेपविखारचर्या, (ग्रा. १०२० ) । *मद्वारं प्रयोजनफले त्रिदंख्यादयो दृष्टान्ता:, (गा. १०२५) । ५५३ सम्बन्धः सामायिकसूत्रं च सन्याख्यानं, निक्षेप्यपदानि, (गा. १०२९) ।
... ५४९
... ५५०
....
(गा. ९४४ ) । ... ५१६ वैनविक्या लक्षणं तद्रष्टान्दा (गा. ९४५) । ... ५२३ अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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अनुक०
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आगम
(४०)
"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं -], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
ECRECEIR
दीप अनुक्रम
पत्राहा
पत्राः नामादिकरणानि, (मा. १५२-१७४)। क्षेत्रकाळकर- | सावद्यार्थः, ( गा. १०५१)। द्रव्यमावयोगाः (गा. |
जानि, भावेऽत्र मुतवद्धानिशीथास्यानि,(गा. १०३६)। नोभुतकरणम् , (गा. १०३१)! .. . ५५८ कृताकृतादिद्वारसप्तकम् , (नदिष्टोपदेशादिष)। आलोच- प्रत्याश्याने न्याश्मेिदार, (गा. १०५४)। यावच्छ
नाया नयाः, (गा. १०४०।१७५-१८३ भा.)। ५६५ ब्दार्थः, (गा. १०५५)। ... ... १७९ |देशसर्वपातिपाते सामायिक, (गा. १०४१)। ... ५७२ |
जीवितनिक्षेपाः, ( गा. १०५६ । १८९-१९० भा.)। ५८० | मयनिक्षेपाः, अन्तं पोढा, (१८४-१८५ भा.)। ... ५७२ सामायिकसूत्रस्याः , सामायिकैकार्थाः निक्षेपा एपाम्,
प्रत्याख्याने १४७ महाः (गा. १०५७) । त्रिकालपह| (गा. १०४५) ... ... ... ५७४ पम्, (गा. १०५८)। ... ... ... सामायिकस्य पर्यायाः, कर्तृकर्मकरणविचारः, आत्मा का
त्रिविपादेरपुनरुकता, (गा. १०५९)। ... ... ५८३ 5 रकः, (गा. १०४९) ... ... ... ५७५
सर्वस्य निझेपाः, (गा. १०५०) देवसर्यादि. (मा. न्यमावप्रतिक्रमणोदाहरणे, (गा. १०६०)। निन्या. 1 १८६-१८९ मा.)। ... ... ... १७६ / गईयो, (१०६१-१०६२)। ... ... १८४ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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आगम
(४०)
"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं नियुक्ति: -, भाष्यं [-1, मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीआव. मलयगि
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अनक्र०
प्रत
%2.
सूत्रांक
%
-
विषयः
विषयः
- पत्राः ताज्ञानक्रियानयवक्तव्यता, (गा. १०६५-१०६७)। ... ५८६ / लोकपर्यायाः, उद्योतानोपाः ४, (गा. १०७४ )। ... ५९४
धर्मनिझेगाः, ४ (गा. १०७५-६)। तीर्थनिराः ४, इति सामायिकाध्यनम्
त्रिस्थयांचाः पर्यायाः ( गा. १०८१)। ... ५९५ करनेक्षेपाः ६, द्रव्याराः १८ प्रशस्तभाकरः, (गा.
१०८२-७) ... ... ... ... ५९६ अध्ययनसम्बन्धः, चतुर्विंशत्यादेनिक्षेपाः, (गा. १०६८)।
अर्हत्कीर्तनचतुर्विंशतिकेत्र लिपदानि (गा. १०८९-९१) । चतुर्विशतेः, (गा. १९२ मा.) स्ववस्त्र, (गा.
चालनासमाधी ।... ... ... ... ५९ १९३) । भावस्तवमहत्ता, (गा. १९४-१९९)।
ऋषभादिगाथात्रयार्थः, (गा. १०९२-९९) ... कूपदृष्टान्तो द्वये, (गा. १९६ भा.)। ... ५८८ लोगस्स' सूत्रव्याख्या। ... ... ... ५९१ लोकनिक्षेपाः ८ (गा. १०६९) जीवाजीवनित्यत्त्वादि,
इति चतुविशतिस्तवाध्ययनम् । कालभवभावपर्यवलोकाः, ( गा. १९७-२०५ )। ५९२
दीप अनुक्रम
र
रै
अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य:
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आगम
(४०)
"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१४३], वि भा गाथा [-], भाष्यं [११४...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
तृतीय भाग: (नियुक्ति: ५४३-८२९)
प्रत सूत्रांक
.
दीप अनुक्रम
साम्प्रतं समवसरणप्रकव्यतां अपना प्रतिपिपादविषुरिमां द्वारगाथामाहसमुसरणे केवआ रूव पुच्छ बागरण सोअपरिणामे । दाणं च देवमल्ले मल्लाऽऽणयणे उवरि तित्थं ॥ ५४३॥
प्रथमं समवसरणविषयो विधिर्वक्तव्यः, ये देवा यत्प्राकारादि यद्विधं यथा कुर्वन्ति तथा वकव्यमिति भावः, 'केवइयत्ति कियन्ति सामायिकानि भगवति कथयति मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते, कियतो वा भूभागादपूर्वे समवसरणेऽदृष्टपूर्वे पावा साधुना आगन्तव्यम् , 'रूब'त्ति भगवतो रूपं व्यावर्णनीयं, 'पुच्छ'त्ति किमुत्कृष्टरूपतया भगवतः प्रयोजनमिति
अपृच्छा कार्या उत्तरं च वक्तव्यं, कियन्तो वा हद् संशयं पृच्छन्तीति, 'बागरण'ति व्याकरणं भगवतो वक्तव्यं यथा युगपII देव समातीतानामपि पृच्छता व्याकरोतीति, 'पुच्छवागरणं ति एक वा द्वार, पृच्छायां व्याकरणं तद्वक्तव्यं, 'मोयपरि-12 दणामो'त्ति श्रोतुश्च परिणामः श्रोनृपरिणामः स वक्तव्यो, यथा सर्वश्रोतृणां भागवती वा स्वभाषया परिणमते, 'दानं
चेति वृत्तिदानं प्रीतिदानं च कियत्प्रयच्छन्ति चक्रवर्त्यादयस्तीर्थकरप्रवृत्तिकथकेभ्य इति वक्तव्यं, 'देवमले'त्ति गन्धप्रक्षेपादेवानां सम्बन्धि माल्यं देवमास्य-वल्यादि कः करोति, कियत्परिमाणं चेत्यादि, 'मल्लाणयणेत्ति माल्यानयने यो
विधिरसी वकन्या, 'उपरि तित्यति उपरि पौरुष्याः, किमुक्तं भवति -पौरुष्यामतिकान्तायां तीर्थमिति-प्रथमगणआ.सू.५१
.........
Format Pornain
... अथ समवसरण वक्तव्यता प्रस्तूयते
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१४४-५४५], विभा गाथा -, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
देवकृत्यं
प्रत
सत्राक
आवश्यक धरोऽन्यो वा तदभावे देशनां करोतीत्येष द्वारगाधासमासार्थः । विसराय प्रतिद्धार बश्यामा, तत्र नन्विदं. समवसरणंरगाथा श्रीमलय- यत्र भगवान् धर्ममाचष्टे तत्र निधमतो भवत्युत नेत्याशङ्कापनोदमुखेन प्रथमद्धारं व्याचिख्यासुरिदमाहसमवसराजत
जस्थ अपुढ्बोसरणं जत्थ य देवो महड्डिओ एड। वाउदयपुष्फबद्दलपागारतिअंच अभिओगा ॥ ५४४॥
| यत्र क्षेत्रे ग्रामे नगरे वा अपूर्वम्-अभूतपूर्व समवसरणं भवति, यत्र वा भूतपूर्वसमवसरणे क्षेत्रे महर्बिको देव पति॥३०॥ आगच्छति, तत्र किमित्याह-वातं रेवाद्यपनोदाय उदक (उदक) वाईल भाविरेणुसन्तापोपशान्तये, पुष्पवृष्टिनिमित्त
वाईलं पुष्पवाईलं तत् क्षितिविभूषणाय, वाईटशब्द उदकपुष्पयोः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, तथा प्राकारत्रिकं च, सर्वमेतत् । अभियोगमहन्तीत्याभियोग्या देवाः, कुर्वन्तीति वाक्यशेषः, अन्यत्र त्वनियमः ॥ एवं तावत् सामान्येन समवसरणकर|णविधिरुतः, सम्पति विशेषेण प्रतिपादयति
मणि-कणग-रयणचित्तं भूमीभार्ग समंतओ सुरहिं । आजोअणंतरेणं करिति देवा विचितं तु॥५४५॥
इह यत्र समवसरणं भवति तत्र योजनपरिमाण क्षेत्रमाभियोग्या देवाः सम्वतंकवातं विकुर्वित्वा तेन विशुद्धरजः | कुर्वन्ति, ततः सुरभिगन्धोदकवृष्ट्या निहतरजः, तत आयोजनान्तरेण-योजनपरिमाणं भूमिभाग मणयः-चन्द्रकान्ता
दयः कनक-देवकाञ्चनं रतानि-इन्द्रनीलादीनि अथवा स्थलसमुद्भवा मणयो जलसमुद्भवानि रत्नानि तैश्चित्रं समन्ततः- ॥३०॥ | सर्वासु दिक्षु सुरभि-सुगन्धिगन्धयुक्तं, मणीनां सुरभिगन्धोदकस्य पुष्पाणां चातिमनोहारिगन्धयुक्कत्वात् , विचित्रम्अपूर्व देवा आभियोग्याः कुर्वन्ति ।
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(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१४६-५४९], विभा गाथा -, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
विटट्ठाई सुरहिं जलथलयं दिवकुसुमनीहारिं । पयरिंति समंतेणं दसद्धवन्नं कुसुमवासं॥५४६।। आभियोग्या देवाः प्रकिरन्ति समन्ततः-सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दशार्द्धवर्ण-पञ्चवर्ण कुसुमवर्ष, किंविशिष्टमित्याह'वृन्तस्थायि' वृस्तमधोभागे पाण्युपरीत्येवंस्थानशीलं सुरभिगन्धोपेतत्वात् 'दिव्यकुसुमनिहारि' दिव्यः-प्रधानः कुसुमानां निर्हारी-प्रबलो गन्धप्रसरो यस्मात् तत् दिव्यकुसुमनिहारि ।। मणि-कणग-रयणचित्ते, चउद्दिसि तोरणे विउविति । सच्छत्ससालिभंजिअमयरद्वयचिंधसंगणे ॥५४७ ॥ चतसृष्वपि दिक्षु मणिकनकरत्नविचित्राणि तोरणानि व्यन्तरा देवा विकुर्वन्ति, किंविशिष्टानीत्याह-उन-प्रतीतं, शालभञ्जिकाः-स्तम्भपुत्रिका मकरेति-मकरमुखोपलक्षणं ध्वजाः-प्रतीताः चिहानि-स्वस्तिकादीनि संस्थानम्अत्यद्भुतो रचनाविशेषः सन्ति-शोभनानि छत्रशालभञ्जिकामकरध्वजचिह्नसंस्थानानि येषु तानि तथोच्यन्ते ।। तिन्नि य पायारवरे रयणविचित्ते तहिं सुरगणिंदा । मणिकंचणकविसीसयविभूसिए से विउच्चति ॥५४८॥
तत्र समवसरणे ते वक्ष्यमाणाः सुरगणेन्द्रास्त्रीन् प्राकारवरान् रलविचित्रान्-मणिकाश्चनकपिशीर्षकविभूषितान् विकुर्वन्ति, भावार्थ उत्तरगाथायां व्याख्यास्यते । सा चेयम्अम्भितर मज्झ बहिं विमाणजोइसभवणाहिबकयाउ । पायारा तिनि भचे रयणे कणगे य रयए य ॥५४९ ॥ | अभ्यन्तरे मध्ये बहिः विमानज्योतिर्भवनाधिपकृताः प्राकारास्त्रयो भवन्ति, रले कनके रजते च-यथाक्रम रखमयः
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Frica Feroleh
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ५५० ५५३ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १९४...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
आवश्यक
कनकमयो रजतमय इत्यर्थः । एष भावार्थ:- अभ्यन्तरः प्राकारो राजस्तं विमानाधिपतयः कुर्वन्ति, मध्यमः कनके भवः श्रीमलय- कानकः तं ज्योतिर्वासिनः कुर्वन्ति, बाह्यो राजतस्तं भवनपतयः कुर्वन्ति ।
समवसरणे
॥१०२॥
मणिरयणमथाऽविष कविसीसा सङ्घरयणिया दारा । सवरयणामयचिय पडागयतोरणविचित्ता ॥ ५५० ॥ यथाक्रमं मणिरतममयानि कपिशीर्षकाणि, तद्यथा - प्रथमप्राकारे पश्चवर्णमणिमयानि कपिशीषर्काणि तानि वैमानिकाः कुर्वन्ति, द्वितीये रलमयानि तानि ज्योतिष्का विदधते, तृतीये हेममयानि तानि भवनपतयः कुर्वन्ति तथा सर्वरत्नमयानि द्वाराणि तानि भुवनपतयः कुर्वन्ति, तथा सर्वरत्नमयान्येव मूलदलापेक्षया पताकाध्वजप्रधानानि तोरणानि विचित्राणि - कनकस्वस्तिकादिभिश्चित्ररूपाणि तानि व्यन्तरदेवाः कुर्वन्ति ॥
तत्तो अ समंतेणं कालाऽगुरुकुंदुरुक्कमीसेणं । गंधेण मणहरेणं धूवघडीओ विजयंति ॥ ५५१ ॥ ततः समन्ततः-- सर्वासु दिक्षु कृष्णागुरुकुन्दुरुक्कमिश्रेण गन्धेन मनोहारिणा युक्ताः, किं १-धूपघटिका विकुर्वन्ति व्यन्तरा देवाः ॥
Education International
सीहनायं कलयलसद्देण सबओ सर्व्वं । तित्थयरपायमूले करिंति देवा निवयमाणा ॥ ५५२ ॥ तीर्थकर पादमूले निपततो देवा उत्कृष्टिसिंहनादं कुर्वन्ति, उत्कृष्टिः- हर्षविशेषप्रेरितो ध्वनिविशेषस्तत्प्रधानः सिंहनाद उत्कृष्टिसिंहनादस्तं, तथा कलकलशब्देन समन्ततः- सर्वासु दिक्षु युक्तं सर्वमशेषं कुर्वन्ति ॥ दुम पीढछंद आसण छतं च चामराओ अ । जं चन्नं करणिजं करिंति तं वाणमंतरिआ ॥ ५५३ ॥
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देवकु
॥२०॥
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१५४-५५५], विभागाथा , भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
| अम्यन्तरप्राकारस्य रसमयख बहुमध्यदेशमागे अशोकपरपादपो भवति, सब भगवतामाणात द्वादशगुणः, तस्था-1 |घस्तात्सर्वरसमय पीठं, सस्य पीठस्पोपरि चैत्यवृक्षसाचो देवच्छन्दका, तस्वाभ्यन्तरे सिंहासनं सपादपीठं स्फटिकमयं, तस्योपरि छत्रातिच्छत्रं, पशब्दः समुच्चये, चामरे च उभयोः पार्श्वयोः यक्षहस्तगते, चशब्दात् धर्मचक्र पद्मप्रतिष्ठितं, यच्चान्यद्वातोदकादि करणीयं तद् व्यन्तरा देवाः कुर्वन्ति, एष सर्वतीर्थकृतां सर्वसमवसरणन्याया, अस्मिंस्तु भगवतः रुपवसरणेऽशोकपादपं शक्रः छत्रातिच्छन्नमीशानो विकुर्वितवान् , चामरे चामरधारौ बलिचमराविति सम्मदायः । आइ-यत् यत्समवसरणं भवति तत्र सर्वत्रापि पूर्वोक एव नियोग उत नेत्यत आह
साहारण ओसरणे एवं जत्विहिमं तु ओसरह । इकु चिय तं सर्व करेइ भयणा उ इयरेसि ।। ५५४ ॥ साधारण-सामान्यं यत्र सर्वे देवेन्द्रा आगच्छन्ति तस्मिन् साधारणसमवसरणे एवम्-उक्तप्रकारेण नियोगः, यत्र पुनर्ऋद्धिमान्-इन्द्रसामानिकादिः समवतरति तत्र एक एव तत्प्राकारादि सर्व करोति, 'भयणा उ इयरेसिं'ति यदि इंद्रा इन्द्रसामानिका ग केचिन्महद्धिका नायान्ति ततो भवनवास्यादय इतरे समवसरणं कुर्वन्ति वा नवेत्येवं भजना इतरेषां।
सूरुदयपच्छिमाए ओगाहंतीह पुवओ एह । दोहिं पउमेहिं पाया मग्गेण य हुंति सत्तन्ने ॥ ५५५ ॥
एवं देवैनिष्पादिते समवसरणे, सूर्योदये-प्रथमायां पौरुष्यां अन्यदा पश्चिमायां 'ओगाहंतीए'ति अवगाहमानायां६आगच्छन्त्यामिति भावः, पूर्वद्वारेण 'एति' आगच्छति, प्रविशतीत्यर्थः, कथमित्याह-द्वयोः पद्मयोः-सहस्रपत्रयोर्देवप
दीप अनुक्रम
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... अथ समवसरण मध्ये द्वादश-पर्षदाया: वर्णनं
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ५५६-५५८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १९४...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
आवश्यक
श्रीमलयतमवसरणे |
रिकल्पितयोः पादौ स्थापय निति वाक्मशेषः, 'मग्र्गेण य होति सत्तन्त्रे' मार्गतः पृष्ठतो भगवतः सधान्यानि पद्मानि भवन्ति तेषां च यत् यत् पश्चिमं तत्पादन्यासं कुर्वतो भगवतः पुरतस्तिष्ठतीति ।
आय हिण पुवहो तिदिसि पडिरूवगा उ देवकया। जिट्टगणी अन्नो वा दाहिणपुढे अदूरम्मि ।। ५५६ ॥ स एवं भगवान् पूर्वद्वारेण प्रविश्य 'आयाहिण'त्ति चैत्यद्रुमप्रदक्षिणां कृत्वा पूर्वाभिमुख उपविशति, शेषासु तिसपु ॥ ३०३ ॥ दिक्षु प्रतिरूपकाणि तीर्थकरा कृतिमन्ति सिंहासनादियुक्तानि देवकृतानि भवन्ति, शेषदेवादीनामप्यस्माकं कथयतीति प्रतिपत्त्यर्थ, भगवतश्च पादमूलमेकेन गणधरेणाविरहितमेव भवति, स च ज्येष्ठोऽन्यो वा, प्रायो ज्येष्ठ इति भावः, स
ज्येष्ठगणी अन्यो वा दक्षिणपूर्वे दिग्भागे अदूरेऽप्रत्यासन्ने भगवतो भगवन्तं प्रणम्य निषीदतीति क्रियाध्याहारः, |शेषगणधरा अप्येवमेव भगवन्तमभिवन्द्य तीर्थस्य मार्गतः पार्श्वतश्च निषीदन्ति ॥ भुवनगुरुरूपस्य त्रैलोक्यगतरूपेभ्यः सुन्दरत्वात् त्रिदशकृतप्रतिरूपकाणां किं साम्यमसाम्यं वेत्याशङ्कानिरासार्थमाह
जे ते देवेहिं कयातिदिसिं पडिवगा जिणवरस्स । तेसिंपि तप्पभावा तयाणुरूवं हवइ रूवं ॥ ५५७ ॥ यानि तानि देवैः कृतानि जिनवरम्य तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि तेषामपि तत्प्रभावात् - तीर्थकरप्रभावात् तदनुरूपं - तीर्थकररूपानुरूपं भवति रूपमिति ॥
तित्थाति सेससंजय देवी वैमाणियाण समणीओ। भवणवचाणमंतरजोइसियाणं च देवीओ ॥ ५५८ ॥ तीर्थ - (प्रथमो ) गणधरः, स पूर्वेद्वारेण प्रविश्य तीर्थकरं त्रिकृत्वो वन्दित्वा दक्षिणपूर्वे दिग्भागे निषीदति, एवं शेषगण
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पर्षदो
द्वादश
॥२०३॥
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(४०)
"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१५९], वि भा गाथा [-], भाष्यं [११४...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
FACASS
२-१३
धरा अपि, नवरं ते तीर्थस्य मार्गतः पार्थेषु च निषीदन्ति, तदनन्तरं अतिशेषसंयता-अतिशायिनः केवल्यादयः संयता एवं निपीदन्ति, किमुक्तं भवति?-ये केवलिनस्ते पूर्वद्वारेण प्रविश्य भगवन्तं त्रिकूत्वः प्रदक्षिणीकृत्य नमस्तीर्थायेति भणित्वा तीर्थस्य-प्रथमगणधरस्य शेषगणधराणां च पृष्ठतो निषीदन्ति, येऽप्यवशेषा अतिशायिनो मनःपर्यवज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्वधराः त्रयोदशपूर्वधरा यावद्दशपूर्वधरा नवपूर्वधराः खेलौषधय आमाँषधयो जल्लोषध्यादयश्च तेऽपि पूर्वद्वारेण प्रविश्य विकृत्वो भगवन्तं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय प्रथमगणधररूपाय नमः केवलिभ्य | इत्युक्त्वा केवलिनां पृष्ठतो यथाक्रम निषीदन्ति, ये चावशेषा अनतिशायिनः संयताः तेऽपि पूर्वद्वारेणैव प्रविश्य त्रिकृत्यो भगवन्तं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिभ्यः नमोऽतिशायिभ्य इत्युक्त्वा अतिशायिनां पृष्ठतो निषीदन्ति, वैमानिकानां देव्यः पूर्वद्वारेणैव प्रविश्य भगवन्तं त्रिकृत्वः प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिम्यः नमोऽतिशायिभ्यः नमः साधुभ्य इति भणित्वा निरतिशयिसंयतानां पृष्ठतस्तिष्ठन्ति, नतु निषीदन्ति, श्रमण्यः पूर्वद्वारेण प्रविश्य तीर्थकरं त्रिकृत्वः प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिभ्यो नमोऽतिशायिभ्यो नमः शेषसाधुभ्य इत्युक्त्वा वैमानिकदेवीनां पृष्ठतस्तिष्ठन्ति, न तु निषीदन्ति, भवनपवासिन्यो व्यन्तों ज्योतिष्क्यश्च दक्षिणद्वारेण प्रविश्य त्रिकृत्वस्तीर्थकरं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्त्वा दक्षिणपश्चिमायां दिशि, नैर्ऋतकोणे इत्यर्थः, तिष्ठन्ति, न तु निषीदन्ति, भवनवासिनीनां पृष्ठतो ज्योतिष्कदेव्यस्तासां पृष्ठतो व्यन्तर्यः। एतदेव सविशेष प्रतिपिपादयिषुरिदमाह(केवलिणो तिउण जिणं तित्थपणामं च मग्गओ तस्स । मणमाईवि नमंता वयंति सहाण सहाणं ॥ ५५९ ॥
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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अनुक्रम
H
आवश्यके
श्रीमलय
समवसरण
॥३०४ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ५६० ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१९६ ], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
chaoनखिगुणं - त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जिनं-तीर्थकरं तीर्थप्रणामं च कृत्वा तस्य तीर्थस्य - गणधरस्य मार्गतः पृष्ठतो, निषीदन्ति क्रियाध्याहारः, 'मणमाइवी 'त्यादि, मनआदयोऽपि - मनः पर्यावज्ञाम्यवधिज्ञनिचतुर्दशपूर्वरा यावन्नवपूर्वधरखेलौषध्यादिनिरतिशयसंयत वैमानिकदेवी श्रमण्यस्तथा ज्योतिष्क भवनपतिन्यन्तरदेव्यः पूर्वक्रमेण तीर्थंकरादीन् नमन्त्यः प्रजन्ति स्वस्थानं स्वस्थानं, स्वं स्वं स्थानमित्यर्थः, भावार्थः प्रागेवोक्तः ।
भवणवई - जोहसिया बोद्धवा वाणमंतरसुरा य । वेमाणिया य मणुआ पयाहिणं जं च निस्साए ॥ ५३० ॥ भवनपतयो ज्योतिष्का व्यन्तरसुरा एते पश्चिमद्वारेण प्रविश्य भगवन्तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिम्बः नमोऽतिशायिभ्यः नमः शेषसाधुभ्य इति भणित्वा यथोपन्यासमुत्तरपश्चिमे दिग्भागे निषीदन्ति, | तद्यथा-भवनपतीनां पृष्ठतो ज्योतिष्कास्तेषामपि पृष्ठतो व्यन्तरा इति, तथा वैमानिका मनुष्याश्चशब्दात् स्त्रियश्च, | अस्य शब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, किं ?, 'पयाहिणं'ति उत्तरद्वारेण प्रविश्य प्रदक्षिणाः कृत्वा तीर्थंकरादीनभिवन्द्य उत्तरपूर्वे दिग्भागे यथोपन्यासं निषीदन्ति, तद्यथा-वैमानिकानां पृष्ठतो मनुष्यास्तेषामपि पृष्ठतो मनुष्यस्त्रियः, इदैवं सम्प्रदाय:-देव्यः सर्वा एव न निषीदन्ति, देवा मनुष्या मनुष्यखियश्च निषीदन्ति तथा विवृतं, 'जं च निस्साए' यः परिवारोयं च निश्रां कृत्वा समायातः स तत्पार्श्व एव तिष्ठति, नान्यत्र ॥ साम्प्रतमभिहितमेवार्थ भाष्यकारः पूर्वद्वारादिप्रवेशविशिष्टं स्पष्टतरं प्रतिपादयति
संजय वैमाणित्यी संजर पुवेण पविसितं वीरं । काउं पयाहिणं पुषदक्खिणे ठंति दिसिमाए ॥ ११६ ॥
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पर्षदो द्वादज
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॥२०४॥
••• भाष्यक्रम-मुद्रणदोष: [... यहा भाष्य का क्रम ११५ आता है, फ़िर भी मूल संपादकने ११६ लिखा है, क्यों की क्रम ११५ मे गलति से निर्युक्ति का नंबर दे दिया था। वैसे हारिभद्रिया वृत्ति मे इस का भाष्य-क्रम ११६ हि है ।
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [५६१], विभा गाथा [-], भाष्यं [११७-११९], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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ACC
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का ४ीजोइसियभवणवंतरदेवीओ दक्षिणेण पविसे । चिट्ठति दक्षिणावरविसिम्मि तिगुणं जिणं का ॥११७॥
अवरेण भवणवासीवंतरजोइससुरा य अतिगंतुं । अवरुत्तरदिसिभाए चिट्ठति जिर्ण नमंसित्ता ॥ ११८॥ । समहिंदा कप्पसुरा राया नरनारिओ उईणेणं । पविसित्ता पुडुत्तरदिसीह चिट्ठति पंजलिया ॥ ११९॥ । इक्किकाइ दिसाए तिगं तिगं होइ संनिविडं तु । आइचरिमे विमिस्सा थीपुरिसा सेस पत्ते ॥ ५६१॥ संयता वैमानिकस्त्रियः संयत्यः पूर्वेण-पूर्वद्वारेण प्रविश्य वीरं प्रदक्षिणं कृत्वा पूर्वदक्षिणे दिग्भागे तिष्ठन्ति । ज्योतिकभवनव्यन्तरदेव्यो दक्षिणेन द्वारेण प्रविश्य त्रिगुणं प्रदक्षिणं जिनं कृत्वा दक्षिणापरदिग्भागे पूर्वक्रमेण तिष्ठन्ति । अपरेण-पश्चिमद्वारेण भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्कसुराश्च अतिगत्य-प्रविश्य जिनं नमस्कृत्यापरोत्तरदिग्भागे, वायव्यटाकोणे इत्यर्थः, पूर्वक्रमेण तिष्ठन्ति ॥समहेन्द्रा-महर्द्धिभिरिन्द्रः सहिताः कल्पसुरा:-कल्पोपपत्नदेवाः राजानः नराः सामा-14
न्यपुरुषा नार्यश्च उदीच्येन-उत्तरेण द्वारेण प्रविश्य भगवन्तं प्रणम्य प्राञ्जलयः पूर्वोत्तरदिग्भागे तिष्ठन्ति । अभिहितार्थोवापसमाह-एकैकस्यां पूर्वदक्षिणादिकायां दिशि त्रिकं त्रिकं भवति सन्निविष्टं, तद्यथा-पूर्वदक्षिणस्यां संयतवैमानिकदेवी
श्रमणीरूपं, दक्षिणापरवां भवनवासिज्योतिष्कन्यन्तरदेवीरूपं, अपरोत्तरस्यां भवनपतिज्योतिष्कव्यन्तरदेवरूपं, उत्तरपूर्वस्यां वैमानिकमनुष्यमनुष्यत्रीरूपमिति, आदिमे च त्रिके-पूर्वदक्षिणदिग्गते परमे च त्रिके-पूर्वोत्तरदिग्गत विमिश्रा भवन्ति, स्त्रियः पुरुषाश्च तिष्ठन्तीति भावः, शेषे-त्रिकद्ये प्रत्येकं भवति, अपरादक्षिण दिग्भागे केवला:स्थिय एव | अपरोत्तरे च दिग्भागे केवला: पुरुषा एवेति भावार्थः। तेषां चत्वं स्थितानां देवनराणामियं मयादा,
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(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [५६२-५६४], विभागाथा -1, भाष्यं [११७-११९], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
स
देवादीनां स्वस्था प्राकाराबम:
सत्राक
मादायक महिहि पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । नवि जंतणा न विकहा न परुप्पर मच्छरो न भयं ५६२ श्रीमलय- ये अल्पर्द्धयो भगवतः समवसरणे पूर्वनिपण्णास्ते आगच्छन्तं महर्द्धिक प्रणिपतन्ति, अथ महर्द्धिकाः प्रथम समवसरणे निष-
णास्ततः पश्चात् ये अल्पद्धिकाः समागच्छन्ति ते तान् पूर्वस्थितान् महर्द्धिकान् प्रणिपतन्तो व्रजन्ति, तथा तेषां नाऽपि तथास्थितानां यन्त्रणा-आयत्तता नापि विकथा न च परस्परं मत्सरो, नापि विरोधिनामपि सत्त्वानां परस्परं भयं च, भगवतोऽनु- भावात् ॥ एतत्सर्व प्रथमप्राकारान्तरे व्यवस्थितम्, अथ द्वितीयप्राकारान्तरे तृतीयप्राकारान्तरे च किं व्यवतिष्ठते इत्याहबियम्मि हुंति तिरिया तइए पायारमंतरे जाणा । पायारजढे तिरियाचि टुंति पत्ते मिस्सा वा ॥ ५६३ ॥ हम द्वितीयप्राकारान्तरे भवन्ति तिर्यञ्चः, तथा तृतीयप्राकारान्तरे यानानि, प्राकारजहे-प्राकाररहिते बहिरित्यर्थः, तिर्य
चोऽपि भवन्ति, अपिशब्दात् मनुष्यदेवा अपि, ते च प्रत्येक कदाचिद्भवन्ति-कदाचित्तिर्यच एव कदाचिन्मनुष्या एव कदाचिद्देवा एव, तथा कदाचिन्मिश्रा वा, एते च प्रत्येकं मिश्रा वा प्रविशन्तो निर्गच्छन्तश्च वेदितव्याः ॥ गतं समवस
रणद्वारम् , अधुना द्वितीयद्वारप्रतिपादनार्थमाहजसवं च देसविरई सम्मं घेच्छह व होइ कहणा उ । इहरा अमूढलक्खो न कहेह भविस्सइन तं च ॥ ५६४॥
विरतिशब्द उभयत्रापि सम्बध्यते, सर्व-सर्वविरति देशविरतिं सम्यक्त्वं वा ग्रहीष्यति, वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, ततः कथना कथनं भगवतः प्रवर्तते, 'इहर'त्ति इतरथा अमूढलक्ष्या समस्तज्ञेयाविपरीतवेदनाः, किंन कथयति । आह यद्येवं समवसरणकरणप्रयासो विबुधानामनर्षका, कृतेऽपि नियमतोऽकथनादित्यत आह-भविष्यति
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॥३.५॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ५६५-५६७ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११७-११९], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
न तच यद्भगवति कथयति अन्यतमोऽप्यन्यत् सामायिकं न प्रतिपद्यत इति, भविष्यत्कालनिर्देशस्त्रिकालोपलचकः । | अथ कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्त इत्येतदाह
| मणुए चमन्नपरं तिरिए तिन्निव दुवे व पडिवजे । जइ नत्थि नियमसुचिय सुरेस संमत्तपडिवन्ती ।। ६६५ ।। मनुष्ये प्रतिपत्तरि चतुर्णा सामायिकानामन्यतरत् - अन्यतरसामायिकप्रतिपत्तिर्भवति, पाठान्तरं 'मणुओ चरमन्नयरं' तत्र मनुष्यश्चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते इति व्याख्येयं तिर्यक् त्रीणि वा सर्वविरतिवर्जानि द्वे वा सम्यक्त्वश्रुतसामायिके प्रतिपद्यते, यदि नास्ति मनुष्यतिरश्चां कश्चित् प्रतिपत्ता ततो नियमत एव सुरेषु सम्यक्त्वप्रतिपत्तिर्भवति । स च भगवानित्थं धर्म्ममाचष्टे
तित्थपणा कार्ड कड़े साहारणेण सद्देण । सधेसिं संनीणं जोअणनीहारिणा भयवं ॥ ६६६ ॥ नमस्तीय प्रवचनरूपायेत्यभिधाय प्रणामं च कृत्वा कथयति, प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य साधारणेन शब्देन - अर्द्धमागधभाषात्मकेन, केषां साधारणेनेत्याह- सर्वेषाम् - अमरनरतिरथां संज्ञिनां, किंविशिष्टेन १ योजननिहारिणा-योजनव्यापिना भगवान्, किमुक्तं भवति ? – भगवतो ध्वनिरशेषसमवसरणस्य संज्ञिजिज्ञासितार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनं भवति, | भगवतः सातिश्रयत्वादिति । ननु कृतकृत्यो भगवान् ततः किमिति तीर्थप्रणामं करोति १, उच्यतेतरपुडिआ अरिया पहअपूया व दिणयकम्मं च । कयकिथोऽवि जह कह कहेइ नमए तहा तित्थं ॥ ५६७ ॥ तत्पूर्विका - प्रवधरूपतीर्थपूर्विका अर्हता- तीर्थकरता, प्रवचनविषयाभ्यासवशतस्तीर्थकरत्वमाप्तेः, यश्च यत उपजा
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१६८-५६९], विभा गाथा -1, भाष्यं [११९...], मूलं |-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
आवश्यकेदयते स तं प्रणमतीति भगवान् तीर्थ प्रणमति, तथा पूजितेन पूजा पूजितपूजा सा चास्य कृता भवति, पूजितपूजको हिट सामायिश्रीमलय- लोकः, भगवांश्च जगत्रयेऽपि पूज्यः, ततो यदि भगवता पूजितं भवति ततः सकलेऽपि जगति तत्पूजितं भवतीति प्रण- कानि सासमवसरणे: मति, तथा विनयकर्म च वक्ष्यमाणवैनयिकधर्ममूलं कृतं भवति, किमुक्तं भवति ?-विनयमूलो धर्मो भगवता प्रज्ञा- ध्यागमः
पनीयः, तद् यदि प्रथमं स्वयमेव भगवान् विनयं प्रयुके ततो लोकः सम्यग्विनयं प्रज्ञाप्यमानं श्रद्धचे करोति च, अथवा रूपच ॥३०६॥
| यथा कृतकृत्योऽपि भगवान् कथा कथयति तथा तीर्थमपि नमति, आह-नम्विदमपि धर्मकथनं भगवतः कृतकृत्यस्यायुक्तमेव, न, तस्य तीर्थकरनामकर्मविपाकमभवत्वात् , उक्कं च प्राक् 'तंच कहं वेइज्जई'इत्यादि । आह-क केन साधुना| कियतो वा भूभागात् समवसरणे खल्वागन्तव्यम् ? अनागच्छतो वा किं प्रायश्चित्तमित्यत आह| जत्थ अपुरोसरणं अदिहपुवं च जेण समणेणं । बारसहिं जोअणेहिं सो एइ अणागए लहुआ ॥५६८॥ ४ा यत्र तत्तीर्थकरापेक्षया अपूर्वम्-अभूतपूर्व समवसरणं न दृष्टपूर्व वा येन श्रमणेन स द्वादशभ्यो योजनेभ्य आग
च्छति, अथ नागच्छति अवज्ञया ततोऽनागते सति 'लहुय'त्ति चतुर्लघवः प्रायश्चित्तम् ।। गतं केवइअत्ति द्वारम्, अधुना है रूपपृच्छाद्वारप्रकटनामाह___सबसुरा जइ रूवं अंगुट्ठपमाणयं विउविजा। जिणपायंगुलु पइ न सोहए तं जहिंगालो ॥ ५६९॥
अथ कीदृग्भगवतो रूपं ?, उच्यते- सर्वे सुरा अशेषसुन्दररूपनिर्मापणशक्त्या बदि अनुष्टप्रमाणकं रूपं विकुर्वीरन् । तथापि तजिनपादाबुछ प्रति न शोभते यथाऽकारः।। साम्प्रतं प्रसङ्गतो गणधरादीनां रूपसम्पदमभिषित्सुराह
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दीप अनुक्रम
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... तीर्थंकर-आदीनां 'रूप' द्वारस्य वर्णनं क्रियते
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [५७०-५७१], विभा गाथा -], भाष्यं [११९...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण-चक्कि-वासु-बला। मंडलिया जा हीणा छट्ठाणगया भवे सेसी। ५७०॥
तीर्थकररूपात् गणधराणां रूपमनन्तगुणहीनं भवति, तीर्थकरेभ्यो गणधरा रूपेणानन्तगुणहीना भवन्तीति भावः, गणधरेम्यो रूपेण खलु आहारकदेहा अनन्तगुणहीनाः आहारकदेहेभ्यो रूपेणानन्तगुणहीना अनुत्तरा:- अनुत्तरवैमा-1 निकाः, एवं प्रैबेयकाच्युतारणप्राणतानतसहस्रारमहाशुक्रलान्तकब्रह्मलोकमाहेन्द्रसनत्कुमारेशानसौधर्मभवनवासिज्योति-18 कन्यन्तरचक्रवर्तिवासुदेवबलदेवमहामाण्डलिकानामनन्तरानन्तरापेक्षया रूपेणानन्तगुणहानिरवगन्तव्या, तथा चाह'जाव वणचक्किवासुबला मंडलिया जा हीण'त्ति यावद् व्यन्तरचक्रवर्तिवासुदेववलदेवमाण्डलिकाः वावदनन्तगुणहीनाः, 'छट्ठाणगया भवे सेस'त्ति शेषा-राजानो जनपदलोकाश्च षट्स्थानगता भवन्ति, अनन्तभागहीना वा असल्येयभागहीना
वा सवेयभागहीना वा सोयगुणहीना वा असोयगुणहीना वा अनन्तगुणहीना वा इति । उत्कृष्टरूपतायां भगवतः [४ प्रतिपादयितुं प्रकान्तायामिदं प्रासङ्गिकं रूपसौन्दयनिबन्धनं संहननादि प्रतिपादयन्नाह
___ संघपण रूवं संगण वन्नगइसत्तसारऊसासा । एमाइणुत्तराई हवंति नामोदया तस्स ॥ ५७१ ॥
संहनन-वज्रर्षभनाराचं रूपमुक्तलक्षणं संस्थान-समचतुरनं वर्णो देहच्छाया गतिः गमनं सत्त्व-वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य आत्मपरिणामः, सारो द्विधा-बाह्य आन्तरश्च, बाह्यो गुरुत्वं आन्तरो ज्ञानादि, उच्छासः प्रतीतः, वत एतेषां पदानां इन्दः एवमादीनि वस्तूनि, आदिशब्दात् रुधिरं गोक्षीराभमित्यादिपरिग्रहः, अनुत्तराणि तस्य भग
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ५७२-५७४], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११९...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
यावश्यके
श्रीमलयसमवसरण
वतो नामोदयात् कर्मोदयाद्भवन्ति ॥ आह--अन्यासां प्रकृतीनां वेदना (द) गोत्रादयो नास्त्रो वा ये इन्द्रियादयः प्रशस्ता उदया भवन्ति ते किमनुत्तरा भगवतश्छद्मस्थकाले केवलिकाले वा भवन्ति । किं वा नेति, उच्यते
॥
| पगडीणं अन्नामुवि पसत्थ उदया अणुत्तरा हुंति । खयउवसमेवि अ तहा खयम्मि अविकप्पमाहंसु ॥ ५७२|| 'अन्नासुवि'ति षष्ठ्यर्थे सप्तमी, अन्यासामपि प्रकृतीनां अपिशब्दान्नानोऽपि प्रशस्ता उदया-उच्चैर्गोत्रादयो भवन्ति, ॥३०७॥ किमितरजनस्येव १, नेत्याह- अनुत्तराः - अनन्यसदृशा इत्यर्थः, 'खभवसमेऽविय'त्ति क्षयोपशमे सति ये दानलाभा४. दयः कार्यविशेषा अपिशब्दादुपशमेऽपि ये केचन तेऽप्यनुत्तरा भवन्तीति क्रियायोगः, तथा कर्म्मणः क्षये-आत्यन्तिक| प्रक्षये सति क्षायिकज्ञानादिगुणसमुदयमविकल्पं व्यावर्णनादिकल्पनातीतं सर्वोचममाख्यातवन्तस्तीर्थकरगणधराः आह- असातावेदनीयाद्याः प्रकृतयो नानो वाऽप्रशस्ताः कथं तस्य दुःखदा न भवन्ति १, उच्यतेअस्सायमा आओ जावित्र असुहा हवंति पयडीओ । निंबरसलवुड पए न हुंति ता असुहया तस्स ॥ ५७३ ॥ असाताद्या या अपिच प्रकृतयः अशुभा भवन्ति ता अपि 'निम्बरसलव' इव लबो - बिन्दुः पयसि क्षीरे, न भवन्ति, असुखदास्तस्य-भगवतः तीर्थकृतः । उक्तमानुषङ्गिकं प्रकृतं द्वारमधिकृत्य प्रोच्यते तत्र कश्चिदाह- उत्कृष्टरूपतया मंगवतः किं प्रयोजनम् १, अत आह—धम्मोदएण रूवं करिंति स्वस्सिणोऽवि जह धम्मं । गेज्झवओ अ सुरुवो पसंसिमो तेण रूवं तु ॥ ५७४ ॥ धर्मस्योदयो धम्र्मोदयस्तेन रूपं भवतीति श्रोतारोऽपि धम्र्मे प्रवर्त्तन्ते, तथा कुर्वन्ति रूपस्विनोऽपि रूपवन्तोऽपि
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श्रीजिनर्सहननादि
॥२०७॥
janelibrary.org
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आगम (४०)
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ५७५-५७६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११९...] मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
-यदि धर्म ततः स शेवैः सुतरां कर्त्तव्य इति श्रबुद्धेः प्रवर्त्तनम्, तथा ग्राह्यवाक्यंश्च - आदेववाक्यश्च सुरूपो भवति, | चशब्दात् श्रोतॄणां रूपाद्यभिमानापहारी च, अत एतैः कारणैर्भगवतो रूपं प्रशंसामः) अथवा पृच्छेति भगवान् देवनरतिरश्चां प्रभूतसंशयिनां कथं व्याकरणं कुर्वन् संशय विच्छित्तिं करोति ?, उच्यते - युगपत् किमित्याह---
काण असंखेणवि संखाईयाण संसईणं तु । मा संसयवुच्छिन्ती न हुआ कमवागरणदोसा ॥ ५७५ ।। यदि एकैकस्य परिपाठ्या एकैकं संशयं परिच्छिन्द्यात् ततः सयातीतानां देवानां संशयिनामसङ्ख्येनापि कालेन संशयविच्छित्तिर्न स्यात् कुत इत्याह- क्रमेण व्याकरणं क्रमव्याकरणं स एव दोषः क्रमव्याकरणदोषस्तस्मात्, ततो युगपद् व्याकरोति ॥ युगपद्व्याकरणे गुणमुपदर्शयति
सत्य असमत्तं रिद्धिविसेसो अकालहरणं च । सहनुपचओऽवि अ अर्चितगुणभूइओ जुगवं ॥ ५७६ ॥ 'सर्वत्र सर्वसत्त्रेषु समत्वम्-अविषमत्वं युगपत्कथनेन भगवतो रागद्वेषरहितस्य प्रथितं भवति, अन्यथा तुल्यकालसंश| यिनां युगपजिज्ञासुतयोपस्थितानां कालभेदकथने रागेतरगोचरचित्तवृत्तिप्रसङ्गः, सामान्यकेवलिनां तस्रसङ्ग इति चेत्, न, तेषामित्थं देशनाकरणायोगात्, तथा ऋद्धिविशेष एवं भगवतः प्रथितो भवति, यत् युगपत् सर्वेषामेव संशयिनामशेषसंशयव्यवच्छित्तिं करोति, तथा अकालहरणं भवति, भगवता युगपत्संशयापनोदात्, क्रमेण कथने तु कस्यचित्संशयिनोऽनिवृत्तसंशयस्यैव मरणं स्यात्, न च भगवन्तमप्यवाप्य संशयनिवृत्त्यादिफलरहिताः प्राणिनो भवन्तीति युक्तं, | सर्वशप्रत्ययोऽपि तेषामेवमुपजायते, यथा सर्वज्ञोऽयं हृङ्गताशेषसंशयापनोदात्, न खल्वसर्वज्ञ एककालमशेषसंशयापनो
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [५७७-५७८], विभा गाथा -1, भाष्यं [११९...], मूलं |-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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दायालमिति, क्रमव्याकरणे तु कस्यचिदनपेतसंशयस्य सर्वज्ञपतीत्यभावः स्यात्, तथा अचिन्त्यगुणभूति:-अचिन्त्या कारखा
गुणसम्पनगवतः स्वाभाविकी, ततो यस्मादेते गुणा अतो युगपत् कथयति ।। गतं पृच्छाद्वारमधुना श्रोतृपरिणामः पर्या-12 श्रीमलय-1
लोच्यते, तत्र यथा सर्वसंशयिना सा पारमेश्वरी बार अशेषसंशयोन्मूलनेन स्वभाषया परिणमते तथा प्रतिपादयतिसमवसरणे चासोदगस्स व जहा वनाई हुंति भायणविसेसा । सवेसिपि सभासं जिणभासा परिणमे एवं ॥ ५७७॥ ।
शाणामश्च ॥३०॥
वर्षोदकस्य-वृष्यदकस्य वाशब्दादन्यस्य वा यथैकरूपस्य सतो भाजनविशेषात् वर्णादयो भवन्ति, कृष्णसरभिम-11 त्तिकायां स्वच्छ सुगन्धि रसवच्च भवति, ऊपरे तु विपरीतम्, एवं सर्वेषामपि श्रोदणां स्वभाषया जिनभाषा परिणमते । तीर्थकरवाचः सौभाग्यगुणप्रतिपादनार्थमाहसाहारणासवत्ते तदुवओगो उ गाहगगिराए । न य निविज्जह सोआ किढिवाणियदासिओहरणा ॥ ५७८ ॥
साधारंणा भगवतो वाणी अनेकप्राणिषु स्वभाषात्वेन परिणमनात्, नरकादिभयरक्षणपरत्वात् असपना-असदृशी अद्वि-18 तीया, साधारणा चासौ असपत्ना च साधारणासपना तस्यां साधारणासपक्षायां सत्यां, तस्यामुपयोगस्तदुपयोग एव भवति श्रोतुः, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , कस्यां -ग्राहयतीति ग्राहका सा चासौ गीच ग्राहकगीस्तस्यां प्राहकगिरि, उपयोगे
सत्यपि अन्यत्र निवेदो दृश्यते, तत आह-न च निर्विद्यते श्रोता, कथमर्थः खल्ववगन्तव्य इत्याह-किढिवणिग्दास्युदा-1 ४ाहरणात् । तदम्- एगस्स वाणियस्स एगा किडी दासी, किढी नाम थेरी, सा गोसे कहा गया, तण्हानहाकिलंता|
॥३.८॥ मझण्हे आगया, अतियोवाणि कट्ठाणि आणियाणित्ति पिहित्वा भुक्खियतिसिया पुणो पट्टविया, सा व बई कट्ठभारं
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ५७९-५८१], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [१९१९] मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
गहाय ओगाहंतीप पोरसीप आगच्छति, कालो य जेट्ठमासो, अह ताए थेरीए कट्ठमारातो पगं कडं पडियं, ततो ताए ओणमित्ता तं गहियं, तंसमयं च जोयणनीहारिणा सरेण भयवं तित्थयरो धम्मं कहेइ, सा थेरी तं सद्दं सुणंती तहेव ओणया सोउमाढता, डण्डं खुहं पिवास परिस्समं च न विंदर, सूरत्थमणे तित्थयरो धम्मं कहित्ता उट्ठितो, बेरी गया । एवंम् - | सघाउअंपि सोआ झविज्ज जह हु सययं जिणो कहए। सीउण्हखुप्पियासापरिस्सम भएऽवि अविगणंतो ।। ५७९ ।।
भगवति कथयति भगवत्समीपवर्थेव सन् सर्वायुष्कमपि श्रोता क्षपयेत् यदि हु सततम् - अनवरतं जिनः कथयेत्, | किंविशिष्टः सन् इत्याह- शीतोष्ण क्षुत्पिपासापरिश्रमभयान्यविगणयन् ॥ गतं श्रोतृपरिणामद्वारम् सम्प्रति दानद्वार भाव्यते तत्र भगवान् येषु ग्रामनगरादिषु विहरति तेम्यो वार्ता ये खल्वानयन्ति तेभ्यो यत् प्रयच्छन्ति वृचिदानं प्रीतिदानं च चक्रवर्त्त्यादयस्तदुपदर्शयन्नाह
वित्ती उ सुवन्नस्सा वारस अद्धं च सयसदस्साई । तावइयं चिय कोडी पीईदाणं तु चक्कीणं ॥ २८० ॥
वृत्तिस्तु वृत्तिरेव नियुक्तपुरुषेभ्यः सुवर्णस्य द्वादश शतसहस्राणि अर्द्ध च, अर्द्धत्रयोदश सुवर्णलक्षा इत्यर्थः, चक्रवचिना दीयते, तथा एतावत्य एव कोव्यः प्रीतिदानं चक्रवर्तिनः, तत्र वृत्तिर्वा कालमानेन परिभाषिता नियुक्तपुरुषेभ्यो दीयते, प्रीतिदानं यद्भगवदागमने निबंदिते परमहर्षानियुकेतरेभ्यो दीयते, तथा वृत्तिः संवत्सरनियता, प्रीतिदानमनियतमिति ॥
एयं चैव पमाण नवरं रययं तु केसवा दिति । मंडलियाण सहस्सा वित्ती पीई सयसहस्सा ॥ ५८१ ॥
•••• अथ वृत्ति एवं प्रीति-दानस्य वर्णनं आरभ्यते
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [५८२-५८४], विभा गाथा -], भाष्यं [११९...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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परयके[४] एतदेव प्रमाणं वृत्तिप्रीतिदानयोः केशवानां, नवरं रजत-रूप्यं केशवा-वासुदेवा ददति, तथा माण्डलिकानां राज्ञा तिप्रीतिश्रीमलय- अत्रयोदय सङ्ग्यानि सहस्राणि रूप्यस्य वृत्तिदानं, प्रीतिदानं शतसहस्राणि-लक्षाणि अर्द्धत्रयोदशसझ्यानि ॥ किमेतेला समवसरणे एव महापुरुषाः प्रयच्छन्तीति !, नेत्याह
भत्तिविहवाणुरूवं अन्नेवि य दिति इन्भमाईआ । सोऊण जिणागमणं निउत्तमनिओइएमुं वा ॥५८२॥ ॥३०९॥
है। इभ्यो-महाधनपतिः, आदिशब्दानगरपामभोगिकादिपरिग्रहः, अन्येऽपि च इभ्यादयो ( यथा) भक्तिविभवादिक |श्रुत्वा जिनागमनं ददति, केभ्य इत्याह-नियुक्तभ्योऽनियोजितेम्यो वा ॥ अथ तेषामित्थं प्रयच्छता के गुणाः , उच्यते
देवाणुवित्ती भत्ती पूआ थिरकरण सत्तअणुकंपा। साओदयदाणगुणा पभावणा चेव तिस्थस्स ॥५८३ ॥
देवानुवृत्तिः कृता भवति, देवा अप्यनुवर्तिता भवन्ति, कथं , यतो देवा भगवतः पूजां कुर्वन्ति, प्रवृत्तिकथकेभ्यश्च दानं ददति, अतस्तेऽप्यनुवर्तिता भवन्ति, तथा भक्तिभगवतः कृता भवति पूजा च, तथा अभिनवश्रावकाणां स्थिरकरणं, तथा वा निवेदकस्य सत्त्वस्थानुकम्पा कृता भवति, तथा सातोदय-सातवेदनीयं कर्म एवमुपचीयते, एते वृत्तिप्री-hai तिदानगुणा भवन्ति, तथा प्रभावना तीर्थस्यैवं कृता भवतीति । गतं दानद्वारम् , अधुना माल्यद्वारमधिकृत्य प्रोच्यते,
तत्र भगवान् प्रथमां सम्पूर्णपौरुषी धर्ममाचष्टे, अत्रान्तरे देवमाल्यं प्रविशति, बलिरित्यर्थः, अध कस्तं वलिं करोतीत्यत आह- ९॥ पूराया व रायमचो तस्साऽसह परजाणवउ वावि । दुबलिखंडिवलिच्छडिअ तंदुलाणादयं कलमा ॥५८४ ॥
राजा च-चक्कवर्जिमाण्डलिकादिः राजामात्यो वा, अमात्यो-मन्त्री, तस्य राज्ञोमात्यस्य वा असति-अभावे नगरनि
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ५८५ - ५८६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११९...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
वासिविशिष्टलोकसमुदायः पौरं तत् करोति ग्रामादिषु जनपदो वा, अत्र जनपदशब्देन तन्निवासी लोकः परिगृह्यते । स बलिः किंविशिष्टः किंपरिमाणो वा क्रियते ? इत्याह- 'दुब्बले' त्यादि, दुर्बलिकया कंण्डितानां बलीति बलिया छटितानां तन्दुलानां कलमा इति प्राकृतशैल्या कलमानां आढकं चतुःप्रस्थप्रमाणं करोति ॥ किंविशिष्टानामित्याह-भाइयपुणाणिआणं अखंडफुडिआण फलगसरियाणं । कीरइ बली सुराविय तत्येव छुहंति गंधाई ॥ ५८५ ॥
भाजिता - ईश्वरादिगृहेषु बीननार्थमर्पिताः प्रत्यानीतास्तेभ्यः पुनरानीताः जिताश्च ते पुनरानीताश्च २ तेषां किंविशिष्टानामित्याह- अखण्डाः - सम्पूर्णावयवा अस्फुटिताः - राजीरहिताः, अखण्डाश्च ते अस्फुटिताश्चेति विशेषणसमासः, तेषां, 'फलकसरिताणं' ति फलिकवीनितानां एवंभूतानामाढकः क्रियते, बलिः सिद्धः, सुरा अपि च तत्रैव-बली प्रक्षिपन्ति गन्धादीन् ॥ गतं देवमाल्यद्वारम् अधुना माल्यानयनद्वारमभिधीयते - तमित्थं निष्पन्नं बलि राजादयस्त्रिदशसहिता गृहीत्वा तूर्यनिनादेन दिग्मण्डलमापूरयन्तः खत्वागच्छन्ति, पूर्वद्वारेण च प्रवेशयन्ति, अत्रान्तरे भगवानपि धर्म्मकथामुपसंहरतीत्याह
बलिपविणसमकालं पुचद्दारेण ठाइ परिकहणा । तिगुणं पुरओ पाडण तस्सद्धं अवडियं देवा ॥ ५८६ ॥
पूर्वद्वारेणेति व्यवहित उपन्यासः, पूर्वद्वारेण बलेरम्यन्तरप्राकाराम्यन्तरे प्रवेशनं बलिप्रवेशनं तत्समकालं तिष्ठते-उपरमते धर्म्मकथना धर्मकथा, किमुक्तं भवति १-अम्यन्तरप्राकाराभ्यन्तरे यदा बलिः प्रविशति तदा भगवान् धर्म्मकथा
... समवसरण मध्ये 'बलिं' विधि उपदर्शयते
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [५८७-५८८], विभा गाथा -1, भाष्यं [११९...], मूलं |-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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मावश्यमुपसंहृत्य तूष्णीकोऽवतिष्ठते, ततः स राजादिवलिव्यप्रहस्तो देवपरिवृतो भगवन्तं तीर्थकरं त्रिकृत्वा प्रदक्षिणीकृत्य हलिविधिः श्रीमलय- तं बलिं तत्पादान्तिके पुरतः पातयति, तस्यार्द्धमपतितं देवा गृहन्ति ।।
का अर्द्ध अहिवइणो अवसेसं होइ पागयजणस्स । सन्बामयप्पसमणी कुप्पइ नऽनो य छम्मासे ॥५८७॥
हा शेषस्या स्वार्द्धमा तदधिपतेर्भवति, राज्ञ इत्यर्थः, अवशेष यद्दलेरास्ते तद्भवति कस्य ?-प्रकृतिषु भवः प्राकृतः ॥३१॥ स चासौ जनस्तस्य । स चैवंरूपसामर्थ्य-ययेकमपि सिक्थं तत्सम्बन्धि यस्य शिरसि प्रक्षिप्यते तस्य पूर्वोत्पन्नो व्याधिः
खलूपशमं याति, अपूर्वश्च पण्मासान् यावन्न भवति, तथा चाह-सर्वामयप्रशमनः, सूत्रे स्त्रीलिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात् ,
कुप्यति नाम्यश्च षण्मासान् यावत् ॥ इत्थं बलौ प्रक्षिसे भगवान् प्रथमप्राकारादुत्तरद्वारेण निर्गत्य द्वितीये प्राकारान्तरे है पूर्वस्यां दिशि देवच्छन्दके यथासुखं समाधिना व्यवतिष्ठते । सम्प्रति 'उवरि तित्थ मिति द्वारममिधीयते भगवत्युत्थिते शाद्वितीयस्यां पौरुष्यामाधगणधरोऽन्यो वा गणधरो धर्ममाचष्टे, स्यान्मतिः-किं कारणं द्वितीयस्यामपि पौरुष्यां तीर्थकर, एव धम्मै न कथयति , तत आहखेयविणोओ सीसगुणदीवणा पश्चओ उभयतोऽवि।सीसायरियकमोऽवि अगणहरकहणे गुणा हुँति ।। ५८८॥ - खेदविनोद-परिश्रमविनाशो भगवतोभवति, तथा शिष्यगुणदीपना-शिष्यगुणप्रख्यापना व कृता भवति, तथा प्रत्यय ॥३१॥ उभयतोऽपि श्रोतणामुपजायते, यथा भगवताऽभ्यधायि तथा गणधरेणापि, यदिवा गणघरे तदनन्तरं तदुक्कानुवादिनि प्रत्ययः प्रोवणां भवति, यथा. नान्यधावाधयमिति, तथा शिष्याचार्यक्रमोऽपि दर्शितो भवति, आचार्या-1
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ५८९ ५९० ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११९...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
दुपश्रुत्य योग्यशिष्येण तदर्थान्वाख्यानं कर्त्तव्यमिति, एते गणधरकथने गुणा भवन्ति ॥ आह-स गणधरः क निषण्णः कथयति । उच्यते-
ओवणीयसीहासणोवविट्ठो य पायपीढे वा । जिट्ठो अन्नयरो वा गणहारि कहेइ बीयाए । ५८९ ॥
राज्ञा उपनीतं राजोपनीतं तच्च तत् सिंहासनं २ तत्र वा उपविष्टः, तदभावे तीर्थकरपादपीठे वा उपविष्टो ज्येष्ठोऽन्यतरो वा गणं-साध्वादिसमुदायलक्षणं धारयितुं शीलमस्येति गणधारी कथयति, द्वितीयायां पौरुष्याम् ॥ आह-स कथयन् कथं कथयति १, उच्यतेसंखाईएवि भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छिया । न उ (य)णं अणाइसेसी बियाणई एस छउमत्थो ॥ ५९० ॥ सङ्ख्यातीतान्, असङ्ख्येयानपीत्यर्थः भवान् 'साहेइ' इति देशीवचनमेतत् कथयति किमुक्तं भवति १-असत्ये येषु भवेषु यद्भवत् भविष्यति, यद्वा वस्तुजातं परः पृच्छेत् तत्सर्वं कथयति, अनेनाशेषाभिलाप्यपदार्थप्रतिपादनशक्तिरावेदिता, किं बहुना ?, 'न च' नैव णमिति वाक्यालङ्कारे अनतिशेषी-अनतिशायी, अवध्याद्यतिशयरहित इत्यर्थः, विजानाति यथा एपः- गणधरश्छद्मस्थ इति, अशेषप्रश्नोत्तरप्रदानसमर्थत्वात् तस्य, एवं तावत् समवसरणवकव्यता सामान्येनोक्ता, सम्प्रति प्रकृतमभिधीयते, तत्र भगवतः समवसरणे निष्पन्ने सति अत्रान्तरे देवकृतजयजयशब्दसम्मिश्र दिव्यदुन्दुभिशब्दाकर्णनोत्फुलन बनगगनावलोकनोपलब्धस्वर्गवधूसमेतसुरवृन्दानां यज्ञपाटकसमभ्यागतजनानां परितोषोऽभवत् अहो स्विष्टं यद्विग्रहवन्तः खल्बागता देवा इति, तथा चाह
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१९१-५९५], विभा गाथा -1, भाष्यं [११९...], मूलं |-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
गणधरदेशना ११ गणधरा
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आवश्यके Kा तं दिव देवघोसं सोऊणं माहणा तहिं तुट्ठा । अहो ! जन्निएण जटुं देवा किर आगया इहयं ॥ ५९१॥ . श्रीमलय
तं दिव्यं देवघोपं श्रुत्वा मनुष्यास्तत्र यज्ञपाटके तुष्टाः, अहो विस्मये, यज्ञेन थाजयति लोकानिति याज्ञिक तेन इष्ट वसरणे यतो देवाः किल आगता अत्रेति, किलशब्दः संशय एव, तेषामन्यत्र गमनात्, तत्र यज्ञपाटके वेदार्थविद एकादशापि
गणधराः ऋत्विजः समन्यागताः ॥ तथा चाह
इक्कारसवि गणहरा सवे उन्नयविसालकुलवंसा। पावाइ मज्झिमाए समोसदा जन्नवाइम्मि ॥१९॥ एकादशापि गणधराः समवसृता यज्ञपाटे इति योगः, किम्भूता इत्याह-सर्वे-निरवशेषाः उन्नताः प्रधानजातित्वात्। विशालाः पितामहपितृपितृव्याद्यनेकजनसमाकुलाः कुलान्येव वंशा-अन्वया येषां ते तथाविधाः, पापायां मध्यमायां प्रासमवस्ता-एकीभूता यज्ञपाटे ।। आह-किमाद्याः किनामानो वा ते गणधरा इति ?, उच्यते
पदमित्य इंदभूई थीए पुण होइ अग्गिभूइत्ति । तइए अवाउभूई तओ विअत्ते सुहम्मे अ॥ ५९३ ॥ __ मंडिअ मोरिअपुत्ते अकम्पिए चेव अयलभाया य । मेअजे अ पभासे गणधरा हुंति वीरस्स ॥५९४ ॥
प्रथमोऽत्र गणधरमध्ये इन्द्रभूतिः द्वितीयः पुनर्भवति अग्निभूतिस्तृतीयो वायुभूतिश्चतुर्थों व्यक्का, पञ्चमः सुधर्मस्वामी, षष्ठो मण्डिकपुत्रः सक्षमो मौर्यपुत्रः, पुत्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, अष्टमोऽकम्पिक: नवमोऽचलभ्राता दशमो | || मेताः एकादशः प्रभासा, एते गणधरा भवन्ति वीरस्य ॥
जंकारण निक्खमणं बुच्छ एएर्सि आणुपुबीए । तित्थं च मुहम्माओ निरवचा गणहरा सेसा ॥ ५९५॥
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... अथ भगवन् महावीरस्य ११ गणधरानाम् शड्का-समाधान-आदि वृतांतानि वर्णयन्ते
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१९६], वि भा गाथा [-], भाष्यं [११९...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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यत्कारण-यन्निमित्तं निष्क्रमणं यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् तत् एतेषां गणधराणामानुपूा-परिपाव्या वक्ष्ये, तथा जातीर्थ सुधर्मात्-पश्चमात् गणधरात् जातं, यतो निरपत्या:-शिष्यरहिताः शेषाः-इन्द्रभूत्यादयो गणधराः ॥ तत्र जीवादिसंशयापनोदनिमित्तं गणधरनिष्क्रमणमितिकृत्वा यो यस्य संशयस्तदुपदर्शनार्थमाह
जीवे कम्मे तज्जीव भूअ तारिसय पन्ध मुक्खे य । देवा नेरच्या वा पुन्ने परलोअ निवाणे ॥५९६ ॥ | आद्यस्य गणभृतो जीवे संशयः, किमस्ति नास्तीति, द्वितीयस्य कर्मणि, यथा ज्ञानावरणीयादिलक्षणं कर्म किमस्ति हाकिंवा नास्तीति, तृतीयस्य तज्जीवे ति किं तदेव शरीरं स एव जीवः किंवाऽन्य इति, न पुनर्जीवसत्तायां तस्य ||
संशयः, चतुर्थस्य भूतेषु संशयः, किं पृथिव्यादीनि भूतानि सन्ति किं वा नेति !, पञ्चमस्य 'तारिसय'ति किं यो यादृश इह भवे सोऽन्यस्मिन्नपि भवे तादृश एवं उतान्यधापीति संशयः, षष्ठस्य बन्धश्च मोक्षश्च बन्धमोक्षं तस्मिन् संशयो
यथा बन्धमोक्षौ स्तः किं वा नेति, आह-कर्मसंशयादस्य को विशेषः, उच्यते, स कर्मसत्तागोचरः, अयं तु तद*स्तित्वे सत्यपि जीवकर्मसंयोगविभागगोचर इति, सप्तमस्य किं देवाः सन्ति किं या न सन्तीतिसंशयः, अष्टमस्य
नारकाः संशयगोचरः, किं ते सन्ति किं वा न सन्तीति, नवनस्य पुण्ये संशयः, कर्मणि सत्यपि किं पुण्यमेव प्रकर्षप्राप्त प्रकृष्टसुखहेतुः तदेव चापचीयमानमत्यन्तस्वल्पावस्थं दुःखस्य, उत तदतिरिक्तं पापमस्ति, आहोस्विदेकमेवोभयरूपमुत स्वतन्त्रमुभयमिति, दशमस्य परलोके संशयः, सत्याप्यात्मनि परलोको-भवान्तरलक्षणः किमस्ति किं वा नास्तीति, एकादशस्य निर्वाणे संशयः, निर्वाणं किमस्ति किंवा नेति, आह-बन्धमोक्षसंशयादस्य को विशेषः १, उच्यते-सगुभयगो
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१९७-५९८], विभा गाथा -1, भाष्यं [११९...], मूलं |-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
आवश्यकेचरः, अयं तु केवलविभागविषय एव, तथा कि संसाराभावमात्र एवं मोक्षः किं वाऽज्य इत्यादि । साम्प्रतं गणघरपरि- शंकाविकश्रीमलय- वारमानप्रदर्शनार्थमाह
यः परिवासमवसरणे पंचहं पंच सपा अधुट्टसया य हुंति दुण्ह गणा। दुहं तु जुअलयाणं तिसओ तिसओ हवह गच्छो ॥५९७॥131 रमानं
। पञ्चानामाद्यानां गणधराणां प्रत्येकं परिवारः पञ्च शतानि, तथा अर्द्ध चतुर्थस्य येषु तानि अर्द्धचतुर्थानि अर्द्धचतु-टू ॥३१२॥ नि शतानि मानं ययोस्तौ अर्द्धचतुर्थशतौ भवतो द्वयोः प्रत्येकं गणौ, इह गणः समुदाय एवोच्यते, न पुनरागमिका,
तथा द्वयोर्गणधरयुगलकयोः प्रत्येकं त्रिशतस्त्रिशतो गच्छः, किमुक्तं भवति !-उपरिस्थितानां चतुर्णा गणभृतां प्रत्येक प्रत्येकं त्रिशतमानः परिवारः। उक्तमानुषङ्गिक, प्रकृतमुच्यते-ते हि देवास्तं यज्ञपाट परिहत्य समवसरणभुवि निपतितवन्तः, तांश्च तथा दृष्ट्वा लोकोऽपि तत्रैव जगाम, भगवन्तं त्रिदशलोकेन पूज्यमानं दृष्ट्वा अतीव हर्ष चके, प्रवादश्च सञ्जातः-सर्वज्ञोऽत्र समवस्तस्तं देवाः पूजयन्तीति, अत्रान्तरे खल्वाकर्णितसर्वज्ञप्रवादोऽमर्याध्मात इन्द्रभूतिभगवन्तं । प्रति प्रस्थितः, तथा चाह
सोऊण कीरमाणि महिमं देवेहिं जिणवरिंदस्स । अह एइ अहंमाणी अमरिसिओ इंदमूहत्ति ॥ १९८॥ - श्रुत्वा-जनपरम्परात आकर्ण्य, पाठान्तरतो दृष्ट्वा वा, महिमां-पूजां देवैः क्रियमाणां जिनवरेन्द्रस्य भगवतो वी-18 मानस्वामिना, अयास्मिन् प्रस्ताव पति-आगच्छति भगवत्समीपम् , अहमेव विद्वानिति मानोऽस्वेति अईमानी अमपितोऽमों-मत्सरविशेषः स सातोऽस्य सोऽमर्षिता, मयि सति कोऽन्यः सर्वज्ञ इत्यपनयाम्यच सर्वज्ञवादमित्यादि
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [५९७-५९८], वि०भा०गाथा - भाष्यं [१२०-१२३], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सापकल्लुपितान्तरात्मा, कोऽसावित्याह-इन्द्रभूतिरिति नामा प्रषितः, स भगवत्समीपं प्राप्य भगवन्तं च चतु-1 खिंचदतिशयसमन्वितं देवासुरनरेश्वरपरिवृतं दृष्ट्वा साशकस्तदनतस्तस्थौ ॥ एतदेव सविस्तर माध्यकार जाह६ मुत्तूण ममं लोगो, किं बच्चद एस तस्स पामूले ।। अन्नोऽवि जाणइमए ठिअम्मि कत्तुधियं एवं ॥१२॥
मां सकलशास्त्रपारगं मुक्त्वा किमेप लोकस्तस्य पादमूलं मजतिन चासौ मदपेक्षया किमपि जानाति, तथाहिमयि प्रतिवादिनि स्थितेऽन्योऽपि किमपि जानातीति कौतस्त्यमेतत्, न चैतत्सम्भवतीति भावः॥ पुनरप्याह
वचिज व मुक्खजणो देवा कहऽणेण विम्हयं नीया । वंदति संथुणंति अजेणं सबसुबुद्धीए ॥११॥ ती ब्रजेद्वा तत्पादमूल मूर्खजनो, मूर्खतया युक्तायुक्तविवेकविकलत्वात् , देवास्तु कथमनेन विस्मयं नीताः, येन विस्मयनयनेन सर्वज्ञबुझा तं वन्दन्ते संस्तुवन्ति च।
अहवा जारिसओ चिय सो नाणी तारिसा मुरा तेऽवि । अणुसरिसो संजोगो गामनडाणं व मुक्वाणं ॥१२॥ 8] अथवा यादृश एष स ज्ञानी तेऽपि सुरास्तादृशा एव, मूर्खा इत्यर्थः, ततोऽनुमदर्श-अनुरूपः संयोगस्तस्य ज्ञानिनः
एतेषां च देवानां, कयोरिवेत्याह-ग्रामनटयोरिव मूर्खयोः, यथा ग्रामो मूखों नटोऽपि च तथाविधविद्याविकलत्वात् , मूर्ख इति परस्सर तयोः संयोगोऽनुरूपः, एवमेषोऽपीति ।।
कायप्पपावं पुरतो देवाण दाणकामं । नासेहं नीसेसं खणेण सचमुवायं से ॥ १२३ ॥
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [५९९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१२४-१२५], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
आवश्य देवान दानवानां च पुरतः-अग्रे तथाविधप्रश्नजारोह मतापं कृत्वा क्षणेन-क्षणमात्रेण 'से' तस्य सर्वज्ञवादं निःश्रेषमा गौतभा श्रीमलय- नाशयानि।। समवसरण
उनूर्ण पत्तो दट्टतेलुकपरिबुद्ध वीरं । चउतीसाइसयनिहिं स संकिओ चिडिओ पुरओ॥१२४ ॥ इति-पत्रोक्तमुक्त्वा माछो भगवत्समीपं, हवा च भगवन्तं वीरं त्रैलोक्यपरिवृतं चतुर्विंशदतिशयनिधि स शङ्कितः पुरतोऽवस्थितः । अत्रान्तरे
आभट्टो य जिणेणं जाइ-जरा-सरणविप्पनुकेणं । नामेण य गुत्तेण य सबनू सचदरिसिणा ॥ ५९९ ॥ म आभापितः-संलप्तो जिनेन-भगवता महावीरेण जाति:-प्रसूतिर्जरा-बयोहानिलक्षणा मरणं-दशविधप्राणविप्रयोग
रूपं एभिर्विममुक्तस्तेन, कथमाभापित इत्याह-नाना-हे इन्द्रभूते! इत्येवंरूपेण तथा गोत्रेण च-यथा हे गौतमगोत्र किंविशिष्टेन जिनेनेत्याह-सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना ॥ आह-यो जरामरणविनमुक्तः स सर्वज्ञ एवेति गतार्थमिदं विशेषणं, न. नयवादपरिकल्पितजात्वादिचिप्रमुक्तमुक्तनिरासार्थत्वात्, तथाहि-कैश्चिद् गुणविप्रमुक्तमोक्षवादिभिरचेतनामुक्का इष्यन्तेs-i
तस्तन्निरासार्धमूचे सर्वज्ञेन सर्वदर्शिनेति । इत्थं नामगोत्राभ्यां संलप्तस्य तस्य चिन्ता अभवत्-तथा चाहरहे। इंदभूइ ! गोअम! सागयमुत्ते जिणेण चिंतेइ । नामपि मे विआणह, अहवा को मं न याणेद ॥१२५॥ १३॥
हे इन्द्रभूते ! गौतम ! स्वागतमिति जिनेनोके स चिन्तयति-अहो नामापि मे विजानाति, अथवा सर्वत्र प्रसिद्धोऽहं को मां न जानाति ॥
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... अथ प्रथम-गणधरस्य वृतांतं आरभ्यते
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [६००], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [१२६], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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जह वा हिअयगयं मे संसय मन्निज्ज अहव छिदिजा । ता हुज विम्हओ मे इय चिंतंतो पुणो भणिभो॥१२६॥ | यदि मे हद्गत संशयं मन्येत-जानीयात्, अथवा छिन्द्यात्-अपनयेत्, ततो मे विस्मयो भवेत्-भविष्यति इति चिन्तयन् पुनरपि भगवता भणितः ॥ किं भणित इत्याहकिं मन्नि अस्थि जीवो उयाहु नस्थित्ति संसयो तुज्झ । वेय पयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्यो॥३०॥ | हे गौतम ! किं मन्यसे-अस्ति जीवः उत नास्तीति, नन्वयमनुचित एव तव संशयः, यतोऽयं संदायस्ते विरुद्धवेदपद
श्रुतिनिवन्धनः, तेषां च वेदपदानानर्थ न जानासि, यथा न जानासि तथा वक्ष्यामः, तेषामयमों-वक्ष्यमाणस्वरूपः, ४ अन्ये तु किंशब्दं परिप्रश्नाचे व्याचक्षते, तच्च न युज्यते, भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् , संशयवतः परिप्रश्नार्थः किंशब्दप्रयोगो, यथा किमित्थमन्यथा वेति, अथवा किमस्ति जीव रत नास्ति इति मन्यसे, अयं तव संशय इत्येवं व्याख्येयं, शेष तथैव, यदुक्तं संशयस्तव विरुद्धपदश्रुतिनिबन्धन इति, ताम्यमूनि वेदपदानि-विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ती'त्यादि, तथा 'स वै अयमारमा ज्ञानमय' इत्यादीनि च, एतेषां च वेदपदानामयमों भवच्चेतसि विपरिवर्तते-विज्ञानमेव-चैतन्यमेव घनो-नीलादिरूपत्वात् विज्ञानघनः स एव एतेभ्यःअध्यक्षतः परिच्छिद्यमानस्वरूपेभ्यः पृथिव्यादिलक्षणेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय-उत्पद्य पुनस्तान्येवानु विनश्यति-तान्येव भूतानि अनुसृत्य विनश्यति, तत्रैवाव्यक्तरूपतया संलीनं भवतीति भावः, न प्रेत्य संज्ञास्ति-मृत्वा पुनर्जन्म प्रेत्येत्युच्यते न तत्संज्ञास्ति, न परलोकसंज्ञास्तीति भावः, ततः कुतो जीवः ।, युक्त्युपपन्नश्चायमर्थ इति ते मतिः, यतो
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आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
॥३१४॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १२६], मूलं [- /गाथा -] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
नासौ प्रत्यक्षेण परिगृह्यते, अतीन्द्रियत्वात् नाप्यनुमानेन, यतस्त लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धपूर्वकं न चात्र लिङ्गस्य लिङ्गिना सह सम्बन्धः प्रत्यक्षगम्यो, लिङ्गिनोऽतीन्द्रियत्वात्, नाप्यनुमानगम्योऽनवस्थाप्रस केः, तदपि हि लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणपूर्वकं तत्रापि चेयमेव वार्चा इत्यनवस्थानुपङ्गः । नाप्यागमगम्यः, परस्परविरुद्धार्थतया तेषामागमानां प्रमाणत्वाभावात्, | तथाहि — केचिदेवमाहुः - एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, वद्वदन्त्यवहुश्रुताः ॥ १ ॥ इत्यादि, अपरे प्राहुः "न रूपं भिक्षवः पुद्गला" इत्यादि, पुद्गले रूपं निषेधयन्ति, अमूर्त आत्मेत्यर्थः, अन्ये पुनरेवं 'अकर्त्ता निर्गुणो भोक्का' इत्यादि, अपरे एवं - "स वै अयमात्मा ज्ञानमय' इत्यादि, नचैते सर्व एव प्रमाणं, परस्परविरोधेन, एकार्थाभिधायिपरस्परविरुद्धवाक्य पुरुषव्रातवत्, अतो न विद्मः किमस्ति नास्तीत्ययं तवाभिप्रायः, तत्र वेदपदानां चार्थे न जानासि चशब्दात् युद्धिं हृदयं च, तथाहि वेदपदानामयमर्थः -- विज्ञानघन एवेति ज्ञानोपयो गदर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽनन्यत्वात् आत्मा विज्ञानघन', प्रतिप्रदेशभनन्तविज्ञानपर्यायसङ्घातात्मकत्वाद्वा विज्ञानघनः, एवशब्दोऽवधारणे विज्ञानघनादनन्यत्वात् विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः - छित्युदकादिभ्यः समुत्थाय ---- कयश्चिदुत्पद्येति, घटविज्ञानपरिणतो हि आत्मा घटावू भवति, तद्विज्ञानक्षयोपशमस्य तत्सापेक्षत्वाद्, अन्यथा निरालम्बमदवा तस्य मिथ्यात्वप्रसके, एवं सर्वत्र भावनीयं तत उक्तं तेभ्यः समुत्थाय कथञ्चिदुत्पद्येति, पुनस्तान्येव-भूतानि 'अनु विनश्यति' तेषु विवक्षितेषु भूतेषु व्यवहितेषु अपगतेषु वा आत्मापि तेन विज्ञानघनात्मना उपरमतेऽन्यविज्ञानात्मना उत्पद्यते, यदिवा सामान्यचैतन्यरूपतयाऽवतिष्ठते इति, न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति न प्राकनी घटादिविज्ञानसंज्ञाऽवतिष्ठते,
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जीवसि - द्धिः
॥३१४४३
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [१२६], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
| साम्प्रतविज्ञानोपयोगविनितत्वात्, अथवा एवं व्याख्या - विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानु विनश्यतीत्येतन्न, यतः प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति-परलोक संज्ञास्ति ॥ यदप्युक्तं - नासौ प्रत्यक्षेण परिगृह्यते इति तदभ्यसमीचीनम्, आत्मनः प्रत्यक्षसिद्धत्वात्, तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धत्वात्, तथाहि स्वसंविदिता एवावग्रहेहापायादयः उत्पद्यन्ते व्ययन्ते वा, ततस्तद्गुणस्य स्वसंविदितत्वात्सिद्धमात्मनः प्रत्यक्षत्वं अथ नवीथा भूतगुणश्चैतन्यं, तथा च वेदेऽप्युक्तम्, 'एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाये' त्यादि, ततः कथं ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे आत्मनः प्रत्यक्षत्वं ?, ज्ञानस्यात्मगुणत्वाभावात्, तदयुक्तं, भूतगु णत्वे सति पृथिव्याः काठिन्यस्येव सर्वत्र सर्वदा चोपलम्भप्रसङ्गात् न च सर्वत्र सर्वदा चोपलभ्यते चैतन्यं, लोष्ठादों मृतावस्थायां चानुपलम्भात्, अथ तत्रापि चैतन्यमस्ति केवलं शक्तिरूपेण ततो नोपलभ्यते, तदसम्यक्, विकल्पद्वयान विक्रमात्, | सा हि शक्तिश्चैतन्याद्विलक्षणा उत चैतन्यमेव ?, यदि विलक्षणा ततः कथमुच्यते शक्तिरूपेण चैतन्यमस्ति, नहि पटे विद्यमाने पटरूपेण घटस्तिष्ठतीति वक्तुं शत्र्यं, तथा चाहान्योऽपि - “रूपान्तरेण यदि ततदेवास्तीति मा रटीः । चैतन्यादन्यरूपस्य भावे तद्विद्यते कथम् १ ॥ १ | अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि चैतन्यमेव सा कथमनुपलम्भः १, आवृतत्वादनुपलम्भ इति चेत्, नन्वावृतिरावरणं, तचावरणं किं भूतानां विवक्षितपरिणामाभाव उत परिणामान्तरं आहोस्विदन्यदेव भूतातिरिक्तं किञ्चित् ?, तत्र न तावद्विवक्षित परिणामाभात्रः, एकान्ततुच्छरूपतया तस्यावारकत्वायोगात्, अन्यथा तस्याप्यतुच्छ रूपतया भावरूपतापत्तिः, भावत्वे च पृथिव्यादीनामन्यतमो भावो भवेत् 'पृधिव्यादीन्येव भूतानि तत्व' मिति वचनात् पृथिव्यादीनि च भूतानि चैतन्यस्य व्यञ्जकानि नावारकाणीति कथमावारकत्वं तत्वोपपत्तिमत् ?, अथ परि
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [६००], विभा गाथा [-], भाष्यं [१२६], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यके शाणामान्तरं तदयुक्त, परिणामान्तरस्यापि भूतस्वभावतया भूतवत् व्यञ्जकत्वस्योपपत्ते वारकत्वस्य, अथान्यदेव भूताति-I5जीवसिश्रीमलय-1 | रिक्तं किञ्चित् तदतीवासमीचीन, भूतातिरिक्ताभ्युपगमे 'चत्वार्येव पृथिव्यादीनि भूतानि तत्च'मिति तत्त्वसङ्ख्याव्याघात-1 समवसरणेशप्रसङ्गात् , अपि च-इदं चैतन्यं प्रत्येकं वा भूतानां धर्मः समुदायस्य वा?, न तावत्प्रत्येकमनुपलम्भात्, नहि प्रतिपरमाणु
संवेदनमुपलभ्यते, अपि च यदि प्रतिपरमाणु संवेदनं भवेत्तर्हि पुरुषसहनचैतन्यवृन्दमिव परस्परं भिन्नस्वभावमिति नैकरूपं 5 ॥३१५॥ | भवेत् , अथ चैकरूपमुपलभ्यते, अहं पश्यामि अहं करोमीत्येवं सकलशरीराधिष्ठानादेकरूपतयाऽनुभवात्, अथ समुद्र
दायस्य धर्मस्तदप्यसत् , प्रत्येकमभावात् , नहि प्रत्येकं यदसचत्समुदाये भवति, यथा रेणुषु तैलं, स्यादेतद्-यवत् मद्यानेषु प्रत्यकं मदशकिरदृष्टापि सगुदायऽपि भवन्ती दृश्यते तद्वचैतन्यमपि भविष्यति को दोषः, तदसम्यक्, प्रत्ये कमपि मद्यानेषु मदशक्त्यनुयायिमाधुर्यादिगुणदर्शनात् , तथाहि-दृश्यते माधुर्यमिक्षुरसे धातकीपुष्पेषु च मनाक् विकलतोत्पादकत्वादि, न चैवं चैतन्यं सामान्यतोऽपि भूतेषु प्रत्येकमुपलभ्यते, ततः कथं समुदाये तद्भवितुमर्हति , मा प्रापत्सर्वत्र
सर्वस्य भावप्रसक्त्याऽतिप्रसङ्गः, किच-यदि चैतन्यं भूतधर्मत्वेन प्रतिपक्ष ततोऽवश्यमस्यानुरूपो धर्मी प्रतिपत्तव्या, आनु. * रूप्याभावे जतुकाठिन्ययोरिव परस्परं धर्मधमिभावानुपपत्ते, न च चैतन्यं भूतानुरूपो धर्मी, बैलक्षण्यात्, तथाहि
चैतन्य बोधस्वरूपममूर्त च, भूतानि च तद्विलक्षणानि, ततः कथं परस्परमेषां धर्मधर्मिभावसंभवः १, न च चैतन्यमिदं दभूतानां कार्य, अत्यन्तविलक्षणतया कार्यकारणभावस्याप्ययोगात् , तथा चोक्तम्-"काठिन्याबोधरूपाणि, भूताम्यध्यक्ष-18
| सिद्धितःचेतना च न तद्रूपा, सा कथं तत्फलं भवेत् ॥१॥" अपि च यदि भूतकार्य चैतन्यं तर्हि किं न सकलमपि जगत्
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आगम (४०)
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अनुक्रम
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १२६], मूलं [- /गाथा ] नदीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
प्राणिमयं भवति, परिणतिविशेषसद्भावाभावादिति चेत्, ननु सोऽपि परिणतिविशेषसद्भावः सर्वत्रापि कस्मान्न भवति १ सोऽपि हि भूतमात्रनिमित्तक एव, ततः कथं तस्यापि कचित्कदाचिद्भावः १, अन्यच स किंरूपः परिणतिविशेष इति वाच्यम् १, कठिनत्वादिरूप इति चेत्, तथाहि — काष्ठादिषु दृश्यन्ते घुणादिजन्तवो जायमानास्ततो यत्र कठिनत्वा| दिविशेषस्तत्प्राणिमयं न शेषमिति, सदस्यसत्, व्यभिचारदर्शनात्, तथाहि - अविशिष्टेऽपि कठिनत्वादिविशेषे कचिबति, कचित्कठिनत्वादिविशेषमन्तरेणापि संस्वेदजा नभसि च संमूच्छिमा जायन्ते किञ्च समानयोनिका अपि विचित्रवर्णसंस्थानाः प्राणिनो दृश्यन्ते, तथा गोमयाद्येकयोनिसम्भविनोऽपि केचिन्नीलतनवोऽपरे पीतकाया अन्ये | विचित्रवर्णाः, संस्थानमप्येतेषां परस्परं विभिन्नं, तद्यदि भूतमात्रनिमित्तं चैतन्यं तत एकयोनिकाः सर्वेऽप्येकवर्णसंस्थाना भवेयुर्न च भवन्ति, तस्मादात्मान एव तत्तत्कर्मवशात् तथा तथोत्पद्यन्ते इति ॥ स्यादेतत्-आगच्छन् गच्छत् वा आत्मा नोपलभ्यते, केवलं देहे सति संवेदनगुपलभामहे, देहाभावे च भस्मावस्थायां न, तस्मान्नात्मा, किन्तु संवेदनमात्रमेवैकं, तथ्य देहकार्य देह एव च समाश्रितं, कुड्ये विश्ववत्, नहि चित्रं कुद्ध्यविरहितमवतिष्ठते, नापि कुड्यान्तरं सङ्कामति, आगतं वा कुख्यान्तरात्, किंतु कुड्य एवोत्पन्नं कुरुप एव च विलीयते, एवं संवेदनमपि तदप्यसत्, आत्मा हि स्वरूपेणामूर्त्तः, आन्तरमपि शरीरमतिसूक्ष्मत्वान्न चक्षुर्विषयः, तदुक्तमन्यैरपि - " अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन् वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥ १ ॥” तत आन्तरशरीरयुक्तोऽप्यात्मा आगच्छन् | गच्छन् वा नोपलभ्यते, लिङ्गतस्तूपलभ्यते, तथाहि-- कृमेरपि जन्तोस्तत्कालोत्पन्नस्याप्यस्ति निजशरीरविषयः प्रति
For Pivate & Personal Use Only
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६००], वि०भा०गाथा [-, भाष्यं [१२६], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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समवसरणे*
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मावश्यक |बन्धा, उपघातकमुपलभ्य पलायनदर्शनात् , वच बद्विषयः प्रतिवन्या स तद्विषयपरिशीलनाम्यासपूर्वकः, तथा दर्शनात, श्रीमलय- न खलत्यन्तापरिज्ञातगुणदोषवस्तुविषये कस्याप्याग्रह उपजायते, ततो जन्मादौ शरीराग्रहः शरीरपरिशीलनाम्यासज
नितसंस्कारनिवन्धन इति सिद्धमात्मनो जन्मान्तरादागमनं, तथा च केचित् पठन्ति-"शरीरामहरूपस्य, चेतसः
सम्भवो यदा । जन्मादौ देहिनो दृष्टः, किं न जन्मान्तरागतिः। ॥१॥" अथागतिः प्रत्यक्षतो नोपलम्यते ततः कव॥३१६॥ मनुमानादवसीयते, नैप दोषः, अनुमेयविषये प्रत्यक्षवृत्तेरनभ्युपगमात्, परस्परविषयपरिहारेण हि प्रत्यक्षानुमानयोः
प्रवृत्तिरिष्यते, ततः कथं स एष दोषः, भाह च-"अनुमेयेऽस्ति नाध्यक्षमिति कैवात्र दुष्टता। अध्यक्षस्यानुमानख, 18 विषयो विषयो नहि ॥१॥" भय तज्जातीयेऽपि प्रत्यक्षवृत्तिमन्तरेण कथमनुमानमुदयितुमुत्सहते !, न खलु पखाग्नि-टू
विषया प्रत्यक्षवृत्तिर्महानसेऽपि नासीत् तस्मान्यत्र विविधरादौ भूमात् भूमध्वजानुमानं भवति, तदप्यसम्यकू, अत्रापि ज्जातीये प्रत्यक्षवृत्तिभावात् , तथाहि-आग्रहोऽम्बत्र परिशीलनाभ्यासप्रवृत्तः प्रत्यक्षत एवोपलन्धस्ततस्तदुपष्टम्मेने-161 हाप्यनुमानं प्रवर्तते, पकं प-मामहस्तावदभ्यासात्, प्रवृत्त उपलभ्यते । अन्यत्राध्यक्षतः साक्षात्ततो देहेऽनुमान किम्।। ॥१॥" योऽपि चित्रदृष्टान्तः प्रागुपन्यस्तः सोऽप्ययुको, बैषम्यात्, तथाहि-चित्रमचेतन गमनस्वभावरहितं च,
आरमा च चेतनः कर्मवशात् गत्यागती च कुरुते, ततः कथं दृष्टान्तदान्तिकयोः साम्यम् , ततो यथा कश्चिदे-15 विदचो विवक्षिते प्रामे कतिपयदिनानि गृहारम्भं कृत्वा प्रामान्तरे गृहान्तरमास्थामावतिष्ठते, तद्धदात्माऽपि विवक्षिते भषे देह परिहाय भवान्तरे देहान्तरमारचण्यावतिष्ठते। बचोकम्-'तच संवेदनं देहकार्य मिति, सम, चाभुषादिक संवे
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [१२६], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-वृ
दनं देहाश्रितमपि कथचिद्भवतु, चक्षुरादीन्द्रियद्वारेण तस्योत्पत्तिसम्भवात् वसु मानसं तत्कथं 1, नहि तद्देहकार्य - मुपपत्तिमत्, युक्त्ययोगात्, तथाहि-- तन्मानसं ज्ञानं देहादुत्पद्यमानमिन्द्रियरूपाद्वा समुत्पद्येत अनिन्द्रियरूपाडा केशनखादिलक्षणात् ?, तत्र न तावदाद्यः पक्षः, इन्द्रियरूपात् तदुत्पत्ताविन्द्रियबुद्धिवद् वर्तमानार्थग्रहणप्रसक्तेः, इन्द्रियं हि | वार्त्तमानिक एवार्थे व्याप्रियते, तत्सामर्थ्यादुपजायमानं मानसमपि ज्ञानं पञ्चेन्द्रियज्ञानमिव वर्चमानार्थ ग्रहणपर्यवसि तसत्ताकमेव भवेत्, अथ यदा चक्षू रूपविषये व्याप्रियते तदा रूपे विज्ञानमुत्पादयति न शेषकालं ततस्तद्रूपविज्ञानं वर्त्तमानार्थविषयं वर्त्तमान एवार्थे चक्षुषो व्यापारात्, रूपविष व व्यावृत्यभावे च मनोज्ञानं, ततो न तत्प्रतिनियतकालविषयं एवं शेषेष्वपि इन्द्रियेषु वाच्यं ततः कथमिव मनोज्ञानस्य वर्त्तमानार्थग्रहणप्रसक्तिः १, तदसाधीयो, यत इन्द्रियाश्रितं तदुच्यते यदिन्द्रियव्यापारमनुसृत्योपजायते इन्द्रियाणां च व्यापारः प्रतिनियते एवं वार्त्तमानिके स्वस्वविषये, मनोज्ञानमपि यदीन्द्रियव्यापाराश्रितं तत ऐन्द्रियज्ञानमिव वार्त्तमानि कार्थग्राहकमेव भवेत्, अन्यथा इन्द्रियाश्रितनेत्र तन्न स्यात्, तथा च केचिलठन्ति - " अक्षव्यापारमाश्रित्य भवदक्ष जमिध्यते । तद्व्यापारो न सत्रेति, कथमभवं भवेत् ? ॥१॥" अथानिन्द्रियरूपादिति पक्षस्तदप्ययुक्तः, तस्याचेतनत्वात्, नम्वचेतनत्वादिति कोऽर्थः ?, यदि | इन्द्रियविज्ञानरहितत्वादिति, तदिष्यत एव, यदि नामेन्द्रियविज्ञानं ततो न भवति मनोविज्ञानं तु कस्मात् न भवति, मनोविज्ञानं नोत्पादयतीत्य चेतनत्वं तदा तदेव विचार्यमाणमिति प्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्धो हेतु:, तदध्यवत्, अचेतनत्वादिति किमुक्कं भवति १-स्वनिमित्तविज्ञानैः सुरचि पतयाऽनुपलब्धेः स्पर्शादयो हि स्वस्वनिमित्तविज्ञानः स्फुरचिनः ।
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आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [१२६], मूलं [- / गाथा-] नदीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
उपलभ्यन्ते, कथं तेम्यो मनोज्ञानं भवतीति प्रतियन्ति सुधियः, आह "चेतयन्तो न दृश्यन्ते, केशश्मश्रुनखादयः । ततस्तेभ्यो मनोज्ञानं भवतीत्यतिसाहसम् ॥ १ ॥ " अपिध - यदि केशनखादिप्रतिबद्धं मनोज्ञानं ततस्तदुच्छेदे मूलत एव न स्यात्, तदुपघाते चोपहतं भवेत्, नच भवति, तस्मान्नायं पक्षः क्षोदक्षमः । किश-मनो| ज्ञानस्य सूक्ष्मार्थमेतृत्वस्मृतिपाटवादयो विशेषा अन्वयव्यतिरेकाभ्यामभ्यासपूर्वका दृष्टाः, तथाहि —तदेव शास्त्रमीहापोहादिप्रकारेण यदि पुनः पुनः परिभाव्यते ततः सूक्ष्मतरार्थावबोध उल्लसति स्मृतिपाटवं चापूर्वमुज्जृम्भते, एवं चैकशास्त्राभ्यासतः सूक्ष्मार्थमेतृत्वशक्ती पाटवशक्ती चोपजातायामन्येष्वपि शास्त्रान्तरेषु अनायासेनैव सूक्ष्मार्थावबोधः स्मृतिपाटवं चोल्लसति, तदेवमभ्यासहेतुकाः सूक्ष्मार्थभेत्तृत्वादयो मनोज्ञानस्य विशेषा दृष्टाः, अथ च कस्यचिदिदं जन्माभ्यासव्यतिरेकेणापि दृश्यते, ततोऽवश्यं पारलोकिकाभ्यासहेतुका इति प्रतिपत्तव्यं, कारणेन सह कार्यस्यान्यथानुपपन्नत्वप्रतिबन्धतोऽदृष्ट तत्कारणस्यापि तत्कार्यत्वविनिश्चितेः, ततः सिद्धः परलोकयायी जीवः सिद्धे च तस्मिन् परलोकया| यिनि यदि कथञ्चिदुपकारी चाक्षुषादेर्विज्ञानस्य देहो भवेत् भवतु न कश्चिद्दोषः क्षयोपशमहेतुतया देहस्यापि कथशिदुपकारित्वाभ्युपगमात् न चैतावता तन्निवृत्तौ सर्वथा तन्निवृत्तिः, नहि वहेरासादितविशेषो घटो वह्निनिवृत्ती समूलोच्छेदं निवर्त्तते, केवल विशेष एव कञ्चनापि, यथा सुवर्णद्रवता, एवमिहापि देहनिवृत्ती ज्ञानविशेष एव कोऽपि तत्प्र तिबद्धो निवर्त्ततां न पुनः समूलं ज्ञानमपि, यदि पुनर्देहमात्रनिमित्तकमेव विज्ञानमिष्येत देहनिवृत्ती च निवृत्तिमत्तर्हि | देहस्य भस्मावस्थायां मा भूत्, देहे तु तथाभूते एवावतिष्ठमाने मृतावस्थायां कस्मान्न भवति १, प्राणापानयोरपि हेतु
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [१२६], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
त्वात्तदभावे न भवतीति चेत्, न, प्राणापानयोर्ज्ञानहेतुत्वायोगात्, ज्ञानादेव च तयोरपि प्रवृत्तेः तथाहि यदि मन्दी प्राणापानौ निस्रष्टुमिष्येते ततो मन्दो भवतो, दीर्घौ चेत्तर्हि दीर्घाविति, यदि पुनर्द्देहमात्रनिवृत्तौ प्राणापानौ प्राणापान| निमित्तं च विज्ञानं तर्हि नेत्यमिच्छावशात् प्राणापानप्रवर्त्तनं भवेत्, नहि देहमात्रनिमित्ता गौरता श्यामता वा इच्छावशात्प्रवर्त्तमाना दृष्टा, प्राणापाननिमित्तं च यदि वो विज्ञानं ततः प्राणापाननिर्शसातिशयसंभवे ज्ञानस्यापि निसातिशयो | स्याताम्, अवश्यं हि कारणे परिहीयमाने अभिवर्द्धमाने च कार्यस्यापि हानिरुपचयश्च भवति, यथा महति मृत्पिण्डे महान् घटोऽल्पे चाल्पीयान्, अन्यथा कारणमेव तन स्यात्, न च भवतः प्राणापाननिर्हासातिशयसंभवे विज्ञानस्यापि निसातिशयौ, विपर्ययस्यापि भावात्, मरणावस्थायां प्राणापानातिशयसम्भवेऽपि विज्ञानस्य ह्रासदर्शनात्, स्थादेतत्तदानीं वातपित्तादिभिर्दोषदेहस्य विगुणीकृतत्वात् न प्राणापानातिशयसंभवेऽपि ज्ञानस्यातिशयसम्भवोऽत एव मृतावस्थायामपि न चैतन्यं देहस्य विगुणीकृतत्वात्, तदसमीचीनतरमेव, एवं सति मृतस्यापि पुनरुज्जीवनप्रसकेः, तथाहि-मृतस्य दोषाः समीभवन्ति, समीभवनं च दोषाणामवसीयते ज्वरादिविकारादर्शनात्, समत्वं चारोग्यं, तथा चाहुवृद्धाः - " तेषां समत्वमारोग्यं, क्षयवृद्धी विपर्यय" इति, आरोग्यलाभ त्वे देहस्य पुनरुज्जीवनं भवेत्, अन्यथा देहः कारणमेव चेतसो न स्यात्, तद्विकारभावाभावाननुविधानात्, एवं हि देहकारणता विज्ञानस्य श्रद्धेया स्यात् यदि पुनरुज्जीवनं भवेत् स्यादेतद्-अयुक्तमिदं पुनरुज्जीवनप्रसङ्गापादनं, यतो यद्यपि दोषा देहस्य वैगुण्यमाधाय निवृत्तास्तथापि न तत्कृतस्य वैगुण्यस्य निवृत्तिः, नहि दहनकृतो विकारः काठे दहननिवृत्तौ निवर्त्तमानो दृष्टः, तदयुक्तम्, इह हि कचि
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १२६], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
समवसरणे
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आवश्यके दमित्रविकारारम्भकं यथा वह्निः काठे, श्यामतामात्रमपि वह्निना कृतं काडे बह्निनिवृत्ती न निवर्त्तते, किञ्चित् नित्रश्रीमलय-विकारारम्भकं यथा स एवाग्निः सुवर्णे, तथाहि--अग्निना कृता सुवर्णे द्रवता अग्निनिवृत्ती निवर्त्तते तत्र वास्त्रा दयो दोषा निवर्च्यविकारारम्भ काश्चिकित्साप्रयोगदर्शनात्, यदि पुनरनिवर्त्स्यविकारारम्भका भवेयुस्तहिं न तद्विकारनिवर्त्तनाय चिकित्सा विधीयेत, वैफल्यप्रसङ्गात्, न च वाच्यं मरणात् प्राक्तनदोषा निवर्च्यविकारारम्भका मरणकाले त्वनिवर्त्स्यविकारारम्भका इति, एकस्य एकत्रैव निवर्थ्यानिवर्त्य विकारारम्भकत्वायोगात्, नह्येकमेव तत्रैव निवर्त्स्यविकारम्भकमनिवर्त्स्यविकारारम्भकं च भवितुमर्हति तथा अदर्शनात्, ननु द्विविधो हि व्याधिः – साध्योऽसाध्यश्च तत्र | साध्यो निवर्त्यः, तमेव चाधिकृत्य चिकित्सा फलवती, असाध्योऽनिवर्त्तनीयः, न च साध्यासाध्यभेदेन व्याधिद्वैविध्यममतीतं, सकललोकप्रसिद्धत्वाद्, व्याधिश्च दोषवैषम्यकृतः, ततः कथं दोषाणां निवर्त्यनिवर्त्स्यविकारारम्भकत्वमनुपपन्नमिति, तदप्यसत्, भवन्मतेनासाध्यव्याभ्यनुपपत्तेः, तथाहि - असाध्यता व्याधेः कचिदायुःक्षयात्, तथाहि तस्मिशेष व्याधी समानेऽप्योषधवैद्यसम्पर्के कश्चिन्त्रियते कश्चिन, कचित्पुनः प्रतिकूलकर्मोदयात्, प्रतिकूलकर्मोदयजनितो हि श्वित्रादिव्याधिरौषघसहस्रैरपि कश्चिदसाध्यो भवति एतच्च द्विविधमपि व्याधेरसाध्यत्वमर्हतामेव मते सङ्गच्छते, न भवतो भूतमात्रतत्त्ववेदिनः, क्वचित्पुनरसाध्यो व्याधिर्दोष कृतविकार निवर्त्तन समर्थस्योषधस्याभावात् वैद्यस्य वा, वैद्यीपधसम्पर्काभावे हि व्याधिः प्रसर्पन् सकलमप्यायुरुपक्रमते, ननु वैद्यौषध सम्पर्काभावादेवास्माकमपि पुनरुज्जीवनं न भविव्यति, नहि तदस्ति किञ्चित् औषधं वैद्यो वा यत् पुनरुज्जीवयति, तदप्ययुक्तं, वैद्यौषधे हि दोषविकारनिवर्चनार्थ मिष्वेते,
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [६००], विभा गाथा [-], भाष्यं [१२६], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न पुनरत्यन्तासतश्चैतन्यस्योत्पादनार्थ, तथाऽनभ्युपममात्,दोषकृताश्च विकारा मृतावस्थायां स्वयमेव निवृत्ताः, ज्वरादेरदर्शनात्, ततः किं वैद्यौपधान्वेषणेनेति तदवस्थ एव पुनरुज्जीवनप्रसङ्गा, अपि च-कश्चिद्दोषाणामुपशमेऽप्यकरमान्धियते, कश्चिञ्चातिदोषदुष्टत्वेऽपि जीवति, तदेतद्वन्मते कथमुपपत्तिमर्हति !, तथा च केचिहुवते-'दोषस्योपशमेऽप्यस्ति, मरणं कस्यचित् पुनः । जीवनं दोषदुष्टत्वेऽप्येतन्न स्याद् भवन्मते ॥ १॥ अर्हतां तु शासने याबद् आयुःकर्म विजृम्भते तावद् दोषैरतिपीडितोऽपि जीवति, आयुःकर्मक्षये च दोषाणामधाकृतावपि वियते, तन्न देहमात्रकारणं संवेदनं, अन्यच्च-देहः कारणं संवेदनख सहकारिभूतं वा उपादानभूतं वा ।, यदि सहकारिभूतं तदिष्यत एव, देहस्यापि क्षयोपशमे हेतुतया | कथंचिद्विज्ञानहेतुत्वाम्युपगमात् , अथोपादानभूतं तदयुक्त, उपादानं हि तत् तस्य यद्विकारेण यस्य विकारो, यथा मृद्81 घटस्य, न च देहविकारेणैव विकारः संवेदनस्य, देहविकाराभावेऽपि भयशोकादिना तद्विकारदर्शनात्, न तद् देह उपादानं संवेदनस्य, तथा च वदन्त्युपादानलक्षणमपरे-"अविकृत्य हि यद् वस्तु, यः पदार्थों विकायते । उपादानं न तत्तस्य, युक्तं गोगवयादिवत् ॥१॥" एतेन यदुच्यते-मातापितॄचैतन्यं सुतचैतन्यस्योपादानमिति, तदपि प्रतिक्षितं, तत्रापि तद्विकारे विकारित्वं तदविकारे चाविकारित्वमिति नियमादर्शनात्, अन्यच्च-यद्यस्योपादानं तत्तस्मादभेदेन व्यवस्थितं, यथा मृदो घटा, मातापितृचैतन्यं च मुतचैतन्यस्योपादानं ततः सुतचैतन्यं मातापितॄचैतन्यादभेदेन व्यवतिष्ठते, तस्माद्
यत्किश्चिदेतत् , तन्न भूतधर्मों भूतकार्य वा चैतन्यं, किं त्वात्मनो गुण इति, तद्गुणस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात्प्रत्यक्षसिद्ध मा.स.पीआरमा, अनुमानसिद्धब, तवानुमानमिदं-रूपादीन्द्रियाणि विद्यमानप्रयोजकानि कर्मकरणत्वे सति प्राझमाहकरूप
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आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६०० ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [१२६], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
स्वात्, ये कर्म्मकरणचे सति ग्राह्यग्राहकरूपे ते विद्यमानप्रयोजके, यथा दशायःपिण्डौ, कर्मकरणरूपाणि च सन्ति | प्राह्यग्राहकरूपाणि रूपादीन्द्रियाणि ततो विद्यमानप्रयोजकानीति, न चेन्द्रियाणां स्वत उपलम्भकत्वं येन रूपादिग्रहणं प्रति तेषां कर्तृत्वमेवोपगम्येत न करणत्वं, अचेतनत्वेन स्वत उपलम्भकृत्त्वायोगात्, तथा नात्र प्रयोगः- यदचेतनं तन्नोपलब्ध यथा घटः, अचेतनानि च द्रव्येन्द्रियाणि न चायमसिद्धो हेतुः, यतः खलु द्रव्येन्द्रियाणि निर्वृत्त्युपकरणरूपाणि, निर्वृत्त्युपकरणे च पुद्गलमये, पुद्गलमयं च सर्वमचेतनं, पुद्गलानां काठिन्याबोधरूपतया चैतन्यं प्रति धर्म्मत्वायोगात्, धर्मानुरूपो हि सर्वत्रापि धर्मी, यथा काठिन्यं प्रति पृथिवी, यदि पुनरनुरूपत्वाभावेऽपि धर्म्मधम्मिभावो |भवेत् ततः काठिन्यजलयोरपि स भवेत्, न च भवति, तस्मादचेतनाः पुद्गलाः, तथा चोक्तम् - "बोहसभावममुत्तं विसयपरिच्छेयगं च चेयनं । चिवरीयसहावाणि य भूयाणि जगप्पसिद्धाणि ॥ १ ॥ ता धम्मिधम्मभावो कहमेएसिं अणन्भुवगमे य । अणुरुवत्ताभावे काठिन्नजलाण किं न भवे १ ॥ २ ॥ ( धर्मसं. ५०-५१ ) ततः स्वत उपलम्भकत्वाभावात् रूपादिग्रहणं प्रतीन्द्रियाणं करणभाव एव, न कर्त्तृभाव इति स्थितम् । अथवेदमनुमानं - सभोक्तृकमिदं शरीरं भोग्यत्वात्, स्थालस्थितादनवत्, भोग्यता च शरीरस्य जीवेन तथा निवसता भुज्यमानत्वात्, द्वयोरपि च प्रयोगयोः साध्यसाधनप्रतिबन्धः, प्रतिबन्धसिद्धिर्दृष्टान्ते प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धेति नोचलिङ्गलिङ्गिसम्बधाग्रहरूपदोषावकाशः, आगमगम्योऽप्येष जीवः, तथा चागमः - "अणिदिगुणं जीवं, दुत्नेयं मंसचक्खुणा । सिद्धा पस्संति सवन्नू, नाणसिद्धा य साहूणो ॥ १॥" | (द०म० ५ - ३४ मा . ) अन्त्र ज्ञानसिद्धाः साधवो भवस्थ केवलिनः, शेषं सुगमं, न चागमानां परस्परविरुद्धार्थतया सर्वेषामध्य
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प्रथमगण
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [६०१-६०२], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [१२६], मूल [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
प्रामाण्यमभ्युपेयं, सर्वज्ञमूलस्यावश्यं प्रमाणत्वेनाभ्युपगमार्हत्वाद्, अन्यथा सम्यक्प्रमाणाप्रमाणविभागापरिणतेः प्रेक्षाव|त्ताक्षितिप्रसङ्गात्, अथ कथमेतत्प्रत्येयं यथाऽयमागमः सर्वज्ञमूल इति १, उच्यते, यदुक्तोऽर्थः प्रत्यक्षेणानुमानेन च न वाध्यते नापि पूर्वापरव्याहतः सोऽवसीयते सर्वज्ञप्रणीतोऽन्यस्य तथारूपत्वासम्भवात्, ततस्तस्माद्यत्सिद्धं तत्सर्वं सुसिउम्, उक्तं च-दिद्वेण व इद्वेण य जंमि विरोहो न जुज्जइ कहिंचि । सो आगमो ततो जं नाणं तं सम्मनाति ॥ १ ॥ ( धर्म० ५१९ ) ततः प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणसिद्धत्वाद्वेदप्रतिष्ठितत्वाच्च सौम्य ! अस्ति जीव इति प्रतिपत्तव्यम्, इह वेदपदोम्यासस्तेन वेदानां प्रमाणत्वेनाङ्गीकृतत्वात् ॥ छिन्नम्मि संसयम्मि अ जिणेण जर मरणविप्यमुकेणं । सो समणो पवइओ पंचहिं सह खंडियसएहिं ॥ ६०१ ॥ उक्कप्रमाणेन जिनेन - भगवता वर्द्धमानस्वामिना जरामरणाभ्यामुक्तलक्षणाभ्यां विप्रमुक्त इव विप्रमुक्तः तेन छिन्नेनिराकृते संशये स इन्द्रभूतिः पञ्चभिः खण्डिकशतैः- छात्रशतैः सह श्रमणः प्रब्रजितः, प्रत्रजितः सन् साधुः संवृत्त इत्यर्थः ॥ प्रथमो गणवरः समाप्तः
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तं पच सो बीओ आगच्छई अमरिसेणं । वच्चामि णमाणेमी पराजिणित्ता ण तं समणं ॥ ६०२ ॥ - इन्द्रभूतिं प्रजितं श्रुत्वा द्वितीयः खल्वग्निभूतिरत्रान्तरे अमर्षेण प्राग्ब्यावर्णितस्वरूपेण हेतुभूतेन आगच्छति भगवत्समीपं केनाभिप्रायेणेत्याह-प्रजामि, णमिति वाक्यालङ्कारे आनयामि, निजभ्रातरमिन्द्रभूतिमिति गम्यते, पराजित्य णमिति पूर्वयत् तं श्रनणमिन्द्रजालिककल्पमिति । पुनरपि किं चिन्तयन्नसा वागत इत्याह-
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••• अथ द्वितीय- गणधरस्य वृतांतं आरभ्यते
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [६०३ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१२७-१३०] मूल [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृ
छलिओ छलाइणा सो मन्ने माइंदजालिओ वावि । को जाणइ कह वतं इत्ताहे वहमाणी से १ ॥ १२७ मा० ॥ आवश्यके श्रीमलय- 8 दुर्जयत्रिभुवनस्यापि महाता इन्द्रभूतिः, केवलमहमिदं मन्ये- छलादिना छलितोऽसौ तेन स हि छलजातिनिग्रहस्थासमवसरणेनग्रहणनिपुणः सम्भाव्यते, अथवा मायेन्द्रजालिकः कोऽपि निश्चितमसौ येन तस्यापि जगद्गुरोर्मातुर्भ्रमितं चेतः,
यदिवा को जानाति तयोः किमपि वादस्थानं कथमपि वृत्तं ?, मत्यरोक्षत्वाद्, अत ऊर्द्ध मयि तत्र गते 'से' तस्य छलादिकुशलस्य मायेन्द्रजाल कुशलस्य वा 'बट्टमाणी'ति या काचित् वार्त्ता वर्त्तनी वा भविष्यति, तां द्रक्ष्यत्ययं समग्रोऽपि लोक इति गम्यते ॥ इदं च तेन तत्रागच्छता प्रोक्तम्
सो पक्तरमेगंपि जाइ जड़ मे तओ मि तस्सेव । सीसतं हुज्ज गओ बुत्तुं पत्तो जिणसगासं ॥ १२८ भा० ॥ को जानाति तावदिन्द्रभूतिस्तेन कथमपि निर्जितः १, मम पुनरेकमपि पक्षान्तरं पक्षविशेषं स यदि याति, किमुक्तं भवति ? - मद्विहितस्य सहेतूदाहरणस्य पक्षविशेषस्य यद्युत्तरप्रदानेन कथमपि पारं गच्छति ततो मीति वाक्यालङ्कारे तस्यैव श्रमणस्य शिष्यत्वेन गतोऽहं भवेयमिति उक्त्वा प्राप्तो जिनस्य-भगवतो महावीरस्य सकाशं समीपम् ॥ ततः किमित्याहमोय जिणं जाइजरामरणविप्पमुद्देण । नामेण य गोत्तेण य सवनूसवदरिसीण । ६०३ ॥ हे अग्गिभूति गोयम ! सागयमुत्ते जिणेण चिंतेह । नामंत्रि मे बियाणइ, अहवा को मं न थाणाइ १ ॥ १२९ भा०॥ जइ वा हिययगयं मे संसय मन्त्रेज अहव छिंदिजा। तो होज विम्हओ मे इय चिंतेतो पुणो भणितो ॥१३० भा०॥ इदं गाथात्रयमपि पूर्ववदेव ॥
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गणधर :
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६०४], विभा गाथा , भाष्यं [१२७-१३०], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
किं मन्ने अत्यि कर्म ज्याहु मस्थिति संसओ तुज्यं । वेयपयाण य अत्यं न याणसी तेसिमो अत्यो ॥३०॥ ६) हे अभिभूते ! गौतम ! त्वमेतत् मन्यसे-चिन्तयसि, यदुत कर्म-ज्ञानावरणीयादि किमस्ति उत नास्तीति !, नन्वयम
नुचितसव संशयः, यतोऽयं संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनः, तेषां च वेदपदानामर्ष सम्यक् न जानासि, यथा न जानासि तथा वक्ष्यामः, तेपामयमयों वक्ष्यमाणलक्षण इति गायाक्षरार्थः। तानि च वेदपदान्यमूनि-"पुरुष एवेदं निं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति यदेजति यन्नेजति यद् दूरे यदु अन्तिके यदन्तरख सर्वस्यास्य बाह्यत" इत्यादि, तथा 'पुण्यः पुण्येने'त्यादि, तेपामवमर्थस्तव चेतसि विपरिवर्तते-पुरुषः-आरमा, एवकारोऽवधारणे, सच
पुरुषातिरिक्तस्य कर्मप्रकृतीश्वरादेर्व्यवच्छेदार्थः, इदं-सर्व प्रत्यक्ष वर्तमान चेतनाचेतनस्वरूपं निमिति वाक्यालङ्कारे यददातम्-अतीतं यच्च भाव्य-भविष्यत् , मुक्तिसंसारावपि स एव, पुरुष इत्यर्थः, उतामृतत्वस्येशान इति, उतशब्दोऽपिशब्दार्थः,
सच समुच्चये, अमृतत्वस्य च-अमरणभावस्य मोक्षस्य ईशानः-प्रभुः, यदनेनातिरोहतीति चशब्दस्य लुप्तस्य दर्शनाद् | जापश्चान्नेन-आहारेणातिरोहति-अतिशयेन वृद्धिमुपैति, तथा यत् एजति चलति पश्वादि, यत् नेजतिन चलति पर्वतादि,
अत्र ऐकारो न भवत्यापत्वात् , यद् दूरे मेर्वादि यदु अन्तिके उशब्दोऽवधारणे यदन्तिके-समीपे तत्सर्व पुरुष एव, तथा + यत् अन्तः-मध्ये अस्य-चेतनाचेतनस्य सर्वस्य यदेव सर्वस्थास्य बाह्यं तत्सर्व पुरुष एव, ततस्तदतिरिक्तस्य कर्मणः किल | सत्ता दुःश्रद्धेयेति । तथा न प्रत्यक्षप्रमाणगम्यमिदं कर्म, अतीन्द्रियत्वात् , नाप्यनुमानगम्यं, तत्र प्रत्यक्षाप्रवृत्तेः, नाप्यागमगम्यम् , आगमानां परस्परविरुद्धार्थभाषितया प्रामाण्यायोगात, अन्यच्च-अमूर्त आत्मा मूत्रं च कम्मोभ्युपम
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६०४], विभा गाथा H, भाष्यं [१२७-१३०], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
आवश्यके श्रीमलय- समवसरणे
प्रत
सत्राक
॥३२॥
म्यते, ततः कथममूर्तस्य मूर्तेन सह संयोगः, संयुग्यमानता किल मूर्चानामेव धर्म इति प्रवादः, तथा कथममूर्तख मूनकर्मवादे कर्मणाऽनुग्रहोपघातौ !, न खलु नभसश्चन्दनादिनोपग्रहो लकुटादिना चोपधातो भवति, अथ च श्रुतिषु कर्मसत्ता
द्वितीयो गीयते "पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा" ततो न विद्मः-किमस्ति कर्म किं वा नास्तीति तवाभिप्रायः, तत्र
गणधरः वेदपदानामर्थ न जानासि, चशब्दात् युक्किं भावार्थ च, तेषां हि वेदपदानामयमेकवाक्यतया व्यवस्थितोऽध:-इह त्रिविधानि वेदवाक्यानि-कानिचिद् विधिवादपराणि कानिचिदर्थवादप्रधानानि अपराणि त्वनुवादपराणि, तत्र 'अग्निहोत्रं जुहुयास्वर्गकाम' इत्यादीनि विधिवादपराणि, अर्थवादस्तु द्विधा-स्तुत्यर्थवादो निन्दार्थवादश्च, तत्र स्तुत्यर्थवादप्रधानानि यथा 'स सर्ववित् यस्यैषा महिमा भुवि आदित्ये, ब्रह्मपुरे ह्येप ब्योम्नि आत्मा सुप्रतिष्ठितस्तमक्षरं वेदयते, अथ यस्तु सर्वज्ञः स सर्ववित् सर्वमेवाविश' इत्यादि, निन्दार्थवादप्रधानानि यथा 'एष का प्रथमो यज्ञो?, योऽग्निष्टोमः, योऽन्नेन अनिष्ट्वा अन्येन यजते स गर्तमभ्यपत'दित्यादि, अत्र पशुमेधादीनां प्रथमं करणं निन्द्यते इत्ययं निन्दार्थवादः, 'द्वादश मासाः संवत्सरः अग्निरुष्णोऽग्निहिमस्य भेषज'मित्यादीनि त्वनुवादप्रधानानि, लोके प्रसिद्धस्यैवार्थस्य एतैरनुवादात्, पुरुष एवेदं निमित्यादीन्यपि पुरुषस्तुतिपराणि, यदिवा जात्यादिमदत्यागायाद्वैतभावनाप्रतिपादकानि न कर्मसत्ताप्रतिषेधकानि, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं, न खल्वकर्मण आत्मनः कर्तृत्वोपपत्तिः, एकान्तशुद्धतया प्रवृत्तिनिबन्धनाभावात्, न च वाच्यं शरीर- ॥३२॥ वान् खल्वीशान आरम्भ उपपत्तिमान् , स्वशरीरारम्भेऽपि तस्योक्तदोषानतिकमात्, अथ षे-अन्यस्तत्शरीरारम्भाय व्याप्रियते, स च शरीरवान् सचारम्भक इति, तदप्यसम्यक् तत्रापि विकल्पद्धयप्रवृत्तेः, स ह्यन्यस्तत्शरीरारम्भाय व्याप्रियते
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६०४], विभा गाथा , भाष्यं [१२७-१३०], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
REACK
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दास शरीरी अशरीरीति वा !, तत्र यथायः पक्षस्ततः स शरीरी कथम् 1, अन्येन तच्छरीरकरणादिति चेत् ननु तत्रापीयमेव
वार्तेत्यनवस्थानुषङ्गा, अधाशरीरीति पक्षस्तदप्ययुक्तम् , अशरीरितया तस्याप्यारम्भकत्वायोगात्, स्वादेतद्-एष नः | सिद्धान्तो यदा कर्मरहितस्याप्यात्मनः शरीरकरणेच्छोपजायते तदा शरीरमारभते, आत्मनः सकलशक्तिसमन्वितत्वात्, हो अत एव मुक्तात्मनो न भूयः शरीरित्वप्रसङ्गः, शरीरकरणेच्छाया एवाभावात् , तदप्यश्लील, शुद्धस्य सतो रागद्वेषरहित
तया शरीरकरणेच्छाया एवाप्रवृत्तेः, मुक्तात्मवत्, ततः कर्मसद्वितीयःपुरुषः कर्तेति न सर्वाणि वेदपदानि कर्मसत्ताप्रति६षेधकानि, न तत् कर्म प्रत्यक्षप्रमाणगोचरातिक्रान्तं, मया साक्षात्प्रत्यक्षत उपलभ्यमानत्वात्, नाप्यनुमानगोचरातीतं भवतो
ऽप्यनुमानसिद्धत्वात् , तच्चेदमनुमानं-शरीरान्तरपूर्वकं बालशरीरमिन्द्रियादिमत्त्वात् युवशरीरवत्, न च वाच्यं
जन्मान्तरानीतशरीरपूर्वकत्वस्यास्माभिरभ्युपगतत्वात्सिद्धसाध्यता, जन्मान्तरशरीरस्यापान्तरालगतावभावेन तत्पूर्वकहत्यायोगात् , तस्मात्कार्मणशरीरपूर्वकं बालशरीरमिति सिद्धं कर्म, अन्यथा प्रतिनियतदेशस्थानगर्भप्राप्तिर्नरपश्यादिरू.
