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वराङ्ग चरितम्
६ त्रयोविंशः
सर्गः
अष्टोत्तरग्रामशतं वरिष्ठं दासांश्च दासीभूतकानगवादीन् । संगीतकं सान्ततिकं प्रमोदं समर्पयामास जिनालयाय ॥११॥ आहारदानं मुनिपुङ्गवेभ्यो वस्त्रान्नदानं श्रवणायिकाभ्यः । किमिच्छदानं खलु दुर्गतेभ्यो दत्वा कृतार्थो नपतिर्बभव ॥ ९२॥ अईन्मनीन्द्रागमचक्रपाणिविद्याधराणां चरितानि तानि । श्रुत्वा च दृष्ट्वा वरपट्टकेषु सनायकः संमुमदे जनौधः ।। ९३ ॥ अष्टाह्निकं शिष्टजनाभिजुष्टमन्यैर्नरेन्द्रैर्मनसाप्यचिन्त्यम् । एवंप्रकारेण नरेन्द्रवों जिनेन्द्र पूजां प्रयतो निनाय ॥ ९४ ॥
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प्रारम्भ करके श्री वरांगराजने मन्दिरके लिए पूजादिमें आवश्यक चिमटीसे लेकर बड़ेसे बड़े समस्त उपकरण इस मन्दिरको दिये थे।॥९ ॥
उन्होंने इन्द्रकूट चैत्यालयका व्यय चलानेके लिए राज्यके सर्वोत्तम एक सौ आठ ग्राम, सेवा परायण दास-दासियाँ, गौ आदि पशु, संगीत मण्डली तथा कीर्तन आदिके आनन्दके कारण सान्ततिक (भोजक-भजनोपदेशक ) की मण्डलीको भी समर्पित किया था ।। ९१ ॥
इन्द्रकूट जिनालय में तपोधन महामुनियोंको विधिवत् आहारदान की व्यवस्था थी व्रती श्रावक-आर्यिकाओंको वस्त्रदान तथा आहारदान भी मिलता था। जो सब दृष्टियोंसे दीन तथा दुखी थे उन्हें किमिच्छक दान देकर आनर्तपुरेशको महान शान्ति तथा कृतकृत्यताका अनुभव हुआ था ।। ९२।।
धर्ममेला उस समय विशेषरूपसे आयोजित शास्त्रसभा तथा पट्टक प्रदर्शिनियोंमें अर्हन्तकेवली, चक्रवर्ती, विद्याधर तपोधन मुनिराज तथा अन्य पौराणिक महापुरुषोंके पवित्र जीवनोंको सुनकर तथा पट्टकोंमें देखकर और विशेषरूपसे तत्वचर्चाको सुन समझकर अपनी जनताके साथ-साथ सम्राट भी परम प्रमुदित हुए थे ।। ९३ ।।।
॥ [४६१) श्री वरांगराजने बड़े प्रयत्नके साथ परम अभिनन्दनीय अष्टाह्निका पर्वको सतत जिन पूजामें मन, वचन तथा कायसे में लीन रहते हुए व्यतीत किया था। क्योंकि इन्द्रादि विशेष पुण्याधिकारी आत्मा भी इस पर्वमें उपासना करनेके लिए लालायित रहते हैं । तथा साधारणतया अन्य राजा लोग इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे ॥ ९४ ।।
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