Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 706
________________ वराङ्ग चरितम् श्रीवत्स - तीर्थंकरों या विष्णुके वक्षस्थल पर होनेवाला रामोंका पुष्पाकार चिन्ह तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंमें भी यह पुष्पाकार उठा हुआ बना रहता है । पल्य- का शब्दार्थ गढ़ा या खत्ता है। इनका पारिभाषिक अर्थ वह परिमाण या संख्या है जो एक विशेष प्रकारके पल्य ( खत्ते ) द्वारा निश्चित की जाती है यह (१) व्यवहार, (२) उद्धार तथा (३) अद्धाके भेदसे तीन प्रकारका है। वे निम्न प्रकार हैं- एक प्रमाण योजन ( २००० कोश ) व्यास तथा गहराई युक्त गढ़ा खोद कर उसमें उत्तम भोग-भूमिया मेढेके वालाग्रोंको भर दे । इस गढ़में जितन रेम आय उनमेंसे प्रत्येकको सौ, सौ वर्षमें निकाले । इस प्रकार जितने समयमें वह गढ़ा खाली हो जाय उसे 'व्यवहार पल्योपमकाल' कहेंगे । इसके द्वारा केवल संख्या बतायी जाती है । व्यवहार पल्यके प्रत्येक रोमके उतने हिस्से करो जितने असंख्यात कोटि वर्षके समय होते हैं। इन रोम खण्डोंसे भरा गढ़ा उद्धार पल्य कहलायगा । तथा प्रति समय एक एक रोम खंड निकालने पर जितने समयमें यह गढ़ा खाली होगा उसे 'उद्धार पल्योपमकाल' कहेंगे। इसके द्वारा द्वीप तथा समुद्र गिने जाते हैं । उद्धार पल्यके प्रत्येक रोम खंडके उतने टुकड़े करो जितने सौ वर्षमें समय होते हैं। इनसे जो गढ़ा भरा जायगा उसे अद्धा पल्य कहेंगे। तथा प्रति समय एक एक रोमच्छेद निकालने पर जितने समयमें वह गढ़ा खाली होगा उसे 'अद्धा पल्योपमकाल' कहेंगे। इसके द्वारा कर्मोकी स्थिति आयु आदि गिनायी जाती है । देवलोक - जहां पर भवनवासी, व्यन्तर, ज्यौतिषी तथा कल्पवासी देवोंका निवास है उस क्षेत्रको देवलोक कहते हैं। वह लोक रत्नप्रभा पृथ्वीके पंक बहुल भागसे प्रारम्भ होकर सर्वार्थसिद्धि या सिद्धिशिलाके नीचे तक फैला है। साधारणतया ऊर्ध्वलोक ( सुमेरुकी शिखाके एक बाल ऊंचाई से लेकर सिद्धशिलाके नीचे तक विस्तृत ) को देवलोक कहते हैं । नवम सर्ग वैमानिक - जिनमें रहने पर अपनेको जीव विशेष भाग्यशाली माने उन्हें विमान कहते हैं। विमानमें रहनेवाले देव वैमानिक कहलाते हैं । वैमानिक देव दो प्रकारके हैं। १ कल्पोपत्र तथा २ कल्पातीत । सौधर्म आदि सोलह स्वर्गौमें इन्द्र, सामानिक आदि दस भेदोंकी कल्पना है अतएव वे कल्प और वहां उत्पन्न देव कल्पोपन कहलाते हैं। इसके ऊपर ग्रैवेयकादिमें छोटे बड़ेके ज्ञापक इन्द्रादि भेद नहीं होते अतएव इन्हें कल्पातीत कहते हैं । सौधर्मादि - सोलह स्वर्ग कल्प हैं तथा नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पञ्च पंचोत्तर कल्पातीत हैं । वंशा- दूसरे नरककी भूमिका नाम है । इसकी मोटाई ३२००० योजन है । इसमें २१ पटल हैं। नारकियोंके निवास के लिए इसमें २५ लाख बिल हैं। वहां उत्पन्न होनेवाले नारकियोंकी जघन्य आयु १ सागर होती है और उत्कृष्ट ३ सागर होती है । कल्प - उन स्वर्गीको कहते हैं जिनके देवोंमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, आदि भेदोंकी कल्पना है। सौधर्मसे लेकर अच्युत पर्यन्त सोलह कल्प हैं । इसके ऊपरके देवोंमें उक्त भेदों के द्वारा छोटे बड़ेकी कल्पना नहीं है अतएव वे स्वर्ग कल्पातीत कहलाते हैं । इन्द्रक - स्वर्ग पटलोंके विमानोंकी व्यवस्थामें जो विमान मध्यमें होता है उसे 'इन्द्रक' कहते हैं। सोलह स्वर्गो में ऐसे विमानों की संख्या ५२ है तथा नौ ग्रैवेयकके ९, नौ अनुदिशोंका १ और पांच पञ्चोत्तरोंका १ मिलाने पर स्वर्गक समस्त इन्द्रक विमानोंकी संख्या ६३ होती है । श्रेणीबदूध- दिशाओं और विदिशाओंमें पंक्ति रूपसे फैले विमानों या नरकके बिलोंको श्रेणीबद्ध कहते हैं । प्रकीर्णक - श्रेणीबद्ध विमानों अथवा विलोके अन्तरालमें फूलोंकी तरह छितराये हुए विमानादिकोंको प्रकीर्णक कहते हैं । अकृत्रिम - जो मनुष्यके द्वारा न बनाया गया हो अर्थात् प्राकृतिक । पुराणोंमें वर्णन है कि आठ प्रकारके व्यन्तरों तथा पांच प्रकारके ज्योतिषी देवोंके स्थानोंमें अकृत्रिम जिनबिम्ब तथा जिन मन्दिर हैं। ऐसी निरवद्य मूर्तियोंकी संख्या ९२५५३२७९४८ है । τε For Private & Personal Use Only Jain Education International [६७३] www.jainelibrary.org

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