Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 715
________________ अष्टांग नमस्कार-मस्तक, पीठ, उदर, नितम्ब, दोनों पैर तथा दोनों हाथ झुका कर प्रणाम करना । शेषिका-पूजाकी समाप्ति पर सविनय स्थापनाके पुष्प धूप दहनका धूम्र तथा दीपक शिखा आदिकी नति करना । महामह-मुकुटबद्ध मण्डलेश्वरादिके द्वारा जो विशेष पूजाकी जाती है उसे महामह कहते हैं । पण्डिताचार्यक मत से अष्टान्हिक पूजासे विशिष्ट होनेके कारण इसे महामह संज्ञा दी है। धर्मचक्र-कैवल्य प्राप्तिके बाद तीर्थंकरोंके लिए इन्द्र समवशरण रचना करते थे । इस समवशरणके सामने विशेष आकार प्रकार की ध्वजा चलती थी जिसकी संज्ञा धर्मचक्र थी । वास्तवमें चक्रका तात्पर्य होता है सब दिशाओंमें व्याप्ति फलतः सर्वत्र धर्मक प्रचारको ही धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। सुस्वर-शरीर निर्मापक 'नामकर्म' का भेद । जिसके उदयसे मधुर मोहक स्वर हो उसे सुस्वर कहते हैं। गृहस्थाचार्य-धर्म तथा आचार शास्त्रका ज्ञाता तथा चरित्रवान् सद्गृहस्थ । यह श्रावकोंकी समस्त क्रियाओंको जानते हैं और करा सकते हैं । अपने अध्ययन, विवेक और चरित्रके कारण गृहस्थोंके वास्तविक नेता होते हैं । पट्टक-वर्तमान पट्टा इसीका अपभ्रंश है । धर्म, अर्थ तथा कामके विशेष उत्सवोंके समय विशेष आकार-प्रकारके पट्टक बांधे जाते थे जिन्हें देखकर ही धारकके कार्यादिका ज्ञान हो जाता था । सर्ग २४ नियम-कुछ कालके लिए धारण की गयी प्रतिज्ञाको नियम कहते हैं । यम-जीवन पर्यन्तके लिए की गयी त्यागादिकी प्रतिज्ञाको यम कहते हैं । नय-तत्त्वके एक अंशी ज्ञान को नय कहते हैं । दैव-भाग्य अर्थमें प्रयुक्त होता है । वैदिक लोग तथा इतर धर्मानुयायी देव अथवा ईश्वर कृत होनेके कारण इसे दैव शब्दसे कहते हैं । किन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है । जीवके विधायक दैव तथा पुरुषार्थ दोनों ही, अपने कर्मोंसे प्राप्त जीवकी शक्तियों हैं । अन्तर केवल इतना है कि ज्ञात अथवा एक जन्मके कार्योंको पुरुषार्थ कहते हैं | अज्ञात अथवा जन्मांतरसे बद्ध (पुरुषार्थ) कर्मोंको दैव संज्ञा दी है। ग्रह-ज्योतिषी देवोंका प्रथम भेद । सूर्य-चन्द्रमा आदि । जगदीश्वर-कुछ वैदिक दर्शनोंमें तथा रवाष्ट, इस्लाम, आदि धर्मोके अनुयायी मानते हैं कि कोई सर्व शक्तिमान् इस जगतका स्वामी है वही इसके उत्पाद, स्थिति और विनाशका कर्ता है । नियति-संसारकी प्रत्येक हलचल निश्चित है फलतः इसे करने वाली कोई शक्ति है जिसे नियति कहते हैं । ये ईश्वरकी जगह नियतिको मानते हैं । जिनेन्द्र प्रभुके समान यह भी यह नहीं सोच सकते हैं कि प्रत्येक प्राणीके अपने कर्म ही उसके निर्माता आदि हैं । सांख्य-मले प्रकारसे जानने, समझनेको सांख्य कहते हैं फलतः जिस दर्शनमें संख्या (विवेक ख्याति) की प्रधानता है उसे सांख्य दर्शन कहते हैं । पुरुष-साक्षात् चैतन्य स्वरूप सृष्टिके साक्षी मात्र तत्त्वको पुरुष कहते हैं । यह स्वभावतः कैवल्य संपन्न है । यह अविकारी, कूटस्थ, नित्य तथा सर्व व्यापक है । अर्थात् यह विशेष विषयी, अकर्ता है । पुरुष अनेक हैं। Jain Education interational यामRADURGARIKाचार [६८२] For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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