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वराङ्ग चरितम्
१-एकान्त, २-विपरीत, ३-संशय, ४-वैनयिक तथा ५-अज्ञानके भेदसे भी पांच प्रकारका बताया है । यह कर्मबन्ध या संसारका प्रधान कारण है।
अविरति-पांच पापोंसे विरक्त न होनेको अथवा व्रतोंको न धारण करनेकी अवस्थाको अविरति कहते हैं । यह पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा त्रस इन षट्कायों तथा स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र तथा मन इन षट्करणोंकी अविरतिके भेद से १२ प्रकारकी होती है।
प्रमाद-चारित्र मोहनीय कर्मक उदयके कारण आगमोक्त आवश्यकादि करनेमें असमर्थ होनेके कारण उनका अन्यथा प्रतिपादन करना तथा मूर्खता, दुष्टता और आलस्यके कारण शास्त्रोक्त विधियोंकी अवहेलना करना ही प्रमाद है । चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रियाँ, निन्दा तथा स्नेहके भेदसे प्रमाद १५ प्रकारका है । मुनिके लिए ५ समिति, ३ गुप्ति, ८ शुद्धि तथा १० धर्मोका अनादर अथवा अन्यथा-करणसे प्रमादके अनेक भेद होते हैं।
कषाय-बड़ आदिके कषाय (दूध ) के समान होनेके कारण क्रोधादिको कषाय कहते हैं । इन्हीं के कारण आत्मा पर कर्म रज चिपकती है अथवा जो आत्माके गुणोंको नष्ट करते ( कषति, हिंसन्ति, प्रन्ति ) हैं उन्हें कषाय कहते हैं । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया-लोभके भेदसे कषाय १६ प्रकारकी हैं तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीपुं-नपुंसक वेदके भोदसे नोकषाय नौ प्रकारकी है । इस प्रकार कुल मिलाकर कषायके २५ भेद हैं ।।
योग-काय, वचन और मनकी हिलन-डुलनको योग कहते हैं । अथवा आत्माके प्रदेशोंकी सक्रियताका नाम योग है । फलतः कर्म अथवा नोकर्मोको ग्रहण करने की आत्माकी शक्ति ही भाव-योग है। तथा इसके निमित्तसे होनेवाली काय, वचन और मनकी चेष्टाएं द्रव्य-योग । यतः काय, वचन और मनके निमित्तसे आत्मप्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है अतः योग भी तीन प्रकारका है।
योग शब्दका प्रयोग ध्यानके लिए भी हुआ है । इसीलिए पण्डिताचार्य आशाधरजीने देश संयमीको समझाते हुए लिखा है कि प्रारब्धयोगी, घटमान-योगी तथा निष्पन्न-योगीके समान देश संयमी भी होता है। अर्थात् १-जिनकी ध्यानकी साधना प्रारम्भ हुई है वे प्रारब्ध योगी है, २-जिनकी साधना भले प्रकारसे बढ़ रही है वे घटमान योगी हैं और ३-जिनकी साधना पूर्ण हो गयी है वे निष्पन्न योगी हैं।
प्रकृतिबंध-योगोंके द्वारा कार्माण वर्गणाएँ आत्मासे बंधती हैं । तथा वे ज्ञान, दर्शनको रोकना, सुख दुःखादिका अनुभव कराना आदि स्वभाव धारण करती हैं इसे ही प्रकृतिबंध कहते हैं । अर्थात् त्रियोगसे आकृष्ट और बद्ध कार्माण वर्गणाओंका ज्ञान-दर्शनावरणादि रूप से बंटना प्रकृतिबन्ध है । इसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय आठ मुख्य भेद हैं । प्रभेद १४८ हैं । आयुकर्मके सिवा शेष सातकर्मोंका प्रकृतिबन्ध संसारी जीवके सदैव होता रहता है ।
स्थितिबंध-प्रकृति या स्वभावसे स्खलित न होनेको स्थितिबन्ध या आयु कहते हैं । अर्थात् तीव्र मन्द या मध्यम कषायोंके कारण जितने समय तक कार्माण वर्गणाएं आत्मासे बन्धी रहें वह उनकी स्थिति (आयु ) कहलायगी । आदिके तीन कर्मों (ज्ञान-दर्शनावरण तथा वेदनीय ) ३० कोड़ाकोड़ि सागर, मोहनीय की ७० कोड़ाकोड़ि सागर, आयुकर्म की ३३ कोड़ाकोड़ि सागर तथा नाम, गोत्र, अन्तराय कर्मोको २० कोड़ाकोड़ि सागर उत्कृष्ट स्थिति है । वेदनीयकी १२ मुहुर्त, नाम-गोत्रकी ८ मुहूर्त तथा शेष पांचों कर्मों की अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थिति
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अनुभाग बंध-बन्धी कार्माण वर्गणाओंके रस या फलको अनुभाग कहते हैं । कषायों की तीव्रता, मन्दता, आदिके कारण कर्मभूत पुद्गलोंमें जो तीव्र या मन्द फल देनेका सामर्थ्य आता है उसे ही अनुभाग बन्ध कहते हैं।
प्रदेशबंध-बंधते हुए कर्म पुद्गलोंके परिमाण या प्रदेश संख्याको प्रदेशबन्ध कहते हैं । योगके कारण आकृष्ट तथा विविध प्रकृति रूप
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