Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 701
________________ वराङ्ग चरितम् Jain Education International परिणत कर्म परमाणुओंका एक निश्चित मात्रामें आत्माकै प्रदेशकि साथ एकमेक हो जाना ही प्रदेश बन्ध है । देशावधि - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादाओंके साथ रूपी पदार्थके प्रत्यक्ष ज्ञाता ज्ञानको अवधि ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं १ - भव प्रत्यय, जैसे देव, नारकियों तथा तीर्थकरोंका अवधिज्ञान, २-क्षयोपशम-निमित्त अर्थात् सम्यक्दर्शन और तपके द्वारा पर्याप्त मनुष्य अथवा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोक होनेवाला अवधिज्ञान । इनमें प्रथम प्रकार का अवधिज्ञान देशावधि ही होता है और दूसरा देशावधि भी होता है । अर्थात् देश, द्रव्य, काल, भाव की मर्यादाओंके साथ रूपी पदार्थको देशरूपसे प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञानको देशावधि कहते हैं। इसका विषय (ज्ञेय ) थोड़ा होता है तथा यह छूट भी सकता है । परमावधि - उपरि उक्त मर्यादाओंके साथ पदार्थको अधिकतर रूपसे जाननेवाले क्षयोपशम निमित्तक अवधि ज्ञानको परमावधि कहते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की वृद्धि हानिकी अपेक्षा इसके असंख्यात भेद होते हैं । यह मध्यम अवधि ज्ञान है तथा इसके धारी तद्भव- मोक्षगामी होते हैं। नोकषाय - साधारण शक्ति युक्त कषायको नो ( ईषत् ) कषाय कहते हैं । यह हास्य, आदिके भेदसे नौ प्रकार की है । शील - साधारणतया शील शब्दका प्रयोग पातिव्रत तथा पत्नीव्रत अथवा ब्रह्मचर्यके लिए हुआ है । किन्तु जैन दर्शनमें तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंके लिए भी सप्तशील संज्ञा दी है। दिग्विरति, देशविरति तथा अनर्थदण्डविरति ये तीन गुणव्रत हैं। सामयिक प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग- परिमाण तथा अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं । कबलाहार - कवल ग्रासको कहते हैं। महाव्रतीके लिए नियम है कि वह ग्रासोंमें आहार ले । तथा ऐसे ग्रासोंकी संख्या ३२ के ऊपर नहीं जाती । केवलीके चारों घातिया नष्ट हो जानेसे क्षुधादि नहीं रहते फलतः वे कवलाहार नहीं करते किन्तु श्वेताम्बर केवलीके भी कवलाहार मानते हैं । स्याद्वाद - प्रत्येक वस्तु, अनेक धर्म युक्त है । यतः शब्दोंको क्रमशः ही कहा जा सकता है अतः किसी पदार्थक सब धर्मोंको युगपत् कहना अशक्य है । तथा एक शब्द द्वारा बताये गये धर्मको ही उस वस्तुका पूर्ण रूप समझ लेना भी भ्रान्ति है । अतएव किसी वस्तुके एक धर्म को कहते हुए उसके अन्य धर्मोका 'संकेत करनेके लिए उस धर्मके पहिले 'स्यात्' लगाया जाता है । इस स्यात्के व्यवहारको ही 'स्याद्वाद' कहते हैं । इसके सात मुख्य भेद ( भंग ) हैं । १ स्याद् अस्ति अर्थात् स्व द्रव्य क्षेत्र काल, भाव की अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ हैं।' २ - स्याद् नास्ति पर द्रव्य, आदि की अपेक्षा नहीं है । ३ - स्याद् अस्ति नास्ति, उक्त दोनों दृष्टियों से देखनेपर पदार्थ है भी और नहीं भी है । ४-स्यात अवक्तव्य - उक्त दोनों दृष्टियोंसे युगपत् देखने कहनेपर पदार्थ अवक्तव्य है; कहा नहीं जा सकता है। ५- स्यादस्ति अवक्तव्य; क्योंकि उक्त दृष्टि होते हुए भी स्व द्रव्यादिकी अपेक्षा अवश्य है ६ - स्यान्नास्ति अवक्तव्य -- अवक्तव्य होते हुए भी पर द्रव्यादिकी अपेक्षा नहीं ही है ७ - स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य- क्योंकि युगपत् अनिर्वचनीय होते हुए भी अस्ति नास्ति स्वरूप है ही । इन सातों दृष्टियोंसे पदार्थके नित्यत्वादि गुणोंका भी विचार होता है । साकूत - अभिप्राय या संकेतको आकूत कहते हैं अतएव साकूतका अर्थ अभिप्राय दुर्वर्ण- अशोभन रूप युक्त । अथवा नीच जातिका अथवा कुत्सित अक्षरों युक्त । अयशःकीर्ति - नाम कर्मका प्रभेद । जिसके उदयसे संसारमें अपयश या प्रवाद हो उसे अयशः कीर्ति नाम-कर्म कहते हैं । शुभ नाम कर्म का भेद । इसके उदयसे शरीर आदि सुन्दर होते हैं । सुस्वर - नामकर्मका भेद । इसके उदयसे प्राणीका कण्ठ मधुर-मनोहारी होता है । For Private & Personal Use Only युक्त है । [ ६६८] www.jainelibrary.org

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