पेण वैचित्र्यं वा नोपपत्तिमत् , नियामकाभावात् , उक्तं च-"आत्मत्वेनाविशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यद्वशात् । नरादिरूपं तञ्चित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञकम् ॥१॥" अथ स्वभाव एव नियामको वैचित्र्यस्य न कम्र्मेति कर्मासिद्धिः, तदप्यनुपपन्नं, विकल्पाभ्यामयोगात, स हि स्वभावो वस्तुविशेषो वा स्यात् वस्तुधम्मों वा!,न तावत् वस्तुविशेषस्तस्याप्रामाणिकत्वात् , नहि स वस्तुविशेषः प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धो नाप्यनुमानसिद्धोन चाप्यागमगम्य इत्यप्रमाणक एव, अन्यच्च-स वस्तुविशेषो मूर्ती वा अमूत्तो। दावा', यदि मूतः कर्मणोऽस्य न कश्चिद्भेदोऽन्यत्र संज्ञाभेदात, भवता हि वस्तुविशेष इति व्यवहियते मया तु कर्मेति,
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६०४], विभा गाथा H, भाष्यं [१२७-१३०], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सत्राक
आवश्यकता अथामूत्तों न तहिं वैचित्र्यहेतुर्देहकारणं च अमूर्तत्वात् गगनवत् , अथ वस्तुधर्मः स्वभाव इति पक्षस्तत्रापि विकल्पद्वयं कर्मवाद श्रीमलयदस ह्यात्माख्यवस्तुधर्मो वा स्याद्वस्त्वन्तरधर्मों वा!, तत्रात्माख्यवस्तुधर्मत्वे देहादिकारणत्वानुपपत्तिरमूर्त्तत्त्वात् गगनवत्,
द्वितीयो समवसरणे वस्त्वन्तरधर्मत्वेऽपि विकल्पयुगलप्रवेशः, तद्धि वस्त्वन्तरममूर्त वा स्यान्मूर्त वा, अमूर्सत्वे तद्धर्मोऽप्यमूर्त इति पूर्व-18
गणधर: वत् देहादिकारणत्वायोगः, अथ मूर्त तर्हि स मूवस्तुधर्मः पुद्गलपर्याय एवान्यस्य मूर्तवस्तुधर्मत्वायोगात्, कर्मापि है च पुद्गलपर्यायानन्यरूपमिति कर्मसिद्धिः। अन्यच्च-समानेऽपि च सेवाद्यारम्भे समानेऽपि च स्वामिचित्तपरिज्ञानादि
रूपे तदुपाये यः खलु परस्परं मनुष्याणां फलभेदः स हेत्वन्तरं विना न युकिमियत्ति, कारणभेदमन्तरेण कार्यभेदायोगाव, ततो यदेव तत्र किश्चनापि हेत्वन्तरं तत्कर्मेति प्रतिपत्तव्यम्, उक्तञ्च-"तथा तुल्येऽपि चारम्भे, सदुपायेऽपि यो नृणाम् । फलभेदः स युक्तो न, युक्त्या हेत्वन्तरं विना ॥१॥ तस्मादवश्यमेष्टव्यमत्र हेत्वन्तरं परैः । तदेवारष्टमित्याहुरम्ये शास्त्रकृतश्रमाः॥२॥(शास्त्रवा०) आगमगम्यं चैवत्, 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणे'ति अतिवचनप्रामाण्यात्, अथ कर्मातीति प्रतीमा, तच्च कर्म पुद्गलस्वरूपं नामूर्त्तमिति कथं प्रतिपत्तन्यम् , उच्यते, अम्
त्वे सति ततः सकाशादात्मनामनुग्रहोपघातासम्भवादाकाशादिवत्, न खल्वाकाशमात्मनामनुग्रहमुपधातं वा विधातुमलममूर्तत्वादेवं कापि स्वात्, एतेन यदवोचन सौगताः-वासना कर्मेति, तदपि प्रतिक्षितम्, वासनाया अमूर्चत्वे
131॥३२॥ नोक्तदोषानतिक्रमात्, नकं च-"अन्ने उ अमुत्तं चिव (केई अमुत्तमेव उ) कम्म मन्नति वासणारुवं । तं चन जुजइ सन्चो उवधायाणुग्गहाभावा पानागासं उबघावं अणुरगह वावि कुणइ सचाणमित्यादि" (धर्म, १२७८) अन्यच
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -], नियुक्ति: [६०४], विभा गाथा [१६३५,१६३७], भाष्यं [१२७-१३०], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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वासना नाम वासकसम्पर्कनिबन्धना यथा तिलादौ गन्धवासना मालतीपुष्पादिसम्पर्क हेतुका, ततो यदि बोधसंताने वासना रागादिहेतुरभ्युपगम्यते त_वश्य बोधातिरिकं किञ्चिद्वासकमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा वासनानुपपत्तेः, तथा |च सति सिद्धं नः पौगलिक कर्म, उकं च-वासनाऽप्यन्यसम्बन्ध, विना नैवोपपद्यते । पुष्पादिगन्धवैकल्ये, तिलादौ ४ नेष्यते यतः॥१॥वोधमात्रातिरिक्तं तु, वासक किञ्चिदिष्यताम् । मुख्यं तदेव नः कर्म, न युक्ता वासनाऽन्यथा ॥२॥
(शाखवा.) ये पुनरपरे माहुरात्मशक्तिरूपं कर्मेति त एवं प्रष्टव्याः-सा शक्तिरात्मनः स्वाभाविकी उतान्यसम्पकेसमुद्भवा , तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदा मोक्षाभावप्रसङ्गः, आत्मस्वरूपस्येव तस्याः शकेरपनेतुमशक्यत्वात् , अन्यथानिरुपापिकात्मानुपपत्तेः, आत्माख्यवस्तुधर्मस्वभावोकदोषानुपङ्गास्तु तदवस्थ एव, अथ द्वितीयः पक्षा, तथा च सति यस्योपाधेः सम्पकेवशात् सा शक्तिरात्मनो नारकादिभवभ्रमणरूपा समुदपादि तदेवास्माकं पौगलिकं कर्मेति न काचित्क्षतिः। यदप्युक्तम् 'अन्यच्चामूर्त आत्मा मूर्त च कर्मे त्यादि, तदप्यसम्यक्, अमूर्तस्याप्याकाशस्य मूर्तेन घटादिना सह यदिवा? दव्यस्य पराभिप्रायेणामूर्तया क्रियया सह संयोगभावात् , उक्त च-"मुत्तस्सामुत्तिमया जीवेण कह हवेज संबंधो सोम ! घडस्सव नभसा जह वा दधस्स किरियाए ॥१॥” (वि.१६३५) तथा अमूर्तस्याप्यात्मनो मूर्तकर्मकृतावनुग्रहोपघातावविरुद्धी, विज्ञानस्य ब्राहयौपध्यादिमदिरापानादिभिरनुग्रहोपघातदर्शनात्, आह च-"मुत्तेणामुत्तिमतो उबघायाणुग्गहो कहं होजा। जह विनाणाईणं मदिरापाणोसहाईहिं ॥१॥" (वि. १६३७) एवं भगवताऽभिहितेऽग्निभूतिः किं कृतवानित्याह
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आवश्यक
श्रीमलयसमवसरणे
॥ ३२३ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [६०५०६०७], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [१३१-१३२], मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि- रचिता वृत्तिः
मी
व्याख्या पूर्ववत् ।
जरामरणविप्यमुक्केण । सो समणो पञ्चइओ पंचहिं सह खंडियसएहिं ॥ ६०५ ॥ द्वितीयो गणधरः समाप्तः ॥
अथ तृतीयस्य गणधरस्य वायुभूतेर्वक्तव्यतामभिषित्सुराह
ते पइए सोउं तइओ आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण बन्दामि वंदित्ता पज्जुवासामि ॥ ६०६ ॥ तौ इन्द्रभूत्यग्निभूती प्रत्रजितौ श्रुत्वा तृतीयो वायुभूतिनामा द्विजोपाध्यायो जिनसकाशमागच्छति, सातिशयनिजवन्धुद्वयनिष्क्रमणाकर्णनादपगताभिमानो भगवति सञ्जातसर्वशप्रत्ययः सन्नेवमवाधारयत्-वजानि ण इति वाक्यालङ्कारे तथा वन्दे भगवन्तं वन्दित्वा पर्युपासे इति ॥ अपरं च किं विकल्प्य समागतोऽसावित्याहसीतेोगया संपर इंदऽग्भूिइणो जस्स । तिहुअणकयप्पणामो स महाभागोऽभिगमणिजो ॥। १३१ भा०॥ तदभिगमवंदणनमंसणाइणा हुज पूअपावोऽहं । बुच्छिन्नसंसओ वा वुत्तुं पत्तो जिणसगासं ॥ १३२ भा० ॥ गाथाद्वयमपि सुगमं, पूतपापो विशुद्धपापोऽपगतपाप इत्यर्थः ॥ ततः किमित्याह-
आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविष्यमुक्केणं । नामेण व गोत्तेण य सवनूसचदरिसीण । ६०७ ॥ अस्या व्याख्या प्रागिव ॥ इत्थं सगौरवमाभाषितोऽपि भगवता सकलत्रैलोक्यातिशायिनीं तस्य रूपादिसमृद्धिमभिसमीक्ष्य क्षोभादसमथों हृङ्गतं संशयं प्रष्टुं विस्मयातूष्णीमाश्रितः पुनरप्युक्तः किमित्याह -
••• अथ तृतीय- गणधरस्य वृतांतं आरभ्यते
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शरीरभिन्न. जीवसिद्धिः
वायुभूतिः
॥ ३२३ ॥
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६०८], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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*
तजीवतस्सरीरंति संसओ नवि अ पुच्छसे किंचियपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्यो ॥६०८॥ * हे आयुष्मन् !-वायुभूते! तवायं संशयो, यदुत-स एव जीवस्तदेव च शरीरमिति, नापि च पृच्छसि किञ्चित्र विदिताशेषतत्त्वं महक्षणं क्षोभात् , अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिवन्धनः, तेषां च वेदपदानामर्थ न जानासि तेन संशयं कुरुषे, तेषां च तव संशयनिबन्धनानां वेदपदानामयमों-वक्ष्यमाण इति गाथार्थः। तानि चामूनि परस्परविरुद्धानि बेदपदानि-विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति' इत्यादि, तथा-'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मान' इत्यादि च, पतेषां चायमर्थनव बुद्धौ प्रतिभासते-न देहात्मनो दसंज्ञास्ति, विज्ञानपनेत्यादीनां व्याख्या पूर्ववत्, नवरं न प्रेत्य में
संज्ञाऽस्ति भूतसमुदयमात्रधर्मत्वाच्चैतन्यस्य, तेन चामूनि किल शरीरातिरिकास्मोच्छेदपराणि वर्तन्ते, 'सत्येन लभ्य-18 दास्तपसा ह्येष' इत्यादीनि तु दहातिरिक्तात्मप्रतिपादकानि ततः संशयः, युक्ता च भूतसमुदायमात्रधर्माता चेतनायाः, तस्याः |
भूतसमुदायमात्र एवोपलम्भात् गौरतादिवत्,प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातिकान्तश्च देहातिरिक्त आत्मा इति,तत्र वेदपदानां चार्थी न जानासि, चशब्दात् युक्तिहृदये च, तेषामयमर्थः-तत्र विज्ञानघनेत्यादीनां वेदपदानामधः प्रागेव व्याख्यातः, सत्येन 18 लभ्य इत्यादीनि तु सुप्रतीतानि भूतातिरिक्तारमप्रतिपादकानि, तथाहि-सत्येन-सत्यवचनेन तपसा-अनशनादिरूपेण
ब्रह्मचर्येण च स्फुट नित्य-नियमेन ज्योतिर्मयो-ज्ञानमयः शुद्धो भवति, यं तथाभूतमात्मानं धीराः-परमज्ञानकलिता +यतयो-महर्षयः संयत्तात्मानो-ध्यानै कनिषण्णाः पश्यन्ति, न च चेतनाया भूतसमुदायमात्र एवोपलम्भात् भूतधर्मता,
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [८०९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
आवश्यक श्रीमलय- समवसरणे
शरीरभिन्नजीवसिद्धिः वायुभूतिः
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॥३२४॥
SAS
विलक्षणतया तस्या मूर्त्तत्वायोगात् , एतच्च प्रागेव भावितम्, न च तस्मिन् सत्येवोपलम्भस्तद्धर्मत्वानुमानायालं, व्यभि- चारदर्शनात्, तथाहि-स्पर्श सत्येव रूपादय उपलभ्यन्ते, न च तेषां तद्धम्मतेति, ततः शरीरातिरिक्तात्माख्यपदार्थ- धर्मश्चेतनेति स्थितं, प्रत्यक्षसिद्धोऽप्येष आत्मा,तद्गुणस्यावग्रहादिज्ञानस्य स्पष्टसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात् ,अनुमानगम्योऽपि, | तच्चेदं-देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तद्विगमेऽपि तनुपलब्धार्थानुस्मरणात् , पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्तृदेवदत्तवत्, इह स्मरणमनुभवपूर्वकतया व्याप्त, व्याप्यव्यापकभावश्चानयोः प्रत्यक्षेणैव प्रतिपन्नः, तथाहि-योऽर्थोऽनुभूतः स स्मयते न शेषस्तथा स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण प्रतीतेः, विपक्षे चातिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाण, अननुभूते हि विषये यदि स्मरणं भवेत् ततोऽननुभूतत्वाविशेषात् खरविषाणादेरपि स्मरणप्रसक्तिरित्यतिप्रसङ्गः, विवक्षिते देहे विवक्षितेषु च इन्द्रियेषु सत्सूपलभ्यो योऽर्थः स भवान्तरे तद्विगमेऽपि जातिस्मरणे स्मर्यते, ततोऽवश्यं तस्यार्थस्योपलम्भको देहातिरिक्त आत्मा प्रतिपत्तव्यो, न तन्मात्रः, तन्मात्रत्वे तद्विगमे तदुपलब्धार्थानुस्मरणायोगात्, अधिकृतदेहेन्द्रियमात्रेण तस्यानुपलब्धत्वादिति, आगमगम्यता त्वस्य सुप्रसिद्धैव, सत्येन लभ्य इत्यादिवेदप्रमाणाभ्युपगमात् । एवं भगवता व्याकृते स किं कृतवान्। इत्याह
छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुक्केण । सो समणो पबहतो पंचहिं सह खंडियसएहिं ।। ६०९॥ ।
अस्या व्याख्या पूर्ववत् । प्रथमगणधरादिदं नानात्वं-तस्य जीवसत्तायां संशयः, अस्य तु शरीरातिरिके खल्वात्मनि, न तु तत्सचायामिति ।
तृतीयो गणधरः समाप्तः ।।
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१०-६१२], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सम्प्रति चतुर्चस्व गणधरस्य वक्तब्यताममिधित्सुराह
ते पचइए सोउं वित्त आगच्छई जिणसगासं । वच्चामिण वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि ॥ १०॥ तान्-इन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रव्रजितान् श्रुत्वा व्यको नाम चतुर्थो गणधरो जिनसकाश-भगवत्समीपं आमच्छति, केनाध्यवसायेनेत्याह-व्रजामि णमिति वाक्यालङ्कारे वन्दे भगवन्तं वर्द्धमानस्वामिनं, वन्दित्वा च पर्युपास इति ॥ एवंभूतेन च सङ्कल्पेन गत्वा भगवन्तं प्रणम्य तसादान्तिके भगवत्सम्पदुपलब्ध्या विस्मयोत्फुल्लनयनस्तस्थौ । अत्रान्तरे___ आभट्ठो अजिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सबनूसबदरिसीणं ॥ ११ ॥
अस्या अपि व्याख्या पूर्ववत् ॥ आभाष्य च भगवता किमुक्तोऽयमित्याह- . किं मन्ने पंच भूआ अस्थि नस्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अस्थो ॥ ११२॥
किं पश भूतानि-पृथिव्यादीनि सन्ति किंवा न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् । अयं च संशयस्तव विरु- वेदपदश्रुतिनिवन्धनः, तानि चामूनि वेदपदानि, 'स्वमोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेय'इत्यादि, तथा द्यावा पृथिवी इत्यादि, तथा "पृथिवी देवता आपो देवता" इत्यादि, तेषां च वेदपदानामयमर्थः तव प्रतिभासते-स्वप्नोपर्म-स्वप्नसदृशं वै निपातोऽवधारणे सकलम-अशेष जगदित्येष ब्रह्मविधिः-परमार्थप्रकारः अञ्जसा-प्रगुणेन न्यायेन
विज्ञेयो-ज्ञातव्यः, एवमादीनि किळ वेदपदानि भूतनिहवपराणि, 'द्यावा पृथिवी' त्यादीनि तु सत्तापतिपादकानि, ततः मा-खु... Rullसंशया, तथा एवं ते चिचविश्वमो यथा भूताभाव एवं समीचीनस्तेषां प्रमाणे नाग्रहणात, तवाहि-पधुराविवि-1
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... अथ चतुर्थ-गणधरस्य वृतांतं आरभ्यते
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१०-६१२], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
।
आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
प्रत
सत्राक
॥३२५॥
ज्ञानस्यालम्बनं परमाणवो वा स्युः परमाणुसमूहो वाऽवयवी वा !, तत्र न तावत्परमाणवस्तेषामिन्द्रियविज्ञाने प्रतिभा-ISभूतपय साभावात् , न खलु चाक्षुषे विज्ञाने परस्परविशकलिताः परमाणवः प्रतिभासन्ते, नापि समूहः, समूहो हि नाम द्वित्रा
सिद्धिः [दिपरमाणूनां संयोगः, स चानुपपन्न एव, विकल्पद्वयानतिक्रमात्, तथाहि-परमाणूनां संयोगो देशतो वा स्यात् व्यक्तगणसर्वात्मना वा', तत्र न तावद्देशेन, परमाणोर्देशाभावाद्, अन्यथा परमाणुत्वक्षतेः, परमोऽणुः परमाणुरिति व्युत्पत्तेः अथ सर्वात्मना पक्षस्तहि परमाणोः परमाणों प्रवेशादणुमात्रप्रसक्तिः, तथा च पठन्ति-"संजोगोऽवि य तेर्सि देसेणं सपहा । व होजा हि । देसेण कहभणुत्तं? अणुमेत्तं सथहा भवणे ॥१॥ (धर्म.६५१) अथ पे-परस्परं प्रत्यासन्नत्वमात्रमेवात्र संयोगसमूहो, न देशेन सर्वात्मना वा, ततो न कश्चिद्दोषः, तदप्यसम्यक्, प्रत्येकमिव समुदितानामपि तेषामग्रहणप्रसङ्गात्, स्वस्वरूपावस्थितानां तेषामिन्द्रियगम्यत्वाभावात् , न च परस्परपत्यासन्नत्वमभ्युपपन्नं, तझ्यवश्यं पद्दिदग्भेदतो भवति, |दिग्भेदे च देशसम्भवादणुत्वव्याघातः, आह च-हाणी य अणुत्तस्सा दिसिभेदातो न अन्नहा घडइ । तेसि मिहो पंचा-1 समयत्ति परिफरगुमेयपि ॥१॥(धर्म०६५३) अथावयवीति पक्षः सोऽप्ययुक्तः, अवयविन एवासम्भवात् , तस्यावयवेषु वृत्त्ययोगात् , तथाहि-सोऽवयवी देशेन वा प्रत्येकमवयवेषु वर्तते सर्वात्मनावा ?, तत्र न तावद्देशेन अवयविनो देशाभावात्, अन्यथा तेष्वपि देशेषु देशेन वर्तेत, तत्रापि स एव प्रसङ्ग इत्यनवस्था, अथ सर्वात्मना वर्हि यावन्तोऽवयवास्तावन्तोऽवयविन | इत्यवयविबहुत्वप्रसङ्गः, अथ न बेमो देशेन वर्तते सर्वात्मना वा, किन्तु वर्तते इत्येव, तत उक्तदोषाप्रसङ्गः, तदप्यश्लीलम्, उक्तरूपप्रकारद्वयव्यतिरेकेणान्यस्य वृत्तिप्रकारस्थासम्भवात् , अथ समवायलक्षणेन सम्बन्धेन वचते इति मन्येथास्तदप्ययुकं,
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१०-६१२], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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समवायस्यैवासिद्धत्वात् , न खलु वस्तुद्वयापान्तरालवत्ती तत्सम्बन्धनिबन्धनभूतो जतुकल्पः कचित्समवायो नाम पदार्थः। प्रत्यक्षादिप्रमाणविषयोऽस्ति ततः कथं तमस्तित्वेन मन्यामहे?, अन्यच्च-सोऽपि समवायः स्वसमवायिषु कथं वर्चत इति वाच्यं, तदन्यसमवायबलादिति चेत्, ननु तत्रापि स एव प्रसङ्ग इत्यनवस्थानुषक्तिः, अथ स्वपरोमयसम्बन्धस्वभावः समवायो यथा
स्वपरप्रकाशधर्मा प्रदीपः, तेनात्मानं स्वसमवायिभिः सह सम्बन्धयति स्वसमवायिनश्च परस्परमिति, तदष्यमनोरम, ४ विकल्पयुगलानतिक्रमात् , तथाहि-तौ हि स्वभावौ समवायाद्भिनौ वा स्यात् अभिन्नौवा, यद्याद्य पक्षस्ततो न समवायस्य |
तो, सम्बन्धाभावात् , वस्त्वन्तरधर्मवत्, अथाभिन्नौ ततः समवाय एव तो, तव्यतिरिकत्वात् तत्स्वरूपवत् , कुतः स्वभाव-| द्वयकल्पनेति भूतविषय प्रमाणाभावः, एवं विभ्रमे स्फुटीकृते 'भगवानुत्तरमाह-वेदपदानामर्थ न जानासि, चशब्दात् युक्ति भावार्थ च, तत्र तव संशयनिबन्धनानां वेदपदानामयमा स्वमोपमं वै सकलमित्यादीनि अध्यात्मचिन्तायां मणिकनकाङ्गनादिसंयोगस्य अनियतत्वात् अस्थिरत्वात् विपाककटुकत्वात् आस्थानिवृत्तिपराणि, न तु तदत्यन्ताभावप्रति-द पादकानि, द्यावा पृथिवीत्यादीनि तु भूतसत्ताप्रतिपादकानि भवतोऽपि प्रतीतानि, ततो वेदसिद्धा सिद्धा भूतानां | सत्ता, यदप्युक्त-भूताभाव एव समीचीनस्तेषां प्रमाणेनाग्रहणादित्यादि तदप्यसम्यक, भूतानां प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्ध-18| स्वात् , तथाहि-द्विविधं परमाणूनां रूप-साधारणमसाधारणं च, तत्र यदसाधारणं रूपं तेन चाक्षुषविज्ञाने न ते प्रति| भासन्ते, साधारणेन तु रूपेण प्रतिभासन्त एव, न च वाच्यं-साधारणं रूपं नास्त्येव, तदभावे खल्वेकपरमाणुव्यतिरेकेणान्येषामपरमाणुत्वप्रसङ्गात् , परमाणुत्वेनापि तुल्यरूपत्वाभावाद्, अन्यथाऽस्मदभ्युपगमप्रसक्तः, अथ यदेतत्परमा
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१०-६१२], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सिद्धिः
सत्राक
माणुत्वेन तुल्यरूपत्वं तत्तदन्यव्यावृत्तिमात्रपरिकल्पितसत्ताकं, यथाऽयमपि परमाणुः परमाणोयावृच्चोऽयमप्यपरपरमाणो-14 दावृत्त इति, नतु परमार्थिक, तदेतदयुक्तं, स्वतस्तुल्यरूपत्वाभावेन तदन्यच्यावृत्तेरपि साधारणाया असम्भवात् , न,
भूतपंचकश्रीमलय-16 समवसरणेद
खलु यथा घटस्याघटाद् व्यावृत्तिरतथा पटस्यापि, घटेन सह पटस्य तुल्यरूपत्वाभावात् , अथ सर्व स्वलक्षणं सकलं सजातीयविजातीयव्यावृत्तिस्वभावं, ततः समानरूपत्वाभावेऽपि विजातीयव्यावृत्तिः समाना, तदपि न युक्तिक्षम, विजाती-13
व्यक्तगण॥३२६॥ येभ्यो व्यावृत्ती परमाणुत्वस्येव सजातीयेभ्यो व्यावृत्तावपरमाणुत्वस्य प्रसङ्गात्, न्यायस्य समानत्वात्, न च भवम्मते।
| सजातीयव्यावृत्तिर्युका, सामान्यस्यैवानभ्युपगमात् , न च सजातीयत्वाभावेऽपि विजातीयव्यावृत्ततापि वस्तुन उपपद्यते, अनेकस्वभावानभ्युपगमात् , न चैकेन स्वभावेन सर्वेभ्यो व्यावृत्तिः, तेषां सर्वेषामपि व्यावृत्तिविषयाणामेकरूपताप्रसके, तथाहि-घटाद् व्यावर्त्तते पटो, घटण्यावृत्तिस्वभावतयैव व्यावर्त्तते तर्हि बलात् स्तम्भस्य घटरूपतानुषक्तिः, अन्यथा
ततस्तत्वभावतया व्यावृत्त्ययोगात्, तस्मादवश्यं परमाणूनां द्वे रूपे प्रतिपत्तव्ये तुस्यमतुल्यं च, तत्र तुस्यरूपेण चाक्षुषे । ४ विज्ञाने समुदिताः परमाणवः प्रतिभासन्ते इति भूतानां प्रत्यक्षविषयता । यदपि समूहपवेऽभिहित 'परमाणूनां संयोगो दि देशतो वा स्यात्सर्वात्मना वा' इत्यादि, तत्र पक्षद्वयेऽप्यदोषः, परमाणूनां विचित्रपरिणमनशक्तिसमन्विततया कदाचि-IN
देशतः कदाचित्सर्वात्मना सम्बन्धभावात्, न च वाच्य देशाभ्युपगमे परमाणोः अपरमाणुत्वप्रसङ्गा, परमाणुहिं स ॥३२६॥ उच्यते यतो नान्यदल्पतरं, परमोऽणुः परमाणुरिति व्युत्पत्तेः, न च विवक्षितात्परमाणोरन्यदल्पतरमस्ति ततः परमाणुत्वान्याघातः, तथा च सति देशकालादिसामग्रीविशेषसम्पादितपरिणामविशेषपरिकल्पितानां परमाणूनां परस्परं ।
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१०-६१२], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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यत् प्रत्यासन्नत्वं तदेव परमाणुसमूह, एष एव च देशतः परमाणूना सम्बन्धः, तथा चार्षम्-" व खलु अणूर्ण पञ्चासन्नत्तणं मिहो एस्थ । तं चेव उ संबंधो विसिट्ठपरिणामसावेक्वं ॥१॥ देसेण उ संबंधो इह देसे सति कहम गुसंपि।
अप्पतराभावातो न अप्यतरयं ततो अस्थि ॥२॥(धर्म. ७१०-७११) अथ दिग्भेदतो यो भेदः स एवाभ्यदल्प-1 कातरमस्तीति कथं न परमाणुत्वव्याघात, तदपि अयुक्तम् , सम्यक् तत्वापरिज्ञानात्, परमोऽणुहिं स उच्यते यो द्रव्यतो-४
शक्यभेदो, न च विवक्षितस्य परमाणोर्द्रव्येण शस्त्रादिना भेद आपादयितुं शक्यते, तथा चोकम्-"सत्येण सुति-II क्खेणवि छेनुं भेत्तुं व जं किर न सका । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ॥१॥ (अनु-१००*) ततोऽन्यस्य पृधगद्रव्यरूपस्याल्पतरस्याभावादव्याहतं षड्दिग्भेदेऽपि परमाणुस्वं, उक्कं च-"दिसिभेदातोचिय सक्कभेयतो कह न अप्पतरगति ।। दवेण सकमेयं विवक्खियं ता कुतो तमिह ? ॥१॥ (धर्म.७१३) योऽपि सर्वात्मपक्षे दोष उक्तः यथा-- परमाणुत्वमात्रप्रसङ्ग इति सोऽप्ययुक्तो, यतो न परमाणोः परमाणुर्विनाशकः, सतः सर्वधा विनाशायोगात्, ततो द्वावपि परमाणू तथाविधपरमाणुविशेषतः सर्वात्मना सम्बन्धमापद्यमानी सत्तोपचयविशेषात् स्थूलपणुकरूपतामेव
प्रामुतो न परमाणुत्वमात्रमित्यदोषः, उक्तं च-"न य जुत्तं अणुमेत्तं सत्तातो सबहावि संजोगे । बायरमुत्तत्ता णामभावतो | Jउवचयबिसेसा ॥१॥" (धर्म. ७१७) अवयविपक्षोक्तं दूषणमनवकाशं, पृथग्द्रव्यान्तररूपस्यावयविनोऽस्माभिरनभ्युपग-14
मात्, य एव हि परमाणूनां तथाविधदेशकालादिसामग्रीविशेषसापेक्षाणां विवक्षितजलधारणादिक्रियासमर्थः समानः | परिणामविशेषः सोऽवयवी, ततः कुतो देशकात्स्यवृत्तिविकल्पदोषावकाशः?, शेष तु समवायपक्षोकमनभ्युपगमात् न
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मावश्यके
श्रीमलय
उमवसरणे
॥३२७||
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [६१३-६१६ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...], मूलं [- /गाथा -1] नदीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
नः क्षितिमावहति । एवं भगवताऽभिहिते स किं कृतवानित्याह
छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्यमुक्केणं । सो समणो पवइओ पंचहिं सह खंडियसएहिं ॥ ६१३ ॥ अस्या व्याख्या पूर्ववत् । चतुर्थी गणधरः समाप्तः ॥
पञ्चमगणधरव कव्यतामाह
ते पञ्चइए सोउं हम्म आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण वंदामी वंदिता पजुवासामि ॥ ६१४ ॥ सान् — इन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रत्रजितान् श्रुत्वा सुधर्मः पञ्चमो गणधरो जिनसकाशं - भगवत्समीपमागच्छति, किंभूतेनाध्यवसायेनेत्याह, पश्चार्द्ध पूर्ववत् ॥ स च भगवन्तं दृष्ट्वाऽतीव मुमुदे, अत्रान्तरे-'
आभट्ठो प जिणेणं जाइजरामरणविप्यमुकेण । नामेण य गोत्रोण य संबन्नूसवदरिसीण । ६१५ ॥ अस्या व्याख्या पूर्ववत् ।
किं मने जारिसो इह भवंमि सो तारिसों परभवेऽवि । वेयपयाण य अंत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो । ६१६॥ किं मन्यसे यो मनुष्यादिर्यादृश इह भवे स परभवेऽपि तादृश एव, नन्वयमनुचितस्तव संशयो, यतोऽसौ विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनः तानि चामूनि पदानि - 'पुरुषो वै पुरुषत्व मश्रुते पशवः पशुत्व'मित्यादि, तथा 'शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते इत्यादि च तत्र वेदपदानां त्वमित्यमर्थमवबुद्धासे - पुरुषो मृतः सन् पुरुषत्वमश्नुते प्राप्नोति, पशवो गवादयः पशुत्वमेव, अमूनि वेदपदानि किल भवान्तरसादृश्यप्रतिपादकानि, तथा भृगालो वै एष इत्यादीनि तु वैस
••• अथ पंचम-गणधरस्य वृतांतं आरभ्य
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यादशता
दशखंडनं
सुधर्मा
गणधरः
॥ ३२७॥
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१३-६१६], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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*SAKX-24
दृश्यप्रापकानि ततः संशया, अभ्यच-यचेऽभिप्रायो यथा कारणानुरूपं कार्य भवति, न खलु शालिनीजात् गोधूमाकुरप्रसूतिः, ततो भवान्तरसादृश्यमेवोपपत्तिमत्, तत्र वेदपदानामर्थ चशब्दात् युकिं भावार्थ न जानासि, तेषां वेदपदानामयमर्थः-पुरुषः खल्विह जन्मनि स्वभावेन माईवाजवादिगुणयुक्तो मनुष्यनामगोत्रकर्मणी बद्धा मृतः सन् पुरुपित्वमश्नुते, न तु नियमतः, एवं पशवोऽपि पशृभावमायादिगुणयुक्ताः पशुनामगोत्रे कर्मणी बट्टा मृताः सन्तः पशुब्वमासादयन्ति, न तु नियोगतः, जीवानां गतिविशेषस्य कर्मसापेक्षत्वात् , शेषाणि तु वेदपदानि सुगमानि, न च नियमतः कारणानुरूपं कार्य, वैसदृश्यस्यापि दर्शनात्, तथाहि-शृङ्गाच्छरो जायते, तस्मादेव सर्पपानुलिसातु तृणानीति, गोलोमाविलोमभ्यां दूर्वा, ततो न नियमः, अथवा कारणानुरूपकार्यपक्षेऽपि भवान्तरवैचित्र्यमस्य युक्तमेव, यतो भवाङ्करबीजं सात्मकं कर्म, तच्च तिर्यग्नरामरनारकायुष्कादिभेदभिन्नत्वात् चित्रम्, अतः कारणवैचिंत्र्यात् : कार्यवैचित्र्यमिति, वस्तुस्थित्या तु सौम्य ! किचिदिह लोके परलोके वा न सर्वधा समानमसमान वाऽस्ति, तथा चेह भवे युवा निजैरप्यतीतानागालवृद्धादिपर्यायैः सर्वथा न समानोऽवस्थामेदग्रहणात्, नापि सर्वथाऽसमानः सचायनुगमात्, एवं परलोकेऽपि मनुजो देवत्वमापनो न सर्वथा समानः, शरीरान्तरादिभावात्, नापि सर्वथाऽसमानो जीवत्वाद्यन्वयात् , इत्थं चैतदङ्गीकत्तंव्यमन्यथा दानदमदयादीनां वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । एवं भगवताऽभिहिते स किं कृतवानित्याहछिन्नभि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुकेण । सो समणो पवइओ पंचहिं सह खंडियसएहि ॥ १६॥ व्याख्या पूर्ववत् ॥
॥ पञ्चमो गणधरः समाप्तः ।।
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ENTS
JanEthiconn inormananal
... अत्र मूल संपादने गाथा-क्रम || ६१६ || मुद्रितं तत् मुद्रणदोषः, सा गाथा || ६१७ || एव वर्तते
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१८-६१९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यक अधुना पष्ठगणधरवक्तव्यतामाह
वन्धमोवश्रीमलय- ता ते पच्चइए सोउं मंडित आगच्छई जिणसगासे । वच्चामिण वंदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ ६१८॥ |
योः मंडिसमयसीमा तान्-इन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रत्रजितान् श्रुत्वा मण्डिकः षष्ठो गणधरो जिनसकाश-भगवत्समीपमागच्छति, किंभतेना-18|
कगणधरः ध्यवसायेनेत्याह-वच्चामि णेत्यादि पश्चार्द्ध पूर्ववत् ॥ स च भगवत्समीपं गत्वा भुवननाथं प्रणम्य प्रमुदितस्तदग्रत- ॥३२॥ स्तस्थौ, अत्रान्तरे
आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सवण्णूसबदरिसीण ॥ ६१९॥ व्याख्या पूर्ववत् ॥ किं मन्ने बंधमोक्खो अस्थी नस्थित्ति संसओ तुज्झ । वेयपयाण य अस्थं न याणसी तेसिमो अत्यो ॥२०॥
किं मन्यसे बन्धमोक्षौ स्तो न वा स्त इति, नन्वयमनुचितः तव संशयः, व्याख्यान्तरं पूर्ववत्, यतोऽयं तव संशयो | विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्त्तते, तानि च वेदपदान्यमूनि-“स एष विगुणो विभुः न बध्यते संसरति वा न मुच्यते | मोचयति वा, न वा एष बाह्यमाभ्यंतरं वा वेद" इत्यादीनि "न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वाच-12 सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत" इत्यादीनि च, एतेषां च वेदपदानामय मर्थस्तव चेतसि प्रतिभासते-स एषः-अधिकृतो जीवो ॥२८॥ विगुणः-सत्त्वादिगुणरहितो विभु-सर्वगतः न बध्यते, पुण्यपापाभ्यां न युज्यते इत्यर्थः, संसरति वा, नेत्यनुवर्तते । न मुच्यते-न कर्मणा वियुज्यते, बन्धाभावात् , नाप्यन्यं मोचयति, क्रियारहितत्वात् , अनेनाकर्तृत्वमावेदयति, न
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... अथ षष्ठम-गणधरस्य वृतांतं आरभ्यते
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१८-६२०], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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कावा एष बाह्यम्-आत्मव्यतिरिकं महदहकारादि आभ्यन्तरं वा-स्वरूपमेव वेद-जानाति, प्रकृतिपयवाद ज्ञानस,
प्रकृतेश्चाचेतनत्वादिति बन्धमोक्षानुपपचिरिति भावः, तदेवममूनि किळ बन्धमोक्षाभावप्रतिपादकानि, तथा नह वै.
नैवेत्यर्थः, सशरीरस्य-वाह्याध्यात्मिकानादिशरीरसन्तानयुक्तस्य प्रियाप्रिययोः-सुखदुःखयोरपहतिः-विनाशोऽस्ति, संसाकारिणः सुखदुःखाभावो नास्तीत्यर्थः, अशरीरं-शरीररहितं सन्तं, वावशब्दो निपातो वाशब्दार्थः, अशरीरी वा सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः, न सुखदुःखे अनुषजतः कारणाभावात् , अनि किल वाक्यानि मोक्षाभिधायकानि. ततः संशयः, अन्य। च-अयं सौम्या तवाभिप्रायः-बन्धो हि जीवकर्मसंयोगलक्षणः, स आदिमान आदिरहितो वा !, तत्र बदि प्रथमो विकल्पस्ततो विकल्पत्रयप्रसङ्गः, किं पूर्वमात्मनः प्रसूतिः पश्चात्कर्मणः यदिवा पूर्व कर्मणः पश्चादात्मनः आहोश्चित् युगपदुभ-| यस्पेति, किश्चातः, सर्वत्रापि दोषः, तथाहि-न तावदात्मनः पूर्व प्रसूतिनिर्हेतुकत्वात् , व्योमकुसुमवत्, नापि कर्मणः प्राक्प्रसूतिः कर्तुरभावात् , न चाकृतं कर्म भवति, युगपत्प्रसूतिरप्ययुक्ता, कारणाभावात् , न च अनादिमत्यप्यात्मनि ।
वन्धो घटामटाट्यते, कारणाभावात् , गगनस्येव, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा मुक्तस्यापि बन्धप्रसङ्गो विशेषाभावात् , दतथा च सति नित्यमुक्तत्वात् मोक्षानुष्ठानवेयर्यमिति, अथ द्वितीयः पक्षस्तहि नात्मकम्मवियोगो भवेद् अनादित्वात् |
आकाशसंयोगवदिति मोक्षानुपपत्तिरिति, तत्र वेदपदानामयमर्थः स एषः-मुक्तात्मा विगताः छानस्थिकज्ञानादयो गुणा यस्य स विगुणः विभुः-ज्ञानात्मना सर्वगतः, केवलज्ञानस्य सकललोकावभासित्वात् , तथा न बध्यते, मिथ्यादर्शनादि-11 बन्धकारणाभावाद, संसरति वा मनुष्यादिभवेषु, नेत्यनुवर्तते, कर्मवीजाभावात् , नापि मुच्यते, मुक्तत्वात् , न मोचयति |
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६१८-६२०], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यक उपदेशदानविकलत्वात् , तथा सांसारिकसुखनिवृत्त्यर्थमाह-नवा एष मुक्तात्मा याह्य-प्रक्चन्दनादिजनितं आभ्यन्तरम्- बन्धमोक्षश्रीमलय- आभिमानिकं वेद-अनुभवात्मना विजानाति, एवमेतानि वेदपदानि मुक्तात्मस्वरूपप्रतिपादकानि, शेषाणि तु सुप्रती- योः मंडिसमवसरणेतान्येव, तथा जीवोऽनादिनिधनः सत्त्वे सत्यहेतुकत्वात् , कर्मापि प्रवाइतोऽनादिमत्, ततो जीवकर्मणोरनादिमानेव
कगणधरः संयोगो, धर्माधर्मास्तिकायाकाशसंयोगवदिति प्रथमपक्षोक्तदूषणानवकाशः, योऽपि द्वितीयपक्षेऽभिहितो दोषोऽना॥३२९॥ दित्वात्संयोगस्य वियोगाभाव इति, सोऽप्यसमीचीनः, तथादर्शनात्, तथाहि-काशनोपलयोः संयोगोऽनादिसन्त
तिगतोऽपि क्षारमृत्पुटपाकादिद्रव्यसंयोगोपायतो विघटमानको दृष्टस्तथा जीवकर्मणोरपि ज्ञानदर्शनचारित्रोपायतो
वियोग इति न कश्चिद्दोषः, अथ यद्यनादि सर्व कर्म ततस्तस्य जीवकृतत्वानुपपत्तिः, जीवकृतत्वेऽनादित्वविरोधात्, ४ तदसम्यक, वस्तुगत्यनववोधात्, तथाहि-जीवेन तथा तथा मिथ्यादर्शनादिसव्यपेक्षेण तदा तदोपादीयते कर्म तेन18
जीवेन कृतमित्युच्यते, तच्च तथा प्रवाहापेक्षया चिन्त्यमानमादिविकलमित्यनादि, निदर्शनं चात्र कालो, यथा हि यावान् अतीतः कालतेनाशेषेण वर्तमानत्वमनुभूतमय चासौ प्रवाहतोऽनादिरेवं कर्माणीति, यदप्युक्तं 'मुक्तस्यापि बन्धप्रसङ्गो विशेषाभावा'दिति, तदप्ययुक्तम् , विशेषाभावासिद्धेः, तथाहि-संसारिजीवः कषायादियुक्तः, कषायादियुक्तश्च कर्मणो
योग्यान् पुद्गलानादत्ते इति तस्य कर्मबन्धोपपत्तिः, मुक्तस्तु कषायादिपरिणामविकला, शुक्लध्यानमाहात्म्यतस्तेषां समूजालमुन्मूलितत्वात् , ततो मुक्त्यवस्थायां कर्मबन्धाप्रसङ्गः, न च वाच्यम्-एवं सति तर्हि निरन्तरं मुक्तिगमनतो भव्या-1
नामुच्छेदप्रसङ्गा, अनन्तानन्तसहयोपेतत्वात, इह यदनन्तानन्तसक्योपेतं तत्प्रतिसमयमेकद्वियादिसावयाऽपगच्छदपि
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६२१-६२४], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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न कदाचन निलेपीभवति, यथाऽनागतकालः, तथा च अनन्तानन्तसङ्ग्योपेता भव्या इत्यनुच्छेदः, अथ सिद्धा अप्यनन्तास्तेषामपि प्रवाहतोऽनादित्वात्ततः कथं तेषां तावत्सङ्ख्याकानां परिमितक्षेत्रेऽवस्थानाविरोधः', उच्यते, अमूर्तत्वात्. | तथा ह्यमूर्तानां प्रतिद्रव्यमनम्तानां केवलज्ञानदर्शनानां सम्पातोऽस्ति न च विरोध इति,
छिन्नंमि संसयम्मी जाइजरामरणविप्पमुक्केण । सो समणो पचहओ अडुढहिं सह खण्डियसएहिं ॥ ६२१ ॥ व्याख्या पूर्ववत् , नवरम् अर्द्धचतुरिति-साढ़ेखिभिः सह खण्डिकशतैरिति ।
षष्ठो गणधरः समाप्तः।।
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ते पञ्चइए सोखं, मोरिअ आगच्छई जिणसगासं । बच्चामि ण बदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ ६२२ ॥ व्याख्या पूर्ववत् , नवरमिह मौर्य आगच्छति जिनसकाशमिति नानात्वम् । ___ आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविष्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सबनूसवदरिसीण ॥ २३ ॥
अस्या अपि सपातनिका व्याख्या पूर्ववत् ।। किं मन्ने अस्थि देवा उआहु नस्थित्ति संसओ तुझं। वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्यो। ६२४॥
किं सन्ति देवा उत न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं प्राग्वत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो वर्त्तते, तानि चामूनि वेदपदानि-"स एष यज्ञायुधी यजमानोऽजसा स्वर्गलोकं गच्छत्ती"त्यादीनि, तथा "अपाम सोमं अमृता
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... अथ सप्तम-गणधरस्य वृतांतं आरभ्यते
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६२१-६२४], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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समवसरणे ॥३३०॥
अभूम अगमज्योतिर्विदाम देवान किं नूनमरमात्तृणवदरातिः किमु पूरिस्त मर्त्यसे त्यादीनि 'को जानाति मायो-डादेवसिद्धिः *पमान् गीर्वाणान् इन्द्रयमवरुणकुबेरादी नित्यादीनि च, एतेषां चायमर्थस्तव मती प्रतिभासलेन्स एप यज्ञ एव दुरित-ISमार्यों गण
|दारणक्षमत्वादायुध-प्रहरणं यज्ञायुधं तदस्यास्तीति यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा-प्रगुणेन न्यायेन स्वर्गलोकं गच्छतीति, धरः दातथा अपाम-पीतवन्तः सोम-लतारसं अमृत-अमरणधर्माणो अभूम-भूताः स्म अगमन्ताः ज्योतिः-स्वर्ग अवि-I
दाम देवान्-देवत्वं प्राप्ताः स्म , किं नूनमस्मादूर्व तृणवत्करिष्यति, कोऽसावित्याह-अरातिः-व्याधिः, तथा किमु
प्रश्ने धूर्तिः-जरा, अमृतवत्तस्य अमृतत्वं प्राप्तस्य मय॑स्य पुरुषस्येत्यर्थः, अमरणधर्मणो मनुष्यस्य किं करिष्यति जरा₹ाव्याधय इति भावः, तदेवममूनि किल वेदपदानि देवसत्ताप्रतिपादकानि, 'को जानाति मायोपमानि'त्यादीनि देवसचा-।
प्रतिषेधकानोति तव संशयः, तथा सौम्य ! त्वमित्थं ' मन्यसे-नारकाः किल सजिष्टासुरपरमाधार्मिकायत्ततया कर्मवशतया च परतन्त्रत्वात् स्वयं च दुःखसन्तप्तत्वात् इहागन्तुमशकार, वयमपि तत्रानेन शरीरेण कर्मवशतयैव गन्तुमशक्काः, ततःप्रत्यक्षकरणोपायासम्भवात् श्रुतिस्मृतिग्रन्थेषु श्रूयमाणा आगमप्रामाण्यतः श्रद्धे या भवन्तु, ये पुनर्देवास्ते स्वच्छन्दचारिणः कामरूपिणः प्रकृष्टदिव्यप्रभावा इहागमनसामर्थ्यवन्तस्ततः किमितीह नागच्छन्ति येन न दृश्यन्ते इति, तस्मात्ते न सन्त्यस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वात् खरविषाणवदिति, तत्र वेदपदानां चेत्यादि पूर्ववत्, तत्र वेदपदानामयमर्थको जानाति मायोपमान गीर्वाणान इन्द्रयमवरुणकुबेरादीनित्यादि, तत्र परमार्थचिन्तायां सन्ति देवा मत्प्रत्यक्षत्वात् मनु-17 प्यवत्, भवतोऽप्यागमप्रमाणतः सिद्धा, केवलं सर्वमनित्यं मायोपर्म, देवा अपि हि स्वकृतभोगफलकर्मपर्यन्ते विनश्वराः
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६२५-६२७], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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[किं पुनः शेषर्द्धिसमुदाया इत्यनित्यत्वभावनाप्रतिपादकमिदं वाक्यं, न तु देवसत्तानिषेधकमिति, तथा स्वच्छन्दचारि-12 णोऽभ्यमी यदिह नागच्छन्ति तत्रेदं कारणं-नागच्छन्तीह सदैव सुरगणाः, सान्तदिव्यप्रेमतया विषयप्रसकत्वात् , प्रकृष्टरूपगुणस्त्रीप्रसतविच्छिन्नरम्यदेशान्तरगतमनुष्यवत् , तथा असमाप्तकर्त्तव्यत्वात् , बहुकन्यताप्रसाधनप्रयुक्तविनीतपुरुषवत् , तथा अनधीनमनुजकार्यत्वात् नारकवत् अनभिमतगेहादौ निःसङ्गयतिवद्धति, अशुभत्वान् नरभवस्य तदगन्धासहिष्णुतया नागच्छन्ति, कडेवरमिव हंसा इति, जिनजन्ममहिमादिषु पुनर्भकिविशेषात् भवान्तररागतश्च कचिदागच्छन्त्येव, तथा चैते साम्प्रतं भवतोऽपि प्रत्यक्षा एव, शेषकालमपि सामान्यतश्चन्द्रसूर्यादिविमानमत्वचत्वात् तद्वासिसिद्धिरिति कृतं प्रसङ्गेन,
छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुक्केण । सो समणो पाइओ अबुहदि खंडिपसरहिं ॥ ६२५ ॥ व्याख्या पूर्ववत् ।
॥ सप्तमो गणधरः समाप्तः ॥ ते पदइए सोउं अपिओं आगच्छह जिणसगासं । बच्चामि ण बंदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ २६ ॥ व्याख्या पूर्ववत्, नवरमत्राकम्पिक आगच्छति-जिनसकाशमिति नानात्वम् ।
आमहोप जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुखणं । नामेण पगोत्तेण य सबसबरिसीण ॥ ६२७॥ यस्याः सपातनिका ब्याख्या प्राग्वत् ।
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६२८], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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भावश्यक किं मन्ने नेरइया अस्थी नस्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं याणसी तेसिमो अस्थो ॥ ६२८॥ अकंपितः श्रीमलय
। नरान् स्वयोग्यान कायन्ति-शब्दयन्ति आकारयन्तीति नरकास्तेषु भवा नारकाः, ते नारकाः किं सन्ति उत न सन्तीति | तारकमवसरण मन्यसे, व्याख्यान्तरं प्राग्वत् , अयं च संशयस्तव विरुद्धपदश्रुतिसमुद्भवो वर्तते, तानि चामूनि वेदपदानि-'नारको वै एषा सिद्धिः
जायते यः शूद्रान्नमश्नाति इत्यादि, अस्यायमर्थः एषः ब्राह्मणो नारको जायते यः शूद्रान्नमश्नातीत्यादीनि किल वेदवाक्यानि
नारकसत्ताप्रतिपादकानि, 'नह वै प्रेत्य नारकाः सन्ती'त्यादीनि तु नारकाभावप्रतिपादकानि, तथा सौम्य ! त्वमित्थं दामन्यसे-देवा हि चन्द्रादयस्तावत्प्रत्यक्षा एव, अन्येऽपि औपयाचितकादिफलदर्शनतोऽनुमानतोऽवगम्यन्ते, नारकास्त्वद्रभिधानव्यतिरिक्ताशून्याः कथं प्रत्येतव्या इति तदभावः, तथा चात्र प्रयोगा-न सन्ति नारकाः साक्षादनुमानतो वाs
नुपलब्धेः, व्योमकुसुमवत् , व्यतिरेके देवाः, तत्र 'वेदपदाना 'त्यादि, तत्र वेदपदानामर्थ चन्दाद्युक्ति भावार्थ च न जानासि, यतस्तेषां वेदपदानामयमर्थः-ये खलु निरुपाधितपःसंयमादिना उपचितपुण्यप्रारभारास्ते न ह वैन प्रेत्य-परलोके नारकाः सन्ति-भवन्ति जायन्ते, तेषां स्वर्गसत्कुलप्रत्यायातिपरम्परया केषाश्चित्तद्भवेऽपि मोक्षगमनात्, ततो नामूनि | नारकाभावप्रतिपादकानि वेदपदानि, किन्तु पुण्यवतां नारकभवनप्रतिषेधकानीत्ययुक्तः संशयः, तथा सौम्य! ते नारका: कर्मपरतन्त्रत्वादिहागन्तुमशकाः, भवद्विधानामपि कर्मपरतन्त्रत्वादेव तत्र गमनशस्त्यभावः, ततो न युष्मादृशां तदुप-|
८ ॥३३॥ लब्धिः, क्षायिकज्ञानसम्पदुपेतानां तु वीतरागाणां ते प्रत्यक्षा एव, अपास्तसमस्तावरणतया समस्तवस्तुज्ञानोपेतत्वात् , न च वाच्यमशेषपदार्थविद एव क्षायिकज्ञा न सन्तीति, यतो ज्ञस्वभाव आत्मा, केवलं यथा ज्ञानावरणीयस्थ कर्मणा
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६२८], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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क्षयोपशमस्तथा तस्य रूपाविर्भावविशेषो दृश्यते, तथा च कश्चिद्वहु जानाति कश्चिद्वहुतरमिति, न चार्य ज्ञान विशेषः खल्वात्मनस्तत्स्वभावतामन्तरेणोपपद्यते, ततोऽवश्यमसौ ज्ञस्वभावः प्रतिपत्तव्यः, तस्य चाशेषावरणविलये समस्तज्ञेयपरिच्छेद-11 कता ज्ञस्वभावत्वात् , तथा चास्मिन्नर्थे लौकिको दृष्टान्तो, यथा पद्मरागादिरुपलविशेषो भास्वरस्वरूपोऽपि स्वगतमलक-18 लङ्काङ्कितस्तदा वस्त्वप्रकाशयन्नपि क्षारमृत्पुटपाकाद्युपायतः स्वगतमललेपापगमे प्रकाशयति, एवमात्मापि ज्ञस्वभावः कर्म | मलकलवाङ्कितः प्रागशेष वस्त्वप्रकाशयन्नपि सम्यक्त्वज्ञानतपोविशेषसंयोगोपायतोऽपेतसमस्तावरणः समस्तं वस्तु प्रकाशयति, प्रतिवन्धकाभावात् , न चाप्रतिवद्धस्वभावस्यापि तस्य सर्वत्र प्रकाशनव्यापाराभावो, ज्ञस्वभावत्वात्, न हि ज्ञो | ज्ञेये सति प्रतिबन्धशून्यो न प्रवर्तते, अथ पद्मरागोऽपि प्रकाशकस्वभावः, न चासौ प्रतिबन्धाभावे सर्व प्रकाशयति,
ततस्तेनैव व्यभिचार इति, तदसम्यक्, तस्य सन्निकृष्टार्थप्रकाशनस्वभावत्वाद् विप्रकृष्टविषये देशविप्रकर्षेणैव प्रतिबन्धभादवात् , न चात्मनोऽपि देशविप्रकर्षः परिच्छेदप्रतिबन्धहेतुः,तस्यागमगम्येषु सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेवखिलपदार्थेष्वधिगतिसा* मर्यदर्शनात् , तथा च परमाणुमूलकीलकोदकामरलोकचन्द्रोपरागादिपरिच्छेदसामर्थ्यमस्यागमोपदेशतः क्षयोपशमवतोऽपि
दृश्यते, एवं साक्षात्कारि क्षायिकमिति प्रतिपत्तव्यमिति क्षायिकज्ञानवता प्रत्यक्षा नारकाः, भवतोऽप्यनुमानगम्याः, तचेदमनुमान-विद्यमानोत्कृष्ट प्रकृष्टपापफलं कर्मफलत्वात् पुण्यफलवत्, न च तिर्यरा एव प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात्, अनुत्तरसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत् , तथा आगमप्रमाणगम्याश्चैते,
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६२९-६३२], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यके 13ायत एवमागम:-"सततानुबन्धयुकं दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम् । तिर्यक् तृष्णाभयाधादि दुःखं सुखं चाल्पम् ॥१॥ अचल: श्रीमलय- सुखदुःखे मनुजानां मनाशरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव तु देवानामपं दुःखं तु मनसिभवम् ॥२॥" इत्यादि, एवम्- पुण्यपापसमवसरणे
छिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुफेणं । सो समणो पबहतो तिहिं तु सह खंडियसएहिं ॥ १२९ ।।. सिद्धिः
व्याख्या पूर्ववत् , नवरमत्र नानात्वं त्रिभिः खण्डिकशतैरिति । ॥३३॥
अष्टमो गणधरः समाप्तः ।। ते पाए सो अपलो आगच्छई जिणसगासं । वच्छामि ण चंदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ ३० ॥ व्याख्या पूर्ववत्, नवरमचलचाता आगच्छति जिनसकाशमिति विशेषा,
आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सवत्सबदरिसीण ॥ ६३१ ।। अस्याः सपातनिका व्याख्या पूर्ववत् । . किं मन्ने पुण्णपावं अत्थी नस्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ॥६३२॥
(किं पुण्यपापे स्तः किं वा नेति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो दर्शना-101 अन्तरविरुद्धश्रुतिप्रभवश्च, तानि चामूनि वेदपदानि-'पुरुष एवेदं निं सर्व'मित्यादि, अस्य यथा द्वितीयगणधरवक्तव्यतायां | मान्याख्या तथाऽत्रापि, तथा सौम्ब ! अचलनातस्त्वमित्थं मन्यसे-दर्शनविप्रतिपत्तिश्चात्र, तत्र केषांचिदर्शनं-पुण्यमे
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [६२९-६३२], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
वैकमस्ति न पापं तदेव चावाधप्रकर्षावस्थं स्वर्गाय क्षीयमाणं मनुष्यतिर्यनरकादिभवफलाय, तदशेषक्षयाञ्च मोक्ष इति, यथा अत्यन्तपथ्याहारसेवनादुत्कृष्टमारोग्यसुखं भवति, किश्चित्पथ्याहारपरिवर्जनाच्चारोग्यसुखहानिः, अशेषाहारपरिक्षयाच्च सुखाभावकल्पोऽपवर्गः, अन्येषां तु पापमेवैकं, न पुण्यमस्ति तदेव चोत्तमास्थामनुप्राप्तं नारकभवायालं, क्षीयमाणं तिर्यङ्गरामरभवायेति, तदत्यन्तक्षयाच्च मोक्ष इति यथा अत्यन्तापथ्याहारसेवनात् परममनारोग्यं तस्यैव किञ्चित्किञ्चिदपकर्षादारोग्यसुखं, अशेषपरित्यागात् मृतिकल्पो मोक्ष इति, अन्येषां तूभयमप्यन्योऽन्यानुविद्धस्वरूपकल्पं सम्मिश्र - सुखदुःखाख्य हेतुफलभूतं, तथाहि नैकान्ततः किल संसारिणः सुखं दुःखं वाऽस्ति, देवानामपि चेर्ष्यादियुक्तत्वात्, नारकाणामपि वा पञ्चेन्द्रियत्वानुभवात् इत्थंभूतपुण्यपापाख्यबस्तुक्षयाच्च मोक्ष इति, अपरेषां तु स्वतन्त्रमुभयं विविधसुखदुःखकारणं, तत्क्षयाच्च निःश्रेयसावाप्तिरिति, तदेवं दर्शनानां परस्परविरुद्धत्वेनाप्रमाणत्वादस्मिन् विषये प्रमाणाभाव इति । तथा 'पुण्यः पुण्येनेत्यादिना प्रतिपादिता तत्सचा, ततः संशयः, तत्र वेदपदानां चार्थे, चशब्दात् युक्तिं हृदयं च न जानासि, यतस्तेषामयमर्थः, तत्र यथा द्वितीयगणधरवतव्यतायां वेदपदानामर्थः स्वभावपक्षनिराकरणप्रवणोऽभिहितस्तथाऽत्र वक्तव्यः, सामान्यकर्म्मसिद्धिरपि तथैव वक्तव्या, यच दर्शनानामप्रामाण्यं परस्पर| विरुद्धत्वेन मन्यसे तदसाम्प्रतम्, एकस्य प्रमाणत्वात्, तथाहि पाटलिपुत्रादिविविधस्वरूपाभिधायकाः सम्यकस्वरू पाभिधायकयुक्ताः परस्परविरुद्धवचसोऽपि न सर्व एवाप्रमाणतां भजन्ते तत्र यत्प्रमाणं तत् अप्रमाणनिरासद्वारेण प्रदर्शयिष्यामः, तत्र न तावत्पुण्यमेवापचीयमानं दुःखकारणं, तस्य सुखहेतुत्वेनेष्टत्वात् स्वल्पस्यापि स्वसुख
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६२९-६३२], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यके। साधकत्वात् , तथा चाणीयसो हेमपिण्डादणुरपि सौवर्ण एवं घंटो भवति, न मार्तिको राजतो वेति, न 1 श्रीमलय- पुण्याभावो दुःखहेतुस्तस्य निरुपाख्यतया हेतुत्वायोगात्, न च सुखाभाव एवं स्वसत्ताविकलो दुःखं, तस्यानुभूयमान
पुण्यपापसमवसरणे त्वात् , ततः स्वानुरूपकारणपूर्विका दुःखानुभूतिः अनुभूतित्वात् सुखानुभूतिवदिति केवलपुण्यवादनिरासः, केवलपाप- सिद्धिः
| पक्षेऽपि इदमेवोपपत्तिजालं विपरीतं वक्तव्यं, नापि सर्वथाऽन्योऽन्यानुविद्धस्वरूपमुभयात्मकमेकं निरंशवस्त्वन्तरमभ्युप-10 गन्तुं युक्तं, सम्मिश्रसुखदुःखाख्यकार्यप्रसङ्गात् , अथ च परस्परपरिहारेण विविक्त सुखदुःखे अनुभूयेते, तथा स्वसंवेदन-18 प्रमाणसिद्धत्वात् , अन्यच्च-केवलसुखानुभवः श्रूयतेऽनुत्तरसुराणां, केवलदुःखानुभवो नारकाणां, न च सर्वथा सम्मि-16 त्रैकरूपात्कारणादेवं विविक्तः कार्यभेदो युक्तः, तस्मादन्यदेव निमित्तं सुखातिशयस्यान्यदेव च दुःखातिशयस्य, न च
सर्वथैकरूपत्य सुखातिशयनिवन्धनांशवृद्धिर्दुःखातिशयकारणांशहान्या सुखातिशयप्रभवाय दुःखातिशयनिबन्धनांशहै वृद्धिः सुखातिशयकारणांशहान्या दुःखातिशयप्रभवाय कल्पयितुं न्याय्या, भेदप्रसङ्गात्, तथा च यद्बुद्धावपि यस्य
वृद्धिर्न भवति तत्ततो. भिन्न प्रतीतमेवेति सर्वधैकरूपता पुण्यपापयोर्न सङ्गता, कर्मसामान्यापेक्षया त्वविरुद्धाऽपि
तथाहि-सातसम्यक्त्व हास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यमन्यत् पापं, सर्व च तत् कर्मेति, तस्माद्विविके पुण्यद्विपापे इति प्रतिपत्तव्यम् , सर्वस्यापि च संसारिण एतदुभयमप्यस्ति, केवलं किश्चित् कस्यचिदुपशान्तं किञ्चित्क्षयोपशम-18
मुपगतं किश्चित् क्षीणं किञ्चिदुदीण ततः सुखदुःखवैचित्र्यं जन्तूनामिति ।
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॥३३
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(४०)
"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६३३-६३६], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
छिन्नमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुक्केण । सो समणो पञ्चइओ तीहि उ सह खंडियसएहि ॥ ३३॥ व्याख्या पूर्ववत् ॥
नवमो गणधरः समाप्तः ।। से पबदए सो मेयजो आगच्छई जिणसगासं । वचामिण वंदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ ६३४॥ पूर्ववत्, नवरं मेतार्य आगच्छतीति नानात्वम् ।
आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविष्पमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सवन्न्सबदरिसीण ॥ ६३५ ॥ अस्याः सपातनिका ब्याख्या पूर्ववत् । |कि मन्ने परलोगो अस्थी नस्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्यं न गाणसी तेसिमो अत्थो ।। ६३६ ॥
कि परलोको-भवान्तरगतिलक्षणोऽस्ति किंवा नास्तीति मन्यसे. व्याख्यान्तरं पूर्ववत् । अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुति निवन्धनः, तानि च वेदपदान्यमूनि-विज्ञानधन एवैतभ्यो भूतभ्य' इत्यादीनि, तथा 'स वै अयमात्मा * ज्ञानमय' इत्यादीनि च प्रथमगणधरवक्तव्यतायामिव भावनीयानि, तथा सौम्य ! त्वमित्थं मन्यसे-भूतसमुदायधर्मश्चैतन्यमिति कुतो भवान्तरलक्षणपरलोकसम्भवो, भूतसमुदायविनाशे चैतन्यस्यापि विनाशात् , अन्यच्च-भवेदात्मा तथापि स नित्योऽनित्यो वा !, तत्र नित्यपक्षेऽप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वभावतया विभुतया च परलोकाभावः, अनित्य-11 पक्षेऽपि निरन्वयविनश्वरस्वभावतया कारणक्षणस्य सर्वथा विनाशे उत्तरकालमिह लोकेऽपि क्षणान्तराप्रभव इति
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... अथ दशम-गणधरस्य वृतांतं आरभ्यते
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(४०)
"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६३७-६३९], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
18कुतः परलोकसम्भवः १, तब वेदानां चार्थ, पशब्दाधुक्किं हृदयं च, तेषां च वेदपदानामयमर्थः-तत्र विज्ञानपनेत्यादीनां मेताः श्रीमलय-16 पूर्ववद्वाच्यः, न च भूतसमुदायश्चैतन्यं, सन्निकृष्टदेहोपलब्धावपि चैतन्यविशेषानुपलम्भात्, इह यस्मिन्नुपलब्धेऽपि । परलोकसमवसरणे यदवश्यं नोपलभ्यते तत् ततो भिन्नं, यथा घटात् पटः, नोपलम्यते च देहोपलब्धावपि चैतन्यविशेष इति, इतश्च
सिद्धिः देहादन्यचैतन्यं चलनादिचेष्टानिमित्तत्वात् , इह यत् यस्य चलनादिचेष्टानिमित्तं तत्ततो भिन्नं दृष्ट, यथा मरुत् || ॥३३४॥
पादपात्, चलनादिचेष्टानिमित्तं च चैतन्यं देहस्येति न देहस्य धर्मश्चैतन्यं, किन्त्वात्मनः, तस्य चानादिमत्कर्मसन्ततिसमालिङ्गितत्वादुत्पादव्ययघौव्ययुक्तत्वाच कर्मपरिणामापेक्षा मनुष्यादिपर्यायनिवृत्त्या देवादिपर्यायान्तरमाप्तिरस्त्यवि-10 रुद्धेति परलोकसिद्धिः, यदपि च नित्यानित्यैकान्तपक्षोकं दूषणं तदपि जात्यन्तरात्मकनित्यानित्यशबलरूपपक्षाभ्युपगमेन तिरस्कृतत्वान्न नो दौकत इति ।
छिन्नमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुकेण । सो समणो पचहतो तिहिं सह खंडियसएहिं ॥ ६३७ ॥ व्याख्या पूर्ववत् ।
दशमो गणधरः समाप्तः ॥ ते पचहए सोउं पभास आगई जिणसगासे । वचामिण बंदामी बंदित्ता पञ्जवासामि ॥ ६३८॥
॥३४॥ व्याख्या पूर्ववत्, नवरं प्रभास आगच्छतीति नानात्वं ।
आभट्ठोय जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्षेण । नामेण य गोत्तेण य सवत्सबदरिसीण ॥ ६३९॥
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... अथ एकादशम-गणधरस्य वृतांत आरभ्यते
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अनुक्रम
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-३
अध्ययनं [-],
निर्युक्तिः [ ६४० ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
wer: पातनिका व्याख्या पूर्ववत् ।
किं मन्त्रे निवाणं अत्थी नत्थित्ति संसयो तुज्झ । बेयपयाण य अत्यं न याणसी तेसिमो अत्थो । ६४० ।। किं निर्वाणमस्ति किंवा नास्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत्, अयं च संशवस्तव विरुद्ध वेदपदश्रुतिनिबन्धनः, तानि च वेदपदाम्यमूनि 'जरामर्ये वा एतत्सर्व यदग्निहोत्रं' तथा 'सैषा गुहा दुरवगाहा' तथा 'द्वे ब्रह्मणी परमपरं च, तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तरं ब्रह्मेति तेषां चायमर्थस्तव चेतसि वर्त्तते यदेतदग्निहोत्रं तत् जरामर्यमेव-यावज्जीवं कर्त्तव्यमिति, अग्निहोत्रक्रिया च भूतवधहेतुत्वात् सत्रलरूपा, सा च स्वर्गफलैब स्यात्, नापवर्गफला, यात्रजीवमिति धोके कालान्तरं नास्ति यत्रापवर्गहेतुभूतक्रियान्तरारम्भः स्वात्, तस्मात्साधनाभावात् मोक्षाभावः, तदेवममूनि किल वेदपदानि मोक्षाभावप्रतिपादकानि शेषाणि तु तदस्तित्वसूचकानि, यतो गुहान्त्र मुक्तिरूपा, सा च संसाराभिनन्दिना दुरबगाहा— दुष्प्रवेशा, तथा परं ब्रह्म सत्यं - मोक्षः, अनन्तरं तु ज्ञानमिति, अमूनि मोक्षास्तित्वप्रतिपादकानीति तब संशयः, तथा सौम्य । त्वमित्थं मन्यसे- संसारभवो मोक्षः, संसारश्च रागादिनिबन्धनः, रागादीनां चात्यन्तिकः क्षयोऽनुपपन्नः, तथाहि - रागादयो जन्तोरनादिमन्तो, यच्चानादिमत् न तद्विनाशमाविशति, तथा प्रमाणेन प्रतीतेः तच्च प्रमाणमिदं यद् अनादिमत् न तद्विनाशमाविशति, यथाऽऽकाशम्, अनादिमन्तश्च रागादय आत्मनो व्यतिरिक्ता वा भवेयुरव्यतिरिक्ता वा १, व्यतिरेके सर्वेषां वीतरागत्वप्रसङ्गः, रागादिभ्यो व्यतिरिक्तत्वात्, विवक्षितपुरुषवत्, अथाव्यतिरिक्तास्ततस्तत्प्रक्षये आत्मनोऽपि क्षयप्रसङ्गः, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत्, तथा च कुतस्तस्य वस्तुतो मोक्ष १, तस्यैवाभावादिति, तत्र
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-1, नियुक्ति: [६४०], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
मवसरणे
सत्राक
आवश्यक वेदपदानां चार्थ, पशब्दात् युकिं हृदयं च न जानासि, यतस्तेषामबमर्थः 'जरामर्थ वेति वाशब्दोऽप्यर्थे, ततश्च यदेतद- प्रभासः श्रीमलय-12 मिहोत्रं तत् यावजीवं-सर्वमपि कालं कर्त्तव्यम् , वाशब्दात् मुमुक्षुभिर्मोक्षहेतुभूतमप्यनुष्ठान विधेयमिति नापवर्गप्रा-१ निर्वाण
|पणक्रियारम्भकालास्तिता निषिद्धा, तथा यद्यपि रागादयो दोपा जन्तोरनादिमन्तस्तथापि कस्यचित्खीशरीरादिषु। सिद्धिः
यधावस्थितवस्तुतत्त्वावगमेन तेषां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृश्यते, ततः सम्भाव्यते विशिष्टकालादिसामग्री। ३३५॥
सद्भावे भावनाप्रकर्षविशेषभावतो निर्मूलमपि क्षयः, अथ यदि प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृष्टस्तथापि तेषामात्य-13 न्तिकोऽपि क्षयः सम्भवतीति कथमवसीयते !, उच्यते, अन्यत्र तथा प्रतिबन्धग्रहणात् , यथा शीतस्पर्शसम्पाद्या रोमहपोदयः शीतप्रतिपक्षस्य वहेमन्दतायां मन्दा उपलब्धाः उत्कर्षे च निरन्वयविनाशधर्माणः,ततोऽन्यत्रापि वाधकस्य मन्दतायां* बाध्यस्य मन्दतादर्शनाद्वाघकोत्कर्षे बाध्यस्यावश्यं निरन्वयविनाशो वेदितव्यः, अन्यथा बाधकमन्दतायां मन्दता न स्यात्, अथास्ति ज्ञानस्य ज्ञानावरणीयं बाधक, ज्ञानावरणीयकर्ममन्दतायां च ज्ञानस्यापि मनाक् मन्दता, अथ च प्रवल ज्ञाना-16 वरणीयकोर्दयोत्कर्षेऽपि न ज्ञानस्य निरन्वयो विनाशः, एवं प्रतिपक्षभावनोत्कर्षेऽपि न रागादीनामत्यन्तोच्छेदो भवियति, तदयुक्त, द्विविध हि बाध्यं सहभूस्वमावं तदन्यथाभूतं च, तत्र यत् सहभूस्वभावभूतं तन्न कदाचनापि निरन्वयं विनाशमुपयाति, ज्ञानं चात्मनः सहभूस्वभावम् , मात्मा च परिणामिनित्यः, ततोऽत्यन्तप्रकर्षवत्यपि ज्ञानावरणीयकर्मोदये से ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशा, रमादयस्तु लोमादिकर्मविपाकोदयसम्पादितसत्ताकास्ततः कर्मणो निर्मूलमपगमे तेऽपि निर्मूलमपगच्छन्ति, नम्बासतां कर्मसम्पाधा रागादया, तथापि कर्मा निवृत्तों ते निवर्तन्ते इति नावश्य नियमो, नहि
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६४०], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
CCCC0
दहननिवृत्तौ तत्कृता काठे अङ्गारता निवर्त्तते, तदसत्, यत इह किश्चित् कचित् निवर्त्य विकारमापादयति, यथा अग्निः सुवर्णे द्रवां, तथाहि-अग्निनिवृत्ती तत्कृता सुवर्णे द्रवता निवर्त्तते, किश्चित् पुनः कचित् पनिवर्त्यविकारारम्भक, यथा स पवाग्निः काठे, न सलु श्यामतामात्रमपि कायदहननिवृची निवर्चते, कर्म चात्मनि अनिवर्त्यविकारारम्भक भवेत्ताह यदपि तदपि कर्मणा कृतं न कर्मनिवृत्ती निवात, बवा अभिना श्यामतामात्रमपि काठे कृतमग्निनिवृत्ती, ततश्च यदेकदा कर्मणाऽऽपादितं मनुष्यत्वममरत्वं कृमिकीटत्वं शिरोवेदनादि च तत्सर्वकालं सवैचावतिष्ठेत, न चैतत् दृश्यते,तस्माभिवर्त्यविकारारम्मकं कर्म, ततः कर्मनिवृत्तौ रागादीनामपि निवृत्तिः, यदपि प्रागुपन्यस्त प्रमाणं | यदनादिमत् न तद्विनाशमाविशति यथाऽऽकाश मिति, तदप्यमाणं, हेतोरनैकान्तिकत्वात् , प्रागभावेन व्यभिचारात् , तथाहि-प्रागभावोऽनादिमानपि विनाशमाविशति, अन्यथा कार्यानुत्पत्तेः, भावनाधिकारी च सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसम्पत्समन्वितो वेदितव्यः, इतरस्य तदनुरूपानुष्ठानप्रवृत्त्वभावेन तस्या मिथ्यात्वरूपत्वात् , आह च प्रवचनम्-"नाणी तमि निरओ चारित्ती भाषणाए जोगों"त्ति, सा च भावना रागादिदोषनिदानस्वरूपविषयफलगोचरा यथागममवसाहातव्या, "ज कुच्छियाणुजोगो पयइविसुद्धस्स चेव जीवस्स । एएसिमो नियाण बुहाण न य सुंदरं एयं ॥१॥ रूबंपि|
संकिलेसोऽभिस्संगापीइमाइलिंगार । परमसुहपञ्चणीओ एयपि असोहणं चेव ॥२॥ विसओ व भंगुरो खलु गुणरहिओ तह #य तहऽतहारूयो । संपत्तिनिष्फलो केवलं तु मूलं अणत्याणं ॥ ३ ॥ जम्मजरामरणाई विचित्तरूवो फलं तु संसारो।
बुहजणनिवेयकरो एसोवि तहाविझे चेव ॥४॥(धर्म. ११६९-७०-१-२) अपिच-सूत्रानुसारेण ज्ञानादिषु यो
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ६४० ], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [ १३२...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
आवश्यके
समवसरणे
नैरन्तर्येणाम्यासस्तद्रूपा भावना वेदितव्या, तस्या अपि रागादिप्रतिपक्षत्वात्, नहि तत्त्ववृत्त्या सम्यग्ज्ञानाद्यभ्यासव्याश्रीमलय-पृतमनस्कस्य स्त्रीशरीररामणीकादिविषयः चेतःप्रवृत्तिमातनोति, तथानुपलम्भात्, यदप्युक्तं 'किञ्च - रागादय आत्मनो व्यतिरिक्ता वा भवेयुरव्यतिरिक्ता वा' इत्यादि, तदप्ययुक्तं, भेदाभेदपक्षस्य जात्यन्तरस्याभ्युपगमात् केवल भेदाभेदपक्षे धर्म्मधम्मिभावानुपपत्तेः तथाहि धर्म्मधर्मिणोरेकान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमाने धर्मिणो निःस्वभावतापत्तिः, स्वभाव॥ ३३६ ॥ स्यापि धर्मत्वात्, तस्य च ततोऽन्यत्वात्, स्वः भावः स्वभावः स्वस्यैव चात्मीया सत्ता, नतु तदर्थान्तरं धर्म्मरूपं, ततो न निःस्वभावतापत्तिरिति चेत् न, इत्थं स्वरूपसत्ताभ्युपगमे तदपरसत्तासामान्ययोगकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गात्, अपिचज्ञेयत्वादिभिर्धम्मैरननुवेधात् तस्य सर्वथाऽनवगमप्रसङ्गो, 'न ह्मज्ञेयस्वभावं ज्ञातुं शक्यते' इति न्यायात्, तथा च तदभा वप्रसङ्गः कदाचिदप्यवगमाभावात्, तथापि तत्सत्त्वाम्युपगमेऽतिप्रसङ्गः, अन्यस्यापि यस्य कस्यचित् अनवगतस्य षष्ठभूतादेर्भावापत्तेः एवं च धर्म्यभावे धर्माणामपि ज्ञेयत्वप्रमेयत्वादीनां निराश्रयत्वादभावापत्तिः, नहि धर्माधाररहिताः कापि धर्माः सम्भवन्तीति, अन्यच्च – परस्परमपि तेषां धर्माणामेकान्तेन भेदाभ्युपगमे सत्त्वाद्यभ्युपगमेऽपि सत्त्वाद्यननुवेधात् कथं भावाम्युपगमः १, तदन्यसत्त्वादिधर्माभ्युपगमे च धर्मित्वप्रसक्तिरनवस्थावत्ता च तन्नैकान्तभेदपक्षे धमिधर्म्मभावो|पपत्तिः, नाप्येकान्ताभेदपक्षे, यतस्तस्मिन्नभ्युपगम्यमाने धर्ममात्रं वा स्यात् धर्मिमात्रं वा, अन्यथैकान्त भेदायोगात्, अन्यतराभावे चान्यतरस्याभावः, परस्परनान्तरीयकत्वात्, धर्मानन्तरीयको हि धम्मीं धर्म्मिनान्तरीयकाच धर्माः, ततः कथमेकस्वाभावेऽपरस्वावस्थानमिति, कल्पितो धर्म्मधम्मिभावस्ततो न दूषणमिति चेत्, तर्हि वस्त्वभावप्रसङ्गः, नहि
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प्रभासः
निर्वाण
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६४०], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
धर्माधम्मिस्वभावरहितं किञ्चिद्धस्त्वस्ति, धर्माधम्मिभावश्च कल्पित इति तदभावप्रसङ्गा, धर्मा एव कल्पिता न धम्मी तत्कथमभावप्रसङ्ग इति चेन्न, धर्माणां कल्पनामात्रत्वाभ्युपगमेन परमार्थतोऽसत्त्वाभ्युपगमाद्, तदभावे धम्मिणो:प्यभावापत्तेः, अथ तदेवैकं स्वलक्षणं सकलसजातीयव्यावृत्त्येकस्वभावं धम्मि विजातीयव्यावृत्तिनिबन्धनाश्च या व्यावृत्तयो भिन्ना इव कल्पितास्ता धर्माः, ततो न कश्चिद्दोषः, तदप्ययुक्तम् , एवं कल्पनायां वस्तुनोऽनेकान्तात्मकताप्रसक्के, अन्यथा सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्त्ययोगात्, नहि येनैव स्वभावेन घटादू व्यावर्तते पटस्तेनैव स्तम्भादपि, स्तम्भस्य पटरूपताप्रसकेः, तथाहि-घटाद् व्यावर्त्तते पटो घटव्यावृत्तिस्वभावतया, स्तम्भादपि चेत् घटव्यावृत्तिस्वभावतयैव व्यावर्त्तते तर्हि बलात् स्तम्भस्य घटस्वरूपताप्रसकिः, अन्यथा ततस्तत्स्वभावतया तव्यावृत्त्ययोगात् , तस्मात् यतो व्यावर्त्तते |
यत् तत्तद्द्यावृचिनिमित्तभूताः स्वभावा अवश्यमभ्युपगन्तव्याः, ते च नैकान्तेन धर्मिणो भिन्नास्तदभावप्रसङ्गात् , तथा हीच तदवस्थ एव पूर्वोको दोषः, तस्माद्भिन्नाभिन्नाः, भेदाभेदोऽपि धर्मधम्मिणोः कथमिति चेत्, उच्यते, इह यद्यपि
तादात्म्येन धर्मिणा धर्माः सर्वे लोलीभावेन ब्याधास्तथाऽप्ययं धर्मी एते धर्मा इति परस्परं भेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तद्भावानुपपत्तिः, तथा च सति प्रतीतिबाधा, मिथो भेदेऽपि च विशिष्टान्योऽन्यानुवेधेन सर्वधर्माणां धर्मिणा व्याप्तत्वात्
अभेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तस्य धर्मा इति सम्बन्धानुपपत्तिः, ततश्च न सर्वेषां वीतरागत्वप्रसङ्गः, केवलभेदस्यानभ्युपगमा.सू.५० माद, नापि दोषक्षये तदात्मनोऽपि क्षयः, केवळाभेदस्यानभ्युपगमादिति न काचित् शतिः ॥
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आवश्यके नीमलय
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भाग-३
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ६४१-६४३], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...] मूलं [- /गाथा -] रत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृ
छिमि संसयंमी जाहजरामरणविप्पमुषेणं । सो समणो पइतो तिथंड सह खंडियसएहिं ॥ ६४१ ॥ व्याख्या पूर्ववत् । एकादशो गणधरः समाप्तः ||
रक्ता गणधर संशयापनयनवक्तव्यता, साम्प्रतमेतेषामेव वक्तव्यताशेषप्रतिपादनार्थे द्वारगाथामाह-वित्ते काले जम्मे गुत्तमगार उमत्थपरिआए । केवलिज आउ आगम परिनिवाणे तवे चैव ।। ६४२ ।। अत्र एकारान्ताः शब्दाः प्राकृतत्वात् प्रथमाद्वितीयान्ता द्रष्टव्याः, ततोऽयमर्थः - गणधरानधिकृत्य क्षेत्रं - जनपदप्रामनगरादि वक्तव्यं, जन्मभूमिर्वाच्येत्यर्थः तथा कालो नक्षत्रचन्द्रयोगोपलक्षितो वाच्यः, तथा जन्म वक्तव्यं, जन्म च | मातापित्रायत्तमित्यतो मातापितरौ बाच्यौ, तथा गोत्रं यत् यस्य तद्वाच्यम्, 'अगारछ उमत्थपरियार' इति पर्यायशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, अगारपर्यायः - गृहस्थपर्यायो वाच्यः, तथा छद्मस्थपर्यायश्चेति, तथा केवलिपर्यायो वाच्यः, सर्वायुष्कं वाच्यं तथा आगमो वाच्यः कस्य क आगम आसीदिति तथा परिनिर्वाणं वाच्यं कस्य भगवति सति परिनिर्वाणमासीत्?, कस्य वा भगवति परिनिर्वृते इति, तथा तपो वक्तव्यं यथा किं केनापवर्ग गच्छता तप आचरितमिति, चशब्दात् संहननादि च वक्तव्यमिति, गाथासमुदायार्थः ॥ इदानीमवयवार्थः प्रतिपाद्यते, तत्र आद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सया प्राह
मगहा गुब्बरमामे जाया तिन्नेव गोयमसगुप्ता । कुल्लागसन्निवेसे जाउ वियतो सुहम्मो अ ॥ १४३ ॥
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गणधराणां प्रामादि
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६४४-६४७], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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wi मोरीअसंनिवसे दो भायर मंडि-मोरिआ जाया।अपलो अकोसलाए मिहिलाए अकंपिओजाओ॥५४४॥1 घा तुंगीअसं निवेसे मेअब्रो वच्छभूमिए जाओ। भगपि य पभासो रायगिहे गणहरो जाओ। ६४५॥ है। मगधेषु जनपदेषु गोम्वरनामे जातात्रय पवाद्या गणधराः, कथम्भूता एते त्रयोऽपीत्याह-गौतमसगोत्राः सह
गोत्रं येषां ते सगोत्राः गौतमेन गोत्रेण सगोत्रा गौतमसगोत्राः, गौतमाभिधगोत्रयुक्ता इत्यर्थः, तथा कोल्लाकसनिवेशे १जातोऽव्यक्तः सुधर्मश्च, मौर्यसन्निवेशे द्वौ भ्रातरौ मण्डिकमायौँ जाती, अचलश्च कोशलायां मिथिलायामकम्पिको जात
इति, तुङ्गिके सन्निवेशे वत्सभूमौ कौशाम्बीविषये इत्यर्थः, मेतार्यों जाता, भगवानपि च प्रभासो राजगृहे गणधरो जातः ॥ सम्पति कालद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यः, कालश्च नक्षत्रचन्द्रयोगोपलक्षित इति यत् यस्य गणभृतां नक्षत्रं तदभिधित्सुराह- .
