Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 704
________________ वराङ्ग चरितम् नपुंसक-मोहनीय कर्मक नोकषाय भेदका उपभेद है इसके उदयसे जीव न पुरुष होता है और न स्त्री । ईंटोंके आवेकी आगके समान उसकी रति-अग्नि अंदर ही अंदर सुलगती रहती है और परिणाम अत्यन्त कलुषित होते हैं । विभंग अवधिज्ञान-अवधि ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मोंके क्षयोपशमसे द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादा युक्त मिथ्यादष्टि ! जीवोंके ज्ञानको विभंग ( अवधि ) ज्ञान कहते हैं । विभंग या उल्टा इसलिए होता है कि इसके द्वारा जाना गया रूपी पदार्थोंका स्वरूप सच्चे देव, गुरु और आगमके विपरीत होता है । तीव्र कायक्लेशके निमित्तसे उत्पन्न होनेके कारण तिर्यञ्च और मनुष्योंमें गुण-प्रत्यय होता है तथा देव-नारकियोंमें भव-प्रत्यय होता है। अन्तर्मुहूर्त-कालद्रव्य के छोटेसे छोटे अंशका नाम 'समय' है । जघन्य युक्ता-संख्यात समयकीआवलि, संख्यात आवलिका १प्रतिविपलांश, ६०प्रति विपलांशका १प्रति विपल, ६० प्रति विपलका १ विपल, ६० विपल ( २४ सैकिण्ड ) का १ पल या विनाड़ी, ६० पल ( २४ मिनट) की १ घटिका या नाड़ी, २ घटिका ( अथवा ४८ मिनट) की १ मुहूर्त । एक समय कम मुहूर्त का १ उकृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। असाता-जिस कर्मक उदयसे जीवको आकुलता हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं, इसका दूसरा भेद असाता वेदनीय है । जिस कर्मक उदयसे दुःखकी वेदना हो असाता ( वेदनीय ) कहते हैं । सनत्कुमार-भवनवासी देवोंका पहिला प्रकार है । स्वयंभूरमण-मध्य या तिर्यञ्च लोकमें असंख्यात द्वीप तथा समुद्र हैं । प्रथम तथा द्वितीय द्वीप जम्बू और धातुकीको लवण तथा कालोदधि समुद्र घेरे हैं । इसके बाद जो द्वीपका नाम है वही समुद्रका भी है । दूसरे १६ द्वीपोंमें अन्तका ( अर्थात् ३२वां द्वीप) स्वयंभूरमण है इसे घेरनेवाला अर्थात् ३२वां समुद्र स्वयंभूरमण है । इसके पानीका स्वाद जलके ही समान है । इसमें भी जलचर तथा विकलत्रय जीव पाये जाते हैं । किनारेके पास ५०० योजन तथा बीचमें १००० योजन लम्बे मत्स्य पाये जाते हैं । इसकी गहरायी १००० योजन के लगभग है। अपवर्त्य-भोगी जानेवाली आयुका घटना या उलटना । विष, वेदना, शस्त्र आदिके द्वारा मृत्युको अपवर्त्य कहते हैं। षष्टम सर्ग कुभोगभूमि-लवण तथा कालोदधि समुद्रमें ९६ छोटे छोटे ( अन्तर ) द्वीप हैं । यही कुभोगभूमियां हैं । क्योंकि इनमें लम्बकर्ण, अश्वमुख, श्वानमुख युगलिये पैदा होते हैं । इनकी आयु १ कल्प होती है । ये मरकर देवगतिमें जाते हैं । सम्यक्त्व हीन केवल चारित्र धारी कुपात्रोंको दान देनेसे जीवों का कुभोगभूमिमें जन्म होता है। कर्मभूमि-जिन क्षेत्रों में मोक्षके कारण धर्म ( संयम ) का पालन होता है तथा जहां असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प तथा विद्याके द्वारा आजीविका की जाती है उसे कर्मभूमि कहते हैं । ढाई द्वीपमें ५ भरत ५ ऐरावत तथा ५ विदेह मिलकर १५ कर्म भूमियां हैं । विदेहमें सदा चौथा काल रहता है और मोक्षमार्ग खुला रहता है । भरत ऐरावतमें परिवर्तन होता रहता है । और चौथे कालमें ही मोक्षमार्ग खुलता है, शेष कालोंमें बन्द रहता है। पूर्वकोटि-८४ लाख वर्षका १ पूर्वाङ्ग तथा ८४ लाख पूर्वाङ्गका १ पूर्व होता है । करोड़ पूर्वको पूर्वकोटि शब्दसे कहा है। अण्डज-प्राणियोंके जन्म तीन प्रकारसे होते हैं । दूसरे प्रकारका जन्म अर्थात् गर्भ जन्म जिनके होता है उनमें अण्डज जीव भी हैं। जो जीव गर्भसे अण्डे द्वारा उत्पन्न हो उन्हें अण्डज कहते हैं जैसे-कछुआ, मछली, पक्षी, आदि । For Private & Personal Use Only FROFERRIAचन्यायालय [६७१] Jain Education International www.jainelibrary.org

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