Book Title: Varangcharit
Author(s): Sinhnandi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 698
________________ वराङ्ग चरितम् A ऊपर जाने पर ज्योतिष्क लोक प्रारम्भ होता है और ९०० योजन की ऊँचाई पर समाप्त होता है। ये सर्य चन्द्रादि समेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करते हुए मनुष्य लोकके ऊपर घूमते हैं तथा इन्हींके द्वारा दिन, रात्रि, आदि समयका विभाग होता है । विशेषता यही है कि ये मनुष्यलोकके बाहरके आकाशमें स्थित हैं। देश-जीव आदि तत्वोंके ज्ञानके प्रकारोंको बताते हुए यह भी कहा है कि अस्तित्व, भेद, क्षेत्र ( वर्तमान निवास देश ), त्रिकालवर्ती निवास, मुख्य तथा व्यवहार काल, भाव और तारतम्य की अपेक्षा इनका विचार करना चाहिये । अर्थात विविध देशों और कालोंकी अपेक्षा समस्त पदार्थोंमें परिवर्तन-परिवर्द्धन होते हैं । फलतः जो एक देश और कालके लिए उपयोगी था वही सर्वत्र सर्वदा नहीं हो सकता । क्षायिक-जो भावादि कर्मों में क्षयसे होते हैं उन्हें क्षायिक भाव, आदि कहते हैं । क्षायिक भाव सम्यक्त्व, चरित्र, दर्शन ज्ञान, दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्यक भेदसे नौ प्रकार के हैं । स्वर्ग-जैन भूगोलके अनुसार यह लोक तीन भागों और चार योनियोंमें बँटा है । देवयोनिके चौथे भेद अर्थात् कल्पवासी देव ऊर्ध्व लोकके जिस भागमें रहते हैं उसे स्वर्ग कहते हैं । तथा ये स्वर्ग १६ हैं । ये सोलह स्वर्ग भी १-सौधर्म-ऐशान, २-सनत्कुमार-माहेन्द्र, ३-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, ४-लान्तव-कापिष्ठ, ५-शुक्र-महाशुक्र, ६-शतार-सहस्रार, ७-आनत-प्राणत तथा ८-आरण-अच्युत-युगलोंमें बँटे हुए इन्द्र-अन्य देवोंमें अप्राप्त अणिमा आदि गुणों के कारण जो देवलोक में सबसे अधिक प्रतापी तथा कान्तिमान होते हैं उन्हें इन्द्र कहते हैं । ये देवोंके राजा होते हैं । उक्त सोलह स्वर्गोंमें प्रारम्भके चार स्वोंमें ४ इन्द्र होते हैं । ब्रह्मसे लेकर सहस्रार पर्यन्त आठ स्वर्गों में । ४, तथा अन्तके चार स्वर्गों में ४, इस प्रकार कुल मिलाकर १२ इन्द्र होते हैं। उनके नाम निम्न प्रकार हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्म, लान्तव, शुक्र, शतार, आनत, प्राणवत, आरण तथा अच्युत । मध्यलोकके बीच में सुमेरु पर्वत खड़ा है । पृथ्वीके ऊपर उसकी ऊँचाई ९९ हजार योजन है । सुमेरुकी शिखरकी ऊँचाई चालीस योजन है । जहाँ सुमेरुकी शिखर समाप्त होती है उसके ऊपर एक बाल भर बढ़ते ही ऊर्ध्वलोक प्रारम्भ हो जाता है । अर्थात् यहींसे सुधर्म स्वर्ग प्रारम्भ हो जाता है। नरक-सुमेरु पर्वतकी जड़ भूमि में एक हजार योजन है । इसके नीचे अधोलोक प्रारम्भ होता है । यह सात पटलोंमे बँटा है जिनके 7 नाम १-रत्नप्रभा, २-शर्कराप्रभा, ३-बालुकाप्रभा, ४-पंकप्रभा, ५-धूमप्रभा, ६-तमःप्रभा तथा ७-महातमःप्रभा हैं। जो प्राणी बहुत-आरम्भ । परिग्रह करते हैं वे मरकर यहाँ उत्पन्न होते हैं । इनके शरीरका वर्ण, भाव, शरीर, वेदना तथा विक्रिया अशुभ होते हैं । तथा ज्यों-ज्यों नीचे जाइये त्यों त्यों लेश्या आदिकी कुत्सितता बढ़ती ही जाती है एक दूसरे को दुःख देते ही इनकी लम्बी जिन्दगी बीतती है। तिर्यच-देव नारकी तथा मनुष्योंके सिवा शेष संसारी जीवोंको तिरछे 'चलनेके कारण तिर्यञ्च कहते हैं । अथवा इनमें कुटिलता होती है अतः इन्हें तिर्यश्च कहते हैं । इनमें पशु-पक्षीसे लेकर एकेन्द्रिय वृक्षादि तक सम्मिलित हैं । देव आदिके समान इनका लोक अलग नहीं है क्योंकि ये समस्त लोकमें फैले पड़े हैं। इन्हें कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान नहीं होता | आहार मैथुनादि होने पर भी प्रभाव, सुख, धुति लेश्या, आदि इनके निकृष्ट होते हैं । सामान्य रूपसे जिनमें माया अधिक होती है वे मर कर तिर्यञ्च होते हैं। _ मनुष्य-नित्य मननशील, कर्तव्य-अकर्तव्य विवेक धारी, प्रबल मनोबल विभूषित तथा अडिग उपयोगवान प्राणी मनुष्य कहलाते हैं। ये सब पञ्चेन्द्रिय संज्ञी होते हैं । जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड तथा पुष्करार्द्ध में ये पाये जाते हैं । इनके प्रधान भेद आर्य और म्लेक्ष हैं । जो A आर्य खण्डमें उत्पन्न होते हैं वे आर्य कहलाते हैं तथा म्लेच्छ खण्डमें उत्पन्न लोग म्लेच्छ कहलाते हैं । ऊपर लिखे ढाई द्वीपोंमें लवण समुद्र तथा कालोदधि मिला देने पर मनुष्य लोक हो जाता है यह मनुष्यलोक लोकके मध्यमें स्थित है तथा इसका व्यास ४५ लाख योजन ___Jain Education international ८ ५ For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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