जेट्टा कत्तिय साई सवणो हत्युत्तरा महाओ अ।रोहिणि उत्तरसाढा मिगसिर तह अस्सिणी पुस्सो॥४६॥ | इन्द्रभूतेजन्मनक्षत्रं ज्येष्ठा अग्निभूतेः कृत्तिकाः वायुभूतेः स्वातिय॑तस्य श्रवणः सुधर्मस्य हस्त उत्तरो यास ता
हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्य इत्यर्थः, मण्डिकस्य मघाः, मौर्यस्य रोहिणी, अकम्पिकस्य उत्तराषाढा, अचलचातु: मृगशिरः, समेतायेस्य अश्विनी, प्रभासस्य पुष्यः। अधुना जन्मद्वारं प्रतिपाद्य, जन्म च मातापित्रायत्तमिति गणभृतां मातापितरा-1 वेव प्रतिपादयतिवसुई घणमित्तो घम्मिल धणदेव मोरिए चेव । देथे बसू अक्त्ते बले अपिअरो गणहराणं ॥ ६४७॥
दीप अनुक्रम
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[H]
दीप
अनुक्रम
H
आवश्यक
श्रीमलयसमवसरणे
॥ ३३८ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ६४८-६५१], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
आद्यानां त्रयाणां गणभृतां पिता वसुभूतिः, व्यक्तस्य धनमित्रः, सुधर्म्मस्य धम्मिल्लः, मण्डिकस्य धनदेवः, मौर्यस्य मौर्यः, अकम्पिकस्य देवः, अचलभ्रातुर्वसुः, मेतार्यस्य दत्तः, प्रभासस्य बलः, एवं पितरो गणधराणां भवन्ति ॥ पुहवी अ वारुणी महिला य विजयदेवा तहा जयंती व नंदा य वरुणदेवा अई भद्दा य मायरो | ६४८ ।।
आद्यानां त्रयाणां गणभृतां माता पृथिवी, व्यक्तस्य वारुणी, सुधर्म्मस्य भद्रिला, मण्डिकमौर्यपुत्राणां विजयदेवा पितृभेदेन, धनदेवे पञ्चत्वमुपागते मण्डिकपुत्रसहिता मौर्येण धृता, ततो मौर्यो जातः, अविरोधश्च तस्मिन् देशे इत्यदूषणं, जयन्ती माता अकम्पिकस्य, नन्दा अचल भ्रातुः, वरुणदेवा मेतार्यस्य अतिभद्रा प्रभासस्य ॥ सम्प्रति गोत्रद्वाराभिधानार्थमाह
तिनिय गोयमगुत्ता भारद्दा अग्गिवेस वासिद्धा । कासव गोअम हारिअ कोडिन्नदुगं च गुत्ताहं ॥ ६४९ ॥ त्रय आद्या गणभृतो गौतमगोत्राः, भारद्वाजो व्यक्तः, अग्निवेश्यायनः सुधर्मः, वासिष्ठो मण्डिकः, काश्यपो मौर्षिकः, गौतमोऽकम्पिकः, हारितोऽचलभ्राता, कौण्डिन्यौ मेतार्यः प्रभासश्च ॥ अधुना अगारपर्यायद्वारप्रतिपादनार्थमाहपन्ना छायालीसा बायाला होइ पन्न पन्ना य । तेवन्न पंचसट्ठी अडयालीसा व छायाला ॥ ६५० ॥ छत्तीसा सोलसगं अगारवासो भवे गणहराणं । छउमत्थं परियागं अहकर्म कित्तइस्सामि ॥ ६५१ ॥ इन्द्रभूतैरगारपर्यावः पञ्चाशद्वर्षाणि, अग्निभूतेः षङ्गत्वारिंशद्, वायुभूतेर्द्वाचत्वारिंशत्, व्यक्तस्य पञ्चाशत्, सुधर्मणः
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गणधराण पित्रादि
॥३३८॥
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आगम
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
H
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [६५२-६५६ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...] मूलं [- /गाथा -] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पञ्चाशत्, मण्डिकस्य पञ्चषष्टिः, मौर्यस्य त्रिपञ्चाशत्, अकम्पितस्याष्टाचत्वारिंशत्, अचलभ्रातुः षट्चत्वारिंशत्, मेतार्यस्य पत्रिंशत्, प्रभासस्य षोडश । अत ऊर्ध्वं छद्मस्थपर्यायं यथाक्रमं कीर्त्तयिष्यामि ॥ प्रतिज्ञातमेवाहतीसा वारस दसगं बारस बापाल चउदसद्गं च । नवगं वारस दस अट्ठगं च छउमत्थपरिआओ ।। ६५२ ।। इन्द्रभूछा स्थपर्यायस्त्रिंशद्वर्षाणि, अग्निभूतेर्द्वादश वायुभूतेर्वर्षदशकं व्यक्तस्य द्वादश सुधर्म्मणो द्वाचत्वारिंशत् मण्डिकस्य चतुर्द्दश मौर्यस्यापि चतुर्दश अकम्पितस्य वर्षनवकं अचल भ्रातुर्द्वादश वर्षाणि मेतार्यस्य दश प्रभासस्य वर्षा - ष्टकमेषामेव यथाक्रमं छद्मस्थपर्यायः ॥ केवलिपर्यायपरिज्ञानोपायमाह
छमत्थप्परियागं अगारवासं च वुक्कसित्ताणं । सवाउअस्स सेसं जिणपरियागं वियाणाहि ।। ६५३ ॥ वारस सोलस अद्वारसेव अट्ठारसेव अट्ठेव । सोलस सोलस इगवीस चउदस सोले अ सोले अ ॥ ६६४॥ छद्मस्थपर्यायमगारवासं च व्यवकलय्य यत् सर्वायुष्कस्य शेषं तत् जिनपर्यायं विजानीहि स चायं जिनपर्यायः, इन्द्रभूतेः केवलिपर्यायो द्वादश वर्षाणि, अग्निभूतेः षोडश, वायुभूतेरष्टादश, व्यक्तस्याष्टादश, सुधर्मणोऽष्टौ मण्डिकस्य पोडश, मौर्यपुत्रस्य पोडश, अकम्पितस्य एकविंशतिः, अचलभ्रातुश्चतुर्दश, मेतार्यस्य षोडश, प्रभासस्य षोडश ॥ सम्प्रति सर्वायुष्कमाह---
बाणउई उहरि सत्तरि तत्तो भवे असीई य । एवं च सयं ततो तेसीई पंचनउई आ ।। ६५५ ।। अत्तरं च वामा तत्तो वावसरिं च वासाई । बावट्टी बसा खल सबगणहराउअं एअं ॥ ६२६ ।।
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६५७-६५८], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
गणपराणामा
प्रत
युरादि
सत्राक
दीप अनुक्रम
आवश्यके इन्द्रभूतेः सर्वायुनिवतिर्वाणि, अग्निभूतेश्चतुःसप्ततिः, वायुभूतेः सप्ततिः, यकस्य अशीतिः, सुधर्मस्य एकं वर्षशत, श्रीमलय- मण्डिकस्य पञ्चनवतिर्वर्षाणि, मौर्यपुत्रस्य त्र्यशीतिः, अकम्पिकस्याष्टसप्ततिः, अचलभातुर्दासप्ततिः, मेतार्यस्य द्वाषष्टिः, समवसरणे प्रभासस्य चत्वारिंशत्, एवं क्रमेण गणधराणां सर्वायुष्कमिति ॥ आगमद्वारप्रतिपादनार्थमाह
सवे य माहणा जचा, सधे अज्झावया विऊ । सो दुवालसंगीआ, सबै चउदसपुविणो ॥ ६५७ ॥ सर्वे ब्राह्मणा जात्याः-प्रशस्तजातिकुलोत्पन्नाः, तथा सर्वेऽध्यापका-उपाध्याया विदन्तीति विदो-विद्वांसा, चतु-18 ईशविद्यास्थानपारगमनात्, तानि चतुर्दश विद्यास्थानान्यमूनि—“अङ्गानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः। धर्मसाशास्त्र पुराणं च, विद्या ह्येताश्चतुर्दश ॥१॥” तत्राङ्गानि षट्, तद्यथा-शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्क छन्दो ज्योतिष ट्राचेति, एष गृहस्थागम उक्तः, लोकोत्तरागमप्रतिपादनार्थमाह-सर्वे द्वादशानिनः, तत्र स्वल्पेनापि द्वादशाङ्गाध्ययनेन र द्वादशानिनोऽभिधीयन्ते ततः सम्पूर्णद्वादशाङ्गज्ञापनार्थमाह-सर्वे चतुर्दशपूर्विणः ॥ परिनिर्वाणद्वारमाह
परिनिबुया गणहरा जीवंते नायए नव जणा उ । इंदभूई सुहम्मो अ रायगिहे निबुए वीरे ॥ ६५८॥ जीवति ज्ञातके-शांतकुलोत्पन्ने वीरे भगवति नव जनाः-इन्द्रभूतिसुधर्मस्वामिवर्जाः परिनिर्वृताः, इन्द्रभूतिः सुधर्मश्च स्वामिनि वीरे निर्वृते परिनिर्वृतः, तत्रापि प्रथममिन्द्रभूतिः पश्चात्सुधर्मस्वामी, यश्च यश्च कालं करोति सस सुधर्मस्वामिनो गणं ददाति, तेषां तथाविधसन्तानमवृत्तिहेतुभूताचार्यासम्भवाद, सुधर्मस्वामी तु कालं कुर्वन् | निजशिष्याय जम्बूस्वामिने गणं समर्पितवान् ॥ अधुना तपोद्वारमाह
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दीप
अनुक्रम
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [६५९-६६० ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...] मूलं [- /गाथा -] रत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृ
मासं पाओगया सवेऽवि य सङ्घलद्धिसंपन्ना । वज्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणे ॥ ६५९ ॥ सर्व एव गणधरा मासं यावत् पादपोपगमनगताः, द्वारगाथोपन्यस्तं चशब्दार्थमाह-सर्वेऽपि सर्वलब्धिसम्पन्नाःआमषषध्याद्य शेषलब्धिसम्पन्नाः, तथा वज्रर्षभसंहननाः समचतुरस्राश्च संस्थाने संस्थानविषये ॥ उक्तः सामायिकासूत्रप्रणेतॄणां तीर्थकरगणधराणां निर्गमः, सम्प्रति क्षेत्रद्वारं प्राप्तावसरं, परमनन्तरमेव द्रव्यनिर्गमस्य प्रतिपादितत्वात् कालस्य च द्रव्यपर्यायत्वेनान्तरङ्गत्वाद् अन्तरङ्गबहिरङ्गयोश्चान्तरङ्ग एव विधिर्बलवानिति न्यायसामर्थ्यात् क्षेत्रद्वारमुच्यते, द्वारगाथायां तु क्षेत्रस्यात्पवक्तव्यत्वात् प्रथममुपन्यासः कृतः, तत्र कालो नामाद्येकादशमेदभिन्नः तत्र नामस्थापने सुज्ञाने इति ते अनादृत्य द्रव्यादिकालप्रतिपादनार्थमाह
दबे अद्ध अहाउअ उबकमे देस कालकाले य । तह य पमाणं वने भावे पमयं तु भावेणं ॥ ६६० ॥ तत्र द्रव्य इति वर्त्तनादिलक्षणो द्रव्यकालो वाच्यः, 'अद्धा' इति चन्द्रसूर्यादिक्रिया पिशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तवर्ती समयादिलक्षणो अद्धाकालो वाच्यः, तथा आयुष्ककालो देवाद्यायुष्कलक्षणो वाच्यः, तथा उपक्रमकालः अभि| प्रेतार्थ सामीप्यानयनलक्षणः सामाचारीयधायुष्कभेदभिनो वाच्यः, तथा देशकालो वाच्यः, देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरं तस्य कालो देशकालः, अभीष्टवस्स्ववात्यवसरकाल इति भावः, तथा कालकालो वाच्यः, तत्र करूनं कालः, द्वितीयः कालशब्दो मरणवाची, कालस्य कालः कालकालो, मरणक्रियाकलनमित्यर्थः, चः समुच्चये, तथा प्रमाणकाः- भद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः, तथा वर्षकालो वाच्यः, वर्णश्चासौ कालबेति वर्णकालः, तथा
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सूत्रांक
H
दीप
अनुक्रम
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आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
॥३४०॥
भाग-३
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ६६१-६६२], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
'भावे' इति औदयिकादिभाव कालः, सादिसपर्यवसानादिमेदभिशो वाच्यः प्रकृतं तु भावकालेनाधिकारः, एष गाथासमासार्थः ॥ साम्प्रतमवयवार्थोऽभिधीयते, तत्र आद्यद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह
चेयणमचेपणस्स य दवस्स ठिई उ जा चउविगप्पा । सो होइ दबकालो अहवा दविअं तु तं चैव ।। ६६१ ।। चेतनस्य - देवादेरचेतनस्य - पुद्गलादेः द्रव्यस्य या स्थानं स्थितिः चतुर्विकल्पा - सादिसपर्यवसानादिभेदेन चतुर्भेदा स भवति द्रव्यस्य काठो द्रव्यकालः, अथवा द्रव्यं तु तदेव - द्रव्यमेव कालो द्रव्यकालः । चेतनाचेतनद्रव्यस्य चतुर्विं धस्थितिप्रदर्शनार्थमाह
गइ सिद्धा भविआ या अभविअ पुग्गल अणागयद्धा य तीयद्ध तिन्नि काया जीवाजीबहिई उहा ॥ ६६२|| 'इ'ति देवादिगतिमधिकृत्य जीवाः सादिसपर्यवसानाः, 'सिद्ध'सि सिद्धाः प्रत्येकं सिद्धत्वेन सायपर्यवसानाः, 'भविया या' इति भव्याश्च भव्यत्वमधिकृत्य केचन अनादिसपर्यवसानाः, 'अभविय'त्ति अभव्याः खल्वभव्यतयाऽनाद्यपर्यवसानाः, एवं जीवस्थितिश्चतुर्भङ्गिका, 'पुग्गल' चि पूरणगलनधर्माणः पुद्गला-द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः, ते च पुद्गलत्वेन सादिसपर्यवसानाः, तथा 'अणागयद्धा य' इति अनागताद्धा -- अनागतकालः, स च वर्त्तमानसमयादितया सादिः अनन्तत्वादपर्ववसानः, तथा 'तीयद्ध'चि अतीतः कालोऽनन्तत्वादनादिः साम्प्रतसमय विवक्षायां सपर्यवसान इति, तथा 'तिन्नि काय'त्ति त्रयः कायाः -- धर्मास्तिकाया धर्मास्तिकाया का शास्तिकायाः खल्वनाद्यपर्यवसानाः, एषा अजीवचतुर्भङ्गिका, एवं जीवाजीवस्थितिश्चतुर्धेति ॥ साम्प्रतमद्धाकालद्वारावयवार्थप्रतिपादनार्थमाह
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द्रव्यकालः
॥१४०॥
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६६३-६६५], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
%
5
प्रत सूत्रांक
2-59-2-592
समयाऽऽचलिअ मुहुत्ता दिवस अहोरत्त पक्ख मासोय। संवच्छर जुग पलिया सागर ओसप्पि परिअहा॥६६३॥ | परमनिकृष्टः कालः समयोऽभिधीयते, स च प्रवचनप्रतिपादितपट्टसाटिकापाटनदृष्टान्तादवसेयः, जघन्ययुक्तासंख्यातकसमयसमुदायलक्षणा आवलिका, द्विघटिको मुहूर्तः, चतुष्पहरात्मको दिवसः, यदिवा याबदाकाशखण्डमादित्येन स्वप्र
भाभिव्याप्तं तावदाकाशपरिचमणच्छिन्नः कालो दिवसः, अहोरात्र अष्टप्रहरात्मकः, रात्रिंदिवमित्यर्थः, पक्षः पञ्चदशाहोहै रात्रात्मकः, मासस्तद्विगुणः, चः समुच्चये, संवत्सरो-द्वादशमासात्मको, युगं पश्चसंवत्सरं, असङ्ख्येययुगात्मकं 'पलिय'त्ति
पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पल्योपमं, 'सागर'त्ति पस्योपमदशकोटीकोव्यात्मकं सागरोपमम्, उत्सर्पिणी-सागरोपमद-12
शकोटीकोट्यात्मिका उत्सर्पिणी, उत्सर्पिणीग्रहणेनावसप्पिण्यपि सूचिता, सापि सागरोपमदशकोटिकोव्यात्मिका, अनन्तोतत्सपिण्यात्मकः परावर्चः, स च द्रव्यादि भेदभिन्नः पञ्चसङ्ग्रहटीकातो वेदितव्यः ॥ सम्प्रति यथायुष्ककालद्वारमुच्यतेसातत्राद्धाकाल एवायुःकर्मानुभवविशिष्टः सर्वजीवानां वर्तनादिमयो यथायुष्ककालोऽभिधीयते, तथा चाह| नेरदय-तिरिय-मणुस्स-देवाण अहाउअं तु जं जेण । निवत्तिअमनभवे पालंति अहाउकालो सो॥ ३६४ ।। | नारकतिर्यमनुष्यदेवानां यथायुष्कमेव यत् येन निर्वर्तितं-रौद्रध्यानादिना कृतमन्यभवे-अन्यस्मिन् जन्मनि तत् यदा | विपाकतस्त एवानुपालयन्ति स यथायुष्ककालः ॥ साम्प्रतमुपक्रमद्वारमाह
दुविहोवक्कमकालो सामायारी अहाउअं चेव । सामायारी तिविहा ओहे दसहा पयविभागे ।। ६६५ ॥ द्विविधश्चासावुपक्रमकालश्च द्विविधोपम्मकाला, तदेव द्वैविध्यमुपदर्शयति-'सामायारी अहाउयं वत्ति पदैकदेशे
दीप अनुक्रम
Jantainmn impori
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६६६-६६७], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीमलय
प्रत
समवसरणे
।
युष्को
सत्राक
॥३४१॥
पदसमुदायोपचारात् सामाचार्युपक्रमकालो यथायुष्कोपक्रमकालश्चेति द्रष्टव्यं, तत्र समाचरणं समाचारः-शिष्टाचरितः ।।
राष्टाचरितः अद्धाकाक्रियाकलापः, समाचार एव सामाचार्य, भेषजादित्वात् स्वार्थे व्यण, स्त्रीविवक्षायां डी, ड्याम् 'अ' इत्यकारलोपः, यथा|'तद्धितव्यञ्जना दिति यकारलोपः, उपक्रमणम्-उपरितनश्रुतादिह तस्याः सामाचार्या आनयनमुपक्रमः, सामाचार्या|| उपक्रमः सामाचार्युपक्रमः स चासौ कालश्च सामाचार्युपक्रमकालः, तथा यथायुष्कस्योपक्रमणं-दीर्घकालभोग्यस स्वल्प-IN
पक्रमः तरकालेन क्षपणं यथाऽऽयुप्कोपक्रमः स चासौ कालश्च यथायुष्कोपक्रमकालः, तत्र सामाचारी त्रिविधा-ओघे दशविधा। पदविभागे च, तत्र ओघः-सामान्यं ओघसामाचारी-सामान्यतः स पाभिधानरूपा, सा च ओपनियुक्तिः, दशधासामाचारी-इच्छाकारादिलक्षणा, पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणि, तत्र ओघसामाचारी नवमात् पूर्वात्तृतीयाद्वस्तुन आचाराभिधानात्, तत्रापि विंशतितमात् प्राभृतात्, तत्राप्योषप्राभृतात् नियूंढा, एतदुक्तं भवति-साम्प्रतकालप्रवजितानां तावच्छ्रुतपरिज्ञानशक्तिविकलानामायुष्कादिहासमपेक्ष्य प्रत्यासन्नीकृतेति, दशविधसामाचारी पुनः पड़िशति| तमादुत्तराध्ययनात् स्वल्पतरकालप्रवजितपरिज्ञानार्थ नियूंढा, पदविभागसामाचार्यपि छेदसूत्रलक्षणा नवसपूर्वादेव नियूंढेति ॥ साम्प्रतमोघनियुक्तिर्वक्तव्या, सा च महत्त्वात् पृथग्ग्रन्थान्तररूपा कृता । सम्प्रति दशविधसामाचारीप्रतिपादनार्थमाहइच्छा मिच्छा तहकारे आवस्सिआ य निसीहिआ। आपुच्छा पपडिपुच्छणा छंदणाथ निमंतणा।। ६६६॥॥ उपसंपया य काले सामायारी भवे दसविहा छ। एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं बुच्छं। ६६७ ।।
Mechikk060
दीप अनुक्रम
4%ACCREA
५१॥
44
n
ational
Frica Feroleh
... अथ इच्छाकार-आदि दशविध-सामाचार: प्रतिपादनम् क्रियते
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आगम
(४०)
"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६६८], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
एपणमिच्छा करणं कारः, तत्र कारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, इच्छया-बलाभियोगमन्तरेण करणमिच्छाकारः, तथा |च-इच्छाकारेण ममेदं कुर्विति, तथा मिथ्या वितथमनृतमिति पर्यायाः, मिथ्याकरणं मिथ्याकारः, मिथ्याक्रियेत्यर्थः। तथा च संयमयोगवितधाचरणे विदितजिनवचनसाराः साधवस्तक्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय मिथ्याकारं कुर्वते, मिथ्याक्रियेयमिति, तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्रुिक्तं तदमित्येवस्वरूपः, अवश्यपर्यायोऽवश्यशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति, ततोऽवश्यस्य-अवश्यकर्त्तव्यस्य क्रिया आवश्यकी 'योपान्त्यगुरूपान्त्यमाजिति वुञ् आवश्यकी, चः समुच्चये, तथा निषेधेन निवृत्ता नषेधिकी, आपृच्छनमापृच्छा विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेषु गुरोः कार्या, चः पूर्ववत् , तथा प्रतिपृच्छा, सा च प्राग्नियुक्तेनापि करणकाले कार्या, निषिद्धेन वा प्रयोजनतः कर्तुकामेनेति, तथा छन्दनापारगृहीतेनाशनादिना आमन्त्रणा कार्यो, तथा निमन्त्रणा-अगृहीतेनैवाशनादिना अहं भवदर्थमशनाद्यानयामीत्येवंभूता, उपसम्पच्च विधिना देया, एवं काले-कालविषया सामाचारी भवेद्दशविधा एवं तावत्समासत उक्का, सम्मति प्रपञ्चतः प्रतिपदमभिधित्सुरिदमाह-एतेषां पदानां तुर्विशेषणे विषयप्रदर्शनेन प्रत्येकं पृथक् पृथक् प्ररूपणां पश्ये इति गाथाद्वयसमासार्थः । तत्रेच्छाकारो येप्वर्थेषु क्रियते तत्प्रदर्शनार्थमाह
जह अभत्थिन परं कारणजाए करिज से कोइ । तस्ववि इच्छाकारो न कप्पड़ बलाभिओगो उ॥६६८॥ | 'यदि इत्यभ्युपगमे, अन्यथा साधूनामकारणे अभ्यर्थनैव न कल्पते, ततश्च यदि अभ्यर्थयेत् परं-अन्यं साधुं प्रामादौ । कारणजाते समुत्पन्ने सति, ततस्तेनाभ्यर्थयमानेन इच्छाकारः प्रयोकव्यः, यदि अनन्यर्थितोऽपि कोऽप्यन्या साधुः
दीप अनुक्रम
EMOCRATEGICAL
an den
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आगम
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आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
॥ ३४२ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ६६९-६७०], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३२...] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
'से' तस्य कर्त्तुकामस्य कस्यचित्साधोः कारणजातं कुर्यात् तत्रापि तेनानभ्यर्थितेन साधुना तस्य चिकीर्षितं कर्तुकामेन इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः, इह विरलाः केचिदनभ्यर्थिता एव परकार्यकर्त्तार इति कोऽपीति ग्रहणं, अथ कस्मादिच्छाकारप्रयोगः क्रियते ?, उच्यते, बढाभियोगो न कल्पते इति सूचनार्थः, उक्तं यतो-न कल्पते वलाभियोगः साधूनां तत इच्छाकारप्रयोगः कर्त्तव्यः, तुशब्दः क्वचित् बलाभियोगोऽपि कल्पते इति सूचनार्थः ॥ उक्तगाथावयवार्थप्रतिपादनार्थमाहअन्वयम्मि नजर अब्भत्थेर्ड न वहइ परो उ (ओ)। अणिगूहि अबलविरिएण साहुणा ताव होअवं ।। ६६९ ।। यदि अभ्यर्थयेत् परमित्येतस्मिन् यदिशब्दप्रदर्शितेऽभ्युपगमे सति ज्ञायते किमित्याह- अभ्यर्धयितुं न वर्त्तते- न युज्यते परः किमित्यत आह-न निगूहते बलवीर्यं यस्तेन, वलं शारीरं वीर्यम् - आन्तरः शक्तिविशेषः, तावच्छन्दः प्रस्तुताप्रदर्शक एव, अनिगूहितबलवीर्येण तावत्साधुना भवितव्यं, पाठान्तरं वा “अणिगूहियवलविरिएण जेण साहूण होय" अस्यायमर्थः -- येन कारणेन अनिगूहितबलवीर्येण साधुना भवितव्यमिति युक्तिः ततोऽभ्यर्थयितुं न युज्यते पर इति ॥ आह-इत्थं तर्ह्यभ्यर्धनाविषयेच्छाकारोपन्यासोऽनर्थकः, उच्यते
जइ हुज्ज तस्स अनलो कल्लस्स वियाणइ न वा वाणं । गेलन्नाइहिवि हुज्या वावडो करणेहिं सो ॥ ६७० ॥ यदि भवेत्तस्य --- प्रस्तुतस्य कार्यस्यानल :- असमर्थः, यदिवा न विजानाति तत्कार्यं कर्त्तुं वाणमिति निपातः पूरणार्थः, ग्लानादिभिर्वा भवेत् व्यापृतः कारणैरसौ तदा सञ्जातद्वितीयपदोऽभ्यर्थनागोचरमिच्छाकारं रत्नाधिकं विहायान्येषां करोति ॥ तथाचाह
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सामाचा
र्युपक्रमः
॥ ३४२ ॥
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६७१-६७३], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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राइणियं वजित्ता इच्छाकारं करेइ सेसाणं । एअंमज्झं कजं तुन्भेह करेह इच्छाए ॥ ६७१ ॥ रत्नानि द्विविधानि-द्रव्यरत्नानि भावरक्षानि च, तत्र मरकतवजेन्द्रनीलवैडूर्यादीनि द्रव्यरत्नानि, सुखमधिकृत्य तेषामनैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च, भावरमानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, सुखनिवन्धनतामनीकृत्य तेषामेकान्तिकत्वात् आत्यन्तिकत्वाच, भावरत्नैरधिको रत्नाधिकस्तं रत्नाधिकं वर्जयित्वा इच्छाकारं करोति शेषाणां, कथमिहत्याइ-एतत् मे कार्य-वस्त्रसीवनिकादि यूयं कुरुत इच्छया, न बलाभियोगेनेति । तत्र यदुक्तम्-'जइ अन्भत्थेज परं कारण-14
जाते'इति, तत्र प्रथमगाधया यदीत्यस्य भावार्थ उपदर्शिता, द्वितीयगाथया कारणजातानि कथितानि, अनया तु पूर्वानाम्यर्थनाविषयो दर्शितः उत्तरार्डेन स्वभ्यर्थनायाः स्वरूपम् ।। सम्पति 'करेज वा से कोई' इत्यस्य गाथावयवस्था-16 वयवाथे प्रतिपादनीयः, तत्रान्यकरणसम्भवकारणप्रतिपादनायाह. अहवावि विणासंतं अन्भत्थंतं च अन्न दवणं । अन्नो कोइ भणिज्जा तं साहुं निजरडिओ ॥ ६७२॥
अथवेति 'जइ अब्भत्थेज परं कारणजाए' इत्यपेक्षया प्रकारान्तरताद्योतनाथै, विनाशयन्तं चिकीर्षित कार्यम् , अपिशब्दात् सोऽन्यस्मिन् गुरुतरे कायें समर्थस्ततो यदि स तत्र व्यापूतो भवति तर्हि ततो गुरुतरं प्रयोजनं सीदतीति। परिभाष्याविनाशयन्तमपि, यदिवा स्वयमसमर्थतयाऽभिलषितकार्यकारणाय साधुमन्यमभ्यर्थयन्तं दृष्ट्वा निर्जराथीं कोऽप्यन्यः साधुस्तं साधु भणेत् । किं भणेदित्याह
अयं तुभं एकजंतु करेमि इच्छकारेणं । तत्थवि सो इच्छं से करेइ मज्जायमूलीअं ॥ ६७३ ॥
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६७४-६७५], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
आवश्यक अहमित्यात्मनिर्देशे, युध्माकमेतत्कर्तुमभीष्ट कार्य करोमीच्छाकारेण-युष्माकमिच्छाक्रियया, न बलादित्यर्थः, तमपि स इच्छाकार
विकारापकः साधुः 'इच्छन्ति इच्छाकारं 'से' तस्य स्वयमिच्छाकारेण कर्तुमभ्युद्यतस्य करोति, नन्वसौ तेनेच्छाकारेण सामाचारी मवसरणे याचितः किमर्थ इच्छाकारं करोतीत्यत आह-'मर्यादामूलीयं' मर्यादा-साधूनां व्यवस्था तस्यां मूलं मर्यादामूलं तत्र
भषो मर्यादामूलीयः इच्छाकारस्तं, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा विभकीनां प्रायो दर्शन मिति हेतौ द्वितीया, ततोऽय॥३४३॥
मर्थः-मर्यादामूलभूत इच्छाकारः, तथाहि-साधूनामियं मर्यादा-न किश्चिदिच्छाव्यतिरेकेण कश्चित्कारयितव्यः ।। तदेवं व्याख्यातोऽधिकृतो गाथावयवः, सम्पति 'तत्थवि इच्छाकारों' इत्यत्र योऽपिशब्दस्तस्य विषयं प्रदर्शयति
अहवा सयं करतं किंची अन्नस्स वावि दट्टणं । तस्सवि करेइ इच्छं मज्झपि इमं करेहत्ति ॥ ६७४॥ I| हा अथवा स्वकम्-आत्मीयं पात्रलेपनादि किश्चित्कुर्वन्तमन्यस्य वा किश्चित् कुर्वन्तं दृष्टा तथापि, आस्तां प्रागुक्तस्येत्यपि-18|
शब्दार्थः, आपन्नप्रयोजनः सन् इच्छाकारं कुर्यात् , कथमित्याह-ममापीद-पात्रलेपनादि इच्छाकारेण कुरुतेति ॥ इदानी
मभ्यर्थितसाधुविषयं विधि प्रदर्शयतिहै। तस्थवि सो इच्छं से करेइ दीवेइ कारणं वापि । इहरा अणुग्गहत्थं काय साहणो किचं ॥ १७ ॥
तत्रापि-एषमभ्यर्थकेऽपि साधावभ्यर्थितः साधुरिच्छाकारं करोति, इच्छाम्यहं तव करोमि, अनेन गुर्वादिसत्कं कार्या-1 ॥३४॥ शान्तरं कर्तव्यं तर्हि दीपयति कारपां वापि, इतरथा-गुर्वादिकार्यकर्त्तव्याभावे सत्यनुग्रहार्थमवश्यं साधो कृत्यं कर्त्तव्य-IN
मिति ॥ अपिशब्दाक्षिप्वेच्छकारविषयविशेषप्रदर्शनार्यवाह
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(४०)
"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६७६-६७९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
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दीप अनुक्रम
अहवा नाणाईणं अट्ठाए जइ करिज किच्चाणं । वेआवच्चं कोई तत्थवि तेर्सि भवे इच्छा ॥ ६७६ ॥ अथवा ज्ञानादीनाम्, आदिशब्दाद्दर्शनचारित्रपरिग्रहः, अर्थात् यदि कुर्यात् कृत्यानाम्-आचार्यादीनां वैयापत्त्य कश्चित्साधुः, पाठान्तरं वा 'किञ्ची'ति किश्चिद्-विश्रामणादीति, अत्रापि तेषां कृत्यादीनां साधु वैयावृत्त्ये नियोजतां I'भवे इच्छत्ति भवेदिच्छाकारः, इच्छाकारपुरस्सरं योजनीय इत्यर्थः ॥ किमित्यत आह-यस्मात् ।
आणा बलाभिओगो निग्गंथाणं न कप्पए काउं। इच्छा पजिअधा सेहे रायाणिए य तहा ॥ ६७७॥ I का आज्ञापनमाज्ञा-भवतेदं कार्यमेवेत्येवंरूपा, तथा विवक्षितं कार्यमाज्ञापितस्याप्यकुर्वतो बलात्कारेण नियोजनं बला|भियोगः, एतौ द्वावपि निग्रन्थानां-साधूनां न कल्पते कर्तु, किन्तु 'इच्छत्ति इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः प्रयोजने उत्पन्ने सति, शैक्षके तथा रत्नाधिके च-आत्माधिके च आलापादिप्रष्टुकामेन, 'आद्यन्तग्रहणान्मध्यस्थापि ग्रहण मिति न्यायादन्येषु च ॥ एष तावदुत्सर्ग उक्तः, अपवादतस्त्वाज्ञावलाभियोगायपि दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ, तेन च सहोत्सर्गतः संवास एव न कल्पते, बहुस्वजनादिकारणप्रतिबद्धतया स्वपरित्याज्ये अयं विधिः-प्रथममिच्छाकारेण योज्यते, अकुर्वन्नाज्ञया,
पुनर्बलाभियोगेनेति, आह चहै। जह जच्चयाहलाणं आसाणं जणवएसु जायाणं । सयमेव खलिणगहणं अहवावि बलाभिओगेणं ॥ ६७८॥ पुरिसज्जाएवितहा विणीअविणयम्मिनस्थि अभिओगोसेसम्मि अ(उ)अभिओगोजणवयजाए जहा आसे६७९ यथा जात्यबाहीकानामश्वानां जनपदेषु-मगधादिषु जातानां च, चशब्दलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, खयमेव खलीनग्रहणं
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आगम
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६७६-६७९], विभा गाथा -], भाष्यं [१३२...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
प्रत
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॥३४॥
भवति अथवाऽपि पलाभियोगेन, खलीनं-कविक, किमुकं भवति । यथा जात्यवाहीकानामश्वानां स्वयमेव खलीनग्रहणं इच्छाकारभवति, जनपदजातानां च बलाभियोगेन, एवं पुरुषजातेऽपि-जातशब्दः प्रकारवचनः पुरुषप्रकारेऽपि, कथम्भूते सामाचारी | इत्याह-'विणीयविणयंमि'त्ति विविधम्-अनेकप्रकारं नीतः-प्रापितो विनयो येन स विनीतविनयस्तस्मिन् नास्त्य|भियोगः, स्वयमेव विनये प्रवर्तनात् , खलीनग्रहणे जात्यबाहीकाश्ववत्, 'सेसम्मि उ अभिओगो'त्ति शेषे-विनयर-18 हिते अभियोगो-बलाभियोगः प्रवर्चते, जनपदजाते यथा अश्वे । एष गाथाद्वयसमुदायार्थः, अवयवार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-बाहलविसए एगो आसकिसारो, सो दमिजिउकामो वेयालियवेटाए अहिवासिऊण पभाए अग्धेऊण चाहियालीए नीओ, खलिणं से ढोइयं, सयमेव तेण, गहिय, विणीयत्ति, ततो राया सयमेवारूढो, सो य हियइच्छियं बूढो, रण्णा ओयरिऊण आहारलयणादिणा सम्म पडियरिओ, पइदियहं च सुद्धत्तणतो एवं वहति, न तस्स बलाभियोगो पवत्ताइ । अवरो पुण मगहादिजणवयजाओ आसो, सो दमिजिउकामो वियालबेलाए अहिवासितो, मायरं पुच्छति|'किमयंति',तीए भणितं-कल्ले वाहिजिहिसि, ते सयमेव खलिणं गहाय वहतो नरिंदं तोसेज्जासि, तेण तहा कयं,रपणावि आहाराइगो सबो से स्वयारो कतो, माऊए सिद्दू, तीए भणियं-पुत्त! नियगुणफलं ते एयं, कहं पुण मा खलिणं पडिच्छिहिसि मा वा वहसि, तेण तहेव कर्य, रण्णावि खोरेण पिट्टित्ता बला कवियं दाऊण वाहिओ, पुणो जवसं से निरुद्धं, तेण | ॥३४४॥ माछए कहियं, सा भणइ-पुत्त । दुबहियफलमिणं, तो दिवोभयमग्गो जो ते रुच्चइ तं करेहिसि । एस दिढतो, अयमुवणतो-जो सयं न करेड वेयावचारि तत्व बलाभियोगो पयहाविज्जइ जणवयजाए जहा आसे इति । तस्मात् बलाभि
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ६८० ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
योगमन्तरेणैव मोना स्वयमेव प्रत्युच्छाकारं दत्त्वा जनम्यर्थितेनैव वैयावृत्त्वं कार्य ॥ आह तथापि अनभ्यतिल स्वयमिच्छाकारकरणं न युवा
असत्यवाद मरुओ वानरज चैव होह दिहंतो । बुस्करने सयमेव उ वाणिअगो दुन्नि दिहंता ।। ६८० ॥ अभ्यर्थनायां मरुको दृष्टान्तः, पुनः शिष्यचोदनावां वानरकचैव भवति दृष्टान्तः, गुरुकरणे स्वयमेव तु द्वौ वणिजी दृष्टान्तः, एष गाथासमासार्थी, व्यासार्थः कथानकेम्योऽवसातच्यः, तानि चामूनि - एगस्स साहुस्स उद्धी अत्थि, सो न करेइ वेयावचं बालबुद्वाणं, आवरिएवं चोइओ मणड़ को मं जन्यत्वेद ?, आयरिएण भणितो- तुमं अब्भत्थणं मग्गंतो चुकिहिसि जहा सो मरुमो, एमो मरुओ नाणमयमत्तो कचिषपुष्णिमाए नरिंदजणवपसु दाणं दाउमन्मुट्ठिएसु न तत्थ कच, भज्जाए भणितो- जाहे, सोम-श्रमं तव मुद्दाणं परिम्गाई करेमि, त्रिइयं घरं तेसिं गच्छामि, जस्स आसतमस्स कुलस्स कर्ज सो मम आत्ता देऊ, एवं सो जाकजीवाए दरिद्दी जातो, एवं तुमपि अब्भत्थणं मग्गमाणो चुकिहिसि जिरा, एएस वृद्वाणं व अधिकतमा, तुझ एस लद्धी एवं चैव जाहिई, ततो सो एवं भणितो भणड़एवं सुंदरं जाणह ता अपया कीस न करेह ?, आयरिया ममंति-सरिमो तुमं तस्स वानरस्स, जहा एगो वानरो रुक्खे अच्छवासामुसीवाहिं अभिजाणो मुषरार सउणियाए ममित्रो - वानरगा पुरिसो सि तुमं निरत्ययं वहसि बाहुदंडाई | जो वायरस विहरे न करेमि कुडि पालि वा ॥ १ ॥ के पुल एवं भष्यंति- 'वासेण झडिज्वंतं दणं वा नई भरभरे । सुषरा नाम समिया मप्र सर्व लिए संती १ ॥ विभूणिमे तणाई आऊणं च रुक्लसिहरंमि
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आवश्यके
श्रीमलयउमवसरण
॥ ३४५॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ६८० ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१३२...], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृि
वसीकया निवाया तत्थ बसामी निरुवंसग्गा ॥ २ ॥ तत्थ वसामि रमामि य वासारचे य नविय उहामि । अंदोलयामि वानर ! वसंतमासं विलंबेमि || ३ || हत्था तब माणुसगे जारिस तारिस हियम्मि विष्णाणं । जीविय चम्मोहफलं तुवि सहसि धारवातहिं ॥ ४ ॥ ( छिंदेऊण तणाई ) इच्छसि वसहिं न अप्पणो काउं । वानर ! तुमे असुहिए अम्हेवि धिरं न विंदामो ॥ ५ ॥ इति, एवं सो तीए भणितो तुव्हिको अच्छइ, ताहे सा दोबंपि तपि भणइ, सो रुट्ठो तं रुक्खं दुरुहिउमारद्धो, सा नट्ठा, तेण तीसे घरगं सूर्य सूर्य विक्खित्तं, अण्णे एवं भणंति-जह पढमं तह विइयं तह तइयं तह + चरत्थयं भणियं । पंचमयं रोसविओ संदिट्ठो वानरो पात्रो ॥ १ ॥ कुद्धो संदट्ठोट्टो लंकादाहे य जह स हणुमंतो । | रोसेण धमधर्मेतो उल्फिडितो भंगिमालं ॥ २ ॥ आकंपियंमि तो पायमि फिरिडित्ति निग्गया सुघरा । अण्णंमि दुमंमि ठिया झडिज्जए सीयवाएणं ॥ ३ ॥ इयरोचि य तं निहुं घेत्तृणं पायवस्स सिहरातो सूयं एक्केकं छिंदिऊण तो उज्झई कुविओ ॥ ४ ॥ भूमिगयंमि य तो नेडुयंमि अह भणइ वानरो पावो । सुघरे !अवहियहियए सुण ताव जहा अहिरियासि ॥ ५ ॥ नवऽसि ममं मयहरिया न वऽसि ममं सोहिया व निद्धा वा । सुघरे अच्छसु विधरा जा वट्टसि लोगततीसु ॥ ६ ॥ मिष्भगे ! इयाणि सुहं अच्छ, एवं तुमंपि मम चेव उवरिएण जातो, किं च-ममं अपि निजरादारं अस्थि तेण अहं वहुतरियाए निजराए लाभातो चुकामि जहां सो वाणियगो, दो वाणियगा वबहरंति- एगो पढमपाउसे मोल्लं दावेयवं होहिइति सयमेष आसाढपुन्निमाए घरं पच्छइडं लग्गतो, बिइएण रुवयं दाऊण छायावियं, सयं ववहरति, तेण तद्दिवसं चिडणो लाभो लद्धो, इयरो चुक्को, एवं चेव जइ अहं अप्पणा वैयावचं करेमि तो अर्धितंतेण
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इच्छाकार सामाचार
॥ ३४५॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [६८१], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १३३] मूलं [- /गाथा - ] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
सुत्तत्था नस्संति, तेहि य नहिं गच्छसारवणाभावेण गच्छस्स अपडियप्पणे बहुतरं मे नासर इति, तथा चाह- सुत्तस्थेसु अचिंतण आदेसे बुद्ध सेहगगिठाणे । बाले खमए वाई इहीमाई अणिट्टीया ॥ १ ॥ एएहिं कारणेहिं तुम्बभूतो उ होइ आयरिओ । वेयावञ्चकरेणं कायवं तस्स सेसेहिं ॥ २ ॥ जेण कुलं आयतं तं पुरिसं आयरेण रक्खेजा । नहि तुंबंमि विणट्ठे अश्या साहारया होंति ॥ ३ ॥ आदेशे प्राचूर्णके वृद्धे शैक्षके ग्लाने तथा बाले लघुवयसि क्षपके च यद्वा आचार्यः स्वयं वैयावृत्त्यं करोति तर्हि सूत्रार्थयोरचिन्तनं भवति, तथा वादिनि आगते ऋद्धिमति च नगरश्रेष्ट्यादौ, आदिशब्दात् राजादिपरिग्रहः, आचार्ये वैयावृत्त्याय पानकादिगते प्रवचनलाघवं भवति, यथा-अनर्द्धिका एते, अनीश्वरप्रब्रजिता एते इत्यर्थः, तत एतैः कारणैराचार्यः शेषसाधूनामरकप्रायाणां तुम्बभूतो भवति ततो वैयावृत्त्ये वैयावृस्य विषये यत्करणं करणीयं तत् तस्याशेषैः कर्त्तव्यं, न पुनः स स्वविषये परविषये वा वैयावृत्त्ये प्रवर्त्तमान उपेक्षणीयः । एतदेवाह -
जेण कुलं आयन्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खेह । नहु तुंबम्मि विणट्ठे अरगा साहारगा हुन्ति ॥ १३३ ॥ येन पुरुषेण कुलमायतं तं पुरुषमादरेण रक्षेत्, यतो 'नहु' नैव तुम्बे विनष्टे अरकाः साधारकाः - साधारा भवन्ति ॥ आह-इच्छाकारेणाहं तव मम च प्रथमालिकादिकमानयामीत्याद्यमिधाय यदा बन्ध्यभावान्न सम्पादयति तदा निर्जरालाभविकलस्तस्येच्छाकारः, ततः किं तेनेत्याशड्याह
drावचे अद्विअस्स सद्धाइ काउकामस्स । लाभो वेव तबस्सिस्स होइ अदीणमणसस्स ॥ ६८१ ॥
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आगम
(४०)
"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [६८२-६८४], विभा गाथा ], भाष्यं [१३३], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
आवश्यके श्रीमलयसमवसरण
प्रत
सत्राक
३४६॥
KM4MANGARH
वैवावृत्त्व-संयमव्यापार अभ्युस्थितस्य त्या बद्धका-प्रसवेन मनसा इहपरलोकाशंसाविप्रमुक्तेन कर्तुकामस्य 'लाभो इच्छाकार व तवस्सिस्स चि प्रकरणाजिरावा लाय व तपस्विनो भवति अठन्ध्यादौ, अदीनं मनोऽस्यासावदीनमनास्तस्यादी
मिथ्यानमनसः सम्प्रति मिथ्याकारविषयप्रतिपादनार्थमाह| संजमजोगे अमुहिजस्स जं किंचि क्तिहमायरिजा मिच्छा एअंति विआणिऊण मिछत्ति कायवं ॥३८॥ । संयमयोगः-समितिगुणिरूपः तस्मिन् विषयेऽभ्युत्थित्तस्य मनो यत्किश्चिद्वितयम्-अन्यथा आचरितम्-आसेवितं, भूतमिति वाक्य शेषः, मिथ्या-विपरीतमेतदिति विज्ञाव,किं, मिच्छचि कायब मिति मिथ्येति कर्चव्यं, तद्विषये मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः । संवमयोगविषयायां च प्रवृत्ती वितथासेवनमिथ्यादुष्कृतं दोषापनयनायालं, नतूपेत्यकरण-18 विषयायां नाप्यसकृत्करणमोचरायां, तथा चामुमेवोत्सम प्रतिपादववाह
जइ अपडिकमिअर्थ अवस्स काऊण पाक्यं कम्मतं वन काय तो होइ पए पडिकतो ॥५८३ ॥ यदि च प्रतिक्रन्तव्यं-निर्चितब्ब, मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः, अवश्यं-नियमेन कृत्वा पापकं कर्म, ततस्तदेवर पापकं कर्म न कर्तव्यं, नतो मवति पदे-उत्सर्मपदविक्ये प्रतिकान्ता, अववा पदे प्रतिक्रान्त इति किमुक्कं भवति -1 सुतरां प्रविकान्त इति ॥ सम्पति क्यामूतखेद मियादुष्कृतं सुदचं भवति तथाभूतमभिधित्सुराहजं दुखदति मिच्छा तं मुजो कार तो। तिविहेन पडिकतो तस्स खस्लु दुबई मिच्छा ॥ ६८४ ॥ मदिति अनिर्दिष्टव निर्देश कारकमिति योग तथा यत्कार-पवस्तु दुष्टं कृतं दुष्कृतमित्येवं विज्ञाय 'मिच्छे'ति
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आगम
(४०)
"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६८५-६८७], वि०भा गाथा H], भाष्यं [१३३], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा मिथ्यादुष्कृत (दत्तं तत् ) कारणमपूरयन-अकुर्वन् अनाचरन्निति भावः, यो वर्चत इति वाक्यशेषः, तत्र स्वयं कायेनाप्यकुर्वन् पूरयन्नभिधीयते तत आह-'तिविहेण पडिकतो तस्स खलु दुक्कड मिच्छा। 'त्रिविधेन' मनोवाकायलक्षणेन योगेन कृतकारितानुमतिभेदयुक्केन प्रतिक्रान्तो-निवृत्तः तस्माद्-दुष्कृतकारणात् तस्यैव खलुशब्दोऽवधारणे दुष्कृत-प्रागुक्तं दुष्कृतं फलदातृत्वमधिकृत्य मिथ्या, भवतीति कियाध्याहारः, अथवा तस्यैव ।। | मिथ्यादुष्कृतं भवति, नान्यस्येति ॥ साम्प्रतं यस्य मिथ्यादुष्कृतं दत्तमपि न सम्यग्भवति तत्प्रतिपादनार्थमाह___ जं दुकडंति मिच्छा तं चेव निसेवए पुणो पावं । पञ्चक्खमुसाबाई मायानिअडीपसंगो अ॥ ६८५॥ __ यत् पापरूपं किञ्चिदनुष्ठानं दुष्कृतमिति विज्ञाय 'मिच्छत्ति मिथ्यादुष्कृतदानविषयीकृतं, यस्तदेव निषेवते पुनः पापं स प्रत्यक्षमृपावादी, कथम् !, दुष्कृतमेतदित्यभिधाय पुनरासेवनात् , तथा तस्य मायानिकृतिप्रसङ्गश्च, स हि दुष्टान्तरात्मा निश्चयतश्चेतसा अनिवृत्त एवं गुर्वादिरञ्जनार्थ मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छति, कुतः, पुनरासेवनात् , तत्र मायैव | निकृतिः तस्याः प्रसङ्गो मायानिकृतिप्रसङ्गः॥ का पुनरस्य मिथ्यादुष्कृतपदस्या) इत्याह'मि'त्ति मिउमद्दयत्ते छत्ति अदोसाण छायणे होइ। मिति अमेराइ ठिओ ''त्ति दुगुंडामि अप्पाण।।२८६॥ 'क' त्ति कडं में पावं 'ड'त्ति अ डेवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छादुक्कडपयक्खरत्यो समासेणं ॥ ६८७॥
मीत्ययं वर्णो मृदुमार्दवे वर्तते, तत्र मृदुत्वं-कायनयता [मृदु]माईवं च-भावनम्रता मृदुमाईवे ते अभ्य स्त इति मृदु- |मावा, अधादिभ्य इतिमत्वयोज्यत्ययस्तद्रावस्तत्त्वं तस्मिन्, तथा छ इत्ययं वर्णो दोषाणाम्-असंयमयोगलक्षणाना
दीप अनुक्रम
Jaminatan in
Swainstitrary.org
~109~
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
H
आवश्यवे
श्रीमदयसमवसरण |
॥ ३४७ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-],
निर्युक्तिः [ ६८८], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१३३] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
माच्छादने — स्थगने भवति मित्ययं वर्णो मर्यादायां- चारित्ररूपायां स्थितोऽहमित्यस्यार्थस्याभिधायकः, दुरित्ययं वर्णो जुगुप्से - निन्दामि दुष्कृतकारिणमात्मानमित्यस्मिन्नर्थे वर्त्तते, क इत्ययं वर्णः कृतं मया पापमित्येत्रमभ्युपगमार्थे वर्त्तते, ड इत्ययं वणों डेवेमि - लंघयामि अतिक्रामामि तत् कृतं पापं, केनेत्याह-उपशमेनेत्यस्मिन्नर्थे, एपः - अनन्तरोक प्राकृतशैल्या मिथ्यादुष्कृतपदस्यार्थः, 'समासेन' सङ्क्षेपेण ॥ आह— कथं प्रत्येकमक्षराणामुतार्थता १, पदवाक्ययोरेवार्थदर्शनात्, उच्यते, इह यथा वाक्यैकदेशत्वात् पदस्यार्थोऽस्ति तथा पदैकदेशत्वाद्वर्णस्यापीत्यदोषः, अन्यथा पदस्याप्यर्थ| शून्यत्वप्रसङ्गोऽक्षरेष्वर्थाभावात्, प्रयोगश्च - यत् यत्र प्रत्येकं न विद्यते तत्समुदायेऽपि न भवति, यथा सिकतासु तैलं, इष्यते च वर्णसमुदायात्मकस्य पदस्यार्थस्तस्मादन्यथानुपपत्तेर्वर्णानामप्यर्थः प्रतिपत्तव्य इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ साम्प्रतं तथाकारो यस्य दीयते तत्प्रतिपादनार्थमाह
कप्पाकप्पे परिनिट्ठिअस्स ठाणेसु पंचसु ठिअस्स । संजमतवद्भगस्स उ अविगप्पेणं तहक्कारो ॥ ३८८ ॥ कल्पो विधिराचार इति पर्यायाः, कल्पविपरीतस्त्वकल्पः, जिनस्थविरकल्पादि वा कल्पः चरकादिदीक्षा पुनरकल्पः, कल्पञ्चाकल्पश्चेति समाहारो द्वन्द्वः कल्पाकल्पं तस्मिन् कल्पाकल्पे परि-समन्तात् निष्ठितः परिनिष्ठितो- ज्ञाननिष्ठां प्राप्तः तस्य, तथा तिष्ठन्त्येतेषु सत्सु शाश्वते स्थाने प्राणिन इति स्थानानि - महाव्रतान्यभिधीयन्ते तेषु स्थानेषु पश्चसु स्थितस्य, महाव्रतयुक्तस्येत्यर्थः, संयमतपोभ्यामाढ्यः - संपन्नः संयमतपआढ्यः, अनेनोत्तरगुणयुक्ततामाह, तस्य किमि - त्याह- 'अविकल्पेन' निश्चयेन तथाकारः कर्त्तव्य इति क्रियाध्याहारः ॥ सम्प्रति तथाकार विषयप्रतिपादनार्थमाह
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मिथ्या
कारः तथाकारव
॥ ३४७॥
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [६८९-६९१], वि भागाथा -, भाष्यं [१३३], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअस्थकहणाए । अवितहमेअंति तहा पडिसुणणाए अ तहकारो॥१८९॥
वाचना-सूत्रदानलक्षणा तस्याः प्रतिश्रवणा तस्यां वाचनाप्रतिश्रवणायां तथाकारी कार्यः, एतदुकं भवति-गुरौ वाचनां प्रयच्छति सति सूत्रं गृह्णता तथाकारः प्रयोक्तव्यः, तथा सामान्येनोपदेशे चक्रवालसामाचारीप्रतिबद्धे गुरोरन्यस्य वा सम्बन्धिनि तथाकारः कार्यः, तथा सूत्रार्थकधनायां, व्याख्याने इत्यर्थः, किं-तथाकारः कार्यः, तधाकार इति कोऽर्था? इत्याह-अवितथमेतत् यद् ब्रूथ यूयमिति, न केवलममीध्वेवार्थेषु तथाकारः प्रयोक्तव्यः, किन्तु 'तहा पडिसुणणाए' इति प्रतिपृच्छोत्तरकालमाचार्ये कथयति सति प्रतिश्श्रवणायां च तथाकारः कार्यः, चशब्दलोपोत्र द्रष्टव्यः ॥ साम्प्रतं | स्वस्थाने स्वस्थाने इच्छाकारादिप्रयोक्तुः फलं प्रतिपादयतिजस्स य इच्छाकारो मिच्छाकारो अ परिचिआ दोवि । तइओ अ तहक्कारो न दुल्लहा सुग्गई तस्स ।।३९०॥
यस्येच्छाकारो मिथ्याकारश्च द्वावपि परिचितौ तृतीयस्तु तथाकारः तस्य सुगतिर्न दुर्लभा ॥ साम्प्रतनावश्यकीनपेधिकीद्वारयावयवार्थमभिधित्सुः पातनिकागाधामाह
आवस्सयं च निन्तो जंच अइन्तो निसीहि कुणइ । एअं इच्छं नाउं गणिवर ! तुझंतिए निउणं ॥३९॥। | आवश्य की पूर्वोक्तशब्दार्था तां आवश्यकीं 'निंतो' निर्गच्छन् यां च 'अइंतो' आगच्छन्, प्रविशन् इत्यर्थः, नैषेधिकी करोति, एतत्-आवश्यकीनपैधिकीरूपं द्वयमपि स्वरूपादिभेदभिन्नं इच्छामि ज्ञातुं हे गणिवर ! युष्मदन्तिके |निपुर्ण-सूक्ष्मं एतज्ज्ञातुमिच्छामीति क्रियाविशेषणं ॥ एवं शिष्येणोके सत्याहाचार्यः
दीप अनुक्रम
samEacanon intomanonal
For Fre & Form
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आगम
(४०)
"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [६९२-६९४], विभा गाथा ], भाष्यं [१३३], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत
धिक्या
सत्राक
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आवश्यक
आवस्सई च नितो जं च अहंतो निसीहिअं कुणइ । वञ्जणमेअंतु दुहा अत्यो पुण होइ सो चेव ॥६९२॥ आवश्यश्रीमलय- आवश्यकी निर्गच्छन् यां च प्रविशन्नैपेधिकीं करोति एतद् व्यञ्जनं-शब्दरूपं द्विधा, किमुक्तं भवति ?-आवश्यकीति |
कीनिषसमवसरणे दानपेधिकीति चेति द्वयं शब्दत एव भिन्नम् , अर्थः पुनर्भवत्यावश्यकीनपेधिक्योः स एव-एक एत्र, यस्मादवश्यकर्त्तव्य
योगक्रिया आवश्चिकी निपिद्धात्मनश्चातिचारेभ्यः क्रिया नैपेधिकी, न ह्यसावप्यवश्यकर्त्तव्य व्यापारमुलङ्घच वर्त्तते, ॥ २४८॥ आह-यद्येयं भेदोपन्यासः किमर्थः?, उच्यते, गमनस्थितिक्रियाभेदात् ॥ आह-आवश्यकी निर्गच्छनित्युक्तं तत्र साधोः।
हाकिमवस्थानं श्रेय उताटनमिति !, उच्यते, अवस्थानं ?, कथं ?, यत आहहै। एगग्गस्स पसंतस्स न हुंति इरिआदओ गुणा हुंति । गंतवमवस्सं कारणम्मि आवस्सिआ होइ ॥ ६९३ ॥ RI एकमग्रम्-आलम्बनं यस्येत्यसावेकाग्रस्तस्य, स चाप्रशस्तालम्बनोऽपि भवति तत आह-प्रशान्तस्य' क्रोधरहि
तस्य सतस्तिष्ठतः, किं न भवन्ति ईर्यादयः, ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः, इह ईर्याकार्य कर्म र्याशब्देन गृह्यते, कारणे कार्योपचारात्, या आदिर्येषामात्मसंयमविराधनादीनां दोषाणां ते ईर्यादयो न भवन्ति, तथा गुणाश्च-स्वाध्याय-1 ध्यानादयो भवन्ति, प्राप्तं तर्हि संयतस्य अगमनमेव श्रेय इत्यपवादमाह-न चावस्थाने खलूक्तगुणसम्भवान्न गन्तव्य
मेव, किन्तु गन्तव्यमवश्यं-नियोगतः कारणे गुरुग्लानादिसम्बन्धिनि, यतस्तत्रागच्छतो दोषाः, ततः कारणे गच्छत है * आवश्यकी भवति ॥आह-कारणेन गच्छतः किं सर्वस्यैवावश्यकी भवति उत नेति ?, उच्यते, नेति, कस्य तर्हि !, तदुच्यते
आवस्सिा उ आवस्सएहिं सवेहिं जुत्तजोगिस्म । मणवयणकायगुत्तिदियस्स आवस्सिया होइ ॥ ६९४ ॥
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+harma-
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [६९५-६९६], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१३३], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
आवश्यकी आवश्यक-अतिक्रमणादिमिः सर्वेयुक्तयोगिनो भवति, शेषकालमपि निरविचार कियाखस्येति भावार्थ: तख च गुरुनियोगादिना प्रवृत्तिकालेऽपि 'मण' इत्यादि मनोवाकायेन्द्रियैः गुमल, किम्-आवश्वकी भवति, सूत्रे इन्द्रियशब्दस्य गाथाभङ्गभयाद् व्यवहित उपन्यासः, कायात् पृथगिन्द्रिवग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्यम्, अस्ति चायं न्यायः 'सामान्यग्रहणे सत्यपि प्राधान्यख्यापनार्थ मेदेनोपन्यासो' बया प्राक्षणा आवाता वशिष्ठोऽप्यावात इति ॥ सका ४ आवश्यकी, साम्प्रतं नैषेधिकी प्रतिपादयबाह
सिज्ज ठाणं च जहिं घेएइ तहिं निसीहिआ होह । जम्हा तत्व निसिद्धो तेतु निसीरिजाहोद ॥ ६९५॥ - शेरते अस्यामिति शय्या-शयनस्थानं तां शय्यां 'स्थानं घेति खानम्-उध्वस्वानं, कायोत्सर्ग इत्यर्थः, यत्र चेतयते ? "चिती संज्ञाने' अनुभवरूपतया विजानाति, वेदयते इत्यर्थः, अथवा चेतयते-करोति धातूनामनेकार्थत्वात् , शवनक्रियां च । कुर्वता निश्चयतः शय्या कृता भवति, ततश्च यत्र स्वपितीत्यर्थः, चशब्दो वीरासनाद्यनुक्कसमुच्चयार्थः, अथवा तुशब्दार्थे द्रष्टव्यः, स च विशेषणार्थः, किं विशिनष्टीति चेत्, उच्यते, कृतप्रतिक्रमणाद्यशेषावश्यकः सन् अनुज्ञातो गुरुणा शय्यां स्थानं पचेतयते तत्र-एवंविधस्थितिक्रियाविशिष्टे खाने मेषेधिकी भवति, नान्यत्र, किमित्यत आह-यस्मातंत्र निषिद्धोऽसी तेन कारणेन नैपेधिकी भवति, निषेधात्मकत्वात् तस्या इति, पाठान्तरं वा
सेवं ठाणं च जया चेते तझ्या निसीहिया होइ । तम्हा तया निसेहो निसेहमइया य सा जेण ॥ १९ ॥ आ.सू.५९हा
इयमुक्कार्यत्वात् सुगमेव, अनेन अन्धेन मूलगायाया 'आवश्यकी निर्गच्छन् वां च आगच्छन् नैषेधिकी करोति व्यज
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JanEnimoon in
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आगम
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६९५-६९६], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [१३४-१३५], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
धिक्कै
सत्राक
नमेतत् द्विधा' इत्येतावत् ( गतिरूपावश्यकी ) स्थितिरूपनैषेधिकीप्रतिपादनव्यञ्जनभेदनिबन्धनमधिकृत्य व्याख्यातम् ॥ आवश्यक
आवश्यश्रीमदयसाम्प्रतममुमेवार्थमुपसज्जिहीर्षराह भाष्यकार:
कीन. आवस्सियं च नितो जं च अईतो निसीहियं कुणइ । सेजानिसीहियाए निसीहिया अमिनुहो होइ ॥१३॥ समवसरणे :
___ आवश्यकी निर्गच्छन् यांच आगच्छन् नैषेधिकी करोति तदेतत् व्याख्यातमिति शेषः, उपलक्षणमेतत् ततः सह ॥३४९॥ तृतीयपादेन 'व्यञ्जनमेतत् द्विघे त्यनेनेति द्रष्टव्यं, साम्प्रतम् 'अर्थः पुनर्भवति स एवे' ति गाथावयवार्थः प्रतिपाद्यते, तत्र
| इस्थमेक एवार्थों भवति, यस्मा पेविषयपि नावश्यकर्त्तव्य व्यापारगोचरतामतीत्य वर्तते, यतः प्रविशन् संयमयोगानुपाउनाय शेषपरिज्ञानार्थं चेत्थमाह । 'सेज्जानिसीहियाए निसीहियाअभिमुहो होई' इति शय्यैव नैषेधिकी शय्यानषेधिकी तस्यां से शय्यानैषधिक्यां विषयभूतायां, किं?, शरीरमपि नैषेधिकीत्युत्यते इत्यत आह-शरीरनैषेधिक्या करणभूतया आगमनं प्रत्यभिमुखः, ततः संवृतगात्रैः साधुभिर्भवितव्यमिति संज्ञां करोति, ततोऽवश्यकर्त्तव्यव्यापाररूपत्वात् नैपेधिक्यप्यावश्य|कीत्येक एवार्थः॥ (भा० १२० हा०) एतदेव सुव्यकं भावयतिजो होइ निसिद्धप्पा निसीहिआ तस्स भावओहोइ। अनिसिद्धस्स निसीहिआ केवलमित्तं हवइ सहो॥१३॥
॥३४९॥ यो भवति 'निषिद्धात्मा' निषिद्धो मूलगुणोत्तरगुणातिचारेभ्य आत्मा येनेति समासः, नैपेधिकी 'तस्य' निषिद्धात्मनो| 'भावतः' परमार्थतो भवति, न निषिद्धोऽनिपिद्धः-उक्तेभ्य एवातिचारेभ्वस्तस्यानिषिद्धस्यानुपयुक्तमागच्छतो नैषेधिकी,
दीप अनुक्रम
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Frism Fernsey
... इह मूल संपादने यत् भाष्य-क्रम १३४ आगत, सा गाथाया: क्रम हारिभद्रिय-वृतौ १२० अस्ति
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [६९७], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [१३६], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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किम् !-'केवलमे हवइ सहो केवलं शब्दमात्रमेव भवति, न भावत इति गाथार्यः (भा०१२१हा.)।यदि नामैवं तत एकार्थतायाः किमायातमिति', उच्यते, निषिद्धारमनो नैषेषिकी भवतीति उफ, सच| आवस्सयम्मि जुत्तो निअमनिसिद्धत्ति होइ नायबो। अहवावि निसिद्धप्पा नियमा आवस्सए जुत्तो॥१३॥ 4 आवश्यके-मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानरूपे युक्तो 'नियमनिसिद्धत्ति होई नायवों' इति नियमेन निषिद्ध इत्येवं भवति ४ ज्ञातव्यः, आवश्यक्यपि चावश्यकयुक्तस्यैवेत्यत एकार्थता, अथवेति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, ते निषिद्धात्माऽपि नियमादावश्यके युक्तोऽतोऽप्येकार्थतेति, पाठान्तरं 'अहवावि निसिद्धणा सिद्धाणं अंतियं जाई' इति,
अस्यायमर्थः-तदेवं तावत् क्रियाया अभेदेन एकार्थता उक्ता, इहत कार्याभेदेनैकार्थतोच्यते-अथवेति प्रकारान्तरे, निपि-IN द्धारमापि सिद्धानामन्तिक-समीपं याति-च्छति,अपिशब्दादावश्यकयुक्तोऽपि,अतः कार्याभेदादेकार्थता(भा०१२२हा०)। साम्पतमापृच्छादिद्वारचतुष्टयमेकगाधयैव प्रतिपादयन्नाह| आपुच्छणा य कज्जे पुवनिसिद्धेण होइ पडि पुच्छा । पुखगहिएण छंदण निमंतणा होअगहिएणं ॥ ६९७ ॥
आपृच्छनमापृच्छा, सा तु कर्तुमभीष्टे कार्ये प्रवर्त्तमानेन गुरोः कार्या-अहमिदं करोमीति।द्वार तथा पूर्वनिषिद्धेन सता यथा भवतेदं न कार्यमिति, उत्पन्नेऽथ प्रयोजने कर्नुकामेन 'होइ पडिपुच्छ' ति भवति प्रतिपृच्छा कर्त्तव्या, पाठान्तरं | 'पुषनिउत्तेण होइ पडिपुच्छा पूर्वनियुक्तेन सता यथा भवतेदं कार्यमिति, तत् कर्नुकामेन गुरोः प्रतिपृच्छा भवति कर्त्तव्याअहं तत्करोमि, तत्र हि कदाचिदसौ कार्यान्तरमादिशति समाप्तं वा तेन प्रयोजनमिति । द्वारं । तथा पूर्वगृहीतेनाश-18
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [६९८-६९९], विभा गाथा -], भाष्यं [१३६...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
आवश्यक नादिना छन्दना शेषसाधुभ्यः कर्त्तव्या, यथेदं मया अशनाद्यानीतं यदि कस्यचिदुपयुज्यते ततोऽसाविच्छाकारेण महणं
आपृच्छाश्रीमलय- करोत्विति।द्वारं । तथा निमन्त्रणा भवत्यगृहीतेनाशनादिना, यथाऽहं भवतेऽशनाद्यानयामीति ॥ इदानीमुपसम्पद्वारा-1
द्याःसामासमवसरणे शक्यवार्थः प्रतिपाद्यते, सा चोपसम्पद् द्विधा भवति-गृहस्थोपसम्पत् साधूपसंपच, वास्तां गृहस्योपसम्पत्, साधूप
४संपत् मोच्यते, सा च त्रिविधा-ज्ञानादिभेदात् , तथा बाह॥३५॥ उवसंपया यतिविहा नाणे तह दंसणे चरित्ते अादसणनाणे तिविहा इविहा य चरितअट्टाए । ६९८॥
___ उपसम्पत्तिः विधा, तद्यथा-'ज्ञाने' ज्ञानविषया, एवं दर्शनविषया चारित्रविषया च, तत्र दर्शनज्ञानयोः सम्बन्धिनी| | त्रिविधा, द्विविधा च चारित्रायेति । तत्र यदुक्तम् 'दर्शनज्ञानयोनिविघेति तरपतिपादनार्षमा
वत्तणा संघणा चेव, गहणं सुत्तत्थतनुभए । वेयावच्चे खमणे, काले आपबहाइब ।। १९९॥ वर्तना सन्धना चैव महणमित्येतत् त्रितयं 'सुत्तत्थतदुभए'त्ति सूत्रार्थोभयविषयमवगन्तव्यमित्वेसदर्षमुषसम्पद्यते, तत्र वर्चना माग्गृहीतस्यैव सूत्रादेरस्थिरस्य गुणनमिति, सन्धना तस्यैव प्रदेशान्तरे विस्मृतस्य मेलना वोजना घटनेत्येकोऽर्थः ग्रहणं पुनस्तस्यैव तत्प्रथमतया आदानं, एतत्रितयं सूत्रार्थोभयविषवं द्रष्टव्यम् , एवं ज्ञाने नव भेदार, दर्शनेऽपि दर्शनप्रमावनीयशाखविषया पत एव मेदा द्रष्टव्याः, अत्र सन्दिष्टः सन्दिष्टवैवोपसंपवते इत्यादिचतुर्भलिका, तब प्रथमो भङ्गः शुद्धः, शेषास्त्वशुद्धा, द्विविधा चारित्रायति यदुवं तदुपदर्शयन्नाह-वेयावञ्चेखवणे काले आवकहाइ इति चारित्रोप- ॥३५०॥ सम्पत् वैयावृत्त्यविषया अपणविषया च, इयं काळतो यावत्कयिका च भवति, चशब्दादित्वरा च, एतदुक्कं भवति-बारि-1
दीप अनुक्रम
JanEthicoon in
Frica Feroleh
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"आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७००-७०२], विभा गाथा -], भाष्यं [१३६...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम
वार्थमाचार्याय कधित् वैयावृत्त्यकरत्वं प्रतिपद्यते, स च कालत इत्वरो यावत्कधिकश्च, क्षपकोऽपि सपसम्पचते द्विधाइत्वरो यावत्कथिकश्शेवि गाथासङ्गेपार्थः। साम्प्रतमयमेवार्थो विशेषतः प्रतिपाद्यते, तत्रापि सन्दिष्टेन सन्दिष्टयोपसम्पदातव्योति मौलोऽयं गुणा, एतत्प्रभवत्वादुपसम्पद इत्यतोऽमुमेवार्थमभिषित्राह
संविट्ठो संदिहस्स चेव संपजई उ एमाई । चउभंगो इत्थं पुण पढमो भङ्गो हबह सुद्धो॥७॥ सन्दिष्टो-गुरुणाऽभिहितः सन्दिष्टस्यैवाचार्यस्य, यथा अमुकस्य सम्पद्यस्व, उपसम्पदं प्रयच्छतेत्यर्थः, एवमादिश्व-14 |तुर्भङ्गी, तद्यथा-संदिष्टः सन्दिष्टस्य, एष भङ्ग उक एव, सन्दिष्टोऽसन्दिष्टस्य अभ्यस्थाचार्यस्वेति द्वितीयः, असन्दिष्टः| संदिष्टस्य, न तावदिदानी गन्तव्यं गन्तव्यं त्वमुकस्येति तृतीयः, असन्दिष्टोऽसन्दिष्टस्य, न तावदिदानी न चामुकस्वेति, अत्र पुनः प्रथमो भङ्गो भवति शुद्धः पुनःशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् द्वितीयपदेनाव्यवच्छिचिनिमित्तमन्येऽपि द्रष्टन्याः। सम्प्रति वर्चनादिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह
अघिरस्स पुवगहिअस्स वत्तणाजं इहं थिरीकरणं । तस्सेव पएसंतरनदृस्सऽणुसंघणा घडणा ।। ७.१ ॥ गहणं तप्पढमतया मुत्ते अत्थे तदुभए चेव । अस्थगहणम्मि पायं एस विही होइ नायबो ॥ ७०२॥
पूर्वगृहीतस्य सूत्रादेरस्थिरस्य यत् स्थिरीकरणं सा वर्चना, तस्यैव सूत्रादेः प्रदेशान्तरनष्टस्य या घटना मीलनं साऽनुसन्धना, तत्प्रथमतया च सूत्रे-पष्टी नष्टम्योरर्थ प्रत्यभेदात् सूत्रस्थ, एवमर्थस्य तदुभयस्य-सूत्रार्थोभयख बदादानमिति
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७०३-७०५], विभा गाथा -], भाष्यं [१३६...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
आवश्य श्रीमलयसमवसरणे
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शेषः यग्रहणं । 'अत्थरगहणंमी' त्यादि, अर्थग्रहणे प्रायो-बाहुल्येन एष वक्ष्यमाणलक्षणो विधिर्भवति ज्ञातव्यः, प्रायोग्रहणं उपसंपत्सासूत्रग्रहणेऽपि कश्चिद्भवत्येव प्रमार्जनादिरिति ज्ञापनार्थ । साम्प्रतमधिकृतविधिप्रदर्शनाय द्वारगाथामाह
हैमाचारी | मजण निसिज्ज अक्खा किइकम्मुरसग्गु बंदणं जिटे। भासं तु होइ जिट्ठो न उ परिआएण तो वंदे ।।७०३॥
प्रथमतो यत्र स्थाने व्याख्यानं कत्व्यं तस्य प्रमार्जनं कार्य, ततो निसिज अक्खो इति प्राकृतत्वात् पष्ठ्यर्थे प्रथमा, अक्षाणामुपलक्षणमेतत् गुरूणां च चेलम् , अकृतसमवसरणेन गुरुणा व्याख्या न कर्तब्येत्युत्सर्गज्ञापनार्थ अक्षाणामुपादानं, तथा कृतिकर्म दातव्यं, तदनन्तरं वन्दनं ज्येष्ठे, ज्येष्ठश्चात्र भाषमाणो द्रष्टव्यो, न तु पर्यायेणेति द्वारगाधासमासार्थः। अवयवार्थ तु स्वत एवाहठाणं पमजिऊणं दुन्नि निसिजाय हुंति कायबा । इक्का गुरुणो भणिया विइआ पुण होइ अक्खाणं ॥७०४॥
यत्र व्याख्या कर्त्तव्या तत् स्थानं प्रमाय॑ द्वे निषद्ये भवतः कर्त्तव्ये, एका गुरोर्भणिता कर्त्तव्या, द्वितीया पुनर्भवत्य|क्षाणां समवसरणस्य ॥ सम्प्रति कृतिकर्माद्वारं व्याचिख्यासुराह
दो चेव मत्तगाई खेले तह काइयाए बीयं तु । जावइया य सुणती सबेचिय ते उ चंदंति ॥ ७०५ ।। द्वे एव मात्रके-समाधिस्थानरूपे खलु गुरुयोग्ये व्याख्यानमण्डल्यां प्रगुणीकर्तव्ये, तद्यथा-एक खेलस्य-श्लेष्मणो ॥ द्वितीय तथा कायिक्याः, अन्यथा अर्धकृतव्याख्यानोत्थानानुत्थानाभ्यां पलिमन्धात्मविराधानादिदोषप्रसङ्गः, ननु कृत-18 कायिक्यादिच्यापारेणैव गुरुणा प्रायो व्याख्या प्रारभ्यते, ततो व्याख्याप्रबन्धे क कायिक्या अवकाशो येनोच्यते
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७०६-७०८ ], वि० भा० गाथा [ १००६], भाष्यं [१३६...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
'काइयाए बीयं तु' इति १, उच्यते, यदि नाम रोगवशतः पुनः पुनः कायिकी समागच्छति तथापि तदवस्थेनापि गुरुणा शिष्याणामनुग्रहाय सूत्रं व्याख्येयमिति ज्ञापनार्थमेतदुक्तं, तथा चायमेवार्थ उक्तः पञ्चवस्तुके "दो चैव मत्तगाई खेले तह काइयाए बीयं तु । एवंविहोऽवि सुतं वक्खाणिज्जत्ति भावत्यो ॥ १ ॥” (१००३) कृतिकर्म्मद्वारे एतदभिधानं विधि| विशेष ख्यापनार्थमित्यदुष्टं, यावन्तश्च शृण्वन्ति तावन्तस्ते सर्वेऽपि द्वादशावर्त्तवन्दनेन वन्दन्ते । अधुना कायोत्सर्गद्वारं व्याचिख्यासुराह
स कासगं करेंति सद्दे पुणोऽवि वंदनि । नासन्नि नाइदूरे गुरुवयणपरिच्छा हुंति ॥ ७०६ ॥ सर्वे श्रोतारः 'श्रेयांसि बहुविज्ञानी' तिकृत्वा तद्विघातायानुयोगप्रारम्भे कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, तं चोत्सार्य सर्वे पुनरपि वन्दन्ते, ततो नासने नाप्यतिदूरे व्यवस्थिताः सन्तो गुरुवचनप्रतीच्छका भवन्ति, शृण्वन्तीत्यर्थः । सम्प्रति श्रवणविधिप्रतिपादनार्थमाह
निदा- विगहापरिवजिपहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुषं उवउत्तेहिं सुणेअहं ॥ ७०७ ॥ ariant सुभासिआई वयणाई अत्थसाराएं । विहिअमुद्देहिं हरिसागएहिं हरिसं जणतेहिं ॥७०८ || निद्राविकथापरिवर्जितैः, परिवर्जितनिद्रावि कथैरित्यर्थः, गुठैः- मनोवाक्कायगुप्तैः 'पंजलि उडेहिं' इति निष्ठान्तस्य प्राकृतत्वात्परनिपात इति कृताञ्जलिभिः भक्तिः- यथोचिता बाह्या प्रतिपत्तिः बहुमानम् - आन्तरः प्रीतिविशेषस्तत्पूर्वम्, उपयुक्तै:श्रवणैकनिष्ठेस्ततो गुरुमुखाद्विनिर्गतानि वचनानि सुभाषितानि - शब्दार्थदोपरहितानि अर्थसाराणि - विपुलार्थसमन्वितानि
••• अथ श्रवण एवं व्याख्यान-विधिः प्रतिपाद्यते
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७०९-७११], विभा गाथा -], भाष्यं [१३६...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
विधि
प्रत
सत्राक
भावश्यकेबभिकादिरपूर्यप्रवणतो हांगतैः, आगतहरेरित्यर्थः, हर्षोत्कर्षवशादेव विस्मितमुख तथा अन्येशं संवेगकरणादिना श्रीमलय- हर्ष जनयद्भिः श्रोतव्यम् । एवं च तैः शृण्वनिर्गुरोरतीव परितोषप्रकारेण प्रकृष्टेन आपाधते, ततः किमित्याह- समवसरणे गुरुपरितोसगएणं गुरुभत्तीए तहेव विणएणं । इच्छियसुत्तत्थाणं खिप्पं पारं समुवयंति ॥७०९॥ ४
गुरुपरितोपगतेन-परितोषप्रकारेण, प्रकृष्टेन गुरुपरितोषेणेत्यर्थः, सोऽपि कथमित्याह-गुरुभक्या-आन्तरप्रीतिविशेष॥३५२॥ रूपया तथैव विनयेन च-देशकालाद्यपेक्षया यथोचितप्रतिपत्तिकरणलक्षणेन, किमित्याह-सम्यक् सद्भावप्ररूपणया इप्सि-12
तसूत्रार्थयोः क्षिप्रं-शीघ्रं पारं समुपयाति ॥
वक्खाणसमत्तीए जोगं काऊण काइआईणं । वदति तओ जिलु अन्ने पुर्व चिय मणति ॥१०॥ व्याख्यानसमाधौ श्रोतारः कायिक्यादीनां योग-व्यापारं कृत्वा ततो ज्येष्ठम्-अनुभाषकं, चिन्तापकमित्यर्थः, वन्दन्ते | 2 द्वादशावर्त्तवन्दनकेन, अन्ये आचार्याः पुनरेवमभिदधति-किल पूर्वमेव ब्याख्यानारंभकाळे गुरुवन्दनानन्तरं ज्येष्ठं वन्दन्ते । इति । द्वारगाथापश्चार्द्धमाक्षेपद्वारेण प्रपञ्चतो व्याचिख्यासुराहचोएइ जओ (जइह) जिट्ठो कहंचि सुत्तत्थधारणाविगलो। वक्खाणलद्धिहीणो निरत्थयं वंदर्ण तम्मि ॥७१९॥
चोदयति यदि हु-निश्चितं ज्येष्ठः कथञ्चित् कथमपि 'सूत्रार्थधारणाविकला गुरुव्याख्यातार्थसूत्रार्थावधारणाश- चिरहितः, सूत्रार्थधारणशक्तिमानपि यदि व्याख्यानलब्धिहीनस्ततस्तस्मिन् निरर्थकं वन्दनक, तत्फलस्ख प्रत्युच्चारणअवयवाभावादिति।
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५२॥
Janticonn in
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७१२-७१५], विभा गाथा -], भाष्यं [१३६...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अह वयपरियाएहि लहुओऽवि हु भासओ इह जिहो। रायणिपवंदणे पुण तस्सवि आसायणा भंते ॥७१२॥ | अथ मन्येथा वयापर्यायाम्यां लघुरपि भाषक एवेह ज्येष्ठः परिगृह्यते, ननु तर्हि भदन्त ! रत्नाधिकवन्दने पुनस्तस्थाप्याशातना प्राप्नोति, तथाहि-न युज्यत एव चिरकालप्रवजितान् लघोः वन्दनं दापयितुमिति गायार्थः । इत्थं पराभिप्रायमाशझ्याहजइवि वयमाइएहिं लहुओ सुत्तत्यधारणापडुओ। वक्खाणलद्विमं जो सुचिय इह धिप्पए जिहो । ७१३ ॥ । यद्यपि वयआदिभ्यां-वयापर्यायाभ्यां लघुस्तथापि या सूत्रार्धधारणापटुः व्याख्यानलन्धिमांच, चशब्दलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, स एवेह-अनुभाषकप्रस्तावे ज्येष्ठः परिगृह्यते ॥ आशातनादोषपरिहारार्थमाहआसायणावि नेवं पटुच जिणवयणभासि जम्हा । वंदणयं रायणिए तेण गुणणं तु सो चेव ॥ ७१४॥
जिनवचनभाषणं प्रतीत्य एवम्-उकेन प्रकारेणाशातनाऽपि तस्य नोपजायते,यस्माद्वन्दनकरत्नाधिके,अहेद्वचनव्याख्यानलक्षणेन तेन गुणेन सोऽप्यनुभाषको रत्नाधिक एव । सम्प्रति प्रसङ्गतो वन्दनविषय एव निश्चयव्यवहारनयमतप्रदर्शनायाहन वओ इत्थ पमाणं न य परिआओऽवि निच्छयनएणं । ववहारओ उ जुजइ उभयनयमयं पुण पमाणं ॥७१५॥
न वयः-अवस्थाविशेषलक्षणं अत्र-वन्दनकविधौ प्रमाणं, न च पर्यायोऽपि-प्रवज्याप्रतिपत्तिलक्षणो निश्चयनयमतेननिश्चयनयाभिप्रायेण, ज्येष्ठबन्दनादिव्यवहारलोपातिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमाह-व्यवहारतस्तु युज्यते, किमत्र प्रमाणमितिसंदेहापनोदार्थमाह-उभयनयमतं पुना-द्वावपि प्रमाणमिति भावः । प्रकृतमेधार्थ समर्थयमान आह
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७१६-७१७], वि०भा गाथा H], भाष्यं [१३७], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
ज्येष्ठख
सत्राक
आवश्यके
निच्छयओ दुग्नेयं को भावे कम्मि वट्टए समणो ? । ववहारओ अ कीरइ जो पुवठिओ चरित्तम्मि ॥ ७१६ ॥ श्रीमलय- निश्चयतो दु यं-कः कस्मिन् प्रशस्तेऽप्रशस्ते वा भावे वर्त्तते श्रमण इति, भावश्चेह ज्येष्ठः, ततोऽनतिशयिनो वन्दन-15 समाकरणाभाव एवं प्राप्त इत्यतो विधिमभिधित्सुराह-व्यवहारतस्तु क्रियते वन्दनं 'यः पूर्वस्थितश्चारित्रे' यः प्रथम प्रवजितः
सन् अनुपलब्धातिचार इति ॥ आह-सम्यक्तद्भावापरिज्ञाने सति किमित्येवं क्रियते ?, उच्यते, व्यवहारप्रामाण्यात्, ॥३५॥ तस्यापि च बलवत्त्वात् , तथा चाह भाष्यकार:विवहारोऽवि हु बलवं जं छउमत्थंपि वंदई अरिहा । जा होइ अणाभिन्नो जाणतो धम्मयं एवं ॥१३७ ॥
| व्यवहारोऽपि बलवान् यत्-यस्मात् छद्मस्थमपि पूर्वरत्नाधिकं गुर्वादिं अर्हन्नपि-केवल्यपि वन्दते, अपिशब्दः अत्रापि संबध्यते, किं सदा?, नेत्याह-जा होइ अणाभिन्नोति यावद् भवत्यनभिज्ञातः यथाऽयं केवलीति, किमिति वन्दते इत्याह-जानन् धर्मातामेतां, व्यवहारनयबलातिशयलक्षणामिति ।। (भा०१२३ हा०)॥ आह-यद्येवं सुतरां वयापर्यायहीनस्य तदधिकान् वन्दापयितुमयुकं आशातनाप्रसङ्गात् , उच्यतेइत्थ उ जिणवयणाओ, सुत्तासायणबहुत्तदोसाओ। भासंतजिट्ठगस्स उ काय होइ किइकम्मं ॥ ७१७ ॥
अत्र तु-व्याख्याप्रस्ताववन्दनाधिकारे जिसवचनात्-तीर्थकरोक्कत्वात् , तथा अवन्धमाने सूत्राशातनादोपबहुत्वात् भाषमाणज्येष्ठस्य, तुरेवकारार्थः, स चैवं योज्यः-प्रत्युच्चारणसमर्थस्यैव, किम्?-कर्तव्यं भवति, कृतिकर्म-वन्दनकमिति
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SHASTROSECONSENSAR
॥३५॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७१८-७१९], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...] मूलं [- /गाथा -] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
गाथार्थः ॥ एवं तावत् ज्ञानोपसम्पद्विधिः उक्तः, दर्शनोपसंपद्विधिरप्यनेनैवो को द्रष्टव्यः, तुल्ययोगक्षेमत्वात्, तथाहि-दर्शनप्रभावकशास्त्रपरिज्ञानार्थमेव दर्शनोपसम्पदिति ॥ सम्प्रति चारित्रोपसम्पद्विधिमभिधित्सुराह
दुविहाय चरितfम्म बेयावचे तहेव खमणे य। निअगच्छा अन्नम्मि उ सीअणदोसाइणा होइ ॥ ७१८ ॥ द्विविधा चारित्रे - चारित्रविषय उपसम्पत्, तद्यथा-वैयावृत्त्यविषया क्षपणविधिविषया च, किमन्त्रोपसम्पदा कार्य ? स्वगच्छ एव तत् कस्मान्न क्रियते ?, उच्यते, निजगच्छादन्यस्मिन् गमनं सीदनदोषादिना भवति, आदिशब्दादन्यभावादिपरिग्रहः ॥
इत्तरिआइ विभासा बेयावचे तहेव खमणे अ । अविगिट्ठविगिट्टम्मी गणिणा गच्छस्स पुच्छाए ॥ ७१९ ॥
इह चारित्रार्थमाचार्यस्य कश्चिद् वैयावृत्त्यकरत्वं प्रतिपद्यते स च कालत इत्वरो यावत्कधिकश्च भवति, आचार्यस्यापि वैयावृत्त्यकरोऽस्ति वा न वा, तत्रायं विधिः-यदि नास्ति ततोऽसाविष्यत एव, अधास्ति स द्विविधः - इत्वरो वा | स्याद्यावत्कथिको या, आगन्तुकोऽप्येवं द्विभेद एव तत्र यदि द्वावपि यावत्कथिको ततो यो लब्धिमान् स कार्यते, इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयते, अथ द्वावपि लब्धियुक्तौ ततो वास्तव्य एव कार्यते, इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयते इति, अथ नेच्छति ततो वास्तव्य एवं प्रीतिपुरस्सरं तेभ्यो दीयते, आगन्तुकस्तु कार्यते इति, अथ प्राक्तनोऽप्युपाध्यायादिम्यो नेच्छति तत आगन्तुको विसर्च्छत एव, अथ वास्तव्यो यावत्कथिक इतरस्त्वितर इत्यत्राप्येवमेव भेदाः यावदागन्तुको विसृज्यते, नानात्वं तु वास्तव्य उपाध्यायादिभ्योऽनिच्छन्नपि प्रीत्या विश्राम्यते, यदि सर्वथा नेच्छति ततो विसृज्यते
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७१८-७१९], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
आवश्यके श्रीमलय- समवसरणे
चारित्रोफ संपत्
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॥ ३५४॥
आगन्तुकः, भय वास्तव्याः खस्वित्व आगन्तुकस्तु यावत्कथिकस्ततो वास्तव्योऽवधिकालं यावदुपाध्यायादिभ्यो दीयते, शेषं पूर्ववत्, अथ द्वावपीवरौ तत्राप्येक उपाध्यायादिभ्यो दीयते, अन्यस्तु कार्यते, शेषं पूर्ववत् , अन्यतमो वाऽवधि- कालं यावत् ध्रियते इत्येवं यथाविधि विभाषा कार्या, उपाध्यायादिभ्य इत्यत्रादिशब्दात् स्थविरग्लानशेक्षकादिपरिग्रहः। उक्का वैयावृत्त्योपसम्पत्, सम्पति क्षपणोपसम्पत् प्रतिपाद्यते-'अविगिढे'त्यादि, कश्चित् क्षपणार्थमुपसम्पद्यते, सक्षपको द्विविधः-इत्वरो यावत्कथिकश्च, यावत्कधिक उत्तरकाले अनशनकर्ता, इत्वरस्तु द्विधा-विकृष्टक्षपकः अविकृष्टक्षपकश्च, तत्राष्टमादिक्षपको विकृष्टक्षपका, चतुर्थपष्टक्षपकस्त्वविकृष्टक्षपकः, तत्रायं विधि:-अविकृष्टक्षपकः खल्वाचार्येण पृच्छयते-हे आयुष्मन् ! पारणके त्वं कीहशो भवसि ?, यद्यसावाह-लानोपमः, ततोऽसावभिधातव्यः-अलं तव क्षपणेन, स्वाध्यायवैयावृत्त्यकरणे यन्तं कुरु, इतरोऽपि पृष्टः सन् एवमेव प्रज्ञाप्यते, अन्ये तु व्याचक्षते-विकृष्टक्षपकः पारणककाले ग्लानकल्पतामनुभवन्नपि इष्यत एव, यस्तु मासादिक्षपको यावत्कथिको वा स इष्यते एव, तत्राप्याचार्येण गच्छः प्रष्टव्यो, यथाऽयं क्षपक उपसम्पद्यते इति, अनापृच्छय गच्छं संयच्छतः सामाचारीविराधना, यतस्ते सन्दिष्टा अपि उपधिपत्युपेक्षणादि तस्य न कुर्वन्ति, अथ पृष्टा अवते यथाऽस्माकमेकः चपकोऽस्त्येव, तस्य क्षपणपरिसमाधावस्य करिष्यामः, ततोऽसौ प्रियते, अथ नेच्छन्ति ततस्त्यज्यते, अथ गच्छस्तमप्यनुवर्तते, ततोऽसाविष्यत एव, तस्य च विधिना प्रतीच्छितस्स उद्धर्चनादि कार्य, यदा पुनः प्रमादवोजाभोगतो वा न कुर्वन्ति शिष्यास्ता आचार्येण चोदनीयाः, इत्यलं प्रसलेन ॥ सम्प्रति चारित्रोपसम्पद्विषिविशेषप्रतिपादनार्थमाह
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आ.सु. ६०
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७२० ७२२], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
उवसंपन्न जं कारणं तु तं कारणं अपूरंतो अहवा समाणिअम्मि सारणया वा विसग्गो वा ॥ ७२० ॥ यत्कारणं- यन्निमित्तमुपसम्पन्नः, तुशब्दादन्यत्सामाचार्यन्तर्गतं किमपि गृह्यते, तत्कारणं-वैयावृत्त्यादि अपूरयन्-अकुर्वन्, यदा वर्त्तते इत्यध्याहारः, तदा किमित्याह-'सारणया वा विसग्गो वा' इति तदा तस्य सारणा-चोदना क्रियते, अविनीतस्य पुनर्विसर्गे वा परित्यागः क्रियते, तथा न अनापूरयन्नेव यदा वर्त्तते तदा सारणा वा विसर्गो वा, किन्तु 'अहवा समाजियम्मि' न्ति अथवा समाप्तिं नीते- परिसमाप्तिं नीतेऽभ्युपगतप्रयोजने स्मारणा वा क्रियते, यथा- परिसमाप्तं, तद्यदि ऊर्ध्वमपि इच्छति ततो भव्यं, अथ नेच्छति गच्छति तस्य वा न साम्मत्यं ततो विसर्गो वेति, उक्ता संयतोपसम्पत् । सम्प्रति गृहस्थोपसम्पदुच्यते, तत्रेयं साधूनां सामाचारी - सर्वत्रैवाध्वादिषु वृक्षाद्यधोऽप्यनुज्ञाप्य स्थातव्यं, यत आहइत्तिरिपि न कप्पड़ अधिदिनं खलु परुग्गहाईसु । चित्ति निसीहत्तुं तइ अइयरक्खणट्टाए || ७२१ ॥ इत्वरमपि स्वल्पमपि, कालमिति गम्यते, न कल्पते अविदत्तं खलु परावग्रहादिषु, आदिशब्दः परावग्रहानेकभेदप्रख्यापकः, किं न कल्पते इत्याह-स्थातुं - कार्योत्सर्गे कर्त्तु, निपेत्तुम् उपवेष्टुं किमित्यत आह-'तइयवयरक्खणड्डाए' अदत्तादान विरत्याख्यतृतीयत्रतरक्षणार्थे, तस्मात् भिक्षाटनादावपि व्याघातसम्भवे क्वचित्स्थातुकामेनानुज्ञाप्य स्वामिनं विधिना स्थातव्यम्, अटव्यादिष्वपि विश्रमितुकामेन पूर्वस्थितमनुज्ञाप्य स्थातव्यं, तदभावे देवतां यस्याः सोऽवग्रह इति ॥ उका दशविधा सामाचारी | साम्प्रतमुपसंहरन्नाह
एवं सामाघारी कहि दसहा समासओ एसा । संजमतबडगाणं निग्गंधाणं महरिसीणं ॥ ७२२ ॥
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७२३-७२४], विभागाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यके
एवमेषा सामाचारी दशधा-दशविधा समासतः-सझेपेण कथिता, केभ्य इत्याह-संयमतपोभ्यामाख्या:-समृद्धाः संय- उपसंपत्साश्रीमलय-18|मतपआढ्यास्तेभ्यो निर्गन्धेभ्यो महर्षिभ्यः । सामाचार्यासेवकानां फलमुपदर्शयति
माचारी एवं सामायारि जंजता चरणकरणमाउत्ता। साह खवंति कम्म अणेगभवसंचिअमणतं ॥ ७२३॥ I चारी
I एताम्-अनन्तरोदितस्वरूपां दशधा सामाचारी यथाविधि युञ्जानाः, तथा चरणकरणायुक्ताः-चरणं-व्रतादि, उकं फलं ॥३५॥ |च-"यय ५ समणधम्म १० संजम १७ वेयावच्चं १० च बंभगुत्तीतोनाणाइतियं ३ तव १२ कोहनिग्गहा ४ चेव चरणं तु
|॥१॥" करणं पिण्डविशुद्ध्यादि, तदुक्तं-"पिंडविसोही ४ समिई ५ भावण ११ पडिमा १२ य इन्दियनिरोहो५। पडिलेहण २५ विगुत्तीओ ३ अभिग्गहा ४ चेव करणं तु॥१॥"तयोःचरणकरणयोरायुक्ताः-सम्यग् आ-समन्तात् उपयुक्ताः साधवःक्षपयन्ति |
कर्म अनेकभवसञ्चितमनन्तमिति ॥ इदानी पदविभागसामाचार्याः प्रस्तावः, सा च कल्पव्यवहाररूपा बहुविस्तरा, ततः स्वस्थानादवसेया, इत्युक्तः सामाचार्युपक्रमकालः ॥ साम्प्रतं यथायुष्कोपक्रमकालः प्रतिपाद्यः, स च सप्तधा, तथा चाह
अज्झवसाण निमित्त आहारे वेअणा पराघाए । फासे आणापागू सत्तविहं जिज्झए आउं ॥ ७२४ ॥
अध्यवसानं रागस्नेहभयभेदात् त्रिधा, तस्मिन्नध्यवसाने सति, तथा दण्डादिके निमित्ते सति, आहारे प्रचुरे सति, वेद-|| नायां नयनादिसम्बन्धिम्यां सत्यां, तथा पराघातो गर्तपातादिसमुत्थस्तस्मिन् सति, स्पर्श भुजङ्गमादिसम्बन्धिनि, 'आणा- ३५५॥
पाणु' त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्प्राणापानयोनिरोधे, किमित्यत आह-एवं सप्तविधं-सप्तप्रकारं भिद्यते आयुः, एष। * गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थस्तूदोहरणेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि-रागाध्यवसायेऽपि भिद्यते आयुर्यथा-एगस्स गावीओ
