Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 714
________________ चरितम् गर्भगृहादि-प्रत्येक जिनालयके आठ भाग होते थे ऐसा वास्तु शास्त्र भी कहता है तथा खजुराहो आदिके प्राचीन भग्नावशेष देखनेसे इसकी पुष्टि भी होती है १ गर्भगृह-देवालयके मध्यका वह भाग जिसमें मूर्तियाँ विराजमान की जाती हैं । २ प्रेक्षागृह-गर्भगृहसे लगा हुआ वह भाग जहांसे लोग दर्शन करते हैं। ३ बलिगृह-जहां पर पूजनकी सामग्री तैयार की जाती है तथा जहां पर हवनादि होते हैं। ४ अभिषेक वराङ्ग गृह-जहां पर पञ्चामृतसे देवताका स्नपन होता है | ५ स्वाध्याय गृह-जहाँ पर लोग शास्त्रोंको पढ़ते हैं । ६ सभा गृह-जहां पर सभाएं होती हैं मण्डप | ७ संगीत गृह-जहाँ पर संगीत नृत्यादि होता है । ८ पट्ट गृह-जहां पर चित्रादिकी प्रदर्शिनी होती है | अथवा जहां पर पूजनादिके वस्त्रादि संचित रहते हैं। जिनमह-मह शब्दका प्रयोग पूजाके लिए हुआ है अतः जिनमहका अर्थ साधारणतया जिन पूजा है इसीलिए पंडिताचार्य आशाधरजीने घरसे लायी सामग्री द्वारा पूजा, अपनी सम्पत्तिसे मन्दिरादि बनाना, भक्तिपूर्वक धर्मायतनको मकान, गाय, आदि लगाना, तीनों समय अपने घरमें भगवान की अर्चा करना तथा व्रतियोंको दान देनेको नित्यमह कहा है । इसके नन्दीश्वर पूजा, इन्द्रध्वज, सर्वतोभद्र, चतुर्मुख, महामह, कल्पद्रुम मह आदि अनेक भेद हैं । किमिच्छिक दान-पंडिताचार्यक मतसे जो महापूजा चक्रवर्तीक द्वारा की जाती है उसका एक अंग किमिच्छिक दान भी होता है। अर्थात् उपस्थित याचकसे पूंछते हैं क्या चाहते हो?' वह जो कहता है उसे वही दिया जाता है इस प्रकार दान देकर विश्वकी आशा पूर्ण करते हुए चक्रवर्ती कल्पद्रुम-मह करता है। नन्दिमूख-पूजाकी प्रारम्भिक विधिको कहते हैं । मंगल पाठ अथवा नाटकका प्रथम अंग । नैवेद्य-पूजाकी पाँचवी सामग्री । भोज्य सामग्री जिसे क्षुधारोगकी समाप्तिकी कामनासे जिनदेवको चढ़ाते हैं । अर्ध्य-जल, आदि आठों द्रव्योंकी सम्मिलित बलिको करते हैं । उपमानिका-मिट्टीके मंगल कलश तथा अन्त-स्तुति । अष्ट मंगल द्रव्य-छत्र, ध्वजा, कलश, चमर, आसन (ठोना), झारी, दर्पण, तथा व्यंजन ये आठों पूज्यता ज्ञापक बाह्य चिह्न अष्ट मंगलद्रव्य कहलाते हैं। स्नपन-जिन बिम्बको स्नान कराना । निवेश-गाढ कल्पना अथवा स्थापना । युद्धबीर-संग्राममें दक्ष यथा बाहुबलि, भरत आदि । धर्मवीर-धार्मिक कार्योंमें अग्रणी, सब कुछकी बाजी लगा कर अहिंसा, दया, आदिके पालक । प्रदक्षिणा-जिन मन्दिर, जिन बिम्ब आदि आराध्योंके बांयेसे दांये ओर चलते चलते चक्कर लगाना ये तीन होती हैं । वैसान्दुर-पूजनके समय धूप आदि जलानेके लिए लायी गयी अग्नि । वीजाक्षर-ओं, हां, ही, हूं आदि अक्षर जो मंत्रके संक्षिप्त रूप समझे जाते हैं इनके जाप का बड़ा माहात्म्य है । स्वस्तियज्ञ-पूजाका अन्तिम भाग जिसमें देश, राज्य, नगर, शासक आदिकी मंगल कामना होती है। यह वास्तवमें स्वस्ति पाठ होता - है । कल्याण, रोग, मरी, आदिकी शान्तिके लिए होने वाले यागादिको भी स्वस्ति यज्ञ कहते हैं । Jain Education Intemational 19 For Private & Personal Use Only [६८१] www.jainelibrary.org

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