Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 690
________________ प्रथम सर्ग अरहन्त-मोहनीय, दर्शनावरणी, ज्ञानावरणी तथा अन्तराय इन चार घातिया कर्मोंको नष्ट करके अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्यसे युक्त आत्माको अरहन्त (अर्ह-पूज्य) कहते हैं। इनके ४६ गुण होते हैं-आठ प्रातिहार्य, चार दर्शनादि अनन्त-चतुष्टय तथा ३४ अतिशय होते हैं । केवल ज्ञान-तीनों लोकों और तीनों कालोंके समस्त द्रव्य तथा पर्यायोंको एक साथ जाननेमें समर्थ आत्माका अन्तर्मुख क्षायिक वराङ्ग चरितम् रत्नत्रयी-मोक्षके मार्गभूत सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक-चारित्र ही रत्नत्रयी है । मोह-आत्माके सम्यक्त्व और चारित्र गुणको घातनेवाली शक्तिको मोह कहते हैं । यह चौथा कर्म है। दर्शन-मोहनीय और चारित्रमोहनीय इसके प्रधान भेद हैं । दर्शन मोहनीय वह है जो आत्मामें सत्य श्रद्धा (सम्यक्त्व) का उदय न होने दे । यह मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके भेदसे तीन प्रकारका है । जो आत्माके चारित्रगुणका घात करे उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं । कषाय तथा नो-कषायके भेदसे यह दो प्रकारका है । प्रथमके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संचलन चार भेद हैं। इनमें भी प्रत्येकके क्रोध, मान, न माया तथा लोभ चार भेद होते हैं, इस प्रकार कषाय मोहनीय १६ प्रकारका है । तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, तथा नपुंसक-वेदके भेदसे नो-कषाय-मोहनीय ९ प्रकारका है । मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा-कोड़ी सागर है और जघन्य अन्तर्मुहूत है । यह कर्मोंका राजा है । क्षायिक-किसी कर्मक क्षयसे उदित होनेवाले जीवके गुणको क्षायिक-भाव या गुण कहते हैं। ऋद्धि-पूर्वजन्म ( देव नारकियोंमें ) या इसी जन्मके तपसे प्राप्त विशेष शक्तिको ऋद्धि कहते हैं। ऋद्धिके आठ प्रकार होते हैं। १. बुद्धिऋद्धि-अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, पदानुसारी, संभिन्न-श्रोत्रता, रसना, स्पर्शन, चक्षु तथा श्रोत्र इन्द्रिय ज्ञानलब्धि, दर्श पूर्वित्व, अष्टांग निमित्त, प्रज्ञाश्रवणत्व, प्रत्येकबुद्धि तथा वादित्वके भेदसे १८ प्रकारकी है । २. क्रियाऋद्धि-जंघा, तंतु, पुष्प, पत्र, श्रेणी, अग्निशिखा चारण तथा आकाशगामित्वके भेदसे ८ प्रकारकी है । ३. विक्रियाऋद्धि-अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान तथा काम-रूपित्वके भेदसे ११ प्रकारकी है । ४. तप-उग्र, दीप्त, तप्त, महा, घोर, घोरपराक्रम तथा घोर-ब्रह्मचर्यक भेदसे ७ प्रकारकी है । ५.बलऋद्धि-मन, वचन तथा कायके भेदसे ३ प्रकारकी है । ६.औषधिऋद्धि-आमर्ष, श्वेल, जल्ल, मल्ल, विट, सर्वौषधि, आस्यविष तथा दृष्टिविषके भेदसे ८ प्रकारकी है । इसे 'अगद-ऋद्धि' भी कहते हैं । ७. रस ऋद्धि-आस्यविष ( मुख या वचनमें विष ), दृष्टि विष, क्षीरस्रावी, मधुम्रावी, सर्पिनावी तथा अमृतस्रावीके भेदसे ६ प्रकारकी है ८. क्षेत्र ऋद्धि-अक्षीणमहानस तथा महालयके भेदसे दो प्रकारकी है । गणधर-मुनियोंके प्रधान तथा तीर्थंकरोंके उपदेशके प्रधान ग्रहीता । ये मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञानधारी होते हैं । पुराणोंके अनुसार वर्तमान चौबीस तीर्थंकरोंके १४५३ गणधर हुए हैं । प्रत्येक तीर्थंकरके मुख्य गणधरके नाम क्रमशः वृषभसेन, सिंहसेन, चारुदत्त, वन, चमर, वनचमर, बलि, दत्तक, वैदभि, अनगार, कुन्थु, सुधर्म, मंदरार्य, अय, अरिष्टनेमि, चक्रायुध, स्वयंभू, कुन्थु, विशाख, मल्लि, सोमक, A [६५७] वरदत्त, स्वयंभू तथा गौतम (इन्द्रभूति ) हैं। लब्धि-आत्माकी योग्यताकी प्राप्तिको लब्धि कहते हैं । इसके पाँच भेद हैं-१.क्षयोपशम-संज्ञी पञ्चेन्द्रित्व, विवेक बुद्धिकी प्राप्ति तथा पापोदयके विनाशको कहते हैं । २. विशुद्धि-पापपरिहार और पुण्याचारको कहते हैं । ३. देशना-जिनवाणीके श्रवण की प्रगाढ़ रुचि । ४. प्रायोग्य-कर्मस्थितिका अपकर्षण । ५. करण-प्रति समय अनन्त गुणी विशुद्धि युक्त परिणामोंकी प्राप्ति । इसके अधःकरण, अपूर्वकरण तथा SEARATHIMANSHARMATEearmananews ८४ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

Loading...

Page Navigation
1 ... 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726