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... अथ अध्यवसानादि-निमित्त आयुष्य-उपक्रम वर्णयते
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७२३-७२४], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
हरियातो, ताहे कुढिया पच्छतो लग्गा तेहिं नियसियाओ, तत्थ एगो तरुणो अतिसयदिवरूवधारी तिसिओ गामं पविट्टो, तस्स तरुणीप नीणियमुदगं, सो पवीतो, सा तस्स अणुरता, होकारंतस्सवि न ठाई, सो उद्विता गतो, सावि तं पलोयंती तहेव उयतेइ, जाहे अद्दिस्सो जातो ताहे तहट्टिया चेव रागसंमोहियमणा मया, एवं रागझवसाणे भिज्जइ आउंति । तथा स्नेहाध्यवसाये सति भिद्यते आयुर्यथा एगस्स वाणियगस्स तरुणी महेला, ताणि परोप्परमतीवमणुरत्ताणि, ताहे सो वाणिज्जेण गतो, पडिनियत्तो, एगाए बसहीए नियद्वाणं न पावर, ताहे वयंसगा से भयंति-पेच्छामो किं सच्चं अणुरातो न बत्ति ?, तओ एगेण गंतूण भणिया-सो मतोत्ति, तीए भणियं किं सच्चं १, सच्चं सच्चंति, ततो तिवारे पुच्छित्ता मया, इयरस्स कहियं, सो तहच्चैव मतो, एवं स्नेहाध्यवसाने सति भिद्यते आयुः । आह-रागस्नेहयोः कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, रूपाद्याक्षेपजनितः प्रीतिविशेषो रागः, सामान्य सत्यमत्यादिगोचरः स्नेहः । भयाध्यवसाने भिद्यते आयुर्यथा - सोमिलस्य, तेणं कालेणं तेणं समएणं वारमई नामं नगरी होत्था, पाईपडिणायता उदीणदाहिणविच्छिन्ना नवजोयणपिहुला बारसजोयणायामा धणवतिमइनिम्मिया चामीकरपागारा नाणामणिपंचवण्णकविसीसगसोभिया पञ्चक्खदेवलोगभूता, तीसे बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे रेवते नामं पद्यते, तस्स णं पवतस्स अदूरसामंते नंदणवणे नामं उज्जाणे, तस्स णं महाभागे सुरप्पिए नामं जकूखाययणे, तत्थ णं नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया, से णं समुद्दविजयपामोक्खाणं दसहं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचहे महावीराणं सोलसहं राईसहस्साणं पजुन्नपामोक्खाणं अडुट्ठाणं कुमारकोडीणं संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुदंतसाहस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्सीणं महासेणपामोक्खाणं छप्पन्नाए
... 'सोमिल' (गजसुकुमालस्य श्वसूर) स्य कथानक
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७२३-७२४], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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18वलबगसाहस्सीणं रुपिणीपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलासाहस्सीणं अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगगणिगासाहस्सीण।
आयुरुषश्रीमलय- अन्नेसिं च बहणं ईसरतलबरजावसत्यवाहप्पभिईणं वेयहुगिरिसागरपेरंतस्स दाहिणड्डभरहस्स वारवतीए नगरीए आहेवच्छं ।
क्रमे भये समवसरणे पालेमाणे विहरइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिटुनेमी समोस्सरितो, भयवतो अरिहनेमिस्स अन्तेवासी। ब्भायरो अणगारा चोदसपुधी पउण्णाणोवगया एगंतस्सरिसगा नीलुप्पलप्पगासा सिरिवच्छंकियवच्छा बत्तीसलक्ख-11
सोमिलः ॥३५६॥ Mणधरा पवजदिवसादारभ्भ छठंछठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं विहरंति,ते पढमाए पोरिसीए सम्झाएत्ता बीतीयाए झाणं|
झाइत्ता तइयाए पोरिसीए तिहिं संघाडगेहिं पारवतीए अडंति, तत्व एगे संघाडगे उच्चणीयमज्झिमाई कुलाई अडमाणे वसुदेवरस देवईए घरमणुपविटे, सा य तं पासित्ता हतुट्ठा भद्दासणातो उद्वित्ता पाउया ओमुयइ, ओमुइसा अंजलिम3-14 लियग्गहत्था सत्तट्ठपए गंतूण धंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयं मोयगाईहिं पडिलाभेइ, ततो पुणो बंदइ, तयणंतरं।* दोचे संघाडए पविट्ठो, सोऽवि तहेव पडिलाभितो, एवं तच्चोवि, नवरं तच्चं संघाडं पष्डिलाभित्ता एवं घयासी-किणं भंते । किण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे बारवईए नयरीए देवलोगभूताए निग्गंधा अडमाणा भत्तं पाणं अलहंते जेण ताई।
चेव कुलाई भत्तपाणाए भुजोर अणुपविसंति ?, तस्थणं देवजसे नामं अणगारे एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिए! एवं एयं,IPI किंतु अम्हे छन्भायरो सरिसगा तिहिं संघाडगेहिं अडमाणा तुम्हं गेहमणुपविट्ठा, तं नो चेव णं ते अम्हे अण्णे अम्हेत्ति 81 भणिण गया, तएणं तीसे इमे एयारूये अन्भत्थिए समुप्पन्जित्था-एवं खलु अहं पोलासपुरे नगरे अइमुत्तेणं कुमारसमणेणं||
॥३५६॥ बालत्तणे वागरिया-तुम्ह अहपुचे पयाहिसि सरिसे नलकुबरसमाणे, नो चेवणं भारहे वासे केवइ कालातो अण्णा महिला एया
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७२३-७२४], विभागाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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रिसीय होहिति, तण्णं मिच्छा, इवं पञ्चसमेव दीसइ अन्नाओवि एयातो, तं मच्छामिण सामि पुच्छामिति सामिअंतिकमुवगया, सामिणा तीसे अम्भत्यिवं कहिवं जाव एअमट्टे 1, इंता अस्थि, ततो सामी वागरइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं भदिलपुरे नगरे नागस्स गाहावइस्स सुलसा भारिया नेमित्तिकेण निंदूवागरिया, तए सा बाजप्पभिई चेव हरिणेगमेसि देवं भत्तिवहुमाणेणं आराहिया, तुमंपि सावि सममेव दारए पसवह, ततो सो देवो तीए अणुकंपणहाए तीसे मयगपुत्ते गेण्हित्ता तव अंतिय साहरइ, जेविय णं ते तव पुत्चा तेवि य तीए साहरइ, ते चेव णं ते पुत्ता, नो सुलसाए, ततो सामि वंदति, चंदिचा जत्थ अणगारा तत्व उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, आगतपण्हुवा पप्फुल्ललोयणा उसवियरोमकूवा छप्पिय अणगारे निखाए दिहिए सुचिरं निरिक्खइ, पुणो वंदति, ततो सामि वंदित्ता सगिहमागया| एवं चिंतेइ-अहं सच पुचे पयाता, नोचेवणं मए एगस्सवि चालवणं समणुभूतं, धण्णाओ ण ताओ अंबगाओ जाओ नियकुच्छिसंमृयाई धणदुद्धलुद्धाई भमणजंपिराई बालाई कमलकोमलोवमेहि हत्थेहिं गिहिऊण उच्छंगे निवेसित्ता
घणं पायंति, अहं अघण्णा एवं जाव चिंतेइ ताच कण्हो पायवंदगो समागतो तं झियायंतं पासइ,पायवडणं करेइ, करेचा सोएवं वयासी-अण्णया णं तुझे ममं पासित्ता हवा आसि, अज किंनु झियाह 1, ताहे सा सर्व परिकहेड, ततो कण्हो
भणइ-अम्मो! मा झिवाह, अहं णं वहा पत्तिस्सं जहा ममं सहोयरगे भवइ, ततो एवं समासासिता पोसहसालाए गंतूण अट्टम पगिणिहत्ता हरिणेगमेसि देवं आराहेइ, सोऽवि अहमभचे परिणममाणे पञ्चक्लीभूय तब देवलोगचुए सहोयरगे| भविस्सइत्ति वोत्तूण पडिगतो, कण्होवि बीयदिवसे तं सर्व देवईए परिकहिचा सभवणं गतो,अन्नवा सा देवई ग सुमिणे ।
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७२३-७२४], विभा गाथा -1, भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यक पासित्ता पडिबुद्धा,तएणं नवण्ह मासाणं मट्ठमाण राईदियाणमतिकमे जासुयणरत्तबंधुजीचगसमप्प सपनयणकंतं सुकुमा- भयोपक्रमे श्रीमलय-
1लगयतालुयसमाणं सुरूवं दारगं पयावा, ततो वारसमे दिवसे जम्हापं इमे दारगे गयतालुयसमाणे सुमिणे य गतो दिवोसोमिलः समवसरणे
तं होउ एयस्स नामजं गयसुकुमालोत्ति, सो सबजायवप्पिओ सुहंसुहेणं परिवद्धद। तीसे य बारवईए सोमिलो नाम
माहणो धणकणगसमिद्धो, तस्स सोमसिरि नाम माहणी, तीसे सोमा नाम दारिया, स्वेण जोवणेण लावण्णेण उक्किट्ठस॥३५७॥
दारीरा, अन्नया कयाई विभूसिया बहहिं दासचेडीहि परिक्खित्ता सयातो गिहातो पडिनिक्खनिता रायमगंसि कणगति
दूसगेण कीलमाणा चिट्ठति, तथा य अरहा अरिहनेमी समोसहे, परिसा निग्गया, कण्होऽवि इमीसे कहाए लद्धडे समाणे सभाए सुहम्माए कोमुई भेरि ताडावेत्ता सम्बद्धीए गयसुकुमालेण सद्धिं विजयगंधहस्थिखंधवरगए बारमईए नगरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, तं सोमदारियं पासइ, पासित्ता कोडं वितिए पुच्छति-कस्सेसा? किं नामेण ?, ततो णं कोटुंबियपुरिसा: साहति-देव! सोमिलस्स माहणस्स दारिया सोमानामंति, ततो णं कण्हे ते कोडुंबियपुरिसे एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भेत सोमिलं जाइत्ता सोमं कनं अंतरंसि पक्खिबह, एसा गवसुकुमालस्स पढमपत्ती भविस्सइ, ते तदा करेंति, जाव सा2 कण्णतेउरे पक्खित्ता, कण्होऽवि सहसंचवणे सामि पजुवासित्ता भवणमागतो, गयसुकुमालोऽवि सामिसगासे धम्म || सोचा पडिबुद्धो एवं वयासी-भय ! अम्मापियरो आपुच्छित्ता पवइस्सामि, भगवया भणियं-अहासुहं मा पडिबंधार करेहत्ति, ततो सामि बंदित्ता सगिहमागतो, तए ण से सुकुमाले अम्मापिळणं पायवडणं करेता एवं क्यासी-अम्मताता! मए सामिस्स अंतिए धम्मो निसन्तो, स अभिरुइए, तो इच्छामि पं पवइदंति, ततो वं सा देवई तं अनि फरुसं गिरं
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७२३-७२४], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सोच्या मणोमागसिएणं दुक्सेण बभिभूवा कुहिमतलंसि घसत्ति सईनहि निवाडिया, तए अतेरपरिजणेणं आसासिया समाणी दोणविमणा कलुणं रोबमाणी गवसुकुमालं एवं क्यासी-तुमं सिणं जाया! अम्बं एगे पुत्ते रवणमूते, तं नो खलु। अम्हे इच्छामो सुमं सणमवि वियोग सहित्तर, तं गच्छाहि जाया!, मुंजाहि विचले माणुस्सए कामभोगे जाव वयं ।। |जियामो, ततो पच्छा अम्हेसु काठगए परिणयचए वह्रियकुलवंसतंतुकजे निरवेक्खे पञ्चहिसि, एवं गवसुकुमालमणेगप्पगाराहिं बहुहिं पण्णवणाहिं पणवेति, नो चेव णं संचाइए परिर, तए णं से कण्हे इमीमे कहाए लढे समाणे जेणेव गयसुकुमालो तणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता गयसुकुमालं आलिंगइ, आलिंगित्ता उच्छंगे निवेसेइ, ततो एवं वयासी-तुम है। मम सहोयरे कणीयसे भाया तं मा इयाणि पववाहि, अहं गं तुम बारवतीए नयरीए महया रायाभिसेणं अभिसिंचामि,IN
तए णं से गयसुकुमाले एवं कण्हेण चुत्ते समाणे नो आढाइ नो परियाणाति, एवं दोश्चापि तञ्चपि, ततोणं अम्मापियरो अकातामगाईचेव एवं भणति-तं इच्छामो ते जाया! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्ता, तए णं से गयसुकुमाले कण्हं अम्मा-त
पियगे य अणुयत्तमाणे सुसिणीए चिट्ठइ, तए णं से कण्हे कोडंबियपुरिसे सद्दाविता महया विभूतीए रायाभिसेयं करेइ, बिइयदिवसे महाविभूईए निक्खमणमहिमं करेइ, तए णं से मयसुकुमाले सामिस्स पासे पचाइए, तए णं से जंचेव दिवस पवइए तस्सेव दिवसस्स अवरणहकालसमए जेणेव अरहा अरिहनेमिसामी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो।
दइ २ एवं बयासी-इच्छामिण भंते ! तुम्भेहिं अम्मणुण्णाए महाकालंसि सुसाणंसि एगराइयं महापडिमं उपसंपजित्ताण विहरित्तए, महासुहं देवाणुप्पिया, तए णं से हवतुढे सामि वंदित्वा तंमि मसाणे थंडिलं पडिलेहिता ईसीपम्भारगएणं
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आवश्यके श्रीमलयसमवसरणे
॥ ३५८ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७२३-७२४], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृि
कारण दोवि पाए साहद्दु एगराइवं महापडिमं उवसंपज्जिचाणं विहरइ । सोमिले व माहणे समीधयस्स अट्ठाए बारवतीय बहिया पुवनिग्गए आसि, तं गद्देऊण पडिनियतमाणे संझाकालसमर्थसि पविरलमणूसंसि गयमुकुमालं तहापडिमद्वियं पास, पासिता आसुरुचो एवं चिंतेड़-एस भो गयमुकुमाले अपत्थियपत्थिए जेण मम धूयं सोमं बालं पडिपुनं अकय| वेमणस्सं विप्पजहिता पबड़ए, तं सेयं खलु मम एयस्स वेरनिज्जायणं करेत्तए, एवं चिन्तित्ता दिसाओ अबलोइऊण सरसं मतियं गेण्ड, गेण्हिता तस्स मत्थए मट्टियापालि बंधइ, जलंतिवाओ व चियगाओ फुल्लकिंसुयसमाणे खादिरंगारे कवल्लेणं गिण्हिता तस्स मत्थर पक्खिवइ, ततो भीतो खिप्पामेव अवकमित्ता सगिहमागतो। तए णं तरस गयसुकुमाउस्स सरीरगंभि वेयणा दुरहिवासा पादुब्भूया, तं सोमिलस्स उवरिं मणसावि अप्पदुस्समाणे सम्म अहियासंतएवं तस्स सुभेणं अज्झत्रसाणेणं चउण्हं घाइकम्माणं खएण अणंते केवलवरनाणदंसणे उप्पण्णे, ततो पच्छा सिद्धे, अहासंनिहिपहिं वाणमंतरेहिं दिवसुरभिगंधोदयवासे बुट्टे दसद्भवन्ने य कुसुमप्पगरे निवातिते । बीयदिवसे कण्हे बारवईए मज्झमज्झेण सामिं वंदतो निगच्छमाणो अंतरा जरापरिकलियं जुन्नमेगं पुरिसं महइमहालियातो इट्टगरासीतो एगमेगं इहगं गहाय रत्थापहातो | अंतो गिर्हसि अणुपविसमाणं पासइ, ततो णं कण्हे तस्सऽणुकंपणद्वाए हत्थिखंधवरगते चैव एगं इड्गं गाय हिंसि अणुष्पवेसेइ, ततो जयेगेहिं पुरिससहस्सेहिं इट्टगरासी खिप्पामेव अणुप्पविसितो, ततो कन्हे समोसरणे गंतूण सामीं बंदर, वंदिता अवसेसे अणगारे बंदर, ततो गयसुकुमाउं अपासिंतो सामिं बंदिऊण पुच्छह-कहि णं भंते । मम सहोयरए भाया जेण वंदामि 1, ततो सामी वड़ासी - कण्हा ! गवसुकुमालेणं अणगारेणं अप्पणो अट्ठे साहिए, कई ?, सामी भणइ
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भयोपक्रमे सोमिल:
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कण्हा! गयसुकुमाले मर्म आपुच्छिऊण महाकाले सुसाणे पडिम ठिते, ते एगे पुरिसे पासित्ताणं आसुरुत्ते सरसं मट्टियं ।।। गेण्हित्ता पालिं बंधइ, जाव सिद्धे, एवं खलु कण्हा! गयसुकुमालेणं अप्पणो अटे साहिए, ततो कण्हो भणइ-केस णं भंते
से परिसे अपस्थियपत्थिए जेण मम सहोयरे अणगारे एवं कए, सामी आह-मा णं कण्हा! तस्स पदोसमावजाहि, एवं11 ५ खलु कण्हा! तेणं तस्स साहिजे पदिन्ने, कह णं भंते !, सामी आह-कण्हा! तुम मम बंदए आगच्छमाणे अंतरा जराप
रिकलितं चेव जाव सज्जोवि इट्टगरासी खिप्पामेव गिहमि अणुपवेसितो, जहाणं तुमं तस्स साहिजं दिन्नं एवामेव गयसुकुमाल-18 सस्सवि अणेगभवसहस्ससंचियं कम्मं उदीरमाणेणं बहुकम्मनिजराए साहेज दिण्णं, से भंते! पुरिसे मए कह जाणि-11 सायबे, सामी भणइ-तस्स णं कण्हा! तुम नगरि अणुपविसमाणं पासित्ता भएण सीसं फुट्टीहिइ तं जाणिज्जासि एस
सोत्ति, सोय तहाकालं काऊण अप्पइट्ठाणे नरए उववजिहित्ति, तए णं से कण्हे सामि बंदित्ता जेणेव सए गेहे तेणेब पहारित्था गमणयाए, सोमिलोवि य णं पभाए चिंतेइ-एवं खलु कण्हे अरहतो वंदगे निग्गए, तं नियमतो अरिहया सिडमेयं । भविस्सइत्ति भीते सयातो गिहातो पडिनिक्खमति २ बारवतीए इतो ततो पधावमाणे काहस्म पुरतो पडिदिसि हबमा
गते, तए णं तस्स भयसंतसंतस्स सीसं तडत्ति सयसिक्करं फुई, तते णं कण्हे तं तहाकालगयं पासिऊण आमुरुत्ते कोडंविजयपुरिसे एवं वयासी-एएणं भो अप्पत्थियपत्थिएण मम सहोयरे अणगारे अकाले चेव जीवेयातो ववरोविए, तं बारवतीए।
एवं घोसित्ता पाणेहिं एवं अंछविअंछियं कारवेत्ता तं ठाणं पाणिएणं अक्खावेह, ते तहेव करेंति, ततो कण्हे तस्स सबस्सहरणं करेइ, पुत्चदारे य निविसए करेति, समुद्दविजयाईणं अंतिए गंतूण सबै परिकहइत्ति, तए णं तं दसारकुलं
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७२५-७२६], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आयुरुपकमि दण्डाद्या निमित्तानि
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आवश्यकेआऊलीभूतं महया मया सद्देणं पारुण्णं, कालंतरेण अप्पसोगं जायं, एवं भयाध्यवसाने सति भिद्यते आयुः, यदुक्तम्- श्रीमलय- |'निमित्त सति भिद्यते आयु' रिति तत्र निमित्तमनेकप्रकारं तद्दर्शयतिसमवसरणे
दंडकससत्थरजू अग्गी उदगपडणं विसं वाला । सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिवासा य वाही अ॥ ७२५ ॥
मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिपणं च भोअणं बहुसो। घंसणघोलणपीलण आउस्स उवकमा एए॥ ७२६॥ ॥३५९॥ दण्डकशशस्त्ररायः अग्निरुदकपतनं विषं व्यालाः शीतोष्णं अरतिभयं क्षुत्पिपासा च व्याधिश्च मूबपुरीपनिरोधः
जीर्णाजीणेच भोजने बहुशः घर्पणघोलनपीडनानि आयुष उपक्रमहेतुत्वात् उपक्रमा एते, कारणे कार्योपचारात् , यथा तन्दुलान् वर्षति पर्जन्य इति । कथं दण्डादय उपक्रमहेतव इति चेत्, दण्डेन (कशेन च) गाढमभिघाते, शरण-खड्गादिना, | रज्या गलादी बन्धे, अग्निना परिदाहे, उदक सर्वस्रोतसामन्तःपूरणेन, विषे भक्षिते,व्याला:-सर्पाः तैर्दशने, शीतनोष्णेन च संस्पशतः, अरत्या भयेन चान्तर्मनसि पीडासमुत्पत्ती, क्षुधा धातुभक्षणेन, पिपासथा हृदयगलतालुशोषेण, मूत्रपुरीपनिरोधे शरीरक्षोभतः, जीर्णाजीर्ण नाम अर्द्धजीर्ण तस्मिन् सति अनेकशो भोजने रसोपचयतः, घर्षणं चन्दनस्येव घोलनं अङ्गुष्ठकाङ्गुलिगृहीतचाल्यमानयूकाया इव तस्मिन् , पीडनमिक्ष्वादेरिव तस्मिन्नपि सति, भिद्यते आयुरित्येते सर्वेऽप्युपक्रमहेतवः
द्वारं ।। तथा आहारे सत्यसति या भिद्यते आयुर्यथा-एगो मरुगो अट्ठारस बारे भुंजिऊण सूलेण मतो, अन्नो पुण छुहाए १मतोत्ति॥द्वारं ॥ वेदनायां सत्यां भिद्यते आयुर्यथा शिरोनयनवेदनादिभिरनेके मृताः॥ द्वारम् ॥ तथा परोपपाते सति भिद्यते
आयुर्यथा दुस्तटीतः पतितस्य । तथा स्पर्श सति भिद्यते आयुर्यथा तयाविसेणं सप्पेणं छित्तस्स, जहा या बंभदत्तस्स इथि
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॥३५॥
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७२५-७२६], वि०भा०गाथा [२०४७-२०५१], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
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रयणं, तम्मि मए से पुत्तेण भणियं-मए सद्धिं भोगे मुंजाहि, तीए भणियं-न तरसि मज्झं फरिसं विसहित्तए,सो न पत्तियइ, ताहे आसो आणावितो, सो तीए मुहातो आरभ कडिं जाव हत्थेणं छिन्नो, सो गलिऊण सुक्यखएण मतो, तहावि अप्पत्तियतो लोहमओ पुरिसो तीए अवगुंडितो, सोऽवि विलीनो॥ द्वारं॥प्राणापाननिरोघे सत्यायुभिंद्यते, यथा छगलाणं जन्नवाडाइसु मारिजंताण।। एवं सप्तविधं भिद्यते आयुः, न तत्सर्वेषामेव, किन्तु सोपक्रमायुषां, तब 'देवा नेरइया वा असंखयासाउया य तिरिमणुया। उत्तिमपुरिसा य तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ॥१॥ सेसा संसारत्था भइया सोबकमा व इयरे वा। सोवक्कमनिरुवामभेयो भणितो समासेण ॥२॥' आह-अध्यवसायादीनां निमित्तत्वात् परिभोगाद्भेदेनोपन्या-I सो न युक्तः, न, आन्तरविचित्रोपाधिभेदेन निमित्तभेदानामेवोपन्यासतोऽदोषः, आह-यद्येवमुपक्रम्यते आयुः ततः कृतनाशः, येन च कर्मणा तदुपक्रम्यते तस्यावृत्तिस्यैवाभ्यागम इति, अत्रोच्यते-इह यथा वर्षशतोपभोगाय कल्पितं धान्य
भस्मकच्याधिपीडितस्याल्पेन कालेनापि भुझानस्य न कृतनाशो नायकृताभ्यागमस्तद्वदनापीति । तथा चाह भाष्यकार:-11 1"कम्मोवका मिज्जइ अपत्तकालंपिजइततो पत्ता । अकयागमकयनासा मोक्खाणासासया दोसा॥१॥(वि.२०४७)
न यदीहकालियस्सचिनासो तस्साणुभूइतो खिप्पं । बहुकालाहारस्स व दुयमग्गियरोगिणो भोगा ॥२॥(२०४८)। सर्वच पदेसतया भुवइ कम्ममणुभावतो भइयं । तेणावस्साणुभवे के कयनासादयो तस्स?॥३॥ (२०४९)H |किंचिढ़ कालेऽवि फलं पाइजइ पच्चए य कालेण । तह कम्म पाइज्जइ कालेण य पचए अन्नं ॥४॥ (२०५०) जहवा दीहार दज्झइ कालेण पुंजिया खिप्पा विततो पडओसुस्सइ पिंडीभूतोउ कालेणं॥५(२०६१)इत्यादि,"
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आगम
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अनुक्रम H
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७२७-७२९], वि०भा०गाथा [२०६६], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
आवश्यके
श्रीमलयसमवसरणे
॥ ३६० ॥
ततो यथोक्तदोषानुपपत्तिः । इति द्वारगाथावयवार्थः, व्याख्यात उपक्रम कालः, सम्प्रति देशकालद्वारमभिधातव्यं, तत्र देशकालो नाम प्रस्तावः, स च द्विधा - प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च तत्र प्रशस्तस्वरूपप्रतिपादनार्थमाहनिद्धूमगं च गामं महिलाथूभं च सुन्नयं दहुं । नीअं च कागा ओलिंति जाया भिक्खस्स हरहरा ॥ ७२७ ॥ दिपारमा निर्द्धमं ग्रामं महिलास्तूपञ्च कूपतरमित्यर्थः, महिलाभिः शून्यं दृष्ट्वा, तथा नीचैश्च काका ओ ति- अवलोयन्ते-गृहाणि प्रति परिपतन्ति, एतच्च दृष्ट्वा, पाठान्तरं नीयं च कागे ओलेंते दृष्ट्वेत्यनुवर्त्तते, विद्यते यथा भैक्षस्य हरहरा - अतीव भिक्षाप्रस्ताव इत्यर्थः । अप्रशस्तदेशकालस्वरूपमभिधित्सुराह
निम्मच्छिअं महु पायडो निही खज्जगावणो सुन्नो । जायंगणे पत्ता पडस्थवइआ य मत्ता य ॥ ७२८ ॥
निर्मक्षिकम् - अपगतमक्षिकं मधु तथा प्रकटः- आकाशीभूतो निधिः खाद्यकापणः- कल्लूरिकापण इति भावार्थः, अतो मध्वादीनां ग्रहणप्रस्तावः, तथा जाया चाङ्गणे प्रसुप्ता प्रोषितपतिका च मत्ता च, तस्या अपि ग्रहणं प्रति प्रस्ताव एव, आसवेन | मदनाकुलीभूतत्वात् । सम्प्रति कालकालः प्रतिपाद्यः, कालो-मरणं तस्य कालः कालकालः, तथा चाह - "कालोत्ति मयं मरणं जहेह मरणं गतोत्ति कालगतो । तम्हां स कालकालो जो जस्स मओ मरणकालो ॥ १ ॥ (वि. २०६६) " अमुमेवार्थी प्रतिपादयन्नाह -
काले कओ कालो अम्हं सज्झायदेसकालम्मि । तो तेण हतो कालो अकालि कालं करंतेण ॥ ७२९ ।। कालेन शुना कृतः कालः कृतं मरणं अस्माकं स्वाध्याय देशकाले-स्वाध्यायप्रस्तावे, ततस्तेन गुना हतो भग्नः कालः
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प्रशस्ताम
शस्त देशकाली
॥ ३६० ॥
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आगम
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ७३० ], वि०भा० गाथा [ २०६८, २०७० ],
मा. ६१
भाष्यं [१३७...], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
स्वाध्यायकरणकालः, अकाले - अप्रस्तावे मरणं कुर्वतेति, तदनेन कालशब्दस्य मरणवाचित्वमुपदर्शितं ॥ सम्प्रति प्रमाणकालः प्रतिपाद्यः, तत्राद्धाकालविशेष एव मनुष्यलोकान्तर्वतीं विशिष्टव्यवहारहेतुरहर्निशारूपः प्रमाणकालः, तथा चाह भाष्यकृत् -"अद्धाकालविसेसो पत्थयमाणं व माणुसे खेत्ते । सो संववहारत्थं पमाणकालो अहोरतं ॥१॥ (२०६८)” अत्र 'पत्थयमाणं वत्ति यथा सामान्येन मानावयवभूतं प्रस्थकरूपं मानं संव्यवहाराय कल्प्यते तथाऽहर्निशारूपः प्रमाणकालोऽद्धाकालस्यैव विशेषः सन् पृथक् संव्यवहाराय प्ररूप्यते इति । अमुमेव प्रमाणकालं भेदत आहदुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई अ । चउपोरिसिओ दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥ ७३० ॥
प्रमीयतेऽनेन जीवादीनामायुःप्रभृतिरिति प्रमाणं तदेव कालः प्रमाणकालः, स द्विविधः, दिवसप्रमाणं भवति रात्रिश्च दिवसप्रमाणकालो रात्रिश्च चतुष्पौरुषीको दिवसो रात्रिश्च चतुष्पौरुषी, पौरूषीप्रमाणं चानियतं, दिवसनिशा हा निवृद्धिभावात्, तत्र यदा सर्वजघन्यो द्वादशमुत्तों दिवसस्तदा सर्वोत्कृष्टाऽष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तदा च दिवसस्य पौरुषी मुहूर्त्तत्रयमाना रात्रेश्व अर्द्धपथममुहूर्त्तप्रमिता, यदा तु सर्वोत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्त्ता दिवसस्तदा सर्वजधन्या द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तदा च पौरुषी दिवसस्यार्द्धपञ्चममुहूर्त्तमाना रात्रेश्च मुहूर्त्तत्रयमाना, एवं दिवसस्य रात्रेर्वा पौरुष्यखयो मुहूर्त्ता जघन्यं मानं अर्द्धपक्षमा उत्कृष्टं, उक्तं च-- "पोरिसिमाणमनिययं दिवसनिसाबुद्धिहाणिभावातो । हीणं तिन्नि मुहुत्तस्सद्धपञ्चमा माण| मुकोसं ॥ १ ॥ (वि.२०७०)” सर्वजघन्यश्च दिवसः सर्वोत्कृष्टा च रात्रिर्दक्षिणायनचरमदिवसे सर्वोत्कृष्टो दिवसः सर्वजधन्या च रात्रिरुतरायने, प्रथमदिवसादारभ्य प्रतिचरमवासरशेषेषु तु दिवसेषु दक्षिणायने प्रथमदिवसादारभ्य प्रतिदिवसं
अत्र 'प्रमाण-काल 'स्य वर्णनं क्रियते
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आगम
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“आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७३१-७३२], विभा गाथा [२०७१], भाष्यं [१३७...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यकेदिवसपौरुष्या द्वाविंशशततमेन मुहूर्तभागेन वृद्धि, रात्रिपौरुष्या हानिः, कथमेतदवसेयमिति चेत्, उच्यते, इह प्रमाणकाल श्रीमलय-6 दिवसपारुष्या रात्रिपारुष्या वृद्धौ हानौ वा सकलेनायनेन सार्हो मुहूर्तो दृष्टः, अयनपरिमाणं च त्र्यशीत्यधिकं दिनशतं, पारुषीमानं समवसरणे| ततोऽत्र त्रैराशिककर्मावतार:-यदि त्र्यशीत्यधिकेन दिनशतेन पौरुष्या.वृद्धौ हानौ साद्धों मुहूत्तों लब्धः ततः प्रतिदिवस
किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १८३-शा-१, अत्रान्त्येन राशिना त्र्यशीत्यधिकेन दिनशतेन पौरुष्या वृद्धी मध्यराशेGर्गुणनं, जातस्तावानेव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायात्, तत आयेन राशिना भागहरणं, भागहारश्च न पूर्यते,
ततस्तृतीयांशेन छेद्यच्छेदकराश्योरपवर्तना, जात उपरि एककोऽवस्तात् द्वाविंशं शतं १२२, आगतमेकैकस्मिन् दिने । १ पौरुष्या वृद्धौ हानौ वा मुहूर्तस्य द्वाविंशशततमो भागो लभ्यत इति, उक्तं च-"वुद्धी बावीसुत्तरसयभागो पइदिणं दमुहत्सस्स । एवं हाणीवि मया अयणस्स विभागतो नेया ॥१॥ (वि.२०७१)" । इदानीं वर्णकालस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह
पंचण्ह वण्णाणं जो खलु वन्नेण कालओ वण्णो। सो होइ चण्णकालो वणिजह जो व जंकालं ॥ ७३१॥ १- पञ्चानां शुक्लादीनां वर्णानां यः खलु वर्णेन-छायया कालको वर्णः खलुशब्दस्यावधारणार्यत्वात् कालक एव वर्ण, है अमेन गौरादेर्नामकृष्णस्य व्यवच्छेदः, स भवति वर्णकालः, वर्णश्चासौ कालश्च वर्णकाला, 'वणिजइ जो वजंकाल मिति,
॥३६॥ वर्णनं वर्णः प्ररूपणमित्यर्थः, ततश्च वर्ण्यते-प्ररूप्यते यो वा कश्चित्पदार्थो यत्कालं स वर्णकालः, वर्णप्रधानः कालो वर्ण-14 कालः । इदानीं भावकालः प्रतिपाद्या भावानामौदयिकादीनां स्थितिः भावकालः, तथा चाह
साई सपजवसिओ चउभंगविभागभावणा इत्थं । उदईआईआणं तं जाणसु.भावकालं तु ॥ ७३२॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७३१-७३२], वि० भा० गाथा [२०७१ ], भाष्यं [ १३७...]. मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
सादिः सपर्यवसान इत्येवं चतुर्भङ्गविभङ्गभावनाऽत्र कार्या, केषामित्याह - औदयिकादीनां भावानां ततश्च योऽसौ विभागभावनाविषयस्तं जानीहि भावकालम्, इयमक्षरगमनिका, भावार्थस्त्वयं-ओदयिको भावः सादिः सपर्यवसानः सादिरपर्यवसानः अनादिः सपर्यवसानः अनादिरपर्यवसानः, एवमौ पशमिकादिष्वपि चतुर्भङ्गिका द्रष्टव्या, इयं पुनरत्र विभागभावना-औदयिकश्चतुर्भङ्गिकायां द्वितीयो भङ्गो न घटते, शेषास्तु घटन्ते, तेषामयं विषयः - नारकादीनां नारकादिभवः खल्वौदयिको भावः सादिसपर्यवसानः, मिथ्यात्वादयो भव्यानामौदयिकोऽनादि सपर्यवसानः, स एवाभव्यानां चरमभङ्गे इत्युक्त औदयिकः, औपशमिक चतुर्भङ्गिकायामाद्य एव भङ्गो घटते, तद्व्यादयस्तु शून्याः, प्रथमभङ्गस्त्वेवम्-औपश| मिकसम्यक्त्वादिरौपशमिको भावः सादिः सपर्यवसान इत्युक्त औपशमिकः, क्षायिकचतुर्भङ्गिकायां तु तृतीयचतुर्थी भङ्गौ न घटेते, प्रथमद्वितीयौ तु घटेते, तथाहि क्षायिकं चारित्रं दानादिलब्धिपञ्चकं च क्षायिको भावः सादिः सपर्यवसानः, सिद्धस्य चारित्र्यचारित्र्यादिविकल्पातीतत्वात्, क्षायिकज्ञानदर्शने तु सादिअपर्यवसानः, अन्ये तु द्वितीयभङ्ग एव सर्वमिदं प्रतिपादयन्ति, उक्तः क्षायिकः, क्षायोपशमिकचतुर्भङ्गिकायां द्वितीयभङ्गाभावः, शेषभङ्गानामयं विषयः- चत्वारि ज्ञानानि क्षायोपशमिको भावः सादिः सपर्यवसानः, मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने भव्यानामनादिः सपर्यवसानः, एते एवाभव्यानामनादिरपर्यवसानः, उक्तः क्षायोपशमिकः, पारणामिक चतुर्भङ्गिकायामपि द्वितीयभङ्गाभावः, शेषभङ्गकानामयं गोचर:- व्यणुका| दिपारिणामिको भावः सादिसपर्यवसानः, भव्यत्वं भव्यानामनादिसपर्यवसानः, जीवत्वं पुनरनादिरपर्यवसानः, उक्तः पारि णामिकः, उकार्यसङ्ग्रहगाथा जो मारगाइ भावो तह मिच्छतादओऽवि भषाणं । ते चैवाभवाणं ओदइए बिइयवज्जोऽयं
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७३३], विभा गाथा [२०७७-२०८१], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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आवश्यकता ॥१॥सम्मत्तचरित्चाई साईसंतोय ओवसमिओ य । दाणाइलद्धिपणगं चरणं चिय खाइओ भावो ॥२॥ सम्मत्चनाणद- भावानां श्रीमलय- सणसिद्धत्ताई तु साइओऽणतो । नाणं केवलवज साईसंगे खओक्समो ॥३॥ मइअनाणाईया भवाभवाण तइयचरमोऽयं । स्थितिः समवसरणेसबो पोग्गलधम्मो पढमो परिणामिओ होइ ॥४॥ भवतं पुण तइओ जीवाभवाइ चरमभंगो उ । भावाणमयं कालोनी भावका(वि.२०७७-८१) इति ॥
लाधिक ॥३६॥
एत्वं पुण अहिगारो पमाणकालेण होइ नायबो । खेत्तम्मि कमि कालम्मि भासियं जिणवरिंदेण? ॥ ७३३ ॥ __ अत्र पुनः अनेकविधकालप्ररूपणायामधिकारः-प्रयोजनं प्रमाणकालेन भवति ज्ञातव्यः, आह-'दवे अद्ध अहाउय' इत्यादिद्वारगाथायामिदमुक्तम् 'पगयं तु भावेणं'ति, सम्प्रति पुनरेवमुक्तम्-'अत्र पुनरधिकारः प्रमाणकालेन भवति ज्ञातव्य इत्युक्तं', ततः कथं न पूर्वापरविरोधः?, उच्यते, क्षायिकभावकाले वर्तमानेन भगवता सामायिकमध्ययनं भाषितमिति चेतसि परिभाव्य प्रागिदमुक्कं-'पगयं तु भावेण मिति, तथा पूर्वाह्नकाललक्षणे प्रमाणकाले च भगवता भाषितं सामायिकमिति तद्विवक्षायामत्रोक्तं प्रमाणकालेनाधिकार इति, तत उभयसग्रहपरं पूर्वमिदं च वाक्यमित्यदोषः अथवा
प्रमाणकालोऽप्यद्धाकालपर्यायत्वात् भावकाल एवेत्यविरोधः ॥ तदेवं 'उद्देसे निदेसे य निग्गमे' इत्युपोद्घातनियुक्तिपतिदबद्वारगाथादयस्य ब्याख्यातं कालद्वारम् , अधुना यत्र क्षेत्रे भाषितं सामायिकं तदजानन् प्रमाणकालस्य चानेकरूपत्वा-181॥३६॥
चद्विशेषमजानानो गाथापश्चार्द्धमाह चोदक:-'खेत्तम्मि' इत्यादि, कस्मिन् वा काले प्रमाणकाले पूर्वाहे पराहे वा । एवं चोदकानानन्तरमुत्तरमाह
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७३४-७३५], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
Note
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वइसाहसुद्धइकारसीइ पुठवण्हदेसकालम्मि । महसेणवणुजाणे अणंतर परंपर सेसं ॥ ७३४॥ वैशाखे मासि शुद्धे-शुक्लपक्षे एकादश्यां पूर्वाहदेशकाले, प्रथमपौरुष्यामित्यर्थः, कालस्यान्तरङ्गत्वख्यापनार्थमेवं प्रश्नम्यत्ययेन निर्देशः, महासेनवनोद्याने क्षेत्रेऽनन्तरनिर्गमः सामायिकस्य, 'परंपर सेसं'ति शेष-गुणशिलकायुधानादि क्षेत्रजातमधिकृत्य परम्परं निर्गमनं सामायिकस्य, उकं च भाष्यकृता-"खेत्ते महसेणवणोवलक्खियं जत्थ निम्गयं पुर्व । सामाइयमन्नेसु उ परंपरविणिग्गमो तस्स ॥१॥" गतं मूलद्वारगाधाद्वयप्रतिबद्धं क्षेत्रद्वारम् , इह च क्षेत्रकालपुरुषद्वाराणां निर्गमाङ्गतैव प्राक्, सतश्च निर्गमद्वारव्याचिख्यासया "नामं ठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ निग्गमस्सा निक्खेवो छविहो होइ ॥१॥" ति येयं गाथोपन्यस्ता तस्यां क्षेत्रकालनिर्गमावुक्ती, अथ भावनिर्गमप्रतिपादनार्थमाहखइयम्मि वहमाणस्स निम्गयं भगवओ जिर्णिदस्स । भावे खओवसमिअम्मि वहमाणेहिं तं गहिअं॥१३५॥
धायिके भावे वर्तमानस्य भगवतो जिनेन्द्रस्य-श्रीमन्महावीरस्य सकाशाद् विनिर्गतं सामायिकं, भावशब्द उभयत्रापि सम्बध्यते, भाचे क्षायोपशमिके वर्तमानस्तत्सामयिकमन्यच्च श्रुतं गृहीतं, गणधरादिभिरिति गम्यते, तत्र भगवता गौतमस्वामिना निपधात्रयेण चतुर्दश पूर्वाणि गृहीतानि, प्रणिपत्य पृच्छा निषद्योच्यते, भगवान वर्द्धमानस्वाम्युक्तवान-उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा उत्पन्न इति-उत्पत्तिस्वभावः विगम इति-विनाशधर्मा इति भावः, ध्रुव इति-स्थितिधर्मा, एता एव तिम्रो गणभृतां निषद्याः, तथाहि-एतासामेव सकाशात् उत्पादव्ययध्रौव्ययुकं सदिति गणभृतां प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा सत्ताया अनुपपवेरिति, ततस्ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशाङ्गमुपरचयन्ति, ततो भयवं अणुण्णं मणसी करेंति,
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JanEthicsonn imer
Fri P
orno
... अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || १३५ || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा-क्रम || ७३५ || एव वर्तते ।
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७३६], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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॥३६३॥
मावश्यकेताहे सको दिवं वइरामयं थालं दिवचुण्णाणं भरेऊण सामिमुवागच्छइ, ताहे सामी सीहासणातो उद्वित्ता पडिपुन्नं मुट्ठिा
भावनिर्गश्रीमलय- केसराणं गेहद, ताहे गोयमसामिप्पमुहा एक्कारसवि गणहरा ईसिओणया परिवाडीए ठायंति, ताहे देवा आतोजगीय- म: पुरुषसमवसरणे सई निरंभंति, ताहे सामी पुष गोयमसामिरस तित्थं दहिं गुणेहिं पजवेहि य अणुजाणामित्ति भणइ, चुण्णाणिय सीसे |
द्वारं च छुइह, ततो देवावि चुण्णवासं पुष्फवासं उबरि वासंति, गणं च सुहम्मसामिस्स धुरे ठावित्ता अणुजाणइ, एवं सामाइयस्सअत्यो भयवतो निग्गतो, सुत्तं गणहरेहितो निग्गयमित्यलं विस्तरेण ॥ सम्पति पुरुषद्वारप्रतिपादनार्थमाह| दद्याऽभिलावचिंधे चेए धम्मत्धभोग भावे अ । भावपुरिसो उ जीवो भावे पगयं तु भावेणं ॥१३६ ॥ | इह नामस्थापनापुरुषो सुप्रतीतत्वान्नोतो, 'दवत्ति' द्रव्यपुरुषः, स द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतः पुरुष
पदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरपुरुषो सुप्रतीतो, ज्ञशरीरभव्य|शरीरच्यतिरिक्तस्त्रिधा, तद्यथा-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, तत्र एकेन भवेन पुरुषो भावी स एकभविकः, एष पूर्वस्मिन् भवे अबद्धपुरुषायुरपि प्रथम दिवसादारभ्य प्रोच्यते, बद्धायुष्को नाम पूर्वभव एव वर्तमानो निबद्धपुरुषायुष्कः-11 अभिमुखनामगोत्रोऽन्तर्मुहर्तमात्रव्यवधानेनोदयमधिकृत्य पुरुषायुर्नामगोत्रः, अधवा शशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्य-18 पुरुषो द्विधा-मूलगुणनिर्मित उत्तरगुणनिर्मितश्च, तत्र मूलगुणनिर्मित: पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु ॥३६३॥
तान्येव तदाकारवन्तीति, तथाऽभिलप्यते तेनेत्यभिलापः-शब्दस्तत्राभिलापपुरुषः पुंलिङ्गाभिधानमात्र घटः पट इति, चिन्हे-11 मचिन्हविषयः पुरुषः-अपुरुषोऽपि पुरुषचिन्होपलधितो, यथा नपुंसक इमश्रुचिन्हमित्यादि, तथा त्रिष्वपि लिङ्गेषु स्त्रीपुंनपुं.
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... अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || १३६ || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा-क्रम || ७३६ || एव वर्तते ।
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७३७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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+सकेषु वर्तमानः प्राणी तृणज्वालोपमवेदानुभवकाले वेदपुरुषः ख्यादिरप्युच्यते, तथा धर्मार्जनन्यापारपरः साधुर्धर्मपुरुषः,
अर्थार्जनब्यापारपरस्त्वर्थपुरुषः मम्मणवणिग्वत्, भोगपुरुषः सम्प्राधसमस्तविषयसुखभोगोपभोगसमर्थश्चक्रवर्तिवत् , हा भावे यत्ति भावपुरुषः, चशब्दो चामाद्यनुक्तभेदसमुच्चयार्थः, 'भावपुरिसोउ जीवो भावे'चि पू:-शरीरं पुरि शेते इति
निरुक्तवशात् भावपुरुषो जीवः, "भावे'त्ति भावद्वारे निरूप्यमाणे, भावचिन्तायामिति भावः, अथवा भावे इति भावनिर्गमप्ररूपणायामधिकृताया, किं-पगयं तु भावेणीति प्रकृतम्-उपयोगस्तु भावेन पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात भावपुरुषेण शुद्धेन जीवेन, तीर्थकरेणेत्यर्थः, तुशब्दावेदपुरुषेण च गणधरेण, यतोऽर्थतस्तीर्थकराद्विनिर्गतं सूत्रतो
गणधरेभ्य इति, एवमन्येऽपि यथासम्भवं पुरुषा आयोज्याः॥ गतं पुरुषद्वारम् । साम्प्रतं कारणद्वारं व्याचिख्यासुराहII निक्खेवु कारणम्मी चउधिहो दुविह होइ दधम्मि । तद्दवमन्नदधे अहवावि निमित्तनेमित्ती ॥ ७३७ ॥
करोति-निर्वतयति कार्यमिति कारणं तस्मिन् कारणे कारणविषयो निक्षेपो-न्यासः चतुर्विधः-चतुर्भेदः, तद्यथा-नामकारणं स्थापनाकारणं द्रव्यकारणं भावकारणं च, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यकारणं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्विधा, तथा च द्विविधो भवति द्रव्ये, निक्षेप इति वर्तते, किमुक्तं भवति?-ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यकारणविषयो निक्षेपो द्विधेति, तदेव द्वैविध्यं दर्शयति-तद्दवमन्नदवे' इति तद्रव्यकारणमन्यद्रव्यकारणं च, तस्यैव पटादे द्रव्य-तन्त्वादि तदेव कारणं तद्रव्यकारणं, वेमाद्यन्यद्रव्यकारणं, अथवा अन्यथाव्यतिरिक्तकारणद्वैविध्य-'निमित्तनैमित्तं' निमित्तकारणं नैमित्तिकारणं चेत्यर्थः, अपिशब्दादन्यथापि कारणनानाता तां वक्ष्यामि, तत्र पटस्य निमित्तं तन्तवस्त एव कारणं निमित्त
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७३८], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
णानि
आवश्यक कारणं, तद्व्यतिरेकेण पटानुत्पत्तेः, यथा तन्तुभिर्विना न भवति पटस्तथा तद्गतातानादिचेष्टाव्यतिरेकेणापि न कारणद्वारे श्रीमलय- भवति, तस्याश्च चेष्टाया वेमादि कारणं, ततो निमित्तस्येदं नैमित्तं तदेव कारणं नैमित्तकारणमिति ।
द्विविधषसमवसरणे समवाइअसमवाई छविह कत्ता य करण कम्मं च । तत्तो अ संपयाणाऽपयाण तह सन्निहाणे अ॥ ७३८॥ धिकार
N सम्-एकीभावेऽवशब्दः-अपृथक्त्वे अयू गतौ इण गतौ वा, ततश्च एकीभावेनापृथग्गमनं समवायः-संश्लेपः, स येषां वि॥३६॥ द्यते ते समवायिनः-तन्तवो, यस्मात्तेषु पटः समवैतीति, समवायिनश्च ते कारणं च समवायिकारणं, तन्तुसंयोगास्तु कारणतिरूपद्रव्यान्तरधर्मस्वेन पटाख्यकार्यद्रग्यान्तरस्य दूरवर्तित्वादसमवायिनः त एव कारणं असमवायिकारणं, आह-तद्रव्या-181
दिप्रकारत्रयेऽपि यथोकप्रकारेणार्थस्याभेद एव ततः किं भेदेनोपन्यासः ?, नैष दोषः, संज्ञाभेदेन तन्त्रान्तराभ्युपगमप्रदर्शनफलत्वादस्य, अथवा पविधं कारणं, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, करोतीति कारणमिति व्युत्पत्तेः, स्वेन व्यापारेण यत् कार्येषूपयुज्यते तत् कारणं, तच्च पविध-पट्प्रकार, कथमित्याह-कर्ता च कारणं, तस्य कार्येण स्वातन्येणोपयोगात्, तमन्तरेण विवक्षितकार्यानुपपत्तेः, अभीष्टकारणं च तत्, ततश्च घटोत्पत्ती कुलालः कारणमिति, तथा करणं-मृत्पिण्ड
दण्डसूत्रादिकं घटस्य कारणं, साधकतमत्वात् , तथा क्रियते, निर्वय॑ते यत् तत्कर्म-क्रियाफलमित्यर्थः, उकं च-"निर्वत्यै दवा विकार्य वा, प्राप्यं वा यक्रियाफलम् । तद् दृष्टादृष्टसंस्कारं, कर्म कर्नुर्यदीप्सितम्॥१॥" तदपि च कारणं, आह-तत्क- ३६४॥ पथमेतदलब्धात्मलाभंतदा कारणमिति, उच्यते, कार्यनिर्वर्तनक्रियाविषयतया तस्योपचारात् कारणता, मुख्यवृत्त्या चासौ है
कार्यगुणमपेक्ष्य कर्मकारणं, तथा सम्पदानं तस्य कर्मणाऽभिप्रेतत्वात् , तमन्तरेण तस्याभावात्, तथा अपादानं कारणं,
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(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७३९-७४०], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
202
विवक्षितपदार्थापायेऽपि तस्य ध्रुवत्वेन कार्यकारकत्वात् , 'दो अवसण्डने दान-खण्डन अपस्त्य मर्यादया दानं-खण्डन वियोजनं मृत्पिण्डादेयत्तदपादानं, तथाहि-मृत्पिण्डस्यापायेऽपि भूधुवेति तस्या अपादानता, सा चघटेस्य कारणं, तामन्तरेण तस्यानुत्पादात्, तथा सन्निधानं च कारणं, तस्याधारतया कार्योपकारकत्वात् , सन्निधीयते यत्र कार्य तत्सन्निधानंअधिकरणं, तच्च घटस्य चक्र, तस्यापि भूः, तस्या अप्याकाशं, आकाशस्य त्वधिकरणं नास्ति, स्वरूपप्रतिष्ठत्वात् , घटस्य
चेदं कारणम्, एतदभावे घटानुत्पत्तेः । उक्तं द्रज्यकारणमिदानीं भावकारणप्रतिपादनार्थमाहBI दुविहं च होइ भावे अपसत्य पसत्थगं च अपसत्यं । संसारस्सेगविहं दुविहं तिविहं च नायछ । ७३९ ॥ |
भवतीति भावः, स च औदायिकादिभावा, भाव एव कारणं संसारापवर्गयोरिति भावकारणं, तच्च द्विविधं च-द्विप्रतै कारं च भवति, भावे विचार्यमाणे, कारणमिति प्रक्रमाद्गम्यते, भावविषयं वा कारणं भावकारणमित्यर्थः, अप्रशस्तं-अशो-14
भनं प्रशस्तं च-शोभनं, तत्राप्रशस्त संसारस्य सम्बन्धि, तच्च एकविधम्-एकभेदं द्विविध-द्विभेदमेवं त्रिविधं च ज्ञातव्यं, चशब्दश्चतुर्विधाद्यनुक्ककारणभेदसमुच्चयार्थः । यदुक्तं संसारस्यैकविधमित्यादि तदुपदर्शनायाह
अस्संजमो य एको अण्णाणं अविरई य दुविहं तु । अन्नाणं मिच्छतं अविरई चेव तिविहं तु ॥ ७४०॥
असंयम:-अविरतिलक्षणः, स ह्येक एव संसारकारणम् , अज्ञानादीनां तदुपष्टम्भकत्वेनाप्रधानत्वात् , तथा अज्ञानं अविरतिश्चेति द्विविध संसारकारणं, तत्राज्ञानं कर्माच्छादितजीवस्य विपरीतोऽवबोधः अविरतिः-सावधयोगानिवृत्तिः, तथा
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७४१-७४४], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
भावकारणे भवमोक्ष
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कारणानि
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मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिश्चेति त्रिविध संसारकारणं, तत्र मिथ्यात्वं तत्त्वार्थाश्रद्धानं, शेष गतार्थम् , एवं कषायादिसम्पर्का- श्रीमलयदन्येऽपि भेदाः प्रतिपादयितव्याः । उक्तमप्रशस्तं भावकारणम् , अधुना प्रशस्तमुच्यतेसमवसरणे होइ पसत्धं मुक्खस्स कारणं एग दुविह तिविहं वा । तं चेव य विवरीअं अहिगारु पसत्यएणित्व ॥ ७४१॥
आ भवति प्रशस्त भावकारणं मोक्षस्य कारणं, तच्च एकमिति-एकमेदं द्विविधं त्रिविधं वा, इदं पुनस्तदेव संसारकारणम१३६५॥ संयमादि विपरीतं द्रष्टव्यम् , एकविध संयमः, द्विविधं ज्ञानसंयमी, त्रिविधं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, अधिकारः-प्रयो
जनं प्रशस्तन भावकारणेन, अत्र-सामायिकव्याख्याने, मोक्षाङ्गत्वादस्य, तथाहि-सामायिकाध्ययनं क्षायोपशमिकश्च |
प्रशस्तो भावो मोक्षकारणमतोऽधिकारः प्रशस्तेन भावकारणेनेति ॥ इत्थं कारणद्वारे अधिकार प्रदर्श्य पुनः कारणद्वारसघाइतमेव वक्तव्यताशेषमाशङ्काद्वारेणाभिधित्सुराह
तित्वयरोकिं कारण भासइ सामाइअंतु अज्झयणं । तित्थयरनामगुत् कम्मं मे वेइअति ॥ ७४२॥ तीर्थ पूर्वोक्तं तत्करणशीलस्तीर्थकरः, स किं कारणं-किं निमित्तं भापते सामायिकमध्ययनं, तुशब्दादम्याध्ययनपरिग्रहः, तस्य कृतकृत्यत्वादिति हृदय, उच्यते, तीर्थकरनामगोत्रं-तीर्थकरनामसंज्ञं, गोत्रशब्दः संज्ञायां, कर्म बद्धं मया वेदितव्यमित्यनेन कारणेन भाषते । सा तं च कहं चेइज्जह ? अगिढ़ाए धम्मदेसणाईहिं । बज्झइ तं तु भगवओ तहअभवोसकत्ताणं ॥ ७४३ ॥
नियमा मणुपगईए इत्थी पुरिसेयरोब मुहलेसो। आसेवियबहुलेहिं वीसाए अन्नयरेहिं ॥७४४॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७४५-७४६ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
गाथाद्वयस्यापि व्याख्या प्राग्वत्, इत्थं तीर्थकरस्य सामायिक भाषणकारणमभिधायाधना गणभृतामाशङ्काद्वारेण तच्छ्रवणकारणं प्रतिपादयन्नाह -
गोममाई सामाइयं तु किं कारणं निसार्मेति ? | नाणस्स तं तु सुंदरमंगुलभावाण उवलद्धी ॥ ७४५ ॥
गौतमादयो गणधराः 'किं कारणं' किं निमित्तं किं प्रयोजनं सामायिकं निशमयन्ति-शृण्वन्ति १, उच्यते- 'नाणस्स'त्ति प्राकृतत्वाच्चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, ततश्च ज्ञानाय - ज्ञानार्थ, तादर्थे चतुर्थी, तेषां हि भगवद्वदनविनिर्गत सामायिकशब्दान् श्रुत्वा तदर्थविषयं ज्ञानमुत्पद्यते, ततो ज्ञानार्थं शृण्वन्ति तत्तु ज्ञानं सुन्दरमङ्गलभावानां शुभेतरपदार्थानां 'उबलद्धी' ति उपब्धये उपलब्धिनिमित्तं सा च सुन्दरम कुलभावोपलब्धिः प्रवृत्तिनिवृत्त्योः कारणम् ॥ आह च
होइ पवितिनिविन्ती संजमतव पावकम्मअग्गहणं । कम्मविवेगो अ तहा कारणमसरीरया चैव ॥ ७४६ ॥ शुभेतरभावपरिज्ञानाद्भवतः प्रवृत्तिनिवृत्ती, शुभेषु प्रवृत्तिर्भवति इतरेषु निवृत्तिरिति भावः ते च प्रवृत्तिनिवृत्ती संयमतपसोः कारणं, प्रवृत्तिस्तपसः कारणं निवृत्तिः संयमस्येति हृदयं तत्र निवृत्तिकारणकत्वेऽपि संयमस्य प्रागुपादानेन पूर्वकर्मागमनिरोधेऽस्य कारणप्राधान्यख्यापनार्थं, तत्पूर्वकं च वस्तुतः सफलं तप इति ज्ञापनार्थे च संयमतपःकारणभूतप्रवृत्तिनिवृत्त्योस्तु प्रयोजनोपन्यासः संयमे सत्यपि तपसि प्रवृत्तिः कार्येत्यमुनांशेन तपसः प्राधान्यख्यापनार्थः इत्यलं प्र सङ्गेन तयोश्च संयमतपसोः कारणं निमित्तं प्रयोजनं यथासङ्ख्यं 'पावकम्म अग्गहणं' ति पापकर्मा ग्रहणं तथा कर्मविवेकश्च,
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७४७-७४९], विभागाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
आवश्यके श्रीमलय-
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समवसरणे
कम्मविवेगो असर
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तथा चोक्तं परममुनिभिः-"संजमे अणण्यफले तवे वोदाणफले" अणण्हवा-अनाश्रया, वोदाणं-कर्मनिर्जरा, कर्म- सामायिक विवेकस्य च प्रयोजनमशरीरतैव च ॥ साम्प्रतं विवक्षितमर्थमुक्तानुवादेन प्रतिपादयन्नाह
| भाषण|कम्मविवेगो असरीरयाइ असरीरयाऽणवाहाए । होअणयाहनिमित्तं अवेअणु अगाउलो निरुओ ॥ ७४७॥131 श्रवण
निरुअत्ताए अयलो अयलत्ताए अ सासओ होइ । सासयभावमुवगओ अवायाई सुई लहइ ।। ७४८॥ कारणानि ___ कर्मविवेकः-कर्मपृथग्भावः अशरीरतायाः कारणम् , अशरीरता 'अणावाहाए' इति अनावाधायाः कारणं भवति, | 'अनावाधानिमित्त अनावाधाकार्य, निमित्त शब्दः कार्यवाचका, लोके च वक्तारो भवन्ति-अनेन निमित्तेन-अनेन कारणेन मयेदमारब्धं, अनेन कार्येणेत्यर्थः, ततश्च भवत्यनाबाधाकार्यमवेदनः-वेदनारहितो, जीव इति गम्यते, स चावेदनत्वादनाकुल:-अविह्वलः, अनाकुलत्वाच्च नीरुग् भवति, ततः स जीवो नीरुक्तया अचलो भवति, अचलतया च शाश्वतो भवति, शाश्वतभावमुपगतोऽव्यावाधं सुखं लभते, इत्थं पारम्पर्येण अव्यावाधसुखार्थ सामायिकश्रवणमिति गौतमादयः शृण्वन्ति ।। गतं कारणद्वारम् , अधुना प्रत्ययद्वारमाह
पचयनिक्खेवो खलु दवंमी तत्तमासगाईओ। भावंमि ओहिमाई तिविहो पगयं तु भावेणं ॥७४९ ॥ प्रत्याययतीति प्रत्ययः-अन्तर्भूतण्यर्थादत्पत्ययः प्रत्ययस्तस्य निक्षेपो-न्यासः प्रत्ययनिक्षेपा, खलुशब्दोऽनन्तरोतकार-8॥१६॥ णनिक्षेपसाम्यप्रदर्शनार्थः, ततश्च नामादिचतुर्विधः प्रत्ययनिक्षेपः, तत्र नामस्थापने सुगमे, 'द्रव्ये' द्रव्यविषयो ज्ञशरीर-1 भव्यशरीरव्यतिरिक्तः प्रत्यया तप्तमापकादिः, आदिशब्दात् घटादिपरिग्रहः, द्रव्यं च तत् प्रत्याय्यप्रतीतिहेतुत्वाद्
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५०-७५१], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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मलयबद्रव्यप्रत्ययः, तक्षमापकादिरेल, इव्यात् प्रत्ययो द्रव्यप्रत्ययः, समारकादिजन्यः प्रत्याय्यपुरुषस्य प्रत्यवः,x भादमितिभावे विचार्यमाणे अवध्यादिखिविधो भावप्रत्ययः, तख पायलिजकारणानववाद, नाविन्दात्मनःपर्याव-14 केवळपरिमहा, मतिश्रुते तु बाह्यलिङ्गकारणापेक्षित्वान विवक्षिते, "पगयं तु भाय'ति सामाविकमकीकृत्य प्रकृतम्उपयोगस्तु 'भावेन' भावप्रत्ययेन । तथा चाह
केवलनाणित्ति अहं अरिहा सामाइयं परिकहेइ । तेसिपि पचओ खलु सबन्न तो निसामंति ॥ ७५०॥ केवलज्ञानी अहमिति स्वप्रत्ययादहन प्रत्यक्षत एवं सामायिकार्थमुपलभ्य सामायिक परिकथयति, तेषामपि-श्रोता गणधरादीनां हताशेषसंशयपरिच्छित्या प्रत्ययः-अवबोधः सर्वज्ञ पष भगवानित्येवंभूतो भवति, तेन यत् कैश्चिदुच्यते-15 सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्तकालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितर्गम्यते कथ ॥ १॥ मित्यादि, तदपास्तमवसेयम् . अन्यथा चतुर्वेदादिव्यवहारस्थापि विलोपप्रसक्के, विजृम्भितं चैतद्विषये पूर्वसूरिभिः प्रवचनसिद्ध्यादिषु, ततः सञ्जातप्रत्यया निशामयन्तीति ॥गतं प्रत्ययद्वारम्, इदानी लक्षणद्वारप्रतिपादनार्थमाहनाम ठपणा दविए सरिसे सामन लक्खणागारे । गइरागइ नाणत्ते निमित्त उपाय विगमे अ॥७५१ ॥
लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, तच्च पदार्थानां प्रतिविशिष्टं स्वरूपं, तब द्वादशप्रकार, तत्र नामलक्षणं-लक्षणमितीयं वर्णानुपूर्वी, अथवा यस्य कस्यचित् जीवादेलेक्षणमिति नाम क्रियते तद्वस्तु नाम्ना हेतुभूतेन लक्षणं, अथवा 'नामनामवतोभरभेदोपचारात्' नाम च तल्लक्षणंच नामलक्षणं, स्थापनालक्षणं उकारादिवर्णानामाकारविशेषः, अथवा लक्षणानां स्वस्ति
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७५०-७५१], वि०भा०गाथा [२१५६], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- कशचक्रवतादीनां यो मङ्गलपट्टादावक्षतादिभियासस्तत् स्थापनालक्षणं, शरीरभव्य शरीरब्यतिरिक्तं यत् यस्य ।
प्रत्ययलक्षस्यक मल- द्रव्यस्यान्यतो व्यवच्छेदकं स्वरूपं यथा गत्यादि धर्मास्तिकायादीनां, इदमेव च किश्चिन्मात्रविशेषात् सादृश्यसामान्यादियवृत्ती
| लक्षणभेदं निरूप्यते, तत्र 'सरिस'त्ति सादृश्यं लक्षणं, यथाऽस्मिन् देशे घटा अर्धग्रीवा अधस्तात्परिमण्डला विपुल कुउपोद्घाते
क्षयस्तथाऽन्येष्वपि देशेग्वित्यादि, 'सामन्नलक्खणं'ति सामान्यलक्षणं यथा सिद्धः सिद्धानां सद्रव्यजीवमुकरवादिधर्म:||
समान इति, 'आगारे'चि आक्रियते-अभिप्रेतं ज्ञायते अनेनेत्याकारो-बाह्यचेष्टारूपः स एवान्तराकूतगमकत्वालक्षणमा॥३६७॥ साकारलक्षणम्, अन्तराकूतगमकता चाकारस्य सुप्रसिद्धा, उफ च-"आकाररिङ्गितर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च । नेत्रविक्रवि-16
कारश्च, लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः॥१॥" इति, 'गइरागइत्ति गत्यागतिलक्षणं, तत्र द्वयोईयोः पदयोविंशेषणविशेष्यत-11 तयाऽनुकूलगमनं गतिः, यथा-'जीवे णं भंते ! देवे ? देवे भंते! जीवे?' इत्यत्र वाक्ये जीवो भदन्त ! देव इति जीवमनूद्य५
देवत्वं पृच्च्यते, अत्र जीवपदाद्देवपदे आनुकूल्येन यथास्थित्या गतिः, प्रत्यावृत्या-प्रातिकूल्येन गमनमागतिः, यथा देवोद |जीव इत्यत्र देवमनूद्य जीवत्वं पृच्छयते इति, इह प्रत्यावृत्त्या देवपदाजीवपदे आगतिः, गतिश्चागतिश्च गत्यागती ताभ्यां | ते वा लक्षणं गत्यागतिलक्षणं, उक्तं च-"अपरोपरं पयाणं विसेसणविसेसणिज या जत्थ । गच्चाईए दोण्हं गइरागइल-18 क्खणं तं तु ॥१॥ (वि.२१५६) तच्चतुर्की, तद्यथा-पूर्वपदव्याहतमुत्तरपदव्याहतं उभयपदव्याहतं उभयपदाव्याहत चाल तत्र पूर्वपदं ब्याहत-व्यभिचारि यत्र तत् पूर्वपदव्याहतं, पूर्वपदव्यभिचारीत्यर्थः, एवमन्येष्वपि यथायोग समासः, तत्र पूर्वप-10 दव्याहतं यथा-'जीवे भंते ! देवे?, देवे जीवे!,-गोयमा ! जीवे सिय देवे सिय नो देवे, देवे पुण नियमा जीवे" इति, अत्र
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -], नियुक्ति: [७५०-७५१], वि०भा०गाथा [२१५६], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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जीवो देव इति विशेषणविशेष्यभूतपदद्वये जीव इति पूर्वपदं देवत्वं व्यभिचरत्यपि, जीवस्य देवस्यादेवस्य च नारकादे-द। ४ा दर्शनात् , देवो जीव इति प्रत्यावृत्ती देवो जीवत्वं न व्यभिचरति, देवस्यावश्यं जीवत्वात् , ततः पूर्वपदव्याहतमेतत्,
उत्तरपदव्याहतं यथा-'जीवइ भंते ! जीवे ?, जीवे जीवेइ ?, गोयमा! जीवह ताव नियमा जीवे, जीचे पुण सिय जीवइ शासिय नो जीवई' इह जीव इति दशविधप्राणधारी भण्यते, स नियमात् जीवः, अजीवे दशविधप्राणासम्भवात् , जीवः पुनः ४ स्यात् जीव इति स्वान्न जीव इति, सिद्धानां दशविधप्राणधारणासम्भवात, तत इह उत्तरपदं व्याहतं, व्यभिचारात्।।
पूर्वपद त्वव्याहतं, जीवनस्य जीवमन्तरेणाभायादिति, उभयपदव्याहतं यथा-'भवसिद्धिए णं भंते ! नेरइए नेरइए भव-18 | सिद्धिए !, गोयमा ! नेरइए सिय भवसिद्धिए सिय अभवसिद्धिएवि, भवसिद्धिए सिय नेरइए सिय अनेरइए' अत्र पूर्वपदवी है। [४ भन्यो नेरयिकत्वं व्यभिचरति, अनैरयिकस्य देवादेरपि भव्यत्वभावात, एवमुत्तरपदवी नैरयिको भव्यत्वं व्यभि-18|
चरति, अभब्यस्यापि नैरयिकत्वभावात् , अत इदमुभयपदव्याहतं, उभयपदाच्याहतं यथा-'जीवे भंते ! जीवे || पुजीवे जीवे ?, गोयमा ! जीवे नियमा जीचे, जीवेऽवि नियमा जीवे' इह एकस्य जीवशब्दस्योपयोगो वाच्यः,
| अपरस्य जीवद्रव्यं, तत उपयोगो नियमात् जीयो, जीवोऽपि नियमादुपयोग इत्युभयपदाव्याहतमेतत्, लोकेऽपि चतुविधमिदं गत्यागतिलक्षणं प्रसिद्धं, तद्यथा-पूर्वपदव्याहतं यथा रूपी घट इति, रूपी हि घटो भवत्यघटश्च पटादिरिति पूर्वपदण्याहतिः, घटस्तु रूप्येवेत्युत्तरपद व्याघातः, उत्तरपदाव्याहतं यथा चूतो दुम इति, इह चूतो दुम एवेति पूर्वपदाव्याघाता, दुमश्च चूतोऽपि स्यादचूतोऽप्यवस्थादिरित्युत्तरपदव्याहतिः, उभयपदव्याहतं यथा नीलोत्पलं, नीलं ह्युत्पलं
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RECEKACHECCARROREG
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आगम
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५२], विभा गाथा [२१६०], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
श्रीआवमरकतादि च भवति, उत्पलमपि नीलमनीलं च शुक्लादिरूपमिति, उभयपदाव्याहतं यथा जीवः सचेतना, जीवो नियमात् 31
सचेतनः, चेतनाऽपि जीवस्यैवेत्युभयपदाव्यभिचारः, उक्तश्च-"रूवी घडोत्ति चूतो दुमोत्ति नीलुप्पलं च लोयम्मि ।
जीवो सचेयणोति य भंगचउर्क फुडं सिद्धं ॥१॥(वि.२१६०' तथा 'णाणत्ति'त्ति, नानाभावो-नानाविशेषः सा है उपोद्घाते |
लक्षणं नानातालक्षणं, सा च नानाता चतुओं, द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, तत्र द्रव्यतो नानाता द्विधा-तद्रव्यनानाता
अन्यद्रव्यमानाता च, तद्रव्यनानाता यथा परमाणूनां परस्परतो भिन्नता, अन्यद्रव्यनानाता यथा परमाणोर्षणुका-1 ॥३६॥
दिम्यो भिन्नता, क्षेत्रतोऽपि नानाता द्विधा-तत्क्षेत्रनानाता अतत्क्षेत्रनानाता च, तत्क्षेत्रनानाता यथा एकप्रदेशावगादानां परस्परभिन्नता, अतत्क्षेत्रनानाता यथा एकप्रदेशावगाढस्य द्विदेशावगाढादिभ्यो भिन्नता, एवमेकादिसमयस्थित्येकादिगुणयुकानां तदतनानाता वाच्या, इयं च लक्षणं, पदार्थस्वरूपावस्थापकत्वात्, 'निमित्त' इति लक्ष्यते शुभाशुभमनेनेति लक्षणं निमित्तमेव लक्षणं निमित्तलक्षणं, तदष्टप्रकारम्, उक्त च-"भोमं सुमिणत लिक्खं दिवं अंग सर लक्खणं तह य । वंजणमट्ठविहं खलु निमित्तमेयं मुणेयवं ॥१॥" स्वरूपमस्य ग्रन्थान्तरादवसेयम्, एकैकमप्यतीतानागतवर्तमानस्वरूपकालत्रयविषय, उकंच-"लक्खिजई सुभासुभमणेण तो लक्षणं निमित्तंति । भोमाइ तदहविहंतिकालविसर्य जिणाभिहियं ॥१॥" 'उप्पायचि यतो नानुत्पन्नं लक्ष्यते षस्तु तत उत्पादोऽपिलक्षणं, विगमो यचिxnsar विगमब-विनाशश्च वस्तुलक्षण, तमन्तरेणोत्पादाभावात, न हि व्यक्ततया अविनष्टमॉलिद्रव्यमृतियोत्पद्यते इति भावना बीरिय मावे अतहा लक्षणमे समासभोमणियं । अहवाचि भावलक्षण पविइंसदहणमाई ॥७५२॥
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५३], विभा गाथा [२१६०], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
'पीरिय'ति वीर्य-अलं, तच जीवस्य लक्षणं, तथाहि-तेन जीवो लक्ष्यते, अथवा सामर्थ्य यत् यस्य वस्तुनश्चेतनस्वा-४ चेतनस्य वा तद्वीर्य, तच्च विचित्ररूपं, तदेव लक्षणं पदार्थस्वरूपावच्छेदहेतुत्वात् वीर्यलक्षणम् , आह च भाष्यकार:-14 विरियंति पलं जीवस्स लक्खणं जंच जस्स सामत्थं । दबस्स चित्तरूवं जह विरिय महोसहाईणं ॥१॥
तथा भावानामौदयिकादीनां लक्षणं भावलक्षणं,यथा उदयलक्षण औदयिकः,उपशमलक्षणस्त्वौपसमिकः, अनुत्पत्तिलक्षणः। 2ीक्षायिका,मिश्रलक्षणःक्षायोपशमिका,परिणामलक्षणः पारिणामिकः,संयोगलक्षणःसान्निपातिक इति, अथवा भावाश्च ते लक्षणं
चात्मन इति भावलक्षणं, तत्र सामायिकस्य जीवगुणरूपस्य क्षयोपशमोपशमक्षयस्वभावत्वाद्वा लक्षणता, उपसंहारमाहलक्षणमेतत् प्रयोदशभेदं समासतः-सहेपेण भणितम्, अथवापि भावस्य सामायिकस्य लक्षणं, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, चतुर्विधं श्रद्धानादि ।। एतदेव प्रतिदिदर्शयिषुराहसदहण जाणणा खलु विरई मीसा य लक्षणं कहइ । तेऽवि निसामंति तहा चउलक्खणसंजुअंचेव ॥७५३॥
इह सामायिक चतुर्विधं भवति, तद्यथा-सम्यक्त्वसामायिकं श्रुतसामायिकं चारित्रसामायिकं चारित्राचारित्रसामायिक च,अस्य यथायोगंलक्षणं, 'सरहण'त्ति श्रद्धानं,लक्षणमिति योगः, सम्यक्त्वसामायिकस्य, 'जाणण'सि ज्ञानं ज्ञा संवित्तिरिप्रत्यर्थः, सा च लक्षणं श्रुतसामायिकस्य, सलुशब्दो निश्चयतः परस्परसापेक्षत्वविशेषणार्थः, तथा 'विरह'इति विरमणं विरति:
सर्वसावद्ययोगविनिवृत्तिः, पाच चारित्रसामायिकख लक्षणं, 'मीसा य' इति मिश्रा-विरत्यविरविः, सा च चारित्राचारित्रसामायिकख लक्षणं, कथयतीत्यनेन स्वमनीपिकाऽपोहमाह, भगवान् जिन एवं कथयति, तस्व च कथयतस्तेऽपि गणधरायो
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५४], विभा गाथा [२१६०], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआष- श्यक मल- य. वृत्ती उपोद्घाते
सूत्राक
॥३६९॥
निशामयन्ति तथा तेनैव प्रकारेण चतुर्लक्षणसंयुकमेव । उक्तं लक्षणद्वारम् , आधुना नयद्वारं प्रतिपिपादयिधुरिदमाह
नेगम संगह बवहारजसुए चेव होइ बोद्धधे । स अ समभिरूढे एवंम्ए अमूलनया ॥४॥ अनेकधर्मकं यस्त्ववधारणपूर्वकमेकेन नित्यत्वाद्यन्यतमेन धर्मेण प्रातिपाद्यस्य बुद्धिं नीयते-प्राप्यते येनाभिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः, आह च-"एगेण वत्थुणोऽणेगधम्मुणोजमवधारणेण (इटेण)। नयणं धम्मेण नओ होइ तओ सत्तहा सो यशा" अयमत्र तात्पर्याः-इह यो नयो नयान्तरसापेक्षतया स्यात्पदलान्छितं वस्तु प्रतिपद्यते स परमा-13 यतः परिपूर्ण वस्तु गृह्णातीति प्रमाण एवान्तर्भवति, यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणावधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेत्तुमभिप्रेति स नया, वस्त्वेकदेशपरिग्राहकत्वात् , अत एवोक्तमन्यत्र-“सबे नया मिच्छावाइणो,"यत एव च नयवादो मिथ्यावादस्तत एव च जिनप्रवचनतत्त्ववेदिनो मिथ्यावादित्वपरिजिहीर्षया सर्वमपि स्यात्कारपुरस्सरं भाषन्ते, न तु जातुचिदपि स्यात्कारविरहितं, यद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतीर्णा न सर्वत्र सर्वदा साक्षात् स्यात्पदं प्रयुञ्जते तथापित तत्राप्रयुक्तोऽपि सामर्थ्यात् स्याच्छब्दो द्रष्टव्यः, प्रयोजकल्प कुशलत्वात् , उक्तं च-"अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते । विधौ निषेधेऽन्यत्रापि, कुशलश्चेत् प्रयोजकः॥१॥" अत्र अन्यत्रापीति-अनुवादातिदेशादिवाक्ये, ननु यदि
१ एवं च स्वात्कारपुरोगं सावधारणं प्रमाणवाक्यं, स्यात्काररहितं सावधारणं तु नक्वाक्यं, तथा च नयदुर्नयवाक्ययोरक्यमाशोस, परमाशङ्कितासद्धर्मव्यवच्छेदपरं नववाक्यं संभवदनभिमतधर्मव्यवच्छेदपरं हि दुर्नयवाक्य, स्थिते चैवं श्रुतवाक्यानामेकदेश|विशिष्टवस्तुप्रकाशकत्वेन नगवाक्यरूपत्वं, परिपूर्णवस्तुप्रकाशकस्खैव च पूर्वापरवचनसापेक्षवस्तुप्रकाशकत्वेन साहावयुवरूपप्रमाणत्वं
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... अथ 'नय'-द्वार वर्णनं आरभ्यते
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५४] वि० भा० गाथा [ २१६० ], भाष्यं [ १३७... ]. मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
सर्वत्र स्थात्पदप्रयोगानुसरणं तर्हि मूलत एवापागमदवधारणविधिः परस्परं विरोधात्, तथाहि -अवधारणमन्यनिषेधपरं स्याद्वादस्वन्यसंग्रहणशील इति, तदयुक्तं, सम्यक् तत्त्वापरिज्ञानात् स्यात्पदप्रयोगो हि विवक्षितवस्त्वनुवाविधर्मान्तरसङ्ग्रहणशीलः, अबधारणविधिस्तु तत्तदाशङ्कितान्ययोगव्यवच्छेदादिफलः, तथाहि-ज्ञानदर्शनवीर्यसुखोपेतः किं जीवो भवति किं वा नेत्याशङ्कायां प्रयुज्यते - स्थाजीव एव, अत्र जीवशब्देन प्राणधारणनिबन्धनं जीवशब्दवाच्यत्वमभिधीयते, एवकारेण यदाशङ्कितं परेण जीवशब्दवाच्यत्वं तस्य निषेधः स्यात्पदप्रयोगातु ये ज्ञानदर्शनसुखादिरूपा असाधारणा ये चामूर्चत्वासङ्ख्यात प्रदेश सूक्ष्मत्वलक्षणा धर्मा धर्म्माधर्म्मगगनास्तिकायपुद्गलैः साधारणाः येऽपि च सत्त्वप्रमेयत्वधर्मित्वगुणित्वादयः सर्वपदार्थैः साधारणास्ते सर्वेऽपि प्रतीयन्ते यदा तु ज्ञानदर्शनादिलक्षणो जीवः किंवाऽन्यलक्षण इत्याशङ्का तदैवमवधारणविधिः स्यात् ज्ञानादिलक्षण एव जीवः, अत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यतामात्रं प्रतीयते, ज्ञानादिलक्षण एवेत्यन्यलक्षणव्युदासः, स्यात्पदप्रयोगात्तु साधारणासाधारणधर्म्मपरिग्रहः, यदा तु जगति जीवोऽस्ति किं वा नेत्यसम्भवाशङ्का तदैवमवधारणं - स्यादस्त्येव जीवः, अत्रापि जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यताऽधिगतिः, स्यात्पदप्रयोगात् साधारणासाधारणधर्म्मपरिग्रहः अस्त्येवेत्यवधारणादभावाशङ्काव्यवच्छेदः एवमन्यत्रापि साक्षात् गम्यमानतया वा स्यात्पदप्रयोगपुरःसरं यथायोगमवधारणविधिः सम्यक्प्रवचनार्थं जानानेन प्रयोक्तव्यः, अवधारणाभावे तु जीवादिवस्तुतत्त्वव्यवस्थाविलोपप्रसङ्गः, तथाहि - यद्यन्यव्यवच्छेदेन ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीव एवेति नावधार्यते तर्हि अजीवोऽपि तलक्षणः स्यादिति जीवाजीवव्यवस्थाविलोपः, तथा यदि ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण एव जीव इत्ययोगव्यवच्छेदो नाभ्युपगम्येत ततोऽन्यत्किम
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५४], विभा गाथा [२१६०], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्राक
श्रीआव- प्यजीवानुगतमजीवसाधारणं वा तथालक्षणमाशावेत, तथा च जीवेतरविभागपरिज्ञानाभावः, ततो क्या सम्बग्वादि- प्रमाणनक श्यक मल- स्वमिच्छता सर्वत्र स्यात्पदप्रयोगः साक्षात् गम्यो वाऽनुश्रियते तथा यथायोगमवधारणविधिरपि, अन्यथा यथावस्थितव- विचारा यावची स्तुतत्त्वप्रतिपत्त्यनुपपत्तेः,न चावधारणविधिः सिद्धान्ते नानुमत इति वक्तव्यं, तत्र तत्र प्रदेशेऽनेकशोऽवधारणविषिदर्शनात उपोदपानादतथाहि-"किमियं भंते कालोति पवुच्चइ, गोवमा! जीवा चेच अजीवा चेच"त्ति, स्थानाङ्गेऽप्युकम्-"जदत्य च
लोए तं सर्व दुप्पडोयारं, तंजहा-जीवा चेव अजीवा चेव" तथा "जह चेव उ मोक्खफला, आणा आराहिया जिर्णिदाण'॥३७०॥ मित्यादि, या त्ववधारणी भाषा प्रवचने निषिध्यते सा कचित् तथारूपवस्तुतत्त्वनिणेयाभावात् कचिदेकान्तप्रतिपादिका
वा, न तु सम्यगयथावस्थितवस्तुतत्त्वनिर्णये स्यात्पदप्रयोगावस्थायामिति । दिगम्बरी स्वियं प्रमाणनयपरिभाषा-सम्पूर्णवस्तुकथनं प्रमाणवाक्यं, यथा खाजीवः स्याद्धम्मोस्तिकाय इत्यादि, वस्त्वेकदेशकथनं नयवादः, तत्र यो नाम नयो नया-11 न्तरसापेक्षः स नय इति वा सुनय इति वोच्यते, यस्तु नयान्तरनिरपेक्षः स दुर्नयो नयाभास इति, तथा चाहाकलक:|"मेदाभेदात्मके ज्ञेये, मेदाभेदाभिसन्धयः । यतोऽपेक्षानपेक्षाभ्यां, लक्ष्यन्ते नयदुर्नयाः॥१॥" अस्याः कारिकाया लेशतो नव्याख्या-भेदो-विशेषोऽभेदः-सामान्यं तदात्मके, सामान्यविशेषात्मके इत्यर्थः, ज्ञेये-प्रमाणपरिच्छेद्ये वस्तुनि ये मेदामेदा-12 भिसन्धयः-सामान्यविशेषविषयाः पुरुषाभिप्रायाः अपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते ते यथासङ्ख्यं नयदुर्नया ज्ञातव्याः, किमुF७.
कं भवति -विशेषसाका सामान्यग्राहको वाऽभिप्रायः सामान्यसापेक्षो विशेषग्राहको वा नया, इतरेतराकानरहिPlवस्तु दुर्नयः, नयचिन्तायामपि च ते दिगम्बराः स्वात्पदप्रयोगमिच्छन्ति, तथा चाकलङ्कएव प्राइ-"नयोऽपि तथैव सम्ब-15
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५४], विभा गाथा [२१६०], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गेकान्तविषयः स्यादि" ति, अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता-नयोऽपि-नयप्रतिपादकमपि वाक्यं, न केवलं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दार्थः, तथैव-स्यास्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्, यथा स्यादस्त्येव जीव इति, स्यात्पदप्रयोगाभावे तु मिध्यकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति, तदेतदयुकं, प्रमाणनयविभागाभावप्रसक्तः, तथाहि-स्थाजीव | एवेति किल प्रमाणवाक्यं, स्यादस्त्येव जीव इति नयवाक्यं, एतच्च द्वयमपि लघीयस्त्रग्यलकारे साक्षादकलनोदाहृतं, अत्र चोभयत्राप्यविशेषः, तथाहि-स्याज्जीव एवेत्यत्र जीवशब्देन प्राणधारणनिबन्धना जीवशब्दवाच्यताप्रतिपत्तिः, अस्तीत्यनेनोद्भूताकारशब्दप्रयोगादजीवशब्दवाच्यतानिषेधः, स्याच्छब्दप्रयोगतोऽसाधारणसाधारणधर्माक्षेपः, स्यादस्त्येव जीव इत्यत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यताप्रतिपत्तिरस्तीत्यनेनोद्भूतविवक्षितास्तित्वावगतिः एवकारप्रयोगात्तु यदाशङ्कितं सकलेऽपि जगति जीवस्य नास्तित्वं तद्व्यवच्छेदः, स्यात्पदप्रयोगाद् साधारणासाधारणप्रतिपत्तिरित्युभयत्राप्यविशेष एव, तथा च सिद्धव्याख्याता न्यायावतारविवृती स्थादस्त्येव जीव इति प्रमाणवाक्यमुपन्यस्तवान् , तथा च तद्गतो ग्रन्थः |
“यदा तु प्रमाणब्यापारमविकलं परामृश्य प्रतिपादयितुमभिप्रयन्ति तदा अङ्गीकृतगुणप्रधानभावाऽशेषधर्मसूचककथ-| *श्चित्पर्यायस्याच्छदविभूषितया सावधारणया च वाचा स्यादस्त्येव जीव इत्यादेिकया (वदेत्त) तोऽयं स्याच्छब्दसंसूचिताभ्यास न्तरीभूतानन्तधर्मकस्य साक्षादुपन्यस्तजीवशब्दक्रियाभ्यां प्रधानीकृतात्मभावस्यावधारणव्यवच्छिन्नतदसम्भवस्य वस्तुनः सन्दर्शकत्वात् सकलादेश इत्युच्यते, प्रमाणप्रतिपन्नसम्पूर्णाकथन मिति यावदि"त्यादि, तस्मादस्मदुकैच प्रमाणनयव्यवस्था समीचीना, यथा यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षः परमार्थतः स्यात्पदप्रयोगमभिलपन सम्पूर्ण वस्तु गहातीति प्रमा
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५५ ],
वि०भा०गाथा [२१६०], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
वान्तर्भाव, नयान्तरनिरपेक्षस्तु नयो नयः, स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव सम्पूर्णवस्तुग्राहकत्वाभावादिति, ते च नया श्यक मल- मूलभेदापेक्षया सष्ठ, तथा चाह-नैगमः सङ्ग्रहः व्यवहारः ऋजुसूत्रश्चैव भवति बोद्धव्यः शब्दश्च समभिरूढः एवंभूतश्चेति य० वृत्तौ मूलनया इति गाथासमुदायार्थों निगदसिद्धः ॥ अवयवार्थं तु प्रतिनयं नयाभिधाननिरुक्तिद्वारेण प्रतिपादयतिउपोद्घाते
॥३७१॥
गेहि माणेहिं मिणइप्ती णेगमस्स नेरुत्ती । सेसाणं तु नयाणं लक्खणमिणमो सुणद वोच्छं ॥ ७५५ ॥ न एक नैकं, नायं नञ्, किन्तु न इति 'अन् स्वरे' इति न भवति, प्रभूतानीत्यर्थः, ततो नैकैः - प्रभूतसङ्ख्याकैर्मानैःमहासामान्यावान्तर सामान्यविशेषादिविषयैः प्रमाणैर्मिमीते - परिच्छिनत्ति वस्तुजातमिति नैगमः, पृषोदरादय इतीष्टरूपनिष्पत्तिः, तथा चाह-'इति' इयं नैगमस्य निरुक्तिः- निर्वचनं, उपलक्षणमेतत् तेन अन्यथाऽपि नैगमशब्दव्युत्पत्तिः परिभावनीया, तद्यथा - निश्चितो गमो निगमः परस्परविविक्तसामान्या दिवस्तुग्रहणं स एव प्रज्ञादेराकृतिगणतया स्वार्थिकाण्प्रत्ययविधानात् नैगमः, यदिवा निगम्यन्ते परिच्छिद्यते इति निगमास्तेषु भवो योऽभिप्रायो नियतपरिच्छेदरूपः स नैगमः, अथवा गमाः- पन्थानो नैके गमा यस्य स नैगमः, पृषोदरादित्वात् ककारस्य लोपः, बहुविधवस्त्वभ्युपगमपर इत्यर्थः तथाहि - एष सत्तालक्षणं महासामान्यम्, अवान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणत्व कर्म्मत्वादीनि तथा अन्त्यान् विशेषान् सकलासाधारणरूपान् अवान्तरविशेषांश्च पररूपव्यावर्त्तनक्षमान् सामान्यादस्यन्तविनिर्बुठितस्वरूपान् प्रतिपद्यते, यतोऽसावेत्रमाह-संविनिष्ठाः किल पदार्थव्यवस्थितयः, तत्र सर्वेष्वपि पदार्थेषु द्रव्यादिरूपेषु सत्सदित्यविशेषेण प्रत्यय उपजापते, वचनं च न चैते तथारूपे प्रत्ययवचने द्रव्यादिमात्रनिबन्धने, द्रव्यादीनामसर्वव्यापकत्वात्, तथाहि यदि द्रव्य
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नैगमस्वरूपं
॥३७१ ॥
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दीप
अनुक्रम H
“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५५ ],
वि०भा०गाथा [२१६०], भाष्यं [१३७...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
मात्रनिबन्धनः सदिति प्रत्ययस्तर्हि स गुणादिषु न भवेत्, तत्र द्रव्यत्वाभावात् गुणमात्रनिबन्धनत्वे द्रव्यादिषु न स्यात्, तत्र गुणत्वाभावात्, एवं सर्वत्रापि भावनीयम्, ततोऽस्ति द्रव्यादिभ्यो व्यतिरिक्तं महासत्ताख्यं नाम | सामान्यं यद्वशादविशेषेण सर्वत्र संदिति प्रत्यय इति, तथा नवसु द्रव्येषु द्रव्यं द्रव्यमित्यनुगताकारप्रत्ययदर्शनात् द्रव्यत्वं नामावान्तरसामान्यं प्रतिपत्तव्यम् एवं गुणत्वकत्वगत्वाश्वत्वादीन्यपि, अमूनि चावान्तरसामान्यानि सामान्यविशेषा इत्युच्यन्ते, यत एतानि स्वस्वाधारविशेषेषु अनुगताकारप्रत्ययवचनहेतुत्वात् सामान्यानि विजातीयेम्यो व्यावर्त्तमानत्वाश्च विशेषा इति सामान्यविशेषाः, तथा तुल्यजातिगुणक्रियाधाराणां नित्यद्रव्याणां परमावाकाशदिगादीनामत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुभूता विशेषाः, ते च योगिनामेव प्रत्यक्षा अस्मदादीनां त्वनुमेयाः, तथाहि तुल्यजातिगुणक्रियाधाराः परमाणको व्यावर्त्तकधर्म्मसम्बन्धिनो व्यावृत्तिप्रत्ययविषयत्वात् मुक्ताफलाभात्यन्तर्गतचिह्नमुक्ताफलवत्, ये चावान्तरविशेषा घटपटादीनामितरेतरव्यावर्त्तनक्षमास्ते आबालगोपालाङ्गनादिजनानामपि प्रत्यक्षाः, एते च महासामान्यावान्तरसामान्यान्त विशेषावान्तरविशेषाः परस्परविशकलित स्वरूपाः, तथैव प्रतिभासमानत्वात्, तथाहि-न सामान्यग्राहिणि विज्ञाने विशेषावभासो नापि विशेषग्राहिणि सामान्यावभासः ततः परस्परविनिर्लुण्ठितस्वरूपाः, तथा चात्र प्रयोगः- यद्यथाऽवभासते तत्तथाऽभ्युपगन्तव्यं, यथा नीलं नीलतया, अवभासन्ते च परस्परविसकलित स्वरूपाः सामान्यविशेष इति नैगमः, नम्वेष यदि सामान्यविशेषाभ्युपगमपरस्तर्हि यत्सामान्यं तद्रव्यं ये तु विशेषास्ते पर्याया इति परमार्थतो द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयमतावलम्बित्वात् सम्यग्दृष्टिरेव प्रतिपन्न जिनमतत्वात्, तथाविधसम्यग्जैन साधुवत्,
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७५५], विभा गाथा [२१९४-२१९५], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- ततः कथं मिथ्यादृष्टिः, तदेतदयुक्तं, प्रतिपन्नजिनमतत्वासिद्धेः, परसरविस कलितसामान्यविशेगम्युपगमात्, तथाहि-एष नैगमश्यक मल-11 परस्परमेकान्ततो विभिन्नावेव सामान्यविशेषाविच्छति, गुणगुणिनामवयव्यवयविनां क्रिया कारकाणां चात्यन्तभेदं,न पुन-II स्वरूप यवृत्तीनसाधुरिव सर्वत्रापि भेदाभेदी, अतो मिथ्याष्टिः, कणादेनापि हि सकलमप्यात्मीय शास्त्रं द्वाभ्यामपि द्रव्यास्ति कपर्या-13 उपोदयातलियास्तिकनयाभ्यां समर्थितं तथापि तन्मिथ्या, स्वविषयप्रधानतया परस्परमनपेक्षयोः सामान्यविशेषयोरभ्युपगमात्, उक्त
च-"जं सामनविसेसे परोप्परं वत्थुतो य सो भिन्ने । मन्नइ अच्चंतमतो मिच्छादिट्ठी कणादोव ॥१॥ दोहिवि नएहिं नीर्य ॥३७२॥ सत्थमुलूगेण तहवि मिच्छत्तं । जं सविसयप्पहाणतणेण अन्नोन्ननिरवेक्खं ॥२॥" (विशेषा.२१९४-५) अथ यदि सामा.
