Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 709
________________ वराङ्ग चरितम् कष्ट न हो उसे 'विविक्त शय्यासन' कहते हैं । कायक्लेश-शरीर तथा दुखोंसे मुक्ति, सुखोंमें उदासीनता, शास्त्र ज्ञान, प्रभावना, आदिके लिए धूप, वृक्षमूल आदिमें बैठना, खुलेमें सोना विविध आसन लगा कर ध्यान करना कायक्लेश है । प्रायश्चित-आभ्यन्तर तपका प्रथम प्रकार । प्रमाद तथा दोषोंके परिमार्जनके लिए कृत शुभाचरणको प्रायश्चित्त कहते हैं । विनय-द्वितीय आभ्यन्तर तप । पूज्योंमें आदर, सादर ज्ञानाभ्यास निशंक, सम्यक्त्व पालन तथा आल्हादके साथ चरित्र पालनको विनय कहते हैं । वैयावृत्य-तृतीय अंतरङ्ग तप । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु तथा मनोज्ञ साधुओंकी शरीर अथवा अन्य द्रव्यसे सेवा करना वैयावृत्य है । स्वाध्याय-चौथा अंतरंग तप । आलस्य त्यागकर ज्ञान की प्राप्तिके लिए पढ़ना, पूंछना, चिन्तवन, शब्दार्थ घोकना तथा धर्मोपदेश करना स्वाध्याय है। व्युत्सर्ग-पञ्चम अन्तरङ्ग तप । आत्मा तथा आत्मीय बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहका त्याग व्युत्सर्ग है । ध्यान-षष्ठ अंतरङ्ग तप । चित्तकी चञ्चलताके त्यागको ध्यान कहते हैं । शल्य-शरीरमें चुभी कील या फांसकी तरह जो चुभे उसे शल्य कहते हैं । माया, मिथ्यात्व तथा निदानके भेदसे तीन प्रकार की अष्टकर्म-राग, द्वेष, आदि परिणामोंके कारण जीवसे बंधने वाले पुद्गलस्कंधोंको कर्म कहते हैं । यह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, गोत्र, नाम तथा अन्तरायके भेदसे आठ प्रकारका है । इन आठोंकी ही अष्टकर्म संज्ञा है । समुद्धात-आवास शरीरको बिना छोड़े ही आत्माके प्रदेशोंका बाहर फैल जाना तथा फिर उसी में समा जाना समुद्घात है । वेदना, कषाय, विक्रिया, मरण, तेज तथा कैवल्य के कारण ऐसा होता है । प्रत्येक बुद्ध-अपनी योग्यताके कारण दूसरोंके उपदेश आदिके बिना ही जो दीक्षा लें तथा कैवल्य प्राप्ति करें उन्हें प्रत्येक बुद्ध कहते बोधितबुद्ध-जो दूसरोंके उपदेशादि निमित्तसे दीक्षित हों तथा कैवल्य प्राप्ति करें उनकी संज्ञा बोधित-बुद्ध है । अंतरंग परिग्रह-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद तथा नपुंसकवेद यह १४प्रकारका अंतरङ्ग (आध्यात्मिक) परिग्रह है। बहिरंग परिग्रह-क्षेत्र, गृह, सुवर्ण, रूप्य, पशु, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र तथा पात्र ये दश प्रकारका बाह्य परिग्रह है। पौद्गलिक-गुणोंकी हीनता और अधिकताके कारण जा मिलें और अलग हों उन्हें पुद्गल, जड़ या अचेतनके कार्यादिको पौद्गलिक कहते हैं । उत्सेध-शरीरकी ऊंचाई, गहराई, बांध आदि का नाम है । रूपी-कृष्ण, नील, पीत, शुक्ल तथा रक्त ये पाँच रूप हैं । ये या इनमेंसे कोई जिसमें पाया जाय उसे रूपी पदार्थ कहते हैं । जिन 7 शासनमें जिसमें रूप होगा उसमें स्पर्श, रस तथा गन्ध अवश्य होंगे । अर्थात् वह पौद्गलिक ही होगा । [६७६] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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