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वराङ्ग चरितम्
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होता है उसे ज्ञायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । यतः इस अवस्थामें सम्यक्त्व प्रकृतिका वेदन होता है अतएव इसे वेदक सम्यक्त्व भी कहते हें। इसमें चल, मलिन और अगाढ़ दोष होते हैं ।
महाव्रत - हिंसा, झूठ, चोरी कुशील तथा परिग्रहके सर्वथा त्यागको पंच महाव्रत कहते हैं । इन्हें निर्ग्रन्थ साधु पाल सकते हैं । समिति - सावधान आचरणको समिति कहते हैं । इसके १ ईर्या दिनके प्रकाशमें चार हाथ आगे देख कर प्राशुक स्थानपर चलना, २ भाषा - हित, मित एवं प्रिय वचन बोलना, ३ एषणा शुद्ध भोजन पान, ४ आदान निक्षेप देखकर सावधानीसे वस्तु उठाना तथा रखना तथा ५ उत्सर्ग-जीव रहित स्थान पर मलमूत्र छोड़ना ये पाँच भेद हैं ।
परीषह - रत्नत्रयके मार्गकी साधनामें उपस्थित तथा सहे गये कष्टको परीषह कहते हैं। इसके २२ भेद है- १ जुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्णा, ५ दंशमशक ( डांस मच्छर ), ६ नग्नता, ७ अरति, ८ स्त्री अथवा पुरुष, ९ चर्या, १० निषद्या (आसन), ११ शय्या, १२, आक्रोश (गाली, निन्दादि), १३ वध, १४ याचना १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृणास्पर्श, १८ मल (शरीरका संस्कार न करना), १९ सत्कार पुरस्कार (अभाव) २० प्रज्ञा (ज्ञानमद), २१ अज्ञान (जन्य तिरस्कार खेद ) तथा २२ अदर्शन ( सम्यक्दर्शन न होना) । अणुव्रत - हिंसा, आदि पाँच पापोंका आंशिक अर्थात् स्थूल त्याग अणुव्रत कहलाता है। इनका श्रावकको अवश्य पालन करना
चाहिये ।
शम- किसी भाव या पदार्थको शान्त कर देना शम है ।
दम - किसी भाव अथवा क्रियाको बलपूर्वक रोक देना दम है ।
त्याग - किसी भाव या क्रियाको संकल्प पूर्वक छोड़ देना त्याग है ।
उपस्थान - किसी क्रिया या आचरणके दूषित अथवा खंडित अर्थात् छूट जाने पर उसके पुनः प्रारम्भको उपस्थान कहते है ।
अन्वय - वंशको अन्वय कहते हैं । आज अज्ञान वश यही अन्वय जाति हो गये हैं जैसा कि पंडिताचार्य आशाधरजीकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है, व्याघेर वालान्वया' 'व्याघ्रेरवाल वर वंश' आदि पद घोषित करते हैं। किन्तु संकीर्णता वश वघेरवाल वंश ही आज जाति बन गये हैं ।
छिद्र - रन्ध्र सूराख तथा दूषण अथवा दुर्बलताको कहते हैं ।
अनित्य- बारह भावनाओंमें से प्रथम भावना । संसारके प्रत्येक पदार्थकी अनित्यताका सोचना अनित्य भावना ।
एकत्व - यह प्राणी अकेला ही आता है, अपने आप ही अपने सुख-दुखको जुटाता है कोई दूसरा संग साथी नहीं, इत्यादि विचार ही एकत्व भावना है ।
वस्तु स्वाभाव - प्रत्येक वस्तुके असाधारण लक्षणको स्वभाव कहते हैं। जैसे जीवका चेतना, अग्निका दाहकत्त्व आदि । जिन शासनमें वस्तु स्वभाव ही सच्चा धर्म है ।
वात्सल्य - प्राणिमात्रके प्रति बिना किसी बनावटके सद्भाव रखना तथा यथायोग्य व्यवहार करना वात्सल्य है । साधर्मियोंके प्रति इसमें विशिष्टता रहती है ।
आप्त- भूख, प्यास आदि अठारह दोषोंका विजेता, जन्म, जरा आतङ्क, भय, ताप, राग द्वेष तथा मोहसे हीन महापुरुष ही आप्त होता है क्योंकि वह संसारकी वञ्चनासे बचाता है । For Private & Personal Use Only
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