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वराङ्ग चरितम्
दोषोद्घाटन-गोत्रकर्मक बन्धके कारणोंका विवेचन करते समय बताया है किम परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा, सत्-गुणाच्छादन तथा असत् दोषोद्घाटन नीच गोत्रके कारण होते हैं । फलतः दूसरेके दोषोंका सप्रचार करना अथवा दूसरेमें दोषोंकी कल्पना करना ही दोषोद्घाटन का तात्पर्य है।
पैशुन्य-दुर्जन या खलको पिशुन कहते हैं । पिशुनके भावको पैशुन्य अर्थात् दुर्जनता अथवा खलता कहते हैं । एककी बुराई दूसरे से करना तथा एक दूसरेकी गुप्त बातें बताना अथवा चुगलखोरी भी पैशुन्यका अर्थ है।
बन्ध-कषाययुक्त आत्मा द्वारा कर्म होने योग्य पुगलोंके ग्रहणको बन्थ कहते हैं । यह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है।
पुद्गल परमाणुओंके मिलकर स्कन्धरूप होनेको भी बन्ध कहते हैं । यह बन्ध परमाणुओं की स्निग्धता और रूक्षताके कारण होता है। म एक गुण स्निग्धका एक या अनेक गुण स्निग्धरूक्ष से बन्ध नहीं होता | समान गुण होने पर समोंका बन्ध नहीं होता । विषम होने पर
समान गुणोंका भी बन्ध होता । दो गुणों के अन्तरवालोंका तो बन्ध होता ही है । बन्धमें जिसके गुण अधिक होते हैं वह अल्पगुणयुक्तको अपना सा बना लेता है । अहिंसा अणुव्रतके पहिले अतिचारको भी 'बन्ध' कहते हैं अर्थात् प्राणियोंसे विराधना होने पर उन्हें बन्धनमें डाल देना ।
उदय-बंधे हुए कर्मकी स्थिति पूर्ण होने पर उसके फलको प्रकट होनेको उदय कहते हैं । अर्थात् स्थितिपूर्ण होने पर द्रव्य, क्षेत्र, व आदिके निमित्तसे कर्मोक फल देने को उदय कहते हैं । ग्रहादि के प्रकट होनेको भी उदय कहते हैं । तथा किसी ग्रह विशेषका नाम भी
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आबाधा-बन्ध होनेके बाद जब तक कर्म उदयमें न आवे उस अवस्थाको आबाधा कहते हैं । इसका काल उदय और उदीरणाके कारण विविध होता है क्योंकि उदय स्थिति पूर्ण होने पर ही होगा, किन्तु उदीरणा तो असमय में ही होती है । साधारण नियम सात कर्मों (आयु को छोड़ कर ) के लिए यही है कि कोड़ाकोड़िकी स्थिति पर १०० वर्ष आबाधाकाल होगा । आयुकर्म बंधनेके बाद दूसरी गतिको । जाने तक उदय में नहीं आता । इसकी उत्कृष्ट आबाधा एक कोडि पूर्वका तृतीयांश है तथा जघन्य आवलिका असंख्यात का भाग है। यह हुई उदयकी अपेक्षा, उदीरणाकी अपेक्षा सातों कर्मोकी आबाधा एक आवलि है ।
पञ्चम सर्ग आकाश-षड् द्रव्यों में तीसरा द्रव्य है । जो जीव आदि पाँचों द्रव्यों को अवकाश-ठहरनेका स्थान दे उसे आकाश कहते हैं । आकाश अमूर्तिक, अखण्ड, सर्वव्याप्त तथा स्व-आधार द्रव्य है । इसके दो भेद हैं-१ लोकाकाश तथा २-अलोकाकाश | जहां जीवादि पांच द्रव्य (लोक) पाये जाय वह लोकाकाश है । इसके सिवा शेष अलोकाकाश है । इसके प्रदेश अनन्त हैं। इसका कार्य अवगाह या रहनेका स्थान देना है, जैसा कि इसकी परिभाषासे स्पष्ट है ।
लोक-जीव आदि षड्द्रव्यमय स्थानको लोक कहते हैं । अनन्त आकाशके मध्यमें वह पुरुषाकार खड़ा है । अर्थात् नीचे से ऊपर लोक १४ राजू ऊँचा है आधारपर पूर्वसे पश्चिम ७ राजू चौड़ा है । यह चौड़ाई घटते घटते ७ राजूकी ऊँचाई पर केवल १ राजू है । फिर बढ़ती हुई १०॥ राजूकी ऊंचाई पर ५ राजू है तथा शिर पर (१४ राजू की ऊंचाई पर) फिर १ राजू चौड़ाई है । इस लोक स्कन्धकी मोटाई सर्वत्र ७ राजू है । इस प्रकार सारे लोकका घनफल ३४५ घनराजू है । मोटे तौरसे ऊँचै मोड़ा पर मृदङ्ग रखनेसे लोककी आकृति
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