तम्यविशेषादिक परस्परमेकान्तविभिन्न मिच्छति तथापि कथमसौ मिथ्याइष्टिः, उच्यते, तदभ्युपगमस्य विचार्यमाणस्या
घटमानत्वात् , तथाहि-यदि परमपरं वा द्रव्यादिष्वनुगताकारप्रत्ययदर्शनादुपगम्यते तर्हि विशेष्वपि सामान्य प्राप्नोति, तत्रापि विशेषो विशेष इत्यनुगताकारप्रत्ययदर्शनात्, न च तत्र तदभ्युपगम्यते, द्रव्यगुणकम्मस्वेव तदुपगमात्, अन्यच्च-गोत्वाश्वत्वघटत्वपटत्वादिष्वपि सामान्येषु सामान्य सामान्यमित्यनुगताकारप्रत्ययोऽनुभूयते ततस्तत्रापि सामान्याभ्युपगमः, न च सामान्येष्वपि सामान्यमस्ति, 'निःसामान्यानि सामान्यानीति वचनात् , यदपि च तेन विशेषलक्ष-2 णमकारि 'येन बुद्धिर्वचनं वा पदार्थान्तरेभ्यो विशिष्यते स विशेष' इति तत्परापरभेदभिनेषु सामान्येध्वपि लक्ष्यते, तथाहि-महासामान्यमपि सत्ताख्यं गोत्वादिभ्यो बुद्धिवचने विशेषयति, गोत्वादीन्यपि च सामान्यानि सत्ताख्यमहासामान्याश्चत्वाद्यवान्तरसामान्येभ्यः, अतः सामान्येष्वपि विशेषत्वप्रसङ्गः, तथा चात्र प्रयोगः-विवादाध्यासिता ने सामान्यानि
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आ.सु. ६३
“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५५ ],
वि०भा०गाथा [२१९८], भाष्यं [ १३७] मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
विशेषाः पदार्थान्तरेभ्यो बुद्धिवचनविशेषकत्वात्, अन्त्यविशेषवत् किञ्च - 'त्रिपदार्थसत्करी सत्ते' ति वचनात् द्रव्यगुणकर्मसु सत्तासमवायात् सत्त्वाभ्युपगमः, स चासमीचीनः विकल्पहूयानतिक्रमात् तथाहि - सत्तासमवायात्सत्त्वं द्रव्यादेः किं स्वरूपेण सतोऽसतः १, न तावत्सतः सत्त्वे तद्योगकल्पना वैयर्थ्यप्रसङ्गात्, यदि हि स्वरूपतो द्रव्यादीनि सन्ति वर्तन्ते ततः किं तेषां सत्तासमवाययोगपरिकल्पनेन ?, वैयर्थ्यादनवस्थाप्रसङ्गाच्च, तथाहि यदि स्वरूपतः सत्स्वपि सत्तासमवाययोगपरिकल्पना ततः सत्तायामपि सत्तासमवाययोगः परिकल्पनीयः सत्त्वाविशेषात् तत्रापीयमेव वार्त्तत्यनवस्था, अथासत इति पक्षः सोऽप्यश्लीलः, असतः खरविषाणस्येव सत्तासमवाययोगासम्भवात्, उकं च - " सत्ता जोगादसतो सओ व सतं हवेज दवस ? असतो न खपुप्फरस व सतो व किं सत्तया कज्जं ? || १ || ” (विशेषा. २१९८) एवं द्रव्यत्वगुणत्वकर्म्मत्वादयोऽपि प्रतिषेध्याः, तत्राप्युक्तदोषानतिक्रमात् तथाहि--द्रव्यत्वसामान्ययोगो द्रव्यस्य किं स्वरूपतो द्रव्यस्य सतः स्यादद्रव्यस्य वा ?, प्रथमपक्षे द्रव्यत्यसामान्ययोगपरिकल्पना वैयर्थ्यमनवस्थाप्रसङ्गश्च द्वितीयपक्षे गुणक | म्र्मादिष्वपि द्रव्यत्वसामान्ययोगप्रसक्तिः, स्वतो द्रव्यत्वाभावाविशेषात् एवं गुणकर्मत्वयोगप्रतिषेधोऽपि गुणकर्मसु | परिभावनीयः । अपिच - गोत्वादिकं सामान्यं सर्वं गतमसर्वगतं वा १, सर्वगतं चेत्तर्हि प्रत्ययसाङ्कर्यप्रसङ्गः तथाहिगोत्वादीनि सामान्यानि सर्वगतानि, ततो यथा गोत्वं गोषु गोत्वात् गौर्गौरिति प्रत्ययस्तथाऽश्वोऽश्व इत्यपि स्यात्, अश्वत्वसामान्यस्यापि तत्र विद्यमानत्वात्, यथा चाश्वेषु अश्वत्वसामान्यादश्वोऽश्व इति प्रत्ययस्तथा गौगरित्यपि स्यात्, गोत्वसामान्यस्यापि तत्र विद्यमानत्वात् न चैतदस्ति, तस्मान्नायं पक्षः श्रेयान्, अथासर्वगतमिति पक्षो, ननु तत्सामा
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५५], विभा गाथा [२१९८], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- न्यमक्रियमनवयवं चाभ्युपगम्यते, ततो नोस्पित्सुपदार्थदेशमभिगन्तुमलमिति कथं तत्तत्र वर्तते', अन्यच्च-सामान्य-17
नैगमश्यक मल- युतासु व्यक्तिषु वृत्तिः सामान्यस्य किं सर्वात्मना प्रत्येकं उत एकदेशेन !, यदि सर्वात्मना तहिं यावत्यो व्यक्तयस्तावन्ति
स्वरूपया वृत्ती |सामान्यानि प्रसक्तानि, व्यक्तयश्चानन्ता इति, अथैकदेशेनेति पक्षः, सोऽप्यपेशलः, एक नित्यं निरवयवमक्रियमित्यभ्युपउपोदूधाते गमक्षतिप्रसङ्गात् , एकदेशवृत्त्यभ्युपगमे सावयवत्योपगमात् , किच-तेष्वपि देशेषु कथं वर्तत इति चिन्त्यं, कि प्रत्येकी
| सर्वात्मना उत एकदेशेन !, प्रथमपक्षे पूर्ववत्सामान्यानन्त्यप्रसक्तिः, द्वितीयपक्षे भूयोदेशपरिकल्पना, तत्रापि तेषु वृत्ती देशान्तरपरिकल्पनमित्यनवस्था, एवं गुणेषु गुणिनोऽवयवेष्ववयविनः क्रियासु कारकस्य मिथो भेदाभ्युपगमे सर्वधारी वृत्त्यनुपपत्तिः परिभावनीया । तदेवमेकान्ततः सामान्य विशेषादीनां भेदाभ्युपगमे सर्वमालूनविशीर्णमिति तदभ्युपगमपरो नैगमनयो मिथ्यादृष्टिः, ततो जिनपचनानुसारेणैव सामान्यविशेषादिकमभ्युगन्तव्यं, तथा च सति न कश्चिदोषः, तथाहि-यो वस्तूनां समानपरिणामः स सामान्यं, स च सामान्यपरिणामोऽसमानपरिणामाविनाभावी, अन्यथा एकत्वापत्तितः सामान्यत्वस्यैवायोगात्, स चासमानपरिणामो विशेषः, उकंच-“वस्तुन एव समानः परिणामो यः स * एव सामान्यम् । असमानरतु विशेषो वस्त्वेकमुभयरूपं तु ॥१॥" ततः सामान्यविशेषौ पररपरं भेदाभेदात्मकाविति न
॥३७३॥ पूर्वोक्तवृत्त्यसम्भवादिदोषावकाशः, अवयवानां च यः कोऽपि विशिष्टः सोऽवयवी, गुणाश्च सहवर्तिनः क्रमवर्तिनो हैवा द्रव्यस्य पर्यायविशेषाः, क्रियाऽपि च कारकस्य परिणामविशेषः, ततः सर्वत्रापि परस्परं मेदाभेदात्मकं तादात्म्यमिति
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७५६], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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न वृत्त्यसम्भवदोषानुषङ्गः, 'सेसाण'मित्यादि, शेषाणामपि नयानां सवहादीनां लक्षणमिदं वक्ष्यमाणं, तच्च शृणुत, यत इदानीमेव वक्ष्ये-अभिधास्थे ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
संगहियपिडियत्थं संगहवयणं समासतो ति । भ आभिमुख्येन गृहीतः-उपात्तः सङ्गृहीतः पिण्डितः-एकजातिमापन्नः अर्थो-विषयोऽस्य तत्सङ्ग्रहीतपिण्डितार्थ सङ्कहस्य वचनं सङ्गवचनं समासत:-सङ्केपेण ब्रुवते तीर्थकरगणधराः, किमुक्तं भवति -सामान्यप्रतिपादनपरः सबहनयः, शब्दव्युत्पत्तिश्चैव-सहाति-अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया समस्तं जगदादचे इति सहा, तथाहि-G अयमेवं मन्यते-सामान्यमेवैकं तात्विक, न विशेषाः, ते हि भावलक्षणसामान्यात् व्यतिरिक्ता वा भवेयुरन्यतिरिका वा?, गत्यन्तराभावात् , प्रथमपक्षाभ्युपगमे न सन्त्येव विशेषाः, भावात् व्यतिरिक्तत्वात् गगनकुसुमवत् , अथ द्वितीयः पक्षस्तहि विशेषा अपि भावमात्रमेव, तथाहि-भावमात्रं विशेषास्तव्यतिरिक्तवाद, इह यत् यस्मादब्यतिरिक्तं तत्तदेव, यथा भावस्य स्वरूपं, अव्यतिरेकिणश्च भावाद्विशेषा इति । किंच-विशेषाग्रहो विशेषेण त्याज्यो विशेषव्यवस्था-13 पकप्रमाणाभावात् , तथाहि-भेदरूपा विशेषाः, न च ते कश्चित्वमाणभेदमवगाहंते, प्रत्यक्षं हि भावसम्पादितसचाकमतस्त-18 मेव साक्षात्कतमलं,नाभांवम् , अभावस्य सकल शक्तिविष्टब्धरूपतया तदुत्पादने व्यापाराभावात् , अनुत्पादकस्य च साक्षा-टी करणे सर्वसाक्षात्करणप्रसङ्गः, तथा च सति विशेषाभावात् सर्वो द्रष्टा सर्वदर्शी स्यात् , अनिष्टं चैतत् , तस्मादावग्राहकमेव प्रत्यक्षमेष्टव्यं, सच भावः सर्वत्राविशिष्टस्तथैव च तेन ग्राह्य इति न प्रत्यक्षाद्विशेषावगतिः, नाप्यनुमानादिः, प्रत्य
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श्रीभाव
श्यक मल
य० वृत्तौ उपोद्घाते
॥३७४ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५६ ], वि० भा० गाथा [ २२१६], भाष्यं [ १३७... ]. मूलं [- / गाथा-] नदीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
क्षपूर्वकत्वाच्छेषप्रमाणवर्गस्य, ततः सामान्यमेव परमार्थसत् न विशेषा इति सङ्ग्रहः, एष च सामान्यमात्राभ्युपगमपरत्वान्मिथ्यादृष्टिः सुप्रतीत एव ।
वच विणिच्छयत्थं वचहारो सङ्घदवेसु || ७५६ ।।
जति - गच्छति निः- आधिक्येन चयनं चयः, अधिक्रश्चयो निश्चयः- सामान्यः विगतो निश्चयो विनिश्चयः - सामा न्याभावः तदर्थे तन्निमित्तं, सामान्याभावायेति भावार्थः, व्यवहारो नयः क्व ? - 'सर्वद्रव्येषु' सर्वद्रव्यविषये, व्युत्पत्तिश्चैवं व्यवहरणं व्यवहारः, यदिवा विशेषतोऽवहियते - निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः, विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनय इत्यर्थः, स ह्येवं विचारयति - सदित्युक्तो हि घटपटाद्यन्यतमो विशेष एव कोऽप्यनिर्दिष्टस्वरूपः प्रतीयते, न | सङ्ग्रहनयसंमतं सामान्यं, तस्यार्थक्रियासामर्थ्याविकलतया सकललोकव्यवहारपथातीतत्वात् ततो विशेष एवास्ति न सामान्यं, इतश्च न सामान्यम्, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तस्यानुपलब्धेः इह यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सन्नोपलभ्यते तदसदिति व्यवहर्त्तव्यं, यथा क्वचित् केवलभूतलप्रदेशे घटः, न चोपलभ्यते उपलब्धिलक्षणप्राप्तं सत् सङ्ग्रहनयसम्मतं सामान्यमिति स्वभावानुपलब्धिः, अपिच - सामान्यं विशेषेभ्यो व्यतिरिक्तं वा स्यादव्यतिरिक्तं वा ?, यद्याद्यः पक्षस्तहिं सामान्यस्याभाव एव, विशेषव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्यासम्भवात्, नहि मुकुलितार्द्धमुकुलितादिविशेषविकलं किमपि गगनकुसुममस्तीति परिभावनीयमेतत्, अथाव्यतिरिक्तं ततो विशेषा एव, न सामान्यं, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत् उक्तं च"अन्नमणन्नं च मयं सामण्णं १ जुइ बिसेसतोऽणनं । तम्मत्तमण्गमहवा नत्थि तयं निविसेसंति ॥ १ ॥” ( वि० २२१६)
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संग्रहञ्यदहारौ
॥ ३७४॥
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५६], विभा गाथा [२२२१], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
यदपि चोक्तं-'प्रत्यक्षं भावसम्पादितसत्ताकमतस्तमेव साक्षात्कर्तुम'मित्यादि, तदपि बाडिन्नजल्पितं, प्रत्यक्षं हि नाम: तेन सम्पादिसत्ताकमुच्यते यदुत्पन्नं सत् प्रत्यक्षं साक्षात्करोति, कुरुते च प्रत्यक्षं साक्षात् घटपटादिरूपं विशेष, न सबहनयसम्मतं सामान्यं, न विशेषो घटपटादिरूपोऽभावो, भावात्मकत्वात् , ततो नार्थक्रियाशकिविकल इत्यदोषः, ततो |विशेष एवं प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धो न सामान्यमिति सामान्याग्रह एव त्याग्यो, न विशेषापहः, किंच-यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्, न च सामान्य दोहदाहादिक्रियासूपयुज्यते, किन्तु विशेषा एव गवादयः, ततस्त एव तात्त्विका न सामान्यमिति । एष व्यवहारनयो लोकसंन्यवहारपरः ततो यदेव लोकोऽभिमन्यते तदेवैषोऽपि, न शेष सन्तमपि, लोकश्च चमरादौ तत्ववृत्त्या पञ्चवर्णाापेतेऽपि कृष्णवर्णादित्वमेव प्रतिपन्नस्तस्य स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात् , तत एषोऽपि तदनुयायितया तदेवेच्छति, न शेषान् सतोऽपि शुक्लादीन् वर्णान् , उकं च-"बहुतरउत्ति तयं चिय गमेति है संतेवि सेसए मुयई (वि. २२२१ ) इति शेषकान्-शक्कादिवर्णान् सतोऽपि मुञ्चति-न प्रतिपद्यते इति । उक्तो व्यवहारनयः, साम्प्रतमृजुसूत्रनयमाह
पचुप्पण्णग्गाही उज्जुसुओ नयविही मुणेयो। साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते, वर्तमानमित्यर्थः, यदिवा प्रति प्रति उत्पन्न प्रत्युत्पन्न, भिन्नव्यक्तिस्वामिकमित्यर्थः, तद् गृहातीत्येवंशीलः प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रो नयविधिोतव्यः, तत्र ऋजु-प्रगुणम्-अकुटिलमतीतानागतपरकीयवक्रपरि-६ | त्यागात् वर्तमानक्षणविवर्ति स्वकीयं च सूत्रयति-निष्टंकितं दर्शयतीति ऋजुसूत्रः, यदिवा ऋजुश्रुत इति अब्दसंस्कारः,
+++KALEGACKS
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७५७], विभा गाथा [२२२४,२२२६], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
मजुसूत्र
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सत्राक
०
श्रीआव- तत्र ऋज पूर्वोक्तवक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं तु-ज्ञान, अभिमुखं ज्ञानमस्येति ऋनुश्रुतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात्, तथाहि-11 श्यक मल+एष मन्यते यदतीतमनागतं वा तत् यथाक्रमं विनष्टत्वादलब्धात्मलाभत्वाच्च नार्थक्रियासमर्थ, नापि प्रमाणगोचरः, शन्दी या वृत्ती अथवा क्रियासमर्थ प्रत्यक्षादिप्रमाणपथमवतीर्ण वस्तु, न शेषम्, अन्यथा खरविषाणादेरपि वस्तुत्वप्रसक्के, ततोऽर्थक्रिउपोदवानेयासामर्थ्य विकलत्वात् प्रमाणपथातीतत्वाच्च नातीतमनागतं वा वस्त, यदपि च परकीयं बस्त तदपि परमार्थतोऽसत.IS
निष्प्रयोजनत्वात् , "न विगयमणागयं वा भावोऽणुवलद्धितो खपुष्पं व । न य निप्पओयणाओ परकीयं परधणमिवेती-1 ॥३७५ ॥१॥" (बि. २२२४ )ति, एष च ऋजुसूत्रो वार्त्तमानिकं वस्तु प्रतिपद्यमानो लिङ्गवचनभिन्नमप्येकं प्रतिपद्यते, तौ-1
कमपि त्रिलिङ्गं यथा तटस्तटी तटं, तथैकमपि एकवचन द्विचनबहुवचनवाच्यं, यथा गुरुर्गुरवः गोदी ग्रामः आपो जलं|8| दाराः कलत्रमित्यादि, निक्षेपचिन्तायां नामस्थापनाद्रव्यभावरूपाश्चतुरोऽप्यसौ निक्षेपानभिमन्यते, उक्कं च-"तम्हा: निययं संपइकालीणं लिंगवयणभिन्नपि । नामादिभेयविहियं पडिवजइ वत्थुमुज्जुसुतो ॥१॥” (वि. २२२६) उक्त ऋजुसूत्रः, सम्पति शब्दनयमाह-'
इच्छइ विसेसिययरं पञ्चुप्पण्णो नओ सहो ।। ७५१॥ | इच्छति-प्रतिपद्यते विशेषिततरं-मामस्थापनाद्र व्यविरहेण समानलिइवचनपर्यायध्वनिवाच्यत्वेन च प्रत्युत्पन्न-IN
वर्तमानं नयः शब्दः, शब्द्यते-प्रतिपाद्यते वस्त्वनेनेति शब्दः-शब्दस्य वाच्योऽर्थः स एव येन नयेन तत्त्वतो गम्यते न शेषःस CIनय उपचारात् शब्द इत्युच्यते, अस्य च द्वितीयं नाम साम्प्रत इति, साम्प्रतवस्त्वाश्रयणात् साम्प्रतः, तथाहि-एषोऽपि
DL-
STROCCAL+C
दीप
3
*
अनुक्रम
... अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || ७५१ || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा-क्रम || ७५७ || एव वर्तते ।
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५७], विभा गाथा [२२२९], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सूत्राक
ऋजुसूत्रनय इव साम्प्रतमेव वस्वभ्युपगच्छति, नाप्यतीतमनागतं वा, नापि वर्तमानमपि परकीयम् , अपिच-निक्षे-11 पचिन्तायां भावनिक्षेपमेव केवलमेष मन्यते, न नामादीन निक्षेपान , तथा च नामादिनिक्षेपनिराकरणार्थ प्रमाणमाह-IN नामस्थापनाद्रव्यरूपा घटा न घटाः, घटकार्यकारित्वाभावात् , यत् यत् घटकार्यकारि न भवति तत् न घटो, यथा पटः, तथा चामी घटा घटकार्यकारिणो न भवन्ति तस्मान्न घटा इति नामादिघटानां घटत्वाभावः, इतश्च घटत्वाभावः, तल्लिङ्गादर्शनात्, न खलु नामादिघटेषु घटलिझं पृथुबुनोदराद्याकाररूपं जलधारणरूपं वा किमप्युपलभामहे, अनुपलभमानाच तेषु कथं घटग्यपदेशप्रवृत्तिमिच्छामः १, अपिच-नामादीन घटान् घटस्वेन व्यपदिशत ऋजुसूत्रस्य प्रत्यक्षविरोधा, अघ-11 घटस्वरूपतया पटादीनामिव तेषां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानत्वात् , उक्तं च "नामादयो न कुंभातकज्जाकरणतो पडाइब । पच्च-1
खविरोहातो तल्लिंगाभावतो यायि ॥१॥” (वि. २२२९) अन्यच्च-एप लिङ्गवचनभेदाद्वस्तुनो भेदः प्रतिपद्यते, यथाऽन्य एव तटीशब्दवाच्योऽर्थः अन्य एव तटशब्दस्य पुल्लिङ्गस्य, तथाऽन्य एवं गुरुरित्येकवचनवाच्योऽर्थः अन्य एवं गुरव | । इति वहुवचनवाच्यः, ततो न बहुवचनवाच्योऽर्थ एकवचनेन वक्तुं शक्यते, नाप्येकवचनवाच्यो बहुवचनेन, तथा न|
पुल्लिङ्गोऽर्थो नपुंसकलि झेन यतुं शक्यो नापि स्त्रीलिङ्गेन वक्तुं शक्यः, नापि नपुंसकलिङ्गः पुंलिङ्गेन स्त्रीलिजेन वा, है| |नापि स्त्रीलिङ्गः पुलिझेन नपुंसकलि झेन बा, अर्थाननुयायितया तेषामर्धतो भिन्नत्वात् , तथा चात्र प्रयोगः-ये परस्परमर्थतोऽननुयायिनस्ते भिन्नार्था इति व्यवहतच्याः, यथा घटपटादिशब्दाः, परस्परमर्थतोऽननुयायिनश्च लिङ्गवचनभेदभिन्नाः शब्दा इति, ये विन्द्रशक्रपुरन्दरादयः शब्दाः सुराधिपादिलक्षणमेकमभिन्नलिङ्गवचनमधिकृत्याभिन्नलिङ्गया
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५७], विभा गाथा [२२२९], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीमाव- चनास्तेषामभिन्नोऽयं इत्येकार्यता,उक्तंच-"घणि भेयातो भेओथीपुंलिंगाभिहाणवच्चाणं पडकुंभाण व जुत्तो तेणाभिन्नत्य- शब्दसमश्यक मल-6 मिडं तं ॥१॥" (वि.२२३४) अत्र 'धणिभेया'त्ति ध्वनिभेदात् अननुयाय्यर्थतया, अर्थतः शब्दरूपस्याभेदात् , 'तेणामिन्न- भिरूडौ या वृत्तीत्पमिह तंति तेन-तस्मात्कारणात् तत् लिङ्गं वचनं वा अभिन्नार्थमिष्टं, यादृशमधे लिङ्गे तादृशमेव तद्वाचकस्य शब्दउपोद्घाते 8 स्पष्टं नान्यादृशम्, अत एव चाभिन्नवचनाः पर्यायशब्दा एकार्थास्तेषामर्थभेदाभावात् , तथा च शब्दनयमतं सर्वमपि सङ्घ
ण्हता प्रत्यपादिभाष्यकृता-"तो भावो च्चिय वत्थु विसेसियमभिन्नलिंगवयणं च। बहुपज्जायपि मयं सद्दत्थवसेण सहस्स॥१॥" ॥३७६॥ (वि.२२३५) अस्या गाथाया लेशतो व्याख्या-तत इत्युपसंहारे, ततः शब्दनयस्य शब्दार्थवशेन-शब्दगतान्वर्धशब्दार्थस
माश्रयेण भाव एव वस्तु मतं, न नामादिकं,तदपि च भावरूपं वस्तु विशेषितं-स्वपर्यायविशेषितं परपर्यायविशेषितं च मतं, Iतथा अभिन्नलिङ्गवचनं बहुपर्यायमपि मतमिति ॥ उक्तः शन्दनयः, सम्पति समभिरूढमाह
वत्थूओ संकमणं होई अवत्थू नये समभिरूढे । वस्तुनो-घटाख्यादिकस्य सङ्क्रमणम्-अन्यत्र कुटाख्यादौ गमनं, किं!, भवति अवस्तु, असदित्यर्थः, नये पर्यालोच्यमाने, कस्मिन्नये इत्याह-'समभिरूढ़े' सम्-एकीभावेन अभिरोहति-व्युसत्तिनिमित्तमास्कन्दति शब्दप्रवृत्ती यानी Mस समभिरूढः तस्मिन् , एष हि पर्यायशब्दानामपि प्रविभक्कमेवार्थमभिमन्यते, यथा घटनात् घटा, विशिष्टा काचनापि ॥१६॥
या पेष्टा युवतिमस्तकाद्यारोहादिलक्षणा स परमार्थतो घटशब्दवाच्या तद्वत्यर्थे पुनर्घटशब्दः प्रवर्तते उपचारात्, एवं 'कुट कौटिल्ये' कुटनात् कुरा, अत्र पृथुबुनोदरकम्बुग्रीवाद्याकारकौटिल्यं कुटशब्दवाच्य, तथा 'उभ संभ पूरणे
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५७], वि० भा० गाथा [ २२३७ ], भाष्यं [ ९३७...], मूलं [- / गाथादीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
कुः पृथिवी तस्यां स्थितस्य संभनात् - पूरणात् कुम्भः, अत्र यत् पृथिव्यां स्थितस्य पूरणं तत् कुम्भशब्दवाच्यम्, एवं सर्वेषामपि पर्यायशब्दानां नानात्वं प्रतिपद्यते, वदति च-न शब्दान्तराभिधेयं वस्तु द्रव्यं पयांयो वा तदन्यशब्दवाच्यवस्तुशब्दरूपतां सङ्क्रामति, न खलु पटशब्दवाच्योऽथ जातुचिदपि घटशब्दवाच्यवस्तुरूपतामास्कन्दति, तथाऽनुपलम्भात्, आस्कन्दने वा वस्तुसाङ्कर्यापत्तिः, तथा च सति सकललोकप्रसिद्ध प्रतिनियत विषयप्रवृत्तिनिवृत्त्यादि व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः, उत्कं च - "दवं पज्जाओ वा वत्युं वयणंतराभिधेयं जं । न य तं तदन्नभावं संकमए संकरो मा भू ॥ १ ॥ " ( २२३७ ) ततो | घटादिशब्दवाच्यानामर्थानां कुटादिशब्दवाच्यार्थरूपताऽनास्कन्दनात् न कुटादयः शब्दा घटाद्यर्थवाचका इति विभि नार्थाः पर्यायशब्दाः प्रमाणयति च--इह ये ये प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकाः शब्दास्ते ते भिन्नार्थाः, यथा घटपटशकटादिशब्दाः, भिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकाश्च पर्यायशब्दा इति, यत्पुनरविचारितप्रतीति लादेकार्थाभिधायकत्वं पर्यायशब्दानामभिधीयते तदसमीचीनमतिप्रसङ्गात्, तथाहि - यदि युक्तिरिक्ताऽपि प्रतीतिः शरणीक्रियते तहिं मन्दमन्दप्रकाशदवीयसि देशे सन्निविष्टमूर्त्तयो विभिन्ना अपि निम्बकदम्बाश्वत्थकपित्थादय एकतर्वाकारत्वमाविभ्राणाः प्रतीतिपथमनुयन्तीत्येकतयैव तेऽभ्युपगन्तव्याः, न चैतदस्ति, विविक्ततत्स्वरूपग्राहितत्प्रत्यनीकप्रत्ययोपनिपातवाधितत्वेन पूर्वप्रतीतेविंवितानामेव तेषामभ्युपगमात्, एवमत्रापि भावनीयम्, अन्यच्च - शब्दनय ! यदि त्वया परस्परमर्थतो भिन्नत्वाल्लिङ्गवचनभिज्ञानां शब्दानां भिन्नार्थता व्यवहियते ततः पर्यायशब्दानामपि किं न भिन्नार्थताव्यवहारः क्रियते ?, तेषामपि परस्परमर्थतो भित्वात्, माह च भाष्यकृत् -" घणिभेयातो भेओऽणुमओ जद्द लिंगवयणभिन्नाणं । धडपडवञ्चापि
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श्रीआव श्यक मलय० वृत्तौ उपोद्घाते
॥३७७॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५८] वि० भा० गाथा [ २२४० ], भाष्यं [ १३७... ]. मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
व घडकुडवच्चाण किमणिट्टो १ ॥ १ ॥ ( वि. २२४० ) तस्मान्नैकार्थवाचिनः पर्यायध्वनय इति । उक्तः समभिरूढः, इदानीमेवंभूतमाह
वंजण अत्थतदुभए एवंभूओ विसेसेइ ॥ ७५८ ॥
व्यज्यते अनेन व्यनीति व्यञ्जनं-शब्दः अर्थस्तु तद्गोचरः तच तत् उभयं च तदुभयं - शब्दार्थलक्षणमेवंभूतो नयो विशेषयति । इदमत्र हृदयम् - शब्दमर्थेन विशेषयति अर्थ च शब्देन, तथा चाह भाष्यकृत् - "वंजणमत्येणऽत्थं च वंजणेणोभयं विसेसेइ । जह घडसद्दं चेट्ठावया तहा तंपि तेणेव ॥ १ ॥” (वि. २२५२) अस्या गाथाया लेशतो व्याख्याव्यञ्जनं शब्दमर्थेन विशेषयति, अर्थवशात् नैयत्ये व्यवस्थापयतीत्यर्थः, यथा स एव तत्त्वतो घटशब्दो यश्चेष्टावन्तमर्थे | प्रतिनियतं व्यवस्थापयतीति भावः, यथा वा घटशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धा चेष्टा सा घटनात् घट इति व्युत्पत्त्यर्थपरिभावनावलाद् योषिदादिमस्तकारूढस्य घटस्य जलाहरणादिक्रियारूपा द्रष्टव्या, न तु स्थानभरणक्रियारूपा, एवमुभयं - शब्देनार्थमर्थेन शब्दं विशेषयति, अचैत्र चोदाहरणमाह- 'जह घडसद मित्यादि, यथा घटशब्दं चेष्टावताऽर्थेन नियमयति, स एव तत्त्वतो घटशब्दो यश्चेष्टावन्तमर्थं प्रतिपादयति, तथा तमप्यर्थं तेनैव- शब्देन नियमयति, यथा घटशब्दवाच्या चेष्टा घटनात् घट इति व्युत्पत्तिवलेन योषिदादिमस्तकादिरूढस्य घटस्य जलाहरणक्रियारूपा द्रष्टव्येति । एवं चैष व्युत्पत्तिनिमित्तार्थास्तित्वभूषितमेव तात्त्विकं शब्दमभिलषन् य एवं पश्ञ्चेन्द्रियत्रिविधवलादिरूपान् दशविधान् प्राणान् धारयति स एव नारकादिरूपः सांसारिकः प्राणी जीवशब्दवाच्यो, न सिद्धः, तत्रोक्तखरूपप्राणधारणलक्षण
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समभिरूदैवभूती
॥३७७॥
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५८], विभा गाथा [२२५६], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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CAKACar
व्युत्पत्तिनिमित्तासम्भवात् , सिद्धस्त्वात्मादिशब्दवाच्यः, अतति-सातत्येन गच्छति तांस्तान ज्ञानदर्शनसुखादिपर्यायानित्याद्यात्मादिशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तसम्भवात् , उक्तं च-"एवं जीवं जीवो संसारी पाणधारणाणुगो । सिद्धो पुण
रज्जीवो जीवणपरिणामरहिओत्ति ॥१॥"(वि. २२५६) एवम्भूतशब्दव्युत्पत्तिश्चैवम्-एवंशब्द: प्रकारवचनः, एवं #यथा व्युत्पादितस्तं प्रकारं भूत:-पाठः एवंभूतः-शब्दस्तत्समर्थनप्रधानो नयोऽप्येवंभूतः उपचारात्, एवंभूतशब्दसमर्थना *
चास्य प्रागेवोपदर्शिता, यथा यस्मिन्नर्थे शब्दो व्युत्पाद्यते स व्युत्पत्तिनिमित्तमर्थों यदेव स्वरूपतो वर्तते तदैव तं शब्दं हु प्रवर्चमानममिप्रैति, न शेषकालं, यथोदकाद्याहरणवेलायां योषिदादिमस्तकारुढो विशिष्टचेष्टावान् घटो घटशब्दवाच्यो, न शेषो, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तशून्यत्वात् , पटादिवत् , तथा घटशब्दोऽपि तत्त्वतः स एव द्रष्टव्यो यश्चेष्टावन्तमर्थे प्रतिपा-1
दयति, न शेषः, शेषस्य स्वाभिधेयार्थशून्यत्वादिति ॥ अमीषां च नैगमादिनयानामनुयोगद्वारेषु प्रस्थकदृष्टान्तेन वसतिदृष्टादान्तेन च भावना कृता, सा चोपयोगिनीति विनेयजनानुग्रहाय लेशतो वक्ष्यते, तत्रेयं प्रस्थकदृष्टान्तभावना-कोऽपि पुरुषः
परशुमादाय वनं प्रति प्रचलितः, तं परशुसहायं गच्छन्तमवलोक्य अन्यः पृच्छति-क भवान् गच्छति , स नैगमन-IA यामिप्रायेण पाह-प्रस्थकस्यानयनाय गच्छामि, तदभिप्रायेण हि यत् प्रस्थकनिमित्तं काळं तदपि कारणे कार्योपचारात प्रस्थक इति व्यवड़ियते, तथा लोकव्यवहारदर्शनाद्,एवमुत्तरत्रापि यथायोगमुपचारभावना भावनीया, ततः कोऽपि तं पुरुष वृक्षं छिन्दानमुपलभ्य पृष्टवान-किं भवान् छिनत्ति,स पाह-प्रस्थक छिन नि, मार्गे चागच्छन् केनापि पृष्टो यथा-किमिदं त्वया स्कन्धे समारोपितमिति !, स पाह-प्रस्थकं, एवं वास्या वा काष्ठं तक्षन् उत्किरन् श्लक्ष्णीकुर्वन् पृष्टः सभेवमेव
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५८], विभा गाथा [२२५६], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- वदति यथा प्रस्थक तक्ष्णोमि प्रस्थकमुत्किरामि प्रस्थकं श्लक्ष्णीकरोमि, एवं तावद् द्रष्टव्यं यावन्नामाक्तिः प्रस्थको है।
नवद्वारे श्यक मल- भवति, तदेवं नैगमनयाभिप्रायेण यो नामाङ्कितः प्रस्थको यावच्च यदपि प्रस्थकनिमित्तं काष्ठं तत् सर्व प्रस्थकः, तब प्रस्थकया वृत्तीनामाङ्कितं प्रस्थकं वदन् विशुद्धो नैगम उच्यते, शेषस्त्वविशुद्धः, एवमेव व्यवहारोऽपि द्रष्टव्यः, तस्यापि लोकसंव्यवहार
दृष्टान्तः उपोद्घातेदापरतया नैगमवद्वैचित्र्यात्, सङ्कहनयवादी पुनराह-यो धान्यपरिमाणाय धान्यभृतः प्रस्थको वर्तते स एव प्रस्थकशब्द
वाच्यो मानविशेषो, न शेषः, धान्यपरिमाणव्यापाररहितत्वात् , प्रस्थकशब्दो हि परिमाणविशेषकरणब्यापृतकाष्ठमयवस्तुवि-15 ॥३७८॥ शेषवाची. ततो यदैव धान्यपरिमाणकरणाय व्याप्रियते तदैव प्रस्थकशब्दवाच्यो, न शेषावस्थायामिति, उपचारस्वता-18
त्त्विक इति न वस्तुविचारणायां तदवसर, एष च सङ्ग्रहनयः सामान्यग्राही, ततो ये केचन जगति धान्यपरिमाणकरणाय व्या-1 प्रियन्ते प्रस्थकास्ते सर्वेऽपि प्रस्थकत्वादेक एव प्रस्थक इति प्रतिपन्नः, ऋजुसूत्रस्तु अतीतस्य विनष्टत्वादनागतस्य चालब्धात्मलाभत्वात् परकीयस्य चावस्तुत्वात् य एवात्मीयो वर्तमानकाले धान्यपरिमाणाय व्याप्रियेत स एव प्रस्थको, नातीनो नानागतः परकीयो वेति मन्यते, तथा यत्चेन प्रस्थकेन परिमितं धान्यं तदपि प्रस्थक इत्याह, प्रस्थकोऽयमिति लोके व्यवहारनयदर्शनात्, प्रयाणां तु शब्दनयानां मतमिदं-या प्रस्थकशब्दवाच्यार्थपरिज्ञानवान् स तत्त्वतःप्रस्थको नाम न काष्ठ-18 मयः, काऽत्र तेषां युक्तिरिति चेत् प्रस्थकादिकं हि नाम मानं,मानं च प्रमाण, प्रमाण च तदभिधीयते येन वस्तु परिच्छिद्यते,
॥३७८॥ प्रमीयते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति प्रमाणमिति व्युत्पत्तेः, परिच्छेदश्च ज्ञानधर्मः, ज्ञानं च जीवादनन्यत्, ततः स कथं । परिच्छेदो जीवं मुक्त्वाऽन्यत्राचेतने मूर्चे काष्ठमये प्रस्थके वर्चेत , प्रमाणयन्ति च-विवादास्पदीभूतं काष्ठमयं प्रस्थकादि।
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५८], वि० भा० गाथा [ २२५६ ], भाष्यं [ ९३७...], मूलं [- / गाथामुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
न प्रमाणं, किन्तु यदेव प्रस्थकादिज्ञानं तदेव प्रमाणं तेनैवाधिकृतवस्तुपरिच्छेदात् तथा चात्र प्रयोगः-प्रत्थकज्ञानं प्रमाणं वस्तुपरिच्छेदकत्वात्, यद् यद्वस्तुपरिच्छेदकं तत्तत् प्रमाणं यथा केवलज्ञानं वस्तुपरिच्छेदकं च प्रस्थकज्ञानमिति, उक्तञ्च - " नाणं पमाणमिद्धं नाणसहावो स जीवतो णनो । किह पत्थयाइभावं वएज मुत्ताइरूवं सो ? ॥ १ ॥ न हि पत्थाइ पमाणं घडोव भुवि चेयणाए विरहातो । केवलमिव तन्नाणं पमाणमिठ्ठे परिच्छेया ॥२॥ अथ मन्येत - काष्ठघटितप्रस्था. दयोऽपि यथोक्तपरिच्छेदहेतुत्वात् प्रमाणमिति व्यवहियन्ते, तदयुक्तं, परिच्छेदहेतुत्वायोगात्, तद्धि तस्य हेतुरिति वक्तुं शक्यं यद्भावेऽवश्यं भवति यदभावे च यन्न भवति, अथवा प्रतिनियत कार्यकारणव्यवस्थानुपपत्तेः न च काष्ठघटितप्रस्थकादिभावेऽवश्यं परिच्छेदबुद्धिभावः, नालिकेरद्वीपायातस्य प्रस्थकादिदर्शनेऽपि तद्बुद्ध्यसम्भवात् नापि प्रस्थकाद्यभावे तदुद्ध्यभावः कस्यापि कलनशक्तिसम्पन्नस्यातिशयज्ञानिनो वा प्रस्थकाद्यभावेऽपि धान्यराशेरवलोकनमात्रेण प्रस्थकपरिमाणोऽयं राशिः कुडवपरिमाणो वेत्यादिबुद्धिदर्शनात्, ततोऽन्वयव्यतिरेकासम्भवान्न काष्ठघटितः प्रस्थकादिः परिच्छेदहेतुः, यद्यपि च कथथित् क्षयोपशमहेतुतया कदाचनापि निमित्तमात्रं भवति तथापि नैतावता तत्कारणत्वव्यपदेशः, अतिप्रसङ्गात् किञ्च परिच्छेदकारणं, तथापि यदि तत्कारणतया ( कथंचित् प्रस्थादि ) (तत्) प्रमाणमिति व्यपदेशभाजनं ततः प्रमेयमपि प्रमाणं प्राप्नोति, तस्यापि प्रमाणरूपज्ञानकारणत्वात्, तथा यानि निमित्तकारणानि आकाशकालदिगादीनि यानि च दषिभक्षणादीनि परम्परकारणानि तानि सर्वाण्यपि प्रमाणानि प्रामुवन्ति, तत्कारणत्वाविशेषात् ततः सर्व प्रमाणं प्रसक्तमिति किमिदानीं प्रमाणं किमप्रमाणमिति प्रमाणाप्रमाणव्यवस्थाविठोपप्रसङ्गः, उक्तं च--" पत्थादओऽचि
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५८], विभागाथा [२२४५,२२४६], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- तकारणात माण
तक्कारणंति माणं मई, न संतेमुं । जमसंतेसुवि बुद्धी कासइ संतेसुवि न बुद्धी १॥ तकारणं तु वा जइ पमाणमिट्ठनयविचारे श्यक मल-दातओ पमेयपि । सपं पमाणमेवं किमप्पमाणं पमाणं वा ॥२॥" (बि. २२४५-६) ततः प्रस्थकपरिज्ञानमेव वयाणामपि प्रस्थकवसया वृत्ताशब्दनयानां प्रमाणं, न प्रस्थक इति, एष प्रस्थकदृष्टान्तः।
तिदृष्टान्ती उपोद्घाते
| सम्प्रति वसतिदृष्टान्तभावना क्रियते-कोऽपि देवदत्तादिको भरुकच्छादौ वसन् केनापि पप्रच्छे-क! भवान् वसति !,INI
नंगमनयाभिप्रायेणाह-लोके वसामि, चतुर्दशरज्वात्मकलोकादनान्तरत्वादरुकच्छादेनिवासक्षेत्रस्येति भावः, दृश्यते || ॥३७९॥ काचविधो लोकेऽपि व्यवहारस्ततो न कश्चिद्दोषः, भूयोऽपि प्रच्छक आह-ननु लोकस्विविधो भवति, अलोकोऽधो
हालोकस्तिर्यग्लोकश्च, तत्र व भवान् वसति ?, स प्राह-तिर्यग्लोके, तिर्यग्लोकोऽपि जम्बूद्वीपादिस्वयम्भूरमणपर्यवसानोऽदिनकद्वीपसमुद्ररूपस्तत्र क भवान् घसति ?, स पाह-जम्बूद्वीपे, जम्बूद्वीपेऽपि भरतैरावतहैमवतहिरण्यवतहरिवर्परम्य-18
कदेवकुरूत्तर कुरुपूर्व विदेहापरविदेहरूपाणि दश क्षेत्राणि, तत्र दशसु क्षेत्रेषु मध्ये क्व भवान् वसति ?, स ब्रूते-भरतक्षेत्रे, भरतक्षेत्रमपि द्विधा-दक्षिणभरतमुत्तरभरतंच, तत्र क भवान् वर्चते, स प्राह-दक्षिणभरते, दक्षिणभरतेऽप्यनेकग्रामाकरनग-101 रखेटकवटादिरूपाः सन्निवेशाः, ततः क्व भवान् वसति !, स आह-देवदत्तस्य गृहे, तत्राप्यनेकाम्यपवरकादीनि ६
स्थानानि, तत्र व भवान् वसति , स आहार्भगृहे, तत्रापि संस्तारके बसामि, तदेवं नैगमनयाभिप्रायेण लोकादाधारभ्य यावत्संस्तारकस्तत्र सर्वत्रापि वसामीत्यभिप्रायः, एवमेव व्यवहारस्यापि, तस्य लोकसंव्यवहारपरत्वात् ,
सङ्घहनयमतेन तु यत्रैव संस्तारकेंऽवतिष्ठते तत्रैव वसामीति प्रत्ययो, नाम्यत्र, अन्यत्र वसनक्रियाया अभावात्, यश्च
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५८], विभागाथा [२२४१,२२४२], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
संस्तारके वसनक्रियोपेतः स सर्वोऽप्येक एव, एकबुद्धिग्राह्यत्वात्, ऋजुसूत्रनयमतेन तु येष्वाकाशप्रदेशेष्वषगाढस्तेम्वेव वसति, न संस्तारके, संस्तारकानुगताकाशंप्रदेशानां तदणुभिरेव व्याप्तत्वात् , एवं ऋजुसूत्रेणोक्के त्रिविधोऽपि शब्दनय प्राह-ननु वसनं नाम वर्तनमुच्यते, तथा च देवदत्तो गृहे वसतीति, किमुक्कं भवति ?-देवदत्तो गृहे वर्त्तते, तच्च वर्तनं सर्वस्यापि बस्तुनः स्वस्वरूप एव, नान्यत्र, तथा प्रत्यक्षत उपलभ्यमानत्वात् , तथाहि यत् घटगतं स्वरूपं तत्
घट एव वर्तते, नान्यत्र भूतले पटादो वेति प्रसिद्धमेतत् तत् देवदत्तादिलक्षणं वस्तु स्वस्वरूपमपहाय कथमन्यत्र * विलक्षणस्वरूपे वस्तुनि आकाशलक्षणे वर्तितुमुत्सहते ?, तथा चात्र प्रयोगः-यद्वस्तुसत् तत्सर्वमात्मस्वरूपे वर्त्तते, यथा ४
चेतना जीवे, बस्तुसच देवदत्तादिकमिति तदपि स्वस्वरूप एव वर्चते, नान्यत्रेति, अथवाऽयं व्यतिरेकमुखेन प्रयोगःविवादास्पदीभूतो देवदत्तो नाकाशप्रदेशेववतिष्ठते, ततो विलक्षणत्वात् , यत् यतो विलक्षणं न तत्तत्र वर्तते, यथा छाया आतपे, विलक्षणाश्चाचेतनत्वेन देवदत्तादाकाशप्रदेशा इति नासौ (तत्र) वचते, उक्तं च-"आगासे वसइत्तिय भणिए भण्णइ किहानमन्नंमि । मोचूणायसभावं वसिज्ज वत्थु विहम्मंमि? ॥ १॥ वत्थु वसइ सहावे सत्ताओ चेयणा व जी
वमि । न विलक्षणतणाओ भिन्ने छायाऽऽतचे चेव ॥२॥" (वि. २२४१-२) एष वसतिदृष्टान्तः। * सम्प्रति प्रदेशहटान्तभावना, तत्र प्रकृष्टो देशः प्रदेश: स एव दृष्टान्तः प्रदेशदृष्टान्तः, स चायम्-गमो बदति
पपणा जगति प्रदेशाः, तद्यथा-धर्मास्तिकायप्रदेशोऽधर्मास्तिकायप्रदेश आकाशास्तिकायप्रदेशो जीवप्रदेशः स्कन्धप्रदेशः स्कन्धगतैकदेशप्रदेशश्च, सर्वत्र च षष्ठीतत्पुरुषः समासः, यथा धर्मास्तिकायस्य प्रदेशो धोस्तिकायप्रदेशः, एवं
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७५८], वि०भा०गाथा [२२४१,२२४२], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-18 सर्वत्रापि, स च धर्मास्तिकायप्रदेशादिः सामान्यविवक्षया एको विशेषविवक्षया त्वनेक इति, एवं वदन्तं नैगम साहो नियविचारे श्यक मलद वदति-यद् पे-पण्णां प्रदेश इत्यादि, तन्न भवति, यस्मात् यः स्कन्धगतैकदेशप्रदेशः स तस्यैव स्कन्धस्य प्रदेशः, प्रदेश पापादेशस्कन्धाव्यतिरिक्तत्वात् , तथा च लोकेऽपि वकारो-दासेन मे खरा क्रीतो दासोऽपि मे खरोऽपि मे, एवं य.
खाष्टिान्तः मोनस्कन्धस्य सम्बन्धिनो देशस्य प्रदेशः स तस्यैव स्कन्धस्य, ततो मैवं वादीः यदुत-षण्णां प्रदेश इत्यादि, किम्वेवं वदः
यथा-पश्चानां प्रदेशः, धर्मास्तिकायप्रदेशः अधर्मास्तिकायप्रदेशः आकाशास्तिकायप्रदेशो जीवप्रदेशः स्कन्धप्रदेश इति, ॥३८॥ अत्र च धर्मास्तिकायाद्यनुगतः धर्मास्तिकायप्रदेशः स सर्वोऽप्येक एव द्रष्टव्यः, सामान्यविवक्षणात् , एष च सहोऽवि
४ाशुद्धःप्रतिपत्तच्यः, अपरसामान्याभ्युपगमात्, एवममिदधानं सङ्घहं प्रति व्यवहारोऽभिधत्ते-यद्वदति भवान् -पञ्चानां प्रदेश इत्यादि, तदनुपपन, कथमिति चेत्, उच्यते, शब्दार्थाघटनात्, तथाहि-यदि यथा पथाना गोष्ठिकानां किश्चि- साधारणं हिरण्यादि वर्त्तते तथा यदि पञ्चानां धर्मास्तिकायादीनां साधारण प्रदेशो भवेत् तत एवं वचनप्रवृत्तिरुपपद्यते-पञ्चानां प्रदेश इति, नान्यथा, न चैतदस्ति, तस्मादेवं वक्तव्यं-पञ्चविधः प्रदेशः, तद्यथा-धर्मास्तिकायप्रदेशो यावत् स्कन्धप्रदेश इति, एवमुक्के व्यवहारेण ऋजुसूत्रो वदति-यज्ञापते भवान्-पञ्चविधः प्रदेश इत्यादि, तदसम्यक्, तत्रापि शब्दार्थे विचार्यमाणेऽतिप्रसङ्गदोषापत्तेः, तथाहि-पञ्चविधः प्रदेश इत्युक्ते शब्दार्थपर्यालोचनायां यो|
यः प्रदेशः स स पञ्चविध इति प्राप्तम् , एवं च सत्येकैका प्रदेशः पञ्चविध इति पञ्चविंशतिविधः प्रदेशः प्रसक्तः, न । चैतदस्ति, तस्मादेवमत्र वक्तव्यं भाज्यः प्रदेशः, तद्यथा-स्थाद्धर्मास्तिकायप्रदेशः स्यादधर्मास्तिकायप्रदेशः स्यादाकाशा
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५८], विभागाथा [२२४१,२२४२], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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|स्तिकायप्रदेशः स्याज्जीवप्रदेशः स्यात् स्कन्धप्रदेशः, एवमाचक्षाणमृजुसूत्र शब्दनयः प्रत्याचष्टे-यदसि-भाज्यः प्रदेश दाइत्यादि, तन भवति, कथम् ?, उच्यते-यदि भाज्यः प्रदेश इति संमतं ततः स्यात्पदलाञ्छने प्रतिनियतधर्मास्तिकाया-16
धनुगतप्रदेशस्वरूपावधारणासम्भवात् धर्मास्तिकायप्रदेशोऽपि स्यादधर्मास्ति कायप्रदेशः अधर्मास्तिकायप्रदेशोऽपि
स्याद्धर्मास्तिकायप्रदेश इत्यादि, तत एवं वक्तव्यं-धर्मास्तिकायः प्रदेशः प्रदेशो धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः प्रदेशः दिप्रदेशोऽधर्मास्तिकाय इत्यादि, एवं हि पदतः शब्दनयस्यायमभिप्रायः-य एव धर्मास्तिकायादिरूपो देशी स एव देशः
प्रदेशो वा, तस्य तदव्यतिरिक्तत्वात् , न खलु देशिनो भिन्नो देशः प्रदेशो वा भवितुमर्हति, भेदे सति तस्यासौ देशः।
प्रदेशो वेति सम्वन्धानुपपचेः, नहि घटः पटस्येति सचेतसा वक्तुं शक्यं, सम्बन्धश्चेत्तर्हि सम्बन्धस्यान्यथानुपपद्यमानदत्वाद्देशः प्रदेशो वा देशिनः सकाशादभिन्नःप्रतिपत्तव्यः, तथा च सति य एव देशी स एव देशः प्रदेशश्चेति सिद्धं सामानाप्राधिकरण्य, एतदेव च सामानाधिकरण्यं समभिरूढोऽपिमन्यते, एवंभूतस्तु माह-न वस्तुनो देशः प्रदेशो वा, युक्त्ययोगात्, ४ तथाहि-देशः प्रदेशोवादेशिनो भिन्नो वाऽभिन्नोवा?, गत्यन्तराभावात् , यदि भेदस्तस्येति सम्बन्धानुपपत्तिः, अथाभेदस्ततो
देशः प्रदेशोवा देश्येव, तदव्यतिरिक्तत्वात् , तत्स्वरूपवत्, तथा च सति यो देशप्रदेशशब्दौ तौ परमार्थतो धर्मास्तिकायादि
देशप्रतिपादको, ततो यथा पर्यायशब्दत्वादेककालमेकस्मिन् वस्तुनि घटकुटशब्दौ नोच्चार्येते, एकेनापि शब्देन तदर्थस्य हा प्रतिपादने द्वितीयशब्दप्रयोगस्य नैरर्थक्यात्, एवमिहापि धर्मास्तिकायादिरूपे वस्तुनि धर्मास्तिकायादिशब्दो देशप्रदेशादादिशब्दश्च नैककालं उच्चारणमर्हतः, द्वयोरप्येकार्थतायामेकेन तदर्थस्याभिधानतोऽपरशब्दप्रयोगस्य वैयर्थ्यात्, तथा च
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आगम
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७५८], विभा गाथा [२२५२], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
श्रीआव- सति धर्मास्तिकायप्रदेशोऽधर्मास्तिकायप्रदेश इत्यादि वचनजातं सर्वमनुपपन्नं, देशभदेशशब्दयोः परमार्थतो धर्मास्तिकाया- नयविचारे श्यक मल-दिरूपदेशिवाचकतया पौनरुक्त्यदोषानुषङ्गात्। योऽपि च नोशब्द एकदेशवचनः सोऽप्येतन्मतेन सर्वथाऽनुपपन्नः, तत्राप्यु- देशदृष्टाय. वृत्ती तदोपानतिक्रमात्, तथाहि-नोशब्दः सम्पूर्ण वस्त्वभिदध्यात् वस्त्वेकदेशं वा?, यदि सम्पूर्ण ततस्तस्य प्रयोगो निरर्थको,ट्रान्तः तोशउपोजानाधर्मास्तिकायादिपदेनैव तस्याभिधानात् , अथ वस्त्वेकदेशमिति पक्षः सोऽप्यसमीचीनो, वस्तुनो देशाभावात, नहि वस्तुनो ब्दाश्च
भिन्नो देश उपपद्यते, तस्येति सम्बन्धाभावात् , अभेदे तु देश्येव न देश इत्युपपादितमेतत् , उकं च-"नोसद्दो सम्मत्तं ॥३८॥ देसं व वएज जइ समत्तं तो । तस्स पयोगे णत्यो अह देसो तो न सो वत्थु ॥१॥” (वि.२२५९) अत्र 'न सो वत्थुति
न स देशो वस्तु, भेदपक्षे अभेदपक्षे वा तस्यासम्भवादिति, येऽपि च नीलोत्पलादयः शब्दा लोकप्रसिद्धास्तेऽप्येतन्मतेन विचार्यमाणाः सर्वथाऽनुपपन्नाः, तथाहि-तन्मतेन सर्व वस्तु प्रत्येकमखण्डरूपं, न तस्य गुणाः पर्याया वा देशाः प्रदेशा| वा सर्वथा कथचिद्वा वस्त्वन्तररूपा वर्तन्ते, ततो नीलशब्देनापि तदेव वस्त्वखण्डमभिधीयते, उत्पलशब्देनापि तदेवेति, नीलोत्पलशब्दयोरन्यतरशब्देन तदर्थस्याभिधानात् द्वितीयशब्दप्रयोगो व्यथें इत्ययुक्का नीलोत्पलादयः शब्दाः, कृता प्रदेशदृष्टान्तभावनापि ।
तदेवमुक्ता नयाः, एतेषां च नयानामाद्याश्चत्वारो नया अर्थनयाः, मुख्यवृत्त्या जीवावर्धसमाश्रयणात् , शेषास्तु त्रयः शब्दादयो नयाः शब्दनयाः, शक्दत एवार्थभेदोपगमात् , उक्त च-"चत्वारोऽर्थनया ह्येते, जीवाद्यर्थविनिश्चयात् । त्रयः शब्दनयाः सत्यपदविद्यां समाश्रिताः ॥ १॥” अत्र 'सत्यपदविद्या समाश्निता' इति सत्यानि-अविपरीतानि, शब्दा
AGARIKAASARAMESSASSASS
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७५९], वि०भा०गाथा [२२५२] भाष्यं [१३७.] मूलं [- / गाथा-] नदीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
| नुशासनोपदर्शितयथोक्त लक्षणोपेतानि इति भावः तानि च तानि पदानि च सत्यपदानि तेषां विद्या-परिज्ञानं कालकारकादिभेदतोऽवगमस्तां समाश्रिताः, तद्वशादर्थमेदमभ्युपगतवन्त इत्यर्थः । सम्प्रति एतेषामेव नवानां प्रभेदसङ्ख्याप्रदर्शनार्थमाह
एकेको अ सपविहो सत्त नयसया हवंति एवं तु । अन्नोऽवि अ आएसो पंच सया हुंति उ नयाणं ॥ ७५९ ॥ नया - मूलभेदापेक्षया यथोक्तरूपा नैगमादयः सप्त, एकैकश्च प्रभेदतः शतविधः - शतभेदः, ततः सर्वप्रभेदगणनया सप्त नयशतानि भवन्ति, अपिशब्दात् पट् चत्वारि द्वे वा शते, तत्र षट् शतान्येवम्-नैगमः सामान्यग्राही सङ्घद्दे प्रविष्टो, विशेपग्राही व्यवहारे, उक्तं च- "जो सामन्नग्गाही स नेगमो संगहं गतो अहवा । इयरो ववहारमितो जो तेण समाणनि| देखो ॥ १ ॥” (वि. १९) तत् षडेव मूलनयाः, एकैकश्च प्रभेदतः शतभेद इति षट् शतानि, अपरादेशः सग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा इति चत्वार एवं मूलनया, एकैकश्च शतविध इति चत्वारि शतानि, शतद्वयं तु नैगमादीनामृजुसूत्रपर्यन्तानां द्रव्यास्तिकत्वात् शब्दादीनां तु पर्यायास्तिकत्वात् तयोश्च प्रत्येकं शतभेदत्वात्, अथवा यावन्तो वचनपथास्तावन्तो नया इत्यसङ्ख्याताः प्रतिपसन्याः ।
एएहिं दिट्टिवाए परूवणा सुत्तअत्थकहणा य । इह पुण अणन्भुवगमो अहिगारो तीहिं ओसन्नं ॥ १६० ॥ एतैः - नैगमादिभिर्नयैः सप्रभेदैर्दृष्टिवादे सर्ववस्तूनां प्ररूपणा, क्रियते इति वाक्यशेषः, सूत्रार्थकथना च, आह-वस्तूनां सूत्रार्थानविलङ्घनात् समुच्चयोऽनर्थक इति, न तत्सूत्रोपनिबद्धस्यैव सूत्रार्थत्वेन विवक्षणात्, तद्व्यतिरेकेणापि च
••• अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || १६० || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा -क्रम || ७६० || एव वर्तते
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आगम
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७६१], विभा गाथा [२२७६], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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II श्रीआर- वस्तुसम्भवात् , इह पुनः कालिक श्रुतेऽनभ्युपगमः, नावश्यं नयाख्या कार्येति भावः, यदि च श्रोत्रपेक्षया नयविचारः४ श्यक मल- कर्तव्यः तदा त्रिभिराद्यैः-नैगमसङ्ग्रहव्यहाररूपैरुत्सन्नं-प्रायेणात्राधिकारः, किमिति त्रिभिरेवाद्यनयरिहाधिकारो, न शेरैः!, य. वृत्ती उच्यते, प्रायस्त्रिभिरेवाद्यनयैर्लोकव्यवहारपरिसमाप्तेः, अथ यदि कालिक श्रुते नयानामनभ्युपगमः ततस्विभिराद्यः उपोद्घाते || किमर्थ श्रोत्रपक्षयाऽप्यधिकारः, उच्यते, परिकर्मणाथै, कालिकश्रुते हि त्रिभिराद्यैर्नयैः परिकम्मितः सन् दृष्टिवादयोग्यो ॥३८२॥
दभवति, नान्यथेति, उक्तं च-"पायं संववहारो ववहारतेहि तिहिं उजं लोए । तेण परिकम्मणत्वं कालियसुत्ते तदधि
गारो॥१॥"(वि. २२७६) ननु परिकर्मणाऽपि नयैस्तत्र भवति यत्र नयानामवकाशः, कालिकश्रुते चानभ्युपग-1 मानयानामनवकाश इति कथं तत्राद्यैखिभिः परिकर्मणा भवति !, तत आह
नस्थि नएहि विहूणं सुत्तं अत्थो व जिणमए किंचि । आसज्ज उ सोआरं नए नयविसारओ घूया ॥१६१॥ | जिनमते-सर्वज्ञमते न किञ्चिदपि सूत्रमर्थो वा नयैविहीनमस्ति ततः कालिकश्रुतेऽपि नयानामवकाश इति परिकर्मदणाथै नयपरिग्रहः, अशेषनयप्रतिपेधस्त्वाचार्यविनेयानां विशिष्टबुद्ध्यभावापेक्षः, विमलमतिश्रोतारं पुनरासाद्य नयविशापारदः सूरिः समस्तानपि नयान ब्रूयात्, यदि पुनः त्रिनययोग्योऽपि न भवति ततः परिकर्मणार्थ द्वौ नयी वदेत्, तयोकारप्यशकावेकं नयं, मन्दतमप्रज्ञे तु सूत्रार्थमात्रम्, उक्तं च-"भासेज वित्थरेंणवि नयमयपरिणामणासमत्थम्मि ।
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... अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || १६१ || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा-क्रम || ७६१ || एव वर्तते ।
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७६२ ],
वि०भा०गाथा [२२७६], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
***
तदसत्ते परिकम्मणमेगनएणंपि वा कुजा ॥ १ ॥ " (वि. २२७८) इत्यादि, उकं नयद्वारम् इदानीं समवतारद्वारं वक्तव्यं, तत्र व तेषां नयानामनवतारः क्व वा समवतार इति प्रतिपादनार्थमाह
मूढनइअं सुअं कालिअं तु न नया समोअरंति इहं । अपुहुत्ति समोआरो नत्थि पुहुत्ते समोआरो ॥१३२॥ मूढा अविभागस्था नया यस्मिन् तत् मूढनयं तदेव मूढनयिक, प्राकृतत्वात् स्वार्थे इकप्रत्ययः, अथवा मूढाश्च ते नयाश्च मूढनयास्ते अस्मिन् विद्यन्ते इति मूढनयिक, 'अतोऽनेकस्वरा' दितीकप्रत्ययः, किन्तदित्याह - श्रुतं, काले| प्रथमचरमपौरुषी लक्षणे कालग्रहणपूर्वकं पठ्यते इति कालिकं, 'वर्षाकालेभ्य' इति भावार्थे इकण्प्रत्ययः, तत्र न नयाः समवितरन्ति, न प्रतिपदं भण्यन्ते इति भावः कदा पुनरमीषां तर्हि समवतारोऽभूत् ? कदा च नावतार इत्याह- 'अपुहुत्ते समोयारों' इत्यादि, अपृथक्त्वं चरणकरणानुयोगगणितानुयोगधर्म्म कथानुयोगद्रव्यानुयोगानामेकभावः, किमुक्तं भवति?यदैते चत्वारोऽपि चरणकरणानुयोगप्रभृतयोऽनुयोगाः प्रतिसूत्रमुपन्यस्यन्ते एषोऽपृथग्भावः, तत्र नयानां समवतारो - विस्तरेण विरोधाविरोधसम्भव विशेषादिना प्ररूपणं, 'नस्थि पुहुत्ते समोयारो' इति पृथक्त्वं चरणकरणधर्म्मसङ्ख्याद्रव्यानुयोगानां ग्रंथप्रविभागेन वर्त्तनं, किमुक्कं भवति ? -यदैकैकस्यैवानुयोगस्य ग्रन्थविभागेन प्रवर्त्तनम् एतत् पृथक्त्वमिति, तस्मिन् नास्ति नयानां समवतारः, भवेद्वा पुरुषविशेषापेक्षः, इयमत्र भावना - यावदपृथक्त्वमासीत् तावन्नयानामभूत्
१ भाष्यकाराणां श्रीहरिभद्रसूरीणां चाभिप्रायेण नयविशारद एवाधुना श्रीन् नयान् ब्रूयात्, प्रकरणानुगतञ्च स एवार्थः, मूढनयिकत्वाभावप्रसङ्गोऽन्यथा तदापि सर्वेषां सम्पूर्ण नयावतारस्यैव योग्यवेति न नियमः
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•••• अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || १६२ || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा -क्रम || ७६२ || एव वर्तते
अनुयोगानां चत्वारः भेदानां स्वरुपम् प्रदर्शयते
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७६३-७६४], विभा गाथा [२२८१-२२८३], भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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181 श्रीआव- समवतारः, पृथक्त्वे तु जाते समवताराभाव इति, उकं च-"अपुहुत्तमेगभावो सुत्ते सुत्ते सवित्थरं जत्थ । भन्नंतऽणुओगा अनुयोगपृश्यक मल- चरणधम्मसंखाणदवाणं ॥१॥ तत्थेव नयाणपिहु पइवत्थु वित्थरेण सवेसिं । देसंति समोयारं गुरवो भयणा पुहुत्तमि थत्ता य. वृत्ती ॥२॥ एगोच्चिय देसिज्जइ जत्थऽणुजोगो न सेसया तिन्नि । संतावि तं पुहुत्तं तत्थ नया पुरिसमासज्ज ॥३॥” (वि.131 पृथक्त्वे उपोद्घाते|२२८१-३) आह-कियन्तं कालमपृथक्त्वमासीत् ? कुतो वा समारभ्य पृथक्त्वं जातमित्यत आह
जावंत अजवइरा अपुहुत्तं कालिआणुओगस्स । तेणारेण पुहुत्तं कालिअसुइ दिहिवाए अ॥१६३॥ ॥३८॥
यावदार्यवज्रा-आर्यवनस्वामिनो गुरवो महामतयस्तावत् कालिकानुयोगस्य-कालिकश्रुतच्याख्यानस्यापृथक्त्वं-प्रतिसूत्रं चरणकरणानुयोगादीनामविभागेन वर्तनमासीत्, तदा साधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात्, कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा सर्वानुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् , तत आरभ्य, आर्यरक्षितेभ्यः समारभ्येत्यर्थः, कालिकश्रुते दृष्टिवादे चानुयो-11 गानां पृथक्वं-ग्रन्थविभागेन विभागोऽभवदिति ॥ अथ क एते आर्यवजा इति स्तवद्वारेण तेषामुत्पत्तिममिधित्सुराह-18
तुंबवणसंनियेसाउ निग्गयं पिउसगासमल्लीणं । छम्मासिअं छसु जयं माऊइ समनि वंदे ॥ ७६४॥ तुम्बवनसन्निवेशात् निर्गतं पितृसकाशमालीनं षण्मासिकं षट्र जीवनिकायेषु यतं-प्रयनयन्तं मात्रा च समन्वितं वन्दे । एष गाधासमुदायार्थः, अवयवार्थस्तु कथानकादवसेयः,-वइरसामी पुषभवे सकस्स देवरण्णो वेसमणस्स सामाणिओ५॥३८३॥
आसि, इतो य भयवं वद्धमाणसामी पिट्ठचंपाए नयरीए सुभूमिभागे उजाणे समोसढो, तत्थ य सालो राया महासालो हैं 18 जुवराया, तेसिं भगिणी जसमई, तीसे भत्ता पिटरो, पुत्तो य से गागली नाम कुमारो, ततो सालो भयवतो समीचे!
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अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || १६३ || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा-क्रम || ७६३ || एव वर्तते ।
... अत्र वज़स्वामी, आर्यरक्षित आदीनां कथानक विस्तरेण आरभ्यते
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७६३-७६४], विभागाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सूत्राक
धम्म सोऊण भणइ-जं नवरं महासालं रज्जे अहिसिञ्चमि, तो तुझं पायमूले पपयामि, तेण गंतूण भणितो. महा-18 सालो-राया भवसु, अहं पञ्चयामि, सो भणइ-अहंपि पपयामि, जहा तुझे इह पमाण तहा पबइयस्सवि, ताहे गागली
कंपिल्लपुराओ आणे रजे अहिसित्तो, तरस माया जसमई कंपिल्लपुरे नयरे दिन्निया पिढरस्स रायपुत्तस्स, तेण ततो &सहाविमो, सो पुण तेसिं दो सीवियाभो कारेइ, जाव ते पवइया, सावि तेर्सि भगिणी समणोवासिया जाया, सेवि समणा15
संता एक्कारस अंगाई अहिजिआ, अन्नया भयवं रायगिहे समोसढो, ततो निग्गतो चंपं पहावितो, ताहे सालमहासाला सामि आपुच्छंति-अम्हे पिटाचं वच्चामो, जइ नाम कोइ तेसिं पबएज्जा सम्मत्तं वा उभेजा, सामी जाणइ-जहा ताणि संबुझिहिंति, ताहे तेसिं सामिणा गोयमसामी बिहजओ दिनो, सामी चंपं गतो, गोयमसामीवि पिढचंपं गओ, तत्थ समोसरणं, गागली पिठरो जसवई य निग्गयाणि, भगवं धर्म कहेइ, ताणि धम्म सोऊण परमसंविग्गाणि जायाणि, गागली नियपुत्तं रजे अहिसिंचिऊण मायापिइसहितो पवइओ, गोयमसामी ताणि घेतूण चंपं वच्चइ, तेर्सि सालमहासालाण पंधं वच्चंताणं हरिसो जातो, जहा संसाराओ एयाणि उत्तारियाणि, एवं तेर्सि पवहमाणेण सुभेणं अज्झवसाणेणं केवलनाणं समुप्पण्णं, इयरेसिपि चिंता जाया, जहा अम्हे एएहिं रजे ठवियाणि, पुणरवि धम्मे ठविऊणं संसारातो मोइयाणि, एवं चिंतेताणं सुभेणं अज्झवसाणेणं तिण्हवि केवलनाणमुप्पण्णं, एवमेयाणि उत्पन्ननाणाणि बार गयाणि, सामि पयाहिणं करेऊण तित्थं नमिऊण केवलिपरिसं धावियाणि, गोयमसामीवि भयवं बंदिऊण तिखुत्तो
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७६३-७६४], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सत्राक
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श्रीआव- पाएम पडिओ, उदिओ भणइ- कहिं वच्चह 1, एह तित्थगरं वंदह, ताहे सामी भणइ-गोयमा ! मा केवली आसाएहिदा वज्रस्वाश्यक मल- ताहे आउट्टो खामेइ, संवेगं च गतो, तस्थ गोयमसामिस्स संका जाया, माऽहं न सिझे जामित्ति ।
मिचरित य. वृत्ती
Pा इतो य अणागए गोयमसामिम्मि सामिणा पुर्व वागरियं, जहा-जो धरणिगोयरो अट्ठावयं विलग्गइ चेइयाणि य* उपोद्याते द्र
11वंदह सो तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, तं च देवा अण्णमण्णस्स कहिंति, तओ गोयमसामी तं देववयणं सुणिय पुत्र॥३८॥ माभोगिऊण चिंतेइ-अट्ठावयं वच्चामि, तस्स हिययाकूयं जाणिऊण तावसा संबुझिस्संति एयस्सवि धीरया भविस्सइत्ति
भणइ-बच्च गोयम ! अट्ठावयं चेइयवंदओ, ताहे भगवं गोयमो हद्वतुट्ठो सामि वंदित्ता गओ अहावयं, तत्थ य अट्ठावए जणवायं सोऊण तिनि तावसा पत्तेयं पंचसयपरिवारा अट्ठावयं विलग्गामीति तत्थ किलिस्संति, तंजहा-1 कोडिन्नो दिन्नो सेवालो, कोडिन्नो सपरिवारो चउत्थं चउत्थं काऊण पच्छा मूलकंदाणि आहारेइ सचित्ताणि, सो पढम मेहलं विलग्गो, दिन्नो छ8 छद्रं काऊण परिसडियपंडुपत्ताणि आहारेइ, सो बिइयं मेहलं बिलग्गो, सेवालो अङ्कमममं काऊण जो सेवालो सयमचित्तीभूओ समाहारेद, सो तइयं मेहलं विलग्गो, एवं ते ताव किलिस्संति, इओ ब भगवं गोयमसामी ओराठसरीरो हुयवहतडितरुणरविकिरणतेओ एइ, ते तं एजंतं पासिऊण भणंति-एस किर एत्थ थुल्लओ समणो विलग्गि-6॥ हिह जं अम्हे महातवस्सी सुक्का भुक्खा न तरामो विलम्गि, भयवं च गोयमो जंघाचारणलद्धीए लूयापुडगंपि निस्साए हुं छाउप्पयइ, ते उप्पयंत ते पलोयंति, एस आगतो एस असणं गतोत्ति, एवं ते तिन्निवि विम्हिया पसंसंति, अच्छंति य पलोएंता
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७६३-७६४], विभागाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
जइ जोयरइ तो एक्स्स वयं सीसा । सामीवि चेइयाई वैदित्ता उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे पुढविसिलापट्टए असोगवरपायवस्स अहे तरयणि वासाए उवगतो।
इतो य सकस्स लोगवालो वेसमणो अट्ठावए चेइयवंदओ आगतो, चेइयाणि वंदित्ता गोयमसामि वंदइ, तओ से 5 भगवं धम्मकहाऽवसरे अणगारगुणे परिकहेइ, जहा भयवंतो साहयो अंताहारा पंताहारा एवमाइ, वेसमणो चिंतेइ-1* एरिसे साहुगुणे वन्नेइ, अप्पणो य से इमा सुकुमारसरीरया जा देवाणवि नथि, तओ भयवं तस्साकूयं नाऊण पुंडरीयं नाम अज्झयणं परवेइ, जहा पुक्खलावइविजए पुंडरिगिणी नगरी, नलिणगुम्म उज्जाणं, तत्थ णं महापउमो नाम राया, पउमावई देवी, ताणं दो पुत्ता-पुंडरीए कंडरीए य, पुंडरीए जुवराया। तेणं कालेणं तेणं समएणं नलिणगुम्मे | उज्जाणे येरा समोसढा, महापउमो निग्गतो, धम्मो सुतो, परमसंविग्गो जातो, ततो पुंडरीयं रजे ठवेइ, कंडरीयं जुवरजे, ततो पुंडरीयरायमापुच्छित्ता महाविभूईए पवइए, चोइस पुवाई अहिज्जइ, विचित्तं तवोकर्म करेइ, एवं बहूई। वासाई सामण्णपरियागं परिपालिऊण मासियाए संलेहणाए सिद्धे । अण्णया ते घेरा पुषाणुपुबीए विहरमाणा पुंडरगिणीए नयरीए समोसढा, पुंडरीए राया कंडरीएण जुवरण्णा सद्धिं समागओ, पुंडरीओ सावगधर्म पडिवन्नो, कंडरीए जुवराया धम्म सोचा संसारभीओ जातो, ततो गिहमागए पुंडरीयं रायमापुच्छइ-तुब्मेहिं अन्भणुशाओ पचयामित्ति, तओ |पुंडरीए राया बहूहिं विसयाणुलोमाहिं विसयपडिकूलाहि य संजमउबेयकराहि य पण्णवणाहिं कंडरीयं पन्नवेइ, जहा नायधम्मकहासु जाव नो संचाएइ पण्णविड, ताहे अकामगे चेव निक्खमणमहिमं करेइ, कंडरीओऽवि पवइतो संतो सामा-18
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
श्यक मल
य० वृत्तौ उपोद्घाते ॥१८५॥
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७६३-७६४ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०],
वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृि
श्रीआत्र ★ इयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजइ, बहूहिं उत्थछट्टममाइएहिं तवोकम्मेहिं बिहरइ । अन्नया तस्स कंडरीयस्स अंतपंताहारेहिं दाहरोगो जातो, ते य थेरा भगवंतो विहरमाणा पुणोवि पुंडरगिणीए नयरीए नलिणवणे समोसढा, पुंडरीए राया आगए, धम्मं सोच्चा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, 'कंडरीयं चंदइ नमसइ, कंडरीयस्स सरीरं सरुयं सवावाहं पासइ, ततो थेरे भगवंते वंदिऊण एवं वयासी- अहन्नं भंते ! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवतेहिं तिगिच्छगेहिं फासुएसणिज्जेहिं ओसह सज्जभत्तपाणेहिं तिगिच्छं करेमि तुज्झे मम जाणसालासु समोसरह, ततो णं ते थेरा पुंडरीयस्स रण्णो एबम पडिसुति, जाणसालासु विहरति, पुंडरीए कंडरीयस्स तेगिच्छं करिंति, तते णं तं मणुन्नं आहारमाहारेंतस्स समाणस्स से रोगायंके खिप्पामेव उवसंते हडे जाए, तहावि मणुण्णंसि असणे पाणे खाइमे साइमे मुच्छिए णो संचाएइ बहिया अब्भुजयविहारेणं विहरित्तए, तए णं से पुंडरीए इमीसे कहाए उद्धट्टे समाणे जेणेव कंडरीए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता कंडरीयं तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता एवं क्यासी-धन्नोऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! सपुण्णोसि णं तुमं रज्जं रहूं अंतेवरं चत्ता पवइप, अहनं अधण्णे अकयपुण्णे अणेगजाइजरामरणसोगसारीरमाणसपकामदु क्खवेयणाव सणसयोवदेवाभिभूए रज्जे रहे अंतेउरे य मुच्छिए नो संचाएमि पबइडं, तए णं से कंडरीप पुंडरीएणं एवं वृत्ते समाणे तुसिणीए चिट्ठए, तए णं से पुंडरीए दोचंपि तचंपि वारं एवं पण्णवेइ, तओ अकामगे चैव लजाए पुंडरीयं रायमापुच्छित्ता येरेहिं सद्धिं विहरइ, येरेहिं किंचिकालं उग्गग्गेणं विहारेणं विहरमाणे समणत्तणनिविण्णे समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ निम्गं तूण पुंडरीगिणीए नयरीए पुंडरीयस्स रण्णो भवणे असोगवर पायवस्स हेडा पुढविसिलापट्टए उवागच्छ,
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श्रीवाते पुण्डरीककण्डरी
कौ
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७६३-७६४], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
तत्य ओहयमणसंकप्पे अच्छइ । तए ण पुंडरीयस्स घाती तत्थ आगच्छइ, सातं तहा पासिऊण पुंडरीयस्स साहइ, सेवि य णमंतेउरपरिदारसंपरिबुडे तत्थ आगच्छद २ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेत्ता एयं वयासी-धन्नोसिणं तुम देवाणु
प्पिया! इच्चाइ तं चेव जाव तच्छंपि भणिओ, तुसिणीए चिट्टइ, तओ पुंडरीओ भणइ-अट्ठो भंते ! भोगेहिं !, सो भणइहता ! अट्ठो, तते थे कोडुंबियपुरिसे सद्दावित्ता पायपंकेणेव रायाभिसेएण अभिसितो, पुंडरीओ सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं * करेत्ता चाउज्जामं धम्म पडिवज कंडरीयस्स आयारभंडं सबसुभसमुदयंपिव गेण्हइ, गिणिहत्ता इमं घोरमभिग्गहं पडि
वज्जइ-कप्पड़ मे थेराण अंतिए चाउजामं धर्म पडिवजित्ता पच्छा आहारित्तए, तो थेराभिमुहे निग्गए । कंडरीओवि दरसलोलुयाए पणीयं पाणभोयणं आहारेइ, तं च तस्स नो सम्मं परिणयं, उजला वेयणा पाउन्भूया, तओ से रजे रहे|
अंतेउरे य गाढमुच्छिए अकामए कालं किच्चा सत्तमपुढवीए तेत्तीससागरोवमठिइओ नेरइओ जाओ। पुंडरीएवि य णं हैं धेरे पप्प तेसिं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्म पडिवजह, तओ छहक्खमणपारणगे अंते पंते सीयले पाणभोषणे आहा-15 रिए, तेण य कालाइकंतसीयललुक्खअरसविरसेण अपरिणएण वेयणा दुरहियासा जाया, तओ णं सो अधारणिज्जामिदं | सरीरगतिकट्ठ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहताण भगवंताण जाव संपत्ताण,
नमोत्थु णं थैराण भयवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं, पुद्धिपि य णं मए थेराणं अंतिए सवे पाणाइवाते पच्चदाक्खाते जाव सखे परिग्गहे पच्चक्साते. इयाणिपि य णं तेसिं चेव भयवंताणं अंतिए सर्व अकरणिज्जं जोग पञ्चक्खामि,
जपि य इमं सरीरगं एयंपि चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरामि, एवं आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालं किच्चा सबह
RRRRRESTEREOSSAGARMERICA
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७६३-७६४ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीआव
श्यक मल ० वृत्त है
उपोद्घाते
॥३८६ ॥
सिद्धे तेत्तीससागरोवमाऊ देवो जाओ, तओ चइता महाविदेहे सिज्झिहि । तं मा तुमं दुबलत्तं वलियत्तं वा गेण्हाहि, जहा कंडरीओ तेणं दोम्बलेणं अदुहट्टो काउगओ सत्तमीए उवबन्नो, पुंडरीओ पुण पडिपुण्णगलकबोलो सवसिद्धे उवष्णो, एवं देवाणुप्पिया ! वलिओ दुब्बलो वा अकारणं, एत्थ झाणनिग्गहो कायवो, झाणे निग्गहो परमं पमाणं, तओ वेसमाणो अहो भगवया मम हिययाकूयं नायंति आउट्टो संवेगमावण्णो वंदित्ता पढिगओ, तत्थेव वेसमगस्स एगो सामाणिओ देवो, तेण तं पुंडरीयाझयणं ओगहियं पंच सयाणि, सम्मतं च पडिवनो, केई भांति सो जंभगो । ताहे | भयवं विइयदिवसे चेइयाणि वंदित्ता पञ्च्चोरुहइ, ते य तावसा भणंति-तुन्भे अम्हं आयरिया, अम्हे तुन्भं सीसा, सामी भणइ-तुम्ह य अम्ह य लोगगुरू आयरिया, ते भणंति-तुझवि अन्नो आयरिओ ?, ताहे सामी भयवओ गुणसंधवं करेइ, ते पधाविया, देवयाए लिंगाणि उचणीयाणि, ताहे ते भगवया सद्धिं वञ्चंति, भिक्खवेला य जाया, भयत्रं भणइकिं आणिजउ पारणगति १, ते भांति - पायसो, भयवं च सङ्घलद्धिसंपन्नो पडिग्गहं घयमहुसंजुत्तस्स भरित्ता आगओ, ताहे भणिया-परिवाडीए ठाह, ते ठिया, भयचं च अक्खीणमहाणसिओ, ते उद्घट्ठिया, पच्छा अप्पणा जिमिओ, तओ ते सुदुयरमाउट्टा, तेसिं च सेवालभक्खाणं पंचण्हवि सयाणं जेमंताणं गोयमसामिणो तं लद्धिं पासिऊण केवलनाणमुप्पण्णं, | दिन्नस्स पुण सपरिवारस्स भगवओ छत्ताइच्छत्तं पेच्छं रस, कोडिण्णस्स सपरिवारस्स सामिं दद्दूण केवलनाणं समुप्पण्णं, भयवं गोयमसामी पुरओ पकडमाणो सामिं पयाहिणीकरेइ, तेवि केवलिपरिसं पधाविया, गोयमेसामी भणइ एह सामि बंदह, सामी भणइ - गोयम ! मा केवली आसाएहि, गोयमसामी आउट्टो मिच्छामिदुक्कडं करेइ, तओ गोयमसामिस्स
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पञ्चदशश
त तापस
दीक्षा
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७६३-७६४], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सुट्ठयर अद्धिई जाया, ताहे सामी गोयम भणइ-किं देवाणं वयणं गेझं उयाहु जिणवराणं !, गोयमो भणइ-जिणव-19 राणं, कीस अधिई करेसि!, ताहे सामी चत्तारि कडे पनवेइ, तंजहा-सुंबकडे विदलकडे चम्मकडे कंवलकडे, एवं 8 सीसावि सुंबकडसमाणा जाव कंबळकडसमाणा, तुमं च मम गोयमा कंबलकडसमाणो, किंच-चिरसंसिद्धो सि मे गोयमा !, पण्णत्तीआलावगा भाणियबा, जाव अविसेसामणाणत्ता भविस्सामो, ताहे गोयमनिस्साए दुमपत्तं णाम अज्झयणं पन्नवेइ । देवोऽवि वेसमणो ततो चइत्ता अवन्तिजणवए तुंबवणसन्निवेसे धणगिरी नाम इन्भपुत्तो, सो य सद्धो पब- इउकामो, तस्स मायापियरो वारंति, पच्छा सो जत्थ जत्थ वरिजइ तत्थ तत्थ ताणि विप्परिणामेइ जहाऽहं पबइज-14
कामो, इओ य धणवालस्स इन्भस्स दुहिया सुनंदा नाम, सा भणइ-मम देह, सा तस्स दिन्ना, तीसे य भाया अजसदिमिओ पुर्व पबइओ सीहगिरिसगासे, तीसे य सुनंदाए कुच्छिसि सो देवो उबवन्नो, ताहे भणइ धगिरी-एस ते गम्भो
विडजओ होहिइत्ति सीहगिरिसगासे पबहो, इमोऽविनवण्हं मासाणं दारगो जातो, तत्थ महिलाहिं आगयाहिं भण्णइ-14
जइ से पिया न पधइतो होतो ता लर्ट होतं, सो सन्ची जाणइ-जहा मम पिया पचइतो, तस्सेवं अणुचिंतेमाणस्स जाइ-15 दसरणं समुप्पण्णं, ताहे रतिं दिवा य रोवइ, जेण सा निविजइ, ततो सुई पचइस्संति, एवं छम्मासा वच्चति । अण्णाया|
आयरिया समोसढा, वाहे अजसमिओ धणगिरी य आयरियमापुच्छंति, जहा सन्नायगाणि पेच्छामोत्ति संदिसाति, 13 सउणेण य वाहिय, आयरिएहि भणियं-महंतो लाभो, जं अज सचित्तं वा अचित्तं वा लभह तं सर्व लएह, ते गया,
उपसग्गिउमारद्धा, अण्णाहिं महिलाहिं भण्णाह-एयं से दारगं णीणेहि, तो कहिं नेहिम्ति , पच्छा ताए भणियं-मए एव
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७६३-७६४], विभागाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत
सत्राक
श्रीआय-पद इयं कालं संगोवितो, एत्ताहे तुमं संगोवेहि, ततो तेण भणियं-मा ते पच्छातायो भविस्सइ, ताहे सक्खीकाऊण गहितोश्रीवज्रवृत्त श्यक मल- छम्मासितो, ताहे तेण चोलपट्टेण पत्ताबंधिओ, न रोवइ, जाणइ सन्नी, ताहे तेसु उवस्सयं आगएम आयरिएहिं भाणं यः वृत्तीभारियति हत्थो पसारितो, दिन्नो, हत्थो भूमि पत्तो, भणंति- अजो! नजइ वइरंति, जाव मुकं, पेच्छंति देवकुमारोवम | उपोदयातदारगं, भणंति य-सारक्खह दारगं एयं, पवयणस्स आहारो एसोत्ति, तत्थ से पइरो चेव नामं कर्य, ताहे संजईण दिनो,
ताहिं सेज्जायरकुले,सेज्जायरगाणि जाहे अप्पणगाणं चेडरूवाणं पीहगंवा पहाणं वा मंडणगंवा करेंति ताहे सर्व तस्स करेंति, ॥३८७॥18 जाहे उच्चाराई आयरइ ताहे आगारं दंसेइ कुबेइवा, एवं संवड्डइ, फासुयपडोयारो तेसिं इट्ठो, साइवि बाहिं विहरंति, ताहे|
दासा सुनंदा पमग्गिया, तातो निक्खेवगोत्ति न देंति, सा आगया धणं देइ, एवं तिवरिसो जातो । अण्णया साह विह-H कारता आगया, तस्थ राउले वयहारो जातो, सो धणगिरी भणइ-मम एयाइ दिन, तो नगरं सुनंदाए- पक्खियं, ताए
बहूणि खेलगाणि गहियाणि, रन्नो पासे क्वहारे च्छेदो, तत्थ पुबहुत्तो राया दाहिणतो संघो सयणपरियणो वामपासे नरदवइस्स, तत्थ राया भणइ-मम के अप्पगा ? के परे , जतो चेडो जाइ तस्स भवतु, तेहिं पडिस्सुयं, को पढमं वाह
रउ, पुरिसोत्तमो धम्मोसि पुरिसो बाहरउ, ताहे नगरजणो आह-एएसिं परिचिओ, माया सदावउ, अविय-माया दुकरकारिया, पुणो य पेलवसत्ता, तम्हा एसा चेव वाहरउ, ताहे आसहत्थिरहउसमेहिं मणिकणगरयणचिचेहिं बालभा-13॥३८७॥ वलोभावगेहिं भणइ-एहि वयरसामी-1, ताहे पलोएंतो अच्छइ, चिंतेइ य-जइ संघ अवमन्नामि तो दाहसंसारिओ भवि-द सामि, अविय-एसावि पवइस्सति, एवं तिण्णि वारे सहावितो ण एइ, ताहे से पिया भणइ-जइ सि कयववसातो
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७६५], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सूत्राक
धम्मज्झयभूसियं इमं वइर! गेण्ह लहुं रयहरणं कम्मरयपमजणं धीर ॥१॥ ताहे तेण तुरियं गंतूण गहियं, लोगेण ह'जयइ धम्मो'त्ति उकिद्विसीहनादो कतो, ताहे सा माया चिंतेइ-मम पई भाया पुत्तो य पबइतो, अहंपि किं अच्छामि !, एवं सावि पवइया। जो गुज्झगेहिं पालो निमंतिओ भोयणेण वासंते। नेच्छह विणीयविणओ तं बहररिसिं नमसामि ॥ ७६५ ॥3 । यो बालः सन् गुह्यकर्देवैर्वपति सति, पर्जन्य इति गम्यते, भोजनेन निमन्त्रितो, नेच्छति विनीतविनयो, वर्तमाननिर्देशस्त्रिकालविषयं सूत्रमिति प्रदर्शनार्यः, पाठान्तरं वा 'नेच्छंसु विणयजुत्तों' इति, 'तं वइररिसिं नमसामि' तं वज्रऋषि नमस्यामि, एष गाथासमुदायार्थः, अवयवार्यः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-सो जाहे थणं न पियइ ताहे पवावितो, साहुणीण चेव पासे अच्छइ, तेण तासिं पासे एक्कारस अंगाणि कण्णाहेडेण गहियाणि, पयाणुसारी सो भयवं, ताहे अट्ठ-दू बरिसओ संजइपडिस्सयाओ निक्कालिओ, आयरियसगासे अच्छइ, आयरिया य उजेणिं गया, तत्थ अहोधार वासं|| पडइ, तया से पुत्रसंगइया जंभगा तेणंतेणं वोलेंता तं पेच्छंति, ताहे परिक्खानिमित्तमोइण्णा, वाणियगरूवेण बलद्देत्ता | उवक्खईति, सिद्धे निमंतंति, ताहे पद्वितो जाव कणगफुसियमस्थि ताहे पडिनियत्तइ, ताहे संठाइ, पुणो सद्दावेंति, ततो वइरो गंतूण भिक्खाए निणियाए उवउत्तो-दवतो पूसफलाइ खेत्ततो उज्जेणी कालओ पाउसो भावतो धरणिछिवण-IN नयणनिमेसाइरहिया पड्डा तुद्वा य, ताहे देवत्ति काऊण नेच्छा, देवा तुट्ठा भणति-तुमं दामागया, पच्छा -18 वियविजं देति,
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७६६], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-15 उलेणीए जो जंभगेहिं आणक्खिऊण धुअमहिओ । अक्खीणमहाणसि सीहगिरिपसंसियं वंदे ॥ ७६६॥ श्रीवज्रवृत्त इयक मल- उज्जयिन्यां यो जृम्भकर्देव विशेषः 'आणक्खिऊण'त्ति परीक्ष्य 'स्तुतमहितः स्तुतो वास्तवेन महितो विद्यादानेन, यः वृत्ती अक्षीणमहानसिकं सीहगिरिप्रशंसितं वंदे इति गाधाक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्छेदम्उपोद्घाते F पुणरवि अन्नया जेडमासे सण्णाभूमि गयं घयपुण्णेहिं निमंतंति, तत्थवि दवाइउवओगो, निच्छियं, तत्थ से नहगामिणी 8
विज्जा दिण्णा, एवं सो विहरइ । ताणि य पयाणुसारिगहियाणि एक्कारस अंगाणि संजयाणं मूले घिरतराणि जायाणि, ॥३८८॥ तत्थवि जो अज्झाइ रवरिलं पुवगयं तंपि सर्व गिण्हइ, एवं तेण बहुयं गहिय, जाहे वुच्चइ-पढाहि, ताहे सो एंत
हगंपि कुईतो अच्छइ अण्णं सुणतो, अन्नया आयरिया मज्झण्हे साहसु भिक्खं निग्गएसु सण्णाभूमि गया, वइरसामीवि
पडिस्सयवालो अच्छइ, सो तेसिं साहूणं वेंटियातो मंडलीए रइत्ता मज्झे अप्पणा ठाउं वायणं देइ, ताहे परिवाडीए
एक्कारसवि अंगाणि वाएड पुवगर्य च, ताव आयरिया आगया चिंतंति-लहुं साहू आगया, सुणइ सदं मेघोघरसिया दूबहिया सुणता अच्छति, नायं जहा वइरोत्ति, पच्छा ओसरिऊण पुणो सद्दपडियं निसीहियं करेंति, मा से संका भवि
स्सा. ताहे तेण तुरियं वेंटियाओ सहाणे ठवियातो, निग्गतृण दंडयं गेण्हा पाए य पमनाइ, ताहे आयरिया चिंतेंति-14 मा एवं साहू परिभविस्संति तो जाणावेमि, ताहे रत्तिं आयरिया साहू आपुच्छंति-जहा अमुगं गार्म बच्चामो, तत्था दो तिन्नि वा दिवसे अच्छिस्सामो, तत्व जोगपडिवनगा भणंति-अम्हं को वाणारिओ, आयरिया भणंति-वइरोत्ति, तेहिं विणीपहिं वहति पहिसुर्य, वायरिया गया, साइवोऽवि पडिलेहिचा कालनिवेयणादि वइरस्स करेंति, ततो सर्वमि है
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग - ३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७६६ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
करणिज्जे कए पच्छा से निसज्जा रइया, सोऽवि भयवं निविट्ठो, तेऽवि जहा आयरियस्स तहां विजयं पतंजंति, ताहे सो तेसिं करकरस्स सबेसिं अणुपरिवाडीए आलावगे देइ, जेऽवि मंदमेहाची तेऽवि सिग्धं पट्टविउमारद्धा, ततो ते विम्हिया, | जोवि एह आलावगोपुवट्टितो तंपि विष्णासणत्थं पुच्छंति, सोऽवि सवं आइक्खइ, तेऽवि तुट्टा भणंति-जइ आयरिया कइवयाणि दियहाणि अच्छेजा तो एस सुयक्खंधो लहुं समप्पेज्जा, जं आयरियसगासे चिरेण परिवाडीए गेण्हंति तं इमो एक्काए पोरिसीए सारेइ, सो य तेसिं बहुमतो जातो, आयरियावि जाणाविउत्ति काउं आगया, अवसेसं वरं अझाविज्जउत्ति, पुच्छति य आयरिया साहुणो-सरिओ सज्झाओ?, ते भांति - सरिओ, एस चेव अम्हाण वाणायरिओ भवतु, आयरिया भणति - होहिइ, मा तुम्मे एयं परिभविस्सहत्ति तुझं जाणावणनिमित्तमहं गतो, न पुण एस कप्पो, जतो एएण सुयं कण्णाहेडएण गहियं, अतो एयस्स उस्सारकप्पो करेयवो, तो सिग्धमुसारेंति, विइयपोरिसीए | अत्यं कहेति, तदुभयकप्पजोग्गत्तिकाकण, जे य अत्था आयरियस्सवि संकिया तेऽवि तेण उग्घाडिया, जावइयं दिट्ठिवायं जाणंति तत्तिओ गहिओ, ते विहरंता दसपुरं गया, उज्जेणीए भद्दगुत्ता नाम आयरिया घेरकप्पठिया, तेसिं दिट्टि - वाओ अस्थि, संघाडओ से दिनो, ताहे अइगतो भद्दगुत्ताणं पासे, भद्दगुत्ता य बेरा सुविणयं पासंति पाभाइयं, ततो प्रभाते साहूण साईंति, जहा मम पडिग्गहो खीरभरितो, सो आगंतूण सीहपोयएण पीतो लेहिओ य, तस्स किं फलं होज्जा १, ते अण्णमण्णाणि अयाणंता बागरेति, गुरू भणंति-न जाणह तुज्झे, मम पडिच्छओ एहिइ, सो सवं सुचं अत्यं च घेच्छिह, भयपि बाहिरियाए चुत्थो, पभाष आगतो, दिट्ठो, सुयपुत्रो एस. सो वइरो, बुड्डेहिं उवगूहिओ,
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आगम
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग - ३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७६७], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीव- ताहे तस्स सगासे दस पुवाणि परियाणि, तो अणुष्णानिमित्तं जहिं चैव उइट्ठो सहिं चेव अणुजाणियवोत्ति दसपुरमागया, श्यक मल- तत्थ अण्णा आरद्धा, नवरि देवेहिं अणुण्णा उवट्टविया, दिवाणि पुष्फाणि चुण्णाणि से उवणीयाणि । अमुमेवार्य य० वृत्तौ * चेतस्यारोप्य ग्रन्यकृदाहउपोद्घाते
॥ ३८९ ॥
जस्स अणुन्नाए वायगत्तणे दसपुरम्मि नयरम्मि । देवेहिं कया महिमा स्याणुसारिं नम॑सामि ॥ ७६७ ॥ यस्य समनुज्ञाते वाचकत्वे आचार्यत्वे दशपुरे नगरे देवजृम्भकैः कृता महिमा-पूजा तं वज्राप पदानुसारिणं नमस्यामि । अष्णया सीहगिरी वइरस्स गणं दाऊण भत्तं पञ्चक्वाइय देवलोगं गतो, वइरसामीवि पंचहिं अणगारसएहिं संपरिवुडो विहरइ, जत्थ २ वच्च तत्थ २ ओरालकिचिवन्नसदा परिभमंति-अहो भयवं भविषजणविवोहणं करेंतो विहरइ । इतो यपाटलिपुत्त नयरे घणो सेट्ठी, तस्स घूया अतीव रूववती, तस्स य जाणसालाए साहुणीओ ठियातो, तातो पुण वइरस्स गुणसंधर्व करेंति, सहावेण य कामियकामतो लोओ, सिट्टिघूया चिंतेइ - जइ सो मम पती होज्जा ताऽहं भोगे भुंजिस्सं, इयरहा अलं भोगेहिं, वरगा एंति, सा पसेदावे, ताहे साहिति पवइयाओ-न परिणेइ, सा भणइ-जइ न परिणेइ अपि पचनं गेण्हिस्सं, भयवंपिं चिरंतो पाडलिपुचमागतो, तत्थ राया सपरिजणो अम्मोगइयाए निम्गतो, ते पवइयगा फडगेहिं एंति, तत्थ बहवे ओरालियसरीरा, राया पुच्छर इमो भयवं बइरसामी १, ते मणंति न भवइ इमो, * किंतु तस्स सीसो, जाव अपच्छिम बंद, तत्थ पविरल साडुसहिओ दिडो, आयरियाण पडिरूवो, राजा पाएसु पढितो, ताहे उज्जाणे ठिया, धम्मो कहितो, खीरासवडी भयवं, राया इयहियतो कतो, अंतेउरे साहति, ताओ भणति-अम्हेवि
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श्रीवज्रवृचं
||३८९॥
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आगम
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७६८-७६९], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
*बच्चामो, सबं अंतेउरं निग्गय, सा य सेद्विधूया लोगस्स पासे सुणित्ता किह पिपिछज्जामिति चिंतेती अच्छद, विश्चदि-IA
बसे पिया विनवितो-तस्स.देहि, अह नवि अप्पाणं विधाएमि, ताहे सवालंकारविभूसिया अमेगाहिं पक्षकोडीदि सह 31 दानीणिया, धम्मो कहितो, भयवं च खीरामवलद्धिओ, लोगो भणइ-अहो सुस्सरो भयवं, सवगुणसंपन्नो, नवरं पविणो, *जा रूवं होतं सवगुणसंपया होता, भयचं तमि मणोगयं नाउं तत्थ सयसहस्सपत्तं परमं विचा, तस्त उपरि निविडो 8वं विउबइ अतीच सोम, जारिसं परं देवाणं, लोगो आउट्टो भणइ-एय एयरस साभावियं स्वं, मा पत्थणियो होहा-15 दामित्तिविरुवेण अच्छति सातिसउत्ति, रायावि भणइ-अहो भयवतो एयमवि अस्थि, ताहे अणमारगुणे वन्नेइ, पभू असं-15 *खेजदीवसमुई विज्ञचित्ता आइण्णविप्पइण्णे करेत्तए, ताहे तेण स्वेण धम्म कहेइ, ततो सेविणा निमंतिता, भयपि
|विसए निंदइ, भणइ-जइ मर्म इच्छइ तो पचयउ । अमुमेवार्थ हदि व्यवस्थाप्य आहताजो कन्नाइ धणेण य निमंतिओ जुबणम्मि गिहवइणा ।नयरम्मि कुसुमनामे तं बहररिसिं नमसामि ॥७६॥
यः कन्यया धनेन च यौवने निमन्त्रितो गृहातिना-धनेन, क !, नगरे कुसुमनाम्नि, पाटलिपुत्रे इत्यर्थः, तं वज्रा नमस्यामि ॥ तेण य भगवता पयाणुसारित्तणओ पम्हुट्टा महापरिणातो अज्झयणातो आगासगामिणी विना उद्धरिया, तीए गयणगमणलद्धिसंपन्नो भयवंति । उक्तमर्थ मनस्याधायाह
जेणुरिया विज्जा आगासगमा महापरिनाओ। वंदामि अनवहरं अपच्छिमो जो सुअघराणं ॥ ७६९॥ येनोन्ता विद्या आगासगम'त्ति गमनं गम, आकाशेन गमो यस्यां सा आकाशगमा, महापरिज्ञातो-महापरिज्ञानामका
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आगम (४०)
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [ ७७०-७७१], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...],
मूलं [- / गाथा-]
रत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि- रचिता वृत्तिः
श्रीव-ध्ययनात्, तमार्यवज्रं- आरात् सर्वाहेयधम्येभ्यो यातः - प्राप्तः सर्वैरुपादेयगुणैरित्यार्यः स चासौ वज्रश्चेति आर्यवज्रः तं वंदे, अपश्चिमो यः श्रुतधराणां - दशपूर्वविदाम् । साम्प्रतमन्येभ्योऽधिकृतया ध्वानिषेधख्यापनाय प्रदाननिराचिकीर्षुस्तदनुवाद|स्तावदिदमाह
भइ य आहिंडिला जंबुद्दीवं इमाइ विजाए । गंतुं च माणुसनगं विजाए एस मे विसओ || ७७० ॥
भइ अ धारेवा, नहु दायवा इमा मए विज्जा । अप्पिड्डिया उ मणुआ होहिंति अओ परं अन्ने || ७७१ ॥ भणति च वर्त्तमान निर्देशप्रयोजनं प्राग्वत्, आहिंडेत्, पाठान्तरं वा 'आभणिंसु य हिंडिज्जा' इति, वभाण हिंडेत्पर्यटेत् जम्बूद्वीपमनया, तथा गत्वा च मानुषनगं मानुषोत्तर पर्वतं तिष्ठेयमिति वाक्यशेषः, विद्याया एष मे विषयोगोचरः । भणति चेति पूर्ववत्, धारयितव्या प्रवचनोपकाराय न पुनर्दातव्या इयं मया विद्या, हुशब्दः पुनःशब्दार्थः, | किमित्यत आह- अल्पर्द्धय एव, तुशब्द एवकारार्थः, भविष्यन्त्यतः परमन्ये- भविष्यत्काल भाविनः । सो भयवं एवंगुण| विज्जाजुचो विहरंतो पुवदेसातो उत्तरावहं गतो, तत्थ दुभिक्खं जायं, पंथावि वोच्छिन्ना, ताहे संघो उवागतो-भयवं नित्थारेहि, ताहे पडविजाए संघो चडितो, तत्थ सेज्जायरो चारीए गओ एइ, ते य उप्पइए पासइ, चिंतेइ य जहाकोइ विणासो उवट्टितो ततो संघो जाइ, ताहे सो आसएण सिहिं छिंदिता भणइ - अहंपि भयवं तुम्ह साहम्मिओ, ततो सोऽवि विलइतो इमं सुतमणुसरं तेणं- 'साहम्मियवच्छलंमि उज्जुया उज्जुया व सज्झाए । चरणकरणंमि व तहा तित्थस्स भावणाए य ॥ १॥ इच्चादि, ततो पच्छा भयवं उप्पइतो, पत्तो पुरियं नयरिं, तत्थ सुभिक्ख, तत्थ व सावगा बहुया, तत्थ उत्चिन्ना,
श्यक मल
य० वृत्ती
उपोद्घाते
॥ ३९० ॥
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श्रीवत्रवृत्तं
॥ ३९० ॥
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आगम
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"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७७२], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
राया तत्थ तच्चण्णियसहो, तत्थ अम्हच्चयाण सड्डाणं तच्चण्णिओवासगाण य महाविरोहो, सबत्थ ते उवासगा पराइ-1
जंति, ताहे तेहिं राया पज्जोसवणाए पुष्पाणि वारावितो, सड्डा अद्दन्ना जाया नथि पुप्फाणित्ति, ताहे सवालबुड्डा 18 वइरसामि उचट्ठिया, तुम्भे जाणह जइ तुम्भेहिं संतेहिं पबयणमोहाविजइ, एवं बहुप्पगारं भणितो भयवं उप्पइतो, माहे-16
सिरिं गतो, तस्थ हुयासणं नाम वाणमंतरं, तत्थ कुंभो पुप्फाण उद्वेइ, तत्व भयवतो पिउमित्तो तडितो, सो संभंतो भणइकिमागमणपोयण ?, भगवया भणियं-पुप्फेहिं पओयणं, सो भणइ-अणुग्गहो, भयवया भणितो-ताव तुझे गहेह जाव एमि, पच्छा चुलहिमवंते सिरिसगासं गतो, सिरीए चेइयअञ्चणियनिमित्तं पउमं छित्तगं, ताहे वंदित्ता सिरीए निमंतिओ, तं गहाय हुयासणधरं एइ, तत्थ अणेणं विमाणं विउविय, तत्थ कुंभं पुष्फाण छोढूण जंभगगणपरिवुडो दिवेणं गीयर्ग-1 धवनिनादेण आगासेण आगतो, तस्स पउमस्स वेटे वइरसामी ठितो, ततो ते तच्चण्णिया भणंति-अम्हं एवं पाडिहेरं, अग्धं गहाय निग्गया, तं विहारं वोलित्ता अरहंतघरं गया, तत्थ देवेहिं महिमा कया, लोगस्स अतीव बहुमाणो जातो, रायावि.आरट्टो समणोवासतो जाओ । उक्तमेवार्थ हृदि निवेश्याहमाहेसरीउ सेसा पुरिनीआ हुआसणगिहाओ । गयणयलमइवइत्ता बरेण महाणुभागेण ।। ७७२ ॥ माहेश्वर्या नगर्याः 'शेषा' पुष्पसमुदयलक्षणा पुरिकां नगरी नीता हुताशनगृहात्-हुताशननामक यन्तरदेवसमन्वितोधानात् , कथं -गगनतलमतिव्यतीव्य-अतीवोल्लङ्घय वज्रेण महानुभागेन, भागः अचिन्त्या शक्तिः। एवं सो विहरतो,
भय सिरिमालं गतो । एवं सो नयविनारदो, एवं तात्र अपुहुत्तमासी, एस्थ गाहाश्रा.सू.६६
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2
and
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आगम
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७७३-७७४], विभागाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
AS
प्रत
त्यक मल
5
सत्रांक
KAN
दीप अनुक्रम
श्रीआव-द। अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । पुहुताणुओगकरणे ते अत्यसो उच्छिन्ना ।। ७७३॥ | श्रीवन
अपृथक्त्वे सति एकोऽनुयोगश्चत्वारि द्वाराणि-चरणकरणधर्मकाल द्रव्याणि भापते, वर्तमाननिर्देशफलं प्राग्वत्, है। स्वामिन पवत्तौ पृथक्त्वानुयोगकरणे पुनस्तेऽर्थाः-चरणादयस्तत एव-पृथक्त्वानुयोगकरणात् व्यवच्छिन्नाः ।। सम्प्रति येन पृथक्त्वं कृतं आर्यरक्षिउपोद्घाते तमभिधातुकाम आहदेविंदवंदिएहिं महाणुभावेहि रक्खिअअजेहिं । जुगमासज्ज विहत्तो अणुओगो ता कओ चउहा ॥७७४॥
तस्य च
वृत्चं ॥३९॥ देवेन्द्रवन्दितैर्महानुभागैरायरक्षितैर्दुबलिकापुष्पमित्रं प्राज्ञमप्यतिगुपिलतयाऽनुयोगस्य विस्मृतसूत्रार्थमवलोक्य युगमा
|साद्य प्रवचनहिताय विभक्का-पृथक् पृथग् व्यवस्थापितोऽनुयोगः, ततः कृतश्चतुर्द्धा-चतुर्ष स्थानेषु नियुक्तश्चरणकरणानुयोगादिरिति ॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं दसपुरं नाम नयरं, तत्थ सोमदेवो माहणो अड्डो, तस्स रुद्दसोमा भारिया समणोवासिया,151 दतीसे पुत्तो रक्सतो, तस्स अणुमग्गजातो फग्गुरक्खितो। अच्छंतु ताव अजरक्खिया, दसपुरं नगरं कहमुप्पन्नं, तेणंद
कालेणं तेणं समएणं चंपा नयरी, तत्थ कुमारनंदी सुवण्णगारो इत्थिलोलो परिवसइ, सो जत्थ सुरुवं दारियं पासइ 1४ सुणेइ वा तत्व पंच सुवण्णसयाणि दाऊण परिणेइ, एवं तेण पंच सयाणि पिडियाणि, ताहे सो ईसालओ एगक्खंभा।
V३९१॥ पासायं करेत्ता ताहिं समं ललइ, तस्स मित्तो नागिलो नाम समणोवासओ, अन्नया य पंचसेठगदीववत्थबातो वाणमतरीतो सुरवइनियोगेण नंदीसरवरदीवं जचाए पत्थिया, ता ताणं विजुमाली नाम पंचसेलाहिवई भचा सो चुतो, ततो
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... अत्र कश्चित् कारणात् द्वे गाथे न दृश्ये, कथानक मध्ये ते वे गाथे व्याख्यायेते | हारिभद्रवृतौ तु ते द्वे गाथे वर्तेते एव [गाथा क्रम ७७५,७७६
... अत्र आर्यरक्षितस्य कथा मध्ये 'उदायनराजर्षि' कथानक वर्णयते
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आगम (४०)
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७७३-७७६ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
चिंतेंति-कंचि दुग्गाहेमो जो अहं भत्ता भवेज, एवं चिंतित्ता पत्थियातो, विश्वयंतीओ चंपामज्झेण गच्छति, ताहिं तहा गच्छंतीहिं चंपाए कुमारनंदी पंचमहिलासय परिवारो उचललंतो दिडो, ततो चिंतियं-एस इत्थिठोलो, एवं बुग्गाहेमो, ताहे ताहिं उज्जाणगयस्स तस्स अप्पा दंसितो, तातो सो भाइ-काओ तुम्मे ?, ताओ भांति देवयातो, सो मुच्छिओ ताओ पत्ये, ततो भति-जइ ते अम्हाहिं कर्ज ता पंचसेलगं दीवं एज्जाहित्ति भणिऊण उप्पइया, गया य, सो य तासु मुच्छितो रायकुले सुवण्णं दाऊण पडहगं नीणेइ-कुमारनंदिं जो पंचसेलगं नेइ तस्स घणकोडिं देइ, येरेण पडहो वारिओ, वहणं कारियं, पत्थयणस्स भरियं, थेरो तं दवं पुत्ताण दाऊण कुमारनंदिणा सह जाणवत्ते पत्थितो, जाहे दूरं समुद्दमतिगतो ताहे थेरो भाइ-किंचि पेच्छसि ?, सो भणइ-किंचि कालगं, तेण भणियं-एस वडो समुहकूले पद्ययपादे जातो, एयस्स हेहेण एवं वहणं जाहिद, तो तुमं अमूढो वडे विलग्गेज्जासि, ताहे पंचसेलातो भारुंडपक्खी एहिंति, तेसिं जुगलस्स तिन्नि पाया, ततो तेसु सुत्तेसु मज्झिल्ले पाए लग्गो होलाहि पडेण अप्पाणं वंधिटं, तो तं पंचसेलयं दीवं नेहिंति, अह तं वर्ड न लग्गसि तो एयं वाहणं वलयामुहं पविसिहि, तत्थ विणस्सिहिसि एवं सो विलग्गो, नीतो पक्खीहिं, ताहे ताहिं वंतरीहिं भ्रमंतीहिं दिडो, रिद्धी य से दाइया, सो पगूहितो, ततो ताहिं भणितोन एएण सरीरेण अम्हे मुज्जामो, किंचिज्जलणप्पवेसाइ करेहि, जह पंचसेलगे उवसित्ति, सो भणइ किह एताहे जामि ?, ताहिं करयपुडे (गेहेत्ता) सए उज्जाणे छड्डितो, ताहे लोगो आगंतूण पुच्छर, सो भणइ-दिद्धं सुबमणुभूयं, जं विश्वं पंचसेलए दीवे' इति, ततो इंगिणिं निविष्णो साहइ, सहोय से मितो, तेण वारितो, जहा पबजाए सुंदरतरा भोगा,
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७७३-७७६], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
श्रीआर-
वारिजंतोऽवि ईगिणिमरणेण मतो पंचसेलाहिवई जातो, सहस्स निवेओ जहा एस अन्नाणी भोगाण कज किलिस्सइत्ति, पारजत
कुमारनश्यक मल-3 अम्हे जाणता कीस अच्छामोत्ति पवइतो, कालं काऊण अजुए उववन्नो,ओहिणा तं पेच्छइ । अन्नया नंदीसरवरजताए मान्दीवृत्तं
पलायंतस्स पड़हतो गलए ओलइओ, ता वार्यतो नंदीसरं गतो, सहो आगतो तं पेच्छइ, सो तस्स तेयं असहमाणो पला- देवाधियइ, सो तेयं साहरित्ता भणइ-भो ! ममं जाणसि, सो भणइ-को सक्काइए इंदे न याणइ ?, ताहे तं सावगरूवं दंसेइ, देवमतिः
जाणावितोय, ताहे संवेगमावण्णो भणइ-संदिसह इयाणिं किं करेमि?, भणइ-वद्धमाणसामिस्स पडिमं करेह, ततोल ॥३९२॥ ते सम्मत्तवीय होहिइ, ताहे महाहिमवतातो गोसीसचंदणरुक्ख छेत्तूण तत्थ पडिमं निवत्तेऊण कढसंपुढे छुभित्ता*
स रहसा समागतो समुद्दे, पवहणं पासइ उप्पाइएण छम्मासे भमंतं, ताहे तं उप्पाइयं तेण उवसामियं, सा य खोडी | दिशा, भणिया य-देवाहिदेवस्स पडिमा कायवा, वीयभए उत्तारिया, उदायणो राया तावसभत्तो, तस्स पभावई देवी
समणोवासिया, उदायणस्स वाणिएहिं ( कहियं-) देवाहिदेवस्स पडिमा करेयवा इति, ताहे इंदाईणं कीरइ, परसू न का वहइ, पभावतीए सुयं, सा भणइ-वद्धमाणसामी देवाहिदेवो तस्स कीरउ, वाहिमो परसू, विहडियं कट्ठसंपुर्ड, दिवा 31 पुनिम्मिया भयवतो वद्धमाणसामिस्स पडिमा, अंतेउरे चेइये पभावती व्हाया तिसंझं अच्छेइ, अन्नया देवी नच्चइ, राया। वीणं वाएइ, सो देवीए सीस न पेच्छइ, अद्धिई से जाया, वीणावायणं हत्थाओ भई, देवी रुवा, भणइ-किं दुह नच्चियं !, निबंधे सिहं, सा भणइ-किं मम १, सुचिरं सावयत्तणमणुपालियं, अन्नया चेडिं हाया भणति-1 पोताई आणेहि, ताए रत्तगाणि आणीयाणि, रुद्वा अदाएण आहया, चेइयघरं पविसंतीए रत्तगाणि देवित्ति, आहया
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७७३-७७६ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
चेडी मया, तांहे विवेइ-खंडियं गए वयं किं जीविएणंति 2 रायाणं आपुच्छह-भतं पञ्चक्सामिति, निबंधे राया भणइ-जइ परं बोहेसि, पडिस्सुर्य, भत्तपञ्चक्खाणेण मया, देवलोगं गया, जिणपडिमं देवदत्ता दासचेंडी खुज्जा सुस्सुसह, देवो उदायणं संगोहेइ, सो य तावसभचो, ताहे देवो तावसरूवं करेइ, अमयफलाणि गहाय आगतो, रण्णा आसा इयाणि, भणितो कहिं एयाणि फलाणि १, भणइ-नगरस्स अदूरसामन्ते, तहिं तेण समं गतो, तेहिं पारो, नसंतो वणसंडे साहवो पेच्छद्र, वेहिं धम्मो कहितो, संबुद्धो, अत्ताणं दरिसेइ, आपुच्छिता तो जाव अत्थामीए चेय अत्ताणं पेच्छइ, एवं सहो जातो 1
| इओ य गंधारतो सावगो सबातो जम्मभूमीतो वंदित्ता वेय कणगपडिमातो सुणित्ता उववासेण ठितो, जइ वा मतो दिहाउ वा, देवयाए दंसियातो, तुडा य सबकामियाण गुलियाण सयं देइ, ततो नितो सुणेइ-पीयभए जिणपडिमा गोसीसचंद्णमई, तं वंदओ एइ, बंदर, तत्थ रोगी जातो, देवदत्ताए पडियरिओ, तुट्टेण से तातो गुलियातो दिन्नातो. सो पवतो । अन्नया ताए चिंतियं मम कणगसरिसो बन्नो भवउत्ति, ततो जच्चकणगवन्ना जाया, पुणो चिंतेड़-भोगे भुंजामि, एस राया ताप मम पिया अन्ने य गोहा, ताहे पज्जोय रोएइ, तं मणेमि काउं गुलियं खाइ, तस्सवि देवयाए कहियं - एरिसी रुववइत्ति, तेण सुबन्नगुलियाए दूतो पेसिओ, सा भणइ-पेच्छामि ताव तुमं, सो नलगिरिणा रतिं आगतो, दिट्टो, तीए अभिरुइओ, सा भणइ -- जइ पडिमं नेसि तो जामि, ताहे पडिमा अन्ना नत्थिचि रचि वसिऊण पयित अनं जिमपमिवं कारुण तो तत्थ ठाणे कविता जीवसामि सुवणगुलियं च गहाव उज्जेणिं
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७७३-७७६], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
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श्रीआव- पडिगतो, तत्य नलगिरिणा मुत्तपुरीसाणि मुकाणि, सेण गंधेण सबे हत्थी उमर जाया, तं च दिसं गंधो पड़, जाव 31 उदायनश्यक मल- पलोयइ ताव नलगिरिस्स पयं दिई, किंनिमित्तमागतोत्ति !, जाव चेडी न दीसइ, चेडी नीया नाम पडिम पलोएहाताबोधः वि. यवृत्तीनवरं अच्छइत्ति निवेदियं, अञ्चणवेलाए राया आगतो, पेच्छइ पडिमाए पुष्पाणि मिलाणाणि, ततो निवन्तंतेण नार्य- पुष्करं प्रउपोदयात पडिरूवगत्ति, हरिया पडिमा, ततो णेण पज्जोयस्स दूतो पेसितो न मम चेडीए कर्ज, पडिमं विसजेहि, सो न देइयोतजयः
ताहे पधावितो जेडमासे दसहिं राईहिं समं, उत्तरंताण य मरुमि तिसाए खंधावारो मरिउमाढतो, रनो निवेदितं, हा ॥३९॥ ततोऽणेण पभावती चिंतिया, आगया, तीए तिणि पुखराणि कयाणि-अग्गिमस्स मज्झिमस्स पच्छिमस्स, ताहे||
आसत्थो, आगतो उजेणिं, भणिओ य पजोओ-किं लोगेण मारिएणं, तुझं मज्झ य जुझं भवतु, अस्सेहिं रहेहिं 3 पाएहि वा जेण रुचाइ, पजोओ भणइरहेण जुज्झामो, ताहे नलगिरिणा पडिकप्पिएणागतो, राया रहेण, ततो रणा भणितो-असञ्चसंघोऽसि, तहावि ते अज नस्थि मोक्खो, ततो णेण रहो भंडलीए दिनो, हत्थी वेगेण पत्थितो, रन्ना रहेण दिन्नो (जिओ), ताहे जं जं पायं उक्खिवइ तत्थ तत्थ राया सरे छुभति, जाव हत्थी पडितो, ओयरतो बद्धो निडाले य से अंको कओ-उद्दायणराजदासीपतिरिति, पच्छा नियगं नगरं पधावितो, पडिमा नेच्छइत्ति मुका, अंतरा है। वासेण ओबद्धो ठितो, ताहे उक्खंदभएण दसवि रायाणो धूलीए पागारे करित्ता ठिया, जंच. राया जेमेति तं च पजो-12॥१९॥ यस्सवि दिजाइ, नवरं पजोसवणाए सूएण पुच्छितो-किं अज जेमेसि', ताहे सो चिंतेइ-मारिजामि, भणइ-किं अज पुच्छिणासि , सूमो भणइ-राया अज पजोसवणत्ति उववासितो, ततो सोहउमारद्धो-मम मायापिया संजयाणि, न
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७७३-७७६ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
याणियं मया जहां मन पज्जोसवणति, अहंपि सावज उपवास करेमि रण्णो कहिवं, राया भंगड़-जाणामि जहा सो घुतो, किं पुण १, ममं एयंमि बद्धेलए पोसवणं चैव न सुज्झइ, ताहे मुको खामितो, पट्टो य से सोवण्णो बद्धो, मा ताणि अक्खराणि दीसिहंतु, सो य से विसओ दिनो तप्पभिई पट्टबद्धगा रायाणो जाया, पुर्व मडवद्धा आसी । वत्से वासारते राया गतो, तत्थ जो वणियवग्गो आगतो सो तहिं चैव ठितो, ताहे तं दसपुरं जायं, एवं दसपुरमुप्पण्णं, तत्य उप्पणा अज्जरक्खिया । सो य रक्खितो जं पिया से जाणइ तं तत्येव अहिज्जितो, पच्छा न तीरइ घरे पढिडंति गतो पाड लिपुत्तं चत्तारि वेदे संगोवंगे अधीतो, सम्मत्तपारायणो साखापारगो जातो, किं बहुणा ?, चोदसवि विज्जाठाणाणि गहियाणि, ताहे आगतो दसपुरं, ते य रायकुलसेवगा नज्जंति रायकुले, तेण संविदियं रण्णो कयं जहा एमि, ताहे ऊसियपडागं नगरं कथं, राया सयमेव अम्मोगइयाए निग्गतो, दिडो, सक्कारितो य, अग्गाहारो य से दिनो, एवं सो नगरेण सवेण अभिनंदिजंतो अप्पणी घरं पत्तो, तत्थवि बाहिरंतरिया परिसा आढाइ, तंपि वंदणकलसाइसोभियं, तत्थ बाहिरियाए उवद्वाणसालाए ठितो, लोगस्स अग्यं पडिच्छर, ताहे वयंसया मिता य सवेण पेच्छया आगया, दिट्ठपरिचिएण नगरजणेण अग्घेण य पूइतो, घरं च से दुपयच उप्पय हिरण्णादिणा भरियं, ताहे चिंतेइ-अम्मं न पेच्छामि, ताहे घरमतिगतो, मायरं अभिवाएइ, ताए भन्नइ-सागयं पुत्तत्ति, पुणरवि मज्झत्था चैव अच्छ, सो भणइ-किं न अम्मो ! तुज्झ तुट्टी १, जेण मए एन्तेणं नगरं विहियं चोदसण्डं बिजाठाणाणं आगये कए, सा भणइ कई पुत ! मम तुट्ठी भवि 1 स्सइ १, जेण तुमं बहूणं सत्ताणं बहकरण महिज्जित मागतो, जेण संसारो वह्निज्जइ तेण कहं तूसामि १, किं तुमं दिट्टिवाय
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७७३-७७६], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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पर्युषणा आर्यरक्षितस्याध्यनादि
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श्रीआव- पढिवमायतो, पच्छ सो चिंतेइ-करितो कित्तितो वा सो होहिइ !, जामि पढामि म माऊण मुट्ठी भवइ, कि श्यक मल- मम लयेयेण तोसिएणं ?, ताहे भणइ-कहिं सो दिहियातो,सा भणइ-साहूणं दिविवादो, ताहे से नामस्स अक्वरत्वं चिंतियः वृत्ती टमारद्धो-दृष्टीनां वादः दृष्टिवादः, ताव चिंतेइ-नामपि चेत्र सुंदरं, जइ कोइ अन्झाइ अन्झामि, मायावि तोसिया सपोदयात भवइ, वाहे भणइ-कहिं ते दिहिवायजाणंतगा', सा भणइ-अम्हं उच्छुघरे तोसलिपुत्ता नाम आयरिया, सो भणइ-
कलं अज्झामि, मा तुम्मे उस्सुग्गा होह, ताहे सो रति दिहिवायनामधं चिंतेंतोन चेव सुत्तो, बीयदिवसे अइप्पभाए ॥३९॥ Iचेव पद्वितो, तस्स य पिउमित्तो अवरग्गामे बंभणो परिवसई, तेण हिजो न दिहतो, अज्ज पेच्छामित्ति उच्छलट्ठीतो
गहाय पद, नव पडिपुन्नातो एगं च खंड, इमो य नीइ, सो य पत्तो, को तुम !, अज्जरक्खितोऽहं, ताहे सो तुट्ठो। अवगृहइ, सागयं !, अहं तुज्झे दटुमागतो, ताहे सो भणइ-अहं सरीरचिंताए निजामि, एयातो उच्छुलट्ठीतो अम्माए| हत्थे समप्येजाहि, भणेज्जासु य-दिवो मए अजरक्खितो, अहमेव पढम दिहो, सा तुहा चिंतेइ-मम पुत्तेण सोहणं मंगलं दिई, नव पुवा घेत्तवा खंड च, इयरोऽवि तं चेव चिंतेइ-मए नव अंगाणि अग्झयणाणि वा घेत्तवाणि, दसमं न सका। ताहे गती उच्छुपरं, तत्थ चिंतेइ-किह एवमेव अइमि गोहो जहा अयाणतो, जो एएसि सावगो भविस्सइ तेण समं|
पविसामि, एगपासे अच्छइ पलीणो; तत्थ य दडरो नाम सावओढहरसरो, सो सरीरचिंतं काऊण साहूण पडिस्सयं वञ्चइ हताहे तेण दूरहिएण तिति निसीहियातो कयाओ, एवं च इरियादी हड्डरसरेण करेइ, सो पुण मेहावी तं अवधारेइ, सोवि
तेणेब कमेष्य उक्यतो, समेखि साहूणं वंदणं कयं, सो न वंदितो मागो, ताहे बायरियहिं नायं-एस नक्सहो, पच्छा +
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७७३-७७६], विभा गाथा H, भाष्यं [१३७...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
13 पुच्छति-कची धम्मागमो, तेण भणियं-एयस्स सावगस्स मूलातो, साहहिं कहियं-जहा एस सेज्जायरीए पुत्तो जो
कलं हथिखंघेण अमिणीतो, किहत्ति !, ताहे सर्व साहइ, अहं दिहिवायं अज्झाइडं तुझं पासमागतो, आयरिएहिं भणिय-अम्हं दिक्खान्भुवगमेण अज्झाइज्जइ, भणइ-पबयामि, सोऽपि परिवाडीए अज्झाइजइ, एवं होउ, परिवाडीए अज्झामि, किंतु मए एत्थ न जाइ पबइङ, अन्नत्थ वच्चामो, एस राया ममाणुरत्तो अन्नो य लोगो, पच्छा मम बलावि | नेजा, तम्हा अन्नत्थ बच्चामो, ताहे तंगहाय अन्नत्थ गता, एसा पढमा सेहनिप्फेडिया, एवं तेण अचिरेण कालेण आयाराईणि एकारस अंगाणि अहिजियाणि, (जावइओ) दिहिवातो तोसलिपुचाणं आयरियाणं सोऽवि अणेण गहितो, तत्व अज्जव
इरा सुषंति जुगप्पहाणा, तेर्सि दिविवादो बहूओ अस्थि, ताहे सो तत्थ वच्चइ उज्जेणीमञ्झेणं, तत्व भद्दगुत्ताणं थेराणमंतिदयमुवगतो, तेहिंवि अणुवूहितो-धण्णो कयत्थोऽसि, अहं संलिहियसरीरो, नस्थि ममं निजावतो, तुमं निजावगो होहि, प्रवेण तहत्ति पडिस्सुयं, ताहे अच्छइ, तेहिं कालं करतेहि भण्णइ-मा बहरसामिणा समं अच्छेज्जासि, वीसं पडिस्सए ठितो|
पटिजासि, जो तेहिं सम एगभवि रतिं वसइ सो तेण अणुमरइ, तेण पडिस्सुयं, कालगते गतो वइरसामिसगासं, बाहिं ठितो, वेऽवि सुविणयं पेच्छंति, तेसिं पुण थेवं सिढे जायं, तेहिवि तहेव परिणामियं, आगतो, पुच्छितो-कतो, तोसलिपुत्ताणं पासातो, ते भणति-तुझे अजरक्खिता, आम, साहु सागयं, कहिं ठितो सि?, वाहि, ताहे आयरिया भणंतिबाहिं ठियाण किं जाइ अग्झाइ ?, तुमं किं न जाणसि!, ताहे सो भणइ-खमासमणेहिं अहं भद्दगुत्तवेरेहिं पितो-यहि ठाएबासि, हे बवाचा जाणंति-सुंदरं, न निकारणं आयरिया भणति, अच्छह, ताहे अज्झाइ फ्वत्तो,
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७७३-७७६], विभागाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
ROCACCORG
आहडपिंड पइदिवसं आणेर, पच्छा तं सवेसि पवइयाणं देइ, भणइ य-एवं बारस वरिसे भोत्सर्व, मिक्खा य नथि, जइ जाणह उस्सरंति संजमगुणा तो मुंजह, अह जाणह नवि तो भत्त्रं पञ्चक्खामो, ताहे भणंति-किं एरिसेण विजापिडेण भुत्तेण!, भत्तं पञ्चक्खामोत्ति, एवं निच्छियववसाया जाया, आयरिएहिं पुषामेव नाऊण सिस्सो वइरसेणो नाम पेसणेण पठवितो, भणितो य-जाहे तुमं सयसहस्सनिष्फन्नं भिक्खं लभिहिसि ताहे जाणेजासि-जहा नहूँ दुम्भिक्खंति, ततो वइरसामी समणगणपरिवारितो एगं पवयं विलग्गिउमारद्धो, तत्थ भत्तं पञ्चक्खामोति, एगो य तस्थ खुड्डुगो, सो साहहिं वुञ्चइ-तुर्म वच्च, सो नेच्छइ, ताहे सो एगमि गामे तेहिं विमोहितो, पच्छा गिरि विलग्गा, खुड्डगो ताण गयमग्गेण गंतूण मा तेसिं असमाद्दी होउत्ति तरसेव हेडा सिलायले पाओवगतो, ततो सो उण्हेण नवणीयमिव विराओ अचिरकालेणेव कालगतो, देवेहिं महिमा कया, ताहे आयरिया भणंति-खुडुएण अट्ठो साहितो, तत्थ ते साहुणो दुगु-12
णाणीयसहासंवेगा जाया, जइ ताव बालेण होतएण एवं कयं तो अम्हे कीस न सुंदरं करेमो', तस्य य देवया पडिपणीया, ते साहुणो सावियारूवेण भत्तपाणेण निर्मतेइ-अज्ज मे पारणयं करेह, ताहे आयरिएहिं णायं-जहा अचियत्तोग्ग-1
होत्ति, तस्थ य अन्भासे अन्नो गिरी, तं गया, तत्थ य देवयाए काउस्सग्गो कतो, सा आगंतूण भणइ-अहो मम अणुग्गहो, अच्छइ, तत्थ समाहीए कालगया, ततो ईदेण रहेण बंदिया, पयाहिणीकरेंतेण तरुवरादीणि दासिल्लाणि कयाणि, तेण तस्स रहावत्तो नाम जाय, तम्मि य भयवंते अद्धनारायं दस पुवा य वोच्छिन्ना।
सो वइरसेणो जो पेसितो पेसणेण सो भमंतो सोपारय पत्तो, तत्थ य साविया अहिगयजीवाजीवाइया ईसरी, सा
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७७३-७७६], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीआव- श्यक मल-
बनी
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उपोद्घात
१३९५॥
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ततो अचिरेण कालेण नव पुषाणि अहिजियाणि, दसम घेनुमाढतं, ताहे अजवाइरा भणति-जवियाई ता करेह, आर्यरक्षि. एय मेयस्स परिकम्म, ताणि पगाढं गणिते सुहुमाणि, ताणिवि जवियाणि तेण चवीसं गहियाणि, एवं ताव सो अज्झाइ। 31 तदीक्षादि
इतो य से अम्मापियरं सोगेण गहितं, उज्जोयं करिस्सामित्ति अंधकारतरं जायं, ताहे ताणि अप्पाहेंति, तहविन एइ ततो डहरतो से भाया फग्गुरक्खितो, सो पवितो, जद एह सबाणि पबयंति, ताहे भणति-जइ ताणि पवयंति तो तुम| चेव पहम पवयाहि, सो पवइतो, अज्झाइ, सो व अज्जरक्खितो जविएसु अतीव घोलितो, ताहे पुच्छइ-भयवं ! दसमस्स पुवस्स किं गय! कि सेसं १, तत्थ बिंदुसमुद्दसरिसवमंदरएहिं दिछतं करेंति, बिंदुमेत्तं गयं, समुद्दो अच्छइ, ताहे सो विसायमावन्नो-कत्तो मम सत्ती एयस्स पारं गंतुं, ततो आपुच्छइ-भय अहं च वच्चामि, एस मे भाया तत्तो आगतो, ते भणंति-अम्झाहि ताब, एसो निच्चमेव आपुच्छइ, तत्थ अज्जवइरा उवउत्ता-किं ममातो चेव एवं वोच्छिजंतगं!, ताहेऽणेण नायं जहा मम थोवं आउं, न एस पुणो एहिइ, अतो ममाहितो वोच्छिजिहिइ एवं दसम पुवं, ततो तेण विसजितो, पट्टितो दसपुरं पति । | इतो य वइरसामी दक्षिणावहे विहरइ, तेसि सिंभाहियं जायं, ततो जेहिं साहू भणिया-मम मुंठि आणेह, तेहिं आणीया, सा तेण कन्ने ठड्या, जेमिऊण खादिरसामि, तं च पम्हुई, ताहे बियाले आवस्सयं करेंतस्स मुहपोत्तियाए चालियं,
टा॥३९५॥ पडियं, तेसि उवओगो जातो-अहो ममत्तो जातो, पमत्तस्स य नत्थि संजमो, तं सेयं खलु मे भत्त्रं पञ्चक्खाइत्तए, एवं संपेहेइ, दुभिक्खं च वारसवरिसियं जायं, छिता सबतोसमन्ता पंथा, निराहारं जायं, ताहे वइरसामी विजाए 8
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७७३-७७६], विभागाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआर-16 चिंतेइ-किह जीवामो, न पाडिएक्कमत्थि, ताहे तम्मि दिवसे सयसहस्सेण भत्तं निप्फाइयं,चिंतेइ य-अम्हेहिं सवकालमेत्य हा वज्रस्वाश्यक मल- उजयं जीवियं, मा इयाणि एत्व चेव देहवलियाए वित्तिं कप्पेमो, देहवलिका नाम भिक्षावृत्तिः, नस्थि य पाडिकतो, एत्थ निस्वर्गः इया वृत्तीसियसहस्सनिष्फन्ने बिसं छोढूण जेमेमो तो सनमोकाराणि कालं करेमो, तं च सज्जियं, न ताव विसेण संजोइजइ, सो य साहू चन्दा उपोदयात हिडितो तत्थ संपत्तो, ताहे सा हहतुहा संपडिलाभेइ तेण परमन्नणं, तं चेव परमहूँ साहेइ, सो साहू भणइ-मा भत्ता दिदीक्षा
पञ्चक्खाह, अहं वइरसामिणा भणितो-जया तुम सयसहस्सनिष्फण्णं भिक्खं लभिहिसि (तया पए सुभिक्ख) ततो पोएण ॥३९६॥ सुभिक्खं भविस्सइ, ताहे पवइस्सह, एवं सा वारिया, इतोय तद्दियसं चेव पवहणेहिं तंदुला आगया, जातो पाडिकतो, सो साहू
वत्येव ठितो, सुभिक्खं जायं, ताणि सावयाणि तस्संतिए पवइयाणि, ततो वइरसामिस्स पउप्पयं जाय, वसो य पवहितो। | इतो य अजरक्खिएहिं दसपुर गंतूण सवो सयणवग्गो पवावितो मायाभगिणीमाई, जो सो तस्स खंतो सोवि
तेसिं अणुरागेण तेहिं चैव समं अच्छइ, न उण लिंग गेण्हइ लज्जाए, किह समणतो पवइस्सं , एस्थ मम धूयातो लसुण्हाओ ननुइओ य, किह तासि पुरतो नग्गतो अच्छिस्सं!, आयरिया य तं बहुसो भणति-पवयसु, सो भणइ-जहर
समं जुवलएणं कुंडियाए छत्तएण उवाहणाहिं जंनोवइएण तो पचयामि, आमंति पडिस्सुयं, पयइतो, सो पुण चरणकरणसम्झायमणुयत्तेहिं गेण्हावियबो, ताहे ते भणंति-अच्छह कडिप्पट्टएणं, सोऽवि थेरो भणइ-छत्तएण विणा ||३९६ ॥ न तरामि, ताहे भणति-अच्छर छत्तयंपि, करगेण विणा दुक्ख उचारपासवणं वोसिरिउं, बंभसुत्तगंपि, अवसेसं सर्व परिहद, अचया चेइयवंदगा गया,आयरिएहिं पुर्व चेडरूवाणि गाहियाणि, भणह-सवे वंदामो एवं छत्तइल्लं मोत्तुं, एवं 2
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७७३-७७६], विभागाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
भणितो सो चिंतेइ-एए मम पुत्तमा नसुगा य बंदिजंति, अई कीस न बंदिजामि ?, ततो सो भणइ-अहं किं अपचइतो, ताणि भणति-कतो पबइयाण छत्तयाणि भवंति !, ताहे सो चिंतइ-एयाणिवि मर्म पडिचोयंति तो छडेमि.18| ताहे पुतं भणइ-अलाहि पुत्त ! छत्तएण, ततो ते भति-अलाहि, जाहे उण्हं होइ ताहे कप्पो उवरि कीरउ इति, पुणो | भणंति-मोत्तूर्ण करगिलं, ताहे पुत्तेण भणितो-मत्तएण चेव संनाभूमि गच्छह, एवं जनोवइयंपि मोयाति, आयरिया भणति-को अम्हे न याणइ जह बंभणा इति, एवं तेण ताणि सवाणि मुकाणि, पच्छा ताणि पुणो भणंति-सवे वंदामो
मोत्तर्ण कडिपट्टइल्लं, ताहे सो भणइ रुटो-सह अजयपजएहिं मा वंदह, अण्णे वंदिहिंति ममं, न मुयइ कडिपट्टगं । तत्थ । Nय साहू भत्तं पञ्चक्खायतो, ताहे तस्स कडिपट्टयवोसिरणहयाए चणेति-एयं मयगंजो वहइ तस्स महलं फलं भवति, तत्व
पढमं पबइया सन्नियल्लया-तुब्भे भणेजाह-अम्हे एवं वहामो, एवं ते उहिया, आयरियसयणवग्गो भणइ-अम्हे 8 वहामो, ततो ते भंडता आयरियसगासं पत्ता, आयरिएहिं भणिया-अम्हं सयणवग्गो किं मा निजरं पावर, तुम्हे। चेव भणह-अम्हे वहामो, ताहे सो थेरो भणइ-किं एस्थ पुत्ता ! बहुया निजरा ?, आयरिया भणंति-आमंति, ततो
सो भणइ-अहं वहामि, आयरिया भणति-पत्थ उवसग्गा उप्पजंति, चेडरूवाणि नग्गति, जइ तरसि अहियासेउं तोड़ा दावहाहि, मह नाहियासेसि तो अम्हं न सुंदरं भवइ, (सो भणइ-) अहियासिस, एवं सो थिरो कओ, जाहे सो ।
उक्खित्तो ताहे तस्स मम्गतो पवइयातो व्यिातो, ताडे खुड्गा भगंति-मुय कडिपट्टयं, ताहे सोमडयं मोत्तुमारद्धो, अन्नेहिं |
भणितो-मा मोचसि, गुरूणं न सुंदर हाहिर, तस्य से अण्णेण कडिपट्टतो. पुरतो काऊण दोरेण बद्धो, ताहे सो यो.सू.६७
दीप अनुक्रम
SECREENSHAK AKKAR
SECRECIRCउनकारक
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम H
श्री आवश्यक मलय० वृत्तौ
उपोद्घाते
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in Educatio
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७७३-७७६ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
लज्जितो तं बहर, मग्गतो मम सुहाई पेच्छंति, एवं तेण उवसग्गो उट्टितोत्तिकाऊण वूढं पच्छा आगतो तहेब, ताहे आयरिया भणति - किं खंता ! इमं १, सो भणइ उवसग्गो उट्टितो, आयरिया भणंति-आणेह साडयं, ताहे भणइ-किं थ साडएणं, दिडुं जं दट्टबं, चोलपट्टगो चैव हवड, एवं ता सो चोलपट्टयं गेण्हात्रिओ, पच्छा भिक्खं न हिंडर, आयरिया चिंतंति- एस भिक्खं न हिंडर, को जाणइ कयाइ किंची भवइ ?, तत्थ एकलओ किं काहिइ ?, अवि एसो निजरं पावेयचो, तो तहा कीरज जहा एस भिक्खं हिंडइ, एवं आयवेयावचं पच्छा परवेयावचंपि काहिइ, एवं चिंतित्ता | तत्तोऽणेण सबै साहुणो अप्पसागारियं भणिया-अहं वच्चामि तुझे एकहया समुद्दिसेज्जाह पुरतो खंतस्स, तेहिं पडिस्सुयं ततो संतस्स पुरतो आयरिया भणति - तुम्हें खंतरस सम्मं वट्टेजह, अहं वच्चामि गामं, एवं गया आयरिया, तेऽवि साहुणो भिक्खं हिंडिऊण सबै एकलया समुद्दिसंति, सो चिंतेइ-ममेस दाहिइ, इमो दाहिइ, एकोऽवि तस्स न देइ, अण्णो दाहिइ एस वराओ किं लभइ १, एवं तस्स न केण्इ किंचि दिनं, ताहे आसुरुतो न किंचि आलवति, चिंतेइएउ कलं ताव मम पुत्तो तो पेक्खह एए जं पावेमि, ताहे विश्यदिवसे आगया आयरिया, ताहे ते भति-संता ! किह ते साहूहिं वट्टियं १, ताहे सो भणइ-पुसा ! जइ तुमं न होंतो तो एकंपि दिवसं न जीवतो, एएवि जे अण्णे मम पुत्ता नलुगा य तेऽवि न किंचि देति, ताहे ते आयरिएण समक्खं अंबाडिया, तेऽवि अब्भुवगया, ताहे आयरिया भणंति-आणेह भावणाणि, जह अप्पणी खंतस्स पारणयं आणेमि, ताहे सो खंतो भइ-किं इह मम पुत्तो हिंडिहिइ ?, लोगप्पणासे न कयाइ हिंडियपुषो, भणइ अहं चैव हिंडामि, ताहे सो अप्पणा खंतो निग्गतो, सो य पुण लद्धिसं
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आर्यरक्षितसे वृद्धप्रज्यादि
॥३९७ ॥
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आगम
(४०)
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
H
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७७३-७७६ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १३७...], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
Education Internand
पण्णो पुरावि गिहत्यत्तणे, सो य अहिंडतो न याणइ कसो दारं वा अदारं वा, ताहे सो एवं घरं अवहारेण अतिगतो, तत्थ अण्णदिवसं पगयं वत्तेल्लयं, तत्थ घरसामिणा भणितो-कतो अबद्दारेण पवइयतो अतिगतो ?, घरस्स दारं किं नत्थि जेण अवदारेण अतीसि ?, ताहे तेणं तत्थुप्पण्णं चैव भणियं-सिरीए एंतीए कयरं दारं अवदारं वा ?, जतो अतीति ततो सुंदरा, गिहसा मिणा भणियं देह से भिक्खं तत्थ लड्डुगा बत्तीसं लद्धा, ते घेतॄण आगतो, आलोइयमणेणं, पच्छा आयरिया भणंति-तुझं बसीसं सीसा होति परंपरेण आवलियाठावगा, ततो आयरिएहिं भणितो- खंता ! [जा होह ] तुब्भे पुत्रं राउलातो किंचि लहह सविसेसं ताहे करस देह ?, सो भणइ-वंभणाणं, एवं चेत्र अम्ह साहुणो पूयणिजा, एएसिं पढमलाभो दिज्जउ, एवं होउत्ति सबै साहूणं दिना, ताहे पुणो अपणो अट्ठाए ओइण्णो, पच्छा अणेण परमन्नं घयमहुसंजुत्तं आणीतं, तो सयं समुद्दिट्ठो, एवं सो अध्पणा चेत्र हिंडतो लद्धिसंपन्नो बहूणं बालदुवाणं आहारो जातो, एवं आयरिएहिं | सन्नायगा पचाविता ॥ तत्थ य गच्छे तिन्नि प्रसमित्ता- एगो दुव्वलिअपूसमित्तो एगो घयपुस्तमित्तो एगो वत्थपूस मित्तो, जो दुब्बलितो सो सञ्झाएण झरइ, घयपूसमितो घयमुप्पाएइ, तस्सिमा लद्धी- दवतो ४, दवतो घयमुप्पापयचं, | खेसओ जहा उणीए, कालतो जिट्टासाढमासेसु, भावतो एगा विजाइणी गुधिणी, तीसे भत्तूर्णं दिवसे धोवथोवं पिंडतेण छहिं मासेहिं वारओ घयरस उप्पाइतो, वरं से वियाइयाए उवजुजिहिइ, सा य कले वा परे वा वियाहिति, एमि अवसरे तेण जाइयं, अण्णं नस्थि, तंपि सा हट्टनुट्टा दिजा, परिमाणतो जत्तियं गच्छस्स उबजुज्जइ, सो य निंतो पुच्छइकस्स कित्तिएण धरण कज्जं १, जत्तियं भणेइ तत्तियं आणेइ, वत्थपूसमितस्स एमेव लद्धी वत्थेसु उप्पाइयवेसु, दबतो
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आगम
(४०)
"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७७३-७७६], विभा गाथा -], भाष्यं [१३७...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्यक मल-18
सत्राक
कारः
दीप
श्रीआच- 1वत्थं, खेत्ततो वइदेसे नगरे महुराए वा, कालतो वासासु सीयकाले वा, भावतो जहा काइ रंडा तीए दुखेण छुहाए मरं-131
तीए कत्तिऊण एका पुची वुणाविया कलं नियंसेहामित्ति, एत्यंतरे सा पूसमित्तेण जाइया, हतुट्ठा देजा, परिमाणतो द्र नालद्धी सबस्स गच्छस्स उप्पाएइ । जो दुबलियपूसमित्तो तेण नववि पुवा अहिजिया, सो ताणिं दिवा य रत्तीए झरइ,
एवं सो झरणाए दुबलो जातो, जइ सो न झरेज्जा ताहे तस्स सर्च चेव पम्हुसेज्जा, तस्स पुण दसपुरे चेव नियल्लया,
द्र ताणि पुण रत्चवडोवासगाणि आयरियाण पासमल्लियंति, ततो ताणि भणंति-अम्हं भिक्खुणो झाणपरा, तुझं झाणं ॥३९॥ नत्थि, आयरिया भणंति-अम्हं चेव झाणं, एस तुझं जो नियल्लतो दुधलियपूसमित्तो सो झाणेणं चेव दुबलो, ताणि
भणंति-एस निहत्थत्तणे निद्धाहारेहिं बलितो आसि, इयाणिं नथि निद्धाहारो तेण दुबलो, आयरिया भणंति-एस नेहेण विणा न कयाइ जेमेइ, ताणि भणंति-कतो तुझं नेहो ?, आयरिया भणंति-घयपूसमिचो आणेइ, ताणि न पत्तियंति, ताहे भणियाणि-एस तुझं घरे किं आहारेइ, तो ताणि भणंति-निद्धपेसलाई, ततो तेसिं संबोहिं ना ताण घरे विसज्जितो, एताहे देह, तहेब दा पवचाणि, सोवि झरइ, तंपि नजइ छारे छभइ, ताणि गाढतरं देंति, ततो181 | निविनाणि, ताहे भणितो-एताहे मा झरह, अंतं पंतं च आहारेह, ताहे सो पुणोवि पुराणसरीरो जातो, ताहे ताण | | उवगर्य, धम्मो कहितो,सावगाणि जायाणि । तत्थ य गच्छे चत्तारि जणा पहाणा, सो चेव दुबलियपूसमित्तो विंझो ||
फग्गुरक्खितो गोट्ठामाहिलोति, जो सो विंझो सो अतीव मेहावी, सुत्तस्थतदुभयाणं गहणधारणासमत्थो, सो पुण81 टू सुत्तमंडलीए विसूरब जाव परिवाडीए आलावगस्स एइ ताव पलिभजइ, सो आयरिए भणइ-अहं सुत्तमंडलीए विसू
कसACCCCCCES
अनुक्रम
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JanEcoon imornhil
P
aintibrary.org
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आगम
(४०)
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम H
“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७७३-७७६ ], वि० भा० गाथा [२२८९-२२९३], भाष्यं [ ९३७...].
