Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 713
________________ अष्टशुद्धि-१ भाव, २ काय, ३ विनय, ४ इर्यापथ, ५ भिक्षा, ६ प्रतिष्ठापना, ७ शयनासन तथा ८ वाक्य, इस आठोंकी शुद्धि आदि अष्टगुण कहते हैं। षोडषम सर्ग वराङ्ग चरितम् षड्बल-बल शब्दके गन्ध, रूप, रस, स्थैर्य, स्थौल्य तथा सैन्यादि अर्थ होने पर हैं भी शारीरिक शक्ति, और सेना इन दोनों अर्थोंमें इसका अधिक प्रयोग हुआ है । जैसाकि कालिदासने लिखा है कि १-मौल सेना (स्थायी सेना), २-भृत्या (नयी सेना), ३- मित्रोंकी सेना, ४-श्रेणीके प्रधानोंकी सेना ५-शत्रुओंसे छीनी सेना तथा ६-आटविकों (जंगलियों) की सेना । छह प्रकारकी सेना लेकर रघुने दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया था । इसके सिवा १-हस्ति, २ अश्व, ३ रथ, ४ पदाति, ५ नौ तथा ६ विमानोंके भेदों में भी इसका प्रयोग हुआ सामादि-दण्ड व्यवस्था मोटे तौरसे चार प्रकारकी है-१ साम, २ दाम, ३ दंड तथा ४ भेद । यनासनादि-राजनीतिको षाडगण्य नीति कहा है । अर्थात इसमें १-सन्धि, २-विग्रह, ३-यान, ४-आसन, ५-वैध तथा ६-आश्रय नीतिका प्रयोग होता है । विजेय या विजिगीषुके साथ मैत्रीका नाम संधि है । सदल बल विरोधको विग्रह कहते हैं । शत्रुके विरुद्ध प्रस्थानकी संज्ञा यान है । कुछ समय तक चुप बैठनेको आसन कहते हैं । दुर्बल प्रबलके बीचमें चलने वाले वाचनिक समर्पणको द्वैधी भाव कहते हैं। घेरा डाल देनेका नाम आश्रय है । विद्याधर-साधित, कुल तथा जाति इन तीनों प्रकारकी विद्याओंके धारकोंको विद्याधर कहते हैं । जो विद्याएं अनुष्ठान करके सिद्धकी जाती हैं उनको साधित श्रेणीमें रखते हैं । जो पिता या पिताके वंश से मिलें उनको कुल विद्या कहते हैं। माता या माताके वंशसे मिलने वाली विद्याओंको जाति विद्याओंमें गिनते हैं । ये विद्याधर विजया पर्वतके दक्षिणी तथा उत्तरी ढालों (श्रेणियों) पर रहते हैं । सदैव इज्या, दत्ति, वार्ता, स्वाध्याय, संयम तथा तप इन छह कर्मोंमें लवलीन रहते हैं । शीलव्रत-शील शब्दका अर्थ स्वभाव तथा ब्रह्म है । ब्रह्मचर्यका पर्यायवाची होने पर भी पतिव्रतके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । पुरुषके लिए स्वदार संतोष और स्त्रीके शील व्रतकी व्यवस्था है । चार शिक्षाव्रत और तीन गुणव्रतोंको भी सप्तशील कहा है। अनागार धर्म-गृह त्यागीको अनगार कहते हैं । फलतः मुनिके धर्मको ही अनागार धर्म कहते हैं । सांकल्पी त्रस हिंसा-अभिसंधि पूर्वक त्रसोंका प्राण लेना संकल्पी-त्रस-हिंसा है । गृहस्थ आरम्भ तथा विरोधीकी हिंसासे नहीं बच सकता है किन्तु उसके परिणाम अपना कार्य करने तथा आत्म रक्षाके ही रहते हैं । वह ऐसा संकल्प नहीं करता कि मैं हल चला करत्रसोंको मारूं । अथवा सब शत्रुओंको मारूं । फलतः संकल्प पूर्वक प्राण लेना ही महा पाप है। भरत-भगवान ऋषभदेवके दो पत्नी थीं । एकके केवल बाहुबलि उत्पन्न हुए थे और दूसरी से भरत आदि ९८ पुत्र तथा ब्राम्ही सुंदर दो कन्याएं हुई थीं। १०१ बहिन भाइयोंमें भरत ही सबसे बड़े थे अतएव भगवानके दीक्षा लेकर बन चले जाने पर भरत जी ही अयोध्याके राजा हुए थे । इन्होंने छहों खण्डोंकी विजय की थी । और बहुत लम्बे समय तक राज्य किया था इस अवसर्पिणी युगके ये सबसे बड़े चक्रवर्ती थे । अन्तमें इन्हें वैराग्य हुआ, जिन दीक्षा ली और अन्तमुहूतमें कैवल्य प्राप्त करके मोक्ष गये । कृत्रिमाकृत्रिम बिम्ब-ऐसी मान्यता है कि नन्दीश्वर द्वीपादिमें कुछ ऐसे देवालय तथा प्रतिमा हैं जिन्हें किसीने नहीं बनवाया है। पर्वत, नदी, आदिके समान प्रकृतिने ही उनका निर्माण किया है । पौरुषेय और अपौरषेय मूर्तियोंको ही कृत्रिम-अकृत्रिम बिम्ब शब्दसे कहा । [६८०] Jain Education intemational For Private & Personal Use Only 'www.jainelibrary.org

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