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तृतीयः
चरितम्
सर्गः
अमात्यसेनापतिमन्त्रिणश्च पुरोहितश्रेणिगणप्रधानाः । तस्याः पुनर्मेनिनादकल्पं रवं निशम्याश समाययुस्ते ॥ १४ ॥ प्रहृष्टरोमः परितुष्टभावो दत्त्वा दरिद्रार्थिजनाय दानम् । सान्तःपुरः सर्वसमृद्धियुक्तो जगाम साधूनभिवन्दितु सः ॥ १५ ॥ बहुप्रकारान्पुरवासिनोऽर्थान् विचिन्तयन्तः स्वमनोऽनुनीतान् । अनेकवेषाकृतिदेशभाषा निरीयुरुर्वीपतिना सहैव ॥ १६ ॥ नृपाज्ञया केचिदभिप्रजग्मुर्गन्तु प्रवृत्तानपरे समीयुः ।
निश्चक्रतुः केचिदुदारशोभाः स्वां स्वां च संदर्शयितु विभूतिम् ॥ १७ ॥ था और जो केवल मांगलिक धर्मकृत्योंकी सूचना देनेके लिए ही बजायी जाती थी। वही महाभेरी महाराज धर्मसेनकी आज्ञासे । सर्वसाधारणको मुनिसंघके आगमनकी सूचना देने के लिए जोर-जोरसे पीटी गयी थी॥ १३ ।। र अमात्य, परामर्शदाता, सेनापति, धर्ममहामात्य, शिल्पियों आदिकी श्रेणियोंके मुखिया तथा गणोंके अध्यक्ष मेघोंकी महा गर्जनातुल्य आनन्दिनी भेरीके तीव्र और गम्भीर शब्दको सुनते ही बिना बिलम्ब राजभवनमें आकर इकट्ठे हो । गर्योथे ॥ १४ ॥
धर्मयात्रा E मुनिदर्शनकी कल्पनासे महाराज इतने प्रसन्न थे कि उन्हें बार-बार रोमाञ्च हो आता था, नेत्रों और मुखके भाव उनकी आन्तरिक तुष्टिको व्यक्त करते थे, इसलिए निधन और अभावग्रस्त याचकोंको दान देनेके बाद वह पूरे ठाट-बाट तथा साज-सज्जाके साथ अपने अन्तःपुरको साथ लेकर मुनियों की वन्दना करने गये थे ॥ १५॥
र अनेक देश-देशान्तरोंके रहनेवाले फलतः नाना प्रकार के वेश भूषाको धारण किये हुए तथा पृथक्-पृथक् लघु भाषाओमें । । बोलते हुए।सब ही नागरिक महाराजके साथ ही मुनिसंघके दर्शन करनेके लिए निकल पड़े थे। वे सब रास्ता चलते-चलते मनमें उठनेवाले नाना प्रकारके विषयोंको भी सोचते जाते थे ॥ १६ ॥
यात्रा का उद्देश्य तथा यात्री मुनि-बन्दनाको निकले नागरिकोंमें कुछ ऐसे थे जो राजाकी सूचना सुनकर चले थे, दूसरे ऐसे थे जो अन्य लोगोंको जाते देखकर उनके पीछे-पीछे चल दिये थे तथा अन्य लोग अपनी उदार शोभा और सम्पत्ति के साथ निकले थे मानो उनकी यात्राका चरम लक्ष्य अपनी सम्पत्ति और सजावटका प्रदर्शन ही था ।। १७ ॥ १.[.निश्चक्रमुः]।
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