मूल [- / गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
Jain Education
रामि, जतो चिरेण परिवाडीए जलावगों एइ, तो मम वाणायरिचं देह, ततो आयरिएहिं दुम्बलियपूसमित्तो तस्स वाणायरियतो दिन्नो, ततो सो कइवि दिवसे वायणं दाऊण आयरियस्स उवट्टितो भणइ - मम वायणं देवरस नासइ, जं च सन्नायगघरे नाणुप्पेहियं तं च संकियं जायं, ततो मम अज्झरंतस्स नवमं पुढं नस्सिहिइ, ताहे आयरिया चिंतेंतिजइ ताव एयरस परममेहाविस्स एवं अज्झरंतरस नासइ अन्नस्स चिरनहं चैव, ते उवओगं गया, ततो तेहिं गहणधारणादुब्बलत्तं णाऊण सुहगहणधारणानिमित्तं चत्तारि अणुओगद्दारा कया, तथा चोक्तं भाष्यकृता - " नाऊण रक्खियज्जो मइमेहाधारणासमग्गपि । किच्छेणं धरमाणं सुपण्णवं पूसमित्तंपि ॥ १ ॥ अइसयकओवओगो मइमेहाधारणाइपरिहीणे । नाऊण मेस्सपुरिसे खेत्तं कालाणुरूवं च ॥ २ ॥ साणुग्गहोऽणुओगे, घीसुं कासी य सुयविभागेण । सुहगहणाइनिमित्तं नए य सुनिगूहियविभागे ॥ ३ ॥ सविसयमसद्दहंता नयाण तम्मत्तयं च गेव्हंता । मन्नंता य विरोहं अपरीणामातिपरिनामा ॥ ४ ॥ गच्छेज मा हुमिच्छं परिणामा य सुहुमादिबहुभेए । होज्जाऽसत्ते घेत्तुं न कालिए तो नयविभागो ॥ ५ ॥" ( विशेषा. २२८९-९३ ) अत्र 'नए य सुनिगूहियविभागे' इति न केवलमनुयोगान् पृथगकार्षीत्, तथा नयांश्च - नैगमादीन् सुखग्रहणादिनिमित्तमकार्षीदिति सम्बध्यते, कथंभूतानित्याह- सुष्ठु निगूहितो - व्याख्यानिरोधेन छन्नीकृतो विभागो - व्यक्ततापादनरूपो येषां ते तथा तान् । अथ कस्मान्नयान् सुनिगूहितविभागा नकार्षीदित्यत आह-'सविसए'त्यादि, इह शिष्या स्त्रिविधाः, तद्यथा - अपरिणामा अतिपरिणामाः परिणामाश्च तत्र ये मन्दमतयोऽगीतार्था अपरिणतजिनवचन रहस्यास्ते अपरिणामाः, अतिव्याप्तापवाददृष्टयोऽतिपरिणामाः, सम्यक्परिणत जिनवचना मध्यस्थवृ
r Private Personal Live Only
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
H
श्रीआव श्यक मल
य० वृत्ती 4 उपोद्घाते
॥३९९ ॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ७७७], वि० भा०गाथा [-] भाष्यं [१२४] मूलं [- /गाथा -] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
तयः परिणामाः, तत्र येऽपरिणामास्ते नयानां यः स्वः स्वः - आत्मीय आत्मीयो विषय ज्ञानमेव श्रेयः क्रिया वा श्रेयसीत्यादिकस्तम श्रद्दधानाः ये त्वतिपरिणामास्तेऽपि यदेवैकेन नयेन क्रियादिकं वस्त्वभिहितं तदेव तन्मात्रं प्रमाणतया गृह्णन्तः तथा एकान्तवस्तुप्रतिपादकनयानां परस्परविरोधं च मन्वाना मा मिथ्यात्वं गच्छन्तु येऽप्युक्त स्वरूपाः परिणामास्ते यद्यपि न मिथ्यात्वमियति तथापि विस्तरेण नयैर्व्याख्यायमानैर्ये सूक्ष्माः सूक्ष्मतराञ्च तद्भेदास्तान् ग्रहीतुमशका भवेयुरित्यार्यरक्षितैः कालिके इत्युपलक्षणं उत्कालिके च नयविभागो - नयगत विस्तरव्याख्यारूपो न कृत इति ॥ यदुक्तम् 'अनुयोगस्ततः कृतश्चतुद्धेति तत्रानुयोगचातुर्विध्यमुपदर्शयति मूलभाष्यकृत्
कालियसु च इसि भासिआई तइओ अ सूरपन्नत्ती ।
सञ्चो अदिट्टिवाओ चउत्थओ होड़ अणुओगो ॥ १२४ ॥ ( म. भा. )
जं च महाकप्पसुअं जाणि अ सेसाणि छेअसुत्ताणि । चरण करणाणुओगन्ति कालिअत्थे उवगयाणि ॥ ७७७ ॥ कालिकश्रुतम् - एकादशाङ्गरूपं चरणकरणानुयोगरूपमिति गम्यते, तथा ऋषिभाषितानि - उत्तराध्ययनादीनि, धर्मकथानुयोग इति वाक्यशेषः, तृतीयोऽनुयोगः - कालानुयोगः, स च सूर्यप्रज्ञप्तिः, उपलक्षणमेतत् चन्द्रप्रज्ञत्यादिरपि तथा सर्वश्व दृष्टिवादश्चतुर्थो भवत्यनुयोगः, ऋषिभाषितानि धर्म्मकथानुयोग इत्युक्तं, ततश्च महाकल्पश्रुतादीनामपि ऋषिभाषितत्वात् दृष्टिवादादुद्धृत्य तैस्तेषां प्रतिपादितत्वात् धर्म्मकथानुयोगत्वप्रसङ्ग इत्यत आह-यच्च महाकल्पश्रुतं यानि च दोषाणि छेदसूत्राणि - कल्पादीनि तानि सर्वाण्यपि चरणकरणानुयोग इति मन्तव्यानि । इयाणिं जहा देविंदवंदिया अज्जरक्खिया
*** अत्र क्रमेण आयात भाष्यक्रम १३८ वर्तते, परंतु मूल संपादकेन अत्र || १२४ || मुद्रितं, हारिभद्रिय वृतौ तु भाष्य-क्रम || १२४ || एव |
... अत्र चत्वारः अनुयोगानां व्याख्या क्रियते
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अनुयोगनयविभा
गः
॥ ३९९॥
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आगम
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -], नियुक्ति: [७७७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१२४], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
तहा भन्नइ-ते विहरंता महुरं गया, तत्थ भूयगुहावाणमंतरघरे ठिवा । इतो य सको देवराया महाविदहे सीमधरसामि
आपुच्छइ निगोयजीवे, जाहे निगोयजीवाभगवया वागरिया ताहे भणह-अस्थि पुण भरहे वासे कोइ निगोए एवं वागरेजा, है भयवया भणियं-अस्थि अजरक्खिया, ततो सो माहणरूवेण आगतो, तं च थेररूवं करेऊण पवइएसु निग्गएमु अति
गतो, ताहे सो वंदिचा पुच्छइ-भयवं! मज्झ सरीरे महलो इमो वाही, अहं च भवं पञ्चक्खाएजा, ता जाणाह मम। केत्तियं आउं होज, जविएहिं किर भणिया आउसेढी, तत्थ उबउत्ता आयरिया, जाव पेपछइ आउं वरिससयमहियं ५ दो तिन्नि, ताहे चिंतेइ-भारहो एस मणूसो न भवति, विजाहरो वाणमंतरो वा, जाव दो सागरोवमाई ठिई, ताहे भुमयाओ हत्येहिं उक्खिवित्ता भणइ-सको भवान् , बादंति भणिऊण पाएसु पडितो, सर्व साहइ, जहा महाविदेहे । सीमंधरसामी पुच्छितो तेहिं कहियं, ततो इहमागतो, तं इच्छामि सो निगोयजीवे, ताहे कहिया, भणइ हद्वतुहोसणाहं भरहंति, इयाणिं वचामि, आयरिया भणंति-अच्छह मुहुत्तगं जाव संजया एंति, एत्ताहे दुकहा, संजया ते थिरा
भवति, जहा एत्ताहेवि देविंदा एंति, ताहे सो भणइ-जइ ते ममं पेच्छंति तेण चेव अप्पसत्तत्तण नियाणं काहिंति, तेण | विचामि, तो चिंधं काई वच्च, ताहे दिवा गंधादी परिकिष्णा, उवस्सयस्स अनतोहुत्तं बार कयं, ततो गओ, ताहे
आगया संजया, ते पुच्छंति-कहिं एयस्स दारं, आयरिएहिंवाहिता-इतो एह, सिटुं च जहा सको आगतो, ते भणंतिअहो अम्हहिं न दिट्टो, कीस मुत्तमेत्तं न धरितो , तं चेव साहइ, जहा अप्पसत्ता मणुया नियाणं काहिंति, पाडिहेर काऊणागतो, एवं देविंदवंदिया । ते कयाइ विहरता दसपुरं गया, महुराए अकिरियावादी उद्वितो, जहा नत्थि माया |
दीप अनुक्रम
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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दीप
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श्रीआव
श्यक मल
य० वृत्तौ
उपोद्घाते
॥४००॥
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ७७७], वि० भा०गाथा [-] भाष्यं [१२४] मूलं [- /गाथा -] नदीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
नत्थि पिया एवमादिणाहियवादी, तत्थ संघसमवातो कतो, तत्थ वादी नत्थि, ताहे संघेण संघाडओ अज्जरक्खियसगासं १ आर्यरक्षिपेसितो, ताहे जुगप्पहाणे ते गंतूण तेसिं साहिंति, ते य महला, ताहे तेहिं गोड्डामा हिलो पट्टितो, तस्स वायलद्धी अस्थि, | तेण गंतूण सो वादी निग्गहितो, पच्छा सावगेहिं गोट्ठामाहिलो धरितो, तत्थेव वासारतं ठिओ, इतो व आयरिया चिंतेंति को गणहरो भवेजा १, ताहे दुम्बलियापूस मित्तो समिक्खितो, जो पुण से सयणग्गो तेसिं गोट्ठामाहिलो फग्गुरक्खितो वा अभिमतो, ततो आयरिया सबै सहायता दितं करेंति, जहा तिन्नि कुडा-निप्फावकुडो तेलकुडो घयकुडो य, ते पुण तिन्निवि हेहाहुत्ता निष्फाचा सवेवि निंति, तेल्लमवि नीइ तत्थ पुण अवयवा लग्गंति, घयघडे बहुं चेय उग्गह, एवामेत्र अजो! दुब्बलियापूसमित्तं प्रति सुतत्थतदुभएस निष्फावकुडसमाणो अहं जातो, फग्गुरक्खियं प्रति तेलकुडसमाणो, गोट्ठामा हिलं पति घयकुडसमाणो, अतो मम सुत्तेण अत्थेण य उत्रवेतो दुम्बलियपूसमित्तो तुज्झं आयरितो भवतु, तेहिं पडिच्छियं, इयरोऽवि भणितो - जहाऽहं वहितो फग्गुरखियस्स गोडामाहिलस्स व तहा तुमे वहियवं. ताणिवि भणियाणि - जहा तुझे मम वट्टियाणि तहा एयस्सवि वट्टेजह, अविय - अहं कए वा अकए वा न रूसामि, एस पुण न खमेहिई, अतो सुतरामेव एयस्स बट्टेजह, एवं दोवि वग्गे अप्पाहित्ता भत्तं पञ्चक्लाइवं देवलोगं गया, गोट्ठा माहिलेण सुयं जहा आयरिया कालगया, ताहे आगतो पुच्छइको गणहरो ठवितो १, ( संघेण कहियं - दुब्बलियापुस्तमित्तो ) कुडगदितो य सुतो, सादे षीसुं पडिस्सए ठाइऊण पच्छा आगतो, ताहे तेहिं सबेहिं अब्भुट्टितो, भणितो य इदं चैव ठाहि, ताहे बेच्छई, ततो सो बाहिं ठितो अन्ने दुग्गाहे, ते न सकेइ बुग्गाहेउ । इतो अ आयरिया
... अथ आर्यरक्षितस्य कथा मध्ये गोष्ठामाहिल - निह्नवस्य कथा
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तवृत्ते इन्द्रागमनं गोष्ट माहिलनिन्हवः
॥४००॥
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -], नियुक्ति: [७७८], विभा गाथा [-], भाष्यं [१२४], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अत्थपोरिसिं करेंति, सो न सुणइ, भणइ य-तुझे निष्फावकुडगा, ताहे तेसु उद्विएतु विज्झो अणुभासइ, तं सुणेइ।
अट्टमे कम्मपवायपुबे कम्मं वन्निजइ, जहा कम्मं बज्झइ, जीवस्स व कई बंधो , पत्थ विचारे सो अभिनिवेसेण | *अन्नहा मन्नंतो परूवंतो य निण्हतो जातो॥ अनेन प्रस्तावेन क एते निन्हवा इत्याशङ्कापनोदाय तान् प्रतिपिपादयिषुराह
बहुरय पएस अबत्त समुच्छ दुग तिग अवधिआ चेव। सत्तेए निण्हगा खलु तित्थम्मि ७ बद्धमाणस्स।।७७८॥ । एकेन समयेन क्रियाऽध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुत्पत्तेः प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेबहुषु समयेषु वस्तूत्पत्तिमधिकृत्य रताः-सका| बहुरताः, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः, 'पएस'त्ति पूर्वपदलोपात् जीवप्रदेशाः प्रदेशाः, यथा महावीरो वीर इति,
एक एव चरमप्रदेशो जीव इत्यभ्युपगमात् जीवः प्रदेशो येषां ते जीवप्रदेशा निन्हवाः, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति । दाहृदयम् , 'अवत्त'त्ति उत्तरपदलोपादव्यक्तमताः अव्यक्का, यथा भीमसेनो भीम इति, व्यक्तं-स्फुटं न व्यक्तमव्यक्तम्
स्कुट, अव्यकं मतं येषां ते अव्यक्तमताः, संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति भावः, 'समुच्छेयत्ति उत्त्पत्त्यनन्तरं । सामस्त्येन. उत-प्राबल्येन प्रकर्षणेत्यर्थः छेदो-विनाशः समुच्छेदस्तमधीयते विदन्ति वा 'तद्वेत्ती'त्यणि सामुच्छेदाः, क्षणअविभाव का इतियावत् , 'दुग'त्ति उत्तरपदलोपादेकसमये द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं तदधीयते तद्वेदिनो वा द्वैक्रियाः, जाललन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिण इत्यर्थः, 'तिग'त्ति त्रैराशिकाः, जीवाजीवनोजीवमेदात् त्रयो राशयः समाहृतास्त्रिराशि तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिका:-राशित्रयच्याख्यायका इति भावना, 'अबद्धिगा चेव'त्ति स्पृष्टं जीवेन कर्म न | स्कन्भवन्धवत् बद्धमबद्धं, अबद्धमेषामस्तीति अरद्धिकाः, 'अतोऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः, स्पृष्टकर्मविपाकमरुपका
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७७९-७८१], विभा गाथा -], भाष्यं [१२४...], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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उपोद्घाते
॥४०॥
इत्यर्थः, सप्हते-अन्तरोदिताः, उपलक्षणमेतत् तेवोपधानापलापिनोऽपि, 'निण्या खलु ति तीर्थकरभाषितमर्थममिनिवे- मन्हवानाशात् निन्हवते-अपश्चतोऽपलपन्तीति निन्हवार, एते च मिथ्यादृष्टयः सूत्रोकार्थापलपनात्, पकं च-"सूत्रोक्तस्यैक-ICIमाचार्या. स्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः सूर्य हिनःप्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" खल्विति विशेषणे, किंII |विशिनष्टि ?-एते साक्षादुपात्ता उपलक्षणसूचिताश्च देशविसंवादिनो द्रव्यलिङ्गेनामेदिनो निन्हवाः, वोटिकास्तु वक्ष्य-131 |माणाः सर्वविसंवादिनो द्रव्यलिङ्गतोऽपि भिन्ना लिन्हवा इति, तीर्थे वर्द्धमानस्य, पाठान्तरं 'एतेसि निग्गमणं वोच्छामि अहाणुपुबीए' इति ॥ साम्प्रतं येभ्य एते सप्त समुत्पन्नास्तान् प्रतिपादयन्नाहबहुरय जमालिपभषा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ । अश्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेआऽऽसमित्ताओ ॥७७९॥15
गंगाओ दोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती । घेरा य गुट्ठमाहिल पुट्ठमबद्धं परूविति ॥ ७८०॥ बहुरता जमालिप्रभवाः, जमालेराचार्यात् प्रभवो येषां ते तथाविधाः, जीवप्रदेशाः पुनस्तिष्यगुप्तादुत्पन्नाः, अव्यक्ता
आषाढात् , सामुच्छेदा अश्वमित्रात् , गङ्गात् द्वैक्रियाः, पडुलूकात् त्रैराशिकानामुत्पत्तिः, स्थविराश्च गोष्ठामाहिलाः स्पृष्ट-13 दामबद्ध, कम्मेति गम्यते, प्ररूपयन्ति, पाठान्तरं-पुट्ठमवद्धं परुविसु' किमुक्तं भवति-अबद्धिका गोष्ठामाहिला संजाता इति ॥ साम्पतमेते निन्हवा येषु स्थानेषूरपन्नास्तानि प्रतिपादयन्नाह
४०१ सावत्थी उसमपुर सेअविमा मिहिल उलुगातीरं । पुरिमंतरंजि दसपुर रहवीरपुरं च नयराई ॥ ७८१॥ 131 जमालिप्रभवाचां निहवानां शरपलिस्थानं श्रावस्ती, तिष्यगुप्तप्रमवानामृषभपुरं, मव्यकमतानां श्वेतक्किा, सामुच्छे।
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... निहनवानां आचार्य, मत-उत्पत्तिस्थान, काल आदीनां वर्णनं क्रियते
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-1, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१२५], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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दानां मिथिला, क्रियाणामुल्लुकातीरं, त्रैराशिकानां पुरमन्तरखिका, गोठामाहिलस्य इधपुरं, सर्वापलापिना बोटिकानां । स्थिवीरपुरं, वक्ष्यमाणानामपि वोटिकानामुत्पत्तिस्थानामिपानं लापवाथै, एतानि यथाक्रम निन्हवानामुत्पत्तिस्थानानिनिगराणि ॥ अथ भगवतः समुपजातकेवलस्य परिनिर्वसस्य च का कियता कालेन निन्हवो जात इति प्रतिपादयवाहचज्दस सोलस वासा घउदस वीसुत्तरा यणि सया । अहाचीसा य दुवे पंचव सपा य योआला ॥७८२॥
पंचसया चुलसीआ छचेच सपा नबुत्तरा हुंति । नाप्पत्तीह दुचे उप्पन्ना निछुए सेसा ॥ १८३ ॥ __ भगवतो वर्द्धमानस्वामिनो ज्ञानोत्सत्तेरारभ्य यायचतुर्दश वर्षाणि अतिक्रान्तानि तावदत्रान्तरे बहुरताः समुत्पेदिरे, एवं प्रतिपदमक्षरगमनिका कार्या, भावार्धस्वयम्-ज्ञानोत्पतेरेवारभ्य षोडशवर्षात्यये जीवप्रदेशार, समुत्पमाः, भगवति निवृते चतुर्दशोचरवर्षशतातिकमे अव्यक्तमताः, विंशस्युत्तरद्विवर्षशतातिक्रमे सामुच्छेदाः, अष्टाविंशत्युत्तरद्विवर्षशतात्यये क्रियाः, चतुश्चत्वारिंशदधिकपञ्चवर्षशतात्यये त्रैराशिकाः, चतुरशीत्यधिकपञ्चवर्षशतात्वये अबद्धिकाः, षट चैत्र झातानि नवोत्तराणि वोटिकानां, नाणुप्पत्तीई'त्यादि, आद्यौ द्वौ निन्हवी जमालितिष्यगुप्ताभिधी यथाक्रमं ज्ञानो-1 सत्तेरारभ्य चतुईशषोडशवर्षातिक्रमे जाती, शेषास्त्वव्यक्कादयो निवृते भगवति यथोक्तकालातिक्रमे इति ॥ अधुना । सूचितमेवार्थ मूलभाष्यकृत् यथाक्रमं स्पष्टयन्नाहचउस वासाणि तया जिणेण उप्पाष्टियस्स नाणस्स। तो बहुरयाण दिवीसावथीए समुप्पना ॥१२॥ मू.मा.)
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... अत्र मूल संपादने यत् गाथा-क्रम || १८३ || मुद्रितं तत् मुद्रण-स्खलना मात्र, इह गाथा-क्रम || ७८३ || एव वर्तते ।
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“आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [२२०८], भाष्यं [१२६], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- जिनेन भगवता महावीरेणोत्पाटितस्य ज्ञानस्य यदा चतुर्दश वर्षाणि गतानि तदा बहुरतानां दृष्टिः श्रावस्त्यां नगाँजमालेनिश्यक मल-1 समुत्पन्ना ॥ यथोत्पन्ना तथोपदर्शयन् सनगाथामाह
न्हवत्वं च. वृत्ती जिहा सुदंसण जमालिऽणुन सावत्थि सिंदुगुजाणे । पंच सया य सहस्सं टंकण जमा लि मुत्तूण।।१२६॥(मू.भा.)। उपोदयानन कुंडपुरं नगरं, तत्थ सामिस्स जेट्ठा भगिणी सुदंसणा णाम, तीसे पुत्तो जमाली, सो सामिस्स मूले पाहतो पंचहिक
सएहिं सम, तस्स सामिणो घूया अणोजंगी नाम पियदंसणा, सावि तमणु पबइया सहस्सपरिवारा, जहा पन्नत्तीए तहा। ॥४०२॥ भाणिय, एक्कारस अंगा अहिजिया जमालिणा, सो सामि आधुच्छिऊण पंचसयपरिवारो सावायं गतो, तत्थ तिदुगे
उजाणे कोहगे चेइए समोसढो, तत्व से अंततेहिं रोगो जातो, न तरह निसन्नो अच्छिउं, तो समणे भणियाइतोसेनासंथारयं करेह, ते काजमारद्धा, अत्रान्तरे जमालिहज्वराभिभूतस्तान् विनेवान् पप्रच्छ-संस्तृतं न वा ?, ते उक्त
वन्तः-संस्तृतमिति, स चोत्थितो जिगमिपुरर्द्धसंस्तृतं हवा क्रुद्धः क्रियमाणं कृतमित्यादि सिद्धान्तवचनं कर्मोदयतो द वितथमिति चिंतयामास, क्रियमाणं कृतमेतद्भगवद्वधनं वितर्थ, प्रत्यक्षविरुद्धत्वात् , अनावणः शब्द इति वचनवत् ,
तथाहि-अर्द्धसंस्तृतः संस्तारोऽसंस्तृत एव दृश्यते, ततः क्रियमाणत्वेन प्रत्यक्षसिद्धेन कृतस्वधर्मोऽपनीयते इति प्रत्यक्ष
विरुद्धता, ततो यद्भगवानाचष्टे-क्रियमाणं कृतमित्यादि वदनृतं, किन्तु कृतमेव कृतमिति, उक्तं च भाष्यकृता-"सक्खं है चिय सत्थारो न कज्जमाणो कतोत्ति मे जम्हा ।" (वि. २३०८) अन्यच-यदि क्रियमाणं कृतमित्यभ्युपगमस्ततः कृत
स्यापि करणक्रिया प्रपन्ना, तथा च सत्यनुमानविरोधाद्यनेकदोषप्रसक्किा, तथाहि न कृतं क्रियमाणमप्रेऽपि भावात्
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... अत्र प्रथम निह्नव 'जमाली' वर्णयते
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२३०९-२३१२], भाष्यं [१२६], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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है| चिरन्तनघटवत् , अथ कृतस्यापि करणक्रिया तर्हि कृतत्वाविशेषादाकालमपरिसमाप्तिः, आह च-"जस्सेह कजमाणं है
कयंति तेणेह विजमाणस्स । करणकिरिया पवना, तथा च बहुदोसआवत्ती ॥१॥ कयमिह न कज्जमाण, सम्भावातो चिरंतणघडोष । अहवा कयंपि कीरइ, कीरउ निचं न य समत्ती ॥२॥" (विशेषा. २३०९-१०) अपिच-कृतमिति करणक्रिययोचीणमुच्यते, ततो यदि कृतं ततः क्रियमाणत्वायोगः, करणक्रियोत्तीर्णतया करणक्रियाया वैकल्याद्, अन्यच्च-कृतमिति वदता कपत्ययस्यातीते काले निर्वर्तितमिति प्रतिपन्नम् , अथ च क्रियमाणं पूर्वमभूतं सम्पति भवदुपल
भ्यते ततः कात्ययस्यायोगः, इतश्चायोगो-घटादीनां कर्तुमारब्धानां द्राधीयसा कालेन परिनिष्पन्नतयोपलब्धेः क्रियाहै प्रथमसमय एव करणक्रियोत्तीर्णत्वायोगात् , तथाहि-नारंभक्रियाप्रथमसमय एव घटादयः परिनिष्पन्नाः समुपलभ्यन्ते,
नापि शिवकाद्यद्धायां, किन्तु विवक्षिते कियाचरमसमये इति, तथा चोकम्-"किरियावेफ चिय पुषमभूयं च दीसए होते। दीसइ दीहो यजओ किरियाकालो घडाईणं ॥१॥नारंभेच्चिय दीसइ न सिवादद्धाए दीसइ तदंते। तो नहि किरियाकाले कर्ज जुत्वं तदन्तमि॥२॥" (विशेषा. २३११-२) एवं स्वमतं युक्तिभिरुपस्थायैवमेव मरूपणां चकार, स चेत्थं प्ररूपयन स्वगच्छ
स्थविररिदमुक्तः-हे आचार्य ! क्रियमाणं कृतमित्यादि भगवद्वचनमवितथमेव, प्रत्यक्षविरुद्धत्वायोगात् , तथाहि-क्रियट्रमाणं नाम कियाविष्टमुच्यते, तद्यदि क्रियमाणं न कृतमित्यभ्युपगमस्तर्हि क्रियावैफल्यप्रसक्तिः, कार्योत्पादनार्धं हि क्रिया,
प्रथमक्षणभाविन्या च क्रियया कार्य नोत्पादित क्रियमाणस्य कृतत्वानभ्युपगमात् , तद्यदि प्रथमे क्रियाक्षणे कार्य मा..सालानोत्पर्श तत उत्तरेष्वपि क्रियाक्षणेषु तस्योत्पत्तिमा भूत, को हितासामुत्तरासां कियाणामात्मनि रूपविशेषो येन प्रथमया
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [२३०९-२३१२], भाष्यं [१२६], मूलं [- /गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्राक
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श्रीजा- नत्यादित ताभिरुत्पाद्यते !, तसा सर्वदा कार्यात्तत्त्वयोगतः किकावैफल्यासक्ति अन्य च र कार्यस्थोत्पत्तिः, विवक्षिते 5 जमालिमश्यक मल- क्रियाचरमसमये घटादेर्दर्शनात् , ततः प्रथमसमयेऽपि किश्चिदुस्पन्नमिति प्रतिपत्तव्यं, यच्चोत्पन्नं तन्नोत्तरक्रिया मिरुत्पाद्यते तखण्डनं या वृत्तौ निष्पमस्योत्पाद्यस्वायोगाद्, अन्यथा सर्वासामप्युत्तरक्रियाणां तत्रैव क्षय इति कार्यायोगः, ततो यत् यस्मिन् समये कार्य उपोद्घात कर्जुमारब्धं तत्तस्मिन् समये परिनिष्ठामियतीति न क्रियमाणं कृतमित्यादिभगवद्वचनं प्रत्यक्षविरुद्धं, यदप्युक्तम् 'अन्यच्च
यदि क्रियमाणं कृतमित्यन्युपगम इत्यादि' तदप्यसम्यक् कृतस्य सतः करणक्रियानभ्युपगमात्, न खलु वयं करणक्रि॥४०॥ दियोतीर्ण सन्तं क्रियमाणत्वेनाभ्युपगच्छामः, किन्तु यत् यस्मिन् समये कर्नुमारभ्यते तत्तस्मिन्नेव समये तद्योग्यक्रियायो
गतः परिनिष्पत्तिमुपैतीत्येतद्वदामः, तथा च कुतोऽनुमानविरुद्धत्वादिदोषासङ्गः, एतेन यदप्युक्तम्-'अपि च कृतमिति
कृतमित्यादि'तत्र) करणक्रियोत्तीर्णस्य सतः क्रियमाणत्वानभ्युपगमात्, अन्यथा तुभयमप्यविरुद्धं, पूर्वसमये असतः कर्तुमारभ्यमाणत्वात् क्रियमाणस्वं, तस्मिन्नेव च समये परिनिष्ठामभ्युपगतमतः कृतत्वमिति, यच्चोक्तम्-'अन्यच्च कृतमिति | वदतेत्यादि', तदप्यसमीचीन, कृतं हि नाम करणक्रियोत्तीर्ण, यच्च यस्मिन् समये क्रियमाणं तत्तस्मिन्नेव समये करणक्रियाया | उत्तीर्ण, भूयःकरणक्रियानपेक्षणात् , न च चिरकालनिर्वतितमेव कृतमुच्यते, भूतमात्रे क्तप्रत्ययविधानात् , सा च भूतमात्रता | क्रियमाणेऽपि करणक्रियोत्तीर्णत्वेनाविशिष्टेति न तप्रत्ययासम्भवः, यदप्यवादीत् 'इतश्चायोगो-घटादीनां कर्तुमारब्धाना-18
G ॥४.३॥ मित्यादि तदपि चिबिजडिमावबोधक, यतः-प्रतिसमयमन्यदन्यद्विलक्षण कार्य तत्तत्सामग्रीवशादपजायते, तथाअध्यक्षतोर दर्शनात् , यश्च यस्मिन् समये कर्जुमारम्यते तत्वसिमेव समये निष्ठामुपगच्छति, यश्च दीर्घः क्रियाकालो, दृश्यते स प्रति-18
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२३१५-२३१८], भाष्यं [१२६], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
समयभाविना परस्परविलक्षणानां बहूनां कार्याणां, न स्वेकख, तेन बदुच्यते-'यदि क्रियमाणं कृतं वर्दि घटः प्रथमसमय एव क्रियमाणः कृत इति परिपूर्ण उपलभ्येत, न चोपलभ्यते, तस्मातत्सारमिति तदपाकृतमवसेवं, प्रथमसमये घटस्य |
करणानारम्भात्, परमसमये हि घटः कर्तृमारब्धा, स च तस्मिन् समये उपलभ्यते एव, प्रथमसमये तु मृत्पिण्डादिक। एक मारब्धम् , अन्यारम्भे च कथमन्यदुपलभ्यते, न खलु घटः पटारम्भे समुपलभ्यो भवत्ति, उकं. च-पइसमउम्प
आणं परोप्परविलक्खणाण सुबहणं । दीहो किरियाकालो जइ दीसइ किंथ कुंभस्स ! ॥१॥ अन्नारंभे अन्नं किहत सादीसइ जह घडो पडारंभे? | सिवगादओ न कुंभो किह दीसइ सो तदद्धाए ॥२॥" ( विशेषा- २३१५-६) लोकस्तु
मृत्पिण्डादीन्यपि कार्याणि घटकार्यानुयायीनीति घटत्वेनाध्यवस्यति, भवानपि च रथूलमतितया ' व्यवहारपतितः४
सन् तथैवानेकप्रभूतकार्यक्रियाफलमतिद्राधीयांसं कालं घटे लगयति, आह-"पइसमयकजकोडीनिरवेक्खो घडमयाठा भिलासोऽसि । पइसमयकज कालं थूलमइ घडमि लाएसि ॥१॥" (विशेषा. २३१८) भगवद्वचनं च निश्चयमतानुगतं,
तदेव च प्रमाणीकुर्वद्भिः साधुभिरपि यत् यत्र नभोदेशे यस्मिन् समये आस्तरीतुमारब्धं तचत्र तस्मिन् समये समा-18 स्तीर्णमेवेति सत्त्वमपेक्ष्य युष्मान् प्रत्यवादि-आस्तीर्णः संस्तारक इति, ततो न कश्चिद्दोषः । एवं सो जाहे न पडिवजह | ताहे असदहता तस्स वयणं गया सामिसगासं, अण्णे तेणेव समं ठिया, पियदंसणावि तत्थेव ढंको नाम कुम्भकारो0
समणोचासतो तस्स घरे ठिया, सा वंदिउमागया, तंपि तहेव पनबेइ, सा तस्साणुरागेण मिच्छत्तं पडियन्ना अजाणं भापतिकहेर, तं च डंक भणइ, सो चिंतेइ-एसा चिपडिवचा बाहचएणं, ताहे सो भणइ-अहं न याणामि एवं विसेस
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७८२-७८३] वि० भा० गाथा [२३१५-२३१८], भाष्यं [१२६], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्री मावश्यक मल
य० वृत्ती उपोद्घाते
॥४०४॥
Jain Education Into
तरं, अन्नया कबाई तीसे सज्झायपोरिसिं करेंतीए ढंकेण भायणाणि उवचंतेण ततोहुत्तो इंगालो छूढो, ततो तीसे संधाडीए एगदेसो दहो, सा भणइ सावय ! किं ते संघाडी दडा ?, ताहे सो सवित्थरं पण्णवेइ, सा संबुद्धा, तहत्ति पडिमइ, इच्छामि सम्मं पडिचोयणा, ताहे सा गंतूण जमालिं पन्नवेइ बहुविहं, सो जाहे न पडिवज्जइ ताहे सा सहरसपरि बारा सेससाहुणो अ सामिसगासं गया, इयरोऽवि एगागी चंपं नगरीं गतो, तत्थ सामिस्स अदूरसामंते ठिचा सामिं भाइ-देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा छउमत्थावकमेण वर्षाता, नो खलु अहं तहा छउमत्थावकमेणमवते, अहण्णं उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवकमेण अवकंते, तर णं भयवं गोयमे जमालिं एवं वयासीनो खलु जमाली ! केवलिस नाणे वा दंसणे वा सेलथंभादिणा आवरिज्जइ, जइ णं तुमं जमाली ! उप्पननाणदंसणघरे व्रा णं इमाई दो वागरणाई वागरेहि-सासए लोए ? असासए लोए ?, सासए जीए ? असासर जीए ?, तए णं से जमाली भयवया गोयमेणं एवं वृत्ते समाणे खुभिए नो किंचि पडिवयणं दाउ संचाएइ, तुसिणीए चिट्ठइ, ततो भयवं महावीरे जमाठीं एवं वयासी - अस्थि णं जमाली ! मम बढ़वे अंतेवासी छउमत्था जे पभू एवं वागरणं वागरित्तए जहा अहं, नो पुण एयप्पगारं भासं भासितए, सासए लोए जमाली, जं न कयाइ नासी न कयाइ न भवइ न कयाइ न भविस्सइ, किंतु भुविं भवइ व भविस्सइ य, असासए लोए, जण्णं उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ ओपी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, सासए जीए जमाली !, जनं न कयाइ नासी जाव न भविस्सइ य, असासए जीए, जं नेरइए भविता तिरिक्खजोणीए भवइ तिरिक्खजोणीए भविता मणुस्से भवति, मणुस्से भवित्ता देवे, सो य जमाली सामिस्स एवमाइक्खमाणस्स एय
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जमालिमतखण्डनं
॥४०४॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-],
निर्युक्तिः [ ७८२-७८३ ], वि० भा० गाथा [२३१५-२३१८], भाष्यं [१२७],
मूलं [- / गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
मट्ठ नो सद्दहइ, असद्दहंते सामिस्स अंतियातो अवकमइ, अवकमित्ता बहूहिं असम्भावुग्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेण अप्पाणं परं च दुग्गाहेमाणे बहूई वासाई सामन्नपरियागं पाउणित्ता बहूहिं छट्टमाईहिं अप्पाणं भावित्ता अद्धमासियाए | संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिते कालं किचा लंतए कप्पे तेरससागरोवमट्टिईए किबिसएस | देवेसु उववन्नो | अक्षराणि त्वेवं नीयंते- ज्येष्ठा- महती सुदर्शनाभिधाना भगवतो भगिनी तस्याः पुत्रो नाम जमालिः, तस्य अनवद्याङ्गी नाम भगवतो दुहिता गृहिणी, अन्ये तु व्याचक्षते - ज्येष्ठा सुदर्शना अनवद्याङ्गीति जमालिगृहिणीनामानि श्रावस्त्यां नगर्यो तिंदुकोद्याने, जमालेर्निह्नवस्य दृष्टिरुत्यन्नेति वाक्यशेषः, तत्र पञ्च शतानि साधूनां सहस्रं चार्यिकाणाम्, एतेषां च मध्ये यः स्वयं न प्रतिबुद्धः स जमालिं मुक्त्वा शेषः सर्वोऽपि ढङ्केन प्रतिबोधितः । गतः प्रथमो निह्नवः । साम्प्रतं द्वितीयं प्रतिपादयति
सोलस वासागि तथा जिणेण उप्पाडि अस्स नाणस्स । जीवपए सि अदिट्ठी उसनपुरम्मी समुप्पन्ना ॥ १२७॥ (म्.भा.) जिनेन भगवता महावीरेणोत्पादितस्य ज्ञानस्य- केवलज्ञानस्य यदा षोडश वर्षाणि अतिकान्तानि तदा जीवप्रदेशि कदृष्टिः ऋषभपुरे समुत्पन्ना । कथमुत्पन्ना ?, रायगिहं नगरं, तत्थ गुणसिलयं चेइयं, तंमि वसू नाम भयवंतो आयरिया चोदसपुवी समोसढा, तस्स सीसो तीसगुत्तो नाम, सो आयप्पवायपुढे इमं आबावगमज्झाइ - एगे भंत ! जीवप्पएसे जीवेत्ति वसवं सिया ?, नो इणट्टे समट्ठे, एवं दो जीवप्पएसा तिनि संखेजा असंखेजा वा जाब एगपएसूणेऽविय णं नो जीवेति वचवं सिया, जम्हा कसिणें पडिदुने लोगागासपएस तुहपए से जीवेत्ति वत्तवं सिया' इत्यादि, एवमहितो
अथ द्वितीय निह्नव 'तिष्यगुप्त' वर्णयते
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [७८२-७८३] वि० भा० गाथा [२३३७-२३४०], भाष्यं [ १२७], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीआव श्यक मलय० वृत्ती
उपोद्घाते
॥४०५॥
मिथ्यात्वोदयतो विप्रतिपद्मः सन् इदमभिहितवान् यथेकादयो जीवप्रदेशाः खल्वेकप्रदेशहीना अपि न जीवव्यपदेशं लभन्ते, किन्तु चरमप्रदेशयुक्ताः, ततः स एवैकः प्रदेशो जीवः, जीवव्यपदेशस्य तद्भावभावित्वात् स एवं प्रतिपादयन् गुरुणाऽभिहितो नैतदेवं जीवाभावप्रसङ्गात्, तथाहि भवदभिमतोऽन्त्योऽपि प्रदेशो न जीवः, अन्यप्रदेशतुल्यपरिमाणत्वात् प्रथमादिप्रदेशो वा जीवः, शेषप्रदेशतुल्यपरिमाणत्वात् अन्त्यप्रदेशवत् न च पूरण इतिकृत्वा तस्य जीवत्वं ★ युज्यते, एकैकस्य पूरणत्वाविशेषात्, एकमपि विना तस्यासम्पूर्णत्वात् उक्तं च - " गुरुणाऽभिहितो जइ ते पढमपएसो ॐ न सम्मतो जीवो। तो तप्परिणामोचिय जीवो कहमंतिमो एसो १ ॥ १ ॥ अहव स जीवो कह नाइमोत्ति १ को वा विसेसद्देऊ ते १। अह पूरणोति बुद्धी एकेका पूरणे तस्स ॥ २ ॥” ( विशेषा. २३३७-८) अपिच- कृत्स्नः - परिपूणों जीव इत्युक्तं, तत्र यदि प्रतिप्रदेशं जीवत्वं न स्यात् ततः कथमन्तिमप्रदेशप्रक्षेपेऽपि समुदाये जीवत्वं भवेत् १, प्रत्येकमभावात्, रेणुषु तैलघत्, आह च- "जं सबहा न वीसुं सबेसुवि तं न रेणुतेल्लं व । सेसेसु असम्भूतो जीवो कहमंतिमपरसे ॥ १ ॥ " ( विशेषा. २३४० ) अथ किमत्र युक्तिभिः !, आगमः प्रमाणम्, आगमे च शेषाः सर्वेऽपि प्रदेशा जीवत्वेन निषिद्धाः, न त्वन्तिमप्रदेशः, तस्मात् स एव जीव इति, तदप्ययुक्तं, अन्त्यस्यापि प्रदेशस्यैकत्वेन 'एगे भंते । जीवप्पएसे जीवेत्ति वत्तवं सिया' इत्यादिना निषिद्धत्वात्, किंच- यदि तवागमः प्रमाणं तत आगमे ' जम्दा कसिणे | पडिपुने लोगागासम्पएस तुल्लप्पएसे जीवे जीवेति वचवं सिया' इत्यनेन सर्वप्रदेशा जीवत्वेनाभिहिताः, समुदायस्य समु| दायिभ्यो व्यतिरिक्तस्याभावात्, उकं च आह सुमि निसिंद्धा सेसा न उ अंतिमपरसो ॥ १ | नणु एयोति निसिद्धो
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अन्त्यप्रदेराजीवमतनिरासः
॥४०५॥
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययन [ - ],
निर्युक्ति: [७८२-७८३], वि० भा० गाथा [ २३४१-२३४२], भाष्यं [ १२८ ], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
सोऽवि सुए जड़ सुखं पमाणं ते । सुते सवपसा भशिया जीवो न धरिमो ॥ २ ॥ चि (विशेषा. २३४२-६) अथ यदि प्रतिप्रदेशं जीवत्वं तर्हि कथमेकादिप्रदेशानामागमे जीवत्यनिषेधः कृतः १, उच्यते, परिपूर्णसमुदायस्य सत एकजीवत्वख्यापनार्थम्, अन्यथा प्रतिप्रदेशं जीवत्वप्रतिपादने प्रतिजीवं जीवबाहुल्याशङ्काप्रसक्तेः एवमभिधीयमानेऽपि यदा न प्रतिपद्यते 'ताहे से काउस्सग्गो कतो, एवं सो बहूहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेण य अप्पा वरं च बुग्गामाणो गतो आमलकप्पं नयरिं, तत्थ अंबसालवणे ठितो, तत्थ मित्तसिरीनाम समणोवासतो, तथ्यमुद्दा य. अन्ने, ते निग्गया आगया साहुजोत्ति, पच्छा सो पण्णवेइ, मितसिरी जाणइ जहा एए णिण्हगा, तहावि माइट्ठाणेणं पइदिणं गंतूण धम्मं मुणेइ, अण्णया तस्स घरे संखडी जाया, ताहे तेण निमंतिया - तुम्हेहिं सयमेव मम घरमागंत, ते गया, ताहे तस्स निविट्ठस्स विपुला खजगविद्दी नीणिया, ततो एकेकातो खंडखंडं देइ, एवं कूरस्त कुसणस्स वत्थस्स, वे जाणंति-एस पृच्छा दाहिड, पच्छा पाएस पडितो, सयणं च भणइ एह बंदह साहू पडिलाभिया, अहो यहं पन्नो स पुन्नो जं तुब्भे मम घरं सयमेवागया, ताहे ते भांति किं धरि सियामो अम्हे ?, सो भणइ-तुज्झे मए ससिद्धांतेण | पडिलाभिया, जइ नवरि वद्धमाणसामिस्स तणपण सिर्द्धतेण (ती) पडिलाभेमि तत्थ सो संबुद्धो भणइ-इच्छामि अज्जो ! सम्मं पडिवोयणा, ताहे पच्छा सावरण विहिणा पडिलाभिता, मिच्छादुक्कडं कथं, एवं ते सवे संबोहिया झालोइयपढिकंता विहरति । अनुमेवार्थमुपसंजिहीर्षुराह
रायगिहे गुणसिलए बसु चउदसपुषि तीस गुन्ताओ। आमलकृष्णा नगरी मित्तसिरी कूरपिउडाइ ॥ १२८॥ (मा.)
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२३४१-२३४२], भाष्यं [१२९], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-131 अस्याः प्रपश्चार्थ उक्त एव, अक्षरगमनिका वेवम्-ऋषभपुरमिति वा राजगृहमिति वा एकार्थ, तत्र राजगृहे नगरे गुण- अव्यक्तमअयक मल-ताशिलके उद्याने वसुर्नाम चतुर्दशपूर्वी आचार्यः समवसृतः, तस्य शिष्यात् तिष्यगुप्तादेषा दृष्टिरुत्पन्नेति वाक्यशेषः, सच.. तखण्डन पातिष्यगुप्त आमलकल्पा नाम या नगरी तां गतः, तत्र मित्रश्रीः श्रावकः, तेन कूरपिउडादिना देशीवचनमेतत् करसि-11
क्यादिना प्रतिलाभनेन प्रतिबोधितः॥ गतो द्वितीयो निन्हवः, सम्प्रति तृतीयप्रतिपादनार्थमाह
है चउदस दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। अवत्तगाण दिट्टी सेअधिआए समुप्पन्ना ॥१२९॥ (भा.) ॥४०॥ सिद्धिं गतस्य वीरस्य यदा द्वे वर्षशते चतुर्दशाधिके समतिकान्ते तदा अव्यक्तकानां दृष्टिः श्वेताम्बिकायां नगया।
समुत्पन्ना ॥ सेयवियाए पोलासे उजाणे अज्जासाढा नामायरिया समोसढा, तेसि बढे आगाढजोगपडिवनगा अग्झाहै यति, स एवायरितो तेसिं वाणायरिओ, अण्णो तत्थ नत्थि, ते य आयरिया रत्तिं हिययसूलेण मया सोहम्मे कप्पे
नलिणिगुम्मे विमाणे देवत्ताए उववण्णा, ओहिं पांजंति, जाव पेच्छंति सरीरगं, ते य साहू आगाढजोगपडिवण्णगा, ते न जाणंति जहा आयरिया कालगया, ताहे तं चेव सरीरगं देवो अणुपविट्ठो, पच्छा उद्ववेइ-वेरत्तिय करेह, एवं तेण तेसिं दिषप्पभावेण लहुं चेव समाणिय, पच्छा निप्फन्ने सुते भणइ-खमह भंते ! जं तुब्भे मए असंजएण बंदाविया, अहं अमुगदिवसे कालगतो, एवं सो खामेचा पडिगतो, तेवि तं सरीरगं छड्डेऊण चितेति-एचिरं कालं असंजतो वंदितो,51४.६॥ ततो ते अधत्तगभावं भावेति-को जाणइ किं साहू देवो वा!, तो न बंदिजन्ति, अन्नहा असंजयनमणं होज्जा, मुसावातोवा, जहा एस अमुगोत्ति, एवमव्यक्तभावं प्रतिपद्यमानास्ते स्थविररूचिरे-ननु यदि परस्मिन् सर्वत्र भवतां सन्देहस्तहि
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... अथ तृतीय-आदि निहनवा: वर्णयन्ते
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“आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [२३६५], भाष्यं [१२९], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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येनोकं देवोऽहमिति तत्रापि किं न सन्देहः !, स किं देवो वा अदेवो वेति, अथ स स्वयमेवाचकथत् अहं देवस्तथा द्रा देवरूपं साक्षात् तस्योपलब्धमतो न तत्र सन्देहो, यद्येवं तहिं ये स्वयं वदन्ति वयं साधवः साधुसमाचारं च परिपूर्ण
मरक्तद्विष्टमनसः कुर्वाणाः साक्षादुपलभ्यन्ते तेषु का सन्देहो येन यूयं परस्परं न वन्दध्ये, अपिच-साधुवचनमेव *
सत्यतया प्रतिपत्तुं युक्त, न देववचनं, देवो हि क्रीडाद्यर्थमन्यथापि भाषमाणः सम्भवति, न साधषः, तेषामरकद्विष्टतया 31 दाविपरीतार्थकथनप्रवृत्तेरसम्भवात्, अन्यञ्च-यदि प्रत्यक्षेष्वपि यतिषु भवतां सन्देहः तर्हि परोक्षेषु जीवादिषु सूक्ष्मव्यव
हितविप्रकृष्टेषु सुतरामसौ भविष्यति, ततः सम्यक्त्वस्याप्यभावः, अथ मन्येथा जिनवचनान्न तत्र सन्देहस्तहि तदेव जिन४ वचनं श्रमणपरिज्ञानेऽपि समानं, तथा च भगवदचनम्-"आलएण विहारेणं, ठाणा चंकमणेण य । सक्को सुविहिओ। दनाउं, भासावेणइएण य ॥१॥" (आव. ११६० नि.) तस्माद्वन्दनीया एव यतयः, किश्व-यथा जिनप्रतिमां जिनगुण
रहितामपि जानन्तो भवन्तः परिणामविशुद्धार्थ वन्दन्ते तथा किं न श्रमणमपि !, उकं चं-"जह वा जिणिदपडिमं | जिणगुणरहियपि जाणमाणावि । परिणामविसुद्धत्थं वंदह तह किं न साहुपि ? ॥१॥" (वि. २३६५) अथ श्रमणाहै नामसंयतरूपधारिणां वन्दने तद्गतपापानुमतिप्रसङ्गोऽतस्तद्वन्दनप्रतिषेधः, प्रतिमायां तूक्तदोपाभावाद् वन्दनमिति, तद-||
युक्तं, प्रतिमायामपि तथाविधभोगाऽथिव्यन्तराधिष्ठितायां वन्दने तद्गतपापानुमतिप्रसङ्गस्य दुर्निवारत्वात् , अथ | 2 भवतु प्रतिमा व्यन्तराधिष्ठिता तथापि तां जिनबुझ्या विशुद्धचित्तो नमस्यन्नदोषभाग भवति, परिणामस्य विशुद्धत्वात् , परिणाम एव च निश्चयतः प्रमाणम्, यत उक्तम्-“परमरहस्समिसीणं समत्वमणि पिडगझरियसाराणं । परिणामियं
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [२३६७-२३६८], भाष्यं [१२९], मूलं [- /गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- पमाण निरछयमवलंचमाणाणं ॥१॥"(ओष. १९) यद्येवं तर्हि पतिरूपमपि यतिबुया नमस्यतो विशुद्धचित्तस्य अव्यक्कमश्यक मल-17/न कश्चिद्दोषः, परिणामविशुद्धस्तत्रापि सद्भावात्, आह च भाष्यकृत्-"अस्संजयजइरुवे पावाणुमई मई, न पडिमाए । तखण्डनं या वृत्तीनणु देवाणुगयाए पडिमाइवि होज सो दोसो ॥१॥ अह पडिमाएँ न दोसो जिणबुद्धीऍ नमतो विसुद्धस्स । तो अइउपोदूधाते||रूवं नमतो जइबुद्धीए कहं दोसो॥२॥" (वि.२३६७-८) अधैवं वदतां भवतामतिप्रसङ्गः, प्रकटमसंयतरूपानपि|
पार्श्वस्थादीन् नमस्यतो विशुद्धचिसस्य दोपाभावप्रसक्तः, तदसम्यक्, तद्वन्दनस्य भगवन्निषिद्धतया दोपहेतुत्वात् , ते ॥४०७॥ हि प्रकटमसंयमचेष्टया चेष्टमानाः प्रवचनविडम्बना, प्रवचनविडम्बनां च नमनं लिङ्गधारिणो विडम्बकस्येव प्रवचन
लाघवादिसम्पादकतया दोपहेतुः, अतो भगवता निषिद्धम् , उक्कं च-"जह लंबगलिंग जाणंतस्स नमतो हवा दोसो। निबंधसंपि नाऊण वंदमाणे धुर्व दोसो॥१॥" (आ. ११४९ नि.) इत्यादि, ये तु सम्यक् संयमचेष्टया चेष्टन्ते ते प्रवचनोन्नतिकारिणोऽपरेषां संयमविषयबहुमानोत्पादकाः, अत एव सन्तानेन तीर्थप्रवृत्तिहेतवश्चेति, तेषु भवतां व्यव-1 हारतो नमस्करणमनुज्ञातमनेकगुणसद्भावात् , अन्यथा तीर्थोछेदप्रसक्तः, तथाहि-द्वौ जिनशासने नयी-निश्चयनयो18
व्यवहारनयश्च, तत्र निश्चयनयतः सर्व दुर्गेयं, साम्भोगिका अपि हि साधवस्तत्त्वतः कुशीला वा अकुशीला या पारिबिन। प्राणोऽचारित्रिणो वतिन ज्ञातं शक्यते, ततस्तैः सह संवासोऽपि न भवतामुचितो, एहिणोऽपि वन्दमानाः किं ते तदानी Invesn 18 भावयतय उत गृहस्था एवेति दुर्लक्ष्यमतस्तेषु यथोक्तरूपाऽऽशीरपि न दातुं शक्या, व्रतार्थमुपस्थितोऽपि किं भव्यः ।
किंवाऽभन्यो यदिया किंधौरोमा पारदारिको वेति को वेद !, ततः स्थिता दीक्षापि शिष्याणामिति, तदेवं लिश्चयन-
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“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
निर्युक्तिः [७८२-७८३], वि०भा० गाथा [२३८२-२३८३], भाष्यं [१२९], मूल [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
अध्ययनं [ - ],
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येनैव केवलेन वर्त्तमाम्युपगमे सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः, व्यवहारवस्तु यख सूत्रोच्य पतिगुणाः स यतिरितरस्वयति', गृहस्थोचितने पय्यादिपरिकलितो गृही शेषस्वगृही, प्रशमसंवेगादिगुणान्वितो भब्य ईतरस्त्वमन्या, परोक्षेऽपि ग्रहणोि तसामध्यामपि व परद्रव्यानपहारतोऽधौरः, परस्त्रीसम्भाषणादिविकलोऽपारदारिकः, शेषस्तु धीरः पारदारिकक्षेति ज्ञातुं शक्यते, ततो व्यवहारप्रवृत्तिस्तीर्थानुच्छेदश्च तस्माज्जनवचनं प्रमाणीकुर्वद्भिरवश्यं द्वावपि नयौ प्रतिपचम्यौ, तत्प्रतिपत्तौ च पूर्वप्रव्रजितानां वन्दनमिति, एकं च" जर जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छए मुयह । ववहारपरिबाए तित्युच्छेजो जसोऽवस्सं ॥ १ ॥ निच्छयतो दुनेयं को भावे कम्मि बट्टए समणो ।। ववहारतो य जुज्जर जो पुठितो चरितम्मि ॥ २ ॥" (विशेषा. २१८२-३ ) इत्यादि, एवं भणमाणावि जाहे न पडिवजंति ताहे उघाडिक, ततो ते विहरंता रायगिहं गया, तत्थ मोरियर्वसप्पसूतो बलभद्दो नाम समणोवासतो, तेण आगमिया जहा इहमागयत्ति, ताहे बेण गोहा आणता-यश्वह गुणसिलए जे वधइयगा ते इहमाणेह, तेहिं आणिया, रण्णा भणिया-सिग्धं कडगमद्देण मारेह, ततो तेहिं पुरिसेहिं हत्थी कष्टणा व आणीया, ताहे ते साहुणो पभणिया-अहे जाणामो, जहा तुमं सावतो, तो म्हं (कई) मारायेसि ?, राया भगइ-तुम्भं चोरा शु चारिया णु अभिमरा जु? को जाजह, से भांति अम्हे साहुणो, राया भनइ-फिह सुम्भे समणा या चारिगा वा अपि समणोवासतो वा न वा ?, साहे वे संबुद्धा, रजिया परिवन्धा, निस्संधिया जाया, ताई संवाडिया रेहिं मउहि प, पच्छा संयोहणद्वार तुभं मए इर्म एयारूवं कयंति मुफ्त बाबिया अमुदार्यमुपसंहरमाह
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-, नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा H, भाष्यं [१३०,१३१], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- सेपवि पोलासादे जोगे तदिवसहिअयसूले य । सोहम्मि नलिणिगुम्मे रायगिहे मुरिअबलभद्दे ॥१३०॥ (मा.) सामुच्छेश्यक मल- श्वेताम्ब्यां नगर्या पोलासे उद्याने आषाढाख्य आचार्यः, योगे उत्पाटिते सति तद्दिवस एव हृदयशूले, समुत्पने मृत दनिरासः य. वृत्ती इति वाक्यशेषः, स च सौधर्मकल्पे नलिनीगुल्मे विमाने समुत्पद्यावधिना पूर्ववृत्तान्तमवगम्य विनेयानां योगान् । उपोद्घात सारितवानिति वाक्यशेषः । सुरलोकगते तस्मिन् अव्यक्तमताः सन्तस्तद्विनेया विहरंतो राजगृहे नगरे मौर्यवंशोबो,
चलभद्रो नाम राजा, तेन सम्बोधिता इति वाक्यशेषः॥ उक्तस्तृतीयो निहवः, सम्पत्ति चतुर्थमभिधित्सुराह-- ॥४०८॥ वीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । सामुच्छेइअदिही मिहिलपुरीए समुप्पन्ना ॥१३१ ॥ (भा.)
सिद्धिं गतस्य वीरस्य भगवतो यदा विंशत्युत्तरे द्वे वर्षशते गते तदा सामुच्छेदिकदृष्टिमिथिलायां पुर्या समुत्पन्ना। कथमुत्पन्ना, उच्यते-मिहिलाए नयरीए लच्छिघरे चेइए महागिरी आयरिया, तेर्सि सीसो कोडिन्नो, तस्स सीसो आसमिचो, सो अणुप्पयाए पुबे नेउणियं वत्थु पढइ, तत्थ छिन्नछेयनयवत्तबयाए आलावगो जहा-सधे पडुपण्णसमय-18 नेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव वेमाणिया, एवं बिइयादिसमएसु वत्तवं, एत्थं तस्स वितिगिच्छा जाया जहा सवे | पडुप्पण्णसमयसंजाया वोच्छिजिस्संति, एवं च कुतः सुकृतदुष्कृतानां कर्मणामनुभवनम् , उत्पादानन्तरमेव सर्वस्य 2
विनाशसद्भावात्, तथा चोकं तन्मतेन-"एवं च कतो कम्माणुवेयणं सुकयदुकामति । उप्पायाणंतरतो सबस्सविणा-181 त ससम्मावा ॥१॥" स एवमादि प्ररूपयन् गुरुभिरभिहितो-वत्स ! इदमेकस्य क्षणक्षयवादिन ऋजुसूत्रनयस्य मतं,
न सर्वनवानां, जिनमतं तु सर्वनयसापेक्षम्, अतो मिथ्यात्वं मा बाजीत, न खलु स्वपरपर्यायानन्तधात्मकस्य वस्तुनः13
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२३९३-२३९५], भाष्यं [१३०,१३१], मूलं -/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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कालपर्यायमात्रविनाशे सर्वथा विनाश उपपत्तिक्षमा, सतः सर्वथा विनाशायोगात्, 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत' इति वचनात्, अथ किमत्र कुर्मः ? सूत्रे साक्षादेवमभिहितत्वात् , तदयुक्तं, सूत्रे द्रव्यार्थतया शाश्वतस्यापि प्रतिपादनात् , तथा च सूत्रम्-"नेरइया णं भंते ! किं सासया? असासया ?, गोयमा 1 सिय सासया, सिय असासया, से केणद्वेणं भंते । एवं बुच्चइ !, गोयमा ! दबट्ठयाए सासया पज्जवट्ठयाए असासया" इत्यादि, अपिच-सबे पडुप्पण्णसमया नेरइया वोच्छिजिस्संती'त्यादावपि सूत्रे न सर्वथा विनाशोऽभिहितः, प्रथमसमयादिविशेषणोपादानात्, तथाहिप्रथमसमयविशिष्टा नारका व्यवच्छेत्स्यन्ति,न सर्वथा, मूलद्रव्याविनाशतः, एवं द्वितीयादिसमयविशेषणोपादानेऽपि भावनी-1 यमिति, उकं च भाष्यकृता-“एगनयमएणमिदं (ण) सुत्तं वच्चाहि मा हु मिच्छत्तं । निरवेक्खो सेसाणवि नयाण हिययं वियारेहि ॥ १॥ न य सबहाविणासो अद्धापजायमेत्तनासम्मि । सपरपजायाणंतधम्मिणो वत्थुणो जुत्तो ॥२॥ | वि. २३९३ ) अह सुत्ताउत्ति मई नणु सुत्ते सासयंपि निहिं । वत्थु दबहाए असासयं पजयहाए ॥ ३ ॥ (वि.२३९४) त (ए) स्थवि न सबनासो समयाइविसेसणं जतो विहियं । इहरा न सवनासे समयाइविसेसणं जुत्तं ॥४॥(वि.२३९५) ततः कथं सुकृतदुष्कृतानां कर्मणामनुभवनाभावः । एवं जाहे पण्णवितोवि णेच्छइ ताहे उग्घाडितो, ततो सो समु-18
छेदं वागरेंतो कपिल्लपुरं गतो, तत्थ खंडरक्खा नाम समणोवासगा, ते य सुंकवाला, तेहिं आगमियेल्लगा, ततो तेहिं । .६९गहेजण मारेउमारद्धा, ताहे ते भयभीया भति-अम्हेहिं सुर्य जहा तुम्भे सावगा, तहावि एए साडू मारेहते भणंति
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(४०) ।
"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा गाथा [२३९३-२३९५], भाष्यं [१३२-१३३], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
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श्रीआव-पाजे पाइयगा ते वोच्छिन्ना पुर्व चेव, (तुम्ह) सिद्धृतो एस, अतो तुम्भे अण्णे केऽवि चौरा, ते भणति-मा मारेह, एवं तेहिंसामुच्छ श्यक मल- संबोहिया पडिवन्ना सम्मत्तं ॥ अमुमेवार्थमुपसमिथुराहया वृत्ती|| मिहिलाए लच्छिघरे महगिरि कोडिन आसमित्त अनेउणियणुप्पबाए रायगिहे खंडरक्खा य ॥१३शा(भा.) उपोद्घाते | मिथिलायां नगर्या लक्ष्मीगृहे चैत्ये महागिरय आचार्यास्तेषां शिष्यः कौण्डिन्यः, तस्यापि शिष्योऽश्वमित्रः, सोऽनुप्र-18
सवादाभिघाने पूर्वे नैपुणिकं वस्तु पठन् छिन्नच्छेदनकनयवतच्यतायामालापकानधीयानो मिथ्यात्वमगमत् , स च समुच्छेद ॥४०९॥
प्ररूपयन् काम्पिल्यपुरं राजगृहापरनामकं गतः, तत्र खण्डरक्षकाभिधानाः श्रमणोपासकास्तैः प्रतिबोधितः ॥ उक्तश्चतुर्थो | |निहवः, सम्पति पञ्चमं निहवमभिधित्सुराहI अट्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। दोकिरियाणं दिट्ठी उल्लुगतीरे समुप्पन्ना ॥१३॥(भा.)
यदा भगवतो द्वे वर्षशते अष्टाविंशत्युत्तरे गते तदा द्विक्रियाणां दृष्टिरुल्लुकातीरे समुत्पन्ना ॥ यथोत्पन्ना तथा प्रदश्यतेउल्लुका नाम नदी, तीए तीरे एगम्मि खेडवाणं, बीयम्मि उल्लुगातीरं नगरं, तत्थ महागिरीणं आयरियाणं सीसो धण || गुत्तो नाम आयरितो; तस्सवि सीसो गंगो नाम, सो आयरिओ, सो तीसे नदीए पुषिमे तडे, आयरिया से अवरिमे तडे,
ततो सो सरयकाले मायरियवंदतो उच्चलितो, सो य खल्लीडो, तस्स खल्ली उण्हेण डज्झइ, हेट्ठा य सीयलेण पाणिएण | *सीयं, ततो सो चिंतेइ-जहा सुत्ते भणियं-एगेण समएण एगा किरिया वेइजइ, सीया वा उसिणा वा, अहं च दो किरि-टू
यातो-वेएमि, अतो दो किरियातो एगेण समएण वेइज्जति, ताहे आयरियाण साहइ, प्रमाणयति च-भवतो द्वावपि युग
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॥४०९॥
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(४०) ।
"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२४२९-२४३२], भाष्यं [१३२-१३३], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
पदुपयोगी अनुभवसिद्धत्वात्, मम पादशिरोगतशीतोष्णक्रियासंवदनवत्, आचार्याः प्राहुः-कथं यूयमेवं प्रज्ञापयत, न है खस्वेकेन समयेन द्वावुपयोगी, केवलं समयस्य मनसश्चातिसूक्ष्मत्वात् सन्नपि कालभेदो नोपलक्ष्यते, तथाहि-शीप्रसञ्चरण-181
धीलं मनः, ततो येनेन्द्रियदेशेन यस्मिन् काले तन्मनः सम्बध्यते तदा तस्मिन्निन्द्रियदेशे तन्मात्रज्ञानहेतुरुपयुज्यते,
दूरभिन्नदेशव्यवस्थितानि च पादशिरांसि, ततः कथमुपलभते भवान् युगपत् दूरभिन्नदेशे पादशिरोगतशीतोष्णहै| वेदनानुभवरूपे द्वे क्रिये, उक्कं च-"सुहुमाऽऽसुचरं चित्तं इंदियदेसेण जेण जं कालं । संबज्झइ तं तम्मत्तनाणहेउत्तिणो तेण
॥१॥ उवलभए किरियातो जुगवं दो दूरभिन्नदेसातो। पायसिरोगयसीउण्हवेयणाणुभवरूवातो ॥२॥ जुम्म (वि.२४२९-३०) इतश्च नैककालमुपयोगद्वयं, यतोऽयमुपयोगमयो जीवस्ततो येनेन्द्रियदेशेन करणभूतेन यस्मिन् काले उपयोगवान भवति तदा सर्वात्मना तथास्वाभाव्यात् तन्मात्रोपयोगवानेव जायते, ना|पयुक्तो, यथेन्द्रियोपयोगे वर्तमानो माण-18 | वकः सर्वात्मना तदुपयोगमात्रः, ततस्तदुपयोगमात्रोपयुक्तशक्तित्वात् कथं तत्कालमेवार्थान्तरोपयोगं गन्तुमर्हति !, तथा दाचोक्तम्-"उयतोगमतो जीवो उवजुज्जइ जेण जमि जं कालं । सो तम्मेत्तुवयोगो होइ जहेंदोवयोगम्मि ॥१॥ सो|81
तदुवयोगमत्तोवउत्तसत्तित्ति तस्सम चेव । अत्यंतरोवयोग जाउ कह केण वसेण? ॥२॥" (विशेषा. २४३१.२) ततो यदुक्तमनुभवसिद्धत्वादिति साधनं तदसिद्ध प्रतिपत्तव्यं, दृष्टान्तोऽपि च साध्यसाधनविकलः, केवलमतिसूक्ष्मातीन्द्रियपुद्गलस्कन्धनिष्पादितत्वात् सूक्ष्मं मनः शीघ्र सञ्चरणशीलं च, कालोऽपि च समयावलिकादिरतिसूक्ष्मः, तत उत्तराधर-1 व्यवस्थापितोत्पलपत्रशतवेध इव यदिवाऽलावधक इव सन्तमपि कालभेदं भवान्नोपलक्षयते, आह प-"समयाइमुहु
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(४०)
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[H]
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H
“आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७८२-७८३], वि० भा० गाथा [ २४३३, २४५० ], भाष्यं [१३४, १३५], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्री आवश्यक मल. ४
य० वृत्ती उपोद्घाते
॥४१०॥
मयातो मन्नसि जुगवं च भिन्नकापि । उप्पलसयवेपिव जह व तमलायचकं च ॥ १ ॥ (विशे. २४३३ ) एवं पण्णविमाणोऽवि जाहे न पडिवाइ ताहे उग्घाडितो, सो हिंडतो रायगिहं गतो, महातवोतीरप्पभ्रं नाम पासवणं, तत्थ मणिनागो नाम नागो, तस्स चेइए ठाइ, सोऽवि तत्थ परिसामज्झे कहेइ जहा एगेण समएणं दो किरियातो वेइज्जंति, ततो मणिनागेण तीसे परिसाए मझे भणियं - अरे दुहसेह ! कीस एयमपण्णवणं पण्णवेसि ?, एत्थ चेत्र ठाणे ठिएण भयवया वद्धमाणसामिणा वागरियं जहा एगेणं समएणं एवं किरियं जीवो वेएइ, तुमं किं सि लट्ठयरो जातो १, ता छड्डेहि एयं वायं मा ते दोसेण सेहामि, एवं बीहावितो उवहितो भइ-मिच्छामि दुकडंति, उक्तं च- "मणिनागेणारद्धो भयोववत्तिपडिवोहितो वोत्तुं । इच्छामो गुरुमूलं गन्तुण ततो पडिकंतो ॥ १ ॥” (वि. २४५०) एनमेवार्थे सजिघृक्षुराह - नइखेडजणवउल्लुग महगिरि घणगुत्त अज्जगंगे य। किरिया दो रायगिहे महातबोतीर मणिनागो ॥१३४॥ (भा.)
उल्लुका नाम नदी, तदुपलक्षितो जनपदोऽप्युल्लुका, उल्लुकायाश्च नद्या एकसिशन तीरे धूलीप्राकारावृतनगररूपं खेटं, द्वितीये उल्लुकातीरं नाम नगरं, तत्र महागिरिशिष्यो घनगुष्ठो नाम, तस्यापि शिष्य आर्यगङ्गः, स शिरसा खल्वाटः, स मार्गशिरसि मासे नदीमुत्तरन् पादशिरोग तशीतोष्ण वेदनानुभवतो युगपत् द्वे क्रिये अनुभूयेते इति प्रतिपन्नवान्, राजगृहे गतः, तत्र महातपस्तीरप्रभं नाम प्रश्रवणं, तत्र मणिनागो नाम नागः, स तं प्रतिबोधितवानिति वाक्यशेषः । उकः पञ्चमो निन्हवः, सम्प्रति षष्ठमुपदर्शयन्नाह
पंच सया चोयाला तहआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजिआए तेरासियदिट्टि उत्पन्ना ॥ १३५ ॥ (भा.)
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सामुच्छेदिकः
॥४१०॥
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“आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२४३३,२४५०], भाष्यं [१३६], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
यदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य भगवतो पञ्च वर्षशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि गतानि तदा पुरि अंतरञ्जिकायां, मकारोऽलाक्षणिकः, त्रैराशिकानां दृष्टिरुत्पन्ना। कथमिति चेत्, उच्यते-अंतरंजिया नाम पुरी, तत्थ भूयगुहं नाम चेइयं, तत्थ सिरिगुत्ता नाम आयरिया ठिया, तत्थ बलसिरी नाम राया, तेसिं पुण सिरिगुत्ताणं नाम थेराण भायणिज्जो रोहगुत्तो नाम सीसो, सो पुण अन्नगामे ठियल्लतो, पच्छा आयरियं वंदओएइ, तत्थ य एगो परिवायगो पोट्टे लोहपट्टेण बंषित्ता ।
जंवूसालं च गहाय हिंडइ, पुच्छितो भणइ माणेण-पोर्ट फुट्टइ, ता लोहपट्टेण बद्धं, जंवूसाला जहा एत्थ जंबुद्दीवे नस्थि3 हा मम पडिवादी, ताहे तेण य पडहगो नीणावितो, जहा सुण्णा परप्पवाया, तस्स य पोट्टसालो नाम कयं, सो पडहगो रोह-IG VIगुत्चेण वारितो, अहं वायं देमित्ति, ततो सो पडिसेहिता गतो आयरियसगासं, आलोएइ-एवं मए पडहगो वारितो।।
अमुमेवार्थमुपसंहरलाहहै पुरिमंतरंजि भूअगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते अपरिवाय पुद्दसाले घोसण पडिसेहणा वाए ॥१३६॥(भा.) अपुरी अन्तरजिका, तरया बहिर्भूतगुहं नाम चैत्यं, तत्र श्रीगुप्तनामाचार्यः स्थितः, तस्यां च पुरि बलश्रीनामराजा, तस्य
चाचार्यस्य भागिनेयो रोगुतो नाम शिष्यः, सोन्यग्रामे स्थितः, तस्यां च नगर्या पोदृशालो नाम परिव्राजकः, स वादे-|| है वादविषये पटहेन घोषणां कारितवान्, तेन च रोहगुप्तेनान्यस्माद् ग्रामादागच्छता पटहकः प्रतिषेधितः, आगतेन चाचा
येभ्यो निवेदितम् , आचार्याः प्राहुः-विरूपं कृतं, स विद्याभिर्वलीयान, ततो वादे पराजितोऽपि विद्याभिरुपतिष्ठते, ताश्च ४. विद्यास्तस्येमाः सप्त
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... निहलव-कथानक मध्ये अत्र त्रैराशिक-मत-वादिन: कथा
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"आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -], नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७-१३८], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
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श्रीमाव- विच्छू सप्पे मुसग मिगी वराही य कागि पोयाई । एआहिं विजाहिं सो उ परिवायगो कुसलो ॥१३७॥ (भा. राशिकाः श्यक मल- वृश्चिकेति वृश्चिकप्रधाना विद्या गृह्यते, 'सप्पत्ति सर्पप्रधाना, 'मूसगे'त्ति मूषिकप्रधाना, तथा मृगी नाम विद्या, या यवृत्ती मृगीरूपेणोपघातकारिणी, एवं वराही च, 'कागिपोपाई' इति काकविद्या पोताकीविद्या च, पोताकी शकुनिका, एताभिउपोद्घाते विद्याभिः, सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात्, एतासु विद्यासु परिव्राजकः कुशलः, ततः स रोहगुप्तोऽवादीत्-किमिदानी ॥४१॥
शक्यं कापि नष्टुम् !, आचार्योऽवोचत्-गृहाण वत्सेमाः पठितसिद्धाः सप्त प्रतिपक्षविद्याः, ता एवोपदर्शयति|मोरिय नउलि विराली बग्घी सीही य उस्लुगिओवाई। एआभो विजाओ गिण्ह परिव्वायमहणीओ॥१३८॥(भा. | वृश्चिकविद्याप्रतिपक्षभूता मायूरी, सर्पविद्याप्रतिपक्षभूता विद्या नाकुली, मूपिकविद्यापतिपक्षभूता बिडाली-विडालप-13
धाना, मृगीप्रतिपक्षभूता व्याघ्री, वाराहीप्रतिपक्षभूता सिंही, काकीप्रतिपक्षभूता उलूकी, ओवाई इति पोताकीप्रतिपक्षहाभूता उलावकी-उलावकप्रधाना, एता विद्यास्त्वं गृहाण परिव्राजकमथनीः, रयहरणं च से अभिमंतिऊण दिन्नं, जइ अन्नंपि दाउद्देइ तो रयहरणं भमाडेजासि, तो अजेओ होहिसि, इंदेणावि न सक्तिहिसि जेर्ड, ताहे तातो विजातो गहाय गतो सभ,131
भणियं चणेण-एस किं जाणइ !, एयस्स चेव पुषपक्खो होउत्ति, परिषायगोचिंतेइ-एते निउणा, तो एयाण चैव सिद्धत गेण्हामि, इति विचिन्त्याभ्यधात्-इह जीवाश्चाजीवाश्चेति द्वावेव राशी, तथैवोपलभ्यमानत्वात् शुभाशुभराशिद्वयवदि- ॥४११॥ त्यादि, ततो रोहगुप्तोऽचिन्तयत्मत्पक्ष एवानेन गृहीतस्तत एतद्बुद्धिपरिभवोत्पादनार्थं त्रीन राशीन् व्यवस्थापयामीति चेतसि परिभाष्य तत्पक्षमदूषत्, असिद्धोऽयं हेतुरन्यथोपलम्भात, जीवा अजीवा नोजीवाश्चेति राशित्रयदर्शनात् ,
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -], नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [-], भाष्यं [१३७-१३८], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
AkshakKERStes
तत्र जीवा नारकतिर्यगादयः, अजीवा घटादयः, नौजीवा गृहकोकिलापुच्छादयः, ततो जीवाजीवनोजीवरूपाखयो राशय|स्तथैवोपलभ्यमानत्वात् , अधममध्यमोत्तमराशित्रयवत् एवमनेकाभियुक्तिभिः स निष्पश्चव्याकरणः कृतः । ताहे सो परि
बायगो रुडो विच्छुए मुयइ, ततो सो तेर्सि पडिवक्खे मोरे पक्खिया, ताहे तेहिं विच्छुएसु इएसु पच्छा सो सप्पे मुयइ, इयरो| | तेसिं पडिघायणथं नउले, ताहे उंदरे, इयरो तेर्सि मज्जारे, पच्छा सो मिगे, इयरो तेसिं बग्घे, ताहे वराहे, इयरो तेसिं | सीहे, ततो कागे, तेसिं पडिवक्खे उलूगे, ततो पोयागि मुयइ, इयरो तासिं ओयाई, एवं जाहे न तरइ ताहे गद्दही मुका, सा तेण रयहरणेण आहता, सा परिवायगरस उवरि छरित्ता गया, ताहे सो परिवायगो हीलिजतो निच्छूढो, ततो. सो परिवायगं पराजिणिऊण गतो आयरियसगासं, आलोएइ जहा एवं सो परिवायगो जितो, आयरिया भणंति-कीस ते उवहि
एण न भणिय-नस्थि तिन्नि रासीतो?, मए एयरस बुद्धिपरिभवणत्थं पण्णवियातो, इयाणिपि गंतुं भणिहि, सो नेच्छइ, मा है ओहावणा होजा, पुणो पुणो भणितो भणइ-यदि नाम त्रयो राशयः प्ररूपितास्ततः कोऽत्र दोषो', जीवदेशरूपस्य
नोजीवस्यागमेऽपि प्रतिपादनात्, तपाहि-देशनिषेधपरो नोशब्दस्तत्र तत्र प्रदेशे श्रुते प्रसिद्धः, ततो गृहकोकिलापुच्छादि जीवाजीवेभ्यो विलक्षणं जीवद्रव्यदेशरूपं नोजीवशब्दवाच्यं भवति, गृहकोकिलापुच्छादिकं हि न जीवत्त्वेन व्यपदेष्टुं |शक्यं, तत्कायैकदेशत्वेन तद्विलक्षणत्वात् , नाप्यजीव इति प्रतिपाद्य, स्फुरणादिभिस्तेभ्योऽपि विलक्षणत्वात् , अथ च जीवद्रव्यदेशरूपं ततो नोजीव इति, अन्यच्च-सर्वनयसमूहात्मकं जिनमतं, नयाश्च नैगमादयः सप्त, तत्र समभिरूदो नयो जीवप्रदेश नोजीवशब्दवाच्यमिच्छन्नागमेऽप्यभिहितः, तथा चानुयोगद्वारेषु प्रमाणद्वारान्तर्गतं नयप्रमाणं विचारयता]51
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -], नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [१३७-१३८], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-15/पोफ-"समभिरूदो सद्दनय भणइ-जइ कम्मधारएण भणसि तो एवं भण-जीवे य से पएसे नोजीवे"त्ति, ततः प्रदेश- राशिकाः श्यक मल-16 लक्षणो जीवैकदेशो नोजीवः श्रुतेऽप्युक इति न कश्चिद्दोषः, एवं पडुलूकेनोक्त आचार्यः प्रतिविधत्ते-यदि नाम तव श्रुतं | यः वृत्तीप्रमाणं ततो यदेवाभिहितं श्रुते तदेवाङ्गीकर्तव्यं, न शेपं, श्रुते च तत्र तत्र प्रदेशे द्वावेव जीवाजीवलक्षणी राशी प्रतिपाद्येते, उपोदपातेन तृतीयं नोजीवलक्षणं राश्यन्तरम् , तथा च स्थानाने सूत्रम्-'दुवे रासी पन्नत्ता, तंजहा-जीवा चेव अजीवा चेव,16
है अनुयोगद्वारेषु-कइविहा णं भंते ! दवा पपणत्ता, गोयमा ! दुविहा पण्णता, तंजहा-जीवदया य अजीवदधा य । ॥४१२॥ उत्सराध्ययनपु-जीवा घेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए' इत्यादि, यदप्युक्त-'देशनिषेधपरो नोशब्द इत्यादि, तद
प्यसमीक्षिताभिधानं, प्रायेण विवक्षितद्रव्यैकदेशे द्रव्यात्पृथग्भूते नोशब्दः प्रवर्तते, सर्वत्र तथाप्रयोगदर्शनात्, न च पुच्छादिकं गृहकोकिलादिभ्यो भिन्नं, तत्सम्बद्धत्वात्, तथापि हि छिन्नेऽपि गृहकोकिलापुच्छादौ तदन्तराले सम्बद्धा एवं जीवप्रदेशाः सन्ति, तथा सूत्रेऽभिधानात्, तथा च व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम्-अह भंते । कुम्मो कुम्मावलिया गोहा गोहाचलिया गोणे गोणावलिया मणुस्से मणुस्सावलिया महिसे महिसावलिया एएसि णं दुहा वा तिहा वा संखेजहा वा|| छिन्नाणं जे अंतरा देवि तेहिं जीवपएसेहिं फुडा, हंता फुडा, पुरिसे णं भंते ! ते(सिं) अंतरे हत्थेण वा पाएण वा कढण है वा किलिंचेण वा आमुसमाणे वा संफुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अपपायरेण वा तिक्खेण सत्यजाएणी
आच्छिदमाणे वा विञ्छिदमाणे वा अगणिकाएणं समोडहेमाणे वा तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा विवाहं वा हैं उपाएइ छविच्छेयं वा करेइ, तो इणढे समडे, नो खलु तत्थ सत्थं कमई" इति, अथ यद्यन्तरालेऽपि जीवप्रदेशाः
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२४६४-२४६५], भाष्यं [१३७-१३८], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सम्बद्धाः सन्ति ततस्ते तैजसकार्मणशरीरानुगता वर्त्तन्ते इति किमिति चक्षुषा न गृह्यन्ते ?, उच्यते, स्वतो जीवप्रदेशानाम| मूर्त्तत्वात् , कार्मणतेजसपुद्गलानां चातिसूक्ष्मत्वात् , उक्तं च-"गिहकोइलाइपुच्छे छिन्नेऽवि तदंतरालसंबंधो । सुत्तेऽभिहितो सुहुमामुत्तत्तणतो तदग्गहणं ॥१॥"(वि.२४६४) ननु मा भूच्चक्षुषा ग्रहणं, केवलं यथा देहे पुच्छादौ च स्फुरणादिभिर्लिङ्गैजी-1 यप्रदेशानामुपलम्भनं तथाऽन्तरालेऽपि कस्मान्न भवति !, उच्यते, देहे देहैकदेशे वा स्थितानां तेषां तथोपलभ्यमानस्वभायत्वात् , वस्तुस्वभाव एष न पर्यनुयोगमहति, तथाहि-प्रदीपरश्मयो मूर्त्ता अपि स्थूला अपि च भूकटकुड्यवरण्डकान्धकारा
दिस्थूलमूर्त्तवस्तुगता एव ग्रहणमायान्ति,न केवलेष्वाकाशप्रदेशेषु,तथास्वभावत्वाद्, एवमत्रापि भावनीयम् ,उक्तं च-"गेझा IK मुत्तगयातो नागासे जह पदीवरस्सीतो। तह जीवलक्खणाई देहे न तदंतरालंमि॥१॥ (वि.२४६५)केवलमतिशयिना दृष्टत्वात् सात सन्तीति प्रतिपत्तव्याः, ततोऽपान्तरालेऽपि प्रदेशानां सद्भावतः सम्बद्धत्वात् पुच्छादिकं गृहकोकिलादिजीवेभ्यो न भिन्न
मिति जीव एव, न तु नोजीव इति, यदप्युक्तं तत्र समभिरूढो नयो जीवप्रदेशं नोजीवशब्दवाच्यमिच्छन् आगमेऽप्य-1 1| भिहित' इत्यादि, तन्न सम्यक्, यतः समभिरूढोऽपि नयो नोजीवमिति त्रुवाणो न जीवादन्यं प्रदेशमभिमन्यते 'जीवे | दय से पएसे' इति कर्मधारयसमासाङ्गीकरणात्, उक्कं च-"नोजीवंति न जीवादन्नं देसमिह समभिरूदोत्ति । इच्छा
बेइ समासं जेण समाणाहिगरणं सोश (वि. २४७६) ततः पृथग्भूतस्य देशस्य तेनाप्यपरिकल्पनान्न तृतीयराशिसम्भवः, ४ा अथवा भवतु तस्य भिन्नदेशपरिकल्पना तथापि न तन्मतं प्रमाणम्, एकनयात्मकतया मिथ्यारूपत्वात् , प्रमाण तु सर्वनयम-THI हातावरोधि सम्यग्रूपत्वात्, प्रमाणभूतं चेह वस्तु विचार्यते, ततो द्वावेव राशी प्रतिपद्यतामिति, उकं.च-"इच्छड व
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"आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं -, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०मा गाथा [२४७३,२४७९-२४८०], भाष्यं [१३७-१३८], मूलं -/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-13समभिरुढो देसं नोजीवमेगनइगं तुमिच्छतं संमत्तं सपनयमयावरोहेण ॥१॥ जइ सबनयमयं जिणमयमिच्छसि राशिका श्यक मल- पवज दो रासी । पयविप्पडिवत्तीएवि मिच्छत्तं किं न रासीसु॥२॥" (वि. २४७९-८०) अपिच-भवतु भवदभिमा-131 यवृत्ती येण जीवदेशस्य भेदपरिकल्पना नोजीवशब्दवाच्यता च, तथाऽप्येवमजीवदेशोऽपि नोअजीवशब्दवाच्या प्रसजति, द| उपोदूपाते न्यायस्योभयत्र समानत्वात् , ततश्चत्वारो राशयः प्रसका:-जीया नोजीवा अजीवा नोअजीवा इति,न त्रयो राशयः,*
आहब-"एवं पिरासतो ते न तिन्नि चत्तारि संपसजति । जीवा तहा अजीवा नोजीवा नोअजीवा य॥१॥" (वि.२४७३)/% १४१॥
तत एवमपि भवतः प्रतिज्ञाच्याघाता, तस्माजिनवचनमेवाश्रयणीय,न स्वमत्या किश्चित्परिकल्पयितव्यमपारसंसारप्रसाट एवं पण्णविजमाणोऽवि न जाहे पडिबज्जइ ताहे आयरिएहिं चिंतियं-जहा एस पणट्ठो बहुलोगं नासिहिद, तो णं राय
सभाए गंतूण बहुलोगपञ्चक्खं निगिण्हामि, जेण गझवको न हबइ, एवं चिंतिऊण आयरिया रायसभं गया, बलसिरि-18 पारायाण भणति-तेण मम सीसेण अवसिद्धतेण भणितो, अम्हं दुवे चेव राशी, इयाणि सो विपडिवण्णो तो तुझे अहं
वार्य सुणेह, राइणा पडिस्सुयं, ततो तेसिं रायसभाए रायपुरतो आवडियं, जहेगदिवसं एवं उवाय छम्मासा गया, ताहे| हराया भणइ-मम रज्ज अवसीयइ, ततो आयरिएहिं भणियं-इच्छाए मए एचिरं कालं धरितो, एत्ताहे पासह, कलं
दिवसे आगए निगिण्हामि, ततो पभाए भणइ-कुत्तियावणे परिक्खिनउ, तस्य सपदवाणि अत्थि, तत्थ गया, ततो ॥१३॥
भणियं-आणेह जीवे अजीवे नोजीवे य, ताहे देवयाए जीवा अजीवा य दिन्ना, नोजीवा नस्थिति भणियं, अजीवं वा|| दपुणो देह, एवमादिचोयालसएण पुच्छाण निग्गहितो । अमुमेवार्थमुपसंहरनाह
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“आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - ३ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [७८२-७८३] वि० भा० गाथा [ २४९०, २५०८], भाष्यं [१३९], मूल [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचितवृ
सिरिगुत्तेणवि छलुगो छम्मास विकडिऊण वायजिओ । आहरण कुत्तिआवण चोयालसएण पुच्छार्णं ॥ १३९॥ (मा.)
