Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 703
________________ वराङ्ग चरितम् इस लोकका कोई कर्ता-धर्ता नहीं है । षड् द्रव्यों तथा विशेष कर जीव द्रव्यकी चेष्टाओंके कारण यह उन्नत अवनत होता चलता है । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, चिह्न, कषाय, भव, भाव, पर्यायकी अपेक्षासे इसका विवेचन किया जाता है । राजु - जगत् श्रेणीके सातवें भागको राजु कहते हैं । लोकाकाश (१४ राजु ) की प्रदेश मात्र चौड़ी तथा मोटी आधी ( सात राजु) ऊंचाई को जगत् श्रेणी कहते हैं, इसके सातवें भागका नाम राजु ( रज्जु ) है। परमाणु सबसे सूक्ष्म स्थान - माप है । इसके बाद अवसन्नासन्न, आदि ९ माप बननेके बाद सरसों होता है। ८ सरसोंकी मोटाई १ यव (जौ) होता है। आठ जौकी मोटाई १ अंगुल होती है । ६ अंगुल ( उत्षेधांगुल) की लम्बाईका १ पाद होता है । २ पादकी १ वितति ( वालिश्त ) । २ विततिका १ हाथ (हस्त ) । २ हस्तका १ किष्कु (गज) । २ किष्कुका १ धनुष अथवा दण्ड होता है । २००० धनुषका १ क्रोश । ४ क्रोशका १ योजन । ५०० योजनका १ प्रमाण योजन । और असंख्यात प्रमाण योजनों का १ राजु होता है । ७ राजुकी जगत् श्रेणी होती है । धनोदधि - पूर्ण लोक तीन प्रकारके वायुमण्डलोंसे घिरा है । इनमें घनोदधि वातवलय पहिला है। घनोदधि वह वायु है जिसमें जलांश ( नमी ) रहता है। इसका रंग गायके मूत्रके समान है तथा लोक मूलसे लेकर १ योजनकी ऊँचाई तथा इसकी मोटाई २० हजार योजन है । इसके बाद ज्यों ज्यों ऊपर जाइये त्यों त्यों मोटाई घटती जाती है और सातवीं पृथ्वीके पास केवल ७ योजन रह जाती है । लोकमध्यमें केवल ५ राजु रह जाती है। इसके बाद बढ़ती हुई घनोदधि वात वलय की मोटाई ब्रह्म स्वर्गके पास सात योजन है । फिर घटती है और ऊर्ध्वलोकके पास ५ योजन होती हुई लोकाग्रमें केवल दो कोश रह जाती है । धन-लोकको घेरनेवाले दूसरे वायुमण्डलका नाम घन वातवलय है। यह वायु मण्डल ठोस है। इसका रंग मूंगके समान है। घनोदधि वात वलयके समान इसकी भी मोटाई क्रमशः २० हजार योजन, ५ योजन, ४ योजन तथा १ क्रोश मात्र है । तनु-लोकको घेरनेवाले तीसरे वातवलयका नाम तनु वातवलय है । यह बहुत ही हल्की वायु है । इसका रंग नाना प्रकारका है। घनोदधि वातवलयके समान इसकी भी मोटाई क्रमशः २० हजार योजन, ४ योजन, ३ योजन, ४ योजन, ३ योजन तथा कुछ कम १ क्रोश मात्र है। ये तीनों वातवलय एक प्रकारसे लोकके धारक हैं । योजन - अनन्तानन्त परमाणुओंसे 'अवसन्नासन्न' स्कन्ध बनता है, ८ अवसन्नासन्नका १ सन्नासन्न, ८ सन्नासन्नका १ तटूरेणु, ८ तटूरेणुका १ त्रसरेणु, ८ त्रसरेणुका १ रथरेणु, ८ रथरेणुका १ वालाग्र ( उत्तम भोगभूमिया मेढ़ेका ), ८ वालाग्रका १ (मध्यमभोगभूमिया मेढ़ेका ) वालाग्र, ८ ( मध्य. भो. ) वालग्रका १ ( कर्मभूमिया मेढ़ेका ) वालाग्र, ८ ( कर्मभू० ) वालाग्रकी १ लीक, ८ लीककी मोटाईकी १ सरसों, ८ सरसोंकी मोटाई का १ यव, ८ यवकी मोटाई का १ अंगुल, ६ अंगुलका १ पाद, २ पादकी १ वितति ( वालिश्त ), २ वितति का १ हस्त, २ हस्तका १ किष्कु, २ किष्कु का १ धनुष या दंड, २००० धनुषका १ क्रोश ४ क्रोशका १ योजन होता है । चारों गतियोंके जीवोंके शरीरों देवोंके नगर, मंदिर आदिका माप इसी योजन द्वारा है । गव्यूति - दो क्रोशकी १ गव्यूति होती है । अथवा आधे योजनको गव्यूति कहते हैं । क्रोश- ५ नत्वका अर्थात् ( ४०० किष्कु x ५ ) २००० धनुषका १ क्रोश होता है । पटल- छत या चंदोवेको पटल कहते हैं, किन्तु शास्त्रोंमें इसका प्रयोग स्तर या प्रदेश मात्र मोटाई युक्त लम्बे चौड़े विस्तार के लिए हुआ है। संस्थान - शरीरका आकार निर्मापक कर्म । इसके मुख्य भेद छह हैं, १ समचतुष्क अर्थात् सुडौल आनुपातिक शरीर, २ न्यग्रोध परिमंडल -- कमरके ऊपर भारी और नीचे हल्का शरीर, ३ स्वाति-कमरके नीचे वामीकी तरह भारी और धड़ हल्का, ४ कुब्जक- कुबड़ा, ५ वामन - अर्थात् बोना और ६ हुण्डक-बेडौल अष्टावक्र शरीर । For Private & Personal Use Only Jain Education International [६७०] www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726