Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 708
________________ बराङ्ग IRCHILDR द्वादशांग-श्रुतज्ञान दो प्रकारका है-१ अक्षरात्मक २ अनक्षरात्मक | अक्षरात्मक श्रुतज्ञान भी (१) अंग प्रविष्ट तथा (२) अंगबाह्यके भेदसे दो प्रकार का है। अङ्ग प्रविष्ट श्रुतज्ञान बारह भेदोंमें विभाजित है-१ आचारांग-मुनिधर्मक मूलगुणों तथा उत्तर गुणोंका वर्णन । २ सूत्रकृतांग-आगमके अध्ययन, प्रज्ञापन कल्पाकल्प, व्यवहारधर्म तथा स्व-पर समयका विवेचन | ३ स्थानाङ्ग-नय दृष्टिसे द्रव्योंके समस्त स्थान विकल्पोंका वर्णन । ४ समवायाङ्ग-द्रव्य, क्षेत्र, काल भावकी अपेक्षासे द्रव्योंकी समतादिका विवेचन । ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति-अस्ति-नास्ति, एकानेक, नित्या-नित्य साठ हजार प्रश्नोंकी दृष्टिसे जीव विवेचन । ६ ज्ञात धर्म कथांग-धर्मक सिद्धान्तोंको समझनेमें सहायक कथाओंका। चरितम् संचय । ७ उपासकाध्ययन-श्रावकाचारका विवेचन । ८ अन्तः कृद्दशांग-प्रत्येक तीर्थकालके उपसर्ग जेता दश मुनियोंका वर्णन | ९ अनुत्तरौपापादिक दशांग-प्रत्येक तीर्थ कालमें घोर तप करके पंचोत्तरोंमें जानेवाले दश मुनियोंका वर्णन । १० प्रश्न व्याकरण-जीवन मरण, जय पराजयादिकी जिज्ञासा रूप प्रश्नोंका उत्तर दाता निमित्त शास्त्र । ११ विपाक सूत्र-कर्मोक फलादिका विवेचन | १२ दृष्टिवाद-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिकाका विवेचन । चौदह पूर्व-बारहवें अंगका चौथा भेद पूर्वगत है, यह चौदह प्रकारका है-१ उत्पाद-द्रव्योंके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यादिका विशद विवेचन २ आग्रायणी-अस्तिकाय, द्रव्य, तत्व, पदार्थ तथा नयोंका निरूपण | ३ वीर्यानवाद-द्रव्यादिकी सामर्थ्यका वर्णन । ४ अस्तिनास्ति प्रवाद-प्रत्येक द्रव्यका स्याद्वादमय चित्रण । ५ ज्ञान प्रवाद-पाँचों ज्ञानों तथा तीनों कुज्ञानोंके स्वरूप, भेद, विषय तथा फलादिका निरूपण। ६ सत्यप्रवाद-अक्षर, भाषा शास्त्र । ७ आत्मप्रवाद-जीव तत्वका सांगोपांग सर्व दृष्टिसे निरूपण । ८ कर्मप्रवाद-बन्ध, उदय, सत्ता, गुणस्थानादिकी अपेक्षा से कर्मोंका विवेचन । ९ प्रत्याख्यान-त्याग शास्त्र । १० विद्यानुवाद-सात सौ अल्प तथा पांच सौ महा विद्याओं की सिद्धि अनुष्ठानादिका विवेचन । ११ कल्याणवाद-त्रेसठ शलाका पुरुषोंके जन्म, जीवन, तपस्या तथा चन्द्र सूर्यादिके शुभाशुभका विवेचन। १२ प्राणवाद-आयुर्वेद शास्त्र । १३ क्रिया विशाल-ललित कलाओं, स्त्री लक्षण, गर्भाधानादि सम्यक्दर्शनादि तथा वन्दनादि क्रियाओंका निरूपण । १४ त्रिलोक बिन्दुसार-तीनों लोकोंका स्वरूप, गणित तथा मोक्षका विवेचन । ध्यान-एक विषय पर चित्तको लगा देना ध्यान है । आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्लके भेदसे वह चार प्रकारका है । इष्ट वियोग, अनिष्ट । संयोग, रोग तथा किसी आकांक्षाको लेकर दुखमय होना आर्त-ध्यान है । हिंसा, झूठ, चोरी तथा परिग्रहकी कल्पनामें मस्त रहना रौद्र-ध्यान है। आगम, लोक कल्याण, कर्म विपाक तथा लोक संस्थानके विचारमें तन्मय हो जाना धर्म-ध्यान है । उत्तम संहनन धारीका शुद्ध आत्म । स्वभावमें लीन हो जाना शुक्ल-ध्यान है। पृथक्त्व वितर्क, एकत्व वितर्क. सक्ष्मक्रिया प्रतिपाति तथा व्युपरत क्रिया-निवर्ति ये चार अवस्थाएं शुक्ल ध्यान की होती है। अनशन-बाह्य तपका प्रथम भेद है । संयमकी प्राप्ति, काम विजय, कर्म क्षय तथा ध्यान सिद्धिके लिए फलाशा छोड़कर किया गया 5 उपवास ही अनशन है। अवमौदर्य-संयमकी साधना, निद्रा निवारण, स्वाध्याय ध्यानादिकी प्रगतिके लिए भूखसे कम खाना अवमौदर्य नामका दूसरा बाह्य तप है । साधारणतया मुनिको ३२ ग्रास भोजन करना चाहिये फलतः अवमौदर्यक पालकको ३२ ग्राससे भी कम खाना चाहिये। वृत्तिपरिसंख्यान-चर्याको जाते समय विशेष प्रतिज्ञाएँ करना तथा उनके पूर्ण होने पर ही आहार लेना अन्यथा निराहार रह जाना ही वृत्ति परिसंख्यान नामका तीसरा बाह्य तप है। रसपरित्याग-इन्द्रियोंकी दुर्दमता मिटानेके लिए, निद्रा विजय एवं स्वाध्यायमें स्थिरताके लिए घी, आदि गरिष्ट रोके त्यागको रसपरित्याग कहते हैं। . विविक्त शव्यासन-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय तथा ध्यानकी सिद्धिके लिए ऐसे एकान्त स्थान आदिमें सोना बैठना जिससे किसी प्राणीको । Jain Education International For Private & Personal Use Only [६७५] www.jainelibrary.org

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