श्रीगुष्ठाचार्येण षटपदार्थप्ररूपणात् उलूकगोत्रत्वाश्च षडुलूको - रोहगुप्तः, उक्तं च- "नामेण रोहगुतो गोत्रेणालप्पए स बोलूगो । दबाइछप्पयत्थोवएसणा सो छलूगत्ति ॥१॥ (वि. २५०८) पूर्व षण्मासान् विकृष्य-अतिवाह्य वादे जितो-निगृहीतः, कथमित्याह- 'आहरणकुत्तियावणे' त्यादि, स्वर्गमपातालभूमीनां त्रिकं कुत्रिकं, तात्स्थ्यात्तव्यपदेश इति भुवनत्रयेऽपि यद्वस्तु जातं तत् कुत्रिकमित्युच्यते, तस्य पणायानिमित्तमापणो - हट्टः कुत्रिकापणः, यदिवा को - पृथिव्यां त्रिकस्य - जीवधातुमूलात्मकस्य समस्तलोकभाविनो वस्तुजातस्थापणः कुत्रिकापणः, अस्मिंश्च कुत्रिकापणे वणिजः कस्यापि मन्त्राद्याराधितः सिद्धो व्यन्तरः सुरः क्रायकजनसमीहितं समस्तमपि वस्तु कुतोऽप्यानीय सम्पादयति, तन्मूल्यद्रव्यं तु वणिग् गृह्णाति, अन्ये त्वभिदधति - वणिग्विवर्जिताः सुराधिष्ठिता एव ते आपणाः सन्ति, मूल्यद्रव्यमपि स एव व्यन्तरसुरः स्वीकरोति, एते च कुत्रिकापणाः प्रतिनियतेष्वेव नगरेषु भवन्ति, न सर्वत्र, एष च कुत्रिकापणो दृष्टान्त इति वादि| प्रतिवादिप्रतिज्ञातार्थनिर्णय समर्थ इत्याहरणं, आहरणं च स कुत्रिकापणः तस्मिन् यत् वक्ष्यमाणभूजलज्वलनादिविषयाणां पृच्छानां चतुश्चत्वारिंशं शतं तेन तत्र चतुश्चत्वारिंशं शतमिदं तेन रोहगुप्तेन पटू पदार्थाः प्रकल्पिताः, तद्यथा-द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमत्रायाः, उक्तं च- 'दवगुणकम्मसामन्नविसेसा छट्टओ य समवाओ। एए मूलपयत्था छलुगेण पकपिया पढमं ॥ १ ॥ तत्र द्रव्यं नवभेदं तद्यथा-पृथिवी जलं तेजः पवनं आकाशं कालो दिक् आत्मा मनश्व, उक्त - "भूजलजलणानिलनहकाउदिसाऽऽया मणो य दबाई भन्नंति नवेयाई सतरस गुणा इमे अपने ॥१॥” (विशे. २४९० )
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"आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२४९१-२४९२], भाष्यं [१३९], मूलं [-/गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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iri श्रीभाव- गुणाः सप्तदश, तद्यथा-रूपं रसो गन्धः स्पर्शः सङ्ख्या परिमाणं पृथक्त्वं संयोगो विभागः परत्वापरत्वे बुद्धिः सुखं दुःखं रात्रिकाः श्यक मल- इच्छा द्वेषः प्रयलच, कर्म पञ्चविधम्-तद्यथा-उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति, उक्तं च-"रूवरसगंधफाय. वृत्ती |सा संखा परिमाणमह पुहुत्तं च । संजोगविभागपरापरत्तबुद्धी सुहं दुक्ख ॥१॥ इच्छा दोस पयचा एत्तो कम्म तयं च पंच-1 उपोद्पाते विहं । उक्खेवणमक्खेवणपसारणाऽऽकुंचणा गमणं ॥२॥" (वि. २४९१-२) सामान्यं त्रिविधं, तद्यथा-सत्ता १ सामान्यं २
11 सामान्यविशेषश्च ३, तत्र द्रव्यगुणकर्मलक्षणेषु पदार्थेषु सदुद्धिहेतुः सत्ता, सामान्यं द्रव्यत्वगुणत्वादि, सामान्यविशेषः पृथि-14 ॥४१४ । चीत्वं जलत्वं कृष्णत्वं नीलत्वमित्याद्यवान्तरसामान्यरूपः, अन्ये वित्धं सामान्यस्य त्रैविध्यमुपवर्णयन्ति-अविकल्प
महासामान्यं १ त्रिपदार्थसहुद्धिहेतुभूता सत्ता र सामान्य विशेषो द्रव्यत्वादि ३, महासामान्यसत्तयोविशेषणव्यत्यय इत्यन्ये, द्रव्यगुणकर्मरूपपदार्थत्रयसदुद्धिहेतुः (महा) सामान्यं, अविकल्पा सत्तेति, अन्त्या विशेषाः, अयुतसिद्धानामाधाराधेयभूतानामिहेतिप्रत्ययहेतुर्यः सम्बन्धः स समवायः, अमीषां च नवानां द्रव्याणां सप्तदशानां गुणानां पञ्चानां कर्मणां 31 बयाणां सामान्यानां विशेषसमवाययोश्चैकत्र मीलने पत्रिंशद्भवन्ति, एकैकविषयाश्च चत्वारो विकल्पाः, पृथिवी अपृथिवी: नोवृथिवी नोअपृथिवी च, एवमबादिष्वपि प्रत्येकं भावनीयं, ततः पत्रिंशचतुर्भिर्गुणिताश्चतुश्चत्वारिंशं शतं भवति, ततः पृथिवीं देहीत्युक्त मृत्तिकां ददाति, अपृथिवीं देहीत्युक्ते मृत्तिकाव्यतिरिकं तोयादि, नोपृथिवीं देहीत्युक्ते न किञ्चिद् ॥ ४१४॥ ददाति तोयादिकं वा प्रयच्छति,न पृथ्व्या राश्यन्तरं, नोअपृथिवीत्युक्तावपिन किश्चिद्ददाति, यदिचा तामेव मृत्तिकां ददाति, एवं सर्वत्र पृच्छा, उत्तप्रकारेण दानं च, न च पुनः कापि तृतीयस्य राश्यन्तरस्य प्रदानमिति, आह च भाष्यकार:-"जीवम
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७८२-७८३] वि० भा० गाथा [२५०४ ], भाष्यं [१४०-१४१], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
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जीवं दाउँ नोजीवं जाइ तो पुणरजीवं । देइ चरिमंमि जीवं न उ णोजीवं न जीवदलं ॥ १ ॥ इत्यादि (वि. २५०४ ) एवं स षडुलूकः कुत्रिकापणे गुरुणा राजसमक्षं निर्जितः, ततो गुरुः श्रीगुप्तनामा नरपतेः सकललोकाच्च परमां पूजामवाप, षडुलूकोऽपि च गुरुप्रत्यनीकत्वात् जनप्रयुक्त धिक्कारोपहतो राज्ञा राजसभातो निष्कासितः । ततः किमित्याह - वाए पराजिओ सो निव्विसओ कारिओ नरिंदेणं । घोसाविअं च नयरे जय जिणो वद्धमाणुन्ति ॥१४०॥ (मा.)
स रोहगुतो गुरुणा वादे पराजितः सन् नरेन्द्रेण निर्विषयः कारितः, तथा पटहकप्रदापनेन समस्तेऽपि नगरे घोषितं यथा जयति जिनः श्रीमान् वर्द्धमान इति, तस्य च रोहगुप्तस्य वादे निर्जितस्य भागिनेयेनापि सताऽनेन महती मम प्रत्यनीकता कृतेति सञ्जातप्रबलकोपेन गुरुणा शिरसि खेलमल्लकः स्फोटितः, ततोऽभिनिवेशात्तेन भस्मखरष्टितवपुषैव स्वमत्या द्रव्यादयः पदार्थाः परिकल्पिताः, तांश्च परिकल्प्य वैशेषिकमतं प्ररूपयामास तच्चान्यैस्तच्छिष्यादिभिः परमां स्फातिमुपनीतम्, आह च भाष्यकृत् - " तेणाभिनिवेसातो समइविंग प्पियपयत्थमादाय । वइसेसियं पणीयं फाईकयमन्नमन्नेहिं ॥ १ ' (वि. २५०७ ) गतः षष्ठो निन्हवः, सम्प्रति सप्तमं प्रतिपिपादयिपुराह
पंचसया चुलसीआ तहआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स । अन्बद्धिमाण दिट्टी दसपुरनयरे समुप्पन्ना ॥ १४१ ॥ (भा.)
यदा सिद्धिं गतस्य भगवतो वीरस्य पश्च वर्षशतानि चतुरशीतानि समतिक्रान्तानि तदा दशपुरनगरे अबद्धिक| निन्हवदृष्टिः समुत्पन्ना । कथमुत्पन्ना १, उच्यते--इह आर्यरक्षितवक्तव्यतायां कथानकं प्रायः कथितमेव यावत् गोष्ठामाहिला
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आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा H], भाष्यं [१४२], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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बीजाव- पदारचारके विग्ध्यनानिकर्मबन्धचिन्ताप कर्मोदयादभिनिविष्टो विप्रतिपन्नः, तत्र कथानकानुसन्धानाव प्रागु-गोष्ठामाहि. ज्यक मल- कानुवादपरां सबहगाधामाह
कालः सप्तमो या वृत्ती दसपुरनगरुच्छुघरे अजरक्खिअपूसमित्ततिअगं च । गुट्टामाहिल नवअट्टमेसु पुच्छा य विझस्स ॥१४२॥ (भा.द्र
निवः उपोद्घात ।
| दसपुरनगरुच्छुपरे-स्वकीये इक्षुगृहे आर्यरक्षितस्तोसलिपुत्राणामाचार्याणामन्तिके प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः, तस्य चाचार्यपदो
पविष्टस्य पुष्पमित्रत्रिकमभूत्, तद्यथा-दुबैलिकापुष्पमित्रः मृतपुष्पमित्रो वखपुष्पमित्रश्च , एतत् प्रागेव भावितं, विन्ध्यस्य ॥४१५॥ दुईलिकापुष्पमित्राचार्यप्रोक्तं व्याख्यानमनुभाषमाणस्य पार्षे गोष्ठामाहिलस्य शृण्वतो नवमेऽष्टमे च पूर्व पृच्छाऽभवत्,
एषोऽक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः, तत्रायं प्रकृताभिसम्बन्धः-विंझो अणुभासमाणो गोहामाहिलस्स अट्ठमे कम्मप्पवायपुये कम्म परूवेइ, यथा किश्चित्कर्म वद्धं भवति, किश्चित् बद्धस्पृष्टं, किंचित् बद्धस्पृष्टनिकाचितं च, तत्र यत् जीव
प्रदेशः सह सम्बन्धमात्रमेव समापनं तद्वद्धं, यथा-अकषायस्य ईयोपथप्रत्ययं कर्म, तच्च कालान्तरस्थितिमनवाप्यैव *जीवप्रदेशेभ्यो विघटते, शुष्ककुड्यापतितचूर्णमुष्टिवत्, पद्धस्पृष्टं नाम यत् प्रथमतो बर्द्ध-जीवेन सह संयोगमात्रमाप-11
नमित्यर्थः परिणामविशेषतः स्पृष्टम्-आत्मप्रदेशैरात्मीकृतमिति भावः, तच्च कालान्तरेण विघटते, आर्द्रलेपकुड्ये सस्नेहचूर्णवत्, बद्धसृष्टनिकाचित नाम तदेव बद्धस्पृष्टं गाढतराध्यवसायेन बद्धत्वादपवनादिकरणायोग्यता नीतं, तच्च कालान्तरेऽपि विपाकतोऽनुभवनमन्तरेण प्रायो नापगच्छति, गादतरबद्धत्वात् , अयं च त्रिविधोऽपि बन्धः सूचीकलाप
॥४१५॥ दृष्टान्तीकृत्य सम्यगेव भावनीयः, गुणावेष्टितसूचीकलापोपमं बद्धं, लोहपबदसूचीसंघातसदृशं बद्धस्पृष्टं, अग्नितक्षघनेना
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [७८२-७८३ ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १४३], मूल [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
ssहतसूचीकलापसन्निभं बद्धस्पृष्टनिकाचितमिति, एवं श्रुत्वा गोष्ठामाहिलः प्राह- नन्वेवं मोक्षाभावः प्रसज्यते, तथाहि-न जीवात्कर्म्म वियोगमर्हति अन्योऽन्याविभागवद्धत्वात् स्वप्रदेशवत्, तस्मादेवमिष्यता
पुट्ठो जहा अबद्ध कंचुइणं कंचुओ समन्नेह । एवं पुट्टमषद्धं जीवं कम्मं समन्नेह ॥ १४३ ॥ ( मू. भा. ) यथा स्पृष्टः - स्पर्शमात्रेण संयुक्तोऽबद्धः-श्रीरनीरन्यायेन न टोलीभूतः कझुकिनं पुरुषं कञ्चुकः समन्वेति समनुगच्छति, एवं स्पृष्टमबद्धं कर्म्म जीवं समन्वेति । प्रयोगश्च - जीवः कर्मणा स्पृष्टो, न बद्धः, वियुज्यमानत्वात्, कञ्जकेनेव तद्वद्वत्, एवं गोडामाहिलेण भणिए विंझेण भणियं-अम्हं एवं चैव गुरुणा वक्खाणियं, गोट्ठामाहिलेण भणिवं-न याणड्डू सो किं वक्खाणेइ?, ताहे सो संकिओ समाणो पुच्छिउं गतो, मा मए अन्नहा गहियं भवेज्जा, ताहे पुच्छिया आयरिया, ते भांतिजहा मए भणियं तहा तुमएवि अधिगयं, ततो विंझेण माहिलवुत्ततो कहितो, ततो गुरू भणति-माहिल भणिती मिच्छा, कथं ?, यदुक्तं 'जीवात्कर्म्म न वियुज्यते' इत्यादि, अत्र प्रत्यक्षविरोधिनी प्रतिज्ञा, यस्मादायुः कर्म्मवियोगात्मकं मरणमध्यक्षसिद्धमेव हेतुरप्यनैकान्तिकः, अन्योऽन्याविभागवद्धानामपि क्षीरोदकादीनामुपायतो विभागदर्शनात्, दृष्टान्तोऽपि न साधनधर्मानुगतः, स्वप्रदेशस्य युतत्वासिद्धेस्ताद्रूप्येणानादिरूप्य (रूप) त्वात्, भिन्नं च जीवात्कम्र्मेति, तथा यदुक्तं- 'जीवः कर्म्मणा स्पृष्टो न पुनर्वद्ध' इत्यादि, अत्रापि किं प्रतिप्रदेशं स्पृष्टो नभसेव त्वङ्मात्रेण कञ्चुकेनेच वा?, तत्र यदि प्रतिप्रदेशमिति पक्षस्तहिं दृष्टान्तदान्तिकयोरसाम्यं, कशुकेन प्रतिप्रदेशमस्पर्शात्, अथ त्वङ्मात्रे स्पृष्ट इत्यभ्युपगमः ततो नापान्तरालगत्यनुयायि कर्म्म, पर्यन्तमात्रवर्तित्वात्, बाह्याङ्गमलवत्, एवं सर्वोऽपि प्राणी भवापान्तरालगतिसंभवे मोक्षभाक्
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७८२-७८३], वि०भा० गाथा [२५२५-२५२७, २३५० ], भाष्यं [१४४ ], मूलं [- /गाथा-] रत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीभव
श्यक मल
य० वृत्ती
उपोद्घाते
॥४१६ ॥
भवेत् कर्मानुगमरहितत्वात् मुक्तवत्, तथा अन्तर्वेदनाऽभावप्रसङ्गः, तन्निमित्तकर्म्मसङ्गस्य तत्राभावात्, यथा सिद्धस्य, नच भिन्नदेशं वेदनानिमित्तमिति वक्तुं शक्यं, शरीरान्तरगतेनातिप्रसङ्गात्, अथ स्वकृतत्वमत्रातिप्रसङ्गनिवारणायालं, तद सम्यक्, अन्तर्वर्तिप्रदेशानां कर्म्मयोगरहितानां कर्तृत्वायोगात्, नाप्यन्तर्वेदनैव नास्तीति वाच्यं, वहिर्निर्वदनस्याप्यन्तबहुशः प्रतिप्राणि वेदनायाः स्वसंवेदन प्रमाणसिद्धत्वात्, उक्तं च- "देहंतो जा वियणा कम्माभावंमि किंनिमित्ता सा ? | निकारणावि जइ तो सिद्धोऽवि न बेयणारहितो ॥ १ ॥ जइ बज्झनिमित्ता सा तदभावे सा न होज तो अंतो । दिट्ठा य सा सुबहुसो बाहिं निधेयणस्सावि || २ || जइवा विभिन्नदेसंपि वेषणं कुणइ कम्ममेवं तो। कहमन्नसरीरगयं न वेयणं कुणइ अन्नस्स १ ॥ ३ ॥” (वि. २५२५- ६-७) तस्मादन्तरपि कर्मास्तीति प्रतिपत्तव्यमन्तर्वेदनासम्भवाद्, अन्यच्च-मिथ्यात्वा| दिप्रत्ययं कर्म्म " मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमादयोगाः कर्म्मबन्धहेतव" इति वचनात्, मिथ्यात्वादयश्च प्रतिप्रदेशं सन्ति, ततः कर्मापि प्रतिप्रदेशमस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्, आइ च " अंतोवि अस्थि कम्मं वियणासम्भावतो तयाएव । मिच्छत्ताई| पचयसम्भावातो य सवत्था ॥ १ ॥” (वि. २३५० ) एवं गिव्हिऊण सो विंझेण भणितो एवं आयरिया भणति, ताहे सो तुण्डिको ठिसो चिंतेइ - समप्पेउ, तो खोडेहामि ॥ अन्नया नवमे पुवे पञ्चक्खाणं साहूण वन्निज्जर, जहा पाणाइवायं पचक्खामि जावज्जीवाए इत्यादि, गोट्ठामाहिलो भणइ-नेवं सोहणं, किं तर्हि ?,
• पचक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायचं । जेसिं तु परीमाणं तं दृद्धं आससा होइ ॥ १४४ ॥ (मू. भा. ) प्रत्याख्यानं सर्वमपि अपरिमाणेन परिमाणाभावेन, कालावधिं विनैवेति भावार्थः, क्रियमाणं श्रेयः, तस्मात्तदेव भवति
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गोष्ठामाहिलः सप्तमो
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७८२-७८३], वि० भा० गाथा [२५२०-२५२१], भाष्यं [ १४४ ], मूलं [- /गाथा ] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
साधूनां कर्त्तव्यं येषां तु मतेन यावज्जीवादिकं परिमाणं प्रत्याख्यानस्य तेषामेवत्प्रत्याख्यानं दुष्टम् - अशोभनं यतस्तत्र 'आससा होइ'चि अनुस्वार लोपादाशंसा भवति, आशंसा च दुष्टपरिणामः, ततस्तदूषितं न शोभनमिति, उक्तं च- "आसंसा आ पत्ते सेविश्सामित्ति दूसियं तीए । जेण सुर्यमिवि भणियं परिणामातो असद्धं तु ॥ १ ॥ रागेण व दोसेण व परिणामेणं न दूसियं जं तु । तं खलु पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेय ॥ २ ॥ (वि. २५२० - १ ) आशंसादोषदुष्टतायां चायं प्रयोगःयावज्जीवकृतावधिप्रत्याख्यानमाशंसादोषदुष्टं परिमाणपरिच्छिन्नावधित्वात्, श्वः सूर्योदयात्परतः पारविष्यामीत्युपवासप्र त्याख्यानवत्, तस्मादपरिमाणमेव प्रत्याख्यानं श्रेयः आशंसारहितत्वात् तीरितादिविशुद्धोपवासादिवदिति ॥ एवं पण्णविंतो विंझेण भणितो-न होइ एवं जं तुमे भणियं एत्यंतरे जं तस्स अवसेसं नवमपुवस्स तं सम्मतं, ततो सो अभिनि| वेसेण दुब्बलिया समित्तसगासं चैव गंतूण भणइ-अन्नहा आयरिएहिं भणियं, अन्नहा तुमं पण्णवेसि, उपन्यस्तश्चानेन तत्पुरतः स्वपक्षः, तत्राचार्यः प्राह - ननु यदुक्तं भवता यावज्जीवकृतावधिप्रत्याख्यानमाशंसादोषदुष्टमित्यादि, तदयुक्तं यतः-| कृतप्रत्याख्यानानां साधूनां न मृता वयं सेविष्याम इत्येवंरूपा आशंसा, किन्तु मृतानां देवभवे मा भूद् प्रतभंग इति कालावधिकरणम्, अपरिमाणपक्षे तु भूयांसो दोषाः, तथाहि - अपरिमाणमिति कोऽर्थः १, किं यावच्छतिरुताना गता द्धा आहोस्विदपरिच्छेदः १ तत्र यदि यावच्छतिरस्ति, एवं सति शक्तिमितिकालावध्यभ्युपगमात् अस्मन्मतानुवाद एव आशंसादोषोऽपि च काल्पनिकस्तुल्यः, अन्यच्च यथाऽस्मत्पक्षे मृतस्य न व्रतभङ्गदोषो यावज्जीवमित्यवधेः परिपूर्णत्वात् तथा ( त्वन्मते ) जीवतोऽपि भोगान् भुञ्जानस्य न स्यात्, एतावत्येव मम शक्तिरिति प्रत्याख्यानस्य पूर्णत्वात्, तथैव
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आगम
(४०)
आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि भागाथा [२५३६-२५३९], भाष्यं [१४४], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
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श्रीभाव- चाम्युपगमे व्रतविषयं न किमपि भयमिति प्रत्याख्यानं कृत्वा पुनभोगासेवनं पुनर्यधाशक्ति प्रत्याख्यानमित्यनवस्था प्रत्या-गोष्ठामाहिश्यक मल- ख्यानस्य, यदपि चागमे तत्र तत्र प्रदेशे प्रसिद्धव्रतानामा(प्रतिषिद्धानामा)चरणे प्रायश्चित्तमेकवतभङ्गे सर्ववतभङ्ग इत्यादि, लः सप्तमो
त दपि प्रलयमगमत् , एतावत्येव मम शक्तिनाधिकेति प्रतिपत्तितोऽतीचारादीनामनवकाशात् , आह च भाष्यकृत्-15 निवः जपान "जह न वयभंगदोसो मयस्स तह जीवओऽवि सेवाए । वयभंगनिब्भयातो पञ्चक्खाणाऽणवत्था य॥१॥ एत्तियमेती है।
सत्तित्ति नाइयारो न यावि पच्छित्तं । न य सबषयनियमो एगेणवि संजयत्तत्ति ॥२॥"(वि.२५३६-७) अथ अनागताद्धा ॥४१७॥
अपरिमाणमिति पक्षः सोऽप्यसमीचीनो, भवान्तरेऽवश्यव्रतभङ्गसम्भवाद्, अपिच-सिद्धोऽपि सकलामनागताद्धां यावत् | तीसंवरधर इति संयतः प्राप्नोति, यावजीवमित्यवधिकरणाभावात् , तथा च सति यदुच्यते-'सिद्धे नोसंजये नोअसंजये
नोसंजयासंजए' इति तदनवकाशम् , आह च-"अहवा सबाणागयकालग्गहणं मयं अपरिमाणं । तेणापुन्नपइन्नो मयोऽवि | भग्गधतो नाम ॥६॥ सिद्धोऽवि संजयोच्चिय सदाणागयद्धसंवरधरोत्ति।" इत्यादि (वि.२५३८-९) परिमितकालानामपि च नमस्कारपौरुष्येकासनादिप्रत्याख्यानानां सूत्राभिहितानामप्युच्छेदप्रसङ्गः, अपरिमाणत्वेन तस्याभ्युपगतो तेषामसम्भवात् , | अपरिच्छेदपक्षेऽपि कालानियमात् व्रतभङ्गादयो दोषास्तदवस्था एव, तत एतद्दोषपरिहाराय श्रुते यावज्जीवमिति |निर्दिष्टं । एवं आयरिएहिं पण्णवितोऽवि जाहे न पडिवज्जइ ताहे जे अण्णगच्छिल्लया थेरा बहुस्सुया य ते पुच्छिया, ते
॥४१७॥ है|वि एत्तियं चेव भणति, सो भणइ-तुझे किं जाणह, तिस्थयरेहिं एत्तियं चेव भणियं जहाऽई भणामि, ते भणति-तुम
न जाणसि, मा तित्थयरे आसापह, जाहे न ठाइ ताहे संघसमवातो कतो, ततो सबसंघेण देवयाए काउस्सग्गो कतो,
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा गाथा [२५३६-२५३९], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४जा भद्दिया सा आगया,भणइ-संदिसह, ताहे सा भणिया-पञ्च तित्थगरं पुच्छ, किंजं गोडामाहिलो भणइ तं सच! किंवा
जं दुब्बलियपूसमित्तपमुहो संघो भणइ तंति !, ततो सा भणइ-मम अणुग्गहं देह, काउस्सग्गं गमणापडियायनिमित्तं, ततो ठिया काउस्सग्गं, ताहे सा भयवंतं तित्थयरं पुच्छिऊण आगया, भणइ-जहा संघो सम्मावादी, इयरो मिच्छावादी,
निण्हतो एस सत्तमो, ताहे सो भणइ-एसा अप्पड्डिा बराइ, का एयाए सत्ती गंतूणवि!, तोऽविन सद्दहइ, ताहे पूसमित्ता दातस्स समीवं गच्छंति, भणंति य-अजो! पडिवज मा उग्धाडिजिहिसि, नेच्छइ, ताहे तेण संघेण बज्झो कतो बारसविहेगा।
संभोगेण-उवहि १ सुय २ भत्तपाणे ३, अंजली पगगहे इय ४ादायणा ५ य निकाए ६ य, अन्भुटाणेत्ति ७ आवरे ॥१॥ १ किइकम्मस्स ८ य करणे, वेयावच्चकरणे ९ इय । समोसरणे १० संनिसेजा ११ कहाए य निमंतणा १२॥२॥ इत्येवंलक्षणेन,
ततो सो अणालोइयअपडिकतो कालगतो । गतः सक्षमो निन्हवः॥ तदेवमुक्का देशविसंवादिनो निन्हवाः ॥ साम्प्रतमनेनैव प्रस्तावेन प्रभूतविसंवादिनो बोटिका भण्यन्ते, तत्र कदैते सञ्जाता इति प्रतिपादयन्नाह
वाससयाहं नचुत्तराई तहआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो योडिआण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पन्ना ॥१४॥(भा.)/18 | यदा सिद्धिं गतस्य भगवतो वीरस्य षट् वर्षशतानि नवोत्तराण्यतिक्रान्तानि तदा रथवीरपुरे बोटिकानां दृष्टिः समुत्पन्ना।
कथमुत्पन्नति चेत्, उच्यते-रथवीरपुर नगर, तत्थ दीवगमुजाणं, तंमि अजकण्हा नाम आयरिया समोसढा, तत्थ एगो ४ साहस्सियमल्लो सिवभूइ नाम स रायाणमुवगतो-तुमं ओलम्गामि, राया भणइ-परिक्खामि, अण्णया राइणा भणितो-बच्च
चामुंडाघरे सुसाणे कण्हचउद्दसीए बलिं देह, सुरा पसूओ य दिपणो, अण्णे य पुरिसा भणिया-एवमेवं एयं बीहावेजा, सो
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CANUARCRACROCK
For more the
... सप्त-निनव-वर्णन अनन्तर बोटिक-मत वर्णनं आरभ्यते
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आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं न, नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [-], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-18|गंतूण चामुडाए बलिं दाऊण छुहिणा (ओ) मित्ति तत्थेय मुसाणे तं पसुयं मारेऊण पउलित्ता खाइतो, ते गोहा सिवावासिएहिं 81बोटिका: श्यक मल- समंता भेरवं रवं करेंति, तस्स रोमुन्भेओऽवि न जायइ, ताहे उहितो गतो, तेहिं सिह, वित्ती दिण्णा, अण्णया य. वृत्ती
सो राया दंडे आणवेइ-वच्चह महुरं गेण्हह, ते सबबलेणं निग्गया, सियभूती य, अदूरसामंते गंतूण चिंतिय-अम्हेहिं न सपोवपाते। पुच्छियं-कयरं मधुरं वच्चामो !, राया य अविण्णवणिज्जो, एवं ते गोंगपंता अच्छति, सिवभूती य तेसिं समवाए।
आगतो भणइ-किं भो अच्छही, तेहिं सिहं, सोऽवि भणइ-दोषि समं चेव गेण्हामो, ते भणंति-न सक्का दलस्स दो
भागे कालं, परिवाडीए एकेकाए गहणे बहु कालो लग्गइ, सो भणइ-जा दुजया तं मम समप्पेह, पंडुमहुरा समप्पिया, ४ ताहे सो पढति-शूरे त्यागिनि विदुषि च वसति जनः स च जनाद्गुणीभवति । गुणवति धनं धनाच्छ्रीः श्रीमत्याज्ञा ततो है राज्यम् ॥ १॥ एवं च पढित्ता पहावितो पंडुमहुरं, तेण तत्थ दुग्गो भिण्णो, पर्चताणि ताविउमारद्वाणि जाव नगरसेसं है
जाय, पच्छा नगरमोरोहियं च, ततो गेण रण्णो निवेइयं, तुडेण भणिय-भण किं देमि, सो चिंति भणइ-जं मए ४गहियं तं सुग्गहीयं होउत्ति, अहं जहिच्छितो भमिस्सामि, राइणा भणियं-एवं होत, सो य बाहिं हिंडतो अहरत्ते घरे
आगच्छति वा न वा, तस्स भज्जा ताव न जेमेइ सुवइ वा जाव समागतो भवइ, सा निविना । अन्नया मायरं से
बढेइ-तुज्झ पुत्तो दिवसे दिवसे अहुरत्ते एइ, अहं जग्गामि छुहाइया अच्छामि, ताहे ताए भण्णइ-मा दारं देजाहि, अहं| ४ अज जग्गामि, सा पसुत्ता, इयरा जग्गइ, अडरते आगतो बारं मग्गइ, मायाए अंबाडितो-जत्थ एयाए वेलाए उग्धादीडियाणि बाराणि तत्थ वच्च, सो निग्गतो, भवियबयाए पतेण मगंतेण साहुपडिस्सो उग्घाडओ दिडो, तत्व पविट्ठो,
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आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं न, नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [-], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
वंदित्ता भणइ-ममं पधावेह, ते नेच्छति, तेण सर्व लोओ कओ, ताहे से लिंग दिण्णं, ते विहरिया, पुणो आगया, रण्णा| आगमियं जहा सो सिवभूती पञ्चइतो इहमागतो, ततो सद्दावित वंदित्ता कंबलरयणं से दिनं, आयरिएहिं भणिय-किं एएण महालमोल्लेण जईणं 1, तं किं गहियंति?, तस्स अणापुच्छाए फालियं, साहुणो निसज्जातो कयातो, ताहे सो
कसाइतो, अण्णया जिणकप्पिया वणिजंति जहा-जिणकप्पिया य दुविहा पाणीपाया पडिग्गहधरा य । पाउरणमपाउ-1 पारणा एकेका ते भवे दुविहा ॥१॥ दुगतिगचउकपणर्ग नव दस एकारसं व बारसगा। एए अट्ठ विग्गप्पा जिणकप्पे
होति उवहिस्स ॥२॥(प्रव. ) केसिंचि दुविहो उवही-रयहरणं मुद्दपोत्ती य, अन्नेसि तिविहो-दो ते चेव तइतो जाएगो कप्पो, चउबिहे दो कप्पा, पंचविहे तिन्नि, नवविहे रयहरणं मुहपोत्तिया तहा-पत्तं पत्ताबंधो पायवणं च पायकेसदारिया। पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छतो पायनिजोगो॥१॥(ओघ. ६७९) दसविहे एगो कप्पो बडिओ, एगारसविहे |
दो कप्पा, बारसबिहे तिण्णि, एस्थंतरे सिवभूरणा पुच्छिय-किमियाणि एत्तिओ उवही धरिजइ ! जेण जिणकप्पो
न कीरइ, गुरुणा भणिय-न तीरइ इयाणिं, वोच्छिन्नो, सो भणइ-किं वोच्छिज्जइ !, अहं करेमि, परलोगस्थिणा नणु सो| ट्राचेव कायद्यो, किं उपहिपरिग्गहेण ?, परिग्गहसम्भाबे कसायमुच्छाभयाइया बहवो दोसा, तथाहि-वखाद्युपकरण-17
धारणे यदि कथमपि च वस्त्रादिकं न भवति तदा श्रावकेभ्यस्तद्याचनीयम् , यात्रा च प्रवचनलाघवकरीति महान् | 18 दोषः, तथा तेषु वस्त्रेषु परिभुज्यमानेषु शरीरस्वेदमलसम्पर्कतः षट्पदिकाः सम्मूच्छति, तासां च शरीरसङ्घर्षतः प्राण
विपत्तिरिति प्राणातिपातबतभङ्गप्रसङ्गः, इत० उत्प्रसङ्गः, वस्त्राणि हि वर्षाकाडादर्वाक अवश्यं प्रक्षालनीयानि, प्रक्षालने
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-३ अध्ययनं , नियुक्ति: [७८२-७८३], वि भागाथा [-], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-11च वातकायकीटिकादिसत्त्वव्यापातः, तथा जघन्यतोऽपि वस्त्रं रूपकपनकादि मूल्यं, ततस्तत्पदाने दातुर्महती पीडा,181 वोटिकाः श्यक मल- माधुकरी च वृत्तिरागमे प्रतिपादिता, ततस्तवृत्तियुष्मञ्चेष्टितयोः परस्परविरोधः, अन्यच्च-वस्त्रादिक उन्धमपि प्रच्छादयव नपटिकादिकरणाय संधानीय, मूषकभक्षितादिकं च सीवनीयं, ततः सन्धानादिकरणे सूत्रार्थक्षरणव्याघातः, अपिच-18 उपोदयात।शोभनतरवस्त्रपरिधाने तथाविधजनापेक्षया तच्छरीरस्य महती शोभोपजायते, आत्मनि चोत्कर्षः, ततो विभूषाप्रत्ययनि
विडतरकर्मवन्धानुषङ्गः, उक्कं च-"विभूसावत्तियं भिक्खू, कर्म बंधइ चिक्कणं । संसारसागरे घोरे, जेणं पडइद १४१९॥ | दुत्तरे ॥१॥” (दश. २७४ ) तथा दुर्बलवस्त्रलाभे पुनरिदं कुतो लप्स्ये इति महती भूर्जा समुपजायते, सा च21
मूछो भवसरित्पतिनिमज्जनकारणं, सर्वतश्च शङ्का प्रादुर्भवति, ममेदं ग्रहीष्यति, शङ्कापि च सकिष्टाध्यवसायरूपत्वानर-18 |कप्रपातकारिणी, चौराद्याशङ्कात एव ग्रामनगरादिप्रतिबद्धतया विहारक्रमाभावः, एकत्र वासे च प्रतिबन्धो लघुतेत्याद्यागमाभिहितानेकदोषानुषतः, विहारक्रमे च सर्वोऽप्युपधिः साधुना स्वयं वोढव्य इति तद्वहने भारवहनं, तथा च सति महान् शरीरस्य क्लेशस्तद्भावे च सूत्रार्थपरिमन्थः, अन्यच्च-यदि कथमपि विहारक्रमे स्वोपाश्रये वा तिष्ठतो वखादि तस्करैरपहियते प्रमादतो वा नाशो भवति ततोऽधिकरणप्रसङ्गः, हा ! गतं मे वस्त्रमित्यात्मनि शोकश्च, किश्व-वस्त्रानु-16 ज्ञाने तत्सापेक्षता भवति, तदपेक्षायां च बताभाव इति, दातुर्दानादकार्यसिद्धिरपात्रे दानात् , आचेलक्यपरीषहश्च सूत्रेड-IP॥१९ भिहितः, सोऽपि न सोढो भवेत, प्रतिक्रुष्टं च परिग्रहनिवृत्तिं प्रतिपादयता भगवता वस्त्रादिकग्रहणं, ततस्तग्रहणे भगवदाझाविलोपा, तामौ च दीक्षानरर्थक्यं, तथा गृहस्था अपि वस्त्राणि परिदधति यतयोऽपि, ततो गृहस्थयतीनाम
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७८२-७८३] वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १४५], मूलं [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
विशेषताप्रसङ्गप्रसक्तिरिति गृहिलिङ्गत्वाद्वखं परित्यक्तव्यं, किञ्च सर्वत्र श्रुते श्रमणा निर्ग्रन्थाः व्यावर्ण्यते, वस्त्रं च ग्रन्थस्ततस्तत्परिभोगे निर्मन्थत्वव्याघात इति श्रमणव्यपदेशस्याप्यभावप्रसङ्गः, उक्तं च- "जायणसंमुच्छणमो धुवणे पाणाण होइ वावती । दायारस्सवि पीडा संधणमाईसु पलिमंथो ॥ १ ॥ राढा मुच्छा य भयं अविहारो चैव भारवहणं च । तेनाहडाहिगरणं सोगो य पमायनद्वेऽवि || २ || सावेक्खयाए दाणादकज्जसिद्धी परीसहासहणं । गुरुपडिकुटुं गिहालिंग गंथमो वस्थदोसा उ ॥ ३ ॥" ( धर्मसंग्रहण्यां १०१७९) तत एतद्दोषदुष्टत्वान्न साधूनां वस्त्रग्रहणमुचितमिति, अत्र स्थविरा: प्राहु:-यदि याज्वादोषात् वस्त्रपरित्यागस्तत आहारोऽपि परित्यक्तव्यस्तस्यापि याव्यामन्तरेणासम्भवात्, 'सबै से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइय' मिति(उत्त० ७६ ) वचनात् आह च- "वत्थमिह जायणातो जइ मुचइ इंतमेव मोयवो । आहारोऽवि हु जइणा अजाइतो सो जं न होइ ॥ १ ॥” इति (धर्म. १०२५) अथ मन्येथा धर्म्मकायोपष्टम्भहेतुरयमाहार इति याज्चादोषेऽपि स प्रतिगृह्यते, गुरुलाघव पर्यालोचनपरं हि पारमेश्वरं प्रवचनमिति, यद्येवं तर्हि वस्त्रमपि धर्मकायपरिपालनात् महदुपकारि, तथाहि - महति हिमानीकणानुषके प्रपतति शीते यदि तृणग्रहणाग्निसेवनादि समाचरति । ततस्तेजःकायादिजंतुविनाशप्रसङ्गः, अन्याद्यनासेवने तु धर्म्मकायस्य विपत्तिः, सा चार्षे तथाविधदुष्टकारणमन्तरेण प्रतिषिद्धा, यद्यपि च न धर्म्मकायस्य विपत्तिस्तथापि धर्म्मध्यानं शीतपरिगतस्य नियमतोऽप्यपगच्छति, अथोत्तमसंहननोपेतस्य धर्म्मध्यानस्यापि नागमो, पुष्टावष्टम्भत्वात्, यद्येवं तत उत्तमसंहननवन्तं मुक्त्वा शेषाणां न प्रव्रज्योचिता, प्रागुकदोषप्रसङ्गात् अथ च मन्दसंहननानामपि भगवता तदनुग्रहाय प्रत्रज्याऽनुज्ञाता 'दुप्पसहन्तं चरण मित्यादिवचनात्
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आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं न, नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [-], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सत्राक
श्रीआव- ततोअन्याद्यारम्भपरिहारेण धर्मध्यानोपष्टम्भहेतुतया च परमोपकारि वस्त्रमिति लयनमिव तदुपादेयम् , उक्तं च-"अहहा वोटिकाः श्यक मल- धम्मकायपरिपालणेण उवगारगो उ आहारो। वत्यंपि हु एवं चिय उवगारगमो मुणेयवं ॥१॥ तणगहणअगिसेवणय. वृत्ती कायवहवजणेण उवगारो । तदभावे य विणासो अणारिसो धम्मकायस्स ॥२॥ जइवि न णरसति चिय से देहो झाणं स्पोद्यात तु नियमतो चलति । सीयादिपरिगयस्सेह तम्हा लयणं व तं गेझं ॥ ३ ॥ अह उत्तमसंघयणे सुहझाणस्सवि न होइ
नासोत्ति । मोतुं तयं न जुत्ता उ सेसेसुं हंत पवना ॥४॥" (धर्म. १०२६-९) यदप्युक्तं 'शरीरस्वंदमलसम्पकतः ॥४२०॥ षट्पदिकाः सम्मूर्च्छन्ती'त्यादि, तदप्यपरिभाविताभिधानं, प्रायो विधिसेवनायां सम्मूछनाया अभावात् , अथास्ति दिसम्भवमात्रमिति तत्परित्यागः, हन्त । तहि देहे आहारेऽपि च सम्मूर्च्छनासम्भवोऽस्तीति तावपि परित्यक्तव्यो, अथर
तो धर्मसाधनं तावन्तरेण धर्मस्य कर्तुमशक्यत्वात् ततः सम्मूच्र्छनादोषसम्भवेऽपि न ती परित्यज्यते , तदेतद्वस्त्रेऽपि समानं, तस्याप्युक्तयुक्तितो धर्मसाधनत्वात्, आह-"संमुच्छणा न जायइ पायं विहिसेवणाए वत्थम्मि । संभवमित्तणं 3 पुण देहाईसुपि सा दिट्ठा ॥१॥ तम्हा निम्गंधणं एवं दोसं विवजमाणेणं । देहो आहारो चिय वजेयवो पयत्तेण ॥२॥
अह धम्मसाहणं सो वत्थंपि तहेव होइ ददुई । भणितोषवत्तितोनिय जइणोतं काय ठिइहेऊ ॥३॥" (धर्म. १०३१-२-४) 3] यदप्यभाषत 'वस्त्रप्रक्षालने वातकायकीटिकादिसत्त्वन्याधात' इति तदप्यसम्यक्, पूर्वमागमोकप्रकारेण वस्त्राणां परिशो-131॥४२०॥ Fधनं, ततोऽपि अप्रामुकपानीयपरिहारेण यतनया प्रक्षालन, प्रक्षालने च निरन्तरमुपयोग इत्येवं जिनभणितविधिना
प्रक्षालने प्राणविपत्तेरसम्भवात् , आह च-"जिणभणियविहीए नय धुवणे पाणाण होइ बावत्ती । पडिलेहणा दर्गपि य*
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प्रत सूत्रांक
SALECREATRE
दफासुउवयोगमो य विही ॥१॥" (धर्मः १०३५) अथ यथोक्तविधिनाऽपि प्रक्षालयतो दृश्यते कदाचित्पाणविपत्तिस्ततो दोपाटी
इति, तदप्ययुक्तम् , आगमोकमेतदिति श्रुतबहुमानतोऽशठभावं यतनया प्रक्षालने प्राणिविपत्तावपि दोषासम्भवात् , संस-12 तकुक्षिकपुरीपोत्सर्गवत् , तथाहि-संसक्तकुक्षिकस्य साधोर्यतनया छायाए.' इत्याद्यागमोतया पुरीपमशठभावं व्युत्सृजतो
गुदकृमिव्यापत्तावपि न दोषभाक्त्वं भवति, प्रायश्चित्ताविषयत्वात् , एवमिहापि भावनीयम् , उक्कं च-"जो पुण विही' *दोसो संसत्तम्गहणियोसिरणतुल्लो। असहस्स सोऽवि भणितो पायच्छित्तस्सऽविसओ ॥१॥" (धर्म. १०३८) अथ12
पुरीपोत्सर्गोऽशक्यप्रतीकारस्ततो यथोक्तयतनया तत्र प्रवर्त्तमानस्य भवतु दोषाभावः, इह तु किं नामाशक्यं वस्खाभावे इति !, उच्यते, संयमः, तथाहि-न शक्नुवन्ति साधवः सम्प्रति मन्दसत्त्वाः शीतादिकालेषु संयम निराबाधं परिपालयितुम्, आर्तरौद्रध्यानप्रवृत्तिसम्भवात् , अपरेषां हीनतरसत्त्वानामशक्यं वस्त्राभावे इति, अन्याद्यारम्भप्रवृत्तिभावाच्च, किल | "कालचटकं उक्कोसएण जहनि तियं तु योद्धयमित्यादिवचनतः समस्तामपि रात्रि जाग्रद्भिः साधुभिश्चत्वारः काला ग्रहीतव्याः, निरन्तरं कालिकमुत्कालिकं वा श्रुतं पठनीयं परावर्तनीयञ्च, एतत्सर्वमपि कत्तुं शक्यते शीतकाले कल्पनावरगेन, नान्यथा नाम, तथा महावातोरिक्षमा सचित्ता पृथिवी महीत्यपरनामप्रसिद्धा या च महिका धूमिकापरपर्याया या च पानीयवृष्टिवर्षाकालादिषु यश्चावश्यायो लोकमतीतो यच्च रजः सचित्तमीषदातासं चैत्रादिमासेषु यच्च प्रदीपादितेजास्पर्शनाम तद्गतानां सत्त्वानां कल्पैःमावरणे परिरक्षा भवति, उकं च-"किं संजमोवयारं करेइ बधाइ जइ मई सुणसु । सीय. चाणं नाणं जलणतणगाण सचाणं ॥१॥ शि चातुकालं सज्जायम्झागसाहणमिसीणं । महिमहियावासोसारयाइरक्खा
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा गाथा [२५७५-२५७६], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- निमित्तं वा ॥२॥" इत्यादि. (वि.२५७५-६) ततो न शक्यः परिपालयितुं वखं विना संवम इति, यतनया तत्प्रक्षालने है। श्यक मल-18|माणविपत्तावपि दोषाभावः, अध बहवो यथोक विधिमुलक्यान्यथा प्रवर्त्तमाना दृश्यन्ते, ततः कथं दोषाभावः। नन्वेषनर 4. वृत्तीत प्राणिनां दोषो, न प्रवचनस्थ, प्रवचनं तु यथार्थनिरूपकतया निदोषमेव, आह च-"उल्लंधितण एवं कई अह अन्नहा करेउपोद्घातान्तित्ति । एसो खु पाणिदोसो न एस दोसो पवयणस्स ॥१॥" यदप्यवोचत् 'जघन्यतोऽपि वस्त्रं रूपकपश्चकादिमूल्य
मित्यादि तदप्यसमीक्षिताभिधानं, यतो यत् परिजीर्णमल्पमूल्यं वस्त्रं तत् यतीनां भगवद्भिरनुज्ञातं, ततो दातुरपि तथा-11 ॥४२॥
भूतं वस्त्रं ददतो न काचन पीडा, अथाल्पधनस्य भवति, ननु सा भोजनमात्रदानेऽपि तुल्या, अथ भोजने तादृशं यती-181
नामग्राह्य, वस्खमप्यल्पधनेष्वग्राह्यमिति समानः पन्धाः, उक्कं च-"परिजुन्नमप्पमुलं तमन्नायं जतो जिणिदेहिं । दायाद रस्सवि पीडा न हो तो तंमि देन्तस्स ॥१॥ अप्पस्स होइ अह सा भोयणमेत्तेऽवि तुलनेवेदं । तं तारिसे न गेझं वत्थ
म्मिवि एव को दोसो॥२॥" (धर्म. १०४१-२) तथा यथाकृतवस्त्रलाभे सन्धानादयोऽपि दोषा नोपजायन्ते, ततः कथं तु परिमन्यदोषोऽपि ?, निमित्ताभावात् , यदि पुनर्यथाकृतवस्त्रलाभो न भवति तत इतरेषामपि ग्रहणे सन्धानादा-। वपि च न परिमन्धदोषो, भोजने इव, तथाहि-चर्यार्थी प्रविष्टोऽपि यदि कथमप्यलाभो भवति ततः प्रभूताभ्यन्यान्यपि गृहाणि हिंडते, न तत्र सूत्रार्थव्याघातरूपः परिमन्थदोषः, अथ भोजनं धर्मसाधनमिति तत्र दोषाभावो, ननु वस्त्रमपि4
धर्मसाधनमेव यथोकं प्रागिति समान, तथा चोक्तम्-“आहागडस्स गहणे संघणमाई न होति दोसा उ । तदभावादनि६ मित्तो कहं तु पलिमंथदोसो उस॥१॥ तस्सालामे इयरस्स गहभावोऽवि भोयणसमाणो। तं धम्मसाहणं चेव वत्थंपि
॥४२१॥
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं , नियुक्ति: [७८२-७८३], विभागाथा [२५६२], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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Fतहेव नणु भणियं ॥२॥" (धर्म. १०४३-४ ) बदपि चोक्तम्-शोभनतरवस्त्रपरिधाने तथाविधजनापेक्षया तच्छरीरस्य *महती शोभोपजायते' इत्यादि तदप्यनवकाश, परिजीर्णमल्पमूल्यं विधिना परियाचितं वखं ध्रियमाणस्य भिक्षणशीलस्य
भूषाया असम्भवात्, अय कस्याप्यविवेकतस्तन्मात्रादपि सा भवति, ननु पिच्छिकाकुण्डिकादिमात्रधारणेऽप्यविवेकतः तसा भवन्ती दुर्निवारेति समानम् , आह च-"एवं विहं च एवं विहिणा परिजाइयं धरेंतस्स । भिक्खणसीलस्स तहा राढाए महंत को अग्यो(डो)॥१॥ अह अविवेगाउ तई तम्मत्ताओवि होइ केसिंचि । तट्टिगपिच्छिगकुंडिगदेहेसु तई कहं न
भवे ! ॥" (धर्म. १०४५-६ ) योऽपि च प्राक् दुर्लभवस्त्रलाभे कुतः पुनरिदं लप्स्ये इत्यादिना मू दोष उद्भावितः स देहाहारादिष्वपि समानः, तत्रापि मूर्छासम्भवात् , अथ देहाहारादिषु मोक्षसाधनबुद्ध्योपादीयमानेषु न मूर्छा सम्भवति, तदेतद् धर्मसाधनत्वं वस्त्रादिष्वपि समानमिति न तत्रापि मूर्छाया अवकाशः, उक्कं -"अह देहाहाराइसु न मोक्खसाहणमईइ ते मुच्छा । का मोक्खसाहणेसुं मुच्छा वत्थाइएसुं ते ॥॥"(वि.२५६३) अपिच-यदि स्थूलेऽपि वस्त्रादौ मुलभे वाद्ये च यदि भवान् मूछी विदधाति ततः शरीरे अकेये दुर्लभतरे सुतरां मूर्छा करिष्यति, शरीरस्यान्तरणतया प्रबलमूहेितुत्वात् , तथाहि-दृश्यन्ते तिर्यञ्चः शबरादयश्च वस्त्रादिग्रन्धरहिता अपि देहाहारादिमात्रविषयमूर्छया नर-18 कोपगामिनः, ततो यथा परमयतीनां देहादिषु न मूछा तथा वस्खेष्वपीति न किश्चित् , तथा च श्रूयन्ते केचन मुनय उपसर्गादिषु देहन्यस्तवनमाल्यानुलेपनाभरणधारिणोऽपि केवलज्ञानमुत्पादयन्तः, तथा चोक्तम्-"अह कुणसि थुलवस्थाइएसु मुच्छ धुवं सरीरेऽवि । अफेजदुल्लभतरे काहिसि मुच्छ विसेसेणं ॥१॥ वत्थाइगंथरहिया देहाहाराइमेचमुच्छाए।
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा गाथा [२५६४-२५६९], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
निरामः
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श्रीआव- तिरियसवरादयो नणु हवंति निरयोगा बहुसो ॥३॥ अपरिग्गहावि परसंतिएसु मुच्छाकसायदोसेहिं । अविणिग्गहिय-1 श्यक मल. पाणो कम्ममलमणंतमजंति ॥३॥ देहत्धवस्थमल्लाणुलेवणाभरणधारिणो केई । उपसग्गाइसु मुणयो निस्संगा केवलमु-18 यवतीति ॥४॥(वि. २५६४-७)" यदपि च 'सर्वतश्च शङ्का प्रादुर्भवती'त्यादिना वस्त्रस्य भयहेतुत्वमुक्तं सदपि ज्ञानादिषु । जपोटासमान, तथाहि-ज्ञानादिबपि विषये तदुपघातकेभ्यो भयमुपजायते, देहेऽपि श्वापदादिभ्यः, ततो वस्त्रादेरिव तेषामपि।।
5परित्यागः कायः, अथ ते मोक्षसाधनमिति भयहेतवो न परित्यज्यन्ते, ननु मोक्षसाधनत्वं वस्तादेरपि प्रागक्तनीत्या समा- ॥४२२॥ दानमिति तस्याप्यपरित्यागः, आह च-"जइ भयहेऊ वत्थं तो नाणाईण तदुवघाएहिं । भयमिइ तेसिं चागो देहस्सवि साव
याईहिं ॥१॥ अह मोक्खसाहणमईए न य भयहेतुत्तणेवि परिचागो । वत्थंपि मोक्खसाहणमईए सुद्धं कहं चागो | 8॥२॥" (वि.२५६८-९) अपिच-तादृशे परिजीर्णेऽल्पमूल्ये वाससि न कुतोऽप्याशङ्केति न भयहेतुता, एतेनाविहारो-18 |ऽप्यपाकृतः, कुतोऽण्याशङ्काया असम्भवात् , तथाभूतेषु च तेष्वल्पप्रमाणेषु परिमितसयाकेषु भारवहनमपि न सङ्गच्छते, | अत्यस्पस्वात् , अथ भवति तावन्मात्रैरपि पीडा, ननु सा नियतविहारक्रमकरणतः किं नोपजायते १, सा उपकारिणीति | 21 चेत् उपकारोऽत्रापिदर्शित एवेति यत्किञ्चिदेतत् , आह च-"जइदेहस्सऽह पीडा निययविहाराउ सान कि होई । उवगारिगा 8 तई अह पत्थवि भणितो उ उवगारो॥१॥” (धर्म. १०४९) यदपि तस्करैरपहारे अधिकरणप्रसङ्गापादनं कृतं तदप्यसमी-II४२२० चीन, तथाभूतस्य वाससस्तस्करः प्रयोजनाभावात् अपहाराकरणतः, अथाल्पसत्त्वः कोऽपि तदप्यपहरति, तदेतत् पिच्छि-12 कादिष्वपि समानं, अथ पिच्छिकादिषु व्युत्सृष्टेष्वस्माकं दोषाभावः, वनेष्वप्येवं दोपाभावः किं नाम न भवति !, अथ परलो
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], विभा गाथा [२५६४-२५६९], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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कसाधनाङ्गं पिच्छिकादि तेनोक्तदोषसम्भवेऽपि तद् ग्राह्यं, ननु तत्परलोकसाधनाङ्गत्वं वस्त्रेष्वपि तुल्यं, यथोक्तं प्राक्, उक्त च-"न हरन्ति तहाभूयं यत्थं तेणा पयोषणाऽभावा । खुद्दहरणं च पिच्छिगकुंडिगमाईसुधि समाणं ॥१॥ वोसिरिएसु81 न दोसो पिच्छिगमाईसु अह उ वत्थेवि । तुल्लं चिय वोसिरणं साहणभावो य परलोए ॥२॥ (धर्म.१०५०-१) तथा अप्र-2 मत्तस्य सतो वस्त्रं प्रायेण न नश्यति, नष्टेऽपि च कथमपि तस्मिन् त्यक्तकलत्रादिग्रन्थस्य शोको नोपजायते, विदितभव| स्वरूपत्वात्, आह च-"अपमत्तस्स न नासइ नढेऽवि न जायई तहिं सोगो । मुणियभवसरूवस्स चत्तकलत्तादि-18 ६ गंधस्स ॥१॥" (धर्म. १०५२) ततो यदुक्तं 'हा गतं मे वस्त्रमित्यात्मनि शोकश्चे'त्यादि, तन्न, वस्त्रेष्वपेक्षाया असम्भवात् ,,
यो हि जिनवचनभाषितान्तःकरणः स्वजनवर्ग कुप्यसङ्घातं सुवर्णसञ्चयं विषयानपि च मनोरमान् परित्यजति तस्य | ठाकथं नामापेक्षा परिजीर्णाल्पमूल्यवस्खमात्रे, अथ यस्मालजते ख्यादिभ्यस्तेन तद् गृहातीति तत्रापेक्षा, ननु लुश्चितशिर-है। हिस्कस्य भिक्षार्थ प्रतिगृहमटने लज्जा न भवति नान्यमाने लज्जा भविष्यतीत्यतिसाहस, यद्येवं ततः कस्मान्न परित्यजति ?, | उच्यते, उपकारनिरीक्षणात् यथाऽऽहारं, उपकारकारिता च संयमयोगहेतुतया पूर्वमभिहितैव, उक्तं च-"जो चयइ सय-15 णवगं हिरण्णजायं मणोरमे विसए । जिणवयणनीइकुसलो तस्स अवेक्खा कहं वत्थे ॥ १॥" लजइ जमित्थियाइसुई तेणं तं गिण्हइत्ति सावेक्खो । लुचियसिरस्स भिक्खं हिंडंतस्सेह का लज्जा ॥२॥ ता किं न तं चएइ ? उ उवगार-1 निरिक्खणा जहाऽऽहारं । भणितो य ततो पुषि संजमजोगाण हेउत्ति ॥ ३॥" (धर्म. १०५४.६) यदपि परिषहासहनमुदावितं तदप्यसमीचीन, यतो यानि परिजीर्णान्यल्पमूल्यानि च वस्त्राणि तानि परमार्थेनावस्त्राणि, विशिष्टवस्त्र कार्या
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], विभागाथा [२५९४-२५९७], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीभाव- करणात् , तथा च परिहितपरिजीर्णपरिधाना काचित् युवतिः कोलिकं प्रत्येवमाचष्टे-स्वर कोलिक ! नग्नाऽहं वर्त्त इति, द्र
बोटिकश्यक मल- ततः संयमयोगस्फातिनिमित्तं तथारूपाणि वस्त्राणि धारस्तो यतेः सदा ममत्वरहितख कथं न परीपहसहनम् !, आह* निरासः य. वृत्तीच-"संयमयोगनिमित्तं परिजुन्नादीणि धारयंतस्स । कह न परिसहसणं जइणो सइ निम्ममत्तस्स! ॥१॥" (वि. १०६०)15 उपोदयातअथ सूत्रे 'नगिणस्स वावि मुंडस्से' त्यादिना साक्षान्नग्नत्वमभिहितं, परिजीर्णाल्लमूल्यवस्खपरिधाने त न तदनपचरितं
भवति, उपचरिते च नग्नत्वे परीषहसहनमप्युपचरितमेव प्रामोति, न चोपचारादर्थसिद्धिः, नहि माणवको दहनोपचारा-18 ॥४२३॥
दाधीयते पाके इति प्रतीतमेतत् , तदप्यशोभनं, सम्यक् जिनवचनापरिज्ञानात्, न खलु क्षुत्परीषहसहनमप्युपचरितमेव प्राप्नोति, पिपासापरीपहसहन च, सर्वथा बाऽशनपानप्रतिषेधत उपपद्येते, किन्त्वनेषणीयपरित्यागाद्, अन्यथा भगवता- महतामजितपरीषहत्वप्रसक्तिः, तेषामप्येषणीयानपानोपादानात् ,ततो यर्थपणीयान्नपानपरिभोगतः क्षुत्पिपासापरीषहसहनमेवं परिजीर्णाल्पमूल्यवस्त्रपरिधानेऽप्यचेलपरीपहसहतेति, उकं च-"जइ चेलभोगमेतादजिताचेलयपरीसहो तेणं 113 अजियदिगिंछाइपरीसहोऽवि भत्ताइभोगातो ॥१॥ एवं तुह न जियपरीसहा जिनिंदादि सबहाऽऽवणं । अहवा जो टू
भत्तादिसु स विही चेलेवि किं नहो? ॥२॥जह भत्तादि विसुद्धं, रागहोसरहिओ निसेवंतो। विजियदिगिंछाइपरीसहो हामुणी सपडियारोऽवि ॥ ३ ॥ तह चेलं परिसुद्धं रागद्दोसरहिओ सुयविहीए । होइ जियाचेलपरीसहो मुणी सेवमादाणोऽवि ॥४॥" (वि. २५९४-१७) स्यादेतत्-यदि परिजीर्णाल्पवस्तुपरिभोगेऽप्यचेलकपरीपहः सोढोऽभ्युपगम्यते ततः
काणकुण्टादियुवतिरपि न परमार्यतो युवतिः, परिपूर्णयुवतिलक्षणायोगात्, ततस्तत्परिभोगेऽपि स्त्रीपरीषहः सोढो भवेत् ,
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1४॥४२३॥
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा गाथा [२५९४-२५९७], भाष्यं [१४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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न्यायस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् , न, सूत्रान्तरेण स्त्रीपरिभोगस्य सर्वस्यापि प्रतिषेधनातू, तच सूत्रान्तरमिदम्,-"नवि |किंचिप्पडिसिद्धं नऽणुनायं वावि जिणवरिंदेहिं । मोत्तुं मेहुणभाव न विणा सो रागदोसेहिं ॥१॥" (धर्म. १०६४) | ततो नातिप्रसङ्गदोषः, उक्तं च-"सिय पावई अणिटुं एवं इत्थीपरीसहपसंगा । नो सुत्तंतरवाहानिवारणादिह पसं४ागस्स ॥१॥" (धर्म. १०६३)न च भगवता प्रतिक्रुष्टं वस्त्रम्, उपधिप्रमाणस्य कल्पाध्ययनादिषु साक्षादभिधानात्, दान च यतयो गृहस्था इव वस्त्राणि परिभुते, किन्तु लोकरूढप्रकारादन्यप्रकारेण, कच्छावन्धाभावात् कूपराभ्यामन
भाव एव चोलपट्टकधरणात् मस्तकोपरि प्रावरणाद्यभावाच्च, ततो न गृहिलिङ्गम् , अथ गृहस्थैरपि परिभोगात् गृहिलिङ्गं, दायद्येवं ततः करचरणादयोऽपि गृहिलिङ्गं, तेषामपि गृहस्थेषु भावात् , ततस्तेषामपि परित्यागः कर्त्तव्यः, अथ करचरणा-13 |दिपरित्यागे देहाभावस्तदभावे च परलोकासाधनमिति तदपरित्यागः, ननु वस्त्रस्याप्यभावे तृणग्रहणादिप्रसक्तः परलोकसाधनाभावः समान एवेति यत्किञ्चिदेतत् ,आह च-"गिहिलिंगपिन एतं एगतेणं तदन्नहाधरणे । होति य कहिंचि नियमा करचरणाईवि गिहिलिंग ॥१॥ तेसि परिच्चागातो देहाभाचे कहं नु परलोगो।। नणु वत्थस्सवि चाए तणगहणाईहिं तुल्लमिणं ॥२॥" (धर्म. १०६८-६) अथास्माकं युष्माकं चाहन्तो गुरवः, भगवन्तश्चाहन्तोऽचेलास्ततोऽचेलत्व
मेवास्नाकं युक्त्युपपन्नं, न वस्त्रपरिधारण, शिष्याणां गुरुलिङ्गप्रतिपत्तेरर्चितत्वात् , उकंच-"जारिसयं गुरुलिंग सीसेणवि ४ तारिसेण होयचं । नहु होइ बुद्धसीसो सेयवडो नग्गखमणो वा ॥१॥" (धर्म. ११०९) ननु यदि भगवन्तो गुरवः प्रमाणे : है| तर्हि तदुपदेशः कर्तव्यः, भगवदुपदेशश्चाय-निरुपमधृतिसंहननाद्यतिशयोपेतेनाचेलेन भवितव्यं, न निरतिशयेन,
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२५८५-२५८७,२५९१], भाष्यं [१४५], मूलं - गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- अतिशयविकलश्च भवान् , ततो मा भूस्वं निरतिशयः सन्नचला, उपदेशाद्धि गुरूणां कार्यसिद्धिन बेपचरितमा-11 बोटिकश्यक मल- त्रानुष्ठानात्, न खलु रोगी वेद्यस्य वेषं चरितं वाऽनुकुर्वन्नरोगीभवति, किन्तुपदेशात्, आह च भाष्यकृतयवती "अरहंता जमचेला तेणाचेलत्तणं जइ मयं ते । तो तबयणातोच्चिय निरतिसओ होहि माऽचेलो ॥१॥ रोगी। उपोदयाजहोवएसं करेइ वेजस्स होयऽरोगी य । न उ वेसं चरियं वा करेइ न य पउणइ करेंतो ॥२॥ तह जिणवे जाएसं कुण-18
Bामाणोऽवेइ कम्मरोगातो । नउ तन्नेवत्थधरो तेसिं आएसमकरेंतो ॥३॥" (वि. २५८५-७) अथोपदिष्टो भगवनिIIजिनकल्पस्ततः सोऽस्माभिराश्रीयते, ननु यदि जिनोपदेशात्तस्याश्रयणं तत एतदपि जिनोपदेशात् प्रतिपत्तव्यं-ये उत्तमधृ-12 हातिसंहननाः पूर्वविदः सातिशया गच्छे कृतपरिकर्माणस्ते जिनकल्पं प्रतिपद्यन्ते, न शेपाः, उक्तं च-"उत्तमधिइसंघयणा
पुवविदोऽतिसयिणो सया कालं । जिणकप्पियादिकप्पं कयपरिकम्मा पवज्जति ॥१॥" (वि.२५९१) तथा व्यवच्छिन्नः सम्प्रति जिनकल्प इत्येतदपि, तथा चोक्तम्-"मणपरमोहिपुलाए आहारग खवग उचसमे कप्पे । संजमतियकेबलसिम्झणा यIN जंबुम्मि वोच्छिन्ना ॥१॥" (वि. २५९३) ततः कथं भवतो जिनकल्पाश्रयणम् ?, अथ यथा तदुपदेशः क्रियते | तथा तद्गतवेषचरितानुकारोऽपि, तत्रेदं प्रष्टव्यं-तद्गतवेषचरितानुकायें किं सर्वथा उत देशतः, तत्र यद्याद्यः पक्षः |सोऽसम्भवी, तीर्थकृतामेव तीर्थकरगुणोपेतता, न प्राकृतगुणयुक्तानां युष्मादृशां, तीर्थकरगुणाञ्चेमे-निरुपमधृतिसंहनना||२|| |मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिनः सत्त्वसम्पन्ना अच्छिद्रपाणिपात्रा देवदानवैरप्यक्षोभ्याः सततमप्रमादिनो जितपरीपहाः, ततस्ते वस्त्रपात्राद्युपकरणरहिता अपि न यथोकं दोषमामुवन्तीति न कुर्वते वस्त्रादिग्रहणं, केवलमस्माभिः सवस्त्रो
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
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निर्युक्तिः [७८२-७८३], वि० भा० गाथा [२५८१-२५८३,२५८६], भाष्यं [१४५], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
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धर्मः प्ररूपयितव्य इति अभिनिष्क्रमणकाले शक्रेण समर्पितमेकं देवदृध्यं प्रतिगृहन्ति, उक्तं च- “निरुवमधिइसंघयणा चउनाणाऽतिसयसत्तसंपण्णा । अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जियपरीसहा सबे ॥ १ ॥ तम्हा जहुत्तदोसे पार्वति न वत्थपत्तरहियावि । तदसाहणंति तेसिं तो वग्गहणं न कुबंति ॥ २ ॥ तहवि गहिएगवत्था सवत्थतित्थोवएसणत्थंति । अभिनिक्खमंति सधे तम्मि चुएऽचेलया होंति ॥ ३ ॥" ( वि. २५८१- ३ ) ततः कथं तैः सह सर्वसाम्यं प्रतिपत्तुं शक्यम् ?, अन्यच्च सर्वसाम्यप्रतिपत्तौ तीर्थकरैरिव न परोपदेशोऽपेक्षणीयः, नापि छद्मस्यैः सद्भिः परेभ्य उपदेष्टव्यं न च शिष्यवर्गो दीक्षणीय इत्यापन्नस्तीर्थव्यवच्छेद इति नैप पक्षः, आह च- "न परोवएसवसया न य छउमत्था परोवएसंपि । देति नय सीसवग्गं दिवखंति जिणा जहा सधे ॥ १ ॥ तह सेसेहिवि सवं, कज्जं जइ तेहि सबसाहम्मं । एवं च कतो तित्थं ? न चेदचेलोत्ति को गाहो ! ॥ २ ॥ (वि. २५८६-७ ) देशपक्षस्त्वस्माभिरभ्युपगत एव, येषानुकारस्य लोचकरणमात्रेण चरितानुकारस्यैषणीयाहारपरिभोगानियतवासादिना (च) क्रियमाणत्वात्, यदप्युक्तम्- 'वस्त्रं च ग्रन्थ' इत्यादि, तदपि न सुन्दरं, संयमोपकारितया वस्त्रे धर्मोपकरणत्वेन ग्रन्थत्वायोगात्, तथाहि यद्धर्मोपकरणं न स ग्रन्थः, धर्मोपकरणं च वस्त्रमिति व्यापक विरुद्धव्याप्तोपलब्धिः, ग्रंथत्वं हि बन्धुहेतुत्वेन व्याप्तं, प्रश्नाति जीवं कर्ममलेनेति ग्रन्थ इति व्युत्पत्तेः कर्म्मबन्धहेतुताप्रतिपक्षभूतेन च कर्म्ममलापगमहेतुत्वेन व्याप्तं धर्मोपकरणत्वं, तथाहि धर्मः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपः, स उपक्रियते उपष्टभ्यते स्फीतिं नीयते इतियायद् अनेनेति धर्मोपकरणं, यच्च सम्यग्दर्शनादिकं धर्म्ममुपष्टनाति तत् परं परया कर्म्ममलापगमहेतुः सम्यग्दर्शनादिप्रभावतः सकलकर्मापगमलक्षणस्य मोक्षस्याभ्युपगमात् वस्त्रमपि च शुभध्या
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि भागाथा [२५५९-२५६०], भाष्यं [१४६], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीआव- श्यक मल- य. वृत्ती उपोद्घात
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॥४२५॥
नहेतुतया प्राणिरक्षकतया च धर्मोपष्टम्भकम्, अतो वस्त्रे यत् ग्रन्थत्वस्य व्यापकं कर्मवन्धहेतुत्वं तस्य विरुद्धं यत्कर्म-|| चोटि मलापगमनिवन्धनत्वं तेन व्याप्तस्य धर्मोपकरणत्वस्योपलब्धेः ग्रन्थत्वप्रतिषेधः, अथ वस्त्रपरिग्रहाभ्युपगमे साधूनां पर-
II निरास: स्परं शुभेतरवस्त्रविशेषदर्शनतो मात्सर्यादिरुपजायते, तस्करादीनां च तद्विषयो लोभादिः, अतः कपायहेतुत्वात् ग्रन्धः, प्रयोगश्च-यत् कपायहेतुस्तत् ग्रन्थो यथा स्वापतेयं, कषायहेतुश्च वस्त्रमिति, तदसमीचीनं, हेतोरसिद्धत्वात्, तथाहि-न भावितजिनवचनानां साधूनां शुभेतरवस्त्रविशेषदर्शनेऽपि मात्सयोंदिः, इतरेषां च तत्सम्भव आहारेऽपि समः, तस्करादीनामपि च परिजीर्णाल्पमूल्यवस्खविषये न लोभादि, क्षुद्रसत्त्वानां तु तत्सम्भवे पिच्छिकादिष्वपि समानं, तस्मात् तत्त्वतो न कषायहेतुता, अनेकान्तिकोऽपि चायं हेतुः, भगवतः सङ्गमकगोशालादीन् प्रति धर्मपराणां जिनमतस्य च प्रत्यनीकान् प्रति कषायहेतुत्वेऽपि ग्रन्थत्वायोगात्, उक्तं च-"अत्थि य किं किंचि जए जस्स व कस्स व कसायवीयं जं। वत्थु न होज ? एवं धम्मोवि तुमे न घेत्तयो ॥ १ ॥ जेण कसायनिमित्तं जिणोऽवि गोसालसंगमाईणं । धम्मो धम्मपरावि य पडिणीयाणं व जिणमयं च ॥२॥" (वि. २५५९-६०) तस्माद्यत्किञ्चिदेतत्, एवं स्थविरेस्तस्य कथनं कृतं ॥ अमुमेचार्यमुपसजिघृक्षुराहरहवीरपुरं नगरं दीवगमुजाणमजकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिम्मी पुच्छा थेराण कहणा य ॥ १४६ ।। (मू. भा.)४
|॥४२५॥ | स्थवीरपुरे नगरे दीपकं नाम उद्यानं, तत्रार्यकृष्णो नामाचार्यः समवसृतः, तत्र शिवभूतेर्जिनकल्पिकमरूपणावसरे उपधौ पृच्छा, स्थविराणां च-आर्यकृष्णानां कथनेति गाथासंक्षेपार्थः, भावार्थः प्रागेवोक्तः। स च शिवभूतिस्तथा स्थविरैः
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२६०७-२६०९], भाष्यं [१४७-१४८], मूलं - गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रज्ञाप्यमानोऽपि मिथ्यात्वोदयात् कुलिङ्गभावो जिनमतमश्रधानश्चीवराणि परित्यज्योपाश्रयाद्विनिर्गतः, तस्योत्तरा भगिनी, सा उद्याने स्थित बन्दितुमागता, तं च तथाभूतं दृष्ट्वा तयापि चीवराणि तदनुरागेण परित्यक्तानि, ततो द्वावपि तो भिक्षार्थ प्रविष्टी, गणिकया च तदवस्था दृष्टा, साऽचिन्तयत्-नूनमेवं स्त्रीणां बीभत्सं रूपं रष्ट्रा लोकोऽस्माकं विरको
भविष्यतीति, ततस्तया सा परिपूर्ण परिधापिता, सा नैच्छदिति मुक्तवती, ततो बलादपि तस्या उरसि कटिप्रदेशे चैक ४वस्त्रं सन्दघे, तदपि त्यजन्ती धात्रा कथमपि दृष्ट्वा भणिता-तिष्ठत्वेतत्तव देवतया दत्तम्, आह च भाष्यकृत्-"तस्स
भगिणी समुझियवस्था तह चेव तदणुरागेण । संपत्थिया नियत्था तो गणियाए पुणो मुयइ ॥१॥तीए पुणोवि बद्धोरसेगवस्था तयपि छडेती । अच्छा ते तेणं चिय समणुण्णाया घरेसी य ॥२॥" (वि. २६०७८) तेन शिवभूतिना हाद्वी शिष्यो प्रजाजितो-कौण्डिन्यः कोट्टवीरश्च, ततः परम्परास्पर्शः समुत्पन्नः, उक्तंच-"कोडिनकोट्टवीरे पवावेसी य दोन्नि
सो सीसे । तत्तो परंपराफासतो व सेसा समुप्पन्ना ॥१॥" (वि.२६०९) एवं बोटिका उत्पन्नाः, अमुमेवार्थ मूलमाध्यकारः सञ्जिहीर्घराहऊहाए पन्नत्तं योडिअ सिवभूइउत्तराहिं इमं । मिच्छादसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पन्नं ॥१४७॥ (मू. भा.)
उहया-स्वतर्कबुझ्या प्रज्ञप्त-प्रणीतं बोटिक शिवभूत्युत्तराभ्याम् 'इणमोत्ति एतच मिथ्यादर्शनं क्षेत्रतो रथवीरपुरे समुत्पन्नम् । योडिअसिवभूईओ बोडिभलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिन्नकुट्टवीरा परंपराफासमुप्पना ॥ १४८ ॥(म.भा.)
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आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं न, नियुक्ति: [७८४-७८५], विभा गाथा -1, भाष्यं [१४७-१४८], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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का श्रीआव- योटिकशिवभूतेः सकाशात् बोटिकलिङ्गस्य-बोटिकदृष्टेर्भवत्युत्पत्तिः, वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वत्, पाठान्तरं या दा निववश्यक मल-18|'बोडियलिंगस्स आसि उप्पत्ती', ततः कौण्डिन्यश्च कोट्टवीरश्च कौण्डिन्यकोट्टवीरं समाहारो द्वन्द्वस्ततः परम्परास्पर्शम्-1| कव्यतोया वृत्ती आचार्यशिष्यसम्बन्धलक्षणमधिकृत्योत्पन्ना-सञ्जाता, बोटिकदृष्टिरिति वाक्य शेषः ।। सम्प्रति निववक्तव्यतां निगमयन्नाह- पसंहारः उपोद्घात ट्रा एवं एए कहिआ ओसप्पिणिए उ निण्हता सत्त । वीरवरस्स पवयणे सेसाणं पवयणे नस्थि ॥ ७८४ ॥
एवम्-उक्तेन प्रकारेण एते अनन्तरोक्ताः कथिताः प्रतिपादिता अस्यामवसपिण्यां निन्हवाः सप्त, अष्टमस्तु बोटिकः तुश-11 ॥४२६॥ 1ब्दसमुचितो, बीरवरस्य भगवतः प्रवचने-तीर्थे, शेषाणां तु तीर्थकृतां प्रवचने नस्थित्ति प्राकृतत्वान्नासीरन् निन्हवाः ।।
मुत्सूणमेसिमिक सेसाणं जावजीविया दिट्ठी । इक्विकरस य इत्तो दो दो दोसा मुणेअबा ॥७८५॥
मुक्त्वा एषामेकं गोष्ठामाहिलं निन्हवानां शेषाणां-जमालिप्रभृतीनां प्रत्याख्यानमङ्गीकृत्य यावज्जीविका दृष्टिरासीत्, 151न ते प्रत्याख्यानं गोष्ठामाहिल इवापरिमाणमिच्छुरिति भावना, आह-प्रकरणादेवेदमवसीयते किमर्थमस्योपन्यासः,18 दिउच्यते, प्रतिदिवसोपयोगेन प्रत्याख्यानस्थातीवोपयोगित्वात् , मा भूत् कश्चित्तथैव प्रतिपद्यते, ततः प्रज्ञाप्यते-निन्हवाना
मपि प्रत्याख्यानविषये इयमेव दृष्टिरिति, 'एत्तो'त्ति प्राकृतत्वादमीषां मध्ये एकैकस्य निन्हवस्य द्वौ द्वौ दोपौ ज्ञातव्यो,
मुक्त्वैकमिति वर्तते, तथाहि-बहुरता जीवप्रदेशिकान् प्रत्यूचुः-भवन्तो द्वाभ्यां कारणाभ्यां मिथ्यादृष्टयः, तत्रैकमिदं दयनणथ एका प्रदेशो जीव इति, द्वितीय क्रियमाणं कृतमिति, जीवप्रदेशिका अपि बहुरतान् प्रत्यवादिषुः-यूयमपि
कारणद्वयेन मिथ्यादृष्टयः, एक तावदिदं यद्वदय क्रियमाणमकृतं (द्वितीयं च चरमप्रदेश) जीव इति प्रतिपद्यध्वे,
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७८६ - ७८७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०],
वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १४८...], मूलं [- / गाथा-] मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
| एवं शेषाणामपि परस्परं भावनीयं, गोष्ठामाहिलमधिकृत्य पुनरेकैकस्य त्रयो दोषाः तथाहि - बहुरतान् प्रति गोष्ठामाहिलोऽब्रवीत् कारणत्रयाद् भवन्तो मिथ्यादृष्टयः, तत्र - एकमिदं यत्कृतं कृतमिति ( यूयं) वदतेति, द्वितीयं स्पृष्टं बद्धं कर्म्म, तृतीयमपरिमाणं प्रत्याख्यानमिति, बहुरता अपि तं प्रत्यवोचन् भवानपि कारणत्रयान्मिथ्यादृष्टिः- एकं तावदिदं यत् क्रियमाणं कृतमिति वदति, द्वितीयं स्पृष्टमवद्धं कर्म्म, तृतीयं सपरिमाणं प्रत्याख्यानमिति, एवं सर्वान् प्रति योजनीयम्, अन्ये त्वाहु:- एकैकस्य द्वौ द्वौ दोषावेवं वेदितव्यौ, एकं तावत्स्वयं विप्रतिपन्ना द्वितीयं परानपि व्युग्राहयन्तीति ॥ | नन्वेता दृष्टयः संसाराय आहोस्विदपवर्गीयेत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह
सत्तेया दिट्ठीओ जाइजरामरणगग्भवसहीणं । मूलं संसारस्स उ हवंति निग्गंथरूवेणं ॥ ७८६ ॥ सष्ठाप्येता दृष्टयो, बोटिकास्तु मिथ्यादृष्टय एवेति न तद्विचारः, 'जातिजरामरणगर्भवसतीनामिति जातिग्रहणं नारकादिप्रकृतिग्रहे चरितार्थमिति गर्भवसतिग्रहणमदुष्टं, मूलं कारणं, भवतीति योगः, मा भूत्सकृद्भाविनीनां जातिजरामर णगर्भवसतीनां मूलमिति प्रत्ययस्तत आह- 'संसारस्स उ' इति संसरणं संसारः - तिर्यग्गरनार कामरभवानुभूतिरूपः प्रदीर्घः तस्यैव, सुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, केन रूपेणेत्याह-निर्मन्थरूपेण ॥ अथैते निन्हवाः किं साधव उत तीर्थान्तरीया आहोस्विन्मिथ्यादृष्टयः १, उच्यते, न साधवो, यतः साधूनामेकस्याप्यर्थाय यत्कृतमशनादि तच्छेषाणां न कल्पते, नैत्रं निन्दवानां, तथा चाह
पवपणनी आणं जं तेर्सि कारिअं जहिं जत्थ । भजं परिहरणाए मूले तह उत्तरगुणे अ ॥ ७८७ ॥
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आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८८-७८९], विभा गाथा , भाष्यं [१४८...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- नियत्ति देशीवचनमकिञ्चित्करार्थेततः प्रवचने पारमेश्वरे यथोक्कक्रियाकलाप प्रत्यकिश्चित्कराणां, अथवा निय'तिदा निहवाथेश्यक मल- आपत्यात् निन्हुतं, तत्र प्रवचनं निन्हुतम्-अपलपितं यैस्ते प्रवचननिन्हुताः, सुखादिदर्शनात् निष्ठांतस्य पाक्षिकः परनिपातः,
Iकृतस्य विव वृत्तीतषां यद् अशनादि तेषामुपभोगो(गाय) यत् कारितं यस्मिन् काले यत्र क्षेत्रे तद्भाग्य-विकल्पनीयं परिहरणे, कदाचित्परि-181 भाग: पोवारियते कदाचिन्नति, यदि लोको न जानाति यधते निन्हवाः साधुभ्यो भिन्नास्तदा परिहियते. अथ जानाति तदा नपरि
महारः, अथवा परिहरणा नाम परिभोगः, तथा चोक्तम्-"धारणया उवभोगो परिहरणा (होइ) तस्स परिभोगों' ततः कदा॥४२७॥ चित परिभुज्यते कदाचिन्नेति, निन्हयत्वे परिज्ञाते भुज्यते, शेषकालं नेति, कथंभूतं तत् अशनादि तन्निमित्तं कारितमित्यत ।
आह-मूले' मूलगुणविषयं आधाकादि, तथोत्तरगुणविषयं च-क्रीतकृतादि, ततो नैते साधवो, नापि गृहस्था नाप्यन्यतीर्थ्याः, यतस्तदर्थाय कृतमेकान्तेन कल्पमेव भवति, यत्र तु भजना ततोऽव्यका इति ॥ आह-यद्वोटिकानां कारित| है। मूले-मूलगुणविषयमुत्तरगुणे-उत्तरगुणविषयं तत्सर्वमपि, तत्र का वार्ता !, उच्यतेना मिच्छादिट्टीआणं जं तेसिं कारिअं जया जत्थ । सबंपि तयं सुद्धं मूले तह उत्सरगुणे अ॥ ७८८ ॥
तेषां मिथ्यादृष्टीनां बोटिकानामुपभोगाय यत्कारितमशनादि, गृहस्थैः कारितं, 'मूले मूलगुणविषयमुत्तरगुणे-उत्तर-12 गुणविषयं तत्सर्वमपि शुद्ध, कल्पनीयमिति भावः ॥ उक्त समवतारद्वारम् , अधुनाऽनुमतद्वारव्याख्यावसरः, तत्र यत् यस्य 81 नयस्य सामायिक मोक्षमार्गत्वेनानुमतं तदुपदर्शयन्नाह
तवसंजमो अणुमओ निग्गंथं पवयणं च चबहारो। सहु-जुसुआणं पुण निधाणं संजमो चेव ।। ७८९ ॥
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आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८८-७८९], वि०भा०गाथा (२६२२-२६२६], भाष्यं [१४८...], मूलं गाथा-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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तापयत्यष्टप्रकारं कर्मेति तपः, तपतेरौणादिकोऽसूप्रत्ययः, अनशनोनोदरतादि वस्पधानः संयमतपःसंयमः, असावन-18 मता-अभीष्टो मोक्षांगतया, तथा निम्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थं, आईतमित्यर्थः, किं, प्रवचनं-श्रुतं, इह तपोग्रहणेन द्वादशप्रकारमपि तपः परिगृह्यते, संयमो नाम पापोपरमः, स च सप्तदशप्रकारः, एतेन च चारित्रसामायिक परिगृहीतं, नैर्मन्थं | प्रवचन-श्रुतं, चशब्दः सम्यक्त्वादिसामायिकसमुच्चयार्थः, विवहारो'त्ति एवं व्यवहारो व्यवस्थितः,व्यवहारग्रहणात् तदधोवर्तिनी नैगमसंग्रहावपि गृहीती, तत एतदुक्तं भवति-गमसनव्यवहाराखिविधमपि सामायिक मोक्षमार्गतयाऽनुमन्यन्ते इति । आह च भाष्यकृत्-कस्स नयरसाणुमयं किं सामइयमिह मोक्खमग्गोत्ति ।। भण्णइ नेगमसंगह-यवहाराणं तु सवाई ॥१॥ तवसंजमा चरितं निग्रोथं पवयर्णति सुयनाणं । तग्गहणे सम्मत्तं तग्गहणातो य नायकं ॥२॥ (विशे. २६२२-३ ) आह-यदि नैगमादयस्त्रिविधमपि सामायिक मोक्षमार्गतयाऽनुमन्यन्ते किमिति तहि ते मिथ्यादृष्टयः१, उच्यते, व्यस्तानामेव तेषां ते मोक्षमार्गतयाऽनुमाननात् , न सापेक्षाणामेवेति, शब्दऋजुसूत्रयोः पुनः कारणे कार्योपचारात् निर्वाणमार्गों है निर्वाणं संयम एयेत्यनुमतं, इह ऋजुसूत्रमुल्लङ्घ-यादौ शब्दनयोपन्यासोऽशेषोपरितननयपरिग्रहार्थः, तत एतदुक्कं भवतिऋजुसूत्रादयः सर्वे चारित्रमेवेकं मोक्षमार्गमनुमन्यन्ते, न ज्ञानदर्शने, तद्भावेऽपि मोक्षासम्भवात्, तथाहि-न सर्वज्ञान
सर्वदर्शनलाभेऽपि तत्कालमेवापवर्गप्राप्तिः, किन्तु सर्वसंवरलाभे, ततः स एवैको मोक्षमार्ग इति, उकं च-"उज्जुसुयाइमयं है।पुण निधाणपहो चरित्तमेवेग । न उ नाणदंसणाई भावेवि न तेसि जं मोक्खो ॥२॥जं सपनाणदसणलंभेविन तक्खणं
चिय विमोक्खो। मोक्सो य सषसंवरलाभे मग्गो स एवातो॥२॥" (विशे. २६२५-६) एवं अवाणान् ऋजुसूत्रप्रभृतीन्
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [-]
निर्युक्तिः [७८८-७८९], वि०भा० गाथा [२६२७-२६३०], भाष्यं [ १४८...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्री आववयक मल
प्रति नैगमादयो ब्रुवते - ननु ज्ञानदर्शनाभ्यामपि विना न प्रकर्षप्राप्तः सर्वसंवरलाभ उपजायते, तत्सहितस्यैव तद्भावाभ्युपगमात् ततः कथं न त्रितयं मोक्षमार्ग ? इति ऋजुसूत्रादयः प्राहुः, तदसम्यकू, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् तथाहि यदि य० वृत्ती नाम न ज्ञानदर्शनाभ्यां विना यथोक्तसंवरलाभस्ततस्ते तस्य कारणं भवताम् नतु मोक्षस्य सर्वसंवरसाध्यस्य, कथं ?, उपोद्घाते + तद्भावे भाव एवेत्यन्ययानुगमाभावातू, इह यत् यस्यान्त्र्यं व्यतिरेकं वा नानुविधत्ते न तस्य तत्कारणं, यूपा कुशूलन्यस्तं बीजमङ्कुरस्य, न भवति च मोक्षः सर्वज्ञान सर्वदर्शनसम्भवेऽपि तत्कालमेवेति, अथ सतोरेव सर्वज्ञान सर्वदर्शनयोः सर्वसंवरलाभो, न तदभावे, तेन ते अपि मोक्षकारणस्य सर्वसंवरस्य कारणत्वान्मोक्षकारणमिति, तदयुक्तं, परम्परयापि ★ कारणत्वाभ्युपगमे सकलस्यापि भुवनस्य मोक्षकारणत्वप्रसक्तेः भुवनोदरवर्त्तिनां सर्वेषामपि वस्तूनां ज्ञेयश्रद्धेयमवृत्तिनिवृत्तिविषयतया ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगित्वात्, तथा च सति ज्ञानादित्रिके एव को भवतामा ग्रहः ?, ततो यथा न समस्तं भुवनं मोक्ष ( कारणं तद) कारणत्वादेवं ज्ञानदर्शने अपीति स्थितम् । तथा चाह भाष्यकृत् आह नणु नाणदंसण| रहियस्स न सबसंवरो दिट्ठो । तस्सहियस्सेव तओ तम्हा तिययंपि मोक्खपट्टो ||१|| (वि. २६२७) ॥ जइ तेहिं विणा नत्थित्ति संवरो वेण ताइं तस्सेव । जुत्तं कारणमिह न उ संवरसज्झस्स मोक्खरस ||२|| वि. २६२८ ) । अह कारणोवगारिति कारणं | तेण कारणं सर्वं । भुवणं नाणाईणं जइणो नेयाइभावेणं ॥३॥ (वि. २६२९) । अह पच्चासन्नतरं नेयरमिहोबगारगारिंपि । तो सबसंवरमयं चारितं चैव मोक्खपहो ॥४॥ (वि. २६३०)। तदेवं यत् यस्य नयस्य सामायिकं मोक्षमार्गत्वेनानुमतं तदभिहितं भगव -वस्तु मतेन त्रीण्यपि ज्ञानादीनि सामाविकानि परस्परसापेक्षाणि मोक्षमार्गः, एकस्याप्यभावे मोक्षस्यासंभवात्, 'तस्मात्सर्वस्य
॥४२८॥
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मोक्षमार्ग
नयानु
मतिः
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९०], विभा गाथा ], भाष्यं [१४८...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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कार्यस्य, सामग्री जनिका मते'ति वचनात् , उक्तमनुमतद्वारं, तद्भणने च न्याख्याता 'उद्देसे निदेसे य' इत्यादिका उपोद्घा-1
तनियुकिगता प्रथमद्वारगाथा ॥ सम्पति द्वितीयद्वारगाधाप्रथमावयवः किमिति द्वारं व्याख्यायते-तत्र सामायिकं नाम | ६ किं जीवः ! उताजीवः! अथोभयम् ? आहोस्विदनुभयं !, जीवत्वेऽपि किं द्रव्यमुत गुण ? इत्याशङ्कापनोदार्थमाह___आया खलु सामइ पञ्चक्खायंतओ हवइ आया । तं खलु पञ्चक्खाणं आवाए सघदवाणं ।। ७९० ॥ __आत्मा-जीवः, खलुशब्दोऽवधारणे, आत्मैव-जीव एवं सामायिकम् , एतेन प्रागुपन्यस्त शेषाजीवादिविकल्पव्युदासः, स चन सामान्येन, किन्तु प्रत्याचक्षाण:-प्रत्याख्यानं कुर्वन् , प्रत्याख्यानपरिणामे वर्तमान इति भावः, 'हवइ आया' इति स एव च प्रत्याचक्षाणः परमार्थतो भवत्यात्मा, श्रद्धानज्ञानसावद्यविनिवृत्तिरूपस्वभावावस्थितत्वात्, शेषः संसारी *
पुनरात्मैव न भवति, प्रचुरघातिकर्मपरमाणुभिस्तस्य स्वाभाविकगुणतिरस्करणात्, अत एव यथोक्कात्मप्रतिपत्त्यर्थ | ६ द्वितीयात्मग्रहणं, 'तं खलु पचक्खाणं'ति खलुशब्दः सामायिकस्य जीवपरिणतिरूपत्वज्ञापनार्थः, तत् खलु प्रत्याख्यानं
जीवपरिणतिरूपं विषयमधिकृत्य सर्वद्रव्याणामापाते-आभिमुख्येन सन्निपतने, निष्पद्यते इति वाक्यशेषः, सबंद्रव्याणां श्रद्धेयतया (शेयतया) यथायोगं प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयतया च तद्विषयत्वात् , ननु किं सामायिकमिति स्वरूपप्रश्ने प्रक्रान्ते विषयनिरूपणमस्यान्याय्यम् , अप्रस्तुतत्वात्, बाह्यशास्त्रवत्, उच्यते, अप्रस्तुतत्वादित्यसिद्धं, तथाहि-सामायिकविषय
निरूपणं प्रस्तुतं सामायिकाङ्गत्वात्, यत् यत्सामायिकाङ्गं तत्परूपणं प्रस्तुतं, यथा सामायिकस्वात्मप्ररूपणमित्यलं विस्तसारेण ॥ तत्र यदुक्तम् 'आत्मा खलु सामायिक मिति तत्र यथाभूतोऽसौ सामायिकं तथाभूतमभिधित्सुराह
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... अथ अग्रे 'सामायिक व्याख्या-आदि आरभ्यते
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श्रीआब
श्यक मल
य० वृत्तौ
उपोद्घाते
॥४२९॥
आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ७९० ], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [ १४९], मूलं [- /गाथा ] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
सावज्जजोगविरओ, तिगुत्तो छ संजओ । उउन्तो जयमाणो, आया सामाइअं होइ ॥ १४९ ॥ (मू. भा.)
