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बराङ्ग चरितम्
महानथास्माभिरकार्य पण्डितैः
कृतोऽपराधोऽनपराधिनस्तव । जिजीविताशा: शरणागता वयं प्रसादमरमासु कुरुष्व सांप्रतम् ॥ १३ ॥ तामुत्थितो मातरमागतां विभुर्ननाम मैवं प्रकृथा' इति ब्रुवन् । करेण पस्पर्श सुषेणमञ्जसा जगाद मा भैरिति तं च धीवरम् ॥ १४ ॥ विगृह्य येऽत्र प्रतिलोमगाः स्थिता नयामि तांस्तान्यमसादनं प्रति । वशस्थित ये परिपालयामि तान् स्थिता प्रतिज्ञा महतो ममेदृशी ।। १५ ।। कृतापराधेषु हि ये क्षमान्विताः क्षमावतस्तान्पुरुषान्विदुर्बुधाः । गुणेषु विन्यस्तषियां कृतागसां विचेष्टते दैवकृतैव सा क्षमा ॥ १६ ॥
क्षमा-याचना
हे प्रभो ! आपने मनसे भी हमारा कभी कुछ न बिगाड़ा था, तो भी नीच कार्य करनेमें कुशल हम दुरात्माओंने आपके प्रति महान् नीच अपराध किया है। किन्तु हम जीवित रहना चाहते हैं, इसी समय हम पतितोंपर दया करिये और क्षमा करके प्रसन्न होइये ॥ १३ ॥
आशासे हम आपकी शरण में आये हैं, हे नाथ ! इस
क्षमा वीरस्य भूषणं
राजा वरांगने जब अपनी सौतेली माताको आती देखा; तो 'आप इस प्रकार अनुचित विनय न करें इन शब्दोंकी आवृत्ति करते हुए आसन छोड़कर उसका स्वागत करते हुए मस्तक झुकाकर प्रणाम किया था। सुषेणपर अपना बन्धु स्नेह प्रकट करनेकी अभिलाषासे उसके शिर, पीठ आदि अंगोंको हाथसे थपथपाकर तथा कूटनीतिज्ञ मंत्री धीवर को 'आप किसी भी रूपसे भय न करें' कहकर धैर्य बँधाया था ॥ १४ ॥
नीति घोषणा
जिन लोगोंने इस धरापर मेरे विरुद्ध आचरण किया है, अथवा मुझसे संग्राम करनेका दुस्साहस किया है मैं भी उन सबको चुन-चुनकर यमके नगरमें भेज देता हूँ । किन्तु जो मेरी आज्ञानुसार आचरण करते हैं मैं प्रत्येक दृष्टिकोणसे उनका पालनपोषण करता हूँ ।। १५ ।।
बस यह मेरी बड़ी भारी दृढ़ प्रतिज्ञा है । जो साधु स्वभावी पुरुष उन व्यक्तियोंको भी क्षमा कर देते हैं जिन्होंने उनके प्रति अक्षम्य अपराध किये थे, उन सज्जन प्राणियोंको ही विवेकी महानुभाव क्षमाशील कहते हैं । किन्तु घातक अपराध करनेवालोंके साथ भी; जो विशेष व्यवहार इसलिए किया जाता है क्योंकि वे अपराधी भी अनेक गुणों और कलाओंके भण्डार हैं ॥ १६ ॥ १. म तमुत्थितो । २. म प्रकथा । ३. क देवरं । ४. म यशस्थिता ।
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एकविंश: सर्गः
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