Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 721
________________ ॥ तत्तत् पर्याय रूपसे पदार्थमें भेद करना समभिरूढ़ नय है यथा इन्द्रशक्र-पुरन्दरादि । ७-तत्तत् क्रियाके कर्ताको ही तत्तत् शब्दोंसे कहना एवंभूत नय है यथा पथ प्रदर्शन करते समय ही नेहरूको नेता कहना । निक्षेप-मूल पदार्थ होने पर प्रयोजनवश नामादि रूपसे अन्य पदार्थमें स्थापना करना निक्षेप है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भावकी अपेक्षा यह चार प्रकारका होता है । १-संज्ञा विशेषके लक्षण हीन पदार्थको वह संज्ञा देना नाम निक्षेप है यथा झूठे हिंसक स्वार्थी व्यक्तिको कांग्रेसी कहना | २-तदाकार अथवा अतदाकार पदार्थको पदार्थ विशेष रूप मानना यथा भद्दी मूर्तिको पार्श्वनाथ मानना । ३-आगे आनेवाली चरितम् योग्यताके आधार पर वर्तमानमें व्यवहार करना द्रव्य निक्षेप है, यथा जयप्रकाशनारायणको भारतका भावी प्रधानमन्त्री कहना । ४-जिस पर्याय युक्त व्यक्ति हो उसीरूपसे उसे मानना भाव निक्षेप है जैसे जवाहरलाल नेहरूको प्रधानमन्त्री मानना । ईश्वरेच्छा-नैयायिक जगत्कार्य, आयोजन, घृति, पद, आदिके कारण ईश्वरको सिद्ध करता है । यथा समवायि, असमवायि और निमित्त कारणके समान ईश्वरकी इच्छाको ही सृष्टिका उत्पादक, स्थापक और विनाशक मानता है । एकान्तवाद-पदार्थको नित्य ही, क्षणिक ही, माया ही आदि रूपसे एकाकार मानना ही एकान्तवाद है क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्मयुक्त होनेसे अनेकान्तवाद रूप है। प्रथमानुयोग-बारहवें अंग दृष्टिवादका तृतीय भेद । संयम ज्ञान कैवल्य आदि मय पवित्र जीवनियोंके साहित्यको प्रथमानुयोग कहते हैं । त्रेसठ शलाका पुरुषोंके जीवनादि कथा साहित्य द्वारा सहज ही तत्त्व ज्ञान करा देता है । उत्सर्पिणी-जिस-युग चक्रमें समस्त पदार्थ आदि वर्द्धमान हों उसे उत्सर्पिणी कहते हैं इसके उल्टे अर्थात् जिसमें सब बातें हीयमान हों उसे अवसर्पिणी कहते हैं । जैसे वर्तमान समय । आवलि-जघन्य युक्ता संख्यात प्रमाण समयोंको आवलि कहते हैं। सुषमा-प्रत्येक उत्-अवसर्पिणी कालके छह भेद होते हैं १-सुषमा-सुषमा ( चार सागर कोटाकोटि) २-सुषमा ( तीन सा० को०) ३-सुषमदुःषमा ( दो सा० को०) ४-दुःखमासुषमा ( ४२००० वर्ष कम एक सा० को०) ५-दुःषमा (२१ हजार वर्ष अभी चल रहा है ६-दुःषमादुःषमा (२१ हजार वर्ष )। मनु-तीर्थंकरोंके पहिले प्रजाका मार्ग दर्शन करनेवाले महापुरुषोंको कुलकर या मनु कहते हैं । प्रत्येक अवसर्पिणी चक्रके तीसरे कालके अन्तमें तथा उत्सर्पिणी चक्रके दूसरे काल ( दुःषमा ) के अन्तमें होते हैं । इस चक्रके सुषमादुःषमाके अन्तमें प्रतिश्रुति, सम्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमल, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित, नाभिराजादि हुए थे। षोडश भावना-आस्रव-बन्ध प्रकरणमें जहां विविध गतियोंके बन्धके कारण गिनाये हैं वहां पर तीर्थकरत्वके सविशेष पद होनेके कारण उसके बन्धके कारणभूत सोलह भावनाएं गिनायीं हैं। वे निम्न प्रकार हैं। १-रत्नत्रय स्वरूप वीतराग धर्ममें रुचि दर्शन-विशुद्धि है। २-शास्त्र गुरु आदिमें आदर बुद्धि विनयसम्पन्नता है । ३-अहिंसादि व्रत तथा शीलोंका निर्दोष पालन शीलव्रतेष्वनतिचार है । ४स्व तत्त्व जीवादिके ज्ञानमें लवलीनता अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग है । ५-संसारके दुखोंसे भय संवेग है । ६-यथा सामर्थ्य दान शक्तितस्त्याग है । ७जैनधर्मानुसार बिना कोर कसरके शरीर क्लेश सहना तप है । ८-उपसर्ग उपस्थित होने पर उसे सहना समाधि है । ९-गुणियों पर दुःख आने पर उसको दूर करना वैयावृत्य है । १०-१३-अर्हत-आचार्य-उपाध्याय-शास्त्रमें विशुद्ध मनसे अनुराग-भक्ति है । १४-षड् न आवश्यकोंका समयसे पालन आवश्यकपरिहाणि है । १५-ज्ञान, तपस्या तथा जिनपूजादि द्वारा धर्मका प्रचार प्रभावना है । १६-साधर्मी # पर सहज निस्वार्थ प्रेम प्रवचन-वात्सल्य है । Jain Education inational For Privale & Personal Use Only INSTEIRMIRELATEGETAR IAGAR [६८८] www.jainelibrary.org

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