अवयं-मिथ्यात्वकषायनोकषायलक्षणं, सह अवद्यं यस्य येन वा स सावद्यः । चासौ योगश्च सावद्ययोगः तस्माद् विरतो-निवृत्तः सर्वसावद्ययोगविरतः, तथा त्रिमिः - मनोवा कायैर्गुप्तः, तथा पट्सु जीवनिकायेषु संयतः प्रयतवान्, अथ | अवश्य कर्त्तव्येषु योगेषु सततमुपयुक्तो, यतमानः, यतनं - तेपामासेवनं, इत्थंभूत आत्मा सामायिकमिति, इयं मूलदीकानुसारेण व्याख्या ॥ साम्प्रतमियमेव गाथा कथं कालिकसूत्रेऽपि प्रतिसूत्रं पूर्वमवतेरुर्नया इति सकौतुकविनेयज्जनानु४. ग्रहाय पूर्वसूरिकृत व्याख्यानुसारेण नयेर्व्याख्यायते, सङ्ग्रहनयः प्राह-आत्मा सामायिक-सामायिकशब्दवाच्यो, न तदतिहे रिक्तं गुणान्तरं, गुणानां द्रव्यात् पृथग्भूतानामसम्भवाद्, अपृथग्भूतानां द्रव्ये एवान्तर्भावात् एवं ब्रुवाणं सङ्ग्रहं प्रति
व्यवहारोऽवोचत् न शक्यमेतत् प्रतिपनुमतिप्रसङ्गदोषात्, तथाहि यद्यात्मा सामायिकं ततो यो य आत्मा स सामायि कमिति प्रसक्तं, तत एवं प्ररूपय 'जयमाणो आया सामाइयं होइ' इति, यतमानो नाम प्रयज्ञपरः, तथाभूत आत्मा सामायिकं न शेष इति, एवं व्यवहारेणोके सति ऋजुसूत्रनय उवाच- यदि नाम यतमानः आत्मा सामायिकं तत एवं तामलिनभृतयोऽपि स्वच्छंदसा यतमानाः सामायिकं प्रसक्ताः, तेषामपि स्वसमयागतयतनामात्रसम्भवात्, न चैतदिष्टं, | तेषां मिथ्यादृष्टित्वात्, तत एवमवबुद्ध्यस्व-उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति, उपयुक्तो नाम ज्ञेयप्रत्याख्येयज्ञानप्रत्याख्यानपरिणामः, एवं सति तामदिप्रभृतीनां व्यवच्छेदः तेषां सम्यग्ज्ञानसम्यक्प्रत्याख्यानासम्भवात् एवमृजुस्त्रेणोके शब्दनयोऽभाणीत् यद्युपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकम्, एवं तर्ह्यविरतसम्यग्दृष्टयो देशविरताञ्च सामायिकं
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अत्र अध्ययन [ १ ] 'सामयिक' आरभ आरब्धः
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नयैः सा
मायिकम्
||४२९॥
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आगम
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आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९०], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१४९], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
मापवन्ति, तेषामपि यथायोग ज्ञेयज्ञानप्रत्याख्येयप्रत्याख्यानसम्भवात् , तत एवमाचक्ष्व-पट्सु संवत सपयुको यतमान दात्मा सामायिकमिति, पट्सु-पृथिवीकायिकादिषु सम्यक्-सूत्रोक्कनीत्या यता-सहानपरितापनादिभ्यो विरतः संयतः
एवं चाविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतव्यवच्छेदः, तेषां त्रिविधंत्रिविधेन षड्जीवनिकायपरितापनादिम्यो विरत्यमावाद, एव४/मुक्के समभिरूदः प्राह-यदि षट्सु जीवनिकायेषु संयत उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकं ततः प्रमत्तसंयतानामपि | दिसामायिकत्वप्रसंगः, तेषामपि षट्सु संयतत्वात् , तत एवमवगच्छ-त्रिगुप्तः पट्सु संयत उपयुक्तो वतमान आत्मा सामा
नायिकमिति, त्रिगुप्तो नाम मनोवाकायगुप्तः, किमुक्तं भवति :-अकुशलमनोवाफायप्रवृत्तिनिरोधी कुशलमनोवाकायो४ दीपकः, एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति न्यायात् पञ्चसु ईयभापैषणाऽऽदानभाण्डमात्रनिक्षेपणोच्चारप्रश्रवणादिपरिष्ठापनरूदापामु समितिषु समित इत्यपि गृह्यते, ततः प्रमत्तसंयतानां व्यवच्छेदः, तेषां निद्राविकथादिप्रमादोपेतानां यथोकरूपगु-18
प्तिसमित्यभावात् , एवं समभिरूदेनाभिहिते एवंभूतो वदति-यदि नाम यथोक्तस्वरूप आत्मा सामायिकं ततोऽधमत्त४ संयतादयोऽपि सामायिकं भवेयुः, तेषामपि यथोक्तविशेषणविशिष्टत्वभावात् , तत एवं प्रतिपद्यस्व-सावद्ययोगविरतदाख्रिगुतः षट्सु संयतः उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति, सावद्ययोगविरतो नाम अवयं-कर्मवन्धः, सहावर्य Pा यस्य येन वा स सावद्यः, योगो व्यापारः सामर्थ्य वीर्यमित्येकार्थ, “जोगो विरिय थामो उच्छाह परकमो तहा चेद्वारी
सत्ती सामरथं चिय जोगस्स हवंति पज्जाया ॥१॥" इति वचनात्, सापद्यश्चासौ योगश्च सावद्ययोगस्तस्मात् विरत:प्रतिनिवृतः सावधयोगविरतो, परिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिज्ञातसमस्तसावद्ययोगः, किमुकं भवति ।-निरुद्ध
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आगम
(४०)
आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९०], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१४९], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
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श्रीआय- सूक्ष्मवादरमनोवाकायब्यापारो विगतक्रियानिवत्तिध्यानमधिरूढः शैलेशी प्रतिपन्नो नामात्मा सामायिकमिति, एवं चा-18नयः साभयक मल प्रमत्तसंयतादीनां व्यवच्छेदः, तेषां मनोवाकायच्यापारवत्तया सायद्ययोगपरिकलितत्वात् , 'नास्थि हु सकिरियाणं अवंधगं मायिकम या तत्ती किंचि इह अणुट्ठाण'मिति वचनात्, नैगमस्य त्वनेकगमत्वात् समस्तैतद्विशेषणविशिष्टो वा द्वित्रिचतुःपञ्चविशेषणविशिष्टो उपोदयात वा सामायिकमिति ॥ अन्ये वेवमभिदधति-सङ्ग्रहो वक्ति-आत्मा सामायिक-सामायिकशब्दवाच्या, भावना मागिव, एव-131
मुक्त व्यवहारस्तं प्रति भाषते-यदि नामात्मा सामायिकमित्येतावन्मात्रमभ्युपगम्यते ततः सावधव्यापारवहुलानामपि सामा॥४३०॥ यिकत्वप्रसङ्गः, ततो मा वादीरेवं, किन्त्वेवं वद-सावद्ययोगविरत आत्मा सामायिकमिति, एवं च सावधव्यापारनिषण्णानां
सामायिकत्वन्युदासः, ऋजुसूत्रः पुनः संयममेव सामायिकं मन्यते, न सम्यक्त्वसामायिक श्रुतसामायिक वा, विरत्यभावे|| तयोनिष्फलत्वात् , 'ज्ञानस्य फलं विरतिरिति वचनात् , विरतिभावे च तयोः तत्रैवान्तर्भावात् , तत उक्तप्रकारेण वदन्त | व्यवहार प्रति स प्राह-विरति म परिज्ञानमात्रेऽपि तदासत्यभावतो लोके व्यवाहियते, तथाहि-केचित्प्रबलचारित्रावरणीयकर्मोदयसमेताः कदाचित्तीर्थकरादिसमीपे धर्मश्रवणवेलायां नरकादिदुःखाकर्णनतस्तद्भीता विषयान् नरकादिकुग-18 तिमपातहेतूनवबुद्ध तेभ्यो विरज्यन्ते-हा घिग्! वयमेतेष्वेवरूपेष्वपि प्रसका इति, लोकानामपि च तथारूपचेष्टादिदनित एवं प्रत्यय उपजायते यदेते विरक्का इति, परं ते न तान् विषयान् त्यक्तुं शक्नुवन्ति, प्रबलचारित्रावरणीयकर्मो
३४३०॥ दयात्, ततः सावद्ययोगविरत आत्मा सामायिकमित्येतावन्मात्रोको तेषामपि सम्यक्त्वसामायिकवतां च व्यवहारतः | सावद्ययोगविरतानां सामायिकावं पामोति, तस्मादेवमभिधानीयं-सावधयोगविरतस्त्रिगुप्त आत्मा सामाविकमिति, त्रिगुप्त
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९०], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१४९], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
इत्यख व्याख्यानं प्राग्वत् , त्रिगुप्त इत्युपलक्षणं, तेन पञ्चसमित इत्यपि द्रष्टव्य, शब्दनयः पुनर्देशविरतिसामायिकमपि दूसनेच्छति, तत एवमभिदधानमृजुसूत्रं प्रति स ब्रूते-यदि नाम सावद्ययोगविरतखिगुप्तः सामायिकमित्युच्यते ततो देशविरता अपि सामायिक प्रामुवन्ति, तेषामपि सामायिकं कुर्वतां सावद्ययोगविरतत्वात् यथायोग पञ्चसमितित्रिगुप्ति-|*
भावाच्च, ततस्तेषां सामायिकत्वप्रतिषेधार्थमेवमभिदध्याः-सावद्ययोगविरतखिगुप्तः षट्सु संयतः आत्मा सामायिकमिति, दूपसु संयतो नाम त्रिविधंत्रिविधेन षट्सु जीवनिकायेषु सट्टनपरितापनादिभ्यो विरतः, तत एव देशविरतानां सामा-8
यिकमपि कुर्वतां सामायिकत्वन्युदासः, त्रिविधंत्रिविधेन विरत्यभावाद् , द्विविधंत्रिविधेनेति सामायिकसूत्रोच्चारणात् ,
समभिरूढः पुनः प्रमत्तसंयतानामपि सूक्ष्मसम्परायपर्यन्तानां सामायिकत्वं नेच्छति, तत उक्तप्रकारेण ब्रुवन्तं शब्दनयं | टूप्रति स पाह-यदि नाम सावद्ययोगविरतस्त्रिगुप्तः षट्सु संयत आत्मा सामायिकमिति ब्रूषे, ततः प्रमत्तसंयतादीनामपि है सामायिकत्वप्रसङ्गः, तेषामपि यधोकविशेषणाविशिष्टत्वात् , तस्मादेवं वद-सावद्ययोगविरतस्त्रिगुप्तः षट्सु संयत उपयुक्त
आत्मा सामायिकमिति, उपयुक्तो नाम कपायोदयले शेनाप्यकलङ्कितः सन् समभावव्यापृतः, ते च उपशान्तमोहादय द्रा एव, न प्रमत्तसंयतादयः, ततस्तेषां व्युदासः, एवंभूतः पुनः समुद्घातादिगतं सयोगिकेवलिनमयोगिकेवलिनं वा सामायिकमिच्छति, न शेष, यतः सामायिकस्य फलं मोक्षः, ततो यैव सम्यक् समभावे व्यवस्थितस्य समस्तकर्मविमोक्षार्थ-1*
मायोजिकाकरणसमुद्घातादिका विगतक्रियाऽनिवर्तिध्यानप्रतिपत्तिरूपा वा क्रिया सैव सामायिकशब्दस्य प्रवृत्तिनिमिप्राचम्, अतस्तत्प्रतिपत्त्यर्थ विशेषणान्तरमा:-सावद्ययोगविरतत्रिगुप्तः पदमु संयत उपयुको यतमान आत्मा सामायिक
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९१], विभा गाथा H], भाष्यं [१४९...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
काख्य
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सत्राक
श्रीभाव- मिति, एवं चोपशान्तमोहादीनां सामायिकत्वप्रतिक्षेपः, तेषां यथोकलक्षणक्रियारूपाया यतनाया असम्भवात् , नैग- सामायिश्यक मल- मस्वनेकगमत्वादेव प्राग्वत् सामायिकमिच्छन् भावनीयः॥ सम्प्रति यदुक्तं-'तं खलु पञ्चक्खाणं आवाए सबदवाणंति, या वत्तीतत्र साक्षान्महात्रतरूपं चारित्रसामायिकमधिकृत्य सर्वद्रव्यविषयतामपदर्शयति
विषयः उपोद्घाते ? पढमम्मि सबजीचा बीए चरिमे अ सबदबाई । सेसा महत्वया खलु तदिकदेसेण दवाणं ।। ७९१ ॥
| तत्र साक्षान्महाव्रते विषयद्वारेण चिन्त्यमाने (प्रथमे-प्राणातिपातविरमणरूपे आये महाव्रते) सर्वजीवा:-त्रसस्थावरसूक्ष्मे॥४३१॥। तरभेदा विषयत्वेन द्रष्टव्या, तस्य तदनुपालनरूपत्वात् , द्वितीये मृपावादविनिवृत्तिरूपे चरमे च-परिग्रहविनिवृत्तिलक्षणे
सर्वद्रव्याणि विषयत्वेनावगन्तव्यानि, कयमिति चेत् , नास्ति पञ्चास्तिकायात्मको लोक इति हि मृपावादः सर्वद्रव्यविषयः, तन्निवृत्तिरूपं च द्वितीय महाव्रतं, तथा परिग्रहोऽपि मूर्छाद्वारेण समस्तद्रव्यगोचरः, तन्निवृत्तिरूपं च पञ्चमं महानतम् , अतो वे अप्यदोषद्रव्यविषये, सेसा' इत्यादि, खलुशब्दोऽवधारणे, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, शेषाणि महाव्रतानि द्रव्याणां | विषये तदेकदेशेनेव,भवन्तीति क्रियाध्याहारः,तेषां द्रव्याणामेकदेशस्तेनैव हेतुभूतेन भवन्ति, नतु समस्तद्रव्यविषयाणि,कर्थ, तृतीयस्य ग्रहणधारणीयद्रव्यादत्तादानविरतिरूपत्वात् चतुर्थस्य स्वेसु वा रूवसहगएसु वा दबेसु' इत्यादिवचनतो रूपरूपसहगतद्रव्यसम्बन्ध्यब्रह्मविरतिरूपत्वात् षष्ठस्य च रात्रिभोजनविरमणरूपत्वादिति, एवं तावच्चारित्रसामायिक निवृत्तिद्वारेण सर्व- |॥४३॥ द्रव्यविषयं, श्रुतसामायिकमपि श्रुतज्ञानात्मकत्वात् सर्षद्रव्यविषयमेव, सम्यक्त्वसामायिकमपि सर्वद्रव्याणां सगुणपर्यायाणां 5 विषये श्रद्धानं, तद्रूपत्वात् सर्व विषयमित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः। तत्र सामायिकमजीवादिब्युदासेन जीव एवेत्युक्तं, जीवश्च
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दीप
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... अत्र चारित्र-सामायिक अधिकृत्य सर्व-द्रव्य एवं पर्याय-विषय दर्शयते
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आगम
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९२], विभा गाथा ], भाष्यं [१४९...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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द्रव्यगुणसमुदायात्मक इति द्रन्यगुणयोः सामायिकमिति द्रष्टव्यम् , अब नवैचिन्ता, बतः केचिन्नया द्रव्यं सामाविकमिति प्रतिपन्नाः, अपरे गुण इति, सकलनयानां च आधारभूती दौनयो, तद्यथा-द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च, तत्र नैगमसहव्यवहारा द्रव्याधिकनयाः, उपरितना ऋजुसूत्रप्रभृतयश्चत्वारः पर्यायार्थिकनयाः, आदच चूर्णिकृत्-"आइतिग नयाणं
दबडिओ, उवरिल्ला पत्तारि पजवद्वितो" इति, तत्र द्रव्यार्थिकः पर्यायाधिको वा यत् सामायिकर्मिग्छति तदुपदर्शयन्नाह१ जीवो गुणपहिवन्नो नयस्स दवट्टियस्स सामइयं । सोचेव पज्जवद्वियनयस्स जीवस्स एस गुणो॥ ७९२॥ दी जीवः-आत्मा गुणैः-सम्यक्त्वादिभिः प्रतिपन्नः-आश्रितो गुणप्रतिपन्नः द्रव्यमेवार्थो यस्य न पर्यावाः स भ्यार्षिकः, *अथवा 'दयट्टिय' इति द्रव्यस्थित इति संस्कारः, द्रव्ये वस्तुतत्त्वबुध्या स्थितो न तु पर्याये इति द्रव्यस्थितः, यदिवा द्रव्या
स्तिक इति संस्कारः, तत्र अस्तीति मतिरस्येत्यास्तिकः, 'दैष्टिकास्तिकनास्तिका' इति निपातनादिकण इत्यास्तिको, नतु पर्याये इति द्रव्यास्तिकः, किमुक्तं भवति ।-द्रव्यमेव तात्त्विकमस्ति न पर्याया इति यः प्रतिपन्नःस द्रव्यास्तिक इति, तस्य द्रव्यार्थिकस्य द्रव्यस्थितस्य द्रव्यास्तिकस्य वा नयस्य मतेन सामायिकं, इयमत्र भावना-गुणाः खल्वौपचारिकत्वादसन्त एव, परमार्थतो द्रव्य व्यतिरेकेण तेषामनुपलम्भात्, अथ यदि रूपादयो न सन्ति कथं वर्हि लोकस्य द्रव्ये तत्प्रतिपत्तिः, चित्रे निम्नोन्नतभेदप्रतिपत्तिवत्, गुणप्रतिपन्न इत्यत्रापि गुणस्य विशेषणीभावेन जीवस्यैव तात्विकत्वं, यथा पावक इत्यत्र पुरुषस्य पचनक्रियायाः, ततोऽस्य द्रव्यार्थिकनयस्य न्यग्भूतगुणग्रामो जीव एवं सामायिकं, न पर्याय इति। पर्याया[धिकस्य पर्याय स्थितस्य पर्यायास्तिकस्य वा पुनर्नयस्य स एव सामायिकादिर्गुणः परमार्थतो, नतु जीवद्रव्यं, गुणातिरेकेण
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९३], विभा गाथा [२६४९], भाष्यं [१४९...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
श्रीआव-दूतस्यानुपलभ्भात् , तथाहि-नास्ति गुणातिरिको जीवः, प्रमाणेनानुपलब्धेः, रूपाद्यर्थान्तरभूतघटबत् , यदप्युक्तं प्राक:सामायिश्यक मल- 'आत्मा खलु सामायिक मिति तदपि यदेतत् ज्ञानादित्रिकरूपं सामायिक स एव जीवस्य गुण इतिकृत्वा उपचारतो-||
कद्रव्यपय. वृत्ती ठाभिहितं, यथा शुक्: पटः पीता हरिद्रा कृष्णो धमर इति, तत्त्वतस्तु स एव गुणः सामायिकमिति ॥ सम्प्रति पर्यायार्थिक
यायउपोद्घाते एव खं पक्षं समर्थयमान आह
विचार: उप्पज्जति वयंति य परिणामंति अ गुणा न दवाई। दधप्पभवा य गुणा, न गुणप्पभवाइं दबाई ॥ ७९३ ॥ ॥४३२॥ उत्पद्यन्ते-उत्पत्तिमासादयन्ति व्ययन्ते-विनाशमुपगच्छन्ति, चशब्दः समुच्चये, तथा परिणमन्ति-सङ्ख्यातीतानि
दूतारतम्यानि अनुभवन्ति प्रतिक्षणम् , अन्यथाऽन्यथा प्रायस्तरतमभावात् , चशब्द एवकारार्धः, स चावधारणे, तस्य चैवं |
प्रयोगो-गुण एव, नद्रव्याणि, तेषामाकालमेकरूपत्वेनावस्थानाभ्युपगमात्, उकं च-"जीवे दवट्ठयाए सासए पज्जवट्ठयाए 18असासए" इति, ततस्त एव गुणास्तत्त्वतः सन्ति, उत्पादन्ययपरिणामोपेतत्वात, पत्रगतनीलतारक्ततादिवत्, तदतिरि-13
कस्तु गुणी नास्त्येव, उत्पादव्ययपरिणामरहिवत्वात्, गगनेन्दीवरवत्, उक्तं च-"उप्पायविगमपरिणामतो गुणा पत्तनीलयाइच । संति न उ दवमिह तविरहातो खपुष्पंव ॥१॥" (विशे. २६४९)किंच-'दवप्पभवा व गुणा' द्रव्यात्प्रभ-14
वः-उत्पादो येषां ते द्रव्यप्रभवाः, चशब्दो युक्त्यन्तरसमुच्चये, गुणा न भवन्ति, किन्तु परस्परप्रत्ययभावप्रभवाः, 'न गुण-13॥३२॥ दिप्पभवाई दवाई' इति अत्रापि नेति सम्बध्यते, नापि गुणप्रभवानि द्रव्याणि, तेषां नित्यत्वेनाभ्युपगमात्, ततो न द्रव्याणां
कारणत्वं नापि कार्यत्वमिति तदभावः, सतो नियमेन कारणरूपतया कार्यरूपतया वा सम्भवात्, तथा च नास्ति परा
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मा. सू. ७३
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ७९४]. वि०भा०गाथा [२६४९], भाष्यं [१४९...], मूल [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
भिमतं द्रव्यं, कारणकार्यरूपविकलत्वात्, खरविषाणवत्, अस्तित्वं हि नामार्थक्रियाकारित्वं, 'यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थस' दिति वचनात्, सर्वा अर्थक्रियाकारिता कारणकार्यरूपत्वेन व्याठा, द्रव्यस्य कारणकार्यरूपविकलस्वार्थक्रियाया अदर्शनात् किं हि तदस्ति वस्तु यदकारणरूपमकार्यरूपं वा सत् अर्थक्रियां कुर्यात् ?, ततः कारणकार्यरूपत्वं व्यावर्त्तमानं स्वव्याप्यमप्यस्तित्वं निवर्त्तयतीति व्यापकानुपलब्धिरेषा, तस्माद् गुण एव समभावलक्षणः सामायिकमिति । एवं पर्यायार्थिकेन स्वमते प्रतिपादिते द्रव्यार्थिक आह
जं जं जे जे भावे परिणमद्द पओग-वीससा दवं । तं तह जाणेह जिणो अपजवे जाणणा नत्थि ॥ ७९४ ॥ यत् यत् आत्ममृदादिकं वस्तु यान् यान् भावान् पर्यायान् विज्ञानघटादीन् परिणमति तदात्वेन प्रतिपद्यते प्रयोगतो विस्वसात्तो वा, तत्र प्रयोगश्चेतनावतो व्यापारः, वित्रता स्वभावः, तत्सर्वमुत्प्रेक्षितपर्यायं द्रव्यमेव, उत्फणविफणत्वकुंडलिकादिपर्यायसमन्वितसर्प्यद्रव्यवत्, तथाहि न तत्र केचन उत्पगतादयः सपद्रव्यातिरिक्ताः पर्यायाः सन्ति, प्रमाणेनानुपलब्धेः, गगनकुसुमस्य मुकुलितार्द्धमुकुलितत्वादिपर्यायवत्, तस्मात्तदेव द्रव्यं तत्र (च) परमार्थसदिति । किचतत् द्रव्यं तथैव - अन्वयपर्यायोपसर्जनं जानाति परिच्छिनत्ति जिनो-भगवान् केवली, कस्मात् पर्यायोपसर्जनं जानाति, नतु पर्यायरहितमित्यत आह-'अपजवे जाणणा नत्थित्ति' अपर्याये-पर्यायरहिते यतो जाणणा-परिज्ञा केवल्यादीनामपि नास्ति, ततस्ते उत्प्रेक्षामात्रेण व्यवह्रियन्ते, नतु परमार्थतः सन्ति, ततो द्रव्यमेत्र तात्रिकमिति जीव एव सामायिकमिति गाथार्थः । अथवा 'दबप्पभवा य गुणा' इत्यादि द्रव्यार्थिकनयमतेन व्याख्यायते, उत्पद्यन्ते व्ययन्ते परिणमन्ति च यस्मात्
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: ७९५], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१४९...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्री आव-11गुणा एच, न द्रव्याणि, तस्मात्स एव तात्त्विका इति पर्यायाधिकेनोक्ते द्रव्याधिकः प्राह-द्रव्याण्येव च परमार्थतः सन्ति, सामायिके श्यक मल-18न गुणाः, यतो द्रव्यप्रभवा गुणाः, न गुणप्रभवानि द्रव्याणि, किमुक्तं भवति :-द्रव्यत्वेनोत्पादविगमपरिणामप्रकारस्तेषां किमिति य. वृत्तौ हितेषां गुणानामुत्पादो भवति, तेषां परोपादानत्वात् , नतु गुणेपूक्तप्रकारेण द्रव्याणां, तेषामपरोपादानत्वात् , तस्मात् तान्येव 31 उपोदपात द्रव्याण्यन्तर्विशेषणीभूतगुणानि तात्त्विकानि, न गुणा इत्यात्मैव सामायिकम्, एवं पर्यायाधिकेन द्रव्याधिकेन च
स्वमते उद्भाविते परस्परविरुद्धमताकर्णनतो व्याकुलीचित्तः सन् शिष्यः प्रश्नयति-भगवन् ! किमत्र तत्त्वमिति !, ॥४३॥ तत आचार्यः स्वसिद्धान्तमुपदर्शयति-जं जं जे जे भावे' गाथा, यत् यत् द्रव्यमात्ममृदादिकं यान् यान् भावान्
पर्यायान् विज्ञानघटादीन् परिणमति-तादात्म्येन प्रतिपद्यते प्रयोगतो विश्रसातो वा 'तं तहे'ति-अगृहीतवीप्सोऽपि प्राग्वीप्सोपन्यासादयं शब्दो वीप्सां गमयति, तत् तत् तथा तथा परिणमन्तं जानाति जिनो-भगवान् केवली, यस्मादपर्याये-पर्यायरहिते 'जाणणा' केवलज्ञानेनापि परिज्ञा नास्ति, तस्मात् द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु तात्त्विकं, केवलिना तथाsवगतत्वाद्, अतः सामायिकभावपरिणत आत्मा सामायिकमिति स्थितं । व्याख्यातं किमिति द्वारं, अधुना कतिविधमिति द्वारं व्याचिख्यासुराह
सामाइयं च तिविहं समत्त सुंअं तहा चरितं च । दुविहं चेव चरितं अगारमणगारिअंचेव ॥ ७९५ ॥ ४ ॥४३३॥ * सामायिकं प्राग्निरूपितशब्दार्थ, चः परणे, विविध-त्रिभेद, तद्यथा-सम्यक्त्वम्, अत्रानुस्वारलोप आपत्वात् , श्रुतं
चारित्रं, सम्यक्त्वसामायिक श्रुतसामायिक चारित्रसामायिकमित्यर्थः, चशब्दः स्वगतानेकमेदप्रदर्शनार्थः, तत्र
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... आगम साक्षी-पाठः रूपेण गाथा || ७९४ || हारिभद्र-वृतौ || ७९५ || रुपेण अपि उक्तं, अत्र सा 'गाथा-व्याख्या' वृत्ति रूपेण प्रदर्शिता:
... अथ सामायिकस्य त्रिविध / चतुर्विध भेदानां परिचय आरभ्यते
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: ७९५], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१४९...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सम्यक्त्वसामायिकं द्विविधं, तद्यथा-निसर्गसम्यक्त्वसामायिकमधिगमसम्बक्त्वसामायिक च, तत्र निसर्गः स्वभावः, तेन सम्यक्त्वसामायिक निसर्गसम्यक्त्वसामायिक, बदुपदेशमन्तरेणापि जीवस्य तथास्वभावत एवोपजायते तन्निसर्गसम्यक्त्वसामायिकमिति भावः, परोपदेशतो जीवादिपदार्थाधिगमपुरस्सरमुपजायते तदधिगमसम्यक्त्वसामायिक, अथवा दशविधम्' एकैकस्य औपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकवेदकक्षायिकभेदात्, तत्र औपशमिकमुपशमश्रेणी प्रथमसम्यक्त्वलाभे वा अन्तरकरणव्यवस्थितस्य, सास्वादनमौपशमिकसम्यक्त्वाद्धायां व्यवस्थितस्य मिथ्यात्वं गन्तुमनसो मिथ्यात्वमना-11
वस्य, बायोपशमिकं सम्यक्त्वपुद्गलान् वेदयमानस्य, वेदकं दर्शनत्रिक क्षपयतश्चरमग्राससम्यक्त्वाणुवेदनस्वभावं, दीक्षायिक दर्शनत्रिकक्षयनिष्पन्नं शुद्धात्मस्वभावरुचिरूपं, अथवा त्रिविध-क्षायिकमौपशमिक क्षायिकंच, सास्वादनस्या-४
पशमिके वेदकस्य च क्षायोपशमिके अन्तर्भावविवक्षणात्, यदिवा विविधमेवं-कारक रोचक दीपकं च, तत्र यस्मिन् सम्यक्त्वे सति सदनुष्यानं श्रद्धत्ते सम्यक् करोति (च, करोति ) सदनुष्ठानमिति कारकं, यत्तु सदनुष्ठानं रोचयत्येव केवलं न पुनः कारयति तत् रोचकं, यत् स्वयं तत्वश्रद्धान (हीन) एव मिथ्यादृष्टिः परस्य धर्मकथादिभिस्तत्त्वश्रद्धानं
दीपयति-उत्पादयति तस्य परिणामविशेषः कारणे कार्योपचारात् सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते, उक्तं च-"सयमिह मिच्छद्दिट्ठी साधम्मकहाईहिं दीवइ परस्स । सम्मत्तमिणं दीवग कारणकज्जोवयारातो ॥१॥" श्रुतसामायिक त्रिविधं, तद्यथा-सूत्रमर्थ-IN
स्तदुभयं च, अक्षरानक्षरादिभेदादनेकविधं वा, चारित्रसामायिक विविध-क्षाविकमौपशमिक बायोपशमिकं च, तत्र क्षीणमोहादेः क्षायिकम् , उपशान्तमोहस्यौपशमिक, ममत्संयतादीनां क्षायोपशमिक, अथवा पश्चविर्ष-सामायिकं छेदोप
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आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९५], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५०], मूलं [- गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
श्रीआव-I स्थाप्यं परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं च, अथवा गृहीताशेषविकल्यं द्विविधर्म-अगारसामायिकमनगार-12 श्यक मल-
IMच, तथा पाह-'दुबिई चेव चरिसं अगारमणगारियं चेव ॥ ७९६॥ सामायिक द्विविधमेव-द्विभेदमेव मूलभेदेन कतिविधया वृत्तीचारित्रं-चारित्रसामायिकम् , अगाः-वृक्षास्तैः कृतत्वाद् आ समन्तात् राजते इति अगारं-गृह, 'कचिदिति (ड)।
| नितिद्वारं उपोद्घाते
प्रत्ययः, तदस्यास्तीति 'अभ्रादिभ्य' इति मत्त्वीयोऽकारप्रत्ययः, अगारो-गृही तस्मिन् भवमागारिकम् , अध्यात्मादिभ्य
इतीकण् प्रत्ययः, इदं चानेकभेदं, देशविरतेश्चित्ररूपत्वात् , अनगार:-साधुः, न विद्यते स्वस्वामिभावेनागारमस्येति | ॥४३॥ व्युत्पत्तेः, तस्मिन् भवमानगारिकं चैव, पूर्ववदिकण्प्रत्ययः, आह-सम्यक्त्वसामायिकश्श्रुतसामायिके विहाय चारित्र
सामायिकस्य साक्षानेदाभिधानं किमर्थम् ।, उच्यते, तस्मिन् सति तयोनियमेन भाव इति ख्यापनाचं, यद्वा चरम-15 त्वादस्य यथा भेद उक्तः तथा शेषयोरपि वाच्य इति ज्ञापनार्ध ।। साम्प्रतं मूलभाष्यकारः श्रुतसामायिकमध्ययनरूपत्वात् | व्याचिख्यासुस्तस्य भेदानाह
अज्झयणपि यतिविहं सुत्ते अत्थे (य) तदुभए चेच । सेसेसुवि अज्झयणेसु होइ एसेव निजप्ती॥१५०॥ (भाष्य)
अध्ययनमपि च त्रिविधं-सूत्रविषयमर्थविषयं तदुभयविषयं च, अपिशब्दात् सम्यक् वसामायिकमप्यौपशमिकादिर्भ- ३an दात् त्रिविधमिति ॥ प्रक्रान्तोपोद्घातनिर्युक्तरशेषाध्ययनव्यापितां दर्शयति-शेषेष्वपि चतुर्विशतिस्तवादिष्वन्येवध्य-13 यनेषु भवत्येषेव-दशानिर्देशादिका निरुतिपर्यवसाना नियुक्तिः । आह-अशेषद्वारपरिसमाप्तावतिदेशो न्याय्यः, किमर्थ
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... अथ अध्ययनस्य त्रिविधत्वं दर्शयते
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [७९६-७९८], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अपान्तरालेऽभिहितः १, उच्यते, मध्यग्रहणे आद्यन्तयोर्ग्रहणं भवतीति न्यायप्रदर्शनार्थ, गतं कतिविधमिति द्वारम् , इदानी कस्येति द्वारावसरः, तत्र यस्य तद्भवति तदभिधित्सुराह
जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासिअं ।। ७९६ ।। | यस्य साधोरात्मा-जीवः, 'सामाणिओ'त्ति समानीतः-सकारस्य सूत्रे दीर्घः प्राकृतत्वात्, सम्यक् सन्निहिती कृतः, स्ववीयर्योल्लासविशेषेणेति गम्यते, क समानीत इत्याह-संयमे-मूलगुणेषु नियम-उत्तरगुणेषु तपसि-द्वादशप्रकारेऽनशनादिलक्षणे, तस्यैवंभूतस्याप्रमादिनः सामायिक भवति, इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थः, एतेषु त्रिषु संयमादिषु ( समाहितस्य) सम्पूर्ण सामायिक भवतीति केवलिभि:-सर्वर्भाषितम् ॥ आ जो समो सबभूएसुं, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइ होइ, इइ केवलिभासि ॥ ७९७ ।। दि यः समो-मध्यस्थः आरमा, त(स्व)मिव परं पश्यतीति भावः, सर्वभूतेषु-सर्वेषु प्राणिषु, तद्यथा-त्रसेघु-द्वीन्द्रियादिषु।
स्थावरेषु-पृथिव्यादिषु तस्य सामायिक भवति, इति-एतावत् केवलिभि पितं ॥ सम्मति फलदर्शनद्वारेणास्य करणविधानं प्रतिपादयन्नाह
सावजजोगप्परिवजणहा, सामाइ केवलिअं पसत्थं ।
गिहत्वधम्मा परमति नचा, कुज्जा बुहो आयहिअं परत्था ॥ ७९८ ॥ सावद्ययोगपरिवर्जनार्थ सामायिक केवलिकमिति-पूर्ण प्रशस्तं-पवित्रम् , आत्मनः पवित्रीकरणात् , तथा गृहस्थधर्मात्
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... अथ 'सामायिक संबंधी विविध द्वाराणाम् वर्णनं
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श्रीआयश्यक मल- * य० वृत्तौ
उपोद्घाते
॥४३५॥
आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [७९९], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५०...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृि
परमं प्रधानं ज्येष्ठमित्येतत् ज्ञात्वा कुर्यात् बुधो विद्वान् आत्महितम् - आत्मोपकारकम् एतदेव परिपूर्ण सामायिक, किमर्थमित्याह - 'परार्थ' परो मोक्षः, तस्याप्यपरस्य परस्याभावात् तदर्थं न तु सुरलोकाद्यवात्यर्थे, अनेन निदानपरिहारमाह, परिपूर्ण सामायिक करणशक्त्यभावे गृहस्थोऽपि गृहस्थसामायिकं 'करेमि भंते! सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावनियमं पशुवासामि दुविहं तिविद्देणे'त्येवं कुर्यात्, आह-तस्य सर्व त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याचक्षाणस्य को दोषः ?, उच्यते, प्रवृत्तकर्म्मारम्भानुमत्यनिवृत्त्या कारणसम्भव एव, तथापि तत्करणे भङ्गदोषः, तथा चाह
सति भाणिकणं विरई खलु जस्स सविआ नत्थि । सो सङ्घविरहवाई चुक्कड़ देसं च सव्वं च ॥ ७९९ ॥ ''त उपलक्षणमेतत् तत एवं द्रष्टव्यं सर्वे सावधं योगं प्रत्याख्यामि त्रिविधं त्रिविधेनेत्येवं भाणिऊण-अभिधाय विरतिः- निवृत्तिः, खलु सर्वका सर्वा नास्ति, प्रवृत्त कर्मारम्भानुमति सद्भावात् स सर्वविरतिवादी 'चुकई' इति भ्रश्यति 'देसं च सवं वे 'ति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे द्वितीया, देशविरतेः सर्वविरतेश्च, देशविरतेरनभ्युपगमात्, सर्वविर तेरकरणात्, नन्वागमे गृहस्थस्यापि प्रत्याख्यानं त्रिविधं त्रिविधेनोकं, तथा च व्याख्याप्रज्ञप्तौ सूत्रं - 'समणोवा सगस्स णं भंते! पुवामेव थूले पाणाइवाए पच्चकुखाए भवति, से णं पच्छा पञ्चाइक्खमाणे किं कीरइ ?, गोयमा ! तीयं पडिकमइ जाव एगविहेण वा पडिक्कमइ' इति, ततः कथं गृहस्थस्य सावद्ययोगानुमतिप्रत्याख्यानप्रतिषेधः १, उच्यते, यदिदं सूत्रे गृहस्थस्यापि त्रिविधं विविधेन प्रत्याख्यानं तत् स्थूलप्राणातिपातमृषावादादिविषयं द्रष्टव्यं यथा कोऽपि सिंहसरभगजादीनां वधं कन्यादिविषयमलीकं त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यातीति, न पुनः सामान्येन सावद्ययोगविद्ययं प्रवृत्तकर्मारम्भानुमतेरवश्यंभावात्, ततो न कश्चि
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सामायिके
कस्येति
द्वारं
॥४३५॥
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आगम
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८०१], वि०भागाथा [२६८६-२६८९], भाष्यं [१५०...], मूलं F/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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द्विरोधः, उक्तं च-"ननु तिविहतिविहेणं पच्चखाणं सुयंमि गिहिणोऽवित थूलवहादीण न सबसावजजोगाणं ॥१॥" (वि. २६८६) अपिच-यत्किश्चिदप्रयोजनं काकमांसादिकं यदपि चाप्राप्यं मनुष्यक्षेत्राहिईन्तिदन्तचित्रकचर्मादिक तद्विशेषितं वस्त्वधिकृत्य यदि त्रिविधं त्रिविधेनापि प्रत्याचष्टे तथापि न कश्चिद्दोषः; यथा स्वयंभूरमणसमुद्रादिमत्स्या, मया न हन्तव्याः त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रत्याचक्षाणस्य, यदिवा यो व्रतं प्रतिपत्तुकामः पुत्रसन्तत्यादिनिमित्तं विलम्ब कुर्वन्नेकादशीमतिमा प्रतिपद्यते तत्समाप्त्यनन्तरं चावश्यमेव व्रतं ग्रहीष्यति स त्रिविधं त्रिविधेनापि सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानं कुर्वाणो न दोषभाग भवति, ये पुनः पूर्वारब्धानुज्झितसावद्यकर्मसन्तानः सन् सामायिक करोति स त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यानं कर्तुं न शक्नोति, तदनुमतिपरिणतेनिवर्तयितुमशक्यत्वात्, आह च भाष्यकृत्-"जइ किंचिदप्पओ
यणमप्पप्पं था विसेसि वत्धुं । पच्चक्खेज न दोसो सयंभुरमणाइमच्छव ॥१॥जो वा निक्खमिउमणो पडिमं पुत्ताइ* संततिनिमितं । पडिवजेज तओया करेज तिविपि तिविहेणं ॥२॥ जो पुण पुवारद्धाणुज्झियसावजकम्मसंताणो। हातदणुमइपरिणतिं सो न तरइ सहसा नियत्तेउ ॥३॥" मिति (विशे. २६८७-९) यद्यपि च गृहस्थस्य सामायिक
कुर्वतो न त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यानं तथापि तद् गृहस्थेन परलोकार्थिना गृहस्थसामायिकमवश्यं कर्त्तव्यं, तस्यापि विशिष्टफलसाधकत्वात् , तथा चाह नियुक्तिकृत्
सामाइअम्मि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं बहुसो सामाइअंकुज्जा ॥८०१॥ सामायिके, तुशब्द एवकारार्थः, "तुः स्यादेऽवधारणे” इति वचनात् , सामाषिके एव कृते सति यस्मात् श्रावकः |
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...अत्र यत् नियुक्ति: क्रम ८०० इति न दृश्यते तत् (संपादन-परिवर्तन-रूपेण) / मुद्रण-अशुद्धिः मात्र, हारिभद्रिय-वृतौ गाथा '८०१ रूपेण एव वर्तते ।
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आगम
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८०२-८०६], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
सामायिक
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श्रीआवाश्रमण इव भवति, प्रायोऽशुभयोगरहिततया श्रमण इव बहुतरकर्मनिर्जरको भवतीति भावः, अनेन कारणेन बहुशः-18 श्यक मल-६ अनेकवारं सामायिकं कुर्यात् इति गाथार्थः ॥ किंच
ककिमिति पवन जीवो पमायवहुलो बहुसोविय बहुविहेसु अत्येमुं। एएण कारणेणं बहसो सामाइयं कुजा ।। ८०२॥ ।
द्वार सपोपने जीवः प्रमादबहुलः बहुशः-अनेकधापि च बहुविधेषु अर्थषु-शब्दादिषु, प्रमादवांश्च एकान्तेनाशुभवन्धक एव, अत:
तू अनेन कारणेन तत्परिजिहीर्षया बहुशः सामायिकं कुर्यात् , मध्यस्थो भूयादिति गाथार्थः । सामायिकं च मध्यस्थ स्य ।। ॥४३६॥ 1सामायिकवतो लक्षणमाह
जो नवि वइ रागे नवि दोसे दुण्ह मज्झयारम्मि । सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सवे अमझस्था ॥ ८०३ ॥ यो नापि वर्तते रागे, नापि द्वेष, किन्तु द्वयोरपि-रागद्वेषयोः मध्यकारे-मध्ये, कारशब्दस्य प्राकृतलक्षणवशतः स्वार्थे उत्पन्नत्वात् , अपान्तराले इत्यर्थः, स भवति मध्यस्था, मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थ:-रागद्वेषापान्तरालवी, शेपाः सर्वे अमध्यस्थाः ॥ गतं कस्येति द्वारम् , अधुना क किं सामायिकमिति प्ररूपयितुकामो द्वारगाथात्रयमाह
खित्त दिसा काल गहभविअसन्नि ऊसास दिहि आहारे। पञ्चत्त सुत्त जम्म ठिई बेअसन्ना कसाया3८०४ नाणे जोगुवओगे सरीर संठाण संघयण माणे । लेसा परिणामे वेअणा समुग्घाय कम्मे य ।। ८०५॥ ॥४३६॥ निधिहणमुबहे आसवकरणे तहा अलंकारे। सपणासणठाणस्थे चंकम्मते अ किं कहिअं? ।। ८०६॥ आसां समुदायार्थः क्षेत्रदिकालगतिभव्यसंज्ञिउच्छासदृष्टिाहारकानकीकृत्यालोचनीयम्, ककिं सामायिकमिति
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८०७-८०८], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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योगा, तथा पर्याप्त सुप्तजन्मस्थितिवेदसंज्ञाकषायायुपि च, तया ज्ञानं योगोपयोगी शरीरसंस्थानसहननमानानि लेश्याः द्र परिणामं वेदनां समुद्घातकर्मच, क्रियायोजना पूर्ववत्, तथा निर्वेष्टनोदत्तने आश्रव करणानि तथा अलङ्कारान्
तथा शयनासनस्थानचकमतश्चाश्रित्य पर्यालोचनीयम्, क किं सामायिकमिति । अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति-तत्रोर्ध्व लोकादिक्षेत्रमङ्गीकृत्य सम्यक्त्वादिसामायिका[दीनां लाभादिभावमभिघिरसुराह| सम्म मुआणं लंभो उहूं च अहो य तिरियलोए य । विरई मणुस्सलोए बिरयाविरई अतिरिएमु ॥८०७॥ AI सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोलोभा-प्राप्तिः, 'उहुंचेति ऊर्ध्वलोके च 'अहे य'त्ति अधोलोके च तिर्यग्लोके च, इयमत्र
भावना-कर्वलोके मेरुसुरलोकादिषु ये सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते तेषां श्रुताज्ञानमपि तदैव सम्यक्श्रुतरूपतया परिणमते इति द्वयोरपि सामायिकयोस्तत्र लाभसम्भवः, एवमधोलोकेऽपि महाविदेहगताधोलौकिकग्रामेषु नरकेषु च निसर्गतोऽधिगमाद्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्यमानानां द्वयलाभो भावनीयः, एवं तिर्यग्लोकेऽपि, 'विरई मणुस्सलोगे'त्ति अत्र विरतिशब्देन सर्वविरतिसामायिकं गृह्यते, तच लाभापेक्षया मनुष्यलोके एव, नान्यत्र, मनुष्या एवास्य प्रतिपचारः, न शेषा जन्तव इति भावना, क्षेत्रनियमं तु विशिष्ट श्रुतविदो नाभिहितवन्तः, सम्भावयामः ततत्रिष्वपि लोकेषु, मेरावपि कथासु प्रिवज्याप्रतिपचिश्रवणात्, 'विरयाविरई यतिरिएमति विरताविरतिश्च देशविरतिसामायिकलक्षणा लाभविचारेऽपिशब्दस्य गम्यमानत्वात् तिर्यश्वपि भवति मनुष्येषु च । पुरपडिवन्नतो पुण तीमुवि लोगेसु नियमतो तिहं । चरणस्स दोसु नियमा भयणिज्जा उङ्कलोगम्मि ॥८०८॥
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८०९], विभा गाथा [२६९८], भाज्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव-10 त्रयाणां सम्यक्त्वसामायिकदेशविरतिसर्वविरतिसामायिकाना पूर्वप्रतिपन्नकाः पुननियमेन त्रिष्वपि लोकेषु विद्यन्ते, दिग्द्वार श्यक मलापण्डकवनादिष्वपि देशविरतानां तिरश्चां सम्भवात्, चरणस्य-विरतिसामायिकस्य द्वयोः-अधोलोकतिर्यग्लोकयोः
नियमात्-नियमेन पूर्वप्रतिपन्नाः, भजनीयाः पुनरूर्यलोके, कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्नेति भावः, गतं क्षेत्रद्वारम् ।। पोटामधुना दिद्वारमभिधित्सुर्दिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह
नाम ठवणा दविए खित्तदिसा तावखित्त पन्नवए।
सत्समिआ भाव दिसा सा होअट्ठारसविहा उ (परूवणा तस्स कायषा)। ८०९॥ नामदिक स्थापनादिक् द्रच्यदिक् क्षेत्रदिक् तापक्षेत्रदिक् प्रज्ञापकदिक् सप्तमी भावदिक, तस्य नामस्थापना (दि) दिक्सप-1 कस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या, पाठान्तरं 'सत्तमिया भावदिसा सा होइटारसविहा उ' सप्तमी भावदिकू सा भवत्यष्टादशविधैवेति ।
तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यदिकस्वरूपप्रकटनार्थमाह-तेरसपएसियं खलु तावइएसुं भवे पएसेसु । जं दर्व ओगाई जहनग15 दतं दसदिसागं ॥२॥ (विशे. २६९८ आचा. नि. ४१) द्रव्यमेव च दशदिगुत्थापनहेतुत्वादिक द्रव्यदिकु, तञ्च द्विधा-जघ-16
न्यत उत्कर्षतश्च, तब त्रयोदशप्रदेशिक-त्रयोदशप्रदेशवत्, तावत्सु-त्रयोदशसु प्रदेशेषु यव्यमवगाढं भवति तत् जघन्यतो दशदिक्प्रभवं, तश्चैवम्-एकैकः प्रदेशो विदिक्षु, एते चत्वारः, मध्ये स्वेक इत्येते पञ्च, तथा चतसृषु विश्वायतावस्थितौ ॥४३
दौ द्वाविति, स्थापना-'एकेको विदिसासु, मझे य, दिसासु आयया दो दो इति, उत्कर्षवस्त्वनन्तप्रदेशात्मक, समतदपि च क्षेत्रमधिकृत्य जघन्यतस्त्रयोदशप्रदेशावगाढम्, एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे व्यणुकादीनामनम्ताणुकपर्व-II
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८०९], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
न्तानां स्कन्धानामवगाहेऽपि अधिकृतत्रयोदशप्रदेशावगाढस्कन्धत्वपरिणाममापनानामवगाहनासम्भवात्, उत्कर्षतस्त्वस
यातप्रदेशावगादमिति । सम्प्रति क्षेत्रदिक्प्रतिपादनार्थ रुचकवक्तव्यतामाहअट्ठपएसोरुभगो तिरिसंलोगस्स मज्झयारम्मि। एस पभवो दिसाणं एसेच भवे अणुदिसाणं ॥१॥(आचा.४२)
तिर्यग्लोकस्य मध्यकारे-मध्येऽष्टप्रदेशकः-अष्टनमःप्रदेशात्मको रुचकः, तथाहि-तिर्यग्लोकस्य मध्यभागे आयामविष्क५ भाभ्यां रजुप्रमाणौ सर्वप्रतराणां क्षुलको द्वौ नभप्रदेशप्रतरौ, तयोश्च मेरुमध्यप्रदेशे मध्ये, तत्र च मध्ये उपरितनप्रतरस्य 3
ये चत्वारो नभ प्रदेशा ये चाधस्तनस्य चत्वारस्तेषामष्टानामपि गोस्तनाकाररूपतया व्यवस्थितानामाकाशप्रदेशानां समये टू रुचक इति परिभाषेति, एष रुचको दिशा-क्षेत्रदिशांपूर्वादीनांप्रभव:-उत्पत्तिकारणम्, एष एव च भवति प्रभवोऽनुदिशा-14 क्षेत्रविदिशामाग्नेय्यादीनामिति ॥ सम्प्रत्यस्माच्च रुचकाद्दिशो विदिशश्च यथा भवन्ति तथा प्रतिपादयन्नाहदुपएसाइ दुरुत्तर एगपएसा अणुत्तरा चेव । चउरो चउरोय दिसा चउराइ अणुत्तरा दुन्नि। (आचा.नि.४३)
सगडुद्धिसंठिआओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्तावली अचउरो दो चेव य हुंति रुअगनिभा॥ (आचा. नि. ४४). तस्मात् यथोक्तरूपात् रुचकात् बहिश्चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकमादौ द्वौ द्वौ नमःप्रदेशौ भवतः, तदअंतश्चत्वारश्च-16 त्वारः, तेषामपि पुरतः षट् पट् , ततोऽप्यनतोऽष्टावष्टावित्येवं द्वाभ्यां प्रदेशाभ्यामारम्य जुत्तरवृद्धिः प्रत्येक चतसृष्वपि दिक्षा परिभावनीया, तथा चाह-'दुपएसाइ दुरुत्तर' अत्र 'चउरों' इति सम्बन्धः, चतस्रः पूर्वादिका महादिशो द्विप्रदेशादयो ।
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८०९], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
दिग्द्वार
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श्रीव-दमूले, प्रत्येक यथोत्तरं द्विद्विप्रदेशवृद्धयः, अत एवैताः संस्थानतः चिन्त्यमानाः शकटोद्धिसंस्थाना प्रतिपत्तव्याः, श्यक मल- एगपएसा अणुत्तरा चेव' अत्र 'चउरो य' इति द्वितीयपदेन सम्बन्धः, चतस्रः-आग्नेय्यादिका दिशो, विदिशामपि य. वृत्तौ दिक्त्वान्यभिचारात् उभयत्रापि सामान्येन दिसा इत्युकं, एकप्रदेशाः पूर्वादिमहादिशां चतसृणां चतुर्वन्तरालकोणेषु पोदयाएकैकनभप्रदेशनिष्पना अनुत्तरा-यथोत्तरं वृद्धिरहिताः, अत एवैताः संस्थानतः परिभाज्यमाना मुक्तावलीसंस्थिताः,
'चउरादि अणुत्तरा दोन्नि' इति दे ऊभ्वोधोदिशौ चतुरादिके अनुत्तरे, तथाहि-ऊर्च चतुरो नभःप्रदेशानादौ कृत्वा | यथोत्तरं वृद्धिरहितत्वात् चतुष्पदेशिकैव रुचकनिभा चतुरस्रदण्डाकारा एका दिग्भवति, अधोऽप्येवंप्रकारा द्वितीयेति ॥
सम्पत्येता एवं संस्थानतो निरूपयति-चतस्रः पूर्वादिका महादिशो भवन्ति शकटोद्धिसंस्थिताः, प्रदेशयादारभ्य यथोत्तरं प्रदेशद्धिकवृद्धिभावात्, तथा चतन:-आग्नेय्यादिका विदिशो मुक्तावल्य इव मुक्तावल्यः, मुक्तावलीसंस्थानसंस्थिता इत्यर्थः, एकैकनभः प्रदेशनिष्पन्नत्वात्, तथा द्वे ऊर्चाधोदिशौ भवतो रुचकनिभे, चतुष्पदेशनिष्पन्नत्वात् , अत्र स्थापना ॥ आसां च दशानामपि दिशां नामानि प्रतिपादयन्नाह-इंदग्गेई जम्मा य नेरई वारुणी अवायवा । सोमा ईसाणाविअ विमला य तमा य बोद्धवा ॥ (आचा. नि. ४३) या रुचकात् विजयद्वारानुसारेण विनिर्गता दिक् सा ऐन्द्री-1 नामा, पूर्वेत्यर्थः, अस्या अनन्तरं वामपाचे आमेयी, तस्या अपि तथैवानन्तरं याम्या, ततो नैर्ऋती, तदनन्तरं वारुणी ततो वायव्या, ततः सोमा, उत्तरा इत्यर्थः, तदनन्तरमीशानी, एता अष्टावपि तिर्यग्दिशाः, तत्रापि पूर्वा याम्या वारुणी, सोमेनि महादिनः, रुचकादूर्ध्वविनिर्गता विमला, अधःप्रयायिनी तामसी, तथा चैतदेव व्याख्यानमाह-इंदा य विजय
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८०९], विभा गाथा ], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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हाराणुसारओ सेसया पयाहिणओ। अह य तिरियदिसाओ उहुं विमला तमा वाऽहो॥१॥ऐन्द्री दिक् विजयद्वारानुसारतः प्रतिपत्तव्या, यत्र विजयवारं सा ऐन्द्रीति भावार्थः, शेषाः सप्त ऐशानीपर्यन्तास्तस्याः प्रदक्षिणात:-प्रादक्षिण्येन बोद्धव्याः, ताश्च तथैव प्राग्भाविता, एताश्चाष्टावपि रुचकात् (तिर्यक) प्रव्यूढत्वात् तियें ग्दिश इति व्यवहियन्ते, रुचकादूर्व प्रवृत्ता विमला, रुचकस्याधः प्रवृत्ता तमा इति । उक्ता क्षेत्रदिक, सम्प्रति तापक्षेत्रदिकू वक्तव्या, तत्र तपनं.तापः सूर्यकिरणस्पशोज-18 नितः प्रकाशात्मकः परितापः तदुपलक्षितं क्षेत्रं तापक्षेत्रं तदेव दिक्, अथवा तापयतीति तापः-सविता तदनुसारेण क्षेत्रारिमका दिक्तापक्षेत्रदिकू, सा च सूर्यायत्तत्वानियता, तथा चाह-जेसि जत्तो सूरो उदेइ तेसिं तई हवइ पुबा । तावक्खित्तदिसाओ8 पयाहिणं सेसयाओ सिं ॥१२॥(आचा. नि.४१) येषां-भरतादिक्षेत्रनिवासिना मनुष्याणां यतो-यस्यां दिशि सूर्य उदेति-उद्गच्छति सा तेषां पूर्वा भवति, पूर्वेति व्यवहियते, तासां चैवमनियतानां पूर्व दिशां प्रदक्षिण-प्रादक्षिण्येन शेषा अपिआग्नेय्यादिकास्तापक्षेत्रदिशः प्रतिपत्तव्याः, एवं च सति सर्वेषामपि भरतैरावतपूर्वविदेहापरविदेहवास्तव्यानां मनुष्याणां | मेरुरुत्तरतो लवणसमुद्रो दक्षिणतः, उक्का तापक्षेत्रदिक, साम्प्रतं प्रज्ञापकदिग वाच्या, तत्र प्रज्ञापयति-सूत्रार्थ प्ररूपयति। शिष्येभ्य इति प्रज्ञापको-व्याख्याता तदाश्रयेण दिक् प्रज्ञापकदिक्, तत्स्वरूपनिरूपणार्थमाह-पन्नवओ जयभिमुहो सा पुषा सेसिआ पयाहिणओ। तस्सेवऽणुगन्तथा अग्गेआई दिसा नियमा॥शा प्रज्ञापको यस्या दिशोऽभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा, शेषास्त्वाग्नेय्यादिका दिशो नियमात् तस्यैव प्रज्ञापकस्य प्रदक्षिणातः-प्रादक्षिण्येनानुगन्तव्याः। उक्का प्रज्ञापकदिक, सम्पति भावदिय वकव्या, सा चाष्टादशविधा, दिश्यते अयममुकासंसारीति यया सादिक भावः पृथिवीत्वादिलक्षणः पर्यायः स
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८०९], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १५०...] मूलं [- /गाथा -] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीआय
इक मल
एव दिक् भावदिक, सा च यथा भवत्यष्टादशविधा तथा प्रतिपादयति- पुढचि- पत्र- जरुण-वाया मूठ-संघ-ग्ग-पोरबीमा य। वि-ति-उ-पंचिंदिय तिरिय नारया देवसंघाया ॥ १ ॥ संमुच्छिमकम्माकम्मभूमिग नरा तहंतरद्दीवा । भावदिय० वृत्ती- ॐ सा दिस्सइ जं संसारी निययमे आहिं ॥२॥ ( आचा. नि. ) पृथिवी - मृत्तिका, जलम् - आपः, ज्वलनो - वैश्वानरः, वातः - पवनः, उपोद्घाते । 'मृलखंधग्गपोरबीया य' इति बीजशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् मूलबीजाः स्कन्धबीजा अग्रबीजाः पर्वबीजा इति द्रष्टव्यं, तत्र मूलं बीजं येषां ते मूलवीजा:- उत्पलकन्दादयः, स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः शलक्यादयः, अनं बीजं येषां ते ॥४३९॥ ॐ अग्रबीजा:- कोरण्टकादयः, पर्व बीजं येषां ते पर्ववीजा:- इक्ष्वादयः, द्वीन्द्रिया-कृम्यादयः, त्रीन्द्रियाः- कीटिकादयः, चतुरि* न्द्रिया-भ्रमरादयः, पञ्चेन्द्रियाः- तिर्यञ्चः सिंहसरभगोमहिष्यजादयः, नारका - रसप्रभापृथिवीनारकादयः, देवसङ्घाताभवनपत्यादयः, नराश्चतुर्विधाः, तद्यथा सम्मूच्छिमाः कर्म्मभूमका अकर्म्मभूमकास्तथा आन्तरद्वीपाः, तत्र सम्मूच्छि मा- वान्तादिसमुद्भवाः, कर्म्मभूमकाः - पश्चदशकर्म्मभूमिजाताः, अकर्म्मभूमका:- त्रिंशदकर्मभूमिजाताः ( अन्तरद्वीपकाः ) षट्पञ्चाशत्यन्तर द्वीपेषु जाताः, एवमेता अष्टादशभेदा भावतः - पृथिव्यादिपर्यायतो दिशो भावदिशः, कस्मात् दिक्त्वमेतासामत आह-यत: यस्मात् संसारी नियतम् - अवश्यंभावेन एताभिर्दिश्यते- अपदिश्यते तत एता दिशः ॥ इह नामस्थापना द्रव्यदिग्भिरनधिकार एव, शेषासु यथासम्भवं सामायिकस्य प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नो वा वाच्यः, तथा चाह चूर्णिकृत् - "एत्थं पुण चउहिं दिसाहिं अहिगारो खेतदि सतावखेत्तपद्मवगं भावदिसाहिं, नामादी तिनि परूवणानिमित्तं"ति ॥ तत्र क्षेत्र दिशोऽधिकृत्य तावदाह
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सामायिके
क किमि
तिद्वारे दिग्द्वारं
॥४३९॥
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आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८१०], विभा गाथा [२७०], भाष्यं [१५०...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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पुवाइआमु महादिसामु पडिबजमाणओ होइ । पुषपडिवन्नओ पुण अभयरीए दिसाए उ ॥१०॥
पूर्यादिकासु क्षेत्रतो महादिक्षु विवक्षिते काले सर्वेषामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानको भवति, न न भवति, तत्सम्भवस्त्वस्ति, न पुनर्भवत्येव, कदाचित्तस्य तास्वभवनात्, पूर्वप्रतिपक्षः पुनश्चतुर्णामपि सामायिकानामन्यतरस्यां दिशि भवत्येव, पुन शब्दस्यैवकारार्धत्वात्, न पुनर्न भवति, एतदपि सामान्येनोक्त, विशेषतस्त्वेवमवंगन्तव्यम्-त्रयाणां सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिकानां चतसृष्वपि पूर्वादिकासु महादिक्षु नियमेन पूर्वप्रतिपन्नकोऽस्ति, सर्वविरतिसामायिकस्य तु पूर्वापरदिशोनियमेन, दक्षिणोत्तरयोस्तु भजनया, एकान्तदुष्षमादिकाले भरतैरावतेषु सर्पविरतेरुच्छेदात्, विदिक्षु पुनश्चतसम्वपि तथा अर्ध्वाधोदिगदये च चतुर्णामपि सामायिकानां न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानका, तावेकप्रादेशिकत्वेन चतुष्पादेशिकत्वेन च जीवावगाहनानामसम्भवात् , स्पर्शनामात्रं भवेदपि पुनः, तथा चाह भाष्यकार:“छिन्नावलिरुअगागिइदिसासु सामाइयं न जं तासु । सुद्धासु नावगाहइ जीवो ताओ पुण फुसिज्जा ॥१॥” (वि.२७०) तापक्षेत्रप्रज्ञापकदिशावधिकृत्याह-अदृसु चरण्ह नियमा पुषपवन्नो उदोसु दुण्हेव । दुण्ह उ पुछपवन्नो सिअनन्नो तावपनवए ॥२॥ तापक्षेत्रविषये प्रजापकविषये च पुनरष्टसु पूर्वादिकासु दिक्षु चतुर्णामपि समायिकानां नियमात् पूर्वप्रतिपन्नोऽस्ति, प्रतिपद्यमानस्तु भाभ्यः-कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति, तथा यो:-अधिोरूपयोर्दिशोद्वयोः सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकयोरेवं पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति, प्रतिपद्यमानकस्तुभाज्य इत्यर्थः, 'दोण्ह उ' इत्यादि, द्वयोः पुनः देशविरतिसामायि। कसर्वविरतिसामायिकयोरूर्वाधोदिशोः स्यात्-भजनया पूर्वप्रतिपन्नः, कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति, अन्यः पुनः प्रतिपद्य
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आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८११], विभागाथा [२७०], भाष्यं [१५०...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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श्रीआव- मानकः सर्वधा नेति । भावदिशमधिकृत्याह-उभयाभावो पुढवाइएसु विगलेसु हुज उ पवन्नो । पंचिंदियतिरिएसुं नियमा सामायिक श्यक मला तिण्हं सिअ पवजे ॥१॥ नारगदेवाकम्मगअंतरदीवेसु दुण्ह भयणाओ। कम्मगनरेसु चरसु मुच्छेसु य उभयपडिसेहो ॥२॥ किमि य. वृत्ती
पृथिव्यादिषु-पृथिव्यतेजोवायुमूलबीजस्कन्धवीजानवीजपर्वबीजेषु उभयाभावः चतुर्णामपि सामायिकानां, न पूर्वप्रतिपन्नो उपोद्घाते 11न प्रतिपद्यमा नकः, विकले -द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु पूर्वप्रतिपन्नो भवेत् , 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति सम्यक्त्वसा-1
दिग्द्वार मायिक श्रुतसामायिकयोः कदाचित्पूर्वप्रतिपन्नो भवेत, सास्वादनसम्यक्त्ववतां तेषु मध्ये उत्पादसम्भवात् , प्रतिपद्यमान-181
कस्तु नोपपद्यते, उपदेशश्रवणादिसामग्ययोगात् , देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः पुनर्न प्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, कापञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु सर्वविरतिवर्जानां त्रयाणामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति, नापि प्रतिपद्यमानकः, तथा भवही स्वाभाव्यात् , नारके देवेष्वकर्मभूमिजान्तरद्वीपजमनुष्येषु च द्वयोः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति,
यः पुनः प्रपद्यते स प्रतिपद्यमानकः, स भजनया-स्यात् कदाचिद्विवक्षिते काले कदाचिन्नेतिभावः, इतरयोस्तु-देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोर्न प्रतिपद्यमानकस्तथास्वाभाब्यात् , कर्मजनरेषु-कर्मभूमिजमनुष्येषु चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्व
प्रतिपन्नोऽस्त्येव, प्रतिपद्यमानकस्तु भाज्या, सम्मूछिमेषु तु मनुष्येषु चतुर्णामपि सामायिकानां विषये उभयप्रतिषेधो-न है।पूर्वप्रतिपद्यमानो नापि प्रतिपद्यमानक इति भावः । गतं दिग्द्वारम् , इदानीं कालद्वारमभिषित्सुराह
सम्मत्तस्स सुअस्स य पडिवत्ती छविहम्मि कालम्मि । विरई विरयाविरई पडिवजइ दोसुतिसु वावि।।८११॥ • इह कालः त्रिविधः, तद्यथा-उत्सर्पिणीकालः अवसर्पिणीकाला उभयाभावतोऽवस्थितश्च, तत्र भरतैरावतेषु प्रत्येक
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८११], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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विंशतिसागरोपममानस्य कालचक्रख द्वौ मूलभेदी-उत्सप्पिणीच अवसर्पिणीच, एकैका पविभागा, तत्रावसर्पिण्यां सुषम-1 सुषमाख्या प्रवाहतश्चतुःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणः प्रथमः कालविभागः, द्वितीयः सुषमाख्यख्रिसागरोपमकोटीकोटीमानः, तृतीयः सुषमदुष्षमाख्यः सागरोपमद्वयकोटीकोटीमानः, चतुर्थों दुष्षमसुषमाख्यो द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनसागरोपमकोटीकोटीमानः, पञ्चमो दुष्षमाख्य एकविंशतिवर्षसहस्रमानः, षष्ठो दुष्षम दुष्षमाख्यः, सोऽप्येकविंशतिवर्षसहस्रमानः, अय
मेव चोत्क्रमेणोत्सर्पिण्यामपि यथोत्तरसङ्ख्यः कालक्रमो वेदितव्यः, अवस्थितश्चतुर्विधस्तद्यथा-सुषमसुषमासुखप्रतिभागः दासुषमासुखप्रतिभागः सुषमनुपमासुखप्रतिभागः दुषमसुषमासुखप्रतिभागश्व, तत्र प्रथमो देवकुरूत्तरकुरुष, द्वितीयो।
हरिवर्षरम्यंकयोः, तृतीयो हैमवतहैरण्यवतयोः, चतुर्थो महाविदेहेकु, तत्रोत्सपिण्यामवसर्पिण्यां च प्रत्येकं षडिधेऽपि कालविभागे सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च द्वयोरप्यनयोः प्रतिपत्तिः सम्भवति, प्रतिपद्यमानकः सम्भवतीति भावः, स च
प्रतिपद्यमानकः सुषमसुषमादिषु देशन्यूनपूर्वकोट्यायुःशेष एवं प्रतिपद्यते, नाधिकायुःशेषः, उक्तं च चूर्णी-“सुसमसुसमा-11 शादिसु पुवकोडिदेसूणाउसेसा पडिवजति"त्ति, पूर्वप्रतिपन्नकास्त्वेतयोईयोरपि सामायिकयोबिंद्यन्ते एव, तथा बिरति-11
समग्रचारित्रलक्षणां विरताविरतिं-देशचारित्रात्मिकां प्रतिपद्यते कश्चिद् द्वयोः काल योनिषु वा कालविभागेषु, इयमत्र है भावना-उत्सपिण्यां द्वयोः दुष्षमसुषमायां सुषमदुष्षमायां च, अवसर्पिण्यां त्रिषु, तद्यथा-सुषमदुष्षमायां दुष्पमसुषमायां
दुषमायां च, विवक्षिते काले सर्वविरतिसामायिकस्य देशविरतिसामायिकस्य च प्रतिपद्यमानकः कदाचिद्भवति कदाचिन्न, सापूर्वप्रतिपन्नस्तु विद्यत एव, 'दोसु तिम् वावी'त्यत्रापिशब्दः सम्भावने, स चैतत् सम्भाव यति-संहरणं प्रतीत्य पूर्वपतिप
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८१२-८१३], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
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दीप
श्रीभाव- नकः सर्वकालेषु सम्भवति, प्रतिभागकालेषु त्रिषु सम्यक्त्वश्रुतयोः प्रतिपद्यमानक, भजनया, पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्ति, सामायिके श्यक मल- चतुर्थे तु दुष्पमसुषमासुखप्रतिभागे चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य प्रतिपद्यमानका सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्तु विद्यत एव,बाह्यदी- क किमि२० वृत्तीपसमुद्रेष्वपि कालरहितेषु सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां प्रतिपद्यमानको भजनया, पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्ति, सर्ववि-12 तिद्वारे उपोद्घाते रतिसामायिकस्यापि नन्दीश्वरादौ विद्याचारणादिगमने पूर्वप्रतिपन्नकः सम्भावनीयः। गतं कालद्वारम् इदानी गतिद्वारमाह
कालद्धार चिउसुवि गईसु नियमा सम्मत्तसुअस्स होइ पडिवत्ती। मणुएसु होइ विरई विरयाविरई अतिरिएसु ॥८१२॥ 8 चतमप्यपि गतिषु नारकतिर्यङ्नरामररूपासु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोनियमात् प्रतिपत्तिर्भवति, न पुनर्न भवति, एवं तानिपंधपरं नियमग्रहणं, न तु सदैव तत्प्रतिपत्तिरिति प्रतिपत्त्यर्थ, कदाचिदन्तरस्यापि तत्प्रतिपत्तेरिहैव वक्ष्यमाणत्वात्,
अपिशब्दः पृथिव्यादिषु गत्यन्तर्गतेषु न भवत्यपीति सम्भावयति, पूर्वप्रतिपन्नस्तु सदैव लभ्यते, तथा मनुष्येषु प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य भवति विरतिः-समग्रचारित्रात्मिका, किमुक्तं भवति ?-मनुष्यगतौ सर्वविरतिसामायिकस्य प्रतिपद्यमानको भजनया सम्भवतीति, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सदा संत्येव,विरताविरतिश्च-देशचारित्रात्मिका तिर्यक्षु प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य भवतीति ।
वत्तंते, अत्रापीय भाषना-तिर्यग्गतावपि देशविरतिसामायिकस्य प्रतिपद्यमानको भजनया, पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्ति॥ ४/सम्प्रति भव्यद्वार संज्ञिद्वारं च प्रतिपिपादयिषुराह
॥४४॥ भवसिद्धिओ उ जीयो पडिबजई सो चउण्हमन्नयरं । पडिसेहो पुण अस्सनिमीसए सन्नि पडिवजे ॥८१३॥ भवैः सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिको-भन्यः, स चतुर्णामपि सम्यवसामायिकादीनामम्यतरत् एकं हे त्रीणि सर्वाणि वा
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आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८१४], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
प्रतिपद्यते, व्यवहारनयापेक्षयेत्थमुच्यते, नतु निश्चयतः, केवलस्य सम्यक्त्वसामायिकस्य श्रुतसामाधिकस्य वा प्रतिपत्तेर-12 सम्भवात् , तयोः परस्परमनुगतत्वात् , तत एवं प्रतिपत्तव्यम्-कदाचित्सम्यक्त्वश्रुतसामायिके प्रतिपद्यते कदाचिद्देशविरतिं कदाचित्सर्वविरतिमिति, इयमत्र भावना-भव्याश्चतुर्णामपि सामायिकानां यथायोगं प्रतिपद्यमानका भजनया, पूर्वप्रतिप
भास्तु चतुर्णामपि सदैव, एवं संश्यपि चतुणां सामायिकानां कदाचित्प्रतिपद्यते, तथा चाह-सन्नि पडिवजे इति अपिशब्दस्य हगम्यमानत्वात् संझ्यपि चतुर्णा सामायिकानामन्यतरत् विवक्षिते काले प्रतिपद्यते, भावना प्रागिव, पूर्वप्रतिपनकास्तु
संज्ञिनश्चतुर्णामपि सामायिकानां यथायोग सदैव लभ्यन्ते, 'पडिसेहो पुण अस्सन्निमीसए' इति (प्रतिषेधः पुनः) पूर्वप्रतिपन्नान् प्रतिपद्यमानकांश्चाश्रित्य असंज्ञिमिश्रके-सिद्धे, यतोऽसौ न संज्ञी नाप्यसंझी न भव्यो व्राण्यभव्यः अतो मिश्रा, ट्रा उपलक्षणमेतत्, अभव्ये च चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिषेधः, पुन शब्दो विशेषणार्थः, स चैतद्विशिनष्टि-असंज्ञी सास्वादनसम्यक्त्तवमाश्रित्य जन्मकाले सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वपतिपन्नो भवेत्, भवस्थकेवली मिश्रः सम्यक्त्वचारित्रसामायिकयोः सिद्धो मिश्रः सम्यक्त्वसामायिकस्य पूर्वप्रतिपक्षो नियमादस्तीति ॥ साम्प्रतमुच्छासद्धारं दृष्टिद्वारं च प्रतिपादयन्नाह- .
ऊसासगीसासग भीसय पडिसेह दुविह पडिवन्नो । दिट्ठीइ दो नया खलु ववहारो निच्छओ चेव ।। ८१४॥ 81 उच्छसितीत्युच्छासका, निःश्वसितीति नि:श्वासका, आनप्राणपर्याप्तिपरिनिष्पन्न इत्यर्थः, स चतुर्णामपि सामायिकानां
प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति भावः, पूर्वप्रतिपन्नकस्तु नियमादस्त्येवेति वाक्यशेषः, 'मीसे पडि
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श्रीआव श्यक मल
च० वृत्ती
उपोद्घाते
||४४२॥
आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१] निर्युक्तिः [[१५], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ १५०...] मूलं [- /गाथा -] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
सेह' इति मिश्रः खल्वानापानपर्याप्त्या अपर्याप्तो भण्यते, तत्र चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य प्रतिषेधः, न मिश्रश्चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः सम्भवतीति भावः, 'दुविह पडिवन्नो'त्ति स एव मिश्रो द्विविधस्य सामायिकस्य, सम्यक्त्व सामायिकस्य श्रुतसामायिकस्य चेत्यर्थः, प्रतिपन्न: - पूर्वप्रतिपन्नो देवादिर्जन्मकाले भवति, अथवा मिश्रः सिद्धः, तत्र चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानस्य प्रतिषेधः सम्यक्त्वरहितानां तु त्रयाणां सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नस्य च, 'दुविह पडिवन्न'त्ति अत्र मिश्रः शैलेशीगतोऽयोगिकेवली गृह्यते, तस्य शरीरव्यापाररहिततया उच्छ्रासनिःश्वास विकलत्वात् स द्विविधस्य सामायिकस्य सम्यक्त्वचारित्रसामायिकरूपस्य पूर्वप्रतिपन्नो वेदितव्यः। दृष्टौ विचार्यमाणायां द्वौ नयाँ खलु विचारकौ - व्यवहारनयो निश्चयनयश्च, एवकारोऽवधारणे, एतावेव द्वौ, न शेषाविति, तत्राद्यो यथा मतिज्ञानविचारे अज्ञानी ज्ञानं प्रतिपद्यते इत्यभ्युपगतवान् तथेहापि सामायिकरहितः सामायिकं प्रतिपद्यते, निश्चयनयस्तु क्रियाकाल निष्ठाकालयोरभेदात् यथा ज्ञानी ज्ञानं प्रतिपद्यते इति प्रतिपन्नवान् तथा सामायिकवा न् सामायिकं प्रतिपद्यते इत्यपि । उके उच्छ्रासदृष्टिद्वारे, साम्प्रतमाहारकद्वारं पर्याष्ठद्वारं च प्रतिपिपादयिषुराह
'आहारओ उ जीवो पडिवज्जइ सो चउपहमन्नपरं । एमेव य पञ्चत्तो सम्मत्तसुए सिया इअरो ॥ ८१५ ।। आहारयतीत्याहारकः, स चतुर्णां सामायिकानां प्राग्वदन्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्तु सर्वेषामपि नियमादस्त्येव, षटू पर्याप्तीः परिसमाप्तवान् पर्याप्तः सोऽप्येवमेव प्रतिपत्तव्यः, किमुक्तं भवति ? चतुर्णा सामायिकानामन्यतरत् सामायिकं प्रतिपद्यमानः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्तु चतुर्णामपि नियमात् विद्यते इति, 'समत्तसुए सिया इयरो इति इतर:- अना
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क किमि
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॥४४२॥
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आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८१६], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
हारकोऽपर्याप्तकश्च, तत्रानाहारकोऽपान्तरालगतौ सम्यक्त्वश्रुते अङ्गीकृत्यः स्यात्-कदाचिद्विवक्षितकाले भवेत् कदाचिन्न पूर्वप्रतिपन्नः, प्रतिपद्यमानस्तु नियमान्न सम्भवतीति वाक्यशेषः, केवली तु समुद्घातावस्थायां शैलेश्यवस्थायां वाऽनाहा-14 रकः सम्यक्त्वसामायिकसर्वविरतिसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नः कदाचित् स्यात् , प्रतिपद्यमानकस्तु नैव, सिद्धस्तु सम्यक्त्वसामायिकस्य प्रतिपन्नो नियमादस्ति, प्रतिपद्यमानको नैव, इतरेषां तु त्रयाणामपि सामायिकानामुभयथापि तस्य प्रतिषेधः, अपर्याप्तोऽपि सम्यक्त्वश्रुतसामायिके अङ्गीकृत्य स्यात् सम्भवेत् पूर्वप्रतिपन्नः, प्रतिपद्यमानकस्तु नियमानास्ति, देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः पुनरुभयथापि तस्य प्रतिषेधः ॥ सम्प्रति सुप्तजन्मरूपद्वारद्वयव्याचिख्यासयेदमाहनिदाइ भावओऽविअ जागरमाणो चउण्हमन्नयरं। अंडय-पोअ-जराज्य तिअतिअचउरो भवे कमसो॥८१६॥ ४
इह सुप्तो द्विधा-द्रव्यमुप्तो भावसुप्तश्च, एवं जाग्रदपि, तत्र द्रव्यसुतो निद्रया, भावसुप्तस्तु मिथ्यादृष्टिरज्ञानी, तथा द्रव्य-13 जागरो निद्रारहितः, भावजागरः सम्यग्दृष्टिः, तत्र निद्रया भावतोऽपि च जाग्रत् चतुर्णी सामायिकानां प्राग्वदन्यतरत् | प्रतिपंद्यमानः सम्भवतीति भावः, पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्त्येवेति भावः, अपिशब्दो विशेषणे, स चैतद्विशिनष्टि-भावजागरः सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकयोर्व्यवहारनयमतेन तु प्रतिपद्यमानकोऽपि देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः
पुनर्भयद्वयमतेनापि पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति, प्रतिपद्यमानकस्तु भाज्यः, निद्रासुप्तस्तु चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्र-1 18 विपन्नो नियमादस्ति, न तु प्रतिपद्यमानको, निद्राप्रभावतस्तथारूपचित्तशुवादिसामग्यसम्भवात् , भावसुप्तस्तूभयविकलः, हवस्स मिथ्याष्टित्वात्, यदि निश्चयनयमन सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते व्यवहारनयमतेन तु मिथ्यादृष्टिरतो व्यव
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(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८१७], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
सत्राक
श्रीआर-1 हारनयमताश्रयणे भावसुप्तः सामायिकादीनां प्रतिपत्ता सम्भवतीति प्रतिपत्तन्यं । जम्म त्रिविधम्-अण्डजपोतजजरायुज-ठाक किमिश्यक मल-दाभेदात् , तत्र यथासङ्ख्यं 'तिग लिग चउरो भवे कमसोत्ति' अण्डजा-हंसादयस्ते सर्वविरतिवर्जानां बयाणां सामायि-16 तिद्वारे या वृत्तोकानां विवक्षितकाले प्रतिपद्यमानका भाज्याः, पूर्वप्रतिपन्नास्तु नियमतः सन्ति, सर्वविरतिसामायिकस्य तूभयविकलास्तिर्य-IN| सुप्तजन्मउपोद्घात ग्यानिकत्वात् , पोतजा-हस्त्यादयस्तेऽप्येवमेव, जरायुजा मनुष्या अपि, ततस्ते चतुर्णामपि सामायिकानां विवक्षिते काले स्थितिद्वा
प्रतिपद्यमानका भजनीयाः, पूर्वप्रतिपन्नास्त्ववश्यंभाविनः, उपलक्षणमेतत् , तेन औपपातिकाः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः राणि ॥४४॥ प्रतिपद्यमानकाः सम्भवेयुः, पूर्वप्रतिपन्नका नियमतः, देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोस्तुभयविकलाः तथा भवस्वा
भाव्यात् । सम्पति स्थितिद्वारमाह| उक्कोसमहिईए पडिवचंते अनस्थि पडिवन्ने । अजहन्नमणुक्कोसे पडिवळते अपडिवने ॥ ८१७॥ * आयुर्वर्जानां सप्तानां ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टायां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यादिमानायां स्थितौ वर्चमानो 14जीवश्चतुर्णामपि सामायिकानां पडिवजंते य नत्थि पडिवन्ने' इति प्रतिपद्यमानका प्रतिपन्नश्च नास्ति, तस्यातिसङ्किष्टत्वे.
नोभयविकलस्वभावत्वात् , चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, आयुषस्तूत्कृष्टायां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणायां स्थितौ वर्तमानोऽनुत्तरः सुरःप्रथमस्य सामायिकद्वयस्य पूर्वप्रतिपन्न एव, सप्तमपृथिवीनारकस्तु पूर्वप्रतिपन्न प्रतिपद्यमानकश्च, देशविरति- ॥४४॥ सर्वविरतिसामायिकयोस्तूभयविकला तथा भवस्वाभाव्यात् , अजघन्योत्कृष्टस्थितिरेवाजघन्योत्कृष्टः, स्थितिशब्दलोपात्, अष्टानामपि कर्मणां मध्यमायां स्थितौ वर्तमान इत्यर्थः, सपिडिवजंतेय पडिवन्ने इति, अत्रापि चशब्दस्य व्यवहितः सम्ब
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आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८१८], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न्धः, चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, प्रतिपन्नश्च नियमादस्ति, ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायमोहनीय-14 जघन्यस्थितिकस्तु देशविरतिरहितस्य सामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते, न तु प्रतिपद्यमानको, देशविरतिसामायिकस्य | तृभयविकला, धातिकर्मचतुष्टयजपन्यस्थितौ वर्तमानः क्षपकः सूक्ष्मसम्परायादिर्भवति, न शेषः, ततः स यथोक्तस्वरूप एव, वेदनीयायुर्नामगोत्रजघन्यस्थितिकः पुनः सम्यक्त्वसामायिकसर्वविरतिसामायिकयोः पूर्वप्रतिपक्षोऽस्ति, नतु प्रतिपद्यमानकः, श्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिकयोस्तु न पूर्वप्रतिपनो नापि प्रतिपद्यमानका, वेदनीयादिजघन्यस्थितिको हि चरमसमये वर्तमानोऽयोगिकेवली, ततः स उक्तस्वरूप एव भवतीति, संसारापेक्षया स्वायुःकर्मजघन्य स्थितिचिन्तायां | क्षुल्लकभवोऽवाप्यते, तन्त्र च वर्तमानो जीवो निगोदादिश्चतुर्णामपि सामायिकानां न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः,# तस्य तथारूपपरिणामासम्भवात् । सम्पति वेदद्वारं संज्ञाद्वारं कषायद्वारं च व्याचिख्यासुराह
चउरोऽवि तिविहवेए चउसुवि सन्नासु होइ पडिवत्ती। हिट्ठा जहा कसाएसु पनि तय इहयंपि ॥८१८॥
चत्वार्यपि सामायिकानि त्रिविधवेदे-स्त्रीपुनपुंसकलक्षणे पूर्वप्रतिपन्नानि नियमतः संप्रति प्रतिपद्यमानानि च सम्भवन्तीति वाक्यशेषः, किमुक्तं भवति :-निविधेऽपि वेदे चतुर्णामपि सामायिकानां विवक्षितकाले पूर्वप्रतिपक्षा नियमेन विद्यन्ते, प्रति-16 पद्यमानकास्तु भाज्या इति, अवेदकः सम्यक्त्वसर्वविरतिसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नो नियमेन लभ्यते, सयोगिकेवलिनां सदैव भावात् , श्रुतसामायिकस्य तु कदाचिलभ्यते कदाचिन्न, क्षीणवेदक्षपकसम्भवेऽवाप्यते, न शेषकालमिति भावः, प्रतिपद्यमानकस्तु त्रयाणामपि न सम्भवति, देशविरतिसामायिकस्य तूभय विकल द्वारं । तथा चतसृष्वपि संज्ञासु-आहा
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८१९], विभा गाथा ], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआव-दरभयमैथुनपरिग्रहरूपासु चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य प्रतिपत्तिर्भवति, प्रतिपद्यमानकः सम्भवतीति भावः, पूर्वप्रतिपन्नस्तुक किमिश्यक मल-नियमादस्त्येव ।द्वारं । तथा अधो यथा 'पढमिल्लुगाण उदए नियमा संजोयणा कसायाणमित्यादिना कषायेषु वर्णितं तथेतिद्वारे वेय. वृत्तौ हापि वर्णनीयम् , सलेपार्थस्त्वयम् सामान्येन कषायवान् चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति, प्रतिपद्य-
दसंज्ञाकउपोद्घाते मानस्तु भाग्यः, अकषायी तु छद्मस्थवीतरागो देशविरतिवर्जसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नः कदाचिल्लभ्यते कदाचिन्न, | उपशान्तमोहादीनामन्तरस्थापि भावात् , प्रतिपद्यमानकस्तु नैव, देशविरतिसामायिकस्य तूभयविकलः, सयोगिकेवल्यादि
पायायुद्ध॥४४४
नद्वाराणि रकषायी सम्यक्त्वसर्वविरतिसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नो नियमतोऽस्ति, प्रतिपद्यमानको नैव, श्रुतदेशविरतिसामायिकयोरुदि भयविकलः, गतं द्वारत्रयम् । इदानीमायुर्ज्ञानरूपद्वारद्वयमभिघित्सुराह
संखेज्जाऊ चउरो भयणा सम्मसुअसंखचासाणं । ओहेण विभागेण य नाणी पडिवबई चउरो ॥ ८१९॥ सयेयायुर्मनुष्यश्चत्वारि सामायिकानि प्रतिपद्यमानः सम्भवति, प्रतिपन्नस्तु नियमादस्त्येवेति वाक्यशेषः, 'भयणा सम्मसुयसंखवासाण'मिति असयवर्षाणाम्-असङ्ख्येयवर्षाणामसङ्ख्येयवर्षायुषां सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः, असयेयवर्षायुः प्रतिपद्यमानकः कदाचिल्लभ्यते कदाचिन्नेति, पूर्वपतिपन्नस्तु नियमेन विद्यते, देशविरतिसर्वविरति
सामायिकयोस्तूभयविकलः । द्वारम् । 'ओहेणे'त्यादि, ओघेन-सामान्येन निश्चयनयमधिकृत्य ज्ञानी चत्वार्यपि सामायि-12॥४४४॥ टाकानि प्रतिपद्यते,व्यवहारनयमतेन त्वज्ञानी सम्यक्त्वश्रुतसामायिके देशविरतिसर्वविरतिसामायिके तु ज्ञानी, पूर्वप्रतिपन्नस्तु
ज्ञानी चतुर्णामपि सामायिकानां नियमादस्ति, विभागेन यदा ज्ञानी चिन्त्यते तदा मतिश्रुतज्ञानी युगपत् सम्यक्त्वश्रुत-14
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आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२०], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सामायिके प्रतिपद्यते, देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोस्तु प्रतिपद्यमानको भजनया, पूर्वप्रतिपन्नकश्चतुर्णामपि, अवविज्ञानी सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नस्तावन्नियमादस्ति, कदाचित् युगपत्प्रतिपद्यमानकोऽपि लभ्यते, यदा देवादिमिथ्याइ|ष्टिःभवतीति (मिथ्यादृष्टिः सन् सम्यग्दृष्टिर्भवति तदा सम्यक्त्वश्रुतसामायिकाभ्यां युगपदवधिज्ञानं लभते) देशविरतिसामायिकस्य तु प्रतिपद्यमानको न घटते, देशविरतिहिं मनुष्यस्य तिरश्चो वा, सर्वदेशविरत्यादिगुणत एवावधिज्ञान, प्रतिपन्नस्तु द्वयोरपि नियमादस्ति, मनःपर्यायज्ञानी देशविरतिरहितसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्न एव, न तु प्रतिपद्यमानका, युगपद्धा |सह तेन चारित्रं प्रतिपद्यते तीर्थकृत् , उकं च-"पडिवन्नम्मि चरित्ते, चउनाणी जाव छउमत्था" । भवस्थकेवली सम्य
क्वचारित्रयोः पूर्वप्रतिपन्नो, न प्रतिपद्यमानकः, श्रुतदेशविरतिसामायिकयोरुभयविकलः, सिद्धकेवली सम्यक्त्वसामायिबाकस्य पूर्वप्रतिपन्नो, न प्रतिपद्यमानकः, इतरसामायिकत्रयस्य पुनर्न प्रतिपन्नो(द्यमानो), नापि पूर्वप्रतिपन्नः । साम्प्रतं
योगोपयोगशरीरद्वाराणि प्रतिपादयन्नाह| चउसेऽवि तिविह जोए उबओगद्गम्मि चउर पडिवजे। ओरालिए चउर्फ सम्मसुअविउविए भयणा ॥८२०॥ | चत्वार्यपि सामायिकानि सामान्यतस्त्रिविधे योगे-मनोवाकायलक्षणे प्रतिपत्तिमाश्रित्य विवक्षिते काले सम्भवन्ति, प्राक्
पतिपन्नतां त्वधिकृत्य विद्यन्ते एव, विशेषचिन्तायामौदारिककाययोगवति योगत्रये चत्वार्यपि सामायिकानि पूर्वपतिपन्नानि 1 नियमतः सन्ति प्रतिपद्यमानानि तु भाज्यानि, वैक्रियकाययोगवति सम्यक्त्वश्रुते पूर्वप्रतिपन्ने नियमतः, प्रतिपद्यमानके भाग्ये, 18 देशविरतिसर्वविरतिसानायिके तुप्रतिफ माने न स्तः, पूर्वप्रतिपमे तु स्यातामपि, यथा अम्बडश्रावकविष्णुकुमारप्रभृतीनाम् ।
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JanEcoman in
metitrary.org
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आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८२० ], वि० भा० गाथा [२७३१-२७३४], भाष्यं [ १५०...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
॥ ४४५॥
श्री आव- आहारककाययोगवति देशविरतिरद्दितानि त्रीणि सामायिकानि पूर्वप्रतिपन्नानि नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानानि नैव, देशविइक मल- * रतिसामायिकं तु नोभययथापि, तैजसकार्म्मणकाययोगे केवलेऽपान्तरालगतावाद्यसामायिकद्वयं प्राक्प्रतिपन्नतामधिकृत्यं ब० वृत्ती- भाज्यं, प्रतिपद्यमानं तु नास्ति, केवलिसमुद्घाते पुनः सम्यक्त्वचारित्रसामायिके प्राक्प्रतिपन्ने नियमतो विद्येते, प्रतिपद्यमाने उपोद्घाते तु न स्तः, देशविरतिसामायिकं तूभयविकलं, मनोयोगे केवले न किश्चित्, तस्यैवाभावात्, एवं वाग्योगेऽपि, काययोगेऽपि केवले न किशित्, 'उभयाभावो पुढवाइएस' इति वचनात् कायवाग्योगद्वये तु सम्यक्त्वश्रुते प्राक्प्रतिपन्नतामधिकृत्य भवेतां, द्वीन्द्रियादिषु जन्मकाले सास्वादनसम्यक्त्वसम्भवात्, प्रतिपद्यमाने तु न स्तः, देशविरतिसर्वविरतिसामायिके उभयविकले । द्वारम् । 'उवयोगदुगंमि चउरो पडिवज्जे' इति साकारानाकाररूपे उपयोगद्वये प्रत्येकं चत्वार्यपि सामा|यिकानि प्रतिपद्यमानानि सम्भवन्ति, प्राक्प्रतिपन्नानि नियमतः, आह-'सातो उद्धीओ सागारोवयोगोवरसस्स भवंती - त्यागमवचनादनाकारोपयोंगे सामायिकलब्धिविरोधः, नैष दोषः, तस्यागमवचनस्य प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वात्, अवस्थितोपशमिकपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगेऽपि सामायिक लब्धिप्रतिपादनमविरुद्धं, तथाहि - अंतरकरणे चतस्रोऽपि सामायिकलब्धयो वर्ण्यन्ते, तस्मिंश्चान्तरकरणे औपशमिकः परिणामोऽवस्थितो, वृद्धिहान्यसम्भवात्, मिथ्यात्वोदयाभावाद्धि न परिणामस्य हानि, सम्यक्त्वपुद्गलोदयाभावाच्च न वृद्धिः, ततः सोऽवस्थितपरिणामः सन् सम्भवत्यनाकारोपयोगेऽपि लभमानः सामायिकचतुष्टयमिति, आह च भाष्यकृत् सवातो लद्धीतो जड़ सागारोवयोगभावम्मि । इह कहमुवयोगदुगे लब्भइ सामाइयचड १ ।। २७३१-३०८९ विशे० ॥ सो किर नियमो परिवहुमाणपरिणामयं पर इहं तु । जोऽव
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क किमि
तिद्वारे
योगो
पयोगी
॥ ४४५॥
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२१], वि०भागाथा [२७३१-२७३४], भाष्यं [१५०...], मूलं F/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
ट्ठियपरिणामो लमेज स लभेख बीएऽवि ॥२७३२ ॥ उपयोगेऽनाकाररूपे इति शेषः। पायं पवद्धमाणो लभए सागारगह६णया तेण । इयरो उ जइच्छाए उवसमसम्माइला मि ॥ २७३३ ॥ जंमिच्छस्साणुदओ'न हायए तेण तस्स परिणामो। है। पुण सयमुवसंतं न वद्धए तेण परिणामो ॥ २७३४ ॥ (विशेषा०) इति द्वारम् । 'ओरालिए'इत्यादि, औदारिके
शरीरे सामायिकचतुष्कं पूर्वप्रतिपनं नियमतो लभ्यते, प्रतिपद्यमानकं तु भाज्य, सम्यक्त्वश्रुतयोक्रियशरीरे भजना, पतिपत्तिमङ्गीकृत्य देवादिः कदाचित्ते प्रतिपद्यते, कदाचिन्नेति, पूर्वप्रतिपन्नकस्तु नियमादस्ति, देशविरतिसर्वविरतिसामायि
कयोः पुनः पूर्वप्रतिपन्नः कदाचिच्चारणश्रमणादेः सम्भवात् , प्रतिपद्यमानकस्तु नैव, वैक्रियप्रवृत्ती प्रमादभावात् , शेषनशारीरविचारो योगद्वारानुसारतो भावनीयः॥ सम्पति संस्थानादिद्वारत्रयप्रतिपादनार्थमाह
__ सवेसुवि संठाणेमु लहइ एमेव सबसंघयणे । उकोसजहन्नं वजिऊण माणं लभे मणुओ ॥ ८२१ ॥. है। संस्थानं समचतुरनादि षोढा तेषु सर्वेष्वपि संस्थानेषु लभते-प्रतिपद्यते चत्वार्यपि सामायिकानि, चतुर्णामपि सामानायिकानां प्रतिपत्ता सम्भवतीति प्राक्प्रतिपन्नो नियमादस्ति, 'एवमेव सबसंघयणे' एवमेव सर्वसंहननविषयो विचारो वेदिदतव्यः, षट्स्वपि वर्षभनाराचादिषु संहननेषु चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपत्ता विवक्षिते काले भाज्या, पूर्वप्रति
पन्नस्तु नियमादस्ति । 'उकोसजहन्नं वजिऊण माणं लभे मणुओं' इति मीयते इति मान-शरीरस्थावगाहना तत् जघकान्यम्-अकुलासङ्ख्येयभागलक्षणम् उत्कृष्टं-बिगव्यूसप्रमाणं वर्जयित्वा मध्यमे शरीरमाने वर्तमानो मनुजो लभते-प्रतिपद्य
मानः सम्भवति, चत्वारि सामायिकानीति प्रक्रमाद्गम्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्ति, जघन्यावगाइनायां पुनर्वर्त्तमानो
दीप अनुक्रम
*CCC
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२२], विभा गाथा ], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
श्रीआव- गर्भजमनुष्यः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नः सम्भवति, नतु प्रतिपद्यमानका, उत्कृष्टावगाहनस्तु विगव्यूतप्रमाणः सन्य- कद्वारे सं. श्यक मल-तक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नः नियमादस्ति, प्रतिपद्यमानस्तु भाज्यः, देशविरतिसर्वविविरतिसामायिकयोस्तु द्वावपि जघन्यो-181
वन्यासस्थानादि यवृत्तीसास्कृष्टावगाहनाबुभयविकली, नारकदेवा अपि जघन्यावगाहनाः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति, नतु प्रतिपद्यउपोद्घातेमानकाः, मध्यमावगाहना उत्कृष्टावगाहनाश्च पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः, प्रतिपद्यमानकाः सम्भवास्पदं, तियपश्चेन्द्रियाः
दाजघन्यावगाहनाः सम्यक्त्वश्रुतयोः सम्भविनः,प्रतिपद्यमानकास्तु नैव, मध्यमावगाहना उत्कृष्टावगाहनाश्च यथासावं त्रयाणां ॥४४६॥ सर्वविरतिवर्जानां द्वयोः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपद्यमानकाः सम्भविनः, पूर्वप्रतिपन्ना नियोगतः । गतं द्वारत्रयम्,
अधुना लेश्याद्वारप्रतिपादनार्थमाह
सम्मत्तसुअंसवासु लहइ सुद्धासु तीसु अ चरित्तं । पुवपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए ॥ ८२२॥ I (सम्यक्त्वं च श्रुतं चेत्येकवद्भावः सम्यक्त्वश्रुतसामायिके कृष्णादिकासु शुक्लान्तासु पदसु लेश्यासु लभते, प्रतिपद्य-पद मानः सम्भवतीति भावः, चारित्रं पुनर्देशविरतिलक्षणं सर्वविरतिलक्षणं वा शुद्धासु तेजःप्रभृतिष्वेव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , लभते इति वर्तते, एवं प्रतिपद्यमानकमधिकृत्य लेश्याद्वारं निरूपितम् , अधुना प्राक्प्रतिपन्नमधिकृत्याह-'पुचपडिवन्नतों' इत्यादि, पूर्वप्रतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां लेश्यायां कृष्णाद्यभिधानायां भवति, आह-मतिश्रुतज्ञानलाभचिन्तायां ॥४४६n
शुद्धासु तिसृषु तेजःप्रभृतिषु प्रतिपद्यमानक उक्तः, ततः कथमिदानीं सर्वास्वमिधीयमानः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः प्रतिपत्ता है।न विरुध्यते । इति, उक्कं च-"नषु मइसुयाइलाभोऽभिहितो सुद्धासु वीसु लेसासु।सुद्धासु असुद्धासु य कहमिह सम्मत्तम्
दीप
अनुक्रम
Janni
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आगम
(४०)
आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२२], विभा गाथा [२१४१], भाज्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
यलाभो ॥१॥" (२१४१ विशे.) अत्रोच्यते-पाक् लेश्याद्रव्यसाचिव्यजनितात्मपरिणामरूपां भावलेश्यामधिकृत्य मतिश्रुतज्ञानलाभ उक्तः, ततः स तेजःप्रभृतिष्वेव लेश्यासु घटते, इह त्ववस्थितकृष्णादिद्रव्यरूपां द्रव्यलेश्यामधिकृत्य सम्यक्त्वश्रुतयोः प्रतिपद्यमानक उक्तः, ततः स कृष्णादिष्वपि लेश्यासु घटते, कृष्णादिद्रव्यरूपद्रव्यलेश्यायामवस्थिवायामपि तेजोलेश्यादिद्रव्यसम्पर्कतः प्रतिभागादिमात्रभावेन तेजोलेश्यादिपरिणामसम्भवतो विरोधाभावात्. तथाहिसप्तमपृथिवीनैरयिकादेराभवमवस्थितास्वपि कृष्णादिद्रव्यलेश्यासु तेजोलेश्यादिद्रव्यसम्पर्कतः स्वस्वाकारभावमात्रमुपजायते, उक्तं च प्रज्ञापनायाम्-'से णूणं कण्हलेसा नीललेसं पप्प नो तारूवत्ताए नो तावन्नताए नो तारसत्ताए नो ताफासत्ताए| भुज्जो मुजो परिणमइ !, हंता गोयमा! किण्हलेसा नीललेसं पप्प जाव नो परिणमइ, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ किण्हलेसा नीललेसं पप्प जाव नो परिणमइ!, गोयमा! आगारभावमायाए वा से सिया पलिभागमायाए वा से सिया, कण्हलेसा णं सा, नो खलु नीललेसा, तत्थ गया उस्सक्कइ, से एएणडेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ किण्हलेसा नीललेसं पप्प जाव नो
परिणमई" अत्र आकार एव भाव आकारभावः, आकारभाव एवाकारभावमात्रा, मात्राशब्दः खल्वाकारभावव्यतिरिक्तदाप्रतिबिम्बादिधर्मान्तरप्रतिषेधवाचका, तेन आकारभावमात्रयाऽसौ स्यान्नीललेश्या, नतु तत्स्वरूपापत्तितः, तथा प्रतिरूपो
भागः प्रतिभागः, प्रतिविम्बमित्यर्थः, प्रतिभाग एवं प्रतिभागमात्रा, अत्र मात्राशब्दो वास्तवपरिणामप्रतिषेधवाचकः, तया| प्रतिभागमात्रयाऽसौ नीललेश्या स्यात् तु तत्स्वरूपतः, स्फटिक इवोपधानवशादुपधानरूप इति दृष्टान्तः, ततः स्वरूपेण कृष्णलेश्येवासी, न नीटळेश्या, किंई, शत्र गता उतापति, तत्र गता-तत्रस्था तत्स्वरूपस्था इत्यर्थः, नीललेश्यादिकं16
दीप अनुक्रम
120-45
Janice
!
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आगम
(४०)
आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२३], विभा गाथा [२१४१], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
श्रीआव
दालेश्यान्तरं प्राप्य उत्सर्पति-आकारभावं प्रतिविम्वभावं वा नीललेइयादिसम्बन्धिनमासादयति, एवं नीललेसा काउलेसं 31 श्यक मल- पप्प जाव नीललेसा णं सा, नो खलु काउलेसा तत्थ गया उस्सकाइ वा ओसकइ वा तत्र गता उत्सर्पतीति, किमुक्कं भवति:
लश्या , य० वृत्तीस्वरूपस्थैव सती आकारभावं प्रतिभागं च कापोतलेश्यासम्बन्धिनमासादयतीति, अवसर्पति चेति नीललेश्यैव सतीचा उपोद्घात कृष्णलेश्यां प्राप्य तदाकारभावमात्रमासादयति, 'एवं काउलेसा तेउलेसं पप तेउलेसा पम्हलेसं पप्प पम्हलेसा सुक्कलेस
पप्प' भावार्थः सर्वत्रापि प्राग्वत् , एवं किण्हलेसा नीललेसं पप्प किण्हलेसा काउलेसं पप्प एवं जाव सुक्कलेसं पण एवमेकेकी ॥४४७॥ |सबाहिं चारिजई इति, कृष्णादिद्रव्यलेश्यानां च तेजोलेश्यादिद्रव्यसम्पर्कतस्तदाकारभावादिमात्रोपपत्तौ तेजोलेश्यादि
परिणामहेतुतोपजायते, तेजोलेश्यादिपरिणामे च सम्यक्त्वादिलाभ इति सप्तमपृथिवीनैरयिकादेरपि सम्यक्त्वादिलाभो|81 |भावरूपां लेश्यामधिकृत्य तेजःप्रभृतिष्वेव लेश्यासु द्रव्यलेश्यामधिकृत्य कृष्णादिकास्वपि, ततः प्राक् मतिश्रुतज्ञानलाभो | भावलेश्यामधिकृत्य तेजोलेश्यादिषु इह तु सम्यक्त्वादिलाभो द्रव्यलेश्यामपेक्ष्य कृष्णादिष्वप्यभिधीयमानोन विरुद्ध इति ॥ सम्पति परिणामद्वारप्रदर्शनार्थमाह__ बटुंते परिणाम पडिबज्जइ सो चउण्हनन्नयरं । एमेव वहिअम्मिवि हायंति न किंचि पडिवजे ॥ ८२३॥ परिणामः-अध्यवसायविशेषः तस्मिन् शुभशुभतररूपतया वर्द्धमानपरिणामे प्रतिपद्यते, सबर्द्धमानपरिणामो जीवश्चतुणां
| ॥४४७॥ 81 सम्यक्त्वादिसामायिकानामन्यतरतू सामायिक एवमेव' पूर्वोकन्यायेनान्तरकरणावस्थितेऽपि शुभे परिणामे चतुर्णामन्यतरत्18
सामायिकं प्रतिपद्यते, 'हायन्ते न किंचि पडिबजे' इति हायमाने-परिभ्रंशमुपगच्छति शुभे परिणामे न किश्चित्पति
AKA
दीप
CAKAMASOORS
अनुक्रम
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आगम
(४०)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप अनुक्रम
H
आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-३
अध्ययनं [१]. निर्युक्तिः [८२४-८२५] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५०] मूलं [- /गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पद्यते सामायिकं, सङ्किष्टाध्यवसायत्वात्, प्राकूप्रतिपक्षस्तु त्रिष्वपि परिणामेषु चतुर्णामपि सामायिकानां भवतीति । सम्प्रति वेदनाद्वारं समुद्घातक्रियाद्वारं च प्रतिपिपादयिषुराह-
दुविहाइ बेअणाए पडिवजह सो चउण्ड्मन्नयरं । असमोहओवि एमेव पुत्रपडिवन्नए भयणा ।। ८२४ ॥ द्विविधायामपि सातासातरूपायां वेदनायां सत्यां प्रतिपद्यते स जीवश्चतुर्णामपि सामायिकानामन्यतरत् सामायिकं, प्राक्प्रतिपद्मस्तु नियमादस्ति, 'असमोहतोऽचि एवमेव त्ति असमवहतोऽपि वेदनादिसमुद्घातरहितोऽपि एवमेव- पूर्वोकन्यायेन वेदितव्यः, सोऽपि चतुर्णां सामायिकानामन्यतरत् सामायिकं प्रतिपद्यमानः संभवति, प्राक्प्रतिपन्नस्तु नियमाद्विद्यत इत्यर्थः, समवहतस्तु केवलिसमुद्घातादिना सप्तविधसमुद्घातेन न किञ्चित्प्रतिपद्यते, किन्तु 'पुवपडिवन्नए भयणा' इति पूर्वप्रतिपन्नके समवहते विचारयितुमारब्धे भजना समर्थना कार्या, यथा समवहंता सामायिकद्वयस्य त्रयस्य वा प्रा.प्रतिपन्नो लभ्यते, तत्र केवलिसमुद्घाते सम्यक्त्वच्चारित्रसमायिकद्वयस्य पूर्वप्रतिपन्नकः, शेषसमुद्घातेषु पुनः सम्यक्त्व श्रुतसामायिकद्वयस्य यदिवा सम्यक्त्वश्रुत देश विरतिसामायिकत्रयस्य अथवा सम्यक् श्रुतसर्वविरतिसामायिकत्र्यस्येति, समुद्घातश्च सप्तविधो, यतोऽन्यत्रोक्तं- "केव लिकसाथ मरणे वेयणा विजवितो व आहारे । सत्तविह समुग्धातो पण्णत्तो बीयरागेहिं ॥ १ ॥ " गतं द्वारद्वयम् । अधुना निर्वेष्टनद्वारप्रतिपादनार्थमाह
दवेण य भाषेण य निचेङ्गितो चउण्हमन्नपरं । नरएसु अणुवडे दुग तिग चउरो सिउबट्टे ।। ८२५ ॥ निर्वेष्टनं द्विघा द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः कम्मंप्रदेशविसंघातरूपं, भावतः क्रोधादिहानिलक्षणं, तत्र सर्वमपि कर्म्म
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२६-८२७], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
कद्वारे
बेदनादि
प्रत
सुत्राक
FO/AM
श्रीआव- निर्वेष्टयन् चत्वार्यपि सामायिकानि लभते, विशेषतस्तदावरणं, तत्र ज्ञानावरणं निवेष्टयन् श्रुतसामायिकमामोति, मोहनीय श्यक मल- तु निवेष्टयन शेपत्रयमिति, भावतस्तु क्रोधाध्यवसायान् निर्वेष्टयन् चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, या वृत्तौ संवेष्टयंस्त्वनन्तानुबन्ध्यादीन् न किश्चित्प्रतिद्यते, शेषकर्म त्वङ्गीकृत्योभयथापि ॥ गतं निर्वेष्टनद्वारमुर्चनाद्वारमधुना-'नर-1* रपोवपातेदारसु अणुवढे' इत्यादि, नरकेष्वधिकरणभूतेषु अनुद्वर्तयन् , तत्रस्थ एवेत्यर्थः, पाठान्तरम्-'नरयाओ अणबुट्टे' इति |
तत्र नरकादनुवर्तयन् , तत्रैव स्थितः सन्निति भावः, दुगंति आद्यसामायिकद्वयं प्रतिपद्यते, तदेवाधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नोऽ॥४४॥हाप्यस्ति, ततः उद्धृत्तस्तु कदाचित् तिर्यक्षुत्पन्नः सर्वविरतिवर्ज सामायिकत्रिकं प्रतिपद्यते, मनुष्येपूत्पन्नश्चतुष्टयमपि ॥
तिरिएसु अणुबहे तिगं चउ सिआ य उवहे । मणुएसु अणुबहे चउरो ति दुगं तु उवहे ॥ ८२६ ॥ देवेसु अणुवढे दुगं चउकं सिआ य उच्चद्दे । उन्हमाणओ पुण सघोऽपि न किंचि पडिबजे ॥ ८२७ ॥ तिर्यक्षु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु संजिषु अनुद्वृत्तः सन् त्रिकम्-आद्यं सामायिकत्रयमधिकृत्य प्रतिपत्ता लम्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्ति, 'चउकं सिया उ उघडे' इति उद्धृत्तो-मनुष्यादिष्वायातः सन् स्यात्-कदाचिच्चतुष्क, स्वाग्रहणादिदमपि द्रष्टव्यं-स्यात्रिकं स्याद्, द्विकमधिकृत्योभयथापि भवतीति, 'मणुएसु अणुव चउरों' इति मनुष्येष्वनुवृत्तः सन् चत्वारि प्रतिपद्यमानः सम्भवति, उपलक्षणमेतत् त्रीणि द्विकं वा, पाक्पतिपन्नस्तु विकल्पत्रयेऽपि नियमादस्ति, 'ति दुगंतु उबट्टे' इति मनुष्येभ्य उद्त्तस्तियनरामरेष्वायातस्त्रीणि द्विकं वाऽधिकृत्योभयथापि भवति, किमुक्तं भवति ?-देवनारकेषूत्पन्न | आधं सामाविकद्वयमधिकृत्य प्रतिपद्यमानः पूर्वप्रतिपन्नो वा लभ्यते, तिर्यक्षु पुनरुत्पन्नः सर्वविरतिवर्जसामायिकत्रयम
दीप अनुक्रम
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anni
Narinelibrary.org
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२८-८२९], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[धिकृत्योभयथापि भवतीति, देवेष्वनुद्वत्तः सन् प्रथम सामायिकद्वयमाश्रित्य प्रतिपद्यमानक: सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्तु
नियमादस्ति, चउकं सिया उ उवढे' इति देवेभ्य उद्धृत्तः सन् चतुष्कमाश्रित्योभयथापि लभ्यते, स्यात्शब्दग्रहणात्
त्रिकं द्विकं च, इयमत्र भावना-देवेभ्य उद्वृत्तः सन् तिर्यक्ष्वायातः प्रथमं सामायिकत्रिकं द्विकं वा प्रतिपद्यमानः प्राक्दप्रतिपन्नश्च लभ्यते, मनुष्येष्वायातः सामायिकचतुष्टयमपीति, उद्वर्त्तमानकः पुनरपान्तरालगतौ सर्वोऽप्यमरादिःन किश्चित्त-14 अतिपद्यते, प्राक्प्रतिपन्नस्त्वाद्ययोः सामायिकयोलम्यते ॥ आश्रवकरणद्वारमाह
नीसवमाणो जीवो पडिवजइ सो चउण्हमन्नयरं। पुवपडिवनओ पुण सिअ आसबओ व नीसवओ८२८॥ यत् सम्यक्त्वादिसामायिकं प्रतिपद्यते तदावारकं कर्म मिथ्यात्वमोहनीयादिकं निश्रावयन्-निर्जरयन् शेषकानुबभन्नपि जीवः प्रतिपद्यते चतुणोमन्यतरत्, किमुक्तं भवति?-चत्वार्यपि यथायोगमेवं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नकः पुनः
स्थादाश्रवको वा-बन्धकः निःश्रावको वा-निर्जरकः, वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, आह-निर्वेष्टनद्वारादस्य का प्रतिविदाशेषः, उच्यते, निवेष्टनं नाम कम्मंप्रदेशविसहातरूपं, ततोऽनेन क्रियाकालो गृहीतः, निःश्रवणं तु मिर्जरा, ततोऽनेन निष्ठा-11
कालो गृहीत इति भेदः, अथवा प्राक् संवेष्टनवक्तव्यताऽर्थतोऽभिहिता, इह तु साक्षादिति ॥ साम्प्रतमलङ्कारशयनासन-17 चमणद्वारकदम्बकं व्याचिख्यासुराह
उम्मुखमणुम्मुके उम्मुनते य केसअलंकारे । पडिवजेजऽनयरं सयणाईसुपि एमेव ।। ८२९ ॥ उन्मुक्के-परित्यके अनुन्मुक्त-अपरित्यक्त, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, उन्मुंश्च केशालारं-केशोपलक्षिवः कटकक
दीप अनुक्रम
*-4-981-96495500-56456
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आगम
(४०)
आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-३ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८२८-८२९], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
श्रीआव- यूरहारकङ्कणवत्राद्यलंकारः केशालङ्कारः, तं प्रतिपद्येतान्यतरञ्चतुर्णा सामायिकानां, माकप्रतिपन्नश्च लभ्यते, अत्र भर- द्वार श्यक मल- तचक्रवादय उदाहरणं, एवं 'शयनादिष्वपि शयनासनचङ्कमणरूपेषु चतुर्यु द्वारेषु योजना कार्या, उन्मुक्तशयनोऽनु-10 आश्रवादि य. वृत्तोन्मु कशयन उन्मुंचंश्च चतुणामन्यतरत् सामायिक प्रतिपद्यते, प्राक्प्रतिपन्नश्च सम्भवति, एबमासनादिष्वपि योजना कार्या। उपोद्घात तदेवमुक्कं विस्तरतः, क्वति द्वारम् ॥ ४४९॥ आवश्यक मलयगिरिजी वृत्ते: उत्तरार्ध-रूप तृतीयो भाग समाप्त:
चतुर्थ: भागस्य आरंभ: नियुक्ति: [८३०] कृत:
दीप अनुक्रम
*OARACK
SekCASNASASSES
॥४४९॥
and
Form
Para
आवश्यक- मूलसूत्र- [४०/३] नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com.M.Ed.,Ph.D..श्रुतमहर्षि
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आगम
(४०)
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०]वश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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सत्रांक
इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहिताया आवश्यक-वृत्ते: तृतीय-भाग: समाप्त:
दीप अनुक्रम
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________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 40/3 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "आवश्यक-मूलसूत्र” [नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरिजी-रचिता वृत्तिः] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "आवश्यक" नियुक्ति: एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